Book Title: Agam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 268
________________ or bhikshuni should not spend monsoon-stay in such village, city or capital. विवेचन - प्राचीन परम्परा के अनुसार वर्ष में तीन चातुर्मास होते हैं - हेमन्त ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। इनमें वर्षा ऋतु का चातुर्मास आषाढ़ी पूर्णिमा - श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक होता है। वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने पर ग्रामानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। आचार्य श्री आत्माराम जी म. के अनुसार यदि आषाढ़ी पूर्णिमा से पहले वर्षा प्रारम्भ होने से हरियाली आदि हो जाये तो साधु को उसी समय एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिए। इसमें मुख्य रूप में जीव विराधना से बचने की दृष्टि है, साथ ही वर्षा व कीचड़ आदि के कारण शरीर विराधना भी होती है। इस कारण वर्षावास में एक स्थान पर रहने का विधान किया गया है। Elaboration-According to the ancient tradition an year is divided into three quarters or seasons-winter, summer and monsoon. The monsoon season starts after Ashadh Purnima (the full-moon night or the last day of the month of Ashadh), i.e., on the first day of the dark half of the month of Shravan and ends on Kartik Purnima. When the monsoon season starts ascetics should stop wandering from one village to another. According to Acharya Shri Atmaramji M. if it rains before Ashadh Purnima and the area turns green, ascetics should at once commence their monsoon-stay. This is mainly with the view of avoiding harm to beings. There are also chances of harm to one's own body due to rain and slime. That is the reason for staying at one place during monsoon season. १२९. से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा महइ विहारभूमि, महइ वियारभूमि, सुलभे जत्थ पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए, सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य अप्पाइन्ना वित्ती जाव रायहाणिं वा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा । १२९. साधु-साध्वी उस ग्राम यावत् राजधानी के सम्बन्ध में जाने कि इस ग्राम आदि में स्वाध्याय-योग्य विशाल भूमि मल-मूत्र - विसर्जन के लिए उपयुक्त स्थण्डिल भूमि, पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति सुलभ है और प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार- पानी की प्राप्ति भी सुलभ है। यहाँ बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण आदि नहीं आये हैं तथा नही आयेंगे, मार्गों पर जनता की भीड़ भी अधिक नहीं होगी। जिस कारण भिक्षा आदि आचारांग सूत्र (भाग २) Jain Education International ( २३० ) For Private & Personal Use Only Acharanga Sutra (Part 2) X www.jainelibrary.org

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