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रत्नचूडकुमारना कथानो उपनय जीवने विकट एवी यमघंटा रणघंटा द्वारा सखीरूप बनी जे सत्यमय थई हती, ते पूर्वना पुण्यना प्रभावथी ज थई हती. कारण के जीवने जो अनुकूल बुद्धि उत्पन्न थाय, तो ते मिथ्यादृष्टि होय; तो पण प्राये करीने सम्यग्दृष्टि थई जाय छे. ते पछी जीव ते सर्व जीवोने जीती लई अने पुनः अनंतलक्ष्मी प्राप्त करी रत्नचूडनी जेम विश्वमां सन्मान्य थई सुखी थाय छे." आ प्रमाणे धर्मघोष गुरु पासेथी आ वृत्तांत सम्यक प्रकारे सांभळी रत्नाकर शेठ विषयभोग उपर विरक्त थई गयो अने तेणे पोतानी स्त्री सरस्वतीनी साथे दीक्षा ग्रहण करी रत्नचूड पण सम्यक्त्व मूल गृहस्थना बार व्रतो ग्रहण करी पोताना जन्मने सफळ मानतो घेर आव्यो. त्यारथी रत्नचूड सात क्षेत्रोनी अंदर घणुं द्रव्य वावतो दुःखी तथा दीनजनोने हर्षथी दया दान करवा लाग्यो. ते बंने वखत शुद्ध आवश्यक क्रिया, त्रिकाळ देवपूजा अने पर्वना दिवसोमां पौषध विधिवत आचरवा लाग्यो. ते प्रति वर्षे संघयात्रा, संघभक्ति अने प्रायश्चित्तनी शुद्धि सर्वदा करतो हतो. एवी रीते धर्म, अर्थ अने कामनी आराधना करतां ते रत्नचूडने एक पुत्र थयो, एटले चतुर्थवर्ग-मोक्ष साधवा माटे तेणे दीक्षा ग्रहण करी. ते पछी सारी रीते संयमनी आराधना करी अने दृष्टिवादनो अभ्यास करी छेवटे रत्नचूडमुनि काळ करी सातमा देवलोकमां इंद्रना सामानिक देवरूपे उत्पन्न थया. त्यां तेओ उत्कृष्ट भोग तथा उत्कृष्ट स्थिति भोगवी त्यांथी च्यवी उच्च कुलमां जन्म पामीने छेवटे मोक्षे जशे."
श्री ब्रह्मगुससूरि पद्मसेन राजाने कहे छे, हे राजा, में तने आ अन्नना दान विषे दृष्टांत आपी दर्शाव्युं तेम बीजा वसति वगेरेनां जे दान छे, ते जिनशासनमा सात प्रकारनां कहेलां छे. कोई ठेकाणे पात्रदान, अभयदान, दयादान, कीर्तिदान कहेला छे अने कोई ठेकाणे ज्ञानदान वगेरे पण कहेला छे. तेओमां अभयदान अने सत्पात्रदान आपवाथी मोक्ष थवानो संभव छे अने अनुकंपा वगेरे दानो पूर्ण रीते स्वर्गादि फळने आपनारां छे.
जेओए 'ऋण सत्वर छेदी नाख्यु' एवी वाणी वर्णोनी अंदर सत्य करी हती, जेमनुं सुवर्णतुं दान विद्वानोए कल्पवृक्ष वगेरेना जेवू पूर्ण कहेलुं छे अने जेमणे कांईपण छेदन कर्या वगर अद्भुत रीते सद्वर्णनो नाश कर्यो हतो, एवा निर्मळ वाणीवाळा श्री विमलनाथ प्रभु तमोने सदा हर्षने माटे थाओ. ।।१११६ ।। || इति श्री तपोगणनायकश्रीरत्नसिंहसूरिना शिष्य भट्टारक
श्री ज्ञानसागरसूरिना रचेला .. श्री विमलनाथ चरित्र महाकाव्यनो दानधर्माधिकाररूप
प्रथम सर्ग समाप्त (ग्रंथान ११२७) ।
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श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग