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श्रीमद् ज्ञानसागरसूरि कृत
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श्री विमलनाथ प्रभु नुं चरित्र
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संपादक मु. श्री जयानंदविजयजी
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सात
॥ श्री विमलनाथाय नमः ॥ । प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः ।।
श्रीमद् ज्ञानसागरसूरि कृतश्री विमलनाथ प्रभुनुं चरित्र
भाषांतर (जेमां धर्मनो प्रभाव, भेदो, श्रावकना व्रतोनो अधिकार वगेरे जैन धर्मना शिक्षणनो सुंदर उपदेश विविध कथाओ सहित अने प्रभुनु चरित्र पूर्वभव साथे
विस्तारपूर्वक आपवामां आवेल छे.)
:आशीर्वाद: आचार्यदेव श्री विद्याचंद्रसूरीश्वरजी मुनिराज श्री रामचंद्रविजयजी
संपादक मुनिराज श्री जयानंदविजयजी
प्राप्तिस्थान शा. देवीचंद छगनलालजी | श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन पेढी सुमति दर्शन, नेहरू पार्क के सामने,
साँथू - 343026 माघ कोलोनी, भीनमल-343029 (राज)
जिला : जालोर (राज.) _फोन : (02969) 220387
फोन : 02973 - 254221 श्री विमलनाथ जैन पेढी
बाकरा गाँव- 343025 (राज.)
फोन : 02973-251122/9413465068 |शा. नागालाल वजाजी खींवसरा महाविदेह भीनमाल धाम गोपीपुरा, काजी का मैदान
तलेटी हस्तिगिरि, लिंक रोड, शांतिविला अपार्टमेन्ट, सुरत, (गुजरात)
पालीताणा-364270 फोन : 2422650
फोन : (02848)243018
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:प्रकाशक: श्री गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति, भीनमाल, राज
: संचालक : १. सुमेरमल केवलजी नाहर, भीनमाल, राज. २. मीलियन ग्रुप, सूराणा, राज. मुंबई, दिल्ली, विजयवाडा ३. एम.आर. इम्पेक्स, १६-ए हनुमान टेरेस, दूसरा माला, तारा टेम्पल लेन
लेमीग्टन रोड, मुंबई-७, फोन-२६८०१०८६ ४. श्री शांतिदेवी बाबुलालजी बाफना चेरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई, | महाविदेह भीनमालधाम, पालीताना, ३६४२७० ५. संघवी जुगराज, कांतिलाल, महेन्द्र, सुरेन्द्र, दिलीप, धीरज, संदीप,
राज, जैनम, अक्षत बेटा पोता कुंदनमलजी भुताजी श्री श्रीमाळ वर्धमान गौत्रीय आहोर (राज.)
कल्पतरु ज्वेलर्स, ३०५ स्टेशन रोड, संघवी भवन, थाना, (५)९ ६. दोशी अमृतलाल चीमनलाल पांचशो वोरा, थराद
पालीताना में उपधान कराया उसकी साधारण की आय में से । ७. शत्रुजय तीर्थे नव्वाणुं यात्रा के आयोजन निमित्ते शा. जेठमल,
लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, प्रेमचन्द, गौतमचंद, गणपतराज, ललीतकुमार, विक्रमकुमार, पुष्पक, विमल, प्रदीप, चिराग, नितेष बेटा-पोता कीनाजी संकलेचा परिवार मेंगलवा, फर्म-अरिहन्त नोवेल्हटी, GF3 आरती शोपींग सेन्टर,
कालुपुर टंकशाला रोड, अहमदाबाद. ८. थराद निवासी भणशाळी मधुबेन कांतिलाल अमुलख भाई परिवार ९. शा कांतिलाल केवलजी गांधी सियाना निवासी द्वारा २०६२ में
पालीताना में उपधान करवाया उस समय साधारण की आय से । १०. लहेर कुंद ग्रुप, शा जेठमलजी कुंदनमलजी मेंगलवा (जालोर)
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११.२०६३ में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस समय पद्मावती सुनाने के
उपलक्ष में शा चंपालाल, जयंतिलाल, सुरेशकुमार, भरतकुमार प्रिन्केश, केनित, दर्शित, चुन्नीलालजी मकाजी कासम गौत्र त्वर परिवार गुड़ा
बालोतान् ‘जय चिंतामणी' १०-५४३ संतापेट नेल्लूर (आ.प्र.) १२. पू. पिताश्री पूनमचंदजी मातुश्री भुरीबाई के स्मरणार्थे पुत्र पुखराज, पुत्रवधु लीलाबाई पौत्र फुटरमल, महेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार अशोक कुमार, मिथुन, संकेश, सोमील, बेटा पोता परपोता शा पूनमचंदजी भीमाजी रामाणी गुडाबालोतान् नाकोडा गोल्ड, ७० कंसारा चाल, बीजा माले रुम नं. ६७, कालबादेवी मुंबई १३. शा सुमेरमल, मुकेशकुमार, नितीन, अमीत, मनीषा, खुशबु बेटा पोता
पेराजमलजी प्रतापजी रतनपुरा बोहरा परिवार, मोदरा (राज.)
राजरतन गोल्ड प्रोड., के.वी.एस. कोम्पलेक्ष, ३/१ अरुंडलपेट, गुन्टूर. १४. एक सद् गृहस्थ, धाणसा १५. गुलाबचंद राजकुमार छगनलालजी कोठारी अमेरीका, आहोर (राज.) १६. शांतिरुपचंद रवीन्द्रचंद्र, मुकेश, संजेश, ऋषभ, लक्षित, यश, ध्रुव, अक्षय | बेटा पोता मिलापचंदजी मेहता, जालोर-बेंगलोर. १७. वि. सं. २०६३ में आहोर में उपधान तप आराधना करवायी एवं
पद्मावती श्रवण के उपलक्ष में पिताश्री थानमलजी मातुश्री सुखीदेवी, भंवरलाल, घेवरचंद, शांतिलाल, प्रवीणकुमार, मनीष, निखिल, मित्तुल,आशीष, हर्ष, विनय, विवेक बेटा पोता कनाजी हकमाजीमुथा
शा. शांतिलाल प्रवीणकुमार एण्ड को. राम गोपाल स्टीट,विजयवाडा १८. बाफना वाडी में जिन मन्दिर निर्माण के उपलक्ष में मातुश्री प्रकाशदेवी
चंपालालजी की भावनानुसार पृथ्वीराज, जितेन्द्रकुमार, राजेशकुमार, रमेशकुमार, वंश, जैनम, राजवीर, बेटा-पोता चंपालालज सांवलचन्दजी बाफना, भीनमाल. नवकार टाइम, ५९,नाकोडा स्टेट न्यू बोहरा बिल्डींग, मुंबई - ३.
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१९. श्रीमती सकुदेवी सांकलचंदजी नेथीजी हुकमाणी परिवार, पांथेडी, राज.
राजेन्द्र ज्वेलर्स, ४ रहेमान भाई बि.एस.जी. मार्ग, ताडदेव, मुंबई-३४. २०. स्व. हस्तीमलजी भलाजी नागोत्रा सोलंकी स्मृति में हस्ते परिवार
बाकरा (राज.) २१.शा दूधमल, नरेन्द्रकुमार, रमेशकुमार बेटा बोता लालचंदजी मांडोत परिवार |
बाकरा (राज.)मंगल आर्ट, दोशी बिल्डींग ३-भोईवाडा,भूलेश्वर,मुंबई २ २२.कटारीया संघवी लालचंद रमेशकुमार,गोतमचंद,दिनेशकुमार, महेन्द्रकुमार,
रवीन्द्रकुमार बेटा पोता सोनाजी भेराजी धाणसा (राज.)
श्री सुपर स्पेअर्स, ११-३२-३ए पार्क रोड, विजयवाडा, सिकन्द्रबाद. २३.शाशांतिलाल, दीलीपकुमार, संजयकुमार, अमनकुमार, अखीलकुमार
बेटा पोता मूलचंदजी उमाजी तलावत आहोर (राज.)
राजेन्द्र मार्केटींग, पो.बो. नं. १०८, विजयवाडा. २४.शा समरथमल सुकराज, मोहनलाल महावीरकुमार, विकासकुमार,कमलेश
अनिल, विमल, श्रीपाल भरत फोला मुथा परिवार सायला (राज.)
अरुण एन्टरप्राईजेस, ४ लेन, ब्राडी पेठ, गुन्टूर-२. २५. शा नरपतराज, ललीतकुमार महेन्द्र, शैलेष, निलेष, कल्पेश, राजेश,
महीपाल, दिक्षीत, आशीष, केतन, अश्वीन, सींकेश, यश बेटा पोता खीमराजजी थानाजी कटारीया संघवी आहोर (राज.)
कलांजली ज्वेलर्स, ४/२, ब्राडी पेठ, गुन्टूर-२. | २६.शा तीलोकचंद मयाचंद एन्ड कं. ११६, गुलालवाडी, मुंबई - ४. २७.शा लक्ष्मीचंद, शेषमल, राजकुमार, महावीरकुमार, प्रवीणकुमार, __ दीलीपकुमार, रमेशकुमार बेटा पोता प्रतापचंदजी कालुजी कांकरीया,
मोदरा (राज.) गुन्टूर. २८. एक सद्गृहस्थ (खाचरौद)
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२९. शा भंवरलाल जयंतिलाल, सुरेशकुमार, प्रकाशकुमार, महावीरकुमार,
श्रेणिककुमार, प्रितम, प्रतीक, साहिल, पक्षाल बेटा पोता - परपोता शा समरथमलजी सोगाजी दुरगाणी बाकरा (राज.)
जैन स्टोर्स, स्टेशन रोड, अंकापाली - ५३१००१. ३०. शा.गजराज,बाबुलाल,मीठालाल,भरत,महेन्द्र,मुकेश,शैलेष,गौतम,
नीखील, मनीष, हनी बेटा पोता, रतनचंदजी, नागोत्रा सोलंकी
साँथू (राज) फूलचंद भंवरलाल, १०८ गोवींदप्पा नायक स्ट्रीट, चेन्नई-१ ३१.शेठ माँगीलाल, मनोहरमल, बाबुलाल जयंतिलाल जुठमल बेटा पोता
सुमेरमलजी कुन्दनमलजी लुंकड गोल उमेदाबाद (राज.) ३२. संघवी भंवरलाल मांगीलाल, महावीर नीलेश, बन्टी, बेटा पोता
हरकचंदजी श्री श्रीमाल परिवार आलासनराजेश इलेक्ट्रीकल्स
४८, राजा बिल्डींग, तिरुनेलवेली - ६२७००१ ३३. भंसाली भंवरलाल, अशोकुमार, कांतिलाल, गोतमचंद,
राजेशकुमार, राहुल, आशीष, नमन, आकाश, योगेश, बेटा बोता लीलाजी कसनाजी मु. सरत. मंगल मोती सेन्डीकेट, १४/१५ एस. एस. जैन मार्केट,
एम.पी. लेन चीकपेट क्रोस, बेंगलोर - ५३. ३४.स्व. मातृश्री मोहनदेवी पिताजी श्री गुमानमलजी की स्मृति में
पुत्र कांतिलाल जयन्तिलाल, सुरेश, राजेश सोलंकी जालोर
प्रविण एण्ड कं. १५-८-११०/२, बेगम बाजार, हैदराबाद - १२.. ३५. शा. कान्तीलालजी, मंगलचन्दजी हरण, दाँसपा, मुम्बई ३६. गोल्ड मेडल इन्डस्ट्रीस प्रा. ली., रेवतडा, मुम्बई, विजयवाडा, दिल्ली ३७. राज राजेन्द्रा टेक्सटाईल्स एक्सपोर्टस लिमीटेड ___१०१, राज भवन, दौलतनगर, बोरीवली (ईस्ट), मुम्बई, मोधरा निवासी ३८. संघवी पुखराजजी नेकाजी, धाणसा निवासी
संघवी इलेक्ट्रीकल्स, १३०, ओपनकारास्ट्रीट, कोइमबटूर - ६४१ ००१. |
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द्रव्यं सहायक
श्री बाकरा नगरे श्री विमलनाथजी, श्री अजितनाथजी
आदि जिन बिंब और श्री पुंडरीक गणघर श्री गौतम गणधर श्री राजेन्द्र सुरीश्वरजी, श्री धनचंद्र सूरीश्वरजी गुरु बिंबो की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा
वि. सं. २०५९ महा सुदि ६ के दिन पू. मुनिराज श्री जयानंद विजयजी आदि ठाणा
की निश्रा में सानंद संपन्न हुई उस प्रतिष्ठा के उपलक्ष में सादर पुष्प प्रकाशित | श्री बाकरा जैन संघ
श्री विमलनाथ जैन पेढ़ी
बाकरा ३४३०२५
प्रत १०००
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श्री विमलनाथजी
श्री संभवनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी
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श्री चंद्रप्रभुजी
श्री अजितनाथजी
मु.
द्रव्य सहायक
बाकरा नगरे
श्री विमलनाथ, श्री अजितनाथ आदि जिनबिंब की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा एवं दादागुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा
२०५९, माघ शुक्ला ६, के दिन
श्री जयानंदविजयजी आदि ठाणा की
निश्रा में सानंद संपन्न हुई
उस समय की साधारण की आय से
लक्ष
श्री विमलनाथजी
सादर पुष्प प्रकाशन
श्री बाकरा जैन संघ
बाकरा (जालोर)
प्रत : २०००
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द्रव्य सहायक
श्री गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति भीनमाल, राज
प्रत १०००
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प्रस्तावना
संस्कृत अने मागधी भाषामां प्राचीन महात्माओ, कविओए 'जनसमूहना कल्याण माटे अनेक जातना प्रवर्तनो करेलां छे, जे चार अनुयोगमां वर्तमानकाळे आपणी दृष्टिए पडे छे. जेमां बीजा अनुयोग करतां चरितानुयोगने प्राधान्यपणुं आपवानुं कारण एज छे के, तेनाथी बाळ जीवो सरलता तेमज सहेलाईथी, सदाचार अने सद्बोधना शिक्षणो मेळवी शके छे, अने जेटली असर कथानुयोगथी थाय छे तेटली बीजाथी थती नथी.
आवा पूर्वाचार्योना संस्कृत प्राकृतमां गद्य पद्यात्मक, रचेला चरित्रो सरल भाषामां जनसमूहनी सामे मूकवामां घणा लाभो समायेला छे. ते वखतना धर्म भावनाना अद्भुत अने समृद्धिशाळी तत्त्वो, ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप के धर्माराधनाना फळरूपे जे ते समये प्रसिद्धि पाम्या होय तेनुं माहात्म्य वर्तमान काळमां आवा ग्रंथोरूपे प्रगट करवाथी तेना वांचको - जिज्ञासुओनी धर्मश्रद्धा वृद्धि पामवा साथे व्यवहारिक उन्नतिना कारणभूत नीतिना मार्गनुं अनुसरण अथवा दिग्दर्शन उत्तम प्रकारे थाय छे.
जैन कथानुयोगमां त्यागी महात्माओ, तथा संसारी जीवो वगेरे अनेक उत्तम पुरुषोनां चरित्रो आवे छे, तेमां पण जिनेश्वरो - तीर्थंकरो महाराजाओनां चरित्रो तो उत्तमोत्तम होय छे. वर्तमान समये आ क्षेत्रमां जिनेश्वर भगवाननो अभाव होवा छतां आवा पवित्र पुरुषोनी प्रतिमाना आलंबन वडे सेंकडो भव्यात्माओ भवजळ तरी गया छे; तेवा उत्तम महापुरुष तीर्थंकरना महान पदने प्राप्त करवामां तेवा पुरुषोए पूर्वे केवा केवा प्रकारनी धर्माराधना करी, कर्मनिर्जराना विपुल मंत्रोने केवी रीते साधीने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करी सिद्ध परमात्मा थई शक्या. अनादि काळथी आत्माने लागेला कर्मरूपी कादवने दूर करी केवी जातना आत्मभोगे परम पद मेळवी शक्या तेनुं दिग्दर्शन अने अनुभव थवा माटे आवा महान पुरुषोना चरित्रो जीवोनी दृष्टि मर्यादामां आववा जोईए अने तेवा हेतुने लईने ज आ सभा मुख्यत्वे करीने वर्तमान चोवीसीना तीर्थंकर प्रभुनां पूर्वाचार्यो रचित चरित्रोनुं शुद्ध गुजराती भाषांतर करावी समाज सामे मूके छे.
पूर्वाचार्यकृत चरितानुयोगथी बीजा पण लाभो छे; ते ए के भूतकाळमां थई गयेल ते ते महान् पुरुषोना विद्यमान वखते ते समयमां देशनी सामाजिक, नैतिक, राजकीय अने धार्मिक प्रवृत्ति केवी हती, तेनी जाण थवा साथे वर्तमान काळमां ते ते परिस्थितिओने समयानुसार केटली बंधबेसती स्थिति छे, केवुं अने
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केटलुं भव्य जीवोने अनुकरण करवू शक्य छे साथे वर्तमान काळमां हेय, ज्ञेय अने उपादेय केटलुं छे तेनो पण अनुभव थाय छे.
तीर्थकर चरित्रनुं श्रवण कल्पसूत्रद्वारा पर्युषण पर्वमां जैन प्रजाने सर्वथा साध्य होई दर वर्षे नियमित तक मळे छे. वळी त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र जे के पूर्वाचार्य रचित छे ते वगेरेमां पण परमात्मा देवोना चरित्र उपलब्ध थाय छे के जेमांथी वधता ओछा अंशे पण वाचक तेनो लाभ मेळवे छे, परंतु आवा देवाधिदेवनां चरित्रो हजु पण मूळ-संस्कृत प्राकृत भाषामां बहुविध उपकारक अने विस्तृत एटला बधा छे के, वर्तमान काळमां आपणो समुदाय ते भाषानो अभ्यासी न होवाथी ते ते महापुरुषोना गुणभंडारो- अजाणपणुं रही जवा पामे छे; वळी एक ज ग्रंथमां अनेक महा पुरुषोना चरित्र होवाथी ते संक्षिप्तमां पण होय तेथी एक एक तीर्थंकर भगवान- चरित्र संपूर्ण अंशे, विविध अनेक उपदेशक, अंतर्गत कथाओ सहित, प्रतिभाशाळी, मनोहर रसगौरव शैलीथी अलंकृत करेल होय अने ते प्राचीन महात्मानी कृतिनुं होय, जेथी तेवा चरित्रमाथी तत्त्व प्राप्तिनो जनसमुदाय अलभ्य लाभ मेळवी शके. तेथी तेवा ज तीर्थंकर प्रभुना चरित्रोनुं गुजराती भाषामां सरल भाषांतर करी प्रगट करवानो शुभ प्रयत्न होवाथी आवो प्रबंध केटलाक वखतथी सभाए शरु कर्यो छे; जेमांथी श्री नेमिनाथ प्रभु तथा श्री सुपार्श्वनाथ प्रभुनां चरित्रो प्रगट करेलां छे, जेनो लाभ सारी रीते जन समाजे लीधेलो होवाथी अने सभानी आ प्रवृत्ति प्रशंसनीय साहित्य सेवारूप होवाथी अने ते चालु राखवानी घणी मांगणी अने सूचनाओ केटलेक स्थळेथी थती होवाथी, तेनाज प्रयत्नरूपे आ श्री ज्ञानसागरसूरि रचित श्री विमलनाथ प्रभुना चरित्रनुं गुजराती भाषांतर करावी जैन समाजनी सेवामां मूकीए छीए. हजी तेवो ज विशेष प्रबंध शरु होवा तरीके श्री चंद्रप्रभु चरित्र तथा चरम तीर्थंकर श्री महावीरदेवनुं चरित्र (जे के प्राकृत घणुंज प्राचीन, रसिक अने तत्त्वज्ञाननी विविध हकीकतो अने कथाओ साथेनुं छे) के जेना भाषांतरो तैयार थई गयेलां छे, ते पण आर्थिक सहाय मळतां प्रगट करवानो शुभ प्रयत्न आ सभानो छे.
आवा जैन कथानुयोगर्नु परिशीलन करवाथी बीजा करतां ते समाज उपर विशेष महान उपकार करी शके छे. आ ग्रंथ पण तेवो ज होई ते साथे तेमां आवेल क्रमवार कथाओनी अलौकिक रचना, छूपायेलो तात्त्विकबोध असाधारण गौरवशाळी होई आ कथाग्रंथ सर्व मुमुक्षुओने सर्व रीते उपयोगी थई पडशे, तेम अनुभवतां तेनो अनुवाद करावी तेनी सार्थकता थवा आजे जिज्ञासुओनी आगळ मूकवा प्रयत्नशील थयेल छीए.
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ग्रंथ रचवानो हेतु -
पूर्वाचार्यनी कृतिकाना आवा अनेक ग्रंथोमांथी आ श्रीमान् ज्ञानसागरसूरिनी कृतिरूप श्री विमलनाथ चरित्र एक अद्वितीय जीवनचरित्रना शिक्षारूप बोधप्रद ग्रंथ छे. आ चरित्रना रचवामा मुख्य उद्देश प्रयोजन ए छे के भव्यात्माओ धर्मरूपी कल्पवृक्षनुं स्वरूप समजी तेनो प्रभाव जाणी तेनो आदर करी मोक्ष मेळवे. ग्रंथकार महात्मानो परिचय -
श्री स्थंभतीर्थ-खंभातमां व्यवहार-व्यापारमा कुशळ श्री हरिपति नामना संघपति हता. जेमणे संवत १४५२नी सालमां संघ लई के जे संघमां सात जिनमंदिरो हता, ते साथे श्री शत्रुजय तीर्थनी यात्रा करी हती अने तेओए श्रीरत्नसिंहसूरि अने साध्वीवर्गमां शिरोमणि श्री रत्नचूला साध्वी महाराजना पगला पधराव्या हता. ते संघपति हरिपति शेठनी नामलदे नामनी सुपत्नीथी सज्जनसिंह नामे पुत्र थयो, ते सज्जनसिंह शेठनी कौतुभदेवी नामनी स्त्रीथी शाणराज शेठ थया, के जेणे श्री शत्रुजय तथा श्री गिरनार तीर्थनी संघ सहित २४ देवालयनी साथे उत्सव सहित विधिपूर्वक यात्रा करी हती. ते शाणराज शेठना आग्रहथी ज आ ग्रंथना कर्ता श्रीमान् ज्ञानसागरसूरिए आ ग्रंथ संवत १५१७ना श्रावण मासनी कृष्ण पंचमीने दिवसे श्री स्थंभतीर्थमां भव्य जीवोना उपकार माटे लख्यो छे. श्रीमान् ज्ञानसागरसूरि श्री रत्नसिंहसूरि महाराजना शिष्य छे एम ग्रंथनी छेवटे ग्रंथकार महाराजे संक्षिप्तमा जणावेल छे. आ ग्रंथ रचवानो उपरोक्त हेतु साथे ग्रंथनी शरुआतमां ग्रंथकर्ताए पण जणावेलो छे के. शाणराज शेठे श्री रत्नसिंहसूरीश्वर महाराजना उपदेशथी रैवताचल (गिरनारजी) तीर्थ उपर एक जिनालय कराव्युं हतुं, जेना द्वार उपर श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ अने चिंतामणि गणधर बंने काउसग्गने धारण करी बिराजमान छे अने ज्यां पवित्र कांतिवाळु समवसरण स्फुरायमान थई शोभावेलुं छे. जे जिनालयमां बीजी सुवर्णनी प्रतिमाओ पण होवाथी कांचनबलानक एवं गौरवशाळी नाम आपेलुं छे. आवा भव्य ते जिनालयमां मूळनायक श्री विमलनाथ प्रभु (के जे आ ग्रंथमां जेमनुं चरित्र आवेल छे. ते) जय पामे छे. एटले के शाणराज शेठे श्री गिरनार तीर्थ उपर श्री विमलनाथ प्रभुनुं मंदिर करावी देवभक्ति करेली होवाथी तेज तीर्थंकर भगवाननुं चरित्र रचवा श्रीज्ञानसागरसूरिजीने विनंती करी होय अने आ ग्रंथनी रचना तेवा हेतुथी थई होय ते हकीकत पण सप्रमाण छे. आ हकीकत ग्रंथ संबंधे जणावी हवे आ ग्रंथमां शुं शुं हकीकतो छे ते संक्षिप्तमा जणावीए छीए.
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ग्रंथसंक्षेप
प्रथम सर्ग दानधर्माधिकार
पेज नंबर १ थी ७४
प्रथम श्री ऋषभदेव भगवान, श्री शांतिनाथ महाराज, श्री नेमीश्वर जिनदेव, श्री पार्श्वनाथ प्रभु, श्रीमहावीरस्वामी अने चरित्रनायक श्री विमलनाथ प्रभुने नमस्कार करवारूप मंगलाचरण करी, श्री पुंडरीक अने गौतम गणधरने वंदन करी, सरस्वती देवी अने गुरुनी स्तुति करतां चरित्रारंभ करे छे.
ग्रंथनी शरुआत हवे अहिंथी थाय छे. प्रथम ग्रंथ संबंधी विवेचन करी धर्मनो महान प्रभाव जणावे छे. जेमां पण परोपकार धर्म छे ते सर्वथी श्रेष्ठ छे, ते परोपदेश रूप परोपकार धर्म जेनी तुलना कोई पण रीते थई शकती नथी, तेथी ज हितोपदेशने अर्थे ते परोपकारधर्म विषे कांई कहेवानो हेतु ग्रंथकार महाराज अहिं बतावे छे.
चरित्रारंभ
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आगळ ग्रंथकर्ता महात्मानो परिचय बतावेल छे तेमां जणाव्या मुजब शाणराज नामना गृहस्थे श्री रत्नसिंहसूरि महाराजना उपदेशथी श्री गिरनार पर्वत उपर एक सुंदर जिनालय कराव्यं हतुं, जेमां मूळ नायक तरीके बिराजमान थयेला तेरमा जिनेश्वर श्री विमलनाथ प्रभु हता जेथी ते उत्तम श्रावक वर्यनी विनंतीथी श्री ज्ञानसागरसूरिजी कहे छे के हुं श्री विमलनाथ प्रभुनुं चरित्र कहुं छं. प्रथम तिर्यग्लोकनी अंदर आवेल मेरुपर्वत अने अरिहंतोनुं आगमन जे अढीद्वीप सिवाय बीजे थतुं नथी, ते अढीद्वीपनं तेनी अंदर आवेल कर्मभूमि (१५) अकर्मभूमी (३०) तथा अंतरद्वीपोनुं वर्णन, तथा जंबूद्वीपनुं वर्णन आपवामां आवेल छे. त्यारबाद धातकीखंडनुं वर्णन आपतां तेमां आवेल प्राग्विदेह नामना क्षेत्रमा रहेल तीर्थंकरो अने अन्य मनुष्योनी स्थिति प्रकृतिनुं विवेचन करी, श्रुत केवीए कहेला पूर्वविदेहनी अंदर भरत नामे एक विजय आवेलो छे. तेमां महापुरी नामे
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एक नगर छे, तेनी ओळख आपी ते नगरीमा एक पद्मसेन नामे राजा राज्य करतो हतो. ते राजा एक वखते रात्रिने छल्ले पहोरे विचार करवा लाग्यो के, मनुष्यने गुरु सिवाय मोक्षपदनुं स्थान थतुं नथी, माटे कोई मारे धर्मगुरु होय तो वधारे सालं! प्रातःकाळ थतां कचेरीमा आवतां तेना भाग्ययोगे ते नगरीनी बहार श्री ब्रह्मगुप्त नामना एक सूरिजी शिष्योना परिवार सहित पधारे छे, जेमनी वधामणी वनपालके राजाने आपतां परिवार सहित राजा श्री सूरि महाराजने वंदना करवा ते वनमां आवे छे, ज्यां सूरिमहाराजने विधिपूर्वक राजा वंदना करी, पोताने उच्च अने निर्भय करवा विनंति करे छे. आचार्य महाराजे राजाने उपदेश आपतां जणाव्युं के, कर्मो अने जीवो काळथी अनादि छे. जीव प्रायः करीने वनस्पतिमां रहे छे, त्यांथी चडतां बादर, निगोद, पृथ्वीकाय विकलेन्द्रियमां पछी पंचेन्द्रियमां आवे छे; ते रीते तेनुं तेमज व्यवहारराशी, अव्यवहारराशी तथा नारकी वगेरे जीवोनी कायस्थिति तथा आयुष्य- विवेचन करी, सर्व प्रकारनी आशाने पुरनारो, दश दृष्टांतोथी दुर्लभ एवो चिंतामणि समान मनुष्यभव अने तेनी उपयोगीतानुं वर्णन करवामां आवे छे; ते संक्षिप्तमां होवा छतां जाणवा योग्य छे. मनुष्यभवमां ज धर्मरूपी राजा मळी शके छे. जे धर्म निर्धनने धन अने असहायने सहाय करवामां श्रेष्ठ छे. धर्मथी सारा कुळमां जन्म थाय छे, धर्मथी सर्व प्रकारनी संपत्तिओ मळे छे, धर्मथी प्रभुपणुं, इंद्रपणुं, तीर्थंकरपणुं प्राप्त थाय छे. आ त्रैलोक्यमा जे जे शुभ वस्तु छे, ते सर्व धर्मना प्रसादथी प्राप्त थाय छे. ते धर्म सुबुद्धिमंत्रीने श्रेष्ठ अने सखावती केम सहाय थई पड्यो तेनी अवांतर कथा प्रथम अहीं आपवामां आवी छे, साथे पकड्युं छे ते छोडवू नहिं तेवा कदाग्रहथी कुलपत्रक जेना अंगो भांगे छे ते दृष्टांत आपे छे. आ बन्ने विषयो उपर सुबुद्धि मंत्रीए पोताना राजा जितशत्रुने आपेल उपदेश तथा धर्मना आराधनथी सुबुद्धि छेवटे मोक्ष लक्ष्मीने केम प्राप्त थयो ते आ कथामां आपेल छे. कथा एटली बधी रसिक छे के जेना मननपूर्वक वांचनथी बाळजीवो धर्मनी सन्मुख थाय छे.
धर्मरूपी कल्पवृक्षनुं माहात्म्य अने ते दान, शील, तप अने भाव ए चार शाखावाळो छे, जेमां दानधर्म ए मुख्य छे. ते गुणथी बीजा सर्व गुणो प्रकाशमान थाय छे, पण बीजा गुणोथी दानगुण प्रकाशमान थतो नथी; तेमज बीजा गुणोथी मात्र तेनुं आराधन करनार संसार समुद्र तरे छे त्यारे दानगुणथी दाता अने दान ग्रहण करनार बंने संसार समुद्र तरी जाय छे; तेथी सर्वथी दानगुण अधिक छे. वगेरे दानगुणनो महिमा अने दान आपवाथी कीर्ति, महत्ताने आत्मकल्याणनी
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प्राप्ति रत्नचूडकुमारने केम थई, ते कथा दानना प्रकारो साथे श्रीमान् ब्रह्मगुप्तसूरि श्री पद्मसेन राजाने कही संभळावे छे; जे वांचवाथी कोईपण प्राणी दानधर्म गुण प्राप्त करवानी ईच्छावाळो थया सिवाय रहेतो नथी. अहिं दानधर्माधिकार नामनो प्रथम सर्ग पूर्ण थाय छे.
द्वितीय सर्ग शीलधर्माधिकार
पाना नंबर ७५ थी १४२ आ सर्गमां आचार्य महाराज धर्मरूपी कल्पवृक्षनी बीजी शाखा शीलधर्माधिकार विषे उपदेश करे छे, जे मनुष्य शीलनु पालन करे छे तेने विपत्तिओ संपत्तिमां पलटाई जाय छे. शत्रु स्वजन थाय छे, जंगलमा मंगळ बने छे, सुरासुरो ईच्छित आपनार थई जाय छे, हिंसक प्राणीओ वैरभाव भूली जाय छे, एटले के सर्व व्रतोमां उत्तम एवं शीलवत आस्तिक मनुष्योए सदा पाळवा योग्य छे. शील व्रत पालन करवाथी आलोकमां कीर्ति अने परलोकमां स्वर्ग तथा मोक्ष, सती शीलवतीनी जेम प्राप्त करे छे. शीलना माहात्म्य उपर शीलवतीनी कथा अहिं आपवामां आवे छे. जे कथा रसिक, बोध लेवा लायक अने गौरव युक्त छे.
तप नामनी धर्म कल्पद्रुमनी त्रीजी शाखानुं व्याख्यान सूरिमहाराज हवे आपे छे. हरीकेशीबळ वगेरे जे लोकोत्तर महर्षिओ हीनकुलमा उत्पन्न थयेला छतां, प्रभुता अने देवताओवडे सेवित थई, आ विश्व उपर विख्यात थई गया, ते तपर्नु ज फळ छे. उत्तम पुरुषोने ताप उत्पन्न करे तेवा महा पापो लागी गयां होय, तेवा पापोनो क्षय तपथी क्षण मात्रमा थई जाय छे. ते तप बार प्रकारे छे. ते तपवडे युद्ध करवाथी सर्व शत्रुओने मनुष्य पूर्ण रीते जीती ले छे तेम तपवडे विग्रह-शरीर खपावतो क्षमाधारी पुरुष चंद्राहास-चंद्रना प्रकाश जेवा तेजने धारण करतो निर्धन छतां अंतर सर्व शत्रुओने पूर्ण रीते जीती ले छे. देहनी अंदर अन्नपाननो प्रवेश अटकावाय नहिं त्यां सुधी ते देहना किल्लामा रहेला कर्मरूपी शत्रुओ पर विजय थई शकतो नथी. तपना आराधनथी आ लोकमां लब्धिओ मळे छे अने परलोकमां शिवसंपत्ति प्राप्त थाय छे. पूर्वे दुष्कृत्यो कां होय तो पण जो प्राणी आदरथी दुष्कर तप आचरे छे तो ते निर्भाग्यनी जेम उंचा प्रकारनां सुखो भोगवे छे. अहिं पद्मसेन राजाए निर्भाग्य कोण हतो, ते पूछवाथी श्रीब्रह्मगुप्तसूरिजी
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निर्भाग्यनी कथा कहे छे. ते निर्भाग्य दुःखथी कंटाळी पर्वत परथी पडी आपघात करतो हतो, जेवामां त्यां श्रीमानदेव केवळी भगवंतना दर्शननो लाभ तेना भाग्ययोगे थाय छे. अने केवळी भगवंत तेने उपदेश आपी (तेनो पूर्वभव कही) आपघात करतां अटकावे छे. धर्म पमाडे छे; ए उपदेशमां अवांतर श्री जिनेश्वर देवनी पूजा उपर देवपाळनी कथा देवतत्त्वनुं स्वरूप, गुरुतत्त्वनुं वर्णन साथै श्रेष्ठी पुत्र मुग्धनी कथा, साथे धर्मतत्त्वना विवेचन साथे अमरसिंह तथा पूर्णकळशनी कथा अने ते कथानो उपनय घटावी छेवटे पूर्णकळश राजाए दीक्षा ग्रहण करी, ज्ञान, दर्शन, चारित्रनुं आराधन करतां कषायजय, इन्द्रियजय, अष्टकर्मसूदन, सर्वांगसुंदर, पंचमहाभूषण वगरे नामना अनेक तपोनुं विधि सहित आराधन करी, सवार्थसिद्ध विमानमां जई, त्यांथी आयुष्य पूर्ण करी महाविदेह क्षेत्रमां उत्तम कुळमां जन्म लई, दीक्षा ग्रहण करी, उत्तम तपथी कर्मनो क्षय करी सिद्धिने पामशे. ए वगेरे अनेक उत्तम कथाओ आपी ग्रंथकर्ता श्री बीजो सर्ग पूर्ण करे छे. आ सर्गमां आवेल कथाओ अति प्रभावशाळी अने रसयुक्त छे, जेना वांचनथी आत्माने शांति प्राप्त थाय छे.
तृतीय सर्ग
भावाधिकार
पाना नंबर १४३ थी २१८
धर्मकल्पद्रुमनी चोथी शाखा भाव तेनो अधिकार श्रीमान् ब्रह्मगुप्तसूरि महाराज श्री पद्मसेन राजाने संभळावे छे. दान, शीयळ, तपथी मनुष्यने केवळज्ञान उत्पन्न थतुं नथी परंतु भाव नामनी शाखाथी ज मोक्ष मेळववानी महान शक्ति उत्पन्न थाय छे. परिणाम रहित मनुष्यने भावरूपी शाखाथी जेम धर्मनी पुष्टि थाय छे. जेम रसोई लवण नाखवाथी रसवाळी थाय छे, भोजन घी वड़े ताकात आपनारुं थाय छे, तेम सर्व गुणना निधानरूप धर्म भावनाथी ज संपूर्ण बने छे. दानादि वगेरे धर्ममां भावधर्म होय तो ज सोनुं अने सुगंध मन्या जेवुं थाय छे. दयादान करवुं ते सुख आपनारुं छे; परंतु कळीयुगमां घणुं दुष्कर छे, कारण के आ युगमां प्राणीओ आरंभ समारंभमां तत्पर होय छे. वळी धर्मोपष्टंभ दान करवा कहेल छे, परंतु काळ तथा पात्र वगेरेनो योग थवो दुर्लभ छे. शील तो मुक्तिरूपी लक्ष्मीनी लीलावाळं छे, परंतु तेनुं पालन करवुं घणुं मुश्केल छे. तप आ संसारमां संतापरूप तडकामां छायादार वृक्षना जेवुं छे, परंतु तेनी अंदर
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इंद्रियोनो जय करवो सुगम नथी, जेथी सुखथी सेवी शकाय एवी आ धर्मनी चोथी शाखा रूप भाव भव्यजीवोने धारण करवा जेवो छे, के जेनाथी चंद्रोदरने थोडा वखतमां सिद्धि प्राप्त थई. अहिं गुरु महाराज चंद्रोदरनी कथा कहे छे अने कथानो उपनय घटावे छे. साथे पंचपरमेष्ठि मंत्रनो महिमा जणावी तेनो विधि पण आ कथामां बतावे छे, जे ज्ञेय अने उपादेय छे. एक वखते ज्ञानथी युक्त एवा धर्मघोष नामना आचार्य घणा शिष्योना परिवार सहित उद्यानमां आवी चड्या. ते खबर सांभळी चंद्रोदर राजा गुरुने वंदन करवा आव्यो विधिपूर्वक वंदन करी आसन उपर बेठो. पछी आचार्यमहाराज भावधर्म माटे उपदेश आपतां जणावे छे के, दान चित्तने अनुसारे, शील बुद्धिने अनुसारे, शास्त्र तथा कायाने अनुसारे तप त्यांसुधी मनुष्य हर्षथी सुखदायक एवा धर्मकर्मने कपट विना करी शके छे. ज्यां बीजी शक्ति न होय तो केवळ भावना ज करवी. ते उपर शास्त्रमा अनेक दृष्टांतो बळदेव ऋषि अने रथकारनां मोजुद छे. जे वचननी वृत्तिथी अने लोकोनी स्तुतिथी जे भाव दर्शावे छे, ते प्रमाणे शक्ति छतां न करी शके तो ते भाव साचो कहेवातो नथी. ते उपरथी श्री धर्मघोषसूरिजी धन- अहिं दृष्टांत आपे छे अने तेनो पूर्वभव साथे जणावे छे. सूरिमहाराजनो उपदेश सांभळी राजा चंद्रोदर संसारनो त्याग करी भावना भाववा लाग्यो; ए प्रमाणे भावना भावतां राजाने केवळज्ञान प्राप्त थयु. पछी विहार करी धर्मनी प्रभावना करी छेवटे सिद्धिपदने पाम्या. आ प्रमाणे चंद्रोदरनी कथा भावधर्माधिकार मारे ग्रंथकार महात्माए जणावेली छे, जे आखी कथा मननीय होई पठनपाठन करनारने चित्तने शांति उत्पन्न करनारी छे.
त्यारबाद श्री ब्रह्मगुप्तसूरिए पद्मसेन राजानी विनंतीथी आ संसारमा धर्मनी जे योग्यता छे ते उपदेश आपतां प्रथम श्रावकधर्म, पालन करवा अने पछी विद्वतावाळी दीक्षा ग्रहण करवा जणावतां राजाने देशविरतिनुं दान आप्यु; पछी आचार्य महाराज विहार करी गया. राजा पोताना नगरमां आव्यो. पछी गुरु उपदेशने पोताना आत्मामां उत्तम रीते निरंतर चितवन करतो, मोटां जिनमंदिरो कराव्यां. सुवर्णनी जिन प्रतिमाओ करावी, उत्तम सिद्धांतना पुस्तको लखाव्यां, निरपराधि त्रसजीवोने त्रास मटाडवानुं कार्य कर्यु, साधु, साध्वी महाराजनी अन्न, वस्त्र, पात्रो वगेरेथी भक्ति करी, श्रावकश्राविकाओनुं वात्सल्य राज्यभाग छोडी दई करवा मांड्यु, स्वदारा संतोष व्रत, बार प्रकारनां तपपूर्वक बार भावना भाववा लाग्यो अने त्रिकाळ पूजा करनारा ते राजाए श्रावकनी अगियार पडिमा
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शुद्ध हृदये वहन करी. पछी चारित्र लेवानी ईच्छा थई, जेवामां ते ज वखते फरी श्री ब्रह्मगुप्तसूरीश्वरजी त्यां पधार्या. तेओश्रीने वंदन करवा जतां राजाए अणगारपणानी गुरु पासे मागणी करी अने अणगार थया. सूरिमहाराजे कडं के दश कन्याओ परणीश तेमां तारो प्रेम थशे, त्यारे तने हं दीक्षा आपीश. राजा ते सांभळी विस्मय पामे छे, जेथी गुरुमहाराज चेतना सहित दश कन्याओचं वर्णन करे छे. जे स्वांतहृदय नामे नगर, रुचिर अध्यवसाय राजा तेनी घणी स्त्रीओ छे, जेमां शांति नामनी स्त्रीने क्षमा नामे पुत्री, रुचि नामनी स्त्रीने दया नामे पुत्री, विनयता नामे स्त्रीने मृदुता नामे कन्या, समता नामे स्त्रीने सत्यता नामे पुत्री, शुद्धता नामे स्त्रीने ऋजुता पुत्री, पापभिरुता स्त्रीने अवैरता कन्या, निरागता नामनी स्त्रीने ब्रह्मरति पुत्री, निर्लोभता स्त्रीने मुक्तता पुत्री, प्रज्ञा नामनी स्त्रीने विद्या नामे पुत्री अने दशमी विरति नामे स्त्रीने निरीहता नामे कन्या. ए दश कन्याओगें उपदेशमय कथन आचार्यमहाराजे कही राजाने कडं के आ कन्या, पाणी ग्रहण करी पछी दीक्षा ले. त्यारपछी ते दश कन्याओनी प्राप्तिना उपायो आचार्य महाराजे राजर्षिने वर्णवी बताव्या. पछी पांच समिति अने त्रण गुप्ति मळी आठ प्रवचन मातानी सेवा करवानो राजाने उपदेश आपतां ईर्यासमिति उपर वरदत्तनी कथा, बीजी भाषासमिति उपर संगत साधुनी कथा, त्रीजी एषणासमिति, वर्णन अने तेना उपर धनशर्मा अने धर्मरुचि मुनिनी कथा, चोथी आदान समिति उपर सोमीलाचार्यनी कथा अने पांचमी उत्सर्ग समिति उपर धर्मरुचि मुनिनी कथा तेमज मनगुप्ति उपर जिनदासनी कथा, वचनगुप्ति उपर गुणदत्त साधुनी कथा अने कायगुप्ति उपर मार्गे चालता एक साधुनी कथा, ए अष्ट प्रवचननी समज अने ते उपर कथा ते साथे बीजो केटलोक उपदेश पद्मसेन मुनिने आचार्य महाराज आपे छे जे माननीय, सुंदर अने ग्राह्य छे.
त्यारबाद पद्मसेन मुनिए सर्व सिद्धांतनुं अवलोकन कयुं अने पछी ते मुनिए पोताना पूर्वना दुष्कर्मोनो क्षय करवा तप करवा मांड्यु. बावीस परिषहो अने देवो तिर्यंच अने मनुष्योए करेला चार प्रकारना उपसर्गो पोताना हित माटे समताभावे सहन कर्या. पछी कोई वखते गुरुनी आज्ञा लई गणमांथी जुदा नीकळी साधुनी बार प्रतिमा वहन करी अने शुभ वासनाथी वासित थयेल ते वैराग्यवान मुनि पद्मसेने विधिपूर्वक वीस स्थानकनी आराधना करी. अहिं वीसस्थानकथी आराधना आ मुनिवर्ये केवी रीते करी तेनुं स्फूट अने जाणवा लायक वर्णन श्रीज्ञानसागरसूरि महाराजे बहु ज सुंदर शैलीथी आपेल छे. जेनुं
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मनन करवाथी संसारमा परिताप पामेल आत्माने शांति प्राप्त थाय छे.
__ आ प्रमाणे धर्मध्यानमां तत्पर एवा ते पद्मसेन मुनि आयुष्यनो क्षय थतां मृत्यु पामी सहस्रार देवलोकमां देवरूपे उत्पन्न थया. आ पद्मसेन मुनि तेज के आ चरित्रमा जेनुं वर्णन करेल छे, ते देवाधिदेव तेरमा तीर्थंकर भगवान आ चरित्रनायक श्री विमलनाथ प्रभुनो आगलो त्रीजो भव छे के जेमणे मुनिधर्ममां वीस स्थानकनुं आराधन करी तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कयु. ते महान पुरुषे ते देवलोकमां देवता सुख भोगवी आयुष्य पूर्ण करी श्री तीर्थंकर प्रभु तरीके जन्म ले छे ते हवे पछी चोथा सर्गमां कहेवामां आवे छे.
चतुर्थ सर्ग श्री विमलनाथ प्रभुना जन्म, दीक्षा अने केवळ्ज्ञान वर्णन
___ पाना नंबर २१९ थी २८९ आ सर्गमां विमलनाथ प्रभु, च्यवन, जन्म, दीक्षा अने केवळज्ञान ए चार कल्याणकोनुं वर्णन आपवामां आवे छे. जंबूद्वीपमां आवेला भरतक्षेत्रमा कांपिल्यपुर नगरमां कृतवर्म राजा छे, जेने श्यामा नामे राणी छे. हवे पद्मसेन राजानो जीव सहस्रार देवलोकमां देवसुख भोगवी वैशाख मासनी शुक्ल बारसना दिवसे चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्रमा आवतां त्यांथी च्यवीने राणीनी कुक्षिमां त्रज्ञान सहित अवतर्यो. राणी चौद सपना जुवे छे अने इंद्रो स्वर्गमांथी त्यां आवी प्रभनी स्तुति करी माताने चौद सपनानु फळ उंच स्वरे जणावे छे. त्यारबाद आठ मासने एकवीस दिवसो व्यतीत थतां माघमासनी शुक्ल तृतियाना दिवसे चंद्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमा आवतां श्यामा माताए वराहना चिह्नवाळा सुवर्णनी जेवी कान्ति धरनारा पुत्रने जन्म आप्यो. (श्री विमलनाथ प्रभु जनम्या). आसन कंपथी प्रभुनो जन्म थयो जाणी छप्पन दिग्कुमारिकोओ वैमानिक देवो, तेना इंद्रो तथा भवनपति अने व्यंतरादि देवो अने तेना इंद्रोए प्रभुनो जन्म महोत्सव अने जन्माभिषेक भावना अने भक्तिपूर्वक करी पोतपोताना स्थानोमां जाय छे. त्यारबाद प्रातःकाळमां प्रभुनी माता सुंदर पुत्रने जोई खुशी थाय छे पिताने वधामणी पहोंचे छे. प्रभुना पिता पण जन्म महोत्सव करी पुत्रनुं नाम विमलकुमार पाडे छे. अनुक्रमे यौवन वयने प्राप्त करे छे त्यारे पिता कृतवर्मराजा पुत्रनो उत्सवपूर्वक राज्याभिषेक करी राज्यगादी सोंपी, पोते चारित्र ले छे. उत्तम रीते विमलनाथ प्रभु राज्य पालन करे छे. दरम्यान प्रभुने महाभाग्य पुत्र प्राप्त थाय छे. तेनुं नाम अरिमर्दन पाडवामां
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आवे छे. प्रभुने राज्यनु पालन करतां त्रीस लाख वर्षो वही गया पछी अने तेमनुं भोग फळ कर्म क्षीण थतां दीक्षा लेवानो विचार थतां ज आसनकंपथी प्रभुने दीक्षा लेवानो योग्य अवसर जाणवामां आवतां, ब्रह्मलोक निवासी देवो त्यां आवी धर्म तीर्थ प्रवर्ताववा विज्ञप्ति करे छे, पछी प्रभु वरसीदान आपे छे. एक वर्षमां त्रणसो अठासी क्रोड अंसीलाख सुवर्णतुं दान करे छे. पछी त्यां आवेल बीजा
वैमानिक देवो अने इंद्रो सुगंधी तीर्थ जळ लावी प्रभुने स्नान करावे छे. दिव्यचंदन चर्ची देवदुष्य वस्त्र अने अलंकारोथी विभूषित करे छे, पछी देवदत्ता नामनी शिबिका उपर प्रभु आरूढ थाय छे अने याचकोने दान आपता सहस्राम्र वनमां पधारे छे. त्यां अशोकवृक्ष नीचे उतरी आभूषणो वगेरे तथा बधा परिग्रहनो त्याग करतां केशोनो-पंचमूष्टि लोच करी (माघमासनी शुक्ल चतुर्थीना रोज) पाछला पहोरे छट्ठनो तप करी प्रभु दीक्षा ले छे, के तरत ज चोथं मनःपर्यवज्ञान प्रभुने उत्पन्न थाय छे. इंद्रो अने देवो नंदीश्वर द्वीपनी यात्रा करी स्वस्थाने जाय छे. बीजा दिवसे प्रभु धान्याकंट नामना नजीकना गाममा प्रथम पारणाने माटे जाय छे. त्यांना जयराजाना प्रासादमा प्रवेश करी निर्दोष आहार ग्रहण करे छे. देवदुंदुभी देवताओ वगाडे छे अने राजाने त्यां सुवर्णनी वृष्टि थाय छे. पछी प्रभु त्यांथी अन्य स्थळे विहार करी जाय छे.
ए अरसामां जंबूद्वीपनी अंदर अपरविदेह क्षेत्रने विषे आनंदकरी नामनी । नगरी छे, त्यांनी नंदिसुमित्र नामे एक राजा छे. त्यां सुव्रत नामना कोई एक आचार्य पधार्या. राजा आचार्य महाराजने वंदन करवा गयो ज्यां आचार्य महाराज धर्मदेशना आपे छे. तेथी वैराग्यथी राजानो आत्मा रंगतां राजा चारित्र ले छे. उत्तम रीते संयम पाळतां राजा पंचत्व पामवाथी पांच अनुत्तर विमानमां महान देवरूप उत्पन्न थाय छे.
__आ जंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमा श्रावस्ती नामे नगरी छे, तेनो धनमित्र नामे राजा छे. एक वखते तेनो मित्र बलीराजा त्यां आवे छे. बंने मित्रो पोतपोताना राज्यनो दाव मूकी जुगार रमतां धनमित्र पोतानुं राज्य हारी जाय छे. जेथी धनमित्रने बलीराजा राज्यमांथी काढी मूके छे. तेनी राणीओ पण पोताना पीयर जाय छे. राजा धनमित्र बहावरो बनी गयो छे अने वनमां भमतां भमतां एक दिवस सुपात्र मुनिने जोया अने मुनिश्रीने वंदना करी मुनिए तेने धर्मोपदेश आपवा मांड्यो. मुनिराज पांच प्रकारना पुरुषोनुं दृष्टांत तेना उपनय साथे आपे छे, जेथी राजाए पोताने राज्य मळशे के नहिं ते पूछतां ज्ञानी मुनि ज्ञानथी जोई राज्य नहीं
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मळे तेम जणावतां राजाने वैराग्य उत्पन्न थतां मुनि धनमित्रने दीक्षा आपे छे अने पछी मुनिराज उपदेश आपे छे के हे शिष्य! ते चारित्र ग्रहण कयुं छे माटे हवे तुं रागद्वेष करीश तो लक्ष्मीधर वगेरेनी जेम संसार तरी शकीश नहिं. अहिं कृपाळु मुनि लक्ष्मीधर वगेरेनी कथा कहे छे. अहिं लक्ष्मीधर, सुंदर, अर्हद्दत्त अने नंद ए चार भाईओ के जे वरुण नामना श्रावक शेठना पुत्रो छे. तेना घरमां चारित्रना सिद्धांत वगेरे सैन्योए तेना घरमां वास करेलो जाणी मोहराजा चिंतातुर थाय छे अने वरुणशेठना चारे पुत्रोने दृष्टिराग, स्नेहराग अने विषयराग प्रथम त्रण पुत्रने अने छेल्ला नंदने द्वेष कुंजर पोतानी जाळमां फसावे छे. पछी वरुणशेठ तेना पुत्रोने जिनेश्वर भगवान अने तेना धर्म उपर राग करवा अने संसार उपर राग नहिं करवा प्रथम पुत्रने उपदेश करे छे. ते मानतो नथी, पछी सुंदर नामनो बीजो पुत्र रागी पुरुषोने शुं सुख होय छे, तेना उपर लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा कहे छे. अवांतर सुंदर सूरराजाना पुत्र जयचंद्रनी कथा कहे छे. परंतु ते पुत्र रागने छोडतो नथी, पछी वरुणशेठ त्रीजा पुत्रने पण राग छोडवा उपदेश आपे छे. ते पण मानतो नथी, पछी शेठ चोथा पुत्र नंदने द्वेष त्यागवा उपदेश करे छे ते पुत्रे पण द्वेषने तज्यो नहीं. जेथी वरुणशेठने संसार उपर अभाव उत्पन्न थाय छे. जेवामां उद्यानमां श्री विजयकेवळी गुरुमहाराज पधार्या, तेमने वंदना करवा वरुणशेठ त्यां आवे छे. वरुणशेठ पोतानी अशांति (अनितिवाळा पुत्रो)नी हकीकत कही संभळावे छे. केवळी भगवंत वरुणशेठने पोताना घरमां मोहराजा छे तेज तेमना पुत्रोने कुबुद्धि आपे छे. ते मोहराजानो बधो वृत्तांत केवळीभगवंत वरुणशेठने जणावे छे. अहिं चारित्र धर्म अने मोहराजानुं स्वरूप (रागद्वेषनुं स्वरूप) अने वरुणशेठना ते चारे पुत्रो उपर केवी असर करे छे ते विवेचन छे, जे रसयुक्त, सुंदर, बोध लेवा लायक अने अवश्य मनन करवा जेवं छे. वरुणशेठ केवळी महाराजनो उपदेश सांभळी घेर जई सात क्षेत्रमा धन वापरी पोतानी स्त्री साथे ते • केवळी भगवंत पासे चारित्र ग्रहण करे छे. आ प्रमाणे गुरुवडे शिक्षा पामेल
धनमित्र मुनिए एक वखते कर्मनी विचित्रताथी गुरुए वार्या छतां, आ तपस्याथी हुं बलीनो वध करनारो थाउं तेवू नियाj बांध्यु. पछी क्रोधवडे शरीरने दमन करीने अनशन लई मृत्यु पामी अच्युत देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थाय छे. हवे बलीराजा पण दीक्षा लई चिरकाळ पालन करी मृत्यु पामी उत्तम देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां देवतानां सुखो भोगवी आयुष्यनो क्षय थतां. त्यांथी चवी आ भरतक्षेत्रमा नंदन नामना नगरमां समरकेशरी राजा थयो. ते सुंदरी
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नामनी राणीनी कुक्षीए बलीनो जीव देवलोकमांथी आवी उत्पन्न थयो. जेनुं नाम राजाए मेरक पाड्युं. साठ धनुष्यनी काया अने साठ लाख वर्षना आयुष्यवाळो मेरक प्रतिवासुदेव त्रण खंडनो भोक्ता थयो.
आ अरसामां द्वारिका नामे नगरीमां रुद्र नामे राजा हतो, तेने सुप्रभा अने पृथ्वी नामे बे उत्तम राणीओ हती. पेलो नंदिसुमित्रनो जीव अनुत्तर विमानमांथी च्यवी सुप्रभाराणीनी कुक्षीमां पुत्रपणे आवतां बळदेवना जन्मने सूचवनारा चार महा स्वप्नो राणीए जोयां अने शुभ दिवसे कांतिथी उज्वल एवा पुत्रनो जन्म आप्यो. तेनुं नाम पिताए भद्र पाड्युं. धनमित्रनो जीव अच्युत देवलोकमांथी च्यवी रुद्रराजानी बीजी राणी पृथ्वीना गर्भमां आव्यो. वासुदेवना जन्मने सुचवनारा सात महा स्वप्ना राणीए जोयां. अवसर प्राप्त थतां पृथ्वीराणीए शुभ लक्षणोथी युक्त पुत्रनो जन्म आप्यो. जेनुं नाम स्वयंभू राजाए पाड्युं. अहिं बळभद्र, भद्र अने स्वयंभू वासुदेव अनुक्रमे मोटा थवा लाग्या. एकदा उद्यानमां जतां मोटुं कटक जुवे छे, जे शशिसौम्य राजाए प्रतिवासुदेव मेरकने दंडरूपे मोकलेलुं मोटुं कटक जुवे छे, ते जोतां पोताना उग्र सुभटोने ते कटकमां जेटलुं होय तेटलुं बधुं बळात्कारे लई लेवा हुकम करे छे, जेथी सुभटो बधुं लई ले छे. मेरक प्रतिवासुदेवनी आगळ ते वृत्तांत जाहेर थाय छे, जेथी मेरक क्रोधातुर बने छे, तेनो मंत्री, रुद्रराजाना पुत्रो भद्र अने स्वयंभूए बळात्कारे लई लीधानी खबर आपे छे. पोताना मंत्रीने रुद्रराजानी राजधानीमां मोकले छे, मंत्री राजाने समजावी लील पाठुं मेळववा प्रयत्न करे छे. मेरक सामे नकामुं वैर न उत्पन्न करवा अने मेरकने बमणो दंड आपवा जणावे छे, जेथी स्वयंभू ते सांभळी क्रोधे भराय छे अने मेरकनो तिरस्कार करी पाठुं न आपवा जणावे छे. मंत्री मेरकने आ सर्व वृत्तांत जणावे छे. जेथी मेरक क्रोधे भराय छे। अने लडवा सैन्य तैयार करे छे; मंत्रीओ नहिं लडवा माटे वारवा छतां मेरक द्वारिका तरफ चालवा लाग्यो. सामेथी तेने आवतो सांभळी पोताना बंधु भद्र सहित स्वयंभू वासुदेव पण लश्कर साथे तैयार थई सीमाडा उपर उभो रहे छे. भाविभाव बळवान छे. वासुदेव प्रतिवासुदेवने हणी त्रणखंड पृथ्वीना धणी थाय छे तेवो अचल नियम छे, ते मुजब स्वयंभूने मेरके मूकेलुं चक्ररत्न हस्तमां प्राप्त थतां मेरक उपर ते छोडतां मेरकनुं मस्तक छेदी नांखे छे. पछी स्वयंभू वासुदेव भरतार्द्धने साधी कोटी शिला उपाडी त्यां पाछी मूकी पोतानी द्वारिका नगरीमां आवे छे; पछी रुद्रे पोताना पुत्र भद्रनी साथे स्वयंभूने वासुदेवपणानो अभिषेक करे छे.
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आ अरसामां बे वर्ष सुधी विहार करी प्रभु श्री विमलनाथ भगवान विचरतां विचरता पोताना दीक्षा स्थानमा पुनः आवे छे. प्रभु सहस्राम्रवनमां पधारी जंबूवृक्षनी नीचे शुद्ध स्थानमां छ? तप करी, स्थिर थई प्रतिमाने वहन करी, काउसग्गध्याने रहेतां थकां अपूर्व करणमा रही क्षपकश्रेणीने प्राप्त थयेला प्रभुए क्षीण मोहनो अंत करी घाती कर्मोनो उच्छेद कर्यो; अने शुक्लध्याने रहेतां पोष मासनी शुक्ल षष्ठीने दिवसे चंद्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमा आवतां केवळज्ञानने प्राप्त थया. ईन्द्रोना आसन चलायमान थतां त्यां आवी समवसरणनी रचना करी. जेथी प्रभु समवसरणमां जवाने पधार्या. चैत्यवृक्षनी प्रदक्षिणा करी प्रभु तीर्थाय नमः एम कही सिंहासन उपर बिराज्या अने देव, मनुष्य, तिथंच वगेरे पोतपोताना स्थाने बिराज्या. (आ समवसरणनी रचना देवो केवी रीते करे छे तेनुं विस्तारपूर्वक वर्णन अहिं जाणवा लायक छे.) अहिं सर्वज्ञना पुत्र अरिमर्दन प्रभुने केवळज्ञान उपज्युं जाणी त्यां आवे छे अने प्रभुने स्तुति अने विनंती करी पोताना उचित स्थाने बेसे छे. पछी जगद्गुरु अमृततुल्य सम्यक्ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगेरे ज मोक्ष मार्ग छे ते उपर देशना आपे छे जे मनन करवा लायक छे. जे उपदेशथी अनेक जीवोए शुद्ध दीक्षा ग्रहण करी, पछी प्रभुए पोताना शिष्यो पैकी मंदर वगेरे छप्पन साधुओने गणधर पदवी आपी. अहीं प्रभुना अतिशयनो महिमा अने वर्णन जणावी ग्रंथकर्ताश्री चोथो सर्ग पूर्ण करे छे.
पंचम सर्ग श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना, गणधरदेशना, मोक्षगमन अने
प्रभुजीनो परिवार
पाना नंबर २९० थी ३४७ आ छेल्ला सर्गमां श्री ज्ञानसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभुनी तथा गणधरदेशना, मोक्षगमन अने परिवार वर्णन जणावे छे. श्री विमलनाथ प्रभुने केवळज्ञान प्राप्त थया पछी प्राणीओना उपर उपकार करवा अनेक क्षेत्रोमां विहार करवा लाग्या. अने उपदेशामृत वरसाववा लाग्या. मुख्य मुख्य स्थानोमां पुण्य प्राप्त करवामां तत्पर तेवा चतुर्विध देवताओए पूर्व तीर्थंकर भगवाननी जेम समवसरण रचता हता. एक वखते प्रभु द्वारिकानगरीमां पधार्या, ज्यां देवताओए समवसरणनी रचना करी. उद्यानपालकोए नगरमां जई स्वयंभू वासुदेवने प्रभु पधार्यानी वधामणी आपी. वासुदेव स्वयंभू पोताना बंधु भद्रने साथे लई परिवार
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सहित समवसरणमां आव्यो अने जिनेश्वरने नमी इंद्रनी पाछळ प्रभुनी देशना सांभळवा बेठा. प्रभुए स्वयंभूने उद्देशीने बोल्या, हे भद्र! चारित्र लेवानी तारी योग्यता नथी. तेथी श्रावक धर्म सांभळी पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत ए बार व्रत समकित सहित पोतानी शक्ति प्रमाणे पाल्या होय तो ते देवता अने मनुष्यना सुखवडे प्रौढ एवा सात आठ भवे सिद्धि आपनारा थाय छे. ते बारव्रतमाथी पहेला व्रत श्रद्धाथी अंगीकार करे ते श्रावक सदाने माटे निरपराधी एवा त्रस जीवोने जाणी जोईने वध करतो नथी, तेमज पर्व दिवसोमां विशेषपणे स्थावर जीवोने तथा अन्य सापराधी जीवोनो पण वध करतो नथी जे उत्तम पुरुष पर्वने विषे पण शुद्ध दया पाळे छे ते नृपशेखर राजानी जेम भवोभव सुखी थाय छे अहिं प्रथम व्रत उपर नृपशेखर राजानी कथा आपवामां आवेल छे. जे मनन करवा लायक छे.
मार्गानुसारी एवो पण जो पुरुष निराधार मृषावाद करे तो तेने पगले पगले घात थाय छे. कन्यालिक वगेरे असत्यो नहिं बोलनार बीजुं व्रत पाळनार कहेवाय छे. ए असत्योनी अंदर थापण ओळववानो दोष तो बीजानो नाश करनार गणाय छे अने ते दोष करनारने बे त्रण व्रतानो भंग थाय छे. उत्तमजनो विमलनी जेम असत्य बोलनार मनुष्यनो कदी पक्षपात करता नथी तेम कमळनी जेम सत्य बोलनार राजमान्य, स्वजनोथी पूजित अने महत्त्वनी कीर्तिवाळो थाय छे. अहिं . विमल अने कमळना दृष्टांतो आपेला छे. जे बोधदायक छे.
अदत्तादान विरति व्रत माटे प्रभु उपदेशे छे के, जे मनुष्योए पूर्वे पारका हरेला द्रव्योथी पोताना हाथने बाल्यो नथी, ते पुरुषना उत्तम हृदयने अग्नि पण बाळतो नथी. जे लेवाथी आ चोर छे एम लोको कहे छे तेवी अदत्त वस्तु लेतो नथी ते सुरदत्तनी जेम आ पृथ्वीमां श्लाघनीय छे. अने तेवी वस्तु ग्रहण करे छे ते कमळसेननी जेम निंदनीय थाय छे. आ कथा पठन करवा योग्य छे.
आचारवाळी पोतानी स्त्रीमां संतोष राखवो अने स्त्रीए पोताना पतिमां संतोष राखवो ए गृहस्थो माटे विद्वानोए चोथु व्रत कहेल छे. जे पुरुषो रोष वगर पोतानी स्त्रीनो पण त्याग करे छे, तेओने युक्तिवडे यतिओथी पण अधिक . जाणवा. जो के एवा मनुष्यो थोडा जोवामां आवे छे परंतु सर्व जनोए पर्वोना दिवसमां तो स्त्री संग सदा वर्जित करवो जोईए. क्लिष्ट बुद्धिवाळा जे पुरुषो परस्त्रीनी अभिलाषा करे छे ते पुरुषो यावच्चंद्र सुधी चंद्रनी जेम अवश्य दुःख पामे छे. अने जे पुरुषो आदरथी स्वदार संतोष राखे छे, तेओ सुरेन्द्रदत्तनी जेम
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सुख तथा सौभाग्य पात्र बने छे. चोथा व्रत उपरनी आ कथा रसिक अने बोधदायक छे.
पांचमुं व्रत परिग्रह प्रमाण छे. जे मनुष्य ईच्छावडे धनधान्य वगेरे परिग्रहनुं प्रमाण करे छे तेने पांचमुं परिग्रह परिमाण व्रत कहेवाय छे, ए व्रत ग्रहण करवाथी सर्वनो नियम थतो होवाथी सम्यक्त्व मूळ बार व्रतोतुं ग्रहण पण थाय छे. ए व्रत विधिपूर्वक पाळवाथी देवदत्तनी जेम सुखी थाय छे अने ए व्रत लई तेनी विराधना करे छे ते जयदत्तनी जेम मरणादि दुःख पामे छे.
दशे दिशाओमां जवाने माटे जे प्रमाण करवामां आवे छे तेने प्रथम गुणव्रत कहेवामां आवे छे. अने ते ग्रहण करी जेओ तेने पाळे छे तेओ रौहिणेयनी जेम स्व अने परजीव- रक्षण करे छे अने ते ग्रहण करी प्रमाद अने लोभथी विरोधे छे, ते रौहिणेयना पितानी जेम नाश पामे छे.
जे भोगोपभोगनी वस्तुओमां वर्जवा योग्य होय ते वर्जि शकाय तेवी न होय तो तेनी अंदर अमुक संख्यानो नियम करवो ते सातमु (बीजुं गुणव्रत) भोगोपभोग विरमण व्रत कहेवाय छे. तेने अंगीकार करी तेनुं पालन करतां स्वर्णशेखरनी जेम दीर्घ आयुष्य अने परलोकमां सद्गतिने पामे छे. अने लई तेनी विराधना करे छे ते महेन्द्रनी जेम अल्प आयुष्य अने परलोकमां दुर्गतिने पामे छे.
जेथी मनुष्यने अर्थ प्रयोजन विना कर्मरूपी राजा धर्मरूपी द्रव्य हरीने दंड आपे छे तेथी ते अनर्थदंड कहेवाय छे. जे पुरुषो अनर्थदंडनो त्याग करे छे तेओ आ पृथ्वीमां वीरसेननी जेम सर्व मान्य अने प्रशंसनीय थाय छे. अने अनर्थदंडने जेओ आचरे छे तेओ पद्मसेननी जेम मोटुं दुःख पामे छे.
श्री जिनेश्वरोए दिग्विरति वगेरे त्रण व्रतो गुणनी प्राप्तिने लईने भव्य श्रावकोना गुणव्रत कहेला छे. यतिओनुं सुंदर सामायिकव्रत बे प्रकारे कहेल छे, ते सदा पाळवा छे. अने श्रावकोने सामायिक त्रण प्रकारचं कहेलुं छे अने बे घडी पाळवानुं छे. आ सामायिक शुद्ध पाळवाथी मनुष्य मोक्षने पामे छे. जेथी एक लाख सुवर्ण जेटलुं दान तेनी पासे कई गणत्रीमां नथी. सामायिक व्रतनो आश्रय करनार कदि तिर्यंच होय तो पण एक वानरनी जेम देवपणाने पामे छे. अहि एक वानरनी कथा आपवामां आवेल छे.
देशावकाशिक व्रत ए दशमुं व्रत छे. जे दिवसे अने रात्रिना सचित्त वगेरेनो संक्षिप्त करवामां आवे छे तेने कवीश्वरोए मुख्यपणे आ बीजुं शिक्षाव्रत कहेल छे. हाल तो शास्त्रमा व्यवहार माटे विख्यात एवं दिग्विरतिना संक्षेपने Xvi
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देशावकाशिक व्रत करे छे. आ व्रत लई जे पुरुष तेनी विराधना करे छे ते पुरुष काकजंघनी जेम आ लोक तथा परलोकमां दुःख पामे छे; काकजंघनी कथा अहिं आपेल छे.
ज्ञानीमहाराजे जिनागममां कडं छे के चार पर्वोमां प्रतिमाधर श्रावकोए सर्वथी चार प्रकार, पौषधव्रत पाळवू अने बाकीना सशक्त श्रावकोए एज प्रमाणे पौषध व्रत सर्वथी पाळवू तथा देशथी अल्पशक्तिवाळा श्रावकोए देशथी चार प्रकारच् पौषधव्रत पाळवं. सर्व गृहस्थ श्रावकोए पर्वने दिवसे शक्ति प्रमाणे पौषध ग्रहण करवू जोईए; जे पुरुषो कर्मरूपी रोगमां औषध रूप एवा सुंदर पौषधने पाळे छे तेओ मलयकेतुनी जेम देवताओने प्रशंसनीय थाय छे. मलयकेतुनी आ कथा घणी ज रसिक अहिं आपवामां आवेल छे.
__ छेल्लुं अने चोएं शिक्षा (श्रावक) व्रत अतिथी संविभाग नामनुं छे. कोई अतिथिने कांईपण आपीने पछी जमवू ते भोजन कहेवाय. कदापि ते प्रमाणे हमेशां न बने तो विवेकी पुरुषोए पौषधना पारणाना दिवसे तो पात्रने भोजन आपीने ज जमवू जोईए. जे पुरुष आ व्रतनुं आराधन करे छे ते शांतिमतीनी जेम अवश्य सुखनुं पात्र बने छे. अने जे तेनी विराधना करे छे ते पद्मलोचननी जेम आ लोक तथा परलोकमां दुःख पामे छे. अहिं आ व्रत उपर शांतिमती अने पद्मलोचनानी कथा आपवामां आवेल छे.
आ प्रमाणे पूर्वे कहेला बार प्रकारनो श्रावकनो धर्म बार देवलोकने आपनारो छे अने सूर्यनी जेम सम्यग्दृष्टि मनुष्यना अंधकारने हरनार छे. जेम सर्व रसवती रुचीथी उत्तम पुष्टि आपनार छे तेम सर्व क्रिया पण रुचीथी संवरपुष्टि आपनार छे. उत्तम पुरुषने चारित्र वगेरेनी सामग्री होय पण ते पुरुष जो सम्यग्दर्शनथी रहित होय तो तेने अक्षयपद-मोक्षनुं दर्शन थतुं नथी. जेम नायक विनानो हार, जिनेश्वर विनानो प्रासाद अने घी विनानो आहार आ पृथ्वी उपर शोभाने प्राप्त थतो नथी. तेवी रीते सम्यग् विनानो धर्म सुख समूहने करनारो थतो नथी. तेथी ते सम्यक्त्व कुलध्वजनी जेम मनुष्योए सदा पाळवं जोईए. अहिं सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा आपेल छे.
__ भगवान विमलनाथ स्वामीनी आ प्रमाणे देशना सांभळी केटलाक भव्य पुरुषोए चारित्र लीधुं, केटलाएके श्रावक व्रत लीधा. स्वयंभू वासुदेवे सम्यक्त्व ग्रहण कयु. एवी रीते एक पहोर देशना आप्या पछी श्रीमंदर गणधरमहाराजे एक पहोर सुधी देशना आपी. पछी देव, असुर अने मनुष्यो वगेरे पोतपोताना स्थाने चाल्या गया.
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श्री विमलनाथ प्रभु केवलज्ञान थया पछी बे वर्ष उणा पंदरलाख वर्ष सुधी पृथ्वी उपर विहार करतां प्रभुने आ प्रमाणे परिवार थयो. ६८,००० साधुओ, १,००८,०० साध्वीओ, १,१०० चौद पूर्वधारी, ४,८०० अवधिज्ञानी, ५,५०० मनःपर्यवज्ञानी, ५,५०० केवळज्ञानी, ९,००० वैक्रिय लब्धिवाळा, ३,२०० वादीओ, २,०८,००० श्रावको अने ४,३४,००० श्राविकाओ.
पोतानो निर्वाण समय जाणी प्रभुजी श्री समेतशिखर गिरि उपर गया, त्यां छ हजार मुनिओनी साथे अनशन व्रत अंगीकार कयु, एकमास सुधी अनशन प्रभुए पान्यु. अषाढ मासनी कृष्ण सप्तमीने दिवसे चंद्र रेवती नक्षत्रमा आवतां कायोत्सर्गे रहेला अने शुद्ध शुक्लध्यानथी विराजता श्री विमलनाथ प्रभु छ हजार मुनिओ साथे मोक्षमां पधार्या. ते वखते राजा अने इंद्रो खेद करता त्यां आव्या. पछी प्रभुनो निर्वाण महोत्सव भक्तिपूर्वक कर्यो. जे हकीकत अहिं आपवामां आवेल छे, ते वांचवाथी भक्ति प्रगट थाय छे. प्रभुनो निर्वाणमहोत्सव करी देवता, मनुष्य वगेरे स्वस्थाने जाय छे.
प्रभु कुमारपणामां अने व्रतमां पंदर पंदर लाख वर्षो, राज्यमां त्रीस लाख वर्षों मळी साठ लाख वर्षतुं तेमनुं आयुष्य हतुं.
स्वयंभू वासुदेव पोतानु साठ लाख वर्षनुं आयुष्य भोगवी पापकर्मना योगथी छट्ठी नरके गयो. भद्र बळदेव मुनिचंद्र मुनिनी पासे दीक्षा लई पोतार्नु पांसठलाख वर्षतुं आयुष्य पूर्ण करी मोक्षमां गया.
उपर प्रमाणे ग्रंथकार सूरिजी महाराज पांचमा सर्ग साथे आ चरित्र पण पूर्ण करे छे. छेवटे प्रशस्ति आपेल छे. जेमां पोताना गुरुमहिमानू वर्णन करी गुरुभक्ति दर्शावेल छे. अने आ ग्रंथ रचवानो हेतु तेमज कया क्षेत्रमां कई सालमां कया महिना, तीथिवारना रोज ग्रंथ पूर्ण करेल छे ते जणावी प्रशस्ति पूर्ण करेल
उपर प्रमाणे संक्षिप्तमां अमोए आ ग्रंथनो सार वाचकनी सुगमतानी खातर आपवामां आवेल छे.
आ महान उत्तम पुरुषना चरित्रनो ग्रंथ पठन पाठन करवा जेवो, अति आनंद उत्पन्न करनार, ज्ञान, दर्शन, चारित्रना प्रभावने प्रगट करनार अने धर्मने महामंगळ प्राप्त करावनार होई तेथी आत्मभावना, आत्मजागृति अने आत्मिक आनंद प्रगट करनार अनुपम अने मनहर रचना आ ग्रंथनी छे, एम वाचकवर्गने जणाया सिवाय रहेशे नहि; तेम जाणी आ तेरमा जिनेश्वर श्री विमलनाथ प्रभुना
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चरित्रनो ग्रंथ प्रगट करवामां आवे छे. छेवटे परमात्माने प्रार्थना करीए छीए के आ ग्रंथना वांचन, मनन अने श्रवणथी अनेक भव्यात्माओ तेवा पदना अधिकारी बनी अक्षय अमरपद पामो.
आ ग्रंथनी शुद्धि माटे यथाशक्ति प्रयत्न करवामां आवेल छे, छतां दृष्टिदोष के प्रेसदोष के एवा कोई प्रमादना कारणे कोई स्थळे स्खलना जणाय तो मिथ्यादुष्कृतपूर्वक क्षमा मांगीए छीए अने अमोने जणाववा विनंती करीए छीए. आत्मानंद भवन, वसंत पंचमी संवत १९८५ आत्म संवत ३३
गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास
दो शब्द
राजस्थान प्रान्तना जालोर जिल्लामां बाकरानगरमा २०५९ना माहासुद ६ना मंगलमय दिवसे मंगलमय श्रेष्ठ मुहूर्तमां मूलनायक श्रीविमलनाथ भगवंत आदि जिन प्रतिमाओनी अंजनशलाका अने प्रतिष्ठा महोत्सवे सानंद सोल्लासे भव्यातिभव्य जिनालयमां बिराजमान कर्या. ते श्री विमलनाथ भगवंतना जीवन चरित्रनुं भाषांतर आहोरना ज्ञान भंडारमांथी लईने आ चरित्रने संशोधन करीने छपाववामां आवेल छे. ज्ञान पिपासु आत्माओनी ज्ञान रूपी प्यास बुझाववा माटे श्री ज्ञानसागरजीए आ ग्रंथ संस्कृत भाषामां पद्य रूपे रचेल छे. ग्रंथमां जे छे ते 'ग्रंथ संक्षेप'नी अंदर दर्शावेल छे. ते वांचवाथी ग्रंथ वांचवानी उत्कंठा जागशे.
पाठको ज्ञानार्जन करी चारित्र ग्रहण करी वहेलामां वहेलां मुक्तिसुखने पामे एज अभिलाषा. २०६४ जालोर
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शुभं भवतु जयानंद
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अनुक्रम
क्रम विषय
पष्ट
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(१) प्रथम सर्ग (२) द्वितिय सर्ग | (३) तृतीय सर्ग (४) चतुर्थ सर्ग (५) पंचम सर्ग (६) ग्रंथ कर्तानी प्रशस्ति ................
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।। णमो अरिहंताणं ।। श्री विमलनाथ चरित्र
प्रथम सर्ग (दानधर्माधिकार)
मंगलाचरणम् स्वस्तिश्रीवृषभं स्वर्णवणं वर्णनिषेवितम् ।
धर्मकर्मविधातारं वन्दे श्रीवृषभप्रभुम् ।।१।। कल्याणनी लक्ष्मीथी श्रेष्ठ, सुवर्णना जेवा वर्णवाळा, सर्व वर्णोए सेवेला अने धर्मना अने कर्मोना रचनारा श्रीऋषभदेव प्रभुने हुं वंदना करुं छु. १
ब्राह्मीमतः कलाधारश्छायाभृद् वृत्ततास्पदम् ।
गोमण्डलयुतो जीयान्मृगलक्ष्मा जिनः सदा ।।२।। 'ब्राह्मीए मानेला, कलाओना धारण करनारा, कांतिने धरनारा, सद्वृत्तसच्चारित्रनं स्थानरूप अने गो (भा) मंडळे युक्त एवा मृगना लांछनवाळा श्री शांतिनाथ प्रभु सदा जय पामो. २
शिवानन्दकरैश्वर्यं समुद्रविजयोद्भवम् । .. श्रीमन्नेमीश्वरं नौमि सेनानीगणपूजितम् ।। ३।।
जेमनु ऐश्वर्य शिवादेवी माताने आनंदकारक छे अने जेओ समुद्रविजयना पुत्र छे, एवा सेनापतिओना समूहथी पूजायेला श्रीमान् नेमीश्वर प्रभुने हुं नमस्कार करुं छु. ३
सनातनो रुचेः स्थानं पद्माकरजराजितः ।
सुदेवोऽस्तु तमोहन्ता श्रीपार्श्वः पुरुषोत्तमः ।।४।। सनातन, कांतिना स्थानरूप, पद्माकरथी थयेला कमलोथी विराजित अने पुरुषोमां उत्तम एवा श्री पार्श्वनाथ देवाधिदेव अज्ञानरूपी अंधकारने नाश करनारा थाओ.४ 1. अहि बीजो अर्थ चंद्रपक्षे थाय छे. ब्राह्मीमत एटले ब्रह्मपक्षे मानेलो कलाओने धारण
करनार. छाया-कांतिवाळो अने वृत्तता गोळाकृतिरूप अने गोमंडळ-किरणोना मंडळवाळो मृगना लांछनथी युक्त एवो चंद्र जय पामो. श्लेषालंकार. 2. अहिं श्लेष-अलंकारथी ईश्वर एटले महादेवना पक्षे एवो अर्थ थाय छे "जेओनें ऐश्वर्य शिवा-पार्वतीने आनंदने आपनाएं छे अने जेओ मुद्रा सहित पार्वतीने परणनार छे तथा सेनानी-कार्तिकस्वामी अने गणगणपति अथवा गणोथी जेओ पृजित छे.'' 3. अहिं पुरुषोत्तम-विष्णुपक्षे एवो अर्थ नीकळे के, सनातन छे अने तेना हस्तमां पद्मा-लक्ष्मी अथवा कमळ छे अने ते जरा नामनी राक्षसीने जीतनार छे अने तमोगुण (अंधकारने) नाश करनारा थाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंगलाचरण श्रीवीरं गुण गम्भीरं धरं धीरजितामरम् ।
समीरं नीरं सन्तापे सेवे सीरं भयावनेः ।।५।। गुणोथी गंभीर, धारण शक्तिवाळा, बुद्धिवडे देवताओने रंजन करनारा, आ संसारना संतापने हरवामां पवन तथा जलरूप अने भयरूपी पृथ्वीने खेडवामां हळरूप एटले अभय करनारा एवा श्री महावीर प्रभुने हुँ सेवं छु. ५
__ केवलज्ञानविभवः समहाः सगुणालयः ।
विमलो ददतां हर्ष तीर्थराजस्तथा परे ।।६।। केवलज्ञानना वैभववाळा, तेजस्वी अने सद्गुणोना स्थानरूप, एवा श्रीविमलनाथ प्रभु अने बीजा तीर्थंकरो मने हर्ष आपो. ६ ।
श्रीपुण्डरीकप्रमुखाः प्रमुखा गणधारिणाम् ।
यच्छन्तु पुण्डरीकाद्रिपुण्डरीकोपमां मम ।।७।। सर्व गणधरोमां प्रमुख एवा पुंडरीक वगेरे गणधरो मने पुंडरीक-गिरिना पुंडरीकनी उपमा आपो. एटले पुंडरीकगिरि उपर जेम पुंडरीक गणधर मोक्ष गामी थया, तेम मने मोक्षगामी बनावो. ७
श्रीगौतमं गणधरं शिवानन्दं जनार्चितम् ।
नौम्यहं भावतः सर्व मङ्गलानन्ददायकम् ।।८।। कल्याणना आनंद स्वरूप, लोकोए पूजेला अने सर्व मंगळना आनंदने आपनारा एवा श्री गौतम गणधरने हुं भावथी नमस्कार करुं छु. ८
सरस्वतीमहं स्तौमि बहुधाऽन्योपकारिणीम्।
घनागमप्रदां नित्यं वर्षेवामृतवर्षिर्णीम् ।।९।। हुं वर्षाऋतुना जेवी सरस्वती देवीनी स्तुति करुं छु. जेम वर्षाऋतु बहु धान्यने उपकार करनारी छे, तेम जे सरस्वती देवी बहुधा बहु प्रकारे अन्य जननो उपकार करनारी छे जेम वर्षाऋतु घनागम-मेघना आगमनने आपनारी छे, तेम सरस्वती देवी घन-घणां आगम शास्त्रोने आपनारी छे अने जेम वर्षाऋतु नित्य अमृत-जलने वर्षावनारी छे, तेम जे सरस्वती देवी वाणी रूपी अमृतने वर्षावनारी छे. ९
ज्ञानदीपाश्च सूरीन्द्रा : प्रसन्ना मे भवन्तु ते ।
यत्तेजसेह लक्ष्यन्ते गहनागमकूपकाः ।।१०।। जेओना तेजथी गहन एवा आगमरूप कूवाओ जोइ शकाय छे, एवा ते ज्ञानना दीपकरूपी सूरिवरो मने प्रसन्न थाओ. १०1 1. अहिं सरस्वतीनी स्तुति पछी गुरुनी स्तुति एज वातने सिद्ध करे छे के सरस्वती एटले जिनवाणी. देवलोकनी देवीनी स्तुति सृरिवरोनी पूर्वे होई शके ज नहीं. - संपादक
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धर्मनो प्रभाव
ग्रंथकार महाराजनुं ग्रंथ संबंधे विवेचन
हुं (ज्ञानसागर सूरि) आ चरित्रनुं एक वचन कहेवाने पण असमर्थ छु, छतां पण जे हुं कहुं छु, तेनुं कारण मारा गुरु ज छे. ब्रह्मत्वने जाणनारा ते गुरुनी कृपाथी ज हुं आ ग्रंथ रचुं छु. आ लोकमां दुर्जन पुरुषो बाणनी जेम सर्वदा दुर्जय कहेला छे. तेओ कोइपण माणसना 'गुणारोपने जोइने रही ज शकता नथी. ते दुर्जन पुरुषो जो बीजाना दूषणोनो उद्धार करवामां (दोष काढवामां) कुशळ छे, तो तेओ बीजाना रचेला ग्रंथनी निर्मळता आपवाथी सत्पुरुषोने सद्गुण करनारा छे. जेओ सूर्यनी जेम पोते दोषाभाव (दोषा-रात्री-रजनी-अंधकार समानदोष-अवगुणनो अभाव-तिस्कार)ने करनारा छे, तेवा सत्पुरुषोने अंजलि जोडीने प्राथना करुं छु के, शुक्राचार्यनी जेम सर्वदानवसद्गुरु एटले जेम शुक्राचार्य सर्वदानवोना गुरु छे, तेम आ काव्य सर्वदा-नवीन सद्गुरु रूप बनवावाळु छे अने जेम शुक्राचार्य कृतांतजनक-सूर्यनो अंत करनार-नाश करनार छे, तेम आ काव्य कृतांत जनविद्वान् लोकोने कांत-मनोहर छे. तेवा आ काव्यना प्रत्येक पद उपर ते सज्जनोए दृष्टि आपवी. आप सज्जनोनी दृष्टिथी थयेली आ काव्यनी अधिक शुद्धिना प्रभावथी तेनामां बमणुं तेज आवशे, तेथी तेनी एटले काव्यनी अने शुक्राचार्यनी गुरु करतां । पण अधिक मान्यता थइ पडशे. धर्मनो प्रभाव
धर्मथी पांच इंद्रियोनो संयम थाय छे, लक्ष्मीनो बंधुरूप मनुष्यभव मळे छे, शुभ आपनार आर्य देश प्राप्त थाय छे, सुकृत-पुण्यनी आशाओथी व्याप्त एवं कुल प्राप्त थाय छे, षट्काय जीवनी रक्षा करे तेवी काया मळे छे, मानसरोवरना जे, गंभीर मन थाय छे, कोइनी प्रतारणा न करे तेवा वचनो बोलाय छे, दान अपाय तेवू धन मेळवाय छे. उदार हृदयवाळी स्त्री प्राप्त थाय छे, विशाळ गृहनी शालाओ मळे छे, अति श्रेष्ठ एवा वरदानो मळे छे, सत्पुरुषोने आनंद आपे तेवा पुत्रो मळे छे, उंची जातना वस्त्र प्राप्त थाय छे, जेमने अनेक देवताओ नमे तेवा देव मळे छे, तत्त्वज्ञानने जाणनारा गुरु मळे छे, सर्व भूमिने पालनार महान राजा थवाय छे, मदना सुगंधथी उन्नत एवा गजेंद्रो मळे छे, लक्ष्मीना वैभववाळा मंदिरो 1. जेम बाण गुण-धनुषनी दोरी उपर चडवाथी छूटया वगर रही शकता नथी, तेम दुर्जनो
बीजाना गुणने जोइ तेना दोष कह्या वगर रही शकता नथी. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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धर्मनो प्रभाव प्राप्त थाय छे, वेगवाळा अश्वो प्राप्त थाय छे, लाभथी भरपूर उद्योग मळे छे, सर्व सगाओ सज्जन मळे छे, दयावाळु हृदय थाय छे, खुशामत वगरनुं वाणी- चातुर्य प्राप्त थाय छे अने बधो समय सुखमय थाय छे. तेथी करीने कल्याणना अर्थी एवा पुरुषे तेवो सुखदायक श्रेष्ठ धर्म आचरवो जोइए. परंतु हाल ते धर्म जरा अखंड पाखंडथी खंडित थइ गयो छे तेथी सारा हृदयवाळा पुरुषे पोताना हृदयमां विचार करीने ते धर्म सदा आचरवो. कारण के जे कार्य विचारथी करवा योग्य होय ते कार्य श्रेष्ठ पुरुषोए अटकावतुं न जोइए.1 ते धर्ममा जे परोपकार धर्म छे, ते सर्वथी श्रेष्ठ छे.
जेम बधा पर्वोमां दीवाळीनू पर्व, देवताओमां सरस्वती देवी, गुरुओमां गौतम स्वामी, मंत्रोमां ओंकार, तीर्थोमां उज्जयंत पर्वत, ग्रहोमां चंद्र अने विद्याओमां सर्व लोकोए मान्य करेली अध्यात्मविद्या श्रेष्ठ छे, तेम सर्व धर्मोनी अंदर षट्दर्शनोए दर्शावेलो परोपकार धर्म श्रेष्ठ छे अने तेने सत्पुरुषोए आ संसारमा साररूप कहेलो छे. आ पृथ्वी उपर विश्वना आधाररूप ते परोपकार धर्म अनेक प्रकारे कहेलो छे, परंतु तेनी अंदर जे परोपदेशरूप परोपकार धर्म छे, तेनी तुलनाने कोइपण प्रकारे प्राप्त करी शकतो नथी, तेथी हुं मारी अल्पबुद्धि वडे हितोपदेशने अर्थे ते परोपकार धर्म विषे कांइ कहेवानी इच्छा राखुं छु. कारण के बालक जे कांइ बोले ते पूज्य पुरुषोने हर्षनुं कारण थाय छे. कदि कोइ शंका करे के, पूर्व पुरुषोए करेला विस्तारवाळा सिद्धांतना ग्रंथो घणा छे, छतां आ ग्रंथनी कृति करवानुं शुं कारण छे? वळी आ ग्रंथमां तेना कर्तानी वाणी थोडी अने श्लोकोना अर्थने आपनारी छे, तेथी सूक्ष्म एवा पदार्थोनुं ज्ञान आवा ग्रंथथी शी रीते थई शके? आवी शंका लावी कहेवू न जोईए, कारण के मोटा द्वारवाळा घरमा प्रकाश पडतो न होय तो पण तेनी उपरना नाना छिद्रमांथी सूर्यनी जे थोडी कांति आवे ते वडे जेवू सूक्ष्म रेणु वगेरे दर्शन थाय छे, तेवू दर्शन सूर्यनी घाटी कांतिथी थतुं नथी. वळी पूर्वे मणिओ रात्रिना जे अंधकारने दूर करता हता, ते अंधकारने हाल दीवाओ प्रगटावी दूर करवामां आवे छे, तेवी रीते हालना जमाना प्रमाणे हुं आ ग्रंथ कहुं छु. पूर्वकाळे बीजा उत्कृष्ट पुरुषोए सिद्धांतना अंग तथा उपांगो रची उपकार करेलो छे, तो ते हुं पूर्व पुरुषोना कार्यने अनुसरी मारा आत्माने उपकार करुं छु.
1. अतो विचार्य कार्योऽसौ, स्वहदा सुहृदा सदा। विचारसारं यत्कार्य, तन्न वार्य परैर्नरैः ।।२४।।
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चरित्रारंभ
चरित्रारंभ श्री शाण नामना गृहस्थे श्री रत्नसिंहसूरिना उत्तम उपदेशथी रैवत गिरि (गिरनारपर्वत) उपर एक जिनालय कराव्युं हतुं. जेने सेवन करवाने समये जे नवीन सुवर्णनी कायानो आश्रय करे छे, (तो पण) विद्वान् पुरुषो जेने खरेखर विश्वरूप कहे छे, जेनी अंदर सुर, असुर तथा मनुष्योने पूजवा योग्य अने सुवर्णना जेवी कांतिवाळा श्री विमलनाथ स्वामी प्रभुताने आश्रित थई जय पामे छे, जेमां श्री अजितस्वामीए श्री मंडपमांथी आवी पोताना आत्माने सुवर्णरूप बनावी (निहाळी) सुवर्णमय शरीरने धारण कयुं हतुं. जेना द्वार उपर चंद्रनी कांतिने जीतनारा श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ अने चिंतामणि गणधर बंने कायोत्सर्ग धारण करीने रह्या छे, ज्या संसारनो भय राखनारा प्राणीओने शरणरूप अने सर्व प्रकारनी लक्ष्मीओनुं स्थान रूप एवें पवित्र कांतिवाळु समवसरण स्फूरायमान थइ शोभी रह्यं छे. जेनी अंदर बधुं समवसरण समाई जवानी वात तो शी करवी? पण जेनी मध्ये समस्त सौंदर्यवाळी पृथ्वी पण रहेली छे अने जेनी अंदर बीजी सुवर्णवर्णी प्रतिमाओ होवाथी विद्वानोए जेनु कांचनबलानक एवं नाम आपेलुं छे, तेवा ते सर्व जिन प्रासादोने जीतनारा उत्तम प्रासादने प्राप्त करी कया पुरुषो संपूर्ण प्रसन्नताने भजता के उत्पन्न करता नथी? तेवा ते प्रासादनी अंदर मूलनायकपणाने प्राप्त थयेला तेरमा तीर्थंकर श्रीविमलप्रभुनु चरित्र कहुं छु. ।।४४।।
तिर्यग्लोकनी मध्य भागे साधुनी जेम मेरु पर्वत शोभी रह्यो छे. साधु जेम वृत्तपेशल एटले सद्वर्त्तनथी कोमळ होय छे, तेम ते वृत्त-गोळाकार तथा कोमळ छे. साधु जेम पुण्य-आचार पाळवामां तत्पर होय छे, तेम ते पुण्यना आचरण करनाराने प्राप्त थाय तेवो छे, अथवा ते पुण्यना आचारथी प्रधान छे. जेम साधु हमेशां क्षमाधर-क्षमाने धारण करनार होय छे, तेम ते शाश्वत क्षमापृथ्वीने धारण करनार पर्वत छे. असंख्य बुद्धिमान् विद्वानो जे कहे छे के, ते पर्वतने आश्रयीने असंख्य द्वीप समुद्रो रहेला छे. ते मोटा आश्वर्यनी वात छे. तेओनी 'अंदर मनुष्योनी उत्पत्ति अने विनाश (जन्म मरण) थती नथी. कारण के अढीद्वीप सिवाय बीजे अरिहंतोनुं गमन नथी थतुं. त्यां ग्रहोनो चार (परिभ्रमण) पर्वतो अने नदीओ नथी, त्यां मेघ वृष्टि थती नथी, धान्य उगतां नथी, बादर1. ( अढीद्वीप, समुद्र सिवायना बीजा असंत्र्यातद्वीप समुद्रोनी अंदर.) श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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चरित्रारंभ अग्नि होतो नथी अने त्यां खाणो पण नथी. तेना मध्य भागे विष्णुनी जेम अढीद्वीप आवेलो छे, जेम विष्णु सुदर्शन चक्र धरे छे, तेम ते सुदर्शन-सारां दर्शनवाळा देवताओना चक्र-समूहने धारण करनार छे. जेम विष्णु कमलालक्ष्मीना कर-हाथथी सुशोभित थयेलो छे. तेम अढीद्वीप लंबाई अने विस्तारमा पीस्ताळीश लाख योजन छे अने ते सदाकाल चारे तरफ मानुषोत्तर पर्वतथी वीटायेलो छे. ।।५।।
तेमां जेटला मनुष्य संख्याना आंक छे, तेटला 'जघन्यथी छे अने उत्कृष्टथी कोटानुकोटीना अंको छे. आ (अढी द्वीप)मा उत्कृष्टथी एकसो सित्तेर (१७०) भगवंतो थाय छे अने जघन्यथी वीस जिन भगवंतो होय छे. तथा अहींया ग्रह चारादिक होय छे. त्यां रहेला लोको अधिक हर्ष पामे छे अने कोई अशुभने प्राप्त थतुं नथी. त्यां उत्तम साधुओ सुशोभित ज्ञान रसने आपे छे, त्यां पोताना मोटा किरणने अंधकारमां पडेला जोइ सूर्य पोताना बीजा किरणोने लइ आकाशमां भमे छे अने तेनी पाछळ राजा-चंद्र अनुसरे छे. ते अढी द्वीपनी अंदर पंदर कर्मभूमि, त्रीस अकर्मभूमि अने छप्पन अंतरद्वीपो आवेला छे, तेमां त्रीस अकर्मभूमिमां कल्पवृक्षना फलनो आहार करनारा तथा अंतरद्वीपमा रहेनारा अंतरद्वीपवासी युगलीक मनुष्यो रहे छे. तेवा ते अढीद्वीपनी अंदर योगीनी जेम लाख योजनना प्रमाणवाळो प्रथम जंबूद्वीप आवेलो छे. जेम योगी योग सहित होय छे, तेम ते द्वीप अग-पर्वत सहित छे, जेम योगी पुरुषो अर्ध्य-पूजवा योग्य छे, तेम ते द्वीप पण मोटा पुरुषोने पूजवा योग्य छे. जेम योगी सदा-हमेशालय एटले ध्यानवाळो होय छे, तेम ते द्वीप सत्-सारा आलय-स्थानवाळो छे. ते द्वीपनी अंदर छ अकर्मभूमि अने त्रण कर्मभूमिओ रहेली छे. अने जंबु-जांबु वृक्षना नाम उपरथी तेनुं नाम जंबूद्वीप पडेलुं छे, तेनी अंदर सात वर्षो, (क्षेत्र) छ वर्षधर पर्वतो, आडत्रीस वैताढ्य पर्वतो अने चौद महा नदीओ आवेली छे. तेना मध्य भागे दश हजार योजन विस्तारवाळो अने एक लाख योजन उंचो सुवर्णना वर्णवाळो मेरु पर्वत आवेलो छे. तेनी आसपास लाख योजन विस्तारवाळो लवण समुद्र वीटाइने 1. जघन्य अंक (आ अंक पांचमो वर्ग छे) आ मुजब कह्यो छे. (१८४४६७४४०७२७०९५५१६१६) उत्कृष्ट मनुष्योनो अंक पण नीचे जव दर्शाववामां आवेलो छे. (७९२२८१६२५१४२६४३२७५९३५४३९५०३३६) ( अटीद्वीपना नकशामां पृष्ट १३४ अने पृष्ठ १३२) आटली बधी मनुष्य संख्यानो अढीीपमा समावेश शी रीते थाय तेनुं समाधान करवानी इच्छावाळाए अीद्वीपना नकशानी बुकमां पाने १३५ जोई जवं. 2. पुरुष करतां स्त्रीनी संख्या २७ गणी वधारे दावी छे. स्त्री योनिमां उत्कृष्ट १ लाख गर्भजमनुष्यनी उत्पति थाय छे ईत्यादि.
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चरित्रारंभ रहेलो छे. तेनी अंदर आवेला सर्व अंतरद्वीपो युगलीआ मनुष्योथी युक्त छे. तेनी पछी चार लाख योजनना प्रमाणवाळो हित करनारो धातकीखंड आवेलो छे तेनी अंदर छ कर्मभूमिओ अने बीजी बार अकर्मभूमिओ रहेली छे. तेनी पछी आठ लाख योजन विस्तारवाळो कालोदधिसमुद्र छे, तेमां तेटला ज प्रमाणवाळो अर्धपुष्करद्वीप आवेलो छे. ते द्वीपनी अंदर पण कर्म अने अकर्मभूमिओ धातकीखंडना प्रमाणे रहेली छे. एक जंबूद्वीप सिवाय बीजा द्वीपमा जे जे प्रमाणे कहेल छे, तेने विद्वानोए एकत्र मेळवी बमणुं प्रमाण करवं अने तेनी अंदर जंबूद्वीपर्नु जे लक्ष प्रमाणे छे ते मेळवq. एटले बधुं मळीने पीस्तालीश लाखनुं परिमाण संपूर्ण थइ शकशे. ।।६।।
अखंड शोभाथी विराजित एवो ते धातकीखंड वनखंडनी जेम शोभतो हतो. जेम वनखंड पत्र-पांदडाथी व्याप्त होय तेम ते पत्र-व्याप्त हतो जेम वनखंड सत् श्री-सारी शोभावाळो होय तेम ते सत्-सत्पुरुषोनी शोभावाळो हतो. जेम वनखंड श्रीफल-नालीकेरना फलवाळो होय, तेम ते श्री-लक्ष्मीना फलवाळो हतो. जेम वनखंड सुमन-पुष्पोनी श्रेणीथी युक्त होय तेम ते सुमनविद्वानो अथवा देवताओनी श्रेणीथी युक्त हतो, जेम वनखंड सुवय-सारां पक्षीओथी आश्रित होय तेम ते सुवय-सारी अवस्थावाळा-युवान लोकोए आश्रित करेलो हतो. जेम ते वनखंड पुत्राग-नाग केशरना वृक्षोना समूहथी संयुक्त होय तेम ते. उत्तम पुरुषोना समूहथी संयुक्त हतो. जेम वनखंड अशोकना वृक्षोवाळो होय तेम ते अशोक-हर्षवाळो हतो. जेम वनखंड वृष-बळद ए सहित होय, तेम ते वृषधर्मे करीने सहित हतो.
जेम वनखंड कुंजरासन-लतागृहोमां कामदेव संबंधी आसनोथी संपूर्ण होय तेम ते कुंजर-गजेंद्रोनां आसनोथी संपूर्ण हतो. जेम वनखंड कनकनी कांतिवाळा अग्नि-दावानलथी अंकित होय तेम ते कनक-सुवर्णना मोटा भारथी अंकित हतो. जेम वनखंड धात्रीना वृक्षोथी युक्त होय तेम ते धात्री-धाव्य माताओथी युक्त, जेम वनखंड करुण नामना वृक्षोथी युक्त होय तेम ते करुणादयाथी युक्त हतो; जेम वनखंड सत्पूग-सारी सोपारीना वृक्षोथी युक्त होय तेम ते सत्-सज्जनोना पूग समूहथी युक्त हतो. जेम वनखंड कमल पुष्पोना समूहवाळो होय तेम ते कमळा लक्ष्मीना ढगलावाळो हतो. जेम वनखंड वंश-वांसना वक्षोए सहित होय तेम ते वंश-कुलनी वृद्धिए सहित हतो, जेम वनखंड सुविशाळ1. धात्री-आंबलीना वृक्षो.
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चरित्रारंभ
सारा अने विशेष शाळ वृक्षवाळो होय अथवा सारी रीते विशाळ होय तेम ते सारी रीते विशाळ हतो. जेम वनखंड सारी शाखावाळा 'धनदवृक्षोनुं स्थानरूप होय तेम तेनी अंदर सारी रीते धन आपनारा लोकोना स्थान रूप हतो, जेम वनखंड सारी रीते संतापने हरनारो होय तेम ते सत् - पुरुषोना संतापने हरनारो हतो. जेम वनखंड 2 वज्र अने रथद्रुमनां वृक्षोथी युक्त होय तेम वज्र-हीरा, रथ अने परवालाथी युक्त हतो. धातकीना खंडथी मंडित एवा ते धातकी खंडनी अंदर बे महाविदेहक्षेत्र, बे भरतक्षेत्र, बे औरवतक्षेत्र अने बे सुमेरु पर्वतो आवेला छे. एवा ते धातकी खंडनी अंदर १२ क्षेत्रधर, पर्वतोए आश्रय करेलुं प्राग्विदेह नामनुं क्षेत्र शोभी रहेलुं छे. तेनी अंदर तीर्थंकरो अने बीजा पुरुषा पांचसो धनुष्यना देहवाळा, पूर्वकोटी आयुष्यवाळा अने अतुल बलने धारण करनारा होय छे. त्यां रहेनारा मनुष्यो, लक्ष्मीथी नवीन, प्रमदाओ उत्कृष्ट मदवाळी अने जंगम ( विहार करता ) अने अजंगम (स्थिर - निश्चळ ध्यान आसनने सेवनारा) एवा साधुओ साक्षात् साधना करनारा छे. त्यां सूत्रधारो सूत्रोने धारण करनारा, अश्वो सिंह जेवा, लुहारो बहुलोह - बहु तर्क करनारा अने मालीओ पण बुद्धिथी श्रेष्ठ छे. त्यां सेना स्वामीवाळी, स्त्रीओ संतानवाळी, पृथ्वी - भूमि रसकसवाळी, गायको गंधर्वोना जेवा अने वनो जलाशयवाळा छे. त्यां भूभृत्-पर्वतो राजाओवाळा, खाणो पण रत्नोनी खाणवाळी, अस्वारो अश्वोना समूहवाळा अने सर्व प्रकारनी कलाओ रहेली छे, त्यां कमलाकर - सरोवरो बे प्रकारे कमलाकर छे, एटले कमला-लक्ष्मीथी अने कमलोथी भरपुर छे. त्यां कमलोथी भरपुर छे. त्यां प्रिया (स्त्रीओ ) प्रिय (स्वामी) वाळी बलवंत पुरुषो क्षमा सहित अने संवरो (जळाशयो) संवर (मत्स्य) वाळा छे. ।।७८।।
श्रुतकेवलीए कहेला एवा पूर्व विदेह क्षेत्रनी अंदर भरत क्षेत्रना जेवो भरत नामे एक विजय आवेलो छे. जेनी अंदर वैताढ्य पर्वते क्षेत्रनो विभाग करी तेमांथी ऊँचा प्रकारनी धान्यसंपत्तिने लइ बधा पर्वतोमां पोते राजा तरीके थवाने माटे जाणे पोतानो अभिषेक कर्यो होय, तेवुं देखाय छे जेणे विजय प्राप्त करेलो छे एवा ते भरत नामना विजयमां अमरपुरीने जीतनारी महापुरी नामे एक विख्यात नगरी छे. ते नगरीनी अंदर चोरी वगेरेना क्लेशथी रहित अने जेमना द्वार उपर प्रतिहारो रहेला छे, एवा मोटा 4 विहारो अने 'प्रतिमाओना समूहथी प्रकाशमान एवा साधुओना विहारो शोभता हता. बे प्रकारे अंग तथा उपांगने जाणनारा, 1. एक जातनां झाड. 2. एक जातनुं वृक्ष. 3. ते नामनुं वृक्ष. 4. विहार- प्रासादो अने साधुपक्षे उपाश्रयो 5. प्रतिमाओ चैत्यपक्षे ऊंचा जिनबिंबो.
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पद्मसेन राजानुं चरित्र सम्यग् दर्शनवाळा, गंभीर पवित्र अने वेष्टन सहित एवा मुनिओ ते नगरीमां बिराजता हता. अलंकार अने लक्षणोवाळा, सारा साहित्यवाळा, स्मृतियुक्त अने पुराणमतीने धरनारा बे प्रकारना 'विबुधो त्यां वसता हता. ते नगरीमां सत्पुरुषोनां मन अने गाडाओ अथवा सरोवरो मार्गगामी, सत् चक्रोथी युक्त अने ऊंची जातना जिनालयोथी युक्त हता. पोताना स्वामीने सदा वश रहेली अने तीर्थकरनी जन्मभूमिने लइने सुर-असुरोए नमन करवा योग्य एवी ते प्रशंसनीय महापुरी नगरीमां पद्मसेन नामे राजा हतो ते विष्णुनी जेम सदानंदकर अने बलयुक्त लक्ष्मीने वहन करनारो हतो. विष्णु जेम सदा-हमेशां नंद नामर्नु खड्ग करहाथमा राखनार छे, तेम ते सदा-हमेशां आनंदकर-आनंद आपनार हतो. विष्णु जेम बलयुक्त-बलदेवनी साथे युक्त अने लक्ष्मीने वहन करनारा छे, तेम ते बलयुक्त-बलवाळो अने राज्यलक्ष्मीने वहन करनारो हतो. ते राजा चंद्रनी जेम 'कळा, सौम्य अने सदाचारवडे युक्त थयेलो छतां पण ते दोषाकर अने राकागमन करवामां आदरवाळो न हतो. ते राजा पद्मसेननो प्रतापरूपी सूर्य कर-किरणोना प्रकर-समूहथी प्रकाशमान हतो, पण ते पोताना स्वजनोने छोडीने बीजा शत्रुजनने नव संख्यावाळा-नवा देहने करतो ते तेने घटित हतं. ते महाराजानो यश चंद्रना जेवो उज्जवळ हतो; छतां तेणे शत्रुओने चक्रधर, विष्णुना जेवा श्याम कर्या हता अने पोताना स्वजनोने हलधर-बलदेवना जेवा पीळा रंगना कर्या हता, ए घटित न हतुं. तेणे शत्रुओना समूहने जीतेला तेथी ते शत्रुओमां स्वदृष्टिथी । 1. विबुध एटले देवता अने विद्वान् देवताओ अलंकारवाळा, सारा लक्षणोवाळा, उंचा साहित्यसामग्रीवाळा, स्मरणशक्ति अने पुराण-प्राचीन बुद्धिवाळा अने विद्वानो अलंकारशास्त्र, लक्षण-व्याकरण, साहित्य, स्मृतिओ अने पुराणोने बुद्धिथी जाणनारा. 2. सत्पुरुषोना मन मार्गानुसारी, सज्जनोना चक्र-समूह तरफ रहेनार अने जिनालये-जिनभगवानमां लय पामनारा. अने गाडाओ मार्गे चालनारा, सच्चक्र-सारा पैडावाळा, अने उपर जिनालयने वहन करनारा. 3. सरोवरो सरस चक्रवाक (आदि) पक्षिओवडे व्याप्त अने उत्तुंग (उंचा) जिन प्रासादोथी युक्त. 4. जेम चंद्र कळा युक्त, सौम्ययुक्त, (शीतळ) अने सदाचार हमेशा गति करनार होय छे; तेम राजा कळा, ज्ञान, सौम्य (प्रियदर्शन) अने सारा आचारवाळो हतो. चंद्रदोषाकर-रात्रिने करनारो अने राका-पूर्णिमा तिथिमां गमन करवामां आदरवाळो होय छे पण ते राजा दोष- दुर्गुणोनो आकर-खाणरूप न हतो अने राका एटले नवीन ऋतुवाळी स्त्री, तेणीनी साथे गमन-संग करवामां आदरवाळो न हतो. 5. तेना प्रतापना भयथी ज शत्रुओ मृत्यु पामी नवा देह धारण करता हता. 6. अहिं विरोधालंकार छे. कहेवानो आशय एवो छे के, ते राजानो यश सांभळी तेना शत्रुओ काळा बनी जता अने स्वजनो पीळा-तेजस्वी बनी जता हता. ते विरोधनो एवो पण परिहार छे के, ते राजानो यश सांभळी तेना शत्रुओ चक्रधर-कुंभारना जेवा थइ जता अने स्वजनो हलधर-खेडुत जेवा बनी जता हता. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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पद्मसेन राजानुं चरित्र
कोदंड धनुष्यने दंडना जेवुं अने मार्गण - बाणने मार्गण - याचकना जेवुं कोण न मानतुं? अर्थात् प्रजाजनो शत्रुना धनुष्य-बाणने सामान्य काष्ठ अने याचक समान मानता हता. ते लोकोने न्याय आपतो अने गुरुओने विनय आपतो (विनय करतो हतो). ते जाणे ते लोको अने गुरुओए तेने अदलो बदलो करीने न्याय अने विनय आप्या होय, तेम लागतुं हतुं. ज्यारे ते राजा पृथ्वी उपर राज्य चलावतो त्यारे दंड तो छत्रमां ज हतो, ±त्रास मणिओने ज थतो हतो, कर पीडन विवाहमां ज थता, भंगनी वात सोनाने घसवानी कसोटीमां अथवा खारवाळी जमीनमां ज थती हती. औदार्य, गांभीर्य, धैर्य अने वीर्य वगेरे उज्जवळ गुणोथी युक्त एवो ते राजा पद्मसेन एक वखते रात्रिने छेल्ले पहोरे पोताना मनमां आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो"दृष्टिवाळा मनुष्यने स्वस्थतावाळी दृष्टि होय ते छतां पण सूर्य विना सारी रीते तेने अद्भुत दर्शनशक्ति आवती नथी. भरपूर जळ भर्युं होय ते छतां रत्नाकर समुद्रने चंद्र सिवाय तेना घाटा जळमां मोटी भरती आवती नथी, पाषाणरूपने प्राप्त थयेलुं सुवर्ण अग्नि सिवाय लोकमां कल्याण नामवाळं गणातुं नथी. अने कुकडा तथा ककुभपक्षीना बच्चांनी आंखो 'कृष्णचित्रक सिवाय ऊघडती नथी, एम लोकोमां कहेवाय छे. तेवी रीते माणस विद्वान होय तो पण ते गुरु सिवाय मोक्षपदनुं स्थान थतो नथी, तेथी मारे पण जो कोई धर्मगुरु होय तो वधारे सारं." आ प्रमाणे राजा पोताना चित्तमां धर्मने माटे नवी चिंता प्रगटावी अने प्रातःकाळनुं कृत्य करीने ते पोताना सभास्थानमां आव्यो. ।। १०० ।। तेवामां ते राजाना मनोरथोनी साथे ज ते नगरीनी बहार ब्रह्मगुप्त नामना एक सूरि घणां साधुओना परिवार साथै आवी चड्या. कारण के पुण्यवान् पुरुषोनुं मनमां चिंतवेलुं कार्य तत्काल फलीभूत थाय छे. ते ब्रह्मगुप्तसूरि पांच इंद्रियोना संवरने धारण करनारा, नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्तिए युक्त, चार कषायोथी निर्मुक्त, पांच प्रकारना आचारने पाळनारा, पंचमहाव्रतमां तत्पर, त्रण प्रकारनी गुप्तिथी पवित्र, पांच समितिने वहन करनारा, धर्मना धुरंधर अने छत्रीश गुरु गुण तथा बीजा गुणोथी युक्त हता. तत्काल वनपाले आवी महाराजा पद्मसेनने विज्ञप्ति करी के, "देव, सद्भाग्ये आप गुरुना आगमनवडे वृद्धि पामो छो" आ वधामणी सांभळी ते विद्वान् राजाए हर्ष अने उत्कंठाने वश थइ अंग उपर रोमांचरूप कवच धारण करीने ते वधामणी आपनारा वनपाळने घणुं द्रव्य इनाममां आप्युं. पछी तत्काल ते राजा हार, अर्धहार, मुगट अने कडां वगेरेथी विभूषित थइ श्रेणीबंद अश्वारोथी
1. अर्थात् तेमना धनुष्यो दंड लाकडीना जेवा अने बाणो याचकना जेवा निर्माल्य बनी गया. 2. त्रास वेध. 3. विवाहपक्षे करपीडन - पाणिग्रहण अने राजापक्षे करनी पीड़ा. 4. कृष्णचित्रक एक जातनो वेलो थाय छे. 5. "पुण्यवतां पुंसां शीघ्रं फलति चिन्तितम्"
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पद्मसेन राजानुं चरित्र शोभित बनी एक मोटा गजेंद्र उपर बेसी प्रधानो, मंत्रिओ, सामंतो, शेठीआओ अने सेनापतिथी युक्त थइ, अंतःपुरनो परिवार अने पायदल सेनानी पंक्तिओ साथे राखी अने गंधर्वोना गीत, संगीत साथे वारांगनाओनो समूह लइ चारणोना घोष साथे उत्तम प्रकारना वाजिंत्रोना नाद करावतो अने दीन याचक वगेरेने दान आपतो, सारो पोशाक पहेरी युक्तिपूर्वक गुरुने भक्तिथी वंदना करवाने वनमां आव्यो. त्यां गुरुना दर्शन थतां पोते राजाए बे चामर, छत्र, मुगट, शस्त्र अने वाहनने छोडवारूप पांच अभिगम कर्या. त्यां कोइ ध्यान करता, कोई भणतां, कोइ भणावता अने कोइ कायोत्सर्ग करी रहेता एम विविध क्रिया करनारा विद्वान् अने सदाचारी साधुओने जोई राजाने अत्यंत हर्ष उत्पन्न थइ आव्यो. पछी जाणे जंगम कल्पवृक्ष होय तेवा ते गुरुने त्रण प्रदक्षिणा करी राजाए आदर पूर्वक विधिथी वंदना करी, ते पछी राजा बीजा पवित्र मुनिओने हर्षथी नमन करीने ते योग्यस्थाने बेठो. त्यारबाद आशातनाथी भयपामनारा राजाए उचित स्थाने बेसीने गुरुने आ प्रमाणे विज्ञप्ति करी-"जैन गुरु निग्रंथ-परिग्रह रहित होय छे छतां पण 'रत्नसहित सुवर्णना समूहने आपे छे अने जगत्प्रभु जिनेश्वर भगवान् मात्र शेषा आपे छे तेथी आप मारे ते प्रभुथी पण अधिक छो. हुं आपy गुरुत्व जाणीने आपनी वसति-वासस्थाने आव्यो छु, तेथी हवे आप आदर सहित थइ मने सत्वर ऊच्च अने निर्भय करो." ।।११६।। गुरु बोल्या- "हे राजा सांभळ, तुं तेजनुं स्थानरूप कवि छे; तेथी खेद पामीश नहीं तुं देवगुरुनी आगळ बेसीजा सारा वंशमां थयेला गुरु सारा वांसनी जेम मौक्तिक सुखने आपे छे. जेम वांस पडी जता एवा प्राणीओना समूहने आधारभूत छे, तेम गुरु नरकमां पडता प्राणीओना आधाररूप छे. जेम वांस गुण-दोरीनुं स्थान तथा धर्मना ऊपकरणोनुं साधन छे, तेम गुरु सारा गुणोना स्थानरूप एवा धर्मनुं साधन छे, जेम वांस पर्वग्रंथिनी स्थितिवाळो छे, तेम गुरु धर्मना पर्वनी स्थिति-मर्यादावाळा अथवा पर्व निमित्ते स्थिति करनारा छे. हे राजा, सांप्रतकाले तमारे जे सारा वंशनी प्राप्ति थयेली छे, तेवी प्राप्ति पृथ्वी उपर तेना अर्थी एवा जीवोने थवी दुर्लभ छे. हे राजा, आ संसारमा जीव अने कर्मो काळथी अनादि छे, जो कोइ कहे के, "जीव अने कर्मो, ते बनेमा प्रथम कोण?" तो तेने पूछयूँ के, "कुकडो अने इंडु तेमां प्रथम कोण?" जेम मृत्तिका (माटी) अने सुवर्णनो संयोग अनादि छे, तेम ते जीव 1. अहिं विरोधाभास अलंकारनो परिहार एवी रीते छ के-गुरु रत्न-चारित्र रूपी रत्नने अने
सुवर्ण-सारा वर्ण-अक्षर-ज्ञानना समूहने आपे छे. 2. ज्यां गुरुत्व भारेपणुं होय त्यां उच्चता प्राप्त थाय छे. 3. गुरुपक्षे मौक्तिक एटले मुक्ति संबंधी सुख अने वांसपक्षे मुक्ताफलनुं सुख-वांसमां मुक्ताफल उत्पन्न थाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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पद्मसेन राजानुं चरित्र अने कर्मनो संयोग अनादि छे. जेम अग्निना संयोगथी सुवर्ण मृत्तिकामांथी जुईं पडे छे, तेम ध्यानरूपी अग्निना बळथी जीव कर्मथी जुदो पडे छे. आ जीव प्राये करीने कायनी स्थिति-मर्यादावडे अनंत उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काळ सुधी निरंतर वनस्पतिमां रहे छे. त्यां रही ते अनंत पुद्गळ परावर्तोंने पूरे छे ते पुद्गल परावर्तो द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव-एवा भेदोथी चार प्रकारना छे. तेमांथी ते अव्यवहार राशिनो जीव अकाम निर्जराना योगवडे मांड मांड बहार नीकळी अनंती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी कालसुधी बादर निगोदमां रहे छे. पृथ्वीकायादिकमां असंख्याती उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळ सुधी रहे छे. विकलेन्द्रियोमां संख्याता वर्षो सुधी अने पंचेन्द्रियोमा सात आठ भवो (१००० सागरोपम झाझेरो. परंतु पंचेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यनी अपेक्षाए सात पूर्व कोटि अने त्रण पल्योपम उत्कृष्ट आयुष्य सात आठ भव- होय छे.) सुधी रहे छे. ए रीते सर्वे प्राणीओनी उत्कृष्ट कायस्थिति जाणवी. त्यारपछी ते ते कायवर्ती जीवोनुं अन्यकायमां परार्वतन थाय छे-व्यवहारराशिमां आवेला जीवोनी आ स्थिति कही छे. अव्यवहारराशि जीवोनी तो निगोदमां ज सर्वदा स्थिति जाणी लेवी. पृथ्वी प्रमुख पांचे सूक्ष्म जीवो समस्त जगतमां वर्ते छे ज. परंतु सूक्ष्म वनस्पतिना जीवो सूक्ष्म निगोद संज्ञा अंकित जाणवा. बादर (स्थूल) पृथ्व्यादिक जीवो त्रण भुवनमां यथास्थाने होय छे. बादर निगोद संज्ञा तो फक्त साधारण वनस्पति कायने ज जाणवी, एक श्वासोश्वास जेटला कालमां १७ करतां अधिक भव निगोदना थवा पामे. बाकी पृथ्वीकायर्नु उत्कृष्ट आयुष्प २२ हजार वर्षमुं, अप्कायर्नु सात हजार वर्षनुं अने वनस्पति, दश हजार वर्षनुं जाणवू. वायुकाय, त्रण हजार वर्षमुं, अग्निकायर्नु त्रण दिवस, तथा बे इन्द्रियनुं बार वर्षनु उत्कृष्ट आयुष्य समजवू.
तेइंद्रियजीवनी भवस्थिति ओगणपचास दिवसनी तथा चउरिद्रिय जीवनी छ मासनी अने पंचेंद्रिय जीव त्रण पल्योपमनी भवस्थितिवाळा होय छे. एम विद्वानो ए जाणवू. अने देवता तथा नारकी जीवोनी भवस्थिति तेत्रीश सागरोपमनी छे. एवी रीते जीवोनी उत्कृष्ट भवस्थिति आगममां कहेली छे. देवता तथा नारकी जीवोनी भवस्थिति जघन्यपणे/दशहजार वर्षनी छे अने ते सिवाय बीजा जीवोनी भवस्थिति जघन्यपणे अंतर्मुहूर्त्तनी छे. वारंवार स्थिति अने गमनागमन करतो जीव सर्व मळीने चोराशी लाख जीवायोनिने पूरी करे छे. ते बधी जीवायोनिओमां प्राणीओने सर्व प्रकारनी आशाओने पूरनारो अने दश द्रष्टांतोथी दुर्लभ एवो मनुष्य भव छे. ।।१३६।। तेमां पण वृक्षोनी जेम कल्पवृक्ष अने मणिओमां जेम चिंतामणि तेम अनार्यदेशोनी बहुलताने लइने आर्यदेश प्राप्त थवो दुर्लभ छे. तेमां पण धर्मकार्योने करावनारा सारा कुलनी प्राप्ति थवी दुर्लभ छे. कारण के मनुष्योने
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा कुल प्रमाणे शील (सदाचार)नी प्राप्ति थाय छे. "कुलप्रमाणं च शीलं भवति भूस्पृशाम्" तेमां पण गुरुना निवासथी पवित्र एवा नगरमां वास थवो, ते हर्षने आपनारो थइ पडे छे. कारण लोकमां कहेवाय छे के, "जेवो वास तेवो अभ्यास" ते सर्वना करतां पण बुद्धिथी देवगुरु-बृहस्पतिने जीतनारा, परोपकारी कार्य करनारा अने ज्ञानलक्ष्मीथी महान् एवा गुरुनो योग अगणित पुण्यथी ज प्राप्त थइ शके छे. तेनाथी कटु-दोषथी रहित एवी पांच इंद्रियोनी पटुता प्राप्त थवी दुर्लभ छे. तेनाथी श्रवण-कर्णने अमृतपान पारणुं करवारूप एवं धर्मोपदेशनुं श्रवण दुर्लभ छे. तेनाथी जैनमत उपर परम श्रद्धा थवी ते दुर्लभ छे. तेनाथी धर्म कर्मने करवाना उपायरूप एवी निरोगी-अक्षत काया मळवी दुर्लभ छे अने तेना करतां प्राणीओना संबंधमां आलस्य वगेरेनो त्याग करवो ते दुर्लभ छे. आ प्रमाणे धर्मरूपी राजाने मेळववामां तेर 'काठीया कहेला छे. आ संसाररूप समुद्रने तारनारी धर्मकरणी करवानी वात दूर रही, परंतु जो धर्म उपर फक्त पक्षपात राखवामां आवे तो पण ते पक्षपात दुःखमां सुखदायक थइ पडे छे. ते धर्म, सुबुद्धिनी जेम निर्धनने धन आपनारो अने असहाय प्राणीने सहाय करवामां श्रेष्ठ सखा (मित्र) रूप एवो अवश्य थइ पडे छे." ||१४६।।
राजा पद्मसेने वच्चे प्रश्न कर्यो के, "भगवन्, ते सुबुद्धि कोण हतो?" त्यारे ब्रह्मगुप्तसूरि बोल्या
सुबुद्धिनी अवांतर कथा राज तेजथी सुशोभित एवं पृथ्वीभूषण नामे एक नगर छे. ते नगरनी अंदर रहेनारा लोको उदार छतां अनुदार हतां, सांगज छतां अनंगज हता, धनद छतां अधनद हता, पावक छतां अपावक हता, कुशळ छतां अकुशळ हता अन नीतिज्ञ छतां अनीतिज्ञ हता, तो पण तेओ अविरोधी गणाता हता. लक्ष्मीथी प्रवर-श्रेष्ठ अने तेथी लंकापुरीने जीतनारा एवा ते नगरमा वर्षाकाळना जेवो 1. १. प्रमाद, २. मोह, ३. निद्रा, ४. अहंकार, ५. क्रोध, ६. कृपणता, ७. शोक, ८. लोभ.
९. भय, १०. रति, ११. अरति, १२. अज्ञान, १३. कुतुहल आ तेर काठीया धर्मप्राप्तिमां विघ्नरूप थाय छे तेथी तेने समजीने दूर करवानी खास जरूर कहेली छे. 2. अहिं विरोधाभास अलंकार छे तेनो परिहार आ प्रमाणे छे-तेओ उदार हता तेम अनुदार एटले अनु-अनुसरनारी छे दारा-स्त्रीओ जेमने एवा हता. अर्थात् अनुकूल स्त्रीवाळा हता. तेओ सांगज-अंगज-पुत्र सहित हता अने अनंगज-कामदेवना जेवा स्वरूपवान् हता. तेओ धनद-धनने आपनारा दातार हता, छतां धनद-कूबेर न हता. तेओ पावक-पवित्र करनारा हता, छतां अपावक-अग्नि जेवा न हता. तेओ कुशळ-चतुर हता अने कु-नठारा शहस्वभाववाळा न हता. तेओ नीतिज-नीतिने जाणनारा हता अने अनीति एटले अनावृष्टि वगेरे सात इति (उपद्रवो) थी रहित हता. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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सुबुद्धिनी अघांतर कथा जितशत्रु नामे राजा हतो. जेम वर्षाकाळ आसारधारावृष्टिए सहित होय छे, तेम ते राजा आसार-विशाळसेनासैन्य सहित हतो. जेम वर्षाकाल पंक-कादवने करनारो होय छे, तेम ते राजा पंकपापने छेद करनारो हतो. जेम वर्षाकाळ कंदल-अंकुरोने स्फुरायमान करनारो होय छे, तेम ते कंदलने-युद्धने फोरवनारो हतो अने जेम वर्षाकाल दुर्दिन-अंधकारवाळा घनघोर दिवसने करनारो होय छे, तेम ते दुर्दिननठारा समयन खंडन करनारो हतो. परंतु जेम वर्षाकाळ जीवन-जल मेळववाना उपायरूप होवाथी लोकोमा मान्य थाय छे, तेम ते राजा सर्वने जीवन-आजीविका मेळववाना उपायरूप होवाथी प्रजामां मान्य थइ पड्यो हतो. ते राजाने चार प्रकारनी बुद्धिना भंडाररूप, चार प्रकारना धर्मना मर्मने सारी पेठे जाणनार अने मंत्र-विचारणा करवामां चतुर एवो सुबुद्धि नामे एक मंत्री हतो. ते मंत्रीना बुद्धिना बलथी ज राजा पोतानुं मोटे राज्य चलावतो हतो. कारण के लोकोमा सर्व बळना करतां बुद्धिनुं बळ मोटुं गणाय छे. ते राजाना राज्यमां लोको दंडनो भय जाणता जन हता अने लोकोने तेनो कर सहेलो थइ पड्यो हतो अने पीडा आपनारी चोर लोकोनी तो कोइ वात ज जाणतुं नहीं. ते राजा सर्पोथी वीटायेला वृक्षनी जेम पोते क्रूर छतां पण पोताना गुणी सेवकोने सुखरूप थतो अने पोते सौम्य छतां पण दुष्ट सेवकोने दुःखरूप थतो हतो. तेनो मंत्री सुबुद्धि-सारी बुद्धिवाळो होवाथी हमेशां राजानी पासे धर्मवार्ता करतो हतो. एक वखते राजा सभामां बेठो हतो, त्यारे ते मंत्रीए आ प्रमाणे धर्मनी विशेष वार्ता कहेवानो आरंभ कर्यो. ""पर्वनी जेम सुगुण अने श्रेष्ठ वंशमां थयेला धर्मने प्राप्त करी पुरुषो शत्रुओ उपर रोष लाव्या वगर पण पराक्रमवाळा, पुरुषोमां उत्तम अने विश्व उपर मोटं बल धरावनारा थाय छे अने जेओ धर्म-बळवगरना निर्बळ छे, तेओ पाषाणना जेवी काया धरावता होय तो पण तेओ पराक्रमने योग्य नथी. वळी धर्मथी सारा कुलमां जन्म थाय छे, धर्मथी सर्व प्रकारनी संपत्तिओ मळे छे, धर्मथी प्रभुपणुं, इंद्रपणुं अने तीर्थकरपणुं प्राप्त थाय छे. आ स्थावर जंगम सहित एवा त्रैलोक्यमां जे जे शुभ वस्तु छे, ते सर्व आपणने धर्मना प्रसादथी प्राप्त थाय छे."।।१६० ।।
सबद्धि मंत्रीना आवां वचनो सांभळी राजा बोल्यो; "मंत्रिन्, तमे जे कह्यं ते बधुं खोटुं छे; आ त्रण लोकमां जे जे उत्तम वस्तु छे, ते ते पापथी ज प्राप्त थाय छे. जुओने, हुं पोते ज जीवोने मारुं छु, मृषा बोलुं छु अने बीजा द्रव्य 1. पर्व एटले वामनी ग्रंथि ते श्रेष्ठ वंशमां-सारा वांसमां थाय छे. धर्म पण सारा वंश-कुलमां प्राप्त थाय छे.
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा बलात्कारे खेंची लउं छु, ते छतां मारा राज्यनी वृद्धि-आबादि थाय छे, ते उपरथी सिद्ध थाय छे के, पाप करवाथी सारुं थाय छे." राजाना आवां वचनो सांभळी सुबुद्धि मंत्रीए कडं, "महाराजा, कदि सूर्य पश्चिममां उगे अने अग्नि शीतळ थाय, तो पण पापथी सारं थाय नहिं. तमे जीवहिंसा वगेरे करो छो, ते छतां तमारा राज्यनी जे आबादि थाय छे, ते तमारा पूर्वना पापानुबंधीपुण्यना प्रभावथी ज थाय छे, पुण्यानुबंधी पुण्य अने पापानुबंधी पुण्य ए उभय प्रकारे राज्यनी प्राप्ति थाय छे, पण ते बंने प्रकारे प्राप्त थयेलुं राज्य छेवटे नरकने आपनाएं थई पडे छे.' चोर कदि चोरी करवाथी घणुं धन प्राप्त करे, ते तेनुं फल सारुं देखाय, पण तेमांथी तेनुं माधुं पण कपाय." राजाए प्रश्न कर्यो, "मंत्रिन्, तमारा घरमां जे सदा संपत्ति रहे छे, ते कोना प्रसादथी रहे छे ते कहो." मंत्रीए उत्तर आप्यो. "ते धर्मना प्रसादथी" तत्काल राजा बोल्यो, अरे. ते संपत्ति मारी आपेली छे, छतां तुं धर्मे आपेली कहे छे, तो तुं हवे ते मारी संपत्ति मने आपीने अहिंथी सत्वर बीजे स्थळे चाल्यो जा. मारा देशमां तारे न रहेवं, कंइ करीयाj न ज खरीदवं, कोइनी पण पासे याचना न करवी, फक्त धर्मथी ज लक्ष्मी पेदा करवी. हे उतम पुरुष, जो ते संपत्ति पापथी प्राप्त थयेली छे, एम कबूल कर, तो तुं सुखे रहे; एटलुं ज नहीं पण हुं तने हमणां ज उलटो बमणी संपत्ति अने मारु अर्ध राज्य आपु." राजाना आवां वचनो सांभळी मंत्री बोल्यो, 'राजन्, धनना लाभनी खातर हुं अन्य संबंधे असत्य बोलुं नहीं तो पछी आ मोटा धर्मनी बाबतमां असत्य केम बोलुं? देहवडे करेला ब्रह्महत्यादि पापोनी शुद्धि तीर्थे जवाथी अने तपस्याथी थइ शके छे, परंतु जे कुधर्म, अधर्म अने दुष्कर्मोने प्रतिपादन करवाथी थयेला वाचिक पापो छे, तेनी शुद्धि तो कोई रीते थती नथी. छद्मस्थ तीर्थंकरो पृथ्वी उपर कायिकीक्रिया करे छे, पण तेओ नियमित मौन धरीने रहे छे. तेथी जे कायिकदोष छे, ते 'शामक छे अने जे वाचिक दोष छे, ते प्राये करीने शामक नथी. लोकोमां पण कोइ वचन कहेवायुं होय ते पाछळथी चाल्या करे छे अने व्यापक थइ रहे छे. तो हे राजा, तमे मारुं सर्वस्व लइ ल्यो. पापथी मेळवेलुं ते द्रव्य शा कामनुं छे? हुं परदेशमा जइने धर्ममार्गे वर्त्ततां द्रव्य उपार्जन करीश." आ प्रमाणे कही मंत्री सुबुद्धि पोताना घर- सर्वस्व राजाने आपी, जिनभगवानने नमी अने पोताना कुटुंबने सारी शीखामण आपीने 1. पुण्यानुबंधि पुण्यथी मळेलुं राज्य नरकने आपनारं का ते लौकिक अपेक्षाए का छे. 'राजेश्वरी ते नरकेश्वरी' आ सूत्रनी अपेक्षाए. 2. वचन संबंधी. 3. [लाईट, माईक अने
लेट्रीननो उपयोग करवो जोईए एवं कहेनाराओनी शी हालत थशे?] 4. शरीर संबंधी. 5. शमी-शांत थाय तेवू. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा घरमांथी चाली नीकल्यो. ते धर्मना प्रसादथी रस्तामां क्षुधा, तृषाना क्लेशने नहीं जाणतो अने परमेष्ठि महामंत्र- स्मरण करतो चालवा लाग्यो. राजानी आज्ञाथी ते पोताना राजाना देशने छोडी बीजा देशमां गयो अने त्यां प्रसन्नताने उत्पन्न करे तेवो कोइ एक जिन प्रासाद तेने प्राप्त थयो ते प्रासादमां विधिथी नैषेधिकी वगेरे दश उत्तम 'त्रिको साचवीने ते आ प्रमाणे प्रभुनी स्तुति करवा लाग्यो.।।१७९ ।।
सुर, असुर अने मनुष्योना स्वामीवडे पूजेला, गुणोथी युक्त, दोष रहित अने सर्वेना हितकारी एवा अहंत प्रभुने हुं स्तवं छं. हे अधीश! जो तमे शंकर हो तो भवानीना हित करनारा थाओ. अने तमे शंकर छतां अनंगने अंगयुक्त करो छो, ते अद्भुत वार्ता छे. हे जिन! तमे जो विष्णु अथवा जगन्नाथ हो तो ते भले हो, परंतु ते छतां तमे जनार्दन अने जलाशायी नथी, ते आश्चर्यनी वात छे. हे प्रभु, तमे जो स्वयंभू ब्रह्मा हो तो सर्वसुर-देवताओमां ज्येष्ठ थाओ. हे शंभो! तमे जे मारा भवनो अंत-नाश करता नथी, ते तमने शोभतुं नथी. हे जिनेश! तमे शून्यने छोडनारा छो, छतां इंद्रे नाखेला 4चीवरवस्त्रने छोडी अने शून्यपणाने आश्रित एवा अंबरनुं ध्यान केम करो छो? हे विभ, जे उपाधि (तीर्थंकरपणाने योग्य पुन्य प्रकृति)थी तमे प्राप्त थया छो, ते उपाधिने 'ह्रस्व करो नही. जो तमे ह्रस्व करो तो (समस्त घाति-अघाति कर्म) उपाधिने छेदी नांखो के जेथी हुं छद्मस्थ न रहूं. हे ईश! तमारा संतानमां पूर्व एवा अकर्मी पुरुषोए तमारी पासेथी सर्वस्व (मोक्षपद) मेळवेलुं छे तो हुँ 'सकर्मी सकर्मी छतो केवळलक्ष्मीने केम न मेळवू? हुं तो अज्ञानी तमारो संस्तव-परिचय अने स्तव-स्तुति करवी जाणतो नथी अने तमे तो सर्वज्ञ पण छो अने दातार पण छो, तेम छतां मने जे प्रिय छे ते केम आपता नथी? हे प्रभु! तमे अंतरना छ शत्रुओने हणो छो तो आ बहारना 1. दशत्रिकोनो सविस्तर अधिकार देववंदन भाष्यादिकथी जाणी शकाशे. (जुओ भाष्यत्रय) 2. शंकर भवानी-पार्वतीना हित करनार छे अने श्री जिन प्रभु भव-संसारना अनीहित
अनिच्छित करनारा छे. शंकर अंगयुक्त एवा कामदेवने अनंग-अंगवगरनो करनार छे अने श्री जिनभगवान अनंग-अशरीरी एवा सिद्धस्वरूपने वचन द्वारा बतावे छे. अथवा अनंग
सूत्रांग रहित एवा पुरुषने सूत्रांगवाळा करे छे. विष्णु जगतना नाथ कहेवाय छे, पण ते . जनार्दन-लोकोने पीडनारा अने जलशायी-जलमां सूनारा छे. अने श्री जिन भगवान् तो
लोकोने पीडनारा नथी अने जलमां सूनारा नथी. 3. शंभु-एटले सुख करनारा. जे सुख करनारा होय ते आ दु:खरूप संसारनो नाश करे त्यारे सुख करनारा कहेवाय छे. 4. जे चीवर (उत्तम वस्त्र-अलंकारादिक) नो त्याग करे ते प्रभु, इन्द्रे खभा उपर स्थापित करेल वस्त्रनुं केम चिन्तवन-ध्यान करे! ते देखीता विरोधनो परिहार (समाधान) आ रीते थई शके छे के प्रभृशून्य-दोष रहित (जाग्रतपणे) शृनयता आश्रित एवा अंबर-आकाशनुं (निरालंबन) ध्यान-चिन्तवन करे छे. 5. ह्रस्व एटले टुंकी. तमे आ संसारनी उपाधि छेदी नांखो तो हुँ छद्मस्थ-संसारी न रखें. अर्थात् निरूपाधि स्वरूपवाळो बनी जाउं. 6. अकर्मी-कर्म रहित. 7. सकर्मी-कर्म सहित.
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा
शत्रुओनी केम उपेक्षा करो छो? अथवा तेनुं कारण मारा जाणवामां एवं आव्युं छे के तमे मारेला अंतरना छ शत्रुओना तेओ किंकरो छे. किंकररूप रांकडा जाणी आप समर्थ तेमने हणता नथी अने उपेक्षा ज करो छो. जेओ तमारा अचिंत्य स्वरूपने जाणनारा छे, तेओ तमने भले वीतराग कहे, पण आ विश्वने रंजन करवाना कारणने लईने हुं तो तमने सराग-रागवाळा कहुं छं. तमोए पूर्वे 2 योगोनो निरोध करीने शुं योगनो अंगीकार कर्यो छे? जेथी राय (धन) ने कल्याण सहित (वार्षिक दानमां सफळ) करीने कल्याण (मोक्ष) ने केम भजो छो? हे जगत्प्रभु ! तमे पुण्यवान् प्राणीओने पुण्य आपनारा छो अने पापी प्राणीओना पापने हरनारा छो, तो हुं तमारी प्रजारूप छं. तेनी तरफ तमे मध्यस्थभावे केम रहो छे? तमे 'वर संवरना दानथी बे प्रकारे सविता - सूर्यरूप छो, तो तमे मने तमारा गोभरथी विदेहक्षेत्र बतावो . केटलाएक तमोने इन - स्वामी कहे छे, भले कहो पण तमे बे प्रकारे जयशील छो, तो आ मारी स्तुतिथी तमे मारा मोहने हरी ल्यो. हे परमेष्ठि, तमे त्रिकालज्ञानी छो, छतां आ भावी एवी प्रजाने केम जाणता नथी? केमके हुं तो उभो ज थइ रह्यो छं अने तमे पोते हंसगतिए विचरी रह्या छो. आ विश्वनी अंदर 'विबुधो सुमनवडे तमारी पूजा करे छे, तेओमां तमे एकने सिद्धि आपो छो.
आ प्रमाणे श्री सुबुद्धि मंत्रीए कहेलुं श्री जिनभगवाननुं प्रशस्त स्तवन अने बीजाओने परलोकमां समृद्धि आपो छो. ते शुं? हुं तमारी उपर जे राग राखुं छं, ते जो तमने पसंद न होय तो मने तमे समता आपो के जेथी हुं तमारी तुल्यता धारण करूं.
समस्तबुद्धिना स्थानरूप आ साधारण जिनस्तवन जे भणे छे, तेने 1. रंजन करवुं ते रागनो धर्म छे. तो तमे सर्व विश्वने तमारा प्रभावथी रंजन - राजी करो छो, तो तमे वीतराग-रागरहित केम कहेवाओ? 2. मन, वचन अने कायनो योग. 3. मध्यस्थभावे-तटस्थपणे सविता - सूर्यवर- श्रेष्ठ एवा संवर - प्रकाशनुं दान करी अथवा श्रेष्ठ वरदान आपी पोताना गोभर - किरणोना समूहथी क्षेत्रने बतावे छे. प्रभु वर - श्रेष्ट संवरना दाने पोताना गोभर - वाणीना समूहथी विदेह - देहरहित एवा क्षेत्र परमपदने दर्शावे छे. 4. जे परमेष्ठि - ब्रह्मा होय ते भविष्यनी प्रजाने जाणी शके अने हंसना वाहनथी विचरी शके. जिनपक्षे भविष्यना जन्मने जाणी शके छे अने हंस- आत्मावडे ते विचरे छे. 5. विबुधोदेवताओ सुमन - पुष्पोथी पूजा करे छे अने विबुध - विद्वानो सुमन - सारा मनथी ध्यान करे छे. अर्थात् विबुधो - ज्ञाततत्त्व सुविवेकीजनो तेमज देवताओ सुमन प्रसन्न मन तथा पुष्प पुष्पादिक उत्तम द्रव्योवडे प्रभुपूजा करनारा देव मानवादिक प्रबळ पुन्य योगे भवान्तरमां भारे समृद्धि मेळवी शके छे देव मनुष्यगति संबधी विशाळ भोग सामग्रीनो जोग पामी शके छे; परंतु सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयीने प्रसन्नचित्तथी आराधी जे भव्यजनो भावपूजा उपरांत प्रतिपत्ति पूजाना लाभने पामे छे ते महानुभावो अंते सिद्धबुद्ध थइ मुक्त थाय छे-: - सकळ कर्मनो अंत करी सिद्धिवधूने वरे छे.
श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा श्रीजिनपदना कारणरूप एटले तीर्थंकर नामकर्मनी पदवी प्राप्त थवी अति दूर नथी.
आ स्तुतिने सांभळी त्यां रहेल अधिष्टायक देव हर्ष पामी गयो अने तेणे ते स्तुतिकर्तार्नु कष्ट छेदवा माटे पोताना मनमां आ प्रमाणे चिंतव्यु-"आ कोण पुरुष सर्वज्ञ भगवाननी स्तुति करे छे?" आq चिंतवीने ते सर्वज्ञनी स्तुतिनो विषय जाणवाने माटे तेणे अवधिज्ञाननो उपयोग आप्यो. आथी ते बे प्रकारे 'विबुधना जाणवामां आव्यु के, आ स्तुति करनार 'बे प्रकारे सुबुद्धि छे अने ते धर्मविधिमां धीर अने श्री वीरना क्रमने सेवन करनारो छे. आq जाणी विचार करवामां चतुर एवा ते देवताए श्री जिनशासननी उन्नतिने अर्थे ते मंत्रीने हर्षथी एक निर्मल कामकुंभ आप्यो. मंत्रीए ते कामकुंभ लइने विचार कर्यो के-"आ विश्वनी अंदर पापीजनोने दुर्लभ एवो आ कामकुंभ हुं मारा राजा जितशत्रुने बतावी धर्मनी प्रभावना करुं।।२०३।। जेथी करीने लोकोनी धर्म उपर हवे स्थिरता थाय." आq विचारी ते सुबुद्धि मंत्री पोताना पृथ्वीभूषणनगर तरफ पाछो फर्यो. अति उत्सुकताने लइने ते रात्रे पण मुसाफरी करतो, तेथी ते वखते छलने शोधनारो कोई निशाचर (राक्षस) तेने मळी आव्यो. कोमळता वगैरे प्रत्यक्ष गुणवाळो ते कृतार्थ मंत्री ते निशाचरने जोइ भोळवाइ गयो अने तेणे 'हे मामा!' एम कही जुहार कर्या. नीतिशास्त्रमा कयुं छे के "जेओ मृदुताथी नम्रताधरीने बीजाना परितापने हरे छे, तेवा वृक्षोने धारण करीने पण नदीनुं पूर तेओने पाडी ज नाखे छे." हवे ते मायावी निशाचर बोल्यो, "भद्र, आ समय नठारी नीतिनो नथी. अर्थात् नीतिनो समय छे, तेथी हुं सत्य कहुं छु के, मारा पेटमां खरेखरी क्षुधा व्यापी छे, तेथी मने पुष्कळ मांस अर्पण कर." तेनुं आq वचन सांभळी मंत्री हृदयमां दया लावीने बोल्यो-"अरे भाई, सारी कीर्ति करवा योग्य एवं शुकपक्षी एक हलकुं प्राणी छे, छतां पण ते मांस भक्षण करतुं नथी. अने तमे देवपणाने लइने अमृतना भक्षक छो; छतां कुकर्मने लइने मांसना भक्षक राक्षस थया छो. आ लोकमां प्राणीओना नाम तेमना कर्म-प्रमाणे पडे छे. ते मांस सदा अपवित्र अने अति पापकारी छे; तो तेना आहारने तमे छोडी दो. कारण के तमे 1. बे प्रकारे विबुध एटले विद्वान् अने देव. 2. बे प्रकारे सुबुद्धि एटले सारी बुद्धिवाळो अने नामथी पण सुबुद्धि. 3. श्री वीरभगवानना क्रम-चरणने सेवनार अने पक्षे श्रीवीरपुरुषनी रीतिने धारण करनार. 4. जेम वृक्षो कोमळ अने फळोना भारथी नमी पोतानी शीतळ छांयाथी बीजा-सर्व मुसाफरोना परितापने हरनारा छे. तेमने कांठा उपर धारण करी राखेला छे; छतां पण नदीनु पूर तेवा उपकारी वृक्षोने पाडी नांखे छे. तेवी रीते दुर्जन पुरुष पोतानी पासे आवेला उपकारी सज्जन पुरुषोनो अधःपात करी नाखे छे.
श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा
पुण्यजन देव जातिना छो. जो तमने क्षुधानी घणी बाधा थती होय तो तेनी शांतिने माटे हुं आपुं ते इच्छित - दिव्य आहारने तमे हर्षथी ग्रहण करो." मंत्रीना आ वचनो सांभळी ते राक्षसे विचार कर्यो के, "आ जाते मनुष्य छे, तो ते मने प्रिय एवो इच्छित आहार सत्वर शी रीते आपी शकशे? जो ते नहीं आपी शके, तो पछी हुं तेने छळमां पाडी दईश." आवुं चिंतवी ते राक्षस बोल्यो - "भले, जो तेम करवुं होय, तो मने प्रिय एवो आहार आप, पण जो तुं ते नहीं आपी शके तो हुं तने अवश्य खाई जईश. " मंत्री उच्चस्वरे बोल्यो - "हा, भले तेम करजे." पछी ते राक्षसे जे-जे आहारनी दुर्लभ वस्तुओ मागी ते ते मंत्रीए पेला कामकुंभना प्रभावथी पूरी पाडी. ते पछी ते राक्षस प्रातःकाळे आश्चर्य पामीने बोल्यो– 'भद्र! तुं एक मानवजाति छे, छतां तें आ काम कोना प्रभावथी कर्यु? कारण के ताराथी स्वाभाविक रीते आवुं काम थई शके नहीं." आथी ते मंत्रीए राक्षसनी आगळ पोताने प्राप्त थयेला लक्ष्मीना स्थानरूप एवा कामकुंभनुं स्वरूप कही बताव्युं. ते सांभळी निशाचर बोल्यो - "मारी पासे एक प्रभाविक दंड छे, ते दंड जे स्थाने मोकलवो होय ते स्थाने पोतानी मेळे जाय छे अने त्यां पोते शत्रुनो जय करी पाछो पोताने मोकलनारा धणीनी पासे आवी हाजर थाय छे. ते सिवाय कार्य करवानी इच्छावाळा पुरुषने बीजां कोई प्रचंड कार्य करवुं होय, तो ते कार्य पण अखंडपणे करी पाछो ते दंड पोतानी मेळे स्वस्थानमां आवे छे. माटे हे विद्वान्, तमे मने तमारो कामकुंभ आपो अने मारी साथै सन्मैत्री जोडो. तेना बदलामां आ मारो दंड तमे ग्रहण करो अने ते वडे लोकोनुं रक्षण करो. त्यारपछी तमारा श्रेष्ठनगरमां चाल्या जाओ" निशाचरना आ वचन उपरथी ते मंत्रीए पोतानो कामकुंभ तेने आप्यो अने पोते तेनो दंड लीधो. पछी अचळ पुण्यवाळो
मंत्री चालतो थयो . आगळ केटलोक मार्ग चाल्या पछी ते मंत्रीए पेला दंडने कह्युं. "है दंड! तुं आजे ते राक्षसने जीती लइ मारो कुंभ लावी आप." तत्काळ दंडे ते प्रमाणे करी आप्युं. पछी ते मंत्री त्यांथी आगळ चाली एक नगरपासे आव्यो. ते नगरनी बहार कोइ मोटो संघ वास करीने पड्यो हतो. ते संघ निर्भय थई त्यां सुतो हतो, तेवामां लुंटाराओनुं एक टोळं त्यां आवी चडयुं. ते वखते संघना रक्षको तेना भयथी नासी गया. ते टोळाए संघने लुंटवा मांड्यो. ते जोई आ बुद्धिमान् मंत्रीए ते दंडने मोकली बधा चोरोने मारी संघना लोकोने हर्षित करी दीधा. पछी प्रभातकाले ते मंत्रीए सर्व उत्तम संघने आमंत्रण आपी भक्तिथी भोजन कराव्यं अने वस्त्रो आप्या. तेथी संघनो स्वामी खुशी थई गयो अने अपूर्व श्री विमलनाथ चरित्र प्रथम सर्ग
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कांतिवाळा ते संघपतिए मंत्री सुबुद्धिने 'व्रणसंरोहिणी नामनी औषधि मानपूर्वक अर्पण करी. कामकुंभ, दंड अने व्रणसंरोहिणी - ए त्रण वस्तु लईने मंत्री पोताना नगरमां आव्यो अने त्यां पोताना घरमां धर्मध्यानमां तत्पर थइ सुखे रहेवा लाग्यो ।। २२९ ।।
राजा जितशत्रुए केटलाएक माणसोना मुखथी जाण्युं के, मंत्री सुबुद्धि कामकुंभ वगेरे वस्तुओ लईने पोताने घेर आव्यो छे; पण तेणे पेला राक्षसने पीडाव्यो छे, ए वात जाणी नही. तत्काल राजाए तेना धर्मनी परीक्षा करवा माटे बे बीजोराना फळो मंगाव्या. अने तेमां एक फळनी अंदर रत्न नाख्युं. पछी ते बंने फळो बराबर साथे राखी शाकपीठनी अंदर एक दासी हथ्थु छुपी रीते वर्हेचवाने मोकल्यां. तेवामां सुबुद्धिमंत्रीनी दासी शाकपीठमां शाक लेवाने आवी. तेणीए ते बंने बीजोराना फळोमांथी पेलुं रत्नवाळं फळ अल्प मूल्यथी खरीदी लीधुं. अने जे बीजुं रत्न वगरनुं फळ हतुं, ते राजानी दासीना भयथी कोइए लीधुं नहीं. पछी राजानी दासीए ते फळ सायंकाळे राजाने पाठुं आप्युं. ते फळने रत्नवगरनुं खाली जोइने राजा दासीने पूछ्यं के, "बीजुं फळ कोणे खरीधुं छे?" त्यारे दासीए कह्युं के, "ते फळ सुबुद्धिमंत्रीनी दासी लइ गइ छे." दासीनुं आ वचन सांभळी राजा कांइ बोल्यो ज नहीं; ते मौन धरीने ज रह्यो.
अहिं मंत्री सुबुद्धिए रात्रे कामकुंभना प्रभावथी एक महेल उभो कर्यो. ते महेलनी उपर सोनेरी कळशो रहेला हता. तेने एकवीश माळ हता. द्वारपरनी कोणी अने ओटलाथी ते महेल अत्यंत शोभतो हतो, तेमां चारेबाजु गोख शोभी रह्या हता. उपर रचेली अगाशीथी ते महेल माननीय थइ पड्यो हतो. तेमां विचित्र चित्रो करवामां आव्यां हतां; तेनी अंदर जुदी जुदी क्रियाओ करवाना स्थानो गोठव्यां हतां अने ते विशाळ, विचित्र तथा रत्नोथी संपूर्ण हतो. आवा ते महेलनी अंदर ते निष्कपटी मंत्री स्वस्थ - शान्तचित्ते रहेवा लाग्यो. आवा ते महान महेलना तेजथी सर्व नगरमां उद्योत थइ रह्यो, तेथी राजा अने लोकोना हृदयमां मेरुपर्वतनी अथवा इंद्रजाळनी शंका थई आवी. राजा ते जोई विचार करवा लाग्यो के, "पृथ्वीमां मेरुपर्वत तो निश्चल छे, तो शुं आ इंद्रजाळ हशे ? जो इंद्रजाळ होय, तो ते थोडा वखत सुधी टकी शके अने आतो लांबो काळ टकेल छे. तो आ शुं हशे? ते कांइ सारी रीते जाणवामां आवतुं नथी. अथवा तो कोइ अद्भुत देवतानी रचना हशे." आ प्रमाणे राजा चिंतवन करतो हतो; तेवामां 1. जखमने रुजावी शके तेवी औषधि
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सुबुद्धिनी अवांतर कथा
सूर्योदय थतां ज मंत्री सुबुद्धि रत्नोना समूहनो एक थाळ भरी राजमहेलना द्वार आगळ आव्यो. प्रतिहारे राजाने तेना खबर आप्या, एटले राजाए आश्चर्य पामीने तेने प्रवेश कराववानी आज्ञा आपी. मंत्रीए राजसभामां आवी राजाना चरणकमळमां नमन करी, तेनी आगळ ते रत्नोना समूहथी भरेलो चळकतो थाळ मूक्यो. राजाए 'आ शुं छे?' एम कह्युं, एटले मंत्रीए जवाब आप्यो के, "राजेंद्र ! सिद्धिने आपनारुं आ पुण्यनुं फळ जाणी ल्यो. " राजाए पुनः पुछ्युं; एटले तेणे पोतानो सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. ते सांभळी राजा हृदयमां चमत्कार पामी गयो. पछी जेना हृदयने लोभे दबाव्युं छे, एवा राजाए मंत्रीने कह्युं के, "गृहस्थना घरमां आभूषणरूप एवो आ कामघट मने आपो" मंत्री बोल्यो, "राजन्, कल्पवृक्ष विगेरे पदार्थो पापीजनोनी दृष्टिए पण आवता नथी, तो पछी तेमना घरमां शी रीते रहे?" राजाए कह्युं, "मंत्री! तमे तमारी बुद्धिथी कल्पेलो विचार शा माटे दर्शावो छो? तमे मने आ कामकुंभ सत्वर आपो एटले पछी आगळ उपर सर्वे सारावाना थशे." राजानो आवो दुर्धर दुराग्रह जाणी मंत्रीए तेने पोताने घेर आमंत्रण कयुं. पछी सत्वर घेर बोलावी अने जमाडी राजाने ते कामकुंभ अर्पण कर्यो. राजा ते कामकुंभने मोटा उत्सवथी पोताना घरमां लाव्यो अने उग्र सुभटोने राखी तेनी आदरथी रक्षा करवा लाग्यो. प्रभातकाल थतां ज मंत्री शत्रुओने नाश करनारा पेला दंडवडे ते कामकुंभने आदरथी पाछो पोताना घरमां लाव्यो. आ वखते राज़ाए पोताना हृदयमां विचायुं के, "मंत्रीनुं ते पवित्र वचन सत्य थयुं अने मारा सुभटोनो नकामो क्षय थयो . हवे जे सुभटो घायल थयेला छे, तेओ जो कदि जीवे तो सारुं थाय." आ प्रमाणे हृदयमां विचारी तेणे मंत्रीने पोतानी पासे बोलाव्यो अने तेणे बनेलो सर्व वृत्तांत जणाव्यो उपकार करवामां तत्पर एवा मंत्रीए पेली संरोहिणी औषधिना योगथी जेओ घायल थयेला हतां, ते सर्वेने सज्ज करी दीधा.
एक वखते ते सुबुद्धि मंत्रीए पोताना हृदयमां विचायुं के, "कदि बीजो जे अज्ञ अने अल्प बुद्धिवाळो माणस होय, पण जो ते पोताना मित्रने कुकर्मोथी बचावे छे तो ते माणसने धन्य छे, तो हुं बुद्धिमान मंत्री थइने तेवुं केम न करुं ?" आ प्रमाणे चिंतवी स्थिर मैत्रीवाळा अने पुण्यदानना अर्थी एवा ते मंत्रीए पुनः राजाने कह्युं के " हे गोपाळ ! सारो वांस पण जो धर्म वगरनो होय तो ते 1. गोपाळ. गो-पृथ्वीना पालक. सारो वांसधर्म- धनुष्य तेनाथी रहित होय ते लाकडी रूप गणाय छे अने ते लाकड़ी रूप वांस गोगण-गायोना समूहने पीडाकारी थइ पडे छे. राजा सुवंश - सारा वंशमां थयेलो होय पण जो तेनामां धर्म न होय तो ते गोगण - प्रजा समूहने पीडाकारी थइ पड़े छे.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा लाकडीना जेवो गणाय छे अने ते गोगणने पीडाकारी थइ पडे छे. तेनो विचार करो अने वंशज धर्म प्राप्त थयो होय पण जो ते जीवारोपथी रहित होय तो तेथी माणसो विग्रहनी अंदर रहेला शत्रुओनो जय करी शकता नथी. हे राजा, तमे पृथ्वीमां भूभृत्पणुं उच्च प्रकारे धारण करनारा छो; तेथी तमारामां जो धर्म नहीं होय तो धर्मना आधाररूप एवी आ प्रौढ पृथ्वी तमारे आधारे शी रीते रही शकशे? अने हे राजा, जो ते पृथ्वी तमारी पासे नहीं होय, तो तमारा वंशनुं स्थान क्यां रहेशे? तेथी तमारे विचार करी अनार्यने वर्जित करनारो धर्म ज स्वीकारवो जोइए. हे राजा, तमे अत्यंत पापनो आग्रह छोडी दो. भावनारूप जलना पूरथी दयारूप वृक्ष सिंचन करो अने दुष्टबुद्धिनो दूरथी त्याग करो. आ विश्वनी अंदर श्वेतवर्णनो, मंडलधारी, कौमुदीनो स्वामी अने कलाधार एवो राजा पण 'तमना ग्रहणथी निष्कल थइ जाय छे. हे नृप! जे पकड्युं ते मूकवू नहीं," एवी जो तमारी मान्यता होय तो कुलपुत्रकनी जेम तमारा अंगो अत्यंत भांगी जशे. ।।२६४॥
कुलपुत्रकनी कथा कोइ गाममां एक मातृमुख (मावडीओ) थइ गयेलो कुलपुत्रक रहेतो हतो. एक वखते तेनी माताए तेने एवी शीखामण आपी के, "हे पुत्र! जे पकडी राख्युं होय ते छोडवू नहीं." मातानी आवी शीखामणथी ते पुत्र एवो कदाग्रही थयो के, ते हमेशां जे कांइ सत्य के असत्य वचन ग्रहण करे, तेने कदि पण छोडे नहीं. तेना आवा दुराग्रही स्वभावथी लोकोए तेनी उपेक्षा करी दीधी, कोइपण माणस तेने बोलावे पण नहीं एक वखते तेणे कोइ एक उन्मत्त बळदने जोइ तेनुं पुंछडुं पकड्यु. लोकोए घणो वार्यो पण तेणे पकडेलु पुंछडु छोड्युं नहीं. तेथी ते बळदनी पाछळ घसडायो अने तेना अंग भांगी गया. हे राजा! तेनी जेम तमे पण कदाग्रही न थाओ. 1. वंशज-वांसमांथी थयेलो धर्म प्राप्त थयो होय एटले वांसनुं धनुष्य बनाव्युं होय पण जो
ते जीवारोप-एटले पणचथी रहित होय तो तेथी माणसो विग्रह-युद्धनी अंदर शत्रुओनो जय करी शकता नथी. पक्षे वंशज-कुल जनित धर्म प्राप्त थयो होय अर्थात् सारा कुलमा जन्म थयो होय पण जो ते शरीर जीवारोपरहित-जीववगर- होय तो तेनाथी विग्रह-शरीरनी अंदरना काम क्रोधादि छ शत्रुओनो जय करी शकातो नथी. 2. पृथ्वी वगर वांस पण रही शकतो नथी. 3. राजा श्वेतवर्णनो, मंडल-देशमंडलने धारण करनार, कौमुदी-पृथ्वीनो स्वामी अने कलाओनो ज्ञाता होय छे अने पक्षे राजा-एटले चंद्र ते श्वेतवर्णनो मंडल धारी, कौमुदी-ज्योत्स्नानो स्वामी अने कलाधर होय छे. 4. जो तम-तमो गुण अने चंद्रपक्षे राहुनो ग्रास थयो होय तो निष्कल-राजा विकल थई जाय छे अने चंद्र कला रहित थइ जाय छे.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा हे राजा! उपरना दृष्टांत उपरथी तमे कदाग्रहने छोडी दो. अने प्रत्यक्ष धर्मथी उत्पन्न थयेला आ प्रतीतिवाळा कुल-संतान उपर विधि भाषणवडे तमे पक्षपात करो. मनुष्योने जे सुकृत उपर पक्षपात छे, ते खरो पक्षपात छे अने जे पाप उपर पक्षपात छे, ते तो उलटो पक्षनो पात करवा रूप छे अर्थात् पक्षने तोडनारो छे. मंत्रीना एवां वचन सांभळी साक्षात् मगशैल पथ्थरना जेवो राजा फरीवार बोल्यो, "मंत्री, कदी तने 'घुणाक्षर न्यायथी एकवार संपत्ति प्राप्त थई, तेथी तुं एवो गर्विष्ट थई गयो छे के जे मने पण शीखामण आपे छे अने तेमां कहे छे के, "तारी शिक्षाथी हुं आटली समग्र समृद्धि पाम्यो छु." मंत्री तुं कहे छे के, "मने कामकुंभ वगेरेनी प्राप्ति धर्मथी थई छे." पण ते वातमां साक्षी कोण छे? कदि तुं कोइ छळ के बळ करीने आ संपत्तितो नथी लाव्यो? हवे जो तुं तारा घरसर्वस्व मने आपी फक्त तारी स्त्रीने साथे लई चाल्यो जा अने फरीवार तेवी बीजी संपत्ति लाव, तो हुं तने अने धर्मना फलने सत्य मानु" मंत्री बोल्यो, "हे राजा, भले तेम करूं" आ वृत्तांत पुरोहितना जाणवामां आव्यो, एटले सर्व शास्त्रोमां प्रवीण एवा पुरोहिते आवी राजाने आ प्रमाणे आगळ उपर हितकारी एवां वचनो कह्यां, "हे राजा! नास्तिक पुरुषो पण प्रत्यक्ष प्रमाणने माने छे, तो तमे क्षमाभृत्राजा थइने पण धर्मर्नु प्रत्यक्ष प्रमाण केम मानता नथी? हे पृथ्वीपति! जो तमे हजुपण धर्मने मानशो, तो कांइ बगडी गयुं नथी, तेथी उलटुं सत्पुरुषोमां तमाएं कांइक महत्त्व थशे. अविबुध संपूर्ण अने सूत्रधारनी समीप रहेल होय, पण जो तेनी प्रतिष्ठा थई न होय, तो ते सुमनसथी पूजातो नथी. जे माणस पोतानुं पाणी छोडे, तेने कोई सशो के मित्र होतो नथी. कमळने ते (पाणी)नो त्याग करवाथी 'मित्र पण अमित्र थई पडे छे. अमृतना सागरनुं अत्यंत मथन करवाथी घणुं उग्र एवं कालकूट-झेर उत्पन्न थयुं हतुं. जेनुं पान करीने महेश-महादेव नीलकंठपणाने प्राप्त थयो. तेथी हे राजा, तमे मंत्री सुबुद्धिने जे विदेश जवानी आज्ञा आपवा इच्छो छो, ते सारं थतुं नथी. दुर्लभ एवा ते मनुष्य रत्नने तो अहिं ज राखवा यत्न करो. दैत्यरूपी शत्रुओए मथन करीने रत्नोना समूह लई लीधो, ते पछी 1. घुण नामनो एक कीडो अजाण्ये लाकडामां अक्षर कोतरी काढे छे. तेवी रीते. 2. क्षमापृथ्वी अथवा क्षमागुणने धारण करनार. 3. विबुध-देव संपूर्ण प्रतिमावाळा होय अने ते सुत्रधार-कारीगरनी पासे रहेल होय, पण जो तेनी मंदिरमा प्रतिष्ठा थई न होय तो ते सुमनस-पुष्पोथी अथवा विद्वानोथी पूजाता नथी. पक्षे विबुध-विद्वान् संपूर्ण विद्यावाळो अने सूत्रधारनी पासे रहेलो होय पण जो तेनी प्रतिष्ठा-आबरू वधी न होय तो तेने सुमनस सारा पुरुषो पूजा-मान आपता नथी. 4. मित्र-सर्य, अमित्र-शत्र.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा रत्नाकर आ पृथ्वी उपर चंद्रना जेवू दुर्लभ रत्न मेळवी शक्यो नथी. चंद्र घनाश्रयने मेळवी सदाने माटे नक्षत्रोनो स्वामी थयो छे, तो पण ते समुद्र आकाशमां रहेला ते चंद्ररत्नने पुनः लेवाने माटे पोतानी तरंग रूपी भुजाओ पसार्या करे छे तथापि ते समुद्रनी पासे आवतो नथी. जो कदि ते आवे, तो ते ज चंद्र कलाओना समूहथी संपूर्ण एवो राजा बने. आ दृष्टांत उपरथी दीर्घ विचार करी तमारे ते बुद्धिना भंडाररूप मंत्रीने राज्यमा राखवा जोईए. पाछळथी तमे कहेशो के मने कोईए कहुं नहि" आम कहेतां पण राजाए ज्यारे श्वानना पुच्छनी जेम पोतानी वक्रता छोडी नहीं, त्यारे ते पुरोहित मौन धरी रह्यो, ते पछी मंत्री सुबुद्धि कामकुंभ वगेरे पदार्थो छूपावी अने बीजुं सर्वस्व राजाने आपी दई स्थिरताथी प्रकाशमान थतो पोतानी पत्नी साथे चाली नीकल्यो. आq बनवाथी नगरना सर्व लोकोए विचार करीने राजानुं गौण छतां पण गुण वगर कुबुद्धि एवं नाम पाड्यु. ।।२८८।।
स्वभावथी गंभीर एवो ते मंत्री सुबुद्धि अनुक्रमे पगे चालतो-चालतो गंभीर नामना कोई नगरमां आवी पहोंच्यो. ते नगरमां कोई दाण लेनार पुरुषनी साथे तेनो मेलाप थयो, तेणे तेनुं सन्मान कयु. पछी मंत्री तेणे रहेवा आपेला एक घरमां पोतानी प्रिया साथे रह्यो.
हवे पवित्र अने सतीजनमां श्रेष्ठ एवी मंत्रीनी स्त्री दाणलेनारने घेर हमेशां छास तथा अथाणुं लेवाने आवती हती. एक वखते ते दाण लेनारे तेणीनी तरफ कुदृष्टि करी एटले तत्काल ते भूमि उपर पडी गयो. कारण के सती स्त्रीनुं चरित्र अद्भुत होय छे. ते दिवसथी पेलो माणस अंध बनी गयो, तेवू बने तेमां कांई आश्चर्य ज नथी. अने तेणीना नेत्रनुं तेवू चातुर्य होय, तेमां पण कांई आश्चर्य नथी. मंत्रीनी स्त्री ते तत्त्व समजी गई एटले ते पछी ते तेने घेर कदि पण जती नहीं; परंतु ते दुष्ट पुरुष तेणीने मेळववाने माटे भय-कष्टवाळा विविध उपायो चितववा लाग्यो. एक वखते तेणे चिंतव्यु के, "जयां सुधी मंत्री अहिं हाजर हशे, त्यांसुधी मारुं कार्य सिद्ध थशे नहीं" आq चितवी तेणे मंत्रीने बीजे गाम जवानी आज्ञा आपी. सरळ स्वभाववाळा मंत्रीए ते आज्ञा किंचित् स्वीकारी लीधी. पछी घेर आवीने तेणे पोतानी पत्नीने कह्यु के, "मारे ग्रामांतर जवानुं छे, 1. रत्नाकर-रत्नोनी खाणरूप समुद्र. 2. घनाश्रय-घन-मोटो-आश्रय अथवा घन-मेघनो
आश्रयरूप आकाश. 3. राजापक्षे कलाओनो जाणनार राजा एटले चंद्र. 4. गौण एटले गुण निष्पन्न अने गौण हलकुं.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा तेथी भोजन सत्वर तैयार कर." त्यारे स्त्रीए प्रथम बनेलो वृत्तांत तेने कह्यो, ते उपरथी मंत्री पोतानी तबीयतनुं बहानुं बतावी वक्रपणे घरमां ज रह्यो.
आ अरसामां ते नगरमा सागरदत्त नामे एक श्रेष्ठी रहेतो हतो. ते घणो धनवान हतो, पण लोभनुं ते स्थान ज हतो. ।।३००।। ते उंची जातनी वस्तुओथी एक वहाण भरी रत्नद्वीपमा जवानी इच्छा राखतो हतो. ते वाजिंत्रो वगाडतो दाण लेनारना वासस्थानमां आव्यो. तेणे लेवड-देवड करवा पोतानो वृत्तांत तेने निवेदन कर्यो. त्यारे ते दाण लेनारे तेना कानमां हळवेथी बधुं कही आप्युं अने जणाव्यं के-"तमारे कांइ दाण आपवानी जरूर नथी, परंतु आ कोई परदेशी माणस छे, तेने तमारी साथे देशांतरमां लइ जाओ." तेणे कडं के, "मारा वहाण पर तेने लई आवो, पछी हुं तेने संभाळी लइश. तमारे ते माणसनी फीकर राखवी नहीं." पछी ते दाण लेनारे दाण लेवानुं बहानु करी मंत्रीने ते वहाण उपर मोकल्यो. ते वहाण उपर चड्यो के तरत तेने वहाणमां पुरी दीधो. प्रातःकाले पाछळना पवनने लइने जाणे तेनी स्पर्धा करतुं होय तेम ते वहाण आगळ चाल्यु अने थोडा दिवसोमां तो ते उत्तम रत्नद्वीपमां आवी पहोच्यु. त्यां सागरदत्त श्रेष्ठी वहाण उपरथी उतरी हर्षथी ते द्वीपना राजाने मन्यो. राजाए घj थोडु दाण लई तेने मान आप्यु, पछी ते वहाण उपरथी बधो माल उतारी त्यां उतारो करी रह्यो, त्यां तत्काळ कोइ वेश्यामां ते आसक्त थइ गयो. आथी पोते निश्चिंत रहेवा माटे पेला मंत्री सुबुद्धिने बधुं द्रव्य सौंपी दीधुं. तेमज खरीदवानी अने वहेंचवानी बधी शिक्षा पण आपी. सर्व कळामां चतुर अने वेपारमा तत्पर एवा ते मंत्रीए लाभथी घणुं नवं द्रव्य उपार्जन कयु. जुदा-जुदा देशोनो माल पुण्यनी जेम खरीदी द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव तेमज आवक अने खर्च बराबर तपासी पोतानी मूडीना प्रमाणमां ते मंत्री वेपार चलाववा लाग्यो अने दाण चोरी कर्या सिवाय तेणे घणी लक्ष्मी मेळवी. त्यां तेने घणी वेश्याओ क्षोभ पमाडवा लागी, तो पण स्वदारासंतोषव्रतने धारण करनार ते मंत्री शुद्ध भावथी क्षोभ पाम्यो नहीं.।।३१३।।
एक समये त्यां राजा तरफथी एक मोटुं सरोवर खोदातुं हतं, ते खोदतां तेमांथी विचित्र जातना अक्षरोवाळा ताम्रपत्रो नीकळी आव्या. खोदनाराओए ते विचित्र अक्षरोवाळा ताम्रपत्रो राजाने आप्या. त्यां राजानो कोइ पण माणस तेमां लखेली लिपीने उकेली शक्यो नहीं. तेथी राजाए पोताना नगरमां पटह वगाडनारा माणसोनी पासे सारा नादवाळो पटह वगडाव्यो; परंतु ते लिपि वांची शकाय तेवी चतुराईना अभावने लइने कोइए ते पटहनो स्पर्श कर्यो नहीं. आ पटह सुबुद्धि श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा मंत्रीना सांभळवामां आव्यो, त्यारे तेणे ते पटहवाळा माणसने पूछ्यु के, "आ शुं छे!" तेणे जवाब आप्यो के, "राजा तरफथी एक सरोवर खोदाय छे, तेमांथी अक्षरोवाळा ताम्रपत्रो नीकन्यां छे, पण ते लिपिने जाणनारो कोइ मळतो नथी. जे पुरुष ते लिपि जाणनारो होय ते पुरुषने राजा उत्सवथी राजकन्या साथे पोतानुं अधुं राज्य आपे छे." आ वचनो सांभळी अढार लिपिओना जाणनारा ते मंत्रीए स्पृहा साथे ते पटहनो स्पर्श कर्यो. तत्काल ते राजाने जाहेर करवामां आव्यु. तत्काल राजाए ते मंत्रीने पोतानी पासे बोलाव्यो अने पेला ताम्रपत्रो बताव्यां. मंत्रीए ते ताम्रपत्रोनी अंदर जे लखेलुं ते स्फुट रीते वांची संभळाव्यु. तेमां लख्यु हतुं के, "आ ताम्रपत्रवाळी भूमिमां अगियार हाथ नीचे सारा वर्णनुं साडीबार करोड सुवर्ण रहेलं छे." राजाए ते प्रमाणे तपास करतां आश्चर्य करनारूं तेटलं सुवर्ण तेमांथी नीकळी आव्यु. पछी पोताना ठराव प्रमाणे राजाए मंत्रीने आपवा मांडयुं, त्यारे ते मंत्रीए पोताना मनमां आ प्रमाणे विचार कर्यो, "जो हुं अर्धं राज्य लइश तो मारे अहिं रहे£ पडशे अने तेम करवाथी लोकोमा धर्मनी ख्याति नहीं थाय. तेथी अर्धाराज्यनी कीमतना प्रमाणमां रत्नो अने वाहनो लई राजा जितशत्रुने बताएं के जे उपरथी तेनी बुद्धि धर्म तरफ वळे" आ प्रमाणे विचार करी मंत्रीए राजाने कर्वा के, "हे राजा, मारे अर्धं राज्य जोइतुं नथी. बीजुंजे कांइ आपने रुचे, ते मने आपो." पछी राजाए राजकन्यासहित रत्न, सुवर्ण अने उंची वस्तुओथी भरेला पोतक (नानां होडकां) सहित आठ वहाणो मंत्रीने आप्यां. ते सर्व ग्रहण करी राजकन्या साथे विवाह करी क्रयविक्रय-वेपार करतो ते मंत्री त्यां निरंतर सुखे रहेवा लाग्यो. एक दिवसे पोताने जवानो अवसर आव्यो एटले राजानी आज्ञा मेळवी पेला आठ वहाणोने उंची जातनी वस्तुओथी भरी, पोताना शेठ अने राजकन्याने साथे लइ, सुंदर परिवार अने लक्ष्मी सहित, रत्नोना दीपकरूप एवा ते रत्नद्वीपमांथी चाली नीकल्यो. दयाळु अने सारी वासनावाळा ते मंत्रीए पोताना शेठ सागरदत्तने घणुं मान आपी पोताना वहाणोना रक्षणने माटे राख्यो. सर्व वहाणोनो समूह चालतो थयो, त्यारे सागरदत्त शेठे मनमां विचार्यु के "एक सामान्य माणस छतां आ मंत्री साक्षात् स्वामी समान देखाय छे, तो जो हुं तेने आ समुद्रमां नाखी दउं तो भाग्ययोगे मने हितकरनारी एवी आ लक्ष्मी अने प्रिया भोगसहित प्राप्त थशे. आq विचारीने ते जडबुद्धिवाळा सागरदत्ते अंधारी रात्रे काइ मिष करीने मंत्रीने समुद्रमा नाखी दीधो. ते वखते ते 'क्षणदा-रात्रि ते बंनेने 1. क्षणदा एटले क्षण आपनारी, मंत्रीने क्षणदा एटले अल्प समय कष्ट आपनारी थइ अने सागरदत्तने क्षणदा एटले उत्सव आपनारी थइ.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा क्षणदायक थइ पडी. तेमां एकने (मंत्रीने) ते रात्रि 'त्रियामा थइ अने बीजाने (सागरदत्तने) सुखे शयन मळवाथी ते यामिनी थइ, ते मंत्रीए समुद्रमां पडती वखते श्री जिन भगवान, अने श्रीजिनभगवाने कहेला धर्मनुं शरण लीधुं. तेथी तत्काल ते मंत्रीने समुद्रमां एक वहाण पाटीयुं हाथ आव्यु. रत्नाकर-समुद्रना पारने आपनारा ते पाटीयाने गुरुना वचननी जेम ग्रहण करी बाहुश्रुतिना बळथी तेणे पोताना दयाळु हृदय उपर धारण कयु, ते पाटीयाना बळथी एक पहोरमां ज समुद्रने तरी जइ विविध प्रकारना वनथी सुशोभित एवा कोइ पृथ्वीना भाग उपर उतरी पड्यो. ।।३३८।। त्यां तम ने नाश करनारा अने तेजने फोरवता एवा हंसने जोई, जडतानु दुःख छोडी अने सुदृष्टि प्राप्त करी मार्गे लागी गयो. एक समये आगळ जतां पोताना पटुनेत्रथी पृथ्वीपर रहेला स्थावर-जंगम पदार्थोने जोतो जोतो ते मंत्री कोइ एक उज्जड नगरमां आवी पहोंच्यो. त्यां ते मंत्री पोते अशून्य पुरवाळो छतां ते शून्य नगरमां रही मानव छतां पण अमानव एवी वस्तुओना समूहने जोवा लाग्यो. बधा नगरनुं अवलोकन कर्या पछी ते राजभवनमां आव्यो. त्यां राज महेलना सातमा माळ उपर तेणे एक सांढडीने दीठी. ते जोतां ज तेणे मनमां विचार्यु के, "आ सांढडी महेलने सातमे माळे शी रीते चडी हशे!" आईं विचारी तेणे ते सांढडीना सर्व अंगो जोवा मांड्यां. अंगो जोतां ते सांढडीना नेत्रोनी अंदर मेघना जेवू काळु घाटु काजळ आंजेलुं देखी तेणे चिंतव्यु के, "आ . काजळ आंजवान शं कारण हशे?" पछी तेणे विस्मय पामी बधुं स्थान तपास्यु, तेवामां श्वेत अने कृष्ण रंगना काजळथी भरेली बे कुंपिका तेना जोवामां आवी. तेमांथी श्वेत अंजन लइ तेणे ते सांढडीना बे नेत्रोमां आदरथी आंज्यु. तेवामां ते अंजनना प्रभावथी ते सांढडी मानुषी स्त्री बनी गइ. ते स्त्रीए प्रशंसनीय पुरुषोना 1. मंत्री रात्रिने एक पहोरे समुद्रमां पडेलो तेथी तेने रात्रि त्रियामा त्रण पहोरवाळी थइ अने
सागरदत्त तेने पाडी सुखे सुई रह्यो, तेथी रात्रि यामिनी बधा पहोरवाळी थई. 2. अहिं वहाणना पाटीआने गुरुना वचननी साथे सरखाव्युं छे. गुरुर्नु वचन रत्नाकर-संसार समुद्रना पारने आपनारुं छे. ते बाहुश्रुत-बहुश्रुत-आगमना बळथी हृदय उपर धारण कर्यु होय, तो तत्काल ते नाना-अवन विराजित एटले विविध प्रकारनी जीवरक्षानो उपदेश करनारा विपुलादेश-विस्तारवाला आदेश प्रत्ये लइ जाय छे, पाटीया पक्षे-बाहुश्रुति-हाथ तथा श्रवणना बळथी विपला-पृथ्वीना देश- भागतरफ आवी पहोंचे छे. 3. तम-अंधकारनो नाश करनारा हंस-सूर्यने जोइ ते जडता (शरदी)मांथी मुक्त थइ मार्गे लाग्यो. पक्षे तमअज्ञाननो नाश करनारा तेजस्वी हंस-आत्मानुं ज्ञान प्राप्त करी जडता (अज्ञान) छोडी सन्मार्गे लागी गयो. 5. मंत्री अशून्य पुरवाळो छे छतां आ शून्य-उज्जड नगरमां मानवलक्ष्मीथी नवीन अने अमानव-मनुष्य वगरनी वस्तुओ जोवा लाग्यो. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा शिरोमणि रूप एवा ते मंत्रीने आसन वगेरे आपी विनय कर्यो अने माननीय एवा तेनुं सन्मान कयु. पछी ते अंजलि जोडीने बोली, "भद्र! हुं पराधीन थइ अहिं रही हती, परंतु मारा आ स्थानमां आप केवी रीते आव्या?' मंत्री बोल्यो, अहिं तारी स्थितिने अटकाववानुं कारण शुं छे?" ते स्त्री पछी पोताना दोषने दर्शावनारी वाणीथी गद्गद् स्वरे बोली, "आ नगरनुं नाम धारावास छे. अहिं ब्राह्मणो वेदोने बोलता हता. मारा महीपाळ नामना पिता आ नगरना एक साहसिक राजा हता. पूर्वे देवपूजा करनारा तथा कुकर्मथी सारी रीते मुक्त थयेला अने पूर्ण रीते लक्ष्मीने उत्पन्न करनारा एवा ते मारा पिताए एक वखते हर्षथी कोइ एक अविवेक तपस्वीने मासक्षमणने पारणे भोजनने माटे आमंत्रण कयु. ते तपस्वीरों घणुं मान करवा तेमणे पिरसवा माटे मने राखी. ते वखते ते तपस्वी मारी उपर घणो रागी बनी गयो. आकार-चेष्टा विगेरेथी तेने अति विकारी जाणी मारा पिता-राजाए तेनी घणी कदर्थना करी मारी नाख्यो. एटले स्वभावे क्रोधी एवो ते तपस्वी बाल तपस्याना प्रभावथी तत्काळ विज्ञानी पुरुषोने पण भय उपजावे तेवो राक्षस थयो. अवधिज्ञानथी पोतानो वध करनार कोण छे; ते जाणी अज्ञान बुद्धिवाळा अने घणा क्रोधी एवा तेणे आवीने मारा पिताने मारी नाख्या. आ बनाव जोइ शहेरना केटलाएक लोको शोक करतां करतां रात्रे नासी गया अने केटलाएक संकट थवाना अने भविष्यमां मृत्यु थवाना भयथी दिवसे एकदम नासी गया. कोइ पुत्र पोताना पिताने अने पिता पुत्रने छोडी चाल्या गया. कोइ वधूने, कोइ भाई बहेनने तो कोइ बहेन बहेनने अने कोइ पोताना घरना साररूप सर्वने छोडी चाल्या गया. एवी रीते सर्व लोको चाल्या गया पछी पूर्वना मोहने वश थयेला ते राक्षसे मने एकलीने अहिं राखी हवे ते कामी अने कद्रूपो राक्षस मने परणवानी इच्छा राखे छे. तेथी हे सज्जन, तमे आ स्थानमांथी उतावळे पगले सत्वर चाल्या जाओ, नहीं तो ते जीवहिंसक राक्षस तमने मारी नाखशे" मंत्रीए कह्यु. "अत्यारे ते पापी क्यां छे?" ते स्त्री बोली, "हे विद्वद्वर्य! ते विवाहना उपकरणो लेवाने माटे क्यांक गयेलो छे. ज्यारे ते अहिंथी कोई ठेकाणे जाय छे, त्यारे ते अविश्वासी राक्षस मारा नेत्रोमां कृष्ण अंजन आंजीने मने सांढडी बनावी दे छे अने ज्यारे पाछो अहिं आवे छे त्यारे ते निर्दय मने श्वेत अंजन आंजीने पाछी स्त्री बनावी दे छे." ते राजकन्याना आवां वचनो सांभळी मंत्रीए विचायु के, "मांस भक्षक राक्षसने दया नथी अने आ अबळा स्त्रीने बळ नथी ए स्वाभाविक छे. पुरुषपणुं ज धर्म तथा सुखना कारणरूप छे. जो पुरुषत्व न होय तो धर्म तथा सुख क्याथी
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा
होय ! बीजानुं रक्षण करतां जो कदि प्राण जता होय तो भले जाय, पण तेम करवाथी धर्मनी उन्नति थाय नहि, माटे हुं एवं करूं के, जेथी मारा प्राण पण बचे, राक्षसनो पराभव थाय अने आ बाळा सुखी थाय. बीजा कार्यनुं शुं काम छे? ।। ३६७।। जो प्राणिनुं हित करनारुं सत्त्व होय, सिद्धिनी समृद्धिने आपनारी बुद्धि होय अने शरीरने यौवन आपनारी दया होय, तो ज ए सर्व वात बनवानो संभव छे. ए सर्व अर्थनी सिद्धि अने कल्याणनी प्राप्ति धर्मथी थवानी छे, तो हुं आ वखते सम्यक् प्रकारे धर्म आश्रय करूं; के जेथी मने सम्यक्त्व प्राप्त थाय. तेवा सम्यक्त्वने धारण करनारा पुरुष आगळ गंधर्व ( गवैयो) शुद्ध गंधर्व बने छे, पावक - अग्नि पावक - पवित्र करनार बने छे अने कोश ( शस्त्र) कोश (सुवर्ण) रूप बने छे. वधारे शुं कहेवुं; पण ते सम्यक्त्वधारी नरनी पासे मांसभक्षी राक्षस पुण्यजन (यक्ष) बनी जाय छे, यमराज धर्मराज बनी जाय छे, पिशाच कुबेर जेवो थइ जाय छे, चंडाळ भद्र-सारी जातिनो थई जाय छे, सर्प 2 भोगी थइ जाय छे. केशरी सिंह हरि (अश्व) थइ जाय छे अने चितरो चित्रकाय (चित्ररूप स्थंभित) बनी जाय छे. एवी रीते सत्य परायण पुरुषनी आगळ सर्व पदार्थो सत्य थई जाय छे अने असत्यपरायण पुरुषनी आगळ ते ज पदार्थो 4 असत्य थई जाय छे. ते उपरथी साबित थाय छे के; सम्यक्त्व सिद्धिने ज आपनारुं छे. अहिं जे आ पदार्थो छे ते मुख्य अने गौण अर्थवाळा होवा जोइए. ते पदार्थोंनो ज्यां सुधी खरो मर्म समजाय नहीं त्यां सुधी अर्थ सिद्धि थती नथी. तेथी हुं प्रथम आ राजकन्यानी वाणीनुं बराबर स्वरूप जाणी लउं पछी मारी बुद्धिना बळथी विचार करी लोकोनुं कल्याण थाय तेवुं कार्य आगळ करीश. " आवुं विचारी ते मंत्रीए राजकन्याने ते राक्षसनी कांइ विशेष हकीकत पूछी, एटले ते भय पामेली राजकन्या आदर तथा गौरव साथे आ प्रमाणे बोली, "भद्र! ते राक्षस आ दंडनी आगळ रहीने हंमेशां कांइक मंत्र जपे छे, ते अवसरे अने भोजनने अवसरे ते मौन धारण करे छे; ते वखते जो तमे आ दंड तमारा हाथमां ग्रहण करशो, तो ते राक्षस तमने कांइ करवाने, ते हरी लेवाने समर्थ थइ शकशे नहीं. वळी तेनी पासे एक खाटलो अने बेकणेरनी सोटीओ छे. ते त्रण वस्तुओ प्रभाववाळी छे. ते लइने ज तमारे तेने छोडवो; ते सिवाय छोडवो नहीं. तेमां जे काळा रंगनी सोटी छे, ते खाटला उपर पछाडवाथी ते खाटलो धारेले स्थाने जइ पहोंचे छे अने जे राता रंगनी सोटी छे, ते पछाडवाथी पेलो खाटलो स्वेच्छा प्रमाणे धारेले स्थाने रहे छे. मारी उपर रागी 1. देवयोनि विशेष 2. भोगवान् अने सर्पपक्षे फणायुक्त. 3. सत्य शुभ 4. असत्य - अशुभ. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा थयेला ते राक्षसे जे पोतानी बधी गुप्त वात हती ते मारी आगळ प्रकाशित करी ते में तमारी आगळ निष्कपटपणे स्पष्ट रीते कही आपी छे. प्रथम तमे मने सांढडी बनावीने राखो. ते पछी अहिं रहेली आ बे कुंपिका ग्रहण करजो के जेथी ते राक्षसना मनमां शंका न आवे" राजकन्यानां आवां वचनो सांभळी ते मंत्रीए चिंतव्यु के "आ राजकन्याए मारी आगळ मर्मनी वात जणावी, तेथी हवे तेणीना भाग्ययोगे ते पापीनो अवश्य पराभव थवानो ज. आq चिंतवी मंत्रीए पेला कृष्ण अंजनथी तेणीने पुनः सांढडी बनावी अने पोते स्वस्थ अने गुप्त स्थानमां संताइ रह्यो. पछी ज्यारे रात्रि पडी एटले यमराजना जेवो ते राक्षस हाथमां दंड लईने त्यां आव्यो अने श्वेत अंजनथी ते सांढडीने कन्या बनावी ते स्वस्थपणे त्यां रह्यो. तेवामां तेने नासिका द्वारा माणसनी गंध आवी, एटले ते बोल्यो के, "अरे राजकन्या! आ घरमां कोई मनुष्य छे? जे होय ते मने सत्वर कही दे." राजकन्या बोली. "अरे! हुं पोते ज मानुषी छं. ते विषे कांइ खेद करो नहीं. राजकन्याना आ वचन उपरथी ते पापी मनमां निश्चय करी मंत्र जाप करवा बेठो. आ वखते मंत्री कटीबद्ध थइ अने पोताना प्रचंड भुजदंडमां पेलो दंड लई ते राक्षस प्रत्ये बोल्यो, "अरे पापी, जीवहिंसा करवामां तत्पर एवा तने राक्षसने मारे शुं करवू? कारण के जीवरक्षा करनारा प्राणीओने तारो स्पर्श करवो पण युक्त नथी. जो तुं आ उज्जड नगरने वसावे, आ राजकन्याने सुख संपत्तिनुं कारणरूप एवं मुक्तिदान (छुटकारो) आपे अने मने खाटलो विगेरे त्रण वस्तुओ आपे, तो तारो छुटकारो थशे, ते सिवाय कल्पांतकाले पण नहीं थाय." मंत्रीना आवां वचन सांभळी पापना प्रसरवाथी हणाई गयेला ते पापीने ते मंत्री सामे उत्तर आपवानी पण बुद्धि सूझी नहीं, पण तेणे आ प्रमाणे चिंतव्युं. "आ कोई मनुष्य नथी पण निश्चे कोई दैत्य लागे छे, ते सिवाय आ पुरुषमा आवं सामर्थ्य केवी रीते संभवे! लोकोमा कहेवाय छे के "दैत्यो देवताथी घणां ज बलवान होय छे." अथवा आ पृथ्वी उपर राक्षसोनो पण उपाय करनारा वैद्यो छे. वळी आ माणस-परोक्ष गुप्त रहेली मारी वस्तुओनो ज्ञाता छे, तेथी ए कोई सर्वज्ञना जेवो देखाय छे, माटे जो हुं आ माणसना वचन- अपमान करीश तो कोईपण रीते मारो छूटकारो थशे नहीं." आ प्रमाणे मनमां लांबो काळ चिंतवी ते राक्षसे मंत्रीए कहेलुं सर्व कबूल कयुं. आ लोकमां जीवितने माटे कांईपण कबूल कोण न करे? पछी ते राक्षसे ते नगरमां घणा लोकोने शोकरहित लावी वसाव्या, पवित्र राजपुत्रने राज्य उपर बेसाड्यो अने पेली खाटलो विगेरे त्रण वस्तुओ अने बे कुंपिका मंत्रीने आपे. ते
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा
पछी वाणीथी नियंत्रित थयेलो ते राक्षस पोताने योग्य स्थाने चाल्यो गयो. । । ३९८ । । आ सर्व वृत्तांत जाण्या पछी राजाए मंत्रीने कां. "भद्र! आत्मबळथी मेळवेलुं आ राज्य ग्रहण करो अने मारी उपर अनुग्रह करो. अथवा तमने राज्य अर्पण करवामां मारो शो अधिकार छे? जे वस्तु जेनी होय तेने ज मळवी जोइए, मां दान करवानी प्रधानता शी रीते होय?" मंत्री बोल्यो, "हे राजन्, तमारा पुण्यना प्रभावे गयेलुं राज्य पाठुं आव्युं छे, तेथी तमो हर्षथी आ राज्य भोगवो. परंतु एटलुं याद राखजो के, तमारे पुण्यने छोडवुं नहीं, पोतानुं कर्त्तव्य कार्य करवुं न्यायमार्गे वर्त्त अने श्री जिनशासननुं स्मरण करवुं." राजाए ते वात कबूल करी, मंत्रीना बंने चरणमां नमी अने वाणीथी स्पृहा साथै स्तुति करी राजकन्याने शणगारी द्रव्य साथे ते मंत्रीने अर्पण करी. ते पछी एक वखते मंत्रीए कार्यवश थइ राजाने कह्युं के, "हवे अहिं रहेवुं मने रुचतुं नथी, पण अहींथी प्रयाण करवुं रुचे छे." आ उपरथी राजाए तेने विदायगिरी आपी, एटले तत्काळ ते पोतानी प्रिया साथै पेला खाटला उपर बेठो अने पेली सोटी लई ते खाटला उपर पछाडी बोल्यो के, "हे खाटला, तुं अहिंथी गंभीरनगरमां जा." तत्काळ ते खाटलो विशाळ आकाशमां उडवा लाग्यो. ज्यारे ते गंभीरनगरनी नजीक आवी पहोंच्यो, एटले तेणे तेनी उपर राती सोटी पछाडी के तरत ज ते त्यांज स्थिर रही गयो. ते वखते तेणे पोतानी प्रियाने कह्युं, "हे प्रिया, हुं आ नगरमां जइ आवुं, त्यांसुधी तमे अहीं रहो. हुं आ नगरनुं वृत्तांत जाणीने पुनः अहिं आवीश. " आ प्रमाणे कही पोतानी प्रियाने बहार राखी ते नगरमा गयो. तेवामां पाछळथी त्यां जे बन्युं ते सांभळो—
मंत्री वहाण उपर आव, वहाणनुं पवनथी पुरावुं, उपलक्षणथी वहाणनुं हंकाराई ज ए बधा खबर कानमां अमृत रेडावानी जेम सांभळीने ते दाणीए मंत्रीशनी स्त्री विनयसुंदरीने छूपी रीते ( ओळख न पडे तेम) शांतिथी समजावी पोताना घेर बोलावी.
विनयसुंदरी तेनो हेतु समजी गई तेथी ते तेने घेर आवी नहीं, त्यारे ते पापी - अपराधी आ प्रमाणे विचायुं. "ते मंत्रीनी स्त्रीए जे मारो ईरादो जाणी लीधो, ते विपरीत बन्युं मंत्रीने वहाण उपर मोकल्यो ते में सारुं कर्तुं नहीं. आशामां बंधाएली ए स्त्री पारानी जेम तापने सहन करशे. हवे जो ते मंत्री त्यांज रहे अथवा कोईरीते मृत्यु पामे, तो ज तेनी स्त्री मारे आधीन थाय, ते सिवाय कदि पण नहीं था. हवे ज्यारे ते वहाण पार्छु आवशे, त्यारे बधुं जाणी शकाशे. श्री विमलनाथ चरित्र प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा त्यांसुधी उदासीनपणे बेसी रहे; कारण के सारी रीते विचारीने करेलु कार्य अर्थसाधक बने छे." आ प्रमाणे ते पापी चिंतवतो हतो, तेवामां ते वहाण आवी पहोंच्यु. एटले ते दाण लेनारे आवी ते वहाणवटी शेठने तेनो वृत्तांत पूछयो, एटले ते तेना चरणमां नमीने बोल्यो के, "पेला मंत्रीने समुद्रमां फेंकी दीधो छे." आ खबर सांभळी ते हर्ष पाम्यो अने ते ज समये ते बलात्कार करवाने मंत्रीनी स्त्री पासे आव्यो. ते स्त्री घरना कमाड वासी अंदर बेसी रही हती. ते पापी वारंवार प्रार्थना करी, तो पण तेणीए घरनुं द्वार उघाड्युं नहीं अने अति चिंतातुर थई कोईने उत्तर पण आप्यो नहीं. आ वखते पवित्र बुद्धिवाळो मंत्री त्यां आव्यो. तेवामां द्वार बंध जोई ते खेदातुर थई गयो अने हृदयमां विचार करवा लाग्यो, "अरे! मारी प्रिया काई अमंगळ तो नहीं थयुं होय? अथवा तेणी पोताना पिताने घेर गई हशे? कहेवाय छे के निराधार अबला विनाश पामे छे." आ प्रमाणे चिता जेवी चिंता करता मंत्रीने घणो परिताप थयो. पछी तेणे त्यां रहेला कोइ पुरुषने पूछ्युं के, "हे चतुरनर, पहेला अहिं एक परदेशी सुंदर स्त्री रहेती हती, ते हमणां देखाती केम नथी? ते मने सत्वर कहो." ते बोल्यो, समुद्रमां साथवानी मुष्टिनी जेम आ मोटा शहेरमां तेवी स्त्रीनुं गमन-आगमन कोना जाणवामां आवे?" ।।४२३।। ते पुरुषना आवा वचन सांभळी ते मंत्री खेद पामी जेवामां बहार आव्यो तेवामां केटलीक वेश्याओ आवी ते राजसुताने छेतरीने पोताने घेर लइ गइ. तपास करतां ते स्थाने पोतानी स्त्री जोवामां आवी नहीं, तेवामां त्यां रहेला कोई पुरुष पासेथी तेने ते वेश्या संबंधी खबर मन्या. एटले ते हृदयमां अति संभ्रांत थई गयो. मांस अने मत्स्य बनेथी भ्रष्ट थयेला शीयाळनी जेम ते उभयभ्रष्ट थई गयो अने 'हवे शुं करवु एवा विचारमा मूढ बनी क्षणवार त्यां बेसी रह्यो. पाछळथी सद्बुद्धिवाळा अने विचारवाळा मंत्रीए धीरज पकडी ते स्त्रीना शीलनुं रक्षण करवा हृदयमां चिरकाल चितवन करी निश्चय कर्यो के, ."हवे हुं कुसंगमां पडेली ते स्त्रीनी प्रथम यत्नथी संभाळ करूं. कारण के प्राणीने गुण अने अवगुण संसर्गथी ज थाय छे." आ प्रमाणे चिंतवी ते उत्तम मंत्री वेश्याओना पाडामा गयो. त्यां कोईएक वेश्याना घरमां घणी वेश्याओ जोवामां आवी. एवामां कोई एक वारांगना त्यां जती हती, तेने ते बुद्धिमान् मंत्रीए पूछ्यु के. "अत्यारे आ वेश्याना घरमां सर्व वेश्याओ केम जाय छे? तेणीना घरमां तो हर्ष अने शोक- कांईपण चिह्न प्रत्यक्ष देखातुं नथी, जो तमे तेनु कांई पण कारण जाणता हो तो मने कहो, जेथी मारा कान तृप्त थशे." ते वृत्तांतने सारी रीते
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा जाणती ते वेश्या मंत्री प्रत्ये बोली, "भाई, आ वेश्याना घरमां कोई एक विवेकी स्त्री मेमान थईने आवेली छे, ते अंदरना ओरडा- द्वार तरत बंध करीने बेसी गई छे. कांई पण पूछतां ते उत्तर आपती नथी अने मौन व्रत धरीने रही छे. तेणीने जोवाने अने पूछवाने आ सर्व वेश्याओ जाय छे, ते कोईने पोतानुं दर्शन आपती नथी तेम जवाब पण आपती नथी." आ सांभळी मंत्रीए जाणी लीधुं के, ते स्त्री मारी पत्नी ज छे अने अहिं त्रास पामेली देखाय छे. हवे तेणीने हाथ करवी, ते संशय भरेलुं छे. एक तरफ आ वेश्या हलकी स्त्री जाति, तेमां पण वळी अति कामने आश्रित थयेली, तेमां पण वळी निर्लज्ज अने तेथी पण वधारे बेशरम होय छे. वेश्यामां आसकत रहेनारा पुरुषो बुध होय तो पण तेओ 'लक्ष्मीने बंने रीते वृथा गुमावी दे छे. तेओ सौमनस-पुष्पोना आपीड-शीरोभूषण (मुकुटमुगट)ने धारण करे छे. तेओ गुरु-वडिलजनोने संताप करनारा छे. तेओ सदा उद्वेग करनारा होय छे; तेओ मधु-मदिरामां आसक्त रहे छे. तेवा पुरुषो ते वेश्याओना उग्र अने क्रूर (खोटा डोळ)ने सुखना आभासरूप मानी बेसे छे. हवे मारे पण तेवो खोटो डोळ बताववो के जेथी मारा कार्यनी सिद्धि थशे. दुनीयामां पण कांटाथी ज कांटानो उद्धार थाय छे एटले कांटावडे ज कांटो नीकळे छे. जुवो, धनुष्य अने पणच-ते बंनेमां वस्तुस्वभावे सरळता रहेली छे; परंतु ज्यारे कार्यसिद्धि करवी होय, त्यारे ते बंनेमां वक्रता थाय छे." आ प्रमाणे मनमां चिंतवी तत्काल . तेणे निमित्तियानो वेश धारण कर्यो अने जमणा हाथमां पोथी लई ते वेश्याना घरमां गयो. त्यां शिखा सहित (पोते) आशिष आपी, तेणीए आपेला आसन उपर बेठो. जेम मधने मक्षिकाओ वींटाई वळे तेम वेश्याओ तेनी आसपास वींटाई वळी. ते वेश्याओमां जे वेश्याए ते स्त्रीने घरमां लावी हती ते वृद्ध अक्का बोली; "हे अकारणबंधु! कहो, तमे शुं शुं निमित्त जाणो छो?" ते बोल्यो, "हे अक्का, सांभळो--हुं रुष्ट थयेलाने संतुष्ट करूं छु, अवश मनुष्यने वश करी शकुं छु अने जे दूर रहेल होय तेने पासे लावू छु; एटलं ज नहीं पण वृद्धने युवान, रोगीने नीरोगी, मुंगाने सारो वक्ता, कुरूपीने सुरूपी, अभागीने सुभागी अने पंगुने सारा पगवाळो बनावी शकुंछं. वळी ते सर्वेने जेवा होय तेथी उलटा पण इच्छा प्रमाणे करी शकुं छु." तेना आ वचनो सांभळी ते अक्का खुशी थई अने तेणीए कह्यु के, "मारो एक प्रश्न छे तेनुं निराकरण करो." निमित्तियाए कह्यु. "शुभे, एक कोई जातनं फल सत्वर लावो." अक्काए तरत ज एक फल लावी आप्यु. पछी ते ध्यान 1. द्रव्यलक्ष्मी-धन, भावलक्ष्मी-ज्ञान, दर्शन अने चारित्र. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा करीने पुनः बोल्यो. "तमारा मनमां कोई जीव संबंधी चिंता छे अने ते चिंता मनुष्यजीव संबंधी छे." आ वचनो सांभळी ते अक्काने विश्वास आवी गयो. तेणीए खुल्ली रीते कह्यु के, "मारे एक पुत्री छे, ते मौन धरीने रही छे. ते तेवी रीते शामाटे रही छे? ते कांई जाणवामां आवतु नथी. तेणीने कांईक छळ छे अने ते छळ उत्पातथी थयेलं होय एम लागे छे. तो तमे कांईक एवो उपाय करो के, जेथी ते द्वार उघाडे अने बोले." ॥४५०।। आ सांभळी मंत्रीए कह्यु के-"मने ते स्थान बतावो के ज्यां हुं तेनो योग्य उपाय करूं." वेश्याए तेने ते ओरडो बताव्यो. एटले जाणे 'दर्शनने उचित एवं मुक्तिद्वार होय तेवा ते अघरहित द्वार आगळ मंत्री सत्वर आव्यो. त्यां आवी तेणे कडं के, "आ सर्व वेश्या- ओने आ स्थानमांथी काढी मुको, कारण के जो तेओ अर्हि रहे तो तेमने पण कांईक छळ थई आवशे." ते अक्काए ते प्रमाणे कयुं, एटले ते मंत्रीए द्वार उपर चंदननुं मंडल करी अने "हुं फट् स्वधा स्वाहा" एवो मंत्र उच्चारी आ प्रमाणे कर्तुं, "धारावास नगरमां महीपाळ नामे राजा छे अने सुबुद्धि नामे प्रधान छे, ते राक्षसने जीतनार अहिं आव्यो छे. में तने आ संकेत कह्यो छे, ते उपरथी हवे द्वार उघाड, हर्षथी अहिं आव अने उंचे स्वरे बोल." आटलुं कहेतां ज तेणी यथार्थ भाषणवडे पोताना पतिने ओळखी सत्वर आवी अने तेणीए विश्वासथी ते द्वार उघाड्युं. पछी ते मंत्रीए तेणीना कानमां जणाव्यु के-"हुं तने कांई पण करुं ते बधुं तारा हितनी खातर करुं छु, पतिमां भक्तिवाळी एवी तारे ते मारो अपराध क्षमा करवो." ते स्त्रीए स्वीकायुं, एटले मंत्री तेणीने केशथी पकडी बहार लाव्यो. पछी मंत्रीनी शीखवणीथी ते स्त्री बोली, अरे, मारा पेटमां क्षुधा बहु लागी छे, तेथी हुँ रही शकती नथी, तो मने मोदक अपाव." पछी बुद्धिमान् मंत्रीए तत्काळ अक्काने बोलावी उंची जातना मोदक मंगाव्या अने ते वडे तेणीने भोजन कराव्यु. पछी तेणीने पाछो ओरडामां लई गयो. त्यां धीमे स्वरे कह्यु के-"भद्रे! आ अक्का तने अहिं शी रीते लावी? ते बोली, स्वामिन्, तमे मने छोडीने ज्यारे बहार गया, त्यारे आ वृद्ध वेश्या मारी पासे आवी अने मने कडं के, "तुं कोण छे? कोनी मेहमान छे अने क्या स्थानमांथी आवे छे? भोळपणने लईने में तेणीने मारो सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. ते उपरथी तेणीए मने का के, "भद्रे, हुं तने तेडवा आवी छ अने तारा स्वामीए मने मोकली छे. तेथी जलदी मारे घेर आव." 1. मुक्ति द्वार दर्शनोचित एटले सम्यग्-यथार्थ दर्शन उचित अने अघरहित-पापरहित छे अने . ते घरनुं द्वार दर्शनोचित-दर्शन करवाने योग्य अने दुःख रहित छे.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा तेणीना आ वचन उपरथी हुँ खाटला सहित तेणीनी साथे अहिं आवी. में अहिं तमोने जोया नहीं पण बधुं विपरीत जोयुं, एटले तत्काळ मारा शीळनु रक्षण करवा ओरडाना बंने कमाड बंध करी हुं अंदर रही." पोतानी प्रियानो आ वृत्तांत सांभळी मंत्रीए कह्यु, "हे प्रिया, हवे तुं केटलोक वखत अहिं ज स्थिर रहे. पछी बधुं राजानी समक्ष सारं थशे" आ प्रमाणे सूचवी ते मंत्री बहार आव्यो, एटले तेणीए पाछा कमाड बंध करी दीधा. अक्काए निमित्तियाने पछयं के-“हे पाप रहित पुरुष! आ स्त्रीने कयो दोष लागु पड्यो छे? निमित्तिओ बोल्यो, "आ स्त्रीने शाकिनी वळगी छे, तेथी तमारे तेनाथी दूर रहेवू, परंतु तमारे तेनो भय राखवो नही; कारण के ते शाकिनी मारे साध्य छे. छेवटे बधुं सारं थई जशे. में ते दोष दूर करवा माटे मंत्रनी पूर्ण सेवा करी छे. हवे तेनी उत्तर सेवा करी पाछो हुँ चाल्यो आवीश" आ प्रमाणे कही ते गंभीर मंत्री घरनी बहार गयो तेवामां तेणे बतावेला चमत्कारनी प्रतीति जोई राजी थयेला लोको त्या एकठा थई गया. मंत्री पोते कोईने घेर जतो नथी अने कोईनी साथे बोलतो नथी, त्यांथी बहार नीकळी घणा लोकोथी वीटायेलो ते पेला दाण लेनारा अधिकारीना घर आगळ आव्यो. ते दाण अधिकारीए लोकोने पूछ्युं के, आ शुं छे?' त्यारे लोकोए ते वेश्यानो अद्भुत वृत्तांत मूळथी मांडीने तेने कही संभळाव्यो. ते सांभळी ते दाणलेनार ज्यां तेनी प्रिया मौन धरीने रही हती, त्यां तेने सन्मानपूर्वक लई गयो. तेणीने पण पूर्वनी जेम संकेत करी बोलावी. पछी रत्नद्वीपना राजानी पुत्री के जे ते मंत्रीनी प्रिया हती. ते सामरदत्त शेठना भयथी द्वार बंध करीने ज्यां बेठी हती ते स्थाने घणा लोकोथी वीटाईने मंत्री गयो. तेणीने पण सागरदत्त शेठना कहेवाथी बोलावी. पछी तेणे विचार्यु के, "में विज्ञानथी मारी त्रणे स्त्रीओना ठेकाणां साक्षात् जाणी लीधां पण राजाना हुकम विना ते स्त्रीओ लई शकाशे नहीं." आईं विचारी ते पाछो वेश्याने घेर आव्यो. अने त्यां इच्छित गोष्ठी करतो कपटथी रहेवा लाग्यो.।।४७७।।
___ एक वखते ते अक्काए तेने आ प्रमाणे कह्यु-"हे विद्वान्, आ लोकमां सर्व प्राणीने वृद्धावस्था विशेष विडंबना करनारी छे. तेने माटे कयुं छे के, प्राणीने 'लोपनी जेम मृत्यु सर्वापहारी छे. ते वात तो दूर राखो, पण जरावस्था 1. जेम व्याकरणमां. ज्यां लोप थाय छे, त्यां ते सर्वापहारी एटले शब्दना सर्व रूपनो नाश
करे छे, तेवी रीते मृत्यु माणसना रूपनो सर्व रीते नाश करी दे छे. व्याकरणमां ज्यां आदेश थाय छे, त्यां ते शब्दनुं रूप बदलाई जाय छे; तेवी रीते जरावस्थाथी माणसनुं रूप बदलाई जाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा तो आदेशनी जेम रूपने जुदी ज रीते करी दे छे. ते जरावस्था राजा, मंत्री. वैद्य अने यतिने अलंकाररूप छे, परंतु वेश्या, मल्ल, गवैया अने सेवकोने विडंबनारूप छे, तेथी तमे प्रसन्न थईने मने तत्काल सर्व रीते यौवनवयवाळी बनावी द्यो." आ प्रमाणे तेणीना कहेवाथी ते मंत्रीए पेला कृष्णांजनवडे तेने सांढडी बनावी अने पछी ते उपर पलाण करीने ते चौटामां आव्यो. त्यां कठोरपणे चाबुखना मारथी तेणीने मारवा मांडी. ते वखते ते वेश्यानो बधो परिवार तेनी चारे तरफ भमतो पोकार करवा लाग्यो, पण चित्तमां चिन्तायुक्त एवा ते मंत्रीए कांई पण उत्तर आप्यों नहीं पछी “आ भाईसाहेबने राजा सिवाय बीजो कोई शिक्षा आपवा समर्थ नथी." आवं चिंतवी ते बधो वेश्यावर्ग राजानी पासे आव्यो. ते वेश्याओए राजानी पासे आवी आखा नगरमां प्रसिद्ध थयेलो ते सर्व वृत्तांत निवेदन कर्यो, एटले राजाए ते मंत्रीने पोतानी पासे बोलाव्यो अने सांढडीने चाबखावडे ताडन करता एवा तेने अटकाव्यो. पछी तेणे सांढडी उपरथी उतरी ते वेश्यान अने तेनी साथे पेला दाणना अधिकारी अने सागरदत्त शेठनुं बधुं अकार्य राजाने जणाव्यु. ते सांभळी राजा चमत्कार पाम्यो. पोताना घरमा रहेली तेनी प्रथमनी प्रिया, वेश्याना घरमा रहेली बीजी प्रिया अने श्रेष्ठीना घरमा रहेलुं पोतानुं रत्न तथा सुवर्ण विगेरे द्रव्य तथा प्रिया ते बधुं राजाना माणसो पासे लेवडावी पोते राजानी समीप लाव्यो. राजाए ते श्रेष्ठी, सर्व लई लीधुं अने तेनो वध करवानी आज्ञा करी. जे विषयो अमृतनुं भक्षण करनारा देवताओने पण तेमनुं दर्शन, श्रवण, स्मरण अने स्पर्श करवाथी मृत्यु आपनारा छे, ते विषने साथे 'यकार मळवाथी विषथी पण अधिकता पाम्या छे. पछी मंत्रीना आग्रहथी ते क्रोधी श्रेष्ठीने राजाए जीवतो छोडी मूक्यो, जेथी ए श्रेष्ठी मंत्री उपर फीदा फीदा थई गयो (हर्षघेलो बनी गयो). पछी राजाए पेला दाणना अधिकारीनो यथायोग्य दंड कर्यो अने तेने चित्त अने द्रव्यने अनुसारे डहापणभरी (तेनो सुधारो थाय तेवी व्याजबी) शिक्षा आपी. पेली वेश्याने श्वेत-अंजनवडे पाछी स्त्री करावी राजाए पोते तेणीनो पण योग्य दंड को. त्यारबाद राजाए ते मंत्रीनें आवं भाग्य अने सौभाग्य जोई पोतानी कन्या घणां द्रव्य साथे तेने अर्पण करी. ते पछी मंत्री त्यां केटलाएक दिवस सुधी रह्यो. एक वखते तेणे राजानी पासे आवी पोतार्नु पूर्व- सघळु धर्मना प्रभावनुं वर्णन कही संभळाव्यु. ते सांभळी धर्म-कर्मना सारा मर्मने जाणनारा ते राजाए तेने कह्यु के-"हवे तमारे जे कांइ न्यून होय ते पूर्ण करो." मंत्री बोल्यो, "राजन्! धर्मना प्रभावथी मारे कांइ पण न्युन नथी. हवे जो पूर्व संकेतित राजा पुन्यने मान्य करे तो हुं सदा सुखी थाउं." 1. वित्र शब्दमां यकार मळतां विषय शब्द बने छे अने ते विष करतां पण अधिक दु:खदायक बनवा पामे छे.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा : ते पछी वहाणमां आणेला घोडाओने मंत्रीए पोतानी वस्तुओथी खरीद कर्या. ते घोडाओने लई अने राजानो हुकम मेळवी, चार प्रियाओने साथे लइ अने आठ कोटी सुवर्ण मेळवी, धारानगरथी सामा आवेला पोताना मित्र सेनापतिए सेवेलो, त्यांना राजा अने मित्रोना समूहे मोकलेला अगणित सैन्यथी युक्त थयेलो, चळकता सैन्यना बळथी पृथ्वीने चलायमान करतो, ठेकाणे ठेकाणे सारा राजाओनो प्रचंड दंड लेतो अने दुर्मद राजाओनो निग्रह करतो ते मंत्री अनुक्रमे पोताना नगर नजीक आवी पहोंच्यो. त्यां रात्रे पेला खाटला उपर बेसी तत्काळ पोताने घेर आव्यो. त्यांथी पेला दंड अने कामकुंभने नीतिना बळयुक्त एवो पोताना लश्करमां ते लइ आव्यो. ।।५००।। पछी प्रभा युक्त एवा प्रभातकाले तेणे सेनापतिने पूछ्युं के, "हवे मारे आ राजानो भेद करवो के दंड करवो? ते कहो, "सेनापति बोल्यो, "हे विभु! अन्यायथी वर्तनारा आ राजानो तो हमणा दंड करवो घटित छे, अथवा मर्मने भेदनारो भेद करवो पण घटित छे." सेनापतिना वचन सांभळी ते गुणी मंत्रीए लोक वृत्तांतने जाणनारा एक दुतने विशेष शिक्षा समजावी सत्वर राजानी पासे मोकल्यो. द्वारपाळे खबर आप्या एटले राजाए ते दूतने पोतानी पासे बोल्यो. दृते राजाने प्रणाम करी प्रथम पोताना स्वामीना घणा गुणो कही संभळाव्या. पछी ते प्रजापतिना 'बंने प्रकारे बलना भेद जणाव्या. ते सांभळी राजा घणो गुस्से थयो अने क्रोधथी युद्ध करवा तत्पर थइने बोल्यो, "अरे! जे सुबुद्धि पूर्वे मारो एक नोकर हतो ते सुख सहित, कर्म करी कांईक द्रव्य मेळवी अने ते द्रव्यना बलथी केटलुक सैन्य मेळवी अहिं आव्यो छे, ते अत्यारे मारी पासे दंड मांगे छे. जे निर्धन माणस होय ते धन मेळवी जगतने तृणवत् माने छे, पण तेने खबर नथी के जेम जिह्वा दांते चावेली वस्तुने सुखे ग्रहण करेछे, तेम हुं पोतानी मेळे आवेलुं तेनुं सर्वस्व सुखेथी ग्रहण करी लईश." राजाना आ वचनो दूते आवी मंत्रीने कह्यां, त्यारे जगतमां एक ज सुभट एवो सेनापति आ प्रमाणे श्रेष्ठ वचन बोल्यो, "आ जगतमां सर्वत्र धर्मथी जय थाय छे. ते धर्मने राजा मानतो नथी, तो ए राजानो पराजय थवानो ज आ बाबतमां सूर्य साक्षी छे. बीजो पण कोइ द्वेषी मनुष्य होय, तेने राजाए पोताना बळथी तत्काळ छेदी नाखवो जोईए, तो आ राजा पोते धर्मनो द्वेषी छे अने तेथी करीने आखा विश्वनो शत्रु अने अन्यायी छे. तेने शा माटे छेदवो नहीं? आचार शब्दमां चा अक्षरना शिरनुं छेदन करी तेमां एक पांखडी वधारतां ते रणशूरा सुभटोने लेखमां बतावेल आचार ते आधाररूप थइ 1. बल एटले सामर्थ्य अने सैन्य ते बंने प्रकारे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा
पडे छे. आ प्रमाणे सेनापतिनुं न्याय युक्त वचन सांभळी ते न्यायी अने श्रेष्ठ एवो मंत्री विश्वनी रक्षा करवानी खातर युद्धने माटे तैयार थइ गयो . हवे शुद्धि वगरनो अने कुबुद्धिवाळो ते राजा पोतानुं सैन्य तैयार करी अपशकुनोए वार्या छतां पण पोताना नगरनी बहार नीकल्यो. आ वखते हृदयमां बने प्रकारे सदय एवा सुबुद्धि मंत्रीए आ प्रमाणे विचार कर्यो. आ युद्धमां बीजा घणा पुण्यवाळा अने सारा माणसो मराशे, तेथी मने महा पाप लागशे. तो ते सर्वेने नकामा शा माटे मारवा ? मात्र पापी अने दुष्टबुद्धिवाळा आ युद्धमां उद्यत थयेला राजाने स्वबुद्धिथी समजावं. " आवुं विचार प्रभातकाळे दीनता वगर चडी आवेला सैन्यमां जमणा हाथमां पेलो दंड लई ते राजा पासे आवी आ प्रमाणे बोल्यो, "अरे राजा ! जो तुं धर्मने मानतो होय तो हृदयमां धर्मने धारी राख; नहीं तो आ युद्धमां तारा हास्य रहित मुखमां लीलुं तृण (तरं) तारी रक्षा करनारुं थशे." मंत्रीनां वचन सांभळी धर्म रहित एवो ते राजा जाणे अधोगतिना मार्गने साक्षात् जोतो होय, तेम अधोमुख थई उभो रह्यो. ते पछी संपूर्ण पुण्यवाळा मंत्रीए उपेक्षा करेलो ते अधम राजा पोताने प्रिय एवा पापने लईने ते पापथी उत्पन्न थयेल अलक्ष्मी (निर्धनता) ने प्राप्त थयो. पछी 2 राज्य धर्मथी भ्रष्ट थयेलो अने आ संसारमां रक्त थयेलो ते जडाशय द्विज दांते तृण लइ कर्मफल मेळववाने वनमां चाल्यो गयो.
राजा गया पछी ते सबुद्धि मंत्रीनो मोटो उत्सव साथे नगरमा प्रवेश थयो . सेनापतिए तेनो विधिपूर्वक पट्टाभिषेक कर्यो. ते समये अलक्ष्मीरूप पर्वना निकळवाथी अने लक्ष्मीना आववाथी लोकोमां दीपोत्सवी पर्वना जेवो उत्सव थई रह्यो.
एक वखते श्रीगुरुना मुखथी द्वादश व्रत लई ते मंत्री जैनशासननो प्रभावक परम श्रावक बनी गयो. धर्मवडे सौधर्मदेवलोकना करतां पण वधारे सुख आपनारा महान राज्यने प्राप्त करी ते मंत्री धर्मना साम्राज्यने एकछत्रवाळुं क. ।। ५२५ ।। सत्त्वनी रक्षाथी रमणीय अने गुणोथी भरपूर एवा श्रीजिनभगवानना 1. सदय एटले दया सहित अने सत्-अय शुभ परिणामवाळो - सद्भागी ते बंने प्रकार. 2. अहिं एवो अर्थ पण थाय छे के जे धर्मथी भ्रष्ट थयेलो अने संसारमां रकत थयेलो कोइ जड़ - हृदयवाळो मिथ्यात्वी पुरुष ब्राह्मणोने हाथे तृण-दर्भ लई कर्म - क्रियानुं फल मेळववाने वानप्रस्थ थइ वनमां जाय छे.
3. दीवाली पर्वमा लोको अलक्ष्मीने काढे छे अने लक्ष्मीने बोलावे छे.
4. सत्त्वनी रक्षा एटले जिनपक्षे प्राणिरक्षा अने राजापक्षे बलरक्षा.
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा उज्जवळ प्रासादो जाणे धर्मरूपी राजाना महेलो होय तेवा रचाव्या. 'विशाळ दानसहित, त्रिपदीयुक्त अने दुष्ट वारणना शब्दोने आपनारी पौषधशाळाओ ते धर्मरूपी राजानी हस्तिशाळाना जेवी तेणे रचावी. संघने साथे लई, जिनमंदिर सहित तथा साधुओनी भक्तिपूर्वक ते पापथी बचवा माटे प्रति वर्ष यात्रा करतो हतो. जाणे पापरूपी राजाना सात अंगो होय तेवा दुर्व्यसनोने तेणे निवार्या अने तेने ठेकाणे तत्काळ सात क्षेत्रोने स्थाप्या. अनीतिनी जेम मारीनो सर्वथा तेणे अटकाव कर्यो अने अमारीना पटहनी अने न्यायघंटानी घोषणा करावी. आ प्रमाणे ते सुबुद्धि राजा धर्मपरायण थतां राज्यना तमाम लोको पण धर्मधुरंधर थइ गया. ते सर्व रीते घटे छे. कहेवाय छे के, "यथा राजा तथा प्रजा"
एक वखते ते नगरनी बहार धर्मघोष नामना सूरि आवी चड्या. वनपालना मुखथी ते खबर जाणी राजा सुबुद्धि चतुरंग सेना सहित, छत्र तथा चामरथी सुशोभित बनी अने अंतःपुरना परिवारने साथे लइ ते गुरुने वंदन करवाने गयो. पांच अभिगम करी अने गुरुने विधिथी वंदना करी राजा योग्य आसने बेठो, एटले गुरु आ प्रमाणे धर्म संभळाववा लाग्या-"आ जगत उपर जे इंद्र वगेरे राजाओ बनेला छे ते बधा धर्मथी ज बनेला छे. जो धर्म कर्यो न होय तो तेमने राज्यनी प्राप्ति क्यांथी थाय? जेओ आ जगतमां धर्मरूपी महाराजानी शुद्ध आज्ञा उठावे छे, तेओने ते कर्मराजानो भय कदि पण लागतो नथी अने जेओ ते महाराजानी आज्ञा मानता नथी, तेमना राज्यनो क्षय थई जाय छे अने सदा मृत्युना भयने आपनारो वनवास करवो पडे छे. शुद्ध राजामां दोषारंभ होय पण ते तेने बे घडीवार रुचे छे, तेथी शुक्लपाक्षिकता करवी जोईए, तो हे राजा, तमे शुक्लपाक्षिकताने वधारो. ते धर्म यतिधर्म अने श्रावकधर्म एम बे प्रकारे कहेलो छे. ते बंने धर्मो मेरुपर्वत अने सर्षवना दाणा तुल्य गणाय छे.' .. धर्मघोषसूरिनो आ उपदेश सांभळी सुबुद्धि राजानो भाव हर्षथी यतिधर्म उपर थई आव्यो. प्रौढ पुरुषोनी बुद्धि प्रौढ वस्तुने ग्रहण करवामां ज प्रवर्ते छे. पछी ते राजा सुबुद्धिए पोताना पवित्र पुत्रनी उपर राज्यनो महान भार आरोपण 1. पौषधशाळा दान सहीत अने दुष्टवारण एटले दुष्टजनोने निवारवा धर्मशिक्षण, दान तथा
पौषधना-ए त्रण स्थानयुक्त शब्दोने आपनारी होय छे अने गजशाळा. दान-मद सहित. त्रिपदी-गजबंधनथी युक्त अने दुष्ट एवा वारण-हाथीओने वश करवाना शब्दोने आपनारी होय छे. 2. राजापक्षे-दोषनो आरंभ करवामां आवे तो पण ते तेने बे घडीवार रुचे अने शुक्लपाक्षिकता एटले शुभ-शुद्ध क्रिया रुचि तेने वधारे. राजा-चंद्रपक्षे-दोषारंभ-रात्रिनो आरंभ बे घडी रहे अने शुक्लपक्ष करे. 3. यतिधर्म मेरुपर्वतना जेवो छे अने श्रावकधर्म सर्षवना दाणा जेवो छे. ते बंनेमां तेटलो तफावत छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा करी द्रव्य, दान आपी ते गुरु पासे विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करी. तेणे राज्यनो त्याग कर्यो, तो पण ते 'क्षमाने धारण करतो, शुद्ध अंतःपुर साथे युक्त थतो, सदसि प्रीतिने वहन करतो पोताना हृदयमां 'तंत्र, मित्र, नमस्कारना मंत्रने संभारतो, दुरंतनी जेम 5अंतरंग-अरिनु चितवन करतो, त्रण शक्तिनी जेम प्रसिद्धिने आपनारी रत्नत्रयीने धारण करतो, 'सेनाना चार अंगोनी जेम धर्मना चार भेदने दर्शावतो, षट्गुणोनी जेम षट्कायो, भावथी पालन करतो अने सात अंगोनी जेम सात तत्त्वोने जाणतो ते आ पृथ्वी उपर शोभतो हतो. तेणे समग्र विषय संयुक्त शत्रुवर्गने जीती लई अनंत केवळज्ञाननी लक्ष्मी संपादन करी. ते पछी तेणे केटलाएकने हितकारी 11साधुत्व, केटलाएकने 12अमूल्य रत्नो, केटलाएकने नाना देश (विविध आदेश) तथा क्षमा, भव्य प्राणीओने कल्याण, अभव्य प्राणीओने शोक, केटलाएकने घणुं मान अने केटलाएकने शुद्धि आपनारुं स्थान आप्यु. आ प्रमाणे ते पोतानुं आयुष्य पूर्ण करी अव्ययपद-मोक्षने प्राप्त थयो. अने त्यां अनंत सुखनो भोक्ता तथा ज्ञानीओनो शिरोमणी बनी गयो."
ब्रह्मगुससूरि कहे छे, "हे राजा! आ वार्ता उपरथी तमारे समजवानुं छे के, धर्मनो फक्त पक्षपात करवो, ते पुरुषोने आ लोक तथा परलोकमां सुखदायक थाय छे. तो पछी ते धर्म आचरवाथी शुं न थाय? 13छाया करनार, लोकोना आधारभूत अने 14सुमनः श्रेणीथी सुशोभित एवो धर्मरूपी कल्पवृक्ष वांछित 1. राजापक्षे क्षमा-पृथ्वी मुनिपक्षे क्षमागुण. 2. राजापक्षे शुद्ध अंत:पुर अने मुनिपक्षे शुद्ध हृदयप्रदेश. 3. राजापक्षे सदसि प्रीति-सत्-असि-सारा खड्ग उपर प्रीति अने मुनिपक्षे सदसि-पर्षदामां प्रीति. 4. राजापक्षे तंत्र-युक्ति, मित्रोने नमस्कार अने मंत्र-विचारणा, मुनिपक्षे तंत्र (शास्त्र) युक्ति, मित्र-मैत्री अने नमस्कार मंत्र-नवकार मंत्र. 5. राजापक्षेअंतरमा पोताना देशना शत्रुओर्नु चितवन. मुनिपक्षे-अंतरंग शत्रु-अंतरना काम क्रोधादि शत्रुओर्नु चितवन. 6. राजापक्षे त्रण शक्ति-प्रभुता, मंत्र अने उत्साह. मुनिपक्षे ज्ञान, दर्शन चारित्ररूप त्रण रत्नो. 7. हाथी, घोडा, रथ अने पायदल-ए सेनाना चार अंगो अने दान, शील, तप अने भाव-ए धर्मना चार भेदो. 8. राजापक्षे संधि वगेरे छ गुण. मुनिपक्षेघट्काय जीव- पालन. 9. राजापक्षे सात अंगो. (राज्यना आधारभूत श्रेष्ठी पुरोहित प्रधानादिक सप्तांग) मुनिपक्षे (जीव अजीवादि) सात तत्त्वो. 10. राजापक्षे-विषयसंयुक्त-पोतपोताना देशो सहित. मुनिपक्षे विषय सहित शत्रुओ. 11. राजापक्षे सज्जनपणुं अने मुनिपक्षे साधुपणुं. 12. राजापक्षे अमूल्य रत्नो अने मुनिपक्षे ज्ञानादि रत्नो. 13. जेम कल्पवृक्ष छाया करनार छे, तेम धर्म छाया-क्रांति अथवा शांतिनी शीतलता आपनार छे. 14. कल्पवृक्ष सुमनः श्रेणी-पुष्योनी पंक्तिथी सुशोभित छे. धर्म सुमनः श्रेणी-विद्वानो अथवा
देवताओनी श्रेणीथी सुशोभित छे.
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___ मंत्री सुबुद्धिनी अवांतर कथा फळने आपे छे. ते धर्म सुंदर शाल-वृक्ष दानादिक भेदथी 'चतुःशाल (चार शाखावाळो) छे अने ते सकळ सर्वज्ञ प्रभुओना व्याख्यान समये संतापने वारनारो छे. ते (चार पैकी) एक शाळ (दानादि एक प्रकारनी) धर्मनी विशाळतानुं वर्णन करवाने कोण समर्थ थई शके तेम छे? के ते मार्गे चालनारा अनंत प्राणीओ परमपद-मोक्षने पाम्या छे. ते वैराग्य सहित धर्मना सर्व पुरुषार्थ वडे सिद्धिने आपनारा छे, ते छतां पण दातारपुरुषनो हाथ ते सर्वनी उपर आवी शके छे. आ जगतमां प्रथम सर्वथी मोटो मेरुपर्वत छे. तेनाथी मोटी पृथ्वी छे. पृथ्वीथी मोटो समुद्र छे. समुद्रथी मोटो अगस्ति छे. अगस्तिथी मोटु आकाश छे. आकाशथी मोटो सूर्य छे. सूर्यथी मोटो अंधकार छे. अंधकारथी मोटुं सुदर्शन चक्र छे अने तेनाथी मोटो विष्णुनो हाथ छे. ते हाथ पण दातारना हाथनी नीचे आवे छे. एम लोकोमां संभळाय छे. 4आ विश्वनी अंदर सर्व गुणोना आधाररूप एवा पुरुषर्नु पराक्रम त्याग-दानने अनुसरेला मार्गणोना समूहना मुखथी विख्याति पामे छे. जेम दीपथी अंधकारमा रहेलो पण वस्तुओनो समूह प्रकाशमान थाय छे, तेवी रीते एक दानना गुणथी बीजा सर्व गुणो प्रकाशमान थाय छे. पण दाननो गुण बीजा गुणोथी प्रकाशमान थतो नथी. जेम वर्षाऋतुमां ज्यां वरसाद वर्षे त्यां ते वरसाद शस्यनी संपत्तिने माटे थाय छे. तेवी रीते पृथ्वीमां ज्यां दान अपाय त्यां ते दान शस्यसंपत्तिने माटे थाय छे. जेम वृक्षोमां कल्पवृक्षपणुं, गायोमां कामधेनुपणुं, मणिओमां चिंतामणिपणुं अने कुंभोमां कामकुंभपणुं रहेलुं छे तेओनी ते यशोवृद्धि पोतपोतानी जातिमां दानने लईने थयेली छे. तेवी रीते मनुष्योने पण स्वजाति अने परजातिमां दानने लईने यशोवृद्धि थाय छे. जे मनुष्य शील वगेरे गुणोने धारण करनारो होय ते एकलो-पोते ज आ संसार समुद्रने तरी जाय छे अने दानना गुणथी तो दाता अने दान ग्रहण करनार बंने आ संसार समुद्रने तरी जाय छे. तेथी सर्वथी दानधर्म अधिक छे. दानथी विपत्तिओ दूर थाय छे अने पगले पगले 1. जेम विशाळ शाल-वृक्ष चार शाखावाळो होय छे. तेम धर्म-दान, शीळ, तप अने भाव
ए चार भेदवाळो होय छे. 2. जेम विशाळ शाल-वृक्ष तेनी छायामां रहेला प्राणीओना संतापने हरे छे तेम धर्म, प्राणीओना संसार संबंधी संतापने हरनारो छे. 3. चउ शालदान शील तप अने भाव पैकी गमे ते एक शाल-भेद-प्रकार. 4. पुरुषतुं पराक्रम त्यागने अनुसरेला एटले छोडेला मार्गण-बाणोना समूही विख्यात थाय छे. दातारपक्षे जेमने दान आपवामां आवे तेवा मार्गणो-याचको ते दातारनी विख्याति करे छे. 5. वरसाद शस्यसंपत्ति
धान्यनी संपत्तिने माटे थाय छे अने दान शस्य-संपत्ति-प्रशंसनीय संपत्तिने माटे थाय छे. 6. निःस्वार्थपणे दान देनारो तेमज लेनारो साधु बंने जन्म मरणनो अंत करी शके छे.
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा
संपत्ति प्राप्त थाय छे तेमज दानथी शत्रु मित्र थई जाय छे अने जे विषम-संकट होय ते सम-शांत थई जाय छे. दान आपवाथी रत्नचूडकुमारनी जेम कीर्ति, महत्ता अने आनंद अवश्य प्राप्त थाय छे ते साथे आ समग्र जगत पण वश थई जाय छे. ।।५६४।।
रत्नचूडकुमारनी कथा
आ भरत क्षेत्रमां मध्यखंडने विषे आभूषणरूप तामलिनी नामे एक उत्तम नगरी समुद्रना तीर उपर आवेली हती. तेनी अंदर सत्पुरुषोना मनोरथना जेवी उंची जातना, विबुधोना आधाररूप अने बहु प्रकारे सुधाथी उज्ज्वळ आवा प्रसादो आवेला हता. 2कमलामोदथी उत्तम अने सुवृत्तवडे युक्त एवी हवेलीओ अने जलथी भरेला सरोवरो त्यां रहेला हता. कल्पलतानी जेम सुमन - जनना सर्व अर्थने साधनारी अने साधुपुरुषोए स्तवेली बजारो ते नगरीमां शोभती हती. 4 यंत्रमां शोभता देवनी जेम चोतरफ कोठावाळो अने अक्षरोनी प्रकृतिवडे प्रकाशमान एवो किल्लो तेनी आसपास रक्षक तरीके रहेलो हतो. ते नगरीमां अजितसेन नामे 'सार्थकनामवाळो राजा हतो. ते 'विष्णुनी जेम आ पृथ्वीमां लक्ष्मीवाळो अने प्रजानी रक्षा करनारो हतो. ते राजा रणमां 7 शूर, नमेला माणसोमां सोम, वांकानी आगळ वक्र, बुध- विद्वान् आगळ बुध, वाणीमां बृहस्पति, काव्यमां कवि अने नहीं करवा योग्य कार्योमां मंद हतो. ते छतां पण केटलाएक तेने 'ईन - स्वामी
1. सत्पुरुषोना मनोरथ उंची जातना, विबुध - विद्वानोना आधाररूप अने बहुप्रकारे सुधाअमृतना जेवा उज्जवल होय छे नगरीना प्रासादो ऊँचा, विबुध-देवताओना आधारआश्रयरूप अने बहु प्रकारे सुधा- चुनो लगाडवाथी उज्जवळ हता. 2. हवेलीओ कमलालक्ष्मी अने मोद - हर्षथी उत्तम अने सुवृत्त - गोळाकार अथवा सदाचारथी युक्त हती. सरोवर पक्षे-सरोवर कमलामोद- कमळोनी खुशबोथी युक्त अने सुवृत्त - गोळाकार हता. 3. कल्पलतासुमनोजन - देवजनोना सर्व अर्थने साधनारी होय छे बजार सुमन - विद्वानोना अथवा सज्जनोना सर्व अर्थने साधनारी अर्थात् दरेक पदार्थोने मेळवी आपनारी हती. 4. देवताने माटे स्थापन करवामां आवे छे. ते स्थापना यंत्राकारे गोठवाय छे. तेनी आसपास कोठाखाना करवामां आवे छे, तेथी ते चोतरफ कोठावाळो होय छे अने ते कोठामां अक्षरो रचवामां आवे छे. तेथी ते अक्षरोनी प्रकृति ऊँची जातनी कृति रचनाथी प्रकाशमान होय छे. किल्लापक्षे किल्लाने आसपास कोठा होय छे अने ते अक्षर प्रकृति - एटले खरे नहीं तेवी प्रकृतिथी प्रकाशमान अर्थात् पडे नहीं तेवो मजबूत किल्लो हतो. 5. अजितसेनजेनी सेना जीती शकाय नहीं तेवो हतो तेथी सार्थक नामवाळो 6. विष्णु लक्ष्मीवाळा अने सर्व प्रजाना रक्षक कहेवाय छे. 7. शूरवीरपक्षे सूर्य, सोम-शांतपक्षे चंद्र. वक्र- वांको पक्षे मंगळ. बुध - डाह्य पक्षे बुधग्रह. कवि - कविता करनारपक्षे शुक्र, मंद- शिथिलपक्षे शनि. 8. ईननो अर्थ सूर्य पण थाय छे.
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा कहेता. केटलाएक राजा-चंद्र कहेता, केटलाएक बुध-विद्वान् कहेता अने केटलाएक कवि कहेता हता, पण तेने सर्व ग्रहमय कहेता न हता. ते नगरीनी अंदर रत्नाकर नामे एक प्रख्यात श्रेष्ठी रहेतो हतो. ते बहार अने अंदरथी 'रत्नाकर-समुद्रना जेवो हतो. जेम रत्नाकर-समुद्र राजप्रसादथी एटले 'चंद्रनी प्रसन्नताथी संपन्नसंपत्तिवाळो छे, तेम ते श्रेष्ठी राजाना प्रसादथी संपन्न हतो. जेम समुद्र कमलोदयथी एटले कमला-लक्ष्मीना उदयथी प्रकाशमान छे, तेम ते श्रेष्ठी पण लक्ष्मीना उदयथी प्रकाशमान हतो. जेम समुद्र विधु-चंद्र उपर रागी छे, तेम ते विधिधर्मनी विधि-क्रियामां रागी हतो. जेम समुद्र जिन-विष्णु उपर आसक्त होय छे, तेम ते श्रेष्ठी श्रीजिनभगवान्मां आसक्त हतो. जेम समुद्र गंभीर-ऊंडो होय छे. तेम ते गंभीर स्वभावनो हतो. जेम समुद्र पोत-वहाणोथी युक्त होय छे, तेम ते पोत-बाळकोथी युक्त हतो. जेम समुद्र मणि तथा मुक्ताफळोथी व्याप्त होय छे, तेम ते श्रेष्ठी पण मणिओ तथा मुक्ताफळोथी भरपूर हतो. ते श्रेष्ठीना घरमां विविध जातना रत्नो हता. तथापि ते गुरु पासेथी मेळवेला ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूपी त्रण रत्नोने हृदयमांथी छोडतो न हतो. ते रत्नाकर श्रेष्ठीने जाणे देहधारी सरस्वतीदेवी होय, तेवी शीलगुणथी उज्ज्वल अने विचारो करवामां चतुर एवी सरस्वती नामे प्रिया हती. काम नामना पुरुषार्थने सरखी रीते सेवन करता एवा ते रत्नाकर शेठने धर्म तथा अर्थने उपार्जन करतां करतां केटलोएक समय वीती गयो.
____एक वखते शेठाणी सरस्वती संध्याकाळना प्रतिक्रमणनी क्रिया विधिपूर्वक करी सुखे सुती हती. तेवामां स्वप्ननी अंदर एक रत्नोनो राशि तेणीना जोवामां आव्यो. तत्काल ते धर्म कर्ममां तत्पर थईने जागती रही; कारण के फलनी इच्छा राखनारा मनुष्ये शुभ स्वप्न जोया पछी, सुदुं न जोईए. प्रातःकाल थतां ते शेठाणीए ते स्वप्ननी वात पोताना पतिने कही. ते सांभळी श्रेष्ठीए कडं, "हे भद्रे, आ स्वप्नने लईने आपणा बनेनुं कांई पण शुभ थशे" ते पछी श्रेष्ठी रत्नाकरे ते स्वप्नना ज्ञाननो विशेष बोध थवा माटे कोई स्वप्नशास्त्रने जाणनारा जोषीने घेर जई ऊँची जातना फलादिकनी भेट धरी स्वप्नशास्त्र विषे प्रश्न कर्यो. एटले ते स्वप्नवेत्ताए कह्यु, "हे श्रेष्ठिन्, स्वप्न नव प्रकारना थाय छे. १. चिंताथी, २. विकारथी, ३. अनुभवथी, ४. स्वभावथी, ५. सांभळवाथी, ६. 1. रत्नाकर-समुद्र बहार अने अंदर रत्नोनी खाणरूप छे. तेवी रीते ते श्रेष्टी घणां रत्नोनो
स्वामी हतो. 2. चंद्रना किरणोने लईने समुद्रमां भरती थाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा जोवाथी, ७. धर्म कर्म (पुन्य)थी, ८. पापथी अने ९. देवतादिकना उपदेशथी एम नव प्रकारे संक्षेपथी स्वप्न उत्पन्न थाय छे. तेमां पहेला छ प्रकारे उत्पन्न थयेला सर्व स्वप्नो निरर्थक छे. अने पाछळना त्रण प्रकारे उत्पन्न थयेला स्वप्नो शुभअशुभ फलने आपनारा छे. रात्रिने पहेले पहोरे आवेलुं स्वप्न एक वर्षे फल आपे छे, बीजे पहोरे आवेलुं स्वप्न आठ मासे फल आपे छे, त्रीजे पहोरे आवेलुं स्वप्न त्रण मासे फल आपे छे, चोथे पहोरे आवेलुं स्वप्न एक मासे फल आपे छे, अरुणोदये आवेलं स्वप्न दश दिवसे फल आपे छे अने सूर्योदय वखते आवेलू स्वप्न तत्काल शुभाशुभ फल आपे छे. जे माला स्वप्न एटले ऊपरा ऊपर स्वप्न जोवामां आवे छे. ते मलमूत्र वगेरेना पीडाथी उत्पन्न थाय छे तेथी ते निश्चे कांई पण फल आपनाएं थतुं नथी. जे प्रथम शुभ स्वप्न आवे अने पाछळथी अशुभ स्वप्न आवे अथवा पहेलं अशुभ अने पाछळथी शुभ स्वप्न आवे तो जे पाछळy स्वप्नुं आवे ते प्रमाणे फल मळे छे. एटले पहेलुं स्वप्न निरर्थक थाय छे. स्वप्नामा वृक्ष, बळद, हस्ती, पर्वत, महेल अने अश्व उपर चडवा- थाय, विष्टानो लेप थाय, रुदन अने मरण थाय, ते स्वप्न शुभ गणाय छे. जे माणस स्वप्नामां सुवर्ण, राजा, हस्ती, अश्व, बळद अने गायने जुवे छे, ते माणसने कुटुंबमां उत्तम प्रकारनी वृद्धि थाय छे. जो स्वप्नामां तांबूल, मोती, शंख, वस्त्र, दही, चंदन, कुंद तथा बोरसलीना पुष्प अने कमळ जोवामां आवे तो धननी वृद्धि थाय छे. जे माणस स्वप्नामां महेल उपर, कमळना पत्र उपर अथवा सरोवरमां बेसी भोजन करे अने बे भुजाथी समुद्रने तरी जाय ते माणस राजा थाय छे. जे स्वप्नामां कन्या, छत्र, पाकेलुं फल, दीवो, अन्न एटले भोग्य वस्तु (भातओदन) मोटी ध्वजा अने अन्न मेळवी शके, ते माणसने चिंतवेला कार्यनी सिद्धि थाय छे. जे मनुष्य स्वप्नामां उपानह (पगरखां) चाखडी अने निर्मल खड्ग जुवे छे, तेने ग्रामांतर जवू पडे छे. जे स्वप्नामां प्रथम वहाण उपर चडे अने पछी ते वहाण भांगी पडतां उतरी पडे; ते माणसने मुसाफरी करवी पडे छे अने मुसाफरीमाथी घणुं द्रव्य लईने ते पाछो आवे छे. स्वप्नमां जेना दांत पडी जाय अथवा मुखमां सडी जाय तेने धननो क्षय थाय अने तेना शरीरमा पीडा उत्पन्न थाय छे. जो स्वप्नमां शय्या अने द्वारनी भुगळ (आगळो) भांगे तेवू जोवामां आवे, तो ते पुरुषनी स्त्री- मरण थाय छे अने जो स्वप्नामां अंगनुं छेदन जोवामां आवे, तो माता, पिता अने पुत्रनो क्षय थाय छे. जो स्वप्नमां सांढडी अने भेंस उपर बेसी दक्षिण दिशामां जवानुं देखाय तो देहमां व्याधि उत्पन्न थाय छे अने
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा
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गधेडा तथा ऊंटनी सवारी करी दक्षिण दिशामां जवानुं देखाय, तो मृत्यु थाय छे. जो स्वप्नमां शरीरे तेल चोळवानुं जोवामां आवे तो रोग थाय छे अने जो शींगडावाळा अने दाढावाळा प्राणीओ उपद्रव करता देखाय, तो राजकुल तरफथी भय उत्पन्न थाय छे. जे माणस स्वप्नमां पीळा वस्त्रने धारण करनारी अने पीळा चंदनना लेपवाळी स्त्रीने आलिंगन करे तो ते माणसने कोई हत्या लागे छे. । । ६०० ।। जे माणसने स्वप्नमां काळा तथा राता वस्त्रने धारण करनारी अने काळा तथा राता चंदनना लेपवाळी स्त्री आलिंगन करे, ते माणसनुं मृत्यु थाय छे. जे स्वप्नमां श्वेत वस्त्र तथा श्वेत (पुष्पनी) मालाने धारण करनारी स्त्रीने आलिंगन करे तेने लक्ष्मी प्राप्त थाय छे, जो स्वप्नमां विशेष भागे धोळो सर्प अथवा बीजी जातनो सर्प करडे; तेमज जळो के वींछी करडे तो, ते मनुष्यने विजय तथा द्रव्यनो लाभ थाय छे. जे शुभ आशयवाळो पुरुष स्वप्नामां कुकडी, घोडी के क्रोंचपक्षीनी मादाने जुवे ते पुरुषने घेर कन्यानी उत्पत्ति थाय अथवा तेने प्रिय स्त्री मळे छे. जो रोगी माणस स्वप्नमां चंद्र के सूर्यनुं मंडळ जुवे तो तेना रोगनी शांति थई जाय छे अने ते नीरोगी थई लक्ष्मीनो स्वामी बने छे. देवताओ, पितृओ, गायो, राजाओ अने सारा त्यागी पुरुषो स्वप्नमां आवीने जे कहे छे, ते प्रमाणे थाय छे. जे माणसने स्वप्नामां दहींनो लाभ थाय, तो तेनामां दया उत्पन्न थाय छे, घीनो लाभ थवाथी जय थाय छे, जो स्वप्नामां घीनुं दान करे तो क्लेश उत्पन्न थाय छे अने दहीँनुं भक्षण करे, तो यश वधे छे. जे माणस स्वप्नामां दूध, मदिरा अने रुधिरनुं पान करे, तो तेने द्रव्यनो संचय थाय छे अने जो सूर्यनुं दर्शन करे, तो अवश्य विजयी थाय छे. जे माणस स्वप्नामां विकराळ, विकट अने मुंड एवा काळा पुरुषने जुवे अथवा पीळा नग्नपुरुषने हसतो जुवे, ते माणसनुं मृत्यु थाय छे. जे स्वप्नामां पोतानुं आसन, वस्त्र, घर अने शरीरने अग्निथी बळतुं जुवे, ते माणसने सर्वने संमत एवी लक्ष्मी प्राप्त थाय छे. स्वप्नामां कपास, भस्म, छारा अने अस्थि सिवायनी बधी धोळी वस्तुओ शुभ समजवी अने बळद, अश्व, हाथी, देव अने ऋषि सिवायनी बधी काळी वस्तुओ अशुभ समजवी.
आ प्रमाणे कही ते स्वप्नशास्त्रानो वेत्ता बोलतो बंध थयो एटले रत्नाकर श्रेष्ठी बोल्यो, "हे विद्वान्, मारी स्त्री स्वप्नामां रत्नोनो राशि जोयो छे, तेनुं फळ कहो.” ते पुनः बोल्यो, "हे श्रेष्ठी, तेनुं फळ सांभळो. हे महाशय, शास्त्रमां बधां मळीने बोंतेर स्वप्नो कहेलां छे. तेओमां बेंताळीश स्वप्नो में कह्यां अने त्रीस महास्वप्नो छे. एम शास्त्रवेत्ताओ कहे छे. तेओमां तीर्थंकर तथा चक्रवर्तीनी माता
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चौद महा स्वप्नो जुवे छे, वासुदेवनी माताओ सात अने बळदेवनी माताओ चार स्वप्नो जुवे छे. ते चौद स्वप्नोमां मंडलिकनी माता एक स्वप्न जुवे छे. तमारी पत्नीए राजमातानी जेम ते स्वप्नो मांथी रत्नराशि रूप तेरमुं स्वप्न जोयुं छे. ते शुभ स्वप्न छे. तेथी तमारे राजाना जेवो पुत्र थशे, ए निःसंशय छे." स्वप्नवेत्ताना आ वचन सांभळी रत्नाकर शेठ पोताना हृदयमां संतुष्ट थई गयो अने तेने संतोषकारी दान आपी आदरपूर्वक पोताने घेर आव्यो. त्यां तेणे पोतानी पत्नीने ते सर्व वात शांतपणे निवेदन करी. शेठाणी सरस्वती ते सांभळी पोताना हृदयमां अधिक हर्ष पामी.
हवे ते दिवसथी सरस्वतीए हर्षित हृदये गर्भ धारण कर्यो अने जेम जेम तेणीनो गर्भ वधवा लाग्यो. तेम तेम तेणीनो हर्ष पण वधवा लाग्यो. ज्यारे त्रीजो मास बेठो, त्यारे तेणीने दानधर्म करवानो दोहद उत्पन्न थयो. अंग उपर रोमांच कंचुकने धारण करनारा श्रेष्ठीए तेणीनो ते दोहद पूरो कर्यो. शेठाणी सरस्वती गर्भने पथ्य अने पुष्टिकारक एवा आहार विहार गर्भना हितनी इच्छाथी करवा लागी. अनुक्रमे नव मास अने साडाआठ दिवसो पूरा थतां अश्लेषा, मूल अने
डांगयोग वर्जित अने शुभ लग्नना बळवाळा शुभ दिवसे सरस्वतीए एक उत्तम पुत्रने जन्म आप्यो. ते समये रत्नाकर शेठे एक विद्वान् जोषीने बोलावी आ प्रमाणे पूछयुं, "हे कुशल जोषी, आ पुत्र केवो थशे? ते कहो." जोषीए ते समयना लग्नादिकनुं उत्तम फळ कही संभळाव्युं. ते पछी शेठे हर्षथी दान आपी स्वजनोनी साक्षी ते पुत्रनुं रत्नचूड एवं नाम पाड्युं. अति यत्नथी पालन करातो ते पुत्र मातापिताना मनोरथोनी साथे वधतो वधतो आठ वर्षनो थयो. ते पछी पिताए शुभ दिवसे मोटा उत्सवपूर्वक कलाओनो समूह शीखववा माटे तेने पाठशाळामां मोकल्यो. ते चतुर बाळक जाणे पूर्वे भणेली होय तेम सर्व कळाओ पोताना सारा गुरु पासेथी सहेलाईथी शीखी गयो. कारण के " यद् ज्ञानं गुरुसाक्षिकम् " गुरुनी साक्षी ज्ञान मेळववुं जोईए. मातापिताना प्रसादथी सर्व इच्छाओ प्राप्त करतो ते बाळक सर्वत्र मित्रोनी साथै स्वेच्छाथी क्रीडा करवा लाग्यो. ।। ६३० ।। एक समये ते रत्नचूड अहंकारपूर्वक बजारमां जतो हतो, तेवामां एक सौभाग्यमंजरी नामनी चतुर वेश्याना जोवामां आव्यो, ते वेश्याए तेनुं उत्तरासंग वस्त्र पकडीने कोमलताथी पूछयुं के, "हे चतुर ! कहे, तुं आवो द्रव्यनो अहंकार केम राखे छे? सत्य पुरुषो तो द्रव्य वधे त्यारे फल वधवाथी वृक्षोनी जेम अने जल वधवाथी मेघनी जेम उलटा नम्र थई जाय छे; पण गर्विष्ठ थता नथी. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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लोकोमां कहेवत छे के, पृथ्वी अने वणिक ते बने आ पृथ्वी उपर द्रव्यने जीरवी शके छे; ते कहेवत तें हाल मिथ्या करी छे. तेम वळी जे माणस पोताना बाहुथी अतुल द्रव्य मेळवी दान तथा भोग करे. ते माणस कदि अहंकार राखे तो ते घटित छे, पण हे अनघ! तुं जे पिताना मेळवेला द्रव्यथी अहंकार राखे छे, ते अहंकार अघटित छे. माटे हे उत्तम! तारे अत्यारे अहंकार न करवो जोईए " आटलुं कही ते वेश्या चाली गई. पछी रत्नचूडे पोताना हृदयमां विचार्यं के, "अहो ! सारी बुद्धिवाळी आ वेश्याए जे कह्युं ते सत्य छे. हवेथी ज्यारे उपार्जन करेलुं घणुं द्रव्य मारी पासे थशे अने ते द्रव्यमांथी हुं दान भोग करीश त्यारे मारे अहंकार राखवो, ते सिवाय राखवो नहीं." आ प्रमाणे विचारी तेणे पोताना मित्रोने बोलावीने पूछ्युं के "मित्रो, लक्ष्मी क्यां रहे छे?" मित्रोए कह्युं, "लक्ष्मी कमळमां रहेती नथी, पण मोटा वेपारमां रहे छे." आ सांभळी तेना हृदयमां वेपार करवा माटे देशांतर जवानी इच्छा थई अने ते विषेनी चिंता करतो ते पोताने घेर गयो. तेने व्यग्र थयेलो जोई पिताए कह्युं, "हे पुत्र ! कहे, तारा मनमां कांई 'आधि छे के तारे शरीरे कांई व्याधि छे ? अथवा कोई कन्याए तारा चित्तमां वास कर्यो छे? अथवा कोई मित्रे अथवा राजपुत्रे तारो पराभव कर्यो छे? अथवा तारा शरीर उपरनुं आभूषण आजे क्यांक पडी गयुं छे? तुं चिंतातुर जेवो केम देखाय छे?" श्रेष्ठीए आ प्रमाणे पूछयुं, तो पण ज्यारे ते मौन धरीने रह्यो त्यारे शेठे गाढ आग्रहथी पुनः तेने कह्युं, "पुत्र, तारी आवी मौन रहेवानी चेष्टाथी मारुं हृदय आजे घणुं खेद पामे छे तेथी तुं यथार्थ कही दे के हुं तेनो उपाय करुं." पछी पोताना पिताने थतुं दुःख दूर करवा माटे रत्नचूडे अंजलि जोडी जणाव्युं. "हे तात, द्रव्य उपार्जन करवा माटे देशांतरमां जवानी मारी इच्छा छे." पुत्रनुं आ वचन सांभळी ते उत्तमशेठ बोल्यो, "हे वत्स, आपणा घरमां घणुं द्रव्य छे, तेनाथी तुं तारी इच्छा पूरी कर. विदेशमां जनारा मनुष्योने हुमलो करनार, चोर, शत्रु, राजा अने धूतारा लोकोथी सर्व प्रकारना भय उत्पन्न थाय छे. वळी तुं शरीरे सुकुमार छे अने विदेश तो कठण माणसने प्रिय थाय छे. तुं मुग्धबुद्धिवाळो (भोळो) छे अने परदेश लुच्चा लोकोथी भरपूर छे. पृथ्वी उपर सूवुं, एकासणुं करवुं, ब्रह्मचर्य पाळवुं अने टाढ वगेरे सहन करवा ए उपद्रवो मुसाफर अने मुनिने सरखा छे. परंतु मुसाफरने अधर्मथी अने मुनिने धर्मथी होय, एटलो तेमां तफावत छे. हे वत्स, तेथी मुसाफरने थता दुःख अने अधर्मने 1. मननी पीड़ा आधि कहेवाय छे...
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा जाणी एवी इच्छाने छोडी दे." पुत्र फरीवार बोल्यो, "हे पूज्य, मारुं वचन सांभळो, हुं विदेशमां जई नवो वैभव मेळवीने आवीश, त्यारे ज हुं दान भोग करीश. ते सिवाय करीश नहीं." पिता बोल्या, "हे वत्स, जो तारे विदेशमा जर्बु होय, तो हं तने जे शिक्षा आपुं, ते एकांत चित्तथी सांभळ-।।६५३।।
प्रथम चालवानो क्रम आ प्रमाणे छे :
. छते उद्यमे कोई ठेकाणे काम वगर जवू नहीं. चालतां चालतां एक तांबुल सिवाय बीजुं कांई खावू नहीं. सारी बुद्धिवाळा मुसाफरे पोताना देहनी अने जंतुओनी रक्षा करवा माटे युगमात्र दृष्टि राखी पगले पगले जोतां चालवू, कार्यने अर्थे चालनारा माणसे पोताना स्थानथी चालतां जे नाडी चालती होय, ते नाडी तरफनो पग प्रथम उपाडवो के जेथी करीने इच्छित कार्यनी सिद्धि थाय छे. डाह्या माणसे रोगी, वृद्ध, अंध, पूज्य, बाळक, गाय, राजा, बोजावाळो माणस अने गर्भिणी स्त्री जो सामे मळे, तो तेमने रस्तो आपीने चालवू. त्याग करेल निर्माल्य, थुक, न्हावा, पाणी, रुधिर, विष्टा, बळतो अग्नि, मडनूं, बळखो, मूत्र, हथीयार, सर्प; व्यंतर वगैरेनी शेषा, धान्य, पुष्प अने फळ वगेरे जो चोक वगेरेमा पड्या होय तो श्रीमान् पुरुषे तेने ओळंगीने चालवू नहीं. कुशळनी इच्छावाळाए रात्रे वृक्षना मूळमां आश्रय करवो नहीं. घरमां उत्सव चालतो होय ते पूर्ण थया पहेलां अने सूतकमां दूर देशांतर जवाने नीकळवू नहीं. दूध पीने, रतिक्रीडा करीने, घरनी स्त्रीने मारीने, स्नान करीने, वमन करीने, थुकीने, उग्र एवा नठारा शब्दने सांभळीने, अश्रुपात करीने, मुंडन करावीने अने सारा शुकनने अभावे कदिपण ग्रामांतर जवू नहीं. नदीने सामेतीरथी, दूधवाळा वृक्षथी अने जळाशयथी पाछळ वळाववा आवता स्वजनोने पाछा वाळीने पछी चालवू. रस्तामां आवता अजाण्या घरमां वास करवो नहि अने गाढ निद्रा लेवी नहीं. हितनी इच्छा राखनार मुसाफरे कोईनो पण विश्वास करवो नहीं, सद्बुद्धिवाळा मुसाफरे भाता वगर, कोईनी सहाय वगर, वगर ओळखीतानी साथे मध्याह्ने अने रात्रे मार्गे चालवू नहि. लक्ष्मीने इच्छनारो श्रीमान् पुरुष शुभने प्राप्त थयो होय तो पण पाडा, गधेडा, ऊंट अने बेल (बळद) उपर सवारी करवी नहीं. हस्तीथी एक हजार हाथ, गाडाथी पांच हाथ अने घोडाथी तथा शींगडावाळा प्राणीओथी दश हाथ दूर चालवू. जीर्ण थई गयेला वाहन उपर चडवू नहीं, नदीमां एकला पेस नहीं अने सहोदर बंधुनी साथे कदिपण रस्ते चालवू नहीं. सारा हृदयवाळा मुसाफरे रस्तामां श्रमित थया छतां पोतानु कर्तव्य कर्म चूकवू नहीं; तेमज पोताने
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा पाळवा योग्य एवा नियमो पाळवा; नहि तो ते पुरुष भ्रष्ट थई जाय छे. ।।६६९।।
मुसाफरने जोवा योग्य अने नहीं जोवा योग्य वस्तु विषेनो क्रम :
मुसाफरे तीर्थ, देश, वस्तुओ, प्रातःकाळे पोतानो हाथ, प्रौढ पुरुषो, शुकनो अने छायापुरुष (पडछायो) विलोकवा. विद्वान् पुरुषे हमेशां सूर्यचंद्रनुं ग्रहण, जळ वरसवाने वखते मोटो कूवो अने संध्याकाळे आकाश जोवू नहि. कन्यानी योनि, पशुओनी क्रीडा, अद्भुत रूपवाळी नग्न स्त्री, संभोग अने चित्कार जोवां नहि. जळ, तेल, हथीयार, मूत्र अने रूधिरनी अंदर विद्वान् पुरुषे पोतानुं मुख जोवू नही, कारण के तेथी आयुष्यनो क्षय थाय छे.
विशेष उपदेशनो क्रम : |
हे वत्स, प्रति वर्षे पोताना द्रव्यने अनुसारे स्वगुरु, ज्ञातिना वृद्ध माणसो अने साधर्मिक बंधुओनी भक्ति करवी, विवेकी पुरुषे प्रतिवर्षे तीर्थयात्रा करवी अने सद्गुरुनी समक्ष आलोचना लेवी. हे पुत्र, ज्यां बालराजानु, स्त्रीरों, बे राजानुं अने मूर्ख राजानुं राज्य चालतुं होय, त्यां रहेQ नहि. हे पुत्र, जे राज्यमा राजा सारो होय, वेपारीओ सारा होय अने बधा लोको व्यवहार परायण होय, तेवा राज्यमां तारे रहे. , आटलुं कह्या पछी रत्नाकर शेठ फरीथी बोल्यो, हे वत्स, में तने जे आ शिक्षा आपी छे, ते सर्व माणसोने सरखी रीते लागु पडे तेवी छे. हवे तने खास विशेषपणे कहुं छं ते सांभळ.
समुद्रनी अंदर बधा मळीने सवालाख द्वीपो छे, (लौकिक अपेक्षा ए कथन छे) तेनी अंदर केटलाएक प्रगट छे अने केटलाएक अप्रगट छे. तेमां प्रगट एवा द्वीपोनी अंदर चित्रकूट नामनो एक द्वीप छे, ते धूतारा लोकोना स्थान रूप छे. तेमां अनीतिपुर नाम विस्तारवाळु नगर छे, ते नगरनी अंदर अन्याय नामे राजा, अविचारक नामे मंत्री, सर्वग्राहि नामे कोटवाळ अने अशांति नामे पुरोहित छे, वळी ते नगरमां गृहीत भक्षक नामे नगरशेठ मूलनाशक नामे तेनो पुत्र, यमघंटा नामे अक्का अने रणघंटा नामे तेनी पुत्री वेश्या रहे छे. आ प्रमाणे राजा वगेरे सर्व त्यां पोतपोताना नाम प्रमाणे गुणवाळा छे. ते सिवाय चोर, जुगारी अने धूतारा लोको त्यां घणा छे. जो कोई अजाण्यो माणस ते नगरमां कदि आवी चडे. तो त्यांना लोको तेनुं सर्वस्व लई ले छे. हे वत्स, तारे ते नगरमां जq नहि. ते सिवाय बीजे स्थळे जवू. हे शुद्ध बुद्धिवाळा पुत्र, ते बीजे स्थळेथी लाभ मेळवीने तारे पाछा सत्वर आववं. शेठना आ वचनो कबूल करीने रत्नचूड कोटी सुवर्णना श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा मूल्यनी सारी वस्तुओथी एक मोटुं वहाण भरी विदेशमां जवाने तैयार थई गयो. ज्योतिषने जाणनारा जोषीए आपेला शुभ चंद्रना बळवाळा सारे मुहूर्ते मंगळ सहित, लोकोथी वीटायेला रत्नचूडे प्रयाण कयु. ज्यारे ते चाल्यो त्यारे जलथी भरेलो घडो, दर्पण, दहीं, वधामणा, मृत्तिका, घी, वस्त्र, ध्वज, मत्स्य, फल, हाथी, अश्व, राजा, गाय, वत्स, मित्र, वीणा अने मध ए वस्तुओ तेने सन्मुख मळी. ते वखते तेनी डाबी तरफ विनायक, गरूड, गधेडो, ऊंट, दुर्गा (काली देवचकली), खच्चर, अश्व, बळद, सारस अने फेरू (शियाळ)ना शब्दो थया. ते महाशयने जमणी तरफ वृद्ध विनायक (गरूड) आगळ हस्ती अने पाछळ गीधपक्षी बोल्यो. काळीयार मृग, श्वान, मधुर स्वरवाळो कागडो, तेनी जमणी तरफथी डाबी तरफ थयां. भमरा, हरिणो, दुर्गा, नोळीयो, बपैयो अने खंजन पक्षी तेनी डाबी तरफथी जमणी तरफ गया. आवा शुभ शुकनोथी हर्षवान् थयेलो तेनो पिता थोडेक दूर सुधी रत्नचूडने वळावीने क्षीर वृक्ष पासेथी पाछो घेर आव्यो. का छे के, "पिता, सद्गुरु, मित्र, पुत्र, शिष्य अने बांधव तेओमांथी जेनुं सत्वर पाछु आगमन इच्छq होय तो तेनी पाछळ दूर सुधी वळावाने जवू नहि." ते पछी पुत्र रत्नचूड पांच शब्दवाळा वाजिंत्र, छत्र, पताका अंने चामर सहित वहाण उपर बेसी पोताना नगरमांथी चाल्यो. सारा पवनने लईने शीघ्र चालता एवा वहाण वडे ते रत्नचूड केटलेक दिवसे समुद्रना कोई द्वीपमा जई पहोंच्यो. ते द्वीपने जोतां ज वहाणना सर्व उतारूओ खुशी थई गया. पछी खलासी ते वहाणने कांठा उपर लाव्यो. ।।७००।। त्यां रत्नचूडकुमार ते वहाणने जळमां राखी ते उपरथी नीचे उतरी पड्यो. पछी कांठाउपर एक तंबु नखावीने रह्यो. तेवामां सुबुद्धिकुमारे एक पुरुषने समीप रहेलो देखी पूछ्यु के, "आ द्वीपर्नु शुं नाम छे? आ नगरनुं शुं नाम छे अने तेमां राजा कोण छे?" तेनुं आ वचन सांभळी ते पुरुष बोल्यो, "हे सुंदर, मारुं वचन सांभळो, आ द्वीपर्नु नाम चित्रकूट छे अने नगरनुं नाम अनीतिपुर छे. आ नगरमा विश्वमां विख्यात एवो अन्याय नामे राजा छे." ते पुरुषना वचनो सांभळी कुमारे हृदयमां चिंतव्युं के, मारा पिताए मने ज्यां जवा माटे ना कही, ते ज स्थळे हुं दैवयोगे आवी चड्यो. तथापि मने अहिं घणो लाभ थशे, तेमां कोई जातनो संशय नथी. कारण के हुं ज्यारे चाल्यो त्यारे मारा हृदयमा उत्साह, सारा शुकनो अने समुद्रमां अनुकूळ पवन ए सर्व शुभ सूचन थयु हतुं. आ प्रमाणे हृदयमां चिंतवी ते रत्नचूडकुमार विचार करतो हतो, ते स्थले नगरमांथी चार वेपारी वणिको आव्या. रत्नचूडे ते
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा चारे वणिकोनो आसन तथा मान वगेरेथी घणो सत्कार कर्यो, ते पछी धूर्त बुद्धिना भंडार रूप एवा ते चारे वणिको मधुर आलापथी आ प्रमाणे बोल्या, "हे कुमारेन्द्र, तमे क्यांथी आव्या? तमारा पिता कोण छे अने तेमनुं नाम शुं छे? ते कहो अमोने ते जाणवानी घणी उत्कंठा छे. तमारा दर्शनथी अमारा चित्तमां अचिंतित स्नेह उत्पन्न थयो छे. तेनुं कांई कल्याणना स्थानरूप कारण होवू जोईए." कुमार रत्नचूडे ते सर्वना नाम मित्रनी मारफत स्फुट रीते कहेवडाव्यां. कारण के विवेकीपुरुषे पोतानुं नाम जाते न कहेवू जोईए. तेने माटे कयुं छे के, "पोता नाम, गुरु (वडिल)नुं नाम, स्त्री नाम अने कृपण, नाम लेवाथी द्रव्य अने आयुष्यनो क्षय थाय छे." ते महानुभाव कुमारनी सर्व वार्ता सांभळी ते चारे वणिको बोल्या-"अमारा हृदयमां तमारे माटे स्नेह उत्पन्न थयो छे. ते युक्त छे, कारण के तमे अमारा 'स्वजन छो. तमे लघुवयना छो, तेथी हमणां तमो ओळखता नथी, तो पण हाल जे तमे अहीं आव्या ते बहु सारं थयु. हे कुमारेन्द्र, उठो, आपणे घेर जईए. तमारा जेवा स्वजनो पूर्वना भाग्यथी ज प्राप्त थाय छे." आ प्रमाणे विश्वास पमाडी तेओ रत्नचूडने एक घरमां लई गया अने त्यां स्नान, भोजन तथा मान वगेरेथी तेनुं गौरव कयु. भोजन कराव्या पछी ते धुरंधर धुताराओए कुमारने कडं, "हे कुमार, तमारुं शरीर घणुं कोमळ छे अने आ वेपारनो व्यवसाय कठोर शरीरथी साधी शकाय तेवो छे, ए व्यवसायने लईने समय प्रमाणे भोजन तथा शयन पण नही थाय? आवो व्यवसाय करतां तमारा देहनी स्वस्थता रहेशे नहि. जो तमारी तबीयत बगडे तो पछी रत्नाकरशेठने अमो शो उत्तर आपीए? हवे तमारा वहाणमां जे काई होय, ते बधुं अमोने सौंपी द्यो. अमो इच्छित वस्तुओथी ते तमारुं वहाण पूर्ण करी दईशं. आ प्रमाणे सांभळी
कुमारे कडं के, वहाणमां जेटलं होय ते बधुं लई जाओ. पछी ते चारे वणिको हर्षथी तेनुं सर्वस्व लई गया. ते ग्रहण करीने सर्व पोतपोताने ठेकाणे चाल्या गया. आ वखते तेमनुं सौजन्य क्यां गयुं, ते कांई जाणवामां आव्युं नहिं.
___बीजे दिवसे कुमार रत्नचूड ते नगरना राजाने मळवा चाल्यो, तेवे वखते कोई पादुका करनार पुरुषे आवी बे पादुका तेने भेट करी, कुमारे ते कारीगरने कयु के, "आ बंने पादुकानी कीमत शुं छे? ते कहो." त्यारे तेणे कडं के, "तमने खुशी करवा माटे में आ पादुका तमने भेट करी छे." कुमार बोल्यो, "जो एम होय तो हुँ तने खुशी करीश." एम कही कुमार आगळ चाल्यो, जेवामां 1. सगा. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा ते केटलेक आगळ चाल्यो तेवामां कोई धूर्तबुद्धिवाळो काणो जुगारी तेनी पासे आवी आ प्रमाणे बोल्यो. "कुमार, मारी हकीकत सांभळ. पूर्वे तारो पिता अहिं आव्यो हतो. ते वखते हुं जुगारमा एक हजार सो नैया हारी गयो. ते समये जेम दिवसे कागडाओ घुडने घेरीने पजवे, तेम बधा जुगारीओ मळी मारी आसपास एकठा थई कडवां वचनोथी मने पजववा लाग्या. त्यारे तारा पितानी पासे आवीने में द्रव्यनी मागणी करी. तारा पिताए मने कह्यु के, "काई पण चीज घराणे मूकीने घणुं द्रव्य लई जा." में तेमने पुनः कां के, "जुगारना व्यसनथी घर, सुवर्ण अने ढोर वगेरे बधुं में गुमाव्युं छे तो हवे तमने हुं शुं आपी शकुं?" तारा पिताए कडं, "जो एम होय तो चाल्यो जा, हुं तने कांई पण आपीश नहीं." पछी पेला जुगारीओ मने मारवा लाग्या. ते वखते में विचायु के, "आ जुगारीओ मने मारी नाखशे. तेथी मारा शरीरमांथी कोई पण अंग घराणे मूकीने हुं ते उपर द्रव्य लडं. बे पग अने बे हाथ सिवाय तो कांई पण काम थाय नही." एवं विचारी में मारी एक आंख घराणे मूकी. अने तारा पिता पासेथी द्रव्य लीधुं. ते शेठ ज्यां सुधी आ नगरमा रह्या, त्यां सुधीमां मने द्रव्य मन्यु नहीं. पछी तारा पिता मारी एक आंख लईने पोताने वतन चाल्या गया, हवे मारी पासे द्रव्य थयुं छे. तो ते द्रव्य लई मने मारु नेत्र सत्वर सोंपी दे, कारण के एक नेत्र विना मारु मुख शोभतुं नथी." ते धूर्त्तना आवां वचन सांभळी रत्नचूडे पोताना मनमां आ प्रमाणे चिंतव्यु-"आ माणसे जे का, तेवू में कदि पण सांभन्युं नथी, तो हवे शुं करवं? अथवा आवी चिंता शा माटे करवी? जे भावी हशे ते थशे. हमणां प्राप्त थयेलुं आ द्रव्य शा माटे छोडी देवू जोईए?" आq मनमां चिंतवी तेणे ते द्रव्य ग्रहण करी पेला धुताराने का के, "काले सवारे तमारे मारे उतारे आवq."
ते पछी रत्नचूड कुमार चौटामां फरतो हतो, तेने जोई बीजा चार धूर्त वणिको आ प्रमाणे वाद-विवाद करवा लाग्या. तेओमां एके का के, "समुद्रनुं जळ अने गंगानदीनी वेळु मापी शकाय छे पण स्त्रीचें चरित्र मापी शकातुं नथी." बीजाए कडं, "हे मित्र, एम न बोलवू. जेवू स्त्रीचरित्र मापी शकाय तेवू नथी, तेवू ज समुद्रनुं जळ अने गंगानदीनी रेती पण मापी शकाय तेम नथी." त्रीजाए का, "अरे! आम उच्छृखळपणे केम बोले छे? तुं प्राचीन विद्वानोना करेला सुभाषितो जाणतो नथी. कर्वा छे के, "जेओ सुख, दुःख, जय, पराजय, जीवित अने मरण जाणी शके छे, तेवा तत्त्ववेत्ताओ पण स्त्रीना चरित्रनी अंदर जरूर मुंझाई जाय छे. अपार समुद्रनो पार मेळवी शकाय छे, पण स्वभावे वक्र एवी
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा स्त्रीओना दुष्ट चरित्रनो पार मेळवी शकातो नथी. तेथी समुद्रना जळना अने गंगानदीनी रेतीना मापना पारंगत एवा केटलाएक बुद्धिमान् सत्पुरुषो आ पृथ्वी उपर रहेला छे. पण स्त्रीचरित्रना पारंगत विद्वानो मळता नथी." ते वखते चोथा माणसे का, "जुवो, आ कोई बुद्धिमान् आव्या छे. ते आपणा संदेहने दूर करी आपशे. हवे उद्धत वाद-विवाद करशो नहीं." पछी पेला त्रण वणिकोए साथे मळीने चोथा वणिकने फरीवार कह्यु के, "जो ते अमारूं कहेलुं माप कही आपे, तो ते खरा बुद्धिमान् कहेवाय." चोथा वणिके का, "तमारे जे माप करवानी रुचि छे, ते माप आ पुरुष पोतानी बुद्धिथी करी आपशे. बुद्धिनी आगळ मुश्केल शुं छे?" पछी ते त्रणे वणिको बोल्या, गंगानदी तो अहींथी दूर छे. तेथी ते विषे शुं कहेवू? परंतु आ समुद्र तो समीपे रहेलो छे. तेना जळनुं माप आ पुरुषनी पासे करावी दे." पछी ते चोथा माणसे कुमार रत्नचूडने एटलो बधो चडाव्यो के जेथी तेणे समुद्रना जळनुं माप करी आपवा कबूल कयु. एटले चारेजणा एक थई बोली उठ्या के, "जो तुं समुद्रना जळनुं माप करी आपीश तो अमारी बधी लक्ष्मी तारी, अने जो तुं नहीं करी शके तो अमो बधा तारी लक्ष्मी ग्रहण करीशं." आ प्रमाणे कही ते शठ हृदयवाळा वणिकोए ते विषे साक्षीओ कर्या. ते समये रत्नचूडे विचार्यु के, "मारा पिता रत्नाकर शेठे पूर्वे आ नगरना लोको जेवा कह्या हता, तेवा ज तेओ नीवड्या. हवे हुं मारे उतारे जाउं. आ नगरनो राजा पण तेवो ज छे. जो कदि ते राजा पण मने संकटमां नांखशे, तो पछी मारी शी गति थशे?" आ प्रमाणे चिंतवी ते सरळहृदयवाळो रत्नचूड पोताने स्थाने आव्यो अने त्यां ते आवेला संकटमाथी पोतानो मोक्ष (छुटकारो) शी रीते थाय? तेनो आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो." ।।७५५।। कहेवत छे के, जेम दावानळनो उपाय सामो दावानळ लगाडवाथी थाय छे, तेम आ धूर्त लोकोनो पराभव अति धूर्तबुद्धिवाळा माणसथी थशे अने ते अति धूर्तबुद्धिनुं स्थान वेश्यानुं घर होय छे." आईं चितवी ते रणघंटा नामनी वेश्याने घेर गयो. पेला जुगारीए आपेला हजार सौनैया तेणे वेश्याने अर्पण कर्या. तेथी संतुष्ट थयेली वेश्याए तेनुं उच्च प्रकारे सन्मान कयु. क्रीडाना कौतुकथी रहित एवा तेने जोईने रणघंटा वेश्या बोली के, "हे स्वामिन्! तमे चिंतातुर केम देखाओ छो? तेनुं कारण कहो." पछी रत्नचूडे बधी यथार्थ वात कही तेनो उत्तर पूछ्यो, त्यारे दानने वश थयेली वेश्याए तेने आ प्रमाणे सत्य वात जणावी. "हे सुंदर पुरुष, सांभळो-कदि दैवयोगे कोई परदेशी माणस आ नगरमां आवी चडे, तो तेनुं धन ए धूताराओ अवश्य पडावी ले छे. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा ते पडावेला धनमांथी एक भाग राजा लई ले छे, बीजो भाग मंत्रीने मळे छे. त्रीजो भाग नगरशेठने मळे छे, चोथो भाग कोटवाळने मळे छे, पांचमो भाग पुरोहित ले छे अने तेनो छट्ठो भाग मारी माता (अक्का)ने मळे छे. काराण के ते तेओने सर्व प्रकारनी बुद्धि आपनारी छे. हवे तमारे स्त्रीनो वेश पहेरवो. पछी आपणे बंने मारी माता पासे जईए. त्यां रह्या छतां तमे मारी माताना उत्तर सांभळशो." पछी रत्नचूडे स्त्रीनो वेश पहेर्यो. वेश्या रणघंटा तेनी साथे रात्रे पोतानी माताना घरमां गई. ते स्त्रीवेष धारी रत्नचूडने देखी यमघंटा बोली-"पुत्री, आ बाळा कोण छे?" रणघंटा बोली, "माता, आ बाळा रूपवती नामे श्रीदत्त श्रेष्ठीनी पुत्री छे, ते मारी सखी छे. ए मने अनेकवार मळे छे. आजे ते मने दिवसे मळी न हती, तेथी अत्यारे रात्रे मळवाने आवी छे. तेणीने लईने हुं तमारी पासे आवी छं." आ वखते जेमणे कपट करी रत्नचूडनुं सर्व करीया| लई ली, हतुं. ते पेला चार धूर्त वणिक यमघंटाने घेर आव्या. तेमने उत्तम आसन उपर बेसाडी यमघंटाए पूछ्युं, "हे वणिको, मारा सांभळवामां आव्युं छे के कोई विदेशी वहाणवटी वेपारी अहीं आव्यो छे?" तेओए उत्तर आप्यो, "हा, आव्यो छे." यमघंटा पुनः बोली, "तो तेनाथी तमोने लाभ थयो के हवे थवानो छे? ते कही आपो." तेओ बोल्या, हजु लाभ थयो नथी." वेश्याए कडूं, "शी रीते?" पछी तेओए पोतानुं सर्व कपटचरित्र कही संभळाव्यु. ते सांभळी यमघंटा बोली, एथी तो तमोने अवश्य हानी थशे." तेओए पूछ्युं, "शी रीते हानि थशे?" यमघंटा बोली, "ते गुप्त वात अत्यारे रात्रे न कहेवाय. कडुं छे के, दिवसे छुपी वात बराबर तपासीने बोलवी अने रात्रे तो बोलवी ज नहीं. कारण के महान धूर्तलोको रात्रे फर्या करे छे. ते विषे वडना वृक्ष नीचे रहेला एक वररुचि नामना माणसने वीती हती." तथापि ते धूतॊए अति आग्रह कर्यो, एटले यमघंटा चोतरफ जोईने बोली, "तमोए इच्छित वस्तुओथी ते मुसाफरनुं वहाण पुरी देवा कबूल कयुं छे, तेथी तमोने मोटी हानि थशे." ते धूर्त बोल्या, "अमारा घरमा घणी खोटी वस्तुओ छे. तेनाथी तेना कहेवा प्रमाणे तेनुं वहाण अमो पुरुं करी दईशुं." बुद्धिवाळी यमघंटा बोली, "जो ते माणस मच्छरना अस्थिथी पोता वहाण पुरवायूँ कहेशे, तो तमे शुं करशो?" तेओ बोल्या, "तेनामां एवी बुद्धि क्यांथी आवशे? कारण के, ते हजु बाळक छे. लोकमां वृद्ध माणसोने बुद्धि होय छे. कडुं छे के, "एक वृद्ध माणस जेटलं जाणे छे. तेटलुं कोटी युवानो पण जाणता नथी. कदि कोई राजाने लात मारे, तो पण ते माणस वृद्ध वाक्यथी पूजाय छे" अक्का यमघंटा फरी
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथान्तर्गत रोहकनी कथा
बोली, "ते वात एकांते समजवी नहीं. कोई बाळक पण बुद्धिमान् होय छे. पूर्वे एक रोहक नामनो बुद्धिमान बाळक हतो. " ।। ७७९ । । ' ते रोहक कोण हतो?' एम ते धूर्त वणिको पूछ एटले ते वेश्या बोली—
रोहकनी कथा
उज्जयिनी नगरीनी पासे नट नामनुं एक गाम छे तेनी अंदर कुशीलव नामे एक नट रहेतो हतो. तेने प्रेमवती नामे स्त्री हती. तेमने रोहक नामनो एक भारे बुद्धिशाळी पुत्र हतो. ते रोहक बाळपणाने लईने सदा विविध जातनी क्रीडा करतो हतो. ते भोजन वखते आवतो, त्यारे तेनी माता तेने कहेती के हे वत्स, तुं वेळासर घेर आवजे, नहीं तो तने भोजन आपीश नहीं, तो पण ते असूरो आव्या करतो; तथापि छेवटे माता तेने भोजन आपती. एकदा आ संसारनी अनित्यताने लईने तेनी माता मृत्यु पामी. त्यारे तेनो पिता कुशीलव रुक्मिणी नामनी कन्याने परण्यो. पूर्वनी जेम क्रीडा करी असूरो आवता रोहकने जोई ते अपरमाताए पण तेने तेनी सगी मातानी जेम कह्युं. रोहक पोतानी सगी माताना जेवो विश्वास राखी पूर्वनी माफक असूरो आव्यो; परंतु ते अपरमाता तो भोजन वेळा वीती जतां द्वार बंध करीने बहार चाली गई अने तेने भोजन न आप्युं. एवी
ते ते. रोहक बाळकने कोईवार सवारनुं भोजन अने कोईवार साजनुं भोजन न मळवाथी ते शरीरे दुर्बळ थई गयो. एक वखते तेने दुर्बळ थयेलो जोई तेना पिताए. पूछ्युं के, "वत्स, शुं तुं तारी माताने संभारे छे? के जेथी तुं दुर्बळ थयेलो देखाय छे." रोहक बोल्यो, "हे तात, सत्य भाषण करनारी माता प्राप्त थतां हवे असत्य भाषण करनारी मातानुं स्मरण शी रीते इच्छाय?" पिताए कह्युं, "तारी आ माता सत्य भाषण करनारी शी रीते छे? ते कहे." रोहक बोल्यो, "हे तात, मारी ते पूर्वनी माता 'हुं तने भोजन आपीश नहीं' एवं कहीने पण ते मने भोजन आपती हती, तेथी ते असत्य बोलनारी हती अने आ माता 'तने भोजन नहीं आपुं.' एम कहने पछी ते मने भोजन आपती नथी, तेथी आ माता सत्य भाषण करनारी छे." पुत्रना आ वचन सांभळी ते कुशीलव रोहकने पोतानी साथै भोजन करावा लाग्यो. ते पछी ते अपरमाता स्नान मान वगेरेथी रोहकनो आदर करती नहि.
एक वखते पोतानी अपरमातानुं अपमान करावाने रात्रे असूरा आवेला पिताने रोहके कह्युं के, 'जुओ, जुओ, कोई आ पुरुष घरमांथी चाल्यो जाय छे." रोहकनुं ते वचन सांभळी कुशीलव ते नवी स्त्री रूक्मिणीनी उपर रागरहित थई गयो. पोताना पति रागरहित थवानुं कारण जाणी ते रूक्मिणीए रोहकने कह्युं के, श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा "हे वत्स, तुं हमणां मने तारा पितानुं मान अपाव." रोहक बोल्यो, "जो तुं मारी बराबर बरदास करे, तो हुँ तने पिता- मान अपावं. ते सिवाय कदि पण नहीं." त्यारे रूक्मिणीए कह्यु, "वत्स, हुं तने हमेशां दिवसे त्रणवार भोजन आपीश अने एकवार स्नान करावीश. जो तेम न करूं, तो मने देवना सोगन छे." ते पछी पोतानी अपरमाताने मान अपाववा रोहके एक वखते पोताना पिता प्रत्ये पडछायाने उद्देशीने कह्यु के, "जुओ, आ कोई पुरुष आव्यो छे." ते सांभळी पिता कुशीलवे विचायु के, "आ पुत्रे प्रथम जे पुरुष दर्शावेलो ते पण आवो ज पुरुष हशे. तेथी मारी प्रिया रूक्मिणी सर्व रीते निर्दोष छे." ।।८००।। आq विचारी त्यारथी कुशीलव पोतानी प्रिया रूक्मिणी उपर रागी थयो. बुद्धिने वश थई गयेली रूक्मिणी ते पछी रोहकनी भक्ति करवा लागी.
एक वखते रोहक पोताना पितानी साथे उज्जयिनी नगरी जोवाने गयो. त्यां पिताए तेने जणाव्यु के, "हे वत्स, उज्जयिनी नगरीमां मने घणी वेळा लागशे, तेथी तारे पाछा वळतां सिप्रा नदीनी वच्चे रोकावू." रोहक ते प्रमाणे कबूल करी अति विशाळ एवी उज्जयिनी नगरी जोई पितानी राह जोवाने सिप्रा नदीमां जईने बेठो. ते नदीमां बाळक्रीडाने वश थई तेणे बधी नगरी नदीनी रेतीवती बनावी. पछी जेवामां त्यां ते रह्यो हतो, तेवामां अरिकेशरी नामे राजा त्यां आवी चड्यो. राजाने नजीक आवेलो जोई रोहक क्षोभरहित थईने बोल्यो, "हे नाथ, जाणे अनाथ होय तेवी आ मारी नगरीने केम भेदी नाखो छो?" रोहकनुं आवं उदार वचन सांभळी राजाए आगळ जोयु. त्यां रेतीनी बनावेली पोतानी रमणीय नगरी तेना जोवामां आवी. ते रोहकनुं सार्थक वचन सांभळी अने तेनुं अद्भुत विज्ञान जोई 'आ बाळक बुद्धिमान छे' एम जाणी ते चित्तमां चमत्कार पामी गयो. पछी राजाए पोताना सेवकोने पूछ्युं के, "आ बाळक कोण छे अने कोनो पुत्र छे?" सेवकोए का के, "आ कुशीलव नामना नटनो रोहक नामे पुत्र छे." पछी राजा बीजे मार्गे जई अने बहार क्रीडा करी हर्ष पामतो पोतानी नगरीमा गयो अने ते बाळक रोहक पण पोताने गाम गयो. राजा अरिकेसरीने चारसो अने नवाणुं मंत्रीओ प्रथमथी हता अने हवे ते एक महामंत्रीने राखवा इच्छतो हतो. चालाक राजाए ते रोहकनी बुद्धिथी परीक्षा करवा माटे कोई एक सेवकने नटगाममां मोकली त्यांना लोकोने आ प्रमाणे कहेवडाव्यु. "अमारे निवास करवा माटे एक वस्तुनो बनेलो विस्तारवाळो, उंचो अने स्तंभ वगरनो एक प्रासाद करावो." आवो राजानो अशक्य आदेश मानी नटगामना बधा लोको
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एकठा मळी विचार करवा लाग्या, पण कोईने तेवी बुद्धि सूझी नहीं; ते वखते रोहके आवी पोताना पिताने कह्युं के, "हे पिता, भोजन करवा उठो, मोडुं थई जाय छे." कुशीलवे कह्युं, "वत्स, तने भोजन सांभरे छे, पण मने सांभरतुं नथी, कारण के राजाए आ गामना वासीओने अघटित आदेश करेलो छे. रोहके पूछयुं, "हे तात, राजानो केवो आदेश छे? के जेथी आ गामना बधा लोको चिंतातुर जेवा देखाय छे." पछी कुशीलवे राजानो ते आदेश कही बताव्यो. ते सांभळी रोहके सर्व लोकोने कह्युं के, "तमे सर्वे प्रथम भोजन करी ल्यो, पछी हुं तमोने तेनो उपाय कहीश. " आथी सर्व लोकोए भोजन करी लीधुं. भोजन थई रह्या पछी रोहके पेला राजाना माणसने जवाब आप्यो के, "आ पर्वत उपर तेवी लांबी अने उंची शिला छे, ते शिलाथी राजाना कहेवा प्रमाणे प्रासाद थई शकशे; परंतु तेवो महेल बनाववामां जे द्रव्य वगेरे सर्व वस्तुओ जोईशे, ते राजाए आपवी पडशे." ते राजसेवके आवीने आ सर्व वात राजाने कही.
पुनः एक वखते राजाए एक घेटो रोहकनी पासे मोकल्यो अने कहेवडाव्यं के, "कार्यने जाणनारा तमारे आ घेटानुं प्रतिदिन पोषण करवुं, पण ते घेटो शरीरे जाडो थवो न जोईए." रोहक ते प्रमाणे ते घेटानुं पोषण करवा लाग्यो अने साथै तेने वरू बताववा लाग्यो, आथी ते घेटो जाडो थई शक्यो नहीं. आ वृत्तांत जाणी राजाए फरीवार रोहकनी पासे कुकडो मोकल्यो अने कहेवडाव्यं के, "ते कुकडो बीजा कुकडा वगर एकलो युद्ध करे तेम तमारे करवुं." कृतज्ञ अने कलावान् रोहके ते कुकडानी सन्मुख दर्पण धर्यु. पोताना देहनुं प्रतिबिंब जोई ते कुकडो एकलो ज घणो वखत युद्ध करवा लाग्यो. पछी एक वखते राजाए एक तलनुं गाडुं भरी मोकलाव्यं अने कहेवडाव्यं के, "आ तलने पीली तेनुं तेल करी अमोने अर्पण करो; परंतु तमारे आ तलना दाणा उंधे मापे ग्रहण करवा अने सवळे मापे तेनुं तेल आपवुं." रोहके दर्पणना पाछला भागथी तल लई सवळे भागे तेनुं थोडुं तेल आप्युं. पछी राजाए एक मांदो पडेलो हाथी मोकलावी कहेवडाव्युं के, ज्यारे आ हस्तीनुं मृत्यु थाय, त्यारे मने कहेवुं नहीं, तेम आदरथी कह्या वगर पण रहेवुं नहीं." ते हस्ती मृत्यु पाम्यो त्यारे ते बुद्धिमान् रोहके राजाने विज्ञप्ति करी के, "हे स्वामिन्! आपे मोकलावेल हाथी घास खातो नथी, पाणी पीतो नथी अने श्वास- उच्छ्वास पण लेतो नथी." राजा बोल्यो, "त्यारे शुं
मृत्यु पाम्यो छे?" रोहके कह्युं, "ए तो आप भले कहो, पण हुं मारा मुखे कहेनार नथी." आ प्रमाणे कहीं रोहक पोताने घेर चाल्यो गयो. बीजे दिवसे
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राजाए रोहकँने एक रेतीनी मोटी वाट बनाववाने कह्युं. रोहके ते बनाववी अशक्य जाणी राजाने कह्युं के, "पूर्वनी जुनी वाटनो एक खंड ( कटको) मोकलावो के जेथी तेना अनुमानथी हुं नवी वाट बनावुं." पुनः राजाए एक माणस मोकली रोहकने कहेवडाव्युं के, "अमारा नगरमां मीठा जळनो कूवो नथी तो तमारा गाम मांथी कोई मीठा जळनो कूवो अहिं मोकलावो." रोहके विचारीने ते राजसेवकने उत्तर आप्यो के, "अमारा गामडाना कूवाओ नगरीमां लावतां तेओ भयथी पाछा वळे छे, तो तमे नगरीनो एक कूवो प्रथम अहिं मोकलो के जेथी गामडानो कूवो तेनी साथे बांधीने हुं तमारी नगरीमां लावुं." रोहकनां आ वचनो सांभळी राजाए विचार्यं के, "आ रोहक खरेखर बुद्धिमान छे."
एक वखते राजाए परस्पर विरुद्ध एवी व्यवस्थावडे रोहकने पोतानी पासे सत्वर बोलाव्यो. तेने कहेवडाव्युं के, "तेणे भुख्या आववुं नहीं, तेम भोजन करीने पण आववुं नहीं, तर्ष्या आववुं नहीं, तेम जळपान करीने पण आववुं नहीं, मलिन शरीरे आववुं नहीं, तेम स्नान करीने पण आववुं नहीं, कोई वाहनमां बेसीने आववुं नहीं, तेम पगे चालीने पण आववुं नहीं, अमार्गे आववुं नहीं, ते मार्गे पण आववुं नहीं, रात्रे आववुं नहीं, तेम दिवसे पण आववुं नहीं, कृष्णपक्ष के शुक्लपक्षमां पण आववुं नहीं, छांये के तडके पण आववुं नहीं अने खाली हाथे के हाथमां भेट लईने पण आववुं नहीं." राजाना माणस पासेथी आ सर्व वचनो सांभळी ते रोहक शीतळ फळनो स्वाद करी क्षुधा अने तृषानी बाधाथी रहित थई, दूध पी, श्रीखंड चंदन चोळवाथी निर्मळ बनी, घेटा उपर चडी बे पगे पृथ्वीनो चोतरफ स्पर्श करतो जेमां चंद्र देखातो नही एवी शुक्लपक्षना पडवेने दिवसे संध्याकाळे मस्तक उपर चालणी राखी अने हाथमां मृत्तिका लई राजानी पासे आव्यो. तेनी आगळ मृत्तिका जोई राजाए पूछयुं के, 'आ शुं छे?' रोहके कह्युं, "जेना तमे पति छो, ते आ मृत्तिका हुं भेट तरीके लाव्यो छं." पछी राजा रोहने लई पोताना वासगृहमां गयो. त्यां गंगाना तटना जेवी कोमळ शय्या उपर राजा सूई गयो. पछी रोहक निद्राने पामेला राजाना चरण चांपतो चांपतो शांतपणाने अने बाळपणाने लईने निद्राने आधीन थई गयो. थोडीवार पछी राजाए जाग्रत थई तेने बोलावा मांड्यो तो पण ते बोल्यो नहीं, एटले तेने लात मारीने जगाड्यो. पछी राजाए कह्युं, "तुं केम सुई गयो हतो?" रोहके कयुं, "हुं सुतो ज नथी.” राजाए कह्युं, "त्यारे ते मने उत्तर केम न आप्यो?" रोहक बोल्यो, "हुं ते वखते चिंतातुर हतो, तेथी में उत्तर आप्यो नहिं." राजाए कह्युं, "तारे
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा शी चिंता हती?" रोहक बोल्यो, "हे राजा, सांभळो मने एवी चिंता थई के, बकरीना उदरमांथी लींडी नीकळे छे, ते कोण बांधे छे?" राजाए कडं, "तेनो खुलासो तुं पोते ज कर." रोहक बोल्यो, "ते बकरीना उदरमां संवर्तक नामनो वायु छे. तेथी हे राजा, तेनी विष्टा गोळाकार थई जाय छे." पछी रात्रिने बीजे पहोरे पण प्रथमना पहोरनी जेम बन्यु एटले राजाए तेने चूंटी भरीने जगाड्यो. जाग्रत थया पछी राजाए रोहकने चिंता- कारण पूछ्युं, एटले रोहक बोल्यो, "हाथी कोठा आखं फल खाई जाय छे अने ते पार्छ आलुं ने आलुं छोडी दे छे, पण ते फळनी वच्चेनो सार (गर) पछी देखातो नथी. ते क्या जातो हशे? ए चिंता मारा हृदयमां थाय छे." राजा बोल्यो, "तेनुं कारण तें सारी रीते जाण्युं छे, माटे तुं पोते ज कहे." रोहक बोल्यो, "हाथीना उदरमा रहेला अग्निथी ते सर्व पची जाय छे" पछी त्रीजे पहोरे पण ते रोहक प्रथमनी जेम सुई गयो. राजाए तेने वस्त्रनी झापट मारी जगाड्यो, ते वखते तेणे चिंतानुं कारण पूछतां का के, "हे राजेंद्र खटाशने देखी उज्जवळ दाढोमांथी पाणी छूटे छे, तेनुं शुं कारण हशे?" राजाए कडं, "तेनुं कारण तुं पोते ज कहे." रोहके का, "दाढो दूधमांथी उत्पन्न थयेली छे, तेथी ते खटाशने जोईने जळ छोडे छे." एवी रीते चोथे पहोरे पण रोहकने निद्रा आवी. राजाए तेने शब्दथी तरछोडीने जगाड्यो. पछी चिंतानुं कारण पूछतां रोहक बोल्यो, "हे राजा, तमारे केटला बाप छे? ते विषे मने चिंता थाय छे." ते सांभळी राजा खेदातुर थई बोल्यो, "अरे! आ शुं बोले छे?" रोहक बोल्यो, "हे राजा, तमारे पांच बाप छे. जो तमे खोटुं मानता हो, तो ते विषे तमारी माता ज प्रमाणरूप छे." राजाए पूछ्युं, ते पिताओ कया? त्यारे रोहक बोल्यो, "पहेलो कुंभार, बीजो वींछी, त्रीजो धोबी अने चोथो अश्वशाळानो पाळक." पछी राजाए जईने पोतानी माताने पूछ्युं के, "मारे केटला बाप छे, ते कहो." राजमाता बने काने हाथ दईने बोली, "वत्स, तें आ शुं कां? जगतमां मान्य एवा तारे एक ज पिता हता." माताए आ प्रमाणे का, तो पण राजाए कदाग्रह छोड्यो नहीं, एटले तेणीए तेने कर्वा के, "ऋतुस्नान कर्या पछी मने कुंभकार वगेरेनुं दर्शन थयुं हतुं." आ सांभळी ते चमत्कार पाम्यो. पछी तेणे पुनः आवीने रोहकने पूछ्युं के, "तें ए शी रीते जाण्यु?" रोहके का के, "तमोए चारे पहोरे मने लात वगेरे मारीने जगाडेलो, ते उपरथी में ते चारेनुं अनुमान कयु. लोकपाळनी जेम उत्तम, सर्व दिशाओना स्वामी अने पृथ्वी उपर प्रख्यात एवा श्री जितशत्रु राजा ते तमारा पांचमा पिता हता." रोहकना आ वचन श्री बिमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सोमशर्माना पितानी कथा सांभळी राजाए ते रोहकने पोताना सर्व मंत्रिओमां मुख्य मंत्री बनाव्यो अने राज्यनी सर्व चिंता तेनी उपर आरोपित करी, मंत्री रोहकनी बुद्धिना बळथी ते राजाए मोटा प्रौढ राजाओने पण सहेलाईथी साध्य करी लीधा तेथी "शौर्याद्बुिद्धिबलंवरम्" शौर्यना करतां पण बुद्धिनुं बळ श्रेष्ठ छे.
वेश्या यमघंटा कहे छे. "आ दृष्टांत प्रमाणे केटलाएक बाळको पण बुद्धिना बळवाळा थाय छे. तेथी तमारे बाळकमां मुग्धता होय, एम एकांते मानवू नहिं." आ प्रमाणे वेश्या यमघंटाना वचन सांभळी ते चारे धूताराओ जेवामां उठीने चालता थया, तेवामां ज पेलो पादुका करनारो कारीगर त्यां हर्ष पामतो आव्यो. यमघंटाए पूर्वनी जेम तेने पूछ्युं. एटले तेणे पोतानो सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. पछी यमघंटा बोली के, "तने तो लाभ थयो देखातो ज नथी." ते कारीगरे कडं, "मने तो आमां घणो लाभ थशे. कारण के तेनुं सर्वस्व ग्रहण करवाथी मने तो हर्ष ज थवानो." यमघंटा बोली, "तारा जेवा हीनजातिना माणसने आवी वधारे पडती वांछाथी उलटो मूळमांथी ज विनाश थशे. तेवी रीते सोमशर्माना पिताने थयुं हतुं." तेणे पूछ्युं, "ते सोमशर्मा कोण हतो? अने तेना पितानो मूळमांथी नाश शी रीते थयो?" यमघंटा बोली-ते दृष्टांत कहुं ते सांभळ. ।।८७७।।
सोमशर्माना पितानी कथा पूर्वे एक मोटा गाममां खुशामतीआ वचन बोलनारो एक बटुक ब्राह्मण फरतो हतो. एक वखते नवा साथवाना पर्वने दिवसे तेने घणो साथवो लई सायंकाळे कोई कुंभारने घेर गयो. त्यां ते साथवानो एक घडो भरीने पोते सुई गयो. तेणे सुता सुता विचार कर्यो के, "आटलो बधो साथवो वहेंचीने हुं एक कुकडी लईश. ते कुकडीने थोडा वखतमां घणां बच्चाओ उत्पन्न थशे. पछी ते बच्चाओ वहेंचीने एक गाय लईश. ते गायने वाछरडांओ थशे, ते वहेंचीने एक घोडी लईश, ते घोडीमाथी मारे घणा घोडाओ थशे, पछी ते बधा घोडाओने वेचवाथी मने घणुं द्रव्य प्राप्त थशे. ते द्रव्यवडे हर्ष आपे तेवू एक सुंदर घर करावीश. पछी शुद्ध ब्राह्मणना वंशमां उत्पन्न थयेली रुक्मिणी नामनी कन्याने परणी तेणीनी साथे उत्साहथी विषयसुख भोगवीश. त्यारबाद कोई सारा पुण्ययोगे मने श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न थशे. ते पुत्रनुं नाम उत्सव सहित सोमशर्मा पाडीश. ते काळे घोडाना क्रय-विक्रयना वेपारने लईने मने राजानुं मान मळशे. तेने लईने लोको पण मारी भक्ति करशे. आवी रीते बधो काळ सुखमय थतां कोईवार मारा 60
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सुबुद्धिनी कथा प्रिय बाळक सोमशर्माने रोतो जोई हं मारी प्रियाने कहीश के. अरे आ बाळकने केम रोवडावे छे? त्यारे ते मने आ प्रमाणे कहेशे के, "जो ए बाळक तमने वहालो होय, तो हाल तमे ज तेने राखो." तेणीना आवा वचन सांभळी मने जरूर क्रोध उत्पन्न थशे. पछी हुं मारी प्रियाने पगथी पाटु मारीश. ते दुष्टबुद्धिवाळा बटुके प्रथमना बधा मनोरथो चित्तमां ज चिंतव्या पण जे स्त्रीने पगथी पाटु मारवायूँ हतुं, ते तेणे प्रत्यक्ष करी बताव्युं, तेथी पेला साथवाना भरेला घडाना सो ककडा थई गया. तेमांथी केटलोएक साथवो पवने उडाडी दीधो अने केटलोएक भस्मरूप थई पृथ्वीनी रक्षा (राख)मां पड्यो. एवी रीते तेनो बधो साथवो लोभना मूळने लीधे समूळगो नाश पामी गयो. हे कारीगर! तारी पण ए बे पादुका हवे जवानी ज समजजे कारण के, तने ते बंने पादुका उपर घणो लाभ थयेलो छे."
वेश्या यमघंटानां आ वचनो सांभळी ते कारीगर बोल्यो-"जो ते मने खुशी करीने मारी पादुका लेशे तो मने घणो लाभ थशे." यमघंटा बोली, "अरे! ते माणस हमणां ते तने एक ज वाक्यथी खुशी करशे. कारण के-हाल आपणा अन्याय राजाने घेर पुत्रनो जन्म थयो छे. एटले ते माणस तने एटलुंज पूछशे के, "राजाने घेर पुत्र थवाथी तुं खुशी छे के नहीं?" ते वखते तारे खुशी ज बताववी पडशे. यमघंटाना आ वचन सांभळी ते कारीगर पोताने घेर गयो. तेवामां पेलो जुगारी आव्यो. यमघंटाए पूछवाथी तेणे पोतानो वृत्तांत जणावी दीधो. ते सांभळी यमघंटा बोली, "अरे! तारी क्रूरबुद्धि छे. तो पण ते ते माणसने जे द्रव्य आपी दीधुं. ते योग्य न कयु." जुगारी बोल्यो, "में तो तेनुं सर्वस्व लई लेवानो कोलकराररूपे ठराव कर्यो छे." यमघंटा बोली, "ते तारुं द्रव्य गयुं समजजे." जुगारीए कडं, "आ समग्र भुवनमा हुँ कोई एवो मनुष्य जोतो नथी के जे मारु द्रव्य लई शके." यमघंटाए का-"अरे! तुं आवो महान् गर्व शा माटे राखे छे? आ पृथ्वी उपर जे बुद्धिमान् पुरुष छे. ते विधि (विधाता)नी लक्ष्मीने पण लई शके छे. एक सुबुद्धि नामना पुरुषे पोतानी बुद्धिथी तेवू काम कयुं हतुं."।।९०१।। जुगारीए पूछ्युं, "ते सुबुद्धि कोण हतो?" यमघंटा बोली
सुबुद्धि मंत्रीनी कथा "पृथ्वीभूषण नामना नगरमां पृथ्वीचंद्र नामे एक राजा हतो. तेने सद्बुद्धिना समूहथी प्रकाशमान एवो सुबुद्धि नामे मंत्री हतो. ते हमेशां राज्यनी चिंता करनारो अने राजा तथा प्रजाने प्रिय थई पड्यो हतो. एक समये राजाने घेर पुत्रजन्म थतां मोटो उत्सव. प्रवर्ती रह्यो. ते कुमारनी षष्ठी (छट्ठी)नुं जागरण श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सुबुद्धिनी कथा आवतां, ते मंत्री तेनुं भाग्य जोवाने गयो. त्यां तांबुल आपी अने धवल-मंगळ करी स्त्रीवर्ग सुई गर्यो, त्यारे आकाशमां आ प्रमाणे ध्वनि थयो." "आ राजकुमार केटलोक काळ गया पछी एक शिकारी भील थशे अने ते सदा एक जीवने मारी शकशे," आवो ध्वनि सांभळी ते सुबुद्धिमंत्रीए पोताना हृदयमां चिंतव्यु के, "आ कुमार राजाने घेर जन्म्यो छे, पण ते राज्यने योग्य देखातो नथी." ते पछी पुनः राजाने घेर बीजो कुमार जनम्यो. तेनी षष्ठी जागरण आवतां पण ते सुबुद्धि मंत्री रात्रे त्यां हाजर रह्यो. ते वखते तेणे आकाशमां आ प्रमाणे ध्वनि सांभल्यो. "आ राजकुमार कोळी थशे अने तेने घेर सदा एक बळद रहेशे." आवो ध्वनि सांभळी ते मंत्रीए हृदयमां चिंतव्यु के, "आ कुमार पण भाग्यवान् नथी." ते पछी एक समये राजाने त्यां पुत्रीनो जन्म थयो. तेणीना षष्ठीना जागरणमां पण सुबुद्धिमंत्री हाजर रह्या. त्यां तेणे आ प्रमाणे आकाशमांथी शब्द सांभन्यो. "आ राजपुत्री अनुक्रमे वेश्या थशे अने तेणीनी पासे प्रतिदिन एक पुरुष आवशे." आ ध्वनि सांभळी मंत्रीए विचायु के, "जो आवी रीते सर्वनी दशा थशे, तो राज्यनो क्षय थई जशे." आवी चिंता करतो ते मंत्री गंभीरहृदये रह्यो हतो, तेवामां अकस्मात् 'परचक्र चडी आव्युं. ते समये राजा पृथ्वीचंद्रने सेवको थोडा हता, तेथी ते लांबोकाळ युद्ध करी धारातीर्थने वश थई एकलो पंचत्वने प्राप्त थयो. ते काळे बंने राजकुमारो मंत्री अने केटलाएक नगरजनो जीव लईने चारे दिशामां नाशी गया. तेवामां उच्छृखळ माणसोए बाळपणाने लीधे राजपुत्रीने पकडी लीधी अने कोई बीजा नगरमां जई जाहेर मार्गे तेणीने वेचवा मूकी. अति अद्भुतरूपवाळी ते राजपुत्रीने देखी एक वेश्याए घणुं धन आपी तेणीने आग्रहथी खरीद करी. पेला नाशी गयेला बंने राजकुमारो शिकारी अने कोळीना जेवां कर्म करनारा थई पड्या. माणसो दुःखे पूराय एवं उदर भरवाने माटे शुं नथी करता? का छे के "दुःखे पुराय तेवा उदरने पुरवा माटे माणस शुं शुं नथी करतो? तेने माटे ते मान छोडी दे छे, शत्रुने सेवे छे, दीन वचन बोले छे. कार्याकार्यनो विचार करतो नथी, नठारा कामनी उपेक्षा करतो नथी, भांडाई करे छे अने नाचवानी कळानो पण अभ्यास करे छे." ते पछी केटलेक दिवसे सुबुद्धिमंत्रीए पोताना सर्व कुटुंबने मेळवी हृदयमां आ प्रमाणे चिंतव्यु के, "हवे मारे बने राजकुमारो अने राजकुमारीनी शोध करवी घटे छे अने तेने माटे योग्य उपाय लेवो जोईए." आq चिंतवी पोताना कुटुंबने कोई उत्तम नगरमां राखी ते शहेरो, गामडाओ, द्रोणो, खेडूतोना 1. शत्रुओनो हल्लो. 2. धारातीर्थ-खड्गनी धार.
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सुबुद्धिनी कथा
गामो अने कस्बाओमां फरवा लाग्यो. एक वखते ते कोई नगरमां गयो. त्यां जीर्णवस्त्र धरनार अने दुर्बळ शरीरवाळा मोटो राजकुमारने देखी ते सुखी तथा दुःखी बनी गयो. ते कुमार पण तेने जोई लज्जाथी नम्रमुख थई गयो. पछी सुबुद्धिमंत्री तेनी पासे आवीने बोल्यो, "हे राजपुत्र, तमारी आवी दुरावस्था केम थई गई?" ते बोल्यो, "दैवयोगे मारी बुद्धि मूढ बनी गई अने तेथी में बीजा बधां काम छोडी शिकारीनुं काम करवा मांड्यु. दैव घणु बळवान् छे. तेमां पण हूं हमेशां दिवसे एक जीव मारुं छु, बीजो जीव मारतो नथी. ते कर्मथी मारी आवी विषम दुरावस्था थई छे. पछी बीजे दिवसे मंत्री सुबुद्धि तेनी साथे बहार गयो. तेवामां ते राजकुमार एक ससलाने जोई तेनी उपर बाण छोडवाने तैयार थयो. मंत्रीए तेने अटकाव्यो. तेवामां अति प्रौढ एवा हरिण वगेरे तेना जोवामां आव्या, एटले पुनः तेमने मारवाने ते तैयार थयो. मंत्रीए तेने फरी पण अटकाव्यो. एवी रीते ज्यारे ज्यारे ते हिंसा करवा तैयार थतो, त्यारे त्यारे मंत्रीए तेने अटकाव्यो. एम करतां संध्याकाळ थयो. एटले त्यां एक हाथीओनुं युथ (टोळु) आवी चड्यु. ते जोई सुबुद्धि मंत्रीए तेने कर्वा के, "आ हाथीओमां जे वृद्ध हाथी होय, तेने पाडी दे." तेणे पोताना 'अमोघ बाणथी प्रथम ते वृद्ध हस्तीने मारी नांख्यो. पछी ते हाथीना कुंभस्थळमांथी मुक्ताफळ लई ते बने घेर आव्या. सुबुद्धि मंत्रीए ते मुक्ताफळोमांथी एक मुक्ताफळ वेच्युं अने तेना द्रव्यथी सारुं भोजन अने वस्त्रो खरीद कां. बीजे दिवसे पण ते राजकुमारे अगाउनी जेम वृद्ध हाथीने मारी नाख्यो. पछी सुबुद्धि मंत्रीए कां, "हे वत्स, हुं तारा बंधुने शोधवा शहेर वगेरेमा जाउं छु, त्यारे अहिं रहीने हमेशा तेवा हाथीनो शिकार करी निर्वाह करवो."
. पछी सुबुद्धि मंत्री पृथ्वीमां फरवा लाग्यो. त्यां कोई नगरमा साथे एक बळद राखी घासने माटे जतां रस्तामां पेला बीजा राजकुमारने जोयो. ते पछी विधिपूर्वक परस्पर वार्तालाप करी-ओळखी घेर जई सुबुद्धि मंत्रीए तेने आदरथी आ प्रमाणे कडं, "वत्स, आ बळदने वेची तेना द्रव्यथी घेबर सहित भात-दाळ वगेरे सारं भोजन घरमां लावो." मंत्री- आ वचन सांभळी राजकुमारे पोताना हृदयमां आ प्रमाणे विचार्य. "आ मंत्री उंची जातनं भोजन खाईने क्यांय चाल्यो जशे पण बळद वगर मारे शिर बोजो उपाडवानुं आवी पडशे. महेमानो पारकी पीडा जाणता नथी. ए सत्य छे. का छे के, "चोर, बाळको, दुर्जन, वैद्य, 1. कदि खाली न जाय तेवू. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सुबुद्धिनी कथा ब्राह्मण, महेमान, नाचनारी, धूर्त अने राजा पारकी पीडा जाणता नथी." तथापि आ पुरुष- वचन मारे उल्लंघन करवू न जोईए. कारण के ते एक रीते श्रेष्ठ मंत्री छे अने वळी बीजी रीते आजे मारे घेर ए अभ्यागत (परोणो-महेमान) थईने आवेल छे." आ प्रमाणे विचारी ते राजकुमारे तेना कहेवा प्रमाणे बधुं कयु. एटले ते बळद वहेंची दीधो. बीजे दिवसे ते ज बळदने पोताना घेर आवेलो जोई राजकुमार विस्मय पामी गयो. ते मुग्ध बुद्धिवाळा कुमारे मंत्रीने ते वात जणावी. एटले मंत्रीए कह्यु के, "आ बळदने वेची द्यो." राजकुमारे ते प्रमाणे कयु. पछी मंत्रीए तेने आ प्रमाणे शिक्षा आपी, "वत्स, जे बळद अहिं आवे तेने तमारे वेची देवो." राजकुमारे तेम करवानुं कबूल कयु.
ते पछी मंत्री पेली राजकुमारीनी तपास करवाने गयो. कोई वेश्याओना घरनी श्रेणीमां ते राजकुमारी तेना जोवामां आवी. तेणीनुं स्वरूप सारी रीते जाणी मंत्रीए कडं, "हे वत्से, तुं कोण छे अने कोनी पुत्री छे? तेणीए का, "हुं राजानी पुत्री छु. कोई कर्मयोगे शत्रुना सुभटोए मने पकडीने वेचतां आ वेश्याओए मने हर्षथी खरीदी छे, तेथी हुं आवी बनी गई छ. तो पण मने एक ज महादुर्भागी पुरुष प्राप्त थाय छे." एटले 'आ राजपुत्री छे.' एवो निश्चय करी सुबुद्धिमंत्रीए तेने आ प्रमाणे शिक्षा आपी, "हे वत्से, जे पुरुष लक्षद्रव्य आपे त्यारे घरमां दाखल करवो."
आ प्रमाणे सुबुद्धि मंत्री पोताना राजाना त्रणे संतानोनी सारी आजीविका करी सुखी थयो.
एक वखते ते मंत्री रात्रे निद्रावश थई सुतो हतो. तेवामां विधिए तेने जाग्रत कर्यो. ।।९५०।। ते जाग्रत थयो तो पण तेणे ज्यारे कांई उत्तर न आप्यो, त्यारे विधिए कडं, "अरे! तने हाल आवी गाढ निद्रा केम आवी छे?" ते बोल्यो, "हमणां हुं निश्चिंत हृदयवाळो थयो छु, तेथी सुई गयो. हे सुंदर, तमे कोण छो अने शा माटे अहिं आव्या छो?" तेणे कडं, "हे भद्र, मने महान विधाता समजी ले. हुं अत्यारे तारी बुद्धिना बंधनमांथी मुक्त थवाने आव्यो छु." मंत्री सुबुद्धि बोल्यो, "तमारा कहेवा प्रमाणे मारा राजाना बाळकोने भले फळ मळे." विधिए कां, "ते खरुं छे, पण मारे तेमने माटे हाथी वगेरे बनावी देवानं शी रीते कर्या करवं?" मंत्रीए कह्यु, ज्यारे तमे अमोने राज्य आपशो, त्यारे ते संकटमांथी तमारो मोक्ष (छुटकारो) थशे, ते सिवाय कदी पण नहीं थाय." विधिए जणाव्यु, "तुं पेला मोटा राजकुमारनी पासे जा अने तेने प्राप्त थयेला
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा, सुबुद्धिनी कथा मुक्ताफळोनो समूह वेचीने तेमांथी एक सैन्य उभं कर. हाथी, घोडा, रथ अने पैदल-एम चतुरंग सेना लई तारा नगरमां लई जई ते शत्रुओने सद्य नसाडी मूकी पुनः तारा राज्यने ग्रहण कर." विधिए कहेलां आ वचनो सांभळी मंत्री सुबुद्धि हृदयमां हर्ष पाम्यो अने तेणे ते प्रमाणे करी पुनः राज्यने प्राप्त कयु. पछी त्यां स्वजन वगेरे सर्वे एकठा मल्या. तेओए मळी राजाना मोटा कुमारनो राज्य उपर पट्टाभिषेक कर्यो. एम तेणे सुबुद्धि मंत्रीनी बुद्धिथी लांबो वखत राज्य कयु.
___ यमघंटा कहे छे, "हे जुगारी, एवी रीते बुद्धिमान् पुरुषो विधिनी लक्ष्मीने पण बळात्कारे लई शके छे, तो पछी तुं शा हिसाबमां? तारुं द्रव्य गजु ज छे. वळी दैवे तारं एक नेत्र पहेलां हरी लीधुं छे अने आवी तारी धूर्तबुद्धिथी तारुं बीजुं नेत्र पण जशे." जुगारी बोल्यो, "हवे मारुं बीजुं नेत्र शी रीते जशे?" यमघंटा बोली, "ते माणस एम कहेशे के, ते जेवी रीते मारे एक घेर एक नेत्र घराणे मूक्युं छे तेवां बीजां घणां नेत्रो मारे त्यां घराणे मूकायेलां छे, तो तारं आ बीजुं नेत्र मने आप, के जे हुं तेनी साथे तोळी अने मेळवीने तने तारुं ते नेत्र सोंपी दउं." तेथी मारे कहेवू पडे छे के, आ तारी खोटी योजना वृथा थवानी छे." ते पछी 'वेश्या यमघंटानी आ बुद्धि सत्य नथी." एम मानतो ते जुगारी चाल्यो गयो.
ते अरसामां पेला चार धूर्त वणिको सत्वर त्यां आव्या. तेमने पण यमघंटाए पूर्वनी जेम पूछ्यं, एटले तेओए ते मुसाफरनी सर्व हकीकत निवेदन करी. यमघंटा हृदयमां विचारी तेमनी आगळ आ प्रमाणे बोली, "तमोए तमारा घरनुं सर्वस्व हठ करीने फोगट गुमावी दीp." तेओ बोल्या, "समुद्रना जळगें माप कोई पण रीते थई शके ज नहि. तेथी ते मुसाफरनी लक्ष्मी अमारा घरमां हवे प्रास थवानी समजी लेजो." यमघंटा बोली, "ते मुसाफर पोतानी बुद्धिथी समुद्रना जळनुं माप कर्या सिवाय पण तमारी लक्ष्मी लई लेशे." तेओ बोल्यां, "एवी ते केवी बुद्धि होय?" यमघंटा बोली, "ते माणस तमने एम कहेशे के, में पूर्वे समुद्रना जळनुं माप करवानें कबूल कयु छे पण ते साथे नदीना जळy माप करवानी प्रतिज्ञा करी नथी, तो तमे तमारी शक्तिथी प्रथम नदीओनुं जळ जूदं करी आपो, ते पछी हुं केवळ समुद्रना जळगें माप करी आपीश.' ते एम कहेशे तो तमे नदीओनुं जळ जूदुं करी शकशो नहीं, एटले समुद्रना जळनुं माप कर्या वगर ते तमारी लक्ष्मी लई. लेशे." तेओए कह्यु, "ते बालिश-मूर्ख मुसाफर पुरुं बोली पण जाणतो नथी, तो तेनामां एवी समृद्धिदायक बुद्धि क्याथी होय?" श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा - शेठाणी अने सोढीनी कथा
यमघंटा बोली, "विद्वान् पुरुषो अति वाचाळ माणसनी साथे वाद-विवाद करता नथी, पण तेओ पोतानी सद्बुद्धिवाळी वाणीथी ते अति वाचाळ माणसने पण सत्वर जीती ले छे; तेथी ते श्रीमान् पुरुष बुद्धिवडे शुद्ध एवा थोडा वचनथी तमोने हरावी देशे. जेम एक शेठाणीए सोढीने जीती लीधी हती." तेओए पूछयुं, "ते शेठाणी कोण हती अने तेणीए सोढीने शी रीते जीती लोधी?" यमघंटा बोली, "ते विषे हुं जे कहुं, ते सांभळो
शेठाणी अने सोढीनी कथा
सुसीम नामना गाममां सदा कजीयाखोर अने पाप उपर प्रीतिवाळी सोढी नामनी एक प्रचंड रंडा रहेती हती. ते कोईनी साथे कजीओ थाय, तेम चालती, बोलती अने जोती हती. कोईनी साथे कजीयो कर्या सिवाय तेणीने अन्न पचतुं नहीं. स्वगृहमां, परगृहमां त्रिवाटे के चोवाटे जे कोई मन्युं, तेनी साथे ते हंमेशां अवश्य कजीयो करती हती. आथी ते गाममां ते कजीयाथी ज प्रख्यात गणाती हती. तेनी राडथी भय पामीने ते अपराध करे; तो पण कोई माणस तेने बोलावतुं नहीं. कह्युं छे के, "उद्यमीने दारिद्र होतुं नथी, जप करनारने पाप लागतुं नथी, मौनथी कजीयो थतो नथी अने जागृत रहेनारने भय लागतो नथी." ।।९८०।। ते सोढीने कजीयो कर्या सिवाय बीजे क्यांय पण प्रीति थती न हती, तेथी ते वढवाड करवाने घणीवार बीजा गामोमां पण जती हती. एक वखते ते कलहकारिणी सोढी एक बळद उपर पलाण नाखी परगाम जवाने माटे तैयार थई अने ते वखते तेणीए दासीने आ प्रमाणे आज्ञा करी. "अरे ! दासी, भोजनने माटे एक माणुं वडीमां पांच माणा लूण नाखीने तेने रांधी नाख. " आ वखते पडखे पाडोशीने घेर कोई स्त्री महेमान थईने आवी हती, ते आ कजीयाखोर सोढीनुं स्वरूप जाणती न हती, तेथी ते सांभळीने तेणेए सोढीने आ प्रमाणे कह्युं, "बहेन, तमोए अन्ननो पाक कदि कर्यों नहीं होय अथवा जोयो नहीं होय, पण शुं कोईवार सांभव्यो पण नथी के जेथी आवुं बोलो छो?" ते महेमान स्त्रीना आ वचन सांभळी सोढीए दासीने कह्युं, "दासी, हवे बहार गाम वढवा जवाथी सर्यु. आपणुं कार्य अहिं ज सिद्ध थयुं. तुं सत्वर स्वस्थ था अने आ बळद उपर नाखेल पलाण उतारी ले." आ प्रमाणे कही ते सोढी कूकडानी जेम शिखा उंची करी प्रहार करवा उछळी, दांत पीसवा लागी, वाघणनी जेम क्रूर देखाव करी लपडाक उगामी दोडवा लागी, भेंसनी जेम आगळ अने पाछळ वारंवार जवा लागी, नृत्य करवामां आसक्त एवी नटीनी जेम देहने हलावा लागी, जाणे दुर्गंध आवती होय श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा-शेठाणी अने सोढीनी कथा तेम नासिका मरडवा लागी, शिरपर मारेली कूतरीनी जेम जलदी चीत्कार शब्दो करवा लागी अने देडकीनी जेम ठेकती ठेकती वारंवार पडवा लागी. जाणे करडवा आवेली सर्पिणी होय, नखवाळी 'नकुली होय अने जाणे गांडी थई होय तेम ते रुदन करती अने अफळाती आ प्रमाणे बोली, "अरे रांड, शुं मारा घरनी पंचात में तने सोंपी छे? लोको पोतानी पंचात छोडीने बीजानी पंचात ज करवा जाय छे. हरडे, एरंडानी जेम लांबी थई पारका घरमां पेसीने रही शकती नथी के जेथी वृद्धानी जेम मने पण शीखामण आपे छे. जेनुं माधुं भांग्युं छे. एवी हे भुंडी रांड, तुं पंडितानी जेम मने शिक्षा आपे छे, पण अंदर कीडा पडवाथी सडी गयेली तारी जीभने ज शिक्षा आप. जे तुं आq बोले छे, तो आजे हुं तारुं मुख भांगी नाखीश, दांत पाडी नाखीश अने ताळवामांथी जीभ खेंची लईश. अरे चावळी, पोताना आत्माने पंडित माननारी एवी तें पहेला अनेक भोळा लोकोने तरछोड्या हशे, पण अहिं तो हुं सोढी छु. कदि तें मने जोयेली नहीं होय, पण लोकोनी वार्ताथी मारूं नाम पण शुं नथी सांभन्यु? जेथी तुं बीजा सामान्य माणसनी जेम मने पण तरछोडवानी इच्छा करे छे? दरेक राफडे घो होती नथी, कोई ठेकाण सर्प पण होय छे." सोढीनां आवां कटुवाक्योथी ते महेमान स्त्री भय पामी. ते पछी ते सोढीना पगमां पडीने ते स्त्री आ प्रमाणे बोली, "बहेन, मारो
आ एक अपराध माफ कर, हवे हुं आQ कदि पण बोलीश नहि." ।।१०००।। ते वखते वढवाड करनारी सोढी क्रोधथी ते स्त्रीने मजबूत पाटु मारीने बोली, "अरे लवारो करनारी रंडा, तुं मने बहेन कहीने केम बोलावे छे? हुं तारा बापथी उत्पन्न थयेली छु, एम तें हाल शी रीते जाण्यु? तुं मने नागरिपणानी युक्तिथी लोकोनी आगळ मानी जणी बहेन कहीने बोलावे छे, पण धूर्त्तना लक्षणोथी में तने ओळखी लीधी छे के तुं गायना मुखवाळी वाघण छे. तारी जेम अमे पण शुंदंभ नथी शीख्या? अरे मूढा, प्रथम मने गाळथी वढीने हवे खमाववाने आवे छे, तो तुं पहेलां पाणी पीने पछी घर पूछे छे." आवां मलिन वचनोथी सोढीए तेणीनी साथे वारंवार वढवाड करवा मांडी. एटले ते महेमान स्त्रीए पोताना हृदयमां आ प्रमाणे विचायु, "आ स्त्री अग्निनो भडको जोई भडकेली गधेडीनी जेम प्रवर्ते छे. ते गधेडी आगळ दांतथी करडे छे अने पछवाडे पगथी पाटु मारे छे. तेथी आ बाईना मुखमां तो जो विष्टाए भरेलुं सळगतुं उंबाडीयुं नाख्युं होय, तो तेथी ते प्रथम बळे अने पछी विष्टाथी लीपाय. आ लाज वगरनी बाईनी साथे कजीयो 1. नोळीयानी मादा. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर - रत्नचूडकुमारनी कथा - शेठाणी अने सोढीनी कथा
करी शकाय तेम नथी. लोको भांडथी बीता नथी, पण भांडना चरित्रथी बीवे छे. कजीयो शमाववा माटे आ स्त्रीने जे शांतिनुं वचन कहीए छीए, ते वचन तो एने उलटुं तपेला घीमां पाणी नाख्या जेवुं थाय छे. तेने माटे कह्युं छे के, 1" क्रोधी माणसने जे शांतिनां वचनो कहेवामां आवे, ते तपेला घीमां नाखेला जळना बिंदुनी जेम उलटा क्रोधने उद्दीपन करनारां थाय छे." तेथी मुनिनी जेम मौन धरीने रहेवुं सारुं छे. आ प्रमाणे विचारी ते स्त्री मनमां कचवाईने मौन धरी बेसी रही. पेली सोढी लांबो वखत कूतरीनी जेम भसती भसती पोतानी मेळे शांत थई गई. "स्वयमेव स्थिता वह्निर्नाशमेति निरिन्धनः " ईंधणां वगरनो अग्नि एनी मेळे ज शमी जाय छे.
त्यारथी ते देशमां कोई पण ते वढकणी सोढीने बोलावतुं नही, तेथी शरीरे जाणे 2कौंचाना फळ लगाड्या होय, तेम तेणीने वढवाड विना चेन पडतुं नहीं. जाणे अरुचिनो रोग थयो होय, तेम कजीया विना तेणीने खोराकमां स्वाद आवतो नहीं अने जाणे मोटो रोग थयो होय, तेम रात्रे निद्रा पण आवती नहीं. एक वखते ते सोढी बळद उपर चडी महाराष्ट्र देशमां प्रख्यात अने तेणीना स्वभावथी अजाण्या एवा प्रतिष्ठानपुरमां गई. त्यां राजद्वारमां बळदने घास अने जळ मूकी राजानी पासे आवी तेणीए आ प्रमाणे कह्युं, "हुं कजीयाखोर सोढीना नामथी ओळखाउं छं. बीजा सर्व देशोमां कलह करवामां कुशळ एवा सर्व जनोने में जीती लीधा छे. हवे आ नगरने वीरक्षेत्र जाणीने हुं कजीयो करवा आवी छं. तमारा नगरमां जो कोई कजीयो करवामां शक्तिमान् होय, तो ते आ सभास्थानमां मारी साथै कजीयो करवा आवे. जो कोई तेवुं न होय, तो अमे बधा घासनो आहार करी अत्यंत पाणी पीनारा छो, अर्थात् पशु जेवा छो, एम समजवुं." सोढीना आ वचनो सांभळी राजाए आ प्रमाणे चिंतव्युं, "आ प्रतिष्टानपुरमां आ वढकणी स्त्रीने योग्य एवं कोई हशे खरं, पण वढवाड करवा माटे कोईने कही शकाय नहीं, तेथी जो नगरमां पटह वगाडवामां आवे, तो तेनो शब्द सांभळीने नाट्यमां कुशळ एवा नटनी जेम कोई प्रत्यक्ष थई बहार आवशे." आवुं विचारी राजाए आज्ञा करी, एटले पटह वाग्यो अने ते वागतो वागतो पुण्यसिंह नामना कोई वेपारीना द्वार आगळ आव्यो. पटहनो वृत्तांत जाणी ते पुण्यसिंह वेपारीनी पुत्रवधूए तरत ज ते पटहनो स्पर्श कर्यो. जेथी पटह वगाडनारा 1. सामवादा: सकोपस्य, तस्य प्रत्युतदीपकाः । प्रतप्तस्येव सहसा, सर्पिषस्तेय बिन्दवः॥ १०१० ॥ 2. कौंचाना फळ शरीरे लागवाथी चटपटी उपडे छे.
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा पुरुषोए ते वात राजाने जाहेर करी. ते सांभळी राजा खुशी थई गयो. तरत ज तेणे पुण्यसिंह शेठने रूबरू बोलावी मधुर वाणीथी कां, "शेठ, तमारी वधूए पटहनो स्पर्श कर्यो छे. तो तेणीने अर्हि वढवाने माटे बोलावो." पुण्यसिंह शेठे कडं, "स्वामी, आ शुं कहो छो? मारी पुत्रवधू तो उंचे स्वरे बोली पण जाणती नथी. कोईए आपने निश्चे खोटुंज जाहेर कयु छे." राजाए कह्यु, "शेठ, जो तमोने मारा वचन उपर प्रतीति न होय, तो हमणां घेर जई तमारी पुत्रवधूने पूछो अने पछी तेने अहिं लावो." पछी पुण्यसिंह शेठ घेर आव्यो अने तेणे पोतानी पुत्रवधूने राजाना कहेवा प्रमाणे पूछ्यु, त्यारे तेणीए कबूल कयु. ते सांभळी पुण्यसिंह बोल्यो, "वत्से, तें अनर्थ करनारा राजाना पटहनो स्पर्श केम क्यों? वधु बोली एथी जरापण अनर्थ थशे नहिं." पछी पुण्यसिंह शेठ पोतानी पुत्रवधूने लई राजसभामां आव्यो. राजाए तेणीने पूछ्युं के, "तुं आ कजीयाखोर सोढीनी साथे वादथी वढी शकीश?" ते वधू शांत स्वरे बोली, "महाराजा, आप प्रथम आ स्त्रीने पूछो के, "कजीयाना केटला भेद छे अने ते कजीयानी उत्पत्ति केवी रीते थाय छे?" पछी राजाए तेवी रीते सोढीने पूछ्युं एटले सोढी बोली के, "आवा विकल्पनी वात तो में पूर्वे सांभळी ज नथी. हवे हं हारी गई. हवे आप ते कजीयाना प्रकारचं गूढ तत्त्व तेणीनी पासे कहेवडावो." पछी राजाए आज्ञा करी, एटले ते वणिकवधूए कजीयाना प्रकार विषे विस्तारथी कहेवा मांड्यु, "प्रथम कलह-वढवाड चार प्रकारनो छे. एक दैवसिकी (एक दिवस पहोंचे तेवी), बीजी षण्मासिकी (छ मास सुधी चाले तेवी), त्रीजी वार्षिकी (एक वर्ष सुधी चाले तेवी अने चोथी यावज्जीविका (जीवे त्यां सुधी चाले तेवी). आ संसारमा ते चतुर्विध वढवाडनी उत्पत्ति केवी रीते थाय छे, ते तमारा हृदयनो संदेह दूर करवा कहुं छु, ते सांभळो-'हे राजा, जो एक साथे गाडा- भाईं करीए, तेमांथी जे वढवाड थाय, तो ते एक दिवस सुधी चाले छे एटले ते दैवसिकी कहेवाय छे. ते गाडामां बेठेली एक स्त्री कहेशे के, "तें एक पग लांबो कर्यो छे, त्यारे बीजी कहेशे के, तें बधुं गाडु रोकी पाड्युं छे.' आ प्रमाणे रस्तामां कजीयो थाय छे अने ज्यारे ते बंने ठेकाणे पहोंचे छे, त्यारे पुनः तेओनी वच्चे पाछी प्रीति थाय छे. जो कोईनी साथे खेतरमा अ? भाग करीए, तो तेमांथी षण्मासिकी वढवाड थाय छे. ज्यारे खेतरमांथी धान्य लई लेवामां आवे त्यारे पुनः बनेनी वच्चे प्रीति थई जाय छे. हे राजा, जो कोई कामनो अ? 'पट्टो साथे 1. कोन्ट्राक्ट-कंतराट.. श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा-पुरुषनां बत्रीस लक्षणो लेवामां आवे, तो ते बंनेनी वच्चे ज्यांसुधी वर्ष चाले त्यां सुधी वार्षिकी वढवाड चाले छे. हे राजा, बने सपत्नी (शोक्य) वच्चे जे वढवाड होय छे, ते यावज्जीविकाजीवे त्यां सुधी चाले तेवी होय छे." कजीयाना आ चार प्रकार सांभळी राजा चमत्कार पामी गयो. पछी ते वधूनी बुद्धिथी राजी थयेला तेणे पुण्यसिंह शेठनो तेनी पुत्रवधू साथे वस्त्रालंकारोथी सत्कार करी तेमने घेर मोकल्या. एम वधूए ते घास तथा पाणी सोढीना ज गळा उपर मूकाव्यां. पछी राजाए ते सोढीने बांधीने पोताना देशमाथी बहार काढी मूकी." ।।१०४४।।
यमघंटा कहे छे "आ उपरथी समजवानं छे के जेम सोढी वाचाळ हती, तो पण तेणीने ते वणिकवधूए थोडी वाणीथी जीती लीधी, तेम ते मुसाफर तमोने थोडी वाणीथी जीती लेशे एमां कोई जातनो संशय राखशो नहीं." आ प्रमाणे यमघंटाना वचनो सांभळी ते चारे धूर्त वणिको मान सहित पोतपोताना ठेकाणे चालता थया. कुमार रत्नचूडे स्त्रीवेशे गुरुना वाक्यनी जेम ते बधुं हृदयमां धारण करी लीधुं. पछी रत्नचूड त्यांथी उठी रणघंटा साथे तेणीने मंदिर आव्यो अने त्यां रणघंटानी रजा लई ते पोताना स्थानमां आव्यो. त्यां निश्चिंत हृदये तेणे निद्रा लीधी. पछी प्रातःकाळे पेला बधा धर्तजनो आव्या. तेमने रत्नचूडे सामवाक्योथी घणीवार समजाववा मांड्या; तथापि तेओ समज्या नहीं. एटले तेओने लई रत्नचूड राजसभामां आव्यो. रत्नचूडने बत्रीस लक्षणवाळो जोई राजा विस्मय पामी गयो.
पुरुषनां बत्रीस लक्षणो जे पुरुष शरीरे त्रण अंगोमां विशाळ, त्रणमां गंभीर छ अंगोमां उंचो, चारमा ढूंको, सातमा रातो अने पांचमां लांबो तथा सूक्ष्म होय, ते पुरुष बत्रीस लक्षणवाळो राजारूप गणाय छे. पुरुषनी छाती, मुख अने ललाट-ए त्रण विशाळ होय ते वखणाय छे. नाभि, सत्त्व अने स्वर-ए त्रण गंभीर होय तो वखाणवा योग्य छे. कंठ, पृष्ट, लिंग अने बे जंघा-ए चार जे पुरुषनां टुंका होय, ते पुरुष हमेशां पुजाय छे. जेमना आंगळीना पर्व (अग्रभाग) केश, नख, दांत अने त्वचाए पांच सूक्ष्म होय ते मनुष्य दीर्घजीवी (लांबी आवरदावाळा) थाय छे. जे पुरुषने बे स्तनोनो तथा बे नेत्रोनो मध्यभाग, बंने भुजा (हाथ), नासिका अने हडपचीए पांच लांबा होय ते पुरुष उत्तम अने धन्य गणाय छे. नासिका ग्रीवा (डोक), नख, काख, हृदय अने मुख-ए छ जेना उन्नत होय, ते मनुष्य सदा उन्नतिवाळो थाय छे. नेत्रोना खूणा जीह्वा, ताळवं, नख, होठ अने पगना तळीया-ए सात
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, दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा राता होय तो सिद्धि माटे थाय छे." ।
आवा बत्रीस लक्षणवाळा ते रत्नचूडे राजानी आगळ पेला सर्व धूर्तजनोनी पासे पोतपोतानो वृत्तांत मूळथी ते अंत सुधी कहेवडावी यमघंटा वेश्याए कहेली सारी युक्तिथी तेमने जीती लीधा. ते वखते पेलो जुगारी नासीने क्यांक चाल्यो गयो. पेलो पादुका करनारो कारीगर के जे 'हुँ खुशी छु.' एम उंचे स्वरे बोलतां पण ते श्यामवदन थई जेवो आव्यो. तेवो ज चाल्यो गयो. पेला वहाणनी सर्व वस्तु लेनारा धूर्त वणिको पहेला त्यां हाजर थया न हता, तेमने राजाना माणसो मोकली बोलाव्या अने पछी तेणे तेमने पोतानी बुद्धिवडे हरावी दीधा. ते वखते राजाना कहेवाथी चार लाख द्रव्य लई ते दयाळु रत्नचूडे तेमने संकटमांथी मुक्त कर्या. आथी राजा जो के अन्याय करवामां तत्पर रहेनारो हतो, तो पण तेणे रत्नचूडने उच्च स्वरे का के, "तारी वय करतां वधारे बुद्धि जोई हुं तारी उपर संतुष्ट थयो छु, तेथी मारी पासे कांई पण तुं वर मागी ले." रत्नचूड बोल्यो, "स्वामी, जो आप मारी उपर खुशी थया हो, तो आ तमारा नगरमांथी लक्ष्मी नाशना कारणरूप एवी अनीतिने सत्वर तजावी द्यो. कारण के कयुं छे के, 1"नीति वगरनो राजा, विनय वगरनो शिष्य, शील वगरनो यति, प्रशम वगरनो साधु, जीव वगरनो देह, पुण्य वगरनो जीव अने द्रव्य वगरनो गृहस्थ कांईपण हीसाबमां गणातो नथी." जे माणस न्यायथी प्रवर्ते छे, तेने तिर्यच पण सहाय आपे छे अने जे कुमार्गे चाले छे, तेने सगो भाई पण छोड़ी दे छे. सर्पना मुखमां रुधिर होतुं नथी, निर्जीव कलेवरमां शब्द होतो नथी अने दुष्ट अधिकारवाळा राजा अने प्रजामां द्रव्य होतुं नथी." आ प्रमाणे अनेक कविओना रचेला सुवाक्योथी तेणे एवो प्रतिबोध आप्यो के जेथी राजाए न्याय अंगीकार करवा कबूल कयु. पछी पुनः राजा बोल्यो, "कुमार, में जे न्याय करवानुं कबूल कर्यु, तेथी तो मारु ज हित थयुं, परंतु तारा पोताना हितने माटे कांई कहे." त्यारे रत्नचूड बोल्यो, "जो मारुं हित करवू होय तो मने आ रणघंटा वेश्या अर्पण करो." पछी राजाना कहेवाथी ते रणघंटा वेश्या रत्नचूडनी उत्तम पत्नी थईने रही.
. हवे कुमार रत्नचूडे ते नगरीमां रही थोडा ज दिवसोमां घणुं द्रव्य उपार्जन कयु. पछी घणी वस्तुओथी पोतानुं वहाण भरी ते कुशळताथी पोतानी 1. नयने नेती विनयेन शिष्यः शीलेन लिङ्गी प्रशमेन साधुः । - जीवेन देहः सुकृतेन देही वित्तेन गेही रहितो न किञ्चित् ॥१०६३।। 2. न च सर्पमुखे रक्तं, न च शब्द: कलेवरे । न प्रजासु न भूपाले, वित्तं दुरधिकारिणि।।१०६५।।
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रत्नचूडकुमारना पूर्वभवनी कथा. नगरीमां आवी पहोंच्यो. ते समये तेनो पिता वगेरे सर्व स्वजनवर्ग अति हर्ष पाम्यो. पेली वेश्या सौभाग्यमंजरी पण हर्षथी तेने मळवा माटे आवी. तेणीने रत्नचूडे सत्कारपूर्वक आ प्रमाणे का, "हे भद्रे, में जे आ घणुं द्रव्य उपार्जन कर्यु, तेनुं कारण तारुं वचन ज छे." ते वेश्या बोली, "उत्तम शेठजी, तमोए जे घणुं द्रव्य उपार्जन कयु, तेनुं मूळ कारण तमारुं सद्भाग्य छे, पण हवे राजानी आज्ञाथी हुं तमारी गृहिणी थईश." पछी रत्नचूडे मोटी भेट अने बुद्धिथी राजाने खुशी करी दीधो. जेथी राजाए तेने मुख्य नगरशेठ बनाव्यो अने ते सौभाग्यमंजरी वेश्या तेने अर्पण करी.
एक वखते चतुर्ज्ञानी एवा धर्मघोषसूरि साधुओना परिवार साथे बहारना उद्यानमां आवी चड्या. त्यां राजा वगेरे सर्व जनो तेमने वंदना करवाने आव्या. रत्नाकर शेठ पण पोताना रत्नचूड पुत्रने साथे लईने उद्यानमां गयो. तेणे वंदना करी समय जोई गुरुने आ प्रमाणे पूछ्युं, "भगवन् कया पुण्यथी मारो रत्नचूड संकटमां पड्या छतां तेमांथी बचीने घणी लक्ष्मी लई आव्यो?" गुरुए उत्तर आप्यो, "शेठ, तमारा आ भाग्यवान् पुत्रने पूर्वभवे करेला पुण्यथी विपत्ति पण संपत्ति रूप थई छे." रत्नाकर शेठ बोल्यो, "हे पूज्य एनो पूर्वभव केवो हतो?" आ प्रमाणे पूछवाथी गुरुए रत्नचूडकुमारना पूर्वभवनी कथा कहेवा मांडी.
रत्नचूडकुमारना पूर्वभवनी कथा ___ नंदिग्राममा पूर्वे एक वृद्धडोशी रहेती हती ते घणी ज गरीब स्थितिनी हती. तेने स्थावर नामे एक पुत्र हतो. एक वखते कोई पर्वनो दिवस आव्यो. ते वखते गाममां घेर घेर सारा भोजन थतां जोई ते स्थावरे पोतानी माता पासे तेवा भोजननी मागणी करी. वृद्ध माताए कडं, "वत्स, द्रव्य वगर सारुं भोजन क्याथी थाय? तेथी हे पुत्र, सदा संतोष पामीने रहे." माताए आ प्रमाणे कर्तुं तो पण बालपणाने लईने ते पुढे आग्रह करवा मांड्यो, त्यारे ते वृद्ध स्त्री रुदन करवा लागी. कारण के स्त्रीओनो एवो स्वभाव होय छे. तेणीनु रुदन सांभळी बे पडोशणो तेनी पासे आवी अने रोवा, कारण जाणी तेओ बने पण दुःख पामी, पछी एक पडोशण बोली, "हे शुभे, मारा घरमां उंची जात, अन छे ते तमे ग्रहण करो." बीजी बोली, "मारे घेर घणुं घी छे, ते ल्यो." आ प्रमाणे कही तेओ बंने पोतपोताने घेर आवी अने तत्काळ तेमणे पोतानी जाते ते बाळकने माटे उंची जात, धान्य अने श्रेष्ठ जात, घी हर्षथी लावी आप्यु. ते जोई ते द्रव्यना लाभ वगरनी वृद्धमाता चित्त जरा हर्षित थयुं अने तेणीए पोताना पुत्रने माटे
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रत्नचूडकुमारना कथानो उपनय तेनुं पकवान बनाव्यु. पुत्र स्थावर ते पकवान जमवाने जेवामां बेसतो हतो, तेवामां कोई मासोपवासी मुनि पारणाने माटे तेने घेर आवी चड्या. ते बाळके मुनिने जोई आ प्रमाणे हृदयमां चिंतव्युं, "अरे! मारे आवें भोजन क्याथी? अने आवा मुनि पण क्यांथी? गुणना विस्तारवाळो एवो हुँ दाता अने भोजन ए बनेनो योग प्राप्त थयो छे, हवे तेनी अंदर मारा चित्तने सत्वर जोडी दउं. हुं आ पात्रने दान आपुं के जेथी त्रणनो योग थाय. कारण के दाता दान अने पात्र-ए त्रणनो योग घणो दुर्लभ छे. आq चित्तमां विचारी तेणे ते मुनिने निदान-नियाणा रहित थई ते दान आपी दीधुं. मुनिए ते शुद्ध अन्न जाणी तेना आग्रहथी ग्रहण करी लीधुं. पेली बे पडोशणोए घी तथा अन्न दानना अनुमोदनथी पुण्य उपार्जन कर्यु, पण ते बंनेने एक वखते जातिमद थई आव्यो, दानना प्रभावथी ते स्थावरना घरमां कांईक द्रव्य वगैरेनी प्राप्ति थई आवतां तेणे फरीवार पण पात्रदान आप्यु हतुं. हे रत्नाकरशेठ, पछी ते स्थावर आयुष्यनो क्षय थतां त्यांथी च्यवीने तमारो आ रत्नचूड पुत्र थयो छे. पेली जे बे पडोशण स्त्रीओ हती, ते जातिमद करवाथी, बे महावेश्या थई छे. पूर्वना दानना पुण्यना प्रभावथी ते रत्नचूडने विपत्तिनो आश्रय थतां पण संपत्ति थई छे. धर्मना माहात्म्यथी शं थतुं नथी? तेने माटे का छे के, "धर्मथी सारा कुळमां जन्म शरीरे आरोग्य, सौभाग्य, आयुष्य अने बळ प्राप्त थाय छे, धर्मथी निर्मळ यश, विद्या, अर्थ अने संपत्ति थाय छे. धर्म मोटा . जंगलमांथी अने मोटा भयमांथी सदा बचावी ले छे. सम्यक् प्रकारे आराधेलो धर्म स्वर्ग तथा मोक्षने आपनार थाय छे."
बीजी रीते आ रत्लयूडनी कथा उपर उपनय घटाये छे
"हे रत्नाकरशेठ, जे आ तमारो पुत्र रत्नचूड छे, ते संसारी जीव समजवो, जे उपदेश आपनारी वेश्या छे, ते सर्व कर्मोनी अंदर प्रेरणा करनारी कर्मप्रकृति समजवी. जे रत्नचूडनुं वहाण उपर चडवू, ते जीवनो गर्भावासमां प्रवेश जाणवो. जे अनीतिनगरनी प्राप्ति ते हीनकुलमां जन्म समजवो. जे सर्वस्वने लई लेनारा चार धूर्त वणिको कह्या, ते धर्मरूपी द्रव्यने हरी लेनारा क्रोधादिक चार कषायो जाणवा. जे पेलो पादुका करनारो कारीगर ते राग समजवो. जे जुगारी हतो ते द्वेष समजवो. जे चार वाद-विवाद करनारा हता, ते चार प्रकारनी विकथा समजवी. जे रणघंटा वेश्या हती, ते पोतानी (भव्यजीवनी) सारी बुद्धि समजवी।।११००।। अने जे यमघंटा अक्का ते कपटना स्थानरूप मिथ्यादृष्टि समजवी. एवी रीते सर्व वृत्तांत अंतरंगरूपे पण समजवानो छे. ए रत्नचूडरूप
श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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रत्नचूडकुमारना कथानो उपनय जीवने विकट एवी यमघंटा रणघंटा द्वारा सखीरूप बनी जे सत्यमय थई हती, ते पूर्वना पुण्यना प्रभावथी ज थई हती. कारण के जीवने जो अनुकूल बुद्धि उत्पन्न थाय, तो ते मिथ्यादृष्टि होय; तो पण प्राये करीने सम्यग्दृष्टि थई जाय छे. ते पछी जीव ते सर्व जीवोने जीती लई अने पुनः अनंतलक्ष्मी प्राप्त करी रत्नचूडनी जेम विश्वमां सन्मान्य थई सुखी थाय छे." आ प्रमाणे धर्मघोष गुरु पासेथी आ वृत्तांत सम्यक प्रकारे सांभळी रत्नाकर शेठ विषयभोग उपर विरक्त थई गयो अने तेणे पोतानी स्त्री सरस्वतीनी साथे दीक्षा ग्रहण करी रत्नचूड पण सम्यक्त्व मूल गृहस्थना बार व्रतो ग्रहण करी पोताना जन्मने सफळ मानतो घेर आव्यो. त्यारथी रत्नचूड सात क्षेत्रोनी अंदर घणुं द्रव्य वावतो दुःखी तथा दीनजनोने हर्षथी दया दान करवा लाग्यो. ते बंने वखत शुद्ध आवश्यक क्रिया, त्रिकाळ देवपूजा अने पर्वना दिवसोमां पौषध विधिवत आचरवा लाग्यो. ते प्रति वर्षे संघयात्रा, संघभक्ति अने प्रायश्चित्तनी शुद्धि सर्वदा करतो हतो. एवी रीते धर्म, अर्थ अने कामनी आराधना करतां ते रत्नचूडने एक पुत्र थयो, एटले चतुर्थवर्ग-मोक्ष साधवा माटे तेणे दीक्षा ग्रहण करी. ते पछी सारी रीते संयमनी आराधना करी अने दृष्टिवादनो अभ्यास करी छेवटे रत्नचूडमुनि काळ करी सातमा देवलोकमां इंद्रना सामानिक देवरूपे उत्पन्न थया. त्यां तेओ उत्कृष्ट भोग तथा उत्कृष्ट स्थिति भोगवी त्यांथी च्यवी उच्च कुलमां जन्म पामीने छेवटे मोक्षे जशे."
श्री ब्रह्मगुससूरि पद्मसेन राजाने कहे छे, हे राजा, में तने आ अन्नना दान विषे दृष्टांत आपी दर्शाव्युं तेम बीजा वसति वगेरेनां जे दान छे, ते जिनशासनमा सात प्रकारनां कहेलां छे. कोई ठेकाणे पात्रदान, अभयदान, दयादान, कीर्तिदान कहेला छे अने कोई ठेकाणे ज्ञानदान वगेरे पण कहेला छे. तेओमां अभयदान अने सत्पात्रदान आपवाथी मोक्ष थवानो संभव छे अने अनुकंपा वगेरे दानो पूर्ण रीते स्वर्गादि फळने आपनारां छे.
जेओए 'ऋण सत्वर छेदी नाख्यु' एवी वाणी वर्णोनी अंदर सत्य करी हती, जेमनुं सुवर्णतुं दान विद्वानोए कल्पवृक्ष वगेरेना जेवू पूर्ण कहेलुं छे अने जेमणे कांईपण छेदन कर्या वगर अद्भुत रीते सद्वर्णनो नाश कर्यो हतो, एवा निर्मळ वाणीवाळा श्री विमलनाथ प्रभु तमोने सदा हर्षने माटे थाओ. ।।१११६ ।। || इति श्री तपोगणनायकश्रीरत्नसिंहसूरिना शिष्य भट्टारक
श्री ज्ञानसागरसूरिना रचेला .. श्री विमलनाथ चरित्र महाकाव्यनो दानधर्माधिकाररूप
प्रथम सर्ग समाप्त (ग्रंथान ११२७) ।
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श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
द्वितिय सर्ग
(शीलधर्माधिकार) आ प्रमाणे श्री धर्मरूपी कल्पवृक्षनी दानशाखा कहेवामां आवी, हवे तेनी शीलशाखा कहेवामां आवे छे ते सांभळो- जे मनुष्यो आश्चर्यपणे शीलनु पालन करे छे, तेमने 'सुंदर सुंदर थाय छे, विपत्तिओ संपत्ति थई जाय छे, शत्रुपक्ष स्वजन थई रहे छे, कानन-जंगल जन-मनुष्योनुं स्थान थाय छे, देवताओ देवपणाने आपनारा थाय छे. असुरो असु-प्राण तथा राज्य आपनारा थाय छे, श्वापद-शिकारी प्राणीओ स्व-पोतानी आपत्तिमां आधाररूप थई पडे छे प्रधनयुद्ध प्रधन-उत्कृष्ट धनने आपनारुं थाय छे, पितृगृह-स्मशान पितृगृह-पिताना घरना जेवू थाय छे, विभावसु-अग्नि विभावसु थाय छे अने रत्नगर्भा-पृथ्वी रत्नगर्भा-रत्नोने आपनारी बने छे. जेम निर्मळ सूर्य एकलो ज सर्व अंधकारना समूहनो नाश करे छे. जेम शूरवीर एकलो रणभूमिमां रहेला शत्रुओना समूहने जीती ले छे अने जेम एकलो सिंह हाथीओना टोळाने पूर्ण रीते हरावी दे छे, तेम निर्मळ शील एकलुं ज सर्व कार्योने करनारुं थाय छे. तेने माटे कां छे के, "तेजनो पति सूर्य अने सुशील मनुष्य-ए बनेनुं तेज समान छे. जे तेजथी बीजा तेजोर्नु अने अंधकारनुं निमीलन थई जाय छे." पहेलां अहिंसा व्रतमा संघ वगेरेना कार्यमां जीवोनी हिंसा करवामां कोई प्रकारे संमति आपी छे. बीजा मृषावाद परित्यागमां जीवरक्षा करवा वगेरेना काममा मृषा बोलवा पण कां छे. त्रीजा अदत्तादानमां राजाओ लई ले छे अने आपे छे तेमां शत्रुओना हृदयमां तेमने माटे महत्त्व रहेतुं छे. पांचमा अपरिग्रहव्रतमां गृहस्थोने परिग्रह राखवामां एकांते निषेध करेलो नथी, तेम दिशागमन तथा भोगोपभोग पण निंदेलो नथी अने दाक्षिण्यता राखवामां अनर्थदंड पण अंगीकार करेलो छे. परंतु चोथा ब्रह्मव्रतमां तो परस्त्रीनो संग विविध शास्त्रोमां सर्व प्रकारे निषिद्ध करेलो छे, एथी सर्व व्रतोमां उत्तम एवं शीलव्रत आस्तिक मनुष्योए सदा पाळवा योग्य छे. पिशुन-चाडीयो 1. सुंदर एटले काम. 2. विभावसु-शीतळ हार अथवा विशेष कांतिरूप द्रव्यने आपनार थाय
छे. 3. आच्छादन. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
मनुष्य पण जो ( नारदनी जेम) सुशील होय, तो परमपदने पामे छे अने खराबस्वभावनी स्त्री पण जो महासती होय तो ते परमपदने पामे छे, तेथी सदा शीलनो आश्रय करवो. शील पाळवाथी पुरुषो अने स्त्रीओ 'अकाम-कामरहित होय, तो पण सत्काम- सारी कामनाए युक्त थाय छे, 2अप्रिय होय ते सप्रिय थाय छे अने रोगी होय ते नीरोगी थाय छे. जे शील वगरनो होय ते शूर होय तो पण मंद तेजवाळो थई जाय छे, शंभु होय, तो पण अंगना भंगवाळो थाय छे. 'राजा पण कलंकित थई जाय छे अने 'हरि पण कुदृष्टिवाळो थाय छे. जेओ शीलवतीनी जेम सदा हर्षथी शील पाळे छे, तेओने आलोकमां कीर्त्ति अने परलोकमां स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त थाय छे. ।। १५ ।। राजा पद्मसेने प्रश्न कर्यो, "भगवन्, ते शीलवती कोण हती?" त्यारे गुरुए नीचे प्रमाणे कां -
शीलतीनी कथा
दीपकनी जेम सुवृत्तपात्ररूप एवा श्री जंबूद्वीपमां क्षेत्रना जेवुं भरतक्षेत्र आवेलुं छे. क्षेत्र जेम सीरि- हळवाळा खेडूत तथा वृष - बळदोथी विराजित होय छे, ते भरतक्षेत्र सीरि-सूर्य जेवा वृष - धर्मनी अथवा उत्तम पुरुषोथी विराजित छे. क्षेत्र जेम कौटुंबिक - कणबी लोकोथी युक्त होय छे, तेम भरतक्षेत्र सारा कुटुंबवाळा लोकोथी युक्त छे अने क्षेत्र जेम कृषिकर्म करनाराने उपयोगी होय छे. तेम भरतक्षेत्र आठ प्रकारना कर्मों करनारा प्राणीओथी युक्त छे. तेवा भरतक्षेत्रमां नंदनवनना जेवुं नंदन नामे एक नगर छे. जेम नंदनवन विबुध - देवताओना आधाररूप छे, तेम ते नगर विबुध - विद्वानोने आधाररूप हतुं. जेम नंदनवन रंभा सहित अप्सराओनुं स्थानरूप छे, तेम ते नगर सरंभा - कदली सहित तथा सजळ सरोवरोना स्थानरूप हतुं अने नंदनवन जेम सारी छायावाळं छे, तेम ते नगर
सारी कांतिथी युक्त हतुं. ते नगरमां पुन्नाग- उत्तम पुरुषो गजेंद्रना जेवा भद्र जातिना "हता. जेम गजेंद्रो दाशाली - मदथी शोभावनारा होय छे, तेम ते पुरुषो दानकर्म
1. जेमना काम - इच्छाओ पूरी न थाय तेवा अथवा निष्काम.
2. पुरुषपक्षे अप्रिय - प्रिया रहित अने स्त्रीपक्षे प्रिय रहित.
3. शूर एटले शूरवीरपक्षे सूर्य.
4. शंभु- शंकर 5. चंद्रपक्षे राजा.
6. हरि - विष्णु अथवा इंद्र. 7. दीपकपक्षे सुवृत्तपात्ररूप एटले सारा गोळाकार पात्ररूप. जंबूद्वीपपक्षे - सुवृत्त - सारा आचरणवाळा पुरुषोना पात्ररूप-स्थानरूप.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा करवाथी शोभता हता. पण तेमां एटलुं आश्चर्य हतुं के, तेमनी स्त्रीओ पण दानकरा हती. ते नंदन नगरमां अरिदमन नामे राजा हतो, ते चंद्रनी जेम कनकप्रभ-विग्रहवाळो, जगतने प्रिय अने प्रेमनुं पात्र हतो...
ते राजानो यशरूपी राजहंस मानसमां वसतो पण ते दूध अने जळनी एकता करतो ते घटित न हतुं. तेनो 'प्रतापरूपी सूर्य वर्षाकाळमां प्रदीप्त थई पोताना किरणोथी शत्रुओना नगरमा रहेला कीलालन शोषण करतो, ए आश्चर्यनी वात हती. ते नगरमां सारी स्थिति जेने प्रिय छे, एवो रित्नाकर नामे एक शेठ रहतो हतो. जे रत्नाकरे वेळा प्राप्त करी अवनघननी उत्कंठानो सारी रीते आदर को हतो. ते शेठने लक्ष्मीना जेवी श्री नामे स्त्री हती. जेम लक्ष्मी प्रद्युम्न नामना कुमारवडे युक्त होय छे, तेम ते प्रद्युम्न-सुवर्ण-धन अथवा सारा वर्णवडे युक्त हती, लक्ष्मी जेम नालीक-कमळना गुरु-मोटा निवासवडे शोभती होय छे. तेम ते नालीक-न-अलीक-असत्य रहित एवा गुरु समीपे वास करी शोभती हती अने लक्ष्मी जेम जिन-विष्णुनी भक्ति करवामां तत्पर होय छे, तेम ते जिन भगवाननी भक्ति करवामां तत्पर हती. ते शेठने श्रीदेवी प्रिया हती, तेमां कोई जातनुं आश्चर्य मानवानुं नथी, कारण के लक्ष्मी अंगजा छे, तो पण तेने विविध जनो भोगवे छे. परस्पर रागी अने वियोग रहित एवा ते रत्नाकर शेठ अने श्रीदेवी शेठाणी-बनेने धर्म, अर्थ तथा कामने सेवन करतां श्रमने हरनारा शुभ दिवसो निर्गमन थता हता. एवी रीते सुखमय अने धर्ममय केटलोएक समय गया पछी एक वखते रत्नाकर शेठ रात्रे जाग्रत थई आ प्रमाणे चितवन करवा लाग्यो"मारा वासस्थानमा घणा सेवको छे, मारी पासे शोभाना कारणरूप लक्ष्मी छे,. मारे शीलगुणवंती पत्नी छे, उज्ज्वळ मुखवाळा मारे स्वजनो छे, सारा नगरमां 1. हस्तीओनी स्त्रीओ हाथणीओने दान-मद झरतो नथी छतां पण ते दानकरा कही, ते विरोध
छे, पण पुन्नाग-उत्तम पुरुषरूपी गजेंद्रोनी स्त्रीओ पण दान करती हती, तेथी विरोधनो परिहार थाय छे. 2. चंद्र कनकप्रभ-सोनेरी प्रभावाळा शरीरवाळो, जगतने आल्हाद वगेरे धर्मोथी प्रिय अने प्रेमपात्र होय छे. राजा सुवर्णकांति शरीरवाळो हतो. 3. राजहंस मानस सरोवरमां रहे छे अने दूध तथा जळने जुदां करे छे. आ राजानो यशरूपी राजहंस मानसहृदयमा रहेतो अने दूधना जेव्रो उज्जवळ अने जळना जेवो निर्मळ हतो. अर्थात् तेनो यश सर्व जनोना हृदयमा रुचतो अने उज्ज्वळ तथा निर्मळ हतो 4. सूर्य वर्षाकाळमां झांखो होय छे अने नगरना जळोने शोषतो नथी. अने आ राजानो प्रतापभानु सदा प्रदीप्त रहेतो अने
कर-किरणोथी-हाथथी शत्रुओना पुर-शरीरमांथी कीलाल-रूधिरने शोषी रहेतो हतो. 5. रत्नाकर-समुद्र वेळा-मर्यादाने प्राप्त करी वनघन-जळवृष्टि करवानी उत्कंठा धरे छे. आ रत्नाकर शेठ वेळा-सारो वखत प्राप्त करी अवन-जीवरक्षा माटे धनवृष्टि करवानी उत्कंठा धरावतो हतो. 6. अंगजा-स्वशरीरे उत्पन्न करेली पक्षे अंगमांथी उत्पन्न थयेल पुत्रीरूप छे, छतां लोको भोगवे छे ए विरोध. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा मारो वास छे, गुणोमां मारो अभ्यास छे अने मोटो उद्योग पण छे, परंतु जेम तेज विनानो राजा, घी विनानुं भोजन, नेत्र विनानुं मुख, मंत्री विनानुं राज्य, राजा विना राज्यना सात अंगो, धर्म विना मनुष्य, दान विना धन अने शील विना स्त्री शोभे नहीं, तेम एक पुत्र विना मारु कुळ शोभतुं नथी." प्रभातकाळे ए रात्रिनी चिंताथी श्याम मुखवाळा पोताना स्वामीने जोई प्रिया श्रीदेवीए पूछ्यु. "स्वामी, शुं तमारो कोई सुवर्णनो भंडार अंगारामय थई गयो छे? शुं तमारा हाथमाथी अमूल्य अथवा घणां मूल्यवाळु रत्न पडी गयुं छे? | चोपडामां कोई- नामुं लखतां भूली गया छो? शुं तमारा हृदयमां कोई कन्या वसी छे? अथवा कोई जातना व्यवसायमां पड्या छो? के जेने लईने स्वजातिमां विख्यात एवा तमे चिंतातुर बनी गयेला लागो छो." प्रियानां आ वचनो सांभळी रत्नाकर शेठ बोल्यो, "भद्रे, मने चिंता थवानुं बीजुं कांई पण कारण नथी, परंतु मने हाल सत्पुत्रना विषयनी चिंता थई आवी छे." ते सांभळी श्रीदेवी बोली, "स्वामिन्, ए चिंता तो आपणे बंनेने सरखी छे. तो तमे पत्रनी प्राप्तिने माटे कोई बीजी कन्या परणो." ते सांभळतां ज काने हाथ दईने शेठे कां, "हे पापरहित प्रिया, आ तें शुं कडं? मारे पुत्र थाओ के न थाओ, पण हुं एवं कदि पण करवानो नथी." पछी पतिनी चिंता दूर करवा माटे श्रीदेवी गद्गद् स्वरे बोली, "हे नाथ, तमे अजितस्वामीनी सेविकारूप अजितबला नामनी यक्षिणीनी आराधना करो. ते यक्षिणी संतुष्ट थई आपणने सुखदायक अने कुळनायक एवो अद्भुत पुत्र आपशे. कारण के ते यक्षिणी अपुत्रोने पुत्र आपनारी, दुःखी जनोने सुख आपनारी, आंधळाने आंख आपनारी अने निर्धनने धन आपनारी छे." श्रीदेवीना आ वचन सांभळी रत्नाकर शेठे पूर्व दिशानी सन्मुख रही दातण कयु, पश्चिम दिशा तरफ रहीने स्नान कयुं अने जळमां रहीने ज पवित्र धोतीया पहेर्या पछी पोताना घरमां जई डाबी तरफना भागमा रहेला अने साडीपांच शाखा प्रमाणे उंचा पूजेला देवमंदिरमां ते पूर्वाभिमुखे बेठो. पछी उत्तर दिशा तरफ घरमा रहेली प्रतिमाओने आदरथी विधिपूर्वक जळवडे तेणे स्नान कराव्युं. ते प्रतिमाओने हृदय, कंठ, उदर अने ललाट वगेरे नव अंगे चंदन तथा पुष्पो वडे तेणे अर्चा करी. ते प्रतिमाना वामभागे धूप, दक्षिणभागे दीप अने अग्रभागे अक्षत वगेरे अर्पण काँ. चित्त, वस्त्र, वाणी, काया, पूजा, भूमि अने स्थितिनी शुद्धि करी भव्य अलंकारो धारण करी ते देवगृह (चैत्य) मां गयो. त्यां चैत्य (प्रवेश) द्वारमा प्रथम नैषेधिकी क्रिया .
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा करी तेणे अंदर प्रवेश कर्यो. ते समये तेणे बीजा कर्मोनी चिंता छोडी दई प्रासादनी चिंता करवा मांडी. पछी गर्भद्वारा-गभारामां जई पुनः नैषेधिकी करी विधिपूर्वक जिन प्रतिमानी हर्षवडे विशेष पूजा करी. त्यांथी पाछले पगे गर्भगृहना द्वार आगळ आवी, नैषेधिकी करी, साठ हाथ योग्य स्थाने रही अने योगमुद्रा करी श्री अजितबला यक्षिणी सहित श्रीअजितस्वामीनी तेणे नीचे प्रमाणे स्तुति करवा मांडी-1॥५०॥
___"देवताओना इंद्रोए स्तवेला, जनसमूहे मान्य करेला, दिव्य प्रभावथी युक्त, विद्वानोना वृंदोए नमेला, महोदयवाळा, प्रौढप्रभावथी अद्भुत, नित्य शोभायुक्त, मनुष्योए पूजेला, सर्व दोषोथी रहित अने हितकारी आ श्रीप्रासादमा रहेला सर्वज्ञ श्री अजितस्वामीने हुं स्तवं छु. कल्याणनी लक्ष्मीना सुखने आपनारा, रोगोनो नाश करनारा, सद्ब्रह्म (ब्रह्मचर्य अथवा तत्त्वज्ञान) रूपजलना द्रहरूप, अगणित हर्ष आपनारा, समस्त प्राणीओना मित्ररूप, मोक्षना स्थानने प्राप्त करनारा, अत्यंत मदनो त्याग करनारा, स्वभावथी उज्ज्वळ, समग्र आपत्तिओने हणनारा, शाश्वत पूज्य (अर्हत्) पदने धरनारा, अज्ञानरूप शत्रुने छेदनारा, दुष्ट आठ कर्मोने भेदनारा, सुखनी श्रेणीना सदनरूप, कामदेवने परास्त करनारा, मोहरूपी गजेंद्रने हणवामां सिंहरूप, असाररूप द्रव्यने छोडी देनारा, मरणने अटकावनारा, संतोषने सारी रीते जीवाडनारा, अनेक जनोने प्रसन्न करनारा, समतारूप वृक्षोना वनरूप, त्रण जगतने पवित्र करनारा, असत्ने दूर करनारा अथवा पाप रहित अने संसारीजीवोनुं रक्षण करनारा एवा श्री अजितप्रभुने हुं वंदना करुं छु. अंतरना कामक्रोधादि शत्रुओने जीतनारा, सातनयनी प्ररूपणा करनारा, जीवोने अभय आपनारा, अपारलय ध्यानने प्राप्त करनारा, दयानो प्रकाश करनारा, सद्ज्ञानरूपी भानुनो उदय करनारा, कांतिना समूहथी चळकता, शुद्ध सिद्धांत प्ररूपनारा, पुष्ट एवा दर्प-अहंकारने दूर करनारा, सर्व अतिशयवाळा, प्रसिद्धिना स्थानरूप, विविध व्याधिने टाळनारा, भव्य प्राणीओने आनंद करनारा, आश्रितोना भयने हरनारा, विज्ञानना समुद्ररूप, पापोनी प्रवृत्तिने हरनारा, कल्याणना उदयने धरनारा, पुण्यवंत प्राणीओनी दृष्टिए आवनारा, संसाररूपी समुद्रने तरनारा अने तारनारा, उत्कृष्ट केवली भगवानोमां श्रेष्ठ, त्रण विश्वने प्रगट करनारा, अनेक देवताओए नमेला, पीडाओना समूहने हणनारा, चारे तरफ प्रसरेला अज्ञानरूप अंधकारने हरवामां सूर्यरूप, चंद्रनी कळानी जेम चळकता, कलंकरहित, उत्तम केवळज्ञानने प्राप्त करनारा, श्रेष्ठ अनंत बलने धरनारा, अजित बळनो आश्रय करनारा, इंद्रोने सारी श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा रीते प्रसन्न करनारा, आनंदना मल-दोषने छोडनारा, युद्धनो नाश करनारा, संपूर्ण विश्वमां उपमा रहित, प्राणीओना फलने प्राप्त करनारा, मांसभोजननो निषेध करनारा, अपार सुखथी उज्ज्वळ, अखंड संसारने खंडित करनारा, सर्व प्रकारना कल्याण करनारा, कल्याणकारी स्तवनवाला, क्रोधरूपी दावानलने शांत करनारा, पुण्यथी अद्भुत शब्द बोलनारा, सारा मनुष्योने तृप्ति आपनारा, स्व-आत्मानो अनुभव करनारा, जगतना जीवोने नवीन देखाता, सर्व प्रकारना गौरवनो त्याग करनारा, तीर्थोनी उत्पत्तिना स्थानरूप सुर तथा असुरोए स्तवेला, सदा उपद्रवोनो नाश करनारा, सदा हसते मुखे रहेनारा, चंद्र जेवा मुखवाळा, धर्मनी देशना आपवामां सन्मुख रहेनारा, कामदेवनो ध्वंस करनारा, अरुणोदय जेवा रक्त नखवाळा, वाणी बोलवामां दुर्मुख एवा वादीओनो निरोध करनारा, स्याद्वादीओमां प्रमुख, सर्वदा इंद्रियोने जीतनारा, देवताओ जेनी पासे अत्यंत नम्रता करे छे, तथा केशरीसिंह आपनी पासे भो चाटे छे एवा अने सम तथा विषम स्थितिवाळा सुखी दुःखी सहुना मित्ररूप एवा श्री जिनेंद्र भगवानने हुं सुखे सेवं छु." ||५८।।
___आ प्रमाणे श्री जिनेश्वरनी स्तुति करी अने तेवी जरीते यक्षिणी अजितबलानी पण स्तुति करी रत्नाकर शेठ बे हाथ जोडी ते देवीनी आगळ आ प्रमाणे हर्षथी बोल्यो; "हे देवि, जो तमारा प्रसादथी मारे घेर पुत्रनी उत्पत्ति थशे तो हुं मारा मुखथी ते पुत्रनुं सुंदर नाम तमारे नामे पाडीश. तेम वळी हे कृपावती, तमारो एक नवीन प्रासाद करावीश अने तेनी अंदर हमेशां पुष्प वगेरेथी तमारी विविध प्रकारनी पूजा करीश, तमारो प्रासाद करवाथी तमारी गुरुता (माहात्म्य) सर्व स्थळे वधशे. नहीं तो प्रभाववगरना अमारा बनेनी साथे तमारो प्रभाव पण-हीन गणाशे." एम करतां जिन पूजाना प्रभावथी अने ते देवीना अनुभावथी ते रत्नाकर शेठने घेर थोडा ज समयमां शुभदिवसे पुत्रनो जन्म थयो. ते सुखशाळी शेठे पुत्र जन्मनो उत्सव कर्यो अने दान तथा सन्मानपूर्वक पोताना कुलनो आचार • पण कर्यो. ते पछी ज्यारे ते पुत्रने हर्षना स्थानरूप एवो एक मास थयो एटले ते पुत्रने लई तेणे सरळ हृदयथी देवीनुं सुंदर वर्धापन (वधामणुं) कयु. भगवान् जिनेश्वर अने देवीनी पूजा करी तथा स्वजनवर्गने संतोषी शेठे पोताना पुत्रनुं नाम अजितसेन पाड्यु. हर्षना उत्कर्षने धारण करनारा तेणे पोताना द्रव्यनो खर्च करी एक प्रासाद कराव्यो अने तेमां ते शेठ हमेशां विधिथी पूजा करवा लाग्यो. धाव्यमाताओथी पालन करातो अने सर्व जनोथी लालन करातो पुत्र अजितसेन महान् भाग्यवान् थई मातापिताना मनोरथनी साथे वधवा लाग्यो. जेम शुक्ल
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा पक्षनो चंद्र नवीन कला ग्रहण करे, तेमने 'काकपक्षने धारण करतो ते छतां पण दिवसे दिवसे भव्यकलाने ग्रहण करवा लाग्यो. __ अनुक्रमे ते सौभाग्यना समूहथी प्रकाशमान एवा यौवनवयने प्राप्त थयो, ते यौवनवय पुण्यवान् अथवा कृतार्थ मनुष्योर्नु स्वाभाविक देहभूषण कहेवाय छे. पुत्रने तेवा यौवनवयवाळो जोई कोटी जनोमां चतुर गणातो रत्नाकर शेठ विचार करवा लाग्यो के, "हवे आ पृथ्वी उपर पुत्रने योग्य एवी कोई धन्य कन्या मळवी जोईए. जेणीनुं शील जाग्रत होय, सदाचार वडे अतुल एवं कुल होय, योग्य रूप होय, धर्मकर्ममां तत्परतां होय, वय तथा विद्यानो योग होय, शरीर मान गुणोनुं स्थानरूप होय, लज्जा अने विनयथी नम्रता होय अने विषदोष वगेरेनो त्याग होय, तेवी कन्या जो मळे तो तेणीनी साथे विवाह करवो उत्तम छे. नहीं तो निश्चे मारा पुत्रना बंने भव बगडी जाय तेथी आ पुत्रने माटे मारे नीतिपूर्वक तेवी सद्गुणी कन्या कोई स्थळेथी शोधी काढवी जोईए." रत्नाकर शेठ आ प्रमाणे विचार करतो हतो, तेवामां एक वणिकनो पुत्र त्यां आवी चड्यो. तेणे आ प्रमाणे कडं. 'शेठजी, आपनी आज्ञाथी हुं कृतांगला नामनी नगरीमा गयो हतो त्यां हुं स्थिर हृदये वेपार करतो रह्यो हतो तेवामां ते स्थळे जिनदत्त नामना एक वेपारीनी साथे मारे वेपार करवानो प्रसंग आव्यो, तेथी कोईवार तेणे मने भोजन करवानुं आमंत्रण कयुं हुं तेना घेर गयो. त्यां एक दिव्यरूपवाळी उत्तम कन्या मारा जोवामां आवी. तेणीने जोई में ते शेठने पूछ्युं के, "आ कोनी पुत्री छे अने तेणीनुं शुं नाम छे?" ते शेठ बोल्यो, "आ कन्या मारी पुत्री छे. ते सर्व लक्षणोथी युक्त छे. पींगळ, व्याकरण, साहित्य अने अलंकार वगेरेमां ते घणी प्रवीण छे. क्षेत्रसमासमां कहेलां क्षेत्र, संग्रहिणीनो संग्रह, कर्मोनी प्रकृतिना स्वरूप अने बीजां तेने लगतां शास्त्रोने ए जाणे छे. ते उपरांत निमित्तज्ञान अने लोकोए मानेली लिखनथी मांडीने पक्षीओना शब्दो ओळखवा सुधीनी कलाओ ए जाणे छे. ए कुमारी सरस्वतीनी जेम हाथमां पुस्तक धरनारी सदा कमळहस्ता अने विचार करवामां चतुर हृदयवाळी छे. एनुं नाम शीलवती अने ए अर्थथी पण शीलवती सती छे, परंतु आ पृथ्वी उपर एने योग्य एवो कोई वर मारा जोवामां 1. काकपक्ष-केशनी शोभा-कानशीया पक्षे काक-पक्ष-कागडीना पांखो अर्थात् कृष्णपक्ष अहिं विरोधाभास अलंकार छे. शुक्लपक्ष अने काकपक्षक-कृष्णपक्षनो योग साथे न होय, ए विरोध. 2. सरस्वती हस्तकमळ-हाथमां कमळ राखनारी छे अने आ कुमारी कमळना जेवा कोमळ हाथवाळी छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा आवतो नथी. तेथी मारा हृदयमां चिंतारूपी चिता हमेशां बळ्या करे छे, तेना संतापथी तप्त थयेलो हुं हृदयमां शांति मेळवी शकतो नथी."
ते जिनदत्तना आवा वचन सांभळी में हृदयमां दया लावी आ प्रमाणे का, 'हे चतुर शेठजी, जो बाहुबंध आभूषण होय, तो पछी हाथना आभूषणनी शी चिंता होय? ते कहो. 'कौमुदीनी जेम सितांशुका एवी आ पुत्री रत्नाकर शेठना पुत्रनुं पाणिग्रहण करी, हर्षित थई तमारा संतापने दूर करशे." "ते रत्नाकर शेठ कोण छे? अने तेनो प्रख्यात पुत्र केवो छे?" आ प्रमाणे जिनदत्तना पूछवाथी में तेनी आगळ बधो वृत्तांत यथार्थ रीते निवेदन कर्यो. अधिष्णयना मध्यभागे रहेली, सद्वितीय अने स्थिर एवी आ कन्या ते रत्नाकरना पुत्रनी साथे मळीने तमोने सिद्धियोग करो. मारा आ वचन सांभळी तत्त्वबुद्धिनी संपत्तिओना भंडाररूप एवो ते जिनदत्त शेठ आदरथी पोताना हृदयमां ते शुभ परिणामनो आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो." ए रत्नाकर शेठनो निवास शहेरमा छे. तेनुं कुळ निर्मळ छे, तेनी पासे द्रव्य घणुं छे, तेनुं हृदय उत्तम विचारो करवामां चतुर छे पोतानी स्त्री तरफ तेनी उदारता छे, तेनामां संतोष, उत्कृष्ट, दया अने परोपकारिपणुं रहे छे अने तेनो व्यवहार शुद्ध छे. वळी तेनो कुमार अजितसेन युवान, सारी इंद्रियोवाळो, अति चतुर, विवेकी, स्वभावे सुशील, मातापितावाळो, श्रीमान्, देहना दूषणोथी रहित, विद्या तथा विनयथी संपन्न, नीतिज्ञ अने बे रीते 'सकळ शास्त्रमा जे वरना उच्च लक्षणो कह्यां छे, ते वडे युक्त, श्रेष्ठ अने ते कामदेवना जेवा रूपवाळो छे, एम सांभळवामां आवे छे. कारण के कयुं छे के, जेने सारं शरीर शील, कुळ, द्रव्य, वय अने विद्या होय अने जे सनाथ होय, तेने कन्या आपवी अने जे मूर्ख, निर्धन, दूर देशमा रहेनार, (लडवैयो), मोक्षनी इच्छावाळो अने कन्या करतां त्रणगणा वधारे वर्षनी वयनो होय, तेवा वरने कन्या आपवी नहिं." आ प्रमाणे हृदयमां चिंतवी जिनदत्त शेठे मने विनयथी कडं, "भद्र, तें 1. कौमुदी-चंद्रकांति. 2. सितांशुका-सित-उज्ज्वळ-अंशु-किरणोवाळी होई मनुष्यना तापने पोतानी शीतळताथी टाळे छे. कन्यापक्षे सित-उज्ज्वळ-अंशुक-वस्त्रने धरनारी अने चिंताना संतापने टाळनारी थशे. 3. रोहिणी नक्षत्र धिण्य-नक्षत्रोना मध्यभागे रहेल छे अने ते स्थिरस्वभावी छे ते सद्वितीय-द्वितीया-बीजने दिवसे आवे तो सिद्धियोग थाय छे. कन्यापक्षे ते धिष्ण्य-गृहना मध्यभागे रहेल छे अने स्थिर एटले ठरेल प्रकृतिवाळी छे, ते अजितसेननी साथे मळे-विवाहित थाय तो ते सद्वितीय-जोडी बनी जिनदत्तशेठना कार्यनी सिद्धिनो योग
उत्पन्न करे. 4. एक रीते सकल-कलासहित अने बीजी रीते सकळ-सर्व प्रकारे परिपूर्ण. 5. सनाथ-माथे धणीवाळो. अहिं मातापितावाळो एम समजवू. 82
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
मने दुस्तर एवा चिंताना सागरमांथी सत्वर पार उतारी दीधो छे. हवे तुं मारा पुत्र जिनशेखरने ते विवाह संबंध जोडवा माटे साथे लई अविलंबे तारा नगरमां जा." पछी हुं ते जिनशेखरने साथै लई अहिं आव्यो छं. हवे जे आज्ञा होय ते कहो." रत्नाकर शेठ तेना आ वचन सांभळी हर्षित थई आ प्रमाणे बोल्यो, "आ पृथ्वीमां तारा जेवा वणिकपुत्रो सारे भाग्ये ज मळी आवे छे. तने एक कार्य करवा माटे मोकल्यो हतो. तेमां तुं अनेक कार्यों करी आव्यो. हवे तारी साथे आवेला ते जगतना मित्र जेवा शेठना पुत्र जिनशेखरने सत्वर अहिं लाव. विवाहना काममां विलंब करवो ते युक्त नथी. " ।। १०० । । 1 शेठना कहेवा उपरथी ते निशेखरने बोलाव्यो. एटले ते घरमां आव्यो अने योग्य विनय करी सारे स्थाने बेठो. रत्नाकर शेठे हृदयमां आनंद पामी तेने आसन आपवा वगेरेनुं मान आपी जिनदत्त शेठना घरनी कुशळता पूछी. जिनशेखरे ते बधुं कह्या पछी पोताना पिताए कहेली अने मानेली विवाह संबंधनी वात निवेदन करी. ते सांभळी तरत रत्नाकर शेठे पोताना स्वजनवर्गने एकठो करी तेनी साथे ते विवाह संबंधी विचार कर्यो. पछी सर्वनी संमति मेळव्या बाद तेणे जोषीने बोलावी अने जन्मपत्री बतावी ते बंने वरकन्याना लग्न लीधा. सारा चारित्रवाळो श्रेष्ठिपुत्र जिनशेखर पछी पोताना नगरमां गयो अने ते श्रेष्ठ हृदयवाळा पुत्रे ते बधो वृत्तांत पोताना पिताने कही संभळाव्यो. तेनुं कहेलुं आदरथी स्पष्ट रीते सांभळी जिनदत्तशेठे व्यग्र मने ( उतावळे) विवाहनी सर्व सामग्री तैयार करी दीधी. ज्यारे लग्ननो दिवस नजीक आव्यो, एटले रत्नाकर शेठ जिनदत्तशेठना नगरमां (जान लईने) आव्यो. स्वजनोनी साथै विवाहना सर्व काम हर्षपूर्वक थयां. लोकोमां विवाहनो प्रसंग हंमेशां आनंद सहित ज वर्णवाय छे. पछी रत्नाकरशेठे, जिनदत्तशेठे आपली अमृतमांथी थयेली लक्ष्मी (पहेरामणी) ग्रहण करी, तथापि ते 2 कलिथी रहित थयो ए आश्चर्यनी वात छे. एवी रीते पोताना पुत्रनो हर्ष सहित विवाह करी रत्नाकरशेठ पोताना नगरमां आव्यो. अने शुभ दिवसे पुत्रने गृहप्रवेश कराव्यो. कुमार अजितसेन ते शीलवती वधूनी साथे रही पृथ्वीमां विष्णुनी जेम शेषभोगीथी 1. मूलमां श्लोक नं. ९९ बे वखत छपायेल छे. 2. लक्ष्मी अमृतमांथी उत्पन्न थयेली कवाय छे, पण ज्यां लक्ष्मी होय, त्यां कलि- कलह उत्पन्न थाय छे. पण अहिं रत्नाकरशेठे पहेरामणीनी लक्ष्मी लीधी, तो पण ते कलहथी रहित हतो. 3. विष्णु-शेष भोगी - शेषनागथी युक्त थई रत्नाकर - समुद्रना स्थानमा रहेला छे कुमार अजितसेन शेषभोगीअवशेष भोगवाळा पुरुषोथी अथवा पदार्थोथी युक्त थई रत्नाकरशेठना घरमा रहेलो छे. ते सर्व रीते घटे छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा युक्त थई रत्नाकरना स्थानमा गयो, ते तेने सर्वथा घटे छे.
पछी रत्नाकर शेठ पोताना पुत्र अजितसेन उपर घरना बधा व्यापारनो भार मूकी पोते नीतिनो आश्रय करी मनमां निश्चय राखी श्री जैनधर्म आचरवामां तत्पर बनी गयो. ते एकचित्ते श्री जिनभगवाननुं ध्यान करतो, बे वखत आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया करतो, त्रिकाळ जिनपूजा करतो, चतुर्विध धर्मने आचरतो, पांच प्रकारना शुद्ध आचारने पाळतो, षट्कायजीवोनी रक्षा करतो, सारा द्रव्यरूपी जळना पुरथी सात क्षेत्रोने पुरतो, आठ प्रकारना मदनो संसर्ग छोडतो, नव तत्त्वोनो ज्ञाता थतो, दश प्रकारना यतिधर्म उपर श्रद्धा राखतो, चित्तने समाधिमां राखतो, श्रावकनी अगियार प्रतीमाने वहन करतो, गृहस्थना बार व्रतोने अने बीजा उग्र नियमोने पाळतो (ते रत्नाकर शेठ) खरेखर उत्तम श्रावक बनी गयो.
एक वखते रात्रे कुटुंब बधु पोतपोताना काममा अतिशय लागेलं, ते वखते शीलवती मध्यरात्रे एक घडो लई कोई ठेकाणे चाली गई. घणी वेळा सुधी बहार रही ते पाछी पोताने घेर आवी. ते काळे जाग्रत थयेला अने बहार दृष्टि करनारा रत्नाकर शेठना ते जोवामां आवी. तेने जतां ज तेणे विचायु के, "आ वधू कुशीला-दुराचारी लागे छे, माटे तेणीने हवेथी घरमा राखवी योग्य नथी. कारण के कयुं छे के, "कुळने माटे एकनो त्याग करवो, गामने अर्थे कुळनो त्याग करवो, देशनी खातर गामनो त्याग करवो अने पोतानी खातर पृथ्वीनो त्याग करवो." तेम वळी आवी हलकी वात बीजानी आगळ पण कहि शकाय नहीं. तेने माटे प्राचीन कविओए कह्यु छे के, "द्रव्यनी नुकसानी, हृदयनो परिताप, घरमां बनेलां नठारां आचरण, वंचना-छेतरामण अने अपमान एटलां वानां बुद्धिमान् पुरुषे प्रगट करवां नहीं." हवे आ वृत्तांत पुत्रने जणावी हुं तेणीने घरमांथी बहार कढावं." आ प्रमाणे विचारी रत्नाकर शेठे रात्रिनो बधो वृत्तांत पुत्रने जणाव्यो. ते सांभळी श्रेष्ठिपुत्रे आ प्रमाणे विचायु, "जो आ पृथ्वी उपर चंद्रनी कळामांथी अंगारानी वृष्टि थाय, अमृतमाथी उग्र झेर उत्पन्न थाय, पश्चिम दिशामां सूर्यनो उदय थाय, समुद्र मर्यादा मूके अने कुलपर्वतोनी श्रेणि चलित. थाय तो आ शीलवती कुशील बने. परंतु गुरुनी जेम आ पितानुं वचन अमेय (अकळ-न कळी शकाय एवं) अने उल्लंघन करी न शकाय एवं छे, तेथी हाल मारे मौन राखीने रहेq युक्त छे. जो हुं आ स्त्रीनो पक्षपात करीश, तो मारा पिता लज्जाने धारण करनारा एवा मने स्त्रीना मुखने जोनारो अर्थात् तेणीने वश थई गयेलो (बायलो) जाणशे. जेम शीलसेवनथी सुमनस्-पुष्पोने ग्लानि थाय छे;
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा परंतु सुमनस्-देवताओने ग्लानि थती नथी. तेवी रीते सुमनस्-सारा मनवाळा मनुष्योने पण शीलथी क्यांय ग्लानि थती नथी ज. सुवर्णने जेम तपावे (ताप आपे, तो पण ते पोताना वाननो सत्वर आश्रय करे छे, तेम सुवर्ण-सारा वर्णकुळमां उत्पन्न थयेलो मनुष्य संसारमा कष्ट-ताप पाम्ये छते पोताना क्षमारूपी स्वरूपने प्राप्त थाय छे." आq विचारीने कुमार अजितसेन मौन धारीने रह्यो. पछी रत्नाकर शेठ बहार गयो अने घणीवारे बहारथी आवी तेणे पोतानी स्त्रीने आ प्रमाणे कडं-"प्रिये, आजे कृतांगला नगरीथी एक माणस आव्यो छे, तेणे मने एक दुःश्रव संदेशो कह्यो." स्त्रीए का "ए केवो संदेशो छे?" त्यारे रत्नाकर शेठे कां के, जिनदत्त शेठने शरीरे मंदवाड छे अने तेणे पोतानी पुत्री शीलवतीने बोलावी छे." स्त्रीए कह्यु "भले त्यारे तेम करो." ते उपरथी रत्नाकर शेठ पुत्रवधू शीलवतीने लई रात्रे चाल्यो. शीलवती ते कारण समजी गई परंतु ते कांई बोली नहीं. थोडेक दूर मार्गे चाल्या पछी रस्तामा एक नदी आवी त्यारे शेठे वधूने कां, "तमारा पगमांथी उपानह उतारी नाखो." पण शीलवतीए उपानह उतार्या नहीं. ते वखते रत्नाकर शेठे चिंतव्यु के "आ वधूमां एक तो कुशीलपणुं छे अने वळी अविनय पण छे." "एक तो राब कोही गई अने वळी तेमां कंसारीओ पडी." ए कहेवत आ वधूने माटे सत्य ठरी. जो हुं आ एकलीने कांई कहुं तो मने लोकापवाद लागे, माटे एना पिताने घेर जई हुँ एने त्यां सत्वर मूकी आq." आq विचारी रत्नाकर शेठ आगळ चाल्यो, त्यां एक मगर्नु खेतर पाकेलं जोवामां आव्युं, ते खेतरने जोई रत्नाकर शेठ बोल्यो. "आ खेतरमा घणां मूडा मग थशे." ते सांभळी शीलवती बोली. "आ मग जो खाई जवामां नहीं आव्या होय तो (तेम) थशे, परंतु जो ते खाई जवामां आव्या हशे, तो ए खेडुतना घरमां कई आवशे नहीं." वधूनां आ वचनो सांभळी रत्नाकर शेठे खेद पामी पोताना हृदयमां विचायु के "आ वधू प्रत्यक्ष रीते खोटा बोली छे, हवे तेणीने वधारे शुं कहे?" ते पछी रत्नाकर शेठ त्यांथी आगळ चाल्यो, त्यां एक सारा निवास स्थानोए सहित एक नगर जोवामां आव्यु. ते जोई शेठे अति हर्ष पामीने का के, "अहो! आ नगरमां घणां लोको छे." शीलवती बोली. "आ तो शून्य नगर छे." तो पण रत्नाकर शेठे तेमां वास करवाने प्रवेश कर्यो, परंतु ते नगरना लाकोए तेने उतारो आप्यो नहि. पछी रत्नाकर शेठ आगळ चालतां एक झाड नीचे बेठो अने शीलवती खुल्ली जगामां दूर बेठी. प्रभातकाळे त्यांथी आगळ चालतां शस्त्रोना घाथी अंकित थयेलो कोई एक पुरुष रत्नाकर शेठना जोवामां श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा आव्यो. तेने जोई शेठे कां के, "आ कोई सुभट स्पष्ट रीते चोर लागे छे." शीलवतीए कह्यु, "ए चोर (सुभट) नथी पण कोईए घायल करेलो छे." पछी त्यांथी रत्नाकर शेठ कोई एक गाममां आव्यो. त्यां थोडा लोकोने जोई शेठे कडं के, "आ गाम उज्जड लागे छे." शीलवती बोली, "आ गाम उज्जड नथी पण अहिं सात 'पाडा साथे लोको वसे छे." त्यांथी आगळ चालतां शीलवती रत्नाकर शेठने ते गाममां आवेला पोताना मामाने घेर लई गई. त्यां रत्नाकर शेठ स्वस्थपणे रह्यो अने त्यां जमवाने भोजन मन्यु. मोशाळना लोकोए स्नान, तथा मान आपवाने शीलवतीने ते दिवसे रोकी. बीजे दिवसे चालती वेळाए तेणीने करंबानुं भातुं आप्यु. मार्गमां कूवा पासे आवेला एक वडनी पासे आवी ते भातु खावाने बेठी. तेवामां वडनी उपर रहेलो एक कागडो आ प्रमाणे बोल्यो. "जो तुं मने आ करंबाना भातामांथी कांईक आपे, तो हुँ तने द्रव्यना भंडारनी भूमि बतावू." कागडाना आ शब्दो सांभळी ते गुणोना स्थानरूप शीलवती आ प्रमाणे बोली-"एक अपराधने लईने मने घरनी बहार काढवामां आवी, हवे जो हं बीजो अपराध करूं तो मारा पिताना घरने पण मेळवी शकुं नहीं, तेथी हे कागडा, तुं मौन धरी ले, फरीवार बोलीश नहीं. ज्यां गुण तथा अवगुणनो विचार न होय, त्यां रहेतुं न जोईए. कदि कोई कर्मयोगे तेवू स्थान मळे, तो त्यां मौन राखq वधारे सारं छे. कारण के तेवा स्थानमां सत्पुरुषोना गुण पण निश्चे अवगुणरूप थई जाय छे." शीलवतीनां आवां वचन सांभळी रत्नाकर शेठे कां. "वध, तमे ए शुं का?" "जे में कर्तुं छे, ते सत्य ज छे अने तेवू मारामां प्रत्यक्ष जोवाय छे." शीलवतीए उत्तर आप्यो. विशेषमां जणाव्यु के, "शुकपक्षी वाणी बोलवानावढवाना गुणथी पांजरामां पुराय छे, रत्नोना गुणने लईने ज रत्नाकर-समुद्रनुं मंथन देवताओए पण कयु हतुं; अगरु चंदन सुगंधना गुणने लईने अग्निनो संताप पामे छे, तेज गुणने लईने चंदननुं वृक्ष अति छेदन तथा घर्षण पामे छे अने मुक्ताफळ पण गुणने लईने ज लोकमां वींधाय छे, तेवी रीते प्राणी पण गुणने लईने पराभव पामे छे. मने पण ज्ञानगुणने लईने ज अनादरपणुं प्राप्त थयु, कारण के रात्रे हुं सुती हती, तेवामां शीयालणीनो शब्द मारा सांभळवामां आव्यो. तेमां कडं के, "नदीमां एक सुंदर स्त्री- अलंकार सहित मडदुं तणातुं जाय छे, ते मड, खेंची तेना आभूषणो लई, पछी ते मडईं मने आपो." आ प्रमाणे सांभळी हुं घडो लईने गई अने वेगथी में ते मडदाने खेंची ते शब शीयालणीने आप्युं अने 1. पाडो-महेलो.
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. शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा अलंकारो में लई लीधा. ते गुणने लईने तमारा जेवाए मने आ स्थितिए पहोंचाडी. वळी आ कागडो पण कहे छे के, "तमे मारी पासेथी दशलाख सुवर्णनो भंडार ग्रहण करो अने आ करंबो मने आपो." ते उपरथी हुं आ कागडाने निवेदन करुं छु के, "हुं ते सुवर्णना भंडारने ग्रहण करीश नहीं, कारण के आ शेठे मने विना अपराधे स्थान-घरनो त्याग कराव्यो छे. का छे के, 'एकवार अपराध करनार सर्वने (सुधारवाना साधनरूप) स्थान आपq. दांत बीजीवार पडे छे, त्यारे तेमने मुख पण छोडी दे छे." वधू शीलवतीनां आ वचनो सांभळी जेनां अनेक रूंवाडां खडां थयां छे एवो ते रत्नाकर शेठ आ प्रमाणे बोल्यो, "वत्से, तमे जे रात्रीनो वृत्तांत कहो छो, ते शुं सत्य छे?'' शीलवती बोली, "हा, ते सत्य ज छे. जो तमे ते मानता न हो, तो आ कागडाना वचननी खात्री करो, जेथी तमोने पाछळना वृत्तांतनो पण निश्चय थाय." पछी रत्नाकर शेठे ते कागडाने करंबो आप्यो, एटले ते पक्षीए ज्यां भंडार हतो, ते भूमि बतावी. ते पृथ्वीमांथी खोदी काढेलो द्रव्यनो निधि शेठे हर्षित हृदये ग्रहण करी लीधो. पछी जाणे लक्ष्मी होय अथवा पोतानी कुळदेवी होय तेवी शीलवतीने मानतो रत्नाकर शेठ तेणीने रथमां बेसाडी चालतो थयो अने तेणे रस्तामा प्रथमना संशयो पूछ्या. शीलवतीए ते बधा संशयोना खुलासा आ प्रमाणे कर्या. "जे गाममां आपणे बंनेने भोजन वगैरेनी बधी सामग्री मळी, ते गामने उज्जड केम कही शकाय? जे घायल थयेला पुरुषने तमे चोर कह्यो हतो, ते पुरुष कुटायेलो हतो. कारण के जे पुरुष भयथी पलायन करे छे, तेवा सत्त्वहीन पुरुषना पृष्ट उपर प्रहारो लागे छे. तेथी तेवो पुरुष कुहित-कटायेलो कहेवाय छे. जे नगरने में उज्जड कडं हतुं, तेनुं कारण ते नगरमां स्वजनो न होवा, हतुं. ज्यां कोई स्वजन न होय, त्यां वास करवो न जोईए. तमे वृक्ष नीचे रह्या हता, पण डाह्या पुरुषे रात्रे वृक्ष नीचे रहेवू न जोईए. कारण के त्यां रहेनारा माणसोने प्राये सर्प अने चोर वगेरेनो भय उत्पन्न थाय छे. पेला खेडुतना संबंधमां एवं हतुं के, जो खेडुत वधारो आपवाना ठरावथी धान्य लईने खेतरमां वावे, तो तेनुं खेतर भक्षित थई गयेलुं समजवू. तेमाथी कांई धान्य उत्पन्न थयेलुं मानवू नहि. पेली नदीमां में मारी पादुका पगमा उतारी न हती, तेनुं कारण ए हतुं के, नदीमां पगने पीडे तेवा कांटा तथा कांकरा रहेला होय छे." वधू शीलवतीना आ खुलासा सांभळी विद्वान् रत्नाकर शेठे आ प्रमाणे चिंतव्यु के, "वधू सामान्य नथी, पण मान आपवाने योग्य छे. अने जाणे कोई जुदी ज (विलक्षण गुणवाळी) थई गई होय तेम मने खात्री पूर्वक लागे छे." पछी ते शेठ श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा घरे आव्यो त्यां शीलवतीए तेने पेला अलंकारो बताव्या. ते अलंकारो सोनाना जोई रत्नाकर शेठ मधुर अक्षरे बोल्यो, "वत्से, चक्रवर्तीने गंगानदीनी जेम तुं मने स्वच्छताथी पवित्र करनारी अने नवनिधिने आपनारी थई छो, पण ते गंगानदी जड (ल) वाळी छे अने तुं जड रहित छे, एटलं तारामां विशेष छे. सुमनस्थी शोभती एवी तुं मारा घरमां कल्पवल्लीनी जेम सदा सत्वर फळ आपनारी थई. हवे तुं सारा स्थानमां स्थिर थईने रहे. हे निर्दोष वधू, अविचारी काम करनारा में उत्सुकताने वश थई जे कांई तारी विरुद्ध कयुं छे ते क्षमा करजे." पछी रत्नाकर शेठे पोतानी स्त्री अने अजितसेन पुत्रनी आगळ रस्तामां जे वृत्तांत बनेलो ते कही संभळाव्यो, ते सांभळी तेओ बने पोताना हृदयमां परम आनंद पाम्या, वधूना गुणोथी मनमां राजी थयेला ते सासु ससराए द्रव्यना भंडारने आपनारी शीलवतीने घरनी मुख्य नायिका करी. ते द्राक्षानी जेम कोमळ, रसवाळी, तापने वारनारी, स्वच्छ अने लघु छतां पण लोकोने सदा स्वस्थता आपनारी थई पडी. ते पछी केटलेक दिवसे रत्नाकर शेठ पोतानुं आयुष्य पूर्ण करी विधिथी अनशन लई, क्षामणा करवामां आदरवंत थतो पंचनमस्कारमां प्रीतिवाळो थई, देव तथा गुरुनु स्मरण करतो अने व्रतोच्चार करवामां सावधान थतो परमशांत थई स्वर्गे गयो. पतिना वियोगथी विधुर थयेली श्रीदेवी विशेष श्रेष्ठ आचारवाळी थई अने धर्म करी थोडा ज दिवसे तेनी पाछळ मृत्यु पामी. ज्यारे 3भोक्ता दीर्घनिद्राने पामे छे, त्यारे नित्यताथी भ्रष्ट थयेली अर्थात् अनित्य थयेली श्रीपरलोकने जलदी पामे, ए स्त्रीओनो स्वभाव ज छे. ।।१८५।।
त्यारथी कुमार अजितसेन पण आ संसारनी असारता जाणी हमेशां जैनधर्ममां तत्पर रही परम श्रावक बन्यो. आ समये राजा अरिदमनना मनमां विचार आव्यो के, आ नगरमां जे पुरुष बुद्धिमान् होय, "तेने हुं मारो मुख्य मंत्री बनावं." आq विचारी तेणे तेवा पुरुषनी परीक्षा करवा चौटानी वच्चे एक मोटो गजेंद्र बांधी आखा शहेरमां आ प्रमाणे आ घोषणा करावी के, "जे कोई उत्तम पुरुष आ गजेंद्रने तोळी तेनुं माप सत्वर करी दे, ते पुरुषनी उपर राजा पोताना राज्यनी चिंता मानपूर्वक आरोपण करशे-अर्थात् तेने पोतानो महान् मंत्री बनावशे." 1. सुमनस-सारा मननथी अने कल्पलतापक्षे-पुष्पोथी. 2. द्राक्षा लघु-नानी अने शीलवती पण घरमां सर्वथी नानी छे. 3. श्री-लक्ष्मी ज्यारे तेनो भोक्ता दीर्घनिद्रा-अति प्रमादआळसने वश थाय छे त्यारे ते अनित्य-अस्थिर छतां परलोक-अन्यजनने प्राप्त थाय छे. श्रीदेवी पक्षे दीर्घ निद्रा-मृत्यु परलोक स्वर्गादि स्त्री पण पामे छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा आवी उद्घोषणानो पटह कोईए स्पर्यो नहीं; तेवामां स्पष्ट बुद्धिवाळा अजितसेने आदरथी ते गजेंद्रनुं माप करवा कबूल कयुं अने पटहनो स्पर्श कर्यो. पछी तेणे ते हाथीने वहाण उपर चडावी जलनी बहार रेखा करी. पछी गजेंद्रने वहाण उपरथी उतारी लीधो अने ते वहाणमां पाषाणो मूक्या. पेली जळमां करेली रेखा प्रमाणे वहाण बुड्युं, एटले ते पाषाणो लई लीधा अने तेओनो तोल करी ते उपरथी गजेंद्रनुं माप काढ्युं अने ते राजानी आगळ जाहेर कयु. तेथी संतोष पामी राजाए ते अजितसेनने पोतानो मुख्य मंत्री बनाव्यो. राजाओ, सद्य फल आपवाथी देवताओ करतां पण अधिक लेखाय छे. कुमार अजितसेन मंत्रीश्वरना बुद्धिबळथी राजा अरिदमने घणां अहि-शत्रुओ, दमन करी राजाओना समूहमां प्रताप वडे पोता अरिदमन ए नाम सार्थक कयु.
आ अरसामां ते देशनी अंदर कोई गाममां कोई एक दुर्बळ खेडूत रहेतो हतो. ते श्रीमंतलोकोना आश्रयथी पोतानी आजीविका चलावतो. एक वखते ते खेडूत कोईनी पासेथी बे सारा बळदो लई लांबो वखत खेतर खेडीने संध्याकाळे पोताने घेर आव्यो. ते बळदोए भांभरवा मांड्युं, एटले तेमने पेला तेमना धनवान् धणीने घेर ते लई गयो. ते वखते ते धनवान् कोई काममा व्यग्र थईने लागेलो जोवामां आव्यो, एटले ते खेडूते तेने बंने बळदो सोंप्या नहीं. ते खेडूतना पापोना समूहथी तेज रात्रे चोरोए आवी ते बंने धोळा बळदो हरी लीधा. पूर्वना सत्कर्मथी । रहित एवा ते खेडूतने पेला धनवान् पुरुषे आवी बळदोने माटे पकड्यो, तेमां मोटो कजीयो थयो, एटले ते गरीब खेडूत नाशी गयो. गरीबोनुं बळ राजा छे. एम जाणी ते राजानी पासे जवा नीकन्यो.।।२००।। ते राजा पासे नंदननगरमां जतो हतो, तेवामां कोईए रस्तामां तेने का के, "आ मारो घोडो नाशी जाय छे, तेने लाकडी मारीने पाछो वाळ." ते सांभळी ते खेडूते ते घोडा उपर लाकडीनो घा कर्यो. मर्मस्थळमां घा लागवाथी ते घोडो तत्काळ मरी गयो, तरत ज ते घोडाना धणीए पण तेने विशेषपणे पकड्यो. परस्पर कजीयो करतां तेमने घणी वेळा थई गई. पछी तेओ बधा एक वडना वृक्ष नीचे सूई गया. त्यां एक नटलोकोनुं अद्भुत पेडु आगळथी रहेलुं हतुं. ते नाट्य करी सूई गयुं हतुं अने निद्रा लेतुं हतुं. जवा आववाना श्रमने लीधे बीजा सर्वने गाढनिद्रा आवी गई परंतु ते खेडूतनुं मन क्षुधा, तृषानां दुःखना भारथी दबाई गयेलं होवाथी तेने निद्रा आवी नहीं, तेथी तेणे आ प्रमाणे चिंतववा मांड्यु, "आ जगतमां निर्धन अने मरेला माणसनी वच्चे कांई तफावत नथी. निर्धन माणस जे (काय) चेष्टा करे छे ते प्राणवायुने श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
जलईने तेथी मारा आयुष्यनो क्षय ज थवो जोईए. वळी घणी रीते अन्याय करनार एवा मने राजा विविध जातना केवा केवा वधथी हेरान करीने मारशे, ते कांई जाणवामां आवतुं नथी, माटे आ वडनी शाखा उपर मारा शरीरने पाशवडे बांधी कोई धणी सिवाय रक्षण वगरना मारा प्राणनो हुं त्याग करी दउं." आ प्रमाणे चिंतवी अविचारी, बुद्धिवगरना ते खेडूते गळे फांसो नाख्यो. त्यां भार लागवाथी फांसीनुं वस्त्र तूटी गयुं, तेथी नीचे सुतेला कोई नटनी उपर ते पड्यो अने तेथी ते नट दबाईने मृत्यु पाम्यो. एटले तत्काळ ते बीजा उग्रनटोए ते शरणरहित, निंदनीय काम करनार अने बंधु वगरना खेडूतने बांधी लीधो. प्रातःकाळ थयो एटले पवन जेम आकडाना रूने लई जाय तेम ते विनीत एवा पण खेडूतने बळात्कारे तेओ राजानी सभामां लई गया. ते वखते बधाए मळीने पोतपोतानी प्रख्यात बनेली हकीकत जणावी, त्यारे तेमनो वाद दूर करवा माटे राजाए मंत्री अजितसेननी सामे जोयुं. एटले दुःखी जनना आधाररूप, दयाळु, परनी पीडाने छेदनारा, विचारवाळा अने सदाचारी एवा अजितसेने आ प्रमाणे चिंतव्युं, "जेम कागडाओ अंध बनेला एवा घूवडपक्षीने पजवे, तेम अज्ञानरूप अंधकारथी अंध बनेला आ बिचारा गरीब खेडूतने आ घणा लाको पजवे छे, ए नक्की छे. दीनवदनवाळा, पापनी शरमना स्थानरूप अने क्षुधाथी दुर्बळ पेटवाळा आ माणसनी रक्षा हुं हमणां ज मारी सद्बुद्धिथी करुं " आवुं विचारी तेणे प्रथम पेला बळदना धणीने पूछयुं. "तारा ते बने बळदो दृष्टिथी जोया हता के नहीं?" तेणे कह्युं, "हा, में दृष्टिथी जोया हता." अजितसेने कह्युं "त्यारे तुं तेने दृष्टि आपी तारा बंने बळदो लईजा." पेला घोडावाळाने पूछ्युं के, "तें आ खेडूतने 'घोडाने मार' एम कह्युं हतुं के नहीं?" तेणे हा कही एटले कह्युं के, "हे मार्गने जाणनारा, तुं ते खेडूतने तारी जीभ आपीने घोडो मागी ले." पछी पेला नट लोकोने कह्युं के, "तमारामां कोई सारो माणस होय ते गळे मजबुत फांसो बांधी आ खेडूतने वडनी नीचे सुवाडी तेनी उपर पडे, एटले तमारुं वैर लेवाशे अने तमारो सारो यश कहेवाशे." आ वचनो सांभळी ते नटलोको अने बीजाओ मान मूकीने पोताने योग्य स्थाने चाल्या गया. आवी रीते बीजा पण न्याय चूकवतो मंत्री अजितसेन राज्यनी धुराने धारण करवा लाग्यो . ।। २२१ ।।
एक वखते राजा अरिदमनना राज्यनी पडोशमां रथी एवो एक सिंहरथ नामे शत्रु राजा हतो. तेनी उपर राजा अरिदमन मोटुं कटक लईने चाल्यो. ते वखते मंत्री अजितसेन वियोगना दुःखथी चिंतातुर थई गयो. तेने चिंतातुर जोई श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा सती शीलवतीए पूछ्युं, "स्वामी, तमारा हृदयमां शी चिंता छे?" अजितसेने कां, "हे प्राणवल्लभे, आजे राजा नगरमाथी चाले छे, तो मारे तेनी साथे जर्बु पडशे. हे भद्रे, जो हुँ तने साथे लईने जाउं, तो घर शून्य थई जाय अने तने घरमां मूकीने जाउं, तो मने शांति रहे नहीं, 'ते एक तरफ नदी अने बीजी तरफ वाघ' एना जेवो न्याय बन्यो छे. तेथी ज हुं चिंतातुर थयो छु. ते सिवाय बीजुं कांई पण कारण नथी." पतिनां आ वचनो सांभळी शीलवती बोली, "स्वामिन्, हुं अहिं घरमा रहुं, तो ईच्छित फळने आपनारी 'निर्वृत्ति तमने केम न रहे?" अजितसेन बोल्यो, "हे प्रिया, मारा घरमां बीजुं कोई वृद्ध के नानुं माणस नथी, तो तारा जेवी नानी वयनी स्त्री कदि विनाश पामी जाय. का छे के, "जे वृक्षो नदीने कांठे रह्या होय, जे स्त्री निराश्रय-एकली रही होय अने जे राजाओ मंत्री वगरना होय, ते लांबुं आयुष्य भोगवी शकता नथी." हे शुभे जेम पाकी गयेल अनने बगडतां वार लागती नथी, तेम स्त्रीने बगडतां वखत लागतो नथी. तेथी स्वीओने आ लोक अने परलोकमां हानि थाय छे अने पुरुषोने ग्लानि थाय छे. एथी करीने हमणां मारा मनमां चिंतानो संताप थाय छे." आ सांभळी शीलवती बोली, "स्वामी, आ तमारी वात तद्दन वृथा छे. सीता राक्षसना घरमा हता, त्यारे त्यां तेनो रक्षक कोण हतो? हे प्राणनाथ राजीमती, दमयंती, मृगावती, कळावती, नंदा, भद्रा, सुभद्रा अने मलयसुंदरी एवी अनेक महासतीओ आ पृथ्वी उपर थई । गई छे. तेमनो रक्षक कोण हतो? तेनो तमे विचार करो. जे स्त्रीओनुं मन शुद्ध अने विशेष प्रबोधवाळु छे, तेवी स्त्रीओ विकट एवा संकटमां पण पोताना शीलनु पालन करे छे अने जो तेओर्नु मन अशुद्ध होय छे, तो तेओ पोताना शीलनु खंडन करी नाखे छे. कारण के ते शील पाळवू अने न पाळवू, तेनुं मुख्य कारण मन छे. अने ते मनमांथी कामदेव उत्पन्न थाय छे. त्रिशूलने धारण करनारा शंकरे पोताना जटाजूटमां गंगाने कबजामा राखी छे, तो पण ते विष्णुना चरणमां जाय छे तेनुं कारण ते स्वभावथी निम्नगा-नीची तरफ जनारी छे. ब्रह्माए लक्ष्मीनुं स्थान कमळ बनाव्युं अने ते कमळ एक स्तंभवाळा जळना किल्लामा राख्युं अने पोताना (चार मुखवडे) तेनी रक्षा करी, तो पण ते लक्ष्मी रात्रे कमळने छोडी बीजे चाली जाय छे. तेथी डाह्या पुरुषो पण जे स्त्री चंचळ होय तेनी रक्षा शी रीते करी शके?" 1. सुखशांति. 2. नदीतटे च ये वृक्षा, या च नारी निराश्रया। मन्त्रि हीनाश्च राजानो, न भवन्ति चिरायुषः।।२२९।। श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा शीलवतीनां आ वचनो सांभळी अजितसेन बोल्यो, "प्रिये, ते जे हित करनारी महासतीओ कही, तेओनी साथे बीजी स्त्रीओ स्पर्धा करे, तो ते माननी ग्लानिने ज पामे ते नक्की समजवू. सुख प्राप्त थतां चणोठी पण सुवर्ण साथे तुलनाने पामे छे, परंतु जो ते अग्निनो संताप प्राप्त करे, तो ते भस्म थई जाय." शीलवती बोली, "हे स्वामि, तमे जे कडं, ते उपमान छे, पण जो तेने उपमेय साथे तपावीए तो ते 'अमान कहेवाय छे. एक तो मारा पिताए मने आपेल छे अने बीजी तमे मने आपेल छे. ए रीते अमूल्य रत्ननो योग थवाथी मारामां बे रीते सुवर्णता रहेली छे. जे विषगर्भा छे. जेनुं मुख काळु छे, बीजे बधे जेनामां रक्तता छे अने जाड्यरक्षाने माटे वा-नरोनी साथे जेनी संगति छे, तेवी चणोठी मारी समान होई शके नहीं. अर्थात् मने चणोठीनी उपमा घटे नहीं. जेम शेषनागनी फणामांथी रत्न लेवाने समर्थ कोण छे? तेम मारा अंगनो स्पर्श करवाने समर्थ कोण छे? लक्ष्मीना लाभवाळा अने सुख समृद्धिने अनुभवता एवा तमारे ए विषे शरीरने सदा पीडा आपनारी फीकर करवी नहीं. हे विभु सत्पुरुष एवा तमने जो मारी वाणी उपर विश्वास आवतो न होय; तो आ एक विशाळ पुष्पमाळा ग्रहण करो. जो सत्सूत्र अने सुमनस्ने आश्रित एवं मारुं शील ग्लानि वगरनु-अखंडित रहेशे, तो आ माळा पण ग्लानि वगरनी-करमाया वगरनी ज तमारा कंठमां सदा रहेशे." आ प्रमाणे कही सदा शीलमां अम्लान अने अशीलमां म्लान थनारी ते माळा शीलवतीए पोताना स्वामीना कंठमां पहेरावी दीधी. पछी कंठमा रहेली ते अम्लान पुष्पमाळाथी जेनो देह अलंकृत छे एवो मंत्री अजितसेन निश्चिंत थई राजानी साथे चाली नीकल्यो. राजा अरिदमन केटलेक दिवसे 'प्रत्यंत देशनी पासे आव्यो. ते देशमां जाति वगेरेनां पुष्पो थतां न हतां. एक वखते मंत्री अजितसेनना कंठमां अम्लान पुष्पमाळा जोई राजाए पूछ्युं, "मंत्रिन् आ चंपा वगेरे पुष्पोनी 1. अमान-मान रहित अथवा अप्रमाण. 2. सुवर्ण सारोवर्ण-रंग अथवा उंची जात. कहेवानो
आशय एवो छे के, हुं पिता तरफी पण सारा वर्ण-उंचा कुळवाळी छु अने तमारा तरफथी पण सारी कुळवाळी छु. ते बंने रीते मारामां सुवर्णता छे. पक्षे सुवण-सोनापणुं छे. ते अमूल्य रत्ननी युक्तिथी एटले अमूल्य रत्नरूप एवां तमारी साथे जोडावाथी मारी सुवर्णता सार्थक थई छे. रत्ननी साथे सुवर्ण जडाय छे. 3. चणोठी-विषगर्भा-अंदर झेरवाळी छे. तेनुं मुख काळ छे अने बीजे बधे राती होय छे, वानर-वांदराओ जाड्य रक्षा-टाढमांथी पोताचं रक्षण करवाने तेने अग्निरूप धारी तेने पासे तापवा आवे छे, पक्षे जे स्त्री अंदर हृदयमां विषगर्भा-झेरना जेवी, काळु मोढुं करनारी अने बीजा नरनी उपर रक्त थई पोतानी जडता राखवाने संगति करनारी छे, तेवी स्त्रीना जेवी हुं नथी. 4. प्रत्यंतदेश-पडोशनो देश. ( नजदीकनो देश)
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा माळा तमे क्यांथी मेळवी? में घणी शोध करावी तो पण आ देशमां कोई ठेकाणेथी मने तेवां पुष्पो मन्या नहीं अने तमारा कंठमां ते पुष्पोनी माळा देखाय छे तेनुं शं कारण?" अजितसेन बोल्यो, "राजेंद्र, आ देशमां आवा भव्य पुष्यो मळतां नथी; परंतु ज्यारे में घेरथी प्रयाण कयु, ते दिवसे मारी पत्नीए आ पुष्पो मारा कंठमां आरोप्यां छे." "मंत्रिन् ते दिवसना पुष्पो अम्लान केम रह्यां छे?" राजाए पुनः प्रश्न कर्यो. "मारी पत्नीना, विश्वना मनने हरनारा शीलना प्रभावथी ते अम्लान रह्यां छे." अजितसेने उत्तर आप्यो. आ सांभळी राजाए विचार्य के अहा! जरूर ते स्त्री देवता होवी जोईए, ते 'सक्षमाचारणा छे. परंतु सुरालयस्वर्गथी दूर रहेनारी छे. राजा अरिदमनने तेना उत्कृष्ट राज्यनी अंदर सेंकडो मंत्रीओ रहेला छे. परंतु तेओनी अंदर चार मंत्रीओ चतुर कहेवाता हता ते चारेमा बुद्धि वडे अजितसेनथी चडीयातो पहेलो मंत्री कामांकुर, बीजो ललीतांगद, त्रीजो रतिकेलि अने चोथो अशोक हतो. ते वखते कार्य करनारा राजाए ते चार मंत्रीओने एकांते बोलावी जाणे पोते वादी होय तेम आ प्रमाणे कडं, "साहसिक अने कठोर एवा हजारो पुरुषो छे, परंतु तेओ कामदेवना प्रसंगमां अबळाओ आगळ पण निर्बळ देखाय छे; आपणा मंत्री अजितसेनने एवी पत्नी छे के जे सार्थ-समूह वगरनी छे, ते छतां ते कामदेवरूपी योद्धाथी जीती शकाती नथी. अहो! केव॑ आश्चर्य!" ते चारे मंत्रीओ बोल्या, "कामदेवरूपी योद्धाथी ते अजितसेननी स्त्री केम न जीताय? जळनी अंदर कदि माछलुं रह्यं होय तो तेने कोण जाणी शके? ते विषे प्रत्यक्षप्रमाण होय तो अमो मानीए. जे अनुमानप्रमाण छे, ते प्रत्यक्षप्रमाणने अनुसरीने रहेतुं छे, एम कहेवाय छे." ते चारे मंत्रीओनां आवा वचन सांभळी विद्वाननी शोभाने धारण करनार अने गौरव-मानना स्थानरूप एवो राजा आ प्रमाणे बोल्यो-"ए अजितसेननी स्त्री कल्याणकारी प्रत्यक्ष लक्षण ए छे के, तेणीना शीलना प्रभावथी सदा अम्लान रहेनारी पुष्पमाळा ते मंत्री अजितसेनना सुंदर कंठमां उंचे प्रकारे रहेली देखाय छे." एक द्रव्य तरफनी अभिलाषाने लईने अजितसेन उपर शत्रुभाव करनारा ते चारे मंत्रीओ बोली उठ्या के, "स्त्रीजातिनी विषमता कोण जाणी शके?" ते पछी तेओमांथी चोथो अशोक मंत्री बोल्यो के "आ स्फुरित बुद्धिवाळा त्रणे मंत्रीओ अहिं रहे अने हुँ 1. जे देवता होय ते क्षमाचारणा पृथ्वी उपर चालनार न होय अने ते स्वर्गथी दूर न होय,
परंतु आ स्त्री सक्षमाचारणा-पृथ्वी उपर चालनारी पक्षे क्षमाना आचरणवाळी छे अने स्वर्गथी दूर रहेनारी छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा एकलो जवा-आववानुं कष्ट सहन करीश. जो के हुं अशोक छं. ते छतां ते बंने रीते सुमनस्ने ग्लानि पमाडी दईश. माटे तमे मने हर्ष करवामां हितकारी एवी आज्ञा आपो."।।२६८।। अशोकनां आ वचनो सांभळी राजाए ते कौतुक जोवा माटे तेने आज्ञा अने द्रव्य बंने आप्यां. पछी ते आज्ञा अने द्रव्य मेळवी अशोक मंत्री आत्माने वश राखनारी स्त्रीनी तरफ त्यांथी चाल्यो. केटलेक दिवसे भव्यजनोने आनंद आपनारा नंदननगरमां आवी पहोंच्यो. त्यां परिवार सहित अने संतापथी मुक्त थई दिव्य अलंकारो पहेरी अने ऊँची जातना वस्त्रोथी मंडित थई शीलवतीना घरनी नजीक एक शून्य घरमां तेणे वास कर्यो. त्यां रही हमेशां गोख उपर बेसी अनुरागवाळी दृष्टिथी शीलवतीने जोतो जोतो ऊँचे स्वरे मधुर गायन गावा लाग्यो अने हावभाववाळी विविध जातनी चेष्टा करवा लग्यो; तथापि वैडूर्यमणिनी जेम ते शीलवतीनुं मन जरा पण भेदायु नहि. विदुषी शीलवतीए ते अशोक मंत्रीनुं वित्त अने चित्त तेनी विकारभरेली घणी चेष्टाओथी जाणी लई पोताना चित्तमां आ प्रमाणे विचारवा लागी-"पुष्पनो अंकुर अखंडित होय त्यारे निर्लज्ज शील धारण करे छे पण ज्यारे तेने खंडित करवामां आवे त्यारे ते पाछो स्वाभाविकपणे उत्पन थई आवे छे ते अद्भुत वार्ता छे. आ संसारपणुं विकारथी ज उत्पन्न थाय छे अने ते पुरुषोमां स्वाभाविक रीते होय छे. जे आ संसार अनंत कहेवाय छे ते सद्वर्तनना अभावथी ज छे." आ प्रमाणे चिंतवी शीलवतीए जेणे पोतानु चित्त तो स्वेच्छाए अर्पण करी दीधुं छे एवा अशोकनुं वित्त हरवा माटे पोतानी दुर्लभ एवी दृष्टि एकवार तेनी उपर नाखी. ते अशोकने जे शीलवती सम्यग्दृष्टि आपनारी थई. तेमां आश्चर्य नथी. कारण के ते सती कुदृष्टिवाळाने सदाकाळ सम्यग् दृष्टि आपनारी ज हती. शीलवतीए दृष्टिदान कयु, ते उपरथी ते अशोक मंत्री पूर्वजोए निषिद्ध करेलुं पण ते पोता, कार्य सिद्ध थई चूक्युं, एम मानतो 4अंधनी जेम सत्वर हर्षने प्राप्त थयो. पछी तेणे एक खुशामत करनारी दूतीने शीखडावी शीलवतीनी पासे मोकली. दूतीए ते पाप भरेली वात शीलवतीने निवेदन करी. ते वात सांभळी सती शीलवतीए दूतीने आ प्रमाणे कडु"गृहवासीओने सम्यक्त्व मूल एवा बार स्थूलव्रतो कहेलां छे. ते प्राणातिपात 1. जे अशोक-शोक रहित होय ते कोईने ग्लानि पमाडे नहीं छतां आ अशोक मंत्री कहे छे
के, हुं नाम अशोक छु छतां सुमनस्-माळाना पुष्पोने अने पक्षे सारा मनवाळाने ग्लानि पमाडी दईश. 2. शील एटले स्वभाव अर्थ पण थाय छे. 3. शीलवती कुदृष्टिवाळामिथ्यात्वीने सम्यग् दृष्टि करे तेवी छे. 4. अंधने दृष्टिदान आपवार्थी ते हर्ष पामे छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा विरति प्रमुख बधां बारव्रतो में श्री गुरुनां मुखथी बुद्धि वडे ग्रहण कर्या छे. ते व्रतोमां बाकीना बीजा व्रतोनो भंग थाय तो ते व्रतोंनी प्रतिक्रिया एटले शुद्धि थईने ते व्रत संधायी जाय छे. पण भांगेलां काचना घडानी जेम तेनुं शीलव्रतनुं संधान थई शकतुं नथी. तेमां खास करीने शेषनाग जेम पृथ्वीने धारण करे छे, तेम स्त्रीओए ते शीलव्रत पोताना अंगवडे सतत धारण करवू जोईए. नहीं तो तेमना सर्व व्रतोनो नाश थई जाय छे. वळी ते शीलव्रत भांगवाथी पाप मोटुं लागे छे अने तेम करवाथी तथा प्रकारनो कोई अर्थ सरतो नथी. म्लेच्छलोकोना पाडामां प्रवेश करीए अने त्यां मांसवडे तृप्ति न थाय तो ते शा कामर्नु? तेथी हुं कदि अनर्थदंड करीश नहि ज कारण के एवी रीते बंने व्रतोनो नाश थतां मारां बने भवनो पण नाश थई जाय." शीलवतीना आ वचनो सांभळी ते दूतीए विचायु के, "जो आ स्त्रीने स्व द्रव्य अर्पण करवामां आवे तो ते स्व-पोताने एटलेपोतानी काया अर्पण करे, खरी रीते घटे छे के, जे आपीए, तेज लईए," आ प्रमाणे विचारी दूतीए अशोक मंत्रीनी पासे आवीने ते सर्व हकीकत जणावी. मानना भंडाररूप एवो अशोक ते सांभळी पोताना हृदयमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो.
द्रव्यथी कामनी सिद्धि थती होय, तो तेमां मारे शुं नुकसान छे? एथी करीने कीर्तिनी वृद्धि थशे अने राजा वगेरेमां मारी विख्याति थशे. लोको पोताना होडकोड पूरा करवा माटे धननो संचय करी राखे छे. जो तेने माटे द्रव्यनो खर्च न थाय, तो ते धन संचय धारण करी राखवो ते दुःखD कारण बने छे. लोकमां धर्म, अर्थ अने कामनो अनुक्रम छे अने तेम करतां मारुं पराक्रम कहेवाशे के धर्म, अर्थ अने कामने माटे माणस पोतानु माथु पण आपे छे." आ प्रमाणे विचारी मंत्री अशोके दूतीने का, "तुं ते शीलवतीने सर्वस्व अर्पण कर अने आ उपस्थित थयेवं पछी, कार्य जे मोटुं अने कष्ट साध्य छे, ते बजाव." अशोकनी आवी आज्ञा थतां ज दूती शीलवती पासे आवीने बोली, "तमारे केटलुं द्रव्य लेवानी खुशी छे?" शीलवतीए उत्तर आप्यो, "मारे अर्धा लाख द्रव्य जोईए छीए." हृदयमां खुशी थईने ते दूती तेणीनी द्रव्यनी आशा पूरी करवाने अने अशोकनी कामपीडा हरवाने सत्वर मंत्रीनी पासे आवी. अशोके अचित्त एवं तेटलुं द्रव्य चित्त सहित अर्पण कर्यु. शीलवतीए खुशी थईने पोताने घेर आवेलुं 1. जो स्व-द्रव्य आपवामां आवे तो स्व-पोतानी काया अर्पण करे, जे स्व आपे तेने स्व
मळवू ज जोईए. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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. शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा ते सर्व द्रव्य स्वीकारी लीधुं अने अशोकने कहेवडाव्युं के, "तारे आजथी पांचमे दिवसे रात्रिने पहेले पहोरे मारे घेर आवq." ते सहृदय अशोके शीलवतीनुं ते वचन वंचना रहित मानी चार दिवसो दुःखथी निर्गमन कर्या. तेटला दिवसोमां शीलवतीए पोताना एक सारा ओरडामां पुरुषोनी पासे मानने खंडन करवा माटे एक कूवा जेवो उंडो खाडो छूपी रीते खोदाव्यो. पछी तेणीए मुखे तथा नीचे चारे तरफ विशाळ एवा ते अंधकूप जेवा खाडा उपर सडेली तळाईवाळो एक पलंग गोठव्यो. चार दिवसोनी अंदर मंत्री अशोके पोतानु हित साधवा माटे पोताना परिवारने कोई कोई ठेकाणे मोकली दीधो अने पोते एकलो रह्यो. ।।३०० ।। ज्यारे पांचमो दिवस आव्यो एटले ते दिवसनी रात्रिनो प्रथम पहोर जतां अशोक शीलवतीने घेर आव्यो. शीलवतीए पेला घरमा रहेली शय्या तेने बतावी ते अशोक ओरडामां पेसी जेवामां ते शय्या उपर बेठो के तुरत ते तळाईनी साथे ज नीचे खाडानी अंदर पडी गयो त्यां चेतना सहित अशोके प्रथम 'शून्यपणानो अनुभव करी पछी पोते सर्व शून्य आश्रित थयेलो छे छतां ते हृदयमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो, "आ स्त्रीए मारुं सर्वस्व लई लीधुं अने मने मारी इच्छा प्रमाणे आप्यु नहीं. आतो बंने हाथ दाझ्या अने पहुवा गया; तेना जेवू बन्यु, ए केवा खेदनी वात! मूर्ख एवा में बलात्कारे बे प्रकारनी लक्ष्मीनो नाश कर्यो अने मारो पोतानो शत्रु बनी जनसमूहमां मारुं अशोक एवं नाम व्यर्थ करी दीधुं. कोई पूर्वना कुकर्मना विपाकथी आ लोकमां तो में आ कुंभीपाक नरकना जेवू स्थान मेळव्यु. हवे परलोकमां शुं थशे? ते हुं शुं कही शकुं? आ शीलवती जिनधर्ममां तत्पर एवी परम महासती छे, ते जो मारी उपर कोप करशे तो ते मने भस्म करी नाखशे." आ प्रमाणे चितवन करतां अशोकने ते स्थाने वर्षनी जेवा लांबा दिवसो पसार थवा लाग्या. दयाळु शीलवती ते स्थळे तेने खावा- पहोंचाडती हती, परंतु ते खावा- दोर साथे बांधेला शराव (रामपात्र)मां मूकीने आपती; पण पोतानी प्रशंसा नहीं करनारा अर्थात् निंदा करनारा तेने ते अंधकूपनी बहार काढती न हती.
अशोकने गये त्रण मास पूरा थया, एटले राजाए पेला त्रणे मंत्रीओनी आगळ जणाव्यु के, "आटला बधा दिवस थया तो पण अशोक केम आव्यो नहीं?" ते समये रतिकेलि-क्रीडानी कळावडे उद्धत अने उत्सुक एवो त्रीजो 1. शून्यपणानो तुच्छपणानो. 2. द्रव्यरूप लक्ष्मी अने शोभारूप लक्ष्मी-एम बे प्रकारनी. 3. अशोक-शोक रहित हतो, ते अशोक-शोक सहित थयो तेथी.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा रतिकेलि मंत्री गर्वथी राजा प्रत्ये बोल्यो, "हे प्रभु अशोक एक वृक्ष छे ते उंचा
भूभृत्ने आश्रित थई उच्चताने पामेलो छे; परंतु तेने एक वशा भांगी नाखे छे. खंडित करेला सुमनस्नी श्रीथी वर्जित थयेलो, शाखा रहित अने निष्फळ थई गयेलो ते अशोकवृक्ष नाश पामी जाय तो ते कोना जाणवामां आवे? हे पृथ्वीपति, हवे मने मोकलो, हुं सर्व समक्ष तेणीने कामवश करी मारा रतिकेलि एवा नामने सार्थक करी बतावू." ते पछी पृथ्वी आज्ञाने प्रवर्तावनार राजा-अरिदमने तेने योग्य द्रव्यनी साथे आज्ञा आपी, एटले ते चपळ मंत्री त्यांथी सत्वर चाल्यो, ते पण प्रथमनी जेम नगरमां जई त्यां रही आदरथी एक लाख द्रव्य आपी पेला खाडामां पड्यो. ते एक लक्ष द्रव्य आपी विलक्ष थई गयो अने शीलवती सलक्ष थई, तेमां कांई आश्चर्य पामवानुं नथी, परंतु ते बंने मंत्रीओ पण 'विलक्ष थई गया, ए अद्भुत वार्ता छे. मंत्री अशोक अने रतिकेलि बने खाडामां पडी फाळने चूकी गयेला बे चीत्तानी जेम परस्पर पोतपोतानी वार्ता करवा लाग्या. मंत्री रतिकेलिनी हकीकत जाणी अशोक मंत्रीने जरा सुख थयु. कारण के तेणे जाण्यु के, रतिकेलिनु एक लाख द्रव्य गयुं छे अने पोतानुं तो अर्ध लाख द्रव्य गयु छे. वळी "मारी एक आंख फूटी अने बीजी आंख रही छे." ए न्याय प्रमाणे मूर्ख अशोक मंत्री पोताने जरा विघ्न रहित मानवा लाग्यो. मंत्री रतिकेलिनो योग थवाथी मंत्री अशोकने जे सुख थयुं; ते घटित छे, परंतु मंत्री रतिकेलि अशोकथी शोकवान् थयो, ते घटित न थयु. सती शीलवती ते रतिकेलिने पण पूर्वनी रीति प्रमाणे अन्नदान आपवा लागी. जेओ जिनधर्ममां तत्पर होय तेमने सर्व प्राणी उपर दया ज होय छे.
आ तरफ राजा अरिदमने पूर्वनी जेम बाकीना बे मंत्रीओने कर्वा एटले त्रीजो ललितांगद मंत्री बोल्यो-'हे जनाधिप! ते रतिकेलि स्वभावथी ज सदा स्त्रीने वश रहेनारो हतो. ते स्त्रीए तेने अवश्य पोतानो दास बनावी दीधो हशे, तेथी ते आपणने भूली गयो छे. जेओ स्त्रीवश होय तेमने मातापितानु स्मरण होतुं नथी. हवे हुं त्यां जाउं अने पाछो तमारी पासे कार्य करीने जलदी आवं, माटे मने आज्ञा आपो," ते पछी राजाए मंत्री ललितांगदने केटलोक द्रव्यनो समूह आपीने मोकल्यो. शीलवतीए प्रथमनी जेम तेनी पासेथी दोढ लाख द्रव्य लईने तेने पण 1. भूभृत् एटले पर्व मंत्रिपक्षे भूभृत्-राजा. 2. वशा-स्त्री अने वृक्षपणे वशा-हाथिणी. 3. सुमनस्-पुष्यो अने विद्वानो. 4. रति-विषयमां केलि-क्रीडा करनार. 5. विलक्ष-लक्षलाख वगरनो पक्षे विलक्ष-विलखो थई गयो. 6. शीलवती सलक्ष-लाख द्रव्यवाळी पक्षे लक्ष-ध्यानवाळी. 7. विलक्ष लाख वगरना अने विलखा. 8. अशोकना भेटो थया छतां. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा तेज खाडामां नाख्यो. तेवी रीते राजाए पेला कामांकुर मंत्रीने मोकल्यो. तेने पण बे लाख द्रव्यनो व्यय करावी तेवी ज रीते खाडामां नाख्यो. ते चारे मंत्रीओ मळी ते अंधकूपमां भयाकुळ थईने रहेवा लाग्या.
___ हवे राजा अरिदमन पोताना शत्रु सिंहरथ राजाने जीती मंत्री अजितसेननी साथे पोताना श्रेष्ठ नगरमां पाछो आव्यो. पेला अंधकूपमां पडेला कामांकुर वगेरे मंत्रीओए शीलवतीने जणाव्यु के, "हे सती कारागृहने आपनारा अहंकारने लईने अमोने वेदना थई छे. आ जगतमां तमारा शीलरूपी उंचा पर्वतने भेदवाने वज्रपाणि इंद्र पण पोते शक्तिमान नथी. तो पछी अमो शी गणत्रीमां? हवे अमारी उपर दया करो अने गर्भाशयना जेवा अने चोतरफ जळवाळा कूवारूप आ खाडामांथी अमोने बहार काढो. आजथी अमो तमारी आज्ञाने उठावनारा सेवक थईने रहीशुं." शीलवती बोली, 'अरे मंत्रीओ, जो तमे मारा कहेवा प्रमाणे करो, तो हुं तमोने बहार काढीश ते ए के "ज्यारे हुं कहुं त्यारे तमारे 'थयु' एम कहेवू." तेओए तेनुं वाक्य कबूल कयु, पछी शीलवतीए पोताना स्वामी अजितसेननी आगळ ते मंत्रीओनी हकीकत जाहेर करी अने तेनी पासे पोताने घेर आववा राजाने आमंत्रण कराव्यु. अहीं शीलवतीए छूपी रीते भोजननी उत्तम सामग्री तैयार करावी, पछी जे स्थाने ते चारे मंत्रीओने राख्या हता, ते स्थाने ते भोजननी सामग्री गुप्त रीते राखी मूकी. ज्यारे राजा अरिदमन शीलवतीने घेर आव्यो त्यारे तेणीए आदर-मान आप्युं, परंतु कांईपण भोजननी सामग्री राजाना जोवामां आवी नहीं ते वखते राजाए चिंतव्यु के, "आ स्त्रीए मने परिवार सहित भोजन करवा बोलाव्यो छे, पण भोजननी सामग्री विना तेणी मारुं अपमान तो नहीं करे? राजा आ प्रमाणे चिंतवतो हतो, तेवामां शीलवतीए पुष्प वगेरेथी पेला गर्भद्वारनी पूजा करी अने कह्यु के, "केम रसोई तैयार थई?" पेला खाडामांथी चारे मंत्रीओ बोल्या, "हा सर्व रसोई थई गई छे." पछी शीलवतीए पोते ते ओरडामाथी तैयार रसोई बहार लावी राजाने जमाड्यो. अने सेनापति सहित ते राजाने पुष्प तांबूल वगेरेथी सत्कार करी पेलुं मंत्रीओ पासेथी लीधेलुं बधुं द्रव्य तेने अर्पण कयु. ते जोई राजा विस्मय पामी गयो अने तेणे चिंतव्यु के, "खरेखर! आ सती छे के जेणी देवताना सानिध्यथी अदृश्य रीते कार्य करी शके छे. आ सतीनुं स्वरूप अने चरित्र वर्णन करवाने कोण समर्थ छे? जेणीना मात्र वचनथी ज सर्व संपादन थाय छे." आq चिंतवी राजाए शीलवतीने पूछ्युं, "हे सती तमोने आ केवी सिद्धि प्राप्त थई छे?" शीलवतीए कडं, "में चार यक्षो सदाने माटे साध्या
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
छे." राजा बोल्या, त्यारे ते यक्षो मने आपो, जेथी मने मनवांछित समृद्धिओ प्राप्त थाय." कोई शुभ मुहूर्तमां ते चारे यक्षोने तमारे घेर मोकली आपीश. " शीलवतीए उत्तर आप्यो. पछी राजा अरिदमन पोताने घेर गयो एटले बीजे दिवसे शीलवतीए ते चारे मंत्रीओने खाडानी बहार काढ्या, पछी तेमने जळथी स्नान करावी, सुगंधी चंदन वगेरेथी चर्चित करी अने कंडीआमां मूकी वार्जित्रोना नाद साथे ते राजाना स्थानमां लई गई. राजाए तेणीने मान आप्युं. पछी ए महाराजाए हर्षथी अखंड शोभाना स्थानरूप ते कंडीआ माणसो पासे रसोडामां मूकाव्या. ते दिवसे राजा रसोयाने रसोई करवानी ना कही अने ज्यारे भोजननी वेळा थई एटले राजा जमवाने आव्यो. ते कंडीयानी पुष्प वगेरेथी पूजा करी राजाए पूछ के - " रसोई तैयार थई?" तेओए कंडीयामांथी "थई" एम कह्युं, पण रसोई जोवामां आवी नहीं. तेथी राजा चिंतव्यं के, "ते शीलवतीना वचनथी आ यक्षोए सर्व प्रकारनी रसोई आपी हती, परंतु तेओ हमणां मने केम आपता नथी? माटे आ कंडीयाना द्वार उघाडी ते यक्षनी समीप प्रत्यक्ष रीते पूछु के, "तेमणे शीलवतीने रसोई आपी अने मने ते केम न आपी ? " ।। ३५० ।। आवुं चिंतवी राजाए ते कंडीया खुल्ला कर्यां, तेवामां जेमना अंग उपर अस्थि - चर्म अवशेष रह्युं हतुं अने जेमनी आकृति घणी बीभत्स देखाती हती तेवा ते राक्षसना जेवा चारे जणा जोवामां आव्या. तत्काल राजाए पोताना माणसोने कह्युं के—
"आ प्रत्यक्ष राक्षसोने मारी नाखो, नहीं तो तेओ आपणो अवश्य नाश करशे.” राजाना आ वचन सांभळी तेओ भयभीत थईने नम्र पणे बोल्या के, "अमो साक्षात् राक्षस नथी, पण कामांकुर वगेरे तमारा मंत्रीओ छीए." राजाए आश्चर्य पामी पूछ्युं, "तमारी आवी अवस्था केम थई?" तेओए शीलवतीए करेली पूर्व वृत्तांत राजाने कही संभळाव्यो. तत्काळ राजाए शीलवतीने मंदहास्यपूर्वक आ प्रमाणे उच्च स्वरे कह्युं के - "हे भद्रे ! लोकमां विद्वानो कहे छे के, 'स्त्री अबळा छे.' ते कथन तमे आ सबळ पुरुषोने जीती लई मिथ्या करी बताव्युं. प्राये करीने बुद्धि सर्वना करतां मोटी छे, एम विद्वानो कहे छे. तेम संतोष अने तोषवाळा छो, छतां वाम - विषमबुद्धिना स्वभावने लईने आ चारे पुरुषोनुं धन ग्रहण कयुं, तेनुं शुं कारण छे? ते कहो." शीलवती बोली, "राजेंद्र, तमोए आ चारे निर्धन पुरुषोने घणुं द्रव्य आप्युं तेथी तेओ मदभरेला अने घणां अनर्थोने करनारा थई पड्या. अधम पुरुषो पोतानी बुद्धिथी द्रव्य वडे अनर्थ साधे छे, मध्य पुरुषो अर्थने ज साधे छे अने उत्तम पुरुषो परमार्थने साधे छे. आ चारेनो श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा मद हरवाने अने मारुं शील साचवी राखवाने में मारी बुद्धिथी तेओना अनर्थना मूलरूप धनने लई लीधुं." शीलवतीना आ वचन सांभळी राजा बोल्यो, "हे क्षमानिधि, आ तो में ज तमारी उपर अनर्थ कर्यो, ते मारो अपराध क्षमा करो." शीलवती बोली, "हे नराधीश! आ तमारो अपराध नथी, तेम आ मंत्रीओनो पण अपराध नथी; कारण के संसारी जीवो ज एवा होय छे. अंतरना छ शत्रुओना वर्गमां कामने प्रथम मानेलो छे; कारण के तेने लईने बीजा क्रोध वगेरे उत्पन्न थाय छे. का छे के, काम, क्रोध, लोभ, मान, हर्ष अने मद ए अंतरना छ शत्रुओनो जे वर्ग छे, तेनो त्याग करवाथी माणस सुखी थाय छे. जे बहारना शत्रुओ छे तेनाथी ए अंतरना शत्रुओ बलवान् छे. 'व्याकरणमां पण बहिरंग विधिथी अंतरंग विधि बलवान् छे. एम कर्दा छे के धर्मथी अर्थ द्रव्य नामनो पुत्र उत्पन्न थाय अने ते अर्थ द्रव्यना मूलमांथी कामरूपी पुत्र उत्पन्न थाय छे ते कामने लईने तेनो पिता अर्थ द्रव्य क्षय पामे छे अने पछी तेनो पितामह पितानो पिता धर्म पण क्षय पामे छे. पुरुष स्वदारा (स्त्री) संतोषी थवाथी शुद्धने सौने बचावनार थाय छे अने परस्त्रीमा प्रीतिवाळो थवाथी ते आ विश्वनी अंदर निर्धन, निर्बळ अने रति वगरनो थई रहे छे." ईत्यादि विविध वाक्यो वडे शीलवतीए राजा अरिदमन अने ते चारे मंत्रीओने प्रतिबोध आपी उत्कृष्ट एवी शीलवतीनी संपत्तिने प्राप्त करनारा करी दीधा. ते पछी कामांकुर वगेरे ते मंत्रीओए शीलवतीने कर्वा के, "तमोए अमोने धर्मदान आप्युं छे, तेथी तमे आजथी अमारा गुरूणी छो. पाषाणना जेवा अमोने उंचे प्रकारे संताप आप्या सिवाय अमारी अत्यंत कल्याणता अने विश्वमा श्रृंगारता क्यांथी प्राप्त थाय? "पछी राजाए ते वखते पोतानी बहेननी जेम शीलवतीने मान आपी अने वस्त्र अलंकारोथी सत्कार करी तेणीने घेर पहोंचाडी. ।।३७१।।
राजा अरिदमन वगेरे लोको पोतपोताना धर्ममां तत्पर थई वर्त्तता हता, तेवामां दमघोष नामना सूरि घणां साधुओना परिवार साथे त्यां आवी चड्या. ते खबर जाणी राजा, चार मंत्रीओ, मंत्रीराज अजितसेन अने शीलवती सती ते सर्व श्री गुरुने वंदना करवा गया गुरुए हितकारी अने निर्मल एवो धर्मोपदेश आप्यो. 1. व्याकरणमां शब्दनुं रूप सिद्ध करवामां जे नियमो लागे छे. तेमां जे नियम शब्दना अंदरना
भागने लागु पडे ते अंतरंग विधि अने बहारना भागने लागु पडे ते बहिरंग विधि कहेवाय
छे. ज्यां ते बंने नियमो लागु पडता होय त्यां अंतरंग नियम बळवान् थईने लागु पडे छे. 2. कल्याणता-सुवर्णता अथवा मंगलिकता अने विश्वमां शृंगारता. पाषाणने संताप-तपाववाथी तेमांथी सुवर्ण नीकळे छे अने ते विश्वमा शृंगाररूपे वपराय छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
पछी राजाए करकमळनी अंजलि जोडी आ प्रमाणे कह्युं, "आ शीलवती 'वामा छतां पोते शीलवाळी केम थई ? तेमज ते बुद्धिवाळी 2 प्रमदा छे, छतां प्रमदउत्कष्ट मदथी युक्त केम नथी?" गुरु बोल्या, "राजन्, आ शीलवतीए पूर्वभवे शीळनो आश्रय करेलो, तेथी आ भवमां पण तेणीए शीलनी लीला धारण करी छे.” राजा बोल्यो, 'भगवन्, आ शीलवतीनो पूर्वभव केवो हतो?" घणा संकल्प-विकल्पने जाणनारा गुरु बोल्या, "कुशपुर नामना एक श्रेष्ठ नगरमां विदुर नामे एक राजा हतो, ते 'प्रदरनी प्राप्तिमां पण अंदर अने सुंदर देहने धारण करनार हतो, ते नगरमां पापकर्म करवामां मंद, सुखनी लालसावाळो, मूर्खपणाने त्यज़नारो अने पुण्यनी लक्ष्मीना कलशरूप सुलस नामे श्रावक रहेतो हतो. सुयशा नामे एक स्त्री हती. ते स्फुरायमान यशवाळी, पतिने वश रहेनारी गतिथी हाथणीने जीतनारी अने सुंदर स्त्रीओना वर्गमां शिरोमणिरूप हती. तेने घेर स्वभावथी रुचिना पात्र रूप अने दयाधर्ममां तत्पर एवो दुर्गम नामे एक सेवक हतो तेनी पत्नीनुं नाम दुर्गिला हतुं, एक वखते पर्युषणपर्वमा सुयशा श्राविकाए दुर्गिलाने साथै लई साध्वीनी समीपे पौषधव्रत ग्रहण कयुं. त्यां उत्सव थतो जोई दुर्गिलाए चंदन नामनी प्रवर्त्तिनीने पूछयुं के, "आजे कयुं पर्व छे?" प्रवर्त्तिनीए ते भद्रिक स्त्रीने कह्युं, "जेम देवोमां सर्वज्ञ प्रभु, अक्षरोमां ॐकार, दानमां अभयदान, गुणोमां विनय, तीर्थोमां शत्रुंजय, व्रतोमां ब्रह्मचर्य, नियमोमां संतोष सर्व तपमां शम, तत्त्वोमां सदृर्शन अने मंत्रोमां परमेष्ठिमंत्र- नवकारमंत्र उत्तम कहेल छे, तेवी रीते पर्वोनी अंदर पर्युषण पर्व मोटुं कहेलुं छे. आ पर्युषण पर्वमां जिनालयमां के पोताना घरे अष्टाह्निका उत्सव करवो, निर्भय जीवदया करवी, ब्रह्मचर्य पाळवुं, कोईनी साथे कलह करवो नहिं, कुकर्मवाळा व्यापारो छोडी देवा, अमारी प्रवर्ताववी, यशाशक्ति तपस्या करवी, विविध जातना अभिग्रहो लेवा, बे वखत प्रतिक्रमण करवुं, त्रिकाल देवपूजा करवी, पांच दिवसोमां आदरथी कल्पसूत्र सांभळवुं, भावना सहित उत्तम प्रभावनाओ करवी, अष्टम तप करवुं अने श्री जिनेश्वरनुं ध्यान धरवुं तेमां आजनो मुख्य अद्भुत दिवस छे, तेने माटे तो शुं कहेवुं ?" दुर्गिला बोली, "में आजे प्रातःकाले दातण कर्तुं छे, ते छतां जो उपवास थतो होय तो मने करावो." प्रवर्त्तिनी बोल्या, "ते सचित्त 1. वामा एटले सुंदरी अने पक्षे विषम. 2. जे प्रमदा प्रकृष्ट मदवाळी होय ते प्रमदप्रकृष्टमदी रहित न होय - ए विरोध. 3. प्रदर एटले उत्कृष्ट भय, तेनी प्राप्तिमां अंदरभय वगरनो अने सुंदर देहवाळो हतो. अहिं विरोधाभास लेतां प्रदर रोगनी प्राप्तिमां पण अदर-दर वगरनो अने सुंदर देहवाळो हतो.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा
जलवडे दातण कर्तुं छे, तेथी तने उपवास कल्पतो नथी, परंतु तारे आजे एकासणुं करवुं अने निर्मल शील पाळवुं." आ सांभळी तेणीए शीलनुं पच्चखाण लीधुं अने ते प्रमाणे आदयुं. ते पछी दुर्गिला ते साध्वीना संगथी परपुरुषने वर्जित करनारुं अने पर्व दिवसे स्वपतिना त्यागरूप शीळ अत्यंत विधिपूर्वक पाळवा लागी. एक वखते तेणीए पोताना पति दुर्गमनी आगळ ते नियम विषे निवेदन कयुं, तेथी तेणे पण मनमां संतुष्ट थईने साधुनी पासे जई ते व्रत ग्रहण क. ते बने स्त्रीपुरुष बीजानुं अप्रिय न करनारा तथा भयने हरण करनारा अने सम्यक्त्वधारी थई अनुक्रमे आयुष्य पूर्ण करी सौधर्म देवलोकमां परम सुखी देवता थया. ते दुर्गमनो जीव सौधर्मदेवलोकमांथी आवीने आ अजितसेन थयो छे अने दुर्गिलानो जीव त्यांथी आवीने आ सती शीलवती थयेल छे. तेणीए पर्वना दिवसे विशेष ज्ञानभक्ति करी हती, तेथी ते आ शीलवती ज्ञान तथा विज्ञाननुं पात्र बनी छे." गुरुना मुखथी आ वृत्तांत सांभळी अजितसेन अने शीलवतीने तत्काल उंचा प्रकारनुं जाति स्मरण थई आव्युं अने तेथी गुरुए जे प्रमाणे कयुं, तेप्रमाणे ते काले तेमना जोवामां प्रत्यक्ष आव्युं. गुरु बोल्या, "जे शील देशविरतिथी पाळवामां आव्युं होय, ते पण अहिं गुणकारी थयुं, तो जो ते सर्व विरतिथी (सर्वथा) पाळवामां आवे तो तेनुं केवुं (उत्तम) फल थाय ? " || ४०० ।। 2 जगत तरफ एकाग्र बुद्धिवाळा उत्तमवाणीवाळा अने बृहस्पतिना जेवा ते गुरुने ते बने दंपतीए कह्युं, "भगवन् अमोने शिक्षा समान (जेवी आपे कही तेवी यथार्थ) दीक्षा आपो के जेथी ब्रह्मचर्यनी नवगुप्तिने धारण करनारुं परम ब्रह्मचर्य अमो सर्वथा पाळीए." पछी गुरुए ते बनेने दीक्षा आपी अने राजा अरिदमने तथा कामांकुर वगेरे मंत्रीओए ते वखते स्वदारा संतोषव्रत ग्रहण कर्यु. पांच प्रकारना आचारने जाणनारा, पांच समितिने आश्रित थयेला अने पंचमहाव्रतना आधाररूप थयेला ते अजितसेन अने शीलवती बनेए व्रतनुं पालन कयुं. ब्रह्मचर्यने विशेषपणे धारण करतां तेओ बने मृत्यु पामीने ज्ञान सहित साथै ज ब्रह्मदेवलोकमां गया. (उत्पन्न थया.) ते बंनेनुं पुण्य पण अधिक छे, ते कारणने लईने तेओ बने ब्रह्मदेवलोकमां स्थित थया. वळी तेओ बनेने ब्रह्मचर्य सदा प्रिय हतुं, तेथी तेमणे 1. परपुरुष त्याग अने स्वपति संतोषरूप व्रत कायमने माटे अने पर्वदिवसे स्वपति साधे पण विषय भोगनो त्याग करवारूप व्रत आदरथी लई तेने यथार्थ रीते तेणीए पाळेलुं संभवे छे, ए वात त्यार पछीनी हकीकत उपरथी समजाय छे. तेना पतिए पण एवं ज व्रत आचर्यं छे. 2. आमां पण मूलमां ९९मी गाथा नंबर वे वार आप्या छे.
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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा ते ब्रह्मलोकमां ज वास कर्यो. कारण के माणसने ईच्छित स्थान प्राप्त थया पछी ते त्यांथी एक पगलुं पण आगळ चालतो नथी. ते ब्रह्मलोकमां सुखनो अनुभव करी त्यांथी च्यवी पुनः मनुष्य जन्म पामी अने कर्मोनो क्षय करी ते अजितसेन अने शीलवती बंने शाश्वत ब्रह्म-मोक्षपदने पामशे."
"आ प्रमाणे उंचे प्रकारे शीलव्रत पाळीने अनेक विवेकी मनुष्यो स्वर्ग तथा मोक्षना संसर्गथी सुंदर बनी गया छे, एवी रीते में तमने धर्मरूपी कल्पवृक्षनी बीजी शीलरूपी शाखा कही, हवे हे सद्ज्ञानी राजा. हुं तमने तप नामनी त्रीजी शाखा कहुं छु, ते सांभळो," आ पृथ्वीमां जेटलां लौकिकतीर्थो अने लोकोत्तर तीर्थो प्रख्यात थयेलां छे, ते बधा तपथी ज थयेलां छे. वाल्मीकी अने व्यास प्रमुख जे लौकिक महर्षिओ अने हरिकेशी बळ वगेरे जे लोकोत्तर महर्षिओं हीनकुलमां उत्पन्न थयेलां छतां प्रभुता अने देवताओ वडे सेवित थई आ विश्वउपर विख्यात थई गया छे, ते तपनुंज फळ समजजो. जेओने म्लेच्छोना संसर्गथी कदि म्लेच्छता थई गई होय तेवाओने पण तपथी सारा वर्णोए वर्णन करेली शुद्धि थई जाय छे, उत्तम हृदयवाळा पुरुषोने ताप करे तेवा ब्रह्महत्यादि महा पापो लागी गया होय, तेवा पापोनो क्षय तपथी क्षण मात्रमा थई जाय छे. कुतप-नठारुं तप पण आ लोकमां मिथ्या गुणस्थाने रहेला माणसोथी पूजाय छे, तो पछी उत्तर गुणस्थाने रहेला मनुष्यो सारा तपने केम मान न आपे? ते तपना बार भेद छे अने 'द्वादश भेदवाळा सूर्यनी जेम ते दोषापह, रुचिकर अने सच्चक्र योगने करनार थाय छे. जेम चंद्रहास-खड्गवडे तेजना विलासने धारण करतो, समाभृत्-राजा कोश-खजाना वगरनो होय तो पण तप वडे विग्रह-युद्ध करवाथी सर्व शत्रुओने पूर्ण रीते जीती ले छे, तेम तपवडे विग्रह शरीर खपावतो क्षमाधारी पुरुष चंद्रहास-चंद्रना प्रकाश जेवा तेजने धारण करतो कोशहीन-निर्धन छतां पण अंतरना सर्व शत्रुओने पूर्ण रीते जीती ले छे. ज्यां सुधी देहनी अंदर अन्नपाननो प्रवेश अटकावाय नहीं, त्यां सुधी ते देहना किल्लामा रहेला कर्मरूपी शत्रओनो 1. सूर्यना द्वादश स्वरूप छे, अने दोषापह-दोषा-रात्रिनो नाश करनार, रुचिकर-प्रकाश
आपनार अने सारा चक्रवाक पक्षीना जोडलाने योग-मेळाप करनारो छे, तप पक्षे तपद्वादश भेदवाळू, दोषापह-दोषनो नाश करनार, रुचिकर-तेज अथवा श्रद्धा करनार अने सत्पुरुषोना चक्रसमूहनो योग करनार थाय छे. 2. किल्लामां भरायेला शत्रुओने माटे ज्यारे खोराक तथा पाणी अटकाववामां आवे त्यारे ते हारी जाय छे. तेथी ज्यां सुधी देहमां अन्न पाणी लेवामां आवे अर्थात् उपवास प्रमुख तप करवामां न आवे, तो कर्म रूपी शत्रुओनो विजय करी शकातो नथी.
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तप उपर निर्भाग्यनी कथा विजय थई शकतो नथी. ज्यारे सूर्य उत्तर दिशानो आश्रय करे छे, त्यारे ते तेजनो निधि बने छे अने तेज सूर्य जो दक्षिणाशा-दक्षिण दिशाने भजे छे, तो ते आ लोकमां वसुहीन थई जाय छे. आ लोकमां तपस्याथी आकाश गामिनी शक्ति वगेरे लब्धिओ मळे छे अने परलोकमां शिवसंपत्ति प्राप्त थाय छे. पूर्वे दुष्कृत्यो कर्या होय तो पण जो जीव आदरथी दुष्कर तप आचरे छे, तो ते निर्भाग्यनी जेम उंचा प्रकारना सुखोने भोगवे छे."
आ वखते राजा पद्मसेने प्रश्न कर्यो के, "ते निर्भाग्य कोण हतो? तेणे केयूँ तप कयुं हतुं? अने ते केवी रीते सुख पाम्यो?" ।।४२३।। श्री ब्रह्मगुप्त गुरु बोल्या
निर्भाग्यनी कथा अहिं धातकी खंडमां प्राग्विदेह नामे (पूर्वमहाविदेह) क्षेत्रना आभूषणरूप अचळ नामे एक गाम छे, तेमां सिंह नामे एक ते ग्रामनी चिंताकरनार-नायक हतो तेने शील वगेरे गुणोथी शोभती सिंहला नामे पत्नी हती. ते सिंहने सुखरूपी जळनी नीकना जेवो घणो काळ गयो नहीं तेटलामां तो (अल्प समयमा ज) तेना दुर्भाग्य योगे तेनी पत्नी सगर्भ थई, त्यां कोई नठारा कर्मयोगे शत्रुओए आवी ते बाळकना पिताने मारी नाख्यो अने तेना घरनी साररूप वस्तुओने हरी लीधी. आ बनावथी सिंहला नठारी स्थितिमां आवी गई. दुःख आपवाथी विकराळ एवो समय आवतां सिंहलाने पुत्र जनम्यो. ते समये विवेकी लोकोए विखवादथी विचार कर्यो के, "आ पुत्र गर्भमां आवतां ज तेनो पिता द्रव्य साथे विनाश पाम्यो, तेथी कल्याणना विस्तारने छोडावनारा आ पुत्रनुं नाम निर्भाग्य राखो." तेवा विषम नामथी ते लोकोमा प्रख्यात थयो. माता सिंहला लोक नीतिने लईने ते पुत्रने उछेरवा लागी. अने बाळक निर्भाग्यने हर्ष रहित आठमुं वर्ष बेठे, त्यारे तेनी माता मृत्यु पामी गई. पछी ते बाळक पोताना प्राण- गुजरान करवा "मार्ग रहित भिक्षा मागवा लाग्यो. अभाग्ययोगे गुणोना समूहथी रहित एवा तेने गाममां कोईपण भिक्षा आपतुं न हतुं तेथी ते कंगाळ ते गाममांथी नीकळी पृथ्वी उपर भमवा लाग्यो. कोई देवग्राम नामना गाममां आवी चडतां ते तेना पिताना दत्त नामना कोई मित्रना जोवामां आव्यो. तेणे तेने कर्वा के, "तुं सारा आचरणथी 1. उत्तर काष्टा-उत्कृष्ट तप. 2. दक्षिणाशा-दक्षिण दिशा अने पक्षे दक्षिणा-द्रव्यदाननी आशा. . 3. वसुहीन-किरण रहित पक्षे द्रव्य रहित. 4. चिंता करनार-संभाळ राखनार-रक्षण करनार. 5. मार्ग रहित एटले उन्मार्गे, अथवा ज्यां मळे त्यांथी. 104
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तप उपर निर्भाग्यनी कथा मारे घेर रही आ मारी भेंसोने चार अने तारा पूर्वना दुस्तर दुःखने अटकाव." ते दत्तना गोरसनुं पान करी ते दुर्भाग्ये पोतार्नु ज कृष्णत्व छोडी दीधुं, तथापि तेणे गोपालपणुं मेळव्युं, तेनुं कारण गुरु स्नेह ज छे.
___ एक वखते दूरथी चोरोए आवी ते निर्भाग्यने भेंसोनी साथे पकड्यो अने लीली वाधरीथी तेने बांधी एक वृक्ष नीचे मूकी दीधो. त्यां ते क्षुधा, तृषा अने भयथी आकुल-व्याकुल थई सात रात्रि सुधी रह्यो. पछी भवितव्यताने योगे तेने शरीरे बांधेली वाधरीने कोई शीयाळ आवीने खाई गयुं, एटले ते बे प्रकारे मुत्कल-मोकळो थई गयो. पछी त्यांथी छुटीने गाममां आव्यो. त्यां पोताना हृदयमा रहेलो चोरोनो वृत्तांत दत्तने निवेदन कर्यो. पछी मनोहर वर्षाकाल आव्यो, एटले दत्ते ते निर्भाग्यनी पासे घासनी खेती करावी, पण ते समये वरसाद ज आव्यो नहीं, एटले पृथ्वीपर घास पण थयु नहीं. एक वखते दत्ते तेने कपास लेवाने माटे कोई सारा शहेरमां मोकल्यो, त्यांथी पाछा वळतां विकट मार्गे अग्नि लागवाथी तेनु गाईं ज बळी गयु. पछी ते निर्भाग्य केटलेक दिवसे दत्तनी पासे आव्यो. फरीवार दत्ते तेने द्रव्य आपीने समुद्र मार्गे मोकल्यो. प्रमादने लईने तेनुं वहाण समुद्रनी अंदर भांगी गयुं. त्यां एक वहाण पाटीयु मेळवी सात दिवसे ते समुद्रने कांठे आवी पहोंच्यो. ज्यारे देह सारो थयो, एटले ते अनुक्रमे त्यांथी व्याघ्रनगरमां आवी पहोंच्यो. त्यां रात्रे कोई निर्जन देवालयमां सुई रह्यो. ते अरसामां शरीरनी शोभाथी सुंदर एवा ते नगरना व्याघ्रदमन राजाने अतुल्य रसवाळा वंध्यनगरना समरसेन राजानी साथे विग्रह चालतो हतो, तेथी तलारक्षकपोलीस लोकोए ते सुतेला निर्भाग्यनी उपर एक हेरूनी शंका लावी तेने पकडी लीधो. राजानी आज्ञाथी तेओए तेने बलात्कारे कारगृहमां नाख्यो. ते निरपराधी हतो तो पण मजबुत बेडीओथी तेना पग बांध्या. त्यां ते एक वर्ष सुधी रह्यो. कारगृहमां तेने कोईवार मासे के पखवाडीए आहार मळतो, तेथी ते मुवा जेवो थई गयो. कारागृहना चोकीदारो तेने मरी गयेलो जाणी स्मशाने लावीने मूकी गया. त्यां शीतल पवनने लईने तेनामां जरा चेतन आव्युं. दैवयोगे तेने करंभाथी 1. गोरस-गो-वाणीनो रस प्राप्त करी दुर्भाग्ये पोतानुं कृष्णत्व-दु:खनी काळाश छोडी दीधी
अने तेणे गोपालपणुं-गाय सोने पालन करवापणुं प्राप्त कयुं, अर्थात् ते गोपाल बन्यो. गोरस-गायनुं दूध, दहीं वगेरेनुं पान करवाथी शरीरनी काळाश दूर थई जाय छे. तेम निर्भाग्यने बन्यु, विरोधपक्षे गोरसनुं पान करे ते कृष्णरूपताने छोडी गोपाल नाम धारण करे. गुरुस्नेह-मोटा भाग्यवंत साथे स्नेह प्रीति पक्ष गुरु-वधारे, स्नेह-दूध, दहीं प्रमुख स्निग्ध-रसकसवाळू भोजन. 2. मुत्कल-मोकलो अने हर्षित. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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तप उपर निर्भाग्यनी कथा भरेलुं एक रामपात्र मळी गयु. तेनो आहार करी ते त्यांथी आगळ चालतो थयो. मार्गमां चालता तेने विचार आव्यो के, "ज्यारे हुं गर्भमां हतो त्यारे मारा पिता पूर्वे मृत्यु पाम्या अने घरमांथी बधुं धन नाश पाम्यु. बाल्यवयमा ज मारी माता मरी गई, वळी मारा पिताना मित्रे मने जे जे उद्योग कराव्या, ते ते मारो उद्योग निष्फळ थयो. जे उद्योगथी सर्वेने संपत्तिओ थाय छे, ते उद्योगथी मने उलटी विपत्ति थई आवी. जेने अमृत विषरूप थई जाय, तेने माटे बीजो शो उपाय? आ लोकमां घणा माणसो हजारो माणसोना पेट भरनारा होय छे, त्यारे मारु एकनुं पेट भरवामां पण विधिए मने वंचित राख्यो. केटलाएक दिव्य अलंकार पहेरनारा अने सुंदर आकृतिवाळा उत्तम पुरुषो आ लोकमां रहेला छे त्यारे मने निराधार अने अपार कारागार वगेरेनी पीडा थई पडी छे. हवे धर्म, अर्थ अने कामथी रहित एवा आ जीवितथी सयुं, तेथी हुं कई उपाय करीने मारा प्राणनो त्याग करी दउं"।।४५५।। आ प्रमाणे मार्गमां विचार करतो निर्भाग्य चालतो हतो, त्यां आगळ एक महान् पर्वत आव्यो. ते जोई भृगुपात करवा माटे ते पर्वत उपर पोते चड्यो. तेवामां सुगंधि पवन वायो, सुगंधी जलनी अने पुष्पोनी वृष्टि थई अने चेल-वस्त्रो उडतां जोवामां आव्यां. तेज समये उत्तम वृक्षोवाळा महान् पर्वत उपर आकाशना गह्वरमांथी दुंदुभिनो ध्वनि संभळायो. तरत ज ते विस्मय पामी जेवामां त्यांथी आगळ चाले छे तेवामां कमळ उपर बेठेला, देव दानवोए सेवेला अने साधुओना समुदाय परिवार वडे युक्त एवा श्रीमानदेव केवली मुनिने तेणे अवलोक्या. केवली तेने जोई आ प्रमाणे बोल्या, "अरे! तुं दुःखने लईने मरवाने ईच्छे छे, परंतु पापथी उत्पन्न थयेलुं आ दुःख तो तारे मृत्यु वश थया छतां पण रहेवानुं छे. ते जडबुद्धिथी पूर्वे मुनिने दानांतराय कर्म कयुं हतुं, तेथी ते लांभातराय निकाचित बांधेलुं छे तेने लईने तने कोई पण ठेकाणे पण लाभ थशे नहीं." केवलीना आवा वचन सांभळी ते दुर्भाग्य बोल्यो. "भगवन्, 'मारो पूर्वभव कहो' केवली बोल्या, पुष्करार्ध द्वीपना भरत क्षेत्रमा रथपुर नामे नगर छे. ते नगरमां चंद्रापीड नामे राजा हतो. तेने ते समये जगद्वर नामे समान वयनो मित्र हतो. ते जगद्वर मिथ्या दृष्टि कुशास्त्रोना समूहमां कुशळ अने अकुशळनो आश्रित हतो. एक वखते ते उद्यानमां गयो त्यां धर्मेश्वर नामना उत्तम सुरिने जोई तेमने उपहासथी प्रणाम करीने कर्वा के, मने कंईक धर्मनो उपदेश करो." गुरु बोल्या, "मनुष्योए दुर्लभ एवं मनुष्यत्व मेळवीने शुभवासनामां तत्पर रही देव, गुरु अने धर्मना 1. भृगुपात-शिखर उपरथी पडवू ते. तेने लोको भैरव जप अथवा झंपापात पण कहे छे.
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श्री जिनेश्वरदेवनी पूजा उपर देवपाळनी कथा तत्त्व उपर श्रद्धा राखवी तेमां सर्वज्ञ, सर्व पूजित, अढार दोषोथी रहित अने अतिशयोना समूहथी युक्त एवा श्री वीतरागने देव समजवा, जे पुरुषो भक्तिथी श्री जिनेश्वरने नमे छे अने शक्तिथी तेमनी पूजा करे छे, तेओ देवपाळनी जेम अद्भुत कल्याण प्राप्त करे छे..... .
देयपाळनी कथा जंबूद्वीपमा आवेला भरत क्षेत्रना मध्यखंडनी अंदर हस्ती अने अश्वोथी विराजित एवं हस्तिनापुर नामे नगर छे, तेमां सिंहना जेवो बळवान् सिंहरथ नामे राजा हतो. ते नगरमां जिनदत्त नामे एक भाविक श्रावक हतो तेने घेर देवपाळ नामे एक गोवाळ रहेतो हतो ते भद्रिक स्वभावनो हतो. एक वखते वर्षाकाल आवतां देवपाळ गायोने लईने एक घाटा वनमां गयो. ते वखते नदीना प्रवाहवडे मोटो विकट कांठो पड़ी गयो. तेमांथी युगादिदेवनी प्रभाविक प्रतिमा प्रगट थई. ते प्रतिमाने जोई देवपाळ हर्ष पाम्यो अने तत्काल ते प्रतिमाने जलवडे स्नान करावी तेणे मृत्तिकानुं एक उंचं पीठ करी तेनी उपर तेने स्थापित करी पछी सुगंधी पुष्प, पत्र वगेरे आदर साथे ते प्रतिमानी तेणे पूजा करी, ते वखते तेणे चिंतव्यु के, "हुं केवो धन्य के जेने श्री अरिहंत प्रभुए पोतानी मेळे दर्शन आप्यु! जोके मारी पासे. कई द्रव्य नथी परंतु हुं चित्तने स्थिर करी मारी शक्ति प्रमाणे तेमनी पूजा करूं" त्यारथी ते देवपाळ प्रतिमानी उत्कंठाथी पूजन करीने ज सदा खानपान वगेरे लेतो . हतो, ते सिवाय कदिपण लेतो नहि.
एक वखते सात दिवस अने रात्रि सुधी सतत् वृष्टि थई. तेने लईने देवपाळ नदीने कांठे जई शक्यो नहि. ते प्रभुनी पूजा कर्या विना कदिपण भोजन करतो नही तेथी तेना शेठ जिनदत्ते तेने पूछ्युं के, "तुं भोजन केम करतो नथी?" देवपाळे कर्तुं "देवपूजा कर्या विना हुं भोजन करतो नथी." शेठे का, "कहे, ते तारा देव केवा छे?" तेणे उत्तर आप्यो, "शेठजी, जेवा तमारा देव छे तेवा ज ते मारा देव छे पण ते नदीने सामे कांठे छे." "ते देवनी प्राप्ति तने शी रीते थई?" शेठे पूछ्युं, एटले तेणे ते देवनी उत्पत्तिनी वात कही अने पोतानो निश्चय पण जणाव्यो. शेठ बोल्या, "जो तारे नियम होय तो तुं अहिं रहेला देवनी पूजा कर! तेनी पूजा करवाथी ते देवनी पूना थयेली निश्चे गणाशे," देवपाळ बोल्यो. "जे माणस भोजन करे तेज तृप्त थाय, तेना भोजनथी बीजो तृप्त थाय नहीं, तेथी हुँ तो ते देवनी पूजा कर्या सिवाय निश्चे जमवानो नथी." आ प्रमाणे आठमो दिवस थयो एटले नदीना जलनुं पुर उतरी गयुं त्यारे देवपाल सामे कांठे श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्री जिनेश्वरदेवनी पूजा उपर देवपाळनी कथा गयो अने तेणे पुष्पोथी ते जिन प्रतिमानी पूजा करी तथा अत्यंत प्रणाम करी हर्षथी ते प्रभुनी स्तुति करी. ते समये ते प्रभुना अधिष्ठायक देवे आकाशमां रहीने का के, "तुं ईच्छित वर माग," देवपाले कां. 'मने राज्य आपो,' अधिष्ठायक देवे कडं, "तारी इच्छा प्रमाणे थशे." ते पछी थोडाक दिवसे सिंहरथ राजा अपुत्रीओ मरण पाम्यो. ते राज्यना मंत्रीओए पांच दिव्य कर्या, ते पांच दिव्यो नगरनी वच्चे फरीने अनुक्रमे नगरनी बहार आव्या, ज्यां पेलो देवपाल गोवाल वडनी छाया नीचे सुखनिद्राथी सुतो हतो. त्यां ते पांचे दिव्य गया त्यां हस्तीए शब्द को. अश्वे हेषारव कर्यो. बे चामरो चलायमान थया अने छत्र अधर ऊँचुं थयुं. पछी हाथीए कलशथी देवपालने नवडावीने पोताना स्कंध उपर बेसाड्यो एटले मंत्रिओ ए आभूषणोथी विभूषित कर्यो पछी नीतिने जाणनारा विवेकी एवा मंत्रीओ तेने सेना साथे नगरमां लई गया अने विधिथी तेनो पट्टाभिषेक कर्यो. ते देवपालना मित्र एवा बीजा गोवाळो तत्काल तेना दंड तथा कांबळ वगेरे लई जिनदत्तने सोंपी दीधा हवे ते राज्यना सीमाडाना राजाओ, सामंतो अने बीजाओ गोवालरूपे अवज्ञा करी, ते देवपाळनी आज्ञाने मानता न हता, तेणे जिनदत्तशेठने बोलाव्यो, ते पण गर्वथी तेनी पासे आव्यो नहीं, आथी राजा देवपाले विचार कर्यो के, "आज्ञा चाल्या विना राज्य हमेशां निष्फल छे, तो पछी हं पूर्वे जेवो गोवाल हतो, तेवो हमणां पण गोवाळ ज छु. आज्ञा चालवी एज विशेष छे, तो पछी आवं राज्य शा कामर्नु? माटे जेणे मने राज्य आप्यु छे, तेनी आगळ जई हुं तेने विज्ञप्ति करुं के आ राज्यनी संभाळ ते पोते ज करी ले." आ प्रमाणे विचारी ते श्री आदिनाथ प्रभुनी पासे जई तेमनी पूजा अने नमन करी तेणे आ प्रमाणे विज्ञप्ति करी. "हे प्रभु, तमे मने आज्ञामां चाले तेवा ऐश्वर्यन वरदान आपो, नहीं तो तमे आपेलं आ पोतानुं वरदान पाछू लई ल्यो. कारण के आज्ञा सिवाय हाथी तथा घोडा वगेरेनुं आ राज्य मने एक नाटकना राज्य जेवू थयं छे." देवपाल गोवाळन आवं वचन सांभळीने पेला व्यंतरे आकाशमां रहीने कडं के, "हे गोवाळ, तुं खेद पामीश नहि, निर्भयपणे राज्य कर. ।।५००।। एक माटीनो श्रेष्ठ हस्ती करावी तेने आखा नगरमां फेरवी राज्यपाटिकामां राखजे, मारा प्रसादथी ते हस्ती तारा मननी इच्छा प्रमाणे करशे अने तेने जोईने ते सीमाडाना राजा वगेरे तारुं कर्तुं करशे." अधिष्ठायक देवना आ वचनो सांभळी ते देवपाळ सुख पामतो पोताने घेर गयो, पछी कुंभारोने बोलावी तेवो हस्ती बनाववा तेणे आज्ञा आपी. ते कुंभारोए ते राजाने माटे तेवो मोटो हस्ती करवा
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श्री जिनेश्वरदेवनी पूजा उपर देवपाळनी कथा मांड्यो ते सांभळी पेला मंडलिक वगेरे राजाओ विशेष हास्य करवा लाग्या अने कहेवा लाग्या के, "आ खरेखरो गोवाळ ज लागे छे, जे पोताना पूर्वना आचारने लईने एक माटीनो हस्ती बनावी राजपाट करवानी इच्छा राखे छे." कुंभारोए माटीनो हस्ती करी पकाव्यो, पछी तेने चित्रकारोनी पासे चीतराव्यो अने पछी लोको पासे ते उपर त्रिपदी वगेरेनुं काम कराव्युं, ते सिवाय (राज्यना) बीजा हस्तीओ तैयार कराव्या, घोडाओ उपर पलाण नंखाव्या, सर्व सुभटोने सज्ज कराव्या अने रथो पण तैयार कराव्या. पछी पेला जिनदत्त शेठने बोलावी छल तथा बळने वश थई तेनो वेश स्वयं पोताना जेवो कराव्यो, पछी शुभमुहूर्ते राजा देवपाले 'राजपाटिका करी. ते अपूर्व कौतुक जोवाने सर्व बाजुएथी जनसमूह एकठो थयो अने (माटीना हाथीने चालतो) ते जोईने विस्मय पामी गयो. लोकोए राजाने जोई चिंतव्यु के "शुं आ विष्णु पोते आव्या छे? अथवा देव के कोई विद्याधर आव्यो छे?" एवी रीते चालता राजाने ठेकाणे ठेकाणे सारं नाटक अने पगले पगले मांगलिक उपचारो तथा वार्जित्रो वागवा लाग्या, ते जोई सर्व सामंतो चमत्कार पामी गया अने क्रमने जाणनारा ते श्रेष्ठ राजाना बंने चरणमां नमी पड्या, पछी राजा महेलना द्वार आगळ आव्यो त्यारे तेणे जिनदत्तशेठने अंकुश आपीने कां के, "आ हस्तीने तेने स्थान लई जाओ." ते मृत्तिकाना हाथीए डगलं भर्यु नहिं, एटले तेने पगवडे संज्ञा करी तो पण ते चाल्यो नहीं, एटले तेनी उपर अंकुशनो घा कर्यो ते घाने लईने ते हाथीना कुंभस्थळना बे भाग थई गया, आथी श्रेष्ठी उपहास्य- स्थान थयो अने तेनो अहंकार उतरी गयो. त्यारथी मांडीने सर्व राजवर्ग शोकरहित थई तेनी आज्ञाने देवनी शेषानी जेम मस्तक पर उठाववा लाग्यो अने राजाओए द्रव्य साथे पोतपोतानी घणी कन्याओ तेने आपी. राजा देवपाले पछी श्री युगादि भगवाननो प्रासाद कराव्यो अने तेनी अंदर नित्ये जिनपूजा करवाने, पूर्व- पाप हरवाने अने नवं पुण्य मेळववाने माटे ते जनसमूहनी साथे जवा लाग्यो.
एक वखते देवपाळ जिनपूजा करी पोतानी पटराणी साथे गेलेरीमा प्रशंसापूर्वक बेठो हतो, तेवामां तेनी पटराणी क्षणमां मूर्छा पामी. शीतळ उपचारोथी तेणीनामां चैतन्य आव्युं, एटले ते नीचे प्रमाणे पद्य बोली
____ अड विं पती नइं, जलतोइ न वुढा हत्थ ।
जो उ एउकबाडी यह, अज्जवि साउ अवत्थ ।।१।। 1. राजपाटिका-सवारी. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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देवतत्त्व- स्वरूप अर्थात् - जेनी साथे मारे पूर्वे पतिनो संबंध हतो ते आ मजूर (दरिद्र माणस) छे अने तेनी आजे पण ए ज दरिद्र अवस्था वर्ते छे. एटले जंगलमां नदी प्राप्त थया छतां तेना निर्मळ जळमां हाथ पण पलान्या नहि.
आ गाथा सांभळी राजा बोल्यो, "प्रिया, ते ए शुं कडं?" ते बोली "आजे आ पुरुषने जोईने मने जातिस्मरण थई आव्युं छे,": "पूर्वभवे कई जाति हती?" राजाए पूछ्युं, त्यारे ते बोली, "हे राजन्, पूर्वे आ नगरमां हुं अने बीजो जे आ पुरुष वृक्षनी छाया नीचे बेठो छे, ते अमो बंने काष्ठना भारा उपाडनारा गरीब माणसो हता, अमो बंने जणा आ नगरनी नजीक रहेता हता. आ ठेकाणे काष्ठनो भारो छोडी दई विश्रांतिने माटे धरामां स्नान करी कमळ प्रमुख लई में श्री भगवान्नी पूजा करी, आने में घणुं कर्तुं तो पण आ पुरुषे प्रमादथी जिनपूजा करी नहीं. पछी आयुष्यनो क्षय थतां मृत्यु पामीने हुं राजकुळमां पुत्रीरूपे अवतरी अने तमारी पत्नी थई छु. अने ते आ पुरुष हजु पण तेवी ज स्थितिमा रह्यो छे. तेथी आ लोकमां मनुष्योने धर्म सिवाय दुःखनो क्षय थतो नथी." पछी श्रेष्ठ विचारवाळा राजाए ते पडेला गरीब पुरुषने बोलावी पूछ्युं, एटले ते पुरुषे ते प्रमाणे बधो पूर्वनो वृत्तांत कही संभळाव्यो ते सांभळी राजा देवपाले विचायु के "जेम मने आ लोकमां जिनपूजानुं फळ मन्युं छे, तेम आ राणीने पूर्वजन्ममां करेली जिनपूजार्नु फल मन्युं छे. अज्ञानी अने विशेषे करीने निर्धन एवा अमो बंनेए पूर्वे अल्प एवी पण जे द्रव्य पूजा करी हती, ते अमो बनेने राज्य आपनारी थई, तो जे प्राज्ञ पुरुषो आ लोकमां उत्कृष्ठ एवी द्रव्य पूजा करे छे. तेओ सुख वडे सुंदर एवा अच्युत देवलोकने पामे छे त्यांथी च्यवीने ते लोको आर्यदेश वगेरेनी सामग्री प्राप्त करी अने बीजा कार्यभारने सिद्ध करी छेवटे गुणी बनी सिद्धिने पामे छे. तेओ चोथे, पांचमे, छटे अथवा सातमे भवे सिद्ध थाय छे, तेओ आ लोकमां छेवटे आठमा भवनुं उल्लंघन करता नथी, सर्वथा अंतर्मुहूर्त सुधी करेली भावपूजा वडे तेज भवे सिद्धिनी प्राप्ति थाय छे, तेमां कोई जातनो संशय नथी. जे मनुष्य हृदयमां सर्वज्ञनुं ध्यान करे छे, ते सर्वज्ञ थाय छे अने जे पुरुष हृदयमां वीतरागनुं ध्यान करे छे. ते वीतराग थाय छे, जे जिनपणुं मेळववाने माटे जिन- ध्यान करे छे तेनुं कहेवू ज शुं? 'पुरुषोत्तम पण नित्ये मृत्युनो उच्छेद करवाने तेनुं ध्यान करे छे. जे साक्षर छते जिननुं ध्यान करे ते अक्षरपदनेमोक्षने पामे ज, तेने माटे आ लोक के परलोकमां कांई आश्चर्य पामवानुं नथी ते 1. पुरुषोत्तम-पुरुषोमां उत्तम पक्षे विष्णु. 2. साक्षर एटले विद्वान्. 110
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गुरुतत्त्व वर्णन विषे सांभळो के, जिन अर्चा- पूजाने करनारो गोपाळ पोताना गोपाळपणानो त्याग करतां छतां पण सर्व शुभ-अर्थने आपनारा एवा उच्च 2 गोपाळ पदनो आश्रय करे ज त्रिविष्टप प्रभु जीव विष्टपप्रभुनी पूजा करतां अक्षर (अक्षयअखंड) पदने उपार्जन करनार थाय, तेमां कांईपण आश्चर्य नथी. 'जिन असंख्यरूपी छे, छतां कोई रीते अरूपी पण कहेवाय छे अने सवर्ग-सघळे व्यापक छे छतां ते लोकाग्रने प्राप्त थयेला कहेवाय छे. 'स्फटिक मणिनी जेम ते जिन भगवान् स्वभावथी निर्मळ छे, परंतु संगने लईने ते तेवा स्वरूपताने पामे छे. आत्मा पण जलनी पेठे स्वच्छ छे, छतां रजना कादवने लईने गोत्रना आधार पणाने प्राप्त थई कलुषताने पामे छे, पण ते ' कतकचूर्णनी जेम श्री जिनभगवानने प्राप्त करी पाछो पोताना शुद्ध स्वभावने प्राप्त करे छे. तेथी हे भव्य जनो, सदा श्री जिनभगवानुं ध्यान करो. जे मनुष्यो सिद्ध थया छे, सिद्ध थाय छे अने हवे सिद्ध थवाना छे, ते सर्व मनुष्य श्री वीतराग प्रभुना अपरिमित ध्याननी धुराने धारण करनारा होय छे." आ प्रमाणे देवतत्त्व समजवुं. ।।५४४।।
गुरुतत्त्व वर्णन
गुरु बोल्या, "मैं तमारी आगळ कांईक देवतत्त्व प्रकाशित कर्तुं छे. हवे थोडुं गुरुतत्त्व सांभळो-लोको गुरु विना क्यारे पण कृत्य जाणी शकता नथी, तेथी गुरुनुं वचन (आज्ञा ) लईने ज सर्व क्रियाओ करवी जोईए. लोकमां जे मुख्यत्वे तत्त्वने जणावे छे गुरु कहेवाय छे. तेमां जे ते विशेषपणे क्रियायुक्त होय तो ते सोनामां सुगंधना जेवो छे. कविओ वाणीमां गुरुपणाने लईनेज शास्त्राने पण वखाणे छे. कारण के लोको तेनाथी ज सतत कार्याकार्यने जाणी शके छे. गुरु विना शास्त्रनुं स्वरूप कोण निरुपण करी शके? तेथी गुरु पासेथी ते शास्त्रने सारी रीते जाणीने पछी कार्य आचरतुं ते गुरुना वचननुं महत् तत्त्व बुद्धिना गुणोथी ज जाणी शकाय छे. ते सिवाय जो बहारनी बुद्धिथी जाणवा मागे तो मुग्धनी जेम दुःख प्राप्त थाय छे.
1. अहीं गोपाळ - देवपाळ अथवा पक्षे विष्णु ते पोताना गोपाळपणानो त्याग करीने गोपालगो-वाणीनापाल- प्ररूपणा करनार एवा परब्रह्मना पदनो आश्रय करे ज. 2. गो = पृथ्वी तेनुं पालन करनार राजापणाना पद. 3. त्रिविष्टप प्रभु-त्रणलोकना स्वामी - विष्णुरूप जीव. 4. विष्टपप्रभु - जगत्पति जिनभगवान्. 5. जिन-आत्मा. 6. जेम स्फटिकमणिमां जुदा जुदा रंगना प्रतिबिंब पडवाथी ते जुदा जुदा रंगनो जणाय छे, पण वस्तुताए पोते शुद्धस्वरूपी छे, ते प्रमाणे आत्मा समजवो. 7. गोत्रपर्वत अथवा गोत्रापृथ्वी. 8. कतकचूर्ण नाखवाथी जे जल शुद्ध थई जाय छे, तेवी रीते आत्मा श्री जिनेश्वरना ध्यानथी शुद्ध थाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्रेष्ठिपुत्र मुग्धनी कथा
श्रेष्ठिपुत्र मुग्धनी कथा:
राजाओवाळा आ जंबूद्वीपमां भरतक्षेत्रना खंडनी अंदर पद्मपुर नामे नगर छे. तेमां पद्मरथ नामे राजा हतो. ते नगरमां पद्म नामे एक श्रेष्ठी हतो, तेने पद्मश्री नामे प्रिया हती. मुग्ध नामे पुत्र अने नंदा नामे पुत्रवधू हती. एक वखते पद्म शेठे स्वस्थताथी परलोकमां जतां जतां पोताना पुत्र मुग्धने विविध वचनो वडे आ प्रमाणे शिखामण आपी " हे वत्स, तारे मिष्टान्न जमवुं, सुखनिद्राए सूवुं, आपेलुं पाठ्ठे मागवुं नहीं अने वधू साथै स्त्रीने मारवी, गामेगाम घर करवुं अने तेने चर्मनी वाड करवी अने ज्यारे द्रव्य खूटे त्यारे तेने मेळववाने गंगा नदीनुं तळीयुं खोदवुं. तुं जो समजे नहीं तो पाटलीपुत्र नगरमां सोम नामे मारो एक मित्र छे, तेने तारे आ बधी बाबतमां पूछवुं." आ प्रमाणे उपदेश आपी पद्मशेठ परलोकमां गयो अने पाछळथी काळ आवतां तेनी माता पद्मश्री पण धर्मध्यान सहित परलोकवासी थई. ते बंने मातापितानुं उत्तर कार्य करी ते मुग्धे पोताना हृदयमां विचार्य के, "हवे पिताए जे जुदी जुदी आज्ञा आपी छे, ते बधी विधिपूर्वक करूं." पछी ते क्षुधा अने तृषा विना पण नित्ये मिष्टान्न तेवुं खाद्य अने स्वाद्य पान सतत खावा पीवा लाग्यो, एथी व्याधिओ रसमूल होवाथी तेने रोग लागु पंड्यो. तेम वळी ते पुष्पशय्यामां अतिनिद्राथी सुवा लाग्यो, तेथी घणी निद्राने लईने चोर वगेरेए आवी तेनुं द्रव्य हरी लीधुं. तेम ते कोईनी पासेथी आपेलुं द्रव्य मागतो नहीं. एक वखते तेणे वधू सहित स्त्रीने वध तथा बंधन वडे मारी, तेथी वधू घर छोडीने पोताना पिताने घेर चाली गई, पछी तेणे गामेगाम घर कराव्युं अने तेने चर्मनी वाड करावी. एवी रीते पूर्वे करेला प्रकारोथी तेना सर्व द्रव्यनो क्षय थई गयो. पछी ते बीजानी पासेथी निष्कपटपणे व्याजे द्रव्य लई गंगा नदीने कांठे गयो अने ते कांठाने तेणे आदरथी ते लोको पासे खोदाव्यो. तेमां पण द्रव्यनी नुकसानी थई ते कांठामांथी एक काणी कोडी पण नीकळी नहीं. आथी ते मुग्ध विलखो थईने पोताने घेर चाल्यो गयो. त्यारथी कोई तेनी आज्ञा मानतुं नही, तेमज तेने धन अने मान पण आपतुं नहीं, तेथी ते अत्यंत दुःखी थई गयो, पछी ते खेदातुर थई पोताना पिताना सोम नामना मित्रना उत्तम नगरमां आव्यो. सोम तेने दुःखी अने नठारी स्थितिमां आवी पडेलो जोई आ प्रमाणे कोमळताथी बोल्यो, "हे तुच्छ बुद्धि वत्स, तारा चित्तमां शेनी चिंता छे? अथवा तारा धननो क्षय थई गयो छे के जेथी तुं विलखो देखाय छे?" मुग्धे पछी पोतानो विषम वृत्तांत कही संभळाव्यो. ते सांभळी सोम बोल्यो "अरे तुं तारा पितानी वाणीनुं श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्रेष्ठिपुत्र मुग्धनी कथा खरं तत्त्व समज्यो नथी, जे तेणे तने मिष्टान जमवायूँ कहेलं, ते द्रव्यनी जे आवक होय ते खावानी समजवी. जे सुखे सूई रहेवानुं कहेलं, ते जे वैरी वगर सुवा- ते सुखे सुवानुं समजवू. जे आपेलुं धन मागवू नहीं, ते जे द्रव्य वधारे कीमत, घरेणुं (आभूषण) लईने बीजाने धीरवामां आवे तेवू द्रव्य आपीने मागवू नहीं एम समजवू. जे वधूसहित स्त्रीने मारवायूँ कहेलुं छे, ते ज्यारे स्त्री वधू साथे होय त्यारे तेने मारवी पण वधूने मारवी नहीं. चर्मनी वाड करवायूँ कहेलं, ते स्वजनोने पासे राखवा एम समजवू. जे गामेगाम घर करवायूँ कहेलं, ते दरेक गामे कोईनी साथे मित्रता करवी के जेथी ते मित्रता पोताना घरनी जेम सुखदायक थई पडे. ज्यारे द्रव्य खूटे त्यारे गंगाने तळीए खोदवानुं जे कहेलं. ते तारे घेर जे गंगाना जेवी उज्ज्वळ घोडी छे, तेनी नीचे धननो भंडार छे ते समजवं." आ प्रमाणे पोताना पिताना मित्र सोमनां वचन सांभळी ते मुग्ध घेर गयो अने ते ठेकाणे पृथ्वी खोदी तेमांथी लाख सुवर्ण नीकन्यु, ते मेळवी मुग्ध फरी पाछो धनवान् थई गयो. ।।५७४।।
गुरु कहे छे, हे जगद्वर, जे सोमना कहेवा प्रमाणे बधुं करवाथी ते मुग्ध सदा सुखी थयो ते कथा कहेवामां आवी. ते कथानो उपनय आ प्रमाणे छे ते सांभळ-"जे मुग्ध कहेवामां आव्यो ते पुष्ट जडतावाळो जीव समजवो. जे पद्मश्रेष्ठी ते शास्त्रोनो समूह जाणवो अने जे सोम हतो ते सुगुरु जाणवा. जे मिष्टान्न भोजन ते रुचीथी सद्धर्मनु सेवन समजवं. जे आपेलुं मागवू नही, तेनो निर्णय सांभळ—यतिए उपदेश आपीने कांईपण (द्रव्यादि) मागवू नहीं अने गृहस्थे दान आपीने बदलामां कशुं पार्छ लेवू नहिं के मागवू नहि. जे मनुष्यो अंतरना कामक्रोधादि शत्रुओनो जय करी समये सुवे छे ते सुखशयन समजवू अथवा मुनिनी जे योगनिद्रा ते सुखशयन समजवू. जे वधूसहित स्त्रीने मारवी, ते आ क्षमा सहित शरीरनी मूर्त्तिने तपरूपी अग्निथी तपाववी एम जाणवू. जे घरना रक्षण माटे चर्ममय वाड कही ते तत्त्वना निश्चय रक्षण करनारी व्यवहारवृत्ति समजवी. जे गामेगाम स्थिति करवा माटे घर करवानुं का, ते प्रत्येक ध्येय वस्तुमा आत्माने स्थिर करवानुं समजवू. ज्यारे निर्धनपणुं आवे त्यारे गंगाने तळीए जे खोदवा कडं, ते ज्यारे दुर्घट अर्थ आवी पडे त्यारे अति बुद्धिथी अर्थनो संग्रह करवो एम समजवू. आ प्रमाणे मुग्ध बुद्धिवाळो पण संसारी जीव जो गुरुना कहेवा प्रमाणे करे, तो ते आलोक तथा परलोकमां पवित्रात्मा थई सदा । सुखी थाय." ।।५८४।। श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्री धर्मतत्त्व उपर अमरसिंहनी कथा देव तत्त्व सुज्ञेय छे, कारण के ते देव एक सर्वज्ञ ज छे. अने गुरुतत्त्व अनेक वेषने धारण करनारुं होवाथी जाणवू दुर्घट छे, तेथी अहिं सुगुरु- कांईक स्वरूप कहेवामां आवे छे. पुरुष तद्दन गुरु वगरनो सारो पण ते कुगुरुवाळो सारो नहि. जे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यवहार, निश्चय, उत्सर्ग, अपवाद आवक अने खर्च जाणे छे, जे शुद्ध पंच महाव्रतधारी, पांच समितिने धारण करनार, पांच प्रकारना आचारने पाळनार अने त्रण गुप्तिथी विराजित छे, जे स्थिर, कषायोथी मुक्त, रागद्वेषरहित, अभिग्रहधारी धीर, अप्रमादी अने हितकारी छे, जे हमेशा ऊपदेश आपवामां तत्पर, सिद्धांतरूप समुद्रना पारगामी, अन्य शास्त्रोना ज्ञाता अने बुद्धिनी वृद्धिथी युक्त छे, जेनुं वचन ग्रहण करवा योग्य छे, जे सौम्य, अवसरना जाण, गुणोवडे आश्रित, वक्ता, स्मरण शक्तिवाळा अने एकवार जोयेलाने ओळखी लेनार छे, जे स्मरण वगेरेथी युक्त, कृतज्ञ कोमळ वाणी बोलनार, चतुर, पूर्ण एवी पांच इंद्रियोना आधाररूप, विचारो जाणनार अने निर्भय छे अने जे गंभीर, 'अप्रतिश्रावी, बहारना संगने छोडावनार, ग्रंथकार, दयाळु, युक्तिमान् अने विषयोमा विरक्त छे. ईत्यादि गुणोथी युक्त, सर्व प्रकारना कदाग्रहोथी रहित अने तत्त्वज्ञ एवा गुरुने स्वहितने ईच्छनारा पुरुषोए आनंदथी सेववा. आ प्रमाणे गुरुतत्त्व समजवू. एवी रीते में तमोने द्रष्टांत साथे काईक गुरुतत्त्व कडुं छे.
दयामूल एवा धर्मतत्व- स्थूल स्वरूप उच्च प्रकारना सुखना कारणरूप एवा जीवदयामय धर्मने आचरतो जीव । अमरसिंहनी जेम बे प्रकारचें शिव-कल्याण प्राप्त करे छे.
अमरसिंहनी कथा जंबूद्वीपमां आवेला भरतक्षेत्रना मध्यभागे रहेलुं अने अमरपुरीना जेQ सुंदर अमरपुर नामे नगर छे. ते नगरमां सुग्रीव नामे राजा हतो. ते राजाने जुदी जदी राणीथी उत्पन्न थयेल समरसिंह अने अमरसिंह नामना बे कुमारो हता. राजा सुग्रीव परलोकवासी थतां तेनो जयेष्ठ पुत्र समरसिंह राजा थयो. पण ते शिकारना व्यसनने लईने ते राज्य- कार्य करतो न हतो. बीजो कुमार अमरसिंह दया तथा दाक्षिण्यवाळो अने परोपकार करवामां तत्पर रही पोतानो काल निर्गमन करतो हतो. ।।६००।। एक वखते अमरसिंह लोकोनी साथे उद्यानमां क्रीडा करवाने 1. कांईपण आलोचनादिक संबंधी गुह्य वात जेमनी पासेथी बहार नीकळी न जाय एवा
गंभीर-सावधान.
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श्री धर्मतत्त्व उपर अमरसिंहनी कथा गयो, तेवामां कोई ब्राह्मणे लावेलो बकरो तेना जोवामां आव्यो. पोतानी भाषामां बें बें करतो ते दीनमुखवाळो बकरो जोई गुणोथी उत्तम एवा अमरसिंहे तेने ब्राह्मण पानेथीं छोडाव्यो. तो पण ते बकरो प्रथमनी जेम में बें करवा लाग्यो, त्यारे कुमारे ते ब्राह्मणने पूछ्युं के "तुं आ बकराने क्या लई जाय छे?" ब्राह्मणे उत्तर आप्यो के, "आ बकराने यज्ञना काम माटे लई जाउ छु." "ते करवाथी तने सुं फळ मळशे?" कुमारे पूछ्यु. "ते यज्ञ करवाथी मने स्वर्ग मळशे." ब्राह्मणे तेम उत्तर आप्यो. ते सांभळी राजपुत्र पुनः बोल्यो, "जो जीववध करवाथी स्वर्ग मळे, तो पछी केQ काम करवाथी नरक मळे?" ब्राह्मणे कडं-"वेदमां कहेली हिंसा स्वर्गने माटे ज थाय छे." आ अरसामां कोई एक मुनि त्यां आवी चड्या. मुनिने देखी अमरसिंहे कयुं, "हे मुनिराज, अमारे बनेने वाद थयो छे, तेनो निर्णय आप करशो." ब्राह्मण बोल्यो, "ते बराबर छे, बेनी वच्चे थयेला वादने त्रीजो माणस ज पतावी शके छे, पण जो आ बकरो पोते ज अंधाणी आपे तेवू ज्ञान मारी आगळ कहेशे तो ज ते पती शकशे." पछी ते ज्ञानी मुनिए प्रतिबोध आपवानी इच्छाथी ते बकरानो पूर्व भव जाणी लई तेने आ प्रमाणे का, "अरे! तें ज खाडा खोदाव्या हता, वृक्षो पण ते ज रोपाव्या हता अने 'यज्ञ करवाथी स्वर्ग मळे छे.' ए पण तेज कडं हतुं. हवे अत्यारे शुं जोईने तुं बेंबें करे छे?" ते मुनिना आवा आ वचनो सांभळी ते बकरो मौन धरीने रह्यो. ते जोई । अमरसिंह बोल्यो के, "तमारा वचनथी आ बकरो मौन धारीने केम रह्यो?" अनगार बोल्यो, "हे राजकुमार, आ बकरो आज ब्राह्मणनो रुद्रशर्मा नामे पिता हतो, तेणे आ सरोवर खोदाव्युं हतुं. तेनी पाळ उपर वृक्षो रोपाव्या हता अने 'यज्ञो प्ररूप्या हता. ते अधम मृत्यु पामीने आ बकरो थयो छे. तेमणे पूर्वे यज्ञमां बकरो मार्यो हतो, तेथी ते पोताना करेला कर्मथी अपराधी थई पांच वखत आवी रीते बकरो थयो छे. आ छट्ठा भवमां अकाम निर्जरा थवाथी तेने जाति स्मरण थई आव्युं छे, तेथी दुःखवडे दग्ध थयेलो ते आ पोताना पुत्रने कहे छे के, हे पुत्र, तुं मने शा माटे मारे छे? हं तारो पिता डूं, जो तने प्रतीति न आवती होय, तो तारी परोक्षे जमीनमा दाटेला द्रव्यनो निधि तने बताq." मुनिना आ वचन सांभळी ते ब्राह्मण बोल्यो, "जो तमे कहो छो, ते सत्य होय तो हुं आजथी हिंसा छोडी दउं अने तमारो श्रावक थई जाउं." ब्राह्मणना आ वचन सांभळी मुनिए ते बकराने उद्देशीने कयुं, "हे पशु, तुं ते द्रव्यनो भंडार बताव अने आ संसार 1. यज्ञ करवाथी स्वर्ग मळे छे, एवं मुग्धजनोने समजाव्यु हतुं. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्री धर्मतत्त्व उपर अमरसिंहनी कथा सागरमांथी तारा पुत्रनी रक्षा कर." आ सांभळी ते बकरो त्यांथी चालीने ते द्रव्यना निधिनी भूमि बतावी, तेमांथी नीकळेला निधानने जोई ते ब्राह्मण दयाळु श्रावक बनी गयो. हवे ते बकरो पछी अनशन व्रत लई मृत्यु पामीने देव थयो. पछी ते अमरसिंह कुमारनुं सतत हित करवाने तेना सांनिध्यमा आक्वा लाग्यो.
एक वखते ते देवताए रात्रे आवी कुमार अमरसिंहने कां के, "तारो बंधु समरसिंह तने मारी नाखवाना उपायों चिंतवे छे, तेथी तुं आ नगरने छोडी बीजे स्थळे चाल्यो जा. समय आव्ये तने राज्य मळशे, पण अत्यारे तारे अहिं रहे, घटित नथी. हुं तारा ते बंधुनो निग्रह करी तने राज्य उपर बेसाडीश, परंतु विदेश जवामां तने लाभ अने प्रतिष्ठा मळशे." ते देवताना आवा वचन सांभळी कुमार अमरसिंह तेज वखते विमल नामना एक मंत्रीना पुत्रने साथे लई कुंडिन . नगरमां चाल्यो गयो. ते समये त्यां कुंडिनपुरमा अशिवरूप रोगचाळानी उत्पत्ति थयेली, तेनी शांति करवाने भानु नामनो त्यांनी राजा देवतानी आगळ बकरां अने पाडानी हिंसा करावतो हतो ते जोई अमरसिंहे ते हिंसकोनी आगळ आवी आ प्रमाणे का के, "अरे! तमें जीवोने मारो नहीं." ते हिंसको बोल्या, "अमो तारा वचनथी बंध रहेवाना नथी, कारण के अमोने एवी राजानी आज्ञा छे." आ प्रमाणे कही तेओ हिंसा करवाने प्रवृत थया, तेवामां पेला बकरारूप देवताए तत्काळ ते बधाने स्तंभित करी दीधा. पछी ते वृत्तांत ते नगरना राजा भानुनी आगळ निवेदन करवामां आव्यो, एटले राजा भानु पोते आश्चर्य पामीने देवालयमां आव्यो, त्यां देवकुमारना जेवा अमरसिंह कुमारने जोई ते विस्मय पामी गयो. कुमारे राजाने प्रणाम करीने का, "आ पशुओ शा माटे मारवामां आवे छे?'' राजाए उत्तर आप्यो के, "रोगनी शांतिने मा." कुमार बोल्यो, "जीवहिंसा करवाथी शांति शी रीते थाय? शांति माटे तो तमे जीव दया करो."राजाए कह्यु "जो आ देवता पोते मने तेवी प्ररूपणा करे तो हुं तमारा कहेवा प्रमाणे आ हिंसा छोडीने जीवदया करूं." राजाना आवा वचनो सांभळी अमरसिंह कुमारे कडं, "कोई एक कुमारीकाने सत्वर अहिं लावो, हुं तेणीनी पासे ते प्रमाणे बोलावू." तत्काळ राजाए एक कुमारीका बोलावी मंगावी. पछी कुमारे तेणीने मंडळमां स्थापित करी मंत्रना प्रभावथी ते कुमारीका आ प्रमाणे बोली-"जेना 'मानसमां कलहंसीनी जेम जीवरक्षा रहेली होय तेना चरणना प्रक्षालन जलथी अहिं शांति थई जशे." ते सांभळी राजा बोल्यो, "तेवो उच्च पुरुष केवी रीते जाणवो?" 1. मानस-मन पक्षे मानस सरोवर. 116
श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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अहिंसा उपर अमरसिंहनी कथा कुमारे कडं. "समस्याना पद उपरथी हृदयनो आशय जाणी शकाय छे; तेथी तमे सर्वे दर्शनवाळाओने बोलावो; पछी आपणे समस्या- पद आपी परीक्षा करीए." पछी राजाए तत्काळ माणसो मोकली सर्व दर्शनीओने बोलाव्या कुमार अमरसिंहे तेओनी आगळ समस्याना बे पदो नीचे प्रमाणे कह्या.
पुरा भ्रमन्त्या अपि वारवध्वाः स-कुण्डलं वा वदनं न वेत्ति । अर्थात् - कोई वारांगना आगळ ज फरती हती, तो पण तेणीनुं ज वदन कुंडळवाळू छे के नहि? ते जाणवामां आव्युं नहीं.
आ वाक्य सांभळीने कोई विद्वाने ते समस्या नीचे प्रमाणे पूर्ण करीचक्षूनिविष्टं स्तनमण्डलेऽस्या स्तेनैव न ज्ञातमिदं हि सम्यक् ।।
ते वारांगनाना स्तनमंडळ उपर तेणे पोताना चक्षु स्थापित करेला तेथी पोतानी आगळ फरती एवी वारांगनानुं वदन कुंडळवाळु छे के नथी ते सारी रीते तेणे जाण्यु नहीं. बीजा अन्यदर्शनीओए ते राजकुमारनी आगळ तेवी रीते श्रृंगाररस विराजित एवी ते समस्या रसना आवेशथी कही संभळावी आ वखते कोई भवितव्यताना योगे पेला बकराना पूर्व भवने जाणनारा दयाळु उत्तम मुनि त्यां आवी चड्या. अमरसिंह कुमारे तेमनी आगळ ते समस्यानां पद पूछयां, एटले समतारूपी अमृतना सागरमां क्रीडा करवामां गजेंद्र समान ते महामुनिए ते समस्यानी पूर्ति नीचे प्रमाणे कही संभळावी.
मार्गेऽत्र तु स्थावर जीवरक्षा व्याक्षिप्त चित्तेन मया न दृष्टम् ।
पुरो भ्रमन्त्या अपि वारवध्वाः स-कुण्डलं वा वदनं न वेत्ति ।।१।। .. "आ मार्गमां स्थावर जीवोनी रक्षा करवामां मारुं हृदय एवं आतुर हतुं के, जेथी मारी आगळ फरती एवी वारांगनानुं वदन कुंडळवाळु छे के नहीं, ते मारा जोवामां आवी शक्युं नहीं." आ सांभळी कुमारे का, "हे राजा, आ मुनिना चरणना धोवणजळथी रोगनी शांति थशे, तेमां संशय नथी." पछी ते भानु राजाए पोतानी जाते ते साधुने उत्तम आसन उपर बेसाडी तेना बंने चरण प्रासुक जळथी धोया. 'भानुना करस्पर्शथी साधुनुं चरणकमळ जे लक्ष्मीवाळं थयु, ते घटे छे, परंतु ते उपर जळY सिंचन थतां पण ते पंक-कादवने हरनारु 1. भानु सूर्यना करस्पर्शथी-किरणोना स्पर्शथी कमळ लक्ष्मी (शोभा) वाळु थाय, ते घटित
छे. परंतु ते जळना सिंचनथी कमळ कादवने हरनारुं न थयु. पक्षे भानु राजाना करस्पर्शथी-हस्तस्पर्शथी मुनिनु चरणकमळ सुशोभित बन्युं अने ते चरणपंक-पापरहित छे, एटले तेथी जळवडे पंकने धोवानुं कांई हतुं ज नहीं. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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श्री धर्मतत्त्व उपर अमरसिंहनी कथा न थयु, ते घटतुं नथी. ते जळना योगथी भानुना बंने कर-हाथ कृतार्थ थया, परंतु ते 'राजाना करो अन्य कोईना संतापने हरनारा न थया. तेनुं शुं कारण? पछी ते जळना सिंचनथी तत्काळ नगरमां रोगनी शांति थई गई. ते जोई राजाए विस्मय पामीने पूछ्युं के, "आ राजकुमार कोण छे?" ते समये मंत्रीपुत्र विमळकुमारे अमरसिंहनो कुळ, नाम वगेरे बधो वृत्तांत राजानी आगळ कही संभळाव्यो. ते सांभळी भानु राजाए कुमार अमरसिंहने सन्मानपूर्वक पोतानी कनकावती नामे पुत्री अने अधुं राज्य अर्पण कर्यु.।।६५०।।
केटलोएक काळ सर्व सुखमय गया पछी अमरपुर नगरमांथी आवेला केटलाकएक पुरुषोए कुमार अमरसिंहने खबर आप्या के, "देव, तमो नगरमाथी गया पछी पापर्द्धिना व्यसनथी व्याप्त थयेला एवा राजा समरसिंहे लोकोने शत्रुथी उत्पन्न थयेली पीडानी चिंता-दरकार करी नहि, तेथी शत्रुओना उपद्रवथी लोको दुःखी थया, ते जोई मंत्रीओनी साथे शुभ परिणामनो विचार करी सेनापतिए मृगया करवा गयेला ते राजाने मृगना बहानाथी बाणनो घा करीने मारी नाख्यो छे. व्यसन अनर्थ करनारुंज छे. हे प्रभु, हवे तमे सत्वर आवो, राज्यनो स्वीकार करो, लोकोने पाळो अने दुष्ट लोकोनो निग्रह करो." तेओनां आवां वचन सांभळी कुमार अमरसिंहे राजा भानुनी आगळ ते हकीकत निवेदन करी चतुरंग सेना साथे लई हर्षथी पोताना नगरमां आवी पहोंच्यो. भीमकान्त गुणवाळा अने नीतिमार्गे चालनारा कुमार अमरसिंहनो सेनापति वगैरे मंत्रीओए राज्य उपर अभिषेक कर्यो. दयाना गुणने लईने अमरसिंह वयमां नानो हतो, तो पण तेने राज्य मन्युं अने मोटा समरसिंहने जीवहिंसाने लीधे शरीरनो क्षय थई गयो. राजा अमरसिंहे राज्य मेळवी पोताना देशमां दयाधर्म प्रवर्त्ताव्यो, तेथी तेने राज्य तथा प्रजानी आबादि थई अने तेनो महिमा अद्भुत थयो. पेला देवताना सांनिध्यथी राजा अमरसिंह चिरकाल राज्य लक्ष्मी भोगवी छेवटे पोताना पुत्रने राज्य आपी दीक्षा ग्रहण करी निर्मळ हृदयवाळा ते अमरसिंह मुनि सर्व रीते दया पाळी अंते केवळज्ञान मेळवी अव्यय-अविनाशी एवा मोक्षने प्राप्त थया. ।।६६१।।
जे सद्बुद्धिमान् मनुष्य आ पृथ्वीमां सम्यक् प्रकारे जीवदया पाळे, जे अन्यने पीडा करवा मृषावाद बोले नहि, अदत्तादान (चोरी) करे नहीं, ब्रह्मचर्य 1. राजा जे प्रजा उपर कर नाखे छे, ते जेम जेम वधारे प्रमाणमां होय छे, तेम तेम ते संतापने हरनारा थता नथी, पण संतापमां वधारो करनार थाय छे, ते युक्त छे. 2. दुष्टनो निग्रह करवावडे भीम अने सज्जनो उपर अनुग्रह करवावडे कान्त.
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धर्मतत्त्वनुं स्वरूप धारण करे, पोताना भावथी परिग्रहनुं परिणाम करे, दिग्विरति, भोगोपभोगर्नु मान, अनर्थदंडनी विरति अने सामायिक व्रत ग्रहण करे, हमेशां जीवरक्षाथी देशावकाशिक, पौषधव्रत अने अतिथि संविभाग व्रत धारण करे, आ पृथ्वीमां जीवदया ए धर्मरूपी कल्पवृक्ष- मूळ छे. जो ते मूळ होय, तोज ते वृक्षनी शाखाओ टकी शके छे अने ते मूळ नष्ट थई जाय तो ते (धर्मरूपी कल्पवृक्ष) टकी शकतुं नथी. जे पाप पापबुद्धिथी करवामां आव्यु होय ते पापनी शुद्धि थइ शके छे. पण धर्म बुद्धिथी जे पाप करवामां आव्युं होय, तेनी शुद्धि थती ज नथी.' तेथी सर्व दर्शनोए मानेलो अने सर्व सुखोने आपनारो दयाधर्म तत्त्वज्ञ पुरुष हमेशां हर्षथी करवो जोईए. जे मनुष्य ते धर्मनो एक एक मार्ग ग्रहण करे छे, तेने आलोक तथा परलोकमां सुख सहित शिव-कल्याणने प्राप्त थाय छे. ए प्रमाणे धर्मतत्त्व कहेवामां आव्यु.
___ आ प्रमाणे गुरुए कहेला देव, गुरु अने धर्मना तत्त्वो सांभळी ते जगद्वर ऊलटो वधारे मत्सर-द्वेषवाळो थयो. जे चोर होय तेने चंद्रनी कांति रुचती नथी.
___एक वखते तेणे चंद्रापीड राजाने कर्वा के, "पोताना मतने ज स्थापन करनारा आ लोको पोताना मतमा उद्धत्त थई बीजाओना दर्शनने मानता नथी. तेओने माटे बीजुं शुं करवू? फक्त तेओनो खोराक बंध करो एटले तेओ पोतानो देश छोडीने बीजे क्यांय चाल्या जशे." ते राजानो मानितो हतो, तेथी तेना कहेवा प्रमाणे तत्काळ राजाए उच्च प्रकारे हठ करी पटह वगडावी पोताना देशमां तेमनो खोराक बंध कराव्यो. आथी ते काळे मदवडे उद्धत एवा ते राजाए साधुओने भिक्षादाननो अंतराय करवा वडे लाभांतरायनुं निबिड कर्म बांध्यु. । एक वखते जेनो उपाय करनार वैद फावी शके नहीं तेवो गूढ विसूचिका (झाडा)नो दोष थई आव्यो छे तेथी ते राजा पंचत्वने पामी पहेली नारकीमां गयो. त्यांथी नीकळी सरीसूप-(साप) थई बीजी नारकीमां गयो. त्यांथी पक्षी थईने त्रीजी नारकीमां गयो. त्यांथी सिंह थईने चोथी नारकीमां गयो. त्यांथी सर्प थईने पांचमी नारकीमां गयो. त्यांथी नीकळी ते स्त्री थई छट्ठी नारकीमां गयो अने त्यांथी मत्स्य थई सातमी नारकीमां गयो. त्यांथी एकेंद्रिय वगेरेमां घणा भवोनी अंदर ज्ञान तथा विज्ञान रहित भमतां भमतां तेणे निरंतर देहनां दुःख सहन कयां. एवी रीते सर्व स्थळे क्षुधा अने तृषाना दुःखथी युक्त एंवा अने जीवनने 1. पापबुद्धयाऽत्र यत्पापं, तस्य शुद्धि प्रवर्तते ।
धर्मबुद्धया तु यत्पापं, तस्य शुद्धिर्न विद्यते ॥६६७।। श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा . धारण करतो नारकी तथा तियंचोमां विविध प्रकारनी घणी वेदना भोगवतो ते तुं कर्मयोगे आ गामनी चिंता-संभाळ करनारना घरमां हमणां पुत्रपणे उत्पन्न थयो छे, तेथी करीने तने लाभ नथी." आ सांभळी ते निर्भाग्यने जातिस्मरण थई आव्युं अने तत्काळ संवेग पामी तेणे गुरुने पूछ्युं के, "एवो कोई पण उपाय छे के जेथी मारा कर्मनो क्षय थई जाय?" केवळीए कह्यु, "जंतुने तप करवाथी निकाचित एवा पण कर्मनो क्षय थई जाय तो पछी स्पष्टबद्ध प्रमुख कर्मोनो क्षय थई जाय, तेमां कांई आश्चर्य नथी. हे निर्भाग्य, तारुं कर्म अनंत भवे वेदाय ते, कठोर छे, तेथी जो तुं दुस्तप एवं तप तपीश, तो आ भवमां ज तारी शुद्धि थई जशे." निर्भाग्ये मुनिने का, "जो हुं दीक्षाने लायक होउं, तो मने दीक्षा आपो के, जे दीक्षाने लईने हुँ उच्च प्रकारे तप करीश." पछी निर्भाग्यने योग्य जाणी मुनिए तेने दीक्षा आपी अने शिक्षा पण आपी. दीक्षा आपती वखते तेणे आ प्रमाणे अभिग्रह लीधो, "आजथी मारे मासे मासे आहार करवो, परंतु हुं बीजा साधुने अर्थे सदा भिक्षा लेवाने जईश." आ प्रमाणे एक लाख वर्ष सुधी दीक्षा तथा अभिग्रहने पाळी अंते समाधिथी मृत्यु पामी ते निर्भाग्य सहस्रार देवलोकमां गयो, त्यां उत्कृष्ठ स्थितिमा रही अने तेवी जातना भोग भोगवी, आयुष्यनो क्षय थतां त्यांथी च्यवीने प्रतिष्ठानपुरना राजा मलयकेतुनी प्रिय राणी सती सुविलासवतीना गर्भमां ते भाग्ययोगे पुत्रपणे उत्पन्न थयो. ते वखते राणी सुविलासवतीए हर्षथी अपरिमित प्रमाणवाळो पूर्ण कलश मुखमा प्रवेश करतो स्वप्नमां जोयो, ते ज वखते पूर्व पुरुषोए राखेलां अने कोटी रत्नोथी भरेलां आठ महानिधान प्रगट थयां. अनुक्रमे सुविलासवतीए शत्रुओने निवारनारा पुत्रने जन्म आप्यो ते समये हर्षथी विविध जातना महोत्सवो विधिपूर्वक करवामां आव्या. मातापिताए स्वप्नने अनुसारे सर्व स्वजनोना समूहने संतोषी ते पुत्रनुं नाम पूर्णकलश पाड्यु. शुक्लपक्षना चंद्रनी जेम ते पूर्णकलश नेत्रोने आनंद आपतो दिवसे दिवसे 'तापने हरनारी कळानी वृद्धि पामवा लाग्यो. अनुक्रमे ते पराक्रम, औदार्य अने गांभीर्य गुणने वसवाना स्थानरूप अने युवति जनने हर्षदायक एवं शुभ यौवनवय पाम्यो.
___एक वखते युवान पूर्णकलश पोताना भवनमा रह्यो हतो, तेवामां प्रतिहारे निवेदन करेलो कोई बुद्धिमान् पुरुष त्यां आव्यो. ते प्रणाम करी योग्य स्थाने बेठो. पछी कुमारे तेने पूछ्युं के, "तमे क्याथी आवो छो? अने अहिं आववानुं 1. जेम चंद्र तापने हरनारी कळानी वृद्धि पामे छे. तेम आ पूर्ण कलश परितापने हरनारी
कलाज्ञाननी वृद्धिने पाम्यो हतो. 120
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा शुं कारण छे?" ते बोल्यो, "वृक्षोथी सुशोभित एवी श्रावस्ती नामे नगरी छे तेमां श्री जिनभगवान्मां भक्तिवाळो जिनदत्त नामे श्रावक रहे छे. ते जिनदत्तनो मित्रसेन नामे हुं मित्र छु. अने हुं ते ज नगरीनो रहेवासी छु. एक वखते दिव्य सुगंधना समूहथी प्रकाशता ते जिनदत्तने देखी में तेने पूछ्युं के, "आवो दिव्य सुगंध तने क्यांथी प्राप्त थयो?" तेणे का, ।।७००।। "सर्वानुभूति नामनो एक यक्ष मारो मित्र छे. तेणे मने आकाशगामिनी विद्या आपी छे, ते विद्याना बळथी शाश्वत एवा नंदीश्वरादि तीर्थोमां हुं जाउं छं. त्यां देवताओ पण आवे छे. त्यां दिव्य पूजाना उपहारथी हु सुवासित अंगवाळो थाउं छु, तेने लीधे मारामां आवो दिव्य सुगंध रहेलो छे." पछी में तेने कां के, "तुं मने ते मंत्र आप, के जेथी भुवनने विषे अद्भुत एवी पुष्करद्वीपमां जवा आववानी शक्तिओ मने प्राप्त थाय." तत्काळ तेणे मने मंत्र आप्यो. में ते मंत्रनी पूर्व सेवा करी छे, हवे हुं तेनी उत्तर सेवा करवा धारुं छु, पण तेमां मने सहाय करनार कोई नथी. बत्रीश लक्षणवाळो, पराक्रमथी प्रकाशित, साहसी बळवान् अने मोटा भयथी नहीं डरनारो कोई विद्वान, धीर, वीर अने गंभीर हृदयवाळो पुरुष जो मने सहाय करे, तो ते मंत्र सिद्ध थाय." आ सांभळी कुमारे कडं, "हुँ तारो उत्तरसाधक थाउं. तुं तारुं कार्य सत्वर कर. तने तेमां विघ्न थशे नहिं." पछी कृष्णचतुर्दशीने दिवसे मोटो उपस्कर (सरसामान) लई ते कुमारनी साथे रात्रे स्मशानमां गयो. साधके एक . मंडळ आळेख्युं अने तेनी पुष्पोथी पूजा करी. पछी ते कुमार मंडळने ग्रहण करी धीर हृदये रह्यो. पछी त्यां एक क्षतवगरनुं शब लावी तेना मुखमां अग्नि सळगावी ते साधक हर्षथी मंत्र भणी आहूति आपवा लाग्यो. ते वखते भूतोए आवी कलकल शब्द कों, वेताळोए नृत्य करवा मांड्युं अने राक्षसोए हसवा मांड्युं, छतां पण ते साधक क्षोभ पाम्यो नहीं. पछी ते शब बेर्छ थई पोतानी काखमां साधकने लई दूर चाल्युं, कुमार पण तेनी पाछळ चाल्यो; तथापि ते शबे साधकने छोड्यो नहीं; एटले कुमारे शब तरफ हाक मारी. तेथी ते शब साधकने मूकी दईने पडी गयु. ते वखते सर्वानुभूति यक्ष प्रत्यक्ष थई कुमार प्रत्ये बोल्यो, "हुं तारा साहसथी संतुष्ट थयो छु," कुमारे कडं, जो तुं मारी उपर संतुष्ट थयो होय तो आ साधक- इच्छित पूर्ण कर. यक्षे का- "ते साधकमां योग्यता नथी, हुं तारो आदेश करनार थईश, पण साधकनो नहीं थाउं. तेने तारी समीप राखवो एटले ते सदा सुखी थशे." आ प्रमाणे कही ते यक्षे बनेने तत्काळ हस्तीना स्कंध उपर बेसाड्या. अने कह्यु के, "हे कुमारेन्द्र अक्षय एवा विदर्भदेशमां कुंडिनपुर श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा
नगर छे, तेमां पोतानी देशनी भूमिने तंत्रथी रक्षण करनार दमितारि नामे राजा छे. ते राजाने कमळालक्ष्मीना जेवी हर्षदायक कमळादेवी नामे राणी छे अने मंत्रतंत्रमां चतुर एवो ज्ञानगर्भ नामे मंत्री छे. जिनशासनना भक्त राजा दमितारिए एक वखते मुनिचंद्र गुरुनी पासे भावसहित सम्यक्त्वने ग्रहण कर्यु. केटलेककाळे तेनी राणी कमळादेवी सगर्भा थई अने कोई विषमभाग्ये राजाने रोग उत्पन्न थई आव्यो. ते राजाने मृत्यु वखते कोई अधर्म कर्मना योगे सम्यक्त्वने दूषित करनारो शंकाकंखानो दोष थई आव्यो. तेथी ते यक्ष थयो. अहो! अन्यथा ( जो समकित दूषित - मलिन न कयुं होय) तो जघन्यथी पण सौधर्मदेवलोकमां श्रावकनो सुखदायक उत्पात थाय. अर्थात् शुद्ध समकितवंत वधारे नहि तो सौधर्मदेवलोकमां तो उत्पन्न थाय ज; पछी मंत्रीओए सगर्भा कमळादेवीने पुत्र थशे, एवी बुद्धिथी तेणीने राज्यनो भार सौंप्यो. तथापि पुत्र थयो नहीं, परंतु पुत्री थई, आथी ते राणी अति दुःख पामी. मंत्रीए तेणीने धीरज आपी कह्युं के, "हे राजप्रिया, तमे खेद करशो नहि, एम करवाथी आ प्रख्यात अने हितकारी राज्य चाल्युं जशे. माटे तमे आ पुत्रीने पुत्रनो वेष पहेरावी पालन करो. " पछी मंत्रीए आखा शहेरमां पुत्र जन्मनो उत्सव कर्यो. ते पुत्रनुं नाम कामसेन पाड्युं अने अनुक्रमे वधवा लाग्यो. ते दमितारि राजाना जीवरूपे हुं यक्ष थयो छं अने में अवधिज्ञानथी बधुं जोयुं छे. हवे ते राजकन्या हमणां छूपावी शकाय नहि तेवा उत्कृष्ट यौवनवयने प्राप्त थई छे. हे महाशय, तुं हमणां त्यां जा अने ते राजकन्यानुं पाणिग्रहण कर अने त्यांनुं महाराज्य भोगव." कुमारे तेम करवाने कबूल कर्तुं एटले ते यक्ष आदरथी पोताना हाथमां अंकुश लई ते गजेंद्रने आकाशमार्गे चलाव्यो. कुंडिनपुरनी पासेना उद्यानमां आवीने साधक सहित कुमारने सत्वर हाथी उपरथी उतार्या पछी ते यक्षे रूपने फेरवे तेवी विद्या आपी आ प्रमाणे कयुं, "हे कुमार, स्त्रीनुं रूप लई ते कुंवारी कन्याने अवश्य परणी ले." पछी कुमारे विद्याना प्रभावथी कन्यानुं रूप धारण कयुं. अने यक्षे हाथी, घोडा वगेरेनुं वैक्रिय सैन्य उभुं कर्यु. पछी यक्षे साधकने बराबर शीखवी ज्ञानगर्भ मंत्रीनी पासे मोकल्यो. तेणे आवी मंत्रीने आ प्रमाणे कह्युं, "हे मंत्रिन्, सिंहलद्वीपना राजाए पोतानी पूर्णकलशी नामनी स्वयंवरा कन्या कामसेन कुमारने माटे मोकली छे, तो ते बंनेना जेवी रीते न्याय सहित विवाह थाय, तेवी सर्व प्रकारनी उत्तम सामग्री सत्वर तैयार करो . " मंत्रीए तेनुं सर्व वचन तेनी आगळ स्वीकार्य, पछी तेने विदाय करी पोते राणीनी पासे आव्यो अने स्वयंवरा थई आवेली कन्यानो सर्व वृत्तांत राणीने निवेदन कर्यो. ते सांभळी श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा
राणी घणी ज खेदातुर बनी गई. तत्काळ मंत्रीए कां, "हे नृपवल्लभे, तमे हाल खेद करशो नहि, हमणां आवेलो वखत पसार करी देवो. कारणथी आवी पडेलु आ पाणिग्रहणनें काम करावी लेवू, पछी हं मारी बुद्धिना बळथी समयने उचित एवी बधी क्रिया करीश. जो आपणे हमणां आ राजकुमारीनी हकीकत प्रगट करीए तो आपणा शत्रुओ आपणने उपद्रव करवा तैयार थाय अने ते अन्यायी लोको आपणो ग्रास करी जाय." आ प्रमाणे कही तेणे कामसेनाने एकांतमां बोलावीने सूचव्यु के, "वत्से, तारे पुरुषनो वेष पहेरीने राजकन्याने परणवी." मंत्रीनं आ परिणामे सुंदर एवं वचन सांभळी कामसेनाए ते निर्भयपणे स्वीकार्य. पछी मंत्रीए विवाहोत्सव करवा मांड्यो. ते साधके आ सर्व वृत्तांत यक्षनी आगळ निवेदन कर्यो, एटले यक्षे विवाहनी सर्व उत्तम सामग्री तैयार करी दीधी. ते कृतज्ञ-मंत्रीए नगरीमा छायाने माटे विधिपूर्वक उंची जातना मंडप वगेरे रचाव्या. ज्यारे हस्तमेळापनो समय आव्यो, त्यारे कामसेने पुरुषना हाथ उपरथी ते कन्या क्षणवारमा पुरुष रूपे जाणी लीधी. पूर्णकलशी तो यक्षना प्रसादथी पहेलेथी ज ते कन्यानुं सर्व स्वरूप जाणती हती, तेथी तेने चिंता शेनी होय? विवाह थई रह्या पछी पुण्यवडे प्रौढ एवा वरवधूने हाथी उपर बेसी मार्गे चालतां जोई लोको पोताना हृदयमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्या, "जे स्त्री छे. ते पुरुषाकार छे अने जे वर छे, ते वनिताकार छे, तेथी रूपना कारणरूप एवं आ संसार-नाटक जाणवामां आवतुं नथी." वळी कोईए कह्यु के, "आ वनिता नथी परंतु देव छे, ते आ स्वेच्छाथी आq रूप लई अहिं क्रीडा करवाने आवेल छे. बीजाए काआ श्रीमान् दानव तो नहीं होय, एनी क्रीडाने कोण जाणी शके? ते आ पुरुषने लईने क्यांय चाली जाय छे." आ प्रमाणे लोको वातो करता हता, तेवामां कुलक्रमथी चाल्यों आवतो आचार करवामां तत्पर अने घणा सुखना समूहथी युक्त एवा ते बंने पोताना महेलमां आवी पहोंच्या. आखो दिवस मोटा सुखमां पसार करी पछी मंत्री तथा सेनापति वगेरे सेवकोना समूहने विदाय करी कुमार पूर्णकलश हास्य करीने बोल्यो, "हे मुग्धे, आटला दिवस सुधी मुग्ध बुद्धिवाळा भोळा लोकोने तें छेतर्या छे, परंतु जे दक्ष चतुरजन छे, ते बीजाथी छेतरी शकातो नथी. माटे हवे पुरुषनो वेश छोडी दे अने मने सत्वर भजी ले." ते सांभळी कामातुर एवी कामसेना बोली, "त्यारे तमे पण स्त्रीनो वेष छोडी द्यो अने मारी उपर अमृतनुं सिंचन करो." कुमार पूर्णकलश विस्मय पामीने बोल्यो, हे भद्रे, हे मृगाक्षि, हे ज्ञानधरे, कहे, हुं पुरुष छु, एम ते शी रीते जाण्यु?" कामसेना बोली, श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा
"ज्यारे तमे पूर्वे विवाहमां मारी साथे करस्पर्श करेलो त्यारे में जाणी लीधुं हतुं के तमे पुरुष छो." ते सांभळी कुमारे चिंतव्युं के, "आ बाळा छे, छतां घणी विदुषी छे." पछी कामसेना बोली, "तमे मने स्त्री तरीके शी रीते जाणी?"" कुमारे कह्युं, "ते तारो सर्व वृत्तांत मने यक्षे कह्यो हतो. " पछी ते बंने पोतपोतानो वेष हर्षथी अंगीकार कर्यो अने बने परस्पर रूप जोईने जन्मनी सफळता मानवा लाग्या. तेमणे विविध जातना सुखोथी ते रात्रि आनंदमय करी. प्रभातकाळे कामसेनाए कुमारने आ प्रमाणे कह्युं, "स्वामी, फरीवार तमारुं उत्तम स्त्रीरूप बनावी द्यो. हुं मारी मातानी पासे जई आ सर्व वृत्तांत तेणीने जणावुं." पछी कुमारे तेम कयुं. एटले कामसेना पोतें स्त्रीवेष साथै पोतानी माता पासे आवी. तेणीने स्त्रीवेषवाळी जोई माता अत्यंत चमत्कार पामी गई. पछी तेणीने एकांते बोलावी पूछ्युं के, "पुत्री आ शुं कर्यु?" पछी कामसेनाए बधी हकीकत पोतानी माताने कही संभळावी. राणी खुशी थई अने तेणीए पोतानी पुत्रीनो ते वृत्तांत मंत्रीने निवेदन कर्यो. पछी राणी, मंत्री अने राजपुत्री त्रणे कुमार पूर्णकलशनी पासे आव्यां. त्यां कुमारने स्त्रीना रूपमां जोई राणीए पुत्रीने कह्युं, "वत्से, पहेलां तें जे कह्युं हतुं, ते तो अत्यारे देखातुं नथी.” पछी राजपुत्रीना कहेवाथी पूर्णकलशकुमारे पोतानुं खरुं रूप प्रगट कर्यं ते जोई राजपत्नी हर्षथी उत्कंठावाळी बनी गई. तेणीए मंत्रीने कयुं, "हे विद्वान्, जुवो, शुं आ आश्चर्यनी वात नथी?” ते सांभळी उत्तम शास्त्रोमां चतुर एवो मंत्री बोल्यो, "हे देवी, तेमां आश्चर्यनी वात शी छे? धर्मथी शुं न थाय ? ।।७६९ ।।
धर्मथी कल्याणने प्राप्त थनारा मनुष्योने पृथ्वी द्रव्यना भंडारवाळी थाय छे, सर्व राज्य स्वराज्यना जेवुं बने छे, देवताओ हंमेशां सेवक थईने रहे छे, दैत्यो मनुष्यना जेवा थई जाय छे, दुष्काळ सुकाळ थई जाय छे. दुर्गम सुगम थई पडे छे, खंड-वन अखंड नगर रूप थाय छे. दुर्जन सज्जन थई जाय छे, विदेश स्वदेशना जेवो बने छे, विषम सुसम बने छे, रोग भोगपणाने पामे छे, दुःख उत्तम सुखरूप बनी जाय छे, कालकूट झेर अमृत थई जाय छे, संकट लक्ष्मीने निकट बनी जाय छे, निधन - मृत्यु अथवा निर्धनता धनिकता रूपे थाय छे, परलोक स्वलोकनी पेठे थई पडे छे, लक्ष्मी हंमेशां लक्ष्मी (शोभा) आपनारी थाय छे. शारदा - सरस्वती - केळवणी शारदा - सारने आपनारी थाय छे अने पोते करेल सुकृत वधी जाय छे." आ. समये पेलो यक्ष ते राणी वगेरेनी आगळ प्रगट थईने बोल्यो, "हुं पूर्वे दमितारि राजा हतो, में शंकादि दोषथी सम्यक्त्वनी जरा श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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विराधना करी हती. ते सम्यक्त्वनी शुद्धि विना बीजो धर्म मान्य थतो नथी. ते दोषने लईने हुं आ यक्ष थयो छं, तेथी हे विज्ञे! हंमेशां शुद्ध सम्यक्त्व धारण करवुं अने तेमां शंका वगेरे मोटा दोषो करवा नहीं. में आटलो वखत राज्यने सहाय आपवा रूप हित करेलुं छे. छेवट प्रतिष्ठानपुरना स्वामीपणाथी सुशोभित श्री मलयकेतु राजानो आ कुमार राज्यनी रक्षा करवा माटे कामसेनाना विवाह अर्थे (तमने) अर्पण कर्यो छे. आ पूर्णकलश नामना कुमारनो राज्याभिषेक करी तमे आदरथी तेनी आज्ञा मानजो." यक्षनां आ वचनो सर्वेए अंगीकार कर्यां, पछी यक्षे कंदर्पना जेवा देहवाळा ते कुमारने अति हर्षथी कह्युं, "हे पूर्णकलश, सद्वृत्त, पत्र युक्त, घनरसनुं पात्र सुमनस् सहित अने अर्थ आपनार एवो तुं जय पाम. धर्मथी तारा कार्यनी सिद्धि थशे तेमां कोई जातनो संशय राखीश नहि, तो पण कोईवार कर्त्तव्य करवानी इच्छा थाय, तो मने अवसरे संभारजे." आ प्रमाणे कही ते धैर्यवान् यक्ष पोताना स्थानमां चाल्यो गयो. "देवा घनं दानवा वा, तिष्ठन्ति न नरान्तिके" ।। ७८४ ।। देवताओ अने दानवो मनुष्यनी समीपे घणीवार सुधी रहेता नथी. पछी सेनापति अने मंत्री वगेरे ते कुमारनो पट्टाभिषेक कर्यो, नीतिने जाणनार अने शूरवीर एवा पुरुषने कयो मनुष्य राजा न बनावे? पछी कुमारे पेला साधक मित्रसेनने हर्षथी एक देशनो स्वामी बनाव्यो. कारण के "संतोह्याश्रितवत्सलाः” सत्पुरुषो पोताना आश्रितजन उपर वात्सल्य धरनारा होय छे. ज्ञानगर्भ मंत्रीए ते जोईने पोतानी पुत्री मित्रसेननी साथे परणावी. "नृपमान्योऽर्च्यते जनैः" राजानो मानीतो थयेलो पुरुष लोकोथी पूजाय छे. राजा पूर्णकलश पुण्यानुबंधी पुण्यथी राज्यने प्राप्त करी हंमेशां सरल हृदये पवित्र पुण्य आचरवा लाग्यो. ते समय प्रमाणे विरोध न आवे तेवी रीते सदा धर्म, अर्थ अने कामने साधतो, तेमां आश्चर्य नथी, कारण के राजधर्म एवो ज छे. ते अपूर्वउत्कृष्ट (व्यक्ति) मां उत्कृष्ट, मध्यममां मध्यम अने जघन्यमां जघन्य आदर राखतो हतो कारण के ते क्रमवेत्ता हतो. ते लक्ष्मीए युक्त हतो छतां पण 2 जिनधर्मने छोडतो नहीं, ते आश्चर्य हतुं. परंतु तेथी पण वधारे आश्चर्य ए हतुं के
1. पूर्णकलश सद्वृत्त - सारो गोळाकार, पत्र युक्त- पल्लवोथी युक्त, घनरस- जळनुं पात्र अने सुमनस् पुष्पोथी युक्त होय छे अने ते अर्थ- द्रव्यने आपनार छे. कुमार पूर्णकलश सद्वृत्तसारा आचरणवाळो, पत्र- वाहने युक्त धनरस - ज्ञाननुं पात्र अने सुमनस् - विद्वानोनी साथे साथे रहेनार अने अर्थ साधक हतो. 2. जन- वीतरागनो धर्म पाळवामां लक्ष्मी (नी गरज ) न होवी जोईए छतां ते लक्ष्मी युक्त थई जिनधर्मने पाळतो.
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा ते 'जनार्दन न हतो. ते राजा पोताना राजधर्मथी जिनधर्मने सदा उत्तम मानतो. तेथी ते जिनधर्मनुं कार्य कर्या पछी राजधर्मनुं कार्य करतो हतो. एवी रीते गृहस्थ धर्मरूपी वृक्षतुं सरस फल ग्रहण करता एवा ते राजाने राज्यना सर्व अंगोनी पुष्टि थई अने पछी तेना 2अंगज्जननो उदय थयो. कामसेना राणीथी वीरसेन नामे सद्बुद्धि पुत्र उत्पन्न थयो. ते अनेक लोकोए नमेलो अने विवेकी पुरुषोने माननीय थयो.
एक वखते कुमार पूर्ण कलशे पोताना मित्र मित्रसेनने कह्यु के, "हमणां मारा हृदयमां आ पृथ्वीनुं कौतुक जोवानो विचार थयो छे." तेणे मित्ररूपे राजाने जणाव्यु. "हे विभो, भले जेवी तमारी इच्छा, परंतु पेला यक्षना सान्निध्यथी आपणे जईए." तेना वचन उपरथी राजाए ते यक्ष- स्मरण कयु, एटले ते मननी साथे ज क्षणवारमा आवीने उभो रह्यो. देवता विलंब करता नथी. राजाए तेनी आगळ पोतानी खरी हकीकत कही, एटले यक्षे कह्यु के, "तमो बंने सत्वर गजेंद्र उपर चडी जाओ, पछी ते कुमार पूर्णकलश अने साधक बंने यक्षना सानिध्यथी साधुओमां उत्तम बनी यक्षना गजेंद्र उपर चडी आकाश मार्गे चाल्या. विविध कौतुकथी भरपुर एवी पृथ्वीने विलोकतां ते बंने कांचनना समूहथी विराजमान एवा कांचनपुरमां आवी पहोंच्या. ।।८००।। जे कांचनपुर उत्तम एवा आश्चर्याने धारण करतुं हतुं; सुवर्णना किल्लाथी सुशोभित हतुं, प्रासादोना समूहथी व्याप्त हतुं, हवेलीओनी श्रेणी वडे युक्त हतुं. दुकानोनी पंक्तिमा रहेली सारी वस्तुओथी भरपुर हतुं, नाटक तथा रमतगमतोथी युक्त हतुं, घणां धनिक लोकोना आवासो त्यां आवेला हता अने ते धनधान्यथी पूर्ण हतुं. ते नगर व्याकरणना जेवू बराबर देखातुं हतुं. जेम व्याकरण चतुष्कवडे युक्त होय छे, तेम ते चतुष्क-चार स्तंभवाळा मंडपोथी युक्त हतुं, जेम व्याकरण 'उत्सर्ग तथा अपवाद विधिवडे उन्नत होय छे, तेम ते नगर उत्सर्ग-त्याग करवाना अपवादनी विधिथी उन्नत हतुं. जेम व्याकरण आख्यात कृत्य अने तद्धितना प्रत्ययो अने वर्णो-अक्षरोथी युक्त होय छे, तेम ते नगर विख्यात एवा कृत्य-कार्योने करनारा अने तद्धित-तेना हितनी प्रतीति-खात्री आपनारा एवा वर्ण-चारे वर्णना लोकोथी युक्त हतुं. व्याकरण 1. जे जनार्दन-विष्णु होय ते लक्ष्मीए युक्त होय ज, आ पूर्णकलश लक्ष्मीए युक्त हतो,
जिनधर्मनो पालक हतो अने जनार्दन-जन-लोकोने-अर्दन-पीडा करनार न हतो ए आश्चर्य, 2. अंगज्जन-राज्यना अंगोना माणसोनो उदय पक्षे अंगज-पुत्र जननो उदय. 3. व्याकरणमां
चतुष्क प्रत्यय दर्शक छे. 4. व्याकरणमा उत्सर्ग अने अपवाद विधि आवे छे. 5. आख्यात-धातु प्रक्रिया, कृत्य-कृदंत प्रक्रिया अने तद्धित प्रक्रिया आवे छे.
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जेम 'गुण तथा वृद्धिथी युक्त होय छे, तेम ते नगर गुणवृद्धि-गुणोथी वृद्धिवाळू हतुं. परंतु व्याकरण जेम उपसर्ग, निपात, न्यास अने लोपवाळु होय छे, तेम ते नगर उपसर्ग-उपद्रव, निपात-पडवू अने न्यासलोप-थापणनुं ओळव. तेटलाथी वर्जित हतुं. आq नगर जोई कुमार हर्षथी प्रकाशमान थई गयो अने तेणे यक्षने का के, "राजा सहित एवं आ नगर अमोने दर्शावो." पछी यक्षे गजेंद्रना स्कंध उपरथी ते बनेने उतार्या अने कह्यु के, "ज्यारे काम पडे त्यारे मने याद करजो." ते बंने पछी नगरमां पेठा अने आखो दिवस फरीने तेमणे दृष्टिने सुख आपे तेवा विविध कौतुको जोयां. ज्यारे सूर्य अस्त थयो, त्यारे वाजिंत्रवडे गाजी ऊठेला कामदेवना मंदिरमां जई तेओ बंने सूई गया. ___आ अरसामां ते कांचनपुरमा सूरसेन नामे राजा ते विशाळ राज्य चलावतो हतो. तेने वसंतश्री नामे राणी हती. तेणीना उदरथी रतिना जेवी प्रीतिवाळी अने कळाकेलिमां प्रेमवाळी मदनश्री नामे उत्तम पुत्री थई हती. लतानी जेम फळदायक अने सुखसंपत्तिथी युक्त एवी कामलता नामे एक सेनापतिनी पुत्री ते मदनश्रीनी सखी हती. बीजना चंद्रनी कलानी जेम निर्मल अने लोकोए पूजेली शशिकला नामे मंत्रीनी पुत्री तेनी बीजी सखी हती. जाणे जंगम एवी मधु-वसंतनी श्री शोभा होय तेवी सुमनोभू अने 'कोकिलस्वरथी विराजित एवी नगरशेठनी मधुश्री नामनी पुत्री तेणीनी त्रीजी सखी हती. पुण्य-पवित्र एवा अंगना अवयवोथी सुंदर एवी ते चारे सखी विधाताए देवगतिमांथी सार वस्तु लईने निर्माण करेली हती. त्यां विद्यानंदन नामे एक चतुर बुद्धिवाळो शिक्षक हतो, ते लोकोमा प्रशंसा तथा कल्याण करनारो होई पोताना नाम प्रमाणे गुण धरावतो हतो. मूर्त्तिमान् चार प्रकारनी बुद्धिना जेवी ते चारे सखीओ समय प्रमाणे ते विद्यानंदन शिक्षकनी पासे निष्कपटपणे कलाओनो अभ्यास करती हती. ते नगरमां घणो धनवान् सागरदत्त नामे एक सार्थवाह हतो. तेने रूप तथा लावण्यनुं पात्ररूप, युवान, कुलीन, विद्वान् धनवान्, सुभागी अने सुखी एवो समुद्रदत्त नामे पुत्र हतो. ते कळाओनो 1. व्याकरणमां स्वरोने गुण तथा वृद्धि थाय छे. ते नगरना लोकोमां गुणोनी वृद्धि थती हती. 2. व्याकरणमां उपसर्गो, निपात, न्यास अने वर्ण वगेरेनो लोप थाय छे. ते नगरमां लोकोमां
उपसर्ग-उपद्रव, निपात-पडवू; अने न्यासलोप-थापणनुं ओळवq थतुं नहीं. व्याकरणमां 'अने ते नगरमां तेटलो तफावत हतो. 3. वसंतऋतुनी श्रीपक्षे सुमनोभू इटले पुष्पोने उत्पन्न करनारी अने राजकन्यापक्षे सुमनोभू-सारा मननी भूमिरूप. 4. वसंतश्री कोकिलाना स्वरथी विराजित एवी राजपुत्री कोकिलाना जेवा स्वरवाळी (तेमज कामदेवथी विराजित एवो पण अर्थ घटे छे.)
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• धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा अभ्यास करवा तत्पर बनी ते चारेनो सहाध्यायी हतो. हमेशना सहवासथी, एक विद्यागुरुना अने सरखा स्वभावना योगथी समुद्रदत्त उपर ते चारे बाळाओनो विशेष राग थयो. एक वखते ते चारे बालाओए विचार कर्यो के, "आपणामां गळीना रंगनी जेम परस्पर उंची जातनो भरपुर स्नेह जामी गयो छे. जो आपणा पिताओ पोतानी बुद्धि प्रमाणे आपणो विवाह जुदा जुदा नगरीमा करशे, तो आपणने वियोग थशे. तेथी आपणे बधी रूप, गुण अने सद्विद्या वगेरे सरखा गुणोथी मळता एवा समुद्रदत्तनुं पाणिग्रहण करीए." आq विचारी तेमणे समुद्रदत्तने कडं के, "तमारे सायंकाले कामदेवना मंदिरमां आवी अवश्य अमारुं पाणिग्रहण करb." कर्णमां अमृत जेवं ते कन्याओगें आ वचन सांभळी हृदय अने कानमां दुर्बल एवो समुद्रदत्त खुशी थई गयो अने तेणे ते काले तेमनुं ते वचन स्वीकारी लीधुं. आ समये दैवयोगे कुरंग नामनो एक सेवक त्यां हाजर हतो, तेणे आ बधुं सांभाळी लीधुं अने तत्काळ तेणे जईने तेना पिता सागरदत्तने ते हकीकत कही दीधी. ज्यारे संध्याकाळ थयो एटले राज कन्या मदनश्री राजाना चोकीदारोनी नजर चूकवी, एक चतुर दासीने साथे लई अने विवाहनी बधी उत्तम सामग्री ग्रहण करी पेला कामदेवना प्रासादमां आवी. एवी रीते पेली चारे कन्याओ पण ज्यां कुमार पूर्ण कलश साधकनी साथे सुखे सुतो हतो त्यां हर्षभेर आवी. प्रथम तेओए पुष्पोथी कामदेवनी पूजा करी जे कामदेव 'अनंग छे. छतां पण सेवा करवाथी अंगज-संततिने आपे छे.
अहिं श्रेष्ठी सागरदत्ते विचायुं के, "जो मारो पुत्र समुद्रदत्त ए सर्व कन्याओने परणशे, तो तेथी मारे अनर्थ उत्पन्न थशे. कदि ते नानी वयनो छे, तेने लईने समजूतीथी मारुं वचन नहीं माने, तो पछी हुं वेगथी भेदनी युक्तिथी तेने आ कार्य करतो अटकावू." आq विचारी सागरदत्ते तेने कोई कामर्नु बहानुं बतावी घरनी अंदर मोकल्यो पछी तरत ते घरने ताळु दई दीधुं अने तेना मननी इच्छा तोडी पाडी. अहिं कामदेवना मंदिरमां ते प्रशंसनीय एवी सर्व बालाओए ते समुद्रदत्तने घणो वखत अवलोक्यो, परंतु पूर्वना कारणने लईने ते जोवामां आव्यो नहीं.
- समुद्रमा मणिनी इच्छा राखनारने जेम चिंतामणि मळी आवे, तेम समुद्रदत्तनी शोध करती ते बालाओने पेलो ईष्ट पूर्णकलश कुमार मळी आव्यो. 1. कामदेव-अनंग-अंग वगरनो छे, छतां पण ते अंगज-पुत्रनी संततिने आपनार छे. 2. तेना पिता सागरदत्ते घरमां ताळु वासी पूर्यो छे. ते कारणने लईने.
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा तेने जोई मदनश्री तरत बोली के, 'शुं आ कामदेव?' त्यारे कामलता बोली, "कामदेव तो अनंग छे अने आतो सुंदर अंगवाळो छे" शशिकला बोली, "जरूर आ पुरुषोत्तम-विष्णु ज छे, पण विष्णु तो जनार्दन-लोक पीडक छे अने आतो जनोने कोई आनंद आपनार छे." मधुश्री बोली, "जरूर आ शंकर ज छे, परंतु हे सखी, ते शंकर 'विरूपाक्ष छे अने आतो कमळलोचन छे." मदनश्री बोली, "त्यारे आने इंद्र जाणी ल्यो. जोके ते इंद्र कामरूपी छे, पण हजार नेत्रोथी दूषित छे. तो पछी बीजा सर्वेने मान्य एवो आ अन्य पुरुष छे, एम मने कहो. पण आ पुरुष आपणा श्रेष्ठ आनंदनी इच्छा करतो. नथी." ते बालाओना आवा वचनो सांभळी तेमनी शंकाने दूर करवा पेलो साधक बोल्यो. "आ कामदेव वगेरे मांहेलो कोई नथी परंतु ते प्रतिष्ठानपुरना राजा श्री मलयकेतुनो पवित्र पुण्यनी भूमिरूप अने स्त्रीओना काम तथा अर्थने करनार पूर्णकलश नामे पुत्र छे." आ सांभळी ते सर्व उत्तम कन्याओ विस्मय पामी गई अने परस्पर कहेवा लागी के, "संतुष्ट थयेला आ कामदेवे आपणने आवो स्वामी आप्यो छे." पछी सर्वेए मळीने साधकने कयु के, "आ वरने सत्वर जाग्रत करो, कारण के अत्यारे वरवाने योग्य एवो समय छे." पछी साधके ते कुमारने उठाड्यो. ते बालाओने जोई पूर्णकलशे साधकने का, अरे भाई! शं आ पातालनी नागकन्याओ छे? अथवा विद्याधरनी स्त्रीओ छे? के सुरांगनाओ छे? ते काई बराबर समजातुं नथी." कुमारना आ शब्दो सांभळी राजपुत्रीनी विचिक्षणा नामे दासी बोली, "हे सुंदर एवा विकल्पना भाषणो करवाथी बस थयु. जे खरी हकीकत छे ते सांभळो. आ पहेली अनुपम कन्या छे, ते सूरसेन राजानी पुत्री छे. बीजी सेनापतिनी पुत्री छे, त्रीजी मंत्रीनी पुत्री छे अने आ चोथी नगरशेठनी पुत्री छे. आ चारे आपने वरवाने आवेली छे. हमणां शुभ लग्नछे तेथी ए चारेनुं सत्वर आदरथी पाणिग्रहण करो." पछी तेणीना कहेवाथी कुमार पूर्णकलशे कामदेवनी समीपे जईने गांधर्व विवाहवडे तेमनुं पाणिग्रहण कयु. ते पछी मदनश्री वगेरे सर्व बालाओए कुमार पूर्णकलशने आ प्रमाणे का, "स्वामिन, तमे आ जगतना देशोमां फरवाने माटे अति आदर अने इच्छावाळा छो, तथापि तमारे पोताना माणसोनी विशेषपणे संभाळ लेवी जोईए. हे प्रभो, कमलिनीनी शोभा जल वगर होती नथी. का छे के, "अनाथ स्त्रीओने तेमनो बंधु पण पराभवने माटे थई पडे छे. सूर्यनो उदय न थतां जलमांथी थयेली कमलिनीने जलमांथी थयेलो चंद्र बंधु छतां पण तेमना 1. विरूपाक्ष-त्रण नेत्रोने लईने शंकर विरूप नेत्रवाळा छे. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा पराभवने माटे थई पडे छे." आ प्रमाणे कही ते बधी पोत पोताने स्थाने चाली गई अने पूर्णकलश कुमार पोताना मित्र चित्रसेन साधकनी साथे त्यां शांतिथी रह्यो.
आ अवसरे एवं बन्यु के, एक गजेंद्र खीलो उखेडीने छूटो थई नगरना प्रासादो अने विविध जातनी हवेलीओ पाडवा लाग्यो अने ते क्रोधथी योद्धाओने पण मारवा लाग्यो तो पछी बीजाओनी शी वात करवी? ते भद्रजातिना गजेंद्रोने पण गणकारतो न हतो. ए गजेंद्र स्वभावथी तोफानी हतो. तेम छूटो थवाथी अने मदथी उत्कृष्ट (उन्मत्त गांडो) बनवाथी ते वधारे तोफानी थयो हतो. ते साथे ते राजाने प्रिय हतो. ते गजेंद्रना नठारा कामोने लईने तेनी निंदा थई, तेमां कांई आश्चर्य न हतुं. आ पृथ्वीमां 'मातंगोनी निश्चे एवी ज रीते निंदा थाय छे. आ बनाव जोई राजाए जाहेर कराव्यु के "जे पुरुष आ गजेंद्रने वश करे, तेने इच्छा प्रमाणे धननी साथे हुं मारी पुत्री मदनश्री आपीश." राजानी आ जाहेरात सांभळी महावतो क्षत्रियकुमारो अने विविध जातना योद्धाओथी हथीआरो उगामी क्रोधथी ते गजेंद्रने वश करवाने दोडवा लाग्या परंतु कोई ते गजेंद्रने वश करी शकायु नहि. तेथी राजा अने सर्व लोको दुःखी थवा लाग्या. आ समये कुमार पूर्णकलश ते गजेंद्रनो शब्द सांभळी शूरपणाथी तेजना पुंजथी व्याप्त छतो सत्वर त्यां आव्यो. गजशिक्षाने विशेष जाणनारा ते कुमारे ते गजेंद्रने घणीवार सुधी रगडाव्यो. पछी प्रजाने मारनारो अने पर्वतना जेवो तेने वश करी लीधो. पछी शुद्ध बुद्धिवाळा ते कुमारे ते गजेंद्रने वेगथी बंधन स्थानमा लावी खीले बांधी दीधो. तेथी शोक रहित थयेला लोकोए ते वात राजानी आगळ निवेदन करी. ।।८६३।।
आ तरफ प्रातःकाल थयो, एटले राणीए पोतानी पुत्री मदनश्रीने विवाहना उपस्करवाळी जोईने पूछ्युं, "वत्से, आ शुं थयु?" मदनश्री लज्जाथी मौन धरीने रही. कारण के "मौनं सर्वार्थसाधनम्" "मौन धरवू, ए सर्व अर्थने साधनारूं छे." ते जाणवाने अति आतुर थयेली मातानी आगळ विचक्षणा दासीए ते बधो वृत्तांत मांड मांड निवेदन कर्यो. पछी राणी विचक्षणाने लई राजानी पासे आवी अने तेणीए ते रात्रिनो बधो वृत्तांत विधिपूर्वक राजाने कही संभळाव्यो. ते सांभळी राजा बोल्यो, "पहेलेथी मारो मनोरथ पण एवो ज हतो के, हुं ते कुमारने राजपुत्री आपीश. परंतु उत्कंठाने वश थईने माराथी एवो ठराव थई गयो छे के, "जे पुरुष गजेंद्रने वश करे, तेने पुत्री आपवी." हवे अंगीकार करेली ते प्रतिज्ञा 1. मातंग एटले हाथी अने चंडाळ.
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा हुँ केवी रीते पूरी करी शकीश? कारण के पुरुषोनी वाणी चिंतित कार्यथी पण वधारे गणेली छे, आ प्रमाणे राजा चिंता करतो हतो. तेवामां श्रेष्ठ पराक्रमवाळो कुमार राजाना आंगणामां आव्यो. ते कुमारने जोईने राजा हृदयमा विचार करवा लाग्यो के, "रूपवान् विनयी दक्ष अने ब्होंतेर कलाओने धारण करनार आ उत्तम नर कोण हशे?" ते वखते युक्तिवाळा वचन बोलवामां विचक्षण एवी विचक्षणा बोली. "तेज आ आपना जमाई पराक्रमी श्री पूर्णकलशकुमार" ते सांभळी मंत्रीओ बोल्या. "आ सत्य छ, जुओ आ कुमारना शरीर उपर विवाह चिह्न दर्शनीय देखाय छे." ते सांभळी राजाए कह्यु के, "आ बहु सारं थयुं, मारी प्रतिज्ञा पूर्ण थई अने मने ईच्छित जमाई पण प्राप्त थयो." पछी राजाए केटलाएक पगलां सामे जई प्रणाम करी रहेला ते कुमारने भेटी आसन उपर बेसाड्यो. पछी राजाए देह तथा घरनी कुशळता पूछी कह्यु के, "अमारु घर हतुं ते छतां तमे . अतुल्य एवा देवालयमां केम सुई गया? हे प्राज्ञ, तमे जे तमारुं आगमन जणाव्यु नहि. ते सर्व कलाओने जाणनारा महान् पुरुषोनो स्वभाव ज छे. सूर्य ज्यारे उदय पामे छे त्यारे ते शुं बीजाओने पोतानो उदय जणावे छे? परंतु ते पोताना किरणोथी बीजाओना तेजनो नाश करे छे. वरसाद ज्यारे आवे छे, त्यारे ते शुंबीजाओने कहे छे? परंतु पोताना अमृतजळवडे बीजाना संतापनो नाश करे छे. सिंह ज्यारे आवे छे त्यारे ते शुं बीजाओने जणावे छे? परंतु ते पोताना पराक्रमोथी महीमत-पर्वतो अने राजाओना गजेंद्रोने त्रास आपे छे. चंद्र ज्यारे उदय पामे छे, त्यारे ते शुं बीजाओने जाहेर करे छे? परंतु ते पोताना विश्वमा देखाता किरणोथी अंधकारना समूहने दूर करे छे." कुमार पूर्णकळश बोल्यो, "हे स्वामी, आ वक्रगतिए चालनार 'नागने में स्तंभित करी दीधो, तेनु कारण साक्षात् नरेंद्र ज छे. जे रथ सूर्यना साक्षात् मंडलने वसुरहित करी दे छे, ते महाबळनो ज प्रभाव जाणवो." राजाए कडं, "कमलिनी जे हंसनो अंगीकार करवा आदर करे छे तेनुं कारण शुं पिता छे? तेमां तो प्रीति ज प्रमाणरूप छे. बंधुपणामां पण मुख्य कारण प्रीति ज छे. कुमुदने बीजा घणां सहज बंधुओ छे, पण कुमुद बांधव तो चंद्र ज कहेवाय छे; परंतु मात्र निमित्त कारणरूपे हुं विवाह करुं छं. कारण के गुरुए आपेली 1. नाग एटले हाथी अने बीजे पक्षे नाग एटले सर्प-हाथी उन्मत्तपणे वक्रगतिवाळो अने सर्प स्वभावे वक्रगतिए चालनारो छे. कुमार राजाने कहे छे के, में जे आ हाथीने वश कर्यो, तेनुं कारण आप नरेंद्र छो. सर्पपक्षे-नरेंद्र एटले गारूडी. 2. वसु-तेजथी रहित पक्षे वसुधनथी रहित. 3. विद्यापक्षे गुरु-शिक्षक, कन्यापक्षे गुरु-पिता अथवा वडील.
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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा पुत्री अने विद्या सदा शुभदायक थाय छे." आ प्रमाणे कही राजाए सर्व जननी साक्षीए पोशाक, हस्ती, घोडा अने रत्न सहित पोतानी पुत्री कुमार पूर्णकलशने आपी. ते खबर जाणी सारा मुखवाळा सेनापति वगेरेए पण पोतपोतानी पुत्रीओ सुवर्ण तथा वस्त्र सहित ते कुमारने तरत अर्पण करीः राजाए सर्व वस्तुओथी पूर्ण करी सातमाळनो एक उत्तम महेल तेने वास करवा माटे सन्मान पूर्वक अर्पण कर्यो. चार प्रकारनी बुद्धिनो निधिरूप कुमार पूर्णकलश दुःख रहित अने स्वस्थ मनवाळो थई ते चारे प्रियाओनी साथे त्यां रहेवा लाग्यो.
एक वखते राजा सूरसेने आकाशमां वादळ जोयु. ते कोई ठेकाणे सिंदूरना रंग जेवं, कोई ठेकाणे नीलमणि जेवं, कोई ठेकाणे सोनेरी रंगनुं, कोई ठेकाणे शुक्लपक्षीना पीछा जेवं, कोई ठेकाणे स्फटिकना जेवं अने कोई ठेकाणे गर्जना साथे विधुत्नी कांतिवाळु जोवामां आव्यु. ते जोई विस्मयथी नेत्रनो विकास करतो जेवामां ते जुवे छे, तेवामां तो प्रचंड पवन वडे आकडाना रूनी जेम ते वीखराई गयेलुं मालुम पड्यु सत्काल राजा सूरसेने विचार्यु के, "जेवी रीते आ मेघमंडळ नाशवंत छे, तेवी रीते द्रव्य, शरीर अने स्त्री वगैरे बधुं नाशवंत छे. मारी नगरी हरिश्चंद्रनी नगरीनी जेम चाली जवानी छे. मारा स्वजनो नाटकमां लाववामां आवेला अनेक रूपी पात्रोना जेवा छे. मारुं कटक-सैन्य कांटावाला स्थानना जेतुं छे. मारुं मंदिर यमराजना मंदिरना जेवू भयंकर छे. आं 'क्षिति क्षतिना जेवी छे. आ कमळा-लक्ष्मी कमळमां उत्पन्न थयेली छे अने कमळने आश्रित छे, ते कमळमां पण जे स्थिर रहेती नथी, तो पछी बीजी कोने अलंकृत करीने स्थिर रहे? कामना आरामवडे सुंदर एवी ते स्त्री तो कामने ज अनुसरनारी छे, नहीं तो ते काम-इच्छाओमां ज आराम करनारी थाय छे. तेथी स्त्रीनी पकड मुश्केलीथी छोडी शकाय तेवी छे. संपत्तिओनो अने स्त्रीओनो त्याग करवो सारो छे अने आ पृथ्वी उपर जे भोग छे ते भोगना जेवा ज छे, तेनाथी स्पर्श थयेलो पुरुष पोते शिष्ट होय तो पण ते कष्टने ज पामे छे, ।।९००।। जेओ आ लोकमां युद्ध करीने शत्रुओनो निग्रह करे छे, तेओए बीजाओनो सार मेळव्यो पण तेमना प्रधान पुरुष (पुरुषार्थ-धर्म) नो क्षय थाय छे. तेथी जो मने हमणां ज धर्मने करनारी गुरुनी प्राप्ति थई आवे, तो हुं आ राज्यनो भार छोडी दई सम्यक् प्रकारे संयमनो आश्रय करूं." आ प्रमाणे राजा सूरसेन विचार करतो हतो, तेवामां उद्यानपाले आवी प्रसनचंद्र सूरीश्वरना आववाना खबर आप्या. तरत ज राजा ते 1. क्षिति-पृथ्वी. 2. क्षति-क्षय. 3. भोग-सर्पनी फणा.
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पूर्णकळशनी कथा, विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा उद्यानपालने अपरिमित योग्य दान आपी वाहन उपर बेसी असह्य (भारे) सेनाने साथे लई ते गुरुने वंदन करवा चाली नीकल्यो. ते सूरीश्वरने विधिपूर्वक वंदना करी राजा पोताने योग्य एवा स्थाने सावधान थई बेठो एटले गुरुए आ प्रमाणे देशना आपवा मांडी.
"हे राजन्, आ भरतक्षेत्रमा बधा मळीने बत्रीस हजार देशो छे, तेओमां साडी पचीस आर्य देश छे. अंग, बंग (बंगाळ), कलिंग, कोशळ, जांगळ, कुरु, पंचाळ (पंजाब), मगध, सिंधु, काशी, भंग कुणालक, दशार्ण, लाट, शांडिल्य, वत्स, अच्छ, वयराटक, सुराष्ट्रे (सोरठ), मलय, चेदी, सूरसेन, विदेह, वत, कुशात अने अर्थो केकेयी-एम साडी पचीस आर्यदेश विद्वानोए जाणी लेवा. ते साडी पचीस देशोमां ज त्रिषष्ठिशलाका पुरुषो जन्मे छे. तेवा देशोमां रत्न जेवू दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करीने जेओ प्रमाद करे छे, तेओ एक विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी जेम दुःखी थाय छे.
विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा प्रतिष्ठानपुरमा विष्णुशर्मा नामे एक ब्राह्मण हतो. तेने शीलनुं लालनपालन करवानी इच्छावाळी शीलवती नामे पत्नी हती. ते विष्णुशर्मा चौद विद्या जाणनार हतो, तो पण ते लक्ष्मीथी रहित हतो, "प्रायो यत्र भवेद्विद्या लक्ष्मीस्तत्र न दृश्यते ।।९१२।।" प्राये करीने ज्यां विद्या होय, त्यां लक्ष्मी होती नथी. तेने . माटे कयुं छे के, "लक्ष्मी जल जंतुओना भंडार रूप एवा समुद्रनुं एक मत्स्य छ, एम कहेवामां कोई जातनो विवाद ज नथी, कारण के जेम मत्स्य धीवर ढीमरोथी डरे छे अने जड-जलमां डूबी जाय छे तेम लक्ष्मी पण धीवर-विद्वानोथी डरे छे अने जड पुरुषोमां डूबी जाय छे-मग्न रहे छे. वळी कर्वा छे के, "हे राजन्! जेम मृगली गुणी-पाश धरनारा माणसने देखी पोताने बंधन थवानी शंकाथी दूर दूर नाशी जाय छे, तेम लक्ष्मी गुणी माणसने देखी पोताने बंधन थवानी शंकाथी दूर दूर नाशी जाय छे. ब्राह्मण विष्णुशर्मा अने शीलवती ते बंनेने दारिद्र्य तो एक हतुं ज, पण तेमां वळी तेमने घणी दीकरीओ थई ते दांझेला पर फोल्लो थवाना जेवू बन्यु हतुं.
एक वखते घणी कन्याओथी अने द्रव्यना अभावथी दुःखी थयेली प्रिया शीलवतीए मधुर वचनोथी पोताना पतिने आ प्रमाणे कडं, "गृहस्थ धनवान् अने मुनि निर्धन होय तो ए बंने पूजवा लायक छे, पण जो तेथी उलटुं होय एटले गृहस्थ निर्धन अने मुनि धनवान् होय, तो बनेनी मान्यता लोकोमां थती नथी. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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पूर्णकळशनी कथा, विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा 'विष्णुपदनो आश्रय करनार, सच्चक्रनो बंधुरूप अने शूर एवो मित्र जो वसु रहित होय, तो तेने मार्गे चालनारो माणस पण मान आपतो नथीं तो पछी बीजो कोण मान आपे? -कोशाढ्य एवो पुरुष बद्धमुष्टि होय, तो पण ते पृथ्वीनो स्वामी थाय छे. हथीआरो घणां होय, पण पृथ्वी तो खड्गनी ज छे. आगळ तो आपणे बंनेने गमे ते (साधन) वडे संतोष हतो; परंतु हवे तो विधियोगे सदा मनने पीडा आपनारी कन्याओ थई पडी छे. हे स्वामी! हवे विचार करो आटली बधी आ कन्याओना विवाह, आभरण अने पोषण द्रव्य वगर शी रीते थई शकशे?" प्रिया शीलवतीना आ वचन सांभळी ते शुद्ध बुद्धिवाळा विष्णुशर्माए मनमां विचार्यु के, "आ प्रिया जे कहे छे, ते सर्व सत्य छे; कारण के आ पृथ्वीमां मातंग थकी पण दारिद्र (अधिक) लेखाय छे. ए निश्चय छे अने तेनाथी मलिनता अधिक थाय छे, जेथी स्वजन पण तेनो स्पर्श करतो नथी; तेथी हुँ विविध उद्यम करी अने देशांतर जई घणुं धन लई आईं अने मनोरथ पूरा करूं." आq मनमां घणीवार चिंतवी ते एक दिशा तरफ चाल्यो अने ते पोतानी निर्दोष विद्या वडे उत्तम जनोने संतोष आपवा लाग्यो. तेणे राजाओने राजी करवा मांड्या, पण कोई ठेकाणेथी द्रव्य प्राप्त थयु नहि. पछी तेणे कोई एक वृद्ध ब्राह्मणने पूछ्युं के, "अरे भाई, द्रव्य क्यां छ?" ते वृद्ध ब्राह्मण बोल्यो, रत्नोनी खाणरूप एवा रत्नद्वीपमां रत्नवती देवी छे. तेणीनी सेवा करवाथी ते यत्न करनारा सत्पुरुषोने रत्न आपे छे." वृद्धना आ वचन उपरथी ज्यां ते रत्नोनी खाणनी देवी हती, त्यां ते गयो अने तेणे तेनी विधिपूर्वक आदरथी आराधना करवा मांडी. शरीर उपर उत्तरासंग वस्त्र राखी सारा पवित्र वस्त्रो पहेरी सुंदर चंदनना लेपथी अने पूर्ण खीलेलां सारां पुष्पो तथा उत्तम कमळोथी तेनी पूजा करी अने नमस्कार करी ते अंजलि जोडी आ प्रमाणे बोल्यो1. अहिं मित्रनो अर्थ सूर्य अने स्नेही थाय छे. मित्र विष्णुपद-आकाशनो आश्रय करनार छे. सच्चक्र-सारा चक्रवाक पक्षीओनो बंधुरूप छे अने तेनुं नाम सूर छे. ते वसु-किरणोथी . रहित होय, तो मार्गे चालनारो मुसाफर पण तेने गणतो नथी. मित्र-स्नेही विष्णुपदनो आश्रित एटले वैष्णव होय, सच्चक्र-सारा पुरुषोना चक्र-समृहनो बंधुरूप होय अने शूरवीर होय, पण जो ते वसु-धनथी रहित होय तो तेने कोई मान आपतुं नथी. 2. कोशाढ्यएटले धनवान् एवा पुरुष बद्धमुष्टि-एटले बांधी मुठी राखनार-लोभी होय तो पण ते पृथ्वीनो धणी थाय छे. पक्षे कोशाढ्य-म्यानवाळो अने बद्धमुष्टि-मूठवाळो खड्ग जेना हाथमां छे, एवो पुरुष पृीनो स्वामी थाय छे. 3. मातंग एटले लक्ष्मीनी ताण-न्युनता. पक्षे मातंग एटले चंडाळ करतां पण दारिद्रय वधारे खराब छे केमके निर्धनने स्वजनो पण स्पर्शता नथी स्वजनो तेनाथी अळगा रहे छे.
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पूर्णकळशनी कथा, विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा "हे रत्नोने आपनारी देवी, दारिद्र्य रूप समुद्रमाथी मने तारी ल्यो." आ प्रमाणे एकवीस दिवस सुधी सेवा करतां ते विष्णुशर्माने देवीए प्रत्यक्ष थई खेद साथे का, 'ते पूर्वे कांईपण सुकृत कयु नथी, तेथी तने धन क्यांथी मळे? माटे तुं मारा मंदिरमांथी चाल्यो जा. नहीं तो हुं तने समुद्रमां फेंकी दईश." देवीनां आवां वचन सांभळी ते खेदातुर थईने बोल्यो, "जो सुकृतधर्म करवाथी मने धननी प्राप्ति थती होय, तो पछी तारी सेवा करवानुं फल शुं? जो रोगी पथ्य पाळवाथी निरोगी बनतो होय, तो पछी तेमां वैद्यनी विद्या शी कहेवाय? ज्ञानदृष्टिवाळा पुरुषने सूर्यना प्रकाशनी शी जरूर छे? चिंतामणि वगेरे अचेतन पदार्थो पण चिंतित अर्थने आपनारा छे ते केवा सारा गणाय? तमे विबुध (देव अने ज्ञानी) छो, छतां पण मारी इच्छा प्रमाणे केम आपता नथी?" ते सांभळीने देवी बोल्यां, "अरे! ते चेतना वगरना चिंतामणि वगेरे सत्पुरुषोने वांछित आपे छे पण ते चेतावी शकता नथी. तेमज उत्तर परिणाम जाणी शकता नथी अने जे विबुध-विद्वान् देवताओ छे, तेओ पोतानु अने पर हित सारी रीते जाणी शके छे, तेथी हुँ तने कांईपण आपती नथी." ते ब्राह्मणे कडं, "देवी, मारुं उत्तर परिणाम केq छे? ते मने हमणां ज कही आपो." देवी बोल्यां. "हं तने जे आपीश, ते तारी पासे रही शकशे नहीं," ब्राह्मणे कडं, "हे देवी, तेमां तमारे शा माटे चिंता राखवी? मने ईच्छित वस्तु आपो, जो पाछळथी ते बधुं हुं गुमावीश, तो पछी तेमां तमारो दोष नथी." पछी देवीए तेने चिंतामणि आप्यो. ते विद्वान् ब्राह्मणे तेथी हृदयमां संतोष पामीने पारणुं कयु. ते पछी विष्णुशर्मा वहाणमां बेसी ते सुंदर मणि साथे लई पोताना नगरमां सत्वर जवानी इच्छाथी जळमार्गे चाल्यो. एक वखत पूर्णिमानी रात्रे आकाशमां चंद्रने जोई तेणे विचार कर्यो के, "आ मारो मणि वधारे प्रकाशमान छे के चंद्र वधारे प्रकाशमान छे? तेथी हं ते मणिने चंद्रनी साथे सरखावी जोई मारा मननो संदेह दूर करूं. अर्थ कार्य सुखे सधाय एम होय छतां अहीं कयो माणस पोताना हृदयमा संशयने धारण करे?" एवं चितवी समुद्रना जळमां ज्यां चंद्रनुं प्रतिबिंब पडेलुं छे, त्यां ते जडबुद्धि ब्राह्मणे सहेजे (वगर महेनते) चिंतामणिरत्न युक्त पोतानो हाथ कर्यो त्यां चंद्रना बिंबमां कलंक अने पोतानो मणि निष्कलंक जोई ते खुशी थई गयो, परंतु तेणे हृदयमां कांई विचायुं नहीं, तेवामां प्रमादने लईने ते मणि तेना हाथमांथी समुद्रनी अंदर पडी गयो. तेथी तत्काळ पोते अचेतन थईने वहाणमां मूर्छित थई पड्यो. आ वखते वहाणना स्वामीए तेने कर्वा के, "अरे! कहे, तने आ शुं थयु?" पछी तेणे श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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पूर्णकळशनी कथा, विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा, कथानो उपनय अंतःकरणने अत्यंत भेदी नाखे तेवो स्ववृत्तांत तेने जणाव्यो. ते सांभळी ते वहाणपतिए पोताना परिवारने जणाव्यु के, "समुद्रमांथी आश्चर्यकारी एवो वडवाग्निनो मोटो संताप उत्पन्न थई आवे छे."।।९४८।।
आ कथानो उपनय प्रसन्नचंद्रसूरि कहे छे, हे राजेंद्र, तमे सावधानपणे आ कथानो परमार्थ (उपनय) सांभळो. जे विष्णुशर्मा ब्राह्मण कहेलो छे, ते आ संसारी जीव समजवो. तेनी जे शीलवती स्त्री ते बुद्धि समजवी. जे रत्नद्वीप ते अढीद्वीप जाणवो. जे पेलो वृद्ध ब्राह्मण उपदेश आपनार मन्यो हतो, ते गुरु समजवा. जे रत्नसुरी देवी ते शुभ कर्मनी प्रकृति जाणवी अने जे चिंतामणि ते मनुष्य भव जाणवो. आ संसार ते समुद्र समजवो. जेम प्रमादथी हाथमां ग्रहण करेलो चिंतामणि चाल्यो गयो, एवी रीते प्राणीनो मनुष्य भव प्रमादथी चाल्यो जाय छे. ते पुनः मळवो दुर्लभ थई पडे छे. हे राजा! जेओ चौद पूर्वधारी होय, पण जो तेओ प्रमादने वश थाय छे, तो तेओ अनंतकाल सुधी निगोदमा रहे छे. एवी रीते ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान सहित अनेक जीवो (प्रमादवशे पतित थयेला) सतत सूक्ष्म निगोदमां प्राप्त थाय छे, तो पछी बाकीना विषे तो कहेवू ज शुं? तेथी प्रमादने छोडी दई श्री जिनभगवानने कहेला धर्मर्नु आचरण करो. प्राणीओ वृद्धावस्थामां दीक्षाने योग्य नथी तेने माटे कयुं छे के, "बाळक, नपुंसक, वृद्ध, क्लीब (पुरुषार्थहिनबायलो). जड, जुंगित (खोडवाळो) रोगी, राजद्रोही, चोर, आंधळो, काम करनार (मजूर), गांडो, मूर्ख, दुष्ट, बंधनमां पडेलो, सेवक, करजदार अने 'शैष्यनिष्फेटक ए अढार प्रकारना पुरुषो दीक्षाने योग्य नथी. अने उपर कहेला अढार प्रकारनी साथे नाना छोकरावाळी अने गर्भिणी एम वीस प्रकारनी स्त्री दीक्षाने योग्य नथी. त्रीजा वेदवाळा नपुंसकने दीक्षा कोई वखते आपवानी कही छे, पण ते कारणने लईने पण आपी शकाती नथी. हे राजा, तमे संयमने प्राप्त करी मोक्ष मार्गने प्राप्त करो. तियचो पण नियमवाळा होय, तो देवलोके जाय छे. कारण के देव अने नारकीने मनुष्य तथा तिर्यंचगति प्राप्त थाय छे. तिथंचो मोक्ष सिवायनी चार गतिने प्राप्त करे छे. अने मनुष्यो पांच गतिने प्राप्त करे छे. सर्वथी उत्तम एवा मनुष्यो मोक्षमा उत्पन्न थाय छे. अने ते मोक्ष विना मनुष्यो दीनजनमां पशुओथी पण हलका कहेवाय छे. हे राजा, तमे आ मध्यम वयमां ज्ञान, दर्शन अने चारित्र प्राप्त करो, कारण के ते सामग्री प्राप्त थवी दुर्लभ छे." 1. शिष्यने भगाडनार के आपसमां भेद करावनार, आज्ञा वगर दीक्षा आपवी. 136
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पूर्णकळशनी कथा सूरिवरनो आ उपदेश सांभळी राजाए घेर आवी कुमार पूर्णकलशने बलात्कारे राज्य आपी गुरुनी पासे उत्तम प्रकारे दीक्षा ग्रहण करी. ते अवसरे पूर्णकलशे गुरुने निवेदन कयुं के, 'जो हुं योग्य होउं तो मने गृहस्थना बार व्रतो पूर्ण रीते आपो." गुरु बोल्या, "जैन सिद्धांतमां श्रावकना एकवीस गुणो कहेला छे, ते गुणोथी युक्त एवा पुरुष धर्मने योग्य थाय छे. जे १. क्षुद्र-हलको न होय, २. रूपवान्, ३. सौम्य, ४. विनयी, ५. पापथी डरनार, ६. अक्रूर, ७. शठतारहित, ८. मध्यस्थ, ९. गुणरागी, १०. दीर्घदर्शी, ११. लक्ष बांधनार, १२. कृतज्ञ, १३. बीजार्नु हित करवामां आदरवाळो, १४. (सु)दाक्षिण्यवान्, १५. विशेषज्ञाता, १६. दयाळू, १७. सारी कथा करनार, १८. (सु)पक्षयुक्त, १९. लज्जावान्, २०. वृद्धभक्त अने २१. लोकप्रिय-ए एकवीस गुणवाळो पुरुष धर्मने योग्य थाय छे. तेओमांथी सात आठ गुणवाळो होय, तो ते पण सामान्य रीते धर्मने योग्य थई शके छे. हे राजा, तमे तो तेवा अनेक गुणोना निवासस्थान छो, तो तमारामां धर्मनी योग्यता केम न होई शके?" आ प्रमाणे कही गुरुए ते काळे तेने श्रावकनो धर्म आप्यो. पछी राजा सूरसेने मुनीश्वर थई गुरुनी साथे विहार कर्यो अने पूर्णकलशे गुणोथी उपार्जन करेलुं राज्य करवा मांड्यु. अनुक्रमे प्रिय राणी मदनश्रीना उदरथी भाग्यसंपत्तिने धारण करनार मदनवर्मा नामे एक मुख्य कुमार उत्पन्न थयो.
एक वखते कुंडिन नगरमांथी माणसो त्यां आव्या अने तेमणे राजा श्री . पूर्णकलशने नमस्कार करी आ प्रमाणे विज्ञप्ति करी, "हे देव, देवपुरना स्वामी नरसिंह राजाए हठ करी ज्ञानगर्भ मंत्रीने कहेवडाव्युं छे के, "ते छळ करीने केटलोक वखत कन्याने पुत्रनो वेष पहेरावी राज्य कराव्युं, पण ते मारा जाणवामां आव्युं नहि. हमणां कोई पृथ्वीमां कामदेव जेवा कुमारनी पासे ते कन्या थकी पुत्र उत्पन्न करावी तुं तेनी पासे राज्य करावे छे. ते शी वात कहेवाय? हवेथी जो तुं राज्यनो भार राखवाने ईच्छतो हो तो तुं मने दंड आप अथवा युद्ध करवाने रणभूमिमां आव." ते लोकोना आवां वचन सांभळी मंत्रीए जवाब आप्यो, "हे दूत तारे तारा स्वामीने आवी रीते कहेवू के, 'तें दमितारि राजानी पासे ते वखते दंड माग्यो नहीं अने हवे दंड लेवानी इच्छा केम करे छे?' तुं बाळक, राज्य जाणीने हवे जे दंड लेवानी इच्छा करे छे, तेथी तुं नरसिंह नथी, पण नरश्वान छे." आ प्रमाणे कहीने मंत्रीए ते दूतने स्वस्थाने मोकल्यो छे. पछी मंत्री ज्ञानगर्भे हितने माटे अमोने अहिं मोकल्या छे. हवे ए पछी राज्यना रक्षणनेमाटे आप ज प्रमाण रूप छो-आपनी जे इच्छा होय तेम करो." कुमार पूर्णकलशे का, "तमे श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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पूर्णकळशनी कथा सत्वर जाओ अने तमारे मंत्री ज्ञानगर्भने कहेवू के, 'कोईनो भय राखशो नहिं हुं जलदी शत्रुने शिक्षा आपीने त्यां आवीश.' तेनुं आ वचन सांभळी तेओ निर्भय थई पोताना नगर तरफ चाली नीकल्या." पछी कुमार पूर्णकलशे त्यां राज्यनी सारी व्यवस्था करी सर्व संपत्तिने आपनारा पेला सर्वानुभूति यक्ष- स्मरण कयु. तत्काळ ते यक्ष त्यां आव्यो अने तेने पोताना गजेंद्र उपर चडावी ज्यां नरसिंह राजा सैन्य साथे रह्यो हतो, त्यां पहोंचाड्यो. आ तरफ पेला दूतनो संदेशो सांभळी नरसिंह राजा प्रथमथी ज पोताना नगरमांथी नीकळी कुंडिनपुर तरफ प्रयाण करतो हतो. गजेंद्र उपर रहेला पूर्णकलशने आकाशमार्गे आवतो जोई राजा नरसिंह पोताना मनमां आश्चर्य पामी विचार करवा लाग्यो के, "शुं आ औरावत हाथी उपर इंद्र पोते आवे छे? के कोई विद्याधर आवे छे? मनुष्यनी शक्ति आवी होय नहि." आ प्रमाणे ते राजा चिंतवतो हतो, त्यां तो कुमार पूर्णकलश तेनी समीपे आवी पहोंच्यो. तेने जोतां ज ते 'नरसिंह हतो, छतां पण ते काळे ते कार्यमूढ बनी गयो. कुमार पूर्णकलश बोल्यो, "तुं जे भुजाना बळथी ज्ञानगर्भ मंत्रीनी पासे दंड मागे छे. ते तारी भुजानुं बळ मने हमणां ज बताव. जे मारो सेवक होय, तेनो हुं सदा पूर्णकलशरूप पूर्णकलश कुमार छु, परंतु जे मारो शत्रु छे, तेनो तो हुं कुमार-नठारी रीते मारनारो छ." आवा वचन सांभळी राजा नरसिंहे पोताना उग्र सुभटोने कह्यु के, "अरे! आ नराधम पुरुषनो निग्रह करो, निग्रह करो." राजानुं आ वचन सांभळी ते उग्र सुभटो हाथमां हथीयारोनो समूह लई 'मारो, मारो' एम बोलतां युद्ध करवा उभा थया. ते वखते पेला यक्षे जाणे चित्रमा आळेखेला होय तेम तेओने स्तंभित करी दीधा. निर्भाग्य मनुष्योनी वांछा क्यांथी पूरी थाय? ते काळे राजा नरसिंह छतां पण एवो थई गयो के ते स्तंभने भेदीने शत्रुनो नाश करी शक्यो नहीं. ते समये कुमार बोल्यो "अरे? तुं शा माटे चिंता करे छे? आ बीजा सेवकोनी शं जरूर छे? आपणे बंनेज सामसामा युद्ध करीशुं." ते सांभळी राजाए मनमां चिंतव्यु के, "आ कुमारे मने युद्ध करवा बोलाव्यो, ते छतां जो हुं युद्ध नहीं करूं, तो मारुं नरसिंह ए नाम मिथ्या थशे. तेथी मारे युद्ध करवू जोईए." आq चिंतवी नष्ट बुद्धि ते राजाए कुमारनी साथे लांबो वखत अघटित संग्राम कर्यो अने साथे गुणग्राम पण अघटित कर्यो. पछी 1. नरसिंह-पुरुषोमा सिंहरूप हतो. छतां पण कांई काम न सूझे. तेवो मृढ बनी गयो. 2. विष्णुना नरसिंह अवतारे स्तंभ भेदीने हिरण्यकशिपु नामना दैत्यने मार्यो हतो. तेवी रीते
आ नरसिंह राजा स्तंभ-अटकायतने भेदी शक्यो नहीं.
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पूर्णकळशनी कथा . कुमारे ते राजाने अति खेद पमाडी एक बालकनी जेम बांधी लीधो. ते काले पेला यक्षे सारा जल साथे पुष्पोनी वृष्टि करी. पछी बधा सुभटोने छूटा कर्या एटले तेओ कुमार पूर्णकलशने शरणे आव्या अने राजा नरसिंह पण तेने शरण थई गयो. राजाने तेणे बंधनमांथी छोड्यो एटले दिवसे घुवडपक्षीनी जेम ते नीचुं मुख करी उभो रह्यो. ते जोई कुमार पूर्णकलश बोल्यो, ।।१०००।। "नरसिंह, तारो रणमां पराजय थयो, तेने माटे तुं खेद करीश नहीं. सिंहिकानो पुत्र फक्त मस्तकरूपे छे, छतां ते शुं लोकोथी पूजातो नथी? तुं राज्य कर, प्रजानु रक्षण कर अने आदरथी तारा स्थानमां चाल्यो जा." आ प्रमाणे कही सत्कार पामेलो राजा नरसिंह बोल्यो, "मने रणनो भंग थयो तेने माटे शरम लागती नथी परंतु आवी तमारी आकाशगामिनी अने स्तंभन करवानी शक्ति जोतां छतां पण हुं समज्यो नहि, तेने माटे मने शरम आवे छे. हवे तमे सर्व विषयोना स्थानरूप, सद्गुणी अने अंगनी साथे मळेली मारी राज्यलक्ष्मीने अने पुत्रीने सत्वर अंगीकार करो. ते सांभळी कुमार बोल्यो, हे राजन्! हुं तमारी पुत्रीने ग्रहण करीश. कारण के लोकोमां कहेवाय छे के "पुत्री छे ते तो पारका घरने शोभावनारी छे." परंतु स्व भुजाथी मेळवेली तमारी पोतानी राज्यलक्ष्मी तो तमे ज भोगवो." राजा बोल्यो "कुमार, पृथ्वी तो खड्गनी ज छे तेथी हवे आ राज्यलक्ष्मी तो तमारी ज छे." आ प्रमाणे कही राजा नरसिंह ते कुमारने पोतानी पुत्री तथा उत्तम जयलक्ष्मी आपी तत्काळ सिंहनी जेम पोते वनमां चाल्यो गयो. पछी कुमार पूर्णकलशे रागश्री प्रियानी साथे राज्य करवा मांड्युं अने प्रजाने सुख तथा देशमां चालती अव्यवस्थानी नठारी स्थितिनो नाश करी दीधो. बे प्रकारे विषयना भोगने भोगवता कुमार पूर्णकलशने रागश्री राणीना उदरथी देवसिंह नामे एक सद्बुद्धिवाळो पुत्र उत्पन्न थयो.
____ आ अरसामां कुमारना पिताए मोकलेला केटलाएक पुरुषो प्रतिष्ठान नगरमाथी आवी आ प्रमाणे विज्ञप्ति करवा लाग्या-"सेवको तरफ वात्सल्य धरनारा आप साहेब कह्या वगर स्थानमाथी चाल्या गया, तेथी महाराजा श्रीमलयकेतु घणां दुःखी थई गया तेमां देवी विलासवतीना दुःखनी तो शी वात करवी? कारण के माता, पिताना करतां स्नेहमां हजार गणी अधिक छे. हालमां महाराजा 1. राज्यलक्ष्मी पक्षे सर्व विषयो एटले सर्व देशोथी युक्त. सारो गुण करनारी अने राज्यना सात
अंगोथी बनेली, पुत्रीपक्षेनो अर्थ तो स्फुट ज छे. 2. बे प्रकारे विषयना भोगने एटले विषय-देश अने विषय-विलासना बंने प्रकारना भोगने.
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- पूर्णकळशनी दीक्षा अने तपश्चर्या पोते रोगी थई गया छे अने तमे ते राज्यना धारक छो, तेथी तमने तेडी लाववाने माटे अमोने मोकल्या छे." आ सांभळी कुमार पूर्णकलश खेदातुर थई गयो अने तरत ज तेणे पेला यक्ष, स्मरण कयु. यक्षे तत्काळ आवी कुमारने नगरमां पहोंचाडी दीधो. त्यां कुमारनो मोटो उत्सव पूर्वक नगरमा प्रवेश कराव्यो. पछी पिता मलयकेतुए शुभ मुहूर्तमां तेने पोताना राज्य उपर बेसाड्या. ते पछी राजा मलयकेतु पोते पंच नमस्कार मंत्रना स्मरणथी पाप रहित अने निःस्पृह थई सुखे देवलोकमां गयो.
आ प्रमाणे पूर्णकलश अनुक्रमे चार राज्योनो स्वामी थयो अने साधक मित्रसेन सेनापतिने मोकली बीजा घणां राज्यो पण तेणे साध्य कराव्या. पूर्वे जे विवाहित स्त्रीओ पुत्र सहित रहेली हती, तेओने पोतपोताना स्थानमांथी बोलावी लीधी. पछी बीजी पण घणी गुणवती पत्नीओने ते परण्यो अनुक्रमे ते बीजी राणीओने पण नीतिमान भुवनमां अजेय अने पोताना बळथी राजाओने ताबे करनारा पुत्रो थया. महाराजा पूर्णकलशे पृथ्वी उपर सर्व स्थळे श्री जिनधर्मने स्थापित कर्यो, न्याय प्रवर्त्ताव्यो अने दयादान विशेषपणे प्रवर्ताव्यु. धर्म, अर्थ अने कामनी आराधना करतां अने प्रजानुं पालन करतां पोते घणां लाखो वर्षो सुखमां प्रसार कां.
एक वखते राजा पूर्णकलश वनक्रीडा करी पाछो फरतो हतो. तेवामां मासक्षमणने पारणे भिक्षा फरता एक मुनीश्वर तेना जोवामां आव्या. ते मुनिना सर्व अंगो तपथी शोषाई गयां हता. तेमना वस्त्रो जीर्ण हतां, ते ईर्यासमिति वडे युक्त हता अने दृष्टिने आनंद उपजावता हता. तेमने जोतां ज राजा पूर्णकलशे अश्व उपरथी जलदी नीचे उतरी ते मुनिने भक्तिथी प्रणाम कां. मुनिए स्वभाव प्रमाणे तेने धर्मलाभनी आशिष आपी. ते मुनिनुं स्वरूप सारी रीते अने विशेषपणे नीरखी राजा पूर्णकलश पोताना हृदयमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो, "प्रशंसा आपनारुं, पुण्यने उत्पन्न करनारुं अने सज्जनोने घणो आनंद आपनाएं आq रूप में पूर्वे क्यांय पण जोयुं छे." आम विचारता एवा तेणे जातिस्मरणथी जाण्यु के, "आवं मुनिरूप तो पूर्वभवे मारुं ज हतुं." ते पछी मने स्वर्गनुं सुख थयुं हतुं अने पछी हाल आ राज्य मन्युं छे, तेथी जेनुं पुष्टफळ प्रत्यक्ष जोवामां आव्युं छे, एवं तप हवे हुं करीश." आq चिंतवी ते महाराजाए मुनिने कां के, "भगवन्, तमारा दयाळु गुरु क्यां छे?" मुनि बोल्या, "प्रभास नामना ते मारा आचार्य उत्तम शिष्योनी साथे सुमसार नामना उद्यानमां समाधिपूर्वक रहेला छे." ते
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पूर्णकळशनी दीक्षा अने तपश्चर्या सांभळी राजा पूर्णकलशे सर्वनी संमति लई पोताना पूर्णकुंभ नामना पुत्रने घणा सुखवाळा राज्य उपर बेसाड्यो. पछी सर्व जिनालयोमां अट्ठाई उत्सव कराव्यो, संघ, वात्सल्य अने शासननी प्रभावना करी अने चारे तरफ अमारी पटहनी उद्घोषणा करावी. दीनजनोने दान अने स्वजनोना समूहने तेणे मान आप्यु. पछी मोटी समृद्धि साथे श्रीप्रभास आचार्यनी पासे जई तेणे दीक्षा अने मोक्षना सुखने आपनारी शिक्षा हर्षथी ग्रहण करी. ।।१०३४।। प्रथम तप फल जाणी अने ते तपथी कर्मनो क्षय मानी ते राजर्षि तेनी अंदर विशेषपणे उद्युक्त थया. तेणे निरंतर सेवेला त्रण त्रण उपवासोथी ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनुं आराधन कयु, अनुक्रमे एकाशन, निर्विकृति (नीवी) आंबेल अने अनशन करी सोळ दिवसे कषायजय नामनो तेणे तप कर्यो. पुरिमड्ड, एकाशन, प्रत्येक इंद्रिये नीवि, आंबेल तथा उपवास वडे तेमणे ईंद्रियजय नामनो तप कर्यो. मन, वचन अने कायाना त्रण योग प्रमाणे नीवि, आंबेल तथा उपवासवडे योगसिद्धि करवानी इच्छाथी तेमणे योगसिद्धि नामनो तप आचर्यो. उपवास, एकाशन, एकसिकत्थक, एक स्थान, एकदत्ति नीवी, आंबल अने अष्टकवल एम एक-एक कर्म प्रत्ये करी ते कृतार्थ मुनिए अष्टकर्मसूदन नामनो तप कर्यो. शुक्लपक्षमा आठ उपवास अने आंबेलना आठ पारणा-एम सोळ दिवसे तेमणे सर्वांगसुंदर नामनो तप कर्यो. एवी ज रीते कृष्णपक्षमां ग्लान मुनिनी शुश्रूषा करवामां तत्पर एवा ते मुनिए कर्मरूपी रोगने . छेदवाने नीरुक् नामनो तप कर्यो. एकांतरा बत्रीस आंबेलवडे तेमणे हर्ष अने उत्साहथी पंचमभूषण नामनो तप को. एक पडवे बे बीज अने त्रण त्रीज अने बंने पखवाडीयानी बीजी पंदर पूर्णिमा सुधीनी तिथिओना उपवासो वडे तेमणे सुखसंपत्ति नामनो तप कर्यो. ए तपने लोको वृद्धवृक्षोपवासना नामथी कहे छे. केवली भगवंतोने नव पद्म होय छे. ते प्रत्येक पद्मे आठ उपवास करवा वडे तेमणे पद्मोत्तर नामनो तप को. जेमनु भविष्यमां भद्र-कल्याण थवानुं छे एवा ते संयमीए पंचोतेर उपवास अने पचवीस पारणा वडे भद्र नामनो तप कर्यो. एकसो छन्नु उपवास अने ओगणपचास पारणाथी तेमणे महाभद्र नामनो तप कर्यो. एकसो पंचोतेर उपवास अने पचवीस पारणाथी तेमणे भद्रोत्तर नामनो तप कर्यो. त्रणसोने बाणुं उपवास अने ओगणपचास पारणाथी तेमणे सर्वतोभद्र नामनो तप को. एकांतरा साडत्रीस उपवास अने आदि अने अंतमां अट्ठम करी तेमणे धर्मचक्रवाळ नामनो तप कर्यो. तेमणे मोक्षना सुखनी इच्छाथी छन्नु उपवास अने चोसठ पारणा वडे वर्गतप कर्यो. आदि तथा अंते अष्टम करी एकांतरे साठ श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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पूर्णकळशनुं स्वर्गगमन
उपवास अने चोसठ पारणा वडे वर्गतप कर्यो. आदि तथा अंते अष्टम करी एकांतरे साठ उपवास करवाथी तेमणे कर्मचतुर्थ नामनो तप कर्यो. चारसोने सात उपवास अने तोंतेर पारणाथी तेमणे गुणरत्नसंवत्सर नामनो तप कर्यो. एकसोपचास दिवसना उपवास अने तेंत्रीस पारणावडे तेमणे लघुसिंहनीक्रीडीत नामे तप कर्यो. चारसोसत्ताणुं उपवास अने एकसठ पारणावडे तेमणे महासिंहनिक्रीडित नामे तप कर्यो. ते सिवाय आंबेल, वर्द्धमान, एकावळी, कनकावली, न्यूनोदर (उणोदरी) अने प्रतर वगेरे तप तेमणे आचर्या हता. ते पछी आयुष्यनो क्षय थतां ते मुनिए सर्वार्थ सिद्धिविमानमां जई त्यां तेंत्रीस सागरोपम सुधी महासुख संपादन कयुं. ते पछी महाविदेह क्षेत्रनी अंदर निर्मल अने अनुपम एवा कुलमां जन्म लई, दीक्षा ग्रहण करी अने उत्तम तपथी कर्मनो क्षय करी ते शुद्ध हृदयवाळा मुनि अनंत चतुष्टयने सिद्ध करी, सिद्धना एकत्रीस गुणो युक्त थई अने कर्मोथी मुक्त थई सिद्धिने पामशे. हे राजा, एवी रीते यतना करवामां तत्पर एवा जीवो अनेक प्रकारना तप वडे सर्वार्थसिद्धि विमानने प्राप्त करी सिद्धिने पामे छे.
विद्वान् पुरुषो जेओ अत्यंत निर्विषयी छे छतां पण तेमने विश्वना प्रभु कहे छे, जेओ निर्गुणताने प्राप्त थयेल छे, छतां पण तेमने सगुण कहे छे, जेओ पुण्य छे छतां पण अपुण्य कहे छे अने जेओ सदा तपथी युक्त छे छतां पण तेमने कोई 2 तपस्वी कहेतुं नथी, ए आश्चर्यनी वात छे, तेवा ज्ञानादि रत्नोनी खाणरूप श्री विमलनाथ प्रभुने हुं प्रणाम करूं छं. । । १०६३।।
।। इति श्री तपोगणनायक श्रीरत्नसिंह सूरिना शिष्य भट्टारक श्री ज्ञानसागरसूरिना रचेला
श्री विमलनाथ चरित्ररूप महाकाव्यनी शील तथा तपना अधिकारना वर्णन करवा रूप आ बीजो सर्ग समाप्त थयो ||
इति द्वितीय सर्ग
1. अपुण्य - प्रारब्ध रहित 2 तपस्वी गरीब-निर्माल्य.
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भावतत्त्व उपर चंद्रोदरनी कथा
तृतीय सर्ग
( भावाधिकार )
ब्रह्मगुप्तसूरि कहे छे हे राजा पद्मसेन! में तमोने श्री धर्मरूपी कल्पवृक्षनी त्रीजी तप नामनी शाखा कही. हवे तेनी चोथी भाव नामनी विशाळ शाखारूप शाखा कहुं, ते सांभळो-केवळ दान, शील अने तपथी मनुष्योने केवळ ज्ञान थतुं नथी, परंतु भाव नामनी एकली शाखाथी ज अत्यंत महान् शिवभक्ति-मोक्ष मेळववानी शक्ति प्राप्त थाय छे. जेम नीरोगी माणसने रुची प्रमाणे घणुं अन्न मळवाथी पुष्टि थाय छे, तेवी रीते धर्मनी अंदर पण 'मात्राहीन एवा पुरुषने ते भावनी शाखाथी धर्मनी पुष्टि थाय छे. 2 जन्माक्षरमां ग्रहो बीजा स्थानोमां रह्या होय, तो पण ते ते भावनी राशिनुं फल आपे छे, परंतु जो तेओ वक्र के अतिचारने पाम्या होय तो ते फळ आपता नथी. हे जनो! जेम रसोई लवण नाखवाथी रसवाळी थाय छे, जेम भोजन घी वडे सबळ शक्ति- ताकात आपनारुं थाय छे, जेम वस्त्रमां पटवास (पडोपांदडी) नाखवाथी ज तेनो सारो रंग देखाय छे अने जेम चूर्णने भावना आपवाथी ते रसिकोने प्रिय थई पडे छे, तेम सर्व गुणवाळो धर्म भावनाथी संपूर्ण बने छे, तेथी हे भव्यो ! तमो सर्वदा भावयुक्त एवा धर्मनुं आचरण करो. दान वगेरे धर्मनी साथे जो भावना होय, तो ते 'भावतुं हतुं ने वैद्ये कह्युं' तेना जेवुं थाय छे अने ते सोनुं अने सुगंध मळ्याना जेवुं छे, ज्ञाननुं दान करवुं, ते अनेक गुणोना स्थानरूप छे, पण जो ते सारी रीते विचार्या वगर बीजाने आपवामां आवे तो ते शुभ गणातुं नथी, जे दयादान करवुं ते सुखने आपनारुं छे, परंतु ते कंलियुगमां घणुं दुष्कर छे, कारण के कलियुगमां बधा प्राणीओ आरंभमां तत्पर होय छे. वळी द्रव्यनो व्यय करी धर्मोपष्टंभ दान करवानुं कह्युं छे, परंतु तेमां पण काळ तथा पात्र वगेरेनो योग थवो दुर्लभ छे. धर्मनी बीजी शाखा जे शील छे, ते मुक्तिरूपी लक्ष्मीनी लीलावाळु छे, परंतु तेनुं पालन करवुं घणुं मुश्केल छे, कारण के ते शील ब्रह्मचर्यनी नव गुप्तिओ - वाड 1. मात्राहीननो अर्थ नीरोगी पक्षे औषधीनी मात्राथी रहित एम थाय छे अने धर्म पक्षे परिणाम रहित एम थाय छे. 2. कहेवानो आशय एवो छे के, जन्मग्रहो भावमां होय तो ज फल आपे छे तेम भाव होय तो ज धर्मनुं फळ मळे छे.
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भावतत्त्व उपर चंद्रोदरनी कथा कहेली छे. तेना पालनथी थाय छे, ते घणुं ज कठीन छे.धर्मनी त्रीजी शाखा जे तप छे, ते आ संसारना संतापरूप तडकामां छायादार वृक्षना जेतुं छे. परंतु तेनी अंदर जिह्वा-ईद्रियनो जय करवो सुगम मानेलो नथी. तेथी हे भव्यो, तमे सुखथी सेवी शकाय एवी ते धर्मनी चोथी शाखारूप भावनाने धारण करो. जेथी करीने चंद्रोदरनी जेम थोडा वखतमा ज सिद्धि प्राप्त थाय. ....
चंद्रोदरनी कथा ___लंकाना जेवी हस्तीपुरी नामे एक नगरी छे. जेम लंका सुवर्णमय हती, तेम ते सुवर्ण-सारा चारे वर्णोना लोकोथी व्याप्त हती जेम लंका यक्ष, राक्षसोथी व्याप्त हती, तेम ते नगरी पुण्यवंतजनोथी भरपुर हती जेम लंका मंदोदरीरावणनी स्त्रीना वासस्थानवाळी हती, तेम ते मंदोदरी-कृश उदरवाळी स्त्रीओना वासथी युक्त हती. ते नगरीमा विश्वमां विख्यात रामना जेवो राम नामे राजा हतो. राम जेम क्षमा प्रजा-पृथ्वीनी प्रजाना पति हता ते क्षमा अने प्रजानो स्वामी हतो. राम जेम चित्तानंदी-चित् चैतन्यभावने अथवा चित्तने आनंद आपनारा हता, तेम ते चित्तने आनंद आपनारो हतो. राम जेम कुशळवर्द्धित-कुश तथा लव नामना पुत्रोथी समृद्धिवान् थयेला हता, तेम ते कुशळतावडे वृद्धि पामेलो हतो. ते राजा उत्कृष्ट एवा संग्रामनी अंदर 'शत्रुओमां अजीवने जीववाळा अने सजीवने जीवरहित करतो ते आश्चर्यनी वार्ता हती. ते राजाने जयनी सेनानी जेम जयावळी नामे राणी हती. जेम जयनी सेना अप्सराओमां क्रीडा करनारी होय छे, तेम ते राणी अप्सर जलना सरोवरमां क्रीडा करनारी हती. जेम जयनी सेना घनवाहन-घणां वाहनोथी युक्त होय छे, तेम ते राणी पण घणां अश्वादि वाहनोथी युक्त हती अने जेम जयसेना जयवती होय छे, तेम ते पण सदा जय पामनारी हती.
एक वखते ते राणी जयावळी कोई कामनाने माटे थोडो परिवार लई पोताना पति वगर कामदेवनी पूजा करवा माटे वनमां गई त्यां पुष्पोथी कामदेवने पूजी पोताना कामस्वरूपी स्वामीनां दर्शन करवा उत्सुक हृदये वेगथी पाछी वळी. तेवामां मार्गे घणां बच्चांओ साथे लई आगळ फरती एक कुकडी तेणीने दृष्टिए पडी. तेणीने जोतां ज ते मानरहित अने सरलतावाळी राणी जयावळी पोताना 1. ते राजाना ताप-प्रतापथी जेमना होश-प्राण उड़ी गया होय अने दीनपणे तेना शरणे आवे
छे-तेनी आण माने छे, तेने ते अभय आपी उद्धरे छे अने जे अनेरा अभिमानयुक्त बनी तेनार्थी विमुखता-विपक्षता-शत्रुता धारे छे तेमनो पराभव करी तेमने यशमान-कीर्तिरूप प्राणरहित कर छे अथवा तो तेमने यमना अतिथि बनावे छे अर्थात् अभिमानी शत्रुओर्नु अभिमान गाळी नांखे छे.
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भावतत्त्व उपर चंद्रोदरनी कथा हृदयमां चिंतववा लागी के, "अहो! आ वननी अज्ञान एवी कुकडीने पण धन्य छे के जेणी आ संसाररूपी वृक्षनी सफळता करनारा पोताना जीवतां बच्चांओने सदा स्नेह भरेली दृष्टिथी हर्ष सहित जुवे छे. वळी जेणी पोताना बे चरणोवडे पृथ्वीने आदरथी उखेडी पाछळ अने पडखे रहेला ते बच्चाओने कण वगेरे खवडावे छे. अने हुं सौभाग्यनी श्रेणिथी युक्त छतां केवी मंदभाग्यवाळी के जे नेत्रोने आनंद आपनारा पुत्रने जोती नथी. हुं जुईना वृक्षनी जेम कुलीन छतां पण फळ (संतान) रहित छु अने ते जुई तो पुष्पवती थई राजाने भोगदायक छ अने हुं 'पुष्पवती छतां भोगदायक (पुत्रवती) थई शकती नथी. जेम राजहंसे सेवन करेली अने कादवमाथी थयेली पद्मिनी राजा-चंद्रनो प्रसाद प्राप्त करतां पण सुखथी मुखविकास करती नथी, तेम हुं राजारूपी हंसे सेवेली छु अने मारी उपर राजानो प्रसाद छे, छतां पण सुखथी मुखविकास करती नथी. पृथ्वी उपर श्याम एवी पण रात्रि राजा-चंद्रनो प्रसाद मेळवी निर्मळ थई जाय छे, परंतु ज्यारे तेज रात्रिने अंधकार प्राप्त थाय छे, त्यारे ते कोईवार कृष्णता-काळाशवाळी बनी जाय छे." आ प्रमाणे विचारी ते राणी जयावळी निस्तेज बनीने एक मोटा आम्रवृक्षनी छायाने प्राप्त करी पापने लई निराश थईने बेठी. श्वासोश्वासने रूंधती अने पोताना आत्माना स्वरूपने विपरीतपणे चिंतवती ते वियोगवाळी थई वनवासमां रही.
__ अहिं मनोहर अने रागी राम राजा तेणीना वियोगथी आतुर थई सभा . विसर्जन करी तत्काळ अंतःपुरमां आव्यो. त्यां जेम जीव वगरनुं शरीर होय अने स्वजन वगरनुं नगर होय तेवू राणी जयावळी वगरनुं अंतःपुर ते मानवा लाग्यो. अंतःपुरना रक्षकना जार लोकोए राजाने राणीनो वृत्तांत जणाव्यो, एटले पोतानी प्रियाने मेळववाने माटे तरत सकाम थई ते कामदेवना मंदिर प्रत्ये चाल्यो. त्यां रस्तामां आंबाना वृक्ष नीचे बेठेली पोतानी प्रियाने दीन थयेली जोई ते पण तेणीना जेवो ज अज्ञ हृदयवाळो थई गयो. राजा पासे आवेलो पण ते प्राज्ञ स्त्रीना जाणवामां आव्यो नहीं. कारण के ते वखते तेणी चिंतवन करवामां आसक्त थई रही हती. राजा क्षणवारे स्थिर थईने पोतानी प्रिया प्रत्ये बोल्यो, "भद्रे! आजे तने आq अभद्र शुं थयुं छे? के जेथी तुं जुदी तरेहनी थई गई छे." आ सांभळी राणी भानमां आवी अने जेवामां उंचे जुए छे तेवामां तेणीए ते दयाळु राजाने जोयो, तत्काल तेणीए आ प्रमाणे विचायु, "अरे मारा स्वामी प्रत्यक्ष आव्या, तो पण में 1. पुष्पवती राणीपक्षे रजवती अने जुईपक्षे पुष्प-फूलवाळी. 2. शीतळ किरणोवडे अमृत सिंचन.
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भावतत्त्व उपर चंद्रोदरनी कथा तेमने योग्य (उचित सत्कार-विनयादि) कांई कयुं नहीं. आ तो एक तरफ माळ उपरथी पडq थयुं अने बीजी तरफथी मस्तक उपर लाकडीनो प्रहार पड्यो, तेना जेवू थयु." आq विचार्यु पण शरमने लीधे तेणीए ते हित कार्य करवामां तत्पर एवा राजाने जाण्या छतां तेनो आदर कर्यो नहिं. राजाए विशेष कोमळतावाळी वाणीथी तेने बोलावी, 'हे कुशले, तारा शरीरमां शुं अकुशळ छे? तारा पियरमां कांई अमंगळ तो बन्यं नथी? हे भद्रे, सर्व रीते तने कल्याण छे? तेम में पण तारो अपराध को नथी, हे मनोहरे, विपत्तिने करनारी कोई सपत्नी पण तारे नथी ते छतां तारामां जे मोटुं दुःख प्रत्यक्ष देखाय छे, तेनुं कारण हुं जोई शकतो नथी. हे मानिनी, तेथी तुं जे होय ते कही दे." राजानां आवां वचन सांभळी सखीओथी चारे तरफ वींटायेली ते राणी राजानो संताप शांत करवा माटे धारागृह (जळवृष्टि) करती होय तेम अत्यंत गाढ रुदन करवा लागी. पछी स्वच्छ हृदयवाळा राजाए पोताना बे हाथे करी तेणीनां बंने नेत्रो लुछी तेणीना दुःखे दुःखी थई फरीवार पूछ्युं, एटले धैर्यने धारण करी अने पोतानो आकार गोपवी तेणी बोली, "स्वामी, हुं पुत्र रहित छु. ते ज मने मोटुं दुःख छे."।।४५।। राजा बोल्यो, "हे देवी, ए महान् उग्र दुःख मारा हृदयमां पण शल्यनी जेम सदा खटके छे, परंतु आ पृथ्वीमां कया जीवनुं एवं भाग्य होय के जे बंने रीते 'सदय अने प्रिय एवो तारो पुत्र थई अवतरे? हे भद्रे, ते छतां तुं खेद करीश नहि, विविध एवा दुस्तप तपवडे तारे पुत्र थई शकशे. तप करवाथी प्राणीओना निकाचित एवा अंतराय कर्मो पण क्षय पामी जाय छे. तो पछी बीजां कर्मो क्षय थाय तेमां शुं कहे?" आ वखते ते आम्रवृक्षना शिखर उपर बेठेलो एक शुकपक्षी आ प्रमाणे बोल्यो, "हे नृपप्रिये, धीरज राख, तारे पुत्रनी उत्पत्ति थशे." सारं अने श्रवणने सुखकारी ते शुकपक्षीनुं आ वचन सांभळी तेओ बंनेना हृदय हर्षित थई गयां अने तेओ उत्सुक बनी गयां. तेओ बंने आकाश तरफ शुकपक्षीने जोता हता, तेवामां आकाशनी अंदर विचरता, क्षमा वगेरे दश प्रकारना धर्मने धारण करनारा, भव्यजनोने तारनारा अने विस्मरण थयेला श्रवणने स्मरण करावनारा विनयंधर नामना एक चारण श्रमणमुनि तरत तेमना जोवामां आव्या. ते क्षमाधारी मुनि क्षणमां पृथ्वी उपर स्थित थया, एटले राजाए तेमने त्रण प्रदक्षिणा करी वंदना करी. ते मुनिए दुर्गतिने भेदनारी धर्मलाभनी आशिष आपी, पछी राजा अंजलि जोडी आ प्रमाणे बोल्यो, "भगवान्, आ जे तमारा समागमथी आ मारी पृथ्वी 1. बंने रीते सदय एटले सत्-अय-सारा परिणामवाळो अने सदय-दया सहित. 146
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा उत्सववाळी थई, मारुं देशमंडळ पृथ्वीना कुंडलरूप थयु, मारी पुरी धर्मरूपी राजानी सुशील अंतःपुरीना जेवी थई, मारो जन्म भाग्यना जन्मरूप थयो, आ वर्ष हर्षदायक थयु, आ मास रमणीय रमा-लक्ष्मीना वासरूप थयो, आजथी मारा दुःखनो अद्भुत नाश थयो, आ पखवाडीयुं शत्रुने नाश करनार थयु. आ दिवस धर्मथी प्रकाशमान थयो, आ पहोर काम-इच्छा पूरवाथी सुंदर बन्यो अने आ क्षण पण क्षण-उत्सव आपनार थयो, कारण के साधु पुरुषोनुं दर्शन मनुष्योने भाग्य योगे ज थाय छे. हे प्रभु, मित्र-सूर्यनो उदय थाय तो पण अंध मनुष्यने तेनां कर्मने लीधे ईष्ट वस्तुनुं दर्शन थतुं ज नथी. फळ तथा पत्रोने आपनार वसंत ऋतु आवे तो पण केरडाना वृक्षने पुष्पो आव्या छतां पण पत्रो आवतां नथी. सर्व प्रकारना धान्योने उपकार करनार वरसाद आवतां पण जवासाना झाड क्षमाने-भजनारा थया, छतां पण दुर्भाग्ये सुकाई जाय छे. हे दयानिधि, तेवी रीते तमारुं आगमन थतां पण मारुं दुःख न जाय, तेमां मारा कर्मनो ज दोष छे, बीजा कोईनो दोष नथी. तथापि आळसु लोकोनी वच्चे गंगा नदी आवी मळी, तो ते सर्वना पापने हणनारी थती नथी, पण ते सर्वना संतापने तो हणनारी थाय छे." आ वचनो सांभळी मुनि बोल्या, "हे प्राज्ञ, चिरकाळ ध्यानरसवाळा तारा हृदयमा जे संताप थाय छे, तेने माटे मने कौतुक थाय छे. कळाओना कलापवडे युक्त अने 'गोस्वामी एवा राजारूप तमारामां आवी उंचा प्रकारनी अने वामपणाने अनुसरनारी मोटी मलिनता होय ए आश्चर्यनी वात छे. शुद्धपक्षना उदयना अध्यक्षरूप एवा हे राजा! तमारा गोभरवडे सर्व प्राणीओनो संताप नाश पामे छे, तो आ शुं बन्यु? ते तमारा हृदयनी वात जणावो." राजा बोल्यो, "भगवन्, मने दुःख थवाचं कारण मारी अपुत्रता छे, कारण के लौकिक आगममां कर्तुं छे के, "जे अपुत्र होय तेमनी सारी गति थती नथी." महाव्रतधारीओमां मुगटरूप एवा मुनि बोल्या, "हे राजन्, खेदातुर थईश नहीं. तने लागेलो बधो मेल चाल्यो जशे, ते विषे अंतःकरणने कोमळ करे तेवू एक दृष्टांत सांभळ
रागी पुरुषोने आनंद आपनाएं दुरपार नामे एक नगर छे. कवीश्वरो जे भूमिगृह (भोयरा) ने अधोलोक पाताळ कहे छे, शिरोगृह-अगाशीने उर्ध्वलोक कहे छे अने मध्य भूमी-वचला माळने मध्यलोक कहे छे. सर्व भुवनने वश करनार अने भवनमां उदय पामेलो उग्रशासन नामे विख्यात राजा ते नगरनुं 1. गोस्वामी-पृथ्वीना स्वामी पक्षे जलना स्वामी. 2. गोभर-वाणीनो समूह अने जळनो समूह. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
पालन करतो हतो. जाणे ते संतुष्ट थतो होय तेम तेणे सुमनसने उच्चपद अर्पण कर्यं हतुं अने जाणे रूष्ट थतो होय तेम द्विजिह्वोने अधःस्थान अर्पण कयुं हतुं. ते राजा उग्रसेनने विश्वमां विख्यात एवो शुद्धबुद्धि नामे एक मंत्री हतो. ते तेना नगरना अपार महान् व्यापारोना भारथी प्रकाशमान हतो. राजानी आज्ञाथी नगरमां सर्वं तरफ फरता एवा ते मंत्रीने अक्य करनार पुरुषाश्रय नामे एक मित्र मळी आव्यो. ते निर्मळ एवा संवरथी ते शुद्धबुद्धिना मोटा संतापने वारतो, परंतु पोताना संतापने कदि पण वारतो नहीं. ते शुद्ध योगवडे तेनी दुःखदायक जडताने हर्षथी हरी लेतो. परंतु जेनुं मन मोहथी मोहित थयेलुं छे, एवो ते पोतानी जडताने हरतो नहीं. ते 2 सारागुणवाळा, सत्सूत्रोवाळा अने स्वस्थ एवा उत्तम नानांबर - विविध वस्त्र धरनारा धर्मगुरुओनी साथे तेनो नित्ये संगम करावतो अने पोते श्वेतांबर - मुनिओनी साथे पण संगम करतो नहीं. ते सदा गुरुथी उत्पन्न थयेला सारा वासथी तेने आदरपूर्वक सुवासित करतो, परंतु गंधरहित अने प्रकृतिमां आसक्त एवा पोताना आत्माने सुवासित करतो नहिं. ते 4 विशुद्ध अने अर्थनी सिद्धिने आपनारा सुवर्णोथी तेने विभूषित करतो, परंतु पोते ते आभूषणमां विचक्षण छतां पोताना रूपने विरूप रूपरहित राखतो हतो. ते तेने अनित्य छतां पण पोताना चित्तमां मानपूर्वक नित्यरूपे चिंतवतो, परंतु भावयतिरूपे पोताना आत्माने तेवो भावतो नहिं. ते परम हर्षथी 'सुमनसवडे तेनी पूजा करतो, परंतु ते कामयुक्त छतां एक पण सुमनसथी पोताने पूजतो नहिं. ते सारा मुखने प्रिय लागे तेवा सरस, 'सन्मोदक अने बहु धान्यवडे तेने आप्तजननी पंक्तिमां योजतो, 1. ज्यारे ते संतुष्ट थतो त्यारे सुमनस- देवताने पक्षे विद्वानने उच्चपद आपतो अने ज्यारे ते रूष्ट थतो त्यारे द्विजिह्न - सर्पोने पक्षे लुच्चा पुरुषोने अधः स्थान- पाताळ अने पक्षे नीच स्थान आपतो हतो (निग्रह करतो हतो). 2. धर्मगुरु पक्षे सारा गुणवाळा, सारा सूत्रोने जाणारा अने विविध वस्त्र धरनारा एटले श्वेतांबरी, रक्तांबरी, पीतांबरी वगेरे धर्मगुरुओनी साथे तेनो समागम करावतो अने पोते श्वेतांबरी गुरुओनो समागम करतो नहीं बीजे पक्षे ते सारा गुण-दोरावाळा अने सारा सूत्र - सूतरवाळा विविध - अंबर वस्त्रोनो योग करावतो अने पोते श्वेतवस्त्रोनो पण योग करतो नहीं. 3. धर्मगुरु पक्षे सदा - हंमेशा गुरुए नाखेला सुवास - वासक्षेपथी तेने सुवासित करतो अने पोते गंधरहित अने प्रकृति- मायाना पदार्थोमां आसक्त रही सुवासित थतो नहीं, पक्षे सदा हंमेशां अगुरु-चंदनथी उत्पन्न थयेला सारा वास - सुगंधथी तेने सुवासित करतो अने पोते गंधरहित एटले गर्वरहित थई सुवासित तो नहीं. 4. सुवर्णपक्षे विशुद्ध चोखा, अर्थ-द्रव्यनी सिद्धिने आपनारा अर्थात् मूल्य उपजे तेवा अने सुवर्ण एटले सारा वर्णो पक्षे विशुद्ध-व्याकरण शुद्ध अर्थनी सिद्धि एटले सारा अर्थवाळा शब्दोना अक्षरो तेने समजावतो. 5. सुमनस-पुष्पो अने विद्वानो. 6. सन्मोदक• सारा लाइ पक्षे सत्पुरुषोने आनंद आपनारा. 7. बहु धान्य - बहुधा - बहु प्रकारे - अन्य - बीजा बहु-घणां धान्यो.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा परंतु पोते रुचिवाळो छतां तेनी अंदर पोते योजातो नहिं. ते 'लब्धवर्ण एवा तेना शरीरमां अंगरागवडे उंची जातना वर्णोनी योजना करतो, परंतु पोताना आत्माने वर्ण वगरना अने सारावर्ण-अक्षरना ज्ञानवाळा कविओथी रहित राखी तेमां तेवी योजना करतो नहि. ते सदापत्त्र अने घनसार एवा चित्रो तेनी शय्यामां हर्षथी धारण करावतो, परंतु पोतानी शय्यामां कदि पण धारण करतो नहिं. ते सुखदायक, शुद्ध, काष्ट सहित, पलंगवाळा अने लाखो दीवावाळा सारा मंदिरमां तेने राखतो, परंतु पोते रहेतो नहीं. ते कांताना रागने लईने तेने तेवो योग मेळवी आपतो, परंतु पोते पोताने माटे तेवो योग मेळवतो नहि. तेनामां तो तेनो अभाव ज जोवामां आवतो हतो. ते अंधकारने हरे तेवा मोटा मूल्यवाळा रत्नोना समूहथी तेने मिथ्या अलंकृत करतो पण गुरुए आपेला ज्ञानदर्शन अने चारित्ररूपी त्रण रत्नोथी तेने अलंकृत करतो नहीं, तेम पोताने पण तेवी रीते अलंकृत करतो नहीं. ते 'गोरसवडे तेना अंगो तथा उपांगोनं सतत पोषण करतो, पण ते वडे पोताना अंगो तथा उपांगो पोषण करतो नहि. तेथी ते लोकोमां दुर्बळ थतो हतो. ते लज्जाथी दूर रहेला अने विष्टाथी पूर्ण थयेला एवा तेने सारापणाथी जोतो, परंतु पोताना मलिन आत्माने तेवी दृष्टिथी जोतो नहिं. ते 'सगुण एवा सारा मुक्ताफळोथी तेने आनंदनो योग करी आपतो, परंतु प्रमाद अने प्रमदाथी युक्त एवा पोताना आत्माने तेवो योग न करतो. आ प्रमाणे ते मंत्री मोहने लईने ते जळवडे पवित्र एवा ब्राह्मण मित्रनुं विविध प्रकार, हित करतो हतो. ते मित्र पण ते मंत्रीने पोताना पद उपर स्थापित करी अहर्निश पोताने हाथे तेने भोजनादिक खवडावतो हतो. तेमज ते तेनी उपर प्रेमना समूहने दर्शाववा साथे ज शयन करतो, सुख दुःख स्पष्ट रीते भोगवतो जागतो अने जतो आवतो हतो. एवी रीते नित्य आसक्त रहेनारा ते मित्रने जोई लोकोए तेनुं नाम नित्यमित्र पाडी दीधुं. एक वखते विश्वहित नामनो कोई पुरुष तेने मळी आव्यो. शुद्धबुद्धिने आपनारा ते पुरुषे तेने प्रणाम कां. पछी शाणा विश्वहिते विचार्यु के, "आ माणस मारुं वचन माने के न माने तो पण हुं तो तेने शुद्धबुद्धि आपे तेवू वचन कहेवानो ज." आवं चिंतवी विश्वहित बोल्यो, "भद्र, जे तारो आ मित्र छे, ते कोईने पण मान्य करवा 1. लब्धवर्ण एटले शरीरना उंचा वर्णवाळा पक्षे लब्धवर्ण एटले कीर्तिमान्. 2. सदा
आपत्त्र-आपत्तिमांथी बचावनार पक्षे सदा पत्रवाळा घनसार-घणां श्रेष्ठ, पक्षे घनसार कर्पूर. 3. मिथ्यात्वथी युक्त करतो. 4. गोरस एटले गायना दूध, दहीं वगेरे रस पक्षे गोरस-एटले उपदेश वाणीनो रस. 5. सगुण-गुणवाळा सन्मौक्तिक-सत्पुरुषरूपी मोतीनो योग करी आनंद आपतो पक्षे सगुण एटले दोरीवाळा मोतीना हार पहेरावी आनंद आपतो.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा योग्य नथी. तुं तेनी उपर जेवो रागी छे, तेवो ते तारी उपर रागी नथी. आ अंदर तद्दन अशुद्ध छे अने बहार शुद्ध देखाय छे, ते तेनो सत्कार करेलो छे, पण तेनो कदि पण विश्वास करीश नहीं. जो तुं तेने भोजन आपीश नहीं अने तेने स्नान करावीश नहीं, तो ते तारो निर्मळ कार्यभार करशे नहीं. ।।१०।। हे विद्वान् आ तारो मित्र विधुर छे. माटे तुं तेने छोडी कोई बीजा उत्तम मित्रने कर के, जे मित्र तने कष्टमां सहाय करे." आ प्रमाणे ते हितकारी विश्वहित पुरुषनां नहीं छेतरे तेवां बधां वचनो सांभळी तेने कांईक भान आव्युं अने तत्काल तेणे विचायु के, "आ विश्वहिते जे कांई का, ते सारं जणाय छे. तेथी हवे हुं कृतज्ञ नामनो कोई योग्य मित्र करूं." आq चिंतवी तेणे कृतज्ञ नामनो मित्र को. ते मित्रने थोडी भक्ति बतावी मंत्री दरेक पर्वने दिवसे आवी अन्न तथा तांबूल वगेरेथी संतोष आपवा लाग्यो, ते जोई बधा लोक तेने पर्वमित्रना नामथी ओलखवा लाग्या. कारण के लोकोनो एवो स्वभाव छे के जेवू नजरे देखे तेवू कहे.
आ प्रमाणे शुद्धबुद्धि नित्यमित्र तथा पर्वमित्रनी साथे रहेलो हतो, तेने जोई लक्ष्मीना स्थानरूप अने यथार्थ नामवाळो विश्वहित तेनी प्रत्ये बोल्यो, "हे मंत्री, आ तमारो जे पर्वमित्र छे, तमारा दुःखनो जरा भागीदार बने छे, परंतु तेवा मित्रने हुं तमारो सारी रीते हितकारी कही शकतो नथी. जे मित्र सर्व दुःखनो हरनारो, शिव सुखनो करनारो अने नमस्कार, स्तुति अने संगतिथी संतुष्ट रहेनारो होय, तेवो मित्र उत्तम बुद्धिवाळो अने हितकारी छे, एम मानु छं." विश्वहितनां आवां वचन सांभळी मंत्री शुद्धबुद्धि आ प्रमाणे बोल्यो, "त्यारे एवो विश्वहित मित्र आ संसारमा क्यां मळी शकशे?" विश्वहित बोल्यो, "तेवो एक लोकनाथ नामनो मित्र कोई सारा स्थानमा रहेलो छे, तेनुं जरा स्वरूप कहुं ते सांभळो अने तमारा संशयोने दूर करो.
जेनुं मुख सम्यग्ज्ञानथी उज्ज्वळ छे, जेनी दृष्टि सौम्य छे, जेनुं हृदय सरल छे, जे सदाचरणथी युक्त छे, जे नीच काम करवामां विरक्त छे, जे सदा विश्वजनना आधाररूप छे अने जे अंग तथा उपांगमां प्रतिष्ठित छे, तेवो कोई सारा हृदयवाळो मित्र तमारे करवो." ।
विश्वहितनां आवां वचन सांभळी शुद्ध बुद्धि मंत्री बोल्यो, "एवा कोई पुरुषने हुं कोईवार जिनालयमां जोउं छु, कोईवार उपाश्रयमां जोउं छु अने कोईवार सत्पुरुषोना घरमां जोउं छु. परंतु तेवा उत्तम पुरुषने जोई हुं नाशी जाउं छु. हवे तमारा कहेवाथी हुं तेवा पुरुषने मळीश." पछी ते कोईवार पोताना स्थानमां,
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
कोईवार रस्तामां अने कोईवार अपरिमित एवा तेना स्थानमां जई ते तेने नमस्कार करवा लाग्यो. तेने तेम करतो जोई लोको तेने प्रणाममित्र कहेवा लाग्या. ते पण मनमां संतुष्ट थई तेने मनवांछित आपवा लाग्यो. आ प्रमाणे मंत्री शुद्धबुद्धि ते त्रणे मित्रोनी साथे रही उग्रशासन राजाना सर्व व्यापारना भारने केटलोक काल धारण करवा लाग्यो.
एक वखते मंत्रीराज पोताना नित्यमित्रनी साथे एक शय्यामां निद्रा लई जेवामां जाग्रत थईने बेठो थयो, तेवामां सर्व तरफ सर्वने लुंटनारा, स्वामीए प्रेरेला अने काळपुरुषना जेवा दुष्ट योद्धाओ हथीयार उगामी आवता तेना जोवामां आव्या. तेमने जोई मंत्रीए कघुं, "तमे अहिं शा माटे आव्या छो?" तेओए जवाब आप्यो के, "अमो अमारा स्वामी उग्रशासननी आज्ञाथी अहिं आव्या छीए अने दूषित कार्य करनारा वा तने आजे अमो तत्काळ कूवामां नाखवाना छीए." ते योद्धाओना आवा वचन सांभळी मंत्री बोल्यो, "मारो एवो कयो अपराध छे?" तेओए कहुँ, "तमारो शो अपराध छे, ए वात राजा उग्रशासन जाणे. अमो कांईपण जाणता नथी. अमारे तो तेमनो कठोर आदेश करवानो छे." ते सांभळी मंत्री शुद्धबुद्धि पोताना पेला नित्यमित्रने कह्युं, हे ईष्ट मित्र, मारी उपर राजा उग्रशासन क्रोध पामेला छे, तो तुं उठ आपणे क्यांय एवे स्थळे चाल्या जईए, के ज्यां रहेवाथी मने तेनो भय लागे नहीं. जेम अंधकार थवाथी लोको सूर्यनुं अवलोकन ईच्छे छे. तेम ज्यारे कष्ट आवी पडे छे, त्यारे माणस पोताना मित्रना मुखनुं अवलोकन करे छे. दातारनी परीक्षा दुष्काळमां थाय छे, प्रियानी परीक्षा निर्धनपणामां थाय छे, सुभटनी परीक्षा रणसंग्राममां थाय छे अने मित्रनी परीक्षा विपत्तिमां थाय छे. जलथी परिपूर्ण एवा सरोवरनी जेम ज्यारे समृद्धि होय छे, त्यारे सघळं सरखुं लागे छे, पण ते सरोवर ज्यारे सूकाय छे, त्यारे जेम ऊंचं अने नीचुं वर्त्ताई आवे छे. तेम ज्यारे निर्धनता आवे छे, त्यारे पोतानो अने पारकानो भेद देखायी आवे छे. "हे मित्र! पिता, माता, पुत्र, भाई अने सन्मित्रथी पण में तने वधारे राख्यो छे - पाल्यो छे, तो आ वखते हे डाह्या अने जगत्प्रिय मित्र, दुर्वार एवा राजा उग्रशासनना भयथी एकवार तुं मने बलात्कारे बचावी ले." मंत्रीए आ प्रमाणे कह्युं, तो पण ते नित्यमित्रे तेनुं वचन सांभल्युं नहीं. तेम नेत्रोथी तेनी सामुं जोयुं नहिं. ते पडखे हतो तो पण तेने ओळखतो न होय तेम रह्यो पछी सर्व सरळ अने विद्वान् लोकोए तेने मांड मांड समजाव्यो, एटले ते नित्यमित्रे मंद थई गयेला मंत्रीने आ प्रमाणे कह्युं, "आपणा बनेनो संग केवी श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा रीते छे? ते समज, तुं मंत्री छे अने हुं प्रकृति रूप छु. कर्मनो कर्त्ता अने भोक्ता तुं पोते ज छे, माटे ते पोते करेला कर्मने तुं पोते ज भोगव. ते जे अन्नपान वगेरे मने आप्युं छे, ते जेम लोको पोताना मातापिताने संतोषवा अर्थे बीजने सारं भोजन आपे, तेम तारा पोताना हितनी खातर आप्युं छे. संयोगना संबंधमां जे कर्ता होय ते ज कर्मनुं फल भोगवे छे, बाकी इष्ट जनोने तो केवळ चिंतानो ज संताप थाय छे. जे हाथ अन्याय करे ते ज हाथ ते अन्यायने सहन करे छे. जे चरण अन्याय करे, ते चरण ज अन्यायने सहन करे छे. मारी आगळ आ वात जो तें पहेलां कही होत तो हुँ बळवडे चरण वगेरेथी ते राजा पासेथी तारो छूटको करावत, पण हवे माराथी कांई थई शके नहीं. तेथी तारे मारूं पडद्म छोडी देवू, नहीं तो तुं दुःखी थईश." नित्यमित्रनां आवां वचन सांभळी ते शुद्धबुद्धि मंत्रीए रुदन करवा मांड्यु. तेवामां त्यां पेलो पर्वमित्र सत्वर आव्यो. तेणे तेने दुःखी जोयो. मंत्रीए ते पर्वमित्रनी आगळ पोतानो सर्व वृत्तांत निवेदन कर्यो, ते सांभळी पर्वमित्र बोल्यो, "हे वयस्य, तुं भय पामीश नहीं, हुं सर्वस्व अर्पण करीने पण तारी रक्षा वेगथी करीश." आ प्रमाणे कही तेने स्वस्थ कर्यो. एटले ते क्षणवार निर्भय थईने रह्यो. तेवामां पेला नित्यमित्रे आवी गळे पकडी तेने बहार काढ्यो, एटले राजा उग्रशासनना दुष्ट करवाळा ते सेवकोए ते मंत्रीने हाथे पकडी लीधो. ते जोई पेला पर्वमित्रे तेनो सत्कार कर्यो अने ते राजाना सेवकोने का के, "तमे दयाळु थई तेने ठेकाणे मने लई जाओ." ते पर्वमित्रनुं वचन मान्यु नहीं अने ते राजसेवको तेने लई गया. तेथी ते पर्वमित्र दुःखी थयो अने पेलो नित्यमित्र जाणे दीकरीनो विवाह करीने नीरांते सुतो होय तेम निश्चिंत बनी गयो. पछी राजसेवको ते दीन एवा शुद्धबुद्धि मंत्रीने एक कूवानी पासे लई गया. ते कूवो जोतां ज ते भयभीत थई मनमा खेद पामी विचारवा लाग्यो, "अरे! पेला विश्वहिते मने विश्वने हितकारी वचन कडं हतुं के, दुःखने वखते लोकनाथ पुरुष घणी मानसिक पीडामांथी तारी रक्षा करशे. अत्यारे मने एवो ज दुःसहकाळ प्राप्त थयो छे, तेथी हवे मने ते भगवान् लोकनाथ ज शरण रूप थाओ." आ प्रमाणे ते मंत्री शुद्धबुद्धि चिंतवतो हतो, तेवामां ते लोकनाथनी आज्ञाथी चंद्रहास खड्गने धारण करनारा केटलाएक पुरुषो उत्तर दिशामांथी आवी पहोंच्या तेमणे ते मंत्रीनी समीपे आवीने पेला उग्रशासन राजाना योद्धाओने हठथी कडं के, "आ पुरुषने छोडी द्यो तमे हथीआरो उगामी अहिं शा माटे रह्या छो? अथवा अमारी साथे युद्ध करो. अमे सत्पुरुषोए मानेला लोकनाथना पुरुषो छीए आ मंत्रीने लेवाने
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अने तेनुं रक्षण करवाने आव्या छीए." आवां वचनो सांभळी ते राजाना योद्धाओ कोपना आडंबरने वश थई पृथ्वीने चारे तरफ ध्रुजावतां - ध्रुजावतां युद्ध करवा सामे धसी आव्या, ।।१५० ।। पेला लोकनाथना सुभटोए बळवडे तेओमांथी केटलाएकने पृथ्वी उपर पाडी नाख्या, केटलाएकने हठथी लोटावी दीधा अने केटलाएकने दीन बनावी दीधा, पछी तत्काळ केटलाएक नाशी गया, केटलाएक शस्त्रो छोडी दीधा, केटलाएक अधोमुख करीने रह्या अने केटलाएक प्रयाण करी गया; पछी तेओ मंत्रीनी पासे आवी आ प्रमाणे बोल्या, "मंत्रिन् ! तमोने तमारो प्रणाम मित्र सत्वर बोलावे छे." कानमां अमृत रेडवा जेवुं आ वचन सांभळी ते मंत्री घणो हर्षवाळो अने (दिव्य - देवतायी) सुखवाळो थई गयो पछी तेओ ते मंत्रीने तेना स्थानमांथी लईने एक सर्वांगसुंदर नामना प्रासादमां हर्षथी लई गया; ते प्रासाद दिव्य उल्लोचथी युक्त हतो, तेनी भूमि सुवर्णमय हती तेमां उंची जातनी दिवालो रहेली हती. सर्व प्रकारनी वस्तुओथी ते विभूषित हतो अने तेमां उंचा स्तंभोनी शोभा देखाती हती. ते प्रासादनी अंदर तेणे पोताना प्रणाम मित्र लोकनाथने जोयां तेमना मस्तकपर चंद्रमंडळना जेवुं सुंदर छत्र हतुं, स्वर्ग गंगाना जेवा चामर वींजाता हता, नक्षत्रमाळाना हारथी ते अंकित हता, सुवर्णना उत्तम आसन पर ते बेठा हता. सुर, असुर अने मनुष्यो तेमनी स्तुति करता हता, छतां पण अहंकारथी रहित हता. तेओ केटलाएकने पृथ्वी उपर अनेक कोटी गमे रत्नो आपता हता, केटलाएकने सुवर्णनो समूह, केटलाएकने गजेन्द्रोनी लक्ष्मी अने केटलाएकने (रूडो मनगमतो) संबंध, केटलाएकने अश्वोनो समूह, . केटलाएकने विशाळ आवासो अने केटलाएकने वस्त्रोनो जथ्थो आपता हता. ते लोकनाथने जोतां ज ते मंत्रीनुं हृदय जाणे सुधासिंधुमां मग्न थई गयुं होय तेम बनी गयुं अने तेणे पोताना प्रथमना पापना संतापने शांत करी दीधो अने मोटा प्रणामथी ते महाशयने नमन कयुं. ते प्रणाम मित्रे तेने बेठो करी सुंदर आसनपर बेसाड्यो, ज्या मंत्री शुद्धबुद्धि स्वस्थ थयो, एटले तेणे तेने दुःखी थवानुं कारण पूछ्युं; मंत्री उग्रशासन राजानो भय प्रकाशित कर्यो, ते सांभळी प्रणाम मित्र लोकनाथे कह्युं, "भद्र, मने आश्रित थयेला एवा तने हवे कोई जातनो भय नथी." सूर्यने आश्रित थयेला प्राणीने कदिपण अंधकारनो भय होतो नथी. " में प्रणाम कर्या सिवायनुं बीजुं कांईपण कार्य आ मित्रनुं कर्तुं नथी, तेथी ते मारुं कार्य शुं करशे." एवो विचार तारे मनमां लाववो नर्हि; जे उत्तम पुरुषो छे, ते प्रणाम करवाथी पण सदा हर्षित थाय छे. कारण के तेओमां सर्व प्रकारनी संपत्तिना हेतुरूप संतोष श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा रहेलो छे. हुं जीवतां तने सर्वार्थनी सिद्धि आपीश अने मृत्यु पामतां विशेष पणे सदा अमृत-मोक्ष आपीश. आ मारुं वचन तारे सत्य मानवं. तुं मारी पासे सुखे रहे अने मन वांछित अर्थ मागी ले. कारण के कल्पवृक्ष वगेरे तो मारे घेर काम करनारा सेवक रूपे छे. जो तारा मनने राज्य गमतुं होय अथवा वासुदेव पद, चक्रवर्तिपणुं के इंद्रपणुं गमतुं होय तो ते कहे तने जे ईष्ट होय ते हुं तने आपुं." आ प्रमाणे प्रणाममित्र लोकनाथना वचनरूप अमृतनुं पान करी ताप रहित थयेलो ते मंत्री बोल्यो के, "ए सर्वमां राजा उग्रशासननी कोईपण आज्ञा प्रवर्ते छे?"तेणे का, "ज्यारे हुं प्रमादी थाउं छु, त्यारे ते मारी सम्यग् दृष्टिने छेतरी माणसने पोतानो सेवक बनावी दे छे." शुद्धबुद्धि बोल्यो, "जो तेम होय तो अहिं सुख छतां पण हुं रहीश नहि, ज्यां ते उग्रशासन- नाम पण न होय तेवे ठेकाणे मने लई जाओ." लोकनाथे कडं, "फक्त एक स्थान सिवाय बीजे सर्व स्थाने कोई कोईवार तेनो भय तो छे." मंत्री बोल्यो, "हे प्रभु तेवा कोई प्रधान एवा महास्थानमां मने लई जाओ के, ज्यां हुं तमारा प्रसादथी निर्भय थईने रहूं." लोकनाथे कडं, "ते महास्थान निर्वृतिपुरी छे. त्यां मारी साथे चाल. हुं तने प्रशस्तपुरीनुं द्वार बतावं. परंतु तेना मार्गमां बळतो दावानळ आवे छे, तेमां जो तुं प्रवेश करीश तो पछी हुं तारो रक्षक थई शकीश नहि. तेनी आगळ एक पर्वत छे, ते विंध्याचलनी जेम वधतो जाय छे, जो त्यां तुं लांबो काळ रहीश तो पछी नगरीमा जई शकीश नहि. तेथी तारे जलदी ते उपरथी उतरी जवं. तेनी आगळ एक वांसनी जाळी छे, तेनो मार्ग आडो अवळो गुपिल (अ) सरळ छे, तेथी तारे ते क्षणमांज ओळंगवी. तेनी आगळ एक खाई आवे छे, ते खाई आगळ लघु छे अने पाछळथी मोटी छे. तेनी समीपे एक विप्र (मनोरथ भट्ट वसे) छे, ते कहे छे के, "आ खाईने भरीने आगळ चालो." परंतु तुं जो हितने ईच्छतो हो तो ते विप्रनुं वचन मान्या वगर तारे आगळ चालवं, नहीं तो तारा बधा जन्म चाल्या जशे, तो पण ते खाई पुराशे नहि. ते ठेकाणे तारे क्षुधा अने तृषानी पीडा सहन करवी पण त्यां रहेलां पक्वफलो खावा नहीं अने स्वादिष्ट जल पीयूँ नहि. कार्यने जाणनारा एवा तारे त्यां स्वादरहित अने नीरस एवां फल तथा जल लई सदा प्राणवृत्ति करवी. त्यां बावीस चोर रहेला छे, तेओथी यत्नवडे चेतता रहेवू, नहिं तो प्रथम मेळवेळु तारुं सर्वस्व ते ग्रहण करी लेशे. त्यां एक वाघ अने एक सिंह एम बे प्राणीओ छे, तेनाथी तारे सावधान अने शुभध्यान राखीने दूर रहेQ." लोकनाथना आ वचनो ते मंत्रीए कबूल कयाँ पछी तेने ते शुभ स्थानमा
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लई जवामां आव्यो. जे स्थानने प्राप्त करी शुद्धबुद्धि मंत्री सदा सुखमय बनीने रह्यो, पछी ते भव्य प्राणीओने मनवांछित फल आपनारो लोकनाथ पण पोते लोकोने मोक्षनी प्राप्ति करवाने माटे पोताना स्थानमां चाल्यो गयो. ।। १८६ ।।
( मुनि कहे छे) हे राजन्, ए लोकनाथ निर्धन जनोने धन आपनार, संतानरहित जनोने संतान आपनार अने आ विश्वनो नायक छे. ते राज्यना अर्थीओने राज्य आपनार, दुःखी जनोना दुःखनो नाश करनार, दुर्भागीने सुभागी बनावनार अने लोकोने तारनारो छे. सूर्यनी जेम काकपक्षीओना तापनी पैरे ते लोकोना संतापने हरनारो, सद्बुद्धिने वधारनारो अने कोटी लोकोए नमेलो छे. वळी ते ईष्ट करनार, कष्ट हरनार अने पडता पुरुषोनो उद्धार करनार छे. तेवा
लोकनाथनी तुं पण आराधना कर के जेथी तने सर्व प्रकारनी सिद्धिओ प्राप्त थशे." ते सांभळी राजाए प्रश्न कर्यो, हे मुनि ते लोकनाथ कोण छे? तेमनुं अपूर्व एवं बधुं पूर्व स्वरूप मने कही संभळावो, के जेथी हुं पश्चात्तापनो भार छोडीने पछी ते स्वामीनी सेवा करूं. स्वरूप जाण्या वगर सेवा करी शकाती नथी." मुनि बोल्या, "हे चतुर राजा, में जे कथा कही छे, तेनो तुं अंतरंग बुद्धिथी विचार करजे.
कथानो उपनय घटावे छे :
हे राजा, जे दूरपार नामनुं नगर कह्युं, ते आ अपार संसार समजवो. उत्कृष्ट आज्ञावाळो जे उग्रशासन राजा कह्यो ते कर्मबंध समजवो. जे शुद्धबद्धि मंत्री ते आत्मा जीव जाणवो. तेनो जे नित्यमित्र ते शरीर समजवुं. जे पर्वमित्र ते मातापिता अने प्रिय स्त्री वगेरे स्वजनवर्ग समजवो. जे विश्वहित नामनो पुरुष ते उंचा प्रकारनो गुरुनो उपदेश समजवो. जेनी शिक्षाथी प्रणाम नामनो मित्र आदरवाळो थयो हतो. जे. लोकनाथ ते लोकोनुं पालन करवाथी धर्म समजवो. जेने मात्र प्रणाम करवाथी ते उत्तम मनवाळा प्राणीओने ईच्छित फल आपे छे. जे पेला योद्धाओ आव्या हता, तेओ दुष्कर्मथी प्रेरायेला रोगना राशि जाणवा. 'तेमणे ग्रहण करेला जीवनुं रक्षण देह कदि पण करी शकतो नथी. ते जीव तेमां ज सपडाईने रहे छे, एक पगलुं पण चाली शकतो नथी. ते वखते तेना स्वजन पोकारथी रडे छे पण तेनी रक्षा करवाने समर्थ थई शकता नथी. जे कूवो कह्यो ते नरक समजवी. जे बीजा पुरुषो बचाववाने आव्या हता, तेओ सुकृतना अध्यवसाय समजवा. जे धर्मनुं शुभस्थान ते विवेक समजवो. ।। २०० ।। सुखनो 1. रोगोवडे घेरायेला जीवने शरीर उलटं पीडाकारी बने छे. सहायकारी थई शक नथी. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग 155
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा नाश करनार कर्मो पुरुषोने नरकनी समीप लई जाय छे, छतां पण स्मरण करेला सुकृतना अध्यवसायरूपी योद्धाओ तेमनुं रक्षण करे छे. ते शुद्धबुद्धिरूप जीवने दृष्टिना दानथी जे केटलोक काळ सुखे राख्यो हतो, ते सम्यक्त्वना दानथी सौधर्म वगेरे देवलोकमां तेनी स्थिति समजवी. पछी जे तेने मार्गवडे निर्वृतिपुरीमां पहोंचाड्यो, ते यति धर्मना मार्गवडे पांचमी गतिमां गयो, एम समजवं. जे ते मार्गे दावानळ कहेवामां आव्यो, ते क्रोध, पर्वत कह्या ते अहंकार मान अने वांसनी जाल कही ते दुःख श्रेणीने आपवामां समर्थ एवी माया समजवी. जे खाई कहेवामां आवी ते पूरण (लाभ)थी भरेलो छतां दुःखे पुराय तेवो लोभ समजवो अने जे द्विज कह्यो ते मनोरथ हतो, एम विद्वाने सदा समजवू. हे राजा, जे स्वादिष्ट फळो अने मधुर जल कह्या हता, ते अशुद्ध अन्नपान समजवां. जे बावीस चोरो कहेवामां आव्या, ते बावीस परिषहो जाणवा. जे बे वाघ अने सिंह कह्या ते राग अने द्वेष समजवा. जे नीरस कह्यं ते कल्प-अन्न (प्रासुक अने निर्दोष भोजन) समजq. देहनो अभाव थवाथी शिव-कल्याणरूप थवाय छे. ते पछी जरा, व्याधि, मरण भय, पराभव अने मानसिक पीडाथी उत्पन्न थयेली बाधा थती नथी फक्त प्रणाम करवाथी जेणे आवं सुख बनावी आप्यु, तेवो लोकनाथ रूप धर्म जो सर्वथा आराध्यो होय, तो आ लोकमां शुं न आपे?" आ सांभळी राजा बोल्यो, हे साधु, प्रिया सहित एवा मने तमे धर्मध्याननी शिक्षा आपो के जेथी हं तेने आदरथी करूं. ।।२१०।।
मुनि विचार करीने बोल्या, "हे राजन्! आ संसारमा साररूप एवा धर्मकर्मना हजारो उदार प्रकारो छे, तेओनी अंदर पंचपरमेष्ठी प्रत्ये नमस्कारनो प्रकार सर्वथी सुगम अने उत्कृष्ट छे. ते नमस्कार मंत्र आ लोक तथा परलोकमां ईच्छित फल आपनार अने सर्व मंत्रोनो नायकरूप छे; ते मंत्रथी सर्व विपत्तिओ लय पामी जाय छे. सर्वसंपत्तिओ प्राप्त थाय छे अने अंतरायो क्षय पामी जाय छे, तेमां कोई जातनी भ्रांति नथी." हे सुंदर! तुं प्रिया साथे ते पंचनमस्कार मंत्रआदरथी स्मरण कर के जेथी पापने हरनारो ते मंत्र तने प्रिय वस्तुओ आपे. प्रथम पवित्र थईने पवित्र स्थानमा स्थिर आसन उपर बेस. अंगने धोयेलां वस्रोथी ढांकतुं अने पूर्व अथवा उत्तर तरफ मुख राखQ. बंने होठ भेगा राखी अने पोताना नेत्रो नासीकाना अग्र भाग उपर ठरावी प्रमाद रहित थई मौन धरी दांतवडे दांतनो स्पर्श कर्या सिवाय आंगळीना अग्र भागने 'मेरुना उल्लंघनने अने 1. नख अडकाया वगर अने मेरुनु उल्लंघन कर्या वगर शुद्धभावी सूत्रनी नवकारवाळी वडे
जाप करी शकाय. तेमज हृदयमा नवपदनी स्थापना करी तेमां स्थिर दृष्टि राखीने पण करी शकाय छे.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा आर्त तथा रौद्र ध्यानने छोडी सुबुद्धि पुरुषे ते मंत्रनो जप करवो. ते मंत्रप्रथमपद श्वेत छे, बीजुं पद कुंकुमवर्णी छे, त्रीजुं पद सुवर्ण रंगी छे, चोथं पद नीलरंगनुं छे अने पांचमुं पद कृष्णवर्णी छे, शांतिक पौष्टिना कार्यमां श्वेतवर्णी पद, वशीकरण तथा आकर्षणमां रक्तवर्णी, स्तंभनमां पीतवर्णी, मोक्षने अर्थे व्योम-आकाश रूप नीलवर्णी अने उच्चाटनना काम वखते कृष्णवर्णी पद ध्यावा. अने ते ते वर्णनी जपमाळा वस्त्रादिकनी साथे ग्रहण करवी एवी रीते पांच प्रकारचें ध्यान ए मंत्रमां दर्शावेलुं छे, हे राजा, ते जेवो अवसर होय ते प्रमाणे तारे तेनं ध्यान करवं. जो कदि जपमाळा न होय तो नंद्यावत वगेरेथी नवकार मंत्र गणवो पण ते गणवानो निश्चय छोडी देवो नहीं. जयने आपनारा ते नवकार मंत्रना जपथी संग्राम, समुद्र, जंगल, शाकिनी, भूत, सर्प, सिंह, वाघ, अग्नि व्याधि, असमाधि, शत्रुसमूह, विकार अने दारिद्रथी उत्पन्न थयेलो आ लोकनो भय प्राप्त थतो नथी. जो पुरुष ए मंत्रनो एक अक्षर पण एकाग्रपणे ध्यावे, तो ते सात सागरोपमना 'आयुष्यनो नाश करी शके छे. वळी ते सुबुद्धिपुरुष मनमां श्रद्धा लावी नवकारमंत्र पैकी एक समग्र पदवडे पचास सागरोपमनुं अने समग्र-संपूर्ण नवकारमंत्रवडे तो ते पांचसो सागरोपमनुं आयुष्य शीघ्र नाश करी शके छे.
___ आ प्रमाणे कही ते मुनि, राजा अने राणीने ते पंचपरमेष्ठि मंत्र अने तेनो विधि बतावी चाल्या गया अने पछी राजा पोताने घेर आव्यो. मुनिए कहेला पवित्र मंत्रनुं स्मरण करतां ते राजाराणीनुं दुष्ट अंतराय कर्म अत्यंत हलकुं थई गयु. ते पवित्र राजाने नमस्कार मंत्रना प्रभावथी अने सात्म्यभावथी (तेमां साते धातु रंगाई जवाथी तेमां श्रद्धा परिणति जागवाथी) राज्यनी वृद्धि, कार्यनी सिद्धि अने सर्व दिशाओमां प्रसिद्धि थई गई.
एक वखते रात्रे राजा जाग्रत थई आ प्रमाणे चिंतववा लाग्यो-"मारे नवकारमंत्रना प्रभावथी सर्व शुभ थयुं, परंतु सो वरदाननी प्राप्तिरूप मारुं कार्य हजु सिद्ध थयुं नथी. ते कार्य हजु पण मने संतापकारी अने दुःखकारी लागे छे." राजा आ प्रमाणे चिंतवतो हतो, तेवामां दैवयोगे भोगसहित (स्वहितकारी अने चकोर) राणी स्वप्नामां त्रास (भय-कलंक) रहित एवा पूर्णचंद्रनुं पान करी गई. जे पुत्रने माटे आ सनातन नवकार मंत्रनुं स्मरण करे छे, ते स्वप्नामां (पण) ससलाना चिह्न-लक्षण या कलंक सहित चंद्रनुं पान करतो नथी राणीए अमृतना 1. नरक नीच गति संबंधी. 2. पण कलंकरहित ज चंद्रन पान करे एवो अर्थ-ध्वनि निकळतो जणाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा । जेवी वाणीथी ते स्वप्नानी वार्ता राजाने कही 'जेवू भोजन तेवो ज ओडकार आवे छे राणीनो परिताप जे चंद्रना पानथी शांत थई गयो, ते घटे छे, पण राजाने माटे ते आश्चर्यनी वात छे. अथवा ते बनेनी एकता छे. जेनी अबळा स्त्री पण राजाने गळी जाय छे. तो पछी ते राजा अखंड निश्चिंत केम न रहे? आ प्रमाणे चिंताना संतापथी मुक्त थयेली राणीने राजाए हर्षथी कर्वा "भद्रे! तने राजा-चंद्रनी जेम कला कलापथी युक्त एवो पुत्र थशे. हे भामिनी! स्वप्नामां जो स्त्री लींग जोवामां आवे, तो प्राये करीने स्त्री अवतरे छे, पुलिंग जोवामां आवे तो पुरुष अवतरे छे अने नपुंसक लिंग जोवामां आवे तो नपुंसक अवतरे छे. जो शुभ स्वप्न जुए तो भव्य पुत्र थाय अने अशुभ स्वप्न जुए तो तेथी विपरीत पुत्र थाय छे, तने शुभ स्वप्न थयुं छे, तेथी तारे सारो पुत्र थशे, तेमां कोई जातनो संशय नथी." राजाना आवां वचन सांभळी राणी एवं थाओ! (आपनुं वचन प्रमाण) एम कही पोताना आवासमां चाली गई. ते राजा अने राणी बंनेने प्रत्यक्ष खात्री थयाथी तेओ पछी हमेशां हर्षथी नवकारमंत्र- स्मरण करवा लाग्या.
हवे ज्यारे गर्भने त्रीजो मास बेठो, त्यारे राणीने एक मनोहर दोहद उत्पन्न थयो जेवो पृथ्वीमां कंद होय तेवो ज अंकुर उत्पन्न थाय छे. राजाए ते दोहद पूरो कर्यो अने दुष्कृत्यनो चूरो कर्यो. पछी स्वेच्छा प्रमाणे (सानुकुळ) आहार विहारना सुखोथी गर्भनी पुष्टि थवा लागी, लक्ष्मीने आपनारो पूर्ण काल प्राप्त थयो. त्यारे जेम पूर्णिमा पूर्णचंद्रने जन्म आपे, तेम राणीए नेत्रोने आनंद आपनारा उत्तम अद्भुत कुमारने जन्म आप्यो. जे माणसे आ पुत्र जन्मनी वधामणी राजाने कही, ते माणसने राजाए हर्षथी अधिक दान आप्यु. सर्व प्रकारनो पोतानो कुलाचार विधिपूर्वक कर्या पछी ज्यारे सूतक निवृत्त थयुं एटले सर्व स्वजनोना समूहने जमाडी अने वस्त्र वगेरेथी तेमनो सत्कार करी, कार्य जाणनारा राजाए स्वप्नने अनुसारे ते कुमारनुं नाम चंद्रोदर पाड्युं. चंद्रोदर ज्यारे आठ वर्षनो थयो, त्यारे राजाए तेने कलाचार्यने सोंपी दीधो. अनुक्रमे चंद्रोदर आ प्रमाणे बोंतेर कलाओ शीख्यो. ।।२४७।।
१. लेखन, २. गणित, ३. गीत, ४. नृत्य, ५. वाद्य, ६. रसायन, ७. ज्योतिष, ८. पठन, ९. छंद, १०. निरुक्त (शब्द व्युत्पत्ति), ११. गारूड, १२. 1. राणीए अमृतमय चंद्रनुं पान कर्यु हतुं, तेथी तेणीनी वाणी अमृतना जेवी नोकळे. 2. चंद्रना योगथी परिताप शांत थई जाय छे. राजानो अर्थ चंद्र थाय छे त्यारे गणी चंद्र राजाने पी गई अने राजा शांत थयो, ते आश्चर्यनी वात छे. 3. राजा एटले चंद्र.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा स्मृति, १३. व्याकरण, १४. कात्यायन, १५. शिक्षा, १६. विज्ञान (सायन्स), १७. आगम, १८. काव्य, १९. अलंकार, २०. हास्य, २१. संस्कृत, २२. प्राकृत, २३. विधि, २४. वेद, २५. ईतिहास, २६. पुराण, २७. अमरी कला, २८. खेचरी कला, २९. पैशाचिक भाषा, ३०. अपभ्रंश, ३१. नखथी कोरवानी कला, ३२. पत्रकोतरवानी कला, ३३. मंत्र, ३४. यंत्र, ३५. रस, ३६. स्वप्न, ३७. वैदक, ३८. विष परीक्षा, ३९. नाच, ४०. गंध परीक्षा, ४१. वाद करवानी कला, ४२. शकुन जाणवानी कला, ४३. धुर्त विद्या, ४४. वशीकरण, ४५. जुगार, ४६. चित्र, ४७. काष्ठनी कारीगरी, ४८. चर्मनी कृति, ४९. पाषाणनी कृति, ५०. धातुक्रिया, ५१. आलेखवानी कला, ५२. काचनी कला, ५३. हाथी उपर चडवानी कला, ५४. घोडा उपर चडवानी कला अने हाथी, घोडानी शिक्षा, ५५. देश भाषा जाणवानी कला, ५६. सिद्धांत, ५७. केवलिविधि, ५८. यंत्रथी रसोई करवानी कला, ५९. पाताळ सिद्धि, ६०. वैदकनी सिद्धि, ६१. इंद्रजाळ, ६२. हथीयारनो अभ्यास, ६३. महेल बनाववानी कला अने लक्षण ज्ञान, ६४. रत्न परिक्षा, ६५. निघंटु
औषध कोश, ६६. काष्ठनी योजना करवानी कला, ६७. प्रयोगना उपायो जाणवानी कला, ६८. कपट कला, ६९. दर्शननो संस्कार, ७०. वृक्षोनी चिकित्सा, ७१. " सर्वकारिणी कला अने ७२. सामुद्रिक.
आ प्रमाणे सर्व कलाओनी क्रीडाना मंदिर रूप, सुंदर आकृतिवाळी अने । रतिनी प्रीतिवाळो ते चंद्रोदर रति प्रीतिवाळा कामदेवना जेवो शोभतो हतो, जे चंद्रोदरनो जीव लेखशाळामां जतां विबुधाचार्य थाय ते घटे छे. परंतु ते कलावान् थयो एटलुं आश्चर्य छे. कुमारना कलाचार्य उत्तम ब्राह्मणने राजाए मंडळ (देश)ना दानथी एवो सत्कार कर्यो के जेथी ते नामथी अने धामथी खरेखर कलाचार्य बनी गयो हतो.
____एक वखते राजाए जेनुं बल अनेकमां प्रवर्ते छे एवा पोताना मतिसार नामना मंत्रीने ते कुमार हितशिक्षाने माटे सोंपी दीधो. ते बुद्धिमान् मंत्रीए सत्पुरुषोने पण मानवा योग्य अने कामदेवना जेवा सुंदर एवा ते कुमारने आ प्रमाणे का
"हे उत्तम बुद्धिवाळा वत्स, हुं तने उच्च शिक्षा आपुं छु. ते शिक्षा सरस्वतीनी एक लेखशाळा कहेवाय छे अथवा तने शिक्षा आपवी ते पूर्ण चंद्रने कला आपवा जेवं, सूर्यने तेज आपवा जेवू अने देव, गुरु, बृहस्पतिने शिक्षण आपवा जेतुं छे; तथापि विद्वान् अने मानी एवा पुरुषोए राजानी आज्ञा मान्य करवी जोईए, एम धारीने हुँ तने जे कांई कहुं, ते तारे हितरूपे धारण करवू. हे श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा वत्स! चिंतामणि रत्नना जेवो आ मनुष्य जन्म प्राप्त करीने तुं निश्चिंत रहीश नहिं. ते रत्नमांथी चिंतित पदार्थने शोधी लेजे. घणां पुरुषो अनने मृतिका अने सुवर्ण रूपे वर्णवे छे. तेवा अन्नमांथी शरीर बनेलुं छे तेथी ते शरीर तत्समान मृत्तिका तथा सुवर्ण समान छे, जेओना मृत्तिका रूप शरीर छे, ते मृत्तिका वगेरेमा जाय छे अने जेमना शरीर सुवर्णरूप छे, तेओ सुवर्णपणाने पामे छे. हे कुमार! तुं पूर्ण
कलाधारी थयो छे, तो हवे तारे सुवृतपणुं धारण कर, अने तमनुं ग्रहण निवारवं. कारण के ते तेना कलंकरूप छे. उत्तम पुरुषो गुरुपासेथी सूत्र मेळवी पोताना यौवन वयना कर्मने साधे छे, परंतु स्त्रीरूप पापनां वनने साधता नथी. जेओ तंत्रने प्राप्त करी (शास्त्र-विद्या प्राप्त करी) मान धरीने ते माननो नाश करता नथी, ते पुरुष विषयोमा रहीने अने प्रमादमां पडीने क्षय पामी जाय छे. बुध, गुरु, कवि, वक्र, कलावान् अने शूर एवा पण पुरुष वारुणीना संगथी नीचे जाय छे अने अस्त पामी जाय छे. तो पछी बीजानी शी वात करवी? जे आ लक्ष्मीरूपी रसोई छे, ते अंगने पुष्टि आपनारी मानेली छे, परंतु ते भोगववाथीखावाथी चैतन्यने आपनारी थती नथी. कारण के ते 'सागरमांथी उत्पन्न थयेली छे. उद्यमवाळा पुरुष- दीर्घ एवं शास्त्र शत्रुओने जीती ले छे, परंतु प्रमदाने अने प्रमादने वश थयेला पुरुष- ते शास्त्र तेवू थतुं नथी. क्रोध वगेरे योद्धाओ बहार अथवा रणभूमिमां राखवा जोईए. जो तेओ अंतःपुरमा (हृदयनी अंदर) पेसी गया, तो तेओ विपरीत कार्य करे छे, हे वत्स! तुं गुरु-वडीलोनी आगळ नम्र थईने रहेजे के जेथी तारी गुरुता थशे, कारण के जे स्तब्ध (अक्कड) रहे छे, ते छंदना अक्षरनी जेम आ पृथ्वी उपर लघुताने पामे छे. जे प्राणी पोताने 10जीवन आपनार माणसने नमन करतो नथी, ते सरोवरनी पाळ उपर रहेला वृक्षनी जेम अधोमुख थईने नरकमां पडे छे. तुं हमेशां 1 समुद्र थईने रहेजे. कारण के तुं लक्ष्मीनो जनक उत्पादक छे. बुद्धिमान होय, पण जो अमुद्र-12मुद्रारहित होय तो 1. चंद्ररूप थयो छे. 2. सुवृत्त एटले सारं वर्त्तन चंद्रपक्षे सारी गोळ आकृति. 3. तम
अज्ञान- ग्रहण न करवं चंद्रपक्षे तम-राहुनुं ग्रहण न कर. 4. बुध डाह्यो पक्षे बुधग्रह. गुरु-मोटो पक्षे गुरुग्रह, कवि-कविता करनार पक्षे शुक्र, वक्र, वांको पक्षे मंगळग्रह, कलावान्-कलावाळो पक्षे चंद्र, शूर शूरवीर पक्षे सूर्य. 5. वारुणी-मदिरा पक्षे पश्चिम दिशा. 6. नीच ग्रहो थाय छे. 7. सागर एटले विष सहित पक्षे समुद्र. 8. गुरुता-मोटाई. 9. छंदनो अक्षर स्तब्ध एटले पदने अंते होय तो गुरु छतां लघु गणाय छे. 10. सरोवरनी
पाळना वृक्षने जीवन आपनार जल छे जीवननो अर्थ जळ अने जीवित थाय छे. 11. समुद्र-मुद्रा छाप चारित्र-सद्वर्तन सहित पक्षे सागर. 12. मुद्रा छाप-रहित होय ते नाणुं
चालतुं नथी पक्षे सद्वर्तन रहित. 160
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ते लक्ष्मीने उत्पन्न करनार थतो नथी. (हुं 'उत्तमपुरुष छं) एवं तुं समजीश नहीं, तेम विश्वास राखीश नहीं. परंतु परनी अपेक्षाए तुं 2 मध्यम पुरुष थईने रहेजे. जो तारा वचनने आगळ करवानी तारी इच्छा होय, तो तुं मनोहर भाषण कहेवामां आगळ पडजे, पण बीजानी आगळ तो करीश नहीं. 'हुं आ विश्वमां 'सलक्षण छु' एवो गर्व छोडी देजे. कारण के एक अरिष्ट पदवडे ते बधुं निष्फळ थई जाय छे. जो तारी इच्छा 'आत्मने पद एटले तारे पोताने माटे पद धारण करवानी होय तो तुं 'सुकर्मभावनो आश्रय करजे. नहीं तो कर्त्ता परस्मैपद- एटले बीजाने माटे पद आपनार थई पडशे ज्यारे ' उपसर्ग आवे छे, त्यारे प्रायेः करीने धातुओ स्वार्थसाधक थता नथी. तेथी ए धातुओवडे प्रथम सत्क्रिया साधी लेजे. ।। २८१ ।।
लक्षणमां जे ह्रस्व होय, तेने 'दीर्घसूत्रथी ह्रस्वपणुं थाय छे. ते जोईने तेनी प्राप्तिने माटे तुं धर्म कर्ममां तेवो थईश नहिं, जे 10 स्वरहीन होय ते सर्वत्र आगळ जवाथी पृष्टे-पाछळ घोषणा करनारा ओमां क्यारेक शून्यताने प्राप्त थाय छे. तुं "वृद्धिवडे महत्ताने प्राप्त करी हृदयमां मान लावीश नहीं. कारण कें व्याकरण वगेरेमां वृद्धिथी गुणनी हानि थाय छे. 12 अंत्य वर्ण पण जो पदस्थ होय तो ते गुरुताने पामे छे अने ते अंत्य वगरनो होय तो अर्थवान् छतां पण ते नाम मात्र कहेवाय छे, पाश्चात्यने 13 गुरुता आपवाने तुं वर्ण संयोगने सेवजे. स्वरवाळो 1. व्याकरणमां पहेलो पुरुष पक्षे उत्तम प्रकारनो पुरुष. 2. व्याकरणमां बीजो पुरुष ते मध्यम पुरुष पक्षे साधारण पुरुष. 3. सलक्षण - व्याकरण भणेलो अथवा सारालक्षणवाळो. 4. अरिष्टपदना योगथी लक्षणो निष्फळ थई जाय छे. व्याकरणमां पण अरिष्टपद अशुद्धपद आववाथी वाक्य निष्फळ थई जाय छे. 5. आत्मनेपद व्याकरणपक्षे आत्मनेपद धातु . 6. सुकर्मभाव - सारा कर्म करवापणुं पक्षे व्याकरणमां कर्म विभक्ति. 7. व्याकरण पक्षे परस्मैपदी धातु. 8. धातुनी आगळ उपसर्ग लागवाथी तेना अर्थमां फेरफार थई जाय छे. पक्षे उपसर्ग अंतराय पीडा आववाथी शरीरनी धातुओ बगडे छे. तेथी ते वडे सत्क्रिया करी लेवी पक्षे सत्क्रिया क्रियापदनो अर्थ 9 लक्षणमां व्याकरणमां जे ह्रस्व स्वर होय तेने दीर्घसूत्र दीर्घ करवाना सूत्रथी ह्रस्वपणुं थाय छे, पक्षे तुं धर्म कार्यना लक्षणमां दीर्घसूत्र काम करवानी मंदता लईने ह्रस्व-टुको थई जईश नहि. 10. स्वरहीन - स्वर वगरनो वर्ण शून्य थई जाय छे. पक्षे तुं कंठना स्वर वगरनो थई शून्य थईश नहिं. 11. व्याकरणमां जे स्वरनी वृद्धि थाय छे. तेनो गुण थतो नथी पक्षे तुं वृद्धि - आबादीथी मान करीश नहीं, नहीं तो तारा गुणनी हानि थई जशे 12. पिंगळमां एवो नियम छे के जे पदने अंते अक्षर आव्यो होय ते ह्रस्व छतां गुरु गणाय छे. पक्षे तुं अंत्य छेल्लो रहीश पण जो पदस्थ पदवीमां हशे तो तारुं गौरव थशे. 13. पिंगळमां जोडाअक्षरनी पासेनो ह्रस्व अक्षर पण गुरु थाय छे. ते प्रमाणे उपदेश पक्षे पाश्चात्य - पाछळ रहेलाने गुरुता आपवाने माटे वर्ण संयोग - उंच वर्णनो समागम करजे.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा पण एकलो जेम गायनने गौरव आपी शकतो नथी, तेम ते बीजाने गौरव आपी शकतो नथी. हे वत्स, तुं तारा 'लक्षणमा समान पुरुषोनी साथे तारी एकता जोईने परनो लोप करी एक दीर्घता करीश नहीं, जो तारी इच्छा कार्यनी सिद्धि करवानी होय, तो कृत्य प्रत्यय धारण करजे, कारण के कृत अने तद्धित वडे ते सिद्धि थवानी छे, बीजाथी थवानी नथी. हे वत्स! नाम 15रक्षाने माटे सारी रीते विभक्तिनो त्याग करीश नहिं. ए विभक्तिथी सुशब्दोने पदनी प्राप्ति थाय छे. "हं सालंकार छं. एथी मारे 'छंदवृत्त वगेरे सद्गुणोनी शी जरूर छे?" एम तारे चिंतवq नहिं. कारण के सर्व प्रकारनुं साहित्य सर्वगुणवाळु कहेलुं छे. हे वत्स! तुं तारा हाथमा म्यान वगरनुं पण खड्ग राखजे. कारण ते बीजाने लक्ष्मी अर्पवामां आकार रहित नहिं थाय. जे पोताना वैरीओने भय आपे छे. पोताना स्वामीने गुण करे छे अने विग्रह-युद्धमां पृष्ट आपे छे, तेने धर्ममा जोडजे. "बधो पक्ष मारो छे, तेथी हुं सदा पक्षवाळो छु." एम हर्ष करीश नहिं कारण के ते जो विपक्ष-अवळो पक्ष.थई जाय तो ते विपरीत बनी जाय छे. "हुं क्षमाभृत् छु, तेथी मने विषयोथी शं थवानुं छे?" एवं चितवन करीश नहि केमके, स्त्रीओने नेत्रोना विषयमां लेवाथी ते विषयोने रस्तो मळे छे. एम कहेवाय छे. हे वत्स! 1तुं क्षमाभृत्ना पदने योग्य छे. तेथी तुं गुरुगुणो संपादन करजे, तारे शक्ति वडे 11अंग उपायथी पोतानी जाते सदा 12गण रक्षा करवी. सद्बुद्धिवाळा पुरुषे जो बीजो माणस पोतानो गुण ग्रहण करे तो हर्ष करवो नहि, तेम दोष ग्रहण करे 1. व्याकरणमां समान स्वरनी साथे परस्पर एक दीर्घता थाय छे, त्यारे एकनो लोप थाय छे.
उपदेश पक्षे तुं तारी समान एवा लोकोनी साथे एकता करजे. पण कोईनो लोप-अभाव करीश नहिं. 2. कृत्य प्रत्यय-व्याकरणना कृदंत प्रत्यय पक्षे कृत्य-कार्य उपर प्रत्ययविश्वास राखजे. 3. कृत-कृदंत, पक्षे करेल. 4. तद्धित प्रत्ययपक्षे तेनुं हित. 5. व्याकरणमां विभक्ति लगाइवार्थी नामनी रक्षा थाय छे अने विभक्तिथी शब्दोनी पदसंज्ञा पडे
छे. पक्षे साधु पुरुषोनी विभक्ति-विशेषभक्ति छोडवी नहिं. तेनाथी सारा शब्दोवाळामधुरभाषी एवा पुरुषोने सारा पदनी प्राप्ति थाय छे. 6. सालंकार-अलंकारे सहित पक्षे अर्थालंकार सहित. 7. छंदवृत्त-सारा छंदवृत्त, पक्षे छंद-स्वभाव-वृत्त-सदाचरण वगेरे गुणो. 8. गतकोश म्यान वगरनुं पक्षे धनकोशे रहित. 9. क्षमाभृत् एटले राजा पक्षे मुनि मुनि क्षमाधारी छे. पण जो विषयो तरफ प्रवर्ते तो ते भ्रष्ट थई जाय छे. राजा पण जो विषय तरफ प्रवर्ते तो ते राज्यभ्रष्ट थई जाय छे. 10. क्षमाभृत् राजा अने मुनि-राजा पक्षे गुरुगुणो एटले मोटा गुणा अने मुनि पक्षे गुरुना गुणो. 11. अंग-शरीर अथवा राज्यना अंग-मुनि पक्षे आगम. 12. राजा पक्षे गण रक्षा एटले समूहनी रक्षा मुनि पक्षे पोताना साधु समुदाय संघाडानी रक्षा.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा तो द्वेष करवो नहि, कारण के 'स्थिति अने प्रस्थितिनी इच्छा राखवी. हुं सदूप छं एवं मान कदिपण करीश नहि. अक्षरोने पण स्वरूपथी एवी रीते फेरफार थई जाय छे. तुं जो एवो थई जईश, तो पछी तने तत्त्वोनो निर्णय थई शकशे नहि. बाळको पण प्राणायामनी कलानी प्रतीक्षा करता नथी. हे भद्र! गुरुए कहेला प्रत्यक्ष अने परोक्ष ए बे प्रमाणोने तुं सदा मान्य करजे, जेथी तुं समदर्शी थई शकीश. तुं श्लोकना कर्तानी जेम वर्णविभक्ति, यतिसद्गुण, गुरु अने लघुने यथायोग्य पदमां स्थापन करजे. ।।३००।।
हे वत्स! तारे सदा न्यायमार्गे रहे, उत्तम मनवाळा पात्रने दान आपq, देवतत्त्वनें हर्षथी ध्यान करवू, श्री गुरुना वर्णन, गान करवू; सदा व्यसननो त्याग करवो, सिद्धांतना सद्वचननुं पान करवं, गुरुए कहेला तत्त्वने मानवं, जे जीतवा योग्य होय तेने जीती लेवू, परोपकार करवो, पापमां हर्ष न करवो, पोताना अभिग्रह- स्मरण करवू, धर्मने उंचे प्रकारे धारण करवो. शास्त्रनुं चिंतवन सदा करवू, मित्रना हृदयने छेतरवू नहि, समय प्रमाणे सूर्बु, कुटुंबने जमाडवू, उतावळथी कार्य करवू नहि, गुरुना वचनने हृदयमा धारण करवं, कुकर्मने अटकाव, पोताना सुकृत्यथी दुःख समुद्रने तरी जवू, दुष्टनो संग छोडवो. कुकर्म करनारनो तिरस्कार करवो, गुण समूह मेळववो, मननो मेल धोई नाखवो, लीधेनुं व्रत पाळ, शरीर- बहु लालन करवू नहि, स्वीकारेला नियमथी चलित थq नहि, चरणवडे निर्माल्यनो स्पर्श करवो नहिं, धर्मर्नु कार्य छोडवू नहि, स्वजननी साथे भोजन करवू, मनने क्रोधमा जोडवू नहिं अने पोताना आत्मानुं हित करवं. हे डाह्या वत्स! कामी, सर्प, वेश्या, दुर्जन, शत्रु, रोग, जल अने अग्निनो विश्वास करीश नहि. ब्राह्मण स्त्री, गाय, बाल, वृद्ध, तपस्वी शरणे आवेल रोगी अने शस्त्र वगरना माणसने मारीश नहि. तुं कदी काननो काचो थईश नहि, तेम विश्वासघाती पण थईश नहि, गुणो मेळववामां संतुष्ट न थजे अने केवळ बहिर्मुख थईश नहि. सत्संगवाळो पोतानी स्त्रीमां 1. स्थिति प्रस्थिति एटले रहेQ अने चाल्या जवं. 2. अक्षरोमां पण व्याकरणना नियमोथी
फेरफार थया करे छे. 3. बाळकोने प्राणायामनी कला स्वाभाविक रीते होय छे. 4. श्लोकनो कर्त्ता छंदना नियम प्रमाणे वर्ण-अक्षर, विभक्ति, यतिविराम वगेरे गुणोने अने गुरु तथा लघु स्वरोने तेना योग्य पदमां गोठवे छे तेम अहिं एवो बोध आपे छे के, तुं वर्णब्राह्मणादिना विभक्ति-विभाग प्रमाणे तेमनी माथे वर्त्तजे. यति सद्गुण-एटले मुनिओना सद्गुणो जाणी तेमज गुरु मोटा अने लव-नानाने तेमने लायक एवा पदमां राखजे(यथोचित साचवजे).
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा कामदेव जेवो, निर्विकारी अंग धरनारो पुरुष पुण्यवान् होय छे अने एवो पुरुष सारी प्रतिष्ठाने पामे छे. जे सुकृत-पुण्य रूपी वृक्षना क्यारा रूप न्याय मार्गमां हंस जेवो अने शत्रु वर्गमां विकराळ होय, ते राजा वर्णन करवा योग्य थाय छे. जे कृतज्ञ, सर्वज्ञ प्रभुने पूजनार, विशेष जाणनार, विवेकी, पोतानी प्रतिज्ञाने पाळनार अने विद्वान होय, ते पुरुष धन्य गणाय छे. जे राजा राजनीति रूप लताना अंकुर रूप, मित्र जनने आनंद आपनार, ज्ञानने फोरवनार, पाप करवामां मंद रहेनार अने आडंबर रहित होय, ते सारो राजा गणाय छे. औदार्य, धैर्य, गांभीर्य, शौर्य अने वीर्य वगेरे जे बीजा गुणो आ जगतमां विख्यात छे, ते गुणोथी तुं विख्यात थजे."।।३१६।।
आ प्रमाणे मंत्रीना वचननी युक्तिथी (चातुरीथी-कुशळताथी) कुमार चंद्रोदर प्रसन्न थई गयो; पछी ते सारी वयमां रहीने पोतानी युवावस्थानो समय पसार करवा लाग्यो.
____एक वखते राजा सभामां बेठो हतो अने राजकुमार चंद्रोदर तेनी पासे रह्यो हतो, ते वखते प्रतिहारे आवी राजाने आ प्रमाणे का, "स्वामी, श्रीकांपिल्यपुरना राजा रत्नसेननो एक दूत आव्यो छे, तेने बहार रोक्यो छे. तेने माटे शी आज्ञा छे? ते कहो" राजाए कडं, "तेने अंदर प्रवेश कराव." पछी तेणे ते दूतने अंदर प्रवेश कराव्यो, एटले दूते राजानी पासे आवी प्रणाम कर्यो. राजाए पूछा, "हे दूत, राजा रत्नसेनना कुशळ समाचार आप. पोताना हितने ईच्छनारा ते राजाए तने शा माटे अहिं मोकल्यो छे?" दूत बोल्यो, "तमारा मित्र रत्नसेनने कुशळ छे. जे कारणे तेमणे मने मोकल्यो छे?" ते सांभळो. "राजा रत्नसेनने रत्नसुंदरी नामे राणी छे, तेणीनी कुक्षिथी कलावती नामे पुत्री उत्पन्न थई छे. एक वखते ते कलावती सभानी अंदर राजानी पासे आवी हती. तेणीने योग्य जोईने राजाए मंत्रीओने पूछ्युं के, "आ कुमारीने माटे योग्य वर कोण छे?" मंत्री वगेरे विचार करी जेवामां कांईक कहेता हता. तेवामां ते कुमारी बोली के, "मारे विवाह कराववो नथी." ते सांभळी राजा चिंतातुर बनी गयो, तेणे कडं, "हे वत्से, तुं विवाह कराववामां विमुख केम थाय छे? मने तेनुं कारण सत्वर कहे; जो तुं तारा अहिंना-पियरना स्वजन वर्गने छोडी देवा ईच्छती न हो, तो हुँ तने गमता एवा पुरुषने अहिं ज मेळवी आपुं. पुरुष अविवाहित रही शके छे पण स्त्री अविवाहित रही शकती नथी, तेथी हे धन्ये, तुं स्वजनोने राजी करनारा विवाहने कबूल कर." राजाए आ प्रमाणे का, तो पण ते गुणवंती पुत्री कलावती कांईपण बोली
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा नहि. एक वखते तेणीनी माता रत्नसुंदरीए तेणीने एकांते पूछ्युं, त्यारे तेणीए पोताना हृदयमा रहेला विचारने अमृत जेवी वाणीथी जणाव्यो, "माता, विवाहनी वात कोने न गमे? पण मारे माटे जे कारण छे, ते सांभळ. जे पुरुष राधावेध करी सके तेवो होय अने एक ज पत्नीमां प्रेमी रहे तेवो होय, तेवा पुरुषने हुं वर करवाने ईच्छं छं. ते सिवाय कदि इंद्र होय तो पण हुं तेने वर करवा ईच्छती नथी. एवी जातना विद्वान् अने प्रौढ पुरुष उपर मारुं मन रुचे छे, परंतु तेवो कोई पुरुष हुँ जोती नथी, एटलुं हुं संतोष धरीने बेठी छं." पुत्री कलावतीनो आ विचार राणी रत्नसुंदरीए राजाने जणाव्यो, ते उपरथी राजा रत्नसेन जरा खुशी थयो अने चेतनवाळो बन्यो. पछी तेणे पोताना चित्तमां लांबो काळ विचार कर्यो के, "सद्बुद्धिवाळो चंद्रोदर कुमार राधावेधनी कृतिने सारी रीते जाणे छे, तेना जेवो कोई सदाचारवाळो कुमार आ पृथ्वी उपर बीजो नथी, तथापि स्वयंवरनी अंदर बीजा प्रवीण राजकुमारो बेठा होय, ते वखते राधावेधने साधवाथी कुमार चंद्रोदरनी प्रतिष्ठा थाओ." आवं विचारी राजाए सुविचारी लोकोनी साथे एकमत थई राजकुमारोने बोलाववाने सर्व स्थळे घणा दूतो मोकल्या छे. अने मने भेट साथे आपनी पासे मित्रबुद्धिथी मोकल्यो छे. तेथी कामदेवने जीतनारा एवा आपना कुमारने जलदी त्यां मोकलो." दूतना आ वचन सांभळी राजा हर्षनो उत्कर्ष पामी गयो अने तरत ज तेणे लाखो दक्षपुरुषोमां शिरोमणिरूप एवा चंद्रोदर कुमारने आज्ञा करी. राधावेध करी पाणिग्रहण करवामां उत्कंठावाळो पण पिताना वचनथी जरा शरमायेलो चंद्रोदर कुमार सैन्य साथे चाली नीकल्यो. अनुक्रमे उत्तम द्रव्यना समूहथी भारे एवी पृथ्वीने ओळंगतो निर्विघ्ने कांपिल्यपर नगरनी समीपे आवी पहोंच्यो. राजा रत्नसेन पोते दूर सुधी सामो आवी अने आदरथी मान आपी कुमारने वरनी योग्यता प्रमाणे मान आप्युं. इंद्रना जेवा पराक्रमवाळा बीजापण राजपुत्रो दूतोना बोलाववाथी मदसहित (हर्ष प्रकर्ष पूर्वक) त्यां आवी पहोंच्या. राजाए कलशोनी श्रेणीथी युक्त अने तोरणमालाए सुशोभित एवो एक मंडप आदरथी कराव्यो. ते मंडपनी अंदर उदार, शृंगार करेला बळवाळा अने मनोहर कोटी गमे कुमारो आवी शुभ आसन उपर बेठा, तेमनी वच्चे रहेलो अनेक कलावाळो चंद्रोदर कुमार चंद्रनी जेम शोभवा लाग्यो अने बीजा कुमारो तेनी फरता ताराओनी जेम प्रकाशवा लाग्या, ते मंडपमा एक यंत्र शणगारीने राखवामां आव्युं हतुं. तेमां बे चक्रो बनावेला हता, ते चक्रोने आठ आरा हता अने ते स्तंभनी साथे बांध्या हता, ते वाम दक्षिण फरता हता, तेनी उपर एक श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा भमती काष्ठनी पूतळी राखवामां आवी हती. तेनी नीचे एक तेल- घणुं मोर्ट पात्र राखवामां आव्युं हतुं. ते पछी राजानी आज्ञाथी प्रतिहार ते कुमारोनी आगळ पोतानो हाथ उंचो करी आ प्रमाणे स्फुट अक्षरोए बोल्यो; "आ आकाशमार्गे बे चक्रो छे, तेनी अंदर बाण फेंकीने नीचे तेलनी अंदर प्रतिबिंबित थयेली पुतळी तरफ दृष्टि राखी ते पुतळीना डाबा नेत्रनी कीकीने जे भेदशे, ते अमारी कन्याने वरशे." ।।३५०।। प्रतिहारनां आ वचनो सांभळी 'हुँ पहेलो थाउं, हुं पहेलो थाउं' एम करतां केटलाएक कुमारो बेठा थया अने केटलाएक आसन उपर रहीने ते राधावेधना यंत्रने जोवा लाग्या. तेओमांथी एक राजपुत्र उतावळे पगले सत्वर यंत्रनी पासे आव्यो अने तेणे आकाशमार्गे बाण छोड्यु. ते गुण वगरनुं 'मार्गण लक्षने चुकेलं जोई, स्थूल लक्षवाळो ते कुमार विलक्ष (भोंठो) थयो, पण स्पृहावांछारहित बनी गयो. ते ठीक न थयुं, बीजो कोई कुमार बाण छोडती वखते हर्षवाळो थयो पण ज्यारे ते बाण आकाशमां चाल्युं गयुं, ते जोईने ते पछी खेदातुर बनी गयो. कोई कुमार चक्रने वींधायेखें सांभळी ऊर्ध्वमुख थयो, परंतु ते बाण आकाश तरफ गयेलुं जाणीने ते पछी नम्रमुख-नीचं मोढुं करीने उभी रह्यो. शिलीमुख बीजे स्थळे गया पछी सज्जाति, सुमन उज्ज्वळ हतुं, छतां कृष्णपणाने प्राप्त थयु; ए लोकोने आश्चर्यकारी लाग्यु. कोई कुमार पोता- बाण जरा चक्रने लाग्युं पण ते शून्य थयेलुं जोई पोते क्षात्रधर्मने आश्रय करनारा हता, छतां शून्य बनी गयो. कोई पोताना स्थान उपरथी उठ्यो ज नहि, कोईए कह्यु के, मारामां चातुर्य नथी' अने कोईए कह्यु के 'तो फक्त जोवाने आव्यो छु. कांई लोभथी आव्यो नथी, आवी रीते केटलाएक कुमारो खेद पामीने बेसी गया, ते वखते राजा रत्नसेने आवीने उत्तम एवा चंद्रोदर कुमारने का, "हे सत् पुरुषोने ईष्ट अने सारी प्रतिष्ठावाळा कुमार! आ बधा राजकुमारो पोताना गुरुनी साक्षीए बधी कलाओ शीख्या छे, परंतु ते कलाओनो तेमने अभ्यास नथी, तेथी ते कलाओ नकामी थई गई छे. माटे तमे उभा थाओ अने नेत्रोने आनंद आपनारी आ राधावेधनी कला दर्शावो." आ वचनो सांभळी स्थिर तेजवाळो, असाधारण 1. मार्गण एटले बाण अने याचक. बाण गुण-पणच वगरनुं लक्ष-निशान चूके छे अने गुण
वगरनो याचक पण लक्ष चूके छे. ते जोईने स्थूळ लक्षवाळो पुरुष विलक्ष-विलखो बनी जाय छे. 2. शिलमुख एटले बाण अने भमरो सजाति एटले सारी जातनो पुरुष पक्षे सारी जाति-जुई सुमन एटले सारं मन अने पक्षे पुष्य. जेम सारी जातिना पुष्य उपरथी भमरो बीजे स्थळे चाल्यो जाय, त्यारे पुष्य कृष्ण-काळु-निस्तेज बनी जाय छे, तेम ते बाण व्यर्थ थवार्थी ते सारी जातिना कुमार- मन लोभ पामी गयुं.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
कांतियुक्त अने श्रमने जीतनारो कुमार चंद्रोदर उत्सुक थयो नहि अने अभिमानी बन्यो नर्हि. ते तरत ज आसन उपरथी उभो थयो, धनुष्य अने भाथुं लई यंत्रनी पासे आणी ते चंद्रोदर कुमारे निर्भय थईने हर्षथी राधावेध करी दीधो. ते पछी राजा रत्नसेने मनोहर हृदयवाळा ते कुमारने सर्व परिवार साथे उत्सवपूर्वक नगरनी अंदर प्रवेश कराव्यो. राजानुं सर्व कुटुंब विवाह विधिनी इच्छाथी हर्षाकुळ बनी गयुं, परंतु राजकन्यानुं मुख श्यामवर्णी थई गयुं, ते जोई राजाए कह्युं. "वत्से, आज पूर्णीमाने ठेकाणे अमावस्या केम देखाय छे? सर्व कष्टोने नाश करनारी तारी प्रतिज्ञा जेणे पूरी करी छे, ते आ धन्य चंद्रोदर कुमार छे, ते कुमार सौजन्य गुणनुं पात्र, परोपकारी, कलावान्, सुरूपी, कुलीन, धनवान्, पराक्रमी, नीतिमान्, सौम्य, विद्यावान् अने विनयी छे. हे शुभे, तेवो प्रिय मळतां तारा मुख उपर श्यामता केम रहे? जो तारा हृदयमां सपत्नी थवानी शंका रहेती होय, तो ते विषे चिंता करवी नहीं, कारण के आ कुमार पुण्यवान् छे" राजाना आ वचनो सांभळी ते कन्या बोली, मने सपत्नीनी चिंता थती नथी, परंतु मारी प्रतिज्ञा पूर्ण थई नहीं, तेनी चिंता थाय छे. मारा हृदयमां जे राधावेधनी प्रतिज्ञा छे, राधावेध जुदो ज छे." ते सांभळी तेणीनी माता रत्नमंजरी विस्मय पामीने बोली - "पुत्री! ते बुद्धिथी कल्पेलो ते राधावेध केवो छे?" तेणी बोली-"ते राधावेध अंतरंग (अंतरनो) अने सिद्धिने आपवामां कारणरूप छे. सांभळो, राधावेधमां सत्कर्म अने दुष्कर्म रूपी बे चक्रो छे. ते विवेकीपुरुषे जाणवा योग्य छे. आ सृष्टि अने संहारने भजनार ते दुनीयारूपी तेमां आरा छे. जे सृष्टिरूपी आरा छे. ते सुखे वेदनीय छे अने जे संहार रूपी आरा छे, ते दुःखे वेदनीय छे. तेमां संदेहना समूहरूप यंत्रनी साथै सूक्ष्म लक्ष्यरूपे परतत्त्व रहेलुं छे. जे पुरुष विचार रूपी बाण वडे ते लक्ष्यने भेदी शके ते मारो प्रिय छे. बहारना राधावेधने करनारा तो घणा पुरुषो छे, तेमनी साथे मारो प्रयोजन नथी. ' आ प्रमाणे महेलना गोख उपर रहेल ते बंने माता अने पुत्री वार्ता करतां हतां, तेवामां ते राजमार्गे चाल्यो जतो कोई पुरुष आ प्रमाणे श्लोक बोल्यो"राजपुत्रीनो शुद्ध अने प्रिय एवो आ राधावेध चंद्रोदर कुमार जाणे छे. बीजो कोई जाणतो नथी. ए निश्चय छे." आ उपश्रुति जेवो श्लोक सांभळी राणी रत्नमंजरी अने राजपुत्री हर्षथी ते गोखनी जाळीमांथी दृष्टि नांखी. त्यां मार्गमां बंदीजनना वृंद साथे चंद्रोदर कुमारने जतो जोयो. रूप वगेरेथी पोतानी पुत्रीनी साथे तेनी सर्व ते समानता जोई राणी खुशी थई अने एक दासीने आज्ञा करी के, "जा ते क्यां श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा जाय छे, ते जोई आव." राणीना कहेवाथी ते दासी त्यां गई अने तेना वच्चे रहेला एक पुरुषने तेणीए पूछ्युं के, "आ राजकुमार हमणां आ रस्ते क्यां जाय छे?" ते पुरुष बोल्यो "मंत्रीश्वरोमां शिरोमणिरूप एवा मतिसार मंत्रीना कहेवाथी आ कुमार नगरना चैत्यमां देव पूजा करवा माटे जाय छे," शुद्ध, उत्तम पुण्य उपर रुचिवाळा, पवित्र, कलाकलापथी युक्त अने श्वेत अश्व उपर विराजमान एवा चंद्रोदर कुमारने जोई महेलना अग्रभाग उपर रहेली राजकुमारी हर्षभरित थई तेनुं पाणीग्रहण करवाने तत्पर थई, ते घटित छे. ते पछी जेणीनु हृदय हर्षना भारथी व्याप्त थयेलुं छे. एवी राणी राजानी पासे आवी अने तेणीए वृत्तांत राजाने जणाव्यो. ते सांभळी राजाए चिंतव्यु के, "चंद्रोदर कुमारे जे पुत्रीनी प्रतिज्ञा पूर्ण करी, ते भावतुं हतुं अने वैद्ये बताव्यु, दूधमां साकर पडी अने खीचडीमां घी ढोळाया जेवं मारे बन्यु. हवे हुं ते बंनेनो कुलनी रीत प्रमाणे विवाह करूं." ते पछी विचारने जाणनारा राजाए समग्र स्वजनोने बोलावी वृद्धोना वचनथी विवाहना विधिनो आरंभ कर्यो. वाद्य वागवा लाग्या, नटो गीत तथा नृत्य करवा लाग्या अने परम हर्षथी बंदीजनो (बिरूदावळी) बोलवा लाग्या. ते समये लज्जाथी अवनत-नीचे जोई रहेला अने स्वजनोए सन्मुख करेला वर कन्यानी तारामैत्री थई, एटलामां मोटो कोलाहल थई रह्यो. ते कोलाहल सांभळी राजा अने कुमार चंद्रोदर पण चारे तरफ दिशाओमां दृष्टि फेरववा लाग्या. तेवामां एक पुरुषे आवी आ प्रमाणे का, "हे स्वामिन्, सात स्थानोमांथी झरता मद जलना झराओथी युक्त, पर्वतना खंड जेवा मोटा कुंभस्थळथी विराजमान, शिलाओना जेवा अंग तथा पडखावाळी अने कृष्ण वर्णनो एक विंध्याचळना जेवो गजेंद्र अहीं आव्यो छे. आ चार दांतवाळो अने जेनी आसपास भमराओ गुंजारव करी रह्या छे एवो जे गजेंद्र लोकोने भय उपजावे छे. ते गंध हस्तीना भयथी आपणी गजशालामां रहेला हस्तीओ आलान-स्थंभ उखेडीने पलायन करी गया छे. जाणे सात अश्ववाळा सूर्यने आठमो अश्व अर्पण करतो होय तेम प्रगट 'दान-मदथी विराजमान एवी सुंढवाळो थई आपणा अश्वने उछाळे छे, हे स्वामी, जेम घुवड पक्षी सूर्यने जोई शके नहीं, तेम कोईपण ते हाथीने जोवाने समर्थ थतो नथी. आप हवे शुं जोईने बेसी रह्या छो? ते गजेंद्र हमणां ज अहीं आवशे.' ते पुरुष आ प्रमाणे कहेतो हतो, तेवामां तो ते गजेंद्र त्यां आवी पहोंच्यो तथा कुमार चंद्रोदर अने 1. जे पोताने हाथे भारे-उत्तम दान आपे ते अश्वनुं (पण) दान आपी शके छ हस्ती पक्षे दान एटले मद.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा राजाए (सेवके) जेवो कहेल, तेथी पण वधारे (मदोन्मत्त थयेल) तेने जोयो. राजाना सैन्यने दळी नाखतो, लोकोमां कलह उपजावतो अने पेदळनी पंक्तिने तोडी पाडतो ते गजेंद्रने जोई राजाए आ प्रमाणे का, "प्रजाओना समूहने पीडनारा आ अद्भुत गजेंद्रने पोताना भुजबळथी वश करी शके तेवो कोई क्षत्रियथी थयेलो पुरुष छे?" ।।४००।। आ प्रमाणे कही राजा जे जे क्षत्रियना मुख उपर पोताना नेत्रो नाखतो, ते ते क्षत्रियनर धैर्य छोडीने नीचुं मुख करवा लाग्या. ते काळे घणा लोकोने मारता ते उन्मत्त गजेंद्रने जोई राजाए निवार्या छतां कुमार चंद्रोदर परम क्षात्र तेजने धारण करतो आदरथी राजकन्यानी साथे बांधेली छेडाछेडी छोडी दई ते गजेंद्रनी सामे आव्यो. तेणे प्रथम कानमां उग्र लागे तेवो सिंहनाद को. ते सांभळी ते गजेंद्र पण क्षणवार भयाकुल बनी उभो रह्यो, पछी ज्यारे तेणे पोतानी आगळ मनुष्यने जोयो एटले क्रोधथी उद्धत थई पोताना वेगथी पृथ्वीने कंपावतो ते गजेंद्र कुमार तरफ दोडी आव्यो. गजेंद्र डाबी तरफ वेगथी वळी शकतो नथी, एम जाणी ते बलवान् कुमार ते भाग तरफ आश्रय करी उभो रह्यो. स्वबळथी अने छळथी दुष्ट जीती शकाय छे, ते प्रमाणे चंद्रोदर कुमारे ते भयंकर गजेंद्रने ताबे करी लीधो गजारोहणनी कलामां चतुर एवो कुमार ते गजेंद्र उपर चडी गयो. ते जोई समग्र राजवर्ग हर्षित थई गयो. तेवामां ते गजेंद्र पक्षीनी जेम ते कुमारने लई आकाशमा उड्यो. ते जोई लोकोना नेत्रो विस्मय पामी गयां. मदना जलने चोतरफ वरसावतो गर्जनाना समूहथी गाजतो अने कुमारनी कांतिरूप विद्युत्ने धारण करतो ते गजेंद्र मेघनी जेम आकाशमां चालवा लाग्यो. ज्यारे कुमार चौटानु उल्लंघन करी गयो, एटले कलावती चिंतववा लागी के, "हुं मंद भाग्यवाळी आवा पतिने योग्य थई नहीं. मारा हाथमांथी चिंतामणि चाल्यो गयो,
आंगणामांथी कल्पवृक्ष गयं, घरमांथी कामकुंभ गयो अने मुखमां आवेलो कोळीओ पडी गयो. हुं अनंत पापवाळी क्यां? अने पुण्यथी उत्पन्न थयेल ते प्रभु क्या? मारो तेवा पुरुषनी साथे संगम क्यांथी थाय? कारण के पुण्य अने पापने वैर छे. पर्वे विद्वानोए मने 'मातंगगति रूपे वर्णवेली हती, तेथी मारा हाथना स्पर्शथी मारा पति मातंगनी संगतिवाळा बनी गया. पद्मिनी खरेखर पंकजा-कादवमांथी थयेली छे, ते इन-सूर्यना करगोचर थवाथी शुभ दिवसे प्रकाशने पामे छे परंतु 1. मातंगगति एटले गजगामिनी-हाथीना जेवी चालवाळी पक्षे मातंग-चंडाळनी गतिवाळी, तेथी मारा करम्पर्शथी आ कुमार मातंग संगति-चंडाळनी संगतिवाळा थया. पक्षे मातंगहाथीनी संगतिवाळा थया. 2. करगोचर-हम्तगोचर पक्षे किरणगोचर. इन-सूर्य पक्षे इनस्वामी. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा ते 'दोषोदयमां प्रकाशने पामती नथी, पूर्वे ललाटना अक्षर (विधि) योगथी हुँ वर्णिनी वर्णवाळी कहेवाती हती, ते अत्यारे तेना विपरीतपणाथी अवर्णनीयपणाने प्राप्त थई छ. विवेकी पुरुषे मत्स्यनी पासेथी तेनुं एक स्वाभाविक शिक्षण लेवा योग्य छे के जे मत्सय पोतानुं पाणी गया पछी जीवितनो त्याग करी दे छे. अर्थात् माणसे पोतानुं पाणी उतरी गया पछी जीवq न जोईए. 'आ स्त्री अकर्मी छे' एम मने लोको कहेशे. कारण के ए स्वीना हस्तना संयोगथी तेणीनो पति घणो दुःखी थई गयो. वळी विरहरूपी अग्नि नारकीनां उष्ण प्रदेशना जेवो कहेलो छे. तेनी आगळ चितानो अग्नि तो साक्षात् शीतळ अने सुखकारी छे. माटे ते मारा अवर्णवादने अने विरहना दुःखने छेदवानुं हुं चिताग्निमां प्रवेश करीश, हुं लघुताने सहन करीश नहि." आ प्रमाणे हृदयमां चिंतवी तेणीए पोतानी माता पासे ते विचार जणाव्यो. माताए कह्यु. जेवी तारी बुद्धि थई छे तेवी ज मारी बुद्धि छे. ते विचार राजाए अने राजवर्गे पण अंगीकार कर्यो. ते जोई नगरना सर्व लोकोए पण ते प्रमाणे कबूल कयु. लोकमां कहेवत छे के, "आ विश्वमा सर्व विद्वानोनी एज बुद्धि थाय छे," ते कहेवत आ नगरमां सत्य थई. पछी लोकोए तरत ज पोतपोतानी चिता करवा माटे ठेकाणे-ठेकाणे पृथ्वीना अखंड खंडो खडंगना आकर्षणथी जदा-जुदा कर्या. शत्रु अने मित्र सहित सर्व जनसमूहे सुवर्णना मूल्यवाळा उत्तम काष्टोथी त्यां चिताओ खडकी. पछी बधा लोको घासना पुलामां अग्निने नाखी मुखना पवनथी आदरपूर्वक तेने सळगाववा लाग्या, परंतु ते शोकातुर एवा सर्वेना अग्निमांथी ज्वाला प्रगटी नहिं तेथी राजा वगेरे सर्वे 'आनुं शं कारण हशे' एम विचारमां पडी गया, तेवामां राजकुमारी कलावतीए दिशाओमां पोतानी दृष्टि नांखी, तेवामां कायोत्सर्गे रहेला एक शांत मुनि तेणीना जोवामां आव्या. तरत ज तेणीए चिंतव्यु के "आ मुनिना प्रभावथी ज अग्नि सळगतो नहीं होय. माटे ए मुनिने नमस्कार करी हुं मारा जन्मने सफळ करूं." आ प्रमाणे चिंतवी राजपुत्री राजा वगेरे लोकोनी साथे त्यां गई अने मुनिने नमन करी अवसरने योग्य एवं वचन बोली ।।४३०॥ "हे दयानिधे, तमे तमारा तपथी आ बळता अग्निनो रोध शा माटे कर्यो छे? हाल दुःखी थयेला आ सर्व 1. दोषोदय-दोषनो उदय पक्षे दोषा-रात्रिनो उदय. कहेवानो आशय एवो छ के, पद्मिनी(लक्ष्मी) पंकजा-(पापरूप) कादवमांथी पेदा थयेली छे, पण ते धर्मरूप सूर्यना किरणना संगी शुभ दिवसे प्रकाश पामे छे, पण दोषोदयमां-पापरूप रात्रिना उदयमां प्रकाशने पामती नी. 2. अर्थात् अमे पण तारी साथे बळवा तैयार छीए.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा जनने शुं तमे जाणता नथी?" ते उत्तम मुनि कायोत्सर्ग पारीने आ प्रमाणे बोल्यो-"भद्रे, तुं तत्त्वने जाणनारी छे छतां मुग्धाना जेवी केम देखाय छे? जीवने भृगुपात, अग्नि, क्षुधा, तृषा कंठपाश अने जल वगेरेथी मृत्यु पामवं, जैनागममा निषिध छे. एथी उत्पन्न थयेला मरणोवडे पुण्यवान् मनुष्यने पण लोकोमां अवगतिना जेवी व्यंतरोनी गति प्राप्त थाय छे. विद्वानोए सर्व ठेकाणे आत्महत्यानो निषेध करेलो छे. हमणां जे आ करवामां आवे छे, ते सद्बुद्धिथी रहित छे. तेथी तुं कदाग्रह छोडी दे अने जिनधर्मनुं पालन कर. जेथी तने आ लोक तथा परलोकमां अद्भुत सुख प्राप्त थाय." मुनिनां आवां वचन सांभळी राजकन्या बोली, "मुनि, मने दीक्षा आपो के जेथी मने आ संसारमा उभय लोकमांथी भ्रष्टता प्राप्त थाय नहि." मुनिए कडं, "भद्रे, तारे हजु भोग फलवाळु सुखदायक कर्म भोगवq वधारे बाकी छे, तेथी तारे दीक्षा लेवी उचित नथी. तुं गृहस्थावासमां ज रहीने शासननी प्रभाविका थईश. जे पुरुषने माटे ते आ आरंभ करेलो छे, ते पुरुष चोथे दिवसे आवशे." आ समये राजाए पूछ्युं, "भगवन्, ते चंद्रोदर कुमारने कोण लई गयेल छे अने ते शी रीते आवशे?" मुनि बोल्यां"वैताढ्य पर्वत उपर मल्लिका नामे एक नगरी छे. तेमां उत्तम विद्याओमां कुशळ एवो रत्नागंद नामे राजा छे. ते राजाने लीलावती नामे राणी छे. तेणीना उदरमांथी उत्पन्न थयेली तेने रूक्मिणी नामे एक कन्या छे. गईकाले ते राजकन्याने योग्य वयनी जोई राजा रत्नांगदे पोताना सभासदोने कह्यु के, "आ कन्याने योग्य एवो कोई वर छे के नहीं? ते कहो." त्यारे तेओए जणाव्युं के, "हाल कांपिल्य नगरमां श्रीराम राजानो चंद्रोदर नामनो कुमार छे. ते आ कन्याथी चढीयातो छे. तेमनां आवां वचन सांभळी ते रत्नांगद राजाए पोतानी पुत्रीना विवाहने माटे तारा जमाईने गजेंद्रना रूपवाळा एक विद्याधरनी पासे हरण कराव्यो छे. हृदयमां आनंद पामता एवा ते विद्याधर राजाए ते चंद्रोदर कुमारने विवाहने अर्थे आमंत्रण कयु. ते वखते स्वभावथी संतुष्ट रहेनारो अने कामदेवना जेवो सुंदर एवो ते कुमार मुनिनी जेम सार अने उदार वचन बोल्यो, "स्त्रीना योगथी जे पाणिपीडनपाणिग्रहण थाय छे, ते पुरुषोने प्राणीपीडन-प्राणीने पीडा करवारूप थाय छे, 1. भृगुपात-भैरवजंप-शिखर उपरथी पडवू. 2. गृहस्थ पुरुष एकलो एक ज कन्या साथे जोडाई (लग्न करी) शुक्लपक्षना बीजना चंद्रमानी पेरे वृद्धि पामतो जाय छे परंतु एक कन्यानो संयोग छतां एटले जोडेलुं छतां लोभवशे जो पुरुष बीजी कन्या साथे लग्न करे, तो ते कृष्णपक्षना चंद्रनी जेम दिन दिन क्षीण थतो जाय छे.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
तेथी हुं ते पाणिग्रहण करीश नहि, गृहस्थ पुरुषथी एक स्त्री विना कदि पण गृहकार्य करी शकाय नहीं. कारण के गृहिणी एज घर कहेवाय छे. ईश्वर पण एक पत्नीव्रत लईने महाव्रती कहेवायो छे, ते ज्यारे बीजी स्त्रीमां आसक्त थयो एटले ते महान कवायो चतुर अने विवेकने जाणनारी एवी पुरुषने जो एक ज स्त्री होय तो पछी मनोहर एवी बीजी स्त्रीनी शी जरूर छे? ज्यारे 2 पुरुष अद्वितीयएकलो होय, त्यारे ते चंद्रनी जेम वृद्धि पामे छे अने जो ते सद्वितीय थाय छे, त्यारे ते अधिक क्षय पामे छे. बे स्त्रीओ, मार्गमां लीधेलुं खेतर, विरोध, शत्रुता करवी, नारा मित्रो करवा अने अजीर्णमां भोजन करवुं ए पांच दोष पोताना ज करेला होय छे. ।। ४५२।। जे पुरुष बे स्त्री वाळो होय, ते कुट-खोटुं भाषण करवाने लईने साक्षी गणातो नथी, तो पछी राजकुलमां तेवुं पाणिग्रहणनुं काम शा माटे करवुं?" पछी विद्याधर अंजलि जोडी विनयथी बोल्यो - "हे राजकुमार ! महाशय पुरुषो बीजानी प्रार्थनानो भंग करता नथी. मारी पुत्री 'कुमुदिनी जेम तमारा सुंदर करनुं ग्रहण करीने अत्यंत हर्षवाळी थशे. तेथी सत्वर तमे आ कन्यानुं पाणिग्रहण सारी रीते करो. जेथी पछी स्वच्छ ( रूडा) आशयवाळी आ कन्यानुं कोई अनेरी स्त्री नाम न दे - पराभव न करे.
आवां विविध वाक्योथी आग्रह करी ते विद्याधरे ते कुमारने विवाहित कर्यो छे. ते हवे अहिं स्त्री सहित आवशे. अनर्थदंडमांथी रक्षा करवाने माटे ज में आ अग्निने अटकाव्यो छे. हे राजन्, तेथी शोक छोडीने दयामय धर्मनुं पालन कर." आ प्रमाणे कही ते जंगम तीर्थरूप मुनि आकाश मार्गे चाल्या गया. पछी राजा वगेरे सर्व मंत्रीसहित लोको त्यां ज रह्या हता. "अमो राजकुमार चंद्रोदरने लईने ज नगरमां जईशुं, ते सिवाय नहीं जईए." एम निश्चय करी कार्य समूहने छोडी दई तेओ त्यां ज पडाव नाखीने रह्या.
ज्यारे चोथो दिवस आव्यो, त्यारे पण कुमार आकाशमांथी आव्यो नहीं एटले ते लोको शोकातुर थई परस्पर आ प्रमाणे कहेवा लाग्या - "अरे! भाईओ, ते मायावी मुनिए आपणने सर्वेने छेतर्या छे, माटे फरीवार चिताओ करो के जेथी दुःख जोवामां आवे नहिं." तेओनो पुनः तेवो उद्यम जोई राजकुमारीए ते लोकोने कह्युं के, "कल्पांत काले पण ते मुनिनुं सर्व वचन फरे - फारफेर थाय नहीं.' 1. ईश्वर एटले शंकर ते महानट कहेवाय छे. 2. एक स्त्रीनो योग-संयोग-संबंध छतां अन्य स्त्री साथे जे संबंध करवो. 3. कुमुदिनी - पोयणी चंद्रना कर-किरणने ग्रहण करी हर्षवाळी-थाय ज. कुमार पण चंद्रोदर .
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा आवी रीते धीरज आपेला ते लोको राजकुमारीना वचन उपर दृढ थईने रह्या अने प्रधान वगेरे तो रात्रे पण सावधान थईने जागवा लाग्या. ज्यारे आशा रहित निशा थई तेवामां आकाशमां कोई बे पुरुषोनो मोटो अवाज आ प्रमाणे सांभळवामां आव्यो तेओमांथी एक ज बोल्यो "अरे! आ मारी ईच्छित कन्याने परणी तुं क्यां जाय छे? हुं तारी पासेथी तेणीने बलात्कारे लईश पृथ्वी वीर पुरुषोने भोग्य छे." त्यारे बीजो बोल्यो, "हुं तेणीने परण्यो छु तेने खेंची लेवाने तुं केम ईच्छे छे? तुं सत्वर मारी पासे आव एटले तारुं मस्तक छेदी ना." आ सांभळी ते लोकोना चित्त संभ्राते थई गया, आकाशमां दृष्टि फेरववा लाग्या अने कानने दुस्सह लागे तेवा तेमना खडगोना खटकारा आकाशमां सांभळवा लाग्या ते सांभळी लोको बोलवा लाग्या के, "आ पुरुषोमां आपणा कुमार हशो नहीं अने जो ते होय तो तेनो जय थाओ के जेथी सर्व प्राणीओने सुख थाय." आ प्रमाणे सर्व लोक कहेता हतां तेवामां किरणोना समूहथी दिशाओने प्रकाशमान करतो कोई प्राण रहित पुरुष आकाशमांथी पड्यो "हे नाथ, चंचळ जीवितनो त्याग करी तमे देवांगनाने वर्या हशो परंतु तमारा विना हुं उग्र दुःखने शी रीते सहन करी शकीश?" आ प्रमाणे आकाशमां विलाप करती कोई स्त्री रुदन सांभळी बधा लोको शोकाकुल बनी गया पछी राजाए दीपक मंगावी ते पडेला पुरुषने मृत्यु पामेलो जोयो ते कुमार चंद्रोदरने ओळखी तेणे रुदन करवा मांड्यु, राजकुमारी पण कुमारने मृत्यु पामेलो जाणी घणी शोकातुर बनी गई अने तेणी सेवकोनी पासे चिता प्रवेशनी सामग्री करावा लागी. राजा राणी अने सर्व लोको पण ते कर्म करवा लाग्या पछी राजकुमारी कुमारने चितामां आरोपण करी स्नान करी, आराधनानो विधिकरी अने पंच नमस्कारनु स्मरण करी जेवामां झंपापात करवा । जाय छे, तेवामां कुमारे आकाशमाथी आवी पोतानी प्रियाने का साहस कर नहीं स्थिर था, कारण के स्थिरतावाळामां लक्ष्मीनो संभव छे.' पछी सर्व लोकोनी साथे राजकुमारीए उंचुं जोयुं त्यां उत्तम पराक्रमवाळा कुमारने घणा हर्षथी जोयो अने कुमार विमानमांथी तरत उतरी भूमिचारी थयो. राजा तेने जोई सपरिवार हर्षित वदन बनी गयो. राजकुमार राजाने नमी सारा स्थान उपर बेठो पछी राजाए नजरे जोयेलो आकाशना युद्ध विषे सारी रीते पूछ्युं एटले कुमार बोल्यो, "कोई दुष्ट देवीए करेलुं ते छळ हशे." आ प्रमाणे तेओ भाषण करता हता तेवामां पेखें मडईं आकाशमा उडीने चाली गयुं ते समये सर्व लोकोने अने कुमारने पुर्नजन्म प्राप्त थयो, तेज वखते मोटो उत्सव थयो अने सर्व लोकोनो नगरमां सुखरूप श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
प्रवेश थयो; तेमां परणीने आवेला राजकुमारनो तो विशेष सुखरूप प्रवेश थयो, राजाए हर्षथी विवाहना करता पण अधिक उत्सव करी राजकुमारने लक्ष्मीथी युक्त एवं एक उत्तम मंदिर आप्यु. राजकुमारने त्यां पोताना घरना करता अधिक सुख हतुं छतां पण तेने चेन पडतुं न हतुं कारण के वासःश्वसुरगेहे यनशोभायै महात्मनां ।।४८५।। महान् पुरुषोने ससराने घेर वसवू ए शोभा माटे थतुं नथी.
___एक वखते मातापिताना चरण कमळमां भ्रमरूप एवा कुमारे हर्षथी पोताना वतन तरफ चालवाने माटे राजानी आज्ञा मागी त्यारे कार्य जाणनारा राजाए तेने वधू सहित जवा माटे आज्ञा आपी अने तेज समये हर्षथी हाथी, घोडा वगेरे कुमारने अर्पण कयाँ; पोतानी पुत्रीने वस्त्राभरणथी सन्मान करी राजाए आ प्रमाणे का, "वत्से तारे कदिपण जिन भगवाननुं ध्यान छोडवू नहि, दान पूर्वक भोजन करवं, अभक्ष्य एवा अनंतकाय वगेरेनो त्याग करवो, न्यायथी मेळवेलुं घणुं द्रव्य सात क्षेत्रोमां वापर. रुचे तेटलु वखतसर भोजन करवू, स्वाभाविक रीते उदयना कारणरूप एवो आर्यजननो संसर्ग राखवो. ब्रह्मचर्यरूपी राजाना रक्षण माटे किल्लो बनाववा नठारी स्त्रीओनो संग करवो नहिं. सदा समकित धारण करवं, कुकर्म वर्जी देवं, क्रोधने निष्फळ करवो अने सपत्नीजन (शोकय) उपर मत्सर करवो नहिं." आ प्रमाणे राजानी विविध शिक्षा सांभळी राजपुत्री बोली. "तात, आपे कहेल सर्व निर्दोष शिक्षण में सांभन्युं, परंतु प्राये करीने अबळाने बुद्धि होती नथी, तेमां वळी बालाना हृदयमां तो ते विशेषपणे होती नथी, माटे यथार्थ नामवाळा धर्मरुचि नामे जे आपणा मंत्री छे, तेमने मारी साथे मोकलो के जे मने सदा धर्मनो उपदेश करे." आ सांभळी राजाए विचायु के, "पुत्री- आ वचन घणुं सुंदर छे. परंतु मारे राजकुमारने ते कहेवू जोईए." आ प्रमाणे विचारी राजाए कुमारने कडं, "राजकुमार, आ मारो मंत्री धर्मरुचि सदा ब्रह्मचारी अने धर्मनो उपदेशक छे, तेथी तमारी आज्ञाथी हुं तेने मारी पुत्रीनी साथे मोकलुं छं." कुमारे तेनो स्वीकार कर्यो, एटले ते मंत्री कुमारनी साथे चाली नीकल्यो. राजकुमार सैन्यनी साथे केटलेक दिवसे पोताना नगरमां आवी पहोंच्यो. तेना पिताए दुष्टकर्मथी रहित एवा पुत्रने बे स्त्रीओ साथे आवेलो जाणी अति हर्षथी तेनो प्रवेशोत्सव को. पछी राजाराम कुमार चंद्रोदरनी उपर राज्यनो मोटो बोजो मूकी पोते गुरुनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. पछी गुणोथी राजी थयेलो ते चंद्रोदर राजा राज्यनी चिंता मंत्रीनी उपर आरोपण करी पोते पवित्र राजपुत्री उपर अनुरागी थईने रह्यो.।।५०० ।। पेली विद्याधरनी पुत्रीने तो दृष्टिथी पण जोतो नथी, आ खबर जाणी राजपुत्री
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा कलावतीए पोताना हृदयमां चिंतव्यु के, "ए विद्याधरनी पुत्री मारी बहेन छे. वळी ते कुलीन अने परणीने आवेली छे, तेथी न्यायमार्गे जोतां ते तेणीनु अपमान थाय ते युक्त नथी. राजाने अंतःपुरमां जेटली राणीओ होय, तेओने वारा प्रमाणे मान आपq जोईए. तेमनुं उल्लंघन करवू न जोईए, एवी मर्यादा छे. आ प्रमाणे थाय तो ज न्याय कहेवाय नहीं तो अन्याय कहेवाय. हुं राजाने समजावू, के जेथी मारा स्वामी राजाने पाप न लागे." आ प्रमाणे चितवी एक समये अवसरनो लाग आव्यो, एटले कलावतीए कोमळ वाणीथी कडं, सामी, रामराजानी उपमा सर्व स्थळे कीर्तन थाय छे. तमे ते रामराजाना स्थान उपर बेठा छो अने शुभ कर्मथी उत्तम छो, तथापि अज्ञानथी मूढ एवी मारे आपने कांईक पूछवानुं छे." राजा बोल्यो-"भद्रे, जे इच्छा होय ते खुशीथी पूछो. ते बोली, "प्रभो राजाने घणी राणीओ होय छे, तो तेओनी गति वारा प्रमाणे होय के राजानी स्वेच्छा प्रमाणे होय? राजाए कां, "तेनी गति वारा प्रमाणे थाय, एवो सहज न्याय कहेलो छे. वळी विशेषपणाने लईने तेना अनेक प्रकार पण छे. ते आवक अने खर्चनो विचार करी विवेकी पुरुषे पोतानी मेळे ज जाणी लेवा." पछी राजपुत्री बोली"प्रभो, आ मारी बहेन जे विद्याधरनी पुत्री छे, ते कुलीन अने गुणवती छे. तेणीने वारो केम मळतो नथी?" ते सांभळी राजा बोल्यो-"भद्रे तुं भद्रिक हृदयनी छे. अने गुणरहित जीवोमां पण गुण जोनारी छे. जेम बरफ बहारथी शीतल छे, पण ते अंदर दाह करनारुं छे, तेवी रीतनी ए विद्याधरनी पुत्री छे. माटे हुं तेणीने भजतो नथी, हे विचक्षण वनिता, तारे पण तेणीनो संग दासीनी जेम बहारथी करवो, पण कदि अंतरथी करवो नहि. जे माणस उत्तम जनोनी साथे संगति, पंडितोनी साथे वार्तालाप अने निर्लोभी-उदार जनोनी साथे मैत्री करे, ते दुःखी थतो नथी. जे अवंश-सारा वंश वगरनो होय पण जो ते 'गुणनी प्राप्ति करे छे, तो ते पृथ्वी उपर धर्मपणाने प्राप्त थाय छे अने सुवंश-सारा वंशवाळो होय पण जो ते गुण रहित रहे छे, तो ते दंडपणाने पामे छे. शेरीनुं जल गंगा संगथी महादेवने पण मान्य थाय छे अने दूध मदिराना पात्रना संसर्गथी लोकोमा मान्य थतुं नथी." राजा चंद्रोदरना आवां वचन सांभळी राणी कलावती बोली "स्वामी गमे तेवी ते पण तमारा आश्रयथी मारे मान्य छे. काणी दृष्टि आंख पण बीजी निर्मळ आंखना आश्रयथी माननीय थाय छे. चंद्र दोषाकर छे 1. गुण एटले सारा गुण अने पक्षे दोरी. 2. सारा वांसने जो गुण-दोरी बांधवामां आवे तो ते धनुष्यना धर्मवाळो थाय छे. नहीं तो दंड-लाकडीरूपे वपराय छे. 3. दोषाकर-दोषोनी खाणरूप पक्षे दोषा-रात्रिने कर करनार.. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा अने वांका शरीरवाळो, परंतु शंकरे पोताना मस्तक उपर धर्यो छे. तेथी जे पोतानुं आश्रित थयुं होय, तेना दोषनो विचार न करवो जोईए. माटे हे देव, हवे प्रसन्न थईने तेणीने वारो आपो." राजा चंद्रोदर बोल्या-"अरे, तुं दुष्ट सर्पने पोतानुं दूध पाय छे." पछी तेणीना वचनथी राजा चंद्रोदरे रुचि सिवाय ते विद्याधर पुत्रीने वारो आप्यो, कारण के पवित्र-आचरणवडे ते कलावती राणीनुं वचन उल्लंघन करी शकाय तेम न हतुं. ज्यारे विद्याधर पुत्री रुक्मिणीनो वारो हतो, ते रात्रे कलावती श्रीजिन भगवाननुं ध्यान धरी बेठी अने जरापण क्रोध लाव्या वगर देवलोकथी पण अधिक सुख मानवा लागी!
राणी कलावती मंत्री धर्मरुचिनी साथे संतोषना पोषणवाळी थई, धर्म संबंधी विचार अहर्निश करती हती. विधिने जाणनारी ते राणी सम्यक्त्व मूळ अने गुणोना स्थानरूप उत्तम श्रावक धर्मना कर्मने विशेष आदरथी करती हती. बाल्यावस्थाथी ब्रह्मचारी, छट्ठ तथा अट्ठम तप करवामां तत्पर, दश प्रकारना धर्ममां रुचिवाळो अने सदा शुद्ध एवो धर्मरुचि मंत्री राजपुत्री कलावती, पोतानी पुत्रीनी जेम बहु मान करतो हतो. कारण के सम्यक्त्वधारी मनुष्योने पोताना साधर्मिबंधु बंधुथी पण अधिक थाय छे. एवी रीते चेतनावाळी कलावती हमेशां पोताना चित्तमां एवं चिंतवती के, "जो मारा पति रूक्मिणी उपर प्रेम करे, तो वधारे सारु, कारण के पछी हं सदा अहर्निश समाहित (शांत) थईने धर्म ज आचरूं." आ प्रमाणे चिंतवती कलावती पोताना समय निर्गमन करती हती.
विद्याधरनी पुत्री रुक्मिणी के जे मुखे मीठी अने अंतरमां द्वेषी हती, तेणी पोताना हृदयमां एवं चिंतवती के, "संपत्तिना शरणरूप एवं मारी सपत्नी कलावतीनुं मरण क्यारे थशे." आq चितवन करती रुक्मिणी रति सुखमां पण दुःख पामती नठारा विचारोथी विकराळ एवो काल निर्गमन करती हती.
___ एक वखते राजा चंद्रोदर तेणीने वारे तेणीना घरमां आव्यो हतो. ते वखते गोखनी जाळीथी धर्मरुचि मंत्रीने देखी ते आ प्रमाणे हर्षथी बोल्यो-"आ समग्र विश्वमा घणा माणसो धर्मध्यान रूपी धनवाळा हशे परंतु मंत्री धर्मरुचिना जेवो तो कोई जोवामां आवतो नथी." आ वचन सांभळी रुक्मिणीए पोतानी सखीओना मुख सामे जोई नीचे मुखे हास्य कयु, तरत ज तेथी राजाने शंका उत्पन्न थई. ते सर्व स्त्रीओना मुखनो विकार जोई उत्तम बुद्धिवाळा राजाए कह्यु के, "शुं ते धर्मरुचिना धर्मनो लोप तमारा जोवामां आव्यो छे?" तेओमांथी एक तरत बोली, "ए धर्मरुचिनी धर्ममां केवी सारी रुचि छे, ते जोई छे." तमारा पटराणी 176
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा कलावतीने मुखे (मुखथी तो) पुत्री कहे छे, पण मंत्री चित्त जुदी ज रीतनुं छे. आ प्रमाणे तेणी कहेती हती, तेवामां रूक्मिणीए ते सखीने भ्रकुटीनो ईसारो करी अटकावी दीधी. स्त्रीओमुं-कपट उत्कट होय छे, राजा बोल्यो, अहो! ते मंत्री उपर आवा दोषनो लेश जे प्रगट करवो, एतो शंकातुर हृदयवाळा माणसोने अमृतमां विषनी शंका पेदा करवा जेतुं छे." तेवामां रोषथी होठने फरकावती बोली-“जे जेमां लीन थयो होय, ते तेमां ज क्षीण" एवी लोकवाणी सत्य छे. जे पुरुष जेमां आसक्त थयो होय ते पुरुष तेमां गुण ज जुवे छे. वाघण पोताना पुत्रने सौम्य अने भद्रिक माने छे. आ मारी सखीए जे का छे, ते तमने तरत ज बताएँ, परंतु तेथी तमारो कलावती उपरनों घणो राग निष्फल थई जाय." राजा बोल्यो, "जो तारुं कहेवू युक्त हशे, तो हुं तेणीने तेनुं फल बतावी आपीश." रुक्मिणी बोली, "तो आजेज सायंकाळे ते बनेनी चेष्टा जोवी." आ प्रमाणे कही ते छल करवामां तत्पर बनी. हवे मुग्ध बुद्धिवाळी राणी कलावती ए संध्या वखते विधिथी श्री अरिहंतनी पूजा करी धर्मरुचि मंत्रीनी पासे पोताना केशनो अंबोडो बंधाव्यो, राणी रुक्मिणीए ते राजाने गोखनी जाळीमांथी बताव्यु. ते जोतां ज राजा क्षणमां क्रोधांध थई गयो. अने तरत ज तेणे खड्ग खेंची राणी कलावतीना चोटलाने अने मंत्री धर्मरुचिना बंने हाथने विचार कर्या वगर छेदी नाख्या. "पछी अरे! राणी तुं सतीपणाना छळथी अने अरे मंत्री, तुं धर्मना छळथी मारा घरने पायमाल करे छे." एम कहेतो कहेतो राजा बहार नीकळी गयो. ते वखते चिंताना संतापथी भरेली कलावती पोताना चित्तमां चिंतववा लागी के, "में पूर्वे करेलुं कठोर कर्म उदयमां आव्युं, क्लेशनी जेम दुःखथी सचिंत करेला आ मारा केश स्वामीए तरत छेदी नाख्या, ते तो बहुं सारं कयु, परंतु मारा निर्मल अने अतुल एवा कुलने आ पतिए जे मिथ्या कलंकित कयु, ते दुःख मने खटके छे. वळी आ क्षमाभृत्-राजा छतां तेणे साधु एवा धर्मरुचिना करनुं जे छेदन कयु, तेथी मारुं चित्त चितानी जेम बळे छे. आ मंत्री धर्मरुचि सदाचारी, गुणधारी, निरंतर निर्विकारी, सुविचारी, पृथ्वीमां साररूप अने मूर्तिमान् धर्मना जेवा छे तेओने जे आ कलंक लाग्युं, ते धर्मने ज कलंक लाग्युं छे. जिनधर्महीलनातोऽनन्तसंसारता नृणां ।।५५१।। मनुष्योने जिनधर्मनी हीलना करवाथी अनंत संसारपणुं प्राप्त थाय छे. जगतमां मनुष्यो अज्ञानथी अंध छे अने दैत्यो दुष्ट हृदयवाळा छे, परंतु जे देवताओ छे, ते ज फक्त विज्ञाता छे. तो हमणां आ जिनशासननो अधिष्ठाता अने पालक कोई देव हशे के नहीं, के जेणे आवीने आ
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कष्टवाळा पुरुषनी रक्षा करी नहीं. विवेकी मनुष्योने सर्व पापोने हरनारा श्री सर्वज्ञ देव तो मुक्तिने माटे सेव्य छे अने बाकीना बधा देवो आ लोकना कार्य माटे मान्य छे. ते देवताओ परम धर्मने धारण करनारा आ मंत्रीने जो सहाय नहीं करे, तो पछी आ पृथ्वी उपर प्रभुनी भक्ति अने तेमनी शक्ति प्रगट नहीं थाय. " आ प्रमाणे धर्मना हितवाळी अने ध्यान रूपी धनवाळी कलावती चिंतवती हती, तेवामां तेणीए पोतानी दृष्टिए अति स्फुरायमान एवं एक तेज जोयुं. ते जोई आ शुं हशे? एम ते नृपकांता संभ्रांत थई गई. पेलो धर्मरुचि मंत्री तो धर्मकर्ममां विशेष सज्ज थई बेठो. ते वखते तरत दिव्यरूपने धारण करनार देवताए प्रत्यक्ष थई कलावतीने कह्युं, "वत्से तुं शा माटे संशय करे छे? श्री जिनशासनना देवताओ मोटा प्रभाववाळा छे अने तेओ प्रगट थयेला जिन भक्तोनी सान्निध्यमां आवे छे. ( सहाय करे छे.) जिन भक्तिमां परायण अने जिन भक्तोना शोक तथा संतापने हरनारी हुं पद्मावती नामे देवी छु, तमारा सान्निध्यमां रहीने शासननी प्रभावना करवा समीप आवी छं. हुं एवो यत्न करीश के जेथी तमारा बनेनुं उत्तम महत्त्व त्रण लोकमां तत्काल जणाई आवशे." आ प्रमाणेनां वचनोथी तेमना हृदयना मळने क्षालन करती अने तेमना दुःखने हरनारी ते दयाथी उज्ज्वळ एवी देवी अंतर्धान (अलोप) थई गई, आ समये दैवयोगे राजा चंद्रोदरने भोग रहित अने प्राणने हरी ले तेवी अकस्मात् पीडा थई आवी. ते काले आयुर्वेदने जाणनारा एवा विविध जातना वैद्यो खात्रीवाळा औषधो वडे तेनी विधिपूर्वक चिकित्सा करवा लाग्या. इंद्रने पण आकर्षवाने समर्थ एवा मंत्र, यंत्र अने तंत्रने जाणनारा चतुर मांत्रिको पण तेनो उपचार करवा लाग्या. निमित्तिआओ पण पगले-पगले पोतानुं निमित्त दर्शावता मंत्रपूर्वक ग्रहशांतिनो प्रयोग सत्य रीते करवा लाग्या तो पण त्यां अहोरात्र बुंबारव थवा लाग्यो. मंत्री वगेरे बधा दुःखी बनी गया अने राजाने विशेष पीडा थवा लागी आ समये सर्व मंत्रीओए एकठा मळी हृदयमां चिंतव्युं के, "वात, कफ अने पित्तने शमावनार औषधोथी उलटी वधारे पीडा थाय छे अने मंत्र वगेरेथी पण शांति थती नथी, तेथी आ कोई साध्य व्याधि नथी, पण देवताए करेली पीडा छे. तो देवताओए करेली पीडा देवताओथी ज शमी जाय छे. घोडाए पकडेली वस्तु घोडाथी ज चलित थई शके छे." आवुं विचारी तेओ बोल्या, "हे सर्व देवताओ तमे सांभळो, जेनाथी आ रोग जाय तेवुं हित कहो." ते वखते पेली शासन देवी पद्मावती ते मंत्रीओनी आगळ आकाशमां अदृश्य रूपे रही उंचे स्वरे बोली, "जे स्त्री मन, वचन अने कायाथी शुद्ध शील धारण करती
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
होय, तेवी प्रशंसनीय स्त्रीना केशना स्नान जलवडे जिनपूजामां तत्पर निष्कपट ब्रह्मचर्य पालनारा पुरुषने हाथे राजाने स्नान करावो तो रोगनी शांति थई जाय " ते सांभळी मंत्रीओए शहेरमा रहेनारा सर्व सती स्त्रीओना वर्गने अने ब्रह्मचर्यवाळा पुरुषोना समूहने तरत बोलाव्यो. पछी तेमणे राजाना शरीर उपर ब्रह्मचारी पुरुषना हा सती स्त्रीना केशना स्नानजळनुं घणीवार सिंचन कराव्युं, पण तेथी उलटी राजाने नारकीना जेवी वेदना थवा मांडी तेथी ते मंत्रीओना हृदयमां क्षणवार विशेष चिंता थई. पछी तेओमां केटुलाएक मंत्रीओ बोली उठ्या के, "आकाशवाणी मिथ्या थई कारण के राजानो दोष हमणां सम्यो नहीं." ते वखते तेमनी आगळ सर्व मंत्रीओमां मोटो जिनदास नामनो मंत्री चतुर वाणीथी बोल्यो के, "आकाशवाणी मिथ्या थती नथी, परंतु महासती स्त्रीओ अने बाल्यवयथी ब्रह्मचर्य पाळनारा तथा जिनपूजा करनारा पुरुषो घणा थोडा छे, तेथी आ रोगनुं उपशमन थतुं नथी." पछी तेणे क्षणवार विचारीने कघुं. "हाथमां चिंतामणि रह्यो छे अने घरने आंगणे कामधेनु छे, ते छतां आपणे बहार शोधवा जनुं, ए केवुं कहेंवाय? आपणां घरमां ज पटराणी कलावती अने मंत्री धर्मरुचि रहेला छे, ते छतां शहरमांथी बीजी सती स्त्री अने ब्रह्मचारी पुरुषने शा माटे लाववा जोईए?" मंत्रीनां आ वचन सांभळी राजा बोली उठ्यो. "तेमनुं तो नाम ज लेशो नहिं. कारण के ते बनेनुं चरित्र एवं सारुं नथी. बहार दृष्टि उपर अमृतने झरतो चंद्र जाण्यो पण ते घरनी अंदर करने उष्ण स्पर्श करनारो प्रदीप्त - अग्नि जेवो जणायो छे." आ वखते विवेकी अने लाखो दक्षपुरुषोना शिरोमणिरूप एवा मंत्री जिनदासे राजानी समीपे आवी निवेदन कयुं. "राजन्, चंद्र अद्यापि अमृतमय छे अने अग्निदाह करनार छे. तेओने विपरीत कहो नही कवीश्वरो जे प्रतीति- खात्री करवी तेने ज्ञानना साररूप कहे छे, तो ते आजे तरत प्राप्त थयेल छे, कारण के आकाशवाणी पण एवीज छे. जो ते राणी कलावती अने मंत्री धर्मरुचि बने साचा हशे, तो तमने रोगनी शांति थई जशे; नहिं तो तेथी विपरीत-अशांति थशे. ते आपणने हमणांज जणाई आवशे." राजा बोल्यो. "में राणीनो केशपाश अने मंत्री धर्मरुचिना बने हाथ छेदी नाख्या छे. तो हवे सत्य-असत्यनी परीक्षा शी रीते थशे?" आ सांभळी मंत्री बोल्यो. "अरे राजा, तमे ए शुं कर्यु? अविचारीपणे जे कराय छे, ते सारं गणातुं नथी. तमारा अंगमां जे आ पीडा थई छे ते एज कर्मथी थई छे. अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते ।। ५९२।। अति उग्र एवा पुण्य तथा पापनुं फळ आ लोकमां ज मळे छे. हवे "पृथ्वी उपर लपसी गयेला पगनुं अवलंबन
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा पृथ्वी ज छे." ए न्याय प्रमाणे तमारो व्याधि ए बंनेथी ज चाल्यो जशे. छेदन करतां बाकी रहेला ते राणीना केशना दुःख हारी शांति-जळथी अने ते मंत्रीना छेदेला एवा पण बंने हाथथी तमारुं श्रेय (सुख शांति) करवा माटे हुं यत्न करीश." आ प्रमाणे कही बेवडो दुःखी थयेलो ते गुणवान् मंत्री राणी कलावतीनी पासे जई अंजलि जोडी बोल्यो. "देवी, पोताना तमोगुणमय दोषने लीधे राजा वेगथी घणी पीडा पाम्या छे. तथापि तमे तमारा गुणथी तेमने साजा करो. अहो! देवी, तमारा शीलनुं माहात्म्य केवु मोटु छे, के जेथी तमारा मस्तक उपर आ नवो केशपाश देखाय छे. मनुष्योने शीलथी अग्नि जल अई जाय छे. सर्प रज्जुना जेवो थाय छे, कालकूट विष अमृतना जेवू थाय छे अने शत्रु मित्र बनी जाय छे. हे प्रभावना गृहरूपदेवी! तमारा शांतिजळना जेवा केशजलथी राजानो रोग हमणां ज दूर थई जाओ." पछी ते मंत्री जल लावी ते वडे केश धोई, ते जल सुवर्णना कलशमां मूकी धर्मरुचि मंत्रीनी पासे आव्यो. ।।६००।। त्यां तेना बंने हाथ अक्षत अने पूर्वना छेदेला हाथ पडेला जोई ते हर्षथी बोल्यो-"अहो! तमारं शील देवोने पण दुर्लभ छे, सारा भावथी उत्पन्न थयेलो तमारो देवपूजानो प्रभाव अद्भुत छे, जेथी सुवर्ण पुरुषनी जेम तमारा छेदायेला बंने हाथ नवा थई गया. सत्पुरुषो उपकार करवामां अने असत्पुरुषो अपकार करवामां तत्पर होय छे. ते सत्पुरुषोना दृष्टांत रूपे चंदन, अगरू, कर्पूर अने शेलडी छे. हे स्वच्छ हृदयवाळा पुरुष, तमे विद्वान् छो, तेथी राजानी पासे आवो अने ते 'दोषाकर छे छतां तेनुं तमोग्रहथी हमणां ज रक्षण करो." आ सांभळी मंत्री धर्मरुचि सत्वर उठीने राजानी पासे आव्यो अने तेणे पोताना हाथथी ते अमृतरूप जलवडे राजाना संतापने छेदी नांख्यो. राजा परिताप रहित थयो छतां पण ते पश्चात्तापमां परायण थई गयो. रुचिथी धर्मरुचिने खमावी ते आ प्रमाणे स्तुति करवा लाग्यो-"हे मंत्रीन्, कांताने मोठे कलंक आपनारा अने पवित्र एवा धर्मरुचि मंत्रीने दोष दृष्टिथी दोष रूपे जोनारा आ चंद्रोदरने ओळखी ल्यो. आ कर्मथी मारुं मुख्य उपमान सत्वर चाल्युं गयुं छे, तेथी सारे दिवसे पण मने सूर्यथी अधिक ताप थयो छे." राजाना आवा वचन सांभळी मंत्री बोल्यो, "राजा, संताप करो नहीं. हे ईश! राजा तो लोकोना कर समूहने छेदे छे पण ते देवताने लईने पाछा 'सुकर 1. दोषाकर-दोषोनी खाणरूप पक्षे दोषा-रात्रिने करनार चंद्र. 2. तमोग्रह एटले अन्नान रूप तम-अंधकारनो ग्रह-ग्रहण पक्षे तमोग्रह एटले राहु. 3. कर समूह एटल राज्य तरफथी लेवाता करनो समूह पक्षे कर समूह-हाथनो समूह. 4. देवताना प्रसादी पाछा सारा करहाथ मळे छे.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा सारा कर थाय छे. तपन-अग्निमांथी उत्पन्न थयेलो संताप मनुष्योनी 'जडताने हरनारो थाय छे." पछी राजा रुक्मिणीनी साथे सती कलावती राणीने घेर गयो अने मोटी भक्तिथी नमी पड्यो सती कलावतीए विनयथी पूजा करी. ते अधिक शरमाईने जाणे पृथ्वीमा प्रवेश करवानी इच्छाथी आदरवडे मार्ग मागतो होय, तेम नीचुं मुख करी उभो रह्यो. राजाने तेवी स्थितिमा रहेलो जोई गौरवर्नु स्थानरूप राणी कलावती बोली, "स्वामी, जेवी रीते तमे आ राणी रुक्मिणीना पति छो, तेवा ज मारा पति छो. तेथी हे प्रभु, तमने प्रणाम करी रहेली एवी मने पण जुवो क्षमाना अधिपति सदा समता धरनारा होय छे." राणी कलावतीना आवा वचन सांभळी राजा बोल्यो. "हुं विचार जाणनारो छु, छतां पण अविचारी काम करवाने लईने हुं मारा सारा नामने नाश करनारो थयो छं. तमारा भद्राकरणथी मारामां पति पणुं घटतुं नथी पण 'नापित पणुं ज घटे छे अने क्षमाधीशपणुं घटतुं नथी." आ वखते मंत्रीए कडं, "जो राजा हृदयथी ज कलावतीनी परीक्षा न करे तो पछी बीजो कोण करे? लक्षणवाळा आ कलावती अने धर्मरुचिए पूर्वे उत्सर्गने छोडीने बलवान् एवो अपवाद विधि सेव्यो छे. तेथी तमोए तेने ते अपवाद आप्यो हतो, शास्त्रमा समान शीलवाळानी साथे संसर्ग करवो ए उत्तम कहेलो छे तेथी योगनी जेम आ तमारो योग महान-आनंदने करनारो थाओ." पछी रुक्मिणी कलावतीना बंने चरणमां पडी नेत्रमा अश्रु लावी सर्वनी समक्ष आ प्रमाणे बोली, "हे देवी पूर्वे में मारे माटे बलात्कारे तमारा पतिर्नु हरण कराव्यु, आकाशमां युद्ध कराव्युं अने तेनुं मडईं बताव्युं हतुं. तमाएं मृत्यु करवा माटे ज ए बधुं करवामां आव्युं हतुं. अने हमणां आ पाप- कारणरूप एवं मिथ्या कलंक आप्यु. आवी रीते तमारी उपर ज में हमेशां विरूप चितवन कयु छे. हे हितकारी महासती दया लावी तेनी मने क्षमा आपशो?" पछी कलावती बोली "बहेन तेमां तारो कोईपण दोष नथी. सर्व प्राणी पोताना कर्मनुं फळ भोगवे छे बीजो तो तेमा मात्र निमित्तरूप थाय. ते वखते पुनः तेवू न बने तेम निःशल्य गुणना 1. जडता एटले जडपणुं पक्षे टाढथी थयेली जडता. 2. क्षमा माफी आपनार स्वामी पक्षे
पृथ्वीना स्वामी. 3. भद्राकरण एटले भद्र-कल्याण, अकरण-न करवू पक्षे भद्राकरण एटल हजामत करी नाखवी. 4. नापितपणुं हजामपणुं राजानो कहेवानो आशय एवो छे
के में तमारं अभद्र-अकल्याण कर्यु छे. तेथी हुं पति नथी पण नापित हजामना जेवो छु. 5. क्षमा एटले माफी अने पक्षे पृथ्वी. 6. जे कलावती स्त्री होय तेनी परीक्षा राजाज़ करे
छे बीजो न करे. 7. लक्षण-व्याकरण पक्षे सारा गुणो व्याकरणमा उत्सर्ग अने अपवाद विधि छ तेमां अपवाद विधि बलवान् छे.
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा कारणरूप एवं मिथ्या दुष्कृत ते सर्वे ए आदरथी आप्यु. एम सर्वे पोतपोतानी स्थिति प्रमाणे गर्व रहित अने उत्तम सुखवाळा थई काल निर्गमन करवा लाग्या.
___एक वखते ज्ञानथी युक्त एवा धर्मघोष नामना आचार्य घणां शिष्योना परिवार साथे उद्यानमां पधार्या. ते खबर उद्यानपाल पासेथी जाणी राजा चंद्रोदर ते उद्यानपालने द्रव्य आपी शिबिकामां बेसी गुरुने वांदवा-पूजवाने माटे आव्यो. त्यां गुरुने विधिथी वंदना करी राजा योग्य स्थाने बेठो, एटले गुरुए भव्यजनना हृदयने हर्ष आपनारी देशना आ प्रमाणे आपी
ज्यां सुधी भावनाने अनुसरी जीवो "द्रव्यने अनुसारे दान, चित्तने अनुसारे शील, बुद्धिने अनुसारे शास्त्र अने कायाने अनुसारे तप आचरे छे, त्यां सुधी तेओ हर्षथी सुखदायक एवा धर्म कर्मने कपट विना करी शके छे. ज्यां बीजी शक्ति न होय तो केवळ भावना ज करवी ते उपर बळदेव ऋषि अने रथकारना दृष्टांतो प्रख्यात छे. जे वचनथी वृत्तिथी अने लोकोनी स्तुतिथी जे भाव (जनो) दर्शावे छे, ते भाव (प्रमाणे) शक्ति छतां न करी शके तो ते भाव साचो कहेवातो नथी. - क्षितिप्रतिष्ठित नगरमां धन नामे एक श्रेष्ठी हतो. तेनी पासे द्रव्यनो समूह हतो, छतां तेनामां दान करवानो गुण न हतो. तेने विवेकी, उदार ज्ञातिमां श्रृंगाररूप, स्वभावे राज्यना आधाररूप एवा धनदत्त वगेरे पुत्रो हता, परंतु तेओ पोताना पिताना भयथी गरीबोने दान अने उत्तम जनोने मान आपी शकता न हता. कारण के पुत्रो चार प्रकारना होय छे. केटलाएक पुत्रो पिताथी चढीयाता होय छे, केटला एक पिताना जेवा होय छे, केटलाएक पिताथी उतरता हलका होय छे अने केटलाएक कुळमां अंगारारूप होय छे. एवी रीते शिष्यो पण चार प्रकारना थाय छे.
एक वखते कोई गुणवान गुरु आवी चड्या, त्यारे ते पुत्रोए विचार्यु के, "आपणे हमणां पिताने गुरुनी पासे मोकलीए; के जेथी गुरुना उपदेशनुं वचन सांभळी तेमनामां द्रव्य खर्चवानी बुद्धि उत्पन्न थाय. कारण के पृथ्वीमां गुरुओर्नु वचन ग्राह्य थाय छे. जल स्वभावे सदा नीचे मार्गे जाय छे, पण जो गुणवाळं पात्र होय तो ते जलने क्यारेक उंचे लई जाय छे." आवं विचारी ते पुत्रो ए पोताना पिताना कोई मित्रने कह्यु के, "तमे अमारा पिताने गुरु पासे लई जाओ के जेथी गुरुनुं वचन सांभळी तेमने प्रतिबोध थाय." पछी ते मित्र धनश्रेष्ठीने 1. पक्षे गुण एटले दोरी. दोरीथी बांधेलुं पात्र कृवा वगेरेमांथी जलने उंचे लावे छ
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लई गुरुनी पासे लई गयो. त्यां धनश्रेष्ठी सूरिने नमस्कार करी बेठो, एटले गुरुए उपदेश आपवा मांड्यो. विद्वानोए गुरुओमां ए उपदेश आपवानो गुण मुख्य कहेलो छे. गुरु बोल्या "दाता कदि पाप कर्ता होय, तो पण तेनी नरक गति थती नथी, कारण के दाननुं फल जे भोग, ते नारकीमां होतुं नथी. शीलने पाळनारो प्राणी तिर्यंच अने नरक गतिमां जतो नथी, तपस्या करनारो मनुष्य राजा थाय छे अथवा देवलोके जाय छे अने भावना भावनारो मनुष्य भव-संसारनो नाश करे छे." गुरुनो एवो उपदेश सांभळी धनश्रेष्ठी पोताने घेर आव्यो. ते शेठे पोताना मनमां विचार कर्यो के, "दान करवामां द्रव्यनो खर्च थाय छे, शील पाळवामां स्त्रीना संगनो त्याग करवो पडे छे अने तप करवामां रसना रागने छोडवो पडे छे, तेथी सुगम अने उत्तम एवी भावना भावू के जेथी मने सुखे मोक्षपदनो समागम थाय." ते पछी रात्रे नीतिमान् पुत्रोए आवी पिताने पूछ्युं के, "तात तमे सुखने आपनारो धर्म केवो सांभन्यो?" धनश्रेष्ठी बोल्यो, "में प्रीतिपूर्वक धर्मनुं पान कयुं छे. हे वत्सो, हवे आपणे शुभ दिवसे साधर्मिकवात्सल्य करवातुं छे, तेमां घणां वात्सल्यथी स्वजनोनो समूह एकठो करवानो छे. ।।६५०।। तो कंबिकाथी चढीयाता अमे मापथी सात मूडा जेटला कोमल खाजा करावो. लोकोना चित्तने मोद आनंद आपनारा अने रुचिने प्रेरनारा मोटा सिंहकेशरीआ लाडु तरत बनावो, बीजा मुख्य अने प्रसिद्ध एवा सातजातना पकवानो हर्षथी करावो. खजूर, खारेक, द्राक्ष, नाळीयेरना श्रेणी बद्ध फळो, रस भरेली केरीओ, केलानो समूह, सुगंधीशाळ, मगनी छडी दाळ. जात जातना शाक, चीकणा दही, विचित्र पान सोपारी अने अनेक जातना रेशमी वस्त्रो साधर्मीजनने माटे लावो. गुरुओ तथा संघनी पूजा माटे भैरवी प्रमुख वस्त्रो अने सुगंधी घी सत्वर मंगावो." आ प्रमाणे पुत्रोने विविध शिक्षा आपी ते श्रेष्ठी निद्रावश थई गयो. पछी बधा पुत्रोए विचायु के, "गुरुनी वाणी केवी गुणकारी छे? आपणा पिताए जे पूर्वे सांभळेलुं अने गुरुना मुखथी अपूर्व सांभळेलुं ते गृहस्थने घटे तेवू आजे पिताना मुखमांथी बहार नीकळी आव्युं छे. हवे आ धर्मना कार्यमां विस्तार माटे विलंब करवो घटित नथी. विलंब थवाथी बाहुबलि पोताना पिता ऋषभदेव प्रभुने वंदना करी शक्यो न हतो. माटे आपणे आवती काले ज हर्षथी संघ, वात्सल्य करीए. जेओ मातापिताना मनोरथ पूरे छे, तेओ ज खरा पुत्रो कहेवाय छे." आq विचार्या पछी तेओए सत्वर स्वजनोने बोलावी सामग्री तैयार कराववा मांडी. ते कोलाहल सांभळी पिता धनश्रेष्ठी जागी उठ्यो तेणे जाण्यु के, मारा घरमां धाड आवी तेथी श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा पोताना ईष्टथी रहित एवो ते श्रेष्ठी अति पोकार करवा लाग्यो. ते सांभळी पुत्रो दोडी आव्या अने पूछवा लाग्या के, "पिताजी, तमने शुं थयु?" शेठे कडं, "हमणां आ घरमां कोलाहल शेनो थाय छे?" सत्पुरुषोए मानेला अने भक्तिवाळा पुत्रो पिताने कहेवा लाग्या के, "अमो संघवात्सल्यना कार्यने माटे आरंभ करीए छोए." धनश्रेष्ठी बोल्यो, अरे पुत्रो कष्ट आपनार द्रव्यनो खर्च करवो नहीं, परंतु फक्त तेनी भावना ज भाववी. मारी दाननी वातो तो तमारे सांभळवी ज नहीं. आ सर्व लोकोने बहार काढी मूको नहीं तो मारुं धन-धान्य वगेरे फोगट चाल्या जशे. अथवा कजीयो करशे." शेठना आवा वचनो सांभळी सर्व स्वजनो तत्काळ पोतपोताने स्थाने चाल्या गया अने ते पुत्रो पण निराश थईने पोताना घरमां सूई गया. जे आ धनश्रेष्ठीए साधर्मिओनी भक्तिरूप कथा करी ते खरी भावना समजवी नहीं; शक्ति छतां जे करवामां आवे ते भावना गणाय ज नहिं. शक्ति होय तो सत्कर्मनु सेवन करवं. अने शक्ति न होय तो शुभ भावनानु चितवन करवू, तेने ज शास्त्रमा भावना कहेली छे. पछी कलावतीए अवसर जाणी गुरुने पूछt के, "हे प्रभु कया कर्मथी मारा केशपाशनो छेद थयो? अने मंत्री धर्मरुचिना हाथ अपराध विना कम कपाया? तेमज अमारी उपर रूक्मिणीनो द्वेष शा माटे थयो?" गुरु बोल्या-हे भद्रे, परिपाकने पामेला पोताना करेला कर्मनुं शुभाशुभ फल सर्व प्राणीओ भोगवे छे. आ संसार समुद्रमां धर्ममां तत्पर रहेनारा छतां पण तमारा बंनेनुं पूर्वे जे कर्म अत्यंत बनेलं ते तमो बंने सांभळो
श्रीपुर नगरमां जितशत्रु नामे राजा हतो, तेने प्रशंसनीय गुणोना पात्र रूप धारिणी नामे राणी हती. ते राणीना स्वरूपथी रंजित थयेलो ते जितशत्रु राजा बीजी कोईपण राजकन्याने भजतो नहीं, ते राणीमां ज पूर्ण प्रेमने वहन करतो हतो. एक वखते कोई निर्दोष एवी दासी तरफ राजाए स्नेह दृष्टिथी जोयुं, ते जोतां ज राणी धारिणीने रोष उत्पन्न थई आव्यो. तेणीने दत्त नामना कोई नाजरनी साथे प्रीति हती तेथी तेनी मारफत एक नापितने बोलाव्यो अने ते दासीनी केशवेणी छेदवाने माटे कहेवामां आव्यु. नापिते कडं के, "राजानी आज्ञा विना हुं छेदी शकीश नहि." त्यारे ते दत्त नाजर बोल्यो, "तुं आ कार्य कर. जो नहीं करे तो हुँ तारा हाथ कापी नाखीश. पछी नापिते ते काम कयु. ते दासी ते वखते घणी ज दुःखी थई गई. त्यां तेणीनो रक्षक कोण होय? पाछळथी आ खबर राजाने पडी, एटले तेणे आवी पोतानी स्त्रीने कर्वा के, "आ शुं कर्यु?" तेणीए कह्यु, "तमे नीचनो संग छोडी दो, कारण के तेवो संग शरम उपजावनारो छे." पछी 184
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा बंनेए रोष छोडीने पेली दासीने अत्यंत खमावी छेवटे तेओ सर्वे धर्म करी अनुक्रमे आयुष्यनो क्षय थतां च्यवीने जे जितशत्रु राजा हतो ते आ चंद्रोदर राजा थयो छे. पेलो जे दत्त नामनो नाजर हतो, ते आ मंत्री धर्मरुचि थयो अने जे धारिणी राणी हती, ते तुं सती कलावती थई. पेली दासी धर्मकर्मने लीधे मृत्यु पामीने रूक्मिणी थई छे, तेथी जीव जे शुभाशुभ करे, बोले अने चिंतवे, ते कर्म तेवी ज रीते बीजे भवे वेदे छे. जे कर्म दुष्ट अभिप्रायथी बांध्यु होय, ते अनंत भव वेदनीय थाय छे अने जे मध्यम अध्यवसायथी बांध्यु होय, ते असंख्यभव वेदनीय थाय छे. जो प्राणी तप न करे, तो ते (पाप कर्म विपाके-फळ वेदतां) जघन्यपणे दशगणुं थाय छे. तपथी, क्षामणाथी अने निंदाथी ते कर्मनो क्षय थई जाय छे. ते कर्म प्रकृति, स्थिति, प्रदेश अने रसना बंधनथी चार प्रकारनुं छे, तेमज कषाय, योग मिथ्यात्व अने अविरतिना प्रत्ययथी चार प्रकार- छे. तेमां कर्मना बंधनुं मुख्य कारण रस ज देखाय छे. ते शुभ तथा अशुभ विभागवडे बे प्रकारनो छे. ते पण स्थूल बुद्धिवाळाओने एक स्थान वगेरे भेदोथी चार प्रकारनो छे. वळी अनंत अध्यवसायो कर्मना बंधनुं कारण छे. ते कर्म पण स्पष्ट अने बद्ध वगेरे 'भेदथी चार प्रकार- थाय छे अने जीवोने मूलप्रकृतिथी ते आठ प्रकारचें . थाय छे. तेना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय कर्म एवां नाम छे. तेमां ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, वेदनीयकर्मनी बे, मोहनीयनी अट्ठावीश, आयु कर्मनी चार, नामकर्मनी एकसो त्रण, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, बंधमां एकसोवीस अने उदय तथा उदीरणामां एकसो बावीस उत्तर प्रकृतिओ कहेवाय छे. सत्तामां सर्वज्ञ भगवाने एकसोने अट्ठावन प्रकृतिओ कहेली छे. आ विषे वधारे कर्मग्रंथमांथी विद्वानोए जाणी लेवं. हे नृपति! तुं ते कर्मबंधना कारणोने हमणां ज छोडी दे के जेथी तने कदिपण नवीन पाप लागशे नहिं अने तारा पूर्वनां घणां पाप कर्मो हशे, ते क्षय पामी जशे. लोकोमां कहेवत छे के, "आवक वगर समुद्र पण सूकाई जाय छे." तुं अंतरना मोह-ममता मूर्छाने छोडी दे. कारण के ते बहिरंग बहारना संगना करतां बळवान् छे. आ लोकमां अंतरंग संगनो त्याग करवाथी बहिरंग संग विघ्न करनार थतो नथी. पर-बीजानी चिंता करनारा बीजा सेंकडो उपरांत माणसो छे; परंतु स्वात्मचिंता करनार कोईक ज होय छे. तेथी तुं परमात्मस्वरूपने जाणनार थई, स्वात्मचिंतानो आदर कर." ।।७००।। 1. निधत्त अने निकाचना. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा आ प्रमाणे सद्बुद्धिवाळो राजा चंद्रोदर तत्त्वरूपी अमृतनुं पान करी, गुरुने आदरथी नमी, पोताना स्थानमा जई, आनंदथी प्रिया वगेरेमाथी प्रेम छोडी दई अने पोताना पुत्रने राज्य आपी पोते ध्यान विधि करी नियमोना आदरथी सुंदर बनी संयमनो आचार पाळवामां लीन थई गयो. शुभ-आसन उपर पोताना अंगने धारण करी प्राणायाममां तत्पर बनी, प्रत्याहारथी निर्विकारी थई धारणाने धारण करवामां समर्थ थयो. पछी शुक्लध्यानने करनारो ए राजा समाधिना भारथी प्रकाशमान थई एकांत प्राप्त करी आ प्रमाणे भावना भाववा लाग्यो
रक्तनेत्रवाळो-कुकडो बाल्यवयमां अरिष्ट-नठारानो संसर्ग करे छे, पछी ज्यारे ते सपक्ष-पांखोवाळो थाय छे, त्यारे ते संग छोडीने वनवास करे छे. आ हंस जड बुद्धिवाळो बनी नित्ये मानसनुं वृथा सेवन करे छे, के जेने लईने ते रजस्ने भजनारो थाय छे, कारण के ते मानसमां पंकज-कमळोनी श्रेणीओ रहेली छे. हे हंस, जड जळना समूहवाळा एवा ते मानसरूप मानसनो तुं त्याग कर के जेनाथी तारा देह-पंकनो नाश थई जशे. ज्यारे मेघ-जाल आवे. त्यारे मानस मलिन थाय छे, तेथी त्यां रहेली वस्तु लोकोथी सारी रीते जाणी शकाती नथी.
घन-मेघमांथी नीकळेला 'तमनी अंदर स्थिति करनारा एवा में पोतानी ज जाते सुदिवसे पण धिक्कार भरेलुं. दुर्दिनपणुं कर्तुं छे. हे आत्मा, लोकोने हास्य करावे तेवा नट समान समग्रवेषोने ग्रहण करवानुं तुं शा माटे राखे छे? हवे तो तुं तारा स्वरूपने भज. आ देह 'काकपक्षने धारण करनारो छे. अने तुं हंस पोते निरंजन छे, तो नीचना संगना दोषथी तुं शा माटे मृत्यु पामे छे? केटलांएक कर्म रजरूप छे अने केटलाएक मळरूप छे. अने तुं नीरज अने निर्मळ रूपवाळो छे. तो अहो, तुं एवा कर्मोनी साथे केम मळी जाय छे? अरे आत्मा, तुं मारी समीप रहेलो छे. छतां में तने ओळख्यो नहीं, पण हवे आपण बनेनी एकता थई छे, तो हवे तुं मारी पासेथी केम जाय छे? ज्यारे रूपमा रूपनो प्रवेश थाय छे अने पोतानामां जीव-आत्मानुं दर्शन थाय छे, त्यारे चित्त अने आत्माना स्वरूपोनो एक शेष थई 1. हंस एटले हंस पक्षी अने पक्षे आत्मा. हंस-आत्मा जडबुद्धिवाळो अने हंस पक्षी जड
जळनी बुद्धिवाळो बनी मानस एटले आत्मापक्षे मन अने हंस पक्षे सरोवर. हंसपक्षी पंकज-कादवमांथी थयेला कमळोनी श्रेणीने लईने सरोवरमा रजस्-रजवाळो थाय छे अने
आत्मा मानस-मनमां कर्मरूप पंक-मळने लईने रजस-रजोगुणवाळो थाय छे. 2. मेघजाळ-वादळानुं जाल चड़ी आवे त्यारे मानस सरोवर मलिन थाय छे अने मे-मारा
अव-पाप कर्मनुं जाल ची आवे त्यारे मन मलिन थई जाय छे. 3. घन-घाटा मेघ-मारा पाप कर्ममाथी नीकळेला. 4. तम एटले अंधकार पक्षे अज्ञान. 5. दुर्दिन एटले वादळार्थी छवायेलो दिवस. (पक्षे दुर्भाग्य). 6. अर्थात् आत्मा-जीवे अनेक योनिमां अवतार लेवा रूप वेषो काढ्या छे. 7. काकपक्षी एटले कागडानी पांख पक्षे केशना कानशीआ. 8. एकशेष-एकरूप.
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जाय छे." आ प्रमाणे भावथी प्रकाशमान एवो चंद्रोदर राजा उज्ज्वळ एवा केवळज्ञानने प्राप्त थयो, ते समये नजीकना देवताओए तेने मुनिवेश अर्पण कर्यो अने केवळज्ञाननो महिमा करवा सुवर्ण- कमळ बनाव्यु, ते कमळ उपर बेसी केवळी चंद्रोदर मुनिए विधिथी देशना आपी. तेथी अनेक मनुष्यो प्रकाशमान थई मार्गानुसारी थई गया. राणी कलावती, मंत्री धर्मरुचि तथा जिनदास अने बीजा धन्य लोकोए हर्षथी तपस्या ग्रहण करी. घणा लोको देशविरतिने अने बीजाओ सम्यक्त्वने प्राप्त थया. पछी ते चंद्रोदर केवळीए विहार करी धर्मनी प्रभावना करी; छेवटे अनशन लई देहनो त्याग करी ते चंद्रोदर केवळी आ पृथ्वी उपर शुद्धात्मा थई सिद्धिने प्राप्त थया.
ब्रह्मगुप्तिसूरि कहे छे, हे राजा पद्मसेन! एवी रीते भावनाने भावनारा अनेक जीवो सुखदायक मोक्षपदने पाम्या छे अने बीजाओ पामशे तेथी तमे भावना भावो. हे राजा एवी रीते श्री धर्मरूपी कल्पवृक्षनी सर्व विश्वने छाया करनारी चोथी भावना रूपी उत्तम महाशाखा में तेमने कही. ए चारे शाखाओमां तुं यथायोग प्रमाणे स्थिति कर के जेथी तारा जन्ममां तने आ संसारनो संताप थाय नहीं." आ (प्रकारनी देशना) सांभळी राजा पद्मसेन गौरवताथी गुरु प्रत्ये बोल्यो. "भगवन्, तमारा वचननुं यथा विधि आराधन करवाथी देवताओ पण नमस्कार करे छे. हवे विचार करवामां चतुर हृदयवाळा आप मने आ संसारमा जे धर्मनी योग्यता होय तेनो उपदेश आपो." गुरु बोल्या, "हे पृथ्वीपति, आ उज्ज्वळ एवा मनुष्यभवमां पापनो नाश करनारी सर्व धर्मोनी योग्यता रहेली छे तेमां तमारा जेवा सद्गुणी सम्यग्दृष्टि पुरुषोनी विशेष योग्यता छे. परंतु अनुक्रमे चडवाथी पडी जवाय नहि, माटे प्रथम तमे श्रावक धर्मनुं पालन करो. पछी विद्वतावाळी दीक्षा ग्रहण करजो." आ प्रमाणे कही ते दयाळु राजाने गुरुए आदरथी सम्यक्त्व सहित हितकारी एवी देशविरति दान आप्युं. राजा पद्मसेन 'सुदर्शनवडे युक्त अने सारा गुणवाळो जिनधर्मने प्राप्त करी घणो खुशी थई गयो ए घटे छे. पछी राजा पोताना स्थानमा गयो अने गुरुए पण विहार कर्यो. ज्ञानवान् राजा पद्मसेने पोताना हृदयमां आ प्रमाणे विचायु
"गायो ज्यारे गोचरमां जाय. त्यारे ते पोतानी रुचि प्रमाणे सरस अने नीरस एवं विविध प्रकारचें योग्य घास घणुं खाय छे, पछी ते पोताना स्थानमां आवी जे पोते पोतानी शक्ति प्रमाणे प्राप्त कयुं होय ते पोताना संवरनी वृद्धिने माटे 1. सुदर्शन-सारं दर्शन-सम्यग्दर्शन पक्षे सुदर्शन चक्र. 2. सुगुण-सारा गुण पक्षे सारी दोरी. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा लांबा वखत सुधी वागोळे अने तेमांथी थयेला गोरसवडे सर्व प्राणीओना संतापने हरे छे. अने तेमना अंग-उपांगने अहो पुष्टि आपे छे. तेवी रीते जे मनुष्य गुरु पासेथी प्राप्त थयेला शास्त्रनी पोतानी बुद्धिना गुणोथी विचारणा करतो नथी ते मनुष्य ते पशुओना करतां पण पशु हलको छे." आq चिंतवी ते सद्बुद्धिवाळा राजाए गुरुए कहेला उपदेशना वचननो हृदयमां विचार करी मुक्तिरूपी वधूना हार जेवा मोटा जिन विहारो-मंदिरो कराव्यां अने पाप कर्मनो नाश करनारी अने लोकोना तापने हरनारी श्री जिन भगवाननी सुवर्णवर्णी उत्तम प्रतिमाओ करावी. ते कृतार्थ राजाए उत्तम सिद्धांतनां पुस्तको अने सारां शास्त्रो उपकार करवाने माटे सारा द्रव्यो-पदार्थोथी लखाव्या. ते क्षमाभृत् एवा राजाए निरपराधी त्रस जीवोने त्रास मटाडवा जे कार्य कयु, तेमां जरापण आश्चर्य पामवानुं नथी. तेणे साधु साध्विओने कल्पता सारां अनेक वस्त्रो, पात्रो अने अन्न पाणी आपवा मांड्यां. तेणे सारी श्रद्धावाळा श्रावको अने श्राविकाओनुं वात्सल्य राज्यभाग छोडी दईने करवा मांड्युं. दीन वगेरे लोकोने कीर्ति करनारुं योग्य दान निदान-नीयाणा वगरनुं कयु. ते स्वदार संतोष व्रतधारक बन्यो, यथाशक्ति (बार प्रकार-) तप आचरवापूर्वक बार प्रकारनी भावना भाववा लाग्यो.
त्रिकाल जिनपूजा करनारा अने शुद्ध सम्यक्त्वने धारण करनारा ते राजाए पहेली दर्शन प्रतिमा एक मासे करी. अणुव्रतने धारण करनारा अने दयारूप धर्मनी साथे जोडायेला ते राजाए सर्व विधिए युक्त थई बे मास वडे बीजी प्रतिमा करी. समय प्रमाणे छ-आवश्यक क्रिया करनारा ते राजाए त्रण मास वडे त्रीजी प्रतिमा वही अने तेथी ते जन्मनी सफळता मानवा लाग्यो. चतुर राजाए चार पर्वना दिवसोमा अहोरात्र सर्व रीते पौषध लई चार मासवडे चोथी प्रतिमा वहन करी. चार प्रकारना उपसर्गो प्राप्त थतां पण अडग रहेनारा ते राजाए समाधिथी पांच मासवडे पांचमी प्रतिमा वहन करी. तेणे ब्रह्मचर्यमां तत्पर रही छ मासवडे छट्ठी प्रतिमा वहन करी. सचित्तनो त्याग करी सात मासवडे तेणे सातमी प्रतिमा वहन करी. पोतानी जाते सर्व आरंभनो त्याग करी तेणे आठमी प्रतिमा आठ मासवडे वहन करी. ते आरंभनो बीजाओ पासे त्याग करावी नव मासवडे तेणे नवमी प्रतिमा वहन करी. उद्देशीने करेलुं प्रासुक भोजन पण छोडी दई तेणे पाछळनी विधि साथे दश मासवडे दशमी प्रतिमा वहन करी. सारा साधुनी जेम सर्व संग छोडी दई साधुना लिंग धारण करी लोच करी फक्त पांच ग्रास आहार लई तेणे अगियारमी प्रतिमा वहन करी. आ प्रमाणे अगियार प्रतिमाओनुं वहन 188
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा करी जेथी राजा पद्मसेननी इच्छा दीक्षा लेवानी थई, तेवामां दैवयोगे गुरु ब्रह्मगुप्तसूरि आवी चड्या. उद्यानपाळ पासेथी ते खबर जाणी राजा हर्षथी गुरु पासे गयो अने विधिथी ते वंदनीय गुरुने वंदना करी तेणे आ प्रमाणे विज्ञप्ति करी-।।७५४।।
"हे क्षमापति, सुखना खोटा आभास रूप एवा गृहावास उपर मने निर्वेद उत्पन्न थयो छे, माटे सुख धर्मना कारण रूप एवं अनगारपणुं मने आपो." गुरु बोल्या-"महाभाग, तुं प्रथम दश कन्याओने परणीश अने ते कन्याओमां तारो प्रेमबंध थशे, त्यारे हुं तने दीक्षा आपीश, ते सिवाय नहि आपुं." ते सांभळी राजा विचारमां पडी गयो के, "गुरुए आ शुं कडं? साधुओने आq वाक्य कहेवू घटित नथी, कारण के तेओ तो वाद निवारण करीने निवृत्ति मार्गे ज चालनारा छे." आ प्रमाणे विविध विचारो करी राजाए गुरुने कडं, "हुँ आगळ परणेली स्त्रीओने छोडी देवा ईच्छु छु, तो फरी बीजी स्त्रीओने केम पर[?" गुरु बोल्या, "राजन्, ए चेतना सहित दश कन्याओ तारे हाथ आवी हशे, तो ज तारी दीक्षा सफल थशे. राजा मारा कहेवानो भावार्थ कहुं ते सांभळ ते जाणवाथी ज माणस शरीरे पण सुखी थाय छे. पुण्य कर्मथी एवा आ मनुष्य क्षेत्र रूपी शरीरमां जेमां रत्नोए अंधकारनो नाश करेलो छे. एवं स्वांत-हृदय नामे एक नगर छे ते स्वांतहृदय नगरमां रुचिर-अध्यवसाय-शुभध्यवसाय नामे एक लोकसमहने प्रिय एवो राजा छे. ते राजाने घणी प्रिय स्त्रीओ छे, तेओनी साथे ते अनुक्रमे क्रीडा करे छे. तेओमां शांति नामनी एक स्त्री छे, तेणीने क्षमा नामे पुत्री छे, बीजी रुचि नामनी । स्त्री छे. तेणीने दया नामे पुत्री छे. त्रीजी विनयता नामे स्त्री छे, तेने मृदुता नामे कन्या छे. चोथी समता नामे स्त्री छे, तेणीने सत्यता नामे पुत्री छे. पांचमी शुद्धता नामे स्त्री छे, तेणीने ऋजुता नामे कन्या छे. छट्ठी पापभीरुता नामे स्त्री छे, तेणीने अवैररता नामे पुत्री छे. सातमी नीरागता नामे स्त्री छे तेणीने ब्रह्मरति नामे कन्या छे. आठमी निर्लोभता नामे स्त्री छे, तेणीने मुक्तता नामे कन्या छे. नवमी प्रज्ञा नामे स्त्री छे, तेणीने विद्या नामे पुत्री छे. अने दशमी विरति नामे स्त्री छे, तेणीने निरीहता नामे कन्या छे. हे राजा, जो तारा हृदयमां हमणां दीक्षा लेवानी अभिलाषा होय तो तुं ए दश कन्याओ पाणिग्रहण कर."
आ सांभळी राजा बोल्यो- "हे श्री गुरो! तमारा प्रसादथी में ते कन्याओना स्थान अने तेमना मातापितानां नामो जाण्यां छे, हवे तमे ते कन्याओनी प्राप्तिनो उपाय कहो अने तेमनो प्रभाव कहो. जेथी हुँ तमारा प्रसादथी विषाद रहित थाउं." गुरु बोल्या, "राजा, तारे ते कन्याओना पिताने प्रथम तारा हृदयरूपी श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा नगरमा राखवां, एटलाथी संतुष्ट थईने ते तने वांछित फळ आपशे. वळी विवाहना काममां पुरुषो स्वभावथी ज स्त्रीओना कह्या प्रमाणे चालनारा थाय छे, तेथी तारे प्रथम ते कन्याओनी माताओने वश करी लेवी. तेओमां सारी क्षमाने ईच्छनारा एवा तारे प्रथम जे शांति नामनी माता छे, तेणीनुं तो सदा मान करवू. सर्व साथे सारी मैत्री करवी, पराभव सहन करवो, अपकार करनार शत्रुने पण उपकारी तरीके चिंतववो, कारण के ते कर्मोनो क्षय करवामां सहाय रूप छे. कोईनी उपर कोप करवो नहिं. कर्मोने दोष आपवो, मत्सरचं मर्दन करवू. सहस्र मल्ल प्रमुख मुनिओनुं हृदयमां चिंतन करवू, नरकादिकनी पीडाने शिथिल करवानी चीवट राखवी अने पोतानु मर्कटना जेवू चंचळ मन स्थिर करवं. आ प्रमाणे हमेशां करवाथी तारा ए गुणोवडे जेणीनुं हृदय आकर्षायुं छे एवी क्षांति नामनी कन्या तारी समीपे स्वयंवरा थईने आवशे. सारी दयारूपी कन्याने ईच्छता एवा तारे पवित्र एवी रुचिने सदा मान्य करवी. पापी एवा परोपतापने विशेषपणे छोडी देवो. "मिथ्याशास्त्राणि नो कर्णे कर्तव्यानि कदाचन।" मिथ्यात्वीनां शास्त्रो कदीपण काने सांभळवा नहि. मन, वचन अने कायाथी षट्काय जीवनी विराधना करवी नहिं. अभक्ष्य-अनंतकाय वगेरे पदार्थोनो विशेषपणे त्याग करवो. सर्व प्राणीओने हृदयमां आत्मवत् चिंतववा, परोपकार करवो. आरंभने आदरपूर्वक वर्जवो, पाप कर्मोमां प्रचंड एवो अनर्थदंड छोडी देवो. सदा पांच समिति अने त्रण गुप्तिनुं पालन करवू. बीजानुं दुःख जोईने कदि पण हसवू नहिं. आ प्रमाणे नित्य करवाथी तारा ते गुणोवडे जेणीनुं हृदय आकर्षायुं छे एवी दया नामनी कन्या तारी समीपे स्वयंवरा थईने आवशे. मृदुभावनी इच्छा राखनारा एवा तारे सदा विनयताने मान आपq. तेमां विद्वानोए धिक्कारेलो अनार्य अने असार एवो अहंकार निवारवो. जो ब्राह्मण वगेरे वर्णोमांथी थयेली जातिमां जन्म थयो होय, तो ते उच्च जातिनो मद करवो नहिं. कारण के द्वैतना अभावथी पूर्वे सर्व एक वर्ण ज हतो. तेने माटे बीजे स्थळे लख्युं छे के "हे युधिष्ठिर राजा, प्रथम आ सर्व एक वर्णवाळु हतुं. क्रिया कर्मना विभागथी चारे वर्णोनी व्यवस्था थई छे. ब्रह्मचर्यवडे ब्राह्मणो थया छे. हाथमां हथीयारो राखवाथी क्षत्रियो थया छे. वेपारथी वैश्यो थया छे. अने प्रेषण-सेवा करवाथी शुद्रो थया छे. प्रथम जन्मवडे शूद्र उत्पन्न थाय छे. पछी संस्कार करवाथी द्विज कहेवाय छे. ज्यारे ते वेद भणे त्यारे विप्र कहेवाय छे अने ब्रह्मने जाणे त्यारे ब्राह्मण कहेवाय छे. जे श्रीमाळीउपकेश वगेरे जे जातिओ थई छे ते ते ग्रामना नाम उपरथी थई छे. एम विद्वानोए
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा सदा जाणी लेवं. कदि ते जाति उच्च माताथी उत्पन्न थयेली होय, तो पण मद करवो योग्य नथी. कारण के ते जातिमांथी उत्पन्न थयेला सर्वे समानशील होता नथी. ते विषे लख्युं छे के, एक ज उदरमांथी उत्पन्न थयेला अने एक ज नक्षत्रमां जन्मेला मनुष्यो बोरडीना कांटानी जेम समान शीलवाळा होता नथी. कुशळ पुरुषोए कुलनो मद पण न करवो जोईए. कारण के जाति अने कुळनी स्थापना पछवाडेथी थयेली छे. कदि ते कुळ उच्च पिताथी प्राप्त थयुं होय, तो पण तेनो मद करवो उचित नथी. बुद्धिमान् पुरुषे लाभनो मद पण करवो नहीं, कारण के लाभांतराय कर्म श्रीजिन भगवानने पण छोडी शकतुं नथी. ज्यारे लाभांतराय कर्मनो क्षय थाय त्यारे घणुं धन प्राप्त थाय छे अने ज्यारे तेनो उदय थाय छे त्यारे धनवानने धन मळतुं नथी. बुद्धिमान् पुरुषे ऐश्वर्यनो मद पण करवो नहि. आ पृथ्वी उपर राजा पण मुंजनी जेम रांक बनी जाय छे. आ लोकमां बाहुबलि वगेरेना उग्र बळनो विचार करी बुद्धिमान् पुरुषे बळनो मद करवो नहि. सनत्कुमार वगेरेना रूपनी अनित्यता सांभळी बुद्धिमान् पुरुषे आलोकमां रूपनो मद करवो नहि. श्री वीर प्रभुना नंदन भव- उच्च तप सांभळीने बुद्धिमान पुरुषे तपनो मद करवो नहिं, बुद्धिमान् पुरुषे श्रुत-शास्त्रज्ञाननो मद करवो नहि, कारण के चौद पूर्वीओ पण प्रमादथी पतित थई जाय छे. ।।८००।। मनुष्योना सर्व मदो श्रुतशास्त्रवडे जीताय छे. ते शास्त्र वडे ज जे मद करे छे, तेने बीजा भवमां ते ते वस्तुनी हीनता प्राप्त थाय छे, तेथी ए आठे मदनो त्याग करवो, तत्त्वोनो विचार करवो, अरिहंत वगेरे दश (पद)नो सदा हर्षथी विनय करवो. पोताना हृदयने नवनीतना पिंड जेवं मृदु करवू अने लघु वयवाळा पासेथी पण हमेशां विनयपूर्वक ज्ञान संपादन करवं. एवी रीते नित्य करवाथी तारा ते गुणोए जेणीनु हृदय आकष्यु छे, एवी मृदुता नामे कन्या स्वयंवरा थई तारी पासे आवशे. सत्यताने ईच्छनारा एवा तारे सदा समतानु सेवन करवू. क्रोध, लोभ, भय अने हास्यनो यत्नथी त्याग करवो. जेनाथी बीजाने दुःख थाय, एवी वाणी कठोर गणाय, जेथी निंदा अने पिशुनता (चाडी चूगली) थाय तेवू वचन बोलवू नहि. विचक्षण पुरुषे सत्यामृषा-साची खोटी, असत्य, बीजानो घात करनारी वक्र अने मर्म भरेली भाषा बोलवी नहि. एवी रीते हमेशां करता एवा तने तारा गुणोथी जेणी, हृदय खेंचायुं छे, एवी सत्यता नामे कन्या स्वयंवरा थई तारी पासे आवशे. ऋजुतासरलताने ईच्छता एवा तारे शुद्धतानुं सदा आराधन करवू. सर्वथा कुटिलतानो त्याग करवो, सरलता राखवी, वंचना वगरनुं बोलवू, हृदय निर्मळ राखवू, कोई श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा ठेकाणे माया करवी नही, तेमां धर्मना कार्यमां विशेषे (खास करीने) न करवी. पडेलु घास तृण पण तारे लेवू नही. लोभवृत्ति तजी देवी अने संतोषवृत्तिने भजवी अने बीजाने अवग्रह (वसति-स्थान) माटे पूछी रजा लईने रहे. एवी रीते नित्य करवाथी अचौरता नामनी कन्या तारा गुणोथी जेणीनुं हृदय आकर्षायु छे, एवी थई तारी पासे स्वयंवरा थईने आवशे.
हे राजा, ब्रह्मरति नामनी कन्याने अर्थे तुं तारा चित्तमां नीरागताने धारण कर. देव, मनुष्य अने तिथंचनी स्त्रीओने माता समान गणजे. स्त्रीओना वास स्थळमां रहेवू नहीं, स्त्री संबंधी कथा करवी नहि, स्त्रीओनी बेठक सेववी नहि, तेमनी इंद्रियोने जोवी नही, दीवालनां आंतरामा रहेला गृहस्थोनां जोडलांने जोवा नहीं अने मनमां कदि पण सर्व रतिनुं सुख चिंतवq नहि. प्रणीत आहारनो तेमज अतिशय आहारनो त्याग करवो अने शरीरनी अधिक शोभाने यत्नथी छोडी देवी-आ प्रमाणे नित्ये करवाथी तारा गुणोथी जेणी- हृदय आकर्षायुं छे एवी ब्रह्मरति नामनी कन्या तारी पासे स्वयंवरा थईने आवशे. मुक्तताने ईच्छनारा एवा तारे निर्लोभतानु सेवन करवू, हृदयमा विवेक धारण करवो, अनार्यनो संगम छोडी देवो, बाह्य अने अभ्यंतर एवा बे प्रकारना परिग्रहथी पोताना आत्माने जुदो करवो, स्वभाववडे ग्रंथ-परिग्रहनी तृष्णा समावी देवी, बहार अंदर अनासक्त एवं अंतःकरण राखवू, कमळनी जेम निर्लेप रहेवू अने शिष्टाचारमा तत्पर रहे. हे चतुरराजा, आ देह वगेरे सर्व पुद्गल वस्तुओ संबंधी आत्माने योग्य एवी अनित्यतानु चितवन करवं. एवी रीते नित्य करवाथी तारा गुणोथी जेणीनुं हृदय आकर्षायुं छे, एवी मुक्तता नामनी कन्या तारी समीपे स्वयंवरा थईने आवशे. सुविद्यानी इच्छा राखता एवा तारे प्रज्ञा राणीनुं सदा आराधन करवू, सदा शास्त्राभ्यास करवो, प्रमादने वारवो-टाळवो, ज्ञान अने ज्ञानवाळाओनी हर्षथी भक्ति करवी. सदा शास्त्रनुं स्मरण करईं अने सद्गुरुना वचन सांभळवा, ए प्रमाणे करवाथी तारा सद्गुणोथी जेणी- हृदय आकर्षायुं छे, एवी विद्या कन्या स्वयंवरा थई तारी पासे वेगथी आवशे. निरीहता नामनी कन्याने माटे तुं लोभनो त्याग कर. तारा हृदयमां सर्व वस्तुओना स्वरूपनो विचार कर. आ देह दुःखना उपभोगने माटे छे, धन बंधननुं कारण छे, इच्छा हृदयने ताप आपनारी छे. जन्म मृत्युनुं कारण छे, प्रियानो संग-अथवा प्रिय वस्तुओनो संग वियोग माटे छे. संग्रह क्लेशने माटे थाय छे अने भोगनो अभिलाष रोगने माटे थाय छे, तेथी तेओनी अंदर प्रीतिने छोडी दे, ममत्वने छोडी देनारा एवा तारी पासे तारा गुणोथी
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भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा
आकर्षायेली निरीहता नामनी कन्या सत्वर आवशे." आ प्रमाणे गुरुनां वचन सांभळी राजा बोल्यो, " भगवन् सर्वजनोने सुख करवाने माटे कन्यानो मेळाप गुरु (गोर) ज करावे छे, तो तमे मने दीक्षा रूपी कन्या आपशो एटले शुभ परिणाम रूपी राजा पोते ज पोतानी ए बधी कन्याओ मने आपशे, माटे आप शुभ लग्नमां दीक्षा आपी मारा पर कृपा करो. धर्मना कार्यमां विलंब करवो युक्त नथी." पछी गुरुए दीक्षित करेलो ते राजा पद्मसेन मनुष्यना पुरुषार्थादि गुणोथी युक्त थई मोह कर्मी मुक्त थई गयो त्यारे गुरु बोल्या, "हे मुनि, तारे हवे मातानी सेवा करवी माता सिवाय आलोकमां अने परलोकमां चरण न रहे. प्राये करीने कन्या परण्या पछी पुत्रो सहाय करनारी माताने मानता नथी एम कहेवाय छे. माताना चित्त-नगरमां मोहराजा राज्य करे छे, ते बहु काले आवेला सेवकोने जोई रोष पामे छे. पछी तेमने कर्मरूपी सेवकोनी पासे मळमूत्र वगेरेथी भरेला गर्भरूपी कारागृहमां नीचां मुख अने उंचा पग रखावी केद करावे छे, पछी मोहना विरोध विना पोताना आहारमांथी ते माता तेमनुं पोषण करे छे अने पोतानी साथै सुवाडे छे तथा जगाडे छे. ज्यारे तेओने बुद्धि उत्पन्न थाय छे, त्यारे तेओ मस्तक उपर बे हाथ जोडी दुःखी थई मोहराजाने आ प्रमाणे उंचे स्वरे विज्ञप्ति करे छे– 'हे राजा, अमो अज्ञानथी अंध अने सद्गतिथी रहित छीए. अमे ज्यां रहीशुं, त्यां तमारी आज्ञाने ताबे थईने रहीशुं." तेमनी आ विनंती सांभळी ते राजा शांत थई तेमने ते गर्भरूपी कारागृहमांथी छोडे छे. गुप्तिपालरक्षकोए हाथमां पकडेला तेओ ते वखते निर्बल थई रोवा लागे छे, पछी दयाळु हृदयवाळी ए माता तेमने सुवर्ण वगेरे आपी तेओने मुक्त करे छे, पछी तेओ पोताने घेर चाल्या जाय छे. रूप बदलाई जवाथी कोई तेमने ओळखतुं नथी, तेथी तेमने पाणी के भोजन कांई आपवामां आवतुं नथी ते काळे तेमने क्षुधा तृषाथी पीडित एवा जोई ते माता तेमने दूध पाय छे अने विष्टा वगेरेथी अंगे लींपायेला तेमने शूग लाग्या सिवाय साफ करे छे. जो तेओ अभक्ष्य खाय छे, तो तेमने वारे छे अने योग्यमार्गे चलावे छे, सारां वस्त्राभरणोथी नित्य शणगारे छे अने तेमना शरीरनुं पोषण करावे छे. पतिना आदरथी तेमने निशाळे भणवा मोकले छे अने द्रव्यनो सारो खर्च करी तेमने विधिथी परणावे छे, पछी ज्यारे कन्या आवे छे, त्यारे ते पुत्रो रोगनी पीडा थया सिवाय ते मातानुं नाम पण लेता नथी, बीजुं वधारे शुं कहेवुं ? "हे राजा, एक कन्या आवतां आवुं थाय छे, तो पछी जो दस 1. चरण - चारित्र अने पग.
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वरदत्तनी कथा कन्याओ आवे, तो तेनी शी वात करवी? परंतु तुं आ विश्वमां उत्तम छे, माटे ते दश कन्याओगें सदा आराधन कर." ते सांभळी विस्मय पामेलो राजा गुरुप्रत्ये बोल्यो-"भगवान्, मातृभक्ति गृहस्थोने करवी घटे छे. कांई योगीओने करवी घटती नथी. ।।८५१।। लोकशास्त्रमा ब्रह्माणी प्रमुख सात माताओ कहेली छे. तेमज मित्रपत्नी वगेरे पांच माताओ कहेली छे. एटले सात अने पांच माताओ कहेली छे. ते माताओनी भक्तिमां माझं मन छे, परंतु ते सात अने पांच माताओ मारे पूरती छे, तथापि गुरुनु वचन उल्लंघन करवाने हुं समर्थ नथी कल्पवृक्षना जेवा गुरुओ तत्त्वने कहे छे, तो मन कल्पित एवा ते अर्थने स्पष्ट करवा मने तेनो तत्त्वार्थ हमाणं ज कहो." सिद्धांतना रहस्यने जाणनारा गुरु बोल्या, "हे राजा, अंगने पुष्टि आपनारी आठ माताओ साधुओने माननीय छे." राजाए पूछ्युं, "ते आठ माताओ कई?" त्यारे गुरु बोल्या, "हे राजा, पांच समिति अने त्रण गुप्ति-ए आठ (प्रवचन) माताओ छे. तेओ चारित्ररूपी गात्रनी पोषक अने रक्षक छे. मुनिओए सेवन करेली ते माताओ अंते मोक्षफलने आपनारी थाय छे. जेनी भूमिना भागने सूर्यना किरणोनो स्पर्श थयो छे अने जेनी उपर लोको चाले छे, एवा मार्गमां युगमात्र (धुंसरी प्रमाण) दृष्टि राखी पोताना नेत्रोवडे पगले-पगले भूमि-मार्ग शोधता सावधान रही जे मुनि मौन धरीने चाले छे, तेवी पहेली ईर्या समिति जंतुओर्नु रक्षण करनारी छे, तेथी साधुए ते समितिने भजवी जोईए. जे मुनि ए शुद्ध ईर्या-समितिने पाळे छे, तेनी प्रशंसा वरदत्तनी जेम इंद्र पण देवताओनी आगळ करे छे.
वरदत्तनी कथा पूर्वे स्वच्छ एवा गच्छमां वरदत्त नामे एक मुनीश्वर हता. ते गुरुभक्तिवाळा मुनि मनुष्य जन्मना साररूप निरतिचार चारित्रने परम भक्तिथी पाळता हता, तेमां खास करीने ते कृतार्थ मुनि जीवरक्षाने माटे पहेली ईर्यासमिति विशेष पाळता हता. एक वखते हीनकर्म रहितं एवो सौधर्मेंद्र सभामां बेठो हतो, तेणे अवधिज्ञानथी जंबूद्वीप तरफ अवलोकन कयु; तेवामां ईर्या समितिवाळा महामुनि वरदत्तने जोई तेणे त्यां बेठां बेठां तेने नमस्कार कर्यो. ते जोई विस्मय पामेला सर्व देवताओए कडं, "स्वामिन्, हमणां आपे कोने नमस्कार कर्यो?" इंद्र बोल्यो, "हे देवताओ, जे प्रशंसनीय बुद्धिवाळानी सर्व राजाओ सेवा करे छे, तेवा वरदत्त नामे एक मुनि पृथ्वी उपर रहेला छे, ते चारित्रगुणना गौरववाळा, ईर्यासमितिवडे युक्त अने दुर्ध्यान रूपी शत्रुथी मुक्त छे, तेमना गुणो पूजनीय छे, तेथी तेओ मारे पण
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वरदत्तनी कथा
माननीय छे अने तेओ त्यां भूमि उपर रह्या छतां हुं अहिंथी तेमने नमस्कार करूं छं. जे पोताना जीवितनो त्याग करे पण उत्तम एवी ईर्यासमितिनो त्याग न करे, तेवा पोताना कर्मथी निर्दोष एवा साधु कोने वंदनीय न होय?" इंद्रनां आवां वचन सांभळी सम्यक्त्वने धारण करनारा देवताओए पण ते वरदत्त मुनिने इंद्रनी जेम मन, वचन अने कायावडे वंदना करी. आ वखते कोई एक मिथ्या दृष्टि देव हतो, तेणे जिनना धर्म वचननी जेम इंद्रना ते वचनने सत्य मान्युं नहिं. तेणे चितव्यं के "आ लोकमां पोतानुं जीवित कोने ईष्ट नथी? जे जीवितने माटे मनुष्यो मान छोडीने शुं नथी करता? आ पृथ्वी उपर कोईपण जीवने जेनाथी कदिपण तृप्ति थती नथी, तेवा जीवितने कीट, पतंग वगेरे जंतुओने माटे कोण छोडी दे? आ पृथ्वी लोकमां रहेला सर्व प्राणीओना प्राण, धन, जीवित स्त्री अने आहारना कर्मोनी अंदर चाल्या गया छे, चाल्या जवाना छे अने चाल्या जाय छे. जेओ स्वामी थई बेठा छे, तेओ मरजी मुजब बोले छे; परंतु हृदयमां बीजानी शंकाने कदि पण लावता नथी." आ प्रमाणे ते मिथ्यात्वी देव चिंतवतो हतो, तेने इंद्रे कह्युं, "जो तारा हृदयमां शंका होय, तो तुं पृथ्वी उपर जरूर जा. जो तारा हृदयमां खेद थतो होय, तो जे कार्य भूत अने भविष्यनुं होय ते संबंधी तो विचारणा - मीमांसा करी शकाय. पण जे कार्य प्रत्यक्ष होय तेमां शो विसंवाद विरोध करवानो होय? (तेम छतां) तुं जईने ते मुनिनी परीक्षा कर अने तारा मनमां धीरज धार (समाधान करीने मनने संतोष आप) जो पोतानुं सुवर्ण चोख्खुं होय, तो पछी परीक्षकनो भय होतो नथी. " इंद्रना आवां वचन सांभळी ते देव ज्यां क्षांति वगेरे दश प्रकारना धर्मना धारक अने जनतारक वरदत्त मुनि रह्या हता त्यां आव्यो. ते वखते वरदत्त मुनि ठल्ले जता हता, त्यां ते देवताए मार्गमां माखीओना जेवी वैक्रिय देडकीओ उत्पन्न करी अने तेमनी पाछळ आदरथी मदझरतो, सूंढ उछाळतो अने गतिथी पवनने जीती ले तेवो एक दुष्ट हाथी विकुर्व्यो. "हे यति, सत्वर भागी जा अने तारा जीवितनुं रक्षण कर. जो आ तारी पाछळ यमराजना जेवो हाथी आवे छे." आ प्रमाणे बोलता लोकसमूहने पण बनाव्यो. देवताओने कार्यनी सिद्धि मनथी ज थाय छे. ते वरदत्त मुनिए सिंहावलोकनथी पण पछवाडे जोयुं नहीं. ते चतुर मुनि उपयोग राखी ईर्यासमितिए चालवा लाग्या. ते मुनिए हृदयमां चिंतव्यं के, "आ क्रोध पामेलो हाथी मने एकने मारशे अने जो हुं दोडीने चालुं तो घणा जीवोनो नाश करूं तेथी मारा एकनुं रक्षण करवाने हुं घणा जीवोने मारीश नहिं. आ पृथ्वी उपर सर्व प्राणीओने श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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वरदत्तनी कथा जीवित वहालं होय छे. तेने माटे का छे के, अपवित्र-विष्टामा रहेला कीडाने अने स्वर्गमा रहेला इंद्रने जीववानी आकांक्षा सरखी ज होय छे अने ते बंनेने मृत्युनो भय पण सरखो ज होय छे. ईर्या (समिति)ने पाळतां मने जे थवा- होय ते भले थाय. धर्मवाळा उत्तम पुरुषने जीवित अने मृत्यु सरखा होय छे."1 आ प्रमाणे चिंतवतो ते मुनि जेवामां हळवे हळवे जता हता तेवामां पेला हाथीए दोडीने तेमने सूंढवती पकड्या. पछी तेमने आकाशमां दूर उछाल्या. ते वखते नीचे पडतां तेमणे विचायु के, "मने धिक्कार छे के, मारा शरीर नीचे देडकीओ कचडाईने मरी जशे. चारित्रधारी मुनिए सर्वथा नित्ये जीवदया पाळवी जोईए. एक सूक्ष्म पण जीवनी हिंसा न करवी जोईए तो पछी पंचेंद्रिय जीवोनी हिंसा शी रीते थाय? गृहस्थ श्रावको पण निरपराधी त्रस जीवोने हणता नथी तो पछी हुं मुनि थई जाणतां छतां जो तेवा जीवोने हणुं तो मारो जन्म, दीक्षा अने तेवी शिक्षा साक्षात् निष्फळ थई जाय, तेम ज जे हुं शास्त्र भण्यो ते पण तेनी माफक वृथा थाय." आ प्रमाणे चिंतववा मुनिने ज्ञानथी जाणी लईने देवताए पडता झीली लीधा. अने पोतानुं स्वरूप प्रगट कयु. तेणे मुनिने नमी आ प्रमाणे स्तुति करी. "हे महामुनि, दृढ धर्मवाळा एवा तमने, तमारा गोत्रने अने मातापिताने धन्य छे. वळी अमारा स्वामी इंद्र देवसभामां तमारी प्रशंसा करे छे, तो बीजाओ, शुं कहेवू? आ यतिधर्म ज बलवान् अने जयवंत छे." ईत्यादि वचनोथी स्तुति करी ते देवताए कह्यु के "उपयोग सहित एवा तमे कांईपण ईच्छित वर मांगी ल्यो." वरदत्त मुनि बोल्या-"हे सुरोत्तम, तमे विचार करो के, सर्व संगनो त्याग करनारा एवा मने गमे तेवो श्रेष्ठ वर शा कामनो छे?" देव बोल्यो-"देवनं दर्शन निष्फल थतुं नथी, माटे तमे मारी पासेथी कांई उत्तम वर जलदी मागी ल्यो." मुनि बोल्या- "हे देव, जो तमारे वर आपवानो आग्रह होय, तो हुँ एवो वर मागु छु के, तमे मिथ्यात्वने छोडी सम्यक्त्वनो आश्रय करो. कारण के तमे त्रण जगतमां विबुधना नामथी प्रसिद्ध छो." ।।९००।। मुनिना आ वचनथी ते देवताए पोताना हृदयमां सम्यक्त्वने धारण कयु अने मुनिने तेमना बंने चरणमां वळगी खमाव्या. पछी ते देवे रोष छोडी स्वर्गमां जई ते मुनीश्वर- सर्व चरित्र . सहर्ष थई इंद्रने निवेदन कयुं."
___ आ प्रमाणे सर्व स्थळे समतायुक्त अने शुभ ध्यानरूपी जलथी सिंचन थयेला ते वरदत्त मुनिए इंद्रादिक देवोए वंदन कर्या छतां पण मद न कर्यो. हे 1. अमेध्यमध्ये कीटस्य, सुरेन्द्रस्य मुरालये । समाना जीविताकाङ्क्षा, तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः।।८८७।।
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संगत साधुनी कथा मुनीश्वर, तेवी रीते तमारे पण ईर्यासमिति पाळवी के जेथी आलोक तथा परलोकमां तमारा निर्मल करमां कल्याण प्राप्त थाय. बीजी भाषा समिति
जे जरूरी कार्यने वखते निर्दोष भाषा बोले, सुविचारवान् थई कारण वगर मौन धरी रहे, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष अने भयथी थयेली अने वाचाळता, हास्य अने निंदाथी युक्त एवी भाषा जरूरी कार्यमां पण बोले नहि, तेवी उत्तम बीजी समिति पोताना 'वाचंयम नामने सत्य करनारा साधुए सदा पाळवी जोईए अने श्री जिन भगवाननी कहेली वाणीनुं ज लालनपालन करवू जोईए. सारी बुद्धिवाळा मुनिए लोकस्थितिने अने जिन प्रवचनने विरोध न आवे एवं वचन संगत साधुनी जेम बोलवू जोईए.
संगत साधुनी कथा कोई एक गुणवाळा गण-गच्छनी अंदर आगमना समूहने जाणनारा अने बीजी भाषा समितिथी प्रकाशमान एवा संगत नामे साधु हता. स्वीकार करेलाने पाळवामां पर्वतथी पण धीर एवा ते संगत मुनि पोताना गुरुनी साथे विहार करता करता कोई नगरमां आव्या. त्यां गुरुए ज्ञानथी जाण्यु के, "केटलाएक दिवसोमां आ नगरमां सर्पथी पण महावक्र एवं परचक्र आवशे. ते आ नगरने तोडशे नही, पण तेनाथी मोटो रोध थई पडशे, माटे अहिं केटलाएक दिवस सुधी रहेq उचित नथी." आq जाणी ते गुरु ग्लानप्रमुख मुनिओनी वैयावच्चना कामने माटे संगतमुनिने त्यां मूकी पोते अन्यस्थळे विहार करी गया. ते पछी केटलेक दिवसे ते नगर उपर शत्रु सैन्य चडी आव्यु तेथी जवा आववानो निरोध थतां लोकोने दुःख उत्पन्न थयुं, त्यां पथ्य वगेरेनो अभाव थवाथी रोगी मुनिने सीदाता जोई ते संगत मुनि बीजे दिवसे बहार सैन्यनो समूह पडेलो छतां मांडमांड ते नगरमाथी नीकळी भिक्षा माटे फरवा लाग्या. तेवामां ते मुनि सेनापतिनी दृष्टिए पडी गया. सेनापतिए पूछ्युं के, "तमे एकाकी क्याथी आवो छो?" मुनि बोल्या, "हुं नगरमांथी आq छु." सेनापति बोल्यो, "साधो, राजानो शो अभिप्राय छे? ते कहो" मुनिए उत्तर आप्यो के, "मुनिओ राजानी वार्ता करता नथी." तेणे का, "त्यारे त्यांना लोकोनो अभिप्राय शो छे? ते कहो, के जेथी अमे तेने अनुसारे कार्य करीए." मुनि बोल्या, "लोकोनो अभिप्राय कोण जाणी शके? कारण के मुंडे मुंडे (मस्तके मस्तके) जुदी जुदी बुद्धि होय छे, एम शास्त्रमा कर्तुं छे. हे सेनापति जेमनुं चित्त केवळ शास्त्रनी साथे बंधायेलुं छे अने जेओ वाचंयम 1. वाणीने नियममां राखनार. 2. शत्रु सैन्य. 3. मगजे मगजे. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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संगत साधुनी कथा कहेवाय छे, तेवा अमारे कांईपण सांभळवानो अने कहेवानो अधिकार नथी." सेनापतिए फरीवार पूछ्युं, "आ नगरमां वसनारा राजाने हाथीओ, रथो, घोडाओ अने पेदल केटलां छ?'' मुनि बोल्या, "सेनापति, हुं ते बराबर जाणतो नथी, जो हुं तेमनी संख्या कहुं तो मारी भाषा सत्यामृषा (साचीखोटी) थाय." सेनापति बोल्यो-"अरे मुनि, तमे आ पृथ्वी उपर सर्वज्ञना पुत्र तरीके प्रख्यात छो, तेथी अमोने कहो के, केटले दिवसे अमारो जय थशे? मुनि बोल्या-"दीक्षा वगेरे लेनार यतिनुं निमित्तांग-ज्योतिषनुं ज्ञान घणा अनर्थोने आपनारा एवा संसारने अर्थे न होवें जोईए." ते सांभळी ते सेनापति अंतरमां तो खुशी थयो, पण बहारथी क्रोधने धारण करीने बोल्यो-"अरे! तुं कोई हेरू छे; ते वेष बदलो करीने अहिं क्यांथी आव्यो छे? अमो राजाना मंत्र-विचारोने जाणनारा लाखो रूपवाळा छीए." मुनि बोल्या-"अमो दुष्कर्मरूपी राजाना मर्मने प्रकाश करनारा छीए. आ लोकमां जे उत्तम पुरुष छे, ते असत्य वचन बोलतो नथी. ते शद्ध अने सत्य वचनने ज माने छे. आ लोकमां क्रोधी, बे जीभवाळो सर्प अने सर्वभक्षी अग्नि पण सदा सत्यने माने छे, तो पछी बीजा प्राणीओनी शी वात करवी? जेनाथी पोताने अने परने जरा क्लेश थाय अने कजीयो पण थाय, तेवू परने पीडाकारी वचन मुनिओ बोलता नथी." पछी आ प्रमाणे बीजी शुद्ध भाषा समितिने पाळनारा ते संगतमुनिने सेनापतिए मान आप्युं अने तेमनी पासेथी आहेत धर्म स्वीकार्यो. आ प्रमाणे तमारे बीजी भाषासमिति विवेकथी धारण करवी, जेथी आलोक तथा परलोकमां तमारी पूज्यता थाय. ।।९३१।।
त्रीजी एषणा समिति छे. आहार, उपधि अने शय्या वगेरेने उद्गम, उत्पादन अने एषणा-इच्छाना दोषथी रहित ग्रहण करे, ते मुनिने त्रीजी एषणा समिति होय छे. ते आ प्रमाणे जे गृहस्थो षट् जीवनिकायने हणी साधुने माटे अशन वगेरे करे ते आधाकर्मी कहेवाय छे. अथवा सर्व भिक्षुकोने दान आपवाने अर्थे जे करवामां आवे, ते शुद्धबुद्धिवाळा यतिओए औद्देशिक कहेलुं छे. जे साधुने अर्थे अने पोताना घरने अर्थे करवामां आवे, ते आधाकर्मीना अवयव भागवाळु पूतिकर्म कहेवाय छे. तेने मिश्र कहे छे. जे साधु निमित्ते जुदु राखे, ते स्थापना कहेवाय छे. जे गुरुए आव्या छतां के अण आव्या छतां पहेलां (आगळथी) श्रावक विशेष (आहारादिकनी तैयारी) करे ते प्राभृतिका कहेवाय छे अने जे आपवानुं (अंधारामांथी अजवाळामां लावी) प्रगट करे, ते प्रादुष्करण कहेवाय छे. जे साधुने माटे मूल्य आपीने लेवामां आवे ते क्रीतदोषवाळु कहेवाय छे अने 198
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संगत साधुनी कथा जे साधुना माटे उधारे लाववामां आवे, ते प्रामृत्य दोषवाळु कहेवाय छे. जे अदलाबदली कोई पासेथी लई आपवामां आवे, ते परिवर्तित कहेवाय छे अने जे उपाश्रयमां लावीने आपवामां आवे, ते अभ्याहृत कहेवाय छे, जे डब्बा के घडार्नु द्वार उघाडी ने आपे ते उदभित्र दोषवाळु कहेवाय छे. ते दोष साधुओने वर्जित छे. माल वगेरे उपरथी जे उतारेखें, ते मालापहृत कहेवाय छे. सेवक वगेरेनी पासे ओदाळेलुं (जोरावरीथी खंचवी लीधेलु) ते आच्छेद्य कहेवाय छे. सर्व सामान्य वस्तु एकलो ज आप मुखत्यारीथी आपे निसृष्ट कहेवाय छे. कारण के सर्वनी संमतिथी आपेलं अन्नादि शास्त्रमा शुद्ध कहेलुं छे. जे प्रथम पोताना घरने माटे अने पछी मुनि वगेरेने माटे कांईक अन्नादि उमेरवामां आवे, ते अध्यवपूरक कहेवाय छे. आ प्रमाणे सोळ उद्गमदोष कहेला ते गृहस्थजनने आश्रित दोष छे.
हवे बीजा सोळ उत्पादनदोष कहेला छे, ते मुनिने आश्रयीने कहेला छे. जे घरना बाळकोने रमाडीने लेवं, ते धात्रीदोष कहेवाय छे. संदेशा लई जवा लाववाथी प्रेष्यकर्म करवाथी लेवू ते दूतिदोष कहेवाय छे. लोकोने निमित्त अंग ज्योतिष फळादि जणावीने लेवू ते पापना संतापने करनारो निमित्तदोष कहेवाय छे. जे लोको जाति वगेरेना मदवाळा होय, तेमने तेमनी उच्चजाति कहीने जे पोतानी भिक्षा मेळववी ते आजीविकादोष कहेवाय छे. जेओ अन्य दर्शनना भक्तो होय, तेमनी आगळ पोते ते दर्शननो भक्त छे, एम जणावी जे साधु अन्न वगेरे . मेळवे छे, ते वनीपकदोष कहेवाय छे. रोग वगेरेना उपाय बतावीने जे पिंड लेवा ते चिकित्सापिंड कहेवाय छे. क्रोध, मान, माया अने लोभना दोषथी जे लेवू ते ते नामना दोषो कहेवाय छे. दान आप्या पहेला अथवा दान आप्या पछी जे दातानी स्तुति करी साधु वस्तुने ग्रहण करे, ते संस्तवदोष कहेवाय छे. जे विद्या भणावीने ग्रहण करे ते विद्यापिंड कहेवाय छे अने जे मंत्रवडे ग्रहण करे, ते मंत्रपिंड कहेवाय छे. जे नेत्रोमां अंजन वगेरे लगाडी ग्रहण करे, ते चूर्णदोष कहेवाय छे अने जे पगे लेप वगेरे लगाडी ग्रहण करे ते संयोगदोष कहेवाय छे. जे साधु मूलीया वगेरे (जडी बुटी) आपी अन्न प्रमुखनो संचय करे ते मूलकर्मदोष कहेवाय छे. संवेगी मुनिओ ते दोषने पापर्ने कारण कहे छे. आ प्रमाणे गवेषणाना बधा मळीने बत्रीस दोष कहेला छे. तेमज ग्रहणेषणाना दश दोष साधु अने गृहस्थ ए उभयथी उत्पन्न थता कहेला छे. जे आहारादि शुद्ध होय पण जो आधाकर्मादि दोषनी शंकाथी ग्रहण करवामां आवे तो ते मुनिनी एषणा समितिमां 1. गर्भ धारण करवा अने नाश करवा संबंधित जे औषधि आदि बताववी ते मूळकर्मदोष छे. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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संगत साधुनी कथा शंकितदोष कहेवाय छे. जे आहारादि वस्तु लोक तथा आगमे निंदेली वस्तुओथी खरडायेली होय तेवी आपवामां आवे तो हे मुनि, तेने स्पृशित दोष जाणी लेजो; जे सचित पृथ्वी प्रमुख उपर मूकेलं होय ते निक्षिप्त कहेवाय छे. एम विचारजो, जे सचित्त वस्तुओथी ढांकेलं होय ते निहित कहेवाय छे, ते हितकारी नथी. तेमज जे सचित्तनी अंदर बीजुं अयोग्य अशनादिक खानपानादिक नाखी पछी ते पात्रवडे आपे ते संहृत कहेवाय छे. वृद्ध, अंध, मत्त, रोगी, नपुंसक अने छेदायेला हाथ पगवाळो, खातो, पीजतो तथा छ कायनो स्पर्श करतो दाता वर्जवो. खांडती, वाळती, दाणादळती, गर्भिणी अने नाना बाळकवाळी वगेरे (दाता) स्त्रीने पण वर्जवी. विवेकी मुनिए बीजा पण दाताना दोषो पोतानी मेळे जाणी लेवा, तेमां सचित्त, मिश्र अने उन्मिश्र आहारादि प्रयत्नथी वर्जित करवं. जे दान वगेरे वेला-वगरनुं होय, ते अपरिणत कहेवाय छे अने जे दहीं वगेरे लेपवाळु होय तेने श्रीजिनभगवाने लिप्त कहेलुं छे. सारा विवेकी मुनिओए ते आहारादि ओघथी (सामान्य रीते, खास कारण विशेष वगर) ग्रहण करवू नहि, जे पृथ्वी उपर वेरतां वेरतां आपवामां आवे ते छर्दित कहेवाय छे. आ प्रमाणे गृहस्थ तथा साधुने आश्रयीने दश दोष कहेला छे हवे ग्रास-एषणाथी उत्पन्न थनारा पांच दोष सांभळो. जे घी तथा खांड साथे भेळवीने क्षीर-दूधादिक स्वादिष्ट करवामां आवे, ते रस तथा गोरसथी थयेली संयोजना कहेवाय छे, अप्रमाण एवं आहारादि अनिवार अने घन एवा बे प्रकारचं छे. जे वारंवार खावामां आवे, ते अनिवारक कहेवाय छे. जे एक ज वेळाए बत्रीस कोळीआथी अधिक खावामां आवे ते घन कहेवाय छे. एम सिद्धांत-आचारना विद्वानोए कहेलुं छे. जेटलो आहार करवाथी पोताना उत्तम संयमनो निर्वाह चाले, तेटला प्रमाणनो आहार जिनभगवाने साधुओने माटे कहेलो छे. (वधारानो आहार प्रमाणातिरिक्त जाणवो.) जे आहारादि रागथी करवामां आवे, ते मुनिने अंगारदोष कहेवाय छे अने जे आहारादिक द्वेषथी करवामां आवे, ते मुनिओने धूम्रदोष कहेवाय छे. क्षुधानी पीडा शमाववा, प्राण, शुभ ध्यान अने संयमनी रक्षा माटे, ईर्यासमिति साचववाने माटे अने गुर्वादिकनुं वैयावच्च करवा माटे-ए छ कारणोथी जे प्रासुक भोजन करवामां आवे ते सकारण जाणवू. बाकी- बधुं अकारण छे. मोहना उदयमां, रोगमां, उपद्रवमां, जीवरक्षामां, तपमां अने अंतकाले शरीर छोडवामां (अनशन आदरतां) भोजन छोडी देवू. आ प्रमाणे सुडताळीश दुष्ट दोषथी रहित, शय्यातर आहार वगेरेथी वर्जित एवं अनादि जे साधु वापरे छे ते
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धनशानी कथा लोकमां एषणासमितिने सदा पाळनारो छे अने ते सिवाय, जे वापरे छे, ते साधु विराधक छे. अटवी, रोग तथा दुकाळना भय वगेरेमां तेओनी अंदर कदि अतिचार होय छे, तो तेनी आलोचना करवाथी (ज्ञानी गुरु मुखे आलोयण लेवाथी) पवित्र थवाय छे. जल, अन्न, खाद्य के स्वाद्य जो सचित्त होय, तो ते धनशर्मानी जेम प्राणनो अंत थाय, तो पण मुनि ग्रहण करता नथी. ।।९७६ ।।
धनशर्मानी कथा __उज्जयिनी नगरीमा पूर्वे धनमित्र नामे एक श्रीमान् उत्तम वणिक रहेतो हतो. तेने शत्रुओथी रहित एवो धनशर्मा नामे पुत्र हतो. एक वखते गुरुनी पासेथी आ संसारने असार जाणी ते सत्कर्मथी प्रख्यात थयेला धनमित्रे पोताना पुत्र धनशर्मानी साथे दीक्षा लीधी. एक समये ते साधु धनमित्र पुत्र सहित गच्छनी साथे भयंकर ग्रीष्मऋतुमां पृथ्वी उपर विहार करता करता कोई अटवीमां तेओ आवी पड्या, त्यां सर्व साधुओ क्षुधा तथा तृषाथी आकुळव्याकुळ थई गया. तेओमां सर्वथी लघु धनशर्मा विशेष पीडा पामवा लाग्यो. तृषाने लईने तेनो कंठ सुकाई गयो. ते रस्तामां चाली शक्यो नहि, तेथी ते पाछळ रही चालवा लाग्यो. तेनो पिता धनमित्र पुत्रना मोहथी तेनी साथे रह्यो. ते क्षुल्लक मुनि जेम मंदमंद चाले तेम तेनो पिता तेनी आगळ चालतो, कारण के तेने ते पुत्र प्राणथी पण वधारे वल्लभ हतो. तेवामां निर्मळ जळवाळी एक नदी रस्तामां आवी. जेम रोगी अमृतना संचयने जोई खुशी थाय, तेम साधु ते नदीने जोई खुशी थयो. मुनि धनमित्रे कयुं, "वत्स जल पी, के जेथी तारा प्राण बचे अने हमणां ज तुं मुनिओना साथमां चालवाने समर्थ थई शके." आ प्रमाणे कही मुनि धनमित्र नदीने पेले पार जई झाडनी ओथे छूपाई रह्या. कारण के जेथी पोतानो पुत्र मुनि धनशर्मा नदीनुं जळ पीतां शरमाय नहि. पछी मुनि धनशर्मा नदीमां पेठो अने अंजलिमां जळ लीधुं, तेवामां तेने आ प्रमाणे विचार आव्यो-"आ जळना एक बिंदुमां जिनेश्वरदेवे कहेला असंख्याता जीवो सदा होय छे अने तेमां घणां त्रस जीवो प्रत्यक्ष रह्या छे. हे जीव, तुं हाल प्राणातिपात विरतिनुं व्रत लई तारा एक जीवने माटे ते असंख्याता जीवोने केम मारे छे? अरे आत्मा आQ अकृत्य-नठारु काम करवाथी कांई कल्पांत सुधी जीवातुं नथी अने ग्रहण करेला व्रतनुं खंडन करवाथी कल्पांत तो थाय ज छे. मारा स्नेहमूढ पिता जो के जल पीवानी आज्ञा आपे छे परंतु सर्वज्ञ, वचन उल्लंघन करवू नहिं." आ प्रमाणे भावना भावी मुनि धनशर्माए अंजलीमांथी जळ छोडी दीधुं अने पछी ते नदीने बीजे तीरे गया. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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धनशानी कथा त्यां क्षणवारमा ते प्राण मुक्त थई गया. शुभ भावने लईने ते वैमानिक देवता थया. मुहूर्त मात्रमा अवधिज्ञानथी पूर्वभव जाणी तेणे पोताना हृदयमा विचार्यु के, "मुनिओने मारा मरणथी खेद न थाओ" आवो विचार करी तेणे पोताना शरीरमां अधिवास कर्यो, तत्काल शीघ्र गतिथी तेणे चालवा मांड्यु. आ पुत्रे पाणी पीधुं, एम मानता मुनि धनमित्रने तेथी घणुं सुख उत्पन्न थयु. पछी क्षुधा तथा तृषाथी पीडित एवा बीजा मुनिओने जाणी तेणे ठेकाणे ठेकाणे वैक्रिय गोकुल बनावी दीधां. परम खरा अर्थने नहि जाणनारा ते मुनिओए ते गोकुलमांथी छास वहोरी तेनुं सारी रीते पान कयुं. "सन्तः सरलबुद्धयः" सत्पुरुषो सरळ बुद्धिवाळा होय छे. पछी पोतानुं स्वरूप ओळखाववा माटे ते देवताए कोई साधुनी उपधि नजीकना गोकुलमां भूलावी दीधी. ते मुनि ज्यारे गाम तरफ गया; त्यारे तेणे मुनिओनी आगळ जणाव्यु के, "आ नजीकना गोकुलमां मारी उपधि पडी रही छे, तेथी हुं ते लई आq त्यां सुधी तमे अहिं मारी राह जुओ" आ प्रमाणे कही ते गोकुलमा गयो, त्यां पोतानी फक्त उपधि जोवामां आवी पण गोकुल जोवामां आव्यु नहिं ।।१०००।। तेणे आवी ते समाचार मुनिओने कह्या त्यारे तेओए ते गोकुल देवताए निर्माण करेलुं जाणी मिथ्या दुष्कृत्य आप्यु, पछी पेला धनशर्मा देवताए प्रगट थई पोताना पिता सिवाय बीजा मुनिओने भावना युक्त थई विधिपूर्वक वंदना करी, ते वखते ते उत्तम साधुओए पूछ्युं के, "तमे कोण छो?" त्यारे तेणे का के, "हुँ क्षुल्लक धनशर्मा मुनि छु. मुनिओए प्रश्न कर्यो-तो पछी तमोए हमणां आ तमारा पोताना पिताने वंदना केम न करी?" तेणे कडं, "आ मारा पिताए मने पूर्वे पाप बुद्धि आपी हती. तेथी अहिंसा व्रत- खंडन करनारा ते पिताने में वंदना न करी" "एम शी रीते बन्यु?" मुनिओए पुनः प्रश्न कर्यो एटले तेणे पोताना पिता अने पोताना संबंधमां प्रथम जे हकीकत बनेली ते बधी कही संभळावी. ते समये धनमित्र मुनि बोल्या, "हे मुनि, मारुं मिथ्या दुष्कृत हो अने जे में सिद्धांतनी विरुद्ध कयु, ते क्षमा करो." देवताए कह्यु, "हवेथी जे श्री जिन भगवाने कहेलुं होय, ते रागथी के द्वेषथी तमारे विराधq नहीं, कारण के ते अनंत संसार, कारण थाय छे." पछी धनशर्मा देव खामणा पूर्वक मुनिओने नमी स्वर्गलोकमां चाल्यो गयो. हे मुनि, एवी रीते तमारे कदिपण अप्रासुक आहारादि ग्रहण करवा नहि. एषणासमितिवाळा मुनि धर्मरुचि नामना मुनिनी जेम द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाववडे विरुद्ध एवं अशनादि ग्रहण करता नथी.
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धर्मरुचि मनिनी कथा
धर्मरुचि मुनिनी कथा कोईएक गच्छमां नामथी अने गुणथी धर्मरुचि नामना मुनि हता. तेमनुं हृदय सदाचारनो विचार करवामां चतुर हतुं. तेओ ग्रीष्मऋतुमां अट्ठम वगेरे तप करी अभिग्रहने ग्रहण करवामां आदरवाळा थई अने इंद्रियोनो जय करी परिषहोना समूहथी पोताना आत्माने आतापना आपता हता. एक वखते बीजे गाम विहार करी जता एवा तेओ कोई जंगलमां आवी चड्या. त्यां क्षुधा अने तुषानी बाधाथी तेमना प्राण कंठे आवी गया. आ वखते ते जंगलमां कोई व्यंतरी वनदेवीए बे वैक्रिय पुरुषो उत्पन्न कर्या. तेओमा एकना हाथमां कांजीथी भरेलुं तुंबडुं विकुव्यु, ते पुरुषे बीजा पुरुषने का, "अरे भाई, आ कांजी पीजा" "हुं तृषातुर नथी" एम तेणे जवाब आप्यो. पछी ते बोल्यो "आ कांजीनो भार कोण उपाडशे?" त्यारे पेलाए कडं "आ साधुने आपी दे अथवा जमीन उपर फेंकी दे, मारे फरीवार ते कांजीनु कांई काम नथी." ते सांभळी तेणे धर्मरुचि मुनिने का, "जो तमारे काम होय तो आ कांजी ल्यो. आ तृष (छाल्ला)नुं पाणी छे, जेथी तमारे छोडी दीधेला भिक्षाना आहार जेवू थशे." पछी ते मुनिए तेने उपयोग आपी जोई ते केव॒ द्रव्य छे, तेनो विचार कर्यो. तत्काळ मुनिए विचार्यु के, "आ कांजीमां खुशबो आवे छे, तेथी ते कांजी नथी वळी ग्रीष्मऋतुमां पुष्पिका वगर आबु कांजीक मळवू मुश्केल छे." आईं विचारी तेणे ते बंने पुरुषोनुं दृष्टिथी . आदरपूर्वक अवलोकन कयु. त्यां ते बंने नरो 'अनिमेष दृष्टिवाळा अने जेमना चरण जमीनने लागेला नथी एवा जोवामां आव्या. ते उपरथी अभ्याहृत वगेरे दोषनो मुनिने भय लाग्यो. एटले ते तेमणे ग्रहण कयु नहि. ते समये ते व्यंतरी प्रत्यक्ष थई अने तेणीए मुनिने कर्वा के, "जेणे पिपासानो परीषह जीत्यो छे, एवा तमने धन्य छे." आ प्रमाणे मुनिनी स्तुति करी अने नमस्कार करी ते देवी अदृश्य थई गई, पछी ते धर्मरुचि मुनि अहंकार रहित थई पृथ्वी उपर विहार करवा लाग्या. हे विचक्षणमुनि, आवी रीते एषणा समिति पाळवी के जेथी शुद्ध आहारना सेवनथी तमारी कायानी शुद्धि थाय.
जे वस्तु दृष्टिथी जोईने अने पछी रजोहरण वगेरेथी पुंजीने लेवामां आवे अने मूकवामां आवे, ते चोथी आदानसमिति कहेवाय छे. ते आदानसमितिने नहीं पाळवाथी जेवा दोष थाय छे, तेम तेने पाळवाथी तेवा गुण थाय छे, ते सोमिलाना दृष्टांत उपरथी साधुए तरत ज जाणी लेवू जोईए. 1. आंखना पलकारा न थाय तेवी दृष्टि. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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सोमिलार्यनी कथा
सोमिलार्यनी कथा पूर्वे कोईएक नगरमां सोमिलार्य नामना ब्राह्मणे पोताना पापनी शुद्धिने माटे गुरुनी समीपे दीक्षा ग्रहण करी. एक वखते तेना आचार्यगुरुनी विहार करवानी इच्छा थई आवतां तेमणे सोमिलार्यने कह्यु के, "पात्रां-उपकरणो सत्वर बांधी तैयार करीले." ते सोमिलार्य मुनिए गुरुना कहेवा प्रमाणे करी लीधुं. तेवामां कोई कार्यने लईने गुरु रोकाई गया. पछी ज्यारे पौरुषी (पोरसी) आवी एटले गुरुए ते मुनिने तरत कर्वा के, "हमणां विधिथी ते पात्र उपकरणो वगेरेनी यथाविधि-अन्युनाधिक एवी प्रतिलेखना फरीवार कर. ते प्रतिलेखनानो विधि आ प्रमाणे करवानो छे.
वस्त्रनी प्रतिलेखनामां एक दृष्टिए नव प्रतिलेखना छे. ते आखोटक प्रखोटक अने पुरिम ए छ कहेली छे. देहनी प्रतिलेखना मस्तक, मुख, हृदय अने चरणमा प्रत्येकने त्रण त्रण अने पृष्ट भागे चार प्रतिलेखना छे. पात्रने बाहर बार अने मध्ये बार प्रतिलेखना कहेली छे. अने हाथना स्पर्शथी एक-एवी रीते त्रणेमां बधी मळीने पच्चीस प्रतिलेखना थाय छे. प्रभात काले मुखवस्त्रिका, रजोहरण, बे निषद्या, चोलपट्ट, त्रण कल्प, संथारो अने उत्तरीयवस्त्र-एम दश प्रतिलेखना थाय छे. आना संबंधथी राईप्रतिक्रमणनो समय समजी लेवो. सूर्योदय पहेलां प्रातःकाले प्रतिक्रमणनो वखत विद्वानोए जाणी लेवो. एक पाये ऊणी पौरुषी होय, त्यारे प्रथम मुहपत्ती, गुच्छक, दोरो, पछी पटल, पछी पात्रोना केशरीआ, पात्रक, पछी मात्रक, रजस्राण, पात्रबंध (झोळी) अने ते पछी परिष्ठापनक, मुखवस्त्र, चोलपट्टो, वसति, गुच्छक, पछी परिष्ठापनक, पात्राना केशरा, पात्रानुं बंधन, पटळ (पडलां), रजस्राण, मात्रक, पात्रक, पछी सूतरना अने उनना त्रण कल्प, पछी उत्तम संथारो, काजो लेनार साधुए अवळी रीते दांडो अने चोलपट्टो पडिलेहवा. उपवास होय ते दिवसे तो छेल्ले पहोर दांडो अने चोलपट्टानी छेडे (बीजी प्रतिलेखना कीधा पछी) प्रतिलेखना करवी." गुरुनां आवा वचन सांभळी तेणे गुरुने कडं, में हमणां ज अगाउ प्रतिलेखना करी छे, तो पुनः वृथा शा माटे करवी जोईए? गुरु बोल्या, "अरे मुनि, श्री केवळी भगवानने ते प्रतिलेखना, वस्त्रादिक जंतुओ वडे संसक्त होय तो करवानी होय छे अने छद्मस्थोने ते असंसक्त अने संसक्त उभयथी करवानी होय छे. ते पदार्थोमां मध्ये कदाचित् निश्चये कलीब-नपुंसक जीव होय, तेथी छद्मस्थ मुनिओए तो ते प्रतिलेखना सतत करवी ज जोईए." आथी ते मुनिए हृदयमां रोष लावीने गुरुने उंचे स्वरे कडं, "शुं ते
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धर्मरुचि मुनिनी कथा पदार्थोनी मध्ये सर्प हशे?" गुरु बोल्या, "हा, वखते सर्प पण होय." पछी ते मुनि गुरुनां वचनना बळथी रोष धरी बबडतो बबडतो सीकुं (झोळीनी गांठ) छोडवा लाग्यो अने नाक मरडवा लाग्यो. तेवामां शासनदेवीए ते पदार्थोमां एक वैक्रिय सर्प नाखी दीधो. तेने जोतां ज ते मुनि संभ्रम पामी गुरुना शरणे आव्यो. तेणे पोताना प्रगट अपराधने आदरपूर्वक खमावा मांड्यो. ते समये देवी पण प्रगट थई तेने ठपको आप्यो. पछी संवेगने प्राप्त थयेला ते सोमिलार्य मुनिए गुरुने आदरथी जणाव्यु के, "भगवन्, हवे आजथी हुं प्रमाद करीश नहिं. आपनी पासे जे साधुओ आवशे तेमना दांडाने हुं ग्रहण करीश अने आसन आपीश." पछी सोमिलार्य मुनि आचार्यनी पासे जे घणा साधुओ आवे तेमनी सन्मुख जवा लाग्यो अने तेमना चरणोने पुजवा लाग्यो. तेमना दांडाने लई, नीचे तथा उपर पुंजी सारे स्थाने मूकवा लाग्यो अने पोते मनमां दुःख कंटाळो लाव्या वगर तेमने मान आपवा लाग्यो. ज्यारे ऋणरहित पुण्यवान् साधुओनो गण जंगलमां आव्यो होय, तो त्यां पण ते नित्य विनय करतो अने आदानसमिति पाळतो हतो. कृतार्थ सोमिलार्य मुनि ते समितिना प्रभावथी कर्मनो क्षय करी, केवलज्ञान प्राप्त करी मोक्षने प्राप्त थया. एवी रीते हे मुनि, तमे पण सदा चोथी समितिने धारण करो के जेथी कर्मथी मुक्त थई शको. ।।१०५२।।
जे ठल्लो (वडीनीति), मूत्र (लघुनीति), अनेषणीय (सदोष-अकल्प्य), आहार वगेरे ज्ञानीए बतावेला निर्दोष स्थानमा परठवे ते पांचमी उत्सर्ग समिति कहेवाय छे. ज्यां लोकोनी आवजाव न होय, कोई जुवे तेवू न होय, स्त्री, नपुंसक अने पशुथी जे वर्जित होय अने जे निर्जीव, छायावाळु अने दर राफडा वगरनुं शुद्ध स्थान होय, तेवा स्थानमां दिशा, गाम, सूर्य अने पवनने सन्मुख वर्जीने अने अवग्रह (भूमि)नी अनुज्ञा लईने सद्बुद्धिमुनिए ठल्लो करवो जोईए. जे मुनिए पांचमी समितिने उत्कृष्ट शक्तिवडे सदा पाळे छे. ते धर्मरुचि मुनिनी जेम संयमनी शुद्धिवाळो थाय छे.
धर्मचि मुनिनी कथा कोई एक गच्छमां मूल गुण तथा उत्तर गुणोथी अग्रणी थयेला अने सिद्धांत भणवामां उद्योगी रहेनारा धर्मरुचि नामे एक पवित्र मुनि हता. एक वखते संध्याकाले स्वाध्याय करवामां व्यग्र हृदयने लईने तेमनाथी मूत्र करवानी भूमिने लगतुं स्थंडिल शोधी शकायुं नहीं, तेथी तेमनुं पेट स्थूल थई गयुं अने कुक्षिमां शुल उत्पन्न थई आव्यु. ते समये शीतकाळमां हाजतना वेगने धारण करवाथी ते श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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जिनदासनी कथा मुनि आकुल-व्याकुल बनी गया. तथापि ते भवभीरु मुनि शरीर चिंता करता नथी. अहो! मेरु पर्वत कल्पांतकाले पण पोतानी मर्यादा छोडतो नथी. विशेषमां ते मुनिए उलटो पोताना आत्माने उपदेश आपवा मांड्यो. विचारवान् मनुष्य शिष्टलोकने उचित ज कार्य करे. "अरे जीव, तुं आ संसारमा प्रमादने लईने नवानवा भवमां भम्यो छे, छतां तुं तेथी थाकी गयो नथी के हमणां पण तेवू ज करे छे? ज्यारे तुं आ ठल्ला-मात्राना निरोधथी आकुल-व्याकुल बनी गयो, तो पछी जो तारी गति निगोदमां थशे, तो त्यां ते निगोदनुं दुःख शी रीते सहन करी शकीश?" आ प्रमाणे भावना करतां ते मुनिने जाणी कोई देवताए तेनी पीडा सत्वर नाश करवाने खुल्लुं प्रभात बनावी दीधुं. पछी ते मुनिए स्थंडिलनी प्रतिलेखना करी जेवामां मुत्रोत्सर्गनी क्रिया करी रह्या, तेवामां स्वाभाविक रीते पार्छ अंधकार थई गयु. तेथी तेमणे ते देवनी माया जाणी मिथ्या दुष्कृत आप्यु अने देवताए प्रत्यक्ष सानिध्य कयु, छतां पण तेणे गर्व कर्यो नहिं. हे मुनि, आ प्रमाणे तमारे पांचमी समिति धारण करवी के, जेथी उत्तम एवा मुनिने तत्काळ संसारनो क्षय थई जाय.
विकल्पनी कल्पनाथी मुक्त अने समतारूपी अमृतथी सिंचित थयेलुं जे मन होय, तेने कुशळ पुरुषोए मनोगुप्ति कहेली छे. कोपरहित पुरुषोनां मुगटरूप अने श्रद्धाने धारण करनारो कोई श्रावक जिनदासनी जेम बाधाओथी पराभव पाम्या छतां पण ए मनोगुप्तिने धारण करी राखे छे.
जिनदासनी कथा चंपा नगरीमां श्रावकनी प्रतिमाने धारण करनार, शुद्ध हृदयवाळो अने सदा दयाळु जिनदास नामे एक श्रावक हतो. ते आठम वगेरे शुभ पर्वना दिवसोमां एकांत गृहनी अंदर निर्विकार थई विशेषपणे प्रमाणवाळी प्रतिमा वहेतो हतो. एक वखते ते चौदशने दिवसे पौषध लई पोताना घरनी नजीकना कोई घरमां रात्रे प्रतिमा (काउसग्ग मुद्रा)ने प्राप्त थयो हतो. ते ज रात्रे तेनी स्त्री पोतानो पलंग लई परपुरुषनी साथे दैवयोगे त्यां आवी. अंधकारवडे दृष्टि रुंधाई जवाथी तेणीए 'प्रकृतिवडे पार्श्वग एवा पोताना धणीने त्यां रहेलो जोयो नहीं. जेना चारे पायामां लोढाना खीला जडेला तेथी निश्चल एवो ते साथे आणेलो पलंग तेणीए वेगथी त्यां पछाडीने मुक्यो. त्यां कायोत्सर्ग रहेला जिनदासना चरणमां तेनो एक खीलो 1. प्रकृति-स्वभाववढे पार्श्वग-पडने ( स्थिर रहेला पक्षे स्वभावर्थी ज) पार्श्व-पार्श्वनाथ प्रभुने अनुसरनार.
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जिनदासनी कथा आवी गयो, ते चरणने भेदी जमीनमां पेसी गयो. पोतानी स्त्रीने आवी दुराचरणी जाण्या छतां चरणमां उत्पन्न थयेली नवी पीडाने सहन करतां पण ते जिनदासना हृदयमां खेद उत्पन्न थयो नहिं. भावनाना समूहथी प्रकाशमान एवा ते भव्य आत्माए पोताना हृदयमां आ संसार- विषम स्वरूप भाववा मांड्यु.- "हे आत्मा, ते पूर्वे अनंत अनाचारी स्त्रीओ भोगवीने छोडी दीधी छे, आ स्त्रीने पण तेओ मांहेली एक बीजी गणी लेजे विद्वानोए शास्त्रमा स्त्रीओने आवी ज कहेली छे. लींबडो पोतानी कटुता दर्शावे, तेमां आश्चर्य शु! जेम जल नीची (जमीन) तरफ जाय छे, सर्प वक्रगतिए चाले छे अने अग्नि ताप करनार होय छे, तेवी रीते लोकोमा वामा-स्त्रीओ पण वामा विषम ज होय छे. जो, तुं तारा नीचगामी चित्तने एवी बाबतमां व्यापार करावीश, तो ते चित्त तने जरूर अनर्थ ज करावशे. जेवां कर्मो बीजो माणस करे छे, तेवां ज कर्मो मनवडे करीने ज (बीजो) बांधे छे; अहो! चेतन! तेथी तुं तारा चळ-अस्थिर चित्तने स्थिर कर. सुख अने दुःख चित्तने आधीन छे. चित्तनो व्यापार करतां ते सुख दुःख प्रवर्ते छे अने चित्तनो निरोध करवाथी ते सुख दुःखनो रोध थाय छे, माटे चित्तनो रोध करजे. ते पूर्वे नरकमां अनंतगणी पीडाओ भोगवी छे, तेमां तने एक निमेष मात्रपण सुख थयु नथी. आ मन तो पाप करीने दूर चाल्युं जशे, पछी खरी रीते तुं एकलो आ दुःखने सहन करीश." आ प्रमाणे भावना भावतो जिनदास मृत्यु पामीने विख्यात कीर्तिवाळो वैमानिक देवता थयो. अहिं ज्यारे पोताना स्वामीनो देह पृथ्वी उपर पडेलो जोयो, एटले ते स्त्री संभ्रम पामी गई. पछी ए बधो वृत्तांत जाणवामां आवता तेणीना हृदयमां खेद उत्पन्न थई आव्यो. आ वखते जिनदास देवरूपे अवधिज्ञानथी पोतानी स्त्रीनी स्थिति जाणी त्यां आव्यो अने तेणीने अने पेला परपुरुषने प्रतिबोध आपी दीक्षा अपावी. दूध शेलडीनो रस अने जलनी जेम स्वभावे शीतळ एवा सत्पुरुषो कोई तापित (पीडित) थया होय, छतां विक्रिया (रोष) करता नथी. अन्यना अपराधने प्रगट जाण्या छतां गृहस्थो पण जो एवी रीते मननो (अत्यंत) निग्रह करी शके छे, तो पछी मुनिओनी शी स्तुति करवी?
जे सतत मौन धारण करे अथवा वाणीनी वृत्तिनो संवर करे, ते साधु जिन शासनमां वाग्गुप्ति-वचन गुप्तिनो धारक कहेवाय छे. ।।१०९०।।
आ वखते पद्मसेन मुनिए प्रश्न कर्यो के, "भाषासमिति अने वागगुप्तिए बनेमां शो तफावत छे? ते (कृपा करी) कहो." गुरु बोल्या-"जे साधु भाषा समितिवाळा होय ते वाग्गुप्ति वाळा अवश्य होय छे, पण जे वाग्गुप्तिवाळा होय, श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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गुणदत्त साधुनी कथा ते भाषासमितिवाळा होय या न होय. कुशळ-डहापण भयुं जयणायुक्त वचन उच्चरतो मुनि वचन गुप्तिवंत कहेवाय, परंतु केवळ मौनधारी रहेनार (तथा प्रकारना लक्ष वगर) भाषासमितिने पामी न शके, एटलो तफावत छे. जे मुनि गुणदत्त साधुनी जेम वाग्गुप्तिने धारण करे छे, ते मुनिनी आज्ञाने चोर लोको पण मस्तक पर उठावे छे.
गुणदत्त साधुनी कथा कोई एक नगरमां सारीज्ञातिनी विख्यातिवाळो अने गुणोनी श्रेणीथी विभूषित गुणदत्त नामे एक कुमार हतो. एक वखते ते 'वियोग रहित हतो, छतां पण पुण्यना प्रसादथी योगनो कारणरूप गुरुना उत्तम संयोग थई आव्यो तेथी ते गुणदत्त कुमारे संसार, वैभव, चतुर मातापिता अने उत्तम स्वजन वर्गने छोडी दई ते गुरु पासे व्रत ग्रहण कयु. अनुक्रमे ते गीतार्थ थयो. एक वखते परमार्थ (परोपकार) करवानी इच्छाथी स्वजनोने बोध आपवा ते मार्गे विहार करतो हतो, तेवामां कोईवार अनेक उत्तम शहेरीओने लुटनार, क्रुर हृदयवाळा, अन्यायी अने स्वेच्छा प्रमाणे आहार करनारा म्लेच्छ चोरो तेने मन्या. ते मुनिने निग्रंथ धारी तेमणे छोडी मुक्या. परंतु तेओमांथी एक मुख्यचोरे कर्वा के "आ मार्गे चोरो छे," एम तमारे कोईने कहेवू नहि. ।।११०० ।। मुनिए ते कबूल कयु. पछी तेओ केटलेक मार्गे चाल्या, त्यां पोतानो माता पिता वगैरे सर्व स्वजनवर्ग यात्रा करवाने माटे नीकळेलो ते तेमने सामे मन्यो. ते भक्तिमान् स्वजनोए विनंती करी मुनिने पाछा वाल्या एटले तेओ तेमनी साथे मार्गे पाछा चालवा लाग्या. तेवामां पेला चोरोए आवी तेमने पकड्या अने तेमनुं सर्वस्व लुंटी लीधुं. तेमनी साथे साधुओमां शिरोमणिरूप ते मुनिने जोया, एटले चोरो बोल्या के, "आपणे जे मुनिने छोडी मूकेलो ते ज मुनि आ छे. तेणे आपणा भयथी कोईने आपणी वात जणावी नथी." चोरोनां आ वचन सांभळी सर्वनी साथे पकडायेली ते मुनिनी माताए क्रोध पामी ते चोरोनी सेनाना स्वामीने का, “तमो मने सत्वर छरी आपो, जेनाथी हुं मारा पेटने चीरी तेना बे भाग करूं." चोरपतिए कडं, "शा करणथी एम करे छे?" मुनिनी माता बोली, "जेने में नवमास पेटमा राख्यो, ते आ पुत्र कुपुत्र थयो, माटे तेने धारण करनार पेटने मारे चीरी नाखवू जोईए." "ते कुपुत्र शी रीते थयो?" चोरपतिए फरीथी पूछ्युं, मुनिनी माता बोली-"ते तमो अहिं 1. संसारपक्षे (कुटुंब-लक्ष्मी प्रमुखना) वियोग रहित-संयोगी हतो. 2. योग एटले मन, वचन अने कायाना योगने साधवानुं कारण संयम.
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गुणदत्त साधुनी कथा रहेला छो, एवं पोते जाणतो हतो, छतां तेणे अमोने ते वात कही नही, तेथी ए मारो कुपुत्र छे." ते सांभळी चोरपतिए मुनिने कां, "जो आ तारी माता हती, तो तें तेणीने अमारा खबर केम न आप्या? शुं ते अमारा भयने लईने नथी आप्या के?" मुनि बोल्या-"धर्म कर्म करतां श्री वीतराग प्रभुना वचन- खंडन थई जाय ते सिवाय वधारे आकरो बीजो भय मने लागतो नथी. वाणीने नियममां राखनारा मुनिओने सिद्धांतमा जे वाग्गुप्ति करवा कहेलुं छे, ते वाग्गुप्ति सर्वज्ञ प्रभुनी आज्ञाने पाळनारा सर्व यतिओए पाळवी जोईए. जे सर्व बे काने संभळाय अने बे नेत्रोथी जोवाय, पण जो ते सावद्य-दूषित होय, तो साधुओए कोईने कहे, न जोईए." चोरपति बोल्यो-"अरे मुनि, ए खरुं छे, पण तेवू बीजाओनी आगळ न कहेवाय, पण पोताना माता वगेरे स्वजनोने तो तेमनुं हित थाय तेवू कहेवू जोईए." वाणीने नियममा राखनारा मुनिए जवाब आप्यो, एवी रीते कहेवं, ए गृहस्थोनी स्थितिमां खरं, पण जेओ सर्वसंगनो त्याग करनारा मुनिओ छे, तेमने तो सर्व स्थळे समानभाव राखवो जोईए. अहो! आ जे मारी माता छे, ते पूर्वे अनंतवार मारी माता थयेली छे अने अनंतवार हुं पण तेनी माता थयेल होईश. जे माता वगेरे स्वजन वर्ग छे, ते सर्व रीते हितकारी छे, तथापि दुर्गतिमां पडनार पुरुषोने ते सहायकारी थतो ज नथी. जेम घणां सहायको छतां पण अतिशय थयेला रोग वगेरे भोगववा पडे छे, तेम घणा सहायको होय, तो पण जेणे जे कर्म कयु ते तेने भोगवq ज पडे छे." मुनिनी आवी देशनाथी ते चोरस्वामी प्रतिबोध पामी गयो अने तेणे का के, "जेनी आवी बुद्धि छे, एवा आपने धन्य छे अने आ पृथ्वी उपर आप अगण्य पुण्यवाळा छो. आजे मने पण तरत प्रतिबोध थई गयो छे, हवे आजथी हुं चोरीनो धंधो कदिपण करीश नहिं." पछी ते चोरपतिए मुनिनी कुलीन माताने पोतानी माताना जेवी मानी तेणीनो सत्कार कर्यो अने पोते जे लूट्युं हतुं, ते बधुं तेणीने सर्वथा-शुद्ध उदार (भावथी) पाछु आपी दीधुं. उज्ज्वळ हृदयवाळा ते कृतज्ञ चोरपतिए पोताना स्वजनरूप बीजा चोरोने चोरी करवाना पापथी रहित अने श्री जिन भगवंतनी आज्ञा तथा आचारने धारण करनारा करी दीधा. ।।११२०।।
हे मुनि! एवी रीते गुणोथी शोभता एवा तमारे सतत वाग्गुप्ति धारण करवी, जेथी पछी तमारी वाणी अन्यथा जुदी रीतनी के वृथा-फोगटनी शी रीते थाय? अर्थात् न ज थाय. जे दयाने लईने काचबानी जेम पोताना अंग तथा उपांग संकोची कायोत्सर्ग वगेरेमां रहे, ते मुनि कायगुप्सिनो धारक कहेवाय छे. जे मनुष्य श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवनुं वृत्तांत पोताना हृदयमां विवेक राखी ए कायगुप्तिने धारण करे छे, तेणे दुःखमां पण मार्गे चालता एक साधुनी जेम ते पाळवी जोईए.
मार्गे चालता एक साधुनी कथा कोई विद्वान उत्तम साधु सार्थनी साथे चालतां मार्गे पृथ्वीकाय वगेरे जीवोनुं सदा सावधान थई रक्षण करता हता. ते सार्थ स्वाभाविक रीते ज्यां जलवाळो प्रदेश होय त्यां वसतो हतो अने तेवा प्रदेशमा सहज रीते लीलोतरीमां घणां त्रस जीवोनो संभव होय ज; त्यां ते विचक्षण मुनि सर्व रीते अति जयणाथी भूमिना भागने शोधीने रहेता हता. साधुओ प्राये करीने दयाळु ज होय छे. एक दिवसे ते सार्थ जेमां घणां त्रस जीवो अने हरितकाय-लीलोतरीना जीवो हता, तेवा भागमा रह्यो, त्यां ते साधुने शुद्ध वास स्थान मन्यु नहिं. फक्त एक पग मुकी शकाय तेटलो छकाय जीव वगरनो कोई भूमिनो भाग तेमने दैवयोगे वास करवाने माटे घणी मुश्केलीथी मळी शक्यो. ते भागमां एक पग मूकी ते साधु लोकोने
चमत्कार उपजावता अने हृदयमां नवकार मंत्र संभारता कायोत्सर्गे रह्या. आ .समये इंद्रे ज्ञानथी जंबूद्वीप, अवलोकन कयु, त्यां ते कष्टथी शरीरने टकावी राखी रहेला मुनि तेना जोवामां आव्या. त्यारे इंद्रे हर्षथी तेमने प्रणाम कर्यो अने स्तुति करी. ते वखते पूर्वनी जेम कोई मिथ्यादृष्टि देव त्यां आव्यो. तेणे सिंहनुं रूप लई ते मुनिने कायोत्सर्गमांथी पाडी नाख्या, मुनिए मिथ्या दुष्कृत कही पुनः कायोत्सर्ग धारण कर्यो अने ते पोताना हृदयमां आ प्रमाणे चिंतववा लाग्या"अरे! जीव, तुं एक पगे रहेतां तने थोडं दुःख थयुं हशे, पण तारा पडवाथी बीजा घणां जीवोनो क्षय थाय छे. तुं कायोत्सर्ग रहेतां तारा अंग तथा उपांग जे भांगे छे, ते बहार वृत्तिथी भांगे छे, परंतु तारा अंतरंगो तो आत्मानी पुष्टिने माटे थाय छे. हे सत्तम, जे आ कोई सिंह- रूप धरीने आवे छे, ते पोते बंधुबुद्धिथी तारा कर्मनो क्षय करे छे, तेथी तेने मान आपजे. व्याधिने हरनार सारो वैद्य कडवा औषध आपे अने अंगनो छेद करे, तो पण ते वैद्यने घणुं द्रव्य आपवामां आवे छे."
आ प्रमाणे भावना भावता ते मुनिने पेला देवताए उत्तम ज्ञानना बळथी जाणी लीधा. पछी पृथ्वीना मल (अशुचि) रहित एवा पोताना (दिव्य) स्वरूपने तेणे प्रगट कयु. पछी ते मुनिने नमस्कार करी अने इंद्रने ते वृत्तांत जणावी ते देवता प्रथम करेला अभिमानने छोडी पोताने स्थाने चाल्यो गयो. अने सर्व सार्थना लोकोए भक्तिपूर्वक प्रणाम करेला ते साधुए पोताना भावथी जिनधर्मनी 210
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवतुं वृत्तांत प्रशंसा करी. आ प्रमाणे हे मुनि, तमारे पण यत्नथी कायगुप्तिनुं पालन करवू, जेथी तमारुं प्रथम व्रत सर्व प्रकारे शुद्ध थाय.
वळी का छे के, "साधुपुरुष पण जो 'भग्नसूत्र थाय, तो ते अन्य पासेथी अर्थ मेळवी शकतो नथी. तेथी तमारे सन्मानना व्यवसायथी ते सूत्रनुं रक्षण करवं. जे पुरुषो सदाचारी अने ध्रुव दर्शनवाळा होय छे ते उत्तरकाष्ठाने भजे छे, पण अपर बीजी पूर्वाशाने भजता नथी. जे विश्वमा ऋषि थईने पण दक्षिणदिशाने छोडता नथी, ते क्षमाधारी थई वृद्धि पामता नथी. पण अंदर खारो अने लक्ष्मीनो जनक थाय छे. जे त्रण जगतना जीवोनी जेम मारुं तारुं करतो नथी-समसर्वत्र समभावने धारण करे छे. तेवा (समभावी)नुं 'दर्शन थतां लोको आत्माने सारी रीते जाणनारा थाय छे, ए आश्चर्यनी वात छे. जे आ लोकमा मुक्तिने सेवे नहीं तेने परलोकमां ते मुक्ति क्याथी होय? कारण के लोके सेवन करेली वामा परलोकमां साथे रहेनारी थाय छे. हे मुनि, अहिं तुं क्षमाभृत् थयो छे तो हवे अतुल्य एवी 'क्षमाने धारण कर. "सुगोत्रना अर्थने धारण करनारा साधुओ- पद उच्च छे. जे विक्रम छोडवामां आवे ते मोक्षमार्गमां 10विक्रमरूप बने छे, तेथी ते विक्रम मन, वचन अने कायाना योगमां योजी जिन नामने अर्थे 1. साधुपक्षे भग्नसूत्र-एटले सूत्रना अभ्यासनो भंग करनार (मंद) थाय तो बीजा शास्त्र संबंधी
अर्थ-मेळवी शकतो नथी, तेथी गुरु वगेरेना सन्मानी सूत्रना अभ्यासतुं रक्षण करवू, साधु-साहुकारपक्षे जे भग्नसूत्र एटले व्यवहारनो भंग करनार थाय छे, तो अन्य-बीजा पासेथी तेने अर्थ-द्रव्य मळतुं नथी. तेथी साहुकारे सारा मानथी पोताना व्यवसाय धंधानुं रक्षण करवं. 2. सदाचारी एटले सारा आचारवाळा अने ध्रुव-निश्चळ दर्शनवाळा होय, ते उत्तरकाष्ठा उंची दिशा-स्थितिने भजे पण बीजी पूर्वाशा-पहेलानी आशा राखता नथी. जे सदाचार सदा गति करनार ध्रुवना तारानुं दर्शन उत्तरकाष्ठा-उत्तर दिशामां थाय छे, पूर्व दिशामां थतुं नथी. 3. जे ऋषिमुनि थया पछी दक्षिणाशा-दक्षिणा लेवानी आशा राखे छे ते क्षमाधारी क्षमाने धरनार साधु थया छतां वृद्धि पामतो नथी पक्षे जे ऋषिना तारा दक्षिण दिशामां उगे छे. ते क्षमाधारी पृथ्वी उपर आववाथी वृद्धि पामता नथी. आगळ वधता नथी. पण ते अंदर खारो-खारा जळवाळो अने लक्ष्मीनो पिता-समुद्र बने छे. 4. अर्थात् जे त्रण जगतमां कोईने पोतानुं के पारकुं जाणतो नथी, तेवा महात्माना दर्शनथी बीजा लोको पण आत्मभाव-परभाव जाणी शके छे, ए आश्चर्यनी वात छे. 5. उपसर्गसहं देहं, य: कुर्यात्तस्य नासुखं अनावृतं सदा वत्रं, शीतादिसहते खलु ॥११५२।। 6. जे आ लोकमां मुक्तिने संतोष-निर्लोभता-निष्परिग्रहताने सेवे छे-आदरे छे, तेने परलोकमां मुक्ति-मोक्ष मळे छे. आ लोकमां साथे रहेली स्त्रीओ परलोकमां पण साथे रहेनारी थाय छे. 7. क्षमाभृतक्षमाने धारण करनार पक्षे पर्वत. 8. क्षमा-क्षमागुण पक्षे पृथ्वी. 9. सुगोत्र-सारं गोत्र कुल पक्षे पर्वत. 10. विक्रम-विशेष प्रवृत्ति.
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवनुं वृत्तांत (निराशी भावे निःस्पृहपणे) करवो. हे मुनि, द्रव्य वगेरेनो प्रतिबंध छोडी तमारे विहार कर्या करवो. कारण के प्रतिबंध राखवाथी शरीरने क्लेश थाय छे अने पापनो लेश प्राप्त थाय छे. उत्कृष्ट गुणोमां अने बीजाना गुणोमां मत्सर करशो नहीं. तेम स्वगुण-आत्माना गुणनो अने पोताना गुणनो उत्कर्ष जणावशो नहिं." आ प्रमाणे गुरुनां वचनोने ग्रहण करी ते पद्मसेन मुनिए थोडा दिवसोमां पाठथी अने अर्थथी सर्व सिद्धांतनुं अवलोकन कयु. ते दयाळु हृदयवाळा मुनिए पोताना पूर्वना दुष्कर्मनो क्षय करवाने चतुर्थ, षष्ठ अने अष्टम वगेरे शुद्ध विविध तप करवा मांड्युं. 'जे पोतानो देह उपसर्गोने सहन करी शके एवो करे छे, तेने दुःख थतुं नथी. खरी वात छे के उघाडं मुख सदा शीत वगेरेने सहन करी शके छे. ते मुनि ए १. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्णता, ५. दंश, ६. अचेल, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान, २२. सम्यक्त्व एम बावीस परीषहोने सहन करवा मांड्या. आत्मसंवेदनीय-पोते अनुभवे तेवा देव, तिर्यच अने मनुष्ये करेला चार प्रकारना उपसर्गो तेणे पोताना हितने माटे सहन का.
- एक वखते विवेकथी गुरुनी आज्ञा लई गणमांथी जुदा नीकळी तेमणे साधुओनी आ प्रमाणे प्रतिमा वहन करी-अशन तथा पानवडे एक एक दत्तिने ग्रहण करता ते मुनिए एक मास सुधी पहेली प्रतिमा वहन करी, गच्छमां आव्या पछी एवी रीते मासनी दत्तिने वधारतां वधारतां सातमासवडे सातमी प्रतिमा वहन करी. पछी एकांतरा उपवास, आंबेलना पारणावडे पान (जळ) रहित गामनी बहार उत्तान शयन करी निश्चळ रही सात दिवस सुधी उग्रउपसर्गने सहन करतां आठमी प्रतिमा वहन करी पछी ते गणी गच्छमां आव्या. पछी एवी रीते मोटा कष्टोवाळा मुनिए उत्कटिकासने रही विधिपूर्वक सात दिवसवडे नवमी प्रतिमा करी, ए ज निष्ठा उपर रही विरासने ध्यानमां निश्चल बनी सात दिवसे दशमी प्रतिमा वहन करी. पछी अहोरात्रि बहार रही षष्ठ (छट्ठ) तप करी बे भजाओ लंबावी राखी अगियारमी प्रतिमा वहन करी. पछी अष्टम करी हाथ लंबावी राखी ध्यानमां लीन थई अने पोतानी दृष्टि सिद्धशिला तरफ राखी एक रात्रिनी बारमी प्रतिमा वहन करी. 1. विक्रम पराक्रम. 2. एक साथे अखंड-एक धारथी जे अन्न के जळ मळे ते तेनी एक दत्ति
लेखाय-कहाय ते पछी ते प्रमाणमां वधारे होय के अल्प कणमात्र के बिंदुमात्र अल्प होय.
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवनुं वृत्तांत पछी एक समये तेणे पोताना हृदयने शुभ वासना भावनाथी वासित करी शुद्ध विधिपूर्वक वीस स्थानकनी आ प्रमाणे आराधना करी. नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावना भेदवाळा श्री अरिहंत प्रभुनी नमस्कार तथा स्तवन वगेरेथी तेणे हर्षथी भक्ति करी. एकत्रीस गुणोना आधाररूप, निरंजन, निराकार, सर्वसामान्य अने असामान्य एवा सिद्ध भगवंतोने पोताना हृदयमा धारण कया. ते चतुर मुनिए चतुर्विध संघनी सन्मान, दान, विनय अने विविध प्रकारना सेवनथी पूजा करी. आशातनाना त्यागथी, आज्ञाना पालनथी, बहुमान अने निःस्पृहभावथी तेणे गुरुभक्ति करी. संयम-आचारने धारण करनारा वयोवृद्ध महर्षिओनी विश्रामणा वगेरेथी तेणे शुश्रूषा करी ।।११७०।। विशुद्धबुद्धिवाळा ते मुनिए द्वादशांगीने धारण करनारा विद्वान् उपाध्याय वगेरे वर्गोनी विशेषपणे भक्ति करी. छट्ठअष्टम वगेरे तप तपतां देहने धारण करवा पारणुं करनारा तपस्वीओनुं तेणे सदा वात्सल्य कयु. ते उत्तम मुनिए पूर्वे भणेला प्रख्यात शास्त्रनी विचारणा करी ज्ञाननो उपयोग कर्यो. मोहथी रहित कर्मोनो क्षय करनार अने मोक्ष आपनार एवा तत्त्वश्रद्धारूप लक्षणवाळा सम्यक्त्वमा पोतानु मन निश्चळ कयु. व्रतधारी पुरुषोनो सर्व गुणोनां मूलरूप एवो विनय करी तेणे लोकमां विशेष महत्त्व प्राप्त कयु. कर्मोनो क्षय करनारा अने संसार सागरमांथी तारनारा आवश्यक कार्योना अतिचारोनो तेमणे त्याग कर्यो. चित्तरूपी पशुने बांधवाना खीलारूप, विवेकी पुरुषोए मानेला अने धर्मना साररूप एवा शीळ उपर ते अकामी मुनिए खरी दृढता धारण करी. एक लव प्रमाण क्षणना पण काळमां प्रमादरहित थई तेणे पोताना हृदयने ध्यान वधारवामां सदा तत्पर राख्यु. क्रोध अने लोभनो त्याग करी अने ममता छोडी, कर्मनो क्षय करनार बार प्रकार- तप कयु. सारी बुद्धिवाळा ते मुनिए पोतानी लब्धिथी जे कांई विविध वस्त्र, अन तथा पात्रादि प्राप्त थतुं, ते हर्षथी सन्मानपूर्वक साधुओने अर्पण करी दीधुं. अतुल्य वात्सल्यना भारथी प्रकाशमान एवा ते मुनिए बाळ, ग्लान अने तपस्वी मुनिओनी वैयावच्च पोतानी निर्मळ इच्छाथी करी. बे प्रकारनी उपाधिवाळी उपधिनो त्याग करी समाधि करी अने ते साक्षात् असमाधिवाळा पर-शत्रु उपर पण समाधि करी बतावी. तेणे गुरुनो विनय करी सारी बुद्धिवडे श्रवण तथा अध्ययन करी अपूर्व ज्ञान संपादन कयुं. ज्ञानना अतिचारनो त्याग परिहार करी, ज्ञाननी उन्नति करी, बीजाने पठन करावीने पण ज्ञाननी भक्ति करी. उत्तम व्याख्यानो आपी, अन्य मतना वादीओने जीतीने, ते विज्ञानी मुनि शासनना प्रभावक थया हता. आ प्रमाणे वीस स्थानको सेववाथी कर्मरूपी-रोगना औषधरूप श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभव- वृत्तांत एवं तीर्थंकर नामकर्म तेमणे उपार्जन कयु. पछी विधिपूर्वक विशेष संलेखना करी आयुष्यने अंत समये तेमणे आ प्रमाणे आराधना करी
(चतुः शरण) - __ "जनसमूहे स्तवेला अने शुक्ल ध्यानरूपी धनवाळा अतीत, अनागत अने वर्तमान एवा प्रधान जिन भगवंतोनुं मारे शरण होजो. सर्वजनोए मानेला, योगीओए नमेला, ध्यानथी गम्य अने गुणोथी रमणीय एवा सनातन प्रसिद्ध सिद्ध भगवंतोनुं मारे शरण होजो. जेओ वाणीने नियंत्रणमा राखनारा अने संयमने पाळनारा अनेक प्रकारने नियमधारी मुनिओ छे, तेमनुं मारे शरण होजो. कल्याणना हेतुरूप, दयामय, नयमय अने श्री जिनभगवाने कहेलो प्रख्यात धर्म अत्यारे मारे शरण रूप होजो.
दुष्कृत्य गर्हा -
जे काल वगेरे आठ अतिचारो ज्ञानमा लाग्या होय ते सर्वमां मन, वचन अने कायाथी मारूं मिथ्या दुष्कृत्य होजो. दर्शनमा शंका वगेरे आठ अतिचारो लाग्या होय, ते सर्वमां मन, वचन अने कायाथी मारु मिथ्या दुष्कृत होजो. चारित्रमा प्रवचन माताने अनुसरतां जे आठ अतिचारो लाग्या होय ते सर्वमां मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. पृथ्वी वगेरे जे एकेंद्रिय जीवो माराथी हणाया होय, ते सर्वमां मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. कृमि, शंख, छीप वगेरे जे बे इंद्रिय जीवो माराथी हणाया होय, ते सर्वनं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. लीख, मांकड अने जू वगेरे जे तेईद्रिय जीवो माराथी हणाया होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारूं मिथ्या दुष्कृत होजो. माखी, भमरा अने पतंग वगेरे जे चार इंद्रियवाळा जीवो माराथी हणाया होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. जळ, स्थळ अने आकाशचारी जे पंचेंद्रिय जीवो माराथी हणाया होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. ।।१२००।। क्रोध, लोभ, भय अने हास्यने वश थई माराथी जे मिथ्या वाक्य बोलायुं होय, ते सर्वमन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. कोटी भवोमां कपट करीने जे में पारकुं घणुं धन लीधुं होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. अनंत भवोमां तिर्यंच, देव अने मनुष्य संबंधी जे में मैथुन सेव्यु होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. में पूर्वे प्रत्येक भवमां धन, धान्य अने सुवर्ण वगेरेमां ममत्व कयुं होय, ते सर्वनुं मन, वचन
श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवतुं वृत्तांत अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. गृहस्थपणामां पहेला अणुव्रतने आश्रयीने वध करवा वगेरे जे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. बीजा अणुव्रतने आश्रयीने रहेला मिथ्याउपदेश प्रमुख जे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारु मिथ्या दुष्कृत होजो. त्रीजा अणुव्रतने आश्रयीने जे चोरीथी लाववाना प्रयोग वगैरे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. चोथा अणुव्रतना जे अपरिग्रहित कन्यादिक (विधवा-वेश्या) ईत्वरअल्पकाळ माटे रखायत प्रत्ये गमन-विषय सेवन वगेरे अतिचारो माराथी थया होय, ते सक्नुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. पांचमा अणुव्रतना बंधन वगेरेथी धन प्रमुख नवविध परिग्रह संबंधी जे अतिचारो मने लाग्या होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. छट्ठा अणुव्रतना दिशा परिमाण विस्मरण प्रमुख जे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. सातमा अणुव्रतमां भोजनथी के कर्मथी जे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. आठमा अणुव्रतमां अधिकरण तथा योजन वगेरे जे अतिचारो थया होय, ते सर्व- मारुं मिथ्या दुष्कृत हजो. नवमां अणुव्रतमां मननुं नठारं चिंतवन वगेरे जे अतिचारो माराथी थया होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. दशमां व्रतमां प्रेषण प्रयोग वगेरे जे अतिचारो लाग्या होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. अगियारमा अणुव्रतमां तपास कर्या वगर मळ उत्सर्ग करवा वगैरे जे अतिचारो थया होय, ते सर्व- मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. अने बारमा अणुव्रतमा सचित्त वस्तु क्षेपण करवा वगेरे जे अतिचारो लाग्या होय, ते सर्वनुं मन, वचन अने कायाथी मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. रात्रिभोजन विरमण वगेरे नियमोनी अंदर जे कांई मारी स्खलना थई होय, तेमनुं मिथ्यादुष्कृत होजो. बाह्य अने अंतरंग मळी बार प्रकारना तपने शक्ति छतां में कयु न होय, ते विषे मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. मोक्षना मार्गने साधनारा योगोमां जे में मारा वीर्यने सतत फोरव्युं न होय, ते विषे मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. श्री गुरुना मुखथी में जे व्रतो अंगीकार करेला छे, ते व्रतो मारे फरीवार अंगीकार होजो. जे प्राणीओने में पूर्वे पीडा करी होय, ते सर्व प्राणीओ मने क्षमा आपो अने ते घणा प्राणीओनी साथे मारी सदा मैत्री रहो. प्राणातिपात, असत्य, अदत्तादान, श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवनुं वृत्तांत मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, (बीजापर आळ चडावq) परपरिवाद, रति अरति, माया-मृषावाद अने मिथ्यादर्शनशल्य ए अढार पापस्थानोनो मारे सदा त्याग होजो. तेमां हाल तो विशेष त्याग होजो. स्वर्ग तथा मोक्षने आपनार श्री जिन धर्मनो मार्ग ढांकी दई जे कुमार्ग प्रगट करवामां आव्यो तेनी हुं हमणां आत्मसाक्षीए निंदा गर्दा करूं छु. जे में देवनी चोराशी आशातनाथी दुष्कृत कयुं होय अने गुरुनी तेंत्रीस आशातनाथी दुष्कृत कर्यु होय ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. जे देवद्रव्य, गुरुद्रव्य अने साधारण द्रव्यभक्षण थतां उपेक्षा करी होय ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. सामर्थ्य छतां अर्थने हारी जई शासननी निंदा करनाराओने में वार्या न होय ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. में धर्ममां उद्यम कर्यो न होय अन पापमां उद्यम प्रगट कर्यो होय, अथवा पापना साधन मेळव्यां होय, ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. में मिथ्यात्वथी मोहित थई आ लोक अने परलोकमां कुतीर्थ- सेवन करेलुं होय; ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. जे अभक्ष्य-अनंतकाय प्रमुख अने नहीं कल्पे एवं अन्न के जल में पूर्वे भक्षण कर्यु होय, ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. पृथ्वीकायमां आवीने ढेफा के लोढारूपे थई में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं दुष्कृत मिथ्या होजो. अप्कायमां आवीने पाणीना पुररूपे थई जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. अग्निकायमा आवीने अनपाक तथा दावानळ रूपे थई जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. वायुकायमां आवीने वंटाळीयो के झंझावातरूपे थई जे में जीवोना समुहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. वनस्पतिकायमा आवीने धनुष्यना दंड के बाणरूपे थई जे जीवोना समूहने में दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. विकलेंद्रियोना भवोमां भ्रमण करतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारं मिथ्या दुष्कृत होजो. पंचेंद्रिय जलचर प्राणीओना भवमां भ्रमण करतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. पंचेंद्रिय स्थळचर प्राणीओना भवमां भ्रमण करतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारु मिथ्या दुष्कृत होजो. पंचेंद्रिय-आकाशचारी जीवोना भवमां भ्रमण करतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. पंदर कर्मभूमिना अने त्रीस अकर्मभूमिना भवमां भमतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारुं मिथ्या दुष्कृत होजो. अंतरद्वीपना मनुष्योना अने व्यंतर, असुर तथा कुदेवना भवमां भ्रमण करतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, ते मारु
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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवनुं वृत्तांत मिथ्या दुष्कृत होजो. दुःखथी पीडित एवा नारकीना भवोमां भमतां में जे जीवोना समूहने दुःखी कर्या होय, तेनी हुँ गर्दा करुं छु.।।१२४७।। सुकृत अनुमोदना -
पूर्वे जो में सातक्षेत्रोमां द्रव्य, बीज त्रण प्रकारना 'करणयोगे वाव्यु होय, तेनी अनुमोदना करुं छू. पूर्वे जो में ज्ञान दर्शन अने चारित्रनुं त्रण प्रकारना करणयोगे पालन कयु होय तेनी हुं अनुमोदना करुं छं. सामायिक वगेरेना विधिथी त्रण प्रकारना करणयोगे जो में आवश्यक कर्यु होय, तेनी हुं अनुमोदना करुं छु. पूर्वे में जे सुदेव तथा सुगुरुनी भक्ति त्रण प्रकारना करणयोगे आदरथी करी होय, तेनी हुं अनुमोदना करुं छु. जे मारा शरीरवडे त्रण प्रकारना करणयोगे श्री जिन पूजा अने जिनचैत्यो थया होय, तेनी हुं अनुमोदना करुं छु. मार्गे चालतां थाकी गयेला संघने मारी वायुरूप कायाथी त्रण' प्रकारना करणयोगे जे कांई सुख थयु होय, तेनी हुं अनुमोदना करुं छु. मारी वनस्पति कायावडे त्रण प्रकारना करणयोगे श्री जिनपूजा थई होय तेनी हुं अनुमोदना करुं छं. मारी त्रसरूप कायाथी त्रण प्रकारना करणयोगे जे कांई जिनधर्मनो उपकार थयो होय तेनी हुं अनुमोदना करुं छु. जेना भोजन करवाथी कोईने क्यारेय पण तृप्ति थती नथी, .. तेवा चतुर्विध आहारनो हुं संवर करुं छु. उत्तम चारित्र, दान, शीळ, तप अने बीजुं जे कांई शुभ कर्म जेना विना निष्फल थई जाय छे, तेवो ते शुभ भाव मने । प्राप्त थाओ. जेनाथी सर्व पापोनो क्षय थाय अने मंगळनो संचय थाय, तेवा नवकारमंत्रनुं ध्यान मने हमणां ज प्राप्त थाओ."
आ प्रमाणे धर्म ध्यानमां तत्पर एवा ते पद्मसेनमुनि आयुष्यनो क्षय थतां मृत्यु पामीने सहस्रार देवलोकमां इंद्रसामानिक देवतारूपे उत्पन्न थया. त्यां पहेला (समचतुरस्र) संस्थानमा रही पर्याप्तपणे पटु शरीरवाळा बनी (यौवन) वयमां आवेला पुरुषना जेवा थई रह्या. पछी अंतर्मुहर्तमां शय्याने आच्छादान छोडी दई घणां आभूषणोथी विभूषित, सुगंधी श्वासवाळो अने सात धातुओथी वर्जित एवो ते देव प्रगट थई आव्यो ते समये देवो तथा देवीओनो गण जय जय शब्द बोलतो त्यां आव्यो. अने बे कर जोडी ते आ प्रमाणे वाणी बोल्यो- "स्वामी, तमे पूर्वजन्मना कया पुण्यथी देवबुद्धिवडे सर्व वाणीना समूहने जाणनारा देवतारूपे आ देवलोकमां उत्पन थया? अवधिज्ञानथी जाणी ते देवताए चारित्रवडे उपार्जन करेलुं पूर्व- सर्व पुण्य तेमनी आगळ कही आप्यु. पछी ते दिव्य पलंगमांथी उठी 1. मन, वचन. अने कायाना योगवडे करवू, करावq अने अनुमोदq थयुं होय. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभु, च्यवन तथा जन्म देवदेवीओनी साथे गीत तथा नृत्यनो विनोद करता क्रीडा वापी (वापी)मां गया. ते वापिकामां स्नान करी पोताना स्थानमा आवी शाश्वत अर्हतनी पूजा करी. पछी ते देवताए विधि युक्त उत्तम पुस्तको वांच्या. त्यारबाद मनवांछित सिद्धिवाळा ते देवताए सिंहासन उपर बेसी नाटक वगेरेनुं अवलोकन कयु. पछी देवीओने साथे लई तेमणे कोईवार जिनयात्रामां, कोईवार नंदनवनमा अने कोईवार रमणीय वापिकाओमां फरवा मांड्यु. एवी रीते इंद्रना जेवा ते देवताए नवनवा देवलोकना सुखने सेवतां केटलोएक काळ निर्गमन कर्यो. देवताओ आ पृथ्वी उपर गमनआगमन वगेरे जे कार्य करे छे, ते उत्तर वैक्रियरूपथी ज करे छे. तेओने केश वगेरे करवानु कार्य कदाचित् संभवे छे, परंतु केश तथा अस्थि (हाड) वगेरे तेमने स्वाभाविक होता नथी.
जेओ पूर्वे संसारने प्राप्त करी चारित्रना भजनथी अंगे सुंदर अने उत्तम देवतारूपे थया हता अने जेओ जिनागममां विद्वान् अने उत्तम भावनावाळा बन्या हता. तेवा गुणोनी प्राप्तिमां स्वामी रूप एवा रूपादिकवडे प्रभावना करनारा अने विशाळ लक्ष्मीवाळा जगत्प्रभु श्री विमलनाथ स्वामी तमोने मंगळ आपो. ।।१२७१।।
| इति श्री तपोगणनायकश्रीरत्नसिंहमूरिना शिष्य भट्टारक श्री ज्ञानसागरसूरिए रचेला श्री विमलनाथ चरित्र महाकाव्यनो श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवना वर्णनरूप त्रीजो सर्ग संपूर्ण थयो ।।
इति तृतीय सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं च्यवन तथा जन्म
चतुर्थ सर्ग
राजानी जेम सुवर्णगोत्रनी शोभाथी भरपूर, मंडल लक्ष्मीथी युक्त अने छाया सहित एवो जंबूद्वीप शोभी रह्यो छे. ए द्वीपनी अंदर आवेला षट् वर्षधर पर्वतोने सिद्धांतमां कुशल एवा पंडितो प्रौढ क्षमाधर, बहु आयुष्यवाळा अने शाश्वत कहे छे, ए आश्चर्यनी वात छे. ते अतिशय लघु छतां लक्ष योजनना प्रमाणथी विभूषित छे, अने सदा वृत्तना योगथी पोतानी जातना द्वीपोमां मुख्यपणाने प्राप्त थयो छे. ते जंबूद्वीपमां सन्मार्गे चालनाराओने नेत्ररूप एवं भरतक्षेत्र आवेखें छे, जेनी अंदरनो आ मध्यखंड तेना नेत्रनी उत्तम कीकीना जेवो देखाय छे. तेनी वच्चे पडीने वैताढ्य पर्वते जेने बे खंडवाळु करेल छे, जे अखंड लक्ष्मीथी मंडित अने "बुद्धिवडे पंडित छे. हिमालयथी वहन करनारी अने धन्य एवी गंगा तथा यमुना नदीए पोताना जलना संग्रहथी ते भरतक्षेत्र प्रत्येक त्रण खंडवाळं बनेलं छे. जेनी अंदर पद्मद्रहमां थयेली नवीन पद्मिनीना जेवी निर्मल गंगा आवेली छे, जे गंगाए महेशना मस्तकने विभूषित करेलुं छे. ए गंगानो प्रभाव सांभळो-'जेना नपुंसक गांगेय पुत्र सर्वेना चित्तने हरे छे, छतां ए पुत्रना कारणरूप छे. शिव-शंकर तथा माधव-विष्णुथी रहित एवी यमुना नदी कृष्णवर्णवाळी छे, 1. राजा पक्षे सुवर्ण-उच्च जाति अने गोत्र-उच्चकुलनी शोभार्थी भरपूर होय छे; मंडल
लक्ष्मी-देशमंडलनी लक्ष्मीथी युक्त अने छायाए युक्त होय छे. तेवी रीते जंबूद्वीप सुवर्णगोत्र-सुवर्णना (मेरु). पर्वतनी शोभावडे भरपूर अने मंडललक्ष्मी तथा छायाथी युक्त छे. 2. षट् वर्षधर-एटले छ (क्षेत्र मर्यादा करनारा) पर्वतो प्रौढ मोटी क्षमा-पृथ्वीने धरनारा अने शाश्वत होय छे. षट् वर्षधर-छ वर्षने धारण करनारा छ वर्षना होय ते प्रौढ
क्षमागुणने धारण करनारा बहु आयुष्यवाळा-शाश्वत केम होई शके? ए आश्चर्य. 3. लघु-नानो होय ते लक्ष योजनना प्रमाणवाळो केम होय? ए विरोध. 4. वृत्त-सारं
आचरण पक्षे वृत्त-गोळाकार जे सारा आचरणवाळो होय. ते पोतानी जातमां मुख्य थाय छे. 5. अर्थात् जेमां बुद्धिमान् पंडितो रहेला छे. 6. गंगा नदी पद्मिनीना जेवी निर्मल जळवाळी छे. अने ते शंकरना मस्तक उपर रहेली छे. पद्मिनी पण महेश-महान-ईशपुरुषना मस्तक उपर रहे छे. 7. गांगेय-ए गंगाना पुत्र भीष्मपिता तेमणे नपुंसकना जेवू ब्रह्मचर्य व्रत लीधुं हतुं छतां पण ते गंगानो प्रभाव पुत्र थवामां कारणरूप बने छे. 8. यमुना नदीमां शंकर तथा विष्णुढं स्थान नथी अने नीच-कु-पृथ्वीना संगथी मलिन थईने
ते सागर प्रत्ये गमन करनारी छे. जे स्त्री शिव कल्याणनी मा-लक्ष्मीना धव-स्वामीथी रहित होय. ते स्त्री नीच पुरुषना संगी मलिन थई परपुरुषनी साथे गमन करनारी थाय छे. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं च्यवन तथा जन्म
थी ते नीच कुसंगथी मलिन थईने सागर प्रत्ये गमन करनारी छे. शत्रुओनो वर्ग जेनो दंड करी शक्यो नथी एवा मध्यखंडमां कांपिल्यपुर नामे एक नगर आवेलुं छे; ते गुणोनो आदर करनारुं अने सारी उपासना करनारा लोकोना स्थानरूप छे. जे नगर 1 शूर सहित, 2 बंगमंडळथी मंडित; 'बुधाश्रित, 'सुराचार्य, तथा कविना धामथी विभूषित, 'शनेश्वर ऋषिवडे संयुक्त, सर्वद्रव्य युक्त अने 'अनंत एवं शोभे छे, परंतु कदिपण शून्य रहेतुं नथी जे कांपिल्य नगरमा रहेला 'तार अने 'ससार आगार-गृहोने जोई शुं दिवसे पण 10 गुप्त - आकारवाळा ताराओ रहेता हता? अने रात्रे ते शून्य - आदरवाळा चररूपे देखाता हता? जे नगरमां 11 वंशनी वृद्धि, 12 सुमनसूनो विविध वर्णमय समूह अने बाहेर तथा अंदर सुंदर "पद्माकरवाळी पृथ्वी हती.
तेवा ते कांपिल्य नगरमां कृतवर्मा नामे राजा हतो. ते घणां सुखवाळो, शुभ कर्म करनारो, शत्रुओना मर्मने जाणनारो, जिनधर्ममां आदरवाळो अने सारी बुद्धिवाळो हतो. जे 14 राजा समिति प्रधान छतां पण सदा अदय थई धर्मधुराथी च्यवेला 15 सपक्ष. 16 मार्गणाने शत्रुना नगरमां मोकलतो हतो. अने ते शत्रुओ पोताना हृदयमां संसक्त थयेला ते मार्गणोने सत्वर धारण करता, तोपण तेओना 17 गुणने कदिपण ग्रहण करता न हता परंतु तेओ तेनी भुजाना बळनुं रणभूमिमां वर्णन करता हता एवो ते कृतवर्मा राजा आ पृथ्वी उपर वर्म -कवचने धारण करनारो हतो.
ते आ पृथ्वी उपर प्रतापसहित 18 ईन - स्वामी थई राज्य करतो हतो, तोपण सर्व लोकोने तेनी छाया हती, ए आश्चर्यनी वात हती. कामने आदर 1. शूर - शूरवीर पुरुष पक्षे शूर - सूर्य. 2. बंगमंडल - बंगदेश पक्षे आनंद तथा मंगळथी मंडित पक्षे राता रंगवाळा मंगळ ग्रहथी मंडित. 3. बुध - विद्वानोथी आश्रित, पक्षे बुधग्रही आश्रित 4 सुर-देव- आचार्यो तथा कविओना धामथी विभूषित पक्षे सुराचार्य - बृहस्पति, कवि - शुक्रना धामी विभूषित 5. शनैश्वर- हळवे हळवे - ईर्ष्यापथिकीथी चालनारा मुनिओ युक्त पक्षे शनैश्वरग्रह. 6. अंनत - अंतरहित. 7. शून्य खाली पक्षे आकाश. 8. तारमोटा पक्षे तारा. 9. ससार-सारवाळा- आगार घरो. 10. गुप्त-आकारवाळा- - छुपावेशे फरनारा चर बातमीदारो. 11. वंश -कुल पक्षे वांसनी वृद्धि 12 सुमनस - विद्वानो क्षे पुष्पो - तेमनो विविधवर्ण-रंगमय समूह. पक्षे ब्राह्मण क्षत्रिय वगेरे वर्ण. 13. पद्माकरपद्मोनी खाण पक्षे सरोवर 14 ते समिति पाळनारो हतो. अदय निर्दय - पक्षेअधिक लाभवाळो 15 सपक्ष-पांखोवाळा पक्षे सहायवाळा. 16. मार्गणो- बाणो पक्षे याचको. 17. गुण पक्षे दोरी. 18. इन सूर्य होय त्यां छाया होवी न जोईए, छतां छाया हती ए विरोध.
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श्री विमलनाथ चरित्र
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं च्यवन तथा जन्म आपनारा ते राजाने 'सुतारा, उत्तम नक्षत्रमाळाथी शरीरने मंडन करनारी श्यामा नामे राणी हती ते ब्राह्मीनी जेम ब्रह्मसंयुक्त हती, लक्ष्मीनी जेम 'जिनप्रिय हती. 5सीतानी जेम रामने अभिराम हती. शिवानी जेम शिवमार्गे चालनारी हती, कुंतीनी जेम 'सधर्मपुत्रा हती. रोहिणीनी जेम विधुमां तत्पर हती. अने दमयंतीनी जेम नठारी स्थितिमां पण जे प्रिय (अ) नळने संगत थईने रहेली हती.
___ हवे पद्मसेन राजानो जीव सुखथी साररूप एवा सहस्रार देवलोकमां लांबं जीवित भोगवीने वैशाख मासनी शुक्ल बारश तिथि के जे अतिथि अभ्यागतोनुं मान करवाने योग्य छे, ते दिवसे चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्रमा आवतां त्यांथी च्यवीने अवधिज्ञान वडे लक्ष्मीना भवन रूप एवू पोतानु च्यवईं मानी मति वगेरे त्रणज्ञानवडे युक्त थई श्यामा राणीनी कुक्षिमां अवतो. जेमां सुगंधी द्रव्योथी सारो पवन आवतो हतो, एवा वासभुवनमां तलाई वगेरेथी सज्ज करेली सुखशय्यामां ते श्यामादेवी सुतां हतां. ते रात्रिने समये आधि तथा व्याधिथी रहित एवा श्यामादेवीए गजेंद्र वगेरे चौद शुभ स्वप्नों जोयां. ते ज वखते आसन चलित थवाथी आलस रहित थईने इंद्रो त्यां आव्या10 अने गर्भमां आवेला जिनप्रभुने नमस्कार करी तेओ आ प्रमाणे कहेवा लाग्या- "हे प्रभु, अन्यना बीजा देवताओ पृथ्वीमां कोई स्थळे भले होय, परंतु देवाधिदेवपणाथी तो तमेज अमारा देव थवाने योग्य छो. जेम मेघमंडलमा रहेलो सूर्य अंधकारने हणे छे. तेम गर्भनी अंदर रहेला तमे पण त्रण जगतमां प्रसरेला अंधकारने हणो छो, जेम पृथ्वीनी अंदर रहेल निधान द्रव्यनी समृद्धिने आपनार होय छे, तेम तमे गर्भनी अंदर रहेला छो, छतां पण तेनी वृद्धिने करनारा छो. हे स्वामी, अमो देवताओनी एक एवी रीति चाले छे के, ज्यारे अमो देवलोकमांथी समाधि वडे अहिं आवीए छीए, त्यारे ते देवलोकमां अमारा त्रणे ज्ञानने मूकीने आ भूमि उपर आवीए छीए अने बळवडे शोभतां एवा 1. सुतारा-सारी-तारा-कीकीओवाळी पक्षे सारा तारावाळी. 2. नक्षत्रमाळा-ताराओनी श्रेणी पक्षे नक्षत्रमाळा एक जातवें आभूषण. 3. जेम ब्राह्मी ब्रह्म साथे युक्त होय छे. तेम ते राणी ब्रह्मज्ञान अथवा शीलथी युक्त हती. 4. जेम लक्ष्मी जिन-विष्णुने प्रिय छे, तेम तेणीने श्री जिनभगवान् प्रिय हता. 5. सीता रामने प्रिय छे, तेम ते रामा-स्त्रीओमां अभिराम-श्रेष्ठ अथवा रामा शोभा वडे सुंदर हती. 6. शिवा पार्वती शंकरने मार्गे अनुसरी चालनारी छे. तेमने शिव-कल्याणने मार्गे चालनारी हती. 7. कुंती धर्म-पुत्र-युधिष्ठिरे सहित छे, ते राणी सधर्म-साधर्मि बंधुरूप पुत्रवाळी अथवा धर्मीपुत्रवाळी हती. 8. विधुचंद्र. 9. जेम दमयंती नठारी स्थितिमां नळराजा साथे रही हती. तेम ते नठारी स्थितिमां अनल-अग्नि साथे रहे तेवी हती. 10. मुक्ततन्द्रास्तदा चेन्द्रास्तत्रागत्य चलासनाः। गर्भस्थितं जिनं नत्वा वक्तुंमेव डुढौकिरे ।।२८।। श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनं च्यवन तथा जन्म तमो तो ते त्रणे ज्ञानोने अहिं साथे लाव्या छो; तोपण अमो तेनी ईर्ष्या करता नथी. परंतु अमोए हृदयमां चिंतव्यु छे के प्रभवो यच्च कुर्वन्ति तत्सर्वं ज्ञाप्यमेव वै ।। "जे प्रभु-समर्थ पुरुषो करे, ते बधुं ज्ञाप्य-समजवा लायक ज छे." ए वात तो एक तरफ रही, परंतु तमोए अमारा आसनोने हमणां चलायमान काँ, ते केवी रीते? ते उपरथी तमारुं बल वचनथी कही शकाय नहीं तेवू छ; अर्थात् जो तमाएं बल वचनथी कही शकाय नहीं तेवू न होय; तो तमे अमारा आसनोने चलायमान केम करी शको? हे सुंदर स्वरवाळा प्रभु, तो पण तमे पुरुष रूपे थई बाहर प्रगट थाओ. सम्यग्दृष्टिना बळथी अमोए तमोने ओळखी लीधा छे. "हे मोक्षदायक प्रभु, ज्यां सुधी तमो अमने केवळज्ञान आपशो नहि, त्यां सुधी अमो तमाहं पडय़ छोडीशुं नहि. जेओ न्यायमा प्रवृत्ति करनारा छे, तेओ तमारा योग्य सेवक जेवा छे, तेथी तेओनी वाणीनी वृत्ति आ पृथ्वीमां एवी ज होय छे. आ प्रमाणे सर्व आरंभने छोडनारा श्रीजगत्पतिने विज्ञप्ति करी, पछी ते चतुरइंद्रोए श्यामादेवीने प्रणाम करी आ प्रमाणे उंचे स्वरे कह्यु,-"शुभ वचन बोलनारा अने गर्भमां रत्नने धारण करनारा हे देवी, अमो तमने नमस्कार करीए छीए. कारण के रोहणगिरि रत्नगर्भ होवाथी सर्व पर्वतोमा मान्य गणाय छे. जेम लोकोमा सूर्यने जन्म आपनारी पूर्वदिशा पूज्यताने पामी छे, कल्पद्रुमवडे अतुल्य एवी भूमि जेम देवताओने सेववा योग्य थई छे अने जेना गर्भमां मुकता (मोती) छे एवी छीपने जेम लोको यत्नथी राखे छे, तेम तमे गर्भना प्रभावथी लोकमां सर्वोत्तम थयेला छो. हे देवी, तमोने आवेला पहेला गजेंद्रना स्वप्नथी तमारा पुत्र 'राजमान्य, सदा उत्तम, भद्रजाति अने दानकर थशे. बीजा वृषभना स्वप्नथी तमारा पुत्र ‘मार्गगामी क्षमाभारनो उद्धार करनारा, अतुलबळथी उज्ज्वळ अने शुभदर्शन वाळा थशे. त्रीजा सिंहना स्वप्ननादर्शनथी तमारा पुत्र अनेक पराजिने जीतनार, 'वनसेवी, साहसमां अग्रणी अने °सहाय रहित कार्यने करनारा थशे. 1. गजेंद्र राजाओने जेम मान्य छे, तेम तमारा पुत्र सर्वराजाओने मान्य थशे. 2. गजेंद्र भद्र
जाति-उच्च जाति होय छे. तेम तमारा पुत्र भद्रिकजातिना थशे. 3. गजेंद्र दानमदने करनार होय छे. तेम तमारा पुत्र दानकर-दान आपनारा थशे. 4. वृषभ बळद मार्गयायी-मार्गे चालनार होय छे. तेम तमारा पुत्र मार्गानुसारी थशे. 5. बळद पक्षे क्षमा-पृथ्वीना भारने वहन करनार अर्थात् उपाडनार अने प्रभु पक्षे क्षमा गुणना भारथी प्राणीओनो उद्धार करनार. 6. सिंह पक्षे अनेक गजेंद्रोनी राज-श्रेणीने जीतनारा प्रभु पक्षे अनेक परशत्रुओनी आजि-रण भूमिमां विजय मेळवनार. 7. सिंह पक्षे वन-जंगलमां वास करनार. प्रभु पक्षे पण जंगलमां वास करनार. 8. अग्रणी-मुख्य. 9. कोईनी सहाय वगर कार्य साधनार. 222
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं च्यवन तथा जन्म चोथा लक्ष्मीने अभिषेक करवाना स्वप्नने जोवाथी तमारा पुत्र आ पृथ्वी उपर लक्ष्मी रूप अथवा सर्वने सन्मान करवा लायक अने 'सनंदन थशे. पांचमा पुष्पमालाना स्वप्नना दर्शनथी तमारा पुत्र गुणसंसर्ग वडे बद्धात्मा, गंधबंधुर बंधक अने 'स्ववासथी आवासने वासित करनारा थशे. छट्ठा चंद्र दर्शनना स्वप्नथी तमारा पुत्र गोसमूहथी विश्वना संतापने हरनारा "संयोगी जनने सुख आपनारा अने 'कलाकलापथी युक्त थशे. सातमा सूर्य दर्शनना स्वप्नथी तमारो पुत्र पंकहर्ता, मार्गदर्शक 10सम्यग्दृष्टिने रुचि आपनार अने अन्य लोकोने 1'दुर्निरीक्ष्य थशे. आठमा ध्वज दर्शनना स्वप्नथी 12रत्न कोटेश्वरना धामरूप वंशनां अग्रभागे तमारा पुत्र प्रासादना ध्वजनी जेम चडशे. नवमा कुंभदर्शनना स्वप्नथी तमारा पुत्र 13सुवृत्तवडे शोभनारा, 14सुमनस्नी श्रेणीथी सुशोभित शरीरवाळा अने 15अमृतथी अन्यने तृप्त करनारा थशे. दशमा पद्मसरोवरना स्वप्नना दर्शनथी तमारा पुत्र अनेक सुवयस्ने संतोष करनारा,1'कमलावलिथी शोभता अने 18तापने हरनारा थशे. अगियारमा समुद्रदर्शनना स्वप्नथी तमारा 1. सनंदन सत्पुरुषोने आनंद आपनार अने सत्पुत्र. 2. पुष्पमाला पक्षे गुण-दोराना संसर्गथी
बुद्धात्मा एटले जेनुं स्वरूप बंधायेलुं छे अने पुत्र पक्षे गुणोथी जेमनो आत्मा बंधायेलो छे. 3. पुष्पमाला पक्षे गंध सुगंध वडे बंधुर ऊन्नतपणे बंधक-बंधवाळी पुत्र पक्षे गंध गर्वथी बंधुर-ऊन्नत एवा पुरुषोने बंधक-अटकावनार. 4. पुष्पमाला पक्षे स्ववासी पोतानी खुशबोथी आवास गृहने वासित-खुशबोदार करनार पुत्र पक्षे स्ववासथी-पोताना वासथी निवासथी आवास-गृहने वासित वासनायुक्त करनार. 5. चंद्र पक्षे गोसमूह-किरणोना समूहथी विश्वना संतापने हरनार पुत्र पक्षे गोसमूह वाणीना समृही-देशनाथी विश्व संतापने हरनार. 6. चंद्र पक्षे संयोगी-संयोगवाळा सर्व पदार्थोने सुख आपनार पुत्र पक्षे संयोगीसम्यग् योगवाळा (स्वजनादिकने तेमज) महात्माओने सुख आपनार. 7. चंद्र पक्षे कलाकलाप कलासमूह-पुत्र पक्षे विविधकलाओनो समूह. 8. सूर्य पक्षे-पंक-कादवने हरनार. पुत्र पक्षे पंक-पापरूप कादवने हरनार. 9. सूर्य पक्षे-मार्गदर्शक-प्रकाशथी मार्ग दर्शावनार, पुत्र पक्षे मार्ग-धर्ममार्ग दर्शावनार. 10. सूर्य पक्षे सम्यग्-सारी रीते दृष्टिने
रुचि-कांति आपनारा पुत्र पक्षे सम्यग् दृष्टि सम्यग् दर्शन वाळाने रुचि उपजावनारा. 11. सूर्य-दुर्निरीक्ष्य-दुःखे जोई शकाय तेवो पुत्र पक्षे तेज वडे मुश्केलीथी जोई शकाय तेवा. 12. ध्वजपक्षे रत्नकोटीश्वर-कोटी रत्नोना स्वामीना धामरूप-गृहरूप. एवो वंश-वास पक्षे वंश-कुल. 13. कुंभपक्षे सुवृत-सारा गोळ-आकारथी शोभनार. पुत्र पक्षे सुवृत-शुभ आचरणथी शोभनार. 14. कुंभपक्षे सुमनस-पुष्पोनी श्रेणीथी सुशोभित स्वरूपवाळो पुत्रपक्षे-सुमनस्-देव अथवा विद्वानोनी श्रेणीथी सुशोभित शरीरवाळो. 15. कुंभपक्षे अमृतथी अन्य बीजाने तृप्त करनार. पुत्र पक्षे अमृत-मोक्षथी अन्य-जीवोने तृप्त करनार अथवा ज्ञानरूपी अमृतथी तृप्त करनार. 16. पद्मसरोवर पक्षे अनेक सुवयम्-सारा पक्षीओने संतोष करनार. पुत्र पक्षे अनेक सारी वयवाळा-युवान पुरुषोने संतोष करनारा. 17. पद्मसरोवर पक्षे कमलावलि-कमळ श्रेणीथी शोभता. पुत्र पक्षे कमलावलि-लक्ष्मीनी
श्रेणीथी शोभता. 18. ताप-गरमी पक्षे संसारनो ताप. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव पुत्र 'धीवरपुरुषोने सतत सेववा योग्य; रत्नोना स्थानरूप. अपरिमित प्रमाणवाळा, अने सदा विधुमां प्रितिवाळा थशे. बारमा विमानदर्शनना स्वप्नथी तमारा पुत्र देवताओना नृत्य तथा गीतथी युक्त अने इंद्रोना सान्निध्यवाळा थशे. तेरमा रत्नराशिना स्वप्नना दर्शनथी ते अनेक वर्णवाळा रत्नोथी युक्त चिंतित अर्थने आपनारा नायकरूप थशे. अने चौदमा अग्निना स्वप्न दर्शनथी तमारा पुत्र प्रतापथी दिशाओना समूहने आक्रमण करनारा, देवताओना प्रमुख, पवित्र. जडताने हरनारा अने शुद्धि करनारा थशे.
आ प्रमाणे श्यामादेवीने कही अने जिन भगवान्ने नमी ते इंद्रो नंदीश्वर (द्वीपे) गया अने त्यां अट्ठाईउत्सव करी पोतपोताना स्थानमां चाल्या गया. पछी श्यामादेवीए पोताना पति-राजा पासे जई ते स्वप्ननी वात कही. जे सांभळी राजा हर्षना भारथी प्रिया प्रत्ये बोल्यो "देवी, तमे जे स्वप्नो जोयां छे, ते शुभ अने उत्तम पुत्रने आपनारा छे. ते विषे में पूर्वे शास्त्रमाथी सांभन्युं छे. हवे आपणे बनेने सर्व प्रकारनी संपत्ति थशे, कदिपण विपत्ति थशे नहीं. पुत्रनी उत्पत्ति थशे, गुरु उपर भक्ति थशे, सर्वजन सेवक बनशे, राज्यनी वृद्धि थशे, उत्कृष्ट बुद्धि प्राप्त थशे, कार्यसिद्धि थशे, सर्व लोकोमा प्रसिद्धि थशे अने उत्तम वस्तुनी समृद्धि मळशे." इंद्रना कहेवाथी प्रथमथी ए अर्थ ते जाणनारी राजपत्नी श्यामादेवीने पतिना आ वचनथी बमणो हर्ष प्राप्त थयो. ज्यारे सुंदर प्रभात काळ थयो, एटले सर्व कार्य समूह कर्या पछी राजाए माणसो मोकली स्वप्नना लक्षणोने जाणनारा विद्धानोने बोलाव्या. पोतानी राणीने समीपमां पडदामा राखी प्रथमथी गोठवी राखेला आसनो उपर ते स्वप्नपाठकोने अनुक्रमे बेसाडी अने तेमनी आगळ फळ पुष्पनो समूह मूकी राजा आ प्रमाणे बोल्यो- "हे विद्धानो मारी राणीए गजेंद्र वगेरे चौद स्वप्नो स्पष्ट रीते जोया छे, तो तेओनुं मने शुं फळ प्राप्त थशे? ते निवेदन करो." ते सांभळीने ते शास्त्र कोविदो परस्पर विचार करवा लाग्या. ज्यारे तेनो खरो अर्थ समजवामां आव्यो, त्यारे तेओमां मुख्य एवो एक दक्ष पुरुष बोल्यो"राजन्, देवीए ए स्वप्नो स्पष्ट रीते जोयां छे, तेथी तमारो पुत्र तीर्थकर थशे. जो ते स्वप्नो स्पष्ट जोवामां न आव्यां होय तो चक्रवर्ती थाय छे. सात स्वप्नो जोवामां आवे तो वासुदेव थाय छे, चार स्वप्नो जोवामां आवे तो बलदेव थाय 1. समुद्रपक्षे धीवर एटले ढीमर पुरुषो अने पुत्रपक्षे बुद्धिमान पुरुषो. 2. समुद्रपक्षे विधु
चंद्र अने पुत्रपक्षे विधिक्रिया. 3. अग्निपक्षे प्रताप-घणो ताप अने पुत्रपक्षे प्रताप-तेज. 4. अग्निपक्षे जडता एटले टाढथी अकडावं ते अने पुत्रपक्षे जडता जडपणुं.
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.. श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव छे. अने एक स्वप्न जोवामां आवे तो राजा थाय छे." तेमना आ वचनो सांभळी राजा परिवार साथे संतुष्ट थयो. तेणे शरीरमां रोमांच रूप कवच धारण कयुं अने हर्षाश्रुना भारथी ते प्रकाशमान थई रह्यो. पछी वस्त्र वगेरेना शिरपावथी संतोष पमाडी ते स्वप्नवाचकोने तेमने घेर मोकल्यां अने पछी तेणे महाराणीने ते सर्व वृत्तांत जणाव्यो, तेथी तेणीना हृदयमां निश्चय थयो. पछी हर्षथी पुष्ट थयेली श्यामादेवीए बे हाथ जोडी राजाने कडं. "स्वामी, कल्याणना विस्तारने करनार मारे तीर्थंकर पुत्र ज थाओ." संतानना वाक्यनी संततिथी सुखमां निमग्र रहेनारा अने अधिक अधिक हर्षने धारण करनारा ते बंने दंपतीना दिवसो वेगथी पसार थवा लाग्या. ।।७२।। ते गर्भना प्रभावथी राजाना नगरमां, अंतःपुरमा अने स्वदेशमां अने परदेशमा आधि, व्याधि के पीडानी वात रही ज नहिं. ते समये इंद्रनी आज्ञाथी पवित्र कार्य करनारा उत्तम वायुकुमार देवताओ हर्षथी श्यामादेवीना महेलना आंगणाने साफसुफ करवा लाग्या, मेघकुमार देवताओ सुगंधी जलथी सिंचन करवा लाग्या, छ ऋतुओनी देवीओ सुकर कुसुमना समूहनी वृष्टि करवा लागी. व्यंतरदेवीओ तेमना शरीरनी शुश्रूषा करवा लागी अने ज्योतिष्कदेवीओ श्यामादेवीने रत्नमय दर्पण देखाडवा लागी. ज्यारे जिनराज प्रभु श्यामादेवीना उदरे अवतर्या, त्यारे सर्व लोकोने राजापणुं प्रगट थई आव्युं अने ऋतुराज वसंत प्रसरवा लाग्यो, प्रभु भूलोकमां आवतां सर्व वृक्षो योग्यता प्रमाणे खीली मनुष्योने पत्रो, पुष्पो अने फुलो आपवा लाग्यां, समुद्र जिनप्रभुनु सामीप्य प्राप्त कर्या छतां पण ग्रीष्मऋतु आवतां राजप्रसाद मेळवी वेळा मर्यादा मूकवा लाग्यां, परंतु श्यामादेवी एवामा छतां पण धर्म कर्म करवामां मर्यादा छोडी नहीं, परंतु उलटी तेणीने ते उपर (विशेष) श्रद्धा थई. बहारना प्रगट जिन भगवान् अने अंदरगर्भगत जिन भगवान्नी अंदर महत् अंतर होय छे. कारण के सामान्य केवळी अने जिनेश्वर भगवान् ए बे वच्चे अतिशय वडे मोठं अंतर तफावत होय छे. अषाढ मास अर्धा जतां त्रीजे मासे श्यामादेवीने जगत पूजित एवो सुकृतनो दोहद उत्पन्न थई आव्यो. ते उपरथी आजे पण स्त्रीओमां घणी धर्मश्रद्धा जोवामां आवे छे. जेमां महाजन प्रवर्ते ते मार्ग कहेवाय छे जेम जिनदृष्टि वडे उत्तम श्रावकोनों अने अंतरदृष्टिवडे सत्पुरुषोनो प्रसरेलो ताप शमी जाय छे. तेम वर्षाऋतु आवतां 1. राजप्रसाद एटले राजा रूप प्रभुनो प्रसाद पक्षे चंद्रनो प्रसाद. 2. वामा एटले वक्रपक्षे वामा-सुंदरी विरोधाभास.
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव मेघ वृष्टिवडे ग्रीष्मऋतुनो प्रसरलो ताप शमी गयो. 'घन रसवाळा घनमेघने घणा जनोने तृप्त करतो जोई दानरहित एवो सूर्य शांत थई गयो. श्रीजिनप्रभुने निष्पाप जाणी अने पोताने अगस्तमुनिए अंजलिमां पीवाएलो जाणी समुद्र जलना गर्वथी उत्पन्न थयेली पोतानी ऊल्लोलता छोडी दीधी. ते समये श्यामादेवीना सीमंतनुं काम करवाने शरदऋतु हंसक सहित शुकपक्षीनी पंक्तिनी सुंदर तोरणमाळाने लई हर्षथी सत्वर त्यां आवी पहोंची. जिनमातानो ते भव्य अने नवीन सीमंतोत्सव थतां अग्निए पण पोतानी श्यामता हर्षथी छोडी दीधी. सर्वज्ञ प्रभु गर्भमां आवतां पृथ्वी उपर 4पंकनो नाश थई गयो. 'दुर्दिननो प्रलय थई गयो अने हिंसविचार पण थवा लाग्यो; ते समये श्री सर्व हितकारी प्रभुना प्रसादथी सर्व पृथ्वी खीली रही, 'ऋषिगणनो उदय थयो अने धान्य हजारगणुं उत्पन्न थयु. अगार घर वगरना अनगार-मुनिओनो पण विहार हेमंतऋतुमां थाय छे, तो देहना गर्भरूपी घरमा रहेला प्रभुना ते विहारनी सिद्धि केम न थाय? सूर्य पण पर्वणीने दिवसे पोताने तमथी ग्रसेलो जोईने अने श्री जिन प्रभुने सदा तमने हणनारा जोईने ते काले मंदतेजवाळो बनी गयो. ए समये अनेक क्षेत्रो दृष्टिनी पुष्टिने करनारा थया तो सर्वज्ञ प्रभुना ए जन्म प्रसंगे तेमनुं पोषण थाय, एमां शुं कहेवू? "अमारा समयमा प्रभुनुं गर्भाधान थयु, जन्मस्नात्र अने महोत्सव थयो अने प्रभुनी माता अमारा नामनी साथे मळता छे." आवं विचारी रात्रिओए प्रौढता धारण करी. अहो थोडा सुखमां पण प्रमदाओनी वृद्धि थाय ए संभवित छे. ते समये 1 जडा(ला)शयो पण प्रभुने लईने 1नीचो मार्ग छोडी बरफ रूप बनी पृथ्वीमां स्थिर थई गया. ते काले जडता थया छतां पण जीवोने 1. मेघ घन घणो अथवा घाटा रसवाळो छे. अने जलनुं दान करी घणा प्राणीओने तृप्त
करनारो छे. एवं जोई दानगुण वगरनो सूर्य शांत थई गयो. दाताने देखी अदाता शांत थई जाय छे. 2. उल्लोलता-चपलता उछांछळापणुं, पक्षे ऊंचा मोजाने उछाळवापणुं. 3. अर्थात् अग्नि उज्ज्वळताथी ज्वलित थवा लाग्यो. 4. पंक कादव, पक्षे पाप. 5. दुर्दिन
वादळाथी छवायेलो दिवस, पक्षे नठारो दिवस ते शभ निर्मल बनी गयो. 6. हंस विचारहंसपक्षीनो संचार शरदऋतमां हंस पक्षीओ पाछा प्रगट थाय छे पक्षे हंस-आत्मानो जीवनो विचार. 7. ऋषिगण मुनिगण, पक्षे तारागण. 8. सूर्य पर्वणी-अमावास्याने तम-राहुथी ग्रसेलो थाय छे. अर्थात् सूर्य ग्रहण वखते तेम बने छे अने प्रभु तो सदा तम-अज्ञान
अंधकारने हणनारा छे. ते जोई सूर्य मंद पी गयो. हेमंतऋतुमां सूर्यन तेज मंद थाय छे. 9. अर्थात् हेमंतमां रात्रिओ मोटी थई. रात्रिनुं नाम पण श्यामा छे, तेथी ते श्यामादेवीने मळता
नामवाळी छे. 10. जडाशय-जड-आशय हृदयवाळा मनुध्यो ए अर्थ बीजे पक्षे लेवो. 11. नीचो मार्ग जलाशय पक्षे नीचे मार्गे जq ते अने बीजे पक्षे नीचे रस्ते चालवं ते.
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव पवित्र 'रुचि थती हती. तेनुं कारण जिनभगवाननो संसारने निवारनार जन्म ज छे, एम हुं मार्नु छु. ते समये वृद्ध स्त्रीओए आवी हितकारी आहार, आच्छादन, आसन अने मांचडाथी सर्व ऋतुओमां ते गर्भनुं जे पथ्य हतुं ते कयुं. आठ मास अने एकवीस दिवसो व्यतीत थया पछी माघ मासनी शुक्ल तृतीयाने दिवसे रात्रे शुभ समये चंद्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमा आवतां अने बीजा ग्रहो उच्च स्थानमा रहेता श्यामादेवीए वराहना चिह्नवाळा सुवर्णना जेवी कांति धरनारा, त्रण ज्ञानवाळा, धीर, समुद्रथी पण गंभीर अने तेजना पुंजथी विराजित एवा पुत्रने जन्म आप्यो.।।१००।। ते समये विख्यात जगत्प्रभुनो जन्म थतां दिशाओ आकाशनी साथे प्रकाशवाळी अने काशडाना पुष्पोना जेवी उज्ज्वळ बनी गई. क्षणवार नारकीओने पण सुख थयु; पृथ्वी उच्छ्वासवाळी (अंकुरित) बनी गई. जल निर्मल थयु, अग्निनी ज्वाला दक्षिण तरफ बळवा लागी, वायु सुगंधी वावा लाग्यो अने वृक्षो पुष्पित थई गया. आ पृथ्वी उपर श्री जिन भगवाननुं माहात्म्य सदा अचिंत्य ज होय छे. आकाशमां गंभीर ध्वनिवाळा दुंदुभि (देववाजिंत्रो वागवा लाग्यां. सुगंधी जल तथा पुष्पोनी वृष्टि थवा मांडी.)
एवे समये आसन कंपवाथी अवधिज्ञाननो उपयोग जेमणे कर्यो छे एवी ' शुभ हृदयवाली दिक्कुमारीओ सत्वर पोतपोताना स्थानमांथी सत्वर त्यां आवी. भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, पुष्पमाला अने अनिंदिता ए आठ अधोलोक वासी दिककुमारिकाओ सूतिकागृहमां आवी त्यां तेमणे जिनप्रभुने अने तेमनी माताने नमस्कार करी कह्यु के, "जगत्माता, तमारे बीवू नहीं. अमो प्रभुनो जन्मोत्सव करवा आव्या छीए" आ प्रमाणे कही ते सूतिकागृहनी चारे तरफ एक योजन सुधी भूमिने सारावायुथी शोधी तेमनी समीपे आसन करी, जिन प्रभुना गीत गावामां तत्पर थईने रही. ते पछी प्रयाण करवाना आदरथी सुंदर एवी उर्ध्वलोकमां रहेनारी आठ दिक्कुमारीओ भुवनपति-जिन प्रभुना भुवनमां आवी. तेओना नाम मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिषेणा अने बलाहका एवां हतां, तेओए जिनने अने जिनमाताने प्रणाम करी योजन सुधीनी पृथ्वी उपर सुगंधी जल वडे सिंचन करी पुष्पोनी वृष्टि करी. प्रभुने अने तेमनी माताने नमस्कार करवो, पोतार्ने काम प्रगट करवू, गीतगान करवू अने पछी (पोतपोतानी दिशामां मर्यादासर उभा) रहे£ ए दिककुमारीओनो विधि होय छे. ते पछी पूर्वरुचक पर्वतना स्थानमांथी आठ 1. रुचि-इच्छा पक्षे कांति. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव दिक्कुमारीओ दर्पण लईने आवी, त्यां आवी पोतानो आचार साचवी ते सुंदरीओ पोतानी दिशा तरफ उभी रही. नंदा, उत्तरानंदा, आनंदा, नंदिवर्धना, विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता एवा तेमनां नाम हतां. दक्षिणरुचकमांथी विधिने जाणनारी अने मर्यादावाळी आठ दिक्कुमारीओ हाथमा झारीओ लईने आवी. सुप्रहारा, सुप्रदत्ता, सप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता अने वसुंधरा एवा तेमनां नाम हता. महामारी, आधि, अने व्याधिथी रक्षण करनारी आठ दिक्कुमारीओ हाथमां पंखा लईने पश्चिमरुचकमांथी आवी. ईलादेवी, सुरादेवी, पृथिवी, पद्मवती, एकनासा, नवमिका, सीता अने भद्रा-एवां तेमनां नाम हतां. उत्तर वैक्रियने करनारी आठ दिक्कुमारीओ हाथमां चामर लईने उत्तररुचकमांथी आवी, तेओ जिन अने जिनमाताने नमस्कार करी पोतानी दिशामां ऊभी रही. अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुंडरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री अने ह्री-एवां तेमनां नाम हतां. चित्रकनका, सुतेरा, चित्रा अने सौत्रामणी नामनी चार दिककुमारीओ हाथमां दीपक लई विदिक्रुचकमांथी आवी. रूपासिका, सुरूपा, रूपा अने रूपकावती नामनी चार दिककुमारीओ मध्यरुचकमांथी आवी. तेओए चार आंगळ छोडी प्रभुनुं नाभिनाळ छेदी पृथ्वीमा खाडो खोदीने तेनी अंदर पधराव्यु. पछी ते उत्तम खाडाने दिव्य रत्नोथी पूरी, ते उपर पीठिका बांधी तेमां द्रोना अंकुरा आरोपित कर्या. पछी सूतिकागृहथी पूर्व दक्षिण अने उत्तर दिशाओमां त्रण कदलीगृह बनावी तेनी अंदर चोरस शाळामां सिंहासनो गोठव्यां. पछी ते कुमारीओए श्री जिनभगवानने अने तेमनी माताने दक्षिण तरफना घरमां लई जई त्यां चतुःशाल उपर रहेला रत्नमय सिंहासन उपर स्थापित कर्या. त्यां दिव्य तेलथी चोळी उद्वर्त्तन करी तरत ज तेमने पूर्वदिशाना कदलीगृहमां लावी, त्यां पादपीठ-बाजोठ-वाळा भव्य सिंहासन उपर बेसाडी बनेने निर्मल जलथी स्नान करावी विभूषित कर्या. पछी तेमने उत्तरना दिव्यरत्नवाळा चतुःशालना पीठ उपर. लावी क्षुद्र हिमाचल संबंधी गोशीर्ष चंदन आभियोगिक देवताओनी पासे मंगावीने मथन करेला अरणिना काष्ठना अग्निथी ते गो-चंदन बाळी ते बनेना हाथमा (तेनी) रक्षापोट्टलिका बांधी, पछी "तमे पर्वतना जेवा दृढ आयुष्यवाळा थाओ" एम प्रभुना कानमां कही बे पाषाणना गोळाने अन्योअन्य अफळाव्या. त्यारबाद जिनभगवान्ने अने तेमनी माताने सूतिकागृहमां लई जई ते दिककुमारीओ श्री अरिहंत प्रभुना घणां गुणोने गाती गाती तेमनी आसपास उभी रही. आ समये प्रभु पृथ्वी उपर पधारतां सर्व इंद्रोना अचळ आसनो एकी वखते चलायमान 228
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव
थयां.' तत्काल अवधिज्ञानथी प्रभुनो जन्म जाणी ते सर्वे इन्द्रों घणां आनंदथी पुष्ट बनी गयां अने सुंदर आदरथी प्रभुना जन्मनी दिशा तरफ सात-आठ पगलां चाली नमन करी अने प्रभुनी स्तुति करी पोतपोताना आसनो तरफ पाछा आव्या. पछी सौधर्म इंद्रे पोताना सेनापति नैगमेषी देवने बोलावीने कां के, "सर्व देवताओने बोलावो." पछी इंद्रनी आज्ञाथी ते नैगमेषी देवताए नामथी अने अर्थथी योग्य एवी सुघोषा नामनी एक योजन प्रमाणवाळी घंटाने त्रणवार वगाडी. तेनी साथे ज एके ऊंणा बत्रीश लाख विमानोनी अंदर घंटाओना प्रति ध्वनिओ थई रह्या. ते सांभळी सर्व देवताओ तत्काल सावधान थई गया. ज्यारे ते घंटाओनो नाद विश्रांत थयो, त्यारे सेनापति नैगमेषीए आ प्रमाणे कर्तुं. "हे देवताओ, आजे शुभपर्वनो दिवस छे, कारण के श्री जिन भगवान्नो जन्म थयो छे. तेथी इंद्र पोते त्यां जवाना छे, माटे तमे पण सत्वर तैयार थइ जाओ." सेनापतिनां आ वचन सांभळी सर्वे सम्यकत्वधारी देवताओ रुचि-कांतिने धारण करतां तत्काल हर्षथी गमन करवा माटे सावधान थई गया. केटलाएक इंद्रनी आज्ञाना बळथी, केटलाएक वचनना बळथी, केटलाएक ते महोत्सव जोवानी इच्छाथी अने केटलाएक पोतानी स्त्रीना वशथी-एम सर्व देवताओ (अतित्वरायुक्त) सर्व रीते विविध वाहनोने लई त्यां जवाने उत्सुक बनी गया. ते काले इंद्रनी आज्ञाथी पालक नामना देवताए पांचसो योजन उंचुं, लाख योजन विस्तारवाळु, . अनेक स्तंभवाळु, वागती घुघरीओथी शोभतुं अने तोरणनी श्रेणीथी विराजमान पालक नाम- एक प्रधान विमान बनाव्यं. तेनी अंदर सौधर्मेंद्रने माटे पादपीठ, उल्लोच अने रत्नमय पीठिकाए सहित एवं एक रमणीय सिंहासन बनाव्यु. इंद्रना सरखा देवताओ, देवीओ, सभासदो अने अंगरक्षकोने माटे बीजा घणां पीठआसनो त्यां निर्माण कर्या. पछी स्वहित करनार सौधर्म इंद्र परिवार साथे पोताने योग्य आसने बेठो. ते काळे देवताओए गायन करवा मांड्यु. पछी प्रयाण करवामां चतुर एवो इंद्र बत्रीश लाख विमानवासी देवताओथी वींटाईने उत्तर दिशाने मार्गे तिझे चाली असंख्य द्वीपोर्नु उल्लंघनकरी नंदीश्वर द्वीपमां आव्यो अने ते (सद्) वासना युक्त सौधर्मेद्रे त्यां पोतानुं विमान संक्षिप्त कयु. पछी सर्व द्वीपोने ओळंगी नगरमां जई तेणे प्रभुना जन्मगृहने उंचे प्रकारे त्रण प्रदक्षिणा करी. ते गृहनी ईशान दिशामां पोता विमान राखी पोते सूतिकागृहमां गयो अने त्यां जिनभगवान्ने अने तेमनी माताने नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्यो "माता, 1. अथासनानि सर्वेषां, समकालं बिडौजसां । अचलनिस्वलान्युच्चैरचलाभाजिनि प्रभौ ॥१३४।। श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव तमारे भय राखवो नहीं, अमंगळ दूर करवू, तमारा पुत्रनो जन्मोत्सव करवाने माटे हुं अहिं आव्यो छु." पछी श्यामादेवीने अवस्वापिनी निद्रा आपी ते भक्ति करवामां चतुर एवा इंद्रे पोताना पांच स्वरूप बनाव्या. माता पासे अन्य प्रतिबिंब (प्रभु तुल्य प्रतिमा) स्थापन करी पोतानी एक मूर्तिए गोशीर्ष चंदनवाळा बंने हाथमां प्रभुने ग्रहण कां. एक रूपे छत्र, बे रूपे बे चामर अने एक रूपे दुष्टोने निवारनारुं वज्र लीधुं. पछी बीजा देवताओना समूहे युक्त थई जिनशासननो भक्त एवो ते इंद्र विधिपूर्वक प्रभुने मेरुपर्वत उपर लई गयो. ते पर्वतनी चूलिकानी दक्षिण तरफ आवेला पांडुक नामना वनमां अतिपांडुकबला नामनी श्वेत कांतिवाळी शिला उपर आव्यो. त्यां स्नान करवाने योग्य एवा सिंहासन उपर ते इंद्र प्रभुने उत्संगमां राखी तरत पूर्वाभिमुखे बेठो. ते वखते जेना हाथमां त्रिशूल छे, जेने वृषभनुं वाहन छे अने पुष्पक नामना अतिप्रौढ प्रमाणवाळा विमान उपर जे रहेलो छे एवो ईशान-इंद्र अठ्यावीश लाख विमान वासी उत्कृष्टदेवताओनी साथे बीजा कल्पमांथी उतरी तिर्छा दक्षिण दिशाने मार्गे नंदीश्वर द्वीपमा आवी त्यां पोताना विमानने संक्षिप्त करी घणा परिवार सहित ते मेरुपर्वत उपर आव्यो. बार लाख विमानोना श्रेष्ठ देवताओथी वीटायेलो सनत्कुमार इंद्र सुमन नामना रूडा विमानमां आव्यो. आठ लाख विमान पति देवताओथी परिवृत थयेलो माहेंद्र इंद्र श्रीवत्स नामना विमानमां बेसी प्रभुनी समीपे आव्यो. चार लाख वैमानिक देवताओए युक्त थई ब्रह्मदेवलोकनो पति इंद्र नंद्यावर्त्त विमानमां बेसीने प्रभुनी पासे आव्यो, पचास हजार विमानपति देवताओनी साथे लांतक इंद्र कामगव नामना विमानमां बेसीने त्यां आव्यो. चालीश हजार विमानवासी देवताओनी साथे शुक्रपति प्रीतिगव विमानमां बेसीने हर्षथी त्यां आव्यो. छ हजार विमानवासी देवोनी साथे सहस्रार देवलोकनो इंद्र मनोरम नामना विमानमां बेसीने त्यां आव्यो. आनत-प्राणत पति इंद्र चारसो विमानवासी देवताओनी साथे विमल नामना विमानमां बेसी हर्षपूर्वक त्यां आव्यो. आरणाच्युत पति इंद्र त्रणसो विमानवासी देवताओनी साथे सर्वतोभद्र नामना विमानमां बेसीने त्यां आव्यो.
आ समये रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीमां घणी संख्याए वसनारा भवनपति अने व्यंतरेंद्रोनां आसनो कंपायमान थयां. अवधिज्ञानथी जाणी तेओना चमर अने बलि नामना बे इंद्रो, धरणेंद्र अने भूतानंद नामे बे नागेंद्रो, वेणुदारी अने वेणुदेव नामे बे सुपर्णोना इंद्रो, हरि अने हरिसेन नामे बे विद्युत्कुमारोना इंद्रो, अग्निमाणव अने अग्निशिख नामे बे अग्निकुमारोना इंद्रो, पूर्ण अने वसिष्ठ नामे बे द्वीपकुमारोना
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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव इंद्रो, जलकांत अने जलप्रभ नामे बे उदधिकुमारोना इंद्रो, अमित अने अमितवाहन नामे बे दिककुमारोना इंद्रो, वेलंब अने प्रभंजन नामे बे वायुकुमारोना इंद्रो, महाघोष अने सुघोष नामे बे स्तनितकुमारोना इंद्रो, काल अने महाकाल नामे बे व्यंतरोना इंद्रो, सुरूप अने प्रतिरूप नामे बे भूतोना इंद्रो, माणिभद्र अने पूर्णभद्र नामे बे यक्षोना इंद्रो, भीम अने महाभीम नामे बे राक्षसोना इंद्रो, किंपुरुष अने किन्नर नामे बे किंनरोना इंद्रो, महापुरुष अने सत्पुरुष नामे बे किंपुरुषोना इंद्रो, अतिकाय अने महाकाय नामे बे महोरग गणना इंद्रो, अने गीतयशा अने गीतरति नामे बे गंधर्वोना इंद्रो, त्यां आवी पहोंच्या. अप्रज्ञप्ति (अणपत्री) अने पंचप्रज्ञप्ति (पणपन्नी) वगेरे अपर अष्टनिकायोना सोळ इंद्रो पण त्यां आवी पहोंच्या. तेमां संनिहित अने समानिक नामे बे अप्रज्ञप्ति (अणपत्री) ना इंद्रो, हरिधाता अने विधाता नामे बे पंचप्रज्ञप्ति (पणपनी) ना इंद्रो, वृषि अने कृषिपाळ नामे बे ऋषिवादितिकना इंद्रो, ईश्वर अने महेश्वर नामे बे पूतवादितिकना इंद्रो, सुवत्स अने विशाळक नामे बे क्रंदितिकना इंद्रो, हास अने हासरति नामे बे महाक्रंदितिकना इंद्रो, श्वेत अने महाश्वेत नामे बे कुष्मांडोना इंद्रो, पंचक अने पंचकपति नामे बे पंचकोना इंद्रो अने असंख्य चंद्र सूर्य ज्योतिष्कोना बे इंद्रो-एम सर्व मळीने चोसठ इंद्रो ते वखते मेरुपर्वत उपर एकठा मल्या. ते प्रत्येकना सेवक देवताओए सुवर्णना, रूपाना, रत्नमय, सुवर्णमणिमय, सुवर्णरूपुं तथा मणिमय अने मणिमांथी बनावेला, मणिरूपुं अने सुवर्णमांथी बनावेला अने मृत्तिकामांथी बनावेला योजन प्रमाण उन्मुख (उंचा नाळवावाळा) प्रत्येक एक हजारने आठ कलशो इंद्रनी आज्ञाथी उत्तम पुद्गलो ग्रहण करीने विकुा . अविरत पुरुषोनुं ए ज उत्तम फळ छे. पछी किन्नरो मधुरस्वरे गीतगानकरतां, अपरिमित देव तथा देवीओना गणो नृत्य करतां, नादसहित वाजींत्रो वागतां, उत्तम सुर-असुरो चामरो वीजतां, मंगल पाठको सुस्वरे मंगळपाठ करतां अने चारण-श्रमणो भावथी स्तुति करता अच्युतेंद्र बीजा बासठ इंद्रोए युक्त थई अने देवगणोथी वीटाई हर्ष साथे प्रभुने विधिथी स्नात्र अभिषेक कर्यो. पछी तेणे चंदन चर्ची सुगंधी पुष्पोथी प्रभुनी परम भक्ति अने शक्ति वडे पूजा करी. प्रथम इंद्रे पोते प्रभुने स्नान अने पूजन कर्या नही, तेने माटे पोते सुकृत कयुं नथी, एम तेणे मान्यु नही. पछी सौधर्मेंद्रनी जेम ईशानेंद्रे पोताना पांच रूप कर्या. एक रूपे प्रभुने उत्संगमां लई उत्तम सिंहासन उपर बेठो. बीजे रूपे छत्र अने बीजा बे रूपे बे चामर धारण कयां. पछी एक रूपे पुण्यरूपी वृक्षना मूलरूप एवं त्रिशूल उछाळवा मांड्यु. पछी सद्बुद्धिवाळा सौधर्मेए तेनी चारे दिशाओमां जाणे मूर्तिमान् वृष-धर्म होय तेवा सूर्यकांत मणिमय चार वृषभो श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था बनाव्या. तेमनां शींगडांमांथी नीकळती आठ जळधाराओ वडे तेणे कल्याणलक्ष्मी पात्ररूप प्रभुने स्नान कराव्यु. पछी' श्रीखंडचंदन अने पुष्प वगेरेथी प्रभुनी पूजा करी, मणिमय बाजोठ उपर रूपाना अक्षतवडे अष्टमंगल आलेख्या. पछी प्रभु पासे कपूर तथा अगरुचंदनथी मिश्र एवो धूप करी उंचे प्रकारे आरती तथा मंगळदीप करी कल्याण करनारी अने तंद्राने छोडावनारी योगमुद्रा रची, ते मायारहित इंद्र आ प्रमाणे प्रभुनी स्तुति करी. ।।२०१।।
___ "कल्याणने आपनारा लक्ष्मीथी विभूषित कल्याणकोवडे सुशोभित, कल्याणरूप वर्णवाळा अने कल्याणपदने आपनारा तमोने हुं स्तवं छं. हे प्रभु, तमारुं नवीन स्तवन करनार बुधजन के ब्राह्मीनो पुत्र भले होय, परंतु ते ज गुरुताने पामे छे, ते घणुं आश्चर्यकारी छे. जगतना प्रभु अने शंभु एवा तमोने जाणीने हुं आश्रित थयो छु, तथापि हुं बीजाओथी जे हराई जाउं छु तेनुं कारण तमारी उपेक्षा छे. हे स्वामिन्, जे विधिए मारा शरीरने हजार नेत्रवाळु बनाव्यु, ते विधि घणी सारी बुद्धिवाळो छे, नहीं तो तमारुं आ सुंदररूप हं शी रीते नीरखी शकत? परंतु ते विधिए मने तमारी स्तुति करवाने समर्थ एवा शतमख ने बदले शतमुख न बनाव्यो, तेथी ते विधि जडजथी उत्पन थयेलो छे, एम हुं मानुं छु. तमारो जन्मोत्सव प्राप्त करी पूर्वे हुं वर्णथी अर्जुन हतो, परंतु अत्यारे आ पूजा करवाने वखते ते हुँ हजार हाथने धारण करनारो नथी, हे स्वामी! तमारा कल्याणक प्रसंगे शिव कल्याणनी इच्छाथी आवेलो हं आ वखते गंगाजलने 1. कल्याण एटले सुवर्ण. 2. गुरुता-भारेपणुं, पक्षे गुरुपद. 3. शंभु-एटले सुख करनार ।
जे सुख करनार होय तेनो आश्रय लेनार बीजाओी हरी शकाय नहीं. 4. 'शतमख' ए इंद्रनुं नाम छे. तेणे सो वार मख-जिन पूजारूप यज्ञ करेल, ते उपरथी ते नाम पड्युं छे.
अन्य मतवाळाओ मखनो अर्थ यज्ञ ज करे छे. शतमुख एटले सो मुखवाळो. 5. विधि-ब्रह्मा जडज-जलज-कमळमाथी उत्पन्न थयेल छे. टु अने ल अक्षर सरखां गणाय
छे: ते उपरथी 'जडज' पण होई शके. जे जडजमांथी उत्पन्न थाय, ते जडज होय. तेथी शतमखने बदले शतमुख नाम आप्युं नहीं. विधि-एटले कर्म पण थाय छे. जैन मत प्रमाणे
सृष्टिकर्ता विधि-ब्रह्मा होई शके नहीं. तेथी लौकिकपक्षे ते अर्थ घटावी शकाय. 6. अर्जुन-एटले श्वेत, पक्षे पांडव अर्जुन वर्णथी रंगथी अने जातिथी हुं पहेला अर्जुन हतो पण अत्यारे हुं तमारी पूजा वखते हजार हाथने धारण करनार नथी, एटली दीलगीरी मृत्लमां 'दो सहस्त्रधर' एवं पद छे, तेनो एवो अर्थ पण थाय के हुँ तमारी पूजा करवाथी हजार दोषवाळो रह्यो नथी. 7. शिव एटले कल्याण, पक्षे शिव-महादेव जे महादेव थवानी इच्छा करे, ते गंगाजलने धारण करे अने घनवाहन थाय. इंद्र पक्षे-इंद्र शिवकल्याणनी इच्छाथी आवेलो छे. ते स्नात्रने माटे गंगाजलने धारण करनारो छे अने त्रण प्रकारे घनवाहन थयो छे एक प्रकार घन घणां वाहनवाळो, बीजो प्रकार घन-मेघ वाहनवाळो अने त्रीजो प्रकार तेनुं घनवाहन नाम छे ते. 232
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था
धारण करी त्रण प्रकारे घन वाहन थयो छं, तमोने 1 क्षमाधारना स्वामी मानी हूं वराहने आश्रित थयो, पण तमो ए अमारा अचलने लक्ष्मीश कर्यो अने उंचे प्रकारे तेनुं शिर दबावी दीधुं, तेथी हवे घणो लांबो प्रसाद करो अने तेथी ते पर्वत सुवर्ण दंडनो दाता अने राजाओए अने साधुजनोए नमेलो अने स्तवेलो छे, "हे प्रभु, तमारा जन्मोत्सवने प्राप्त करी आ 2 क्षणदा सोगणी थयेली छे. अने आ संसारना दानथी ते रात्रिनुं दोषा एवं जे नाम छे, ते तमोने शुं ईष्ट नथी थयुं ? स्वभावथी पुण्यरूप एवं आ जल तमारा संगथी वर्णने प्राप्त थयुं छे, ते तमारा सुवर्ण सारावर्णवाळा अंगना संयोगथी कोने पवित्र न करे अर्थात् सर्वने पवित्र ज करे छे."
आ प्रमाणे श्री विमलनाथ प्रभुने स्नात्र करवाने अवसरे इन्द्रे करेली स्तुति जे मनुष्य भणे छे, ते मनुष्य सत्पुरुषोने सेववा योग्य थाय छे.
आ प्रमाणे स्तुति करी सौधर्मेंद्र पूर्वनी जेम पांच रूप करी प्रभुने लई सूतिकागृहमां आव्यो, त्यां श्यामादेवीनी अवस्वापिनी निद्रा अने प्रभुनी प्रतिकृतिने दूर करी श्यामादेवीना अंगने सुख आपनारा ते प्रभुने तेमनी पडखे मूक्या. पछी भक्ति करनारा इंद्रे जिनप्रभुने ओशीके बे दिव्य वस्त्रो अने कुंडळ मूक्या अने प्रभुना अंगुठामां अमृत मूक्युं पछी इंद्रनी प्रेरणाथी कुबेरे ते राजाना घरमां प्रातःकाले सोना, रूपा अने रत्न वगेरेनी वृष्टि करी. इंद्रना आदेशथी आभियोगिक देवताओए चारे प्रकारना निकायोमां आ प्रमाणे आ घोषणा करी - "जे कोई आ जिन भगवान् अने तेमनी मातानुं पोताना हृदयमां अशुभ चिंतवशे, तेना मस्तकना सात कटका थई जशे.” ते पछी इंद्र त्यां धात्रीकर्म करवा माटे पांच अप्सराओने राखी पोते नंदीश्वरनी यात्रा करी पोताने स्थाने चाल्यो गयो. बीजा पण इंद्रो मेरुपर्वतथी ज नंदीश्वर द्वीपमां गया अने त्यां अट्ठाई उत्सव करी पोतपोताने स्थाने
1. क्षमाधर क्षमाधारी मुनिओना स्वामी मानीने वराह उत्तम अहंभावने आश्रित थयो अने तमोए अमारा अचल मेरु पर्वतने जाते पधारी लक्ष्मीश- शोभानो धणी बनाव्यो अने तेना शिर उपर चड़ी बेठा. हवे तेनी उपर प्रसाद करो. कृपा करो मेरु पर्वत सुवर्णनो दाता छे अने तमारा पंधारवाथी राजाओ अने साधु पुरुषोए ते नमेलो छे अने स्तवेलो छे, पक्षे अन्यमतिओना वराह अवतारनो अर्थ पण नीकळे छे जे विष्णुने क्षमाधर - शेषनागना स्वामी मानीने वराहनो आश्रय कर्यो, पण ते विष्णुए वराहने लक्ष्मीपति बनाव्यो अने तेनुं मस्तक दबावी दीधुं. ते वराह अचल-न चलायमान थाय तेवो मजबूत के अने सुवर्ण दंडनो दाता अने राजाओ अने साधु पुरुषोए नमेलो तथा स्तवेलो छे. 2. क्षणदा एटले रात्रि पक्ष क्षण-उत्सव आपनारी 3 प्रभुने संसारमां लावनारी तेथी संसार आपनारी कही छे. 4. वर्ण एटले रंग- सोनेरी रंग.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था चाल्या गया. ते समये सर्व दिक्कुमारीओए पोत-पोतानुं काम हाथमां लई घरने योग्य एवं प्रभुना जन्मसंबंधी कार्य कयु अने इंद्रादिक देवताओए बहार उत्सव कर्या ते उपरथी पुत्र जन्मनो बधो व्यवहार अद्यपि लोकोमा प्रवर्ते छे तेम वळी सौधर्मेंद्रनी जेम जेने जेवो अधिकार ते प्रमाणे ते काले सत्वर आवीने गमनागमन करे छे.
ज्यारे सुखकारी प्रातःकाल थयो एटले श्यामादेवी पोताना कामदेव जेवां सुंदर पुत्रने जोई एटला बधा खुशी थया के ते पुत्र वगरना स्वर्गने एक तृणना जेवू पण गणता नहीं. 'श्यामा पुत्रना मुखरूपी चंद्रने जोईने घणी ज उज्ज्वळ थई. ते घटित ज थयुं, परंतु मित्रना उदयमां ते तेजस्वी हता. ते घटित न हतुं. श्यामादेवीनो परिवार पण ते शिव-कल्याणयुक्त पुत्रने जोई गीतगान वगेरेथी हर्षनो कोलाहल करवा लाग्यो. ते पछी ते परिवारे अहं पुर्विकाथी घणो हर्ष पामी राजाने पुत्रजन्मना वृत्तांतनी वधामणी आपी. राजाए आ पहेलो अने आ पछीनो-एम क्रम राख्या सिवाय पोतानी रुचि प्रमाणे द्रव्यनी वृष्टि करी. राजानो एवो ज धर्म छे. "आ दयाळु प्रभु प्राणीओने संसाररूपी कारागृहमांथी छोडावशे." एम धारी राजाए कारागृहमांथी केदीओने छोडी मूक्या. उत्सवदिन जाणी बारणे धोंसरूं (शकट-मुशल) वगेरे उंचा करी दीधा. तोरण श्रेणी बांधवामां आवी अने हर्षना स्थानरूप मोतीओना चोक पुरवामां आव्या, स्वस्तिकोनी श्रेणी रचवामां आवी. राजाए गीतगान, दान, स्वजनवर्ग- सन्मान अने हर्षप्रधान भोजन दान कराव्या ते वखते सुंदर वस्त्रना पोषाकथी भरेला अने पुष्पोथी युक्त एवा गोळ-अक्षतपात्रो राजमंदिरमां आववा लाग्या. एवो कुलाचार कर्या पछी ज्यारे सूतक निवृत्त थयु एटले राजाए स्वजनोना समूहनुं सन्मान करी तेमनी आगळ आ प्रमाणे कर्तुं. "ज्यारे आ कुमार गर्भमां हतो, त्यारे तेनी मातानी बुद्धि निर्मळ थई हती, ते उपरथी आ पुत्रनुं नाम विमल पाडवामां आवे छे. क्षमाधारना समूहनो स्वामी अने तुष्टिपुष्टिवाळो आ बालक पयोधरनुं पय पीतो (स्तनपान करतो) नथी, तेनुं कारण धात्रीनो दोष छे. ते प्रभु इंद्रना अंगुठामांथी अमृत पीवे छे, तेथी विचारने 1. पक्षे श्यामा एटले रात्रि चंद्रना दर्शनथी उज्ज्वळ थाय ए घटित छे. पण ते चंद्र मित्र सूर्यना उदय वखते तेजस्वी रहे ए अघटित छे. आ प्रभुरूपी चंद्र मित्रोना उदयथी पण तेजस्वी हतो. 2. 'हुँ पहेलो जाउं, हुँ पहेलो जाउं' एम करवू ते. 3. क्षमाधर-पर्वतोना समूहनो स्वामी-महान् पर्वत तुष्टिपुष्टि करनार छे अने ते जे पयोधर मेघनुं पय-जल पीतो नथी तेनुं कारण धात्री पृथ्वीनो दोष छे. एटले ते पर्वतनी एवी पृथ्वी छे, के जे मेघनुं पाणी पीती नथी. प्रभु पक्षे-क्षमाधर-मुनिओना स्वामी-पयोधर-स्तननुं पय-दूध.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था जाणनारा अने सद्ज्ञानमय चित्तवाळा विद्वानो तेने 'अमृत रूप कहो. हुं तो ते सर्वज्ञ प्रभुना मुखने अमृतनो कुंड कहुं छु, कारण, ते प्रभु ताप वगेरेमां आवीने उलटा ते अमृतनुं पान करे छे. जो कदि भगवान् सो वर्ष सुधी व्याख्यान करे, तो त्यां सुधी तेना श्रोताने क्षुधा तथा तृषानी पीडा दुःख लागे नहीं, तेवी ते सर्वज्ञ मुखनी वाणी तेमां प्रमाण रूप छे, ते उपरथी सिद्ध थाय छे के जो ते मुखमां अमृत न होय, तो तेवी वाणी शी रीते होई शके? बीजाओना मुखमां पण सदा अमृत रहे छे, जेना रसथी दादर वगेरे रोगोनो उपशम थाय छे, आ पृथ्वीमां पशुओनी जीभमां पण अमृत छे, तेओनी जीभ ज्यारे तेमना देह उपर लागे छे, त्यारे तेमना रोगनी शांति प्रत्यक्ष देखाय छे. वळी जिन भगवानोए लक्ष्मीना गृह रूप पोताना मुखमां अंगुठो नाखेलो ए उपरथी बाल्यवयमां बालकोनो तेवो स्वभाव अद्यपि लोकमां प्रवर्ते छे. जेमनी काया निरोगी अने पसीना-मळ वगेरेथी रहित होय छे, जेमनो श्वास सुगंधी होय छे, जेमनां रूधिर-मांस श्वेत होय छे अने जेमना आहार-निहारनो विधि (चर्म चक्षुवाळाने) समीपमां जोवामां आवतो नथी तेवा जगत्पति जिन प्रभुने ते चार अतिशयो सहभावी (जन्मथी ज) होय छे. लोकोमां कहेवत छे के, 'जे बांधी मुठी राखे तेने लाखोनो लाभ थाय छे.' ते उपरथी ज प्रभु बाल्यवयमां ते लाभ मेळववाने माटे बांधेली मुठी राखता हता. वळी ते गर्भयोगींद्र प्रभुने योगीओ अदृश्य थई पूछे छे के, 'हे प्रभु, मुक्तिनुं । सुख क्यां छे?' त्यारे प्रभु कहे छे के, "ते मुक्तिनुं सुख मारी मुठीमां छे." तेमज ते योगीओ ते सर्व हितकारी प्रभुने कहे छे, "त्यारे ते मुक्तिनुं सुख अमोने आपो." त्यारे प्रभु बालस्वभावने लईने तेमने अंगुठो बतावे छे, पछी तेओ रोष लावीने बलात्कारे प्रभुना अंगुठाने कदि चोळी नाखे, तेथी प्रभु ते अंगुठो वारंवार पोताना मुखमां नाखे छे. अथवा मोहरूपी मल्ल जे आ त्रण जगतने दुःखी करी रह्यो छे. तेने जोई प्रभु मुष्टि अने लातथी तेने मारवा धसे छे. कारण के पोते जिन भगवान् छे. ज्यारे प्रभुना हाथ पग ते मोहरूपी मल्लनी साथे युद्ध करवाथी श्रात थई जाय छे. त्यारे प्रभु पोताना मुखरूपी अमृतना कुंडमांथी तेमने अमृतनुं पान करावे छे. ज्यारे त्रण जगतना प्रभु मोह उपर जय मेळवे छे, त्यारे तेओ हर्षित थईने हाथ ताळी आपे छे. मोह क्षयना भयथी व्यग्र थयेला माता पिता वगेरे प्रभुने नीचे उतारे छे, त्यारे जाणे ते सुखथी तरी जतां होय तेम देखाय छे. पोतानी मेळे तरता कलशने कोई अधोमुख करे छे, त्यारे ते प्रभु विशेष पणे 1. ठल्लो. 2. अमृतरूप-मोक्षरूप. 3. संसारना ताप वगेरेमां आवीने एटले संसारी बनीने. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था बीजाओने पण तारे छे. ते प्रभु क्षमा-पृथ्वी उपर रहेला छतां जाणे तरता होय तेम देखाय छे, ते उपरथी तेओ जणावे छे के, क्षमाथी आ संसार रूपी सागर तरी शकाय छे. पारणामां सुतेला प्रभु चंद्रना उदय तरफ पोतानी दृष्टि राखी अने अंगने लीन करी क्षणवार रहे छे, ते जाणे कायोत्सर्गे रह्या होय तेवा देखाय छे. प्रभु जे ते पदार्थ उपर एक दृष्टि राखी रहे छे, ते वखते तेओ बालपणामां पण खरेखरी सर्वज्ञनी संज्ञाने प्राप्त करे छे. वळी कोईवार प्रभु पोतानां जेवा मुक्तामय, सुवृत्त, सगुण अने सदा लयमा रहेला दडा तरफ जोई रहे छे. चरणना उंचा प्रकारना व्यापारमा ते प्रभु बद्धमुष्टि छे, छतां पण क्षमाधारीओनी अंदर चंद्रनी किरणना जेवू उज्ज्वळ यश प्राप्त करवाना छे. कोईवार 4अनाहत स्वरमां लीन थयेला अने धारणाए युक्त एवा ते प्रभु देवताना चक्रथी मंडित एवा अंतःपुरने जुवे छे. पालणामां उर्ध्व भागे रहेला प्रभुने देवतानी स्त्री दोरी लईने हींचोळे छे, त्यारे प्रभु तेणीना पासे हींचता आवे छे पण तेओ काष्टा-दिशानो आश्रय छोडता नथी अने पाछा उंचा गुण-दोरी साथे मळी पोते पाछा स्वस्थानमां आवे छे एवी रीते प्रभु जिन होवाथी परलोकने अर्थे गमनागमन करे छे. त्यां पाटियानी व्यूह रचना करी राखेला प्रौढ तारकने जोई लोको कहे छे के, "अहो! आ बालक पांजरामां पुरायेलो छे" कोईवार प्रभु अव्यक्त-न समजाय एवो शब्द करे छे, ते उपरथी तेओ लोकोने जणावे छे के, "मारुं स्वरूप आq छ अर्थात् अव्यक्त छेअज्ञेय छे." त्रण ज्ञानने धारण करनारा प्रभु 'हे! मा' एवी वाणी पण बराबर बोली शकता नहीं, तोपण हुं मार्नु के, अवसरे जेवू बोलाय ते मीठु लागे छे.।।२६५।। "देवताओ अने देवीओ प्रभुने रमाडे छे," एम कहेवू ते तद्दन मिथ्या छे, कारण के प्रभु तेओनी साथे चेष्टाथी क्रीडा करता लागे छे, पण तेओ पोते तो आत्माराममांज रमनारा छे. जे देव वगेरेने मोकलवामां आव्या छे, ते बधी इंद्रनी भक्ति छे, परंतु ते परमेष्ठी प्रभुने तो ते बधुं स्नात्र वगेरे क्रिया करवा बराबर थाय छे. प्रभु महेलनी अंदर पगे रीखता चालीने पोताना बंधुओने कहे 1. क्षमा एटले पृथ्वी अने सहनता. 2. दट्टा पक्षे मुक्तामय-मोतीए भरेलो सुवृत्त-गोळाकार,
सगुण-दोरीवाळो अने सदालय-सारा स्थानमा रहेलो अने प्रभु पक्षे प्रभु मुक्त-आमयरोगथी मुक्त सुवृत्त-सारा आचरणवाळा, सगुण-गुणी अने सदा हमेशा लय-ध्यानमा रहेल. 3. क्षमाधारी-मुनिओ. 4. अनाहत-स्वर-एटले समाधि पक्षे अनाहत चक्रमाथी प्रगटतो स्वर
प्रभु पक्षे चोखो अवाज धारणा-योगांग पक्षे धैर्य अंत:पुर-जना- पक्षे आंतर हृदय प्रदेश. 5. पारणे हिंचवामां उंचे नीचे जवाय रे ते उपर उत्प्रेक्षा छे.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था
छे के, "" सम्यक् चरणना बळथीज शुभ मार्गे गमन थई शके छे; तेथी गृहस्थोर कांईपण पोताना चरणनुं बळ करवुं जोईए अने जेथी तमारी सद्गति थाय, तेव्री रीते ? हाथ पण लंबाववो जोईए." प्रभु पोताना पग वगेरेने हाथनो आधार आपी मार्गे चालता हता, ते उपरथी तेओ अनगार- मुनिओने चेष्टाथी उपदेश आपता
एम,
"यां सुधी यथाख्यात क्रमवडे वीर्यनो समूह प्राप्त न था, त्यां सुधी. बुद्धिमान् मुनिए आलंबनसहित विहार करवो, नहि तो क्रमनो भंग थई जाय, अथवा क्षिति-पृथ्वी उपर पडी जवाय, तेथी ते विवेकी मुनिए गुरुकुलनो निवास छोडवो नहिं." वळी ते 4 भगवंतनी वाणी ते समये बीजाओना समजवामां आवती न हती, तो पाछळथी 'हेय अने अहेय (उपादेय) स्वरूपवाळी ते वाणी शी रीते जाणी शकाय ? ते बाळ प्रभु 'बोलाव्या न होय, तोपण आवता अने बोलाव्या होय, त्यारे आवता नहीं, ते जिन भगवान्नुं एक चारित्रनुं अंग छे, विद्वानो कहे छे. प्रभु जे मंदमंद पगलां भरी चालतां संपत्तिने आपता हता, ते क्षमाधरोमां प्रमुख एवा जिनेश्वरोने माटे कांई आश्चर्यकारी न हतुं. ते प्रभु जै बालकोनी वच्चे रही पोते सन्मार्गे चालता, ते 'प्रवचननी माताना संगथी साधुओनी . बच्चे रही चालवानुं दर्शावता हता. घणी गोपांगनाओं भ्रांतिथी एकी वखते हाथनी ताळीओ आपी प्रभुने नचावती हती परंतु ते बोधवाळा प्रभु नृत्य करता न हता. उत्तम एवी कात्यायनी - पार्वतीदेवीए महादेवने जटाधारी, नग्न अने पोताना अर्धाअंगना संगी बनाव्या हता; परंतु श्री जिन प्रभु तेवी रीते अर्धा अंगवाळा थता न हता. 'प्रभु जे कोई वस्तु नजरे पडती तेमां श्रद्धाळु थई तेनी शोध करवामां तत्पर बनी जतां तेम करवुं, ते जिन भगवान्ने उचित हतुं. प्रभुना बंने चरणमां पहेरावेला माणेक तथा रूपाना घुघराओ सुवर्णना कमळ उपर
1. सम्यक् चरण - सम्यग् आचरणना बळथी शुभ मार्गे जवाय छे एटले मार्गानुसारी थवाय छे. पक्षे सम्यक् - सारी रीते चरण-पगना बळथी सारे मार्गे चलाय छे. 2. एटले हाथे करी क्रिया के दान करवा जोईए. 3. प्रभु बीजाना हाथनो टेको लईने चाले छे, ते उपर आ कल्पनाक छे. ज्यां सुधी मुनि पोताना गुणना वीर्यथी लायक न थाय, त्यां सुधी तेणे कोई वडा मुनिना आलंबनथी एटले तेमने आश्रित थईने विहार करवो अने वडील गुरुनी साथै ज वसवुं. 4. प्रभु तोतडुं बोलता एटले कोईथी ते वाणी समजाती नथी. 5. हेयत्याग करवा योग्य अने आदेय एटले ग्रहण करवा योग्य. 6. मुनि श्रावकने घेर बोलाव्या वगर आवे छे. बोलाव्या आवता नथी. 7. प्रवचननी माताओ समिति वगेरे कहेल छे. 8. बालक कोई वस्तु जुवे छे, तो तेने लेवानुं करे छे. ते चेष्टा उपर आ कल्पना छे. जिन भगवान् दरेक पदार्थनी शोध करी निरुपण करनारा होय छे.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था बेठेला हंसोनी जेम शोभता हता. घणां अर्थवाळु अने सुवर्णथी युक्त एवं कटिसूत्र धारण करतां प्रभु "साधुओने सदा आq सूत्र शीखवानुं छे," एम जणावता हता, तमना समूहने हरनार अने रत्न युक्त एवा अंगद-बाहुबंधने धारण करनारा प्रभु "लोकोए आवा गुरु पोतानी भुजामा राखवा" एम प्ररूपणा करता हता. सुमनस्नी श्रेणीथी युक्त एवा बे कुंडलने धारण करता प्रभु भव्य प्राणीने एवो उपदेश करे छे के, "हे भव्य तुं आq वचन काने सांभळजे.". श्रीजिन भगवान्ने अंगनी शोभा माटे अलंकारो धारण करवानी जरूर न हती; परंतु माता वगेरेने तेम करवाथी हर्ष थतो हतो. जे प्रभुना अंगना वर्णनी साथे विवाद करतुं सुवर्ण काबरूं बनी गयुं अने लोह पणाने लईने ते 'सुवर्णनो शब्द पृथ्वी उपर अद्यपि थतो नथी.
आ प्रमाणे पुत्रनुं पालन करवामां तत्पर एवो राजा कृतवर्मा राज्य करतो हतो. तेवामां एक वखते कोई सामुद्रिक शास्त्रने जाणनारो विद्वान् त्यां आवी चड्यो राजानी आज्ञाथी ते विद्वान्नो प्रवेश थयो अने ते राजानी पासे आवीने बेठो! ते वखते प्रभुने उत्संगमां लई बेठेला राजाने जोई ते जोषीए पोता मस्तक धूणाव्युं राजाए तेनुं कारण पूछ्युं. त्यारे उत्तम लोकोने प्रिय एवो विद्वान् जोषी बोल्यो-"राजन्, लोक शास्त्रमा पुरुषोना बत्रीश लक्षणो कहेलां छे, परंतु लक्ष्मीना गृहरूप अने सर्व प्राणीओनी इच्छा पूरनारा एवा आ तमारा कुमारना देह उपर तो एक हजारने आठ लक्षणो देखाय छे. तेथी आ कोई लोकोत्तर पुरुष थशे. कारण के सर्व शुभ के अशुभ भावी लक्षणो उपरथी जाणी शकाय छे. आ कुमारना चरण अने हस्तना तळीयामां दंड, चक्र, खड्ग, बाण, धनुष्य, शक्ति अने गदाना जेवी रेखाओ छे, तेथी ते शस्त्रोने धारण करनार उत्तम पुरुष थशे. तेना हाथनी तर्जनी आंगळीमां गृहबंधनी अंदर आवेली रेखा उपरथी १. कटीसूत्र पक्षे घणा अर्थ-किंमतवाळं सुवर्ण-सोनाथी युक्त अने सूत्र पक्षे-घणा अर्थ
शब्दार्थवाळु अने सु-सारा वर्ण-अक्षरोवाळु. 2. अंगद बाहुबंध पक्षे-तम-अंधकारने हरनार अने रत्न युक्त-रत्नोथी जडित, गुरु पक्षे तम-अज्ञानने हरनार, रत्न-ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप रत्नोथी युक्त अने अंगद द्वादश-अंगने आपनार-उपदेश करनार, भुजामां राखवानो अर्थ एवो छे के. बाहुबंध आभूषण-भुजा उपर बंधाय छे. अने गुरुने भुजामां राखवा एटले पोतानी पासे राखवा. 3. कुंडल पक्षे-सुमनस्-पुष्योर्थी युक्त अने वचन पक्षे सुमनस्-सारा मनथी युक्त अथवा विद्वानोथी युक्त एटले विद्वानोए कहेल वचन काने सांभळवू. 4. सुवर्ण प्रभुना अंगना वर्णनी साथे वाद करवा गयुं तेथी ते काबरं बनी गयु अने लोहनी जेम तेनो अवाज पण थतो नथी. बीजा धातुनी जेम सोनानो रणकार लागतो नथी. 238
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था । ते सुखे कालधर्म पामनार थशे अने अनामिका आंगळीनी नीचे उर्ध्व रेखा छे, ते उपरथी आ कुमार धर्मवान् थशे. तेमनी बधी आंगळीओ सुवृत्त-गोळ-अंगुठानी साथे बरोबर मळेली अने सरखी छे, तेथी ते परमात्माना चरणनो संसर्ग पामशे, ए युक्तिवाळु छे. आ कुमारना हाथ पगना नख 'रक्त छे, ते उपरथी आखं जगत् तेमनी उपर रक्त थशे. तेमना पगना फणा उन्नत छे, तेथी ते उन्नत स्वामी थशे. तेमना फणा गूढ छे, तेथी ते आ पृथ्वी उपर गूढ स्वरूपवाळा थशे, अने तेमनी जंघा (पीडी) सारंग-हरणना जेवी छे, तेथी तेमनी वाणीमां वचनथी कही न शकाय तेवो सार रहेशे. हे राजा, आ कुमारना बे ढींचण मांसथी भरेला अने स्निग्ध-चीकाशवाळा छे, ते उपरथी आ जगतमां तेमन मन सर्व प्राणीओमां स्निग्ध-स्नेहवाळु अने पुष्ट देखाशे. तेमना बंने साथळ विस्तारवाळा अने गोळाकार छे, तेथी तेओ विस्तारवाळा वृत्त-आचरणने दर्शावनारा थशे तेमनी कटी ईष्टकाइंटना जेवी छे, ते उपरथी तेओ ईष्ट कार्यने करनारा थशे. तेमनुं मध्य शरीरनो मध्यभाग वज्रना जेवो छे, ते उपरथी तेओ वज्रने धारण करनारा इंद्रोए पूजेला थशे. तेमनुं उदर वर्षाभू देडकाना उदरना जेवूछे, तेथी तेओ वर्षाभू-वर्षाऋतुनी भूमिनी जेम शस्यश्री थशे. तेमनी नाभि अने कुक्षि-उदर गंभीर छे, तेथी तेओ गंभीर हृदयवाळा थशे. तेमनो पृष्ठभाग काचबाना पृष्ठभागना जेवो छे, तेथी ते उत्कृष्ट एवा क्षमाभारने धारण करनारा थशे. हे राजा, तेमना बंने स्तननुं अंतर विशाळ छे, तेथी तेओ विशाळ हृदय (उदार आशय) वाळा थशे. एमना बंने बाहु सरळ छे, तेथी तेओ सर्व प्राणीओ तरफ सरळ रहेनारा थशे.।।३००।। तेमनी डोक शंखना जेवी छे तेथी तेमनो यश शंखना जेवो उज्ज्वळ थशे. तेमनुं मुख पूर्ण छे, तेथी ते संपूर्ण वक्ता थशे, तेमना दांत डोलरनी कळि जेवा छे, तेथी तेमनुं हास्य डोलरनी कांतिना जेवू उज्ज्वळ थशे . तेमनी जीभ कमळना पत्र जेवी छे, तेथी ते प्रभु लोकाग्र उपर जवानी इच्छा करनारा लोकोनी कमळ पत्रो वडे पूजा प्राप्त करशे, तेमना नेत्रोमां स्नेह-चीकाश छे, तेथी ते प्रभु उपर कया पुरुषो स्नेह नहिं करे? तेमनी नासिका उन्नत छे, तेथी तेओ सदाकाळ उन्नत भावे रहेशे. तेमना कान आवर्तवाळा छे, तेथी तेमना शिष्यो पण प्राये करीने घणा मनुष्योने आवर्तक वंदन वडे वंदावशे, तेमनुं ललाट अर्धचंद्रना जेवं छे, तेथी तेओ 'चंद्रभोगने प्राप्त 1. राता. 2. आसक्त. 3. वर्षाऋतुपक्षे शस्य-धान्यनी श्री-शोभावाळी भूमि अने प्रभु पक्षे
शस्य-प्रशंसा करवा योग्य-श्री-शोभावाळा. 4. कूर्मपृष्ट-क्षमा पृथ्वीना भारने धारण करनार अने प्रभु क्षमाने धारण करनारा. 5. चंद्रभोग दिव्यभोग.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था
करनारा थशे. तेमनुं 'उत्तमांग छत्राकारे छे, तेथी तेमना मस्तक उपर छत्र धराशे . तेमना केश (आवा) कोमळ श्याम अने स्निग्ध छे, तेथी तेओ वासुदेव वगेरेनी पूजा अपरिमित हृदये प्राप्त करशे. वळी आ कुमारना मौलि - मस्तकना भागमां उष्णीष - शिखा छे, एटलुं विशेष छे, तेथी तेओ आ त्रणे जगतमां 2 त्रिशृंग-त्रण शिखरथी युक्त थशे. आत्रण भुवनमां सर्वने प्रशंसनीय एवा आ कुमारनी साथे जे कंई सरखाववामां आवे, ते हीन उपमावाळं जाणवुं अर्थात् आ त्रणे भुवनमां तेमनी उपमाने योग्य कोई पण नथी.
आ प्रमाणे ते जोषीना वचनो सांभळी जाणे जंगम कल्पवृक्ष होय तेवा राजाए हर्षित थईने ते जोषीने ऊंची जातनुं पारितोषिक आप्युं. प्रभु विमलकुमार साठ धनुष्य प्रमाण ऊँचा, भव्य एवा प्रथम संस्थान अने आद्य संहनन ( संघयण) वाळा थई यौवन वयने प्राप्त थया. सूर्य ग्रीष्मऋतुना आश्रयथी तेजस्वी होय छे, परंतु प्रभु तो स्वभावथी ज तेजस्वी हता. चंद्र पूर्णिमाना योगथी अमृतमय कांतिवाळो अने स्वच्छ होय छे अने प्रभु तो स्वभावथी अमृतमय कांतिवाळा अने स्वच्छ हता. आम्रवृक्ष वसंतऋतुना योगथी सारी छायावाळो होय छे अने प्रभु स्वभावथीज सारी छाया- कांतिवाळा हता. क्षेत्रभूमिनो देश शरऋतुथी शस्य - धान्यने उत्पन्न करनार होय छे अने प्रभु तो स्वभावथी ज शस्य - प्रशंसनीय कार्योने उत्पन्न करनारा हता. जगत्पति प्रभु सदाकाळ रूपनी लक्ष्मीथी युक्त तो हता, पण ते पापरहित प्रभु यौवनथी विशेष शोभाने प्राप्त थया हता. पछी ते प्रभु भोग्यकर्मना समूहने हरवाने अने पितानुं वचन मान्य करवाने बाह्यवृत्तिथी राजकन्याओनुं पाणिग्रहण कयुं. प्रभुए से विवाह मन वगर कर्यो हतो, कारण के गृहस्थोने स्वदार संतोष ए मोटुं व्रत गणाय छे. जेम कोई मोटो माणस सारा नगरमा आवे, त्यारे सर्वजनो तेने भोजन करवानुं निमंत्रण आपे छे, ते वखते ते मोटो माणस धन्यात्मा थई पोताने स्थाने जवा माटे रसगौरव विना बे ऋण घरे भोजन करे छे, तो पण ते माणसनी निंदा थती नथी; परंतु उलटी प्रशंसा थाय छे, तेवी रीते जिन भगवान्नो भोग पण कर्मना क्षयने माटे होय छे. एक दिवसे धर्म, अर्थ अने कामनी आराधना करवामां तत्पर अने मोक्षमार्गमां आदर करनारा कृतवर्मा राजाए भविष्यमां सुखनी इच्छाथी पोताना गुणी पुत्रने आ प्रमाणे कह्युं, "वत्स, लघुपणामां पुरुषने पतिशब्द शोभे छे, परंतु गुरुपणामां तेने ते भाररूप थाय छे अने स्वर्गलोकनो व्यय करावे छे. हे वत्स, 1. मस्तकवगेरेनो भाग. 2. त्रण अति उच्च ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप शिखरवाळा थशे. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था जरावस्था रूपी राक्षसी प्राणीओनुं मांस खाई जाय छे अने ते दुष्ट आशयवाळी जाणे मदिरा पिनारी होय तेम रुधिरनुं पान करी जाय छे. प्रथम तो ते आवतांज तरत लोकोना दांत पाडी नाखे छे, बुद्धि लई जाय छे, भय आपे छे अने ते शरणे आवेलानुं रक्षण करती नथी. ते समग्र बंधुवर्गने अवश करे छे, प्राये करीने साथे रहेली कायाने फेरवी दे छे, माणसने विकळ बनावी दे छे, नेत्रोनुं तेज हरी ले छे, मस्तक धुणावे छे अने हाथ पग वगेरे अंगोने कंपावे छे, पछी ज्यारे ते दुर्बल थाय एटले तेने विस्तार पामेला रोगो पीडे छे. दुर्बल थयेली नठारी वाडने छिद्र पाडवामां शी वार लागे? पछी ते रोगो घातकी चोरनी पेठे भारे वैर लावीने प्राणीओ चित्त सहित आयुष्य रूपी द्रव्य तत्काळ हरी ले छे. तेथी ज्यां सुधीमां सारी कांतिवाळा अने संपूर्ण इंद्रियोवाळा आ देहनी अंदर ते जरा रूपी राक्षसी नथी आवी, त्यां सुधीमां हुं आपणा पूर्वजोए करेलुं आत्महित साधी लउं."
पोताना पिता कृतवर्मा राजानां आवां वचन सांभळी प्रभुए पोताना पिताने कह्यु के, "तमारुं वचन सत्य छे अने तमारे ते योग्य एवं हित करवू." राजाए पोताना न्यायी पुत्रने पुनः कह्यु, "ज्यां सुधी राज्यनो मोटो भार होय, त्यां सुधी मार्गे चालवू मुश्केल छे, तमे जिन भगवान् छो, तेथी शत्रुओने जीतो, आ . पृथ्वीनुं पालन करो अने सदा सुख सागरना मध्यमां रही लक्ष्मी युक्त थाओ. गोवर्द्धननो उद्धार करवामां समर्थ एवा तमारे विषे आ पृथ्वीने स्थापित करी । काचबानी जेम इंद्रियोने गुप्त करी हं बीजी उत्तम पृथ्वीनो आश्रय करीश." प्रभु बोल्या, "हे राजा आ लोक तथा परलोकमां सुख करनारा अने कल्याण करनारा श्रावकना बार व्रतो छे. अनर्थ दंडथी रहित, गुणसहित, शक्ति वडे युक्त अने जीव रक्षा करनारा ते व्रतोने अने उत्तर एवी ते राज्यनी धुराने धारण करो, एम करवाथी गृहस्थ धर्म सचवाशे अने सुख थशे. मारे राज्य- कांई प्रयोजन नथी. कारण के मारे पोताने निज बळ वडे आत्माने तारवो छे. हे नरेश्वर, राज्यनी अंदर अत्यंत चिंता होय छे, अने हं हमणां निश्चिंत छु, तमारे तो तेनो अभ्यास छे, तेथी तमारे माटे ते सारुं छे." ।।३३५।। राजा बोल्या हे वत्स, तमे पोते अपत्य शब्दनो अर्थ जाणो छो, छतां आ लोकमांथी मारो उद्धार केम करता नथी? श्यामाना तमने हरनारा तेजस्वी अने शूर एवा तमो छतां, मारे बीजाने राज्य दान करवू, ते हाल युक्त न कहेवाय. श्रावकनो आचार पाळतां अने बार व्रतो धारतां मनुष्योने सुगति थवानो संभव छे, परंत मारे ते व्रतो, कांई प्रयोजन नथी. मारु मन तो सदा सुखरूप अने सनातन एवा मोक्षमा ज रमी रहेलुं छे. जे गृहस्थ श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था श्रावको सिद्ध थई शके, ते लोकमां आश्चर्यकारक कहेवाय छे, हे वत्स! तमारे ज्यारे पुत्र थाय त्यारे तेने राज्य सोंपीने तमे सर्व रीते मोक्ष सुखने आपनारी दीक्षा ग्रहण करजो. पुत्रने विषे राज्यनो भार मूकी पिता दीक्षा ले एवो आपणा कुलनो धर्म पूर्वजोए सदा आचरेलो छे. हे वत्स! जो तमारे निकाचित साता वेदनीय कर्म होय, तो आ राज्य ग्रहण करो अने ते तमे पोते ज्ञानथी अवलोकन करो." पिताना आवां वचन सांभळी प्रभुए अवधिज्ञान योजीने जोयुं त्यां पोतानुं साता क्दनीय कर्म घणुं जोवामां आव्यु, एटले तेओ भावथी मौन धारण करीने रह्या. पछी राजाए स्वजन वर्ग अने राज वर्गने एकठो करी प्रभुनो उत्सव सहित
पट्टाभिषेक कर्यो. प्रभु पंदर लाख वर्षो सुधी कुमार-अवस्थामा रह्या हता पछी 'तैमणे पिताना वचनथी राज्यनो भार अंगीकार कर्यो; ते काले गुरुनो योग थतां राजा कृतवर्माए पोते दीक्षा लई लीधी. तेवा पुरुषो योग्य कार्य करवामां विलंब करता ज नथी. प्रभुए जे एवा मोटा राज्यने प्राप्त करीने पण प्रजाओने करपीडा करी न हती. ते आश्चर्यकारी कहेवाय, अथवा जे सोम-चंद्र होय. ते एवो ज होय छे. जेम चंद्रनो उदय थतां, चोर वगेरे दुष्ट कर्म करी शकता नथी अने साधु पुरुषोनो वर्ग पोताने मार्गे प्रवर्ते छे, तेवी रीते सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी एवा प्रभु साम्राज्य करता कुकर्मोनी निवृत्ति अने शुभ कर्मोनी प्रवृत्ति थती हती. पूर्वे इंद्रे मोकलेला सेवाकारी देवताओ प्रभुना शत्रु वर्गनो निग्रह अने सेवक वर्गनो अनुग्रह करता हता. बीजा राजाओ पोताना मस्तक उपर ते प्रभुनी आज्ञारूपी छत्र अहोरात्र धारण करता ते युक्त हतुं, कारण के ए प्रभु सदा उदय पामनारा 'ईनस्वामी हता. नठारो व्यय करवामां कृपण अने बुद्धिमां निपुण एवा प्रधानो पोते मानेला राज्यनी चिंतामां सावधान रहेता हता. आ पृथ्वीमां सत्पुरुषो स्वभावथी सदाचार रूपी धनवाळा भले होय, पण जेओ आवा स्वयंबुद्ध वगेरे छे तेवा पुरुषो तो पृथ्वीमां कोईक ज होय छे. लोकोमां विख्यात एवा ते स्वंयबुद्धो उत्तम पुरुषो छे अने जेओ उपदेशथी विख्यात छे, तेओ मध्यम पुरुषो छे, तेवा थोडाएक साधु, श्रावक वगेरे पण खरेखर कीर्तिवाळा होय छे, बाकी बीजा जे घणा लोको तेओ पण राज्यना परम शासनथी अधर्मनो त्याग करता हता. कारण के राजानी आज्ञा घणी बळवती होय छे. ते समये केटलाएक सज्जनो घणाविशाळ एवा सुवर्णना थाळो पूरीने प्रभुनी आगळ हर्षथी धरवा लाग्या, केटलाएक वस्त्रोना समूहने केटलाएक उत्तम वर्ण-वाळाना समूहने, केटलाएक पुष्पोना 1. ईन एटले सूर्य पण थाय छे. 242
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श्री विमलनाथ प्रभुनी कुमार अवस्था जथ्थाने, केटलाएक मधुर फलोनी श्रेणीने, केटलाएक गोरूंचंदनने, केटलाएक आभूषणोना ढगलाने, केटलाएक नवीन चंदरवाने अने केटलाएक ध्वजाने एम ते शोक रहित एवा लोकमां जे कांई सुंदर वस्तु हती, ते बधी ते ते शुद्ध हृदयवाळा लोको स्वेच्छा प्रमाणे प्रभुने अर्पण करता हता केटलाएक भक्तिथी प्रभुनी उपर पवित्र छत्र धरवा लाग्या अने केटलाएक चामर वीजवा लाग्या, केटलाएक सहेजे उल्लसितभावे गीत गाता हता. केटलाएक नृत्य करता हता अने केटलाएक वाजिंत्रो वगाडता हता. "आ माणसनो दंड करो", "आ माणसने मारो" अने "आ माणसने देशमाथी काढी मूको." एवी रीते पुरोहित न्याय आपतो, परंतु प्रभु पोते एवो न्याय आपता न हता.
एक समये ते विमळप्रभुने महाभाग्यवान् पुत्र थयो. स्वजनोए तेनुं नाम अरिमर्दन पाड्यु. आ.प्रमाणे पृथ्वीनुं रक्षण करतां प्रभुने त्रीशलाख वर्षो चाल्या गया. हवे तेमनुं भोगफल कर्म क्षीण थयुं अने सुखकारक सातावेदनीय कर्म समाप्त थयुं, एटले ते सर्वज्ञ प्रभुए पोताना चित्तमां आ प्रमाणे चिंतव्यु-"हुँ हवे जे आ गृहवासमा रह्यो छु, ते हुं पोते ज मारा नेत्रो मींचीने सत्वर अंधकार करूं छु, आ पृथ्वी उपर जे अज्ञानी छे ते बालकनी जेम स्मृति वगरनो थई जे कर्म करे छे, तेने तेनुं अल्प फल मळे छे, परंतु हुं त्रण ज्ञानने धारण करनार अने उत्तम संवर सहित छतां दीक्षा लेतो नथी, ते अघटित छ. में महान् पीडाने आपनारा रोगोनी जेम आ भवमां घणा भोगो भोगव्या छतां मनना संतोषथी में तेमने छोडी दीधा नहीं. आ राज्य लक्ष्मी उत्तम पुरुषने श्रीकरी-शोभा करनारी अने छायाना जेवी छे. परंतु ते पुण्यरूपी द्रव्यने हरनारी, बहार सारवाळी अने अंतर सार वगरनी छे. आ शरीर केरडाना काष्ठनी जेम 'विपत्र रक्षण न करी शके तेवू अने लोकना स्कंध उपर उगेलुं छे, ते छेवटे अग्निना कार्यने माटे थवा छे. अर्थात् भस्म बनवानुं छे. स्त्रीओ कारागृहरूप छे अने छोकराओ माराना जेवा छे (स्वार्थ) लुब्ध अने स्तब्धमय एवा तेओने में आ संसारमा अनंती वार मेळवेला छे, तेथी ए सर्वमां सदा कृष्ण-काळी एवी तृष्णाने छोडी अने सर्व संसारने असार जाणी कामदेवनो जय करी हुं व्रतनो आश्रय करूं." आ प्रमाणे प्रभुए विचार्यु तेटलामां ज आसन कंपवाथी अवधिज्ञान वडे प्रभुना दीक्षा लेवानो योग्य एवो समय जाणी एकी साथे सारस्वत, गर्दतोय, आदित्य, वरुण, तुषित, मरुत, अरिष्ट, अव्याबाध अने वह्नि ए ब्रह्मलोक निवासी एकावतारी अने उत्तम सारवाळा गुणी नव 1. पत्र रहित पक्षे अशरण. 2. अर्थात् अग्निमां भस्म थवानं छे.
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं व्रतग्रहण लोकांतिक देवताओ त्यां आवी पहोंच्या. सर्व प्राणीओमां वैरने छोडी समता रूप रमणीय सुधामां मन थयेला अने तत्त्वार्थनो निश्चय करवामां लग्न थयेला ते जिनेश्वरने नमी सरल बुद्धिवाळा ते देवताओए विज्ञप्ति करी के, "हे प्रभु, तमे तीर्थकर छो, माटे धर्म तीर्थने प्रवर्तावो." वळी कडं के, "आ काळे खेद ऊपजावे तेवो धर्मनो उच्छेद थई गयो छे, तेने पाछो सत्वर सांधी दो. कारण के तमे गुणोना धारक छो. जेम बाह्य तीर्थ-रूडा पाणीना आरा सिवाय नदीमां उतरी शकातुं नथी, तेम धर्मतीर्थ सिवाय संसारसागर उतरी शकातो नथी." जेम कोई पोते स्वस्थाने जतो होय तेने वळी कोई प्रेरक मळी आवे तेवी रीते प्रभु प्रथमथी ज दीक्षार्थी हता, तेओ ते देवताओना आवां वचन सांभळी विशेष दीक्षार्थी थई गया.
पछी प्रभुए उंची जातना वार्षिकदान आपवानो आरंभ कर्यो. कारण के सर्व धर्मोनी अंदर दानने मुख्य कहेलुं छे. कुबेरनी आज्ञाथी तिर्यक् जुंभक नामना देवताओए धणी वगरना प्रधान भंडारो अने जेमना धणीनो उच्छेद थयो होय एवा घसेमांथी घणु द्रव्य प्रभुनी पासे हाजर कयु. कारण के पुण्यवान्ने पगले पगले द्रव्यना भंडारो रहेला होय छे. कल्पवर्त वेळा थाय, तेटलामां प्रभु एक करोड अने आठ लाख सुवर्णतुं दान प्रतिदिन आपता हता. एक वर्षमा प्रभुए त्रणसो अठ्यासी करोड अने अंशी लाख सुवर्णतुं दान कयु. श्री सर्वज्ञरूपी मेघ वरसतां याचकरूपी सरोवरो भरपूर थई गया अने क्षमा-पृथ्वी तापरहित थई गई. ए घj ज सारं बन्यु एम हुं मानुं छु. प्रभु हिरण्यनो वरसाद वरसावता 'हिरण्यवर्णनी आशा लोकोमा विख्यात थई शांत थई गई, ए अद्भुत वार्ता सांभळवामां आवी. प्रभुना दीक्षाना कल्याणकमां सुंदर आकृतिवाळा कया इंद्रो त्यां न आव्या? अर्थात् सर्वे आव्या हता. आ जगतमां दातारनो आश्रय कोण न करे? ते समये इंद्रोए देवताओना समूहने साथे राखी स्वच्छ अने सुगंधी तीर्थजल लावी ते वडे प्रभुने स्नान कराव्यु. स्वभावथी निर्मल एवा प्रभुने सर्व देवताओए जे अभिषेक कर्यो, ते तेमनी शक्ति सहित भक्ति ज हती. जेम पृथ्वी उपर सुधाकर-चंद्रवडे सुंदर एवा गंगाधर-शंकरने लोकोनी श्रेणीओ कूवाना जलथी स्नान करावे छे, सूर्यनी आगळ जेम दीवो धरवामां आवे छे अने सेवको जेम राजाने भोजन करवा निमंत्रे छे, तेम त्रण जगतना स्वामी एवा प्रभुने एवी रीते योग्य कार्यनो विधि करवामां आवतो हतो. कारण के गयेलो अवसर पुनः कदि पण मळतो नथी. पछी सौधर्म वगेरे 1. हिरण्यवर्णा-लक्ष्मी.
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं व्रतग्रहण
इंद्रोए ते विश्वनायक प्रभुना अंगने दिव्य चंदनथी लिप्त कयुं, देवदूष्य वस्त्रोथी तेमने विभूषित कर्या, कल्पवृक्षना पुष्पोनी श्रेणीनो मुगट पहेरावी विराजित बनाव्या अने हार, अर्धहार, बाहुबंध, तथा कुंडळ वगेरेथी सुशोभित कर्या. पछी इंद्रे करेली देव, दानव अने मानवोए हर्षथी वहन करवा योग्य एवी देवदत्ता नामनी शिबिका उपर प्रभु आरूढ थई गया. सूर्य जेम पूर्वगिरिने अलंकृत करे, तेम प्रभु तेमां रहेला रत्नमय अने तेजना समूहने धारण करनारा सिंहासनने अलंकृत कयुं. प्रभुनी ने बाजु देवताओए धारण करेला बे चामरो जाणे तीर्थंकरने सेववाने भूमि अने स्वर्गरूप बे स्त्रीओ आवी होय तेम शोभता हता. प्रभुनी उपर जाणे शिव-मोक्षनी छाया करनारा मूर्त- अपरिमित शुकलध्यान होय तेवुं स्फुरायमान धर्ममित्र छत्र शोभी रह्युं हतुं. पछी नटीओ नृत्य करतां, गीतो गवातां, बंदिवृंद पाठ करतां, वार्जित्रो वागतां अने याचकोने चोतरफ दान आपतां प्रभु परिवार साथै सहस्राम्र वनमां गया. ।।४०१ ।। त्यां शिबिकामांथी उतरी अशोक वृक्ष नीचे जई पोताना भोग कर्मना योग रूप आभूषणोनो समूह प्रभुए छोडी दीधो. समता रूप अमृतना समुद्र रूप एवा प्रभुए हर्षथी बीजो बधो परिग्रह अने चतुर्विध प्रतिबंध पण त्यजी दीधो. 1 अरिहंत प्रभुए पछी जाणे काला क्लेश होय तेवा केशोनो पांच मुष्टिवडे लोच कर्यो. इंद्र ते लोचना केश ग्रहण करी लीधा. पछी माघ मासनी शुक्ल चतुर्थीने दिवसे अपराह्नकाले ( पाछला पहोरे) जन्मना शुभ नक्षत्रमा इन्द्र द्वारा कोलाहल अटकाव्या पछी 'नमः सिद्धेभ्यः' एम उच्चार करी छट्ठ तपवाळा प्रभुए भगवत् शब्द वगरनुं अने आगममां साररूप एवं सामायिक त्रण वार उचयुं. ते वखते सद्भावनाना स्थान रूप एवा इंद्रे प्रभुना स्कंध उपर देववस्त्र पधराव्युं. त्यारथी लोकोमां वस्त्रपूजानी प्रवृत्ति थई छे. पछी प्रभुने मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न थयुं, इंद्र प्रभुना केश क्षीरसागरमा पधराव्या. सत्कर्मथी पवित्र एवा एक हजार राजपुत्रो प्रभुनी पाछळ विवेकवाळी दीक्षा ग्रहण करी. पछी भविष्यमा जेमनुं कल्याण थवानुं छे अने जेमनी मुखमुद्रा हर्षित थई छे एवा इंद्र प्रभुने नमी अमृतना जेवी मधुरवाणीथी आ प्रमाणे विज्ञप्तिकरी
"हे प्रभु, आत्रण भुवनमां तमारुं चारित्र यथार्थ रीते विख्यात छे, ते घणा प्राणीओने मोक्षदायक थाओ. आ पृथ्वी उपर लोको संसारनी प्रवृत्तिने पोतानी मेळे ज जाणे छे, धाववुं अने रोवुं, ए बालकने कोण शीखडावे छे? अनार्य देशमां पण लोको विविध प्रकारना विज्ञानने जाणे छे, परंतु ज्यां तमे पोते 1. द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावनो प्रतिबंध.
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं व्रतग्रहण रहेलां छो, त्यां हेय-त्याग करवा योग्य अने उपादेय-ग्रहण करवा योग्य वस्तुनी प्ररूपणा करनारुं ज्ञान रहेलुं छे. जेम बालक गुरु विना गाळ जाणे छे अने आपे छे परंतु ते शास्त्रने अने दानादिक धर्मने गुरु विना जाणी शकतो नथी. तमे हाल मौन धरीने रह्या छो, तेनुं कारण अमे जाणीए छीए, ज्यां सुधी केवळज्ञान थयु नथी त्यां सुधी बीजाने शिक्षा आपवी नहि, एवी तमारी इच्छा हशे. हे प्रभु, हवे घिन-मेघना आश्रय जेवो विहार करी अमारा तापने शमावो. मेघ गाजतो न होय, तोपण ते शुं प्राणीओने जीवन नथी आपतो? सर्व प्राणीओ तमारा दर्शनथी पण निश्चे निवृत्तिने पामे छे. द्रव्यनो भंडार जोवाथी पण ते शं लोकोने हर्ष नथी उपजावतो? जेम रत्नाकरमां गुणोना समूहवाळो चिंतामणि पण दुर्लभ छे, तेम आ पृथ्वी उपर प्राणीओने तमारा चरणनी प्राप्ति दुर्लभ छे."
आ प्रमाणे इंद्रोए विविध शुद्ध वचनो द्वारा प्रभुनी स्तुति करी, ते पछी कही श्री विमलनाथ प्रभुना पुत्र अरिमर्दनने राज्य उपर बेसाड्या, पछी ते सर्वे इंद्रो देवताओनी साथे परिमित विमानोमां बेसी नंदीश्वरनी यात्रा करी पोतपोताने स्थाने चाल्या गया. बीजे दिवसे ज्यारे पृथ्वी उपर सूर्यनो उदय थयो, त्यारे प्रभु धान्याकंट नामना एक नजीकना पुरमां पारणाने माटे वहोरवा गया. त्यां शोक रहित एंवा सर्व लोको ठेकाणे-ठेकाणे प्रभुने आहारने माटे प्रार्थना करवा लाग्या. कल्पवृक्षने घरमां लाववानुं कोण न करे? केटलाएक लोको तेमना पगमां पडवा लाग्या, केटलाएक पृथ्वी उपर आळोटवा लाग्या अने केटलाएक बे हाथ जोडी तेमनी आगळ उभा रहेवा लाग्या. दुर्गतिमां पडवाना भयथी केटलाएक विज्ञप्ति करवा लाग्या के, "हे प्रभु तमो तमारा आगमनथी अमारा सर्व कल्याणोने आपनारा थाओ." बीजा केटलाएक शहेरीओ कहेवा लाग्या के, "हे ममता रहित प्रभु, आजे सम्यग् दृष्टि आपीने अमारा कुलने निर्मल करो." घणा संकल्पोवाळा केटलाएक लोको प्रभुनी आगळ एम पण कहेवा लाग्या के "हे प्रभु, अमारा घरमां कल्पतो आहार छे, माटे ते शुद्ध-निर्दोष आहार स्वीकारो" ए सर्व गृहस्थोनी घरमा रहेली स्त्रीओ हर्षना रोमांचथी अंकित थई चित्तमां आ प्रमाणे चिंतववा लागी "अमारा स्वामीओ गजेंद्रना जेवी गतिवाळा पोताना स्वामी विमळ प्रभुने ज्यारे घेर लावशे, त्यारे अमो तेमनी सामे जईशं, मस्तकथी तेमने नमीशं उत्तम दान आपीशं, ते प्रभुना गीत गाईशं अने जन्मनुं फल मेळवीशं." केटलीएक स्त्रीओ प्रभुने वधावा 1. बीजो अर्थ एवो पण थाय के, "घन-घणां-आश्रय स्थानोमां विहार करी.'' 2. जीवन एटले जीवित अने जल.
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श्री विमलनाथ प्रभुनुं व्रतग्रहण लागती, केटलीएक ओवारणा लेती अने केटलीक धन्य स्त्रीओ पोताना गृहद्वारमा स्वस्तिक वगेरे मांगलिक करती हती. ए प्रियदर्शन प्रभु जेनी समीपे आवता, ते माणस मित्रनी जेम अतिहर्ष धारण करतो हतो अने महान् उत्सवो आचरतो हतो. अने ए प्रभु सत्वर जेने छोडी देता हता, ते माणस तरत कृष्ण बनी जतो हतो. अहो, लोकोने 'कृष्णपणुं प्राप्त करवू दुर्लभ छे, एमां शो संशय छे? पछी प्रभुए कोईना घरमां प्रवेश को नही, परंतु जयराजाना प्रासादमां प्रवेश कर्यो. लक्ष्मीवाळा प्रासादने छोडी प्रभु शुं छापरामां वसे? एवं धारीने ते प्रभु सर्वेना गृहो छोडी ते राजाना प्रासादमां गया हता. प्रभुने जोतां ज सारा मुखवाळो जयराजा वेगथी सिंहासन छोडी अने छत्र वगेरे राजचिह्नोनो त्याग करी प्रभुनी सन्मुख आव्यो. रोमांचरूप कवचने धारण करता ते जयराजाए पोताना केशवडे प्रभुना चरण कमळने मार्जित करी हर्षना अश्रुवडे तेनुं क्षालन कयु. पछी बेठा थई ते राजाए अंजलि जोडी आ प्रमाणे प्रभुने विज्ञप्ति करी- "हे भगवन्, आजे मारो जन्म सफळ थयो छे, मारूं घर कामकुंभना जेवू बन्युं छे, वादळा वगरनी वृष्टि थई छे, वाव्या वगर कल्पवृक्ष उग्युं छे, अणचिंतव्यो चिंतामणि मन्यो छे, इच्छा कर्या वगर कामधेनु आवी चडी छे अने अकस्मात् अणधार्यो सारो व्यवसाय-लाभ प्राप्त थयो छे, तेथी आप प्रसन्न थईने मारा घरनो उच्च आहार स्वीकारो." पछी प्रभुए ते आहारने निर्दोष धारी पोताना प्राणना निर्वाहने माटे बे हाथ प्रसारी ते जयराजाना घरनो आहार वहोर्यो. ते वखते जे दुंदुभिनो नाद थयो. तेमां कांई जरापण आश्चर्य न हतुं, कारण के सर्व ठेकाणे दातारने माटे सारो शब्द अवश्य थाय छे. ते वखते घनवाहन देवता तरफथी जे सुवर्णनी वृष्टि थई ते पण तपना अंतकाले थवी ज जोईए. राजा अने प्रभुनी ए स्वाभाविक स्थिति-मर्यादा छे. कोई बीजो राजा आवे त्यारे सर्व विबुध-विद्वानो चेलोत्क्षेप (धजा-वावटा चढाववानु) हर्षथी करे छे, तो पछी त्रण जगतना स्वामी आवे त्यारे सर्व-विबुध-देवताओ चेलोत्क्षेप करे तेमां शुं आश्चर्य? सुमनस्-देवताओए ते काले पृथ्वी उपर सुमनस्-पुष्पोनी जे वृष्टि करी ते जगतमां बोधि आपनारा प्रभु पधारतां थाय तेमां कांई आश्चर्य पामवानुं नथी. ते वखते देवताओए सुगंधी अमृत-जलनी वृष्टि करी, तेनाथी पृथ्वी उपर अन्नने आपनारा धान्यनी संपत्ति 1. अहिं एवो अर्थ पण थाय के, लोकोने कृष्णरूप बनवू ते दुर्लभ छे, ए वात नि:संशय छे. 2. तप एटले तपस्या अने वृष्टि पक्षे उनाळो. 3. सुमनस-एटले विद्वानो. सुमनस्-सारा मननी वृष्टि करे एटले सारा मनोभाव प्रगट करे. प्रभु पक्षे सुमनस् एटले पुष्यो.
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वासुदेव चरित्र उत्पन्न थई, पछी जेमने शत्रु अने मित्र सरखा छे एवा सद्बुद्धि जिन भगवाने त्यांथी अन्य स्थळे विहार कर्यो. सर्वज्ञ भगवंतो चंद्र सूर्यनी जेम एक स्थळे रहेता नथी. "आ प्रभुना पारणानी भूमिने कोईपण चरणनो स्पर्श न करो." एq धारी जयराजाए ते ठेकाणे एक पीठ कराव्यु. ।।४४७।।
वासुदेव चरित्र ए अरसामां आ जंबूद्वीपनी अंदर सतत दयाधर्मी लोकोथी युक्त एवा उत्तम अपरविदेह क्षेत्रने विषे सद्गुणोवडे सर्वने गावा योग्य अने अपरिमित सुखना विस्तारवाळी आनंदकारी नामे यथार्थ नामवाळी एक नगरी छे. ते नगरीमां
मित्रनी जेम जनप्रिय, बहु तेजस्वी अने कमळामोद करनार नंदिसुमित्र नामे एक • राजा हतो. एक वखते देवताओए जेमनुं प्रातिहार्य (सेवन-सान्निध्य) करेलुं छे
अने परवादीओथी जेओ अजेय छे एवा सुव्रत नामे कोईएक गुणोथी मानवा लायक आचार्य त्यां आवी चड्या. उद्यानपाळ पासेथी तेमना खबर जाणीने राजा नंदिसुमित्र तेमने वंदना करवा गयो. कल्पवृक्ष प्राप्त थतां तेनुं फळ कोण ग्रहण न करें? राजाए पांच अभिगम साचवी ज्ञानीओने सुगम एवा ते आचार्यने विधिपूर्वक उत्कृष्ट वंदन वडे वंदना करी. पछी उपयोगवाळो अने बुद्धिना गुणोथी युक्त एवो ते राजा यथायोग्य बीजा साधुओने वंदना करी पोताने उचित एवा आसन उपर बेठो. त्यारबाद अवसर प्राप्त थतां गुरुए आदरथी देशनानो आरंभ कर्यो. श्रावकनो योग थतां देशना आपवी-एज गुरुओर्नु अतुल्य फळ छे..
"हे राजा, आ मनुष्यभवनी शोभा राज्यथी कांई मळती नथी. आगळ अने हमणां वानराओने पण राजापणुं प्राप्त थयेलुं सांभळवामां आवे छे. वर्णथी प्रधान एवो माणस पण जो सावधान न रहे, तो लक्ष्मी तेने शाकिनीनी जेम छळे छे, तेथी ते पछी घेलो बनी जाय छे. कडुं छे के, "लक्ष्मीवाळा पुरुषो देशकालने घटे तेवी क्रिया करवानुं जाणी शकता नथी. विष्णु लक्ष्मीवाळा छे, तेथी ग्रीष्मऋतुने छोडी वर्षाऋतुमां क्षीरसमुद्रनी अंदर सुई जाय छे. सर्व प्राणीने लक्ष्मी-शोभा आपनारी थती ज नथी, कारण के ते लक्ष्मीथी वैर थाय छे अने पुण्यनो क्षय थाय छे. संग्रह करेली लक्ष्मीथी मनुष्यपणुं कदिपण सफळ थतुं ज नथी. ते विषे करोळीओ अने सुगृही पक्षी- दृष्टांत अनुपम जोवामां आवे छे. पाडा वगेरे जीवो 1. मित्र एटले सूर्य पक्षे-कमलामोद-कमळपुष्पोने हर्ष करनार अने राजा पक्षे-कमळा
लक्ष्मीथी-आमोद-हर्ष करनार. 2. वर्णथी प्रधान एटले उच्च वर्णनो. 3. लक्ष्मीवन्तो न जानंति. देशकालोचितां क्रियां । ग्रीष्मं त्यक्त्वा हरिः शेते, वर्षासु क्षीरनीरधौ ।।४५८।।
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वासुदेव चरित्र आ पृथ्वी उपर युद्ध कर्या करे छे, ते उपरथी जणाय छे के मनुष्यपणुं धर्मथी ज सफळ थाय छे. "हे राजा, ते धर्मने विद्वानोए आ विश्वमां अनेक प्रकारनो कहेलो छे, तेमां सर्वविरतिधर्मनी तुलनाने कोईपण धर्म प्राप्त थतो नथी." गुरुनी आ देशना सांभळी विचार करवामां चतुर हृदयवाळो ते राजा बोल्यो, "हे विद्वान् गुरु ज्यां सुधी हुं (आपनी समीपे) व्रत ग्रहण करुं, त्यां सुधी आप कृपा करी स्थिरता करो." श्री गुरु बोल्या, "राजन्, तेमां हवे विलंब करीश नहीं कारण के विद्वान् पुरुषे संसार पर रोष लावीने आ संसारनो उच्छेद सत्वर करवो जोईए." ते पछी राजाए पोताना नगरमां जई पुत्रने राज्य आपी अने सात क्षेत्रोमां द्रव्यरूपी बीज वावी व्रत ग्रहण कयु. पछी ज्ञानदर्शनवाळा ते राजर्षिए केटलाएक वर्षो सुधी संयम पालन कयु. पछी गुरु पासेथी शिक्षा मेळवी पांच प्रकारना आचारनो विचार करता, पंचमहाव्रत धारण करता, पांच समिति पाळता, 'चारित्रना पांच भेद, पांच गति, पांच अस्तिकाय अने पांच ज्ञानना भेदने जाणता ते राजर्षि पंच नमस्कार मंत्रने जपता-जपता पंचत्वने पामी गया अने पांच अनुत्तर देवताओमां महान् देवतारूपे उत्पन्न थया.
आ शोभायमान जंबूद्वीपमां भरक्षेत्रना आभूषणरूप अने लोकोनी श्रेणीथी विराजित श्रावस्ती नामे नगरी छे. तेमां न्यायरूपी जलथी पवित्र अने विख्याति पामेलो धनमित्र नामे राजा विशाळ राज्यवाळो थई पृथ्वीनुं पालन करतो हतो. एक वखते तेना मित्र बली नामे कोई राजा तेना नगरमां आवी चड्यो, तेने ते धनमित्रे वधारे स्नेहने लईने पोताना नगरमां वास कराव्यो. ते बंने राजमित्रो साथे भोजन, गमन, वनगमन, आगमन, शयन अने क्रीडा करता हता. जेम चंद्र कलाओना कलापथी युक्त छे, छतां तेने लांछन छे. कमळ लक्ष्मीना वासथी उत्तम छे. छतां तेमां कांटाओ छे. समुद्र गंभीर छे, छतां तेनुं जल खारथी दूषित छे, सूर्य अंधकारना समूहने हरनार छे, छतां तेनामां ताप छे, तेवी रीते धनमित्र राजा छतां तेनामां जुगार रमवा व्यसन हतुं, ते तेनामां एक मोटो अवगुण हतो. दैव रत्नने दूषित करनारो ज छे.
आ जुगारना व्यसनने लईने राजा धनमित्र अने बली बंने सत्कृत्यथी विमुख थई कोईवार घणा द्रव्यनो, कोईवार उंची जातना अश्वोनो, कोईवार सारा हस्तीओनो, अने कोईवार पात्रोना समूहनो दाव मुकी जुगार रमवा लाग्या. द्युतव्यसनासक्तानां, सुकृताचरणं कुतः ।।४७८।। द्यूतना व्यसनमां आसक्त थयेला 1. चारित्रधर्म. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र पुरुषोने सुकृतनुं आचरण क्यांथी होय? एक वखते ते बंने राजमित्रो पोतपोताना राज्यनो दाव करी जुगार रम्या, तेवामां अभाग्यने लईने राजा धनमित्र सर्व लोकोनी साक्षीए पोतानुं राज्य हारी गयो. राज्य वगरनो थई रहेलो ते राजा जल वगरना मत्स्यनी जेम दीन बनी गयो, पराधीन अने परिवार वगरना ते राजानो बीजाओ तिरस्कार करवा लाग्या. पछी बलवान् एवा बलीराजाए तेने नगरमांथी काढी मूक्यो. ते राज्यभ्रष्ट थयेलो राजा रांकनी जेम पोतानुं मुख लईने नासी गयो. आ दुनियामां ज्यां सुधी स्वार्थ सिद्ध थाय, त्यां सुधी ज मित्रता छे, परंतु ज्यारे स्वार्थ सिद्ध न थाय तो ते ज वखते मित्र होय ते पण लोकोमां सदाने माटे शत्रु ज थई पडे छे. ज्यारे धनमित्रने निर्धनपणुं आव्युं, त्यारे बलीराजाए तेनी मित्रता छोडी दीधी, ते उपरथी तेनुं धनमित्र एवं नाम कृतार्थ थयुं. ते राजा धनमित्रनो स्वजन वर्ग हवे बलीराजानी सेवा करवा लाग्यो, विवेकी एवा पण लोको उगताने वंदना करे छे, ए वात स्पष्ट छे. जे 2 अपरिमित दान करनार अने बली होय तेनी सेवा कोण न करे? लक्ष्मीना पति, लोकोना आधार रूप अने जनरक्षक विष्णु पण बलीराजाना द्वारपाळ थईने रह्या छे. राजा धनमित्रना अंतःपुरनी स्त्रीओ पछी पोतपोताना पिताना घरमां चाली गई, स्त्रीओने ज्यारे दुःख आवे छे, त्यारे तेओने पितानुं घरं शरणरूप थाय छे, एम विद्वानो कहे छे. सूर्य जेनो रसोयो हतो अने जे सत्य प्रतिज्ञावाळो कहेवातो हतो, एवो नळराजा पण द्यूतना व्यसनथी विपत्तिने पाम्यो हतो. सत्यवादी युधिष्ठिर पण एज व्यसनने लईने भीम तथा अर्जुन वगेरेनी साथे युक्त थई राज्य छोडीने वनमां वस्यो हतो. एवी रीते आ पृथ्वीमां विख्यात एवा अनेक राजाओ पण द्यूतना व्यसनथी दुःखी थयेला छे तो पछी बीजा राजाओनी शी वात करवी ? नीति शास्त्रमां कह्युं छे के, "वैर, 4 वैश्वानर, व्याधि, वाद अने व्यसन ए पांच वकार जो वध्या होय तो ते महान् अनर्थ करनारा थाय छे.' यूथमांथी भ्रष्ट थयेला मृगनी जेम कई दिशामां जावुं, एम बहावरो बनी वनमां भमता ते धनमित्रे विवेकी अने अमृतना निधि जेवा एक मुनिने जोया. जेम खारा समुद्रमां मीठा जलना स्थानने मेळवी तृषातुर माणस हर्षित थाय, तेम ते मुनिने जोईने हर्षित थयो. कह्युं छे के, आ संसार रूपी 1. धननो ज मित्र अर्थात् धनने लईने ज मित्रवाळो. 2. बलीराजाए वामन रूप विष्णुने पृथ्वीनं दान करेलुं ते उपरथी विष्णु प्रसन्न थई तेना द्वारपाळ बन्या हता. 3. नळराजानी रसोई सूर्यना तापथी थती हती. 4. वैश्वानर - अग्नि 5. वैरवैश्यानरव्याधिं वादव्यसनलक्षणाः । महानर्थाय जायन्ते, वकाराः पञ्चवर्द्धिताः || ४९० ||
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वासुदेव चरित्र-कथानो उपनय दावानळथी दग्ध थयेला पुरुषोने संतान, स्त्री अने सत्संग-ए त्रण विश्रामनी भूमिओ छ,' ते धनमित्रे खेद छोडी ते मुनिना बंने चरणमां विधिथी वंदना करी. मुनिए तेने हर्षदायक धर्मलाभनी आशिष आपी. पछी ते राग रहित थई मुनिनी आगळ बेठो, एटले मुनिए तेने धर्मोपदेश आपवा मांड्यो. कारण के सत्पुरुषो दयाळु होय छे
___ "जेओ प्राणीओने धर्ममां अंतराय करे छे, तेओने मनुष्यभवना सुखमां अंतराय थाय छे. जेम आ समग्र पृथ्वी उपर बीज वाव्या वगर धान्य उत्पन्न थतुं नथी, तेम आ संसारमा धर्म विना कदिपण सुख थतुं नथी. तेमां देवताना भवमां धर्मनी उत्पत्ति नथी, नारकीना भवमां तो धर्मनी वात ज नथी अने तिर्यंचना भवमां तो कदिपण धर्म होतो नथी, फक्त (आ कथन सर्वविरतिनी अपेक्षाए छे.) मनुष्य भवमां धर्म छे. तेमां पण आर्यदेश वगेरेनी सामग्री प्राप्त थवी लोकमां दुर्लभ छे, कारण के ते सामग्री गुणोत्पन्न होवाथी घणी थोडी छे. कदि ते सामग्री प्राप्त थाय, तो पण पुण्य उपार्जन करवू घणुं मुश्केल छे, कारण के आ पृथ्वी उपर पांच प्रकारना पांच पुरुषो थाय छे. ।।५००।।
ते विषे आ प्रमाणे कथा छे-कोई व्यापार उद्योग करवानी इच्छावाळा पांच पुरुषो द्रव्यनी मूडी लई कोई सारा शहेरमां धन कमावाने गया. ते पांचेनी
अंदर एक घणो पापी हतो, ते व्यसन- सेवन करतो हतो, तेथी तेने राजाए पकड्यो अने तेनी मूडी कबजे करी तेने एक अंधारा कूवामां नाखी दीधो. बीजो पुरुष मूर्ख हतो, ते नगरना खोटाबोला लुच्चाओए खोटी चीजो अर्पण करवावडे वश करी लई तेनुं सर्वस्व द्रव्य धन पडावी लीधुं. त्रीजो पुरुष प्रमादी हतो, ते पोतानो निर्वाह चाले, तेटलं नवं धन कमातो पण काई वधारे कमायो नहीं, तेथी तेनी मूडी बची गई. चोथो पुरुष सारो उद्यमी हतो, तेथी तेणे रत्न वगैरेनी खरीदी करी, आथी ते मूडीनुं रक्षण करनार पुरुषने तेमांथी घणो अपरिमित लाभ थयो. पांचमो पुरुष भाग्यने जाणनारो अने वस्तु तत्त्वने समजनारो हतो तेथी तेणे पोतानी मूडीना मूल्यथी आदर पूर्वक एक तेजस्वी चिंतामणि प्राप्त कर्यो. कथानो उपनय
हे सुंदर धनमित्र, आ कथानो न्यायवाळो उपनय सांभळ. "जे मूडी 1. संसारदवदग्धानां तिनो विश्रामभूमयः । अपत्यं च कलत्रं च, सतां सङ्गस्तथैव च।।४५३।। 2. गुणोथी उत्पन्न थाय तेवी अथवा गुणवाळी. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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लक्ष्मीधरादिनी कथा कहेवामां आवी ते मनुष्यभव समजवो. जे शहेरमां तेओ वेपार करवा गयेला ते शहेर आर्यदेश समजवो. जे राजाए एक पुरुषने पकड्यो ते कर्म परिणाम अने जे व्यसनो ते पापो समजवां. जे अंधार कूवो ते नरक समजवू, ते तेना आश्रितने पीडा करनार छे. जे खोटुं बोलनारा लुच्चा लोको कह्या, ते दुर्बुद्धिवाळा मिथ्यादृष्टि समजवा. जे खोटी वस्तु ते मिथ्यात्व जाणवू, जेनाथी तिर्यंचनी गति प्राप्त थाय छे. जे त्रीजा पुरुषने लाभ थयो ते मनुष्यभव समजवो अने जे चोथा पुरुषने लाभ थयो, ते स्वर्गनी प्राप्ति जाणवी अने जे पांचमा पुरुषने चिंतामणिनी प्राप्ति थई ते मोक्षगतिनी प्राप्ति जाणवी."
आ प्रमाणे आ उपनयनो लांबो काळ विचार करी तुं शुभ काम करजे. मुनिनो आ उपदेश सांभळी धनमित्रे पोतानो सर्व पूर्व वृत्तांत मुनिने कही संभळाव्यो.
ते सांभळी मुनिए व्यसनोनु नठारुं परिणाम जणाव्यु. पछी धनमित्रे पुनः पूछ्युं, "हे प्रभु, मने फरीवार राज्य मळशे के नहीं?" मुनि बोल्या, "तारा पुण्यनो क्षय थयो छे, तेथी तने फरीवार राज्य मळशे नहीं." ते सांभळी तेणे कह्यु के, "त्यारे मने दीक्षा आपो, के जेथी आ संसारमा मारो मनुष्यभव वृथा न थाय." पछी मुनिए तेने दीक्षा आपी अने आ प्रमाणे शिक्षा आपी-“हे वत्स, तें आ संसारमां दुर्लभ एवं चारित्र स्वीकार्यु छे, तेथी जो तुं हवे आ अवस्थामां रागद्वेष करीश, तो लक्ष्मीधर वगेरेनी जेम आ संसारसागरने तरी शकीश नहीं." पछी मुनिराजे ते कथा कहेवा मांडी.
लक्ष्मीधर वगेरेनी कथा 'विध्यगिरिनी जेम गुणवाळु, गज-हाथीओथी भरपूर, अनेक मुनिओथी युक्त अने निशाचरोथी रहित विंध्यपुर नामे मोटु नगर छे. ते नगरमां वरुणना जेवो प्रचेता, रत्नाकर-स्थानवाळो वरुण नामे एक शेठ रहेतो हतो, छतां ते पृथ्वीमां जलपति न हतो. तेने श्रीकांता अने विजया नामे बे स्त्रीओ हती. ते बंने जैनधर्ममां तत्पर अने पापकर्मथी विरत हती. रति प्रीतिरूप ते बंने स्त्रीओनी साथे रहेलो अने रुचिर अंग विवर्जित छतां शिवाकांक्षी ते प्रद्युम्ननी जेम शोभतो 1. विंध्यगिरि पण हाथीओ, मुनिओ अने गुणोथी युक्त अने निशाचरोथी रहित होय छे. 2. वरुणर्नु नाम प्रचेता छे. श्रावक वरुण पक्षे प्रचेता एटले उत्कृष्ट चित्तवाळो वरुण जलनो
देव छे तेी ते रत्नाकर समुद्रमा रहेनार छे अने वरुण श्रावक रत्नाकर-रत्नोना समृहवाळा स्थानमा रहेनार छे. वरुण जलनो पति छे अने आ श्रावक जल-जडनो पति न हतो. 3. शिव एटले मोक्ष. प्रद्युम्न कामदेवनो अवतार होवाथी ते पोताने बाळनार शिवनी आकांक्षा न राखतो अने अनंग हतो अने वरुण शेट शिवनी इच्छा राखनार अने सुंदर अंगवाळो हतो.
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वासुदेव चरित्र-लक्ष्मीधरादिनी कथा हतो. ते गणपतिनी जेम सिद्धिबुद्धिवडे युक्त, लोकोने लाभ करनार अने 'गुरुमोदक उपर रुचि धरनार थई सदा शोभतो हतो.
ते वरुण शेठनी श्रीकांता नामनी स्त्रीने लक्ष्मीधर, सुंदर अने अर्हद्दत्त नामे त्रण पत्रो थया अने विजयाने नंद नामे एक पत्र थयो. लोकोना मननी कामनाने पूरनारा अने गुणवाळा ते चारे पुत्रो जाणे धर्मना चार रूप होय तेवा शोभता हता. . ते अरसामां अनादिभव नामे एक सनातन नगर छे तेनी अंदर अतुल बळवाळो मोह नामनो राजा राज्य करतो हतो. एक वखते ते मोहराजा सभानी अंदर दीन वदने बेठेलो जोई रागकेशरी नामना तेना पुत्रे तेने विनयथी आ प्रमाणे कडं-'हे पिताजी, प्रौढ एवा तमे ज्यारे क्रोध करो छो त्यारे बधुं विश्व चिंतातुर थई जाय छे, तेवा तमारा चित्तमां आजे जे चिंता देखाय छे, ते मने अपूर्व लागे छे. देवताओ, किंनरो अने पुरुषो तमारी आज्ञाने धरनारा छे, आ जगतमां तमारी सेवा न करे तेवो कोई पण पुरुष नथी. जेओ तमारी आज्ञाने मान्य करता नथी, ते नग्न, मुंडित अने अन्नपान वगरना थई एकाकी वनमां भम्या करे छे अने जेओ तमारा भक्तो छे, तेओ राज्यकर्ता, सुंदर महेलमा रहेनारा, अहर्निश जमनारा, स्त्रीओना समूहनी साथे रहेला. नित्य स्नान करनारा, अभिमान धरनारा, विविध वाहनोमां आदर करनारा अने भोगनो संयोग करनारा जोवामां आवे छे. तेम छतां आप पूज्य पिता हाल चिंतातुर देखाओ छो, तो तेमां जे सत्य होय ते मारी आगळ सत्वर कहो." पुत्र रागकेशरीनां आवां वचनो सांभळी मोहराजा हृदयमां घणो खुशी थई गयो. तेणे तरत प्रसन्नताथी मुखने उज्ज्वळ करी पुत्रने कह्यु"वत्स, मारुं एवं कांई कार्य नथी, के जे तारी आगळ न कहेवाय. कारण के तुं मारो विश्वने रंजन करनारो पुत्र छे. मारे माटे तें कह्यं ते सर्व रीते सत्य छे, परंतु अतुल बळवाळो अने मोटा पक्षवाळो मारो एक शत्रु छे." रागकेशरी बोल्यो, "एवो कयो शत्रु छे?" मोहराजाए कडं, 'चारित्रधर्म नामे एक मारो शत्रु छे, ते कामदेवना पराक्रमथी पण अजित छे. जेना सैन्यमा रहेली जे स्त्री एकली ज मारी सर्व सेनाने जीती ले तेवी छे. ते स्त्रीने शुं तुं भूली गयो छे? के जेथी तुं आq बोले छे. कडुं छे के, अहंकार बुद्धिने कहे छे के, तुं सुता परमानंदने जगाड नहीं. जो ते परमानंद जाग्रत थशे, तो पछी हुँ, तुं अने आ जगत एके रहेशे नहीं. 'हुं कर्मना सैन्यमां सुभट छु.' एवो अति घटाटोप राख नहीं. कारण के क्षमारूपी स्त्री तने 1. गणपति गुरुमोदक-मोटा लाडुवाळो अने शेठ गुरु तरफ मोदक-हर्ष पामनार हतो. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लक्ष्मीधरादिनी कथा रमतमां ज जीती ले छे. मोहराजानां आ वचन सांभळी रागकेशरी क्षणवार मौन करी रह्यो पछी तेणे कडं, "पिताजी, ते चारित्रधर्म शत्रुए तमोने शुं कर्तुं छे के जेथी तमे आटला बधा दुःखी थई गया छो?" मोहराजा बोल्या-"वत्स, विंध्यपुर नगरमा एक वरुण नामे श्रावक छे, तेने लक्ष्मीधर वगेरे चार पुत्रो छे, चारित्र नामना राजाना सिद्धांत वगेरे सैनिकोए ते वरुणना पुत्रोना घरमां वास कर्यो छे, तेथी त्यां मारुं बधुं नाम ज लोपाई गयुं छे, तो पण हजु ज्यां सुधी ते चारित्ररूपी राजाए ते चारेने पोताना ताबामां लीधा नथीं, त्यां सुधीमां जो तेओ आपणा पक्षमा आवी जाय, तो पछी आपणो वर्ग बलवान् थाय. जो ते सिद्धांत सैनिकोनो राग बलवान् थई तेमने छेतरीने चारित्र धर्मना पक्षमा लई जशे, तो पछी आपणा वर्गना बळनो क्षय थई जशे. हाल मारा हृदयमां ए मोटी चिंता लागी छे. आ काम कोई आपणा उत्कृष्ट सुभटथी बने तेवं छे. कारण के तेना घरमां चारित्रराजाना माणसो फर्या करे छे तेथी तेमना देखतां तेना आश्रितोने पकडवा ए मुश्केली भरेलुं छे." पितानां आवां वचन सांभळी रागकेशरी पोताना बळनो गर्व करीने बोल्यो-"बीजा बधाओ भले निश्चिंत थईने रहे, हुं एकलो ज तेमने वश करी लईश. कारण के मारा त्रण मोटां रूप छे अने जे बीजा सूक्ष्मरूप छे, ते तो असंख्य छे. दृष्टि, स्नेह अने विषयानुराग ए मारा मोटांत्रण रूपोथी वश करेला वरुणना त्रण पुत्रो तो जरूर तमारी सेवा करशे ज." पुत्रना आवां वचन सांभळी मोहराजाए पोताना हृदयमां चिंतव्यु के-"अहो मारा पुत्र रागकेसरीनी शक्ति आ पृथ्वीमां घणी मोटी लागे छे. पुत्र रागकेशरी जो चाहे तो लोकोनी पासे शून्य नगरोने स्त्रीओथी वसावी दे अने बीभत्सरूप वाली ए स्त्री पुरुषोने रतिस्थानमां योजी दे. वळी ते लोकोनी पासे पुत्रने पिता कहेवडावे, पुत्रीने माता कहेवडावे, कुदेवने उत्तमदेव कहेवडावे, कुधर्मने शुद्ध धर्म कहेवडावे; कुगुरुओने सुगुरुओ कहेवडावे अने अभक्ष्यने भक्ष्य तथा अपेयने पेय कहेवडावे अने वळी आ विश्वमा सुर, असुर अने मनुष्योने मारी आज्ञाने आधीन करी दे-तेम करवाथी मारा घरमां मोटी आवक थई पडे. ते वखते द्वेष कुंजर नामनो पुत्र उठीने पिता प्रत्ये बोल्यो के, "ते वरुण श्रावकना चोथा नंद नामना पुत्रने हुं तमारे वश करी दईश." ते सांभळी मोहराजाए हर्षथी पोताना मनमां चिंतव्यु के, "जेओ पूर्वे सर्वने मान्य एवी मारी आज्ञानी अवगणना करी वनमां जई पूर्वकोटीथी मेळवेला पोताना तपथी आ त्रणे भुवनमां तपोधन तरीके विख्यात थयेला छे, तेओ सर्वेनू तपरूपी द्रव्य एक मुहूर्त मात्रमा हरी लई तेमने दुर्गतिमां पाडी दे एवो कोपकुंजर
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वासुदेव चरित्र-लक्ष्मीधरादिनी कथा नामे मारो पुत्र छे, जे पुत्र पिताने शत्रु, माताने वैरिणी, सुहृद वगेरेने तेथी उलटा अने शीखव्या वगर गाळी उत्पन्न करी शके छे, तेमज जे अग्नि विना बाळे छे, रागीने विरागी, देखताने अंध अने मौन धरनारने बहुभाषी करे छे, तेथी ते मारो निर्दय कोपकुंजर पुत्र सामान्य नथी. पिताना चित्तने अनुसरनारा पुत्रो सद्भाग्ये ज प्राप्त थाय छे." ।।५६१।। आ प्रमाणे चिंतवी पछी मोहराजाए ते बंने पुत्रोने कह्यु, "हे वत्सो, तमो बंने स्वच्छ (होशीयार) छो, वळी पारके घेर जई शत्रुओने जीतवा तमारे जवानुं छे, तो तमारे बंनेए दुःस्थितिमां परस्पर सानिध्यमा रहे: हुं अहिं रहीने तमारा बनेनुं हित करीश." पछी रागकेशरी अने ते द्वेषकुंजर बंने पिताने प्रणाम करी पेला वरुण श्रावकना घरमां गया. प्रथम दृष्टिराग नामना पुत्रे वरुणना पहेला पुत्रमा प्रवेश कर्यो, स्नेहानुराग नामनो पुत्र वरुणना बीजा पुत्रने मन्यो अने विषयराग पुत्रे त्रीजा पुत्रने पकड्यो. एवी रीते रागकेशरीए पोतानुं काम कर्यु. पछी द्वेषकुंजरे वरुणना चोथा पुत्र नंदने पोताना रूपमय करी दीधो. एवी रीते तेमना आश्रित थवाथी ते वरुणना चारे पुत्रो सर्व स्थळे क्रीडा करवा लाग्या. तेमना पिता वगेरेने लज्जा-मर्यादा मूकीने पीडा-उपद्रव करवा लग्या. वरुण श्रावके ते चारेनो हर्षथी विवाह कर्यो, तो पण तेमणे पोतानो चपळ स्वभाव छोड्यो नहि.
___एक वखते कोई एक तापस त्यां आव्यो, ते एक मासे तपनुं पारणुं करतो . हतो. ते तापस सदा जप करतो करतो वर्षाकाळमां आकाशने शीतकाळमां जलाशयने अने उष्णकाळमां पंचाग्नि, सेवन करतो हतो. एवा अज्ञान तपथी तेणे सर्वलोकोने पोताना शासनमां दढ कर्या हता, तेथी लोको तेनी उत्तम भक्ति करता हता. एक वखते तेज वनमां वरुण श्रावकनो पुत्र लक्ष्मीधर मित्रोने लईने रमवा गयो, तेवामां त्यां पोतानो सुहृद्गण जतो हतो, तेने तेणे पूछ्युं के, "हाथमां चंदन, पुष्प लई आ लोको क्यां जाय छे?" तेओए कह्यु, "अरे लक्ष्मीधर, रक्तवस्त्रने धारण करनारा एक तापसनी पूजा करवाने आ लोको जाय छे." ते सांभळतां ज दृष्टिरागथी प्रेरायेलो लक्ष्मीधर ते तापसनी पासे गयो. ते तापसना तप अने वचनथी रंजित थयेलो लक्ष्मीधर तेनी प्रशंसा करवा लाग्यो. त्यारथी ते प्रतिदिन तेनी पासे जई लांबो वखत रहेवा लाग्यो अने भावथी तेनुं वचन सांभळी ते प्रमाणे वर्त्तवा लाग्यो. ते वळी लोकोनी आगळ ते तापसना गुणो कहेतो अने विविध प्रकारे भक्ति करता, परम भक्तिभावथी ते तेनी आज्ञा विचार कर्या वगर पाळतो हतो. पछी ज्ञातिजनना मुखथी वरुणे पुत्रनो आ वृत्तांत श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लक्ष्मीधरादिनी कथा जाण्यो, एटले तेने बोलावी आदरपूर्वक वरुण आ प्रमाणे तेने शिक्षा आपवा लाग्यो-"वत्स, अपूर्व क्षीरसमुद्र पासे होय, ते छतां खाडा, खारं अने डोळु पाणी केम पीवे छे? हाथमां दीपक छतां कूवामां शा माटे पडे छे? अने हाथमां रत्ननुं दर्पण छतां कांसामां मुख केम जुवे छे? जेओ श्री वीतरागने छोडी बीजा देवने नमे छे, तेओ चिंतामणिने छोडी काचना कटका खरीदे छे. जेओ निग्रंथ गुरुने छोडी बीजा गुरुओनो आश्रय करे छे, तेओ कामकुंभने छोडी गळीना घडाओ ग्रहण करे छे. जेओ क्षांति वगेरे दश प्रकारनो धर्म छोडी बीजा धर्मोने आचरे छे, तेओ कल्पवृक्षने छोडी बावळ वगेरेने सेवे छे अने जेओ उज्ज्वळ सिद्धांतने मूकी पापशास्त्रो सांभळे छे, तेओ अमृतना पानने छोडी उग्र विषने पीवे छे. हे वत्स, ए तापस वस्त्र वडे गळ्या वगरना जीववाळा जलना पूरमां स्नान करे छे अने तेनी अंदर वस्त्रो धूवे छे. ते हमेशां शौचने अर्थे सचित्त मृत्तिकाने सेवे छे अने अग्निकाय जीवनी विराधना करे छे. ते तापसना पारणाने माटे गृहस्थो आदु वगेरेना शाक अने दूधपाक वगेरे रागथी करे छे. जळ वगैरेमां त्रसजीवोनो समूह स्पष्ट देखाय छे, तो तेनो नाश करनार ते तापसमां पहेला व्रत रूपे सर्वमान्य एवो दयाधर्म क्या रह्यो? ते मिथ्यात्वनी प्ररूपणा करनार छे, तो तेनामां बीजुं अमृषानुं व्रत छ ज नहीं. तेनी पासे याचना वगर परिग्रह आवे छे अथवा केटलुं एक ते ग्रहण करे छे, तो त्रीजुं अस्तेय व्रत पण नथी. तेमने स्त्रीओना संघट्ट वगेरे करवामां शंका ज होती नथी, तो पछी तेना शासनमां चोथु ब्रह्मचर्य- शुद्ध व्रत होतुं नथी अने ते गांठे द्रव्य राखे छे, तो पांचमु अपरिग्रह व्रत पण नथी तेथी एवा तापसनी सेवा करवी नहि. उत्तम पुरुषोनी ज संगति करवी. आ जगतमां गुण अने अवगुण संगथी ज थाय छे. वळी कर्तुं छे के, जेमनो धर्म हिंसा छे, जेमनुं तीर्थ जल छे, जेमने नमवा योग्य गाय छे, जेमना गुरु गृहस्थ छे, जेमनो देव अग्नि छे अने जेमना दान पात्र कागडा छे, तेवा मिथ्यात्विओनी साथे शो परिचय राखवो? सम्यकत्वना जे शंका वगेरे पांच दूषणो छे. ते बधा दूषणोना तेना संसर्गथी सारा धर्मीओने पण लागे छे. ज्यारे सम्यकत्व स्थिर थाय, त्यारे धर्म पण स्थिरताने पामे छे. पायो मजबूत होय तो ज प्रासाद मजबूत रहे छे. मृत्युलोक स्वर्ग अने मोक्ष आपनारुं सम्यकत्व प्राप्त थयुं होय, तो आ जगतमां मनुष्योने नरक अने तिर्यंचनी गति थती नथी. जे बीजा देवो छे, ते कामसेवामां तत्पर, शस्त्रोने धरनारा चलित, नृत्य-गायन करनारा, अज्ञानी, स्त्री पुत्रवाळा अने रागी होय छे. हे वत्स! आपणा घरमा जे देव छे, ते सर्वज्ञ, सर्व दोषोने
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वासुदेव चरित्र-लक्ष्मीधरादिनी कथा जीतनारा; आठ कर्मोनो क्षय करनारा अने सुर, असुर तथा मनुष्योए पूजेला भगवान् छे. आपणा गुरु पंच महाव्रत आचरनारा. नव तत्त्वोने जाणनारा अने राग, द्वेष, कषाय वगेरे दोषोना समूहने छोडी देनारा छे. आपणो धर्म जीव दया मूल, रत्नरूप बार व्रतवाळो अने दान, शील, तप अने भाव-ए भेदोथी अनेक प्रकारनो छे. "हे पुत्र! आवा देव, गुरु अने धर्मना तत्त्वो आपणा पोताना घरमां छे ते छतां तेने माटे तारे बीजे स्थळे जवू सारुं न गणाय;।।६००।। तेथी तुं स्वगृहमां रहीने ज श्री जिनेश्वर देवनी पूजा कर, साधु गुरुने वंदना कर अने दयामूल धर्मनुं पालन कर." आ वखते त्यां रहेला क्रोध कुंजरने पोताना पिता मोहराजे पूर्वे कहेलुं वचन याद आव्युं, तेणे कयुं हतुं के–तमारे परस्पर सहाय करवी, ते उपरथी क्रोध कुंजरे ते लक्ष्मीधरना शरीरमा प्रवेश कर्यो, एथी लक्ष्मीधर वधारे उश्केराई गयो, एक तो वानर, तेने वळी वींछीए करड्यो, तरत तेणे भगवंतना धर्मनी निंदा करवा मांडी अने अन्य लौकिक धर्मनी प्रशंसा करवा मांडी, ते साथे जेवा तेवा भाषणोथी पोताना पिताने गाळो देवा मांडी. ते वखते वरुण शेठे पोताना दयाळु अने निर्भय हृदयमां चिंतव्यु के "योग्यो हितोपदेशस्य, नायं दृग्रागदूषितः" 'दृष्टि रागथी दूषित थयेलो आ पुत्र हितोपदेश आपवाने लायक नथी.'' कह्यु छे के, "मुल्ने उपदेश आपवो ते तेमने शांतिने माटे थतो नथी परंतु उलटो कोपने माटे थाय छे. सर्पोने दूध पावं ते विषने वधारनारुं ज थाय छे."1 पछी वरुण शेठे ते पुत्रनी उपेक्षा करी दीधी एटले ते कृष्ण वगेरे अन्य देवोनो विशेष भक्त थयो अने जलजंतुनी जेम वधारे मर्यादा छोडवा लाग्यो. पुनः द्विधाचित्त थयेला वरुण शेठे पोताना हृदयमां आ प्रमाणे चिंतव्यु, "आ पुत्र जिन भगवान्नो अने सद्गुरुओनो निंदक छे, तेथी तेनी साथे वास करवो ते केवळ दोष साथे वास करवा जेतुं छे. जे पापना समूहवाळो होय तेनो त्याग करवो जोईए अने पुण्यमां आदरवाळो होय, तेने आदर आपवो जोईए आ पुत्र छे, छतां जो ते आपणा अतुल कुळमां रहेशे, तो तेथी धर्मनो क्षय थई जशे जेनाथी कान तुटे ते सोनू पण शा कामर्नु? सुवर्णनी छरी होय, पण शुं ते पेटमां मराय छे? ते पण पीडा कारी ज थाय छे, तेवी ज रीते आ मारो पुत्र छे, पण ते शा कामनो? पुष्प जंगलमां थाय छे, पण ते गुणवाळु होवाथी मस्तक उपर धराय छे. अने मळ पोताना शरीरमांथी थयेलो छे, पण लोको तेने बहार त्यजी दे छे, 1. उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये । पय: पानं भुजङ्गानां, केवलं विषवर्द्धन।।६०६।। 2. बे चित्त थयेला अर्थात् चिंतातुर. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र - लक्ष्मीधरादिनी कथा
जो पोतानो हाथ सडी गयो होय, तो शुं ते छेदातो नथी? जो तेनुं छेदून करवामां न आवे, तो तेथी आखा शरीरना अंग तथा उपांगनो क्षय थई जाय छे. नागक (तंबोळी) सडी गयेला पत्रने बीजा पत्रोमांथी बहार काढी नाखे छे, जो ते सडेलुं पत्र वचमां रहे तो तेथी बीजा सारां पत्रोनो विनाश थई जाय छे. कयो सद्बुद्धिमान पुरुष बळती गाडरने पोताना घरमां पेशाडे? तेथी आ कुदृष्टि अने क्रोधी पुत्रने हुं मारा घरमा राखीश नहीं आ प्रमाणे चिंतवी वरुणे ते लक्ष्मीधर पुत्रने घरमांथी बहार काढ्यो पछी ते लक्ष्मीधर पोतानी स्त्री साथे जुदा घरमा रहेवा लाग्यो, त्यां ते छूटी रीते रात्रि भोजन करवा लाग्यो, अभक्ष्य अनंतकाय वगेरेने खावा लाग्यो अने सज्जनोने निंदवा लाग्यो. एवी रीते कुदृष्टिना रागथी मोह पामेलो ते थोडा वखतमां तो हितवर्जित थई सर्व क्रियाथी भ्रष्ट बनी गयो.
हवे वरुण शेठने बीजो जे सुंदर नामे पुत्र हतो, ते अज्ञान दृष्टिवाळो हतो. तेने करोडो मानता करवाथी एक पुत्र थयो हतो. ते मोंघा पुत्र उपर सुंदरनो स्नेहानुराग विशेष प्रगट थई आव्यो प्रतिदिन धाव्यमाताओना जेवां काम करी तेनुं ते सारी रीते पालन करतो. रात्रि के दिवस ते कदिपण तेनी पासेथी खसतो नहिं. सदाकाळ ते छोकराने उत्संगमां राखतो अने मस्तक उपर चुंबन कर्या करतो हतो. असंबंध वचन उल्लापनवडे ते तेने हुलावतो अने श्रेष्ठ माणसने पसंद न पडे तेवी हास्य करवा योग्य चेष्टाओ करतो हतो. छोकराना ध्यानथी अने स्नेहरागथी अंध थयेला ते सुंदरे वृद्धजनोनी शरम छोडी दीधी अने बीजी बधी वस्तुओनी चिंता पण छोडी दीधी. पोते जाते शुग लाव्या सिवाय ते छोकराने साफ करतो, जाते खवडावतो अने तेनी मूत्र विष्टा पण जाते ज साफ करतो हतो. ते छोकरानी थोडी पण फीकर तेनी माता न राखती छतां पण ते सुंदर जरापण कचवातो नहिं. ते भोजनना समयमां भोजन नहोतो करतो, भोजन ठंडु के गरम पण जोतो नहोतो. धंधामां ध्यान नहीं, धर्म करवो तो एकतरफ रह्यो, पण ते धर्मनी वार्ता पण करतो नहिं. श्रावकने करवा योग्य आवश्यक कार्य पण नहोतो करतो. देवगृहमां पण जतो नहिं. मंत्रोमा मोटा एवा नवकारमंत्रनुं ध्यान पण होतो करतो. कोई खास मोटा कामने माटे तेने मोकलवामां आवतो त्यारे पण ते छोकरा विना एकलो जतो नहिं. ज्यारे पुत्र मांदो पडतो, त्यारे ते भोजन करतो नहि अने तेनी उपर पडी आंसु पाडतो शोक करतो हतो.
ते सुंदरने आवो जोई तेना पिता वरुणे तेने आ प्रमाणे कह्युं - "वत्स, पुत्र उपर तारो घणो स्नेह केम देखाय छे? कह्युं छे के, "लोभनुं मूळ पाप छे, श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र - लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा
रोगनुं मूळ रस छे अने स्नेहनुं मूळ दुःख छे, माटे ते त्रणेने छोडी सुखीथा.''1 अरे पुत्र, सांभळ, पुत्रना अत्यंत मोहथी राजा दशरथने प्राणनो अंत करनारुं अति दुःख थयुं हतुं. पुत्र जन्मतां ज स्त्रीने हरे छे, मोटो थाय, त्यारे ते भोजन हरे छे
अने समर्थ थाय, त्यारे द्रव्य हरे छे, तेथी पुत्रना जेवो कोई शत्रु नथी. 2 आ संसाररूपी अरण्यमां भमता एवा प्राणीओए पूर्वे अनंतवार घणी स्त्रीओ मेळवी छे अने अनंतवार घणा निर्भय पुत्रो मेळव्या छे; परंतु पुत्रो नरकना खाडामां पडता एवा पिताओने बचाव्या नथी. आ संसारमां पडता एवा प्राणीने फक्त एक धर्म ज बचावी शके छे. तेथी हे पुत्र, जिनेंद्र भगवान् अने ब्रह्मचारी एवा गुरुओनी अंदर तारे अंतर्वृत्तिथी राग करवो अने पुत्रादिकनी अंदर बहिर्वृत्तिथी राग करवो. तुं पुत्र उपर आवो अतिराग करे छे, ते तने कोईपण रीते योग्य नथी. श्री अरिहंत भगवान्मां पण अतिमोह करवाथी मनुष्योने केवळज्ञान थतुं नथी. अतिशय सेवन करवाथी सारुं कार्य पण व्यसनरूप बने छे, तेथी विद्वानो कहे छे के "अति सर्वत्र वर्जयेत्" अतिशय मीठा पदार्थों खावाथी पण लोकोने रोग थाय छे, तेथी घणा रसवाळा देशमां बहुरोग जोवामां आवे छे. हे वत्स, घणा लोको आ लोक तथा परलोकनुं कार्य अवसरे करे छे, तो ते शोभे छे, अवसर गया पछी ते शोभतुं नथी. वळी नीतिशास्त्रमां "लालनाद्बहवो दोषा" "छोकराने लाड कराववाथी घणा दोषो थाय छे, एम कहेलुं छे, तेथी हे पुत्र, तुं आ व्यसन छोडीने धर्मकार्य करवामां तत्पर था. "
पिता वरुणना आवा वचन सांभळी सुंदर बोल्यो "हे पिता, नाथी रागी पुरुषने सुख मळे छे, तेवा पुत्रनुं दर्शन देवताओने पण दुर्लभ छे. जे घरमां पुत्रो होय, ते धर्मनुं फळ छे, तेथी फळनी अवज्ञा करवाथी धर्मनी अवज्ञा करेली गणाय छे. कांईपण स्वार्थना काम विना पशुओ अने पक्षीओने पण तेमना बच्चा व्हालां होय छे, तो पछी मनुष्योने व्हालां होय तेमां शुं कहेवुं ? लोभाकर अने लोभानंदीनी अद्भुत कथा तमे शुं नथी सांभळी ? के जेथी तमे मारी आगळ आ विषे अत्यंत कह्या करो छो.
लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा
शुभकर्मथी पवित्र एवा आ भरतक्षेत्रमां चंद्रावती नामे निर्दोष अने
1. लोभ मूलानि पापानि, रसमूलाश्च व्याधयः ।
स्नेहमूलानि दुःखानि त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवं ॥ ६३१||
2. जातो हरति कलत्रं, वर्द्धितो भोजनं हरेत् । अर्थं समर्थो गृह्णाति, नास्ति पुत्रसमो रिपुः || ६३३ || श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा रमणीय नगरी छे. ते नगरीमां वीरधवळ नामे राजा हतो. ते नगरीनी अंदर लोभानंदी अने लोभाकर नामे बे वणिक रहेता हता. तेमां जे लोभाकर हतो, तेने गुणवर्मा नामे सद्बुद्धिवाळो पुत्र हतो अने लोभनंदी पुत्र वगरनो हतो, तेथी लोकोमा ते दीन थई रहेतो हतो. एक वखते ते बंने वणिक हाटे बेठा हता, तेवामां भद्रिक आकृतिवाळो अने विवेकी कोई एक अजाण्यो पुरुष त्यां आवी चड्यो. ते पुरुषने तेजस्वी वगेरे सद्गुणोथी लक्ष्मीवान् जाणी ते बंने वणिकोए तेने अति-आदर आप्यो. "लक्ष्मीवान् कुत्र नार्च्यते" लक्ष्मीवान् पुरुष क्यां न पूजाय? ते पछी विश्वासपात्र बनेला ते पुरुषे कोईवार ते बंने वणिकोने कह्यु के, "मारुं आ तुंबडुं छे ते तमे यत्नथी तमारी पासे राखो. मारे आ नगरमां केटलाएक दिवस लागशे, ते पछी ज्यारे मारे अहिंथी कुशलताथी चालवानुं थशे, त्यारे हुं तमारी पासेथी ते तुंबडं पार्छ लईश." ते बंने वणिकोए ते तुंबडं लई तेने दोरीथी मजबूत बांधी दुकाननी वचमां स्वाभाविक रीते उंचे बांध्यु. ते तुंबडामांथी गळी गळीने रसनां बिंदुओ पडवा लाग्यां. तेथी नीचे पडेली लोढानी कुश (कोश) सुवर्णमय बनी गई, ते जोई ते बंने लुब्ध बनेला वणिकोए ते तुंबडाने गोपवी दीधुं. पछी ज्यारे ते पुरुष फरीवार मांगवा आव्यो, त्यारे तेमणे आ प्रमाणे उत्तर आप्यो, “अरे भाई, उंदरोए दोरीनो बंध करडी खाधो तेथी तमारं तुंबडु जमीन उपर पड्युं अने तेना सो कटका थई गया जे उत्पन्न थाय तेनो नाश ज थाय छे." तेमना आवां वचन सांभळी तेणे का, "जो तेम थयुं होय तो तमे तेना कटका बतावो के जेथी मारो संशय मटी जाय."ते पछी तेओए बीजुं तुंबडं लावी तेना कटका करी तेने बताव्या. ते जोई ते पुरुषे विचार्यु के, “आ बंने वणिको ते तुंबडामा रहेला सिद्धरसने जाणी गया, तेथी ते बंनेने लोभ थयो, ते उपरथी हमणां आ बंने लोभाकर अने लोभनंदी ए नामना अर्थथी सत्य थया लागे छे. जो हुं राजा आगळ फरीयाद करूं, तो ए राजा ज ते रस कबजे करी ले, तेथी आ बंनेने कहेवाथी वखते ते रस पाछो मळी शके." आ प्रमाणे चित्तमां विचारी तेणे का, “तमो बंने शा माटे खोटो जवाब आपो छो? मने मारूं तुंबडं तरत सौंपी द्यो जो कदि तमारा हृदयमां लोभ होय तो तेमांथी हुँ थोडो रस तमने आपं. मारे मारा नगरमां जवानुं छे जेम मारा बधा रसनो नाश करवो, ए मने मुश्केल छे, तेम तमने पण बधो रस पचावी पाडवो ए जरूर मुश्केल थशे, जरा हृदयमा विचार तो करो नीतिशास्त्रमा पण कर्तुं छे के, "अति लोभ करवो नहीं तेम तद्दन लोभने छोडी देवो नहिं. अति लोभथी पराभव पामेला माणसना मस्तक उपर चक्र भमे
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा छे."1 तेणे आवां वचनो कह्यां तो पण ते लोभी वणिकोए तेने तुंबडं पाछु आप्यु नहीं, पछी ते तेमने त्यां स्तंभित करी दई मान सहित पोताना स्थान तरफ चाल्यो गयो..
आ वखते लोभाकरनो पुत्र गुणवर्मा ग्रामांतर गयेलो ते त्यां आवी चड्यो. तेणे ते बधी वात सांभळी अने ते बंने वणिकोने तेवी रीते स्तंभित थयेला नजरे जोया, ते पछी तेणे पेला पुरुषने शहेरनी अंदर शोध्यो; पण ते तेने मन्यो नहि. पछी तेणे शहेरमा रहेला बधा मंत्रवादीओने बोलाव्या. तेमणे पोतपोताना मंत्रोनो उपचार कर्यो; परंतु तेथी उलटी पीडा वधवा लागी. लोभथी जरा पण गुण थतो नथी, पण उलटो अवगुण थाय छे. पछी ते पुत्रे विचार कर्यो के, "यस्मादुतिष्ठते वह्निस्तस्मादेवोपशाम्यति" "जेमांथी अग्नि उठे, तेनाथी ज ते अग्नि शमे छे, तेथी हुं ते पुरुषने ज मनावीने शोधी लावू. परंतु ते पुरुष क्यां चाल्यो गयो हशे अने क्यां रहेलो हशे, ते जाणवामां नथी. तथापि हुं पूछतोपूछतो माळव देशमा जाउं अने जे माणस तेने ओळखतो होय, तेने साथे लउं." आ प्रमाणे विचारी तेणे तेने ओळखनारा एक माणसने साथे लीधो अने ते तेनी शोध करवा चाल्यो. मार्गमां विश्रांति लीधा वगर चालतो पेलो माणस मांदो पडी गयो. पछी पोते ते माणसने छोडी एकलो श्याममुख बनी दुःखी थई चालवा लाग्यो. रस्तामां आगळ चालतां एक मोटुं नगर जोवामां आव्यु. परंतु ते नगर । निर्जन हतुं, तेथी तेणे आश्चर्य पामी तेमां प्रवेश को. त्यां कोई प्रदेशमां एक सुंदर पुरुष तेना जोवामां आव्यो. तेणे 'सखेदबुद्धिवाळो तुं कोण छे?' एम प्रश्न कर्यो. ते पुरुष बोल्यो. "हुँ एक साहसिक विदेशी पुरुष छु. मार्गमां चालतां आ नगर जोई में तेमां हमणां ज प्रवेश कर्यो छे." तेणे पूछ्युं. "आ कयुं नगर छे. ते शून्य केम छे अने तुं अहिं एकलो केम रह्यो छे?" ते पुरुष बोल्यो. "आ नगरनो वृत्तांत प्रथमथी सांभळो." नागरिकोथी मनोहर, शत्रुना गणे नहीं जोयेलु अने रमणीय लक्ष्मीना वासस्थानरूप आ कुशवर्द्धन नामे सुंदर नगर छे. आ नगरमां नामथी अने बळथी शूर नामे दानी राजा हतो. तेने जय अने विजयचंद्र नामे बे पुत्रो हता. काळक्रमे राजा शूर कालधर्मने पाम्यो, एटले मोटो भाई जय पिताना राज्य उपर आव्यो. ते राजानो बीजो पुत्र विजयचंद्र ते हुं पोते ज छु. हुं अहंकारने लईने ते वखते आ मारा नगरमांथी नीकळी गयो. भमतो-भमतो हुँ एक वखत चंद्रावती नगरीना उद्यानमां आवी चड्यो. त्यां विद्यासिद्ध एवो कोई विद्वान् पुरुष 1. अतिलोभो न कर्तव्यो, लोभं नैव परित्यजेत् । अतिलोभाभिभृतस्य, चक्रं भमति मस्तक।।६६३|| श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र - लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा
मारा जोवामां आव्या. ते अतिसारना रोगथी पीडित थई पृथ्वी उपर पड्यो हतो. पूर्वना अगणित पुण्यने लीधे उत्पन्न थयेली दयाने लईने में ते पुरुषनो एवो उपाय कर्यो के जेथी ते ते ज वखते नीरोगी थई गयो. आथी संतुष्ट थई तेणे मने पूछ के, "तमे कोण छो?" में तेने मारो वृत्तांत यथार्थ कह्यो. पछी तेणे मने बे विद्याओ आपी. एक स्तंभन करनारी अने बीजी वश करनारी. पाठथी सिद्ध थनारी ते बंने शुभ विद्या मने प्राप्त थई. पछी तेणे सत्पुरुषोने मान्य थाय तेवुं एक रस भरेलुं तुंबडुं आप्युं. बे विद्या अने तुंबडुं ए त्रण वस्तु अर्पण करी तेणे मने फरीवार कह्युं के, "आ त्रण रत्नो महोदय करनारा छे तेओमां जे आ तुंबडुं छे, ते सम्यक्त्वनी जेम रसथी भरेलुं छे. तेना रसथी लोकोमां पर्वतना जेटलुं सुवर्ण थई शके छे, आ सिद्धि आपनारुं तुंबडुं तारे जेवा तेवा माणसने घेर आपवुं नहिं, नहीं तो अनंत लोभने लईने तेनो नाश थई जशे . तेम आ जे बे विद्याओ छे, तेनो उपयोग पण कदि निरर्थक (खास कारण वगर) करवो नहिं. कोई कारणे करवाथी कार्यसिद्धि थाय छे. नहि तो वगर कारणे करवाथी उलटो पापनो परिताप थाय छे." आ प्रमाणे कही विद्यासिद्ध अने प्रसिद्ध एवो ते उत्तम पुरुष तरत श्री पर्वतां चाल्यो गयो. एवा पुरुषो चिरकाळ टकी रहेता नथी. पछी हुं प्रसन्न हृदये त्यांथी नीकळी चंद्रावती नगरीमा आव्यो. त्यां फरतो-फरतो लोभाकर अने लोभनंदी नामना बे वणिकोनी दुकाने गयो. ते वणिकोए सत्कारपूर्वक बरदास करी मने एवो तो वश करी लीधो, के जेथी मारा मनमां तेमनो विश्वास आवी गयो अने बीजा कोईए मने जाण्यो नहिं. नगरीनी शोभा जोवानी इच्छाथी त्यां स्थिति करी में योग्य विचार करी ते तुंबडुं तेमनी दुकाने मुक्युं पछी में केटलाएक दिवस रहीने नगरीनी शोभा जोई. पछी मारी माताने नमन करवानी इच्छाने लईने हुं मारा नगरमां जवा उत्सुक थयो ज्यारे हुं वतन जवा तैयार थयो, ते वखते में ते बंने वणिकोनी पासे ते तुंबडुं पार्छु माग्युं. तुंबडाना प्रभावनुं स्वरूप जाणी गयेला ते बंने वणिकोए ते मने पाठुं आप्युं नहिं. पछी हुं मारी विद्याना प्रभावथी तेमनो योग्य उपाय करी अर्थात् स्तंभित करी अहिं आव्यो त्यां मारुं नगर लोकोथी शून्य थयेलुं जोई मने खेद उत्पन्न थयो.
आ प्रमाणे वृत्तांत सांभळी गुणवर्माए विचायुं के, "मारा पिता अने काकाने पोतानी विद्याथी स्तंभित करनार आज माणस छे. पण ज्यां सुधी तेनुं स्वरूप बराबर मारा जाणवामां न आवे, त्यां सुधी मारे खुल्ला थवुं नहीं." आवुं विचारी गुणवर्मा बोल्यो - "कहो, ते पछी शुं बन्युं ?" विजयचंद्रे पुनः पोतानी श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा वात आगळ चलावी-"पछी स्वजन वगरना हुं आ शून्य नगरमां चारे तरफ फरी राजद्वारमा गयो. राजमहेलना सातमा माळ उपर चड्यो, त्यां मारा मोटा बंधुनी विजया नामनी स्त्रीने में एकली रहेली जोई. तेणीए आसन वगेरे आपीने मारो विनय कर्यो. पछी में तेणीनो वृत्तांत पुछ्यो, एटले तेना नेत्रोमां अनु लावी आ प्रमाणे बोली-"पूर्वे पवनथी पवित्र एवा आ शहेरना उपवनमां मासे मासे उपवास करनारो कोई एक तापस आव्यो हतो. ॥७००।। एक वखते तमारा बंधुए तेने पारणाने माटे आमंत्रण आप्युं, राजानी आज्ञाथी ते जमवा बेठो त्यारे में तेने पवन नाखवा मांड्यो, ते वखते प्रथमथी ज नहिं दमन करेलुं तेनुं हृदय तरत मारी उपर भमवा लाग्यु. जेमणे ब्रह्मस्वरूप जाण्युं न होय तेवा पुरुषो एवा ज होय छे. वळी का छे के, "निराहार मनुष्यना विषयो निवृत्त थाय छे अने आ व्यक्तिनो राग मात्र शुष्क व्यक्तिने जोइने नष्ट थाय छे [पण रसवान व्यक्तिने जोइने पुनः प्रगट थाय छे" ते ज रात्रे ते विषयी तापस घो नांखवानो प्रयोग करी मारा महेलमां चडी आव्यो, कामान्धानां कुतो लज्जा, धर्मो यमनियमे तपः ।। कामांधने लज्जा क्याथी होय? तपमा यमनियम होय तो ज धर्म कहेवाय छे. तेणे कामनी इच्छाथी सामदंडना वचनोथी मने कहेवा मांड्यु, में ते पापीने घणो समजाव्यो छतां पण तेणे पोतानो अध्यवसाय छोड्यो नहिं. आ वखते मारा स्वामी द्वार उपर आवी चड्या. तेणे ते बधुं सांभळी ते अधम तापसने पकडीने मजबूत बांधी लीधो; पछी पोताना आज्ञाकारी माणसोनी पासे विविध प्रकारे तेने विडंबना पमाडी चोरनी जेम मराव्यो. तेना एवा कर्मनुं फळ एवं ज होय. ते तापस मृत्यु पामीने तेवा नठारा कर्मथी राक्षस निकायमां व्यंतर थई अवतो. प्राये करीने तेवा माणसोनी गति एवी ज होय छे. ते राक्षसे विभंग ज्ञानने लईने पोतानो पूर्वभव जाण्यो एटले तेणे जाते आवी तमारा बंधुनो नाश कर्यो. ते जोई ते दुष्टना कष्टना भयथी आकुल-व्याकुल बनेली सर्व प्रजा जीव लईने नासी गई, तेने लईने आ तमारुं नगर हाल शून्य थई गयुं छे. हुं पण पृथ्वी उपर पडती-पडती नासती हती, तेवामां ते राक्षसे मने धीरज आपवा कह्यु के, "तुं अहिं रहे तारे भय राखवो नहिं जो तुं मारी बुद्धिथी मने छोडीने बीजे स्थळे जईश, तो हुं तने पकडीने अहीं लावीश तेथी तुं अहिं निराकुळ थई रहे." तेनां आवा वचन उपरथी हुँ एकली अहीं रही छं. ते राक्षस दिवसे क्यांय जाय छे अने रात्रे पाछो पुनः आवे छे. एवी रीते मारा दिवसो चाल्या जाय छे. में मारी भाभीने कडं के, "तमे ते राक्षसनी कांई मर्मनी वात होय तो ते मारी आगळ प्रकाशित करो, जेथी श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा हुं मारा भाईर्नु पूर्व- वैर लऊं." विजया बोली-"ज्यारे ते राक्षस निद्राने आधीन थई सुतो होय, त्यारे जो तेना चरण उपर घी- मर्दन थाय तो ते राक्षसनी निद्रा दीर्घनिद्रा बनी जाय छे. परंतु जो पुरुषने हाथे घी- मर्दन थाय तो ज तेने निद्रा आवे छे, स्त्रीने हाथे मर्दन थवाथी निद्रा आवती नथी. तेमां जो पोताना चरणना मर्दननी पहेलां ते राक्षस मनुष्यने जाणीले, तो पछी ते माणसना चरणने युद्ध करीने भांगी नाखे छे." आ प्रमाणे तेणीए प्रथमथी मांडीने कहेलुं नगरीनुं वृत्तांत मारा जाणवामां आवी गयुं छे. परंतु ए कार्यनी सिद्धि कोईनी सहाय विना थई शके तेम नथी. एवं धारीने कोई उत्तम सहाय मेळववाने माटे हुं अहिं राह जोतो हतो तेवामां क्रमने जाणनारा तमे अहिं मने मळी आव्या छो, तेथी तमे सहाय करो के जेथी मारुं मोटुं राज्य पार्छ आवे अने पृथ्वीनुं रक्षण करनारा मारा बंधुनुं वैर हमणां ज लेवाय." ते सांभळी गुणवर्माए विचार कर्यो के, "आ माणसथी मारं कार्य सिद्ध थवानुं छे, तो हुँ गर्वरहित थई तेनुं वचन कबूल करुं कारण के 'उपकार अने अपकार सहज रीते पोतानाथी बने छे. जेवू बीज वावीए, तेवा ज फळनो उदय थाय छे." आ प्रमाणे चिंतवी ते प्रशंसनीय बुद्धिवाळा पुरुषनुं वचन गुणवर्माए मान्य कयु. "तप्तयोर्लोहयोर्लोके, का वेला मिलने लगेत् ।" बंने लोढा तपेला होय, तो तेमने मळी जतां शी वार लागे?2 जे पोतानुं कार्य अने अग्नि ते बंने उष्ण गणाय छे अने बीजारों कार्य अने जळ ते बंने शीतळ गणाय छे. विजयचंद्र बोल्यो, "तो हवे तमारे ते राक्षसना बने चरण उपर घीनुं मर्दन करवू के जेथी तेने निद्रा आवे. पछी हुं पापरहित थई एकहजार मंत्रनो जाप करी थोडा . वखतमां तेने अवश्य वश करी लईश." गुणवर्माए ते कबूल कयु. एटले तेओ बंने बधी सामग्री एकठी करी ते राजमहेलमां गया अने त्यां छूपी रीते रह्या. ज्यारे महाघोर अंधकार थयो, त्यारे ते राक्षस महेलमां आव्यो. तरत तेणे विजयाने कर्दा के, "मने आजे मनुष्यनी गंध आवे छे." विजया बोली-"अहिं तो हुँ एक ज मनुष्य छं. बीजूं कोई माणस नथी. मद भरेलो गजेंद्र होय, त्यां बीजो कोण स्थिति करी शके?" तेणीना आ वचन उपरथी ते राक्षस निश्चिंत थईने सुतो. तेवामां गुणवर्माए आवी वधूना मिषथी निर्भय थई घी वडे तेना चरण घसवा मांड्या. फरीवार तेने माणसनी गंध आववाथी ते जेवामां बेठो थवा ईच्छतो हतो, तेवामां साहसी गुणवर्माए वधारे चरणमर्दन करवा मांड्यु. ते वखते विजयचंद्रे करवा 1. उपकारापकरौ तु सहजैनात्मसम्भवो । यादृगारोप्यते बीजं, तादृगेव फलोदयः ।।७२३।। 2. आत्मीयकार्य वह्निश्च द्वाविमावुण्णक्षणौ । परकार्यं च पानीयं, दे इमे शीतले स्मृते ॥७२५।।
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा मांडेला अचिंत्य प्रभाववाळा अने तत्काळ फळ आपनारा वशीकरण मंत्रनो जाप पूर्ण थई गयो. तरत ज ते बंनेए उठीने ते राक्षसनो तिरस्कार कर्यो अने तेने वश करीने एवो रंक करी दीधो के जेथी ते काई पण करी शक्यो नहीं. पछी राक्षस बोल्यो. "हुँ तमारा बनेनो किंकर छु, माटे मने कोई कार्य बतावो के ते कार्य हुं आदरथी करूं." ते सांभळी कुमार विजयचंद्र बोल्यो. "तुं आ मारा नगरने किल्लो करी आप. रत्नोना समूहथी अने सुवर्णना जथ्थाथी भांडागार भरी दे, कोठारमा जथ्थाबंध धान्य पूरी दे अने मने सुखी कर. अने ज्यारे हुं संभालं, त्यारे तुं हाजर थजे. एम करीश, तो तारो छूटकारो थशे, ते सिवाय नहिं थाय." राक्षसे वेगवडे नम्र मस्तके ते बधुं स्वीकार्यु. पछी कुमारना कहेवा प्रमाणे बधुं करी आपी राक्षस पोताना स्थानमां चाल्यो गयो. पछी तेणे बधी प्रजा नगरमां वसावी. मंत्री वर्गने अने ते राज्यने आश्रित एवा ताबाना राजाओने सत्वर पोतपोताने स्थाने नियुक्त करवामां आव्या. पछी मूळ मंत्रीओए हर्षथी विजयचंद्रनो राज्य उपर पट्टाभिषेक कर्यो. राजा विना रक्षण थई शकतुं नथी. राजा विजयचंद्रे पोताने सुख करनार गुणवर्माने कडं, "हे मित्र, में जे आ राज्य मेळव्युं, तेमां बधुं कारण तमे पोते ज छो. तेथी आ राज्य तमे पोते ग्रहण करो अने मने अनृणी करो. "दुःखे साहय्यकर्ता य-द्विस्मृति नैव गच्छति ।।७४२।।" जे दुःखमां खरी सहाय करनार होय छे, तेनुं विस्मरण कदीपण थतुं नथी." गुणवर्मा बोल्यो, “हे राजा, तमोए पूर्वे चंद्रावती नगरीमां जे बे वणिकोने स्तंभित करेला छे, तेओ मारा पिता अने काका थाय छे. तो तमे प्रसन्न थईने तेमने बंधनमांथी मुक्त करो, एटलुं करवाथी ज मने मारा कामनी सफळता प्राप्त थशे. जो के तेओ बंने खरेखर अकार्य करवामां उद्यत थयेला होई अपराधी बनेला छे, तो पण तमे तेमनी उपर प्रसन्न थाओ. सन्तः प्रणतवत्सलाः सत्पुरुषो प्रणतजन उपर वात्सल्य धरनारा होय छे." गुणवानां आ वचन सांभळी राजा बोल्यो. “अहो, ते वणिकमांथी तमारो जन्म थयो ए तो कालकुट झेरमांथी अमृत अने धतुरामांथी आम्रफळ थवा जेवं छे. तमे जे कार्य मने बतावो छो, ते कार्य तो कांई हिसाबमां ज नथी. हुं ते तमारुं सर्व कार्य करीश; परंतु तेमां एक उपाय छे, ते सांभळो. आ नगरनी पासे एकश्रृंग नामे एक मोटो पर्वत छे. तेमां देवताथी अधिष्ठित एवी एक कुपिका (वाव) छे. ते कुपिकानुं मुख नेत्रपुटनी जेम उघडे छे अने मींचाय छे. ते कुपिकानी अंदर प्रवेश करीने तेना जळनुं यत्नथी आकर्षण करवू. परंतु त्यां सावचेत रहेवा छे. जो ते जळ लेनारो माणस भय पामे, तो तेनुं मृत्यु थई जाय श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा छे. जेनो पुत्र ते जळ खेंची लावे, ते पिताने गुणकारी थाय छे. तो तमे ते जळ लई समीप आवी पिताने हर्षथी त्रणवार छांटशो, एटले तेनो बंधमांथी मोक्ष थई जशे, ते सिवाय सो वर्षे पण थशे नहीं. राजानुं आ वचन सांभळी गुणवर्माए क, "हुं मारा पिताने माटे ते कार्य करीश. कारण के "यन्मातापितरौ विश्वे, दुःप्रतिकारको स्मृतौ ।।७५२।।" आ विश्वमां मातापितानो बदलो वाळी शकाय तेम नथी.' पछी गुणवर्मा जयचंद्रनी साथे सर्व सामग्री लई ते कुपिकाना मुख आगळ गयो. त्यां दोरी साथे एक मांची बांधी ज्यारे ते कुपिकानु मुख विकास पाम्युं, एटले राजाए गुणवर्माने मांचीमां बेसाडी कुपिकानी अंदर नाख्यो. ज्यारे कुपिकानुं मुख पार्छ विकास पाम्युं, एटले तेने जळनी साथे बाहर खेंची लीधो. ते वखते विजयचंद्र राजाए पेला राक्षसने याद कर्यो. राक्षस हाजर थयो अने तेणे गुणवर्माने विग्रहवाळा लोभाकर अने लोभनंदीना घरमा क्षणवारमा पहोंचाडी दीधो. त्यां गुणवर्माए ते कुपिकानुं जळ छांटी पोताना पिता लोभाकरने सत्वर मुक्त कर्यो. एटले लोभाकर क्षणवारमां तैयार थई गयो. अने एकलो लोभानंदी तेवी ज रीते स्तंभित थई नठारी स्थितिमा रह्यो. पुरुषोने पुत्र विना बंध मोक्ष शी रीते थाय? पछी श्रेष्ठी पुत्र गुणवर्माना आग्रहथी विजयचंद्रे लोभनंदीने घरनी अंदर राख्यो, पण त्यां ते दीनवदने रुदन करवा लाग्यो. विजयचंद्रे पुनः गुणी एवा श्रेष्ठी पुत्रने कह्यु के, "मारी पासेथी कोई भव्य देश ल्यो अथवा आदरथी कोई व्यापार स्वीकारो." तेणे तेवू कांई पण लीधुं नहीं, एटले राजाए वस्त्राभरणथी सत्कार करी तेनी आगळ पेलुं तुंबडु भेट तरीके धर्यु आथी राजा विशेष संतुष्ट थयो अने ते तुंबडुं तेने पार्छ अर्पण करी दीधुं. "तादृशानां पुंसामुचितं याति न क्वचितम् ।। तेवा पुरुषोनी करेली योग्यता क्यांय पण नकामी जती नथी. पछी गुणवर्माना पिताए जे पोते थापण ओळववानो दोष को हतो, तेने माटे राजानी क्षमा मागी. पछी राजा पोताने नगर चाल्यो गयो.
सुंदर पोताना पिता वरुणने कहे छे के, हे पिता, एवी रीते शूरराजाना पुत्र विजयचंद्रे पोतानुं गयेवं राज्य पार्छ वान्युं अने बांधवनुं वैर लीधुं, तेमज पोतानी प्रजाने सुखी करी. गुणवर्माए पण मृत्युने अंगीकार करीने पण पोताना पिता लोभाकरने बंधनमांथी छोडाव्यो अने जे लोभनंदी पुत्र वगरनो हतो, ते क्षय पामी गयो. “हे पिता, जेओ एवा पुण्यथी पवित्र, उज्ज्वळ अने योग्य पुत्रो थाय छे, तेवा पुत्रो केम माननीय न कहेवाय?" आ सांभळी वरुण शेठ बोल्या. "वत्स, हं एकांते एम कहेतो नथी के, सत्कर्मथी प्रख्यात एवा पुत्रो माननीय
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा नथी; परंतु पिताए अने माताए मनुष्य जातिने घटे तेवू पुत्रो हित काळने अनसरीने करवं जोईए. नहिं तो ते पुत्रो उछेरीने मोटा शी रीते थाय? कृपाळू पुरुषो पशुओर्नु पण पालन करवामां अर्थ आपनारी अने उत्तम एवी सारवार करे छे, तो पछी पोताना बाळपुत्रनी केम न करे? परंतु ते पहेलां कह्यु के, “धर्म करवाथी पुत्रो थाय छे, तो जो ते पुत्रोनो अनादर करीए तो धर्मनो पण अनादर थाय." ए वात तद्दन असत्य छे, कारण के धर्म करवाथी तो राज्य पण मळे छे, पण जो ते राज्यमां अति आसक्ति राखवामां आवे, तो पुरुषोने नरकनी प्राप्ति थाय छे. वैदकमां पाणीने जीवन अने अमृत कर्तुं छे, पण जो ते घणुं पीवामां आवे, तो तेथी रोगनी उत्पत्ति थाय छे. वळी कां छे के, "पुत्र, भाई अने पशु वगेरे सर्वे ऋण संबंधे आवी मळे छे अने ज्यारे ऋणनो क्षय थाय छे, त्यारे तेमनो क्षय थई जाय छे. तो पछी तेमने माटे शो अफसोस करवो? आ वखते मोहराजाना कोपकुंजर नामना पुत्रे ते सुंदर पुत्रमा जरा प्रवेश करी दीधो, एटले ते सुंदर जेम तेम बोलवा लाग्यो. वरुण शेठे तेने पण घरथी जुदो कर्यो. तत्काळ निरंकुश थयेलो ते सुंदर लज्जा छोडी अने धर्मनो त्याग करी स्नेहरागवाळो थई हमेशा पोताना पुत्रनुं ज ध्यान करवा लाग्यो.
__ हवे वरुण शेठनो त्रीजो पुत्र जे अर्हद्दत्त हतो, ते ज्यारे यौवन वयने प्राप्त थयो, त्यारे कामानुरागे तेना मनने आकुळव्याकुळ करी दीधुं. ते पोतानी स्त्रीने ज फक्त मानवा लाग्यो. ते पोताना पिता, माता, बंधुवर्ग, बहेन, वृद्धो अने गोत्रीओने मानतो न हतो. तेणे जगतमां अद्भुत एवं एक जुईं भवन बनाव्यु अने आसपास वाटिका अने विविध जातना चित्रोथी ते युक्त कयु. ते कपुरना पूरवाळु तांबूल अधुं चावीने फेंकी देतो अने पृथ्वी उपर यक्षकर्दमनी गार करावतो हतो, ते धूपथी धूपित करेला घरमां पुष्पनी शय्यामां सुतो अने त्यां सतत संगीत करावतो अने द्रव्य उडावतो हतो. राजा प्रमुखनी साथे स्पर्धा करे तेवो तेनो कामराग वधी पड्यो. जुदा-जुदा श्रेष्ठीओ, मंत्रीओ, सार्थपतिओ अने वेपारीओनी बीजी एटली कन्याओ परण्यो के जेमनी संख्या पांचसोनी पूरेपूरी थई हती, तो पण तेने संतोष थयो न हतो. तथापि ते मदथी युक्त थई परस्त्रीनो संग करतो हतो. आ खबर जाणी तेना पिता वरुणे तेने आ प्रमाणे कडं-"अरे! तें आ शुं मांड्युं छे? सामान्य कुळमां थयेला घणा मनुष्यो पण परस्त्रीगमनरूप दारुण कर्म कदि पण आचरता नथी, तो तुं मारा उच्च कुळमां उत्पन्न थई आ प्रमाणे परस्त्रीमां आसक्त
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा रहे छे तो तुं अवश्य नारकी थईश. तेमां कोई जातनो संदेह नथी. भद्रजातिनो गजेंद्र सदान अने गुरु सन्मानवाळो होय छे, ते छतां ते परस्त्रीनी विशेष आसक्तिथी बंधनना नठारा संकटमां आवी पडे छे. जे पुण्यजन पण परस्त्रीगमननी इच्छा करे छे, तेने रामानी आसक्तिने लईने उत्तमांगनो क्षय थई जाय छे, अरे! मूर्ख, तारे सुंदर गुणसमूहथी युक्त एवी पांचसो स्त्रीओ छे, तेटली स्त्रीओथी पण जो तने संतोष थतो न होय, तो पछी ए परस्त्रीओथी संतोष शी रीते थशे? तेथी स्वदारामां संतोष धारण कर अने परस्त्रीनो त्याग कर, जेथी आ संसारमा अने परलोकमां तने सुख थशे," पितानां आवां वचन सांभळी अर्हद्दत्त बोल्यो-"हे पिता, तमे भोग भोगवी लीधा छे एटले तमने हवे भोग रुचता नथी, पण अमारा जेवा युवानोने तो हजु भोगमां सुख लागे छे. अहो! एकेंद्रिय जीवो पण स्पर्श सुखनो अनुभव करे छे अने देवता पण स्पर्श सुखनो अनुभव करे छे, तो पछी मारा जेवाने तेमां शेनो दोष होय? संसारी जीवोनी तो चोतरफ एवी ज प्रवृत्ति देखाय छे अने नग्न, मुंड अने रांडेला होय तेमने कवचित् ए निवृत्ति होय छे. जे मार्गे घणा लोको गमनागमन करे, ते ज राजमार्ग कहेवाय छे. बाकीना बीजा मार्गो तो चोरमार्ग ज छे." "हे पिता, तमे धर्म करो छो तो तेनाथी तमने स्वर्गलोक मळशे, परंतु ते स्वर्गलोकमां पण देवताओने तो विषयसुख रहेलुं छे. जे प्रत्यक्ष एवा विषयसुखने छोडी परोक्ष एवा स्वर्ग सुख तरफ नजर करी राखवी ते वरसादने चडेलो देखी पोतानी पासे रहेला पाणीथी भरेला घडाने फोडी नाखवा जेवू छे. अने स्त्रीने सगर्भा देखी केड उपर रहेला बाळकने छोडी दीधा जेवू छे. तमने साठ वर्ष थया छे, तेथी तमारी बुद्धि नाश पामी लागे छे." अर्हद्दत्तनां आवा वचन सांभळी वरुण शेठ बोल्यो-"अरे वत्स, हं तने सर्व स्त्रीओनो त्याग करवायूँ कहेतो नथी, फक्त परस्त्रीने त्याग करवानुं कहुं छु. हुं जे धर्म करुं छु, ते विषयोने माटे कदिपण करतो नथी; परंतु कर्मोनो क्षय करवाने अने बोधि लाभने माटे ज धर्म करूं छु. तें कह्यु के, जे मार्गे घणा लोको गमनागमन करे छे, ते राजमार्ग कहेवाय छे, ते तारूं कहेवू सत्य छे. जे मार्गे राजाओ जाय छे, ते राजमार्ग कहेवाय छे, अने जे मार्गे थोडा लोको जाय छे, ते चोरमार्ग कहेवाय छे, ते तारुं कहेवं तद्दन असत्य छे. जे (बाह्य बंधन मुक्तिरूप) मोक्षसुखने आपनारो 1. हाथी पक्षे-भद्रजाति-सारी जातिनो, सदान-मदसहित अने गुरु-मोटुं सत्-सारं मान
प्रमाणवाळो. बीजे पक्षे सदान-दान करनार अने सदगुरुनु मान राखनार. 2. यक्षजन. 3. रामा-स्त्री अने लक्ष्मी. 4. उत्तमांग-मस्तक.
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा मार्ग कह्यो, ते बाह्यमार्ग जाणवो. तेथी हुं कर्म मार्गने छोडी कर्म रहित एवा मार्गे चालनारो छू." ॥८००।। अर्हद्दत्त बोल्यो-"जेमां खावान, स्वाद लेवानं, पान करवा अने स्त्रीओ होय नहीं, तेवा मोक्ष मारे काम नथी." पुत्रनां आवा वचन सांभळी वरुण शेठे विचार्यु के, "आ पुत्र खरेखरो नास्तिक बनी गयो छे. आवा दुष्टनी साथे संग करवो, ते कदिपण प्रशंसनीय नथी." आq चित्तमां लांबो काळ विचारी वरुण शेठे तेने पण घरमांथी जुदो कर्यो. "कुमानुषेण संसर्गः, सर्वत्र परिवर्जितः" नठारा माणसनो संग सर्वथा वर्जित छे. पछी निरंकुश थयेलो अर्हद्दत्त मत्त बनेला हाथीनी जेम शहेरमां मदोन्मत्त थई भटकवा लाग्यो अने दुष्ट हृदयनो बनी द्रव्य उडावा लाग्यो.
हवे चोथो पुत्र जे नंद हतो, तेने पोताना बंधु लक्ष्मीधर वगेरेनी साथे संग करतो देखी वरुण शेठे तेने मधुर शब्दोथी आ प्रमाणे कडं, "हे वत्स, लक्ष्मीधर वगेरे जे पुत्रो गुण वगरना अने सत्कर्म करवाथी रहित एवी बुद्धिवाळा थया, तेथी में तेमने दूर कर्या छे तो तुं तेमनो संग करे छे अने तेमने त्यां जवा आववा राखे छे, ते सारा माणसोने निंदवा योग्य होवाथी खोटुं छे, माटे तुं तेमनो संग छोडी दे. आ पृथ्वी उपर दोष अने गुण संसर्गने लईने थाय छे अने ते उपर पर्वत, शंकु, पुष्प अने पोपट पक्षीना दृष्टांतो प्रसिद्ध छे." पितानां आवा वचन सांभळी नंदे जवाब आप्यो. “पिता, आ संसारमा गुण अने अवगुण संसर्गथी थता नथी, सर्पनी दाढमां झेर रहे छे अने तेनी ज फणा उपर मणि रहे छे. तेमां मणिना गुण विषमां आवता नथी विषना दोष मणिमां आवता नथी; ते उपरथी सिद्ध थाय छे के गुण अने अवगुण संसर्गथी थता नथी." वरुण शेठ बोल्यो-"अरे पुत्र, द्रव्यो बे प्रकारना छे, भावुक अने अभावुक. तेमां केटलाएक द्रव्यो 'भावुक होय छे अने केटलाएक अभावुक होय छे. तेमां जे वैडूर्य मणि छे ते परद्रव्योथी अभावुक छे, एटले ते सर्पना मणिने विषनो दोष संसर्गथी लागतो नथी, परंतु जो ते सर्पनी दाढने मणिनो योग थाय तो उलटी ते दाढ विषरहित थई जाय छे. पण तेवो योग थवो दुर्लभ छे. तेमां जे जीवद्रव्य छे ते भावुक छे. तेथी तेनामां बीजाना गुण अने अवगुण संसर्गथी आवे छे, तेथी ज्यारे तने कहेवू पडे छे. वळी पुष्पादिकमां प्रायः जेवी सुगंध होय तेवी ज सुगंध तिल संबंधी तेलमां संक्रांत थाय छे, पण एक तुंबी बीज सो भार गुडनो प्रगट विनाश करे छे. 1. भावुक एटले जेने बीजा द्रव्योनी असर लागे तेवा अने अभावुक एटले तेथी उलटा
समजवा. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा मलिनना संसर्गथी उज्ज्वळ गुणवाळाने मलिनता थई आवे छे. चंडाळना संसर्गथी ब्राह्मण अपवित्र थई जाय छे. जळ पवित्रताने करनारुं छे, छतां पण जो ते चंडाळना घरमा रह्यं होय, तो ते लोकमां अपवित्र अने निंदनीय गणाय छे. जेम श्वेत वस्त्र मषी वगेरे वस्तुनी साथे मळवाथी तत्काळ काळु थई जाय छे, पण मषी ते श्वेत वस्त्रनी साथे मळवाथी धोळी थती नथी. गळो वगेरे कडवा पदार्थोना योगे साकर कडवी थई जाय छे, पण साकरना योगथी ते पदार्थो मीठा थता नथी, तेथी दुर्जनना संसर्गथी सज्जनोमां दूषण थवानो संभव छे. आ लोकमां घणी रीते उत्तमना संगथी अवश्य गुण ज थाय छे माटे "हे पुत्र, तुं आ दुर्जनोनो संग दूर छोडी दे, नहीं तो तने दूषणनी प्राप्ति थया वगर रहेशे नहिं." वरुण शेठनां आ वचनो जाणी लई मोहराजाना द्वेषकुंजर नामना पुत्रे नंदने गाढ रीते प्रेर्यो, एटले नंद बदलाई गयो अने तेनामां पिता तरफ द्वेषबुद्धि उत्पन्न थई आवी. तेणे पिताने आ प्रमाणे कडं , "अरे दुष्ट पिता, तें मारा निरपराधी बांधवो पासेथी सार वस्तु लई घरनी बाहर शुं जोईने काढी मुक्या छे? मने पण आवा खोटा दोषनां भाषणो करी घरनी बाहर काढवा ईच्छे छे, पण नक्की समजजे के जेवं पारके घेर चितवीए तेवू पोताने घेर आवी पडे छे. हवे तुं चूप रहेजे. हमणां तारुं बळ छे
अने तेथी तुं आवो प्रलाप करे छे, पण हुं तो आ तारुं बधुं भक्षण करी जईश. नंदने आवां अनिष्ट वचनो कहेतो. जोईने केटलाएक सज्जनोए तेने सारा संमत वचनोथी वारीने आ प्रमाणे का, "अरे भाई, बीजाओने पण कदि कठोर वाक्य कहेवू न जोईए, तो जेओ उत्तम हितवचन कहेनारा पूज्य होय तेमने तो विशेषपणे एवं कठोर वचन न कहेवू जाईए." आ सांभळी कोपना आटोपने वश थयेलो नंद बोली उठ्यो के, "आ पिता पूज्य नथी, पण मारा पूर्व जन्मनो वैरी छे." आq वचन सांभळी लाभालाभनो विचार करनारा ते लोकोए वरुण शेठने कह्यु के, "हितशिक्षापि नो देया, यस्य तस्य त्वया नयात्" ।।८२९।। "तमारे न्यायथी जेवा तेवाने हितशिक्षा पण आपवी नहीं." तेने माटे कयुं छे के, "जेवा तेवा माणसने उपदेश आपवो नहीं, केमके वगर विचार्या उपदेशथी एक मूर्ख वानरे सुगृही (सुगरी) नामना पक्षीने घर वगरनुं को हतुं." आ प्रमाणे सज्जनोए वारेल वरुण शेठ मौन धारण करी पोताना घरमां ज बेसी रह्यो अने हृदयमां दुःख सहन करवा लाग्यो. ज्यारे पिताए ते नंद पुत्रनी उपेक्षा करी एटले दुष्ट हृदयवाळो, पापथी पुष्ट थयेलो अने निर्दय एवो ते नंद लोकोनी साथे हमेशां कलह करवा लाग्यो.
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वासुदेव चरित्र - लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा
एक वखते वरुण शेठे पोताना हृदयमां आ प्रमाणे विचायुं - "मारे चार पुत्रो छे परंतु तेओ चार कषायना जेवा छे. तेओमांथी एक पण पुत्र मने सुखदायक थया नहिं जे गृहवासमां आवा कुपुत्रो थया, ते गृहवास हवे मारे शा कामनो छे? हवे तो हुं मारा सर्व बळथी परलोकनुं हित साधुं," आ प्रमाणे विख्यात यशवाळो वरुण शेठ चिंतवतो हतो, तेवामां नगरनी बहारना उद्यानमां श्री विजयकेवळी गुरु आवी चड्या. गुरुना आगमननी खबर सांभळी उपाधि अने संसारना अंतने आपनारा तेमना वसति - स्थानमां वरुण शेठ मित्रोनी साथे आवी पहोंच्यो अथवा विबुध - विद्वानोना आचार्य एवा गुरु पोताना कार्यथी नमवा योग्य थाय छे. तेवा ते गुरुने भक्तिथी प्रणाम करी वरुण योग्य स्थाने बेठो, गुरुए उपदेश आपी तेने तेना धर्म कर्मनी कुशळता. पूछी. निर्मल हृदयवाळा पुरुषोनो एवो प्रथम प्रश्न होय छे. वरुण शेठ बोल्यो, "भगवन् हाल मारे धर्म साधवानो योग बहिर्वृत्तिथी छे, पण अंतरदृष्टिथी नथी." केवळी भगवन् बोल्या "श्रेष्ठी, धर्मने वारनारुं अने कल्याणने हरनारुं एवं शुं कारण बन्युं छे?" शेठे पुनः जणाव्युं, "भगवन्, मारे अनीतिवाळा पुत्रो छे, तेथी मने शांति नथी अने शांति विना धर्म करवानुं मने स्मरणमां आवतुं नथी." केवळीए पूछ्युं, "शेठ, त तमारा ते पुत्रोनो दोष शा माटे काढो छो? तमारा घरमा रहेला ज माणसो तेओने विनष्ट करे छे." शेठे कह्युं भगवन्, तेओने कुबुद्धि आपे तेवो कोई पण माणस मारा घरमा छे ज नहि." पछी केवळीए ते वरुण शेठनी आगळ मोहराजनो बधो वृत्तांत कही संभळाव्यो. ते सांभळतां ज वरुण शेठ हृदयमां भयभ्रांत थई गयो अने तेने आ प्रमाणे कह्युं, "हे प्रभु, हे स्वामी, ए मोहराजना अनुयायीओ मारा पुत्रोने हजु आथी वधारे दुःख आपशे के केम ते कहो?" केवळी बोल्या, शेठ, हजु तो तेओए एक सर्षवना अंश जेटलुं ज दुःख आप्युं छे; परंतु आगळ जतां तो तेओ मेरुपर्वतना जेवडुं दुःख आपशे, ए खात्रीथी मानजो. दृष्टिराग वगेरेथी दुष्ट थयेला तेओ मृत्युने पामी जशे अने पछी परलोकमां दुःखनी परंपराने आपनारी प्रौढ दुर्गतिने प्राप्त थशे." गुरुनां आ वचनो सांभळी वरुण शेठ बोल्या, "प्रभु, हवे कोई एवो उपाय छे के जेथी तेओ वेदनारूप एवा संसाररूपी कूवामां पडे नहीं." केवळी भगवान् बोल्या, "हे श्रष्ठी, वैद्योथी जेम असाध्य व्याधि मटतो नथी तेम तेओए बांधेलुं निकाचित कर्म हाल अमाराथी जशे नहीं. तमे शीघ्र स्वहित करो. नकामी तेओनी चिंता करवाथी शुं वळवानुं छे? पोतानो आत्मा पोताथी ज तारी शकाय छे. बीजो तो फक्त निमित्तरूप बने छे, " ज्ञानी गुरुनुं श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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वासुदेव चरित्र - लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा
आवुं वचन सांभळी वरुण शेठे तेम करवा स्वीकायुं. पछी तरत ज घेर जई तेणे पोतानुं द्रव्यरूपी बीज सात क्षेत्रोमां वावी दीधुं, पछी पोतानी स्त्री साथे तेणे केवळी भगवाननी पासे दीक्षा लीधी अने ते विचारवान् वरुण मुनि निःसंग थई आ पृथ्वीना पीठ उपर विहार करवा लाग्या.
आ तरफ वरुण शेठना लक्ष्मीधर वगेरे पुत्रो मोहराजाना पुत्रोने वश थई गया. तेओ ए घर तथा वैभवने वहेंची लीधा, तेओमां दृष्टिरागने धारण करनार लक्ष्मीधरनुं सुख वगरनुं मरण केवी रीते थयुं, ते सांभळो - तेना घरमां त्रणसोने त्रेसठ नवा-नवा पाखंडीओ आववा लाग्या. कुदृष्टिना रागने वश थयेलो लक्ष्मीधर ओनी पासे जतो हतो अने तेमनो नवो नवो प्रभाव जोई तेमां रुचिवाळो थई जतो हतो. हवे जे पेलो तेनो मूळ गुरु थयेलो त्रिदंडी स्वामी हतो, तेना जाणवामां आवतां ते पोताना हृदयमां ईर्ष्याथी आकुळव्याकुळ थई आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो, "आ लक्ष्मीधरे मोक्षने आपनारो कुलधर्म छोडी दीधो अने केटलोएक वखत मारो भक्त थईने रह्यो, हवे इंद्र जाळना जेवो कांईक चमत्कार जोई ते 'चित्तने चलायमान करी बीजानो भक्त बनी गयो छे हवे मारी साथै वात पण करतो नथी, तो पछी ए वंचक मारी भक्ति करवामां दूर रहे एमां शुं कहेवुं ? तो हवे दुर्नयनुं फळ मारे तेने बताववुं जोईए." आवुं चिंतवी ते त्रिदंडी एक दर्भनुं पुतळं बनाव्युं. ते पुतळाने मंत्रेला लोढाना खीलाओथी वींधी अने कडवा अक्षरोथी शापना शब्दो लखी पृथ्वीनी अंदर दाटी दीधुं, ते ज दिवसथी मोटी शय्यामां सूई गयेलो लक्ष्मीधर उठतां ज गतिभंग थई गयो अने तेना अंग तथा उपांगमां एवी व्यथा थई के तेने बीजुं कांई काम सूज्युं नहि. आर्त्तध्यानमां तत्पर थयेलो ते मृत्यु पामी निगोदमां गयो अने त्यां ते मूढ बुद्धिवाळो जेनो दुःखे अंत आवे एवा अनंत काळ सुधी रहेशे, ते पछी लांबो वखत अव्यवहार राशिमां भटकरो. एम जाणीने दृष्टिरागनो यत्नथी सदा त्याग करवो जोईए.
आ तरफ वरुण शेठनो बीजो पुत्र सुंदर स्नेहरागथी सदा हर्ष वडे पुत्रनुं ध्यान धरी रह्यो हतो. ते पुत्र ज्यारे यौवन वयने प्राप्त थयो, त्यारे सुंदरे तेने घणुं द्रव्य खर्ची परणाव्यो. ते पण पोतानी प्रियामां आसक्त बनी गयो, तेथी ते पितानो अनादर करवा लाग्यो. पिताए छूपावी राखेलुं द्रव्य मेळववाने माटे ते पिताना चित्तने संतोष आपवा उपर उपरथी कांईक विनय करतो हतो. मूढ बुद्धिवाळा सुंदरे ते पुत्रनो आचार सुंदर जाणी भूमिमां रहेल निधान वगेरेनुं सर्व छूपुं द्रव्य तेने बतावी आप्युं. एक वखते पुत्र वधूए पोताना पतिने एकांतमां आ प्रमाणे
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रागद्वेष करवा उपर वरूणशेठना चार पुत्रोनी कथा कह्यु, तमारा कंपता करवाळा पिताए मारुं घर बगाडी मुक्युं छे. ते रात्रे वारंवार झाडो पिशाब करवाने माटे दुर्वार एवा घरना द्वारने सदा खखडाव्या करे छे, घरनी जमीन उपर कफ नाख्या करे छे अने सुवे, त्यारे घूर्पूर अवाज करी मुके छे. तेनो एवो गाढ शब्द थाय छे, के मने तेथी निद्रा आवती नथी. जो तमारा घरमा ए डोसो न होय, तो सारं थाय, तेने घरमांथी बहार काढीए, तो पछी आपणे बंने स्पष्ट रीते नक्की सुख भोगवीए." ते पुढे तेणीनुं सर्व वचन हर्षथी कबूल कयु. पछी तेणे सुंदरने घरनी बहार काढवा मांड्यो, पण ते घर बहार नीकन्यो नहीं, त्यारे एक वखते पुत्रे पोतानी स्त्री आगळ तेनो वृत्तांत जणाव्यो, एटले ते स्त्री बोली के, "जो ते घर बहार न नीकळे तो हुं तेने सारं अने पुष्कळ भोजन आपीश नहीं, तेनाथी ते दुर्बल थई जशे. पछी तमारे ते अनार्य पिताने गळे अंगुठो दबावी मारी नाखवो, ते सिवाय बीजो उपाय नथी." आq विचारी ते बंने स्त्रीपुरुषे तेम कयुं, पछी ते मृत्यु पामीने ते ज घरमां कूतरो थई अवतर्यो. हे विज्ञ, आ दृष्टांत जाणी तमारे स्नेहराग छोडी देवो.
हवे वरुण शेठनो त्रीजो पुत्र अर्हद्दत्त हतो. ते शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्शमां अति लुब्ध बनी रसवडे दिवसो निर्गमन करतो हतो. एक वखते ते अर्हद्दत्तने जेणीनो पति परदेश गयेलो हतो एवी कोई क्षत्रिय जातिनी स्त्रीनी साथे दुष्ट रोगना जेवो एक भावथी योग थई आव्यो. ते स्त्रीने स्वाद लागवाथी ते अर्हद्दत्तने पोताना घरनी बहार नीकळवा देती न हती, तेथी अर्हद्दत्तने मन रात्रि दिवस मोटी प्रतिकूळता लागती हती. जुदी जुदी वनिताने भोगववामां रागी बनेलो ते अर्हद्दत्त एक वखते तेणीना घरमांथी नीकळवा लाग्यो, त्यां तेणीए कोप करी बलात्कारे छूरीथी तेने घायल कर्यो. ते घातनी पीडाथी अतिदुःखी थयेलो ते नासीने पोताने घेर आव्यो, त्यां तेनी स्त्रीओए पूछ्युं के, "तमने आq विपरीत क्यां थयुं?" ज्यारे तेणे साची हकीकत कही नही, त्यारे ते सघळी स्त्रीओए विचार्यु के, "आ पुरुष स्वेच्छाथी ज्यां त्यां निरंतर भटकतो फरे छे अने पूछीए छीए त्यारे सत्य कहेतो नथी, तो पछी आवो पापरूपी पति शा कामनो? माटे आ सदा संताप करनारा पतिने सत्वर मारी नाखीए." आईं विचारी ते स्त्रीओए तेने लागेला घा उपर उग्र झेर नाख्यु, तेथी ते दुष्टबुद्धिना शरीर उपर अतिवेदना थई आवी. ते मृत्यु पामीने कोई चंडाळने घेर नपुंसक थई अवतर्यो त्यांथी च्यवीने त्रीजी नारकीमां नारकी थयो. ते पछी तिर्यंचनी योनिमां जई ते पुनः नारकी थशे. एवी रीते ते तिर्यंच अने नारकी घणीवार थया करशे. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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रागद्वेष करवा उपर वरुणशेठना चार पुत्रोनी कथा
वरुण शेठनो चोथो पुत्र नंद द्वेषथी घणा माणसो साथे कजीया करतो हतो. एक वखते पडोशमां रहेला कोई दुकानदारनी साथे तेणे कजीयो कर्यो. ते दुकानदारे लोढाना दंडथी तेना मस्तक उपर एवो घा कर्यों के जेथी ते मृत्यु पामी गयो अने क्रोधथी पहेली नरकमां नारकी पणे उत्पन्न थयो.
आ प्रमाणे रागद्वेषने वश थयेलां ते वरुण शेठना चारे पुत्रो मृत्यु पामी गया. आथी कांईपण आश्चर्य पामवानुं नथी पण विवेकी पुरुषे तो तेनो विचार करवानो छे. राग अने द्वेषने लईने मोटा यतींद्रो; सुरेंद्री, चक्रवर्तीओ अने नरेंद्रो पण दुर्गतिमां जाय छे, तो पछी बाकीना बीजानी शी वात करवी ? ते आगळ पण आ दुःसहअनंत संसारमां भम्या करशे, तेथी कार्यवेत्ता पुरुषे हंमेशां रागद्वेष करवा नही - रागद्वेषथी अळगा रहेवुं जोईए.
आ प्रमाणे गुरु शिक्षा आपेला तेणे (धनमित्रे) ते उपदेश अंगीकार करी स्थिर हृदये लांबा काळ सुधी चारित्र पाल्युं. केटलाएक शुभ काळ चाल्यो यो अने ज्या विकराळ काळ आव्यो त्यारे तेणे एक वखते भवांतरना अभ्यासथी अने कर्मनी विचित्रताथी गुरुए वार्या छतां पण एवं नियाणुं बांध्युं के, "हुं आ तपस्याथी बलीनो वध करनारो थाउं" ज्यां सुधी हृद पूर्वे सुवर्णवाळो छे त्यां सुधी हृदने एटले सुहृद्ने स्तवं छं. परंतु ज्यारे ते सुवर्ण अपूर्व थाय एटले अ अक्षर पूर्वे छे एवो थाय त्यारे ते असुहृत् (शत्रु) थई जाय छे. पछी ते क्रोधवडे शरीरने दमन करी अंतकाले अनशन लई मृत्यु पामी अच्युत देवलोकमां देवतारूपे उत्पन्न थयो. बली पण दीक्षा लई तेनुं चिरकाळ पालन करी सुखनी शय्या रूप एवा उत्तम देवलोकमां देवता थयो. त्यां बंने प्रकारना सुख भोगवी आयुष्यनो क्षय थतां त्यांथी च्यवीने आ भरतक्षेत्रमां आवेला नंदन नामना नगरमां यथार्थ नामवाळो समरकेशरी नामे राजा हतो. सुंदर आकृतिने धारण करनारी सुंदरी नामे तेने पत्नी हती तेणीना उदरमां बलिनो जीव अवतर्यो, ते जनम्या पछी अनुक्रमे पिता समरकेशरीए पोताना मुखथी तेनुं नाम मेरक पाड्यं ।। ९०० ।। ते अनुक्रमे साठ धनुष्यनी कायावाळो, साठ लाख वर्षना आयुष्यवाळो अने राजाओने नमाडनारो प्रतिवासुदेव थयो. त्रण खंडोनो भोक्ता अने संपत्तिने जोडनारो ते प्रतिवासुदेव मेरक पोताना दोषोना समूहने छोडी एक छत्रवाळं अने सन्मित्रोवाळं क्षत्रिय राज्य करवा लाग्यो.
आ अरसामां आश्चर्योना विलासवाळा आ भरतक्षेत्रमां शत्रुओथी नमावी शकाय नहीं तेवी द्वारिका नामे नगरी हती. तेनी अंदर कल्याणोना विलास श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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___ स्वयंभू वासुदेवनुं चरित्र करनारो रुद्र नामे महान् राजा हतो. तेने सुप्रभा अने पृथिवी नामे बे उत्तम स्त्रीओ हती. पेलो जे नंदिसुमित्र हतो तेनो जीव अनुत्तर विमानमांथी च्यवीने उत्तम प्रभावती सुप्रभा राणीनी कुक्षिमां अवतो. ते समये चतुर सुप्रभा राणीए बलदेवना जन्मने सूचवनारा, दुःखने वारनारा अने अर्थने आपनारा चार महास्वप्नो अवलोक्या. पछी अनुक्रमे ते सुप्रभा राणीए उत्तम लग्र प्रमुखना योगवाळा शुभ दिवसे पवित्र
अने कांतिथी उज्ज्वळ एवा पुत्रने जन्म आप्यो. रुद्र राजाए ते पुत्रनुं नाम भद्र पाड्युं. रुद्र माथी भद्र उत्पन्न थाय ए अहिं आश्चर्य बन्युं हतुं. पेलो जे धनमित्र हतो तेनो जीव जनमित्रना स्नेहने लईने अच्युत देवलोकमांथी च्यवीने रुद्र राजानी बीजी पृथ्वी राणीना गर्भमां आव्यो. सुखे सुतेली पृथ्वी राणीए वासुदेवना जन्मने सूचवनारा अने दुःखमांथी मूकावनारा सात महास्वप्नो जोयां. समय प्राप्त थतां पृथ्वी राणीए श्याम अंगवाळा, शुभ लक्षणोथी युक्त अने उत्तम चातुर्य भरेला ऐश्वर्यथी प्रख्यात एवा एक पुत्रने जन्म आप्यो. रुद्र राजाए हर्ष पामी सज्जनोने राजी कर्या अने विधिवडे ते पुत्रनुं नाम स्वयंभू पाड्यु. लीला अने पीळा वस्त्रोने धारण करनारा ते भद्र अने स्वयंभू बंने पुत्रो हर्षवडे धात्रीओ (धाव्यो)थी पालन थतां अने लोकोथी लालन पामतां उछरी मोटा थवा लाग्यां. श्वेत अने कृष्ण वर्णवाळा ते बंने चिरंजीवी गंगा अने यमुनाना प्रवाहोनी जेम हमेशां साथे रहेता हता.
___एक वखते ताड अने गरुडना चिह्नवाळा ते बंने बंधुओ नगरनी बहार आवेला उद्यानमा साथे गया. त्यां घणां द्रव्योथी भरपूर एक मोटा लश्करनी छावणी तेमना जोवामां आवी. ते जोई भद्र बळभद्रे पोताना भाई स्वयंभू वासुदेवने कर्तुं, "बंधु, जुवो, आ कोई राजानु रत्नयुक्त, सुशोभित अने विभूषित शरीरवाळु मोटुं कटक पडेलु छे." आ सांभळी स्वयंभू वासुदेवे कह्यं "फक्त घासना आहार उपर आश्रय लेनारा लोकोमा आ वननी अंदर आQ कटक कोर्नु हशे? ते कांई समजातुं नथी." स्वयंभूनां आ वचन सांभळी मंत्रीनो पुत्र तेनी बधी खबर मेळवी लाव्यो अने तेणे वासुदेवने आ प्रमाणे कां, "शशिसौम्य राजाए प्रतिवासुदेव मेरकनी उपर हाथी, घोडा वगेरेनुं आ मोटुं सैन्य एक मोटा दंडरूपे मोकल्युं छे." ते सांभळी स्वयंभू वासुदेवे ते मंत्रिपुत्रने क, ""क्षमाधारीओना करमां दंड शोभाने प्राप्त करे छे." ते सांभळी मंत्रिपुत्रे पुनः जणाव्युं, "अहो! राजकीय 1. अहिं एवो अर्थ छे के. जे क्षमाधारी-राजाओ होय छे, तेमना करमां दंड-शिक्षा शोभी उठे
छे. बीजो अर्थ-जे क्षमाधारी-मुनिओ होय छे. तेमना करमां दंड-दांडो शोभे छे. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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स्वयंभू वासुदेव चरित्र व्यापारमां थयेलो आ चक्रवर्तीओनो दंड पण शोभाने आपनारो थाय छे, तो पछी आपणे पोते ज राजापणुं अने चक्रवर्तीपणुं ग्रहण करी लईए. आवा आवी पडेला आ दंडनो त्याग शी रीते करी शकाशे?" मंत्रिपुत्रनां आ वचनो सांभळतां ज तरत ते बंने भद्र अने स्वयंभूए पोताना उग्र सुभटोने आ प्रमाणे आज्ञा करी के, "आ सैन्यमां जेटलुं होय, ते बधुं बळात्कारे लई ल्यो." तेमनी प्रेरणाथी निरोध वगरना ते योद्धाओ क्रोध लावी विविध प्रकारना हथियारो लई एवा छूट्या के तेओए सामे युद्ध करवा आवेला सुभटोने बांधी लीधा अने हर्षथी ते सैन्यनुं सर्वस्व खेंची लीधुं. तेओमांथी केटलाएक मुख्य पुरुषो जीव लईने नासी गया अने तेमणे आवीने मेरक प्रतिवासुदेवनी आगळ ते वृत्तांत जाहेर कर्यो. ते सांभळी प्रतिवासुदेव मेरक क्रोधातुर बनी पोताना ताबाना राजाओने आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो, "अरे राजाओ, आजे सुता सिंहने बळात्कारे कोणे जगाड्यो? अथवा आ सुतेला सर्पना मुखमां कोणे लाकडी नाखी? अने निरांते बेठेला वाघनी पासे जई 'हे वत्स! एम कोणे कडं? जे पुरुषे स्थानमा रहेला एवा मने सुखे भेट धरवानी आ योजना करी छे; ते पुरुषे पोतानुं सर्व अहित ज कयुं छे, जेम कीडीओने पांखो आवे ते तेमना मृत्युनुं कारण थाय छे, तेवी ज रीते मारो दंड ग्रहण करवा माटे ते पुरुष, आ पराक्रम बन्युं छे." प्रतिवासुदेव मेरकनां आवां वचनो सांभळी मंत्री बोल्यो, "महाराजा, एवो तो कोई बुद्धिनो भंडार रुद्र राजा जाग्यो छे. 'द्विजिह्व पुरुषोथी युक्त एवो ते रुद्र क्यां? अने बुधजनोथी युक्त एवा तमे क्यां? ते रुद्रने बे पुत्रो छे अने तमारे अनेक विवेकी पुत्रो छे. ए रुद्र पितृगृहमां स्थायी रहेनारो छे अने तमारो वास सर्व स्थळे छे. ते रुद्र विषादी छे अने तमे प्रमोदी छो. ते रुद्र हर छे अने तमो रमाकर छो अने ते रुद्र तपस्वी छे अने तमे नरेश छो, तेथी तमारा बंनेनी तुल्यता थई शकती नथी. जो पराक्रम बतावq होय तो जे पोतानो समोवड होय तेने बतावq पण जे पोतानाथी अधिक 1. द्विजिह्न एटले सर्पो, पक्षे बोल्युं फेरवनारा दुर्जनो. रुद्र-महादेव सर्पोथी युक्त होय छे, पक्षे रुद्रराजा दुर्जनोथी युक्त छे. 2. अहिं रुद्रनो बीजो अर्थ महादेव लागु पाडयो छे. रुद्रमहादेवने गणेश अने कार्तिकेय नामे बे पुत्रो छे. रुद्रराजाने पण बे पुत्रो छे. रुद्र-महादेव पितृगृह-स्मशानमा स्थायी रहेनारो छे. रुद्रराजा पोताना पिताना गृहमां-राज्यमां स्थायी रहेनारो छे अने तमारो वास सर्व स्थळे छे एटले तमे मोटा राज्यना भागमां व्यापी रह्या छो. रुद्र-महादेव विषादी-विषने भक्षण करनार छे, रुद्रराजा विषादी-खेदातुर रहेनार छे अने तमे प्रमोदी-हर्षवाळा छो. रुद्र-महादेव हर-हरण करनार छे अने तमे रमाकर रमालक्ष्मीना-आकर-खाणरूप छो अथवा रमा छे कर-हाथमां जेने तेवा छो.
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स्वयंभू वासुदेवनुं चरित्र होय तेने बतावq नहि. सिंह पोतार्नु पराक्रम मृग उपर बतावे छे, पण ते अष्टापद उपर बतावतो नथी. लोकोना आधाररूप एवो मेघ चडी आवतां तेनी सामे पोता पराक्रम बतावनारो अष्टापद प्राणी तेवी दुर्बुद्धिथी मृत्यु ज पामे छे. हाथीनी साथे पोताना शरीरनुं माप करनारा सिंहनी जेम जे पुरुष अल्पवीर्यवाळो थई वीर्यवडे अधिक माननी इच्छा राखतो होय तेने अटकाववो जोईए, तेथी हुं प्रथम त्यां जईने तेमना चित्तनी परीक्षा करी लावं, ते पछी आपने आदर पूर्वक जे योग्य लागे, ते कार्य करवू; कदि तेणे अज्ञानने लईने अथवा क्रीडाने लईने तमारी भेट लीधी हशे, तो हुं तेथी बमणी भेट पाछी लावी शकीश. जो कदि गोळ आपवाथी मरण पामतो होय, तो तेने विष आपी शा माटे मारवो? शास्त्र पण कहे छे के, "युद्धनी गति विषम छे" कोईवार एक ठीकरीथी पण घडो भांगी जाय छे. राहु केवळ मस्तक रूप छे, छतां सूर्य अने चंद्रनो ग्रास करे छे. कां छे के, 1"जे माणस पोता सामर्थ्य जाण्या वगर शत्रुनी साथे वेर बांधे छे, ते एक टीटोड़ा पक्षीथी समुद्रनी जेम पराभवने पामे छे; तेथी हे राजेंद्र! ए बंने राजाओ कांईक पराक्रमी छे; एम लोकोमा संभळाय छे, परंतु ज्यां सुधी हुं मारी दृष्टिए जोउं नहीं, त्यां सुधी मने प्रतीति आवे नहि माटे आप हृदयमां धीरज राखो अने मने आज्ञा आपो; "विमृश्य कार्यकरणं, शरणं सर्वसम्पदाम्" विचारीने करेलु कार्य सर्व संपत्तिओनुं शरण रूप बने छे." आवां वचन सांभळी मेरके पोताना तेज मुख्य मंत्रीने रुद्रराजानुं बधुं बळ जाणवाने द्वारिका नगरीमां मोकल्यो. तत्त्वोनो साररूप अने गुणोनो आधार रूप ते आदेश गुरुनी जेम प्राप्त करी मंत्री द्वारिका नगरीमां गयो. त्यां प्रतिहारे प्रवेश करावेलो ते मंत्री भद्र अने स्वयंभू साथे रहेला रुद्र राजाने नमी योग्य स्थाने बेठो. पछी राजाना पछवाथी ते आ प्रमाणे बोल्यो, "राजन्, राजा शशिसौम्ये हित रूप भेट मोकली छे. बहारना भयने लईने तेने मध्ये लाववामां आवी तेटलुं सारं कयु, परंतु हाल अर्धचक्री मेरक राज्य करे छे, तेथी जो कोई अन्याय करे, तो ते अन्यायने सहन करी शके तेम नथी, कदि कोई पोताना घरमां रही अन्याय करे, तेथी शुं थ? आ पृथ्वी उपर श्वान पण पोताना घरमां बलवान् थाय छे, परंतु तेना गृहस्थानमां हरिणोने कोई दाखल करे अने कदि ते पाछो पोतानी माताना उदरमा प्रवेशी जाय तो त्यां पण ते रही शकवानो नथी, कारण के मेरकना नामथी गर्भिणी स्त्रीओना गर्भ पण गळी जाय छे, तेनी पासे वेगवाळु हरिण पण नासीने जई शके तेम नथी. तेना 1. शत्रोः सामर्थ्यमज्ञात्वा, वैरमारभतेऽत्रयः, स पराभवमाप्नोति, समुद्रष्टिटिटादिव ॥१४०।। श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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स्वयंभू वासुदेव- चरित्र भयने लईने पुरुषो क्यां जईने निश्चिंत रही शके तेम छे? कारण के जुवो, ते महाराजा मेरक अर्धचक्री थयेला छे. कदि जो कोई पोताना मननी कल्पनाना गर्वथी तेनी सामे थाय तो ते जरूर समुद्रमा साथवानी मुष्टिनी जेम छिन्नभिन्न थई जाय छे. मंत्र तथा तंत्रमां चतुर एवा ते मेरकने जोईने 'द्विजिह्व-सर्प पण पोतानुं मुख फाडवाने समर्थ थई शकतो नथी, तेथी आपना आ राज्य उपर कोईपण अन्यायी राजा आवी शके नहि, तेवा लाभने माटे आप शंका छोडी दई अमारा राजा मेरकने बमणो दंड आपो." आवां वचन सांभळी स्वयंभूए ते उत्तम मंत्रीने आ प्रमाणे कडं, "अरे! तुं जे कहे छे, ते उपरथी तुं वधारे बोलको लागे छे, तेथी तुं जड हृदयवाळो छे. जो तारे ठेकाणे कोई बीजो होत, तो हुं तेने शिक्षा आपत; पण तुं दूत, पण तुं दूतरूपे विशिष्ट रूप छे, तेथी हमणां तुं वध करवाने योग्य नथी. अरे! अमारा पिताने माटे शुं कहेवू? परंतु अमो ए ज बधुं ग्रहण करी लीधेलुं छे, कारण के राजपुत्रोने एवो कुळ क्रम चाल्यो आवे छे. तुं स्थिर थईने जो के, अमोए केटलुं छीनवी लीधुं छे? हजु अमो तो बधी पृथ्वी लई ले|, कारण के आ पृथ्वी वीरभोग्या छे. वनमा जेम एकलो पण सिंह गजेंद्रोना युथने हणे छे अने सूर्य पण ग्रह वगेरेना उत्तम तेजना समूहने टाळी नाखे छे, तेवी रीते हुँ एकलो पण रणभूमिना आंगणामां सर्वे स्वेच्छाचारी शत्रुओने हणी नाखीश. तो जो मारी साथे भद्र होय तो तेनी शी वात करवी? मारा पिता अने मारा ज्येष्ठ बंधु जेने माटे पोतानं स्वाभाविक बळ दर्शावे तेवो मेरक तो शा हिसाबमां छे? स्वयंभू तो पोते पीडा रहित बनी आ पृथ्वीना भारने पोतानी जाते ज ग्रहण करी ले तेवो छे. कोई पण वडिल वगेरे दया लावीने तेने आपे एम नथी. आ भरतार्द्ध पूर्वे पण तेना बापदादानुं न हतुं, तेणे पोतानी भुजाना बळथी लीधुं छे, हुं पण तेवी ज रीते ग्रहण करी लईश. देडकाना जेवा बीजा अनेक पुरुषोने मारवानी शी जरूर छे? हुं तो ते सर्पना जेवा एक राजाने ज भुजबळथी मारी नाखीश." आवा तेनां वचनो सांभळी मंत्री भयभ्रांत हृदयवाळो थईने तत्काळ त्यांथी चालतो थयो. अग्निनी पासे वाघ पण रही शकतो नथी.
आ सर्व वृत्तांत ते मंत्रीए एकांते आवी पोताना राजा मेरकने कह्यो, आथी ते पवनवडे अग्निनी जेम क्रोधथी प्रज्वलित थई गयो. तरत ज तेणे निशाननो नाद करी प्रस्थान मंगळ कयु. प्रधानोए घणो वारवा मांड्यो तो पण ते द्वारिका उपर चालतो थयो. आ समये हर्षथी युद्धमा जवा तैयार थयेला पोताना 1. द्विजिह्व-सर्प पक्षे दुर्जन.
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स्वयंभू वासुदेवनुं चरित्र पुत्रने कोई माता कहेवा लागी के, "पुत्र, हुं पूर्वे वीरपत्नी कहेवाती तो तुं हवे मने वीर प्रसू-वीर पुत्रने जन्म आपनारी कर." कोई प्रेमी पत्नी पोताना पतिने कहेवा लागी के, "स्वामी, जगत्नी स्त्रीओने आश्चर्य करनारी हुं वीरपुत्री तो छु, हवे तमारे रणभूमिमां एवं काम करवू के जेथी मारी ख्याति एक वीरपत्नी तरीके थाय. तमारे घरनी कांईपण चिंता करवी नहिं. तृष्णाने हरनारी, हाथमां अमृत धरनारी अने संतापनो समूह निवारनारी थईने हुं जीवितमां अने मरणमां पण तमारा पृष्टने छोडीश नहि." आ वखते कोई वृद्ध पिता रणभूमिमां जवानी इच्छा करतां तेना युवानपुत्रे अंजलि जोडीने आ प्रमाणे तेने कर्दा, "तात! आवा वृद्धपणामां रणभूमिनी दीक्षा लेवी मुश्केल छे, तेथी आपने घेर ज रहेवू ठीक छे. हुँ सशक्त होवाथी युद्धमा जईश." कोई पिताए पुत्रने कयुं के, "वत्स, तारी वार्ता तो रही, पण आपणा बधा कुळनी लाज आणजे-राखजे." रणभूमिमां कायर थयेला कोई बंधुने तेना बंधुए कह्यु के क्षत्रियोने 'धारातीर्थ ज तेना पापोने हरनारुं छे. स्त्रीना मोहने लईने घेर रहेवानी इच्छा करनारा कोई पुरुषने बीजाए कह्यु के, "ए अबळा स्त्री कोण मात्र छे? रणभूमिमां मरवाथी स्वर्गनी घणी स्त्रीओ तने वरशे." द्रव्यना मोहथी घर छोडवाने अशक्त एवा कोई पुरुषने बीजाए कह्यु के, "ए द्रव्य तो नजीबुं छे, युद्धमां तो तने दिव्यलक्ष्मी प्राप्त थशे." आ प्रमाणे विविध-आलापोथी प्रेरायेला सुभटो पोताना घर छोडी युद्ध करवाने माटे रसवडे एकाग्र मनवाळा थई चालता थया. कुंभस्थळरूप गंडशैलवाळा अने मदना झरणाथी मनोहर एवा अनेक गजेंद्रो जाणे जंगम पर्वतो होय तेवा देखावा लाग्या. फीण सहित विविध प्रकारना आवर्त्तवाळा वेगथी पृथ्वी उपर व्याप्त थता एवा घोडाओ जाणे समुद्रना तरंगो होय तेम पृथ्वीमां प्रसरवा लाग्या. घोटक-घोडानी आली-श्रेणीवडे युक्त अने उत्तम-अजिरथी विभूषित एवा रथो जाणे चालता घरो होय तेम तत्काळ चालवा लाग्या. 'फलनी इच्छावाळा, शाखा साथे मळेला अने स्तोकलोभी एवा पेदलो वानरनी जेम उछळता चालवा लाग्या.
आ प्रमाणे आवता मेरक राजाने हेरूलोकोना कहेवाथी जाणी लई 1. खड्गनी धार उपर मरवू ते धारातीर्थ. 2. गंडशैल एटले पर्वत पक्षे मोटा पथरा. 3. पर्वतपक्षे पाणीना झरणां. 4. आवत-एक जातनी घोडानी शरीरपरनी निशानी अथवा याळ. तरंगपक्षे आवर्त एटले घुमटी. 5. घोटक-घोडा अने बरपक्षे ओरडा. 6. अजिररणभूमि अने घरपक्षे आंगणुं. 7. पेदलपक्षे विजयन फळ. 8. पेदलपक्षे टुकडी. वानरपक्षे डाळीओ. 9. स्तोक-थोडं वानरपक्षे गुच्छ. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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स्वयंभू वासुदेवनुं चरित्र स्वयंभू वासुदेव पोताना बंधु भद्रकनी साथे तेनी सामे सुखे चडी आव्यो. ते पोताना देशना सीमाडा उपर जईने बल सहित उभो रह्यो. ते वखते पोताना सैन्यने प्रेरतो मेरक पण त्यां आव्यो. ते समये सभामां घणो आदर पामनारा धीर नरोए वीरनी आज्ञाथी शत्रुओनो क्षय करवा देवनी साक्षीए रणभूमिनो आश्रय कर्यो. बंने सैन्य कलि (रण) कर्मवडे युक्त थई एकठा मल्या. तेवामां शत्रुओए जेमां दुर्जनता बतावी छे एवं पोतानु केटलूक सैन्य दीनता पामेलं जोई विचक्षण एवा स्वयंभूए पोते पोतानी सुजनता दर्शावनारो शंख फुक्यो. ते सांभळतां ज सिंहनो बुबारव सांभळी जेम सर्व गजेंद्रो त्रास पामे, तेम मेरकना योद्धाओ रणांगणथी त्रास पामी गया. ते वखते देवता जेवो अति बलवान एवो मेरक ते युद्धमां सर्व शस्त्रो साथे एकलो टकी रह्यो. स्वयंभू अने मेरकनी वच्चे दंडादंडी, खड्गखड्गी, केशाकेशी अने शराशरि युद्ध चाल्यु. तथापि अति बलवान् स्वयंभूनो युद्धमां भंग न थयो; त्यारे अर्धचक्रीए पोताना शत्रुनो नाश करनारा चक्रनुं स्मरण कयु. तेना पापनो उदय थतां पण कांतिना पात्र रूप अने शत्रुओनी उत्तम लक्ष्मीने छेदनारं ते चक्र स्मरण करतां ज तरत तेना हाथमां आवी हाजर थयु. वैरीओना चक्रने भय आपनारुं ते चक्र हाथमां आवेलुं जोई हर्ष पामेला मेरके बलवाळा स्वयंभूने कहूं, "अरे! तने 'बंने रीते बाळक जाणीने में आटली वार फक्त क्रीडामात्र युद्ध कयुं हतुं, हवे साचुं युद्ध करुं छु. आजे हुं तारुं मस्तक छेदी नाखीश, तेथी तुं तत्काळ नाशी जा. बाळकोने अने चोरोने नासवामां शी लाज होय?" स्वयंभू बोल्यो, "जो तें क्रीडायुद्ध कयुं होय, तो तुं पोते ज बाळक ठर्यो. कारण के क्रीडा करवी ए बाळकनुं कार्य छे अने कारणमांथी कार्य थवानो संभव छे. शत्रुओनी लक्ष्मीने ग्रहण करनारा धीर पुरुषो जो चोर कहेवाता होय, तो तुं चोर पण छे. कारण के तने कोणे लक्ष्मी आपी छे? तेथी तुं आ चक्र छोडीने चाल्यो जा. पाछळथी जई शकीश नहिं. आज चक्र ज्यारे हुं छोडीश, त्यारे तारो अंत आवी जशे. कदि ए चक्रनो तने मनमां घणो गर्व होय तो ते छोड के जेथी आपणा बंनेनं बलाबळ जाणवामां आवे." आ वचनो सांभळी मेरके राज्यने आपनारा 'स्वचक्रनी जेम हाथमा रहेढं ते चक्र स्वंयभूनो वध करवा माटे फेरवीने छोड्यु. ।।१०००।। ते छुटेलुं चक्र स्वयंभूना हृदयमा लाग्युं, ते घटित ज थयु. कारण के सत्-पुरुषोने ईष्टजननो प्रथम मेळाप थतां एम ज बने छे एटले ईष्टजन प्रथम हृदयमां लग्न थई जाय छे. ते चक्र कठोर होवाथी स्वयंभूने ते 1. वयथी अने अज्ञानपणाथी एम बे रीते बाळक. 2. स्वचक्र एटले पोतानो पक्ष.
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.. स्वयंभू वासुदेवनुं चरित्र लागतां क्षणवार मूर्छा आवी गई. जेम श्रेणिक राजानो मेलाप थतां शालिभद्रने मूर्छा आवी हती, अथवा ते मूर्छा न हती पण स्वयंभूए पोताना बे नेत्रो मींचीने एवं ध्यान कयुं हतुं के, "अहो आ चक्र केव॒ अद्भुत छे?" एवो विचार करी राजाए ते चक्रने पोतानो जमणो हाथ आप्यो अने ते बंनेए यावज्जीवित हितकारी सहृद्भाव अंगीकार को. ते पछी स्वयंभूए चक्रने कयुं के, "ज्यां सुधी तुं शत्रुना सैन्यमां जई कांई पण कार्य न करे त्यां सुधी मने तारो विश्वास हृदयमां आवतो नथी." ते सांभळी चक्रे उत्तर आप्यो, "स्वामिन्, हुं ज्यारे शत्रुना सैन्यमां जई तेना मुख्य राजानुं मस्तक छेदी तेनुं सात अंगवाळू राज्य लावी आपुं, त्यारे तमे मने खरं मानजो, परंतु हवे मने जलदी मोकलो. "शत्रुछेदे विलम्बो न, गदितो न्याय कोविदः ।।" न्याय प्रवीण पुरुषोए शत्रुने मारवामां विलंब करवो ठीक कहेलो नथी." चक्रनां आवां वचनो सांभळीने डाह्या राजाए पोताना हृदयमां विचायु के, "आ मारा शत्रुभंजन चक्रने हवे एकवार तो मोकलं." पछी स्वयंभूए मेरकने कडं के आ चक्र तने प्राण प्रिय छे, तेथी ते तारी पासे आव्यु छे, ते तारा प्राण लईने आवशे. माटे तुं जीव लईने दूर चाल्यो जा, शा माटे वृथा मृत्यु पामे छे? पोतानी जातने माटे पृथ्वीने पण छोडी देवी, एम सत्पुरुषोए कहेलं छे. हमणां तारा प्राण मारा हाथमां छे, जो हुं जीवाहूं तो ज तुं जीवी शके, ते सिवाय जीवी शके नहिं." स्वयंभूनां आवा वचन सांभळी मेरक बोल्यो-अरे! तुं विचार कर के जो आ चक्र मारुं न होय तो पछी तारुं शी रीते थशे? जे स्त्रीओ पोताना पतिने वश रहेती नथी, ते स्त्री बीजा जार पुरुषने वश थई शी रीते सुखदायक थाय? तेथी तुं आ चक्र मारी उपर छोडी दे. अन्यथा कल्पना करीने खेद पामीश नहिं." मेरके आ वचनो कयां, एटले स्वंयभूए फेरवीने ते चक्र आदरपूर्वक छोडी दीधुं. तत्काळ तेणे मेरकना मस्तकरूपी कमळने छेदी नाख्यु. ते ज वखते स्वयंभूनी उपर आकाशमाथी पुष्प वृष्टि पडी अने मेरकनुं धड पृथ्वी उपर पड्यु. मेरकनी सेनाए पछी स्वयंभूनो आश्रय लीधो. जान तो एज रही, परंतु फक्त तेनो वरराजा बीजो थयो.
ते पछी स्वयंभू ते चक्रने अनुसरी तेनी पाछळ चाल्यो अने तेणे भरतार्द्धने साधी लीधुं. ज्यारे ते मगध देशमां गयो, त्यां कोटी मनुष्योथी उपाडी शकाय तेवी एक कोटिशिला तेना जोवामां आवी. इंद्रना जेवा पराक्रमवाळा ते स्वयंभूए एक योजन पहोळी अने विस्तारवाळी ते कोटि शिलाने पोताना डाबा हाथवडे रमतमां उपाडी लीधी. पुनः बळवानोने पोता अतुल बळ दर्शावता ते श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुने प्राप्त थयेल केवळज्ञान स्वयंभू वासुदेवे ते शिलाने पाछी त्यां मूकी दीधी अने पछी थोडा दिवसे ते द्वारकामां आवी पहोंच्यो. त्यां चक्र, खड्ग, धनुष्य, शंख, वनमाळा, गजेंद्र अने मणि-ए सात प्रभावी रत्नो तेने प्रगट थया; ते सिवाय बीजी चक्रवर्तीनी अर्ध समृद्धि पण तेने प्राप्त थई कारण के "पुण्यानुसारतो लक्ष्मीर्जीवानां जायते" जीवोने पुण्यानुसारे लक्ष्मी प्राप्त थाय छे. पछी सर्व राजाओथी वीटायेला रुद्रे पोताना बंधु भद्रनी साथे ते स्वयंभूने वासुदेवपणानो अभिषेक कर्यो. जाणे जंगम निधान होय तेवा तेणे कोईने दान आप्युं, कोईने दान तथा मान आप्या, कोईने आदरथी स्थान आप्यु अने कोईने जंगम निधान जेवं प्रधान वाहन आप्यु. खरेखर! जे ईष्टदान छे, ते सर्वेनुं मुख्य वशीकरण छे. वासुदेव स्वयंभूए राजधर्मथी लोकोना अने जिनधर्मथी धर्मीओना अन्यायने दूर करी सारो यश प्राप्त
को.
आ अरसामां बे वर्ष सुधी विहार करी श्री विमलनाथ प्रभु विचरता विचरता ते पोताना दीक्षास्थानमा पुनः आवी चड्या. ते प्रभु ममता रहित, अहंकारथी वर्जित, क्रोधरूपी योद्धानो त्याग करनार मायारूपी स्त्रीथी रहित, लोभना क्षोभथी वर्जित, मोह, द्रोह तथा मद वगरना, हास्य, लास्य, रति, अरति, शोक, अविरति अने भीतिथी मुक्त, लीला, प्रमीलावडे विषम एवा काम रतिमां अनासक्त, प्रतिबंधना त्यागी, विरागी, निःस्पृह, सहन करनार, जुगुप्सा, क्रीडा, कलह, अने द्वेषना योगथी रहित, खेद, प्रमाद, आर्तस्वर, विवाद अने स्वादने वर्जनारा, मौनधारी, ज्ञानी, सदाध्यानी, सुंदर संतोषना पोषक, अप्रमादी जनोने आनंद आपनार, परीषहोने जीतनार, अष्टांगयोग सहित, भववासथी वियुक्त, शत्रु तथा मित्रमा समान चित्तवाळा, शुभकर्ममां प्रवर्तेला अने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, क्षमा, दया, मार्दव, सरळता, वैराग्य, मुक्ति, सत्य, पराजय, शौच, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, संयम, बुद्धि, भावना, संवर, उदारता अने निर्जरा वगेरे जे अनुत्तर गुणो कहेवाय छे, ते वडे पोताना आत्माने भावनारा हता. तेवा विमलनाथ प्रभु सहस्राम्रवनमां पधारी त्यां आवेला एक जंबूवृक्षनी नीचे शुद्ध स्थानमा छट्ठ तप करी स्थिर थई प्रतिमाने वहन करता (काउस्सग्गध्याने) रह्या. त्यां अपूर्व करणमा रही क्षपक श्रेणीने प्राप्त थयेला प्रभुए क्षीणमोह गुणस्थाननो अंत करी घातिकर्मोनो उच्छेद कर्यो. पछी शुक्लध्याने रहेला प्रभु पौष मासनी शुक्ल षष्ठीने दिवसे चंद्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमा आवतां केवळज्ञानने प्राप्त थया. हवे ते जगत्पति प्रभु सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थया, तेथी तेओ त्रिकाळ विषयने
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श्री विमलनाथ प्रभुने प्राप्त थयेल केवळज्ञान जाणनारा अने लोकालोकने प्रकाश करनारा थया. देवाधिदेव प्रभु भूमि उपर रहे अने इंद्रो आसनो उपर रहे ते घटित नथी, तेथी ते समये इंद्रोना आसनो कंपायमान थया. ते पछी घंटाओना नादथी सर्व देवताओने जाण करी उत्तम इंद्रो प्रभुने नमवा माटे आदरवाळा थया. सौधर्मेंद्रे स्मरण कर्यु एटले अरावणदेव तरत गजेंद्र थईने तेनी पासे हाजर थयो. तेनो सुंदर देह एक लाख योजननो हतो. तेनो वर्ण श्वेत हतो. सोनेरी पट्टावाळा जेमना ललाट छे एवा आठ वदनो तेणे धारण कयाँ हता. ते दरेक वदन उपर आठ-आठ दंतूशळ हता. दरेक दंतूशळ उपर आठ-आठ वावडीओ हती. दरेक वावडी उपर तेटला कमळो अने दरेक कमळ उपर आठ-आठ दल (पत्रो) अने दरेक दल उपर आठ-आठ नाटको थता हतां. ते दरेक नाटकमां बत्रीश-बत्रीश पात्रो हता. सौधर्मेंद्र ते हर्षना स्थानरूप सुंदर उंचा हाथी उपर परिवार साथे आरूढ थयो. पछी ते गजेंद्र देव गगनमार्गे चाल्यो. जेने जोईने लोको मनमां कैलासपर्वतनी शंका करता हता. अनुक्रमे पोताना देहने पूर्वना पालक विमाननी जेम संक्षिप्त करतो ते प्रभुना संगथी पवित्र एवा सहस्त्राम्रवनमां आव्यो. स्फुरायमान एवा मोटा प्रधान शृंगारना समूहने धारण करनारो सौधर्मेंद्र प्रमाद रहित थई ते गर्जारव करनारा गजेंद्र उपरथी उतरी पड्यो. बीजा पण भद्रिक इंद्रो नृत्य अने गायनथी प्रकाशित एवा बीजा देवताओनी साथे पोतपोताना वाहनोथी त्यां आव्या. ते समये वायुकुमार देवताओए स्व मर्यादा मुजब पोतानी मनोवृत्तिनी जेम त्यां योजन प्रमाण भूमिने शुद्ध करी. पछी उत्तम मेघकुमार देवताओए विश्वने पवित्र करनारा सुगंधी जळवडे पोतानी जेम छंटकावथी 'रजने शांत करी दीधी. पछी उच्च आकृतिवाळा अने विकारोनी श्रेणीथी रहित एवा व्यंतरदेवताओए रत्न जडित सुवर्णवडे ते पृथ्वीने बांधी लीधी. अने विचित्र वर्णनी शोभावाळा अने सरस एवा खीलेला उन्मुख पुष्पोवडे ते भूमिने शणगारी. पछी वैमानिक, ज्योतिषी अने भुवनपतिओए अनुक्रमे रत्न, सुवर्ण अने रूपाना त्रण वप्र (गढ) काँ. उंची जातना त्रण रत्नोना आश्रयरूप एवा ते त्रण वप्रोने विषे अनुक्रमे मणिमय, रत्नमय अने सुवर्णमय एवी जातना कांगराओ थया ते दरेक वप्रने चार-चार दरवाजाओ शोभी रह्या. ते दरवाजाना दरेक द्वारे धूपघटी पूर्णकुंभ अने ध्वज, तेमज भूपीठ उपर अष्टमंगळ, जलथी भरेली वापिकाओ अने पुतळीओना समूहथी युक्त एवा उत्तम तोरणो पण शोभी रह्यां. रूपाना वप्रने दश हजार अने पवित्र एवा सुवर्ण अने रत्नोना वप्रने पांच-पांच हजार सोपान 1. रज एटले पक्षे रजोगुण. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुने प्राप्त थयेल केवळज्ञान हता रत्नमय वप्रना पूर्व द्वारमा सोनेरी वर्णना बे वैमानिक उत्तम देवताओ प्रतिहार थईने शुभभावथी उभा रह्या हता. दक्षिण द्वारमां बे शुक्लवर्णना व्यंतर देवताओ, पश्चिम द्वारमां बे रक्तवर्णना ज्योतिष्क देवताओ अने उत्तरद्वारमा बे कृष्णवर्णना भुवनपतिदेवताओ द्वारपाळ थईने रह्या हता. सुवर्ण वामां अनुक्रमे पूर्वादि चार दिशाओना द्वारमां जया, विजया, अजिता अने अपराजिता नामे चार देवीओ हथीयार उगामी रही हती. रूपेरी वप्रमा प्रत्येक द्वारे खट्वांग, तुंबरू, जटा, किरीट अने माळाने धारण करनार नृशीर्ष देवताओ द्वारपाळ थईने रह्या हता. ते समवसरणनी वच्चे व्यंतरदेवताओए सातसो ने वीस धनुष्यना प्रमाणवाळु एक चैत्यवृक्ष कयु, तेनी नीचे एक मणिपीठ अने ते पीठनी उपर एक छंदक रची ते पर चार सुंदर सिंहासनो कयाँ हतां. ते सिंहासनो पादपीठवाळा अने त्रण छत्रोवाळां हता. ते उपर चामरोनी श्रेणी साथे आठ यक्षो रहेला हता. सुवर्णना वप्रनी मध्यभागे ईशान दिशामां प्रभुने विश्रांति लेवाने माटे व्यंतरदेवताओए एक देवछंद को हतो.
ते पछी चार प्रकारना कोटाकोटी देवताओनी साथे प्रभु संसारनो भय राखनार प्राणीओने शरणरूप एवा ते समवसरणमां जवाने चाल्या. ते वखते देवताओए ते धर्मना चक्रवर्ती एवा प्रभुनी आगळ जाणे साक्षात् नवनिधान होय तेवा नव कमळो स्थापित कयां. प्रभु चालतां-चालतां ते बबे कमळोनी उपर पादन्यास करता हता अने देवताओ भक्तिथी ते कमळोने आगळ-आगळ धरता हता. सूर्य जेम तेजस्वी थई अंधकारना समूहने भेदवाने आकाश प्रदेशमा प्रवेश करे, तेम प्रभुए पूर्वद्वारथी अज्ञानरूपी अंधकारना समूहने भेदवाने समवसरणमां प्रवेश कर्यो. ते काले पूर्वाभिमुखे थई चैत्यवृक्षनी प्रदक्षिणा करी प्रभु 'तीर्थाय नमः' एम कही सिंहासन उपर बेठा. ते समये व्यंतर देवताओए श्री सर्वज्ञप्रभुना प्रभावथी बीजी त्रण दिशाओमां प्रभुना त्रण प्रतिरूपो रच्यां. तेमना मस्तक उपर भामंडळ शोभवा लाग्यु. आकाशमां दुंदुभिनो नाद थयो अने तेओनी आगळ रत्नध्वज अने धर्मचक्र बिराजमान थयु. बाकी, जे काई कार्य कयु हतुं. ते सर्व कार्य व्यंतरोए करी बताव्युं हतुं. विबुध देवताओ पोताना योग्य कार्यमां कदिपण आळस करता नथी. आवी रीते जे समवसरण करवामां आवे, ते तो एक स्वाभाविक स्थिति-मर्यादा छे. नहीं तो भक्तिमान् एवो एक ज देवता ए सर्व पण करी शके छे. ते पछी देवांगनाओनी घणी स्त्रीओ पूर्व द्वारथी आवी त्रण प्रदक्षिणा आपी तीर्थने अने प्रभुने नमस्कार करी अग्नि दिशामां साधु साध्विओने माटे 284
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श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना
अद्भुत स्थान राखी तेना अंतरना भागमां अंजलि जोडी हर्षथी सुखे बेठी, ज्योतिषी, भुवनपति अने व्यंतरोनी उत्तम स्त्रीओए दक्षिण द्वारे प्रवेश करी नैर्ऋत दिशामा पोतानो वास कर्यो.
देवताओ पश्चिम द्वारथी समवसरणमां आवी वायव्य दिशामां जिनना ध्यानमां तत्पर थईने रह्या. कल्पना देवताओ अने पुरुषो तथा स्त्रीओ उत्तर द्वारे प्रवेश करी अनुक्रमे ईशान दिशामां स्थिति करीने रह्या. सिंह, वाघ वगेरे प्राणीओ मत्सरभाव छोडी दई अने श्री जिनवाणीमां आदर करी सुवर्णना वप्रमां रह्याः रूपाना वप्रमां उत्तम देव, दानव अने मनुष्योना वाहनो स्थिति करी. तेमनी ए स्थिति (मर्यादा) सदाने माटे ए ज होय छे.
संसारपक्षे प्रभुनो पुत्र अरिमर्दन राजा उद्यानपाल पासेथी प्रभुने केवळ ज्ञान उपजेलुं जाणी परिवारसहित तरत त्यां आव्यो. ते समवसरणमां उत्तर द्वारे प्रवेश करी अने प्रभु नमस्कार करी तेणे पोतानी बुद्धि प्रमाणे प्रभुने आ प्रमाणे विज्ञप्ति करी – ।।१०८४ ।।
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"स्वामी, जे जल पशुपक्षिओना गणोए उच्छिष्ट करेलुं अने कादव उपर रहेनारुं छे, तेवा जलवडे निर्मल एवा आपनी केम पूजा थाय? जे पुष्प भमराओए सुघेलुं, जीवडाओना समूहथी युक्त अने मलिन अंगवाळा माळीओए वाडीमांथी लावेलुं होय ते पुष्प आपने योग्य केम गणाय? जे रंगराग सामान्य लोकोना हाथथी अपवित्र थयेलो अने जे स्वभावथी ज सत्वर दुर्गंधी बनी जाय तेवो होय छे, ते अंगराग उत्तम केम होय? जे धूप बधो धूमाडो रूप, अग्निमांथी उत्पन्न थयेलो अने गंधनी रजरूप अगरुनो बनी सर्व लोकोने सरखो होय छे ते धूप आपनी पासे उंचो केम गणाय? त्रण जगतमां उद्योत करनारा एवा तमारी आगळ दीवानुं शुं काम होय छे? जे दीवो पात्रने आधारे रहे छे अने तमो उंचा प्रकारना पात्रना अधीश छो. वळी लोको आप प्रभुनी आगळ अपूर्व वस्तुनी भेट धरे छे, परंतु आ जगतमां तेवुं कांई नथी के जे तमारे न होय, हे प्रभु! मारुं हृदय सदा रागद्वेषथी आक्रांत छे अने तमे पोते वीतराग छो, तो पछी मारे तमारुं ध्यान क्यां करवुं ? असत् गुणोनुं आरोपण करवुं तेवी स्तुती तो कोईथी न थाय अने तमारामां तो तेवा अनंत गुणो छे, तो पछी असत् गुणोने कोण कहे? हुं मलमूत्रादिवाळी कायावाळो छं अने तमे निर्मल छो, तो पछी हुं तमोने शी रीते सेवी शकुं ? हे प्रभु, फक्त हुं तो तमारी आज्ञा मारा उत्तमांग- मस्तकवडे वहन करीश. तमारा आगममां गृहस्थोने द्रव्यपूजा करवानी कहेली छे, तो ते लोकोमां श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना तमारी आज्ञाथी ज सफळ थाय छे. तमारा वचन पाळवाथी तमारी भावपूजा थाय छे, ते साधुने प्रशंसनीय छे अने गृहस्थ श्रावकोने तो स्थापना-प्रभुनी पूजा, पुष्प वगेरेथी प्रशंसनीय छे. आ प्रमाणे कही ते अरिमर्दन इंद्रनी पछवाडे पोताने योग्य स्थाने बेठो. _ पछी जगद्गुरु प्रभु उत्तम अमृतने झरनारी वाणीथी आ प्रमाणे बोल्या"हे भव्यो, आ संसारमा भमता एवा तमोए आ उच्च भवमां द्रव्यादिक उत्तम सामग्री कंई मेळवी नथी? प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, भरतक्षेत्र, मध्यकाळ अने शुभभाव तमे प्राप्त कर्यो छे, तेथी प्रमादनो त्याग करीने तमे मोक्षनो सन्मार्ग सेवो. ते सिवाय प्राप्त करेलुं सर्व निष्फळ थई जाय छे. ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए ज मोक्षमार्ग कहेवाय छे. जो ते सम्यग् न होय, तो ते मोक्षनो मार्ग कहेवातो नथी. ।।११०० ।। दश पूर्वधारी वगेरेए, प्रत्येक बुद्धोए अने गणधरोए जे करेलु (रचेखें-गुंथेलु) ते सम्यक् श्रुत कहेवाय छे. ते सूत्रमाथी जाणी लेवू. कदाचित् कोई स्थाने श्रोता अने वक्ता वगेरेनी अपेक्षाए तेमां अर्थथी विपर्यास-फेरफार थई जाय छे, तेथी जो श्रोता अने वक्ता बंने सत्य होय, तो ते सम्यक् श्रुत कहेवाय छे. अन्यथा पोते करेलामां पण तेनो विपर्यास थवानो संभव छे. निमित्त वगेरेने लईने ते कयु होय अने श्रुत सांभन्युं होय, पण जो ते विपरीत थई जाय, तो तेनाथी सुखने आपनारो मोक्ष थतो नथी; परंतु जे तत्त्वना विचार साथे श्रुत सांभन्युं होय तेवा श्रुतथी सिद्धि थाय छे, तेथी तमारे श्रुतनो आश्रय करवो. जे तेवा श्रुतना एक पण पदनी उपर श्रद्धा राखतो नथी, ते आ लोकमां मिथ्यात्वी जाणवो, तेथी तेवा श्रुतना वचन उपर तमारे श्रद्धा राखवी. जे पुरुष ते श्रुतनो विपर्यास जाणतां छतां पण जो ते प्रमाणे करे छे, तो ते अवश्य अनंत संसारी थाय छे, तेथी मनुष्योए रागद्वेषमय ग्रंथिनो भेद करवो के जेथी सम्यक्त्व प्राप्त थाय. जो तेनो विपर्यास थाय, तो सम्यक्त्व प्राप्त थतुं नथी. ज्यारे जे जीवने आयुष्य सिवायना सात कर्मो उत्कृष्ट स्थितिवाळा होय छे, त्यारे ते जीवने कदि पण ग्रंथिभेद थतो नथी. ज्यारे ए कर्मो कोटा-कोटी सागरोपमथी किंचिउण स्थितिना होय छे, त्यारे जीवो चार सामायिक प्राप्त करे छे. जे मनुष्य पोताना हृदयमां एक अंतर्मुहूर्त्तमात्र सम्यक्त्वने धारण करे छे, तेनो संसार अर्धपुद्गल परावर्त प्रमाण थई जाय छे. बीजा सम्यक्त्वथी पण मनुष्योने देवतानी गति प्राप्त थाय छे. जो ते सम्यक्त्व उत्कृष्ट क्षायिक होय, तो तेने ते ज भवे सिद्धि थाय छे. जो ते पूर्वबद्धायुवाळो होय, तो
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श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना देवता अने नारकीना अंतरे त्रण भवे सिद्धि थाय छे अने जो मनुष्य युगलीयो थाय, तो ते देवता थई पछी मनुष्य थाय छे अने ए रीते जघन्यपणे पण क्षायिक सम्यक्त्ववडे चार भवे सिद्धि थाय छे, तेथी ते साते कर्मोनी विशेष स्थितिनो क्षय करी सांप्रतकाळे ते सम्यक्त्वनो आदर करो. ए सम्यक्त्व छतां पण जो चारित्र न होय तो कदि संसारी जीव नारकी पण थई जाय छे. तेथी हे भव्यो! तमे चारित्रने भजो. आ पृथ्वी उपर निश्चयनय वडे एवो मत सिद्ध थयो छे के चारित्रनो वध करवाथी ज्ञान अने सम्यक्त्वनो विनाश थई जाय छे. सर्वार्थनी सिद्धिने आपनारा ते चारित्रना घणा भेदो छे तेमां यथाख्यात चारित्रवडे मनुष्योने अवश्य सिद्धि प्राप्त थाय छे. जे सम्यग्ज्ञानवाळो थई सदाचारने अंगीकार करी स्वाभाविक रीते यथोद्दिष्ट चारित्र आचरे-पाळे ते यथाख्यात चारित्र कहेवाय छे. आ चारित्रादिक रत्नत्रयीवडे जीव बळेली दोरीना जेवा चार अघाति कर्मोवाळो घनघातिकर्मोथी मुक्त बनी शुद्धिने धारण करी केवळज्ञानने प्राप्त करे छे. पछी ते सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थई केटलोक वखत आ लोकमां रहे छे. पछी ते वेदनीय, आयुः, नाम अने गोत्रकर्म क्षीण थतां गतिना प्रयोगवडे एरंडीना बीजनी जेम उर्ध्वलोके चडे छे. त्यां समश्रेणी वडे लोकाग्रमा जईने रहे छे. आकाश विद्यमान छतां जे ते (लोकाग्रथी आगळ) उर्ध्वभागे जता नथी तेनुं कारण ए छे के, लोकाग्रथी आगळ अलोकमां धर्मास्तिकाय द्रव्यनो अभाव छे. ते सिद्ध जीव सर्वदेहथी रहित, अनंत चतुष्टयने प्राप्त करनार अने प्राण, रस, स्पर्श, गंध अने वर्णथी रहित होय छे. ते चारित्री नथी तेम अचारित्री नथी, ते असंज्ञी नथी तेम संज्ञी पण नथी, ते पोताना शरीरना त्रीजा भागे उणा एवा आकाशना अवगाहनने प्राप्त थयेल छे. मृत्युकाळ वखतनी निजकाया प्रमाण जीवप्रदेशने भजवावाळा होय छे. ज्ञानरूपी आदर्शमां रहेली सर्व विश्वनी वस्तुओना स्वरूपने ते जाणे छे. ते अनंत सिद्धोथी युक्त छे तेनी स्थिति सादी अने अनंत छे. ते स्थिर, चिदानंदना सुखना स्वादथी सुंदर अने भय रहित छे. "अहो जनो! हे भव्यो! जैन शासनमां जे सत्साधनवडे जीव आवो सिद्ध बुद्ध बने छे; ते सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप त्रण रत्नोने तमे अंगीकार करो. जो कदि ते रत्न सर्व थकी लेवानी शक्ति न होय, तो तमे प्रथम तेनो देशथी आदर करो, के जेनाथी तमारो मनुष्य जन्म निष्फळ न थाय. ते देशथी ग्रहण करवामां द्वादश व्रतनी अंदर शुद्ध हृदयवाळा श्रावकोने षट्भंगी प्रमुख आगारवाळा अनेक प्रकार छे. जे व्रत पालवानी जेवी शक्ति होय ते प्रमाणे
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श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना तेवा भांगाथी ते व्रत ग्रहण करो, जेथी सात-आठ भवे तमारी मुक्ति थशे. शुद्ध साधु, श्रावक अने संवेगी पक्षने अनुसरनारा ए त्रणे मुक्ति मार्गे जनारा कह्या छे अने मुत्कळ गृही, केवळ द्रव्य लींगी अने कुलिंगी ए त्रणे संसार मार्गे जनारा कह्या छे. तेथी हे भव्यजनो! आ संसारना असार संचारना प्रकारोने छोडी दई विचार सहित एवा सदाचारना भावने भजो." आ प्रमाणे श्री विमलजिननी पांत्रीश गुणवाळी वाणी सांभळीने सर्व जीवो हर्षवाळा अने सुख शाताने प्राप्त करनारा थई गया. प्रभुनी आ देशनाथी प्रतिबोध पामेला केटलाएके शुद्ध दीक्षा ग्रहण करी, केटलाएक श्रावकधर्मने प्राप्त थया अने केटलाएक सम्यक्त्वने प्राप्त थया. ते प्रभुए पोताना शिष्योमा मंदर वगेरे छप्पन साधुओने गणधर पदवी आपी हती. तेओए प्रत्येके तत्काळ उत्पाद, विगम अने ध्रौव्य नामना त्रण पदो ग्रहण करी अखंडित एवी द्वादशांगी रची हती. ते समये एक योजन प्रमाण क्षेत्रमा पण कोटीगमे, देव, दानव, मानव अने तिर्यचो पोतपोताना वाहनो सहित समाई गया हता. तेओनी भाषा प्रमाणे प्रभुनी वाणी एक योजन सुधी संभळाती हती. प्रभुना मस्तकना पृष्ठभागे भामंडळ आवी रह्यु हतुं. प्रभुना कर्मोना क्षयथी अगियार अतिशयो उत्पन्न थवाथी सवासो योजन प्रमाण देशमा रोग, वैर, मारी, टीड प्रमुख, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, स्वचक्र भय, परचक्र भय अने दुकाळ थता नहीं. आकाशमां धर्मचक्र, ऊँचो इंद्रध्वज, चरण न्यासमां कमळो, चतुर्मुख अंग, त्रण वप्र, चामरो, चैत्यवृक्ष, पादपीठ सहित सिंहासन, त्रण छत्रो, रत्नमय ध्वज, दुंदुभिनो ऊँचो ध्वनि, कांटाओ अधोमुख, पंखीओ प्रभुने प्रदक्षिणा देतां फरे, वृक्षमाथी अतिशय पुष्पवृष्टि, सुगंधी जळनो वरसाद, 'पार्श्वभागे जघन्यपणे चार प्रकारनी देवकोटी, सदा अनुकूळ पवन अने गोचर-अर्थने आपनारी (सानुकूळ) छ ऋतुओए सर्वे ओगणीश अतिशयो देव निर्मित होय छे. आ प्रमाणे चोत्रीश अतिशयोथी युक्त अने केवळज्ञाने सहित एवा ते विमलनाथ प्रभु समग्र विश्वने हर्षदायक थया. मयुरना वाहनवाळो, दक्षिण भुजाओमां खड्ग, पाश, बाण, फळ, चक्र अने अक्षसूत्र धरनारो, वाम भुजाओमां अभय, नकल, धनुष्य, आर फलक अने अंकुशने धरनारो षण्मुख नामनो श्वेतवर्णी यक्ष ते प्रभुना शासननो सेवक देव थयो. हरिताळना जेवा वर्णनी, पद्मना आसनवाळी, बे दक्षिण भुजामां 1. प्रभुनी सेवामा ओछामां ओछा चारे निकायना क्रोड देवो रहे छे. 2. घट्ऋतुओ समकाळे फळे छे.
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श्री विमलनाथ प्रभुनी देशना पाश अने बाण धरनारी अने बे सुंदर वामभुजामां नाग अने धनुष्य राखनारी विदिता नामनी देवी ते विमलनाथ प्रभुनी शासनसेविका देवी थई. जेमना जन्म समये इंद्रोए मेरुपर्वत उपर महोत्सव को हतो, जेमना दीक्षा समये गृहमां अने केवळज्ञान वखते वनमा उत्सव कर्यो, तेमां कांई पण आश्चर्य नथी. कारण के ए क्रम परंपराथी चाल्यो आवे छे. पण तेनी पूर्वे सुंदर सुवर्णनी वृद्धिथी व्याप्त थयेला लोकमां उत्सव थयो, ते लक्ष्मीने आश्रित एवा श्री विमलनाथ प्रभु सर्व स्थळे तमोने लक्ष्मीने अर्थे थाओ.
॥ इति श्री तपोगणनायकश्रीरत्नसिंहसूरिना शिष्य भट्टारक .. श्री ज्ञानसागरसूरिना रचेला श्री विमलनाथचरित्र महाकाव्यमां श्री विमलनाथ प्रभुना जन्म, दीक्षा अने केवळज्ञानना वर्णनरूप चोथो सर्ग समाप्त थयो ।
इति चतुर्थ सर्ग
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प्रथम व्रत उपर नृपशेखरनी कथा
पंचम सर्ग सूर्य, चंद्र अने मेघना जेवा समदर्शी श्री विमलनाथ प्रभुए विश्वनो उपकार करवाने माटे 'घनाश्रयोमा गमन कयु. प्रत्येक मुख्य मुख्य स्थानोमां पुण्य मेळववामां तत्पर एवा चतुर्विध देवताओए पूर्वनी जेम समवसरण कयु. ते समये आकाशमां दुंदुभिना नाद थता, देवताओ प्रभुना मस्तक उपर त्रण छत्रो, बंने बाजु चामरो अने आगळ कमळोने धारण करता हता. आ प्रमाणे प्रातिहार्यनी लक्ष्मीवाळा विश्वनायक प्रभु विहार करता अने पृथ्वीने पावन करता एक वखते द्वारकामां पधार्या. आत्माना हितने ईच्छनार देवताओए त्यां समवसरण कयु. तेमां प्रभु पूर्वदिशा तरफ मुख राखी सिंहासन उपर सुखे बेठा. ते समये उद्यानपालकोए जईने वासुदेव स्वयंभूने ते खबर आप्या. स्वयंभूए तेओने साडीबार कोटी रूपुं वधामणीमां आप्यु. पछी स्वयंभू पोताना भाई भद्रने साथे लई परिवार सहित समवसरणमां आव्यो. तेमां उत्तर द्वारे प्रवेश करी प्रदक्षिणा करी जिनेश्वरने नमी हर्षथी प्रभुनी वाणी सांभळवाने इंद्रनी पाछळ बेठो. श्री विमलप्रभु स्वयंभूने उद्देशीने बोल्या, "भद्र, चारित्र लेवानी तारी योग्यता नथी, तेथी तुं श्रावकधर्म सांभळ. पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत-एम श्रावकना बार व्रतो कहेला छे. ए बार व्रत सम्यक्त्व सहित पोतानी शक्ति प्रमाणे पाल्यां होय, तो ते देवता अने मनुष्यना सुखवडे प्रौढ एवा सात-आठ भवे सिद्धि आपनारां थाय छे. जे श्रावक ए बार व्रतोमा पहेला व्रतने श्रद्धाथी अंगीकार करे छे, ते श्रावक सदाने माटे निरपराधी एवा त्रस जीवोनो जाणी जोईने वध करतो नथी, तेमज पर्व दिवसोमां विशेषपणे स्थावर जीवोनो तथा अन्य सापराधी जीवोनो पण वध करतो नथी. जे उत्तम पुरुष फक्त पर्वने विषे पण शुद्ध दया पाळे छे ते नृपशेखर राजानी जेम भवोभव सुखी थाय छे.
नृपशेखर राजानी कथा उद्यानवाळा धनद नामना गाममां सद्बुद्धि, पवित्रात्मा अने भद्रिक भावनावाळो रामभद्र नामे एक राजपुत्र हतो. एक वखते स्वस्थ हृदयवाळा 1. मेघपक्षे घनाश्रय एटले आकाश अने प्रभुपक्षे घनाश्रयो-घणां आश्रयो क्षेत्रो.
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प्रथम व्रत उपर नृपशेखरनी कथा धर्मघोष नामना सूरिए ते गाममा घणा शिष्योनी साथे चातुर्मास कयु. तेवामां चउमासीना दिवसे गृहिधर्मने पाळनारा स्थिरता वगेरे गुणोथी शोभता अने श्रद्धावाळा एवा श्रावकोए पौषधव्रत ग्रहण कयु. ते जोई रामभद्र राजपुत्रे गुरुने पूछ्युं, "हे पूज्य देव, जिनेश्वरे पूजेलं | आजे कांई पर्व छे?" गुरुए कह्यु, "भद्र, आजे पर्वोना गर्वने हरनारुं चातुर्मासिक पर्व छे, तेथी आ श्रावको धर्म करे छे. केटलाएक चतुर्विध आहारनो त्याग करी सर्वथी पौषध ले छे अने केटलाएक देशथी पौषध ले छे. केटलाएक पुरुषो हृदयमां ध्यान धरी कष्टरहित थई अने जिनशासनमां आसक्त बनी स्नात्र महोत्सव करे छे अने केटलाएक उपवास करीने आवश्यक क्रियामां तत्पर रहे छे. ए प्रमाणे आ चातुर्मासमां पोतानी शक्ति प्रमाणे सद्भक्ति अने युक्तिथी आवो आचार प्रवर्ते छे." सूरिनां आवा वचन सांभळी रामभद्र बोल्या, "हे सद्बुद्धिना निधान गुरु एवां कार्योमां मारी शक्ति नथी, तेथी मने कांईक सरल धर्मकृत्य बतावो." ते सांभळी गुरु बोल्या, "भद्र, तुं जीवदया पाळ, जेथी तुं आ भवमां अने परभवमां सुखी थईश." तरत ज तेणे जीवदया पाळवानुं प्रथम व्रत ग्रहण कयु अने समृद्धिना समूहने आपनारुं घणं सुकृत संपादन कयु. त्यारथी ते पर्वने दिवसे ते व्रत पाळवा लाग्यो. अने संसाररूपी समुद्रमां साररूप एवा नवकार मंत्रने शीख्यो. ए प्रमाणे पूर्ण आयुष्य भोगवीने ईशान देवलोकमां देवताओनी श्रेणीए सेवेला इंद्रनो समानिक देवता
थयो.
____ आ अरसामां पोतन नामना नगरमां अरिमर्दन नामे राजा हतो. तेने गुणवती चंद्रकांता राणी हती. ते रामभद्रनो अति दयाळु अने द्वेष रहित जीव पुण्य अवशेष रहेतां ईशानदेव लोकमांथी च्यवी ते चंद्रकांतानी कुक्षिमां अवतो. राजा अरिमर्दनने ते लक्ष्मीमय समयमां पुत्र आव्यो. "प्रायेणोत्तमजीवस्योत्पत्तिरुत्तमजातिषु ।" प्रायः करीने उत्तम जीवनी उत्पत्ति उत्तम जातिमां ज थाय छे. पिताए शुभ दिवसे ते कुमारनुं नाम नृपशेखर पाड्यु. कलाओना कलापथी युक्त थई ते चंद्रनी जेम वृद्धि पाम्यो. एक समये राजाए तेने युवराजपद उपर स्थापित कर्यो, तो पण ते पिता वगेरे वडीलोना विनयर्नु उल्लंघन करतो न हतो.
___ एक समये कोई विद्याधर सभामां आव्यो. तेने जोई नृपशेखर कुमारे तेनो विनय करी पूछ्युं के, "तमे क्यांथी आवो छ?" विद्याधर बोल्यो"वैताढ्य पर्वत उपर आवेला रथनुपुर नामना सुंदर नगरमा रहेनार कनकचूड नामे हुं मुख्य विद्याधर छु. में मारा नादथी अनेक लोकोना हृदयोने प्रसन्न का श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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प्रथम व्रत उपर नृपशेखरनी कथा छे, अनेक सद्विद्याओने साधेली छे. हुं निर्दोष जैन धर्मने पाळनारो छु.' हुं गईकाले आवश्यकविधि करी अने पंचनवकार- स्मरण करी धर्म ध्यान धरतो सूतो हतो, ज्यारे रात्रिनो छेल्लो पहोर थयो, तेवामां गांधारी वगेरे देवीओए आवी मने कडं के, "अरे भाई! तारुं आयुष्य अल्प छे, तेथी तुं पोतनपुरना राजा. नृपशेखरने अमोने निःशंक थई आपी दे अने अमारा हृदयमां हर्ष उत्पन्न कर." तेथी हे सद्बुद्धिना निधान, तमो ते मारी सर्व विद्याओ ग्रहण करो. "सुपात्रे योजिता विद्या, द्वयोरपिशुभप्रदाः ।।३९।।" सत्पात्रमा आपेली विद्या आपनार अने लेनार बंने शुभदायक थाय छे. पछी कुमार नृपशेखरे ते विद्याओ ग्रहण करी अने बहार जईने ते साधी लीधी. जेवामां ते विद्या साधीने घेर आवतो हतो, तेवामां सूर्य अस्त थई गयो, एटले नगरनो मुख्य दरवाजो बंध थई गयो. पछी ते कुमार बहार आवी एक वृक्षना मूलमां सावधान हृदयवाळो थई जागतो बेठो, ते वृक्षमा रहेला एक प्रेतना मुखथी आ प्रमाणे शब्द सांभळवामां आव्यो. "श्रीकुंडनपुरना राजा नरकेशरीने कलाओमां कुशल सौभाग्यमंजरी नामे पुत्री छे, तेणीने नेत्रोनी पीडा थई छे, तेथी ते अग्निमां प्रवेश करशे." आ वखते ते प्रेतनी स्त्री ते सांभळी शोकातुर थईने बोली-"स्वामी आ पृथ्वी उपर नेत्रनी पीडाने हरनारूं औषध शुं नहिं होय के जेथी ते बीचारी मरवा तैयार थई?" प्रेते कडं, "प्रिये! आ पृथ्वी उपर एवां घणां औषधो छे, परंतु तेने जाणनाराओ दुर्लभ छे. जो आ वृक्षना पत्रो आंखे बांधवामां आवे, तो नेत्रोनी खेदकारक पीडा तरत ज नाश पामी जाय." आ वचनो सांभळी स्त्री बोली-"कांत! तमे ते राजपुत्रीना नेत्रो उपर आ पत्रो बांधो के जेथी तेणीना नेत्रोनी पीडानो क्षय थई जाय." प्रेत बोल्यो "प्रिये! हीन जातिने लईने माराथी लोकोनो उपकार थई शकतो नथी. सर्व प्राणी उपर उत्तम पुरुषो ज उपकार करे छे अने अधमलोको जे अपकार करे छे, ते ते तेमना वर्ण जातिनुं फल छे." आ प्रमाणे ते प्रेत दंपतिनुं वचन सांभळी उपकार करवानी इच्छाथी ते कुमारे यत्न करी ते वृक्षनां पत्रो लीधां. पछी ते विद्याना बलथी सत्वर कुंडिनपुरमा आवी पहोंच्यो, त्यां तेणे वागता पटहनी उद्घोषणा आ प्रमाणे सांभळी. "जे कोई पुरुष राजपुत्री सौभाग्यमंजरीने नीरोगी करे, तेने राजा ते पुत्री सहित पोतानुं अधुं राज्य आपशे." आ सांभळी ते चतुर कुमारे हर्षथी पटहनो स्पर्श कर्यो परोपकारी पुरुषो कंई छाना रहेता नथी. पछी राजपुरुषो तेने तरत राजमंदिरमा लई गया, त्यां अग्निमां प्रवेश करवा तैयार थयेली 1. उत्तमैरुपकारो यत्क्रियते सर्वजन्तुषु । अधमैरपकारस्तु तद्वर्णजनितं फलम् ॥४९।।
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प्रथम व्रत उपर नपशेखरनी कथा ।
सौभाग्यमंजरी वखत गुमावी शकती न हती. ते कुमारिकाना नेत्र उपर पत्रो बांधी तेणीने तेणे आखरे साजी करी दीधी. "विबुधानां वचो निष्फलं नैव जायते।।" देवताओनुं वचन कदीपण निष्फळ थतुं नथी. पछी नरकेसरी राजाए ए विचित्र गुणवाळा राजपुत्रने अर्धा राज्य सहित पोतानी पुत्री हर्षथी अर्पण करी. पछी कुमार नृपशेखर राजानी रजा लई हाथी तथा अश्वोथी युक्त थई पोतानी पत्नी साथे पोतनपुर जवा नीकल्यो. पिता अरिमर्दने पुत्रनो पुरप्रवेशोत्सव कराव्यो अने ते प्रख्यात पुत्रने पोताना अद्भुत राज्य उपर स्थापित कर्यो. पछी पोते तरत ज चित्तने स्वस्थता आपनारी दीक्षा लीधी. "महान्तो हि प्रकुर्वन्ति, सदा कालोचितां क्रियां ।।५९।।" महान् पुरुषो हमेशां समयने घटे तेवी क्रिया करे छे.
राजा नृपशेखरने कनकसागर नामे मंत्री हतो. तेने एक मंगळ नामे 'वक्ररूपवाळो पुत्र हतो. तेनी डोक ऊंटना जेवी, दाढी मूंछ बकराना जेवा, पग सूपडाना जेवा, पेट श्वानना जेवू , मुख डुक्करना जेवू अने दांत उंदरना जेवा हता. आवा कुरूपथी ते पृथ्वी उपर हास्यनुं स्थान थई पड्यो हतो. एथी राजा पण तेनी विशेष अवज्ञा करतो हतो. एक वखते राजाए ते मंगळने गधेडा पर बेसाडी अने आखा नगरमां फेरवी दुःखी करी वनमां काढी मूक्यो. त्यां तेणे कोई तापसना आश्रयमां जईने तापसीदीक्षा लीधी. दुःखथी वैराग्यने पामेला अने वनमां उत्तम तप करवा लाग्यो. ते मंगळनुं वक्रपणुं अने शून्य वास त्यां थयो. क्षमाना पुत्रनी ते स्थिति लोकोमा हास्यकारक थई पडी. ते केटलेक वखते मृत्यु पामी वायुकुमार देवतामां उत्पन्न थयो, धर्म सर्व स्थितिमां सुखदायक ज थाय छे.
एक वखते नृपशेखर राजा महेलना गोख उपर बेठो हतो, तेवामां तेणे हर्षथी चैत्यपरिपाटी करता सर्व संघने जोयो. तत्काल तेणे पोतानी पासे रहेला एक माणसने पूछ्युं के, "आजे केवो दिवस छे के जेथी आ निर्दोष संघ उत्सववडे देवताओने पूजे छे?" तेणे कडं, "देव! आजे उंची जातनुं चातुर्मासिक पर्व छे, तेथी आ श्रावको जगतमां रमणीय एवी जिनपूजा करे छे." तेनां आवां वचनो सांभळी राजाने जातिस्मरण थई आव्यु. तेथी ते ते दिवसे जीवरक्षा करवामां विशेष तत्पर बन्यो. "हुं सागार छु, तो पण आ चातुर्मासना पर्वमां त्रस 1. पक्षे मंगळग्रह पण वक्ररूपी कहेवाय छे. 2. मंगळग्रहमां वक्रपणुं छे अने ते शून्य
आकाशमां वास करनारो छे, ते क्षमा-पृथ्वीनो पुत्र छतां हास्यजनक स्थितिने पामे छे. आ मंगळ वक्र अने शृन्य स्थळे वास करनारो हतो अने क्षमा-सहन शीलतावाळो थयो. तापस थयो ते पण हास्यकारक स्थितिवाळो थयो हतो.
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प्रथम व्रत उपर नृपशेखरनी कथा जीवोने हणीश नहीं." एवो नियम विचारवान राजाए मनथी ग्रहण कर्यो. आ वखते पेलो देवता थयेलो मंगळनो जीव पूर्वजन्मे करेली पोतानी विटंबनाने संभारतो ते राजानी पासे आव्यो. तेणे वज्रना जेवा मुखवाळा मंकोडा वगेरे क्षुद्र जीवो उत्पन्न कर्या, तेओ रात्रे चारे बाजु राजाना देहने करडी खावा लाग्या. सर्व प्राणी उपर दयाळु अने नियमधारी ते राजाए मरी जवाना भयथी ते जीवोने पोताना शरीर उपरथी जुदा कर्या नहिं. ते जीवोए आखरे राजाना प्राण लीधा. राजा मृत्यु पामी प्राणतकल्पमा अगणित पुण्यना स्थानरूप इंद्रना जेवो देवता थयो. व्रतना समूह उपर आदर करनारो अने सुंदर हृदयवाळो ते देवलोकमांथी च्यवी विदेहक्षेत्रमा मनुष्यनो भव प्राप्त करी पछी मोक्षे जशे. आ प्रमाणे जेम नृपशेखर राजाए पहेलं अहिंसाव्रत आदरथी पान्यु, तेम मोक्षने माटे बीजा पुरुषोए पण ते व्रत पाळवं. ।।७।।।
इति प्रथमंव्रतम्
जेम अंधपुरुष मार्गे रह्यो होय, तो पण तेनो पगले-पगले पृथ्वीमां पात अथवा घात थाय छे, तेम मार्गानुसारी एवो पण जो पुरुष निराधार मृषावाद करे, तो तेने पगले-पगले पात अथवा घात थाय छे. जे गृहस्थ 'कन्यालीक वगेरे असत्योने बोले नहीं ते गृहस्थ बीजुं व्रत पाळनार कहेवाय छे. ए असत्योनी अंदर थापण ओळववानो दोष बीजानो नाश करवाने माटे गणाय छे. ए दोष करवाथी पुरुषोने बेत्रण व्रतनो भंग थई जाय छे. असत्यवादी पुरुष जो देव वगेरेना घणां सोगन खाय छे, तो सर्प करेडला कोई जुठा भांडनी जेम तेनुं वचन कोई मानतुं नथी. ब्रह्मा पण जो असत्यवादी होय, तो लोको तेनी पण पूजा करता नथी अने एक कागपक्षी जो सत्यवादी होय छे, तो बीजाओ तेने अतिथिनी जेम पूजे छे. मार्गे रहेला मुसाफरो घुवडने राजा कहे छे, तेतर पक्षीने विनायक कहे छे अने चीबरीने दुर्गादेवी कहे छे, ते सत्यवादीपणानुं ज फळ छे. उत्तम स्वजनो पण असत्य बोलनार विमलनी जेवां मनुष्यनो कदी पण पक्षपात करता नथी. जे पुरुष सत्यवादी छे, ते कमळनी जेम राजमान्य, स्वजनोथी पूजित अने महत्त्वनी कीर्तिवाळो थाय छे. 1. कन्याने माटे खोटुं बोलवू ते. 2. ज्यारे कागडो बोले छे, त्यारे कोई प्रिय अतिथि घेर
आवे छे, एम लोको माने छे अने तेथी कागडा पूजाय छे. 294
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बीजा व्रत उपर कमलशेठनी कथा
विमल अने कमलनी कथा । __ आ भरतक्षेत्रमा विजय नामे नगर छे. तेमां नामथी अने अर्थथी कलानिधि नामे राजा हतो. ते नगरमां कमलश्री नामे स्त्री अने विमल नामे पुत्रनी साथे कमल नामे एक प्रख्यात शेठ रहेतो हतो. ते विमल नामथी ज हतो, तेजथी अने कर्मथी विमल न हतो. साचा नामने लईने लोको तेने विमल कही बोलवता हता. एक वखते द्रव्य उपार्जन करवामां तत्पर बनी ते विमल करीयाणुं लई अचल नामना मोटा शहेरमां वेपार करवा माटे गयो. त्यांथी पाछा फरतां मार्गे जळनी वृष्टि थवाथी ते अटकीने लोकोनी श्रेणिथी विराजमान एवा रत्नपुर नामना नगरमां रोकाई गयो. तेवामां विजयनगरनो रहेवासी सागर नामनो एक वणीक. घणी वस्तुओ लई त्यां आवी चड्यो. पोते एक स्थानना निवासी होवाथी विमले ते सागरने पोताने उतारे उतारी जमाड्यो अने तेणे तेना कुटुंबनी कुशळ वार्ता कही. प्रथम वरसाद विरम्या पछी पोताना नगर प्रत्ये जवानी इच्छा धरावता एवा ते चतुर सागरने ते लोभी विमले विनंती करी एक पखवाडीया सुधी रोकयो. पछी सागरे कयु के, "तो हवे तुं मारो माल वेची नाख कारण के ते जुनो माल होवाथी हवे लांबो वखत टकी शकशे नहिं." तेथी तेणे तेनो माल वेची नाख्यो, परंतु तेनुं कांईक द्रव्य दगो करीने लई लीधुं; कारण के ते (विमल) पोते द्रोही हतो. पछी तेओ बंने त्यांथी साथे चालता थया अने अनुक्रमे पोताना नगरनी । पासे आवी पहोंच्या. ते खबर जाणवामां आव्याथी कमल तेनी सामे गयो. त्रणे रस्तामां मन्या. ते वखते बुद्धिना भंडाररूप सागरे विमलने कडं. "बांधव, एक मारुं वचन सांभळो. एक आंबानु गाईं रस्ते चाले छे. तेनो हांकनार एक कोढीओ ब्राह्मण छे, ते गाडानी डाबी तरफनो बळद काणो छे अने जमणी तरफनो बळद गळीओ छे, तेनी पाछळ चालनारो एक मातंग चंडाळ छे अने तेनी एक रुष्ट स्त्री पाछळ चाली आवे छे. ते दुःखी स्त्री हमणां ज एक पुत्रने जन्म आपशे." ते सांभळी विमले का, "ते आ बधुं खोटुं कर्तुं छे." सागर बोल्यो, मुनिवाणीव वचो मे निष्फलं न हि ।।१०।। "मुनिनी वाणीनी जेम मारुं वचन निष्फळ नथी साचुं छे." विमल बोल्यो, "जो आ तारुं कहेवू सत्य होय, तो जेटली मारी लक्ष्मी छे, ते तारी थाय अने खोटु होय, तो जेटली तारी लक्ष्मी छे, ते मारी थाय." सागरे तेनुं ते सर्व वचन कबूल कयुं अने ते बंनेए तेमां उत्तम शेठ कमलने साक्षी राख्यो. पछी ते त्रणे उतावळा चाल्या त्यां पेलू गाईं सामे मन्यु. 1. नामथी कलानिधि अने कलाओनो निधि-भंडार ए अर्थथी पण हतो. श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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बीजा व्रत उपर कमलशेठनी कथा सागरना कहेवा प्रमाणे बधुं त्यां जोवामां आव्यु. द्रव्यना नाशना भयथी व्यग्र थयेला अने हृदयमां परिताप पामता मूढ विमले तरत पोतानो माल गोपवी दीधो. अने तेणे पोताना पिता कमलने का के, "तमे साक्षी छो, तो तमारे हवे मारो पक्षपात करवो कारण के तमे मारा बाप छो." आ समये कमल स्थिर मन राखी मौन रह्यो. पछी विमल अने सागर बंने विवाद करता सत्वर बळात्कारे दरबारमा फरीयाद करवा गया. ते बनेए पोतानो वृत्तांत राजानी आगळ निवेदन कर्यो. ते सांभळी राजाए का के, "तमारो कोई साक्षी छे?" ते वखते सागर बोल्यो, "प्रभु, आ विमलनो पिता साक्षी छे." पछी राजाए कमलशेठने बोलावी पूछ्यु, एटले तेणे राजानी आगळ स्पष्ट रीते साचेसाचुं कही आप्यु के, "राजन्, सागर जीत्यो छे अने मारो पुत्र हार्यो छे. हुं द्रव्यना लोभथी खोटुं नहिं बोलुं." राजा संतुष्ट थयो अने तेणे कमलशेठने बहु मान आप्यु, तत्काळ देवताओए आकाशमांथी पुष्पवृष्टि करी. पछी राजाए विमलने पोताना देशमांथी काढी मूक्यो अने हर्षथी सागरने पूछ्युं के, "तें ए हकीकत शी रीते जाणी?" सागर बोल्यो, "गंधथी अने आंबाना पडवाथी में आंबानुं गाडं जाण्युं अने शौच-आचारथी तेना हांकनारने ब्राह्मण जाण्यो. ज्यां हितनी इच्छा करनार हांकनारे पग धोयेला, त्यां घणी माखीओ भेगी थयेली जोई ते उपरथी मे तेने कोढीओ चिंतव्यो. पृथ्वी उपर वारंवार पडवाथी तेना एक बळदने गळीयो अने रेती उपर पगनी वांकी रेखाओ जोवाथी बीजा बळदने लुलो जाण्यो. ते हांकनार ब्राह्मणे आंबाना फलोने ढांकवाने माटे छेदेलां तेना पत्रो अने नीरस फल काढी नाखेला ते खावा उपरथी में तेनी पाछळ चालनारने चंडाळ जाणी लीधो हतो. कांटावाला वृक्षनी उपर राता तंतुओ वळगेला ते उपरथी पाछळ आवनारी स्त्री धारी हती अने फरीने जोवाथी ते रूष्ट थयेली जाणवामां आवी. "कोई मने मनावाने आवे छे के नहीं," एम जोवाने माटे ते पाछी डोक करी जोती हती, एम तेनां पगला उपरथी जाण्युं अने ते देहचिंता पीशाब करी हाथनो टेको लईने उभी थई, ते उपरथी शरीरना भारथी मंद थयेली ते गर्भिणी छे एम जाण्युं तेणीनो जमणो हाथ जोरथी जमीनमां पेशी गयो, ते उपरथी तेना गर्भमां पुत्र छे अने दुःखथी तेनो प्रसव हमणां ज थशे एम जाणी लीधुं." सागरनां आ वचनो सांभळी राजा घणो खुशी थयो अने तरत ज तेने पोतानो मुख्य मंत्री बनाव्यो. जेओ "धीधनानां हि सर्वत्र, पूज्यते जायते जने।।१२०।।" बुद्धिरूपी धनवाळा छे, तेओनी लोकोमा सर्व ठेकाणे पूजा प्रतिष्ठा थाय छे. राजाए अने अन्य जनोए सत्यभाषणने लईने कमलशेठने मान आप्यु 296
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त्रीजा व्रत उपर सुरदत्त अने कमलसेननी कथा . अने असत्यवादी विमलने ते राजाए अने अन्य जनोए देशमाथी बहार काढ्यो. कमल 'ब्रह्मानी जेम कमलावास, हंसाधार अने पत्रपूगथी युक्त थई अधिक शोभतो हतो. राजाए पोतानी गोथी कमलने जे प्रसादता अने 'विमलने काळाश आपी, तेथी लोकोमां ते आश्चर्यकारी बन्यु. कमलशेठ अमृषावाद नामे बीजुं व्रत आराधी निर्मल उदयवाळो थई आयुष्यनो क्षय थतां मृत्यु पामीने सौधर्मदेवलोकमां देवता थयो. सत्यना योगथी कमल लक्ष्मीने प्राप्त थयो अने असत्यना योगथी विमल दुःखी थयो, तेथी विवेकी जनोए हमेशां सत्य भाषण करवं. जे सत्य भाषण करवाथी महत्त्व, ख्याति अने सत्कीर्ति वगेरे गुणो प्राप्त थाय छे. ।।१२६।।
इति द्वितीयंव्रतम्
जे मनुष्य पारकुं पडेलु द्रव्य सर्पना जेवू माने छे, तेने क्षुधा अने क्रोध वगेरेथी युक्त एवो सर्प पण मान आपे छे. जे पुरुषोए पूर्वे पारका हरेला द्रव्योथी पोताना हाथने बोल्यो नथी, ते पुरुषोना उत्तम हृदयने अग्नि पण बाळतो नथी. जे लेवाथी 'आ चोर छे' एम लोको कहे छे, तेवी अदत्त वस्तुने विवेकी पुरुषोए ग्रहण करवी नहीं, पण तेने छोडी देवी. जे अदत्त वस्तुने लेतो नथी, ते सुरदत्तनी जेम आ पृथ्वीमां श्लाघनीय थाय छे अने जे तेवी वस्तु ग्रहण करे छे, ते कमलसेननी जेम निंदनीय थाय छे.
सुरदत्त अने कमलसेननी कथा जंबूद्वीपनी अंदर शत्रुओए नहीं कंपावेली चंपा नामे नगरी छे. तेमां हरिचंद्र नामे एक सत्त्वगुणी राजा हतो. नगरीमा सुरदत्त नामे एक शेठ रहेतो हतो. एक समये ते शेठ सार्थ (साथ) लईने वेपार करवाने माटे देशांतर जवा चाल्यो. रस्तामां क्रूर एवा चोरोए तेनो मोटो सार्थ लूंटी लीधो. ते समये 'हवे कई दिशामां जई एम हृदयमां अकळाईने ते त्यांथी नासी गयो. ते मानरहित सूर्यपुरनगरना उद्यानमां आव्यो. त्यां काल मुखवाळो कोई पुरुष तेना जोवामां आव्यो. सुरदत्ते 1. ब्रह्मा कमलावास-कमलमां वसनार. हंस-आधार-हंसना वाहनना आधारवाळा अने पत्रपूग
ज्ञानना ग्रंथोथी युक्त छे. कमलशेठ कमला-लक्ष्मीना आवास-स्थानरूष, हंस-परमहंसयोगीजनोना आधाररूप अने पत्रपूगवाहनोना समूहवाळो छे. 2. गोथी-वाणीओथी. 3. कमल-विकाशी छे तेने प्रसन्नता आपी ते आश्चर्य. 4. विमल निर्मल छे तेने काळाश आपी ते आश्चर्य.
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त्रीजा व्रत उपर सुरदत्त अने कमलसेननी कथा तेने पूछ्युं के "तुं कोण छे अने क्यांथी आव्यो छे? तारी आवी स्थिति केम छे? तारुं स्वरूप मने कहे." ते बोल्यो, "आ सूर्यपुरमा विमल नामे एक शेठ हतो, तेनो धनंजय नामे हुं पुत्र छु. धन मेळववाने माटे हुं परदेश गयो हतो. पाछळथी मारा पिता मृत्यु पामी गया अने मारा घर- द्रव्य राज्यमां दाखल थयुं अने परदेशमां में नवु द्रव्य उपार्जन कर्यु नहि तेथी हुं दुःखी छु" सुरदत्त बोल्यो, "तारे द्रव्यना निधानो शुं नथी?" धनंजये का, "हा. निधानो छे, पण तेमनुं प्रत्यक्ष ठेकाणुं हुं जाणतो नथी" सुरदत्त बोल्यो, "हे निर्दोष बंधु, जो तुं मने अर्धा भाग आपे तो हं तने निधानोनुं ठेकाणुं बतावं." धनंजये ते वात कबूल करी. पछी ते सुरदत्त तेने घेर गयो अने त्यां जई जमीन उपर एरंडाना बीज वाव्या. तत्काळ ते बीजमांथी अंकुर प्रगटेलो जोई तेणे ते ठेकाणुं बताव्यु. पछी ते स्थळनी पृथ्वी खोदी त्यांथी भरेलुं एक निधान नीकन्यु, ते बंनेए तेनी अंदर चार कोटी सुवर्ण जोयुं तेओए तेमांथी बे बे कोटी सुवर्ण वहेंची लीधुं. पछी सुरदत्त पोताने घेर चाल्यो गयो. . आ अरसामां ते सुरदत्तनो पित्राई भाई कमलसेन नामे हतो, ते हमेशा सुरदत्तनी साथे द्वेषथी वर्त्ततो हतो. ते सुरदत्तनी प्रशंसा सहन करी शकतो नहि अने हमेशां तेना छिद्रो ज जोया करतो हतो; परंतु पुण्यना प्रभावथी सुरदत्त सदा सुखी रह्या करतो हतो, एक वखते ते देवपूजा करवाने माटे जतो हतो. त्यां रस्तामा यत्न वगर एक मुद्रारत्न तेना जोवामां आव्यु. तरत ज ते क्षणवारे पाछो वळी गयो तेने सत्वर पाछो आवेलो जोई कमलसेने पूछ्युं के, "भाई, तुं सत्वर केम चाल्यो आव्यो?" सुरदत्ते अनर्थदंड जाणीने कांई पण उत्तर आप्यो नहीं. पछी कमलसेने त्यां जई आदरपूर्वक ते मुद्रारत्न लई लीधुं. पछी खोटी बुद्धिथी ते नहिं सहन करनारो कमलसेन सुरदत्तने घेर आव्यो. सुरदत्ते योग्यताथी तेने जमाड्यो अने घरनी अंदर सुवाड्यो. "हुं आने राजा पासे शिक्षा करावं," एबुं चिंतवी. तेणे ते मुद्रारत्न तेना घरनी पेटीमां गुप्त रीते नाखी दीधुं. राजाए शणगार पहेरती वखते ते मुद्रारत्न जोवा मांड्युं अने लोकोना समूहे पण जोवा मांड्यु, पण ते कोई ठेकाणे जोवामां आव्युं नहि. राजाए तलारक्ष-कोटवाळने बोलावीने आ प्रमाणे आज्ञा आपी-"भद्र! तुं हमणां ज शहेरनी अंदर ते मुद्रारत्ननी शोध कर." तेणे शोध करी, तो पण ते रत्न मन्यु नहिं. पछी पटह वगाडी जणाव्युं के, "जे कोई मुद्रारत्न राजाने सोंपी देशे, तेनो गुन्हो माफ करवामां आवशे अने जो पाछळथी तेनो गुन्हो जाणवामां आवशे, तो राजा तेने दंड आपशे." आ सांभळी
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त्रीजा व्रत उपर सुरदत्त अने कमलसेनानी कथा
सुरदत्ते कमलसेनने कयुं, "बंधु, तुं ते मुद्रारत्न राजाने सोंपी दे." कमलसेन बोल्यो, "में ते क्यां लीधुं छे?" सुरदत्ते कयुं, "पेला देवमार्गमांथी तें लीधुं छे." ते सांभळी कमलसेन बोल्यो, “तुं आ बधुं खोटं बोले छे." पछी कमलसेने राजानी पासे जईने कह्युं के, "सुरदत्ते तमारुं मुद्रारत्न स्पष्ट रीते लीधुं छे." राजाए पूछ्युं, "कये ठेकाणेथी लीधुं छे?" कमलसेन बोल्यो, "देवगृहना रस्तामांथी." ते सांभळी राजाए कोटवाळनी मारफत तेने रूबरू तेडाव्यो अने कह्युं, "ते देवमार्गमांथी ज रत्न लीधुं छे ते लाव, अमारो पण एज मार्ग छे." "में ते मुद्रारत्न लीधुं नथी." सुरदत्ते कह्युं. राजा बोल्यो के, "तारा भाई कमलसेने मारी आगळ आवीने ते वात कही छे." ते रत्न पोताना भाई कमलसेने लीधुं हतुं, एम सुरदत्त जाणतो हतो, तथापि ते पापभीरु सुरदत्ते राजानी आगळ कांईपण कह्युं नहिं. सुरदत्ते कह्युं के, "तो पछी ते कमलसेन ते रत्ननुं ठेकाणुं जाणतो हशे." कमलसेने कह्युं के "ते पेटीमां छे." पछी सुरदत्ते ते पेटी तपासी, पण तेमांथी ते नीकल्युं नहिं. ते वखते कमलसेने आवी ज्यां पोते ते रत्न नाखेलुं ते ठेकाणेथी ते रत्न काढी राजाने बताव्युं, आथी राजा सुरदत्त उपर घणो ज नाराज थयो. अने बोल्यो, "अरे! आ प्रमाणे पवित्र कीर्तिवाळा बधा लोकोने तुं धर्मना कार्यमा छलथी केम छेतरे छे?" राजानां आ वचन सांभळी पोताना कर्मनी स्थितिने जाणतो सुरदत्त मौन धरीने उभो रह्यो. तरत ज राजाए तेनो वध करवानी कोटवाळने आज्ञा करी. पछी एक गधेडाने मंगावी ते उपर तेने चडाव्यो. बेसूरवाळा वार्जित्रो उच्च स्वरे वागतां वागतां तेने वध्यभूमि उपर लई जतां जोई तेनी प्रिया रूक्मिणीने घणुं दुःख थयुं. तरत ज तेणीए शासनदेवताने उद्देशीने कायोत्सर्ग कर्यो. क्षणवारे शासनदेवी तेनी आगळ प्रगट थई. तेने प्रणाम करी रूक्मिणी बोली, ''देवि! जो मारो पति पवित्र होय, तो तेने सहाय करो, के जेथी शासननी उन्नति थाय.” ते सांभळी शासनदेवी सत्वर अतुल एवा राजद्वारमां गई अने त्यां सर्व प्रकारनो आकार अदृश्य करी दीधो अने शहेरनी उपर एक मोटी शिला रची. बांधी लीधेला पुररक्षको राजानी आगळ आव्या अने बधु नगर ते वखते आकुलव्याकुल थई गयुं. राजा तृषातुर थयो, कोई ठेकाणेथी पाणी मळे नहिं. कारण के ते देवीए प्रथमथी चतुर्विध आहार पण अदृश्य कर्यो हतो. राजा पोताना मंत्रीनी आगळ आ वृत्तांत कह्यो, एटले तेणे कह्युं के, "राजन् आ बधुं देवताए कयुं छे." पछी त्यां विधिपूर्वक बलिपूजा वगेरे करवामां आवतां देवताए प्रत्यक्ष थईने राजाने आ प्रमाणे कह्युं, "अरे राजा, निरपराधी सुरदत्तने शा माटे श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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चंद्र अने सुरेंद्रदत्तनी कथा वृथा हेरान करे छे? अति क्रूर हृदयवाळो पापी कमलसेन ज चोर छे. तेणे मुद्रारत्न लईने सुरदत्तना घरमां छूपाव्युं हतुं." ते सांभळी राजा अने मंत्री बने साथे मळी आवी देवीना चरणमां पड्या अने आ प्रमाणे बोल्या, "देवि! एकवार अमारो अपराध क्षमा करो. फरीवार एवं अविचारी काम नहिं करीए." पछी देवी सुरदत्तने विमानारूढ करी उत्सव सहित राजमंदिरमा लई आवी अने शहेर उपरथी शिला दूर करी, नगर रक्षकोने तेणे बंधनमांथी मुक्त कर्या, चतुर्विध आहार प्रगट कर्यो अने पेला कमलसेननुं मुख पाछळ करी दीधुं. "महाबला हि मरुतः, स्वभावेन प्रकीत्तिताः ।।१७८।।" देवताओ स्वभावथी महा बळवाळा होय छे. पछी राजाए सुरदत्तने पोशाक पहेरावी तेने घेर मोकल्यो अने कमलसेनने क्रोधथी स्मशानमां मोकल्यो. त्यां राजाना पुरुषाऐ तेने विविध मारथी मारी नांख्यो, ते मृत्यु पामीने नारकी थयो. अहो! उग्रकर्म तत्काळ फल आपे छे. अवसर आवतां सुरदत्ते सात क्षेत्रमा सर्व धन खर्च करी पोतानी पत्नी साथे गुरु समीपे व्रत लीधुं अने ते पत्नि रूक्मिणीनी साथे गाढ तप करी कर्मनो क्षय करी केवळज्ञान पामी मोक्षने प्राप्त थयो. आ प्रमाणे अदत्तादानने छोडवाथी अने ते ग्रहण करवाथी जे सारां अने माठां फल थाय छे, ते जाणीने त्रीजा व्रतने अंगीकार करो. ।।१८३।।
इति तृतीयंव्रतम्
आचारवाळी पोतानी स्त्रीमां संतोष राखवो अने स्त्रीओए पोताना पतिमां संतोष राखवो, ए गृहस्थोने माटे विद्वानोए चोथु व्रत कहेलुं छे. जे पुरुषो रोष वगर ते पोतानी स्त्रीनो पण त्याग करे छे, तेओने युक्तिवडे यतिओथी पण अधिक जाणवा. आ पृथ्वी उपर एवा लोको थोडा जोवामां आवे छे; परंतु सर्व जनोने पर्वना दिवसोमां तो स्त्रीनो संग सदा वर्जित करवो जोईए. क्लिष्ट बुद्धिवाळा जे पुरुषो परस्त्रीनी अभिलाषा करे छे, ते पुरुषो यावच्चंद्र सुधी चंद्रनी जेम अवश्य दुःखने पामे छे अने जे पुरुषो आदरथी स्वदार संतोष राखे छे, तेओ सुरेंद्रदत्तनी जेम सुख तथा सौभाग्यनुं पात्र बने छे.
चंद्र अने सुरेंद्रदत्तनी कथा आ भरतक्षेत्रमा निवासी जनोने सुखदायक एवी मिथिला नगरीमां चंद्र
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चोथा व्रत उपर चंद्र अने सुरेंद्रदत्तनी कथा अने सुरेंद्रदत्त नामे बे सगा भाईओ रहेता हता. एक वखते चंद्रनी वाहनशाळामां मुनिओए जेमां स्त्रीओ रासक्रीडा करी रही हती एवं वर्षा चातुर्मास कयु. ते मुनिओए त्यां ब्रह्मचर्य व्रतनी देशना आपी ते सांभळी चंद्र अने सुरेंद्रदत्ते परस्त्रीनो त्याग अंगीकार कर्यो. एक वखते कोई एक व्यंतर देवी ते बंनेना शीलनी परीक्षा करवाने स्त्री- रूप लई प्रथम चंद्रने घेर गई. रात्रे उद्योत करती अने सर्व आभूषणोथी विभूषित एवी ते स्त्रीने देखी चंद्र हृदयमा जाग्रत थई विस्मय पामी गयो 'धिष्ण्यना मध्यभागे रहेली तारारोहिणीनी रूप संपत्तिने जोई चंद्र मोह पामे एमां कांई पण आश्चर्य न हतुं. चंद्रे तेणीने का, "सुंदरी! तुं कोण छे?" ते बोली "हुं राजपुत्री छु" चंद्रे कडं, "शा माटे आवी छे?" ते बोली, "तमारा रूपथी मोह पामी हुँ कामार्थी थई अहिं आवु छु." ते सांभळी चंद्र पोतानो परस्त्रीत्यागनो नियम छोडी दई क्षणमां ज ते स्त्रीमां आसक्त बनी गयो. ते सुंदरीए चंद्रनुं वचन हर्षथी स्वीकार्यु, परंतु तेणीए कह्यु के, "तो तमे मारा मनमा रहेलो मारो एक दोहद पूरो करो" "तारा मनमां शो दोहद छे? ते हमणां ज कहे, हुं ते जलदी पूरो करूं" चंद्रे आतुरताथी पूछ्युं, ते सांभळी ते बोली, "मने तमे तमारी नासिका आपो." मोहित थयेल चंद्रे तरत छेदीने पोतानी नासिका तेणीने आपी. "नाऽकृत्यं मूढ चेतसाम्" मूढ हृदयवाळा पुरुषोने कांईपण अकृत्यं होतुं नथी. ते नासिका लईने ते व्यंतरी अट्टहास्य करती आकाशमां चाली गई. कारण के ते तेनी परीक्षा करवा माटे ज आवी हती. ।।२०।। "हवे हुँ सवारे लोकोने शी रीते मुख बतावीश." एम हृदयमां चिंतवतो चंद्र पछी जीभ कापीने मृत्यु पामी गयो. परस्त्रीना अभिलाषथी ते घोर नरकमां पड्यो. तेथी शुद्ध हृदयवाळा पुरुषोए परस्त्रीनी इच्छा पण न करवी जोईए. चंद्रग्रह पण बृहस्पतिनी स्त्रीना संगथी कलंकित थयेलो आ विश्वमां विख्यात छे, ते विषे कोई जातनुं आश्चर्य मानवानु नथी..
ते व्यंतरी पछी ते ज रात्रे विशेष सुंदर अवयव बनावी सुरेंद्रदत्तना नवीन आनंददायक भवनमां गई. त्यां सुरेंद्रदत्ते तेने पूछ्युं, एटले तेणीए घणो स्नेह दर्शावतां प्रथमनी जेम पोता स्वरूप कडं. ते सांभळी सुरेंद्रदत्त बोल्यो, "प्राणीओने स्नेहने लईने ताव आव्यो होय एर्नु अवश्य दुःख थाय छे, जुवोने दीवो पण स्नेहने लईने तत्काळ पोते बुझाई जाय छे. कदि ते स्नेह करवो होय, तो गृहस्थोए पोतानी स्त्री वगेरेमां करवो, परंतु ज्ञानशाळी पुरुषोए तो परस्त्रीनो 1. धिषण एटले नक्षत्र अने पक्षे स्थान. 2. स्नेह एटले तेल. श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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चोथा व्रत उपर चंद्र अने सुरेंद्रदत्तनी कथा स्नेह न ज करवो. वळी में गुरुना मुखथी परस्त्रीत्यागनुं व्रत लीधुं छे तेथी गुरुना वचनवडे हुं ते व्रतनो भंग नहिं करुं, तारे पण ए व्रत पाळq जोईए. ए व्रत पाळवाथी सर्व जातिओमां अबळा कहेवाती एवी स्त्रीओ- एज बळ विख्यात गणाय छे." व्यंतरी बोली, "स्वामी, तमने पाखंडीओए छेतर्या छे कारण के प्रत्यक्ष सुखनो त्याग करावी संशय भरेला सुखमां ललचावी नाख्या छे. जो तमारा हृदयमां 'स्वर्ग मोक्ष छे' एवो निश्चय होय, तो ते परलोके जवा सिवाय मलवाना नथी, तो आ प्रत्यक्ष सुख अहिं भोगवी ल्यो." सुरेंद्रदत्त बोल्यो, "कदि हुं ते मुनिओथी छेतरायो होईश, तो भले, तेमां तारे शुं छे? तुं तो तारे स्थाने चाली जा अने तारा हृदयने स्वस्थ कर." आ प्रमाणे कही मर्यादा जाणवामां चतुर एवो सुरेंद्रदत्त मौन धरी उभो रह्यो, पछी ते व्यंतरी तेनो दृढ निश्चय जाणी तेनी गुणश्रेणीथी राजी थई बे कुंडळ मूकीने पोताना स्थानमां चाली गई. एवी रीते उज्ज्वळ एवो धर्म पण बीजाओने रंजित करे छे. 'दोषाश्रय छतां जेनी दृष्टि तमथी लेपाती नथी, तेनो वाम स्वर पण धुवडपक्षीनी जेम सिद्धि आपनारो थाय छे. सुरेंद्रदत्त ते वेळाए हर्षथी स्वाध्याय ध्यान करवा लाग्यो अने ते व्यंतरीना देहना स्वरूपने हृदयमां भाववा लाग्यो. ते आवश्यक क्रिया करी जेवामां पोतानी शय्या जुवे, तेवामां ते शय्या उपर रहेला बे कुंडलो तेना जोवामां आव्यां.
आ तरफ चंद्रना घरमां तेनी स्त्री पोताना प्रिय पतिने मरेलो देखी घाटा स्वरथी पोकार करवा लागी. स्त्रीओनो ए स्वभाव छे. ते पोकार सांभळी नगरना मध्यमां रहेलो सर्व स्वजन समूह एकठो थई गयो, तेओमां सुरेंद्रदत्त वधारे शोक करवा लाग्यो. सुरेंद्रदत्ते पोताना भाईनुं बधुं मृतकार्य कयु, आ पृथ्वीमां अति मुश्केल कार्य आवी पडे त्यारे बंधु ज उभो रहे छे.
___एक वखते कोई ज्ञानी साधुने जोई सुरेंद्रदत्ते चंद्रना मृत्युनो अने पेला बे कुंडलोनो वृत्तांत पूछ्यो. त्यारे ते मुनिए व्यंतरीए रचेलो पूर्वनो संबंध तेने कही संभळाव्यो. पोताना बंधुनो एवी रीते नाश सांभळी सुरेंद्रदत्त वैराग्यवान् थई गयो. छेवटे सर्व संगनो परित्याग करी तेणे ते ज साधुनी समीपे व्रत ग्रहण कयुं अने 1. धुवडपक्षे दोघाश्रय एटले दोषा-रात्रिनो आश्रय. अर्थात् धुवपक्षी रात्रे देखे छे. पक्षे
दोषोनो आश्रय, 2. तम धुवढपक्षे अंधकार अने पक्षे अज्ञान. 3. वाम स्वर एटले धुवटपक्षे नठारो अवाज अथवा डांबी तरफनो अवाज जो रात्रे धुवडपक्षी डाबी तरफ बोले तो कार्यनी सिद्धि थाय छे एम कहेवाय छे.
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पांचमा व्रत उपर देवदत्त अने जयदत्तनी कथा उत्तम तप आचयु. अखिल सिद्धांतनुं अध्ययन करी अंते अनशन लई ते मृत्यु पछी देवताओमां उत्तम महेंद्र थयो. आ प्रमाणे जेओ सुरेंद्रदत्तनी जेम ब्रह्मचर्य धारण करे छे, तेओ मनुष्य छतां पण देवता अने दानव वगेरेने पूजनीय थाय छे.।।२२५।।
इति चतुर्थव्रतम्
जे पुरुष इच्छावडे धनधान्य वगेरे परिग्रहनुं प्रमाण करे छे, ते श्रमणोपासक पुरुषने पांचमुं परिग्रहपरिमाणव्रत कहेवाय छे. ए व्रत ग्रहण करवाथी सम्यक्त्वमूल बार व्रतो ग्रहण पण थाय छे, कारण के एथी सर्वेनो नियम थई आवे छे. जे सद्बुद्धिवाळो पुरुष विधिवडे परिग्रहप्रमाण- व्रत पाळे छे, ते पुरुष देवदत्तनी जेम सुखी थाय छे, जे पुरुष ए व्रत ग्रहण करी पछी तेनी विराधना करे छे, ते जयदत्तनी जेम मरणादि दुःख पामे छे, तेथी विवेकी पुरुषे तेनी विराधनानो त्याग करवो.
देवदत्त अने जयदत्तनी कथा प्रियंकर नामे एक गाममां देवदत्त नामनो एक वणिक हतो, तेने छायानी जेम दरिद्रता साथे रहेती हती. तेने जयदत्त नामे एक मित्र हतो, ते पण तेना जेवो ज निर्धन हतो. कारण के आ पृथ्वीमां समान शीलमां मैत्री थाय छे. एक वखते देवदत्त साथे भातुं लई धन मेळववा माटे ग्रामांतर जतो एक भयंकर अटवीमां आवी चड्यो. त्यां कोई नदीना तीर उपर ते भातुं खावा बेठो, तेवामां कोई एक स्त्री वनमांथी त्यां आवी. तेणीने जोई विस्मय पामी जेवामां ते कांई कहेवा जतो हतो तेवामां ते स्त्री बोली, "बंधु! मारुं वचन सांभळ-अत्यारे क्षुधाथी मारा स्वामीना प्राण जाय छे अने तुं जमे छे ते तने घटित नथी. में जे कद्यं तेनो विचार कर. क्षुधाना जेवो बीजो कोई रोग नथी, कारण के तेनाथी प्राण जाय छे अने अनना जेवू औषध नथी के, जे खावाथी क्षुधानो रोग तरत चाल्यो जाय छे." "ते मारो बनेवी क्यां छे?" देवदत्ते पूछ्युं, "तुं मारी पाछळ चाल, तने ते बतावू." ते स्त्रीए कह्यु, ते पछी ते देवदत्त तेनी पाछळ चाल्यो, केटलेक गया पछी भूख्यो, तरस्यो, श्रांत, भ्रांत अने संपत्ति रहित ते पुरुषने तेणे पृथ्वी पर पडेलो जोयो, तेणे पोतानो हाथ लांबो को एटले देवदत्ते तेने भातुं आप्युं, पछी पेली स्त्री बोली, "हे सज्जन, हवे जल लावी आपी मारा पतिने साजो करी दे." श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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पांचमा व्रत उपर देवदत्त अने जयदत्तनी कथा
तेणे पूछ्युं, "अहिं जल क्यां छे?" "अहिं पासेना एक खाडामां जल छे." ते स्त्री कह्युं. ते पछी देवदत्त तेणीनी पाछळ त्यां गयो. ते खाडामांथी देवदत्त जल खेंचवा लाग्यो, तेवामां ते कपटी स्त्रीए तेने खाडामां हडसेली नाख्यो, पण ते पडतां पडतां वच्चे आवेली एक वृक्षनी शाखाने वळगी रह्यो, ते शाखा उपर रहेतां ते खाडानी दीवालनी अंदर एक विवर तेना जोवामां आव्युं. तरतं ज ते शाखाने छोडी दई ते शुद्ध हृदयवाळो देवदत्त निर्भय थई ते विवरमां पेठो. तेमां आगळ जतां पेली स्त्रीनी साथे रहेलो अने अन्य दुःखोना भारथी मुक्त थयेलो एक विद्याधर सिंहासन उपर बेठेलो तेना जोवामां आव्यो. देवदत्ते ते स्त्रीने प्रणाम करीने कह्युं, "बहेन आ शुं बन्युं ? तुं अहिं क्यांथी आवी? अने आ अग्रणी पुरुष कोण छे?" ते बोली - "हे अमृतना सिंधु बंधु, अमारा बनेनो संबंध सांभळ, विद्याधरोथी विराजित एवा रमणीय वैताढ्य पर्वत पर रथनूपुर चक्रवाळ नामे नगर छे. ते नगरमां आ रत्नचूड नामे मारा स्वामी सदा राज्य करे छे. ते वैताढ्य पर्वतमां मुख्य भवनरूप एवं आ अमारा बन्नेनुं क्रीडा स्थान छे. कारण के विद्याधरोने अने देवताओने एक क्रीडा स्थान होय छे. एक वखते अमो बने एक दारुण अटवीमां क्रीडा करवा आव्या. त्यां चंद्रशर्मा नामनी एक व्यंतरी आश्रित करेलुं घाटुं आंबाओनुं वन हतुं. तेमां एक आंबाना वृक्षने फळेलुं जोई मारा पति खुशी थया. ते वनना देवतानी रजा लीधा सिवाय तेमणे ते आंबानां फलो ग्रहण कर्यां. तत्काळ क्रोध पामेली ते देवीए मारा पतिने बांधी लीधो. पछी हुं एक छरी खेंची मारुं मस्तक छेदवाने तैयार थई, ते देवीए आवी मारो हाथ पकड्यो अने कह्युं के, "वत्से ! आवुं साहस केम करे छे? तुं ईच्छित वरदान मागी ले." में कह्युं, "मारे तो मारो जे 'वर छे, ते वर ज हो. बीजा वरोनी कांई जरूर नथी. ते मारा वरने बंधनमांथी छोडी द्यो अने वेगथी पोताना अमृतरसथी तेनी उपर सिंचन करो. " देवीए कह्युं, "हुं तेना बंधनो मोक्ष तो करीश, पण ज्यारे ते कोई मुसाफरना भातानुं भोजन करशे, त्यारे ते तद्दन साजो थशे. पछी तारे ते मुसाफरने हाथनी चालाकीथी कूवामां नाखी देवो." ते देवताना कहेवाथी मूढ बुद्धिवाळी एवी में तने कूवामां नाख्यो. हे बंधु, ते भ्रांतिथी थयेला मारा नवा अपराधने तुं क्षमा करजे. उपकार करनारा पुरुषनो अपकार करवो ए मोटुं पाप छे. हवे मारी उपर प्रसाद करी तुं वैताढ्य पर्वत उपर आव के जेथी अमो बनेने तारा समागमनुं सुख प्राप्त थाय. पछी हृदयने हर्षित करनारा ते बंने दंपति ते 1. वरदान अथवा पति.
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पांचमा व्रत उपर देवदत्त अने जयदत्तनी कथा कृतार्थ एवा देवदत्तनो उपकार करवा माटे पोताना पर्वत उपर मान पूर्वक लई गया अने त्यां तेने हर्षथी अनेक निर्दोष विद्याओ आपी, तेथी ते विद्याधर बनी गयो. दुःखी स्थिति वखते दान आपवाथी मोटु फल थाय छे. तेने माटे कद्यं छे के. "संपत्तिमां नियम, शक्तिमां सहनता यौवनवयमां व्रत अने दारिद्र्यमां दान ए घणुं अल्प होय तो पण तेथी मोटो लाभ थाय छे."1 पछी त्यां देवदत्त विद्याधरोनी उत्तम कन्याओने परण्यो अने तेणे पोताना नगरमांथी पोताना मित्र जयदत्तने त्यां बोलाव्यो, जेओ घणुं धनधान्य प्राप्त करी बीजा पोताना पक्षवालाने बोलावता नथी, तेओनाथी तो स्वपक्षीओने बोलवनारो काकपक्षी पण उत्तम गणाय छे. जे भोजन मित्रसहित कराय छे, ते पुण्य- कारणरूप छे अने जे मित्र रहित भोजन छे, तेने शुद्ध दृष्टिवाळाओए तमोमय भोजन कहेलुं छे.
एक वखते अवधिज्ञानी लब्धिवाळा अने स्वहित साधवामां तत्पर एवा कोई चारण मुनि त्यां आव्या. ते सांभळी सद्भावथी भरेलो देवदत्त जयदत्तने साथे लई तेमने नमवाने अने पोताना कर्मना भारने हणवाने गयो. तेणे गुरुने प्रदक्षिणा करी अने नमी जे पूर्वे व्यंतरीए करेलो, ते पोतानो सर्व वृत्तांत पूछ्यो. ते सांभळी मुनि बोल्या-"ते व्यंतरी पूर्वभवे तारी बहेन हती. ते दुःशीला थवाथी तेणीने ते क्रोधथी घरनी बहार काढी मूकी पछी ते तापसी थई हठथी तप करी मृत्यु पामीने व्यंतरी थई. तारामां सत्त्वगुण होवाथी ते तने कांई पण करी शकी नहिं, परंतु तेणीए विद्याधरी वडे तारुं भोजन लेवडाव्युं अने तारो वध करवा तने कूवामां नखाव्यो. जंतुने पूर्व- वैर भवोभव रहे छे. कोई सारा भाग्ये तने ते कूवामां वृक्षनी शाखा मळी आवी. "पूर्वपुण्यं दुःखे साहाय्यं कुरुतेंगिनाम्" प्राणीओने पूर्व पुण्य दुःखमां सहाय करे छे" देवदत्ते पुनःगुरुने पूछ्युं, "नरकनी प्राप्ति शाथी थाय?" गुरुए कडं, राज्यथी स्वभाविक रीते नरकनी प्राप्ति थवानो संभव छे. कारण के प्राणीने आ पृथ्वी उपर मोटा परिग्रहने लईने आरंभ थाय छे अने ते आरंभथी जीवहिंसा थवाथी अने जीवहिंसाथी नरके जवानो संभव छे." ते मुनिनां आवां वचनो सांभळी ते बंने भाईओए हृदयमां भावना भावी पापनो नाश करनारो राज्यग्रहण न करवानो नियम ग्रहण कर्यो. ते उपरांत तेओए धन धान्य वगेरे पोताना नव प्रकारना परिग्रहनो इच्छा प्रमाणनो बीजो पण नियम अंगीकार कर्यो. 1. सम्पत्तौ नियमः शक्तौ, सहनं यौवने व्रतं । दारिने दानमत्यल्पमपि लाभाय भूयसे ।।२५९॥ . 2. मित्र एटले सूर्य अर्थात् सूर्यनो उदय होय त्यारे (सूर्यनी साखे) स्वजन मित्रो साथे. 3. तमोमय-अंधकारमय पक्षे तमोगुणी. श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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छट्टा व्रत उपर रौहिणेयनी कथा तेवामां एक समये आयुष्यनो क्षय थतां रत्नचूड विद्याधर अपुत्र मृत्यु पाम्यो. पछी विद्याधरोए आवी देवदत्तने आदरथी आ प्रमाणे कर्दा, "तमे आरंभवाळा प्राणीओने साररूप एवा अमारा राज्यनो भार ग्रहण करो." देवदत्ते का, "राज्यनो संग्रह करवामां मने गुरुए नियम आप्यो छे, तेथी माराथी ते नहीं लेवाय." पछी तेओए ते प्रमाणे जयदत्तने कडं, जयदत्ते ते सर्व मान्य करी राज्य अंगीकार कर्यु. जे प्राणी 'आश्रवने रोकतो नथी, ते सुवृत होय, तो पण जडना आश्रयथी घटी पूरी थवाने अंते जेम ते डूबी जाय छे, तेम ते अल्प समयमां ज डूबी जाय छे. ते वखते घातकी एवा गोत्रना लोकोए जयदत्तने रात्रे मारी नाख्यो. ते मरीने घोर नरकने अने लोकोना अपवादने प्राप्त थयो. तेमज पांचमां परिग्रह परिमाण व्रतने पाळवाथी देवदत्तने आ लोक अने परलोकमां परम सुख प्राप्त थयु. ते बारमा देवलोकने पाम्यो. 'सुकाष्ठ. अल्पसंगवाळो अने आश्रवने रोकनारो पुरुष वहाणनी जेम पोते तरे छे अने बीजा "गुणवाळाने तारे छे. तेथी उत्तम पुरुषोए ते पांचमुं परिग्रह परिमाण व्रत पाळवं जोईए. ए व्रत पाळवाथी बीजा सर्व व्रतोतुं पालन थाय छे. दया (अहिंसा) वगेरे आ पांचव्रतो पंचमहाव्रतोनी अपेक्षाए गृहस्थोना पांच अणुव्रत कहेवाय छे. ।।२८३।।
इति पंचमव्रतम् ___ दशे दिशाओमां जवाने माटे जे प्रमाण करवामां आवे, तेने पहेलुं दिक्परिमाण नामे गुणव्रत सद्बुद्धिवान् पुरुषो कहे छे. आ दिग्विरति नामे पहेलुं गुणव्रत ग्रहण करी जेओ तेने पाळे छे, तेओ रौहिणेयनी जेम स्वजीव- अने परजीवोनुं रक्षण करे छे. अने जेओ ते व्रत अंगीकार करी प्रमादथी अथवा लोभथी तेने विराधे छे, तेओ ते रोहिणेयना पितानी जेम नाश पामी जाय छे.
रोहिणेय अने तेना पितानी कथा . पोतन नामना नगरमां मृगांकमुख नामे एक राजा हतो. तेने नीतिघट नामे एक मंत्री हतो. ते मंत्रीने रोहिणी नामे प्रिया हती. एक वखते रोहिणी सगर्भा थई, त्यारे ते मंत्रीए एक जोषीने पूछ्युं के, "आ स्त्रीने शुं आवशे?" जोषीए कह्यु, पुत्र थशे, पण तेने वीसवर्ष सुधी यत्नथी छूपो राखवो जो छूपो नहीं राखो, तो ते तमारा कुटुंबनो क्षय करशे, ते वीस वर्ष पछी सारं करशे, एमां कोई जातनो 1. आश्रव एटले कर्मनी आवक. घटीपक्षे जलनी आवक. 2. सुवृत्त-सारी वर्तणूक घटी पक्षे गोळाकार. 3. जडपक्षे जल. 4. सुकाष्ठ-सारा लाकडानु. 5. गुणवाळा पक्षे दोरीवाळा. पक्षे सारी दिशावाळु.
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छट्टा व्रत उपर रौहिणेयनी कथा
संशय नथी. हवे तमने योग्य लागे ते तमारे विचारीने करवुं." मंत्री नितिघटे जोषीनां आ वचनो सांभळी तेने घणुं द्रव्य आप्युं. पछी योग्य समये स्थिरतावाळी रोहिणीए एक पुत्रने जन्म आप्यो. मंत्रीए ते पुत्रने तेनी माता साथे भूमिगृह (भोंयरा) मां राख्यो अने रोहिणीनी बहेने त्यां रही तेनुं सूतिकाकर्म कयुं. ते पुत्रने छूपो राखवाथी पिताए तेनुं नाम पण पाड्युं नहिं. माता रोहिणीना पुत्र पणाथी ते रौहिणेय एवा नामथी ओळखावा लाग्यो. ते भूमिगृहमां रहीने ज वृद्धि पाम्यो. पिताए त्यां उपाध्यायनी पासे शास्त्रोना समूहनुं अध्ययन कराव्युं.
ते मंत्रीना घरनी सामे रत्नमाळा नामे एक विदुषी कन्या रहेती हती. एक वखते तेणीए ते पंडितने आग्रहथी पूछयुं के, "तमे हंमेशां अहिं क्यां जाओ छो?' ते सत्य कहो.” ते पंडिते रौहिणेयने भणावा जवानो नवीन वृत्तांत कही दीधो. बुद्धिना भंडाररूप एवी ते कन्याए त्यां जवाने एक सुरंग करावी अने ते रस्ते ज्यां ते चतुर रौहिणेय हतो, ते भूमिगृहमां आवी. तेणीने देखी रौहिणेये पूछ्युं, "तुं कोण छे अने अहिं शा माटे आवी छे?" ते कन्या बोली - "हुं धनदत्तनी कौतुकप्रिया पुत्री छु, 'कळावानने प्रिय अने ? बुध एवो तुं रोहिणीनो पुत्र भूमिमां वासगृह करी रहेलो छे तेने आदरथी जोवाने कोण न आवे? जो हृदयमां आ नगर जोवानी तारी इच्छा होय तो मारी साथे आव हुं तने बधुं नगर बतावुं.” ।।३००।। पछी ते रौहिणेये तेणीनी साथे जई रात्रे बधुं नगर अवलोकन कर्यु. कोई बीजा प्रदेशमां जतां तेने कोई विद्यासिद्ध योगी मल्यो. तेणे तेनो विधिपूर्वक योग्य विनय कर्यो. तेथी ते योगी हृदयमां हर्ष पामी गयो. मान ए मोटा पुरुषोनुं धन छे. ते योगिए रौहिणेयने अदृश्य थवानी विद्या आपी. "विद्यासौ विनयो येन, मुख्यो पायो निगद्यते" विद्या मेळववामां मुख्य उपाय विनय कहेवाय छे. ते विद्यापाठथी सिद्ध करी, एटले तेनाथी ते अवारित 'गति थयो. मणि, मंत्र अने औषध वगेरेनो प्रभाव अचिन्त्य ज छे.
एक वखते रौहिणेय ते धनदत्तनी पुत्रीने परण्यो अने तेणे तेने ते भूमिगृहना एक भागमां स्थिति रहितपणे राखी. पछी तेणे पेला उपाध्याय पासेथी नवीन अध्ययन लेवुं बंध कयुं. ज्यांसुधी बीजुं व्यसन न लागे त्यां सुधी ज विद्यानुं व्यसन रहे छे.
एक वखते ते रौहिणेय विद्याना बलथी चोरी करवा माटे चाल्यो, 1. कलावान् पक्षे चंद्र. 2. बुध रोहिणीनो पुत्र छे. 3. जेने कोई जतां आवतां रोकी न शके एवो.
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छट्टा व्रत उपर रौहिणेयनी कथा जोषीनु वचन प्राणीओने माटे अन्यथा थतुं नथी. विद्याना प्रभावथी लोको जेने साव देखी शकता नथी एवो ते सर्वना घर मूकीने राजाना घरमां गयो अने राजाने ओशीकेथी खड्गरत्न ढाळ, छुरी अने दर्पण लई ते पुनः पोताने घेर चाल्यो आव्यो. तेनो पिता खरेखर तेनुं आq चरित्र शीघ्र जाणतो न हतो. कारण के "गूढहृदां पुंसां, ज्ञायते नो विचेष्टितम्" गूढ हृदयवाळा पुरुषोनुं चरित्र जाणवामां आवतुं नथी. प्रातःकाले राजाए जाग्रत थईने सर्व जोयु, त्यां ते खड्ग वगेरे चार वस्तुओ तेना जोवामां आवी नहि; पछी राजाए पहेरेगीरोने बोलावी क्रोध लावी आ प्रमाणे कडं, "अरे! तमो हमेशां मारुं घणुं द्रव्य खाई जाओ छो अने मारा सर्वस्वने चोरनारा छतां निर्भय रहेनारा चोरलोकोने केम पकडता नथी? शुं तमारामां कांई दम नथी?" तेओए राजानी आगळ आ प्रमाणे का, 'राजन्! अमे जागता रहीए छीए, तो पण चोरनुं दर्शन थतुं नथी, तो ते मोटा चोरने अमे शं करी शकीए?" ते वखते मंत्रीए का हे स्वामी, ते चोर कोई विद्यासिद्ध पुरुष छे, तो ते पराक्रमथी साध्य थशे नहिं, पण कोई उपायथी साध्य थशे, तेथी ते चोरायेली चार वस्तुओ तमारे हाथ आवशे." राजा बोल्यो, "मंत्री, एवो उपाय शो छे? ते कहो." मंत्रीए कां, "प्रभु! राजमार्गमां एक महेल करावो. पछी ते महेलनी अंदर तमारी पुत्री वासवदत्ताने राखो. ते सिद्ध पुरुष तमारी पुत्रीने वश थईने त्यां आवशे. ते पोताना बाह्य अने अभ्यंतर बंने स्वरूपने विषय रसने लईने गोपवी शकशे नहि, तेथी ते प्रगट थई आवशे. पछी पाछळथी बधुं थई आवशे." मंत्रीना कहेवा प्रमाणे राजाए कयु. रात्रि थतां रौहिणेय त्यां आव्यो. राजकुमारीने जोतां ज मोहित बनी गयो अने तेथी तेणे पोतानुं शरीर राजकुमारीने बताव्यु. कामदेवने जीतनारूं तेनुं अंग अने पेली खड्ग वगेरे चार वस्तुओने देखी ते सुंदरमालाथी शोभती राजकुमारी वासवदत्ता कामातुर थई गई. तेणीए पूछ्युं, "तमे कोण छो?" रौहिणेये उत्तर आप्यो, "जेओ रात्रे पारका घरोमां फरनारां छे, ते मांहेलो हुं छु, ते विचारी ल्यो." राजकुमारी बोली, "आ तमारी पासे खड्ग वगेरे वस्तुओ छे, ते तमे क्याथी मेळवी छे?" तेणे कडं, "ते में राजानी पासेथी हरी लीधी छे." राजपुत्री बोली, "तमारामां एवी कई सिद्धि अथवा अद्भुत बुद्धि छे के जेनाथी तमे अस्खलित पणे सर्वत्र आवो छो अने जाओ छो? ते कहो." पछी रौहिणेये पोतानुं अनुपम कुळ अने विद्यानी प्राप्तिनी बधी वार्ता कही संभळावी. "अभ्यर्थितः स्त्रिया को न, सर्व गुह्यं निवेदयत्" स्त्रीनी प्रार्थनाथी कयो पुरुष गुह्य वात न करे? पछी कामने वश थई तेणे ते सर्व राजपुत्रीने अर्पण
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छट्टा व्रत उपर रौहिणेयनी कथा करी दीधुं अने दीपकना अग्निनी साक्षीए तेणी- पाणी ग्रहण कर्यु. त्यारबाद रौहिणेय पोताना भूमिगृहमां जई सुख निद्राये सुई गयो. अहीं राजकुमारी खड्ग वगेरे चार वस्तुओने लई राजानी पासे आवी. पोताना खड्ग वगेरेने जोई राजाए कडं, "वत्से! आ चार वस्तुओ तने क्याथी प्राप्त थई? ते कहे." राजकुमारी बोली; "महेलमां आवेला चोर पासेथी मने आ चार वस्तु मळी छे." राजाए का, "तुं ते चोरने अहिं केम लावी नहिं? अथवा ते चोर भय पामीने क्यांक चाल्यो गयो हशे." "पिताजी, हुं ते चोरने तमारी पासे लावीश." पुत्रीए उत्तर आप्यो. आ प्रमाणे कही ते वासवदत्ता शरीरे सुशोभित थई मंत्रीने घेर गई. तेणीए मंत्रीने कर्वा के, "मारा पिता तमारा पुत्रने बोलावे छे." ते सांभळी मंत्री बोल्यो, "मारे पुत्र ज नथी." पछी वासवदत्ताए रात्रिनो बधो वृत्तांत मंत्रीने कही संभळाव्यो. ते सांभळतां ज मंत्री संभ्रम पामी गयो. पछी तेणे पोताना पुत्रने पूछ्युं एटले तेणे पितानी आगळ सर्व सत्य हकीकत कही आपी. पछी मंत्री नीतिघट राजपुत्री वासवदत्ताने साथे लई राजमंदिरमां आव्यो. राजपुत्रीए पोताना पिता आगळ कडं के, "आ मंत्रीना पुत्रे अदृश्य विद्याथी तमारा खड्ग वगेरे चोरी लीधां." ते सांभळी राजाए शरणे आवेला मंत्रीने का के, "तमारा पुत्रे चोरी करी छे, माटे हवे तेने मरणने ज शरण थवानुं छे." मंत्री नमन करीने राजा प्रत्ये बोल्यो, "राजन्! ते मारो पुत्र आपनो जमाई थयो छे, माटे ते कदि पण वध करवाने योग्य नथी." आश्चर्य पामेला राजाए पोतानी पुत्रीने पूछ्युं एटले पुत्रीए बधी यथार्थ वात जणावी. राजाए पुनः कर्वा "तो पण मंत्री! तमारा पुत्रने अहीं लावो." पछी मंत्रीए पेला जोषीनी वात प्रगट करी. ज्यारे समय पूर्ण थयो, एटले मंत्रीए पोताना पुत्र रौहिणेयने भूमिगृहमांथी बहार काढ्यो. रौहिणेय मोटी समृद्धि साथे राजानी आगळ आव्यो. राजाए पोताना जामाताना (जमाईना) मोहने लईने तेने अधुं राज्य आप्यु. अने पेला जोषीने घणुं दान आपी सन्मान कयु.
कोई वखते मंत्री नीतिघटे पोताना पुत्र रौहिणेयनी साथे गुरुनी पासे जीवदया सहित पेलुं दिग्विरति व्रत अंगीकार कयु.
___ एकदा सीमाडाना शत्रु राजाओनी साथे रौहिणेयने युद्ध थयुं, तेमां ते राजाओने रौहिणेये जीतीने नशाडी मुक्या. पितानी प्रेरणाथी रोहिणेय तेमनी पाछळ दोड्यो. घणे मार्गे जई रौहिणेये पोताना पिताने कर्वा के, "आपणे नगरथी अहीं कटेले रस्ते आव्या?" "आपणे सो योजन आव्या छीए." मंत्रीए उत्तर आप्यो. ते सांभळी रौहिणेय त्यां ज स्थिर रह्यो. पिताए कह्यु, 'वत्स, तुं अहीं केम स्थिर
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छट्टा व्रत उपर रौहिणेयनी कथा रह्यो?" ते बोल्यो "पिताजी आपणे दिग्विरति व्रत लीधुं छे, तेना भंगना भयथी हुं अहीं रोकायो छु." पिताए जणाव्युं, "वत्स! सुख थाय तेवी रीते नियम पाळवो घटे छे, तेथी ते व्रत आगारवाळु कहेवाय छे." रौहिणेय बोल्यो, "जनक! जो पुरुष परवश होय, तो तेने माटे आगार कहेला छे, परंतु जो ते स्ववश होय तेमज प्रथम संघयण होय तो तेने माटे आगार कहेला नथी." पिताए कडं, "वत्स! आ शत्रुओने छोडवा न जोईए, माटे आगळ चाल." "हं कदि पण नियमनो भंग करीश नहि" पुढे का, पितानो क्रूर अति आकरो आग्रह छतां पण ते रौहिणेय क्रूर न थयो. 'रौहिणेय सौम्य हतो, एटले ते क्रूर न थाय. जे रौहिणेय क्रूर थाय, तो ते ज्योतिषशास्त्रथी विरुद्ध गणाय. पछी रौहिणेयनो पिता नीतिघट तेना पुत्रे घणो वार्यो, छतां ते मूढबुद्धिवाळो द्वेषी थई केटलुंएक सैन्य लई शत्रुओनी पछवाडे चाल्यो. तेने जोई शत्रुओए जाण्यु के, "आ माणसनी पासे सैन्य थोडं छे अने वळी ते वाणीयो छे, तो आपणने शं करी शकशे?' आवं चिंतवी ते शत्रुओ बळथी पाछा वन्या. अने तेओए मरवानो निश्चय करी ते मंत्रीने युद्धमां मारी नाख्यो. जे मनुष्यो नीतिधर्मना द्वेषी बने छे, तेओर्नु शुभ थतुं नथी. वळी कर्वा छे के, "डाह्या पुरुषोए बीकथी नाशी जता शत्रुनी पाछळ जq नहि. जो ते मरवानो निश्चय करे-मरणीयो थाय, तो तेनामां शौर्य कदाचित् प्रगट थई आवे. ज्योतिषीना द्वेषीओनुं कुशळ थतुं नथी, वैद्योना द्वेषीओने जीवित टकतुं नथी, नीतिना द्वेषीओने लक्ष्मी रहेती नथी अने धर्मना द्वेषीओने तो कुशळ, आयुष्य अने लक्ष्मीमांथी एक पण रहेतुं नथी."2 पिताना मृत्युना खबर सांभळी रौहिणेय परम वैराग्यने पामी गयो. पछी पोताना पुत्रने राज्य उपर बेसाडी पोते दीक्षा ग्रहण करी, ते व्रत पाळी अंते अनशन लई मृत्यु पामी सुख संपत्तिमां चढीयाता एवा अच्युत देवलोकमां गयो. आ प्रमाणे रोहिणेय दिग्विरति व्रत पाळवाथी सुखी थयो अने तेनो पिता नीतिघट ते व्रत भांगवाथी शत्रुओने हाथे मार्यो गयो. मंत्री नीतिघट दोषाकर अने रौहिणेयथी ज वर्जित रह्यो तेथी तेनो देह तमथी ग्रस्त थयो, ए अवश्य घटित ज थयु. ते बंनेने आलोक अने परलोकमां 'पराभूति थई हती, ते उपरथी आ छटुं व्रत पाळवू जोईए के जेनाथी कष्ट न थाय. ।।३५८।।
इति षष्ठव्रतम् 1. रौहिणेयनो अर्थ बुध ग्रह थाय छे. तेने ज्योतिषमां सौम्यग्रह कहेलो छे. 2. न निमित्तद्विषां
क्षेमो, न आयुर्वेद्यकविद्विषां । न श्रीनीतिद्विषामेकमपि धर्मद्विषां न हिं ।।५।। 3. नीतिघटनीतिनो घटो होय ते (अज्ञान-मिथ्यात्व योगे) दोषाकर दोषनी खाणरूप थाय अथवा चंद्र
अने रौहिणेय बुधथी वर्जित होय, तो ते तम-राहुथी ग्रस्त थाय छे. पक्षे तम-अज्ञान. 4. एकने पराभृति-मोटी समृद्धि अने बीजाने पराभूति-पराभव थयो हतो. 310
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सातमा व्रत उपर स्वर्णशेखरनी अने महेंद्रनी कथा
जे भोगोपभोगनी वस्तुओमां वर्जवा योग्य होय ते वर्जवी अने जे वर्जी शकाय तेवी न होय, तो तेनी अंदर अमुक संख्यानो नियम धारवामां आवे, ते बीजुं गुणव्रत कहेवाय छे. ते बीजा भोगोपभोग नामना गुणव्रतने जे धर्मपरायण पुरुषो नित्ये अंगीकार करी पाळे छे, तेओ स्वर्णशेखरनी जेम दीर्घ आयुष्य अने परलोकमां सद्गतिने प्राप्त थाय छे अने जे पुरुषो ते व्रत लई तेनी विराधना करे छे, तेओ महेंद्रनी जेम अल्प आयुष्य अने परलोकमां दुर्गतिने प्राप्त थाय छे. स्वर्णशेखर अने महेंद्रनी कथा
चंदन नामना नगरमां शंखना जेवा उज्ज्वळ यशवाळो शंख नामे एक राजा पूर्वे थयो हतो. ते नगरमां यशोधवल नामे एक श्रेष्ठी रहेतो हतो. ते शेठने महेंद्र अने स्वर्णशेखर नामे बे पुत्रो हता. ते बंने युवान वयने प्राप्त थतां
एक वखते श्रेष्ठीए तेमने पूछयुं के, "तमे बने तमारा कुटुंबनो निर्वाह शी रीते करशो?” ते सांभळी तेओमां मोटा पवित्र पुत्रे पिताने कह्युं के, "हुं उत्तम देशांतरे जई वेपार करी मारा कुटुंबनो स्वकुळनी योग्यता प्रमाणे निर्वाह करीश." बीजा पुत्रे कह्युं के, "हुं बे राजपुत्रीओने परणी राजा शंखने शहेरमांथी बहार कढी मूकी राजा थईने मारा कुटुंबनो अने बीजानो निर्वाह करीश. पिताजी, तमारे तेनी शी चिंता छे?" नाना पुत्रनां आवां वचन सांभळी पिताए क्रोधथी कयुं, "अरे वाचाळ ! आवुं अमंगळ अने अयोग्य प्रत्यक्ष केम बोले छे? तुं मारुं घर छोडी दे, नहीं तो तारो देह रहेशे नहीं. तुं अमारुं दुःख लईने दूर था अने तेवी जरी तारा कुलनुं रक्षण कर." आ प्रमाणे तरछोडीने पिताए तेने बळात्कारे काढी मुक्यो. ते त्यांथी नीकळीने सारा मतवाळा नागपुर नामना नगरमां गयो. त्यां लेखशाळामां रहेला चौद विद्याओमां चतुर एवा पाठकने प्रणाम करी तेणे आ प्रमाणे कह्युं, "उपाध्यायजी, आप मने घणी उत्तम कळाओ भणावो.” ते सांभळी उपाध्याये कह्युं के, "वत्स मारी पासे खुशीथी अध्ययन कर." पछी अधिक बुद्धिवाळा तेने उपाध्याय आदरपूर्वक भणावा लाग्या. ते जोई बीजा अभ्यासीओ तेनी उपर मत्सरभाव दर्शावा लाग्या. पण ते तेमना मनने संतोष आपवा माटे तेनी दरकार करतो नहिं. लोकोमां कहेवत छे के, "समवायो जयावहः " समवाय संप छे, ते ज जय आपनारो थाय छे. ते पाठशाळामां लक्ष्मीपति राजकुमार सदा विद्याअभ्यास करवा आवतो. तेनी पासे जईने ए स्वर्णशेखर विविध जातनुं ज्ञान सांभळतो हतो. तेणे सर्व लिपिओ अने विश्वमां विख्यात एवी अनेक भाषाओ जाणी लीधी. गुरुना प्रसादथी शुं न थाय?
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सातमा व्रत उपर स्वर्णशेखरनी अने महेंद्रनी कथा
आ अरसामां मगध देशमां चंद्र नामे एक राजा हतो. ते राजाने धारिणी नामनी राणीनी कुक्षिथी मृणालिनी नामे एक पुत्री थई हती. ते यौवनवयने प्राप्त थई. तेणीना जेवो कोई जातिमा प्रख्यात वर मळतो न हतो. तेथी राजा चिंतातुर रहेतो हतो. तेने ते पुत्री चिंता आपनारी थई पडी. एक वखते राणीए राजाने चिंतातुर जोई पूछ्युं, "स्वामी, तमने शुं कांई पीडा छे?" ते सांभळी राजाए का, "मने पुत्री हमेशां मानेती छे, परंतु तेणीने योग्य एवो वर जोवामां आवतो नथी, तेथी मने दुःख थाय छे." ते सांभळी राणीए चिंतव्यु के, "अहो! चंद्रने 'मृणालिनी प्रिय होय छे, पण आ तो तेनो सविता छे तेथी तेना प्रभावथी तेने दुःख थाय ए घटित छे." राणी बोली-"आपणा मंत्रीना पुत्रने ते पुत्री आपो, तो ते सुखे रहे, कारण के ते सुकुमार छे. एटले कदि बाहर आवतो नथी, ते सांभळी राजाए एक वखते मंत्रीने बोलावीने कडं के, "तमारा पुत्रनी साथे मारी पुत्रीनो विवाह करीए." ते सांभळी मंत्रीए पोताना मनमा शंका लावीने विचार्यु के, "मारो पुत्र कोढीओ छे. तेथी ते चोरनी जेम एकांते ज रहे छे. में ते वात छूपाववा लोकोमा जुदी रीते वात चलावी छे. हवे आ राजा तरफथी मारे विकट संकट आवी पड्यु. जो ते साची वात हमणां ज करीश, तो तेथी नुकसानी थशे, माटे हाल तो वखतनो विलंब करवा राजाना वचनने मानी लउं." आq विचारी तेणे राजानुं वचन कबूल कर्यु. सुकृत विना तेवी संकटमांथी मुक्त थवानी बुद्धि उत्पन्न थती नथी पछी घेर आवीने पोतानी पत्नीने ते स्वरूप कह्यु. तेणी ए कह्यु के हे नाथ! आपे आ घणुं ज विपरित कयुं छे. मंत्रि ए कह्यु के तुं खेद न कर. दुष्कर कार्य करनारी गोत्रदेवीनी आराधना करीने सर्व उत्तम करीश. विधि पूर्वक गोत्रदेवीनी आराधना करी. गोत्रदेवीए कह्यु. नागपुर नगरमां वनमा रहेला उत्तम (स्वर्ण शेखर) कुमारने तारा माणसो मोकलीने लाव. तेना कहेवाथी तेणे पोताना माणसो मोकल्या. ते अवसरमां ते पण क्रीडा करवा वनमां आवेलो. तेओए तेने घोडा उपर बेसाडीने पोताना स्थानमां शीघ्र आव्या. "भाग्योदये नृणां येन, सर्व भवति सुंदरं" भाग्योदयथी पुरुषोंने सर्व कार्य सुंदर थाय छे. पछी मंत्रिए विधिपूर्वक शृंगार करावीने. हाथीना स्कंध उपर बेसाडीने राजाना मंदिरमां (महेलमां) लई गया. शुभमुहूर्त्तमां महोत्सवपूर्वक राजानी पुत्रीनो हाथ ग्रहण कर्यो एटले परणावी. ते अवसरमां ते कुमारे राजानी पुत्रीना हाथमांथी मुद्रारत्न (अंगुठी) लईने पोतानी अंगुलीमां पहेरी लीधी. विवाह कार्य पूर्ण थया पछी जे माणसो तेने लईने आव्या 1. मृणालिनी-पोयणी. 2. सविता-पितापक्षे सूर्य..
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सातमा व्रत उपर स्वर्णशेखरनी अने महेंद्रनी कथा हता तेओए तेने पाछो नागपुरमा छोडी दीधो. कारणके 'धूर्ता आत्मीयकार्यगाः" धूर्त पुरुषो स्वार्थने साधनारा होय छे.
ते पछी ते चिंतातुर थयेलो क्यांय पण सुख पामतो नथी, ज्यां त्यां भोजन करे छे अने ज्यां त्यां शयन करे छे. एक वखत देव कुलिकामां सुतेला ते स्वर्ण शेखरे लोकोना मोढाथी सुखकारी प्रीतिकर वचनो सांभन्यां के मगधदेशमां श्वेत घोडाओनो मालिक चंद्रराजा छे. तेणे खोदता सरोवरमांथी केटलांक पत्रो प्राप्त कर्या छे. ।।४०० ।। परंतु हमणां ते पत्रोनी लीपिने कोई वांची शकतुं नथी. तेथी तेणे पटह वगडाव्यो छे. के जे विद्वद् शिरोमणि पुरुष आ पत्रोने वांचशे तेने पोतानी राजपुत्री अने अधुं राज्य अर्पण करशे. परंतु हजी सुधी ते पटहने पंडितोमा उत्तम हीरा जेवा कोईए स्पर्श कर्यो नथी. ते सांभळीने ते स्वर्ण शेखर त्यां चाल्यो.
त्यां जईने तेणे ते पटहने हाथथी स्पर्श कर्यो. राजपुरुषोए तेने राजप्रासादमां लई गया. तेनु सन्मान करीने राजाए ते सभामां ते पत्रो तेने बताव्या. तेणे पण ते शीघ्र पोताना नामनी जेम वांच्या. तेमां आ प्रमाणे लखेल हतुं. आ पत्रो ज्यां नीकल्या त्यांथी दश हाथ उपर भूमिमां १३।। साडी तेर क्रोड सुवर्ण दाटेलुं छे. राजाए ते स्थान पर जईने जोयुं अने ते सुवर्ण मन्युं. राजाने पण ते निधि जोईने अत्यंत हर्ष थयो. राजाए जे स्वीकारेल ते प्रमाणे तेने अर्ध राज्य अने कन्या आपी. विवाह पछी चोपाट खेलवाना समये एक वखत कनकमंजरी राजपुत्रीए पोताना पतिना हाथमां पोतानी मोटी बेनना नामनी मुद्रिका जोईने आश्चर्य पामीने पति पासेथी ते लईने ते राजानी पासे गई. राजानी आगन ते मुकी. राजा पण ते जोईने आश्चर्य पाम्यो अने पूछ्युं आ ते क्यां प्राप्त करी? त्यारे ते पुत्रीए कह्यं तमारा जमाईना हाथमांथी. राजाए जमाईने बोलावीने पूछ्युं जमाईए कह्यु के करमेलापना समये में हरण करी हती. ते पछी ते मुद्रिकाने छुपावीने राजाए मोटी पुत्रीने बोलावी कशअंगवाली ते त्यां आवी पिताना चरणोमां नमस्कार करीने शोक सहित कृष्ण मुखी थइ राजानी आगल ते बेठी. राजाए पूछ्युं हे वत्स! तारी आ दशा शा कारणथी थई? तेणे पण मंद-मंद स्वरथी जे बन्युं ते पोताना पिताने
कडं.
जे मने परणनार हतो ते बीजो हतो. आ मंत्रीपुत्र नहोतो. तेणे त्यारे मारुं मुद्रिकारत्न हरण करेलुं छे. क्यारेय पण आ मंत्रीपुत्रना हाथमां ते मुद्रिकारत्न दृष्टिने सुखकारी जोवामां आवतुं नथी. तेथी तेने हुं (मंत्रिपुत्रने) भाईनी जेम मार्नु श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सातमा व्रत उपर स्वर्णशेखरनी अने महेंद्रनी कथा छु. अने ते चिंताना कारणे दुर्बलता मारामां आवी छे. पछी राजाए स्वर्ण शेखरने बोलावीने पूछ्युं. हे विद्वद्! आ मुद्रिका तारा हाथमां क्यांथी आवी? त्यारे तेणे ते पूर्वनो सर्व वृत्तांत निर्विवाद रीते राजानी आगल कह्यो. त्यारे राजा ते जमाई उपर खुश थयो. पछी मंत्री अने मंत्री पुत्रने शीघ्र बोलाव्या. मक्षिकाना पुंजथी युक्त मलेली नाशिकावालो, कुष्टरोगथी ग्रसित, उत्तम जनो द्वारा निंदनीय ते पुत्रने जोईने राजा गूढ कोपथी बोल्यो.
हे मंत्री! तारा पुत्रनी आवी अवस्था केम देखाय छे? त्यारे ते मंत्री बोल्यो. विवाहना समयथी आनी आवी अवस्था थई छे. कारण के विवाहना समयमां आपे अने सर्व लोकोए आने जोयेलो छे. हमणां जे परावर्त थयुं छे ते आपनी पुत्रीना संपर्कथी थयेल छे. त्यारे राजाए राजानी पुत्रीने बोलावी त्यारे तेणे स्व कुलदेवताने उद्देशीने कर्वा के जो आ मंत्रिना वचन सत्य होय तो मने पण आना जेवी कर अने जो आ मृषावादी होय तो सर्व लोकोना देखतां पापकारी एवा आ मंत्री पुत्रना मस्तकना सो टुकडा थाय. अने तेज समये तेना मस्तकना सो टुकडा थई गया. कारण के "सतीनां वचनं सद्यः सत्यं संजायते भुवि ।" पृथ्वी पर सतिओना वचन शीघ्र सत्य थाय छे. ते मंत्री पुत्र मरीने दुर्गतिमां गयो. सपरिवार मंत्रीने राजाए पोताना देशमाथी निर्वासित कर्यो कारण के राजाओ "तत्काल फलदा नृपाः" राजाओ तरत फल आपनारा होय छे. ते पछी मृणालिनी पोताना पतिने मेळवीने हर्षीत थई. ते पण बन्ने पत्निओनी साथे भौतिक सुखने भोगवे छे.
ते पछी ते शंखराजाने जीतवा माटे राजाना आदेशथी मंत्रिओनी साथे सैन्यथी परवरेलो चाल्यो. ते स्वर्णशेखर राजाने आवतो सांभळीने शंखराजा पोताना चंदनपुरने छोडीने पलायन करी गयो. ते पछी नगरमां जनता द्वारा कृत महोत्सव पूर्वक स्वर्ण शेखरे प्रवेश कर्यो. "पुण्यात सर्वत्र मान्यता" पण्यथी सर्व स्थानके मान्यता थाय छे. राजा स्वर्णशेखर आव्या पछी शंख राजाए जे 'कंकणता छोडी दिधी ते घटीत छे. जेवो संग तेवो रंग थाय ते युक्ति पण एम ज देखाय छे. वनवासमां पण शंखने गुणसंग्रह न थाओ तेमां पण तेने जीवन न हतुं. ए मोटुं आश्चर्य कारक बन्यु.
यश श्रेष्ठि रत्नथी भरेला स्र्वण थाल प्राभृतना भेटणाना रूपमा मुकीने 1. कंकण शंखना बने छे अने शंखे कंकणता-कंकणपणुं छोडयुं ते आश्चर्य. 2. शंखने वनवासमां-जलवासमां ज गुणसंग्रह थवो जोइए.
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सातमा व्रत उपर स्वर्णशेखरनी अने महेंद्रनी कथा पोताना पुत्र सहित राजाना चरणमां नम्यो. ते अवसरे स्वर्णशेखर राजाए स्वच्छ मनथी ते श्रेष्ठिने पछ्यं. हे श्रेष्ठिन! मने ओळखो छो? तेणे कर्खा आपने कोण न ओळखे! व्यवहारथी व्यवहारी एवा मने ओळखो छो अर्थात् हुं राजा छु ए प्रमाणे ओळखो छो. परंतु पोताना पुत्र स्वर्णशेखरना रूपमां नथी ओळखतांने! ते सांभळीने श्रेष्ठि पोताना महेन्द्र नामना पुत्रनी साथे आश्चर्य पाम्यो. तो पण शंकीत मनवाळो थईने मौन धरीने उभो रह्यो. भाग्यथी प्रधान एवा ते स्वर्णशेखरे पोताना पितानो सत्कार करीने पोतानो सर्व वृत्तांत कह्यो. अने पोताना भाईने प्रधान अने श्रेष्ठिपद पर पोताना पिताने स्थापित कर्या..
एक वखत भाईनी साथे राजा नंदन उद्यानमा रहेला धर्मघोषनामना सूरि भगवंतने वंदन करवा आव्यो. गुरु भगवंते बार व्रत पर देशना आपी अने तेमां भोगोपभोग व्रत पर विशेष विवेचन कयु. हे राजन्! आ व्रत स्वीकार करनारे प्रयत्न पूर्वक बावीश अभक्ष्य छोडवा, विवेकिओने मद्यमांसादिमहाविगईयो छोडवी. बत्रीश अनंतकाय कंदमूळादि छोडवा, जंतु युक्त फल, पत्र, पुष्प, धान्य छोडवा. पंडितोए पापर्नु मूळ जेमां छे एवा पंदर कर्मादान खरकर्म आदि पंदर कर्मादानो छोडवा. ते सांभळी संसारमा धर्मने ज सारभूत गणीने राजाए भाईनी साथे ते व्रतने ग्रहण कयु.
वसंतऋतुना समये ते पोताना भाईनी साथे एक वखत उद्यानमां पोताना सुंदर परिवार साथे गयो. त्यां वनपालके सुंदर फळो राजानी आगळ मूक्यां. ते फळो जोईने राजाए तेओने पूछ्युं के हे भाईओ! आ फळोनुं नाम शं छे? त्यारे उद्यानपालके कह्यु के हे राजन्! आ फळोनुं नाम अमे जाणता नथी. पण अति मनोहर अपूर्व फळोने जोईने अमे लाव्यां छीए. राजाए कयुं हुं आनुं नाम अने गुण न जाणवाथी क्यारेय खावानो नथी. कारण के मारे अज्ञात फळ न खावानो नियम लीधेल छे. महेन्द्रे ते फळ रसनो अर्थि बनीने खाधा. ते विषवृक्षना फळोना कारणे क्षणभरमां मरणने प्राप्त थयो.
ते महेन्द्र मरीने व्यंतर निकायमां देव थयो. पोताना भाईने मरण पामेलो जोईने पोताना पुत्रने राज्य उपर स्थापन करीने स्वर्णशेखरे यशोधर गुरुनी पासे दीक्षा ग्रहण करी. चारित्रनुं पालन करी आयुष्य पूर्ण करीने उपरना ग्रेवैयकमां ते उत्पन्न थयो. आ प्रमाणे भोगोपभोग व्रत पालन अने अपालनथी मानवो आ संसारमा सुख दुःखने प्राप्त करनारा थाय छे. "आ प्रमाणे सातमुं व्रत कहूं."।।४५१।।
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आठमा व्रत उपर वीरसेन अने पद्मसेननी कथा
पीरसेन अने पद्मसेननी कथा कारण वगर जे जनो कर्मराजाथी दंडाय छे. धर्मद्रव्यनुं अपहरण करवू ते अनर्थ दंड कहेवाय छे. मद्यमदिरा जेवा रसवाळा पीवाना पदार्थो न खावा ते जाणीने ते छोडवाथी त्रीजुं गुण व्रत थाय छे.
जे पुरुषो आ पृथ्वी पर अनर्थ दंडने तजे छे. तेओ वीरसेननी जेम धन्य पुरुषो पाप कर्मथी विवर्जित सर्वमान्य थाय छे अने जेओ कूटमंत्रादि वडे क्लिष्ट बुद्धिवाळा थइ खोटाविचारो वगेरेथी अनर्थदंडने सेवे छे. तेओ पद्मसेननी जेम महादुःखने पामे छे. जेम के
वीरसेन अने पद्मसेनवी कथा मलय नामना नगरमां विमल नामनो राजा, वीरसेन नामनो श्रेष्ठि अने तेनी वीरमती नामनी पत्नी हती. तेनी कुक्षीथी पद्मसेन नामनो पुत्र थयो हतो. ते हुष्ट बुद्धिवाळो मंत्रतंत्रना प्रयोगमा आदरवाळो हतो. एकवखत श्रुत समुद्रना पारगामी पुण्यदायिनी तेनी वाहन शालामां श्रुतसागर सूरि रहेला हता. त्यारे वीरसेननी साथे पद्मसेन नमस्कार करीने गुरुनी सामे उचित स्थानके बेठा. ते समयमां कोई व्यंतर सूरि भगवंतनी नजरे आव्यो तेने उद्देशीने हितकारी उपदेश आचार्य भगवंते आप्यो. के हे देव! तुं निरर्थक पाप शा माटे उपार्जन करे छे. 'विबुधजनो तो जरूर होय तो पण जीवघात करता नथी अने तुं स्वार्थ सिद्धि विना जे जीवघात करे छे सारुं नथी. ते शब्दो सांभळीने वीरसेन श्रेष्ठिए पूछ्युं. आप आ उपदेश कोने आपो छो? आचार्य भगवंते कडं व्यंतरने आपु . तेणे पूछ्युं 'क्यां छे?' सूरिजीए कह्यु तारा पुत्रनी डाबी बाजु उभो छे. वीरसेने कीधुं अमने केम देखातो नथी. गुरुए कह्यु. तमारा जेवाओने ए दृष्टि पथमां न आवे. त्यारे वीरसेने पूछ्युं अहिं आणे शुं अनर्थ कर्यो छे. त्यारे गुरु एमने अर्थनो निर्णय कराववा माटे बोल्यां.
विजय नामना नगरमां अरिमर्दन नामक राजा छे. तेने सिंह समान विक्रमशाळी सुबुद्धिनामनो मंत्री छे. ते मंत्रीने विजय नामनो पुत्र छे. एकदा राज सभामां कोई कृतज्ञ पूण्यशाळी निमित्तज्ञ आव्यो. राजाने आशीर्वचन दईने आसन उपर बेठो. तेनी सामे फळ मुकीने राजा तेना प्रति बोल्या. हे निमित्तज्ञ! तमे शं निमित्त जाणो छो? जो जाणता हो तो हमणां बोलो. निमित्तियाए पण कयुं हे राजन्! हुं भूत, भविष्य अने वर्तमानना बनावो जाणुं छु. राजाए कह्यु भूतकाळना 1. विबुध-देवता अने विद्वान.
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आठमा व्रत उपर वीरसेन अने पद्मसेननी कथा निमित्तने जाणवार्नु कांई प्रयोजन नथी. हे विद्वद् शिरोमणि! भविष्यना कांईक निमित्तने तमे कहो. तेणे कर्तुं हे स्वामिन्! मंत्रि कुटुंब सहित मंत्रिनो आजथी सातमे दिवसे (क्षय) नाश थशे. राजाए कह्यं अहिं विश्वास शं? हे राजन्! हमणां आपनो हाथी स्तंभ उखाडीने अहिं आवे तो मारा वचनने सत्य मानजो. आ प्रमाणे ते बोले छे त्यां तो ते हाथी त्यां आवी गयो. ते जोईने राजा विषाद खेदने प्राप्त थयो. जेम कोई शापथी खेद पामे तेम. राजाने खेदित जोईने मंत्रि बोल्यो. हे राजन्! आप खेद शा माटे करो छो. हुं आनी प्रतिक्रिया करीश. ते पछी ते मंत्रीए ते निमित्तज्ञने घरे लई जईने पूछ्युं क्या हेतुथी मारा कुलनो नाश थशे! तेणे कद्यु तमारा पुत्रथी. मंत्रीए पूछ्युं शुं करवाथी मारा कुलनो क्षय थशे? तेणे कडं राजाना घरे अन्याय करशे तेथी तारा कुलनो नाश थशे. मंत्रीए तेनो सत्कार करीने तेने रजा आपी. पछी पुत्रने एकांतमां बोलावीने का के हे पुत्र! ताराथी आपणा सर्व कुटुंबनो क्षय नियमा थशे. तेणे कडं हे तात! तो हुं हमणां ज मरी जईश. हुं आपणा कुटुंबनो संहार कोई पण हिसाबे नहीं करूं. मंत्रीए कह्यु तारा मरवाथी कुटुंबने जीवाडु तो मारुं विचारोमां चतुरता भयुं बुद्धिशाळीपणुं शा कामर्नु? तने अने आपणा कुटुंबने जीवाडु त्यारे मारी बुद्धि सिद्धिकरनारी जाणवी. आ माटे तारे मारुं वचन स्वीकार. तेणे कर्दा आमां आपनुं शुं वचन छे? मंत्रीए कह्यं तुं आ मोटी मंजुषा (पेटी) मां प्रवेश कर. तेथी तारुं अने कुटुंब- जीवित रहेशे. पुढे हा पाडवाथी पकवान, पाणी साथे ते पुत्रने निरुपद्रव रीते पेटीमां पूर्यो. अने ते पेटीने राजसभामां लई जईने राजाने कह्यु. हे स्वामिन्! नैमित्तिकना वचन जो सत्य थाय तो आमां रहेल मारुं सर्वस्व ग्रहण करवू. न थाय तो मने आपq. परंतु आ पेटी ते दिवस न आवे त्यां सुधी आपनी नजर समक्ष राखवी.
___ एम कहीने ते पेटी नृपना जोता ताळा सहित त्यां मुकी अने चाबी राजाना हाथमां आपी. राजाए पण तेने सुरक्षित स्थाने मुकावी. ते पछी मंत्री घरे जईने घरने सुव्यवस्थित करीने पंच नमस्कारनु मनमां ध्यान करतो रह्यो. सातमे दिवसे मंत्रिपुत्रे राजकन्याना महेलमां जईने राजकन्यानी पासे अनुचित याचना करी तेणे न स्वीकारी. त्यारे ते तेनो वेणी पाश कापीने लई गयो. नूपपुत्रीए भयाकूल थईने बुंबारव कॉ. सुभटो दोड्या. ते मंत्रीपुत्र वेणी सहित नासीने मंत्रीना घरे गयो. सुभटोए राजाने ते वात कही. राजाए सेनापति चंडसेनने मंत्रिना कुटुंबने पुत्र सहित मारवा माटे मोकल्यो. चंडसेन सेना सहित त्यां गयो. मंत्रिए पोताना घरनुं द्वार बंध करीने सेनापतिने आदर सहित कह्यु. अमारा प्राणो श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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आठमा व्रत उपर वीरसेन अने पद्मसेननी कथा निमित्तिक वचनथी पूर्वे पण आपेला छे. परंतु एकवार मने राजानी पासे हमणां लई जाओ अने हुं राजाने एकवार अमृत जेवी सारभूत विज्ञप्ति करूं. मंजुषामां रहेल अमारु रत्नादिधन हुं पोते राजाने परीक्षा पूर्वक आपुं.
अनायासे करेल कार्य पाछळथी पश्चात्तापर्नु कारण बने छे तेथी विचारीने आ कार्य करवू नहि तो उंदरने मारवा माटे एक मोटा पर्वतने खोदवा जेवा अनर्थना माटे थाय. ते सांभळीने सेनापतिए राजानी आगळ ते वात कही. राजाए मंत्रीने बोलाव्यो. मंत्रीए पेटी मंगावीने खोलावी. तेमां मंत्रीपुत्रना डाबा हाथमां वेणिपाश. जमणा हाथमां छूरिका जोईने राजा विस्मय पाम्यो अने मंत्रिने पूछ्युं. आ शुं छे? तेणे कर्तुं. राजन्! आ मारी बुद्धिनी कल्पना. राजाए पूछ्युं. तो आ केशपाश एना हाथमां क्यांथी? मंत्रीए कह्यु. हे राजन्! आ चेष्टा कोई व्यंतरनी करेली छे. एम जाणुं छु. त्यां तो ते व्यंतर पण छूरिका वेणि सहित अट्टहास्य करतो आकाशमार्गमां गयो.
राजाए राजकन्याने बोलावीने पूछ्युं. तारे शुं थयु.? तेणे पण जे लोकोए जोयुं ते ज कह्यु. ।।५००।। राजाए मंत्रिने पुत्र सहित सन्मानित कर्यो. ते व्यंतर हमणां अहिं आव्यो छे तेने में हमणां उपदेश आप्यो के आ अनर्थ दंड व्यर्थना पाप प्रदायक छे ते न करवो. ते सांभळीने श्रेष्ठिपुत्र सहित ते व्यंतर प्रतिबोधित थयो. तेणे अनर्थदंडनो त्याग करीने व्यंतर पोताना स्थाने गयो.
वीरसेन अने पद्मसेन बन्नेए गुरुने कमु. सुव्रतोनी साथे अमने पण आ व्रत आपो. सद्गुरुए ते सांभळीने कडं. तमने आ व्रत दुष्कर छे. गृहस्थे ते व्रत स्वीकार्या पछी अपध्यान न करवं. पाप कार्योनो उपदेश न करवो. हिंसाना साधन कोईने न आपवा. औषध मंत्र आदिना विषयमां कोईपण जातना शब्दो न कहेवा. प्रमाद न करवो. देव गुरुनी आशातना न करवी. अतिचारोनुं सेवन न करवू. ते सांभळीने श्रेष्ठि बोल्यो. आपना आदेशथी यथाशक्ति हुँ पालन करीश. त्यारे गुरुए तेने व्रत आप्यु. पद्मसेन तो भग्नभाववाळो थयो पण पिताना आदेश आग्रहथी बाह्यवृत्तिथी सांभळीने गुरुना वचनने स्वीकार्यु.
___एक वखत ते नगरमां कोई धूर्त पुरुष आव्यो ते मंत्रयंत्रादि वडे लोकोने सादरपूर्वक ठगवा मांड्या. पद्मसेन रसपूर्वक ते धूर्तनी रातदिवस सेवामां रहेवा लाग्यो. तेना पिताए विशिष्ट रीतिथी उचित भाषामां तेने समजाव्यो के "मायावी, ठगवामां आसक्त, दुष्ट लिंगवाळाओनो क्यारेय तारे संग न करवो जोईए. तेमां पण मंत्रयंत्र माटे विशेष तया क्यारे पण न करवो. धर्म क्रिया करनाराए अनर्थदंडनी 318
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आठमा व्रत उपर वीरसेन अने पद्मसेननी कथा विरती करेल छे तेथी आनो संग तारे सर्वथा वर्जवो. पिताए विचारवा योग्य घणा वचनों वडे ना पाडया छतां पिताना सारा विचारोने तरछोडीने पद्मसेने तेनी संगत न छोडी. रातदिवस एनी संगतमां ज रहेवा लाग्यो.
___एक वखत रत्नचूड नामनो एक मित्र तेने मल्यो तेणे पण तेनी पासे रहेल मंत्र पाठ शिख्यो. ते पछी तेणे पूछ्युं. तारी पासे मंत्रो छे ते मळशे. तेणे कडं के तेणे मने कुटमंत्रादि आपीने ठग्यो छे. पद्मसेन ते सांभळीने तेना प्रति बोल्यो. जो आ प्रमाणे होय तो मने औषधादि मंत्र कह्या छे ते सर्व सत्य ज छे. तुं मारी पासेथी वंध्याकल्प ग्रहण कर. कारण के स्त्रीओने पुत्रादिनी प्राप्ति निश्चयथी थाय छे अने आपणुं महत्व वधे छे. तेथी रत्नचूडे ते ग्रहण कर्यो. ते पछी तेणे राजराणीना उपर ते प्रयोग कर्यो. उत्कुट औषधना प्रयोगथी ते मरणावस्थाने प्राप्त थई राजाए पोताना पुरुषो द्वारा तेने रत्नचूडने बोलावीने मयुरबंधथी बंधाव्यो. अने लोकोमां तेनी निंदा थई. राजाए कयुं. रे अधम! ते आ शुं कर्यु हमणां मारी पत्नी शेष जीवितवाळी थई गई छे. जेथी मारी हमणां शी स्थिति थई छे. तेणे का. मने पद्मसेने वंध्याकल्प आप्यो हतो ते में निष्पुत्रीदेवी उपर प्रयोग कर्यो. राजाए तेने निरपराधी मानीने छोड्यो. पछी पद्मसेनने बोलावीने कोपसहित तेने कह्यु के ते रत्नचूडने वंध्यादोषने हरण करनार खोटो कल्प केम शिखवाड्यो? ते वखते पद्मसेने कह्यु. के हुं तेने ओळखतो नथी. ते सांभळीने राजाए विचायुं । आ कूटभाषी छे एमां संशय नथी. क्रोधथी जाज्वल्यमान राजाए कह्यु के तारा पोताना दोषथी जो मारी पत्नीने कांई विरुद्ध थई गयुं तो निश्चयथी तारो शिरछेद करावीश.
राजाना ते वचन सांभळीने भयभ्रांत थयेलो ते हृदय फाटवाथी मरीने चोथी नरकमां गयो. वीरसेन पाप संतापथी दूर रहीने पोताना लीधेल व्रतने सारी रीते पाळीने आयुष्यपूर्ण करीने ईशान देवलोकमां देव थयो. पोताना आत्मानु हित ईच्छनाराए आ प्रमाणे अनर्थदंडना निषेधथी अने आदरथी प्राप्त सुखदुःखने जाणीने आ अनर्थदंड निवारण करवं. आ प्रमाणे अष्टम् व्रत कह्यु.
आशानी विरती जेमां मुख्य छे एवा आ त्रण गुणव्रतोंना स्वरूपने भव्यात्मा श्रावको माटे जगद्गुरुए कह्या. ।।५३०।।
इति अष्टमंव्रतम्
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नवमा व्रत उपर वानरनी कथा
वानरनी कथा साधुओ माटे सामायिक व्रत सदाकाळना माटे अने श्रावको माटे बे प्रकारथी त्रण प्रकारथी बे घडी पर्यंत माटे कहेल छे. आ सामायिक व्रतनी शुद्धताथी परिपालना करनार मानव शिव सुखने पामे छे. तो लाख सुवर्णना दाननी आनी सामे शुं किंमत? समता युक्त सामायिक व्रतनी परिपालना तिर्यंचयोनिनो जीव पण देवत्त्वने प्राप्त करे छे. जेम वानर देवलोकमां गयो.
शक्तिमती नगरीमा पूर्वे एक सिद्ध नामनो औषधीनो ज्ञाता वैधराज हतो ते लोभी थईने मुनियोंने छोडीने मानवोने ठगतो हतो. आर्तध्यानथी मरीने अंते ते वानरना रूपमा जनम्यो. मानवोथी रहित वनमा वानरियोंना युथना नाथना रूपमा पराक्रमी वानर थयो. एक वखत सार्थथी चूकीने साधुओ ते अरण्यमां आव्या. तेमां एक साधु भगवंतना पगमां दुःसह एवो कांटो पेसी गयो. ते मुनिए पुण्यशाळी तपोधन एवा साधुओने कह्यु के माराथी चाली शकाय एम नथी तमे आगळ चालो. ते सर्वे तेनी पासे क्षमापना करीने गया. ते वेदनाथी पीडित त्यां रह्यो. ते समये वानरयुथ त्यां आव्यु. साधुने जोईने क्रोधित थईने योद्धानी जेम तेनी सामे मारवा माटे ते वानरो दोड्या. तेटलामां ते वानरोनो अधिपति वानर त्यां आव्यो. मुनिना दर्शनथी तेने जाति स्मरण ज्ञान थयु. ते पछी तेणे मुनिघात करवा उद्यत थयेला ते वानरोने रोक्या. यतिने प्रणाम करीने विशल्य औषधीना प्रयोग वडे तेमने निशल्य कर्या अने व्रणरोहिणी औषधी वडे निव्रण कर्या. ते पछी ते वानरनी आंखो आंसुथी भरेली जोईने मुनिए कह्यु उपकार करीने पण तुं दुःखी केम छे? ते पछी ते वानरे पोताना पूर्वभवनुं वर्णन संक्षेपमां भूमि उपर अक्षरो लखीने बताव्यु. स्वस्थ थयेला मुनि भगवंते पण तेने प्रतिबोध आप्यो. आर्त्तरौद्रध्यान न करवू. शुभध्यानथी विवर्जीत एवा ते आर्तध्यानना कारणे पूर्वनो मनुष्यभव हारीने तिर्यंचपणुं प्राप्त कयुं छे. रौद्रध्यानथी नरकनी प्राप्ति थाय छे. आ खराब ध्यानने छोडीने कल्याणकारी सामायिक व्रतने ग्रहण कर. जेथी स्वर्ग अपवर्गनी प्राप्ति थाय. तेणे पण मुनि भगवंतनुं वचन सांभळी ते सद्बुद्धि वानरे ते मुनिना पासे भाव सामायिकनो अभिग्रह धारण कर्यो. पछी ते साधु संमेत शिखर पर्वत उपर जईने पोताना गुरुने मन्या. ते वानरे अन्यदा पर्वत उपर सामायिक आदर्यु. भाविभावना योगे त्यां कोई एक सिंह आवी चड्यो. त्यां ते वानर आर्त तथा रौद्रध्याननो परिहार करीने स्थिर रहेलो तेने ते सिंहे भक्षण करी लीधो; ते मृत्यु पामी जिनशासननुं सान्निध्य करनारो महर्द्धिक अने धार्मिक व्यंतर
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नवमा व्रत उपर वानरनी कथा देवता थयो. त्यां घणा सुख भोगवी काल पूर्ण थतां त्यांथी च्यवीने ते यथार्थ नामथी विख्यात मणिमंदिर नामना नगरमा राजा मणिशेखरनी पत्नी मणिमाळाना उदरमा उत्पन्न थयो. रात्रे शुभ स्वप्नाथी सूचित अने योग्य क्रियावाळो ते पूर्णसमये पुत्ररूपे उत्पन्न थयो. तेनुं नाम अरुणदेव पाडवामां आव्यु. ते अनुक्रमे कलाकलापथी युक्त यौवनवयने प्राप्त थयो. एक वखते ते सुमति नामना अमात्यनी साथे वनमां गयो, त्यां वचमां एक स्त्रीने हीडोळा उपर बेठेली जोई. ते युवतिना कटाक्षोथी वींधायेलो ते तेणीनी पाछळ चाल्यो त्यां ते स्त्री तत्काळ अदृश्य थई गई. ।।५५५।। ते समये कोई विद्याधर तेनी आगळ प्रगट थयो अने तेणे कोपना आटोपथी अति आकुल थई ते कुमारने आ प्रमाणे कडं, "अरे! में ग्रहण करेली आ स्त्रीनी तुं इच्छा करे छे, जो तेनी इच्छा करवी होय, तो मारी साथे युद्ध कर." आ प्रमाणे कही ते कुमारनी साथे तेणे युद्ध कयु. विद्याधर कुमारथी हणाईने वृथा परलोके गयो (मरण पाम्यो). ते वखते नाट्योन्मत्त नामना ते विद्याधरना बंधुए आवी ते कुमारने अने सुमतिमंत्रीने उपाडी आकाशमां फेंक्या. तेओ बंने पडतां पडतां एक कूवामां पड्या. कूवामांथी घोनुं पूछडु अवलंबी तेओ बंने बहार नीकल्या. ते वखते तृषातुर थयेला कुमारे मंत्रीने कां के, "मंत्री तमे अहिं रहो. मने तृषानी अति बाधा थई छे, तो हुँ गाम वगेरेमां जई कोई जलना स्थाननी तपास करूं." आ प्रमाणे कही मंत्रीने त्यां मूकी कुमार बे कोश आगळ गयो, त्यां कांगरावाळो एक कील्लो तेना जोवामां आव्यो. तेनी अंदर तेणे प्रवेश कर्यो, त्यां लक्ष्मीदेवीनुं एक मंदिर जोयु. ते मंदिरमां क्षोभ पाम्या वगर ते दाखल थयो, तेवामां ते नरकुंजरकुमारे एक दुःखी स्त्रीने अने अशोक वृक्षनी शाखा साथे बांधेला पुरुषने अवलोक्यो. कुमारे ते दुःखी स्त्रीने पूछ्युं , "बाई! तुं दुःखी केम देखाय छे? अने आ पुरुषने कोणे बांध्यो छे? ते मने कहे." ते स्त्री बोली, "अमारो वृत्तांत सांभळो, आ लक्ष्मीरमण नामे लक्ष्मीदेवीनुं पुरातन क्रीडोद्यान छे. पृथ्वीमा जो कोई पुरुष आ उद्यानना पुष्पादिक ग्रहण करे तो ते पुरुषनो लक्ष्मीदेवी तरत वेगथी निग्रह करे छे. आ मारा स्वामीए आ उद्यानना पुष्पादि ग्रहण कयाँ, ते उपरथी लक्ष्मीदेवीए तेमने आ अशोकवृक्षनी शाखा साथे बांधेल छे, तेथी हमणां हुं दुःखी छं. तमे कोई परोपकारी शूरवीर पुरुष छो, तो आ मारा स्वामीने देवी पासेथी तत्काळ मुक्त करावो." कुमारे ते वात कबूल करी. पछी तेणे त्यां रहेली एक वापिकामां सुखने माटे जलपान अने स्नान कयु. पछी पोताना पेला सुमति मंत्रीने त्यां लावी कुमार लक्ष्मीदेवीना मंदिरमा गयो. त्यां श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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नवमा व्रत उपर वानरनी कथा पुष्प वगेरेथी देवीनी पूजा करी तेणे आ प्रमाणे स्तुति करी- "हे कमले! तमे सारी शोभावाळा कमलना पुष्प उपर स्थिति करो छो, तेथी ते कमळ देवताओमां पण लक्ष्मी मेळवे छे, 'कमलाकर पण एथी लोकोनी तृष्णा अने परिताप हरे छे, शारदा पण तेने पोताना हाथमांथी कदिपण छोडती नथी, सूर्य पण तेनी साथे ज मैत्री करे छे. बीजानुं शुं कहेवू, भगवान् वीतराग पण तेनी उपर पोताना चरणो धरे छे. शास्त्रमा सर्व धर्मोमां दानने प्रधान कहेलुं छे, ते दान जेना घरमां तमे हो, तेनाथी ज आपी शकाय छे." आ स्तुति सांभळी लक्ष्मीदेवी प्रसन्न थयां अने तेने वर आप्यो. कुमारे देवीने का के, "जो तमे प्रसन्न थया हो तो आ बांधेला विद्याधरने छोडी मूको." ते सांभळी लक्ष्मीदेवी हर्षित थईने बोली, "ए तो बीजानुं कार्य छे, परंतु तारुं पोतानुं कांई कार्य होय ते कहे." कुमार बोल्यो, "जे पुरुष बीजार्ने कार्य न करे अने लोकोमा पोता हित करे, ते पुरुष शा कामनो? माटे आ विद्याधरने मुक्त करो." पछी तेना वचनथी लक्ष्मीदेवीए ते विद्याधरने मुक्त कर्यो. जेथी विद्याधर भक्ति युक्त थयो अने कुमारने स्त्रीए विद्याधर- ऐश्वर्य आप्यु. ते वखते लक्ष्मीदेवीए विद्याधरने पवित्र वचन का के, "तारे आ कुमारनी सदा सेवा करवी, ते तारो स्वामी थशे. पछी तेओ वनमां फरवा लाग्या, तेवामां लक्ष्मीदेवीए निर्मेलो हितकारी श्रीशांतिनाथ प्रभुनो मणिमय प्रासाद तेमना जोवामां आव्यो. त्यां शांतिनाथ प्रभुने विधिथी नमस्कार करी ते कुमार मंडपमां आव्यो, त्यां सरस्वतीदेवीनं तेने दर्शन थy. तत्काळ तेणे सरस्वतीदेवीनी आ प्रमाणे स्तुति करवा मांडी-“हे सरस्वती! तमे आ संसाररूप क्षारने धोनारा सरस्वती नदी रूप छो, दुःखना तापने शांति आपनारा तमे शरीर धारी सरस्वती छो. हंस पण तमारा संगथी विवेकी थयो छे, तो पछी बीजा केम न थाय? जेथी
शुद्ध उभय पक्षवाळो ते हंसनी रुचि 'मानस उपर थाय छे मनुष्यो तमारा बळथी, दृष्टिथी अगोचर एवा पदार्थोने प्रत्यक्ष प्रमाण जुवे छे. अन्यथा तमारा सिवाय ते सहज अंध जेवा रहे छे. वादी जनो एकसोने छ भेदवडे बीजा देवताओने जुदा जुदा माने छे, परंतु तमे तो हमेशां सर्वने संमत छो. जनसमूहे नमेला महादेव वगेरे देवताओ पण तमने भक्तिथी वंदना करे छे, तो पछी बीजा बुध-विबुधोनी शी वात करवी?" आ प्रमाणे स्तुति कर्याथी संतुष्ट थयेली सरस्वतीए संतुष्ट थई ते कुमारने एक हजार विद्याओ आपी अने शांतिमती नामे 1. कमलाकर-सरोवर. 2. दृध अने जलने जुएं करवानो विवेक हंसमां होय छे. 3. शुद्ध
श्वेत उभय पक्ष-बंने पांखो. 4. मानस-मन अने मानस सरोवर. 322
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नवमा व्रत उपर वानरनी कथा एक विद्याधरनी पुत्री पण आपी. पछी "मारी उपर देवीनो मोटो प्रसाद थयो" एम कही कुमार गोख उपर बेठो. तेवामां वज्रवेग नामना विद्याधरनी पुत्री शांतिमती देवीनी पूजा करवा माटे त्यां आवी ते सुंदर कुमारने जोई हर्ष पामी गई. तत्काळ तेणीए पोतानी प्रतिहारीने कुमारनी समीप मोकली. तेणे कुमारने आ प्रमाणे सद्वचन कडं, "भद्र! ज्यां सुधीमां रथनूपुर नगरमांथी वज्रवेग विद्याधर अहिं आवे, त्यां सुधी शिष्टजनोने प्रिय एवा तमे अहिं रहेजो, जेथी ते पोतानी शांतिमती पुत्री तमने उत्सव सहित आपे." कुमार त्यां सुधी रोकायो तेवामां वज्रवेग विद्याधर घणी सामग्री अने घणी भेटो साथे लईने त्यां आव्यो. तेणे पोतानी पुत्री साथे कुमारनो विवाह कर्यो ते विद्याधरना पुत्रे हर्षथी पोतार्नु राज्य पण कुमारने आप्यु. पछी तेने पोताना नगरमां लई जवामां आव्यो त्यां विस्तारवाळी समृद्धिथी प्रसन्न थयेलो अने जनसमूहे पूजेलो ते कुमार नीतिथी राज्य करवा लाग्यो.
एक वखते कुमारे वज्रवेग विद्याधरने आ प्रमाणे का, "जे नाट्योन्मत्त विद्याधरने मने मारा मंत्रीनी साथे कूवामां पाड्यो हतो, तेनी उपर चडाई करीने मारे तेने जीती लेवो छे." वज्रवेगे ते वात कबूल करी अने एणे विद्याओ साधी लीधी, पछी कुमार चतुरंग सेना साथे लई तेना नगरमा गयो ते समये नाट्योन्मत्त वायुवेग नामना विद्याधरना शरणे गयो. कुमार अरुणदेवे एक दूतने मोकल्यो. ते दूते जई नाट्योन्मत्त अने वायुवेगने कह्यु के, "तमो बंने तरत कुमार अरुणदेवने शरणे आवो अथवा युद्धभूमिमां आवो." ।।६००।। दूतनां आ वचनो सांभळी बंने विद्याधरो युद्धने माटे तैयार थई नगरनी बहार आव्या. बळवाळा कुमारे ते बनेने जीती लीधा पछी सर्व विद्याधरोए मळीने कुमार अरुणदेवने विद्याधरोना ऐश्वर्य, पद आप्यु.
एक वखते पोताना राज्यने व्यवस्थित करी कुमार विद्याधरोनी साथे पोताना मणिमंदिर नगरमां आव्यो, तेना पिताए महान् उत्सव करी तेने पुरप्रवेश कराव्यो अने हृदयमां हर्ष लावीने पोतानुं समृद्धिवाळ राज्य तेने सोंपी दीधुं. पछी हृदयमा प्रतिबोध पामी पोते गुरुनी पासे दीक्षा लीधी. अरुणदेव त्यारथी त्रण खंडनो अधिपति थयो.
एक वखते वार्जित्रोना समूह साथे जिनेश्वरनो उत्तम रथ नगरमा फरतो फरतो राजद्वार आगळ आव्यो. अरुणदेव तेने नमस्कार करवाने सत्वर आव्यो त्यां एक देवने अने एक मुनिने जोई तेने मूर्छा आवी गई, जातिस्मरण थई श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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- दसमा व्रत उपर काकजंघनी कथा आवतां राजाए प्रथम देवने नमीने मुनिने अने पछी गुरुने वंदना करी, ते वखते सूरि पोते आ प्रमाणे बोल्या, "राजन्! तें विपरीत वंदना केम करी? पहेला ते देवने, पछी साधुने अने पछी मने वंदना करी ए तारा कर्मथी तुं निंदाय छे." राजाए गुरुने का, "स्वामी! हुं पूर्वभवे वानर हतो, त्यारे आ देवताए मने सामायिक व्रत उच्चराव्युं हतुं, ते पुण्यथी हुँ अल्प आयुष्यवाळो व्यंतर थयो हतो, त्यांथी च्यवीने आ जन्ममां हुं अरुणदेव नामे राजकुमार थयो छु. ए कारणने लईने में गुरुबुद्धिथी प्रथम तेने वंदना करी छे." गुरुए पछी सामायिक व्रत संबंधी देशना आपी. गुरुनी देशना सांभल्या पछी राजा अरुणदेवे पोताना पुत्र पद्मशेखरने राज्य उपर बेसाडी पोते दीक्षा ग्रहण करी. मुनि अरुणदेवे समता साथे शुद्ध सामायिकनुं पालन करतां तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन कयु. अंतकाले अनशन लई प्राण त्याग करी वीस सागरोपमना आयुष्यवाळो प्राणत देवलोकनो इंद्र थयो. त्यांथी च्यवीने विदेहक्षेत्रमा मनुष्यभव प्राप्त करी ते आ लोकमां संसारना तापथी रहित तीर्थकर थशे. आ प्रमाणे सद्भावनावाळं सामायिक व्रत पाळवू के जेथी तमारुं आ लोक तथा परलोकमां कल्याण थाय. ।।६१८।।
__ इति नवमंव्रतम
जे दिवसे अने रात्रे सचित्त वगेरेनो संक्षेप करवामां आवे तेने कवीश्वरो मुख्यपणे देशावकाशिक व्रत कहे छे. हाल तो शास्त्रमा व्यवहारमते विख्यात एवं दिग्विरतिना संक्षेपने देशावकाशिकव्रत कहे छे. जे पुरुष ते देशावकाशिकव्रत लईने तेनी विराधना करे छे, ते पुरुष काकजंघनी जेम आ लोक तथा परलोकमां दुःख पामे छे.
काकजंघनी कथा .सोपारक नगरमां कोकास नामे एक दासीपुत्र रहेतो हतो. अने ते ज नगरमां सोमिल नामे एक रथकार पण रहेतो हतो. सोमिल रथकार पोताना पुत्रने विविध कलाओ भणावतो पण कोई नठारा कर्मने योगे तेने एक कला पण आवडती न हती. तेनी पासे दासीपुत्र कोकास पण जतो, ते बधी कलाओने बुद्धिथी भणी शकतो हतो. अनुक्रमे सारी बुद्धिवाळो कोकास रथकारे कहेलुं सर्व शीखी गयो. पिताए पुत्रने जाते आपेली हितकारी एक पण विद्या आवडी नहि. "सर्वत्र कार्यसंसिद्धिर्न कर्मोपक्रमौ विना" कर्म अने उद्योग सिवाय सर्व स्थळे
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दसमा व्रत उपर काकजंघनी कथा कार्यसिद्धि थती नथी. सोमिल निर्वेद पामी गयो. ते धर्म करी आयुष्यनो क्षय थतां मृत्यु पामी परलोके गयो. "कलाभिर्नो गतिक्षयः" कलाओथी पण गतिनो क्षय तो थतो नथी. राजाए सोमिलने ठेकाणे कोकासनी स्थापना करी. "कलावतो यतो मानं, सदानं भुवि दृश्यते" आ पृथ्वी उपर कलावाननुं दान सहित मान थाय छे..
आ अरसामां मालव देशमां विशाळा नाम नगरी हती. ते नगरीमां विचारधवळ नामे परम आर्हत राजा हतो. ते राजाना राज्यमां भंडारी, रसोईयो, शय्यापाळ अने अंगमर्दक-एम चार नररत्नो हता. जे भंडारी हतो तेने हाथे भंडारमा एकठो थयेलो वस्तसंचय कदिपण क्षय पामतो नहि, एवी तेनामां प्रसिद्ध लब्धिनी सिद्धि हती. जे रसोईयो हतो, ते षट्रसवाळी एवी रसोई करतो के जे जमवाथी माणसोने छ मासे क्षुधा लागती हती. जे शय्यापाल हतो. ते एवी पथारी पाथरतो के जेमां जे रोगी होय अथवा जेने निद्रा न आवती होय तेवा माणसने पण निद्रा आवी जती हती. जे अंगमर्दन हतो ते ज्यां सुधी तेलवडे खूब अंगमर्दन करे, त्यां सुधीमां ते तेलने रोगनी साथे बहार काढी शकतो हतो. राजा विचारधवल ते चार रत्नोनी साथे रही सम्यग् रत्नत्रयनी इच्छा राखतो दिवस निर्गमन करतो हतो. पण तेने पुत्र न होवाथी ते दया लावी राज्य चलावतो, कारण के पाछळ अनाथ एवी पृथ्वीने दुष्टलोको दुःखी करे छे. आ वखते पाटलिपुत्रना राजा जितशत्रुए आवीने ते विशाळा नगरीने एवो घेरो घाल्यो के जेथी लोकोना आगम तथा निर्गम (अवर जवर) अटकावी दीधा. आवा शत्रुना सैन्यना आववाथी राजा विचारधवलना उदरमा उग्रशूल उत्पन्न थयुं अने तेथी तत्काळ तेनुं मृत्यु थयु. तेनो दीक्षा लेवानो मनोरथ हतो, तेथी ते देवलोकमां गयो, “वाञ्छापि किल धर्मस्य, भूरिभाग्यात्प्रजायते" 'धर्मनी इच्छा पण घणा सारा भाग्यथी ज थाय छे.' पछी नगरजनोए राजद्वारनो दरवाजो भयथी तरत उघाड्यो, एटले जितशत्रुराजा अंदर जई राज्य उपर आरूढ थई गयो. तेणे पेला राजाना चार पुरुषरत्नोनी परीक्षा करी.
एक वखते अंगमर्दके राजाना अंगर्नु कोमळ मर्दन कर्यु अने सर्व अंगमांथी तेल आकर्षी लीधुं, पण बीजानी परीक्षा लेवाने माटे तेणे राजानी एक जंघामांथी तेल खेच्यु नहिं पछी ते अंगमर्दके कडु के, "आ पृथ्वीमां जे कोई बुद्धिमान् पुरुष आ जंघमांथी तेल खेंची ले, तेनो हुं किंकर थईने रहे." कोईपण पुरुष ते जंघामांथी तेल खेंची शक्यो नहि. पछी ते जंघा मोटी स्थूल बनी गई. ते उपरथी श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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दसमा व्रत उपर काकजंघनी कथा ते राजानुं नाम काकजंघ एवं पड्यु. राजा जितशत्रु हवे त्यारथी काकजंघना नामथी सर्वत्र प्रख्यात थयो. कोईपण तेनुं मुख्य नाम कहेतुं नहि. पेला चारे नररत्नो यति थईने गुणी बनी मोक्षे गया.
एक वखते सोपारक नगरमां दुकाळ पड्यो. तेथी कोकाश पोतानु कुटुंब लईने विशाळा नगरीमां आव्यो, परंतु ते समये त्यां कोईपण स्वजन तेना जोवामां आव्यो नहिं. ते राजानो मेळाप करवानी इच्छाथी बहार देशकुटी पर्णकुटीमां रह्यो. राजानी अटारीमाथी शालना दाणा लाववा माटे तेणे काष्ठना पारेवा बनावी तेने खीलाओना यंत्र प्रयोगथी मोकलवा मांड्या. ते पारेवा ते शालना दाणा लावीने तेनी पर्णकुटीमां पाछा आवतां अने तेथी ते पोताना कुटुंब- भरणपोषण करवा लाग्यो. एक वखते शालिना रक्षकोए ते पारेवाने जोया. तेओ पारेवानी पाछळ लागु थई गया. त्या सर्व चेष्टा तेमना जोवामां आवी पछी तेओए जईने राजाने ते वात जाहेर करी, ते उपरथी राजाए कोकास रथकारने पोतानी पासे बोलाव्यो. अने पूछ्युं के, "तुं आq जेम नवीन विज्ञान जाणे छे, तेवू बीजुं कांईपण जाणे छे के?" रथकारे का, "हुं सर्व जणुं छु." पछी एक वखते सुकृती रथकारे काष्ठनो गरुड बनाव्यो. राजा पोतानी यशोमती राणी सहित ते रथकारने लई ते उपर आरूढ थयो अने फरवा चाल्यो. अयोध्या, तामलिप्सि, चंपा, द्वारिका अने लंका वगेरे नगरीओ तेने नाम आपीने बतावी तेमज अष्टापद, गिरनार अने शजय वगेरे पर्वतो अने समुद्र प्रमुख पण बताव्या.
एक वखते तेओ आकाशमर्गे चाली कोई साधुनी पासे गया. साधुए तेओने श्रावकनो बार प्रकारनो धर्म संभळाव्यो. पछी ते बंनेए ते साधुनी पासे देशावकाशिक व्रत ग्रहण कयु. तेमां एवो नियम लीधो के, "दिवसमां सो योजनथी वधारे जवू नहि."
___ एक वखते विजया नामनी राणीए पोताना मनमां विचायु के, "राजा पोतानी यशोमति राणीने ज साथे ले छे, मने तो कदि पण साथे लेता नथी, तेथी हुं एवं कांई काम करूं के जेथी तेओ बंने स्वतः (सहेजे) संकटमां पडे." आवं विचारी ते विजयाए बीजा कोई शिल्पीने बोलावी एक बीजी यंत्र खीली करावी अने जे वडे पाछा अवाय. ते यंत्र खीलीने तेणीए क्यांक छुपावी दीधी अने तेना स्थानमां बीजी तैयार करावेली यंत्र खीली मूकी दीधी. राजा यशोमती राणीनी साथे गरुड उपर चड्यो अने त्यां साथे रहेला कोकासे गरुडने चलाव्यो. आकाशमार्गे जतां राजाए पोताना वाहक कोकासने पूछ्युं के, "आपणे केटला योजन आव्या?"
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दसमा व्रत उपर काकजंघनी कथा
तेणे कयुं, "आपणे सो योजन आव्या छीए." राजा बोल्यो, "तो पछी गरुडने पाछोवालो के जेथी आपणा बनेना नियमनो भंग न थाय. " पछी जे खीलीना यंत्रथी पालुं आवी शकाय ते खीली तेने मारवा मांडी तो पण गरुड पाछो वन्यो नाहि, एटले राजा कह्युं के, "गरूड पाछो केम वळतो नथी?" वाहके जणाव्युं के, " अहिं खीलीना यंत्रमां कांई फेरफार थई गयो छे." तेवामां तो गरुडनी पांख भांगी गई अने गरुड पडी गयो पण सारा भाग्ये ते कोई सरोवरमां पड्यो एटले तेओ बधा तरत ज तरीने बहार नीकळी गया; दैव अतिशय बळवान् छे. ते वखते राजाए रथकारने पूछ्युं के, "आ कयुं नगर छे?" रथकारे कह्युं, "आ कलिंग देशना राजानुं नगर छे." पछी रथकार खीली लेवाने माटे नगरमां उतावळो गयो अने राजा तथा राणी ते सरोवरनी पाल उपर बेठा. रथकारे कोई सुथारने घेर जई खीली करवाने माटे उत्तम काष्ठनी मागणी करी, तेणे तेवुं काष्ठ सर्व स्थळे जोवा मांड्युं, तेवामां कोकासे तेवुं चक्र घडी दीधुं. विद्या अने कोढ लोकोमां ढांक्या ज रहेता नथी. ते चक्र जोई सूधार पोताना चित्तमां विचारवा लाग्यो के, "जरूर आ पोते ज कोकास छे. आ विश्वमां आवी ऊंची कला बीजामां छे ज नहिं." तरत तेणे राजभुवनमां जई राजाने जणाव्यं के, "शत्रुवर्गने आश्रित थयेलो तमारो अहितकारी कोकास अहिं आवेलो छे." पछी राजा पोताना माणसोने मोकली कोकासने अने काकजंघ राजाने राणी साथे त्यां बोलाव्या, पूर्वना वैरने लईने तेणे तेमने बांधी काष्ठना पांजरामां पूरी दीधा, पछी मंत्रीओ राजाने कह्युं के, "आ एक कलावान् पुरुष छे, तेथी तेनी पासे कांई पण काम करावी अने पछी तेने मारीए तो सारं." मंत्रीओना कहेवाथी राजाए कोकासने दृढ बंधनमांथी मुक्त करी पोतानी पासे बोलावीने कह्युं के, "तुं बीजुं कांई जाणे छे?” कोकास बोल्यो, "देव! हुं सर्व सुंदर विज्ञान जाणुं छं. पण कोई करावनार नथी." राजाए कयुं, "तुं तारी बुद्धिथी सो पांखडीवाळा कमळनी कर्णिकामां मारे लायक एक भवन कर अने तेनी पांखडीओमां बीजा ऊंची जातना भवनो सत्वर करी दे." ते बुद्धिमान् कारीगरे तरत कमळाकार भवन करवा मांड्यं. ते वखते कलिंग देशना राजानो गुप्त विचार त्यां दीवी झालनारा माणसे कोकासने एकांते कह्यो के, "ज्यारे ते भवन पूर्ण थशे त्यारे आ कलिंगनो राजा तने तथा तारा राजाने मारी नाखशे." पछी कोकासे एक उत्तम माणसने मोकली काकजंघ राजाना पुत्र विजयने पोतानो ते वृत्तांत जणाव्यो, तेवामां ते भुवन पूर्ण थयुं तेनी अंदर प्रवेश करवा माटे तेणे एक खीली गोठवी. राजा पोताना पुत्रनी श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा साथे ते भुवनमां दाखल थयो, पछी कारीगरे कडु के, "सर्वे पोतपोताना स्थानमा प्रवेश करो, कारण के खीली आपवाथी आ बधो महेल उडशे." सर्वेए तेम कयुं त्यां रथकार पोते बहार नीकळी गयो. पछी तेणे मत्सर भावथी ते खीली दीधी, एटले बधो प्रासाद मळी गयो. ते प्रासाद संपुटना जेवो थई जतां लोकोए हाहाकार कर्यो, तेवामां विजय आवीने शत्रुना नगरमां दाखल थई गयो, बधुं नगर तेणे लुंटी लीधुं अने पोताना मातापिता जे काकजंघ अने तेनी राणी तेमने पांजरामांथी बहार काढ्या पछी राजा कोकासने साथे लई पोताना नगरमां चाल्यो गयो.
___ एक वखते गुरुनो योग थई आवतां राजा काकजंघे पोताना पुत्रने राज्य आपी कोकासनी साथे दीक्षा ग्रहण करी. तेणे कर्मयोगे अतिचार सहित व्रत पाल्युं तेथी ते सौधर्मदेवलोकमां देवता थयो अने कोकासे लांबो काळ अतिचार रहित व्रत पाल्युं, तेथी ते महेंद्रदेवलोकमां उत्तम देवता थयो तेथी पुरुषोए देशावकाशिक व्रत पाळवू के जेथी दुःख न थाय तेमज जंतुओने पीडा पण न थाय. ।।६८८।।
इति दशमंव्रतम्
प्राज्ञजनोए जिनागममां का छे के, चार पर्वोमां प्रतिमाधर श्रावकोए सर्वथी चार प्रकारचं पौषधव्रत पाळवं. अने बाकीना सशक्त श्रावकोए ए ज प्रमाणे पौषधव्रत सर्वथी पाळवू तथा देशथी-अल्प शक्तिवाळा श्रावकोए देशथी चार प्रकार- पौषधव्रत पाळवं. गृहस्थ श्रावकोने देशथी पौषध करवामां शी हरकत आवे? कारण के पूर्व पुरुषोए तेवो ज श्रावकधर्म कहेलो छे, परंतु जो ते पौषधव्रतनुं पालन न करे, तो व्रतनो भंग थाय छे, माटे सर्व गृहस्थ श्रावकोए पर्वने दिवसे ते शक्ति प्रमाणे ग्रहण करवो जोईए. जेम हमणां पौषधमां शरीरनो (देशंथी) सत्कार करवामां आवे छे, तेम ईर्ष्यारहित (मध्यस्थ) साधुओए आहारनो संबंध पण तेवो ज जाणी लेवो. जे पुरुषो कर्मरूपी रोगमां औषधरूप एवा सुंदर पौषधने पाळे छे, तेओ श्री मलयकेतुनी जेम देवताओने प्रशंसनीय थाय छे.
श्री मलयकेतुनी कथा भुवन नामना नगरमां मलयकेतु नामे राजा हतो. तेने नय नामनो बुद्धिन पात्र एक मंत्री हतो. एक वखते तेओ बंने बहारना उद्यानमा फरवा गया. त्यां ज्ञानथी आचारनो उपदेश करनारा एक ध्यानी मुनि तेमना जोवामां आव्या. ते
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा मुनिनो उपदेश सांभळी ते बंनेए पोताना पापनो त्याग करी गृहस्थधर्म अंगीकार कर्यो. तेमां विशेषपणे पौषधव्रत स्वीकार्यु. एक वखते राजाए मंत्रीनी साथे पौषधवत ग्रहण कयु. एक पहोर (प्रहर) स्वाध्याय कर्या पछी राजाए मंत्रीने कडं के, "मने कोई धर्मकथा कहो." मंत्रीए कडं, "कांचन नामना नगरमा वसंतसेन नामे राजा हतो. तेने अनंगसेना नामे पत्नी हती. ते स्त्रीनी कुक्षिथी रूप अने सौभाग्यथी युक्त अने वरनी इच्छा राखनारी वसंतश्री नामे एक पुत्री थई.।।७००।। ते नगरमां बुद्धिथी श्रेष्ठ हरिबल नामे एक धीवर रहेतो हतो. एक वखते ते धीवरे साधु पासेथी दयाधर्म सांभल्यो. ते उपरथी तेणे विचार्य के, "सर्व ठेकाणे सर्व जीवदयामय धर्म सांभळवामां आवे छे, परंतु खरो जीवदयामय धर्म तो जैनो ज पाळे छे. मारा कुलमां तो प्राणीओना वध उपर ज सदा प्राणवृत्ति (आजीविका) चाले छे, तेथी हुं दया शी रीते पाळी शकुं? जे पोतानो व्यवसाय छोडी दे ते मूर्ख गणाय छे, तथापि "मारा कांटामां (जालमां) जे पहेलो मत्स्य आवशे तेने हुं सदाने माटे छोडी मूकीश." एवो तेणे नियम लीधो. एक वखत ते मत्स्य लेवाने नदीमां गयो त्यां कांटो (जाल) नाख्यो, तेवामां एक मोटो मत्स्य ते कांटा साथे आवी लाग्यो, ते मत्स्यने कोडी बांधी तेने निर्मळ जळमां छोडी मुक्यो. पछी फरीवार कांटो नाखता दैवयोगे पाछो ते ज मत्स्य आव्यो तेने फरी पाछो छोडी मुक्यो एवी रीते संध्याकाळ सुधी तेनो ते ज मत्स्य आव्यो अने तेने त्यां सुधी छोडी मुक्यो. प्रांते ते मत्स्ये धीवरने का के, "हुं तारा सत्त्वथी प्रसन्न थयो छु, माटे ईच्छित वर मागी लो." हरिबले कां, "तमे कोण छो?" तेणे का के, "हं जल देवता छं." हरिबले कां, "एवो हं वर मागं छं के, ज्यारे मन कष्ट आवे, त्यारे तमारे मारुं रक्षण करवू." तेनुं वचन स्वीकारी जलदेवताए कह्यु के, "मारा प्रसादथी लोकोमां तारुं उत्तम स्वरूप थशे." पछी ते देवताना प्रसादथी हरिबल दिव्य रूपवाळो थई गयो. ते त्यांथी पोताने घेर गयो नहि पण एक कामदेवना मंदिरमा जईने रह्यो.
___आ वखते राजानी पुत्री वसंतश्री दिव्य शरीरवाळो वर मेळववानी इच्छाथी ते मंदिरमां कामदेवनी पूजा करवाने आवी. ते हरिबलने दिव्यरूपी जोई हर्ष पामी अने हरिबल पण तेणीने जोई खुशी थयो. बंनेए त्यांथी गमन करवानी इच्छाथी संकेत कर्यो. ते ज रात्रे ते प्रौढ स्त्री पुरुष हर्षथी गांधर्व विवाहवडे लग्न क्रिया करी अश्वारूढ थई चालता थया. तेओ विशाळ नगरमां आव्या. त्यां हरिबल एक घर भाडे राखी राजानी नोकरीमा रह्यो. ते नगरना राजा नाम श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा
मदनवेग हतुं. ते राजा ते हरिबलने क्षत्रिय जातिमां थयेलो जाणतो हतो, तेथी एक वखते राजाए हरिबलने स्त्री सहित भोजनने माटे आमंत्रण आप्युं. त्यां राजा वसंतश्रीने जोई अत्यंत मोह पामी गयो, परंतु हरिबल साथे हतो, एटले तेणीने मेळवी शक्यो नहिं, पछी राजाए हरिबलने बोलावी तेनी आगळ जणाव्यं के, "मारी पुत्रीनो विवाह मोटा उत्सव साथे थवानो छे. लंकाना राजा बिभीषणनी साथे मारे अद्भुत मित्रता छे, तेथी ते बिभीषणने ते उत्सवमां बोलावी लाववा तारा सिवाय बीजो कोई त्यां जई शके तेम नथी." राजानां आवा वचनने हरिबले कबूल कर्तुं अने ते तरत समुद्रना तीर उपर गयो, परंतु लंकानुं वहाण मन्या सिवाय ते त्यां जई शकतो न हतो.
अहिं राजाएं पोतानी दासीद्वारा वसंत श्रीने बोलावी मागणी करी, त्यारे वसंत श्रीए कह्युं के, "जो मारा पति नहिं आवे, तो पछी हुं तमारुं सर्व वचन मान्य करीश." तै सांभळी राजा मदनवेग जरा हृदयमां खुशी थयो. साम वचनथी सर्व कार्य सिद्ध थाय छे.
समुद्र तीर रहेला हरिबले पेली जलदेवीनुं स्मरण कयुं, एटले ते देवी हाजर थई, जे वचन विबुध - देवताओ कहे छे, ते बराबर पाळवामां ज आवे छे. जलदेवीए कह्युं, "वत्स! ते मने हमणां शा माटे याद करेल छे?" हरिबले कह्युं, "हे कृपानिधि देवी! मने तत्काळ लंकामां पहोंचाडो." पछी देवीए तरत ज तेने लंकामां पहोंचाड्यां. हरिबल लंकामां जई एकाएक शून्य गृहमां स्वस्थ मने रह्यो . त्यां एक तुंबडुं लटकतुं जोवामां आव्युं. तेमांथी अमृत लई तेणे एक रक्षा (राख) ना ढगला उपर नाख्युं, तेबामां तेमांथी एक स्त्री प्रगट थई अने तेणे हरिबलने कह्युं के, "तुं कोण छे? अहिं क्यांथी अने शा माटे आव्यो छे?" तेणे कह्युं, "मारुं नाम हरिबल छे. हुं राजानो सेवक छं, विशाळ नगरमांथी अहिं आव्यो छं अने त्यांना राजा मदनवेगे लंकापति बिभीषणने आमंत्रण करवा मने अहिं मोकल्यो छे. हवे हाल तमारुं आश्चर्यकारी चरित्र सांभळवाने हुं ईच्छं छं." ते स्त्री बोली, "मारो स्वामी बिभीषण राजानो शस्त्रपालक छे. तेनो मारी तरफ अविश्वास छे, एटले ते मने अहिं घरमां रक्षा बनावीने राजानी पासे जाय छे. पाछो अहिं आवे, त्यारे आ तुंबडीना अमृतना बिंदुथी ते रक्षा उपर छांटी मने नवीन बनावे छे, आ प्रमाणे ते हंमेशां कर्या करे छे. हवे हुं मारा ते नित्ये मृत्यु आपनारा पतिथी कंटाळी गई छं. तो आपणे बंने एक खड्गरत्न अने आ तुंबडुं लईने स्वेच्छाथी चाल्या जईए. हे स्वामी, तमारा राजा मदनवेगे जे आ बिभीषणने श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा आमंत्रण आपवानो प्रसंग कर्यो छे ते पण विपरीत छे, माटे तमारे आ स्थान छोडी देवू जोईए." पछी हरिबल जेनुं नाम कुसुमश्री हतुं, तेवी ते स्त्रीने अने खड्गरत्न तथा तुंबडाने लई समुद्रना तीर उपर आव्यो अने त्यां पेली जलदेवीस्मरण कयु. स्मरण मात्रमा ते देवीए आवी ते बंनेने तेमना उत्तम विशाळ नगरमां तरत पहोंचाड्या अने ते जलदेवी मान सहित स्वस्थाने गई. ___ हरिबल कोई प्रिया साथे घेर आव्यो, एवा खबर जाणी राजाए तेने बोलाव्यो. तेणे आवी राजानी आगळ पेलुं खड्गरत्न मूकी प्रणाम कर्यो, पछी राजाए तेने वृत्तांत पुछ्यो. एटले ते आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो, "राजन्, हुं मुश्केली भरेला मार्गाने ओळंगी समुद्रना सजल तीर उपर गयो, परंतु त्यां जवानुं वहाण मन्यु नहिं, एटले माराथी त्यां शी रीते जई शकाय? ते लंकानो मार्ग शून्य होवाथी तेनां वहाणो चालतां नथी. पछी में हृदयमां विचायु के "जेओ मित्र, स्वामी अने जिनेश्वरनुं वचन अंगीकार करी तेनो निर्वाह करवाने असमर्थ थाय छे, तेओने तो अवश्य मरणनुज शरण लेवू जोईए.1 ते वखते त्यां सुर-असुरोने में निमंत्रण वगेरे जणावी कडं के, "हुँ अहिं बळीने मरीश, पछी मारी राख पण तमारे कार्यसिद्धिने माटे लंकामां पहोंचाडवी." मारा आ वचनने सांभळी कोई राक्षस जेवामां मारी पासे आव्यो, तेवामां हुं अग्निनी चितामां पेठो अने क्षणवारमा भस्म थई गयो. पछी ते राक्षसे मारी राख लंकामां जईने बिभीषणने आपी अने मारो वृत्तांत कह्यो. बिभीषणे पछी मने अमृत छांटीने सजीवन को अने मारु सत्त्व जाणी मने हर्षथी पोतानी पुत्री आपी अने ते कार्यनी अंधाणी तरीके आ एक खड्गरत्न मारी साथे मोकलाव्यु. वळी तेमणे मने का के, "हाल मारे मोटं काम छे, तेथी हुँ तारी साथे नहिं आईं परंतु ज्यारे विवाहनो समय आवशे, त्यारे जरूर आवीश." आ प्रमाणे कही तेणे मने समुद्र उतारीने अहिं मुक्यो छे." राजा मदनवेगे आवा उच्च बलवाळा हरिबलने जाणी ते अद्भुत काम करनार तेने परितोषिक आप्यु. __.. एक वखते हरिबले पोतानी बंने प्रियाओने एकांते कयु के, "आपणे घेर राजाने भोजन करावा माटे गौरवथी आमंत्रण आपीए." बने स्त्रीओए कह्यु, "स्वामी! ते राजाने घेर बोलाववो न जोईए. कारण के ते घेर आववाथी जरूर अनर्थ थशे." तो पण हरिबले आदरथी राजाने परिवार साथे घेर बोलाव्यो. समर्थ पुरुषोथी पण शुं हाथी काने झाल्यो रहे? पछी ते बंने स्त्रीओए का के, 1. अङ्गीकृत्य वचो येत्र, मुहृत्स्वामिजिनोदितं । तन्निर्वाहाऽमहास्तेषां. मरणं शरणं ध्रुवं॥६३९।। श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा "जो तमो राजाने घेर बोलावो, तो तेने अमारो स्पर्श के दर्शन करावq नहिं." छतां ते हरिबले सुंदर वेष पहेरावी ते बंने प्रियानी पासे राजाने भोजन पीरसाव्यु. भविव्यता बलवती छे. (बलिनी भवितव्यता) राजा मदनवेग ते बंने स्त्रीओने जोई हृदयमां मोहित बनी गयो. शास्त्रमा (महिला मोहनवल्लयो) महिलाओने मोहनी वल्लीओ कहेली छे. पछी हरिबले राजाने सत्कारपूर्वक तेने घर विदाय कर्यो, परंतु राजाए तो ते हरिबलने मारवानो ज विचार करवा मांड्यो. तेणे पोताना मंत्रीने बोलावीने पूछ्युं के, "आ हरिबल मरण शेनाथी थाय?" मंत्रीए का, "तेनुं मरण अग्निथी थई शकशे." राजा बोल्यो, "ए तो चितामां बळीने जीवतो थयो छे." मंत्रीए कडं, "नराधिप! ए खोटं बोले छे. जो ते मारी समक्ष अग्निमां पेसी जीवतो बहार नीकळे, तो हुँ साचुं मार्नु परंतु तेना भाषणथी साचुं मानतो नथी." पछी मंत्रीए हरिबलने बोलावी मृदु भाषाथी कह्यु के, "अमारा राज्यमां तारा जेवो कोई मोटा काम करनारो पुरुष नथी, तेथी मारी आज्ञाथी तुं यमराजाने बोलावाने सत्वर जा, कारण के हवे विवाह- लग्न नजीक आवे छे." हरिबले का, "हुँ कये मार्गे थईने जाउं?" मंत्रीए कडं, "अग्निनी चिताने मार्गे जा." हरिबल ते वचन कबूल करीने घेर आव्यो अने ते वृत्तांत पोतानी प्रियाओनी पासे कह्यो. ते वखते ते स्त्रीओए कह्यु, "स्वामी! तमोए राजाने घेर बोलाव्यो, तेनुं आ फळ छे." ते समये कुसुमश्री बोली, "स्वामी, धीरज छोडशो नहिं हुं तमोने घरमा रहेला पेला अमृतना सिंचनथी पुनः जीवता करीश." पछी मंत्रीना कहेवाथी राजाए चिता तैयार करावी अने तेनी अंदर ते सत्त्ववान् हरिबले सर्वनी समक्ष प्रवेश कर्यो. ते वखते लोकोए हाहाकार को. ते हरिबल क्षणमां तो भस्म थई गयो. पछी राजा मदनवेग मनोरथ सिद्ध थई मंत्रीनी साथे पोताना धाममा गयो.
रात्रे अंधकारनो समूह प्रसरतां कुसुमश्री पेलुं तुंबडं लईने चितानी भूमिना भाग उपर आवी. तेनी उपर तेणीए अमृत छांट्युं त्यां तेमांथी हरिबल प्रगट थई आव्यो अने ते पोताने घेर आव्यो. पृथ्वीमां मोटा पुरुषोने पण चडती पडती थाय छे. आ मरी गयेलो जीवतो केम थयो? एम आश्चर्य पामवानु नथी कारण के मरेलो देडको मेघना जलथी जीवतो थाय छे. जेम गळो सुकी गई होय, पण ते जलथी अनंत जीववाळी थाय छे; एवी ज ते निर्जीव एवा काष्ठादिक पण लोकोनी समक्ष सजीव थयेला जोवामां आवे छे. तिलकनुं वृक्ष अंगारामांथी प्रगटी नीकळे छे, एवं पण क्वचित् संभळाय छे. ज्यारे जलनो योग थवाथी एम बने छे, तो पछी अमृतनी शी वात करवी? अथवा तेओना बीजरूपे अवयव रहे 332
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा छे, तेथी तेमां कोई जातनो बाध आवतो नथी तेमज जिनागममां पण तेनो बाध आवतो नथी, कारण के अहिं जे चितामांथी मनुष्य प्राणीनी उत्पत्ति कहेली छे, ते लोकरूढीथी कहेली छे. जिन भाषाथी कहेली नथी. अहिं हरिबल अने तेनी बे स्त्रीओ एम त्रणे मळीने ज्यां वार्ता करता हता, तेवामां राजा त्यां आव्यो ते वखते कुसुमश्रीए कह्यु के, "हे स्वामी, द्वार उपर राजा आव्यो छे तेथी तमे अदृश्य रही अमाझं स्वरूप जुओ, के जेथी राजाने पण तमारी जाण न थाय" पछी हरिबले तेम कर्यु एटले कुसमुश्रीए गृहद्वार उघाड्यु. राजा एकाकी पापबुद्धिथी घरमां पेठो. कुसुमश्रीए राजाने आसन आपी पूछ्युं के, "अत्यारे रात्रे आपर्नु आगमन शा माटे थयुं छे?" राजाए का "तमो बंने युवतिओने बोलावाने माटे." कुसमश्री बोली, "आप राजाने ते घटतुं नथी. अतिशय रूपवाळी प्रजा पण तमारे प्रजापतिनी जेम प्रजारूप ज होवी जोईए. तमो तेमां मोहित न थाओ." आ प्रमाणे तेने समजावी वार्यो छतां पण ज्यारे तेणे आग्रह छोड्यो नहिं, त्यारे तेणीए फरीवार कयं के, "आजनो दिवस राह जुओ, कारण के अमारे पति मरणनो शोक छे. जो शोक न पाळीए तो लोको निंदा करशे." तेनी आवी वाणी सांभळी राजा ते दिवसे पोताने घेर गयो पछी हरिबले पेली जळदेवीनु स्मरण कयुं, एटले ते आवीने हाजर थई तेणे तेने ते वृत्तांत जणाव्यो, ते उपरथी ते एक देव अने दिव्य आभूषणो आपी चाली गई. प्रातःकाळ थयो, एटले ते हरिबल . दिव्य वेष धारण करी. बीजा दंडधारी देवने साथे लई हर्ष पामतो राजानी पासे आव्यो. प्रतिहारे खबर आपतां राजा अने मंत्री सिवाय बधी सभा हर्षित बनी गई. तेणे राजाने नमस्कार कर्यो, राजाए पूछ्युं के, "यमराजने घेर कुशळ छे?" तेणे कडं, "हे विभु, यमराजने घेर कुशळ छे." राजाए पेला देवने जोईने पूछ्युं के "आ कोण छे?" "आ यमराजानो दूत छे." तेणे उत्तर आप्यो. पछी ते दूत राजा प्रत्ये बोल्यो, "राजन्! आ हरिबले तमारा कहेवा प्रमाणे यमराजने कह्यु, ते उपरथी तेओए हृदयमां हर्ष पामीने मने मोकल्यो छे अने मारे मुखे कहेवडाव्यु छे के, "तमे हर्षथी सर्व उत्तम परिवार लईने एक वखत मारे घेर आवशो तो पछी अमे सर्वनी भक्ति करवा तमारे घेर आवीशं." आ सांभळी राजाए सवत्तिथी मंत्रीना मुख सामे जोयुं, मंत्री सर्व दिव्य आभूषणोथी विभूषित एवा हरिबलने जोई लोभाईने बोल्यो- "देव आपणे चालो यमराजने घेर जईए. कारण के पर घेर जवा आववाथी मैत्री वधे छे." पछी राजानी आज्ञाथी राजपुरुषोए मोटी चिता तैयार करी, तेनी अंदर प्रवेश करवाने राजा मंत्री वगेरेनी साथे हर्षथी श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा चाल्यो, पहेलां तेनी अंदर यमराजानो दूत पड्यो, पछी मंत्री पड्यो पछी जेवामां राजा तेमां पडवाने उत्सुक थयो, तेवामां हरिबले तेने हाथ पकडी राख्यो अने कर्वा के, "राजन्, तमे पडशो नहिं" राजा बोल्यो, "शा माटे हुं न पडु?" हरिबले कडं, "हे राजा क्यारे पण अग्निमां पडेला शुं जीवे छे? आ तो मारी बुद्धिनी चेष्टा छे. आ मंत्रीए तमने खोटी सलाह आपी हती, तेथी तेनो नाश करवामां आव्यो छे; परंतु हुं स्वामिद्रोह कदिपण करीश नहिं. माटे तमे तमारा आवासमां सत्वर चाल्या जाओ. वृथा मृत्यु पामो नहिं." तेनां आवां वचन सांभळी राजाए चिंतव्यु के, "अहो! आ सामान्य पुरुष नथी. पूर्वे में ए निरपराधी छतां एनुं प्राणांत सुधीनुं विपरीत चिंतव्युं हतुं, अपराधी एवा मारा उपर पण अत्यारे दयाळु थयो तेथी खरेखरो 'क्षमाभृत् तो आज पुरुष छे अने हुं तो एक सामान्य गृहस्थ पण नथी, तेथी मारुं राज्य आ पुरुषने आपी हुं अनगार थाउं" आq चिंतवी राजाए घेर जई ते हरिबलने पोतानी पुत्री आपी अने पाणिमोचनने समये पोतानुं राज्य आपी दीधुं, पछी पोते दीक्षा लीधी. - एक वखते हरिबले पोताना मनमा हर्षथी चिंतव्यु के, "जो आ वखते मारा ज्ञानी पूर्वगुरु आवे, तो वधारे सारं" दैवयोगे तेटलामां ज ते बुद्धि चतुर गुरु आवी चड्या. हरिबल ते खबर जाणी सपरिवार आनंदयुक्त थई गयो. गुरुनी समीपे जई तेमना चरण कमळमां नमी अने देशना सांभळी ते गृहस्थ श्रावकधर्मने प्राप्त थयो. ।।८००।।पछी ज्यारे पुत्र थयो, एटले तेने राज्य उपर स्थापित करी पोते चित्तमां संतोषनुं पोषण करी दीक्षा ग्रहण करी. तेणे ते महाव्रत अतिचार रहित लांबो काळ पान्युं अने छेवटे केवळज्ञान प्राप्त करी समाधिवडे ते सिद्धिने प्राप्त थयो. .. आ प्रमाणे मंत्रीए नियम संबंधी अद्भुत कथा कही. ते पछी पौषधालयनी मध्ये गयो अने त्यां आवश्यकक्रिया अने स्वाध्याय ध्यान करीने ते सद्बुद्धिवाळा राजाए बीजा पहोरमां कायोत्सर्ग कर्यो. ते वखते कोई मिथ्यादृष्टि देवताए तेने धर्मपरायण जाणीने उपद्रव करवा मांड्यो, तो पण ते ध्यानथी चलित थयो नहिं, त्यारे ते देवताए प्रगट थईने तेने घणी स्तुति करी. परंतु तेथी भूत दोषने आपनारा रागद्वेष तेने थया नहि. छेवटे तेने वस्त्राभरणो आपी देवी आकाशमा चाली गई, राजा प्रभाते पौषधने पारी पोताने घेर आव्यो एवी रीते ते मलयकेतु राजा सदाकाळ पर्वना दिवसोमां पौषध करवा लाग्यो. अंते मृत्यु पामीने ते सर्वार्थसिद्ध 1. क्षमाभृत् राजा पक्षे मुनि. 2. करमोचन एटले हथळेवो छोडाववो ते वखते. 334
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बारमा व्रत उपर शांतिमती अने पद्मलोचननी कथा विमानमा उत्तम देवता थयो, आवी रीते अन्य धन्य जनोए पण ए पौषध व्रतनी आराधना करवी के जेथी भवोभव सर्व अर्थनी सिद्धि थाय.।।८०९।।
इति एकादशंव्रतम्
कोई अतिथिने कांई पण आपीने पछी जमवं, ते भोजन कहेवाय छे. ते सिवाय तो आ लोकमां कागडा वगेरे पण पोताना उदरनुं पोषण करे छे. कदि ते प्रमाणे हमेशां न थाय, तो विवेकी पुरुषे पौषधना पारणाने दिवसे तो पात्रने भोजन आपीने ज जमवू जोईए. जे पुरुष ते अतिथिसंविभाग नामनुं व्रत आराधे छे. ते शांतिमतीनी जेम अवश्य सुखनुं पात्र बने छे अने जे तेनी विराधना करे छे, ते पद्मलोचनानी जेम आ लोक तथा परलोकमां दुःखने पामे छे.
शांतिमती अने पद्मलोचनानी कथा संपत्तिमां विशाळ अने भरतक्षेत्रना मंडनरूप विशाळ नामना नगरमां श्रावकना शुद्धगुणवाळो साधारण नामे श्रावक रहेतो हतो. तेने एक शांतिमती नामे पुत्री हती, ते बाळविधवा हती अने बीजी पद्मना जेवा लोचनवाळी पद्मलोचना नामे पुत्री हती, ते सधवा हती एक वखते ते बंने बहेनोए गुरुनी पासे हर्षथी गृहस्थ धर्म अंगीकार कर्यो अने तेमां अतिथिसंविभागनुं व्रत विशेषपणे ग्रहण कयु. ते उत्तम बंने बहेनो सुखथी व्रत पाळती हती, तेवामां एक वखते वर्षाऋतु आवी. तेमां निरंतर वृष्टि थया करती हती. ते काले अप्काय जीवोनो वध थवाना भयथी मुनिओ भिक्षाटन करता नहिं. कारण के तपस्विओनी एवी मर्यादा छे. तेने लईने ते बंने बहेनोए पांच दिवस सुधी उपवास कां. पांचमा दिवसनी रात्रिने अंत भागे पद्मलोचनाए पोताना हृदयमां विचायु के, "शांतिमतीने गळे बंधायेली हुं क्षुधार्नु कष्ट शा माटे वेर्छ? जेने माटे बीजा देहनो संदेह रहे एवा आ देहमां हुं अत्यंत दुःखी थाउं छु." आ प्रमाणे चितवी तेणीए प्रभातकाळे छूपी रीते घणुं भोजन करी लीधुं. क्षुधाना जेवी बीजी वेदना नथी. तेने माटे गांधारीनुं आ प्रमाणे वचन छे. "हे वासुदेव! जरावस्था, निर्धनता, विधवापणुं अने पुत्रनो शोक. ए बधा कष्टोना करतां पण क्षुधार्नु कष्ट वधारे छे."1 माता पिताए मान्य, दातार अने शांतिवाळी पोतानी सती पुत्री शांतिमतीने कडं, "हे निर्मळ वत्से! तुं 1. यतो गांधारीवाक्यं वासुदेव! जरा कष्टं, कष्टं धनविपर्ययः ।
वैधव्यं पुत्रशोकं च, कष्टात्कष्टतरी क्षुधा ।।८२२।। श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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बारमा व्रत उपर शांतिमती अने पद्मलोचननी कथा योग्य भोजन केम करती नथी? अन्न वगर तारा प्राण आधार वगरना (निराधार) थई हमणां ज चाल्या जशे." शांतिमती बोली, "मातापिता, में बारमुं अतिथिसंविभाग व्रत लीधुं छे, तेथी कोई पण अतिथिने कांईक भोजन आपीने हुं जमुं छं. हाल वरसादने लईने अहिं साधुओ आवता नथी तेथी हुं ते व्रतने कारणे उपवास करूं छु." ते सांभळी माता पिता बोल्या, "वत्से! तो तुं घेरथी भोजन लई उपाश्रये जई साधुओने जलदी आपी आव." शांतिमती बोली, "साधुओ तेवो सामो लावेलो आहार लेता नथी." मातापिताए कडं, "तो पछी अन्न विना तारुं जीवित शी रीते रहेशे?" ते बाला फरीवार बोली, "मातापिता! तमारा प्रसादथी में ए व्रतो आज सुधी हमेशा पान्यां छे, तो हवे तेनो भंग केम करूं? जेओ पोताना जीवितने माटे व्रतनो भंग करे छे तेओ कल्पांत सुधी जीवे अथवा स्वर्गे जाय तो पण ते शा कामनुं छे? कदि मारो जीव जाय, तो भले जाय, पण हुं मारा नियमने छोडीश नहिं." तेणीए विचारवाळी बुद्धिथी आवो निश्चय कर्यो.
. पेली पद्मलोचना, अति भोजन करवाथी रात्रे विसूचिका (कॉलेरा)नो रोग थई आव्यो अने ते दिवसे मृत्यु पामी गई. ते अति प्राज्ञ हृदयवाळी पण व्रतना भंगथी व्यंतरी थई. पछी बे दिवसे भारे मेघवृष्टि शांत थई गई. सारी वासनावाळा सात दिवसना उपवासने अंते ते मुनिओ गुरुनी वाणीथी निज देशमा विहार करवाने एकठा मळीने चाल्या, जे दयाळु मुनिओ फरता-फरता त्यां गोचरीए पधार्या, तेमने भिक्षा आपी शांतिमतीए पारणुं कर्यु. आ प्रमाणे ते निरतिचार अतिथिसंविभाग व्रतने भावथी आराधी अंते अनशन लई बीजा देवलोकमां गई. त्यांथी च्यवी महाविदेहमां जन्मी हर्षथी व्रत आदरी अंतकाले शाश्वत मोक्षने पामशे. एवी रीते प्राज्ञ मनुष्योए सदा आ व्रत पाळवू के जेथी महासुखदायक अने गुणोथी प्रगट थनारो मोक्ष प्राप्त थाय. ।।८३८।।
इति द्वादशंव्रतम्
आ प्रमाणे पूर्वे कहेला चार व्रतोथी श्री गुरुनो संयोग थाय अने पछी लोकोमा तेनी शिक्षा प्रवर्ते ते उपरथी ए शिक्षाव्रत कहेवाय छे. आ बार प्रकारनो श्रावकधर्म बार देवलोकने आपनारो छे अने सूर्यनी जेम सम्यग्दृष्टि मनुष्यनुं सर्व तम-अंधकारने हरनारो छे. जेम सर्व रसवती 'रुचिथी उत्तम पुष्टि आपनारी अने 1. रुचि-इच्छा.
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा अनंत बळ करनारी थाय छे, तेवी रीते सर्व क्रिया रुचिथी संवर पुष्टि आपनारी अने अनंत बळ आपनारी थाय छे. जेम उत्तम पुरुषने चरणांग वगैरेनी सामग्री होय. पण जो ते पुरुष अदर्शन दृष्टि रहित होय तो तेने अक्षर-अबाधित पदस्थाननुं दर्शन थतुं नथी, तेवी रीते उत्तम पुरुषने जो चरणांग-चारित्र-अंग वगेरेनी सामग्री होय, पण जो ते पुरुष सम्यग् दर्शनथी रहित होय, तो तेने अक्षयपद-मोक्षनुं दर्शन थतुं नथी. सत्पोत-सारुं वहाण प्रौढ होय अने गुणश्रेणीदोरनी पंक्तिथी युक्त होय, पण तेने ध्रुव दर्शन-ध्रुवना ताराना दर्शनने आधारे ईष्ट स्थाननी प्राप्ति थाय छे, तेवी रीते सत्पोत-सारो बाळक प्रौढ थयो होय अने गुणोनी श्रेणी तेणे संपादन करी होय, पण जो तेने ध्रुव दर्शन-निश्चल एवा सम्यग् दर्शननी प्राप्ति होय, तो ते ईष्ट स्थान मोक्षनी प्राप्ति करी शके छे. आलोकमां जेवी रीते सुवर्ण शुद्धिनुं कारण कहेलुं छे, परंतु जो ते अमूल्य रत्नथी युक्त होय, तो ते महोदय, कारण थाय छे, तेवी रीते सुवर्ण-ज्ञान, शुद्धिन कारण छे, पण जो ते अमूल्य-चारित्र रत्नथी युक्त होय, तो ते महोदय-मोक्ष- कारण थाय छे. जेम 'नायक. विनानो हार, जिनेश्वर विनानो प्रासाद अने घी वगरनो आहार आ पृथ्वी उपर शोभाने प्राप्त थतो नथी, तेवी रीते सम्यक्त्व विनानो धर्म सुखसमूहने करनारो थतो नथी, तेथी ते कुलध्वजनी जेम मनुष्योए सदा सम्यक्त्व पाळ, जोईए.
कुलध्वजनी कथा आ जंबूद्वीपमां भरतक्षेत्रनी मध्ये रहेली अयोध्या नामनी नगरी छे. तेमां शंख नामे राजा हतो. तेने धारिणी नामे राणी हती अने कुलध्वज नामे पुत्र हतो. एक वखते कुलध्वज सुभटोने लई वनमां क्रीडा करवाने गयो, त्यां ते कुमार पुष्पो चुंटवा लाग्यो. तेवामां दर्पणना जेवा निर्मळ अने वृक्ष तळे बेठेला एक सूरि तेना जोवामां आव्या. मेघने देखीने जेम मयूर खुश थाय, तेम ते सूरिने देखी खुशी थयो अने पछी गुरुगुणवाळा ते गुरुने तेणे वंदना करी. पोताना हृदयमांथी मानने दूर करी ते योग्य स्थाने बेठो एटले धर्मधुरंधर गुरु आ प्रमाणे बोल्या"जे मनुष्यो पवित्र मनुष्यपणुं मेळवीने पांचमी गति मेळवे छे, तेओर्नु जीवन सफल कहेलुं छे. श्री जिन भगवानोए सम्यग् दर्शन, चारित्र अन ज्ञानने सर्व मार्गने दर्शावनारो ते (मोक्ष)नो निराबाध उपाय कहेलो छे. तेओमां धर्म, अर्थ 1. नायकेन विना हारो, विहारो जिनपं विना ।
घृतं विना यथाहारो, न शोभा श्रयति क्षतौ ।।८४५।। 2. मोक्ष-गति. श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा
अने काम ए त्रिवर्गमां जेम धर्म श्रेष्ठ छे. तेम दर्शन श्रेष्ठ छे, तेथी कार्यने जाणनारा (कुशळ) पुरुषे हंमेशां ते दर्शननी अंदर चित्त जोडवुं ते दर्शनसम्यक्त्वने विद्वानो एक प्रकारे, बे प्रकारे त्रण प्रकारे, चार प्रकारे अने पांच प्रकारे जणावेलुं छे. एक प्रकारे ते सम्यक्त्व पवित्र तत्त्वरुचि नामे छे. द्रव्य अने भावथी, निश्चय अने व्यवहारथी अने उपदेश अने निसर्गथी एम बे प्रकारनुं सम्यक्त्व जिनागममां कहेलुं छे. कारक, रोचक अने दीपक तेम क्षायिक, क्षायोपशमिक अने औपशमिक- एम त्रण प्रकारे कहेलुं छे. औपशमिक, सास्वादन, क्षयोपशमिक अने क्षायिक एम चार प्रकारे कहेलुं छे. तेमां वेदक नाम वधारवाथी ते सम्यक्त्व पांच प्रकारनुं कहेवाय छे. ए सम्यक्त्वने पांच लक्षण, पांच भूषण अने पांच दूषणो कहेलां छे." गुरुनो आवो उपदेश सांभळी कुलध्वजे सर्वनी समक्ष रागद्वेषने निराकरण करनारुं सम्यक्त्व ग्रहण कयुं. ज्यारे तेणे सम्यक्त्व अंगीकार कयुं, त्यारे सुविचारी गुरु बोल्या - "भद्र! तारे हवे पछी ( आजथी मांडी) हंमेशां पंचपरमेष्ठीना स्वरूपनुं चिन्तवन करवुं, सुगुरुनी आराधना करवी, जीवदयामय धर्म पाळवो, सदा कषायोने छोडी देवा, उत्तम पुरुषोनो संग करवो, नित्य स्वदारा संतोष राखवो, कोईनो दोष ग्रहण करवो नहिं, नवतत्त्व उपर रुचि राखी अने साधुधर्म तरफ वृत्ति राखवी. ईत्यादि वर्त्तन करवाथी तारुं सर्व शुभ थशे." आवो उपदेश सांभळी कुलध्वज पोताने घेर जवा मार्गे चालतो थयो, वामां कोई बे स्त्रीओ परस्पर कलह करती जोई तेमने राजकुमारे कलह करवानुं कारण पूछ्युं, तेओमांथी एक बोली, "राजकुमार ! हुं लोहकारनी स्त्री ह्युं अने आ रथकारनी स्त्री छे. मारा मस्तक उपर पाणीनो मोटो घडो छे अने आ स्त्रीना मस्तक पर खाली घडो छे, छतां तेणे मने जवा माटे रस्तो आयो नहिं. मारा पतिनी कारीगरीना जेवुं ज्ञान सद्बुद्धिवाळा कया पुरुषमां छे?" ते सांभळी कुमार बोल्यो, 'तारा पतिमां कारीगरीनुं ज्ञान केतुं छे?" ते बोली, "मारो पति लोढानुं माछलुं बनावी तेने आकाशमां उछाळी समुद्रमांथी रत्नो अने मोतीओ आणी आपे छे, तेथी आ रथकारनी स्त्रीनी साथे मारी तुलना करवानी नथी." ते सांभळी पेली रथकारनी स्त्री बोली, "मारो पति लाकडानो अश्व बनावी आकाशमां फरे छे अने ते वडे छ मासमां बधी पृथ्वीने जोई पाछो पोताना नगरमां आवे छे, तेथी आ लोहकारनी स्त्रीना करतां हुं वधारे चढीयाती छं." पछी राजकुमार ते बंने स्त्रीओने लई राजानी पासे आव्यो. राजाए ते बंनेनो वृत्तांत पूछयो एटले कुमारे ते सर्व कही संभळाव्यो. पछी राजाए तेमना स्वामी लोहकार अने रथकारने श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा पोतानी पासे बोलाव्या. तेमां प्रथम लोहकारने माछटु बनाववाने लोढुं आप्यु. विज्ञानशाळी लोहकारे लोढा, माछलुं बनाव्यु अने ते लईने ते राजाना ओरडामां आव्यो, ते राजा साथे हर्षथी ओरडामा रह्यो अने ते माछला उपर पवनना संदोहने धारण करनारी यंत्रमय खीली मारी के तरत ज ते माछलं पवन वेगे आकाशमा उड्युं अने समुद्रमां जई रत्नोने गळी पाछु आव्यु. ते जोई राजाए चित्तमां चमत्कार पामी तेने पूछ्युं के, "तने आवी कला क्याथी प्राप्त थई?" ते बोल्यो, "देव! मने देवताए वरदान आपेल छे."
तेवामां पेला रथकारे काष्ठनो अश्व बनाव्यो; ते बुद्धिमान् सुथारे ते अश्व लावी राजानी आगळ धर्यो. त्यारे कुमार बोल्यो, "आ अश्वनी परीक्षा तो हुं जाते करूं." राजाए रथकारने का के, "आ अश्व पाछो केटले दिवसे अहिं आवशे?" रथकारे का, "ते छ मासे पाछो आवशे." पछी राजानी आज्ञा लई कुमार ते अश्व उपर चडी (यंत्रमय) खीलीना प्रयोगथी आकाश मार्गे उड्यो. ते पृथ्वीनुं अवलोकन करतो हतो. त्यां एक सुंदर नगरी जोवामां आवतां त्यां रहेवानी इच्छाथी तेणे यंत्रनी खीली पाछी खेंची. एटले तेना आघातथी अश्व पृथ्वी उपर पड्यो. कुमार ते उपरथी विस्मय पामी उतरी गयो. ते अश्वना जुदा खंड करी पोताना माथा आगळ राखीने राजकुमार एक छायाथी सुंदर एवा आम्रवृक्षनी तळे सुई गयो. ते वखते कोई माळी त्यां आव्यो. ते आम्रनी छायामां सुई गयेला कुमारने जोई विस्मय पाम्यो. ज्यारे कुमार निद्राथी मुक्त थयो, त्यारे तेने नमी अने सन्मान आपी ते माळी पोताने घेर लई गयो. त्यां तेने जमाडी वासस्थान आप्यु. पछी कुमार ते माळीने घेर अश्वने मूकी लीलावडे नगरमां फरवा नीकल्यो. तेवामां नेत्रोने आनंद आपनाएं एक जिनेंद्र भवन तेना जोवामां आव्यू. ते मंदिरमां पेसी अर्हतप्रभुने नमी जेवामां ते प्रभुनी स्तुति भणतो हतो, तेवामां ते मंदिरमां एक प्रतिहारी आवी. तेणीए जिनालयमांथी सर्व पुरुषोने बहार काढ्या. कुमार ते जोवानी इच्छाथी मंदिरना एक खूणामां संताई रह्यो. ते वखते स्त्रीओथी परिवृत थयेली राजकुमारी जिनालयमां आवी, त्यां नृत्य करी अने प्रभुने नमी पोताने घेर चाली गई. पछी कुमारे बहार नीकळी कोई पुरुषने पूछ्यु के, "आ कयुं नगर छे अने ते पुत्री कोनी छे?" ते पुरुषे कडं, "विभु! सांभळो, "आ नगरनुं नाम रत्नपुर छे. तेमां विजय नामे राजा छे, तेणे आ जिनचैत्य करावेलुं छे. आ कन्या भवनमंजरीनामे ते राजानी पुत्री छे. विजयराजाए एक वखते पोताना मंत्रीओने कडं के, "आ कन्याने योग्य कयो वर छे?" ते समये ए कन्याए राजाने कर्वा के, श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा
"जे कोई पुरुष भूचर छतां पोतानी शक्तिवडे आकाशमां चाली शके तेवा पुरुषने हुं वरीश. आ ण जगतमां मान्य एवा बीजा कोईने पण वरीश नहिं." ते सांभळी राजा चिंतव्यं के, "आ पुत्रीए दुर्घट प्रतिज्ञा करी, हवे हुं तेनी प्रतिज्ञा शी रीते पूरी शकीश?" आवी रीते ते कन्यानो समय वीते छे, अद्यपि तेने तेवो योग्य वर मळतो नथी. तेथी ते हंमशां अहिं आवी जिनप्रभुनी पासे नृत्यगीत करे छे." आ वात सांभळी राजकुमार रात्रे पेलो अश्व तैयार करी ज्यारे अर्धरात्रि थई, त्यारे उडीने ते राजकन्या भवनमंजरीना भुवनमां आव्यो, त्यां तेणीना पलंग उपर अधुं चावेलुं तांबूल मूकी पाछो स्वस्थाने आवी तेणे ते अश्वने वींखी नाख्यो. राजकुमारी प्रभातकाळे पोताना पलंग उपर ते तांबूल जोई आश्चर्य पामती मनमां विचारवा लागी के, "रात्रे आ तांबूल कोणे नाख्युं हशे ?" बीजे दिवसे ते रात्रे खोटी निद्राथी सुती, तेवामां पहेला दिवसनी जेम राजकुमार आकाश मार्गे आव्यो. ।। ९०० ।। प्रथमनी जेम तेणे अर्धं चावेलुं तांबूल पलंग उपर मूकी जेवामां चालवा मांड्यं, त्यां राजकुमारीए वेगथी तेना वस्त्रनो छेडो मजबूत पकडी राख्यो अने पूछयुं के, "तमे कोण छो? कई रीते अने क्यांथी आव्या छो? ते कहो. " राजकुमारे पछी पोतानो सर्व वृत्तांत कही संभळाव्यो. तेनुं सर्व वृत्तांत सांभळी राजकुमारीए पोताना हृदयमां विचायुं के, "आ कुमारे मारी दुर्घट प्रतिज्ञा पूरी करी, हवे हुं आ आकाशगामी राजपुत्रने वरुं." आवुं चिंतवी तेणीए पोताना हृदयनो भाव जणाव्यो, एटले राजकुमार तेणीने परण्यो. ते कुमार रात्रे राजकुमारीना भवनमा अने दिवसे नगरमा रहेवा लाग्यो. भुवनमंजरीना अंगोनो विकास जोई तेनी सखीओए तेनी माताने सर्व जणावी दीधुं अने ते माताए राजानी आगळ जणाव्युं. राजा छूपो क्रोध करीने रह्यो, तेवामां कोई एक वेश्या परिवार साथे त्यां आवी. पोताने वखतनो लाग मळवाथी तेणीए नृत्य शरू कयुं अने पूर्वे नहीं जोयेली एवी कोई नवीन अद्भुत कळा बतावी, तो पण राजाए ते वेश्याने योग्य कांई आप्युं नहिं. ते उपरथी वेश्याए राजानुं मन चिंतातुर छे एम जाणी लीधुं, पछी तेणीए एकांते राजाने आग्रहथी पूछयुं एटले राजाए पोतानी सर्व बीना कही आपी. पछी वेश्याए राजानी आगळ कह्युं के, "ते छूपा माणसने हुं प्रगट करीश. " चतुर वेश्याए रात्रे जई छूपी रीते राजकन्याना भुवनना आंगणाने तेल मिश्रित सिंदूरथी लींपी पोताने घेर चाली गई. पछी प्रभाते राजपुरुषोने साथे लई ते चौटामां गई. त्यां जुगार रमवाने ठेकाणे सिंदूरथी लींपायेला चरणवाळो ते कुमार तेणीना जोवामां आव्यो. तरत ज वेश्यानी आज्ञाथी राजपुरुषो तेने पकडी श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा लीधो अने तेने राजानी हजुरमा लाववामां आव्यो. राजाए तेने शूळीए चडावी देवानी आज्ञा आपी. राजपुरुषो तेने शूळीए चडावा लई जतां पेला माळीना घरनी पासे आव्या, त्यारे तेणे राजपुरुषोने कह्यु के, "हवे मारो काळ आव्यो छे, माटे मारी कुलदेवी अहिं छे, जो तमारी इच्छा होय, तो हुं ते देवीने नमस्कार करी लउं." ते राजपुरुषो देवीना भक्त होवाथी तेमणे ते वीर शिरोमणि पुरुषनुं वचन मान्य कयु. कुमारे माळीना घरमां जई पोतानो पेलो यांत्रिक अश्व तैयार कर्यो पछी तेओना देखतां कुमार ते अश्व उपर बेसी आकाशमा उडी गयो, राजपुरुषो रोझनी जेम उंचा मुख करी शून्य हृदये उभा-उभा जोई रह्या, कुमार त्यांथी गोख उपर रहेली पोतानी प्रिया भुवनमंजरीने लई सिंधुमां आवेला एक बेटमां आवी पहोंच्यो. त्यां अश्व उपरथी उतरी सुख निद्राए सुई रह्यो. तेवामां कोई मिथ्यात्वी देव त्यां आवी चड्यो. कुमारनां दर्शन, आचार अने रुचिनो नाश करवा माटे तेणे तेनी पत्नी अने अश्वने क्षणवारमा अदृश्य कर्या अने कुमारना शरीरमा असाध्य रोग उत्पन्न कर्यो. ते रोगनी वेदनाने लईने तेनी निद्रा चाली गई. तेणे पोतानी पत्नीने बोलावी. पण ते तेना जोवामां आवी नहिं. पछी पेला अश्वने जोतां, ते पण अदृश्य थयेलो मालुम पड्यो. कर्मथी निर्जित एवो कुमार चिंतातुर बनी गयो. तेवामां ते देवताए कोई एक निमित्तिओ बनावी त्यां मोकल्यो. तेणे पासे आवी कुमारने आ प्रमाणे कडं, "तारा मनमां गतवस्तुनी चिंता छे, पण जो तुं मारा वचन प्रमाणे करे, तो ते सर्व वस्तु तारे हाथ आवे, नहिं तो आ तारो देह पण चाल्यो जशे, तो पछी बीजानी शी वात?" ते सांभळी कुमार बोल्यो, "तारुं शुं वचन छे?" ते बोल्यो,
___ "ते जे वीतराग देव अंगीकार करेल छे, ते देव सत्पुरुषोनी रक्षा अने दुष्ट पुरुषोने शिक्षा कदिपण न करी शके. जे चित्तमां रागद्वेष धारण करे नहिं अने सर्वत्र समताने धारण करे, ते देव पूजवाथी शुभाशुभ शी रीते आपी शके? जे देव कारणने लईने लोकोने आधाररूप एवो अवतार धारण न करे, ते देव बलथी लई ले नहीं, आपे नहि, कांई कहे नहिं अने रक्षण पण करे नहिं, बीजा सामान्य पुरुषना हाथ जो शस्त्रधारी होय, तो ते रक्षण करनारा थाय छे. तो ते देवना हाथ शस्त्र वगरना छे. तेथी ते दीन, हलका अने बळवगरना छे. ते देवनी पासे लक्ष्मीने आपनारी लक्ष्मी नथी, तेमज जे कर्ता तथा हर्ता नथी, जेने पोतानो अने पारकानो भेद नथी, तेनाथी खेद शी रीते नाश पामे? ते तारो देव पोते वाहन वगरनो छे, तो बीजाना वाहनने केम सहन करी शके? तेने पत्नी नथी, तो श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा ते तारी पत्नीने अने तेने रूप नथी, तो ते तारा रूपने पण केम सहन करी शके? माटे वाहनवाळा, लक्ष्मी, स्त्री अने शस्त्रवाळा अने अधिक अवयववाळा भक्तवत्सल देवनो तुं आश्रय कर.
वळी हे सत्तम! जे गुरु तारा मनमां निरंतर रह्या करे छे, ते गुरु पण कोईनं रक्षण वगेरे करी शके तेवा नथी. माटे जे गुरु अरिष्टनी शांति करे, ज्योतिष जोई आपे, रोग होय तो वैदुं करे, वेद प्रमाणे व्यवहार करे, बीजाने शाप आपे, पोताना जननो अनुग्रह करे, काम वखते जाये आवे, भक्तोना पाप पोते ले अने जेना मनमां जेवू रुचे तेवू हितकारी बोले, तेवा ममता मोहवाळा गुरुने भज. तारो सर्वज्ञ देव के जे सर्वनो हितकारी छतां पोते वांछाथी रहित अने दयाए सहित छे तेने तुं तारो पोतानो हितकारी माने छे, पण तेनाथी तारुं हित शी रीते सिद्ध थाय?
जेमां ब्राह्मण वगेरेने सर्वनुं दान, यज्ञ वगेरेमां सोमरसनुं पान, जलना प्रमाण वगरनुं तीर्थ अने पुत्रादि संतान-ए स्वर्गने आपनारुं छे जेमां मरेला पितृओने पण पुत्रो तृप्त करे छे, भोजननी वेळाए कागडाओ पात्र गणाय छे अने वृक्ष, सर्प तथा गाय वगैरेनी पूजा करवी कहेली छे, जेमां पत्नीवाळा पण गुरुने लोको आदरथी माने छे, सामान्य देवदेवीओने पोतानो जीव पण अपाय छे अने जेमा अढारे वर्णो रहेला छे, तेवा धर्मनुं तुं आचरण कर" ते निमित्तियानां आवां वचनो सांभळी कुमार बोल्यो, "मारा हृदयमां सर्वज्ञ देव, निःसंग गुरु अने जीवदयाथी रमणीय धर्म ज वसी रह्या छे. आकाशमां गति करनारो मारो अश्व, हृदयने प्रिय एवी स्त्री अने रक्षण रहित आ मारा प्राण जो जता होय, तो ते भले जाय, पण हुं निश्चल अने निर्मल एवा मारा सम्यक्त्वने त्यजीश नहिं." आवो कुमारनो दृढ निश्चय जाणी ते मिथ्यादृष्टि देव मिश्रदृष्टि (मध्यस्थ) बनी गयो. तत्काळ तेणे अश्व अने तेनी स्त्री प्रगट करी अने तेनो आदरथी सत्कार करी पछी ते देव पोताने स्थाने चाल्यो गयो. कुमार पण पोताने स्थाने गयो. तेणे अनुक्रमे राज्यने प्राप्त करी आ पृथ्वी उपर सम्यक्त्वनुं स्थापन कयु. कारण के प्रजा राजाने अनुसरनारी थाय छे. ते चिरकाळ राज्यने अने विधि प्रमाणे सम्यक्त्वने पाळी छेवटे दीक्षा लई मोक्षने प्राप्त थयो. एवी रीते जे मनुष्यो पोताना हृदयमां सदा अतिचार रहित सम्यक्त्वने धारण करे छे, ते मनुष्यो धन्य अने सुकृती (पुन्यशाळी) आत्माओमां गणनीय थाय छे. ।।९४८।।
इति सम्यक्त्वम्
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गणधर देशना अने प्रभुनो परिवार भगवान् श्री विमलनाथ प्रभुनी उपर प्रमाणे देशना सांभळी केटलाएक पुरुषोए दीक्षा लीधी अने विवेकी एवा शिरभृत् प्रमुखे श्रावक व्रतो अंगीकार कर्या. वासुदेव स्वयंभूए सम्यक्त्वने ग्रहण कयुं अने बीजा पण अविरत जनोए ते ग्रहण कयु. प्रभुए एक पहोर सुधी देशना आप्या पछी बीजे पहोरे मंदिर गणधरे आ प्रमाणे देशना आपी. 'हे भविजनो! आ संसार एक दुःपार (दुःखे पार पामी शकाय एवा) खारा समुद्रना जेवो छे. जन्म, मृत्यु, जरा अने रोगरूपी चपळ कल्लोलोथी ते विराजित छे. क्रोधरूपी वडवाग्निथी ते युक्त छे, तेनी अंदर गर्वरूपी पर्वतनो वास छे. मायारूपी तेनी 'वेला छे, लोभरूपी गंभीर आवत घुमरीओथी ते दुस्तर छे. जीवयोनिरूप मगरना समूहथी ते चारे तरफ व्याप्त छे. आश्रवद्वाररूप नदीओना कादववाळा जलथी ते पूरायेलो छे. हास्यरूपी फीणथी ते प्रसरेलो छे. द्वेषरूपी प्रचंड पवनवडे ते दुःसह छे, कुदर्शनरूपी दुर्वार जलवडे ते भरेलो छे. ते हमेशां तृष्णानी वृद्धि करनारो, जलजंतुओथी युक्त, नीच तथा उच्च गोत्रोथी संकलित अने जेमां अनेक मनुष्यो कादवमां खुची गयेला छे. जेनुं स्थान सम्यक्त्व छे, जेमां व्रतरूपी फलक पाटीया छे, जेमां गुणना समूहरूप दोरडां छे, निश्चल रूपी जेमां डोल छे, जेमां शुक्ल ध्यानरूपी श्वेत ध्वज छे, गुरुरूप जेना खलासी छे, सारा नियमरूपी जेना सढो छे, क्षमारूपी जेमा हलेसां छे, जेमां ज्ञानरूपी ध्रुवनो तारो छे, जेमां संतोषरूपी अटाळी छे, जेमां तपना . भेदरूपी 4पौलिंद छे. अने जेमां दयारूप नालिका छे, एवं उत्तम वहाण जे पुण्यवान् नरने प्राप्त थाय छे, ते पुरुष ते संसार समुद्रने तरीने महानंद मोक्षरूपी उत्तम नगरमां अवश्य जाय छे." आ प्रमाणे बीजो पहोर पूर्ण थतां मुख्य गणधर मंदिर स्वामी देशनाथी विराम पाम्या. पछी देव, असुर अने मनुष्यो पोतपोताने स्थाने चाल्या गया. एवी रीते सेवा करनारा उत्तम देवताओ श्री विमलप्रभुर्नु सुखसंपत्तिने शरणे आपनारुं समवसरण स्थाने स्थाने करता हता. केवलज्ञान थया पछी बे वर्ष उणा पंदर लाख वर्ष सुधी पृथ्वी उपर विहार करतां श्रीविमलनाथ प्रभुने आ प्रमाणे परिवार थयो हतो. अडसठ हजार (६८,०००) साधुओ, एक लाख अने आठसो (१,००८,००) साध्विओ, अगियारसो (१,१००) चौद पूर्वधारी. अडताळीशसो (४,८००) अवधिज्ञानी, पंचावनसो (५,५००) मनःपर्यवज्ञानी, तेटला ज (५,५००) केवलज्ञानी, नेवूसो (९,०००) वैक्रिय लब्धिवाळा, त्रण हजार 1. मर्यादातट. 2. तृषा अने पक्षे वासना. 3. उंचा नीचा गोत्रो पक्षे पर्वतो. 4. वहाणन बंधारण.
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सम्यक्त्व उपर कुलध्वजनी कथा
अने बसो (३,२००) सुप्रसादी एवा वादीओ, बे लाख अने आठ हजार श्रावको अने चार लाख अने चोत्रीस हजार (४,३४,०००) श्राविकाओ.
प्रभु पोतानो निर्वाण समय जाणी संमेतगिरि उपर गया अने त्यां छ हजार मुनिओनी साथे तेओए अनशन व्रत अंगीकार कयुं. ते पवित्र कांतिवाला प्रभु एक मास सुधी अनशन पाल्युं. आषाढ मासनी कृष्ण सप्तमीने दिवसे चंद्र रेवती नक्षत्रमां आवतां कायोत्सर्गे रहेला अने शुद्ध शुक्ल ध्यानथी विराजता श्री विमलनाथ प्रभु छ हजार मुनिओनी साथे निर्वाणने पाम्या. ते समये राजाओ अने इंद्रो खेद करता त्यां आव्या. तेमणे प्रथम खेदनो भार दर्शावी, पछी स्वोचित कृत्य करवा मांड्युं. इंद्रनी आज्ञाथी आभियोगिक देवताओए गोशीर्ष चंदन लावी पूर्व दिशामां प्रभुनी गोळाकार चिता रची, ईक्ष्वाकु साधुओनी उत्तर दिशामां त्रिकोण चिता रची अने बीजाओनी पश्चिम दिशामां चोरस चिता रची हती. इंद्रे पोते प्रभुने क्षीरसमुद्रना जलथी स्नान कराव्युं अने घाटा उंची जातना चंदनथी लेप कर्यो. अने बीजाओने ते प्रमाणे देवताओए कयुं. ते पछी इंद्रे देवदुष्य वस्त्रथी प्रभुना अंगने आच्छादित कर्तुं अने कल्पवृक्षना सुगंधी पुष्पोथी विभूषित कर्यु. ते वखते देवताओए त्रण शिबिकाओ विकुर्वी, तेमांनी मूळ शिबिकामां इंद्रे नमस्कार करी प्रभुने पधराव्या अने बीजी बे शिबिका ओमां देवताओए बीजा मुनिओना शरीरोने योग्यता प्रमाणे आरोपित कर्यां. "सुमनसो नौचित्योल्लंघनस्पृशः " देवताओ उचित कार्यनुं उल्लंघन करता नथी. पछी एक हजार माणसो वहन करी शके तेवी प्रभुनी शिबिका इंद्रे पोते उपाडी अने बीजाओनी शिबिकाओ भक्तिना भारवाळा देवताओए उपाडी. ते शिबिकानी आगळ देवताओनी स्त्रीओ रसथी राडा लेती हती. देवताओनो गंधर्व वर्ग नृत्य, गीत अने वाद्यो वगाडतो हतो केटलाएक देवताओ आगळ धूप करता हता, केटलाएक प्रकाशमान थई छडीओ धरी चालता हता, केटलाएक पुष्पोनी वृष्टि करता अने केटलाएक सर्व दोषोने हरनारी शेषा ( प्रसादी) ने लेतां हता, तेवी रीते थतां पूर्वदिशाना पति इंद्रे पूर्वनी चितामां प्रभुने पधराव्या अने बीजा साधुओना शरीरो बीजी बे चितामां देवताओए स्थापित कर्यां. ते ज समये चितानी अंदर अग्निकुमार देवताओए अग्नि वायुकुमार देवताओए पवन अने देवेंद्रो कर्पूरनो समूह प्रगटाव्यो. अग्निथी अस्थि सिवाय बधा धातुओ बळी गया पछी मेघकुमार देवताओए क्षीरजलवडे ते चिताने बुझावी दीधी. ते वखते सौधर्म इंद्रे आवी पूजवाने माटे प्रभुनी जमणी दाढ ग्रहण करी अने ईशानेंद्रे डाबी दाढ ग्रहण करी. चमेरेंद्रे नीचेनी जमणी दाढ अने
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गणधर देशना अने प्रभनो परिवार
बलिइंद्रे डाबी दाढ ग्रहण करी, बाकीना इंद्रोए योग्यता प्रमाणे प्रभुना दांत ग्रहण कां, बीजा देवताओ प्रभुना अस्थिना खंड लई गया अने ब्राह्मणोए नवा अग्निना भाग लीधा. त्यारथी ते अग्निनी पूजा प्रवर्ती छे अने ते पूजनारा ब्राह्मणो अग्निहोत्री तरीके प्रख्यात थया छे. राजा वगेरे ते प्रभुनी रक्षानी पोटली करीने बांधी, ते प्रवाहरूपे अद्यपि रक्षाने रक्षा करनारी माने छे. केटलाएके ते प्रभुनी रक्षाने वंदना करी अने केटलाएके ते रक्षानें शरीरे मर्दन कयु, ते उपरथी राख चोळवानो विधि अद्यपि पण लोकोमा देखाय छे. केटलाएक लोकोए त्यांथी एटली बधी रज लीधी के जेथी त्यां मोटो खाडो थई गयो. पछी देवताओए त्यां उपर रत्नमय स्तूप बनाव्यो, त्यार बाद सर्व इंद्रो नंदीश्वरनी यात्रा करी पोतपोताने स्थाने चाल्या गया. देवताओनी सर्वदा ए ज मर्यादा छे.
भगवान् श्री विमलप्रभुने कुमारपणामां पंदर लाख वर्षो, व्रतमां पण पंदर लाख वर्षो अने राज्यमां त्रीस लाख वर्ष-एम सर्व मळीने साठ लाख वर्षतेमनुं आयुष्य हतुं. श्री वासुपूज्य स्वामीना निर्वाण पछी त्रीस सागरोपम वीत्या बाद श्री विमलनाथ प्रभुनुं निर्वाण थयु. स्वयंभू वासुदेव पोतानुं साठ लाख वर्षनुं आयुष्य भोगवी पापकर्मना योगथी छट्ठी नरके गयो. ते वासुदेवने कौमारपणामां बार हजार वर्ष देशाधिपतिना पदमां बार हजार वर्ष, नेवू हजार वर्ष दिग्विजयमां अने अर्थने साधनारा वासुदेव पदमां ओगणसाठ लाख पंचोतेर हजार अने नवसो दश वर्ष थयां हतां. पछी भद्रबळदेवे मुनिचंद्र मुनिनी पासे जईने दीक्षा लीधी. पोता पांसठ लाख वर्षतुं आयुष्य पूर्ण करी अने कर्मोनो क्षय करी ते परम पदने प्राप्त थयो.
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ग्रंथ कर्त्तानी प्रशस्ति
ग्रंथ कर्तानी प्रशस्ति
गुणोना समूहथी पवित्र एवा त्रिषष्ठिशलाका पुरुषोनां चरित्रोमांथी चार शलाकापुरुषोनां चरित्रो में अहिं मारी बुद्धि प्रमाणे कह्यां छे. दान, शील, तप अने भावरूप चतुर्विध धर्मना आ भेदो निर्मल एवा श्री संघने विद्या, सुख अने कल्याणनी संपत्तिओ आपो. आ ग्रंथमां कांई आगम विरुद्ध कविधर्मथी विरुद्ध के छंद तथा व्याकरणादिकथी विरुद्ध लखायुं होय, तो ते उत्तम विद्वानोए शोधी लेवं. आ लोकमां विबुधजनोनी श्रेणिमां शोभता, वाणी तथा उत्तम धर्मथी अधिक उद्योतवाळा अने अर्थोना समूहने आपनारा श्री रत्नसिंह सूरींद्र जय पामे छे. महाव्रतने धारण करनारा, सर्व मंगळवडे सुंदर अने मुनिगणथी युक्त एवा श्रीउदयवल्लभसूरि आनंद पामो. जेम मनुष्योने नित्ये चंद्रसूर्यना प्रसादथी पदार्थो नित्ये प्रगट थाय छे, तेम ते बंने सूरिवरोना प्रसादथी मने सर्व पदार्थो प्रगट थया. मारा जेवा बालने 'पदन्यास करवानुं सामर्थ्य क्यांथी होय? परंतु शुद्ध हृदयने लईने जे कांई थयुं छे, ते गुरुओनी ज प्रवीणता छे. सरस्वतीनी जेम सुवर्ण लक्षने प्रगट करनारी, प्रवीणा अने विधिसंयुक्त एवी अति महान् श्री धर्मलक्ष्मी जय पामो. ज्यां स्तंभ पण तीर्थनी जेम सदालयनुं कारण, उच्चगतिवाळो अने 'सुकाष्ठोद्भू थयो, तेथी ए स्तंभतीर्थ कहेवायुं छे. तेवा तीर्थपणाने लईने रत्नाकर पण जेनी सेवा करवा माटे बे वखत भरतीना वेलाना मिषथी पृथ्वी उपर आळोटतो महेंद्री साथे आव्या करे छे, तेवा स्तंभतीर्थ-खंभातमां कल्पवृक्षना जेवा श्रीमाळ कुलनी अंदर व्यवहार-वेपारमा प्रकाशमान थयेला हरिपति नामे 1. पदन्यास-बाल पक्षे पगलां भरवां ते अने ग्रंथकर्ता पक्षे वाक्यनो न्यास करवो ते. 2. सरस्वती पक्षे सुवर्णलक्ष लाखो सारा वर्णो-अक्षरो. अने लक्ष्मीपक्षे लाखसुवर्ण. सरस्वती __पक्षे प्रवीणा-प्रकृष्ट वीणानी विधि. लक्ष्मी पक्षे प्रवीणतानो विधि-प्रकार. 3. स्तंभपक्षे सदालय एटले सारा स्थान, कारण तीर्थ पक्षे सारी गति, कारण. 4. स्तंभ-सुकाष्ठोद्भु-सारा काष्टमाथी बनेलो तीर्थ पक्षे सु-सारी काष्ठा-दिशामां थयेल.
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ग्रंथ कर्त्तानी प्रशस्ति संघपति रहेता हता. जेओए संवत् १४५२ना निर्दोष वर्षमा सात देवालयोनी साथे शत्रुजय वगेरे तीर्थोनी यात्रा करी हती अने जेओए त्यां श्रीरत्नसिंहसूरिना अने साध्वी वर्गमां शिरोमणि रूप एवा श्री रत्नचूला साध्वीना पगला पधराव्यां हतां. ते हरपति शेठनी नामलदे नामनी पत्नीथी सज्जनसिंह नामे पुत्र थयो. ते सज्जनसिंहनी कौतुकदेवी नामनी स्त्रीथी शाण नामे जयवंत पुत्र थयो, जेमां आ चरित्र ग्रंथनी रचना थई; ते वर्षमां शाणराज शेठे शजय तथा गिरनार तीर्थनी चोवीस देवालयोनी साथे उत्सव सहित विधिपूर्वक हर्षथी यात्रा करी हती. ए शाणराजना आग्रहथी ते रमणीय स्तंभ नगरमां संवत १५१७ना वर्षमां श्रावण मासनी कृष्ण पंचमीने दिवसे चंद्र अश्विनी नक्षत्रमा आवतां रत्नना सिंहासन उपर रहेला श्रीस्तंभतीर्थपति पार्श्वनाथ प्रभुना अने ज्ञानना रत्नाकररूप श्रीमान् उदयवल्लभ गुरुना प्रसादथी में आ ग्रंथ रच्यो छे. धर्मलक्ष्मी अने श्रीजिनभाषित एवा ज्ञान, दर्शन अने चारित्र रूप रत्नोनी लक्ष्मीथी युक्त एवो आ ग्रंथ लोकोमां हमेशां जयवंत थाओ.
इति पंचम सर्ग
समाप्त
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