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(३) जो बहुत-से शाक्यादि श्रमण ब्राह्मण यावत् अतिथियों के उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो।
(४) जो निष्परिग्रही साधुओं के निमित्त बनाया, बनवाया, उधार लिया या संस्कारित परिकर्मित किया गया हो।
(५) जहाँ गृहस्थ कंद, मूल आदि को बाहर-भीतर ले जाता हो। (६) जो चौकी मचान आदि किसी विषम एवं उच्च स्थान पर बना हो। (७) जो सचित्त पृथ्वी, जीवयुक्त काष्ठ आदि पर बना हो। (८) जहाँ गृहस्थ द्वारा कंद, मूल आदि अस्त-व्यस्त फेंके हुए हों। (९) शाली, जौ, उड़द आदि धान्य जहाँ बोया जाता हो।
(१०) जहाँ कूड़े के ढेर हों, भूमि फटी हुई हो, कीचड़ हो, ईख के डण्डे, दूंठ, खीले आदि पड़े हों, गहरे या बड़े-बड़े गड्ढे आदि विषम स्थान हों।
(११) जहाँ रसोई बनाने के चूल्हे आदि रखे हों तथा जहाँ भैंस, बैल आदि पशु-पक्षीगण का आश्रय स्थान हो।
(१२) जहाँ मृत्यु-दण्ड देने के या मृतक के स्थान हों। (१३) जहाँ उपवन, उद्यान, वन, देवालय, सभा, प्रपा आदि स्थान हों। (१४) जहाँ सर्वसाधारण जनता के गमनागमन के मार्ग, द्वार आदि हों। (१५) जहाँ तिराहा, चौराहा आदि हो।
(१६) जहाँ कोयले राख (क्षार) बनाने या मुर्दे जलाने आदि के स्थान हों, मृतक के स्तूप व चैत्य हों। (१७) जहाँ नदी तट, तीर्थ-स्थान हो, जलाशय या सिंचाई की नहर आदि हो। (१८) जहाँ नई मिट्टी की खान, चारागाह आदि हों। (१९) जहाँ साग-भाजी, मूली आदि के खेत हों। (२०) जहाँ विविध वृक्षों के वन हों। तीन विधानात्मक स्थण्डिल सूत्र का सार इस प्रकार है(१) जो स्थण्डिल प्राणी, बीज यावत् मकड़ी के जालों आदि से रहित हों। (सूत्र २९३)
(२) जो श्रमणादि के उद्देश्य से बनाया गया न हो तथा पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो। (सूत्र २९५) आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
Mirrly-NIRMONTRI
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