Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 369
________________ (7) Devout and affluent people will specially purchase or get such clothes made for ascetics. (8) As leather clothes are abhorrent, impure and inauspicious it is not proper and becoming of ascetics to use them. Shri Abhayadev Suri has defined very expensive as—a cloth with a price range between eighteen to a hundred thousand gold coins of Patliputra is called very expensive. (Sthananga Vritti, leaf 32) ___In Vinayapitik (Mahavagga) 8/8/12, p. 298 is a mention of siveyyak cloth made in Shivi country that was available for one hundred thousand gold coins. विशेष शब्दों के अर्थ-'आइणगाणि' आदि शब्दों के अर्थ-आचारांगचूर्णि, निशीथचूर्णि आदि में इन पदों के भिन्न-भिन्न अर्थ दिये गये हैं। आइणगाणि-अजिन-चर्म से निर्मित। आयाणि-तोसलि देश में अत्यन्त सर्दी पड़ने पर बकरियों के खुरों में सेवाल जैसी वस्तु लग जाती है, उसे उखाड़कर उससे बनाये जाने वाले वस्त्र। कायाणि-कौए की जाँघ की मणि जिस तालाब में पड़ जाती है, उसकी मणि जैसी प्रभा होती है, उन काकमणि रंजित वस्त्रों को काकवस्त्र कहते हैं। खोमियाणि-क्षोम कहते हैं पौंड-पुष्यमय वस्त्र को, अथवा जैसे वट-वृक्ष से शाखाएँ निकलती हैं, वैसे ही पौंड-वृक्षों से लम्बे-लम्बे रेशे निकलते हैं, उनसे बने हुए वस्त्र। ‘पोंडमया खोम्मा, अण्णे भण्णंति रुक्खेहितों निग्गोच्छंति, जहा वडेहिंतो पादगा सहा।'-पुष्पों के रेशे से बना या वृक्षों से निकलने वाले रस से बना हुआ वस्त्र। 'क्षौमिक' का अर्थ वृत्तिकार ने सामान्य कपास से बना हुआ वस्त्र किया है, लेकिन यहाँ महँगे वस्त्रों की सूची में उसे दिया है, इसका रहस्य यह है कि जो सूती वस्त्र हो, लेकिन बहुत ही बारीक हो, उस पर सोने-चाँदी आदि के किनारी गोटे लगे हुए हों तो वह बहुमूल्य हो जायेगा। (निशीथचूर्णि, उ. ७) ___ दुगुल्लाणि-दुकूल एक वृक्ष का नाम है, उसकी छाल लेकर ऊखल में कूटी जाती है, जब वह भुस्से जैसी हो जाती है तब उसे पानी में भिगोकर रेशे बनाकर वस्त्र निर्माण किया जाता है। पट्टाणि-तिरीड़ वृक्ष की छाल के तन्तु पट्टसदृश होते हैं, उनसे निर्मित वस्त्र तिरीड़पट्ट वस्त्र अथवा रेशम के कीड़ों के मुँह से निकलने वाले तारों से बने वस्त्र। अनुयोगद्वार सूत्र ३७ की टीका के अनुसार-किसी जंगल में संचित किये हुए माँस के चारों ओर एकत्रित कीड़ों से ‘पट्ट' वस्त्र बनाये जाते थे। मलयाणि-मलय देश (मैसूर आदि) में चन्दन के पत्तों को सड़ाया जाता है, फिर उनके रेशों से बनाये वस्त्र। पत्तुण्णाणि-वल्कल से बने हुए बारीक वस्त्र ‘पत्रोण' का उल्लेख महाभारत २/७८/५४ में भी है। देसरागा-जिस देश में रँगने की जो विधि है, उस देश में रँगे हुए वस्त्र। गज्जलाणि-जिनके पहनने पर विद्युत्गर्जन-सा कड़कड़ शब्द होता है, वे गर्जल वस्त्र। कणगो-सोने को पिघलाकर उससे सूत रँगा जाता है और वस्त्र बनाये जाते हैं। कणगकंताणिजिनके सोने की किनारी हो, ऐसे वस्त्र। विवग्घाणि-चीते का चमड़ा। (पाइअ-सद्द महण्णवो) वस्त्रैषणा : पंचम अध्ययन ( ३२१ ) Vastraishana : Fifth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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