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धर्मनो प्रभाव प्राप्त थाय छे, वेगवाळा अश्वो प्राप्त थाय छे, लाभथी भरपूर उद्योग मळे छे, सर्व सगाओ सज्जन मळे छे, दयावाळु हृदय थाय छे, खुशामत वगरनुं वाणी- चातुर्य प्राप्त थाय छे अने बधो समय सुखमय थाय छे. तेथी करीने कल्याणना अर्थी एवा पुरुषे तेवो सुखदायक श्रेष्ठ धर्म आचरवो जोइए. परंतु हाल ते धर्म जरा अखंड पाखंडथी खंडित थइ गयो छे तेथी सारा हृदयवाळा पुरुषे पोताना हृदयमां विचार करीने ते धर्म सदा आचरवो. कारण के जे कार्य विचारथी करवा योग्य होय ते कार्य श्रेष्ठ पुरुषोए अटकावतुं न जोइए.1 ते धर्ममा जे परोपकार धर्म छे, ते सर्वथी श्रेष्ठ छे.
जेम बधा पर्वोमां दीवाळीनू पर्व, देवताओमां सरस्वती देवी, गुरुओमां गौतम स्वामी, मंत्रोमां ओंकार, तीर्थोमां उज्जयंत पर्वत, ग्रहोमां चंद्र अने विद्याओमां सर्व लोकोए मान्य करेली अध्यात्मविद्या श्रेष्ठ छे, तेम सर्व धर्मोनी अंदर षट्दर्शनोए दर्शावेलो परोपकार धर्म श्रेष्ठ छे अने तेने सत्पुरुषोए आ संसारमा साररूप कहेलो छे. आ पृथ्वी उपर विश्वना आधाररूप ते परोपकार धर्म अनेक प्रकारे कहेलो छे, परंतु तेनी अंदर जे परोपदेशरूप परोपकार धर्म छे, तेनी तुलनाने कोइपण प्रकारे प्राप्त करी शकतो नथी, तेथी हुं मारी अल्पबुद्धि वडे हितोपदेशने अर्थे ते परोपकार धर्म विषे कांइ कहेवानी इच्छा राखुं छु. कारण के बालक जे कांइ बोले ते पूज्य पुरुषोने हर्षनुं कारण थाय छे. कदि कोइ शंका करे के, पूर्व पुरुषोए करेला विस्तारवाळा सिद्धांतना ग्रंथो घणा छे, छतां आ ग्रंथनी कृति करवानुं शुं कारण छे? वळी आ ग्रंथमां तेना कर्तानी वाणी थोडी अने श्लोकोना अर्थने आपनारी छे, तेथी सूक्ष्म एवा पदार्थोनुं ज्ञान आवा ग्रंथथी शी रीते थई शके? आवी शंका लावी कहेवू न जोईए, कारण के मोटा द्वारवाळा घरमा प्रकाश पडतो न होय तो पण तेनी उपरना नाना छिद्रमांथी सूर्यनी जे थोडी कांति आवे ते वडे जेवू सूक्ष्म रेणु वगेरे दर्शन थाय छे, तेवू दर्शन सूर्यनी घाटी कांतिथी थतुं नथी. वळी पूर्वे मणिओ रात्रिना जे अंधकारने दूर करता हता, ते अंधकारने हाल दीवाओ प्रगटावी दूर करवामां आवे छे, तेवी रीते हालना जमाना प्रमाणे हुं आ ग्रंथ कहुं छु. पूर्वकाळे बीजा उत्कृष्ट पुरुषोए सिद्धांतना अंग तथा उपांगो रची उपकार करेलो छे, तो ते हुं पूर्व पुरुषोना कार्यने अनुसरी मारा आत्माने उपकार करुं छु.
1. अतो विचार्य कार्योऽसौ, स्वहदा सुहृदा सदा। विचारसारं यत्कार्य, तन्न वार्य परैर्नरैः ।।२४।।
श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग