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________________ पूर्णकळशनी कथा, विष्णुशर्मा ब्राह्मणनी कथा "हे रत्नोने आपनारी देवी, दारिद्र्य रूप समुद्रमाथी मने तारी ल्यो." आ प्रमाणे एकवीस दिवस सुधी सेवा करतां ते विष्णुशर्माने देवीए प्रत्यक्ष थई खेद साथे का, 'ते पूर्वे कांईपण सुकृत कयु नथी, तेथी तने धन क्यांथी मळे? माटे तुं मारा मंदिरमांथी चाल्यो जा. नहीं तो हुं तने समुद्रमां फेंकी दईश." देवीनां आवां वचन सांभळी ते खेदातुर थईने बोल्यो, "जो सुकृतधर्म करवाथी मने धननी प्राप्ति थती होय, तो पछी तारी सेवा करवानुं फल शुं? जो रोगी पथ्य पाळवाथी निरोगी बनतो होय, तो पछी तेमां वैद्यनी विद्या शी कहेवाय? ज्ञानदृष्टिवाळा पुरुषने सूर्यना प्रकाशनी शी जरूर छे? चिंतामणि वगेरे अचेतन पदार्थो पण चिंतित अर्थने आपनारा छे ते केवा सारा गणाय? तमे विबुध (देव अने ज्ञानी) छो, छतां पण मारी इच्छा प्रमाणे केम आपता नथी?" ते सांभळीने देवी बोल्यां, "अरे! ते चेतना वगरना चिंतामणि वगेरे सत्पुरुषोने वांछित आपे छे पण ते चेतावी शकता नथी. तेमज उत्तर परिणाम जाणी शकता नथी अने जे विबुध-विद्वान् देवताओ छे, तेओ पोतानु अने पर हित सारी रीते जाणी शके छे, तेथी हुँ तने कांईपण आपती नथी." ते ब्राह्मणे कडं, "देवी, मारुं उत्तर परिणाम केq छे? ते मने हमणां ज कही आपो." देवी बोल्यां. "हं तने जे आपीश, ते तारी पासे रही शकशे नहीं," ब्राह्मणे कडं, "हे देवी, तेमां तमारे शा माटे चिंता राखवी? मने ईच्छित वस्तु आपो, जो पाछळथी ते बधुं हुं गुमावीश, तो पछी तेमां तमारो दोष नथी." पछी देवीए तेने चिंतामणि आप्यो. ते विद्वान् ब्राह्मणे तेथी हृदयमां संतोष पामीने पारणुं कयु. ते पछी विष्णुशर्मा वहाणमां बेसी ते सुंदर मणि साथे लई पोताना नगरमां सत्वर जवानी इच्छाथी जळमार्गे चाल्यो. एक वखत पूर्णिमानी रात्रे आकाशमां चंद्रने जोई तेणे विचार कर्यो के, "आ मारो मणि वधारे प्रकाशमान छे के चंद्र वधारे प्रकाशमान छे? तेथी हं ते मणिने चंद्रनी साथे सरखावी जोई मारा मननो संदेह दूर करूं. अर्थ कार्य सुखे सधाय एम होय छतां अहीं कयो माणस पोताना हृदयमा संशयने धारण करे?" एवं चितवी समुद्रना जळमां ज्यां चंद्रनुं प्रतिबिंब पडेलुं छे, त्यां ते जडबुद्धि ब्राह्मणे सहेजे (वगर महेनते) चिंतामणिरत्न युक्त पोतानो हाथ कर्यो त्यां चंद्रना बिंबमां कलंक अने पोतानो मणि निष्कलंक जोई ते खुशी थई गयो, परंतु तेणे हृदयमां कांई विचायुं नहीं, तेवामां प्रमादने लईने ते मणि तेना हाथमांथी समुद्रनी अंदर पडी गयो. तेथी तत्काळ पोते अचेतन थईने वहाणमां मूर्छित थई पड्यो. आ वखते वहाणना स्वामीए तेने कर्वा के, "अरे! कहे, तने आ शुं थयु?" पछी तेणे श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग 135
SR No.005931
Book TitleVimalnath Prabhunu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages378
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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