Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 461
________________ समण-माहण जाव वणीमगे पगणिय २ समुहिस्स, पाणाई ४ जाव उद्देसियं चेएइ। तहप्पगारं थंडिलं पुरिसंतरगडं वा अपुरिसंतरगडं वा जाव वा बहिया णीहडं वा अणीहडं वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा।। __२९४. साधु-साध्वी यह जाने कि किसी भावुक गृहस्थ ने निष्परिग्रही निर्ग्रन्थ साधुओं को देने की भावना से एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से या बहुत-से साधर्मिक साधुओं के उद्देश्य से स्थण्डिल बनाया है अथवा एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से या बहुत-सी साधर्मिणी साध्वियों के उद्देश्य से आरम्भ-समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है अथवा बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र या भिखारियों को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है तो इस प्रकार का स्थण्डिल पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत अथवा अन्य किसी प्रकार के दोष से युक्त स्थण्डिल हो तो वहाँ पर मल-मूत्र का विसर्जन नहीं करे। 294. A bhikshu or bhikshuni should find if some devout layman has prepared a sthandil ground for offering to some detached Nirgranth ascetics, one co-religionist bhikshu, many coreligionist bhikshus, one co-religionist bhikshuni, many coreligionist bhikshunis, or many Shramans, Brahmins, guests, destitute and beggars after counting their numbers and the process involves violence of things that breathe, exist, live or have any essence or potential of life. He should not use a sthandil having these or other faults for discarding excreta irrespective of its being already used or not. ___२९५. से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा बहवे समण-माहण-किवणवणीमग-अतिही समुद्दिस्स पाणाई भूय-जीव-सत्ताई जाव उद्देसियं चेएइ, तहप्पगारं थंडिलं पुरिसंतरकडं जाव बहिया अणीहडं, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। ____ अह पुणेवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव बहिया णीहडं। अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। २९५. साधु-साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो किसी भावुक गृहस्थ ने बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, भिखारी या अतिथियों के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव १) उच्चार-प्रस्रवण-सप्तिका : दशम अध्ययन ( ४११ ) Uchchar-Prasravan Saptika : Tenth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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