________________
C 18.
O
MHINARAYANANDPARODAMODATOPARODeoriyorrovivoroPANORARODDES
२१६. साधु-साध्वी चर्म या रोम से निष्पन्न वस्त्र के सम्बन्ध में जाने, जैसे कि औद्रसिन्धु देशज मत्स्य के चर्म और सूक्ष्म रोमों से बने वस्त्र। पेष-सिन्धु देश के सूक्ष्म चर्म वाले जानवरों से बने। पेषलेश-उसी के चर्म पर स्थित सूक्ष्म रोमों से बने हुए, कृष्ण, नील
और गौरवर्ण के मृगों के चमड़ों से निर्मित वस्त्र, स्वर्णरस में लिपटे वस्त्र, सोने की कान्ति वाले वस्त्र, सोने के रस पट्टियाँ दिये हुए वस्त्र, सोने के पुष्प-गुच्छों से अंकित, सोने के तारों से जटित, और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित, व्याघ्र चर्म, चीते का चर्म, आभरणों से मण्डित, आभरणों से चित्रित ये तथा अन्य इसी प्रकार के चर्म-निष्पन्न प्रावरण-वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण नहीं करे।
216. A disciplined bhikshu or bhikshuni should know about various clothes produced from skin or fur such as-Audraclothes made of skin and fine fur of a fish found in the Sindhu country. Pesh-clothes made of fine skin of animals found in Sindhu country. Peshlesh-clothes made of leather of black, blue and white deer, clothes made of gold covered fabric, clothes with golden glow, clothes with golden strips, clothes decorated with bunches of golden flowers, clothes made of golden brocade, clothes adorned with golden stars, tiger skin, leopard skin, gem studded clothes, clothes with ornamental designs and other such clothes made of skins. An ascetic should not accept such clothes even when offered.
विवेचन-इन सूत्रों में उस युग में प्रचलित अनेक प्रकार के बहुमूल्य एवं चर्म-निर्मित वस्त्रों के ग्रहण का निषेध किया गया है। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं
(१) ये अनेक प्रकार के प्राणियों के आरम्भ-समारम्भ से तैयार होते थे।
(२) बहुमूल्य होने से चोरों या धन-लोभी व्यक्तियों द्वारा इनके चुराये जाने या लूटे-छीने जाने का भय बना रहता है।
(३) साधुओं के द्वारा ऐसे वस्त्रों की अधिक माँग होने पर ऐसे वस्त्रों के लिए उन-उन । पशुओं की हिंसा की जायेगी, पंचेन्द्रिय वध किया जायेगा।
(४) साधुओं को इन बहुमूल्य वस्त्रों पर मोह, मूर्छा पैदा हो सकती है। संचित करके रखने की वृत्ति बढ़ सकती है।
वस्त्रैषणा : पंचम अध्ययन
( ३१९ )
Vastraishana : Fifth Chapter
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org