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सदोष-निर्दोष स्थान का विवेक __ ९६. से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, तं जहा-तणपुंजेसु वा ।। पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए। तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा .. णिसीहियं वा चेइज्जा। ___ से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडे
जाव चेइज्जा। ___ ९६. साधु-साध्वी उपाश्रय के विषय में यह जाने कि यदि उसमें घास के ढेर या पुआल के ढेर लगे हों, अण्डे, बीज, हरियाली, ओस, सचित्त जल, कीड़ी नगर, काई, लीलण-फूलण, गीली मिट्टी या मकड़ी के जाले लगे हों तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु ध्यान, शयन व स्वाध्याय आदि क्रियाएँ नहीं करे। __यदि वह जाने कि वहाँ रखे हुए घास के ढेर या पुआल के ढेर, अण्डों, बीजों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है तो उस उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रियाएँ कर सकता है। PRUDENCE ABOUT FAULTY AND FAULTLESS PLACE
96. A bhikshu or bhikshuni should find if an upashraya has heaps of grass and hay, eggs, seeds, green plants, dew, sachit water, anthill, moss, fungus, damp sand or cobwebs. If it is so the ascetic should avoid its use for his stay, sleep, meditation or other ascetic activities.
If he finds that it is free of heaps of grass and hay, eggs, seeds, green plants, dew, sachit water, anthill, moss, fungus, damp sand or cobwebs, the ascetic may use it for his stay, sleep, meditation or other ascetic activities.
नवविध शय्या-विवेक
९७. से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेस वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं २ साहम्मिएहिं ओवयमाणेहिं नो उवइज्जा।
९७. धर्मशालाओं में, उद्यान में बने विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में या तापसों के मठों आदि में जहाँ अन्य मत के साधु बार-बार आते-जाते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए। आचारांग सूत्र (भाग २)
( १८६ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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