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से भिक्खू वा २ अभिकंखेज्जा ल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयणं वा ल्हसुणणालगं वा भोत्तए वा पायए वा। से जं पुण जाणेज्जा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणबीजं वा सअंडं जाव णो पडिगाहेज्जा। एवं अतिरिच्छच्छिण्णे वि तिरिच्छच्छिण्णे जाव पडिगाहेज्जा।
२८३. यदि साधु-साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन के वन पर ठहरना चाहें तो पूर्वोक्त विधि से उसके स्वामी या नियुक्त अधिकारी से क्षेत्र-काल की सीमा खोलकर अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके रहे। किसी कारणवश लहसुन खाना चाहे तो पूर्व सूत्र के अनुसार अण्डों आदि से युक्त तथा तिरछे कटे हुए हों तो सूत्र में वर्णित विधिपूर्वक ग्रहण करे। इसके तीनों आलापक पूर्व सूत्रवत् समझ लेने चाहिए। ___ यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन, लहसुन का कंद, लहसुन की छाल या छिलका या रस अथवा लहसुन के गर्भ का आवरण (लहसुन का बीज) खाना-पीना चाहे यह सम्पूर्ण वर्णन आम्र व इक्षु के आलापक की तरह समझना। पूर्ववत् प्रासुक एवं एषणीय मिलने पर ग्रहण कर सकता है।
PROCEDURE ACCEPTING GARLIC
283. If a bhikshu or bhikshuni (for some reason) wants to stay in a garlic farm he should seek permission to stay there from the owner or manager of that place duly specifying the period and area. If he wants to eat (for some reason) garlic he should follow the procedure mentioned above and eat if they are not infested with eggs (etc. up to cobwebs) and are also sliced and cut into pieces. The three rules should be taken as mentioned earlier. ___If the ascetic wants to eat (for some reason) garlic or its pulp, peel, stalk or seed or suck its juice he should follow the procedure mentioned in context of mango. If he finds it to be faultless and acceptable as mentioned earlier he may take.
विवेचन-सूत्र २७४-२८३ में गृहस्थ के आम्रवन, इक्षुवन तथा लहसुनवन में ठहरने पर वहाँ स्थित आम, ईख या लहसुन के ग्रहण व त्याग के सम्बन्ध में जो वर्णन है वह सापेक्ष दृष्टि से किया गया है। इस सम्बन्ध में चूर्णिकार लिखते हैं____ आम्र आदि वस्तु खाने की इच्छा होने पर साधु को ग्राह्य-अग्राह्य का विवेक रखना जरूरी है। यदि वे फल साधु की मर्यादा के अनुसार अण्डों आदि से युक्त न हों, तिरछे और खण्ड-खण्ड किये हुए हों, तो ग्रहण कर सकता है इसके विपरीत नहीं। निशीथसूत्र, उद्देशक १५ में सचित्त
आचारांग सूत्र (भाग २)
(३८६ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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