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भाग के लिए भी अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। क्षेमकुतूहल में लिखा है-“कपास का फल अति उष्ण प्रकृति वाला कषाय एवं मधुर रस वाला और गुरु होता है। वह वात, कफ को दूर करने वाला तथा रुचिकर होता है। इसमें से अस्थि (बीच का कठिन भाग) निकालकर प्रयोग करने से विशेष लाभदायक होता है।"
'अज' शब्द का वर्तमान में सामान्य विद्वान् ‘बकरे' एवं 'विष्णु' के अर्थ में प्रयोग करते हैं, परन्तु यह शब्द इसके अतिरिक्त अन्य अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। जैसे-सुवर्णमाक्षिक धातु, पुराने धान्य, जो अंकुरित होने के काल को अतिक्रान्त कर चुके हैं। (शालिग्राम औषध शब्दसागर)
इसी तरह ‘कपोत' शब्द केवल कबूतर का वाचक नहीं रहा है, परन्तु सुरमा एवं सज्जी या खार के लिए भी कपोत शब्द का प्रयोग होता रहा है। क्योंकि इन पदार्थों का कपोत जैसा रंग होने के कारण इन्हें कपोत शब्द से अभिव्यक्त करते थे। ___ श्यामा, गोपी, गोपवधू; इन शब्दों का प्रयोग गोप-कन्या या ग्वालों की स्त्री के लिए ही प्रयोग न होकर कृष्ण एवं सारिवा वनस्पति के लिए भी प्रयोग होता था। धवला-सारिवा नामक वनस्पति को गोपी और गोप-कन्या कहा जाता था। (भावप्रकाश निघंटु) ___ श्वेत और कृष्ण कापोतिका शब्दों से पाठक सफेद और काले मादा कबूतर का ही अर्थ समझेंगे, परन्तु वैद्यक ग्रन्थों में इनका अन्य अर्थों में प्रयोग हुआ है। कल्पद्रुम कोष में लिखा है कि जो स्वल्प आकार और लाल अंग वाली होती है, वह श्वेत कापोतिका कहलाती है। श्वेत कापोतिका वनस्पति दो पत्तों वाली और कन्द के मूल में उत्पन्न होने वाली, ईषद् (थोड़ी) रक्त (लाल) तथा कृष्ण पिंगला, हाथ भर ऊँची, गाय के नाक जैसी और फणधारी सर्प के आकार वाली, क्षारयुक्त, रोंगटे वाली, कोमल स्पर्श वाली और गन्ने जैसी मीठी होती है। (कल्पद्रुम कोष, पृ. ५७८) ___ इसी प्रकार के स्वरूप एवं रस वाली कृष्ण कापोतिका होती है। वह (कृष्ण कापोतिका) काले साँप जैसी वाराही कन्द के मूल में उत्पन्न होती है। वह एक पत्ते वाली महावीर्य दायिनी और बहुत काले अंजन समूह जैसी काली होती है। उसके पत्ते मध्य से उत्पन्न प्ररोह पर लगे हुए गहरे नीले मयूरपंख के समान होते हैं और वह बारह पत्तों के छत्र वाली, राक्षसों की नाशक, कन्द-मूल से उत्पन्न होने वाली और जरा-मरण को निवारण करने वाली ये दोनों कापोतिकाएँ होती हैं। __इस तरह हम देख चुके हैं कि जैनागमों में ही नहीं, अपितु वैद्यक एवं अन्य ग्रन्थों में भी माँस, मत्स्य एवं पशु-पक्षी के वाचक शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है। अतः प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त माँस एवं मत्स्य शब्द वनस्पति वाचक हैं, न कि माँस और मछली के वाचक हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों के आधार पर जैन मुनियों को माँस-मछली खाने वाला कहना नितान्त गलत है। (हिन्दी टीका, पृ. ९२१-९२९) आचारांग सूत्र (भाग २)
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_Acharanga Sutra (Part 2)
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