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करने दे। यहाँ पर मूँछ एवं दाढ़ी के बालों का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मुखवस्त्रिका के कारण उसके दाढ़ी एवं मूँछों के बाल दिखाई नहीं देते हैं और चादर एवं चोलपट्टक नहीं होने के कारण कुक्षि एवं गुप्तांगों के बाल परिलक्षित हो रहे हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सर्वथा नग्न रहने वाले जिनकल्पी मुनि भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण रखते थे।
इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को गृहस्थ से उपरोक्त क्रियाएँ नहीं करवानी चाहिए। क्योंकि यह कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए साधु मन, वचन और शरीर से इनका आसेवन न करे । और बिना किसी विशेष कारण के परस्पर में भी उक्त क्रियाएँ न करे। क्योंकि दूसरे साधु के शरीर आदि का स्पर्श करने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है और स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण समय यों ही नष्ट हो जाता है। अतः साधु को परस्पर में मालिश आदि करने में समय नहीं लगाना चाहिए। परन्तु विशेष परिस्थिति में साधु अपने साधर्मिक साधु की मालिश आदि कर सकता है, उसके घावों को भी साफ कर सकता है। अस्तु, यह पाठ उत्सर्ग मार्ग से संबद्ध है और उत्सर्ग मार्ग में साधु को परस्पर में ये क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। ( हिन्दी टीका, पृ. १३३५-१३३६)
सूत्र ३४० में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ शुद्ध या अशुद्ध मंत्र से या सचित्त वस्तुओं से चिकित्सा करे तो साधु उसकी अभिलाषा न रखे और न उसके लिए वाणी एवं शरीर से आज्ञा दे। जिस मंत्र आदि की साधना या प्रयोग के लिए पशु-पक्षी की हिंसा आदि सावद्य क्रिया करनी पड़े उसे अशुद्ध मंत्र कहते हैं और जिसकी साधना एवं प्रयोग के लिए सावध अनुष्ठान न करना पड़े उसे शुद्ध मंत्र कहते हैं परन्तु साधु उभय प्रकार की मंत्र चिकित्सा न करे और न अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए सचित्त औषधियों का ही उपयोग करे। वह प्रत्येक स्थिति में अपनी आत्म-शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करे । वेदनीय कर्म के उदय से उदित हुए रोगों को समभावपूर्वक सहन करे। वह यह सोचे कि 'पूर्व में बँधे हुए अशुभ कर्म के उदय से रोग ने मुझे आकर घेर लिया है। इस वेदना का कर्त्ता मैं ही हूँ। जैसे मैंने हँसते हुए इन कर्मों का बंध किया है उसी तरह हँसते हुए इसका वेदन करूँगा । परन्तु इनकी उपशान्ति के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं दूँगा और न तंत्र-मंत्र का सहारा ही लूँगा ।' (हिन्दी टीका पृ. १३३९)
॥ षष्ठ सप्तिका समाप्त ॥
॥ त्रयोदश अध्ययन समाप्त ॥
Elaboration-This chapter gives direction to avoid all and every service offered by a householder to an ascetic including cleaning of the body, massage, anointing and dressing wounds. One purpose for this is that an ascetic is an independent seeker therefore he should not become dependent on others. He should do all his work with his own hands. To do shram ( labour) is to justify his being called a shraman. The other purpose being-accepting services from householders increases desire for physical comforts. Devotion for ascetics inspires
पर- क्रिया - सप्तिका : त्रयोदश अध्ययन
( ४६७ ) Para-Kriya Saptika: Thirteenth Chapter
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