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________________ , दान ऊपर-रत्नचूडकुमारनी कथा राता होय तो सिद्धि माटे थाय छे." । आवा बत्रीस लक्षणवाळा ते रत्नचूडे राजानी आगळ पेला सर्व धूर्तजनोनी पासे पोतपोतानो वृत्तांत मूळथी ते अंत सुधी कहेवडावी यमघंटा वेश्याए कहेली सारी युक्तिथी तेमने जीती लीधा. ते वखते पेलो जुगारी नासीने क्यांक चाल्यो गयो. पेलो पादुका करनारो कारीगर के जे 'हुँ खुशी छु.' एम उंचे स्वरे बोलतां पण ते श्यामवदन थई जेवो आव्यो. तेवो ज चाल्यो गयो. पेला वहाणनी सर्व वस्तु लेनारा धूर्त वणिको पहेला त्यां हाजर थया न हता, तेमने राजाना माणसो मोकली बोलाव्या अने पछी तेणे तेमने पोतानी बुद्धिवडे हरावी दीधा. ते वखते राजाना कहेवाथी चार लाख द्रव्य लई ते दयाळु रत्नचूडे तेमने संकटमांथी मुक्त कर्या. आथी राजा जो के अन्याय करवामां तत्पर रहेनारो हतो, तो पण तेणे रत्नचूडने उच्च स्वरे का के, "तारी वय करतां वधारे बुद्धि जोई हुं तारी उपर संतुष्ट थयो छु, तेथी मारी पासे कांई पण तुं वर मागी ले." रत्नचूड बोल्यो, "स्वामी, जो आप मारी उपर खुशी थया हो, तो आ तमारा नगरमांथी लक्ष्मी नाशना कारणरूप एवी अनीतिने सत्वर तजावी द्यो. कारण के कयुं छे के, 1"नीति वगरनो राजा, विनय वगरनो शिष्य, शील वगरनो यति, प्रशम वगरनो साधु, जीव वगरनो देह, पुण्य वगरनो जीव अने द्रव्य वगरनो गृहस्थ कांईपण हीसाबमां गणातो नथी." जे माणस न्यायथी प्रवर्ते छे, तेने तिर्यच पण सहाय आपे छे अने जे कुमार्गे चाले छे, तेने सगो भाई पण छोड़ी दे छे. सर्पना मुखमां रुधिर होतुं नथी, निर्जीव कलेवरमां शब्द होतो नथी अने दुष्ट अधिकारवाळा राजा अने प्रजामां द्रव्य होतुं नथी." आ प्रमाणे अनेक कविओना रचेला सुवाक्योथी तेणे एवो प्रतिबोध आप्यो के जेथी राजाए न्याय अंगीकार करवा कबूल कयु. पछी पुनः राजा बोल्यो, "कुमार, में जे न्याय करवानुं कबूल कर्यु, तेथी तो मारु ज हित थयुं, परंतु तारा पोताना हितने माटे कांई कहे." त्यारे रत्नचूड बोल्यो, "जो मारुं हित करवू होय तो मने आ रणघंटा वेश्या अर्पण करो." पछी राजाना कहेवाथी ते रणघंटा वेश्या रत्नचूडनी उत्तम पत्नी थईने रही. . हवे कुमार रत्नचूडे ते नगरीमां रही थोडा ज दिवसोमां घणुं द्रव्य उपार्जन कयु. पछी घणी वस्तुओथी पोतानुं वहाण भरी ते कुशळताथी पोतानी 1. नयने नेती विनयेन शिष्यः शीलेन लिङ्गी प्रशमेन साधुः । - जीवेन देहः सुकृतेन देही वित्तेन गेही रहितो न किञ्चित् ॥१०६३।। 2. न च सर्पमुखे रक्तं, न च शब्द: कलेवरे । न प्रजासु न भूपाले, वित्तं दुरधिकारिणि।।१०६५।। श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग 71
SR No.005931
Book TitleVimalnath Prabhunu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages378
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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