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CENSURE OF RECIPROCAL SERVICE
342. Reciprocal and inter-related service (all including wiping of feet) amongst ascetics is cause of bondage of karmas, therefore an ascetic should avoid that anyonya-kriya with mind, speech and body.
343. In case some ascetics wipe the feet of another ascetics once just a little or properly clean by wiping many times, they should avoid that anyonya-kriya with mind, speech and body. All other details should be read as the text mentioned in the thirteenth chapter.
244. This (renouncing anyonya-kriya) is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni. And so should he pursue with self-regulations believing these to be beneficial for him.
-So I say. विवेचन-अन्योन्यक्रिया परस्पर दो साधुओं या दो साध्वियों को लेकर होती है। जहाँ दो साध परस्पर एक-दूसरे की परिचर्या करें या दो साध्वियाँ परस्पर एक-दूसरे की परिचर्या करें, वहीं अन्योन्यक्रिया होती है। इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया गच्छ-निर्गत प्रतिमा-प्रतिपन्न साधुओं और जिन (वीतराग) केवली साधुओं के लिए अकल्पनीय या अनाचरणीय है। गच्छगत-स्थविरों को कारण होने पर कल्पनीय है। फिर भी उन्हें इस विषय में यतना करनी चाहिए।
स्थविरकल्पी साधुओं के लिए विभूषा की दृष्टि से अथवा वृद्धत्व, अशक्ति, रुग्णता आदि कारणों के अभाव में, शौक से या बड़प्पन-प्रदर्शन की दृष्टि से चरण-सम्मार्जनादि सभी का नियमतः निषेध है, कारणवश अपनी बुद्धि से यतनापूर्वक विचार कर लेना चाहिए। निशीथ (१५) में 'विभूसावडियाए' पाठ है, अतः सर्वत्र विभूषा की दृष्टि से इन सबका निषेध समझना चाहिए। (निशीथ चूर्णि ३१५)
आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने भी यही अर्थ किया है कि आगम में गुरु साधर्मिक आदि की वैयावृत्य करने का बताया है। अतः यहाँ वैयावृत्य की भावना से गुरु आदि की सेवा का निषेध नहीं है, किन्तु साधु परस्पर एक-दूसरे को ऐसा न कहे कि तू मेरे पैर दबा, मैं तेरे पैर दबा दूँगा। तू मेरी सेवा कर, मैं तेरी सेवा कर दूंगा। आरामतलबी, सुखशीलता व प्रमाद नहीं बढ़े तथा विभूषा की भावना नहीं पनपे इसी दृष्टि से यह सब विधान है। (हिन्दी टीका, पृ. १३४२)
॥ सप्तम सप्तिका समाप्त ॥ ॥ चौदहवाँ अध्ययन, समाप्त ॥
॥ द्वितीय चूला सम्पूर्ण ॥
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__ अन्योन्यक्रिया सप्तक : चतुर्दश अध्ययन
( ४७३ )
Anyonya-Kriya : Fourteenth Chapter
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