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निग्योसं सोच्चा निसम्म से पुव्वामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, मा एयं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा, अभिकंखसि मे दाउं एमेव दलयाहि। से सेवं वदंतस्स परो सिणाणेण वा जाव पघंसित्ता दलएज्जा। तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा।
२२१. कदाचित् गृह-स्वामी घर के किसी व्यक्ति से इस प्रकार कहे कि “आयुष्मन् ! वह वस्त्र लाओ, तो हम उसे जल से धोकर, चन्दन आदि द्रव्य से, चूर्ण से या पद्म आदि सुगन्धित पदार्थों से घिसकर श्रमण को देवें।" उनका ऐसा वार्तालाप सुनकर साधु पहले से ही कह दे–“आयुष्मन् गृहस्थ ! इस वस्त्र को मत धोओ तथा द्रव्यों से आघर्षण या प्रघर्षण मत करो। यदि मुझे वह वस्त्र देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" साधु के द्वारा निषेध करने पर भी वह गृहस्थ धोने आदि की क्रिया करके उस वस्त्र को देने लगे तो साधु अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर उस वस्त्र को ग्रहण न करे।
221. If the householder tells to some member of the family (sister etc.)“Long lived brother or sister ! Please fetch that cloth, I will wash it with water, rub sandal-wood or other fragrant powder on it or apply lotus or other perfumes on it and give it to the ascetic.” On hearing these words the ascetic should at once tell—“Long lived householder ! Please do not wash the cloth or rub and apply perfumes on it. If you want to give please give the cloth as it is.” Even after this warning by the ascetic if the householder proceeds to wash (etc.) before offering it the ascetic should refuse to take it considering it to be faulty and unacceptable. ___ २२२. से णं परो णेया वएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, आहर एवं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता वा पहोलेत्ता वा समणस्स णं दाहामो। एयप्पगारं निग्धोसं, तहेव, नवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पहोलेहि वा। अभिकंखसि मे दाउं सेसं तहेव जाव णो पडिगाहेज्जा।
२२२. यदि गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि “आयुष्मन् ! उस वस्त्र को लाओ, हम उसे प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से एक बार या कई बार धोकर श्रमण को दें।" इस प्रकार की बात सुनकर वह श्रमण पहले ही दाता से कहे-"आयुष्मन् आचारांग सूत्र (भाग २)
( ३२८ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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