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जिनदासनी कथा आवी गयो, ते चरणने भेदी जमीनमां पेसी गयो. पोतानी स्त्रीने आवी दुराचरणी जाण्या छतां चरणमां उत्पन्न थयेली नवी पीडाने सहन करतां पण ते जिनदासना हृदयमां खेद उत्पन्न थयो नहिं. भावनाना समूहथी प्रकाशमान एवा ते भव्य आत्माए पोताना हृदयमां आ संसार- विषम स्वरूप भाववा मांड्यु.- "हे आत्मा, ते पूर्वे अनंत अनाचारी स्त्रीओ भोगवीने छोडी दीधी छे, आ स्त्रीने पण तेओ मांहेली एक बीजी गणी लेजे विद्वानोए शास्त्रमा स्त्रीओने आवी ज कहेली छे. लींबडो पोतानी कटुता दर्शावे, तेमां आश्चर्य शु! जेम जल नीची (जमीन) तरफ जाय छे, सर्प वक्रगतिए चाले छे अने अग्नि ताप करनार होय छे, तेवी रीते लोकोमा वामा-स्त्रीओ पण वामा विषम ज होय छे. जो, तुं तारा नीचगामी चित्तने एवी बाबतमां व्यापार करावीश, तो ते चित्त तने जरूर अनर्थ ज करावशे. जेवां कर्मो बीजो माणस करे छे, तेवां ज कर्मो मनवडे करीने ज (बीजो) बांधे छे; अहो! चेतन! तेथी तुं तारा चळ-अस्थिर चित्तने स्थिर कर. सुख अने दुःख चित्तने आधीन छे. चित्तनो व्यापार करतां ते सुख दुःख प्रवर्ते छे अने चित्तनो निरोध करवाथी ते सुख दुःखनो रोध थाय छे, माटे चित्तनो रोध करजे. ते पूर्वे नरकमां अनंतगणी पीडाओ भोगवी छे, तेमां तने एक निमेष मात्रपण सुख थयु नथी. आ मन तो पाप करीने दूर चाल्युं जशे, पछी खरी रीते तुं एकलो आ दुःखने सहन करीश." आ प्रमाणे भावना भावतो जिनदास मृत्यु पामीने विख्यात कीर्तिवाळो वैमानिक देवता थयो. अहिं ज्यारे पोताना स्वामीनो देह पृथ्वी उपर पडेलो जोयो, एटले ते स्त्री संभ्रम पामी गई. पछी ए बधो वृत्तांत जाणवामां आवता तेणीना हृदयमां खेद उत्पन्न थई आव्यो. आ वखते जिनदास देवरूपे अवधिज्ञानथी पोतानी स्त्रीनी स्थिति जाणी त्यां आव्यो अने तेणीने अने पेला परपुरुषने प्रतिबोध आपी दीक्षा अपावी. दूध शेलडीनो रस अने जलनी जेम स्वभावे शीतळ एवा सत्पुरुषो कोई तापित (पीडित) थया होय, छतां विक्रिया (रोष) करता नथी. अन्यना अपराधने प्रगट जाण्या छतां गृहस्थो पण जो एवी रीते मननो (अत्यंत) निग्रह करी शके छे, तो पछी मुनिओनी शी स्तुति करवी?
जे सतत मौन धारण करे अथवा वाणीनी वृत्तिनो संवर करे, ते साधु जिन शासनमां वाग्गुप्ति-वचन गुप्तिनो धारक कहेवाय छे. ।।१०९०।।
आ वखते पद्मसेन मुनिए प्रश्न कर्यो के, "भाषासमिति अने वागगुप्तिए बनेमां शो तफावत छे? ते (कृपा करी) कहो." गुरु बोल्या-"जे साधु भाषा समितिवाळा होय ते वाग्गुप्ति वाळा अवश्य होय छे, पण जे वाग्गुप्तिवाळा होय, श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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