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३३२. से भिक्खू वा २ णो इहलोइएहिं सद्देहिं णो परलोइएहिं सद्देहिं, णो सुएहिं सद्देहिं णो असुएहिं सद्देहिं, णो दिढेहिं सद्देहिं णो अदितुहिं सद्देहिं, णो इटेहिं सद्देहिं, णो कंतेहिं सद्देहिं सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा, णो गिज्झिज्जा, णो मुज्झिज्जा, णो अज्झोववज्जिज्जा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जएज्जासि। -त्ति बेमि।
॥ चउत्थो सत्तिक्कओ सम्मत्तो ॥
॥ एगारसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ र ३३२. साधु-साध्वी इहलौकिक (मनुष्य जाति के) एवं पारलौकिक (मानवेतर जाति
पक्षी, देव, वाद्य आदि) शब्दों में, श्रुत (सुने हुए) या अश्रुत (बिना सुने) शब्दों में, देखे हुए या बिना देखे हुए शब्दों में, इष्ट और कान्त शब्दों में न तो आसक्त हो, न रक्त (रागभाव से लिप्त) हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो और न ही मूछित हो।
यही (शब्द श्रवण-विवेक ही) उस साधु या साध्वी का आचार-सर्वस्व है, जिसमें सभी अर्थों-प्रयोजनों सहित समित होकर सदा प्रयत्नशील रहे।
॥ चतुर्थ सप्तिका समाप्त ॥
॥ एकदाश अध्ययन समाप्त ॥ 332. A bhikshu or bhikshuni should not have infatuation, attachment, covetousness, fondness and obsession for various sounds including human sounds; other sounds like those of birds, gods, instruments etc.; heard or unheard sounds; seen or unseen words and attractive and pleasant sounds. ____This (prudence of hearing sound) is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni. And so should he pursue. -So I say.
॥ END OF SEPTET FOUR || || END OF ELEVENTH CHAPTER ||
ॐ
आचारांग सूत्र (भाग २)
( ४४२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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