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अन्योन्यक्रिया-सप्तिका : चतुर्दश अध्ययन
आमुख
+ चौदहवें अध्ययन का नाम ‘अन्योन्यक्रिया-सप्तिका' है। + साधुओं या साध्वियों की परस्पर एक-दूसरे से (त्रयोदश अध्ययन में वर्णित पाद, काय, व्रणादि परिकर्म-सम्बन्धी पर-क्रिया) परिचर्या लेना अन्योन्यक्रिया कहलाती है। इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया का इस अध्ययन में निषेध होने के कारण इसका नाम अन्योन्यक्रिया रखा गया है। (वृत्ति, पत्रांक ४१७; चूर्णि, पृ. २५०) साधु जीवन में उत्कृष्टता और तेजस्विता, स्वावलम्बिता एवं स्वाश्रयिता लाने के लिए 'सहाय-प्रत्याख्यान' और 'संभोग-प्रत्याख्यान' अत्यन्त आवश्यक है। + भगवान ने उत्तराध्ययनसूत्र में बताया है-सहाय-प्रत्याख्यान से अल्प-शब्द, अल्प-कलह,
अल्प-प्रपंच, अल्प-कषाय, अल्पाहंकार होकर साधक संयम और संवर-बहुल बन जाता है। संभोग-प्रत्याख्यान से अधिक आलम्बनों का त्याग करके निरालम्बी होकर मन-वचन-काय को आत्म-स्थित कर लेता है, स्वयं के लाभ में संतुष्ट रहता है, पर द्वारा होने वाले लाभ की इच्छा नहीं करता, न पर-लाभ को ताकता है, इसके लिए न प्रार्थना करता है, न इसकी
अभिलाषा करता है। वह द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त कर लेता है। + अन्योन्यक्रिया की वृत्ति साधक में जितनी अधिक होगी, उतना ही वह परावलम्बी, पराश्रयी,
परमुखापेक्षी और दीन-हीन बनता जायेगा। इसलिए इस अध्ययन की योजना की गई है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के मत से इस अध्ययन में निरूपित ‘अन्योन्यक्रिया' का निषेध (जिनकल्पी मुनि और जिन) एवं प्रतिमा-प्रतिपन्न साधुओं के उद्देश्य से किया गया है। “अण्णमण्णकिरिया दो सहिता अण्णमणस्स पगरंति, ण कप्पति एवं चेव एवं पुण पडिमा पडिवण्णाणं जिणाणं च ण कप्पति। थेराणं किं पि कप्पेज कारणजाए। बुद्ध्या विभासियव्यं।" वास्तव में, गच्छनिर्गत साधुओं का जीवन स्वभावतः निष्प्रतिकर्म एवं अन्योन्यक्रिया-निषेध में अभ्यस्त होता है। गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधुओं के लिए यतनापूर्वक अन्योन्यक्रिया कारणवश उपादेय हो सकती है।
आचारांग सूत्र (भाग २)
( ४७० )
Acharanga Sutra (Part 2)
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