________________
Acharya Shri Atmaramji M. has written an impartial commentary on some terms appearing in this aphorism, such as bahu-atthiya and mansa. We give the gist of that in his own language.
अस्थि-माँस शब्द पर आचार्य श्री आत्माराम जी म. का चिन्तन
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘बहु-अट्ठियं मंसं' और 'मच्छं वा बहु कंटयं' पाठ कुछ विवादास्पद है। कुछ विचारक इसका प्रसिद्ध शाब्दिक अर्थ ग्रहण करके जैन साधुओं को भी मांसभक्षक कहने का साहस करते हैं। वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इसका निराकरण करने का विशेष प्रयत्न नहीं किया। वे स्वयं लिखते हैं कि बाह्य लेप के लिए अपवाद में माँस आदि का उपयोग किया जा सकता है। __ परन्तु वृत्तिकार के पश्चात् आचारांगसूत्र पर बालबोध व्याख्या लिखने वाले उपाध्याय पार्श्वचन्द्रसूरि वृत्तिकार के विचारों का विरोध करते हैं। उन्होंने लिखा है कि आगम में अपवाद एवं उत्सर्ग का कोई भेद नहीं है और जो कंटक आदि को एकान्त स्थान में परठने का विधान किया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि अस्थि एवं कंटक आदि फलों में से निकलने वाले वीज (गुठली) या काँटे आदि ही हो सकते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में बीज (गुठली) के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। यथा-'एगट्ठिया बहुट्ठिया' एक अस्थि (बीज) वाले हरड़ आदि और बहुत
अस्थि (बीज) वाले अनार, अमरूद आदि। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों का वनस्पति अर्थ * में प्रयोग होता था अतः वृत्तिकार का कथन संगत नहीं झुंचता।
जब हम प्रस्तुत प्रकरण का गहराई से अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि वृत्तिकार का कथन प्रसंग से बाहर जा रहा है। उक्त सूत्र में गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु का आहार के * सम्बन्ध में गृहस्थ के साथ होने वाले संवाद का वर्णन किया गया है न कि औषध के सम्बन्ध में।
यदि वृत्तिकार के कथनानुसार यह मान लें कि बाह्य लेप के लिए साधु माँस ग्रहण कर सकता है
तो यह प्रश्न उठे बिना नहीं रहेगा कि बाह्य लेप के लिए कच्चे माँस की आवश्यकता पड़ेगी न है कि पक्व माँस की; और कच्चे माँस के लिए किसी के घर न जाकर कसाई की दुकान पर जाना
होता है और यहाँ कसाई की दुकान का वर्णन न होकर गृहस्थ के घर का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि वृत्तिकार का अपवाद में माँस ग्रहण करने का कथन आगम के अनुकूल प्रतीत नहीं होता।
क्योंकि प्रस्तुत पाठ में इसका कहीं भी संकेत नहीं किया गया है कि रोग को उपशान्त करने के * लिए माँस को बाँधना चाहिए। अतः वृत्तिकार का कथन प्रस्तुत सूत्र से विपरीत होने के कारण मान्य नहीं हो सकता।
प्रस्तुत सूत्र के पूर्व भाग में वनस्पति का स्पष्ट निर्देश है और उत्तर भाग में 'माँस' शब्द का ल उल्लेख है। इस तरह पूर्व एवं उत्तर भाग का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर होता है। एक ही प्रकरण o में वनस्पति एवं माँस का सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता और अस्थि एवं माँस शब्द का आगम
एवं वैद्यक ग्रन्थों में गुठली एवं गूदा अर्थ में प्रयोग मिलता है। आचारांगसूत्र में जहाँ धोवन * आचारांग सूत्र (भाग २)
( १३२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
--
-
KHANA
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org