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| तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक
LESSON THREE
सदोष उपाश्रय : गृहस्थ का कपट व्यवहार __ १०७. से य णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं, तं जहा–छावणतो लेवणतो संथार-दुवार पिहाणतो पिण्डवाएसणाओ। ___ से य भिक्खू चरियारए ठाणरए णिसीहियारए सेज्जा-संथार-पिण्डवाएसणारए, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुकडा णियागपडिवण्णा अमायं कुव्यमाणा वियाहिया। ___ संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवइ, एवं णिक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुव्वा भवइ, परिट्ठवियपुव्वा भवइ।
एवं वियागरेमाणे समिया वियागरेइ ? हंता भवइ।
१०७. प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है। क्योंकि इन सावध क्रियाओं के कारण शुद्ध उपाश्रय मिलना दुर्लभ है। जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने-पोतने से, कहीं संस्तारक भूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर-गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार बनाकर देने से एषणा दोष लगाने के कारण। (उपाश्रय सुलभ नहीं है)
क्योंकि कई साधु विहारचर्या वाले हैं, कई कायोत्सर्ग करने वाले हैं, कई एकान्त स्वाध्याय करने वाले हैं, कई साधु (वृद्ध, रोगी, अशक्त आदि के लिए) शय्या-संस्तारक एवं पिण्डपात (आहार-पानी) की गवेषणा करने वाले हैं। उक्त क्रियाओं के लिए अनुकूल स्थान मिलना सुलभ नहीं है। इस प्रकार कितने ही सरल एवं निष्कपट साधु संयम या मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए माया न करते हुए गृहस्थों को उपाश्रय के गुण-दोष बतला देते हैं।
कई गृहस्थ पहले से साधु को देने के लिए उपाश्रय बनवाकर रख लेते हैं, फिर कपटपूर्वक कहते हैं-“यह मकान हमने परिव्राजकों के लिए रख छोड़ा है (उक्खित्तपुव्वा) या यह मकान हमने पहले से अपने लिए बनाकर रख छोड़ा है (निक्खित्तपुव्वा) अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीजों को देने के लिए रखा है (परिभाइयपुव्वा)। दूसरों ने भी पहले इस मकान का उपयोग कर लिया है (परिभुत्तपुव्वा), नापसन्द होने के कारण बहुत पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है (परिट्ठवियपुव्वा), अतः पूर्णतया निर्दोष शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन
Shaiyyaishana : Second Chapter
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PAvacy
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