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विषम-मार्गादि से गमन का निषेध
१६०. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो मट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिंदिय २ विकुज्जिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण हरियवहाए गच्छेज्जा ‘जसेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु'। माइट्टाणं संफासे। णो एवं करेज्जा। से पुव्वामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहेज्जा, २ ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा।
१६०. साधु-साध्वी विहार करते हुए गीली मिट्टी एवं कीचड़ से भरे हुए पैरों से हरी घास आदि का छेदन करके तथा हरे पत्तों को एकत्रित कर मोड़-तोड़कर या दबाकर एवं मसलता हुआ मिट्टी न उतारे और न हरितकाय की हिंसा करने के लिए उन्मार्ग में गमन करे कि पैरों पर लगी हुई यह कीचड़ और गीली मिट्टी हरियाली के स्पर्श से अपने आप हट जायेगी, ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। किन्तु पहले ही हरियालीरहित मार्ग को देखकर उसी मार्ग से विहार करना चाहिए। CENSURE OF TAKING A DIFFICULT PATH ____160. An itinerant bhikshu or bhikshuni should not clean the slime or mud sticking to his feet by cutting or trampling or crushing green grass or leaves. Neither should he take a wrong path and harm vegetation thinking that the slime and mud sticking to his feet will be removed automatically. An ascetic doing so is resorting to deception. He should not do so. He should select in advance a path having no vegetation. After that he may resume his itinerant way taking due care.
१६१. से भिक्खू वा २ गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेजा। केवली बूयाआयाणमेयं। ___ से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरेज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छंति ते पाणी जाएज्जा, २ ततो संजयामेव अवलंबिय २ उत्तरेज्जा। ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा।
में
ईर्या : तृतीय अध्ययन
( २५७ )
Irya : Third Chapter
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