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CHEETIRE
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स्थविरकल्पी दोनों तरह के मुनियों के लिए हैं। स्थविरकल्पी सातों प्रकार के अभिग्रह ले सकता है, जबकि जिनकल्पी के लिए पहली, दूसरी छोड़कर शेष पाँच पिण्डैषणा-पानैषणा का विधान है।
यहाँ बहु-उज्झियधम्मियं-आहार से तात्पर्य यह नहीं है कि वह खाने योग्य नहीं है, किन्तु ऐसे नीरस आहार से है जिसे पशु-पक्षी या श्रमण-भिखारी आदि भी खाना नहीं चाहते हों, अथवा जो अधिक मात्रा में होने के कारण जिसे लेने पर पश्चात्-कर्म की संभावना न हो।
सयं वा जाइज्जा पद से यह सूचित किया है कि ऐसे आहार की मुनि स्वयं भी याचना कर सकता है और गृहस्थ को भी चाहिए वह भक्तिपूर्वक साधु को आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करे।
इस अध्ययन के उपसंहाररूप में सूत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसमें अपनी विशेष साधना व त्याग का अहंकार करने का निषेध है। साधना का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है, अतः उसे अपने अहंकार पोषण या दूसरों की निंदा असूया का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। साधु अपने अभिग्रह आदि का किसी प्रकार गर्व नहीं करे तथा जो अभिग्रहधारी नहीं हैं उन्हें किसी प्रकार हीन नहीं समझे। अपितु दोनों ही जिनाज्ञा के आराधक हैं यह समझे। टीकाकार ने विशेष सन्दर्भ देते हुए कहा हैएक वस्त्र रखने वाले मुनि को दो वस्त्रधारी मुनि की, दो वस्त्रधारी को तीन वस्त्रधारी या बहुत वस्त्रधारी मुनि की तथा अचेलक मुनि को सचेलक मुनि की निंदा-तिरस्कार करके हीन नहीं बताना चाहिए। __सव्वे वि ते जिणाणाए-वे सब जिनाज्ञा के आराधक हैं। साधना का महत्त्व बाह्य परिवेश में नहीं, आभ्यन्तर दोषों के निवारण में है।
॥ एकादश उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
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Elaboration--These aphorisms describe seven pindaishanas and seven panaishanas for ascetics who have taken some special resolves. These resolves are meant for both jinakalpi and sthavir-kalpi ascetics. A sthavir-kalpi can accept resolves covering all the seven codes whereas a jinakalpi can only go for five, leaving the first two.
Here bahu-ujjhiyadhammiya does not mean food that is not consumable, but that which is so tasteless that even animals, birds
and destitute do not want to consume or that which does not possibly __entail paschatharma (post-activity) fault due to abundance. पिण्डैषणा : प्रथम अध्ययन
( १५७ )
Pindesana : Frist Chapter
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