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वरदत्तनी कथा कन्याओ आवे, तो तेनी शी वात करवी? परंतु तुं आ विश्वमां उत्तम छे, माटे ते दश कन्याओगें सदा आराधन कर." ते सांभळी विस्मय पामेलो राजा गुरुप्रत्ये बोल्यो-"भगवान्, मातृभक्ति गृहस्थोने करवी घटे छे. कांई योगीओने करवी घटती नथी. ।।८५१।। लोकशास्त्रमा ब्रह्माणी प्रमुख सात माताओ कहेली छे. तेमज मित्रपत्नी वगेरे पांच माताओ कहेली छे. एटले सात अने पांच माताओ कहेली छे. ते माताओनी भक्तिमां माझं मन छे, परंतु ते सात अने पांच माताओ मारे पूरती छे, तथापि गुरुनु वचन उल्लंघन करवाने हुं समर्थ नथी कल्पवृक्षना जेवा गुरुओ तत्त्वने कहे छे, तो मन कल्पित एवा ते अर्थने स्पष्ट करवा मने तेनो तत्त्वार्थ हमाणं ज कहो." सिद्धांतना रहस्यने जाणनारा गुरु बोल्या, "हे राजा, अंगने पुष्टि आपनारी आठ माताओ साधुओने माननीय छे." राजाए पूछ्युं, "ते आठ माताओ कई?" त्यारे गुरु बोल्या, "हे राजा, पांच समिति अने त्रण गुप्ति-ए आठ (प्रवचन) माताओ छे. तेओ चारित्ररूपी गात्रनी पोषक अने रक्षक छे. मुनिओए सेवन करेली ते माताओ अंते मोक्षफलने आपनारी थाय छे. जेनी भूमिना भागने सूर्यना किरणोनो स्पर्श थयो छे अने जेनी उपर लोको चाले छे, एवा मार्गमां युगमात्र (धुंसरी प्रमाण) दृष्टि राखी पोताना नेत्रोवडे पगले-पगले भूमि-मार्ग शोधता सावधान रही जे मुनि मौन धरीने चाले छे, तेवी पहेली ईर्या समिति जंतुओर्नु रक्षण करनारी छे, तेथी साधुए ते समितिने भजवी जोईए. जे मुनि ए शुद्ध ईर्या-समितिने पाळे छे, तेनी प्रशंसा वरदत्तनी जेम इंद्र पण देवताओनी आगळ करे छे.
वरदत्तनी कथा पूर्वे स्वच्छ एवा गच्छमां वरदत्त नामे एक मुनीश्वर हता. ते गुरुभक्तिवाळा मुनि मनुष्य जन्मना साररूप निरतिचार चारित्रने परम भक्तिथी पाळता हता, तेमां खास करीने ते कृतार्थ मुनि जीवरक्षाने माटे पहेली ईर्यासमिति विशेष पाळता हता. एक वखते हीनकर्म रहितं एवो सौधर्मेंद्र सभामां बेठो हतो, तेणे अवधिज्ञानथी जंबूद्वीप तरफ अवलोकन कयु; तेवामां ईर्या समितिवाळा महामुनि वरदत्तने जोई तेणे त्यां बेठां बेठां तेने नमस्कार कर्यो. ते जोई विस्मय पामेला सर्व देवताओए कडं, "स्वामिन्, हमणां आपे कोने नमस्कार कर्यो?" इंद्र बोल्यो, "हे देवताओ, जे प्रशंसनीय बुद्धिवाळानी सर्व राजाओ सेवा करे छे, तेवा वरदत्त नामे एक मुनि पृथ्वी उपर रहेला छे, ते चारित्रगुणना गौरववाळा, ईर्यासमितिवडे युक्त अने दुर्ध्यान रूपी शत्रुथी मुक्त छे, तेमना गुणो पूजनीय छे, तेथी तेओ मारे पण
श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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