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(३) तृतीय प्रतिमा - मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा, किन्तु हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण एवं पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण नहीं करूँगा ।
(४) चौथी प्रतिमा - मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में स्थित रहूँगा । उस समय न तो शरीर से दीवार आदि का सहारा लूँगा, न हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण करूँगा और न ही पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण करूँगा। मैं कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ। केश, दाढ़ी, मूँछ, रोम और नख आदि के प्रति भी ममत्व - विसर्जन करता हूँ और कायोत्सर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके इस स्थान में स्थित रहूँगा ।
साधु इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके विचरण करे | परन्तु प्रतिमा धारण न करने वाले अन्य मुनि की निन्दा या अवहेलना न करे।
यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का आचार - सर्वस्व है; जिसमें सभी ज्ञानादि आचारों से युक्त एवं समित होकर सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
FOUR STHANA PRATIMAS
287. Avoiding the aforesaid occasions to commit faults engendering bondage of karmas and those mentioned hereafter, an ascetic should think of staying at a place observing these four pratimas (self-regulations).
(1) First Pratima - During my kayotsarga (dissociation of mind from the body; a type of meditation) I will live at an achit (free of living organisms) place and lean my body only on an achit wall (etc.). There alone I will do the activities of stretching or folding my limbs as well as a little careful walking (in limited area). This is the first pratima.
(2) Second Pratima-During my kayotsarga I will live at an achit place and lean my body only on an achit wall (etc.) There alone I will do the activities of stretching or folding my limbs but will not walk even a little in the limited area. This is the second pratima.
आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
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