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श्री विमलनाथ प्रभुनो जन्म महोत्सव पवित्र 'रुचि थती हती. तेनुं कारण जिनभगवाननो संसारने निवारनार जन्म ज छे, एम हुं मार्नु छु. ते समये वृद्ध स्त्रीओए आवी हितकारी आहार, आच्छादन, आसन अने मांचडाथी सर्व ऋतुओमां ते गर्भनुं जे पथ्य हतुं ते कयुं. आठ मास अने एकवीस दिवसो व्यतीत थया पछी माघ मासनी शुक्ल तृतीयाने दिवसे रात्रे शुभ समये चंद्र उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमा आवतां अने बीजा ग्रहो उच्च स्थानमा रहेता श्यामादेवीए वराहना चिह्नवाळा सुवर्णना जेवी कांति धरनारा, त्रण ज्ञानवाळा, धीर, समुद्रथी पण गंभीर अने तेजना पुंजथी विराजित एवा पुत्रने जन्म आप्यो.।।१००।। ते समये विख्यात जगत्प्रभुनो जन्म थतां दिशाओ आकाशनी साथे प्रकाशवाळी अने काशडाना पुष्पोना जेवी उज्ज्वळ बनी गई. क्षणवार नारकीओने पण सुख थयु; पृथ्वी उच्छ्वासवाळी (अंकुरित) बनी गई. जल निर्मल थयु, अग्निनी ज्वाला दक्षिण तरफ बळवा लागी, वायु सुगंधी वावा लाग्यो अने वृक्षो पुष्पित थई गया. आ पृथ्वी उपर श्री जिन भगवाननुं माहात्म्य सदा अचिंत्य ज होय छे. आकाशमां गंभीर ध्वनिवाळा दुंदुभि (देववाजिंत्रो वागवा लाग्यां. सुगंधी जल तथा पुष्पोनी वृष्टि थवा मांडी.)
एवे समये आसन कंपवाथी अवधिज्ञाननो उपयोग जेमणे कर्यो छे एवी ' शुभ हृदयवाली दिक्कुमारीओ सत्वर पोतपोताना स्थानमांथी सत्वर त्यां आवी. भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, पुष्पमाला अने अनिंदिता ए आठ अधोलोक वासी दिककुमारिकाओ सूतिकागृहमां आवी त्यां तेमणे जिनप्रभुने अने तेमनी माताने नमस्कार करी कह्यु के, "जगत्माता, तमारे बीवू नहीं. अमो प्रभुनो जन्मोत्सव करवा आव्या छीए" आ प्रमाणे कही ते सूतिकागृहनी चारे तरफ एक योजन सुधी भूमिने सारावायुथी शोधी तेमनी समीपे आसन करी, जिन प्रभुना गीत गावामां तत्पर थईने रही. ते पछी प्रयाण करवाना आदरथी सुंदर एवी उर्ध्वलोकमां रहेनारी आठ दिक्कुमारीओ भुवनपति-जिन प्रभुना भुवनमां आवी. तेओना नाम मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिषेणा अने बलाहका एवां हतां, तेओए जिनने अने जिनमाताने प्रणाम करी योजन सुधीनी पृथ्वी उपर सुगंधी जल वडे सिंचन करी पुष्पोनी वृष्टि करी. प्रभुने अने तेमनी माताने नमस्कार करवो, पोतार्ने काम प्रगट करवू, गीतगान करवू अने पछी (पोतपोतानी दिशामां मर्यादासर उभा) रहे£ ए दिककुमारीओनो विधि होय छे. ते पछी पूर्वरुचक पर्वतना स्थानमांथी आठ 1. रुचि-इच्छा पक्षे कांति. श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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