Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र जिनागमसंग्रहे भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत श्रीमद्भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति.) मूल अने अनुवादसहित पंचम अंग - तृतीय खंड शतक ७-१५ प्रेरक-श्रीयुत पुंजाभाई हीराचंद . अनुवादक अने संशोधक पंडित भगवानदास हरखचंद दोशी गुजरात विद्यापीठ अमदावाद. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीतं श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (व्याख्याप्रज्ञप्ति:) पञ्चमागे तृतीयखण्डम् श्रीमद् अभयदेवसूरिविरचितविवरणेन श्रीजीवराज तनुज - पण्डितबेचरदासकृत - अनुवादेन च सहितम् । पुन: प्रकाशने शुभाशीर्वाद: सिद्धान्तमहोदधि स्व. आ. श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. वर्धमानतपोनिधि पू. आ. श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. श्रीसूरिमन्त्राराधक स्व. आ. श्रीमद विजय धर्मजितसूरीश्वरजी म.सा. -: पुन: प्रकाशने प्रेरका: : श्रीसूरिमन्त्रपंच प्रस्थानानां चतुः कृत्वः आराधकाः पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद्विजय जयशेखरसूरीश्वरा: -: पुन: प्रकाशकः : श्री दादर आराधना भवन जैन पौषधशाळा ट्रस्ट २८९, एस. के. बोलेरोड, दादर (वे.), मुंबई - ४०००२८. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુન: પ્રકાશન પ્રસંગે પ્રકાશકીય સિદ્ધાન્ત મહોદધિ કર્મસાહિત્યનિષ્ણાત સુવિશુદ્ધબ્રહ્મચારી સ્વ. આ. શ્રીમદ્વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મ. સા., વર્ધમાન તપોનિધિ ગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. શ્રીમદ્વિજય ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા., સમતાસાગર સ્વ. પૂ. પંન્યાસ શ્રી પદ્મવિજયગણિવરજીની પ્રેરણાના પીયુષપાનથી ધબકતો થયેલો દાદરની આરાધનાભવન જૈન પૌષધશાળા સંઘ, જ્ઞાનરુચિની સાથે ક્રિયાચુસ્તતાનો સુભગ સુમેળ જાળવી રાખનારા સંઘોમાંનો એક અગ્રણી સંઘ છે. ગુજરાત કચ્છ વાગડ રાજસ્થાન વગેરે પ્રદેશોમાંથી, વ્યવસાયાર્થે મુંબઈ મહાનગરના દાદર ઉપનગરમાં આવીને સ્થિર થયેલા શ્રાવકોનો આ નાનો સંઘ, પ્રતિવર્ષ સુવિહિત ગુરુભગવંતોના ચાતુર્માસ તથા શેષકાળના અવસ્થા દરમ્યાન ઉપદેશવચનામૃતોને ઝીલીને દાન-શીલ-તપ અને ભાવની નોંધ પાત્ર આરાધના કરી રહ્યો છે. વિ. સં. ૨૦૪૮ ના ચાતુર્માસાર્થે સહજાનંદી સ્વ.પૂ.આ.શ્રીમદ્વિજય ધર્મજિતસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના વિદ્વાન શિષ્યરત્ન શ્રી સૂરિમંત્રની ચાર વાર આરાધના કરી ચુકેલા પૂ.આ.શ્રીમદ્વિજય યશેખર સૂ.મ.સા. પધાર્યા. તેઓ શ્રીમદ્રની પાવનનિશ્રામાં થયેલી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી, તેઓ શ્રીમદ્રની પાવનપ્રેરણા પામીને, અમે પંચમાંગ શ્રીમદ્ ભગવતીસૂત્ર (વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ) નો ત્રીજો ભાગ પુનઃ પ્રકાશિત કરતાં અનેરી ધન્યતા અનુભવીએ છીએ. આ પુસ્તક શ્રીજિનાગમપ્રકાશક સભા - મુંબઈ દ્વારા વિ.સં.૧૯૭૪ માં પ્રકાશિત થયું હતું જે હાલ અત્યંત જીર્ણ અવસ્થાને પામ્યું છે તેમજ દુપ્રાપ્ય છે. તેથી ઝેરફ ઑફસેટ મુદ્રણ દ્વારા એ ગ્રન્થનું આ પુનઃ પ્રકાશન થઈ રહ્યું છે. અભ્યાસુઓને આ ગ્રન્થ સુલભ થાય તેમજ અધ્યયન માટે ઉપયોગી બને એ માટે મુદ્રિત કરાવેલી આ ર૫૦ નકલો વેચાણ-વ્યવસાયનો ઉદ્દેશ ઘરાવતી નથી. પૂર્વપ્રકાશનકાળે સંપાદન, ભાષાંતર, પ્રેરણા, આર્થિક સહયોગ વગેરે આપનાર દરકેનો આ પ્રસંગે આભાર માનીએ છીએ. વિશેષ કરીને, શ્રીયુત પુંજાભાઈ હીરાચંદ દ્વારા સંસ્થાપિત શ્રી જિનાગમપ્રકાશક સભાના માનદ કાર્યકર શ્રી મનસુખલાલ રવજીભાઈ મહેતા તથા તેમની પ્રેરણાથી આ ગ્રન્થનું સંપાદન અને અનુવાદ કરનારા ન્યાય-વ્યાકરણતીર્થ પંડિત શ્રી બેચરદાસ જીવરાજનો તથા શ્રી અંધેરી ગુજરાતી જૈન સંઘનો, આ પુન:પ્રકાશન પ્રસંગે આભાર માનીએ છીએ. આ પુન:પ્રકાશનનાં સહારે અધિકારી વર્ગ વાચના-પૃચ્છના વગેરે પંચવિધ સ્વાધ્યાય કરીને સ્વ-પર આત્મહિત સાધો એવી શુભેચ્છા સહ. લિ, શ્રી. દાદર આરાધના ભવન જૈન પૌષધશાળા ટ્રસ્ટ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन. जिनागमप्रकाशननी योजनामा भगवतीसूत्रना प्रथमना बे खंडो प्रकाशित थई गया छे, अने त्यार पठी लगभग चार वर्षे आ तृतीय खंड प्रकाशित थाय छे. प्रथमना वे खंडो मूळ अने टीकाना अनुवाद साथे पं० बेचरदास जीवराज दोशी पासे संशोधन करावी श्रीयुत पुंजाभाई हीराचंद द्वारा संस्थापित जिनागमप्रकाशक सभाना मानद कार्यवाहक महेता मनसुखलाल रवजीभाईए प्रकाशित कर्या हता, परन्तु त्यार पछी पंडित बेचरदास गूजरात पुरातत्त्वमंदिरमा नियोजित थवाथी अने महेता मनसुखलाल रवजीभाई सद्गत थवाथी आ कार्य बन्ध पड्युं. त्यार पछी केटला एक समय गया बाद श्रीयुत पुंजाभाई हीराचंदे गूजरात पुरातत्त्वमंदिरंना आचार्य श्रीजिनविज-यजी द्वारा आ काम मने सोंप्यु. उपरना बन्ने खंडोमां मूळ अने टीका अनुवाद सहित होवाथी अधिक विस्तार अने टाईपोनी विविधता होवाथी आगळ छपावानी मुश्केली हती, तेमज टीका अने टीकाना अनुवादनी पण बहु उपयोगिता जणाती नहोती, तेथी आ त्रीजा खंडमां मात्र मूळ अने तेनो अनुवाद सातमा शतकथी आरंमी पंदरमां शतक सुधी आपवामां आवेल छे. मूळ सूत्रमा ज्या ज्या बीजा सूत्रोना पाठोनी भलामण करेली छे त्यां ते ते स्थळे ते ते सूत्रोना स्थळोनी पाना-पंक्तीवार सूचना करवामां आवी छे. एक सविस्तर विषयानुक्रम आपवामां आव्यो छे, अने मूळना अनुवादने स्पष्ट करवा माटे स्थळे स्थळे टिप्पनो पण आपवामां आव्यां छे. आ ग्रन्थना संशोधनमा नीचेनी प्रतोनो उपयोग करवामां आव्यो छे. क. भगवतीसूत्र मूळ ( डहेलाना उपाश्रयनो भंडार) जुनी अने प्रायः शुद्ध. ख. भगवतीसूत्र सटीक (डहेलाना उपाश्रयनो भंडार) अशुद्ध. ग. भगवतीसूत्र सटीक (शांतिसागरनो उपाश्रय) नवी अने प्रायः शुद्ध. घ. भगवतीसूत्र सटीक (आगमोदयसमिति मुद्रित ). ङ. भगवतीसूत्र सटीक (बाबुधनपतसिंगजी प्रकाशित). ते सिवाय मुनिमहाराज श्रीहंसविजयजीना ज्ञानभंडारमाथी भगवती मूळनी ताडपत्रनी अपूर्ण प्रत शतक १३ थी मळी छे. उपरनी प्रतोने अनुसरीने दशमा शतक सुची आवश्यक पाठान्तरो लेवामां आव्या छे, पण पाछळयी आचार्य श्रीजिनविजयजीनी सूचना प्रमाणे पाठान्तर न लेता मूळ पाठने संशोधित करवामां ते प्रतिओनो उपयोग करेलो छे.. अनुवाद मूळ पाठने अनुसरीनेज करवामां आव्यो छे, अने तेने स्पष्ट करवा माटे वधाराना शब्दो [ ] कोष्ठकमा आपेला छे. मूळ पाठमां सूत्रनो विभाग नथी, पण अहिं प्रश्न अने उत्तरनी एक सूत्रमा गणना करी सूत्र विभाग करवामां आव्यो छे. अवान्तर प्रश्नने जूदा सूत्र तरीके न गणतां तेज सूत्रमा तेनी गणना करी लीधी छे. ते सिवाय ज्या प्रश्न नथी, परन्तु चरित्र के वर्णनात्मक भाग छे त्यां पण सरलताथी समजवा खातर सूत्रनो विभाग कर्यो छे. प्रत्येक उद्देशकमा सूचना अंको तेने प्रारंभे मूकवामां आव्या छे अने तेनो अनुवाद पण तेनी नीचे ते सूत्रनो अंक मूकी आपवामां आवेल छे.. विषयविभागनी स्पष्टता खातर दरेक पानानी पाळ उपर (मार्जिनमां) विषय अथवा प्रश्न सूचित करेल छे. आ पुस्तक पूर्ण थया पछी छेवटे तेनी प्रस्तावना तथा शब्दकोश आपवा धारणा छे. चोथा खंडमां आ प्रन्थ समाप्त थशे. आ पुस्तकना संशोधनमा जे जे महाशयोए हस्तलिखित प्रतो आपी सक्रिय सहाय करी छे ते माटे तेओनो कृतज्ञतापूर्वक आभार मार्नु छु. . छेवटे आ ग्रन्थना संशोधनमा के तेना अनुवादमा अज्ञान अने प्रमादयी अशुद्धि के दोषो रह्या होय ते माटे क्षमा यांची सुद्ध वाचकने सूचित करवा प्रार्थना करी विरमुं छं. श्रीजनविद्यार्थिमंदिर कोचरबरोड-अमदावाद मागशर सुदि पूर्णिमा. भगवानदास दोशी. Jain Education international Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७ उद्देशक १. पृ० १६. परभवन तो क्यारे बाहारक बने पधारे अहारको स्थान. श्रमणोपासक ऐमपी के राम क मतातिचारकर्मरहित जीवनी गति बीच दुःसी व्याप्त होय. उपयोगरहित अनगारने ऐवपचिकी के धांद्याविकी किनार पानभोजन. – निर्दोष पानभोजन. -- क्षेत्रातिक्रान्तादि पानभोजन. - शास्त्रातीतादि पानभोजन. शतक ७ उद्देशक २. पू० ७-११. हिंसानुं प्रत्याख्यान करनारने कदाच सुप्रत्याख्यान भने कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय. - शा हेतुथी दुष्प्रत्याख्यान थाय ? - शा हेतुथी सुप्रत्याख्यान' चाय ? --- प्रसाख्यानमूलगुणानना प्रकार सर्वगुणप्रायाना प्रकार देशमूलगुणप्रसास्वानना] प्रकार उत्तरप्रकार सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानना प्रकार. - देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानना प्रकार. - शुं जीवो मूलगुणप्रत्याख्यानी छे वगेरे प्रश्न. - शुं नारको मूलगुणप्रत्याख्यानी छे वगैरे. -- मूलगुणप्रत्याख्यानी वगेरेनुं अल्पबहुत्व. पंचेन्द्रिय तियंचोनुं अल्पबहुत्व. – मनुष्यनुं अल्पबहुल. – जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे ? वगेरे प्रचारक अपंचेन्द्रिय तिर्वच सर्वखापयानी वापसी करेनुं छतरानी करे सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी वगेरेतुं वसंत असंयत अने संयतासंयतो झुं प्राख्यानी छे वगेरे. प्रारूपानी कोरेनुं अल्पबहुल जीवो शाश्वत के अशाश्वत ! नारको शाश्वत के अशाश्वत ? विषयानुक्रम. जीवोना प्रकार. संग्रह गाथा.. शतक ७ उद्देशक ३. पृ० १२-१५. वनस्पतिकाय क्यारे अल्पाहारी अने क्यारे महाहारी होय !- श्रीष्ममां अल्पाहारी छतों पुष्पिक्ष भने फलित केम होय मूल, कन्द अने पी पोरापोताना जीववी व्याप्त छे ! पति श्री रीते आहार करे अनन्तजीव वनस्पति की रीते भाहार करे ! वाचा नारक अपर्या अने नीलेश्यामाको नारक महाकर्मा होय ! श्यामाका अने कापोतदवाया अपकर्मवाळ दोन ! वेदना से निर्जरानी नारकोने वेदना ते निर्जरा नथी. जे वेयुं ते निर्जर्यु नथी. - जेने वेदे छे तेने निर्जरतो नथी. जेने वेदशे तेने निर्जरशे नहि. — जे वेदनानो समय छै ते निर्जरानो समय नथी. नारकोने वेदना अने निर्जरानो समय भिन्न छे.नारको शाश्वत भने अशाश्वत छे. - शतक ७ उद्देशक ४. पृ० १५. योनि --- -- शतक ७ उद्देशक ५. पृ० १७. शतक ७ उद्देशक ६. पृ० १८-२२. - नारकाषनो यन्य. गारकाषतुं वेदनारकोमा महावेदन वेद वेदन. - आयुषनो बन्ध. – कर्कशवेदनीय कर्म. - कर्कश वेदनीय कर्मना हेतुओ. धर्मना हेतु नारकोने वेदनीय का? खातावेदनीय कर्म कर्मना हेतुओ. - जंबूद्वीपना भारतवर्षमां आ अवसर्पिणीमां दुःषमादुःषमा कालने दिशासी अधिक धीत अने ताप भरसविरसादि मेमो दिन रहेछा मनुष्य, पशु पक्षिओनो नाश बनस्पतिओनो नाश पर्वत दिनो नाश. - भूमिनुं खरूप. मनुष्यनो आकारभावप्रत्यवतार. मनुष्योनो आहार. ते मनुष्यो मरीने क्यां जशे ! ते सिंहादि मरीने क्यां जशे ? --- कागडा यगेरे मरीने क्यां जशे १ अरकुमार महावेदना वेदन. पृथिवीकामि विविध वेदमानुं नारकोने कर्कशवेदनीय कर्म. - अकर्कश वेदनीय कर्म. अकर्कशवेदनीय छातावेदनीय कर्मना हेतुओ. असातावेदनीय कर्म. असातावेदनीय विषे आकार भाव प्रत्यवतार. – हाहाभूतकाल - भयंकर बात. मलिन -- - शतक ७ उद्देशक ७. पृ. २३-२६. संवृत अनगारने क्रिया. — ऐर्यापथिकी क्रिया लागवानुं कारण. - काम रूपी के अरूपी ? - सचित्त के होके जोहो ! भोगी रूपी के सरूपी भोगो के त!-भोगो जीव के अजीव मोमोन प्रकारकामयोगशा प्रकार जो काम के भोगी [नारको कामी के भोगी होय !-पृथिवीकाय नेन्द्रिय तेन्द्रियरेन्द्रक - अचित्त ? जीव के अजीब ? - जीवोने काम भोग जीवने होय के हो - / Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवो कामी के भोगी होय!.-अल्पबहुख.-छमस्थ मनुष्य.-अधोवधिज्ञानी.-परमावधिज्ञानी.-केवलज्ञानी.-असंझी जीवो अकामपूर्वक वेदना वैदे?-समर्थ छतो अकाम वेदना वेदे !-समर्थ छतां पण अकामपूर्वक वेदना कम वेदे?-समर्थ तीवेच्छापूर्वक वेदना वेदे-समर्थ तीवेच्छापूर्वक पेदनाने केम वेदे? शतक ७ उद्देशक ८. पृ. २७-२८. छवस्थ मनुष्य केवल संयम बडे सिद्ध थयो ?-हस्ति अने कुंथुनो जीव समान छे?-पापकर्म दुःखरूप छे-दशसंज्ञाभो.-जारकोने दश प्रकारनी वेदना.-हाथी अने कुंथुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया.-आधाकर्म आहार करनार साधु बांधे ? शतक ७ उद्देशक ९. पृ. २९-३५. असंयत साधु पहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय एकवर्णवाळु एक रूप विकुर्ववा समर्थ छे?-महाशिलाकंटक संपाम.-महाशिलाकंटक शाथी कहेवाय छे!-महाशिलाकंटकर्मा केटला लाख माणसोनो संहार थयो?-मरीने तेओ क्या उत्पन्न थयां :--रधमुशल संग्राम.-कोनो जय अने कोनो पराजय !-यमुशल संग्राम शाथी कहेवाय छे! -मनुष्योनो संहार.-तेओ मरीने क्या उत्पन्न थया-शुं युद्धमा हणाएला खर्गे जाय! ते वात मिथ्या छ.-नागनो पौत्र वरुण, तेनी रपमुशल संग्रामा जवानी तैयारी.-वरुणनो अभिप्रह. युद्धमा वरुणने सख्त प्रहार.-वरुणर्नु युद्धमाथी पाछा फरवं.-तेनुं सर्वप्राणातिपातादिविरमण.-गंधोदक तथा पुष्पवृष्टि-वरुण मरीने क्या गयो !-वरुण देवलोकथी व्यवी मोक्षे जशे. वरुणनो मित्र मरीने क्यां गयो?-वरुणनो मित्र त्यांची क्या जशे ? शतक ७ उद्देशक १०. पृ० ३६-४०. अन्यतीर्थिको.-पंचास्तिकाय विषे संदेह.-गौतमने प्रश्न -गौतमनो उत्तर.-कालोदायीनुं आगमन.-कालोदायिना प्रश्नो.-पुद्गलास्तिकायने विषे कर्म लागे?-पापकर्म अशुभविपाकसहित होय !-पापकों अशुभविपाकसंयुक्त केम होय !-कल्याण फर्मों फल्याणफलयुक्त होय.-कल्याण कर्मों कल्याण विपाकफलसहित केम होय!-अमिकायनो समारंभ करनार बे पुरुषमां कोण महाकर्मवाळो होय!-अचित्त पुद्गलो प्रकाश करे?-कया पुद्गलो प्रकाश करे! शतक ८ उद्देशक १. पृ० ४१-५५. पुद्गलनो परिणाम.-प्रयोगपरिणत पुद्गलो.-प्रथमदंडक-एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो.-यावत् पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुदूगलो.-नैरयिकप्रयोगपरिणत. तिर्यचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. जलचरादिप्रयोगपरिणत. मनुष्यप्रयोगपरिणत. देवप्रयोगपरिणत.-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषिक अने वैमानिकप्रयोगपरिणत.-द्वितीयदंडक-सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिप्रयोगपरिणत.-बेइन्द्रियादिप्रयोगपरिणत.-नप्रभादिनैरयिकप्रयोगपरिणत.-समछिमजलचराविप्रयोगपरिणत.- समूच्छिममनुष्यादिप्रयोगपरिणत.-असुरकुमारादिप्रयोगपरिणत.-सर्वार्थसिद्धदेवप्रयोगपरिणत.-तृतीयदंडक सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिप्रयोगपरिणत.-सप्रभादिनैरयिकप्रयोगपरिणत. जलचरादि तियचप्रयोगपरिणत.-मनुष्यप्रयोगपरिणत.-असुरकुमारादिदेवप्रयोगपरिणत.-चतुर्ष दंडक.-पंचम दंडक.--षष्ठ दंडक.-सप्तम दंडक.-अष्टम दंडक.-नवम दंडक.-मिश्रपरिणत पुद्गलो.--मिश्रपरिणत पुद्गलोने विषे नव दंडक.विनसापरिणत पुद्गलो.-एकद्रव्यपरिणाम-मनःप्रयोगादिपरिणत.-आरंभसत्यमनःप्रयोगादिपरिणत.-आरंभमृषामनःप्रयोगादिपरिणत.-सत्यवाक्प्रयोगादिपरिणत.-औदारिकादिकायप्रयोगपरिणत. औदारिककायप्रयोगपरिणत.-औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत. क्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत. वैक्रियमित्रकायप्रयोगपरिणत.-आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत.--आहारकमिश्रकायप्रयोगपरिणत. कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत.-मिश्रपरिणत.-सत्यम- नोमिश्रपरिणत.--विलसापरिणत-वर्ण, गन्ध, रस अने स्पर्शपरिणत.-संस्थानपरिणत.-बे द्रव्योनो परिणाम-मनःप्रयोगादिपरिणत.-मिश्रपरिणत वे द्रव्यो.विनसापरिणत बे द्रव्यो.-श्रण द्रव्योनो परिणाम-मनःप्रयोगादिपरिणत त्रण द्रव्यो.-चार द्रव्योनो परिणाम-मनःप्रयोगादिपरिणत चार म्यो.-पांच, छ, यावत् अनन्त द्रव्योनो परिणाम.-अल्पबहुत्व. - शतक ८ उद्देशक २. पृ. ५६-७६. भाशीविष.--जातिआशीविष.-पश्चिकआशीविषना विषनो विषय.-महकआशीविषना विषनो विषय.--उरगना विषनो विषय.-मनुष्यजातिभाशी. विषना विषनो विषय.-कर्माशी विष.- गर्भजपंचेन्द्रियतिवेचकर्माशीविष.-गर्भजमनुष्यकर्माशीविष.-भवनवासीकाशीविष.-अपर्याप्तदेवकर्माशीविष.वानव्यन्तर, वैमानिक, कल्पोपन्नक, यावत् सहवारदेवलोकपर्यन्तकाशीविष.----अपर्याप्तसौधर्मादिदेवो कर्माशीविष.--छद्मस्थ दश स्थानकोने न जाणे.ज्ञानना प्रकार.--आमिनिबोधिकज्ञानना प्रकार.-मतिअज्ञान.-अवग्रह.-श्रुतअज्ञान.-विभंगज्ञान.-ज्ञानी भने अज्ञानी.-नैरयिको, असुरकुमारो, पृथिविकायिक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यचो अने मनुष्यो ज्ञानी के अज्ञानी !-चानव्यन्तर, ज्योतिषिको भने वैमानिको ज्ञानी के अज्ञानी? -सिद्धो ज्ञानी के अज्ञानी !-निरयगतिक, तिथंचगतिक, मनुष्यगतिक, सिद्धगतिक, सेन्द्रिय, एकेन्द्रियादि, अनिन्द्रिय, सकायिक, पृथिवीकायि. कादि, सकायिक, कायरहित, सूक्ष्म जीवो, बादर जीवो, पर्याप्त जीवो, पर्याप्त नैरयिकादि, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, पर्याप्त मनुष्यो, अपर्याप्त जीवो, अपर्याप्तनैरयिकादि, अपर्याप्त पृथिवीकायिकादि, अपर्याप्त बेइन्द्रियादि, अपर्याप्त मनुष्य, अपर्याप्त वानव्यन्तर, ज्योतिषिक, वैमानिक, नोपर्याप्तनोअपर्याप्त जीवो, निरयभवस्थ, तिर्यग्भवस्थ, मनुष्यभवस्थ, देवभवस्थ, अभवस्थ, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक, संझी जीपो, असंही जीवो भने नोसंज्ञीनोअसंशी जीवो ज्ञानी के अज्ञानी होय!-लन्धिना प्रकार.-मानलन्धि, अज्ञानलब्धि.-दर्शनलब्धि.-चारित्रलब्धि.-चारित्राचारित्रलब्धि.-- वीर्यलब्धि.-इन्द्रियलब्धि.-ज्ञानलब्धिवाळा ज्ञानी के भज्ञानी होय?-ज्ञानलब्धिरहित. आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि.---आमिनिबोधिकलधिरहित.अवधिज्ञानलब्धिक जीवो.-अवधिज्ञानलब्धिरहित.-मनःपर्यवज्ञानलन्धिक.-मनःपर्यवज्ञानलन्धिरहित.-केवलज्ञानलब्धिक.-केवलज्ञानलब्धिरहित.भक्षानलब्धिक.-अज्ञानलन्धिरहित.-मत्यज्ञान अने श्रुताज्ञानलब्धिरहित.-विभंगज्ञानलब्धिक भने विभंगशानलब्धिरहित.-दर्शनलब्धिक.-दर्शनलधिरहित.-मिथ्यादर्शनलन्धिक.-मिश्रदृष्टिलब्धिक.-चारित्रलब्धिक-सामायिकादिचारित्रलब्धिक अने अलन्धिक.-चारित्राचारित्रलब्धिक भने अल . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ auranजीवो.-सयोगी जवाननो विषय--श्रुतनी ज्ञानीपणे क्या सुधी ब्धिक-दानादिलब्धिक अने अलन्धिक.-बालवीय, पंडितवीर्य अने बालपंडितवीर्यलन्धिक अने अलन्धिक.-इन्द्रियलन्धिक भने अलब्धिक.-श्रोत्रन्द्रियादिलब्धिक अने अलब्धिक-साकारउपयोगवाळा.-आभिनिवोधिकादिसाकारउपयोगवाळा.-मतिअज्ञानादिसाकारोपयोगवाळा जीयो.-अनाकारोपयोगवाळा जीवो.-सयोगी जीवो.-सळेश्य जीवो.-कृष्णादिलेश्यावाळा.-सकषायी जीवो.-अकषायी जीवो.-वेदसहित अने वेदरहित जीवो.-आहारक जीवो.-अनाहारक.-आभिनियोधिक ज्ञाननो विषय.-श्रुतज्ञाननो विषय.-अवधिज्ञाननो विषय.-मनःपर्यवज्ञानको विषय.-केवलज्ञाननो विषय.मतिअज्ञाननो विषय.-श्रुतअज्ञाननो विषय.---विभंगज्ञाननो विषय.-ज्ञानी ज्ञानीपणे क्या सुधी रहे !-आभिनियोधिकादि दशनो स्थितिकाळ.-आभिनिबोधिक ज्ञानना पर्यायो.-श्रुतज्ञानादिना पर्यायो.-विभंगज्ञानना पर्यायो.-पांच ज्ञानना पर्यायो- अल्पबहुत्व.-मयादि प्रण भज्ञानोना पर्यायो अल्पबहुल: -पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञानना पर्यायोनुं अल्पबहुल. शतक ८ उद्देशक ३. पृ. ७७-७८. वृक्षना प्रकार.-संख्यातजीवी वृक्ष.-असंख्यातजीवी वृक्ष.-एकबीजवाळा.-अनन्तजीवी घृक्ष.-कोइ जीवना बे, प्रण के संख्यात खंड कर्या होय तो तेनी वच्चेनो भाग जीवप्रदेशथी स्पृष्ट होय? -जीवप्रदेशोने शस्त्रादिथी पीडा थाय?-पृथिवीओ. शतक ८ उद्देशक ४. पृ. ७९. पांच क्रियाओ.. शतक ८ उद्देशक ५. पृ० ८०-८३. आजीविकना प्रश्नो-जेणे सामायिक करेलं छे एवा श्रावकना भांड-पात्रादि वस्तु कोई अपहरण करे तो ते भांडने शोधे के अभांडने शोधे ?-अपहृत भांड अभांड थाय तो ते पोताना भांडने शोधे छे एम केम कहेवाय ?-ममलभावनुं प्रत्याख्यान कर्यु नथी माटे एम कहेवाय.-ए प्रमाणे कोई तेनी श्रीने सेवे तो ते स्त्रीने सेवे छे के अस्त्रीने सेवे छे?-प्रत्याख्यानथी स्त्री ते अनी थाय!-जो एम थाय तो तेनी स्त्रीने सेवे छ एम केम कहेवाय?-प्रेमबन्धन अविच्छिन्न छे माटे एम कहेवाय!-श्रावक स्थूल प्राणातिपातर्नु प्रत्याख्यान केवी रीते करे?-अतीतकालसंबन्धी प्राणातिपातना प्रतिक्रमणना भांगा.वर्तमान प्राणातिपातना संवरसंबन्धे भांगा.- अनागत प्राणातिपातना प्रत्याख्यान संबन्धे भांगा.-स्थूल मृषावाद प्रत्याख्यान भने तेना भांगा.-यावत् स्थूल परिग्रहना भांगा.-आजीविकनो सिद्धान्त,-आजीविकना बार श्रमणोपासको.-श्रावकोने वयं पंदर कर्मादानो.-देवलोक. शतक ८ उद्देशक ६. पृ. ८४-८८. संयतने निर्दोष अशनादिथी प्रतिलाभता शुं फल थाय ?-एकान्त निर्जरा थाय.-सदोष अशनादिथी प्रतिलाभता शुंफल थाय?-घणी निर्जरा भने अल्प पापकर्मनो बन्ध थाय.-असंयतने माहारथी प्रतिलाभता शुं फल थाय ?-एकान्त पापकर्म थाय.-निर्गन्थने बे पिंड प्रहण करवा माटे उपनिमन्त्रणश्रण पिंड, यावत् दश पिंडर्नु उपनिमन्त्रण.-बे पात्रनुं उपनिमन्त्रण.-आराधक अने विराधक-(आलोचना जेनी पासे करवानी होय ते) स्थविरो मूक थाय.(आलोचना करनार ) निम्रन्थ मूक थाय.-पछी स्थविरो काळ करे.-निर्ग्रन्थ काळ करे-संप्राप्त निग्रन्थना चार आलापक.-निहारभूमि के विहारभूमि तरफ जता (निर्ग्रन्थ ).-प्रामानुग्राम विहार करता (निम्रन्थ ).-आराधक निर्धन्थी.-आराधक होवाचं कारण.-बळता दीपका शुं बळे छे ! -ज्योति वळे छे.-बळता घरमां शुंबळे छे?-ज्योति बळे छे.-परना एक औदारिक शरीरने आश्रयी जीवने क्रिया.-नारकने किया.-असुरकुमारने क्रिया.एक जीवनी औदारिक शरीरने आश्रयी किया.-नैरयिक जीवोनी एक औदारिक शरीरने आश्रयी क्रिया.-नैरयिकादिने क्रिया.-जीवोने औदारिक शरीरोने भाषयी क्रिया.-नैरयिकोने क्रिया.-जीवने वैक्रियशरीरने माश्रयी क्रिया.-नैरयिकने वैक्रिय शरीरने आश्रयी क्रिया.-मनुष्यने जीव पेठे कियाओ होय.-वैमानिकोने कार्मण शरीरोने आश्रयी क्रियाओ. शतक ८ उद्देशक ७. पृ० ८९-९२. अन्यतीर्थिको अने स्थविरोनो संवाद.-अन्यतीथिकोए स्थविरोने कह्यु के तमे असंयत अने एकान्त बाल छो.-स्थविरो पूछे छे के अमे शाथी असंयत अने बाल छीए? अन्यतीर्थिको त्रिविधे त्रिविधे असंयत होवानुं कारण कहे छे अने स्थविरो तेनो उत्तर आपे छे-इत्यादि. शतक ८ उद्देशक ८. पृ. ९३-१००. गुरुप्रत्यनीक.-गतिप्रत्यनीक.-समूहप्रत्यनीक.-अनुकंपाप्रत्यनीक.-श्रुतप्रत्यनीक.-भावप्रत्यनीक.-व्यवहार.-व्यवहारर्नु फल.-ऐपिथिक भने सांपरायिकबन्ध, ऐयोपथिकबन्धना खामी.-ऐयोपथिक कर्म वेदरहित जीव बांधे.-स्त्रीपश्चात्कृतादि जीव बांधे. ऐपिथिक कर्मसंबन्धे भांगा.-ऐयोपथिक कर्मसंबन्धे सादि सपर्यवसितादि भंग.-'ऐपिथिक कर्म शुं देशथी देशने बांधे इत्यादि प्रश्न.-उत्तर-सर्वथी सर्वने बांधे छे.सांपरायिक कर्मबन्धना खामी.-स्त्री वगेरे बांधे.-त्रीपश्चात्कृतादि बांधे.- सांपरायिक कर्म बांध्यु, बांधे छे अने बांधशे ते सैबन्धे भांगा.-सादिसपर्यवसितादि भांगा.-(सांपरायिक कर्म) देशथी देशने बांधे?-कर्मप्रकृतिओ.-परिषहो.-परिषहोनो कर्मप्रकृतिओमा समवतार.-वेदनीय कर्मा समवतार.-दर्शनमोहनीय कर्ममा समवतार.-चारित्रमोहनीय कर्ममां समवतार, अन्तराय कर्ममा समवतार.-सप्तविधकर्मबन्धकने परिषहो.-अष्टविधकर्मबन्धकने परिषहो.-पड्विधकर्मबन्धकने परिषहो.-एकविधवन्धक वीतराग छमस्थने परिषहो.-एकविधबन्धक सयोगिकेवलीने परिषहो.-फर्मबन्धरहित अयोगिकेवलीने परिषहो.-जंबूद्वीपमा सूर्य दूर छतां पासे केम देखाय छे?-सूर्यो सर्वत्र उंचाइमां सरखा छे?-तेजना प्रतिघातधी दूर छतां पासे देखाय छे.-तेजना अभितापथी पासे छतां दूर देखाय छे.-अतीत क्षेत्र प्रति जाय छे ? इत्यादि प्रश्न.-अतीत क्षेत्रने प्रकाशे छे! इत्यादि प्रश्नवर्तमान क्षेत्रने प्रकाशे छे.-स्पृष्ट क्षेत्रने प्रकाशित करे छे.-अतीत क्षेत्रने उयोतित करे छे ? इत्यादि.-सूर्यनी क्रिया वर्तमान क्षेत्रमा कराय छे.सूर्य स्पृष्ट क्रियाने करे छे.-केटलं क्षेत्र उंचे तपावे छे?-मनुष्योत्तर पर्वतनी अंदरना चन्द्रादि देवो शुं ऊर्ध्व लोकमां उत्पन्न थयेला छे! -मनुष्योत्तर पर्वतनी बहारना चन्द्रादि देवो ऊर्ध्व लोकमां उत्पन्न थयेला छे? इन्द्रस्थान केटला काळंसुधी उपपातविरहित छे ? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८ उद्देशक ९. पृ० १०१-११७ पाउ अन्य सावधअनादि विससायन्यधर्मायिनादि मियादेश अनादि विनयादि परधनवकन्याविक परिणामको आनन्द समुचयबन्धननयम्यदेराननबन्धसंहननवन्ध शरीरवन्धपूर्वप्रयोगप्राविकमन्यदुत्पत्रप्रयोगप्रविबन्ध शरीरप्रयोग ओदारिकशरीरवन्ध एकेदिवशी दारे शरीर प्रयोगवन्धरशरीरप्रयोगयन्थ का कमैना उदयवी पाय एकेन्द्र ओदारिकशरीरप्रयोगवन्थ पंचेन्द्रियौदाकशरीरयोगबन्ध मनुष्यधीदारिशरीरप्रयोगवन्ध, औदारिकवारीरप्रयोगवन्ध देश के सबसे!एकेन्द्रियायोगन्ध मनुष्य श्रीदारिकशरीरप्रयोगयन्य. - भौदारियायोग. एकेन्द्रिय पृथिवीद्यविदारक शरीरयन्ना क्षमारनो काल एकेन्द्रियपृथिवीकाविक एकेन्द्रियद्रिय चिना मोदारिकार अन्तर एकेदारिक शरीरमा प्रयोगवन्ध अन्तरषिकाविनोदारिकशरीरयन्यनुं समार श्रीवारिक शरीरमा सर्वबन्धक, देशयन्धक ने किय शरीरप्रयोगवन्धाखामि केन्द्रिवशरीरप्रयोगवन्ध के तेथी मिश्र एकेन्द्रियवैयिशरीरप्रयोगचन्द पाउदा करीरप्रवन्ध रविक वैश्विशरीरप्रयोगवन्धचियोनि किशरीरप्रयोगन्ध देशवन्ध अने सर्वमन्ध-चैकिगारीरयोगवन्धान काशिराजप्रभावेरविकशिवशरीरप्रयोगकन्यकाळ वेपिपरीरप्रयोगयन्ध अन्तरा पिक चैमिशरीरप्रयोगान्तर विर्ययपंचेन्द्रियवैश्विशरीरप्रयोगयन्धनुं अन्तरयायुकाविक वैकिपशरीरप्रयोग अन्तर. रनप्रमानारक वैकियशरीरप्रयोगवन्धनुं अन्तर. - असुरकुमार, नागकुमार, यावत् सहस्रार देवो. आनतदेववै क्रियशरीर प्रयोगबन्धनुं अन्तर मैवेयककल्पातीत अनुत्तरौ - पातिक सम्पबहुत्व आहारशरीरप्रयोगवन्ध महारशरीरप्रयोगवन् मनुष्य के ते शिवाय वीजाने होय ! आहारशरीरप्रयोग कर्मना उपवधी हो ? देशवन्यसने सर्वपन्यमहारशरीरयोग अन्तरदेश सर्ववन्धक अने अवध अ कपा - -- जसरी प्रयोगबन्ध एकेन्द्रिय मानद पर्याप्त सर्वाधिक सशरीरप्रयोगचन्द कया कर्मगा उदयची थाप ! देश के सर्वबन्ध ! नयी चैनसारीरप्रयोगवन्धन काळ. सशरीरप्रयोगवन्धनुं अन्तर कार्मणशरीरप्रयोगवन्धानावरणीय कार्मणशरीरप्रयोगवन्धकमा कर्मना उदधाय दर्शनावरणीय कामगारी प्रयोगवन्ध सातावेदनीय असातावेदनीय. मोहनीय. नारकाष तियंचयो निकायुष. मनुष्या युष. - देवायुष. शुभनाम. अशुभनाम – उच्चगोत्र. – नीचगोत्र - अन्तराय. - ज्ञानावरणीयनो देशबन्ध के सर्वबन्ध ? - ज्ञानावरणीय कार्मणशरीरप्रयोगवन्धनकानावरणीय कामगार प्रयोगमा देशवन्धक अने अन्य अल्पआयुकना देशबन्ध जीवोनुं अपयशोदारिकशरीरनाम्याचे विशरीरबन्धन संबन्ध – आहारक शरीरबन्धन संचय तेजशरीरको संबन्ध देश बन्धक के सर्वकार्मणशरीरको संवन्यशोदारिक शरीरमा देश साये कि शरीरनो संवन्ध किन शरीरमा सर्वबन्ध साये ओरिक शरीरनो संबन्ध – देशबन्ध साधे औदारिक शरीरबन्धनो संबन्ध – आहारक शरीरना सर्वबन्ध साथै औदारिक शरीरबन्धनो संबन्ध - आहारक शरीरनादेशबम्ध साचे औदारिक शरीरनो संवन्ध शरीरमा देशवन्धक साथै श्रीदारिक शरीरनो संबन्धारिक शारीनो देवन्धक के सर्वयन्धक ? – वैक्रियशरीरनो बन्धक के अबन्धक ? कार्मणशरीरनो बन्धक के अबन्धक ? – देश बन्धक के सर्वबन्धक ? - कार्मण शरीरना देशबन्धक सायेारिक शरीरधारीनादेशयन्धकवधक अने अप शतक ८ उद्देशक १०. पृ० ११८-१२४. ''अन्यतीको मन्नान्यप के पतपण मी इखादि चतुभंगी. देशारामक, देशविराधक, सर्वाराक अने सर्वविराधक. - आराधनाना प्रकार. ज्ञानाराधना. दर्शनाराधना. उत्कृष्ट ज्ञानाराधना भने उत्कृष्ट दर्शनाराधनानो संबन्ध उत्कृष्ट दर्शनाराधना भने उत्कृष्ट चारित्राराधनानो संबन्ध उत्कृष्ट ज्ञानाराधक केटला भव पछी मोक्षे जाय !- उत्कृष्ट दर्शनाराधक क्यारे मोक्षे जाय ? — उत्कृष्ट चारित्राराधक मोक्षे क्यारे जाय ? -- ज्ञाननी मध्यमाराधना आराधक मोक्षे क्यारे जाय ?-- दर्शन भने चारित्रनी मध्यमाराधनानो आराधक मोक्षे क्यारे जाय ? - ज्ञाननी अपराध क्यारेमा दर्शनाने प्राराधना पुलपरिणामना कारवर्णपरिणाम कधपरिणाम रसपरिणाम अने स्पर्शपरिणाम. संस्थानपरिणाम पुगतिकायनो एक प्रदेश, ये प्रदेशो यावद अनन्त प्रदेश इन्य, दन्यदेश के इखाद काश अने एक जीवना प्रदेशको कर्मप्रकृति नैरकिनिने प्रकृतिज्ञानावरणीय कर्मना विभागपरिच्छेदयिक जीवन एक एक प्रदेश पेटला नामरणीय कर्मना परिच्छेदोषी मवेष्टित ? एक एक जीवन एक एक प्रदेश दर्शनावरणीयना केटला विमान परिच्छेदधी वेष्टित छ ? – ज्ञानावरणीय अने दर्शनावरणीयनो संबन्ध ज्ञानावरणीय अने वेदनीयनो संबन्ध ज्ञानावरणीय अने मोहनीय कर्मनो संबन्ध --- ज्ञानावरणीय अने आपको संबन्धए प्रमाने दर्शनावरणीयादिनो वेदनीयादिपाचे संवन्ध-जीप पुद्गली के पुद्गल ! रविको पुद्गली के पुद्गल के पुदुगक्ष - - --- - - ---- -- शतक ९ उद्देशक १ - ३०. पृ० १२५–१२७. जंबूद्वीप - जंबूद्वीपमां चन्द्रोनो प्रकाश. - लवणसमुद्रमां चन्दोनो प्रकाश. - धात किखंड, कालोदसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, अभ्यन्तर पुष्करार्ध अने पुष्करोदसमुद्रम केला चन्द्रो प्रकाशित थाय छे ? -- अव्यावीश अन्तद्वीपो. - शतक ९ उद्देशक ३१. पृ० १२८ - १३७. -- केवल्या दिपासे सांभळ्या शिवाय कोई जीवने धर्मनो बोध थाय के नहि इत्यादि प्रश्न. - बोधि - सम्यग्दर्शननो अनुभव करे के नहि ! - तेनो हेतु. -- ए. प्रमाणे प्रवज्याने स्वीकारे के नहि ? - तेनो हेतु . - ब्रह्मचर्य. - ब्रह्मचर्यावासनो हेतु संयम संयमनो हेतु संवर संवरनो हेतु. - आभिनिबोधिक ज्ञानमिनिषिकशननो हेतु शान व विज्ञान अने मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान धर्मबोध, सम्यक्नो अनुभबमेरेवादि वचन सांभळ्या सिवाय कोई धर्मादिनो अनुभव करे तेनो हेतु केवल्यादिना वचन सांभळ्या सिवाय सम्यक्त्वादिने स्वीकारे. - विभंगज्ञाननी उत्पत्ति-सम्मा -- - - -- : Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बननी प्राप्ति-चारित्रनो खीकार.-अवधिज्ञाननी उत्पत्ति.-लेश्या.-ज्ञान.-मनोयोगी इत्यादि.-संघयण.-संस्थान.-उंचाई.-आयुष.-वेद.पुरुषवेदादि.-कषाय.-संज्वलनक्रोधादि.-अध्यवसायो.-प्रशस्त अध्यवसाय.--नारक, तियेच, देव अने मनुष्यभवोथी मुक्ति-अन्तानुबंध्यादिकषायनो क्षय. अश्रुखा केवली धर्मोपदेश न करे.-प्रवज्या न आपे.-सिद्ध थाय.-ऊर्च, अधो भने तिर्यग्लोकमा होय.-ऊर्ध्वलोकर्मा इस वैताव्यमा होय.अधोलोक प्रामादिमा होय.-तिर्यग्लोकमां पंदर कर्मभूमिमा होय. ते एक समये केटला होय ?केवल्यादि पासेथी धर्म सांभळीने कोई धर्मने पामे अने, कोई धर्मने न पामे इत्यादि.-केवल्यादि पासेथी धर्म श्रवण करीने सम्यग्दर्शनादि युक्त जीवने अवधिज्ञानादिनी प्राप्ति.-लेश्या.-ज्ञान.-योग.-वेद.उपशांतवेद के क्षीणवेद होय?-स्त्रीवेदादि.-सकषायी के अकषायी ?-उपशांत के क्षीणकषायी?-केटला कषाय होय!-अध्यवसायो.-धर्मोपदेश.-प्रवज्या आपे.-तेना शिष्यो पण प्रवज्या आपे.-प्रशिष्यो पण प्रवज्या आपे.-सिद्ध थाय.-शिष्यो पण सिद्ध थाय.-प्रशिष्यो पण सिद्ध थाय.शुं ते ऊर्ध्वलोकमां होय इत्यादि.-एक समयमा संख्या. __ शतक ९ उद्देशक ३२. पृ. १३८-१६१. वाणिज्यग्राम.-गांगेयना प्रश्नो.-नैरयिको सान्तर के निरंतर उत्पन्न थाय छे? असुरकुमार.-पृथ्वीकायिको.-बेइंद्रियो यावत् वैमानिको. नैरयिको अने यावत् स्तनितकुमारर्नु सान्तर भने निरन्तर च्यवन.-पृथ्वीकायिकादिनु सान्तर के निरंतर च्यवन.-बेइन्द्रियादि.-ज्योतिषिक-प्रवेशनक.नैरयिक प्रवेशनक.-एक नरयिक.-बे नैरयिक.-त्रण नैरयिको.-एकसंयोगी सात विकल्पो.-द्विकसंयोगी बेतालीश विकल्पो.-त्रिकसंयोगी पांत्रीश विकल्पो.-चार नैरयिको.-द्विकसंयोगी सठ विकल्पो.-त्रिकसंयोगी विकल्पो.-चतुःसंयोगी पांत्रीश विकल्पो.-पांच नैरयिक.-द्विकसंयोगी ८५ विक पो.-त्रिकसंयोगी २१० विकल्पो.-चतुःसंयोगी १४० विकल्पो.-पंचसंयोगी २१ विकल्पो.-छ नैरयिको.-द्विकसंयोगी १०५ विकल्पो.-त्रिकसंयोगी विकल्पो.--चतुःसंयोग अने पंचसंयोग.-छ संयोगी विकल्पो.-सात नैरयिको.-द्विकसंयोगी विकल्पो.-त्रिकसंयोग, चतुःसंयोग, पंचसंयोग भने छ.. संयोग.--सप्तसंयोगी विकल्पो.-आठ नैरयिको.-द्विकसंयोगी विकल्पो.-यावत् षट्कसंयोगी विकल्पो.-सप्तसंयोगी विकल्पो.-नव नेरयिको.-द्विक संयोगी विकल्पो.-दश नैरयिको.-द्विकसंयोगादि विकल्पो.-संख्यात नैरयिको.-द्विकसंयोगी विकल्पो.-त्रिकसंयोगी विकल्पो.-असंख्यात नैरयिको.द्विकसंयोगादि विकल्पो.-उत्कृष्ट प्रवेशनक.-द्विकसंयोग.-त्रिकसंयोग.-चतुःसंयोग.-पंचसंयोग.-पटकसंयोग.-सप्तसंयोग. नैरयिकप्रवेशनकअल्पवहुल.--तिर्यश्चप्रवेशनक प्रकार.-एक तिर्यचयोनिक.-बेतियंचयोनिक.-यावत् असंख्याता तिर्यचो. उत्कृष्ट तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक.-तियंचयोनिकप्रवेशनकाल्पबहुत्व.-एक मनुष्य.-बे मनुष्यो.-दश मनुष्यो.-संख्याता मनुष्यो.-असंख्याता मनुष्यो.-उत्कृष्ट मनुष्यप्रवेशनक.--मनुष्यप्रवेशनकअल्पबहुत्व.-देव प्रवेशनकना प्रकार.-एक देव.-बे देवो.-उत्कृष्ट देवप्रवेशनक, देवप्रवेशनकनुं अल्पबहुत्व.-सर्व प्रवेशनक- अल्पबहुत्व.-नैरयि. कोनी सान्तर अने निरन्तर उत्पाद अने उद्वर्तना.-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय के अविद्यमान सद् नैरयिको उद्वर्ते छे के असद् !-सद् नैरयिकादिना उत्पाद अने उद्वर्तना संबन्धे प्रश्न.-सद् नैरयिकादिना उत्पाद अने उद्वर्तनानो हेतु.-आप स्वयं जाणो छो के अस्वयं जाणो छो?-नैरयिको खयं उपजे छे के अवयं उपजे छ ?-असुरकुमारो.-पृथिवीकायिको.-गांगेय भगवान् महावीरने सर्वज्ञ माने छे, अने दीक्षा ग्रहण करी निर्वाण पामे छे. शतक ९ उद्देशक ३३. पृ० १६२-१८४. ब्राह्मणकुंडग्राम.-ऋषभदत्त.-देवानंदा.-महावीरखामी समोसर्या.–बहुशालक चैत्य.-देवानंदाना स्तनमाथी दूधनी धार केम छूटी ?-पुत्रना स्नेहथी दूधनी धार छूटी.-ऋषभदत्ते प्रवज्या लीधी.-देवानंदानी प्रव्रज्या. क्षत्रियकुंडग्राम.--जमालिनुं वर्णन.-ब्राह्मणकुंडग्राम.-बहुशाल चैत्य.जमालि भगवंत महावीरनो उपदेश सांभळी दीक्षा ग्रहण करवा इच्छे छे.-मातापिताने पोतानी इच्छानुं निवेदन.-जमालिनी मातानो शोक.-मातापिता अने जमालीनो संवाद.-मातापिता.-जीवित चपल छे, मनुष्य सबंधी काम भोगो अशुचि अने अशाश्वत छे इत्यादि जमालिनु कथन.-हिरण्यादिनो उपभोग कर इत्यादि मातापितानुं कथन.-हिरण्यादि अनित्य अने अशाश्वत छे एवं जमालिनु कथन.-निम्रन्थ प्रवचन सत्य छ पण दुष्कर छे एवं मातापितार्नु कथन.-कायरने दुष्कर छे, पण धीर पुरुषने दुष्कर नथी एवं जमालिनु कथन.-दीक्षानी अनुमति.-जमालिनी दीक्षा.-श्रावस्ती नगरी.कोष्ठक चैत्य-चंपानगरी.-पूर्णभद्र चैत्य-निर्ग्रन्ध प्रवचन उपर जमालिनी अश्रद्धा.-क्रियमाण अकृत छे एवो जमालिनो मिथ्यावाद.-भगवान् गौतमना जमालिने प्रश्नो.--लोक शाश्वत छे के अशाश्वत-जीव शाश्वत छे के अशाश्वत?-उत्तर आपवानुं जमालिनु असामर्थ्य.-भगवान् महावीरना उत्तरो.-लोक शाश्वत छे.-लोक अशाश्वत छ.-जीव शाश्वत छे.--जीव अशाश्वत छे.-किल्विषिक देवनी स्थिति.-किल्बिपिक देवोनो निवास.-कया कर्मथी किल्बिषिकदेवपणे उपजे?-किल्बिषिक देवो मरीने क्या उपजे ? शतक ९ उद्देशक ३४. पृ. १८५-१८७. पुरुषने हणतो पुरुषने हणे के नोपुरूपने हणे?-पुरुष अने नोपुरुषनो घात करे.-अश्वने हणतो अश्वने हणे के नोअश्वोने हणे?-अमुक प्रसने हणतो तेने हणे के बीजा त्रसोने पण हणे?-ऋषिने हणतो ऋषिनेज हणे के बीजाने हणे?-पुरुषने हणनार पुरुपना वैरथी बन्धाय के नोपुरुषना वैरथी पण बन्धाय?-ऋषिना वैरथी के नोऋषिना वैरधी बन्धाय?-पृथिवीकायिक पृथिवीकायिकने श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करे अने मूके-अप्कायिक पृथिवीकायिकने ग्रहण करे?-अप्कायिक अप्कायिकने ग्रहण करे अने मुके ?-तेजःकायिक पृथिवीकायादिकने ग्रहण करे अने मूके?-पृथिवीकायिकादिकने कियाओ.--वायुकायिकने क्रिया. शतक १० उद्देशक १. पृ० १८८-१९०. पूर्वोदि दिशाओ.-दिशाओना प्रकार,-दिशाओना दश नाम.-ऐन्द्री दिशा जीवरूप छे-इत्यादि प्रश्न.-आयी दिशा.-याम्या दिशा.-शरीरना प्रकार.-औदारिक शरीरना प्रकार. शतक १० उद्देशक २. पृ. १९१-१९२. कषायभावमा रहेला साधुने ऐर्यापथिकी क्रिया के सांपरायिकी किया लागे?-अकपायभावमा वर्तता साधुने ऐयोपथिकी के सांपरायिकी क्रिया - ऐयोपथिकी अथवा सांपरायिकी क्रियानो हेतु ? -योनि.-वेदनाना प्रकार. नैरयिकोने वेदना.-भिक्षुप्रतिमा.-आराधना. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १० उद्देशक ३. पृ० १९३-१९५. राजगृह नगर. - देव आत्मशक्तिथी चार पांच देवावासोने उल्लंघे १–अल्पर्धिक देव महद्धिक देवनी वधे थईने जाय!-समर्द्धिक देव समर्द्धिक देवनी बच्चोवञ्च थईने जाय!-मोह पमाडीने जई शके के ते सिवाय जाय !-मोह पमाडीने जाय के जईने मोह पमाडे-महद्धिक देव अल्पर्द्धिक देवनी वये यईने जाय !-महर्द्धिक देव अस्पर्द्धिकने मोह पमाडीने जाय के ते सिवाय जाय ?-महर्द्धिक देव मोह पमाडीने जाय के जईने मोह पमाडे?-असुरकुमार देवसंबन्धे पूर्वोक्त प्रश्नो.-अल्पर्द्धिक देव महर्द्धिक देवीनी वच्चे ? थईने जाय?-समर्द्धिक देव समद्धिक देवीनी वचे थईने जाय-अल्पर्दिक देवी महदिक देवनी वच्चे थईने जाय?-महर्द्धिक वैमानिक देवी अल्पर्धिक वैमानिक देवनी बचे थईने जाय ?-अल्पर्धिक देवी महद्धिक देवीनी वधे थईने जाय ! -एम समर्दिक देवीनो समर्दिक देवीनी साथे आलापक.-महद्धिक वैमानिक देवीनो अल्पद्धिक देवीनी साथे आलापक.-महर्द्धिक देवी मोह पमाडीने जाय के ते सिवाय जाय?-दोडता घोडाने 'खु खु' शब्द केम थाय छे ?-भाषाना बार प्रकार. __ शतक १० उद्देशक ४. पृ० १९६-१९८. - वाणिज्यप्राम. दूतिपलाश चैत्य.-श्यामहस्ती अनगार-चमरेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छ ?-प्रायस्त्रिंशक देवोनो संबन्ध.-बलीन्दने त्रायस्त्रिंशक देवो.-तेनो हेतु:-घरणेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो.-शकेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो.-ईशानेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो.-सनत्कुमारने त्रायस्त्रिंशक देवो. शतक १० उद्देशक ५. पृ.१९९-२०४. राजगृह नगर.-गुणशील चैत्य.-चमरेन्द्रने अग्रमहिषीओ.-अग्रमहिषीओनो परिवार.-चमरेन्द्र पोतानी सभामा देवीओ साथे भोगो भोगववा समर्थ छे! हेतु.-चरेन्द्रना सोमलोकपालने पट्टराज्ञीओ.-सोमलोकपाल पोतानी सभामां देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थं छे ?-यमने अप्रमहिषीओ.बलीन्दने अग्रमहिषीओ. बलीन्द्रना लोकपाल सोमने अग्रमहिषीओ.-धरणेन्द्रने अनमहिषीओ-धरणना लोकपाल कालवालने अग्रमहिषीओ.-भूतानेन्द्रने छाग्रमहिषीओ.--भूतानेन्द्रना लोकपालने अप्रमहिषीओ.-कालेन्द्रने अप्रमहिषीओ.-सुरूपेन्द्रने अग्रमहिषीओ.-पूर्णभद्रने अपमहिषीओ.-राक्षसना इन्द्र भीमने अप्रमहिपीओ.--ए प्रमाणे किन्नरेन्द्र, सत्पुरुषेन्द्र, अतिकायेन्द्र अने गीतरतीन्द्रने अप्रमहिधीओ.-चन्द्र, अंगारप्रह अने शमने अप्रमहिधीमो. शक सुमो सभामां देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थ छे ?--शकना लोकपाल सोम, देशानेन्द्र अने ईशानना लोकपाल सोमने अप्रमहिषीओ. शतक १० उद्देशक ६. पृ. २०५. शकनी सुधर्मा सभा क्या है।-शक केवी ऋद्धि अने केवा सुखवाळो छ ? शतक १० उद्देशक ७-३४. पृ० २०६. 'अव्यावीश अन्तद्वीपो. शतक १. पृ. २०७-२१३. उत्पल एकजीवी छे के अनेकजीवी छे?-जीवो उत्पलमा क्याथी आवीने उपजे छे?-एक समयमा केटला उपजे?-प्रतिरामग काढवामां बाने तो रयारे खाली थाय ?-शरीरनी अवगाहना,-ज्ञानावरणीयादि कर्मना वृन्धक.-आयुष कर्मना बन्धक.-शानवरणीगादि कर्मना वेदक.-ज्ञानावरणादि कर्गना उदयवादा.- उदीरक के अनुदीरक?-कृष्णादिलेश्यावाळा.-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि के मिथ्रदृष्टि?-ज्ञानी के अज्ञानी ?-मनोयोगी, वचनयोगी के काययोगी?-साकारउपयोगी के अनाकारउपयोगी-शरीरना वर्णादि.-उच्छ्वासक निःश्वासक के अनुच्छ्रासकनिःश्वासक? आहारक के अनाहारक! सर्व विरति, अविरति के देशविरति!-सक्रिय के अक्रिय :-सप्तविधवन्धक के अष्टविधबन्धक-आहारादि संज्ञाओ.-कषाय.-वेद.घेदना बन्धक.-संज्ञी के असंही-सेन्द्रिय के अनिन्द्रिय !-उत्पलनो जीव उत्पलपणे क्यासुधी रहे !-उत्पलनो जीव पृथिवीमा आवी उत्पलमा आवे त्यारे केटलो काल गमनागमन करे-उत्पलनो जीव बनस्पतिमा जईने पुनः उत्पलमा आवे त्यारे केटलो काळ गमनागमन करे-उत्पलनो जीव बेइन्दियमा जईने उत्पलपणे उपजे त्यारे केटलो काळ जाय !-पञ्चेन्द्रिय तिर्यच थईने उत्पलमा आवे त्यारे केटलो काळ जाय!-आहार.-आयुष.-समुद्घात-च्यवन.-सर्व जीवोनुं उत्पलपणे उपजq. शतक ११ उद्देशक २. पृ० २१४. शालूक. शतक ११ उद्देशक ३. पृ० २१५. पलाश. शतक ११ उद्देशक ४. पृ. २१६. कुंभिक. शतक ११ उद्देशक ५. पृ० २१७. नाडीक. शतक ११ उद्देशक ६. पृ. २१८. . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ शतक ११ उद्देशक ७, पृ० २१९. शतक ११ उद्देशक ८. पृ० २२०. शतक ११ उद्देशक ९. पृ० २२१-२२७. हस्तिनापुर. – शिवराजा. – शिवभद्रपुत्र. - शिवराजानो संकल्प - शिवभद्रनो राज्याभिषेक. – शिवराजनी प्रव्रज्या - शिवराजर्षिनो अभिप्रह . शिवराजर्षिने विभंगज्ञान. – शिवराजधिंनो 'सात द्वीप भने सात समुद्र छे' एवो अध्यवसाय. - शिवराजर्षिसंमत सात द्वीप अने सात समुद्रसंबन्धे प्रश्न.यदिरहित बने वर्णदिसहित] इज्यो समुद्रमां इस्यो पातकिडयां दन्यो. शिवराजतुं कथन यथावी. असंख्यात द्वीपसमुद्रो छे' बुं महावीरखामीतुं कथन – शिवराज शंकित शिवराजर्थितो महावीर खामी पाछे आश्वानो शिवराजपितुं महावीरस्वामी पाने आगमन राज कर्णिका... नलिन. शतक ११ उद्देशक १० पृ० २२८-२३३. - - - लोकना प्रकार. — क्षेत्रलोकना प्रकार. — अधोलोकक्षेत्रलोकना प्रकार. – तिर्यक्क्षेत्रलोक. ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोकना प्रकार. – अधोलोकनुं संस्थान. - तिर्यग्लोकनुं संस्थान. – ऊर्ध्वलोकनुं संस्थान - लोकनुं संस्थान. - अलोकनुं संस्थान --- शुं अधोलोक : जीवरूप छे- इत्यादि प्रश्न. शुं तिर्यग्लोक जीवरूप छेइत्यादि प्रश्न. – शुं अलोकाकाश जीवरूप छे- इत्यादि प्रश्न. -शुं अधोलोकना एक आकाशप्रदेशमां जीवो छे- इत्यादि. - तिर्यग्लोकना एक आकाशप्रदेशम झुंगीयो इयादिना एक आकाश प्रदेशमां जीवो होय ? अोकना एक आकाश प्रदेशमा जीयो होय ! इन्यादिनी अपेक्षाए अधोकोका दिनो विचार. - लोकनो विस्तार. - अलोकनो विस्तार - लोकना एक आकाशप्रदेशमां जीवना प्रदेशो परस्पर संबद्ध छे अने एक बीजाने पीडा उत्पन्न करे ?एक आकाशप्रदेशमां जघन्य अने उत्कृष्ट पदे रहेला जीवप्रदेशो तथा सर्वजीवोनुं अल्पबहुत्व. शतक ११ उद्देशक ११. पृ० २३४ - २४७. --- वाणिज्यग्राम - दूतिपलाशक चैत्य. - काळना प्रकार. – प्रमाणकाळ. - हस्तिनागपुर. – बलराजा. -- प्रभावती राणी. बासगृह. - शय्या. - महास्वकोई प्रभावती नाग सहनुं वर्णन सिंहने मां जोईने जांगी. राजानुं शयनगृहतरफ आसमनुं फल प्रभावती देवी समन 'फलने स्वीकारे छे. व्यायामशाळा अने स्नानगृह प्रवेश. - खप्नपाठकोने बोलाववानी आज्ञा. —खप्रपाठकोने खमना फलनो प्रश्न. - गर्भनुं रक्षण. पुत्रजन्म. - वधामणीपुत्रजन्ममहोत्सव पुत्रनुं नाम पाठ पांच भाव पडेनुं पाउन मद्दास कुमारने भणमा गोलको मद्दाबनुं पायि प्रीतिदान, - धर्मघोष अनगारनुं आगमन. - महाबलनुं वंदन करवा माटे जनुं दीक्षानी रजा मागवी. महाबलकुमारने राज्याभिषेक अने दीक्षा. - ब्रह्म देवलोकमा उप अने लांबीच्या सुदर्शन उपदर्शन ने विस्मरण सुदर्शन प्रवज्या आलमकानगरी स्थिति देवोनी स्थिति - फांसने बोला ना धावतीनगरी प्रमुख अमणोपासको शंसनी उपला श्री. पुष्कवि अमनोरानो संकल्प अशनादिनो आहार करता पाक्षिक वो मने करनी भोजन माटेोपासक बोयया योग्य आदानो 'लेता पोषधनुं पालन करवुं मने योग्य नथी. शंखनो महावीरखामिने वंदन करवानो संकल्प — शंख भगवंतने वंदन करवा जाय छे. बीजा श्रममोपासको पण चांदवा जाय छे.- शंखनी निन्दा न करो. - जागरिकाना प्रकार. - क्रोधथी व्याकुल थयेलो जीव शुं बांधे ?-मानी जीव शुं बांधे ? - शंख प्रव्रज्या प्रहण करवा समर्थ छे ? आस्वाद - - शतक ११ उद्देशक १२. पृ० २४८. पनवेल ऋषभप्रमुख मनोराको धमनोरांसकोनो वाठोडा — देवलोकमां देवोनी स्थिति स्थित मिपुत्र अरिपने समर्थ के ? ऋषिमद्र पुत्र देवलोकी व्ययी क्यों न ? - सिद्विपद पायशेत - शतक १२ उद्देशक १. पृ० २५२-२५६. - शतक १२ उद्देशक २. पृ० २५७-२६०. - कौशाम्बी नगरी – उदायन राजा. - जयंती श्रमणोपासिका - जयंती मृगावतीसहित भगवंतने वंदन करवा जाय छे. जयंतीना प्रश्नो. - जीवो शाथी भारेपणुं पामे ?-भव्यपणुं खाभाविक छे के परिणामजन्य छे ? - सर्व भव्यजीवो मोक्ष जशे ? -- तो शुं लोक भव्यरहित थशे ? - सूतापणुं सारं के जागताप खासा पासा के करेगी प्रयाण करी पागेन्द्र - शतक १२ उद्देशक ३० पृ० २६१. पृथिवीओना प्रकार. प्रथम पृथिवीना नाम अने गोत्र. ये परसा एकरूपे एकाचा परमाणु परमाभी, दस परमाओ परिवर्तन प्रकार रमिकोने परिवर्त शतक १२ उद्देशक ४. पृ० २६२ - २७४. परमाणुओ. चार परमाणुओं परमाशुओं, रात परमाणुओं साड वाला परमाणुओ. असंख्याता परमा अनन्त परमाणुओ-अनन्तानन्त पुलपरिवतोंएक गैरविधने औदारिपरिवतो. असुरकुमारने ओदारिक परिवर्ती एक नै - - - . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यपुदलपरिवर्त.-नरयिकोने पुद्गलपरिवर्त.-एक नैरयिकने नरयिकपणामां औदारिकपुद्गलपरिवर्त.-एक नैरयिकने असुरपणामा औदारिकपुद्गलपरिवर्त.एक नैरयिकने पृथिवीकायपणामां औदारिकपुद्गलपरिवतों.-एक असुरकुमारने नैरयिकपणामां औदारिकपुद्गलपरिवर्त.-एक नैरयिकने नैरयिकपणामां वैक्रियपुद्गलपरिवर्त. नैरयिकने पृथिवीकायिकपणामां वैक्रियपुद्गलपरिवर्त. नैरयिकोने नैरयिकपणामा केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्त व्यतीत थया छ ? -नैरयिकोने पृथिवीकायिकपणामां औदारिकपुद्गलपरिवर्त.-औदारिकपुद्गलपरिवर्त शा हेतुथी कहेवाय?-औदारिकपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ.-औदारिकादिपुरलपरिवर्तकाळy अल्पवहुत्व.-पुद्गलपरिवर्तनुं अल्पबहुत्व. शतक १२ उद्देशक ५. पृ. २७५-२७८. प्राणातिपात वगेरे केटला वर्णादियुक्त छे?-क्रोधादि केटला वर्णादिसहित छे ?-मान वगेरे केटला वर्णादियुक्त छ ? -माया.-लोभ.-राग द्वेष वगेरे केटला वर्णादियुक्त छे?-प्राणातिपातविरमणादि केटला वर्णादियुक्त छे ?-चार प्रकारनी मति.-अवग्रहादि.-उत्थानादि केटला वर्णादियुक्त छ?सप्तम अवकाशान्तर.-सप्तम तनुवात.-नैरयिकोने वर्णादि.-पृथिवीकायिको.-मनुष्यो. वाणव्यन्तरादि.-धर्मास्तिकायादि.-ज्ञानावरणादि.-कृष्णलेश्यादि.-सम्यग्दृष्ट्यादि.-औदारिकादि शरीर.-साकारोपयोग अने अनाकारोपयोग.-सर्वद्रव्यो.-गर्भमां उत्पन्न यतो जीव.-जीव अने जगत् कर्मथी 'विविधरूपे परिणमे छे! शतक १२ उद्देशक ६. पृ. २७९-२८१. राहु चन्द्रने ग्रसे छे ?-राहु देवर्नु वर्णन.-राहुना नामो.-राहुना विमानो.-राहु आवतो के जतो चन्द्रना प्रकाशने आवरे छे.--राहुना प्रकार.राहु चन्द्रने अने सूर्यने क्यारे ढांके ?-शा हेतुथी चंद्रने सश्री-शोभायुक्त कहेवाय छे ?-शा हेतुथी सूर्यने आदित्य कहेवाय छे?-चन्द्रने अपमहिपिओ.-सूर्य भने चन्द्र केवा प्रकारना कामभोगो भोगवे छे! . शतक १२ उद्देशक ७. पृ. २८२-२८५ लोकनुं महत्त.-नरकपृथिवी.-आ जीव रत्नप्रभाना एक एक नरकावासमा पृथिवीकायिकादिपणे उत्पन्न थयो छे?-सर्व जीयो,-शर्कराप्रभामा नरकावासमां पृथिवीकायिकादिपणे उत्पन थयो छे ?-तमा पृथिवी.-सप्तम पृथिवीमा पूर्व उत्पन्न थयो छे?-असुरकुमार.-पृथिवीकायिकावासमा पूर्व उत्पन्न थयो छ?-बेइन्द्रियावासमा पूर्व उत्पन थयो, छे ? -सनत्कुमार कल्पमा.-प्रेवेयकविमानावासमां.-अनुत्तर विमानावासमां.-आ जीव सर्व जीवोना मातापिता इत्यादि संबन्धरूपे उत्पन्न थयो छ?-सर्व जीवो आ जीवना माता इत्यादि संबन्धरूपे उत्पन्न थया छे?-आ जीव सर्व जीवना शत्रुरूपे उत्पन्न थयो छै?-सर्व जीयो.-आ जीव सर्व जीवना राजा तरीके उत्पन्न थयेल छे ?-आ जीव सर्व जीवोना दासरूपे उत्पन्न थयेल छे । -सर्व जीवो. शतक १२ उद्देशक ८. पृ. २८६-२८७. ___महाऋद्धिवाळो देव मरीने मात्र बे शरीरवाळा नागोमां उपजे ?-नागना जन्ममा अचिंत-पूजित थाय?-बे शरीरवाळा मणिमा उत्पन्न थाय!बे शरीरवाळा वृक्षा उत्पन्न थाय?-वानर वगेरे जीवो रत्नप्रभामा उत्पक्ष थाय?-सिंह वगेरे पण नैरयिकपणे उपजे!-काक वगेरे. शतक १२ उद्देशक ९. पृ० २८८-२९३. देवोना भव्यदेवादिप्रकार. भव्यद्रव्यदेवादि कहेवार्नु कारण.-नरदेव.-धर्मदेव.-देवाधिदेव.-भावदेव.-भव्यद्रव्यदेवो क्याथी आवीने उपजे?नरदेवो क्याथी आवीने उपजे !-रन्नग्रभादिमांथी कइ नरकपृथिवीथी आवी उपजे?-शु भवनवासीआदि देवोमांथी क्या देवोथी आवी उपजे?-धर्मदेव क्यांधी भावी उपजे!-देवाधिदेव क्याथी उपजे ?-रत्नप्रभादि नरकपृथिवीमाथी कह नरकपृथिवीथी आवी उपजे?-देवोमा सर्व वैमानिक देवोथी मावीने उपजे?-भावदेवो क्याथी आवी उपजे?-भव्यद्रव्यदेवनी स्थिति.-नरदेवनी स्थिति.-धर्मदेवनी स्थिति. देवाधिदेवनी स्थिति.-भावदेवनी स्थिति.भव्यद्रव्यदेवनी विकुर्वणाशक्ति.-देवाधिदेवनी विकुर्वणाशक्ति-भावदेवनी विकुर्वणाशक्ति.-भव्यद्रव्यदेवो मरण पामी क्यां जाय !-नरदेव मरण पामी क्या उपजे ?-धर्मदेव मरण पामी क्या जाय !-धर्मदेवो क्या देवोमां उत्पन्न थाय ?-देवाधिदेवो मरण पामी क्या जाय ?-भावदेव मरण पामी क्यां जाय?-भव्यद्रव्यदेवोनी स्थिति.-भव्यद्रव्यदेवने केटला काळचें अंतर होय?-नरदेवने परस्पर केटलं अन्तर होय!-धर्मदेवने परस्पर केटलं अन्तर होय?-देवाधिदेवर्नु अन्तर--भावदेवतुं अन्तर.-भव्यद्रव्यदेवादिनु परस्पर अल्पबहुत्व. शतक १२ उद्देशक १०. पृ० २९४-३००. आत्माना प्रकार.-द्रव्यात्मा अने कपायात्मानो संबन्ध,-द्रव्यात्मा अने योगात्मानो संबन्ध.-द्रव्यात्मा अने उपयोगात्मानो संबन्ध.-द्रव्यात्मानो ज्ञानात्मानी साथे संबन्ध.-दर्शनात्मा साथे संबन्ध.-चारित्रात्मा साथे संबन्ध.-वीर्यात्मा.-कपायात्मा अने योगात्मानो संबन्ध.-कषायात्मा अने दशनात्मानो संबन्ध-द्रव्यात्मा वगेरेनुं अल्पबहुत्व.-आत्मा ज्ञानस्वरूप छे के अन्यस्वरूप छ?-नैरयिकोनो आत्मा.-पृथिवीकायिकोनो आत्मा.-आत्मा दर्शनरूप छे के तेथी अन्य छे?-नैरयिकोनो आत्मा.-रत्नप्रभा पृथिवी सदुरूप छे के असदुरूप छे?-शर्कराप्रभा.-सौधर्मदेवलोक.-वेयकविमान.एक परमाणु सद्रूप छे के असद्रूप छे ?-द्विप्रदेशिक स्कन्ध-शा हेतुथी सद्प छे इत्यादि.-त्रिप्रदेशिक स्कन्धना आत्मा-आदि तेर भांगा.-शा हेतुथी त्रिप्रदेशिकस्कन्धना 'आत्मा' इत्यादि भांगा थाय छे?-चतुष्प्रदेशिकस्कन्धना १९ भांगाओ.-शा हेतुथी 'आत्मा' इत्यादि रूप छे.-पंचप्रदेशिकस्कन्धना २२ भांगाओ.-शा हेतुथी आत्मा इत्यादिरूप छे ? ___ शतक १३ उद्देशक १. पृ. ३०१-३०६. नरकपृथिवी.-रत्नप्रभाने विषे नरकावासो.---संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोमा एक समये नारकादिनो उत्पाद.-एक समये नारकादिनी उद्वर्तना.--रत्नप्रभामां नारक जीवोनी सत्ता.--असंख्ययोजनवाळा नरकायासोमा नारकादिनो उत्पाद.-शर्कराप्रभामां नरकावासो.-यालुकाप्रभामा नरकावासो.-पंकप्रभामां नरकावासो.-धूमप्रभामा नरकावासो.-तमःप्रभामां नरंकावासो.-सप्तम नरकमां नरकायासो.-रत्नप्रभामा संख्यात योजनविस्तारवाळा नरकावासोमा सम्यष्टि वगेरेनो उत्पाद.-सम्यग्दृष्टि वगेरेनी उद्वर्तना.-सम्यग्दृष्टि वगेरेथी अविरहित होय.-सप्तम नरकमां सम्यग्दृष्टि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगेरे उपजे?-कृष्णादिलेश्यावाळो यईने कृष्णलेश्यावाळा नारकोमा उत्पन्न थाय?-नीललेश्यावाळा नारकोमा उत्पन्न थाय!-तेनो हेतु. कापोतळेश्यावाळा नारकोमा उपजे? शतक १३ उद्देशक २. पृ. ३०७-३१०. देवोना प्रकार.-भवनवासी देवोना प्रकार.-असुरकुमारना आषासो.-असुरकुमारमा उत्पाद.-उद्वर्तना.-नागकुमारादिना भावासो.-बानध्यतर देवोना आवास.-एकसमये वानव्यंतर देवोनो उत्पाद.-ज्योतिषिक देवोना विमानावास.-सौधर्म देवलोकमा विमानावास.-एफसमये सौधर्मथी मांधीने सहस्रार सुधी देवोनो उत्पाद.-आनत अने प्राणत देवलोकमां विमानावास.-प्रेयक.-अनुत्तर विमानो.-पांच अनुत्तरमा एक समये देवोना उत्पादादि.-असुरकुमारावासमा सम्यग्दृष्ट्यादि उपजे?-कृष्णादिलेश्यावाळा थइने कृष्णलेश्यावाळा देवोमा उत्पन्न थाय? शतक १३ उद्देशक ३. पृ० ३११. नारको अनन्तराहारी होय अने त्यार बाद अनुक्रमे परिचारणा करे? शतक १३ उद्देशक ४. पृ० ३१२-३२३. नरकपृथिवी. नैरयिकद्वार.-पर्शद्वार.-प्रणिधिद्वार.–निरयान्तद्वार.-लोकमध्यद्वार.-अधोलोकमध्य.-ऊर्ध्वलोकमध्य.-तिर्यग्लोकमध्य.दिशा-विदिशाप्रवहद्वार.-ऐन्द्री दिशा क्याथी नीकळे छे?-आग्नेयी.--याम्या-दक्षिण.-नैऋती.-ऊर्ध्वदिशा.-तमादिशा. लोक.--अस्तिकायप्रवतनद्वार.-धर्मास्तिकायवडे जीवोन प्रवर्तन.-अधर्मास्तिकायवडे प्रवर्तन.-आकाशास्तिकायवडे प्रवर्तन.-जीवास्तिकायवडे प्रवर्तन.-पुद्गलास्तिकायवडे प्रवर्तन.-अस्तिकायप्रदेशस्पर्शनाद्वार.-~-धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश धर्मास्तिकायादि द्रव्यना केटला प्रदेशोवडे स्पर्शाय? -अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश.आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश.-जीवास्तिकायनो एक प्रदेश.-पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश.-पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो.-पद्लास्तिकायना प्रण प्रदेशो.पुद्लास्तिकायना संख्याता प्रदेशो.-पुद्गलास्तिकायना असंख्य प्रदेशो,-पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो.-कालनो एक समय.-धर्मास्तिकाय द्रव्य.---अघ स्तिकाय.-अवगाढद्वार.-ज्या धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां बीजा धर्मास्तिकायादिना केटला प्रदेश अवगाढ होय?-अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश.-आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश.-जीवास्तिकायनो एक प्रदेश.-पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश.-पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो.-पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो.-एक अद्धासमय.-एक धर्मास्तिकाय.-एक अधर्मास्तिकाय.-पृथिवीकायिक.-अप्कायिक.-अस्तिकायनिषदनद्वार.-धर्मास्तिकायादि श्रण द्रव्यमा बेसवाने समर्थ थाय? बहुसमद्वार.-लोकनो वक्रभाग.--संस्थानद्वार. शतकं १३ उद्देशक ५. पृ. ३२४. नैरयिको शुं सचित्ताहारी छे, अचित्ताहारी छे के मिश्राहारी छे ? __शतक १३ उद्देशक ६. पृ. ३२४-३२९, नारको सांतर के निरन्तर उपजे!-असुरकुमारना चमरेन्द्रनो चमरचंच नामे आवास.-चमरेन्द्र चमरचंच नामे आवासमा रहे छे?-चंपानगरी.पूर्णभद्र चैत्य.-सिन्धुसौवीर देश.-वीतभय.-उदायन राजा.-प्रभावती देवी.-पोताना भाणेज केशीकुमारने राज्याभिषेक करवानो उदायननो संकल्प. केशीकुमारनो राज्याभिषेक.-उदायननी दीक्षा अने मुक्ति.-अभिचिकुमारनो उदायनने विषे वैरानुबन्ध भने तेनुं वीतभय नगरथी नीकळी जवं.-अभिचिनो असुरकुमारमा उत्पाद, शतक १३ उद्देशक ७. पृ. ३३०-३३४. भाषा.-भाषा आत्मस्वरूप छे के तेथी अन्य छे?-रूपी के अरूपी? –सचित्त के अचित्त-जीवखरूप के अजीवखरूप?-जीवोने भाषा के अजीवोने भाषा होय?-भाषा क्यारे कहेबाय?-भाषा क्यारे भेदाय?-भाषाना प्रकार.-मन.-मन आत्मा छे के तेथी अन्य छ?-मन क्यारे होय!-मन क्यारे मेदाय!-मनना प्रकार.-काय आत्मा छे के तेथी अन्य!-रूपी के अरूपी-काय क्यारे होय?-काय क्यारे मेदाय? कायना प्रकार.-मरणना प्रकार,-आवीचिक मरणना प्रकार.-द्रव्यावीचिक मरणना प्रकार.-नैरयिक द्रव्यावीचिक मरण.-क्षेत्राचीचिक मरण,-नारक क्षेत्रावीचिक मरण.-अवधि मरण.-द्रव्यावधि मरण.-नैरयिक द्रव्यावधि मरण शा हेतुथी कहेवाय छे?-आत्यन्तिक मरण, द्रव्यात्यन्तिक मरण.-नैरयिक द्रव्यात्यन्तिक मरण शाथी कहेवाय छे ? -बालमरणना प्रकार.-पंडितमरण.-पादपोपगमन.-भकप्रत्याख्यान, शतक १३ उद्देशक ८. पृ. ३३५. कर्मप्रकृति. शतक १३. उद्देशक ९. पृ० ३३५-३३७. वैक्रिय शक्तियी कोई दोरडाथी बांधली घटीका लेइने एवारूपे गमन करे! केटला रूपो विकुर्वी शके ?-हिरण्यनी पेटी लेइने गमन करे?-बड.. बागुलीनी पेठे गमन करे?-जलौकानी पेठे गमन करे? चीजबीजक पक्षीनी पेठे गमन करे?--बिडालक पक्षीनी पेठे गमन करे?--जीवंजीवक पक्षीनी जेम गमन करे-हंस पेठे गति करे.-समुद्रवायसना आकारे ग.ते करे?-चक्रहस्त पुरुषनी जेम गति करे?-नहस्त पुरुषनी पेठे गमन करे!-बिस. -मृणालिका.-वनखंड.-पुष्करिणीना आकारे आकाशमा गमन करे ? केटला रूपो विकु ?-मायासहित के मायारहित विकुर्वे ? - शतक १३ उद्देशक १०. पृ. ३३८. समुद्धात. Jain Education international Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शतक १४ उद्देशक १. पृ० ३३९ - ३४२. भावितात्मा अनगार, जेणे श्वरम देवावासनुं उल्लंघन कर्यु छे अने परम देवावासने प्राप्त थयो नथी ते मरीने क्यों उपजे ? — असुरकुमारावास. - नार· कोनी शीघ्र गति. –नारको अनन्तरोपपन्न, परंपरोपपन्न के अनन्तरपरंपरानुपपन्न छे ? - अनन्तरोपपश्च नारको आश्रयी आयुषनो बन्ध. - परंपरोपपन नैर-सिंकोने आयी सानो बन्थ अनन्तरपरंपरा नैरयिको अन्तरनितादि नैरयिको धारको अनन्तर निर्गतादि फेम कद्देवाय - परंपरा अनम्सरपरंपरा निर्गत अमन्सर दोपपत्र वगेरे. तर नितादिनेाजवी आयु शतक १४ उद्देशक २. पृ० ३४३ - ३४४. उन्मादना प्रकार. – नारकोनो उन्माद - नारकोने शा हेतुथी उन्माद होय ? -- असुरकुमारोनो उन्माद - इन्द्र दृष्टि करे ? इन्द्र वृष्टि केवी रीते करे ? –शुं असुरकुमार देवो वृष्टि करे छे ? - ईशानेन्द्रादि तमस्काय करे ? – असुरकुमार तमस्काय करे ? –शा हेतुथी तमस्काय करे ? शतक १४ उद्देशक ३. पृ० ३४५-३४६. महाकाय देव भावितात्मा अनगारनी बच्चे थईने जाय ? — महाकाय असुरकुमार भावितात्मा अनगारनी बचे थईने जाय ? - नारकोमां सत्कारादि विनय होय असुर कुमारोमा सत्कारादि विनय पंचेन्द्रिय तिर्ययोमा सत्कारादि विनय होय !-अप महाऋषिदेवली वचे पहने जाय - समानऋद्धिवालो देव समानऋद्धिवाळा देवनी बच्चे थईने जाय ? - बच्चे थईने जनार देव शस्त्र प्रहार करीने जाय के कर्या शिवाय जाय ? - प्रथम शत्र प्रहार कर्या पंछी जाय के गया पछी शस्त्र प्रहार करे ? –नारको केवा प्रकारमा पुगलपरिणामने अनुभवे छे ! शतक १४ उद्देशक ४. पृ० ३४७-३४८. पुद्गल परिणाम. अतीत कालने विषे एक समयमा पुद्गलनो परिणाम वर्तमान काले पुद्गलपरिणाम - अनागत काल. - पुद्गलस्कन्ध. - अतीत वर्तमान अने अनागतकाळे जीवपरिणाम. - परमाणुपुद्गल शाश्वत के अशाश्वत ? - परमाणु चरम के अचरम ? -- सामान्य परिणाम. शतक १४ उद्देशक ५. पृ० ३४८-३५१. - नारक अनिकायमा मध्य भागमां गमन करे ?- अरकुमारो. एकेन्द्रियो देहन्द्रिय पंचेन्द्रियविय अधि बचे पहने जाय ? नारको द स्थानोगो] अनुभव करे छे. असुरकुमारोपृथिवीकविको नेन्द्रियो तेइन्द्रियो चेन्द्रियवियो महार्दिक देवबहा जीनो पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय पर्वतादिने उल्लंघी शके ? --बहारना पुद्गलोने ग्रहण करी पर्वता दिने उल्लंघवा समर्थं छे. शतक १४ उद्देशक ६. पृ० ३५२ - ३५३. नारको बहार, परिणाम, योगि, स्थिति बगेरेनारको वीचि भने अवीचिव्यनो आहार करे छे.यारे इंद्र भोग भोगना इच्छे खारे करे ! -- ईशानेन्द्र भोग भोगववा इच्छे त्यारे ते केवी रीते भोगवे ? शतक १४ उद्देशक ७. पृ० ३५४-३५७. - केवलज्ञाननी अप्राप्तियी खिन्न थयेला गौतमखामिने आश्वासन. - अनुत्तरौपपातिक देवो जाणे छे अने जुए छे ! - तुल्यता. द्रव्यतुल्य — क्षेत्रतुल्य. - कालतुल्य.—भवतुल्य.~~भावतुल्य. - औदायिकादिभाववडे तुल्य — संस्थान तुल्य. - आहारनो त्यागी अनगार मूर्छित थई आहार करे अने पछी मरण-समुद्घात करी अनासक्त थई आहार करे ? - शा हेतुथी एम कद्देवाय छे ? – लवसत्तम देवो. अनुत्तरोपपातिक देवो. — फेटलं कर्म बाकी रहेवाथी अनुत्तर देवपणे उत्पन्न थाय ! शतक १४ उद्देशक ८. पृ० ३५८-३६१. अन्तर शत्रमा अने शर्कराभानुं अन्तर प्रभा भने बाइकमा सन्तराम मरकथियो भने अलोचनं प्रमाने ज्योि पितुं अन्तर यो भने सोधर्म-ईशान अन्तराल ने कुमार माहेन्द्रनुं अन्तर सनकुमार माहेन्द्र ने देवलोकनुं अन्तर. - ब्रह्मलोक अने लान्तकनुं अन्तर —लान्तक अने महाशुक्रनुं अन्तर - अनुत्तरविमान अने ईपत्प्राग्भारा पृथिवीनुं अन्तर. - ईषत्प्राग्भारा अने अलोकनुं अन्तर. - शालवृक्ष मरीने क्यां जशे ? - शालयष्टिका. उंबरयष्टिका मरण पामी क्यां जशे ? अंबड परिव्राजक अव्याबाध देव - इन्द्रफोइना मायाने सरवारथी कापी कलम नांवें तो पथ देने जरा दुःख न देवोभक देवो शाथी कहेवाब :- देवना प्रकार देवोनी स्थिति - देवपरहे छे! शतक १४ उद्देशक ९ पृ० ३६२ - २६४. जे भावितात्मा अनगार पोतानी कर्मलेश्याने जाणतो नथी ते सशरीर जीवने जाणे छे ? – रूपी पुद्गल स्कन्धो प्रकाशित थाय छे ? — जे पुत्रो प्रका ति यावते फेला छे नैरविकोने आत मुखोपादकलो होता मधी अनुरकुमारने भारत पुगलो. पृथिवीकायिकोने आत धने अनाव पुद्गलो. -- नारकोने इष्ट के अनिष्ट पुद्रलो होय छे ? महर्द्धिक देवनुं हजार रूपो विकुर्वीने हजार भाषा बोलवानुं सामर्थ्य. --- एक भाषा के हजार भाषा ? --- सूर्यनो अर्थ. - सूर्यनी प्रभा ए शुं छे ? — श्रमणोना सुखनी तुल्यता. / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ उद्देशक १०. पृ. ३६५-३६६. केवलज्ञानी छगस्थने जाणे.-सिद्ध पण छमस्थने जाणे, केवली अवधिशानीने जाणे. केवलज्ञानी बोले-केवलीनी पेठे सिद्ध बोले के नहि?केवलज्ञानीनी पेठे सिद्ध केम न बोले? केवलशानी आंख उघाडे अने मींचे! केवलज्ञानी रत्नप्रभा पृथिवीने जाणे? -सिद्ध पण रमप्रभा पृथिवीने जाणे? केवली शर्कराप्रभाने जाणे? केवली सौधर्मादि कल्पने जाणे?-प्रैवेयकादिने जाणे?-ईषत्प्रारभारा पृथिवीने जाणे?-परमाणुपुद्गलने जाणे? शतक १५. पृ. ३६७-४०२. श्रावस्तीनगरी.-कोष्ठक चैत्य-हालाहला कुंभारण.-गोशालकनुं संघसहित हालाहला कुंभारणने घेर आगमन.--गोशालकने छ दिशाचरोर्नु आवी मळवं.-श्रावस्ती नगरीमा घणां माणसो कहे छे के 'गोशालक पोताने जिन कहेतो विचरे छे' ते केम मानी शकाय?-भगवंते कहेलो गोशालकनो वृत्तान्त.मंखलि पिता.-भद्रा श्री. पारवण प्राम.-गोबहुल ब्राह्मण-गोशालक नाम.-भगवान् महावीरे मातापिता देवलोक गया पछी दीक्षा लीधी.-प्रथम वर्षे अस्थिप्राममा चातुर्मास.-बीजा वर्षे राजगृह नगर.-प्रथम मासक्षमणना पारणाने दिवसे विजयगाथापतिना घेर भगवंतनो प्रवेश.--विजय गृहपतिने धेर पांच दिव्यनुं प्रगट यq.-गोशालकनुं विजय गृहपतिने घेर आगमन.-पीजुं मासक्षमण.-भगवंतनो बीजा मासक्षमणना पारणाने दिवसे भानंद गृहपतिना घेर प्रवेश.-त्रीजु मासक्षमण.-जीजा मासक्षमणना पारणाने दिवसे सुनन्द गृहपतिना घेर प्रवेश.-कोल्लाक सनिवेश.-बहुल ब्राह्मण.-चतुर्थ मासक्षमणना पारणाने दिवसे यहुल ब्राह्मणना घेर प्रवेश.-भगवंते करेलो गोशालकनो शिष्यतरीके स्वीकार.-भगवंतनो गोशालक'साथे सिद्धार्थ प्रामथी कूर्मग्राम तरफ विहार भने मार्गमा सलना छोडनुं जोवु.-गोशालकनो भगवंत महावीरने प्रश्न.-तलनो छोड नीपजशे के नहि ?--गोशालफर्नु भगवंतनी वातने मिथ्या करवा माटे तलना छोडने उखेडी नांखg.-गोशालकने वेश्यायन बालतपस्खीनो समागम, तेमने गोशालकनु उपहासपूर्वक कथन.-तेमर्नु गोशालक उपर तेजोलेश्यानुं मूक.-शीतलेश्या मूकी भगवते करेलुं गोशालकनुं रक्षण.-भगवंते गोशालकने तेजोलेश्याप्राप्तिनो विधि बताव्यो.-भगवंतनुं गोशालकनी साये सिद्धार्थप्राम तरफ प्रयाण अने भगवंतना वचनने मिथ्या करवा माटे तलना छोडनी गोशालकनी तपास.-गोशालकनो परिवर्तवादखीकार भने भगवंतथी तेनुं जूदा पडवू.-गोशालकने तेजोलेश्यानी प्राप्ति.-गोशालकना छ दिशाचरो शिष्य थया अने ते हवे जिनतरीके विचरवा लाग्यो.गोशालक जिन नथी एवं भगवंतनुं कथन.--उपरनुं कथन सांभळी गोशालकने गुस्सो यवो.-आनंदने गोशालकनो समागम, भगवंतने बाळी भस्म करवानी तेणे आपेली धमकी, ते माटे तेणे कहेलं वणिकोनुं दृष्टान्त.-गोचरीथी पाछा फरतां आनंदनुं गोशालके आपेली धमकी, भगवंतने निवेदन.-गोशालक तपोजन्य तेजोलेश्यावडे बाळी भस्म करवा समर्थ छे ते संबन्धे प्रश्नोत्तर.-भगवंते आनंदने कडं के तुं गौतमादि मुनिओने कहे के गोशालकनी साये कंद पण वादविवाद न करे.-भगवंत प्रति गोशालकनो उपालंभ.-गोशालकनो गोशालकपणे इनकार.--गोशालकनुं पोतार्नु खरूपनिवेदन अने ते द्वारा खमत प्रदर्शन.-चोराशी लाख महाकल्पनुं प्रमाण.-सात दिव्य भवान्तरित सात मनुष्य भवो.-सात शरीरान्तरप्रवेश.-प्रथम शरीरप्रवेश.-द्वितीय शरीरप्रवेशतृतीय शरीरप्रवेश.-चतुर्थ शरीरप्रवेश.-पंचम शरीरप्रवेश.-षष्ठ शरीरप्रवेश.-सप्तम शरीरप्रवेश.-भगवन्ते कद्दु के हे गोशालक ! तुं तारा आत्माने छूपावे छे.-गोशालकना भगवंतने आक्रोशयुक्त वचनो कहेवा.-सर्वानुभूति अनगारनुं गोशालकने सत्य कथन.-गोशालके सर्वानुभूति अनगारने बाळी भस्म कर्या.-सुनक्षत्र अनगारनुं गोशालकने कथन.-गोशालके सुनक्षत्र अनगारने पण बाळ्या.-गोशालकनो भगवंत प्रति श्रीजी वारनो आक्रोश.-गोशालके भगवंतनो वध करवा माटे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी.-तेज़ोलेश्या गोशालकना शरीरमा पेठी.-'तुं तारा तपना तेजथी पराभूत थइ छ मासने अन्ते काळ करीश' एवं गोशालकने भगवंतनुं कथन.-श्रावस्ती नगरीना जनोनो भगवंत अने गोशालकना सम्यग्वादित्वसंबन्धे प्रवाद.-श्रमणोए गोशालकने प्रश्नो पूछी निरुत्तर कर्यो.-निहत्तर थवाथी गोशालकनुं गुस्से थर्बु अने तेना केटला एक शिष्योनुं भगवंतने आश्रयी रहेg.-गोशालक्नु भगवंत पातेथी हालाहला कुंभारणने घेर जq.-तेजोलेश्यानुं सामर्थ्य.-चार प्रकारना पानक.-अपानकना चार प्रकार.-स्थालपाणी.-स्वचापाणी.-शीगर्नु पाणी.शुद्धपाणी.-आजीविकोपासक अयंपुलकनो गोशालकनी पासे जवानो संकल्प.-अयंपुलकर्नु आगमन, गोशालकनी विचित्र अवस्था जोह पार्छ जवू, स्थविरोए अयंपुलने पाछा बोलावी तेना मनना संकल्पनुं निवेदन अने तेना मननुं समाधान.-अयंपुलनुं गोशालक पासे आगमन.-गोशालकवडे अयंपुलना संकल्पनुं निवेदन भने तेना मननुं समाधान.-पोताना मरण वाद देबने उत्सवपूर्वक बहार काढवा संबन्धे गोशालकनी भलामण.-गोशालकने सम्यक्स्व थएँ, 'हुँ जिन नथी' एम पोतानी वास्तविक स्थिति प्रकाशित करवी, तेनो पश्चात्ताप अने 'महावीर जिन छ' एवं निवेदन.-'मने काळधर्म पामेलो जाणी मा. रडाबा पगने दोरडावती बांधी घसडजो अने मुखमा थुकजो तथा हुं जिन नथी एम उद्घोषणा करता मारा शरीरने निंदापूर्वक बहार काढजो' एवी गोशा. लकनी पोताना शिष्योने भलामण.-आजीविक स्थविरोर्नु हालाहला कुंभारणना द्वार बन्ध करी श्रावस्तीने आळेखी गोशालकना कह्या प्रमाणे करवं.–में ढिकप्राम.-श्वानकोष्ठक चैत्य.-मालकावन.-भगवंत महावीरना शरीरमा पीडाकारी रोगर्नु थq.-'भगवंत रोगनी पीडाथी छद्मस्थावस्थामा काळधर्म पामशे'एवी सिंह भनगारनी आशंका.-भगवंतनुं सिंह अनगारने बोलावq.-भगवंतर्नु सिंहना मनोगत भाष- कथन.-भगवंतनुं रेवती श्राविका पासे थी बीजोरापाकनुं मंगावq.-सर्वानुभूति मरण पामी क्यां गया ते संबन्धे प्रश्नोत्तर.-सुनक्षत्र अनगार काळ करी क्या गया-गोशालक काळ करी क्या गयो?-गोशालक देवलोकथी च्यवी क्या जशे ?-महापद्म अने देवसेन नाम पाडवानुं कारण.-महापद्म.-देवसेन.-विमलवाहन नाम पाढवार्नु कारण.-विमलवाहननुं श्रमण निर्ग्रन्थोनी साये अनार्यपणु,-सुमंगल अनगार.-विमलबाहन सुमंगल अनगार उपर रथ चलावी पादी नौखशे.-सुमंगल अनगार विमलवाहनने तपना तेजथी भस्म करशे.-सुमंगल अनगार काळ करी क्या जशे?-विमलवाहन मरण पछी क्या जशे-हवे त्यांची व्यवी मनुष्यदेह धारण करी सम्यग्दर्शन पामशे.केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न थशे.-दृढप्रतिज्ञ केवली पई घणा वरस सुधी चारित्र पाळी मोक्षे जशे. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह.. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. - --- सत्तमं सयं. १. १ आहार २ विरति ३ थावर ४ जीवा ५ पक्खी य ६ आउ ७ अणगारे ८ छउमत्थ ९ असंवुड १० अन्नउस्थि दस सत्तमंमि सए ॥ पढमो उद्देसो. २. [म०] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी-जीवे णं भंते ! के समयमणाहारए भवर ! [उ०] गोयमा! सप्तम शतक.. १. [उद्देशसंग्रह-] १ आहार, २ विरति, ३ स्थावर, ४ जीव, ५ पक्षी, ६ आयुष्, ७ अनगार, ८ छमस्थ, ९ असंवृत, अने १० अन्यतीर्थिक-ए संबन्धे सातमां शतकमा दश उद्देशको छे.. [प्रथम उद्देशकमा आहार-आहारक अने अनाहारक इत्यादि विषे हकीकतं छे, बीजा उद्देशकमा विरति-प्रत्याख्यानसंबंधी वर्णन छे, त्रीजा उद्देशकमा स्थावर-वनस्पति वगेरेनी वक्तव्यता छे, चोथा उद्देशकमां जीव-संसारी जीवनी प्ररूपणा छे, पांचमा उद्देशकमा पक्षीखेचरजीवोनी हकीकत छे, छट्ठा उद्देशकमां आयुष वगेरेनी हकीकत छे, सातमा उद्देशकमा अनगार-साधु वगेरेनी हकीकत छे, आठमा उद्देशकमां छद्मस्थ मनुष्यादिनी हकीकत छे, नवमा उद्देशकमां असंवृत-प्रमत्तसाधुवगेरेनी वक्तव्यता छे, अने दशमा उद्देशकमा कालोदायिप्रमुख अन्यतीर्थिकसंबन्धी वक्तव्यता छे.] प्रथम उद्देशक. २. (प्र०] ते काले अने ते समये (गौतम इन्द्रभूति) यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! जीव (परभवमा जता) कये समये *अनाहारक (आहार नहि करनार) होय ! [उ०] हे गौतम ! (परभवमां) प्रिथम समये जीव कदाच आहारक होय अने कदाच अना माहारक भने मनाहारक. २. " आहारना बे प्रकार छे-१ आभोगनिवर्तित (इच्छापूर्वक प्रहण करायेलो) आहार भने २ अनाभोगनिर्वर्तित (इच्छाशिवाय अनाभोगपणे ग्रहण करायेलो) आहार. तेमा आभोगनिर्वर्तित आहार नियत समये होय छे, परन्तु अनाभोगनिर्वर्तित आहार उत्पत्तिना प्रथमसमयथी प्रारंभी अन्तसमय सुधी प्रतिसमय निरन्तर होय छ, जुओ-(प्रज्ञा. प. २९, प. ४९८.) ज्यारे जीव मरण पामी ऋजुगतिथी परभवमा प्रथम समये उत्पन थाय छे त्यारे परभवायुष्ना प्रथम संमयेज माहारक होय छे, परन्तु ज्यारे वक्रगति बडे बे समये उत्पन्न थाय छे त्यारे प्रथम समये अनाहारक होय छे अने बीजे समये आहारक होय छे, ज्यारे त्रण समये उत्पन्न थाय छे त्यारे प्रथमनाने Jain Education international Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्दशक १. पढमे समए सिय आहारए सिय अणाहारप, वितिए समए सिय आहारए सिय अणादारए, ततिए समए सिए आहारए सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए । एवं दंडओ। जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए, सेसा ततिए समए । ३. [प्र०] जीवे णं भंते! कं समय सव्वप्पाहारए भवति [उ०] गोयमा! पढमसमयोववनए वा चरमसमए भवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवद । दंडओ भाणिअव्वो जाव चेमाणिआणं। ४. [प्र०] किंसंठिए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? [३०] गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने, जाव उप्पि उद्दमुइंगागारसंठिए; तसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेट्टा विच्छिन्नंसि जाव उप्पि उहुंमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाण-दसणधरे. अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवे वि जाणइ पासइ; तओ पच्छा सिज्झति, जाव अंतं करेइ । ५. [प्र०] संमणोवासयस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजति । [प्र०] से केणटेणं जाव संपराइया? [उ०] गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवद, आयाऽहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ से तेणटेणं जाव संपराइया। हारक होय, बीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, त्रीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, परन्तु चोथे समये अवश्य आहारक होय. ए प्रमाणे (*नारक इत्यादि चोवीस ) दंडक (पाठ) कहेवा. सामान्य जीवो अने एकेन्द्रियो चोथे समये आहारक होय छे, अने (एकेन्द्रिय शिवाय ) बाकीना जीवो. त्रिीजे समझे आहारक होय छे.. ३. प्र०] हे भगवन् ! जीव कये समये सौथी अल्प आहारवालो होय छे ? [उ.] हे गौतम! उत्पन्न थतां प्रथम समये अने भवने (जीवितने) छेल्ले समये; आ समये जीव सौथी अल्प आहारवाळो होय छे. ए प्रमाणे वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. ४. [प्र०] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान (आकार) केवा प्रकारे कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक-शिरावना आकार जेवो कहेलो छे. ते नीचे विस्तीर्ण-पहोळो यावत् उपर ऊर्ध्व (उभा) मृदंगना आकारे संस्थित छे. नीचे विस्तीर्ण यावत् उपर ऊर्ध्व मृदंगना आकारे रहेला ते शाश्वत लोकमां उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनार अरिहंत जिन केवलज्ञानी जीवोने पण जाणे छे अने जुए छे, अजीवोने पण जाणे छे अने जुए छे, त्यार पछी सिद्ध थाय छे, यावत् (सर्व दुःखोनो) अंत करे छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! श्रमणना उपाश्रयमा रहीने सामायिक करनार श्रमणोपासकने (श्रावकने ) शुं ऐर्यापथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! ऐपिथिकी क्रिया न लागे, पण साम्परायिकी क्रिया लागे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! श्रमणना उपाश्रयमा रही सामायिक करनार श्रावकनो आत्मा अधिकरण (कपायना साधनो) युक्त छे, तेथी तेने आत्माना (पोताना) अधिकरण निमित्ते ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे, ते हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे छे. लोकसंस्थान ऐर्यापथिकी भने सापरायिकी क्रिया. तितिए ख । २-समतोववक्षए क; अस्मिन् पुस्तके बहुशः तकारघटितः पाठ उपलभ्यते, यथा-किंसंठिते, सुपतिहग, (.,1,) यन्त्र पूर्व संस्कृतप्रकृतौ तकारो न विद्यते तत्रापि तकारः; यथा-आयमधः, इणहे, तिणहे; सामायिक, सामाइभ, सामातिम; नैरयिक, नेरहम, नेरतिम । ३ तेसिंग-घ। '४-वासगस्स घ । ५ संपराईमा ख। समये अनाहारक होय छे, अने बीजे समये आहारक होय छे, ज्यारे चार समये परभवमा उत्पन्न थाय छे, त्यारे आदिना त्रण समये अनाहारफ होय छे, अने चोथे समये आहारक होय छे. व्रण समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे थाय छ-त्रसनाडीनी बहार विदिशामा रहेलो कोइ जीव ज्यारे अधोलोकथी ऊर्ध्व लोकर्मा घसनादीनी बहार दिशामा उत्पज थाय त्यारे ते अवश्य प्रथम समये विश्रेणिथी समश्रेणिमा आवे, बीजे समये त्रसनाडीमा प्रवेश करे, बीजे समये ऊर्य लोकमां जाय, भने चोथे समये लोकनाडी बहार जइ उत्पत्तिस्थाने उपजे. अहीं भादिना प्रण समये विग्रह गति होय छे. अन्य आचार्य एम कहे छे के चार समयनी पण विग्रहगति संभवे छे-जेम- कोई जीव अधोलोकमा असनाडीनी बहार विदिशामाथी ऊर्ध्वलोकमां प्रसनाटीनी बहार विदिशामा उत्पन्न थाय त्यारे त्रण समय पूर्वनी पेठे जाणवा; चोथे समये त्रसनादीथी बहार नीवळी समश्रेणिमां भावे, अने पांचमे समये उत्पत्तिस्थाने उत्पन्न थाय. तेमा भादिना चार समये विग्रह गति होय छे, अने तेमा ते अनाहारक होय छे; पण सूत्रमा आ वात बतावी नथी, कारण के प्रायः आवी रीते कोई जीव उपजतो नथी, जुगो(भ. टी. प. २८७-२). . *२. सात नारकोनो एक दंडक, असुरादि दश भुवनपतिना दश दंडक, पृथ्व्यादि पांच स्थावरना पांच दंडक, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चंउरिन्द्रियना प्रण दंडक, गर्भज तिर्यच भने गर्भज मनुष्यनो एक एक दंडक, व्यन्तर ज्योतिषिक भने वैमानिकनो एक एक दंडक-ए रीते चोवीश दण्डको जाणवा. जे नारकादि प्रस जीवो मरीने प्रसने विषे उत्पन्न थाय, तेनुं त्रसनाडीथी बहार जवु भाववु न थाय माटे ते त्रीजे समये अवश्य आहारक होय. जेम, कोइ मत्स्यादि जीव भरतक्षेत्रना पूर्वभागथी ऐरक्तक्षेत्रना पश्चिमभागनी नीचे नरकमा उतान्न थाय, ते एक समये भरतना पूर्वभागथी पश्चिमभाग तरफ जाय, थीजे समये ऐरयतना पश्चिमभाग तरफ जाय अने त्रीजे समये नरकमा जाय. जुओ (भ. टी. प. २८८-२). अहीं शराव-चपणीआ-ने उधुं वाळी तेना उपर कलश मूकेलो होय तेवू शराव लेवू, केमके ते शिवाय केवल शरावनी साधे लोकसंस्थानk सादृश्य घटी शक्तुं नथी. जुमओ-(भ. टी. प. २८९-२). Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक १: भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६.प्र०] समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चपखाए भवद, पुढविसमारंभे अपञ्चक्खाए. भवंह से य पुढविं खणमाणे अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेजा, से णं भंते! तं वयं अतिचरति ? [उ०] णो तिणट्टे समढे, 'नो खलु से तस्स अतिवायाए आउद्दति । ७. [३०] समणोवासयस्स णं भंते ! पुवामेव वणस्सइसमारंभे पञ्चक्खाए, से य पुढवि खणमाणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेजा, से णं भंते ! तं वयं अतिचरति ? [उ०] णो तिणटे समढे, नो खलु से तस्स अइवायाए आउद्दति । ८. [प्र०] समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-पसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलामेमाणे किं लग्भट उ०] गोयमा! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलामेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलंभइ । १.०] समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा जाव पडिलामेमाणे किं चयति [उ०] गोयमा! जीवियं चयति, दुच्चयं चयति, दुकरं करेति, दुल्लह लहइ, बोर्हि बुज्झइ; तओ पच्छा सिज्झति, जाव अंतं करेति । १०. [प्र०] अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति ? [उ०] हंता, अत्थि । ११. [३०] केहं णं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति ? [उ०] गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं, 'बंधणछेयणयाए, निरिंधणयाए, पुवप्पओगेणं अकम्मस्स गती पंचायति । १२. प्रि०] कहं णं भंते ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गइपरिणामेणं अकम्मस्स गती पन्नायति ? [उ०1 से जहानामएं केइ पुरिसे सुकं तुंवं निच्छिडं निरुवयं आणुपुब्बीए परिकम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता अट्राहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ, लिंपित्ता उण्हे दलयति, भूतिं भूतिं सुकं समाणं अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उद्गंसि पक्खिवेजा, से ६. [प्र०] हे भगवन् ! जे श्रमणोपासकने पूर्व त्रसजीवोना वधनुं प्रत्याख्यान होय अने पृथ्वीकायना वधनुं प्रत्याख्यान न होय, ते प्रतातिधार. पृथ्वीने खोदता जो कोई त्रस जीवनी हिंसा करे तो हे भगवन् ! तेने ते व्रतमा अतिचार लागे ? [उ०] हे गौतम ? ए अर्थ योग्य नथी. कारण के ते (श्रावक ) तेनो वध करवा प्रवृत्ति करतो नथी.* ७. [प्र०] हे भगवन् ! श्रमणोपासके पूर्वे वनस्पतिना वधनुं प्रत्याख्यान कर्यु होय, ते पृथिवीने खोदता कोई एक वृक्षना मूळने छेदी नांखे तो तेने ते व्रतनो अतिचार लागे? [उ.] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. कारण के ते तेना (वनस्पतिना) वध माटे प्रवृत्ति करतो नथी. ८. प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना (उत्तम ) श्रमण या ब्रिाह्मणने प्रासुक (अचित्त-निर्जीव ) अने एषणीय (दोषरहित इच्छवा योग्य ) अशन, पान, खादिम अने खादिम आहार वडे प्रतिलाभता-सत्कार करता श्रमणोपासकने शो लाभ थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने यावत् प्रतिलाभतो श्रमणोपासक तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने समाधि उत्पन्न करे छे, अने समावि करनार (श्रावक) ते समाधिने प्राप्त करे छे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! तथारूप श्रमणने यावत् प्रतिलाभतो श्रमणोपासक शेनो त्याग करे ? [उ० ] हे गौतम ! जीवितनो (जीवननिर्वाहना कारणभूत अन्नादिनो) त्याग करे, दुस्त्यज वस्तुनो त्याग करे, दुर्लभ वस्तुने प्राप्त करे, बोधि-सम्यग्दर्शननो अनुभव करे, त्यार पछी सिद्ध थाय; यावत् (सर्व दुःखनो) अंत करे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय ? [उ०] हे गौतम ! हा, खीकाराय. कमरहित जीवनी गति. ११. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मरहित जीवनी गति केवी रीते स्वीकाराय ? [उ०] हे गौतम ! निःसंगपणाथी, नीरागपणाधी, गतिना परिणामथी, बंधननो छेद थवाथी, निरिंधन थवाथी-कर्मरूप इन्धनथी मुक्त थवाथीं अने पूर्वप्रयोगथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे. १२. [प्र०] हे भगवन् ! निःसंगपणाथी, नीरागपणाथी अने गतिना परिणामथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ? [उ.] हे गौतम ! जेम कोई एक पुरुष छिद्र विनाना, नहि मांगेला सुका तुंबडाने क्रमपूर्वक अत्यंत संस्कार करीने डाभ अने कुश वडे वींटे, त्यार पछी तेने माटीना आठ लेपथी लीपे, लीपीने तापमां सुकवे, ज्यारे ते तुंबडं अत्यंत सुकाय त्यारे ताग विनाना अने न तरी शकाय तेवा पुरुष मावर्तते-प्रवर्तते इत्यर्थः। २ तामेव ख। ३ दुचयं ख। ४ 'कहं गं, कहण्णं, कहणं, कहलं, कह नं' इत्येवं विकरूपात्मकानि पहुधा रूपाणि उपलभ्यन्ते, परमत्र 'कहं गं' इत्येवमेधैव पाठो न्यस्तः। ५ निरंधणयाए कविना अन्यत्र । ६ पनत्ता क। . 'वंधणछेयणयाए निरंधणयाए पुज्वपओगेणं' इत्यधिकः पाठः क विना अन्यत्र । ८ परिक्कमेमाणे ख। ९ भूइ भूई ख। १० मपोरसियंसि क विनाऽन्यत्र । ६. * सामान्यरीते देशविरति श्रावकने संकल्पपूर्वक हिंसानु प्रत्याख्यान होय छे, तेथी ज्या सुधी ते जेनी हिंसानु प्रत्याख्यान कर्यु होय तेनी संकल्पपूर्वक हिंसा करवा प्रवृत्ति न करे त्यां सुधी तेने ते व्रतमा दोष लागतो नथी. ___८. ब्राह्मण स्वरूप जुओ-(उत्त० अ. २५. गा. १९-३४) . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखी जीव दुःखभी व्याप्त होय. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे- शतक ७. - उद्देशक १. गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं गुरुयन्तार, भारियन्ताप, गुरुसंभारियप्ताए सलिलतलमतिवत्ता अहे घरतिलपट्ठाणे भवइ ? हंता, भवइ । अहे णं से तुंबे तेसि अट्ठण्हं महियालेवाणं परिक्खपणं धरणितलमतिवद्दता उप्पि सलि1 लतलपट्टाणे भवइ ? हंता, भवइ । एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गइपरिणामेणं अकम्मस्स गती पन्नायति । ४ १३. [प्र०] कहं णं भंते! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गई पत्ता ? [30] गोयमा ! से जहानामए कलसिंबलिया ए वा, मुग्गसिंबलिया इवा, माससिंबलिया इवा, सिंबलिसिंबलिया इवा, एरंडर्मिजिया ६ वा उण्हे दिना सुँक्का समाणी डित्ता णं एतमंतं गच्छा, एवं खलु गोयमा ! । १४. [प्र०] कहं णं भंते! निरिधैणयाए अकम्मस्स गती ? [अ०] गोयमा ! से जहानामए धूमस्स इंधणविप्पमुकस्स उद्धं बीससार निव्वाघाएणं गती पवत्तति, एवं खलु गोयमां ! . । १५. [प्र०] कहूं णं भंते पुञ्वप्पओगेणं अकम्मस्त गती पंनत्ता ? [अ०] गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडचिप्पमुकस्स लफ्खाभिमुही निव्वाघापणं गती पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! पुब्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायते, एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए, निरंगणयाए, जाव पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नता । १६. [प्र०] दुक्खीणं भंते ! दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी दुक्त्रेणं फुडे ? [अ०] गोयमा ! दुक्खी दुफ्खेणं फुंडे, नो अदुखी दुखणं फुडे । १७. [०] दुक्खीणं भंते । नेरतिए दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी नेरतिए दुक्खणं फुडे १ [अ०] गोयमा ! दुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरतिए दुक्खणं फुडे । एवं दंडओ, जाव बेमाणिआणं । एवं पंच दंडगा नेयव्वा - १ दुक्खी दुखणं फुडे, २ दुक्खी दुक्खं परियायइ, ३ दुक्खी दुक्खं उदीरेह, ४ दुक्खी दुक्खं वेदेति, ५ दुक्खी दुक्खं निज्जरेति । प्रमाणथी अधिक (उँडा) पाणीमां तेने नांखे, हे गौतम! खरेखर ते तुंबडुं माटीना आठ लेप वडे गुरु थयेलं होवाथी, भारे थवाथी अने अधिक वजन वालुं होवाथी पाणीना उपरना तळीआने छोडी नीचे पृथिवीने तळीए जइ बेसे ! हा बेसे. हवे ते माटीना आठ लेपनो क्षय थाय त्यारे ते तुंबडुं पृथिवीना तळने छोडी 'पाणीना तळ उपर आवीने रहे? हा रहे. ए प्रमाणे हे गौतम ! निःसंगपणाथी, नीरागपणाथी अने गतिना परिणामथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे. १३. [प्र०] हे भगवन् ! बंधननो छेद थवाथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक वटाणानी शिंग, मगनी, शिंग, अडदनी शिंग, सिंबलिनी (शेमळानी) शिंग अने एरंडानुं फल तडके मुक्या होय अने सुकाय त्यारे ते फुटीने (तेमांना बीज) पृथ्वीनी एक बाजुए जाय; ए प्रमाणे हे गौतम! बंधननो छेद थवाथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे. १४. [प्र० ] हे भगवन् ! निरिंधन ( कर्मरूप इन्धनथी मुक्त ) थवाथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय : [ उ०] हे गौतम! इन्धनथी छूटेला घूमनी गति स्वाभाविक रीते प्रतिबन्ध शिवाय उंचे प्रवर्ते छे, ए प्रमाणे हे गौतम! [ निरिंधनपणाथी - कर्मरूप इन्धनयी मुक्त यवाथी कर्मरहित जीवनी गति प्रवर्ते छे. ]. १५. [प्र० ] हे भगवन् ! पूर्वना प्रयोगथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक धनुषथी छूटेला बाणनी गति प्रतिबन्ध शिवाय लक्ष्यना सन्मुख प्रवर्ते छे, तेम हे गौतम! पूर्वप्रयोगथीं कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे, हे गौतम !, ए प्रमाणे निःसंगताथी, नीरागताथी, यावत् पूर्वप्रयोगथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे. * १६. [प्र० ] हे भगवन् ! दुःखी जीव दुःखथी व्याप्त - बद्ध होय के अदुःखी - दुःखरहित जीव दुःखथी व्याप्त होय ! [उ०] हे गौतम ! दुःखी जीव दुःखथी व्याप्त होय, पण दुःखरहित जीव दुःखथी व्याप्त न होय. १७. [प्र०] हे भगवन् ! दुःखी नारक दुःखथी व्याप्त होय के अदुःखी नारक दुःखथी व्याप्त होय! [उ०] हे गौतम ! दुःखी नारक दुःखथी व्याप्त होय, पण दुःखरहित नारक दुःखथी व्याप्त न होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकने विषे दंडक कहेवो. ए प्रमाणे पांच दंडक जाणवा - १ दुःखी दुःखथी व्याप्त छे, २ दुःखी दुःखने ग्रहण करे छे, ३ दुःखी दुःखने उदीरे छे, ४ दुःखी दुःखने वेदे छे, ५ दुःखी दुःखनी निर्जरा करे छे. १ महियालेवेणं क विनाऽन्यत्र । २ सुक्खा क। ३ णिरंधणताए क विना अन्यत्र । १६. * दुःखना कारणभूत मिथ्यात्वादिक कर्म पण दुःख कहेवायछे. टीका. For Private Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. श्री वाक्यर पि महावीर शेन क शतक ७.–उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १८. [प्र० ] अणगारस्स णं भंते । अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स था, अणाउतं वेत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कजइ ? [अ०] गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ । [प्र०] से केणट्टेणं ? [अ०] गोयमा ! जस्स णं कोह- माण- माया लोभा वोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज, जस्स णं कोह-माण- माया-लोभा अवोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जर, नो इरियावहिया किरिया कज्जर; अहासुतं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जर, उस्तुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जर से णं उस्स्रुत्तमेव रियति से तेणट्टेणं । ५ १९. [प्र०] अह भंते ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुट्ठस्स पाण- भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिजं असण- पाण- खाइम - साइमं पेंडिग्गाहेत्ता मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अज्झोववन्ने आहारं आहारेति, एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण-भोयणे । जे णं निग्गंथे वा, निग्गंथी वा फासु-एसणिजं असण- पाण- खाइमसाइमं डिग्गाहिता महया अप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारं आहारेद, एस णं गोयमा ! सधूमे पाण-भोयणे । जेणं निग्गंथे वा जाव पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहेउ अन्नदव्वेणं सद्धि संजोएत्ता आहारं आहारे, एस णं गोयमा ! संजोयणादोसदुट्ठे पाण-भोयणे । एस णं गोयमा ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुट्ठस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पन्नत्ते । मे २०. [प्र०] अह भंते ! वीर्तिगालस्स, वीयधूमस्स, संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? [30] गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा जाव पडिग्गाहेत्ता अमुच्छिए जाव आहारेति, एस णं गोयमा ! वीर्तिगाले पाण-भोयणे । जे गं निग्गंथे निग्गंथी वा जाव पडिग्गाहेत्ता णो महयाअप्पत्तियं जाव आहारेइ, एस णं गोयमा ! वीयधूमे पाण-भोयणे । जेणं निग्गंथे निग्गंधी वा जाव पडिग्गाद्देत्ता जहा लद्धं तहा आहारं आहारेद, एस णं गोयमा ! संजोयणादोसविप्पमुक्के पाणभो । एस णं गोयमा ! वीर्तिगालस्स, वीयधूमस्स, संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पन्नत्ते । २१. [प्र०] अह भंते! खेत्तातिकंतस्स, कालातिक्कतस्स, मग्गातिकंतस्स, पमाणातिकंतस्स पाण-भोयणस्स के अट्ठे पन्नन्ते ? [30] गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फासु-एसणिजं असण- पाण- खाइम - साइमं अणुग्गए सुरिए पडिग्गाहेत्ता १८. [प्र०] हे भगवन् ! उपयोग ( आत्मजागृति, सावधानता ) शिवाय गमन करता, उभा रहेता, बेसता अने सूता, तेमज उपयोग ऐर्यापथिकी अने शिवाय वस्त्र, · पात्र, काम्बल अने पादप्रच्छनक (रजोहरण ) ने ग्रहण करता ने मुकता अनगार (साधु) ने हे भगवन् ! ऐर्यापथिकी क्रिया सां परायिकी किया. लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे ? [अ०] हे गौतम! ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे. [प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी ! [ उ० ] हे गौतम! जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ व्युच्छिन्न-क्षीण थया छे तेने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे छे, पण सांपरायिकी क्रिया लागती नथी. जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ व्युच्छिन्न थया नथी तेने सांपरायिकी क्रिया लागे छे, पण ऐर्यापथिकी क्रिया लागती नथी. सूत्र अनुसारे वर्तता साधुने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे छे, अने सूत्रविरुद्ध वर्तनारने सांपरायिकी क्रिया लागे छे, ते [ उपयोग रहित साधु ] सूत्र विरुद्ध वर्ते छे ते माटे हे गौतम! [तेने सांपरायिकी क्रिया लागे छे..] १९. [प्र०] हे भगवन् ! अंगारदोषसहित, धूमदोषसहित अने संयोजनादोष वडे दुष्ट पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? [उ०] हे सदोष पानभोजनगौतम ! कोइ निर्ग्रन्थ-साधु या साध्वी प्रासुक अने एषणीय अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारने ग्रहण करी मूच्छित, गृद्ध, प्रथित अने आसक्त थइने आहार करे तो हे गौतम! ए अंगारदोषसहित पानभोजन कहेवाय. वळी जे कोइ साधु या साध्वी प्रासुक एषणीय अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारने ग्रहण करी अत्यंत अप्रीतिपूर्वक क्रोधथी खिन्न थइने आहार करे तो हे गौतम! ए धूमदोषसहित पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् [ आहारने ] ग्रहण करीने गुण (खाद ) उत्पन्न करवा माटे वीजा पदार्थ साथै संयोग करीने आहार करे तो हे गौतम ! ए संयोजनादोष वडे दुष्ट पानभोजन कहेबाय. हे गौतम! ए प्रकारे अंगारदोष, धूमदोष अने संयोजनादोषथी दुष्ट पानभोजननो अर्थ कह्यो. २०. [प्र०] हे भगवन्! हवे अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित अने संयोजनादोषरहित पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! निदॉप पानभोजनजे कोई निर्ग्रन्थ [के निर्ग्रन्थी] यावत् [ आहारने ] ग्रहण करीने मूर्च्छारहित यावत् आहार करे, ते हे गौतम! अंगारदोषरहित पानभोजन कवाय बळी जे कोइ निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी यावत् ग्रहण करीने अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक यावत् आहार न करे, हे गौतम! ए धूमदोषरहित पानभोजन कहेवाय. जे कोइ निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी यावत् ग्रहण करीने जेवो प्राप्त थाय तेवोज आहार करे [परन्तु खाद माटे बीजा साथै संयोग न करें], हे गौतम! ए संयोजनादोषरहित पानभोजन कहेवाय. आ अंगारदोषरहित, धूमदोपरहित अने संयोजनादोषरहित पानभोजननो अर्थ कह्यो छे. २१. [प्र० ] हे भगवन् ! हवे क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! कोइ साधु या साध्वी प्रासुक अने एप्रणीय अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारने सूर्य उग्या पहेला ग्रहण करी सूर्य १ वच्छं ख । २ विच्छिना ख । ३ संपरायकिरिया घ । 'पडिग्गाहेता, पढिगाहेता, पडिग्गाहिता, पडिगाहिता, परित्ता, Jain Educat डिराता पढिग्गहित्ता, पडिगहित्ता' इत्येवं विकल्पात्मकानि बहुशो रूपाणि उपलभ्यन्ते । अप्पत्तियको छ। - एसणिजेणं ख । क्षेत्रातिक्रान्तादि पानभोजन. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमातीतादि पानभोजन. ६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७. - उद्देशक १. उग्गए सूरिए आहारं आहारेति, एस णं गोयमा ! वित्तातिकंते पाण-भोयणे । जेणं निग्गंथो वा जाव साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाता पच्छिमं पोरिसिं उवायणावेत्ता आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा ! कालातिक्कंते पाण-भोयणे । जे जं णिग्गंथो वा जाव साइमं पडिग्गाहित्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइकमावइत्ता आहारमाहारेड, एस णं गोयमा ! मग्गातिकंते पाण-भोयणे । जेणं निग्गंथो वा, निग्गंधी वा फासु-एसणिजं जाव साइमं पडिग्गाहित्ता परं यत्तीसाए कुकुडिअंडगपमाणमे'ताणं कवलाणं आहारं आहारेह, एस णं गोयमा ! पमाणाइकंते पाण-भोयणे । अट्टू कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कुकुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अवड्डोमोयरिया, सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे दुभागप्पत्ते, चउब्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाणे जाव आहारं आहारेमाणे ओमोदरिया, बत्तीसं कुडिअंडगमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे पमाणपत्ते, पत्तो पैक्केण वि द्यासेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे नो 'कामरसभोईत्ति वत्तव्वं सिया । एस णं गोयमा ! खेत्तातिकंतस्स, कालातिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणातिकंतस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पत्ते । २२. [प्र० ] अह भंते! सत्थातीयस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स, बसियस्स, सामुदाणियैस्स पाण-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ? [अ०] गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा निक्खित्तसत्थमुसले ववगयमाला-वन्नग विलेवणे ववगयचुयच यचतदेहं जीवविष्पजढं, अकयं, अकारियं, असंकप्पियं, अणाहूयं, अकीयकडं, अणुद्दिद्धं, नवकोडीपरिसुद्धं, दसदोसविप्पमुक्कं, उग्गमु-प्पायणेसणासुपरिसुद्धं, वीर्तिगालं, वीतधूमं संजोयणादोसविप्पमुक्कं, सुरसुरं, अचवचवं, अदुयं, अविलंबियं अपरिसाडि, अक्खोवंजण- वैणाणुलेवणभूयं, संजमजायामायावत्तियं, संजमभारवहणट्टयाए बिलमिव पन्नगभूषणं अप्पाणेणं आहारे आहारेति, एस गोयमा ! सत्थातीयस्स, सत्यपरिणामियस्स जाव पाण-भोयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते । सेवं भंते, सेवं भंते ! त्ति । सत्तमसए पढमो उद्देसो समत्तो । उग्या पछी खायु, हे गौतम ! ए क्षेत्रातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् खादिम आहारने पहेला पहोरमा ग्रहण करी छेला पहोर सुधी राखीने पछी तेनो आहार करे, हे गौतम! आ कालातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् स्वादिम आहारने ग्रहण करीने अर्धयोजननी मर्यादाने ओळंगी पछी खाय, हे गौतम! ए मार्गातिकान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु के साध्वी प्रासुक अने एषणीय यावत् स्वादिम आहारने ग्रहण करीने कुकडीना इंडाप्रमाण बत्रीशथी अधिक कवल खाय, हे गौतम! ए प्रमाणात - क्रान्त पानभोजन कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र आठ कवलनो आहार करनार साधु अल्पाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बार कवलनो आहार करनार साधुने कांइक न्यून अर्ध ऊनोदरिका' कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र सोल कोळीआनो आहार साधु द्विभागप्राप्त - अर्धाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र चोवीश कवलना आहार करनार साधुने ऊनोदरिका कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बीश कवलनो आहार करनार साधु प्रमाणप्राप्त - प्रमाणसर भोजन करनार कहेवाय. तेथी एक पण केवल ओछो आहार करनार साधु 'प्रकामरसभोजी - अत्यन्त मधुरादि रसनो भोक्ता' ए प्रमाणे न कही शकाय हे गौतम! ए प्रमाणे क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजनंनो अर्थ कह्यो छे. २२. [ प्र० ] हे भगवन् ! शस्त्रातीत ( अग्निवगेरे शस्त्रथी उतरेलो), शस्त्रपरिणामित ( अग्निवगेरे शस्त्रथी परिणाम पामेलों - अचित्त करायेलो), एप्रित (एषणा दोषथी रहित), व्येषित ( विविध या विशेषतः एषणादोषथी रहित ) सामुदायिक - भिक्षारूप पान भोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! कोइ साधु या साध्वी जे शस्त्र अने मुशलादिरहित छे, तेम पुष्पमाला अने चन्दनना विलेपन रहित छे तेओ कृम्यादि जन्तु रहित, निर्जीव, [ साधुने माटे ] नहि करेल, नहि करावेल, नहि संकल्पेल, अनाहूत - आमन्त्रण रहित, नहि खरीदेल, औदेशिक रहित, * नवकोटि विशुद्ध, शिंकितादि दशदोष रहित, उद्गम अने उत्पादनैषणाना दोषथी विशुद्ध, अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित, संयोजनादोषरहित, सुरसुरके, चपचप शब्द रहित पणे, बहु उतावळथी नहि तेम बहु धीमेथी नहि, [आहारना ] कोइ भागने छोड्या शिवाय, 'गाडानी धरीना मेलनी पेठे के व्रण उपरना लेपनी पेठे, केवळ संयमना निर्वाहने माटे, संयमना भारने वहन करवा अर्थे जेम साप विलमां पेसे ते पोते आहार करे, हे गौतम! ए शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित यावत् पानभोजननो अर्थ को छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् 1 ते एमज छे, [ एम कही गौतम ! यावत् विचरे छे ]. सप्तम शतके प्रथम उद्देशक समाप्त. - १ चडवीसं ख । -२ ऊनोदरिए ख, ओमोदरिए घ । ३ एकेण ख । ७- वनभूयं ख । ८- गब्भूपुर्ण ख । ४ गाणं घ । ५ समुदा ख ग ६ अपरिसाठी ख २२ १ २ हणावे ३ हणतांने अनुमोदे, ४ रधि ५ रंधावे, ६ रांधताने अनुमोदे, ७ खरीद करे ८ खरीद करावे अने ९ खरीद करताने अनुमोदे + जुओ- (पिंडनिर्युक्ति, गा. ५२० ) उद्गमएषणाना आधाकर्मादि १६ दोष छे, जुओ - ( पिंडनिर्युक्ति, गा. ९२-९३ ). उत्पादनेपणाना धात्रीपिंडादि १६ दोष छे, जुओ - ( पिंड निर्युक्ति, गा. ४०८-४०९). Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बितीओ उद्देसो. १. [ प्र० ] से णूणं भंते ! सहपाणेहिं, सद्यभूपहिं, सधजीवेहिं, सङ्घसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपायं भवति पयस्यायं भवति ? [४०] गोयमा सहपाणेहिं जाय सवसरोर्द्वि पथक्वायमिति यमाणस्स सिय सुपायं भवति, सिय पच्चक्खायं भवति । [ प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सष्वपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं जाव सिदुपायं भवति ? [30] गोयमा ! जस्स णं सहपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं पचपखायमिति वदमाणस्य णो पर्य अभिसमन्नागवं भवति इमे जीया, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे धावरा, तस्स व सक्षपाहि जाय सहसत्तेहिं पश्यफ्लावमिति वदमाणस्स नो सुपायं भवति, दुपश्यंसायं भवति । एवं खलु से दुपचपसाई सहपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं पच्चस्तायमिति वेदमाणे नो खयं भा मासा, मोसं भासं भासह । एवं खलु से मुसावाई सपाहिं जाव सहसतेहिं तिविद्धं तिविद्वेणं असंजय - विरय-पहिय-पचपायपायकम्मे, सकिरिए, असंबुडे, एगंतदंडे, एगंतवाले यावि भवति । जस्स णं सङ्घपाणेहिं जाच ससतेहि पथक्वायमिति यमाणस्स एवं अभिसमप्रागयं भवद्द दमे जीवा इमे अजीया इमे तसा हमे धारा, तस्स व सहपाणेहिं जाव ससत्तेि पथक्वायमिति यमाणस्स सुपंथपसायं भवति, नो दुपधपसायं भवति । एवं खलु से सुपथक्साई सपाहिं जाय स सत्ते पचखायमिति वयमाणे सच्चं भासं भासह, नो मोसं भासं भासइ । एवं खलु से सच्चवादी सधपाणेहिं, जाव सबसतेहि तिविहं तिविहेणं संजय विरय-पडिहय-पञ्चकखायपावकम्मे, अकिरिए, संबुडे, एगंतपंडिए यावि भवति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं सुधर जाब विचायं भवति । द्वितीय उद्देशक, प्रत्याख्यान. १. [प्र०] हे भगवन्! 'सर्व प्राणोमां, सर्व भूतोमां, सर्व जीवोमां अने सर्व सत्त्वोमां में [हिंसानुं] प्रत्याख्यानं कर्तुं छे' ए प्रमाणे बोलना- सुप्रयाख्यान भने दु रने सुप्रत्याख्यान थाय के दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम! 'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्त्वोमां प्रत्याख्यान कयुं छे' ए प्रमाणे बो कदाच सुप्रत्याख्यान थाय अने कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-सर्व प्राणोमां यावत् सर्वं सत्त्वोमां यावत् कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम ! 'सर्व प्राणोमां यावत् सर्वं सत्त्वोमां प्रत्याख्यान कयुं छे' ए प्रमाणे बोलनार जेने आवा प्रकारं ज्ञान न होय के “आ जीवो छे, आ अजीवो छे, आ त्रसो छे, ओ स्थावरों छे!" तेने 'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सपोमां प्रत्याख्यान कर्तुं छे' ए प्रमाणे कहेनारने-सुप्रत्याख्यान न थाय, पण दुष्प्रत्याख्यान थाय. ए रीते खरेखर ते दुष्प्रत्याख्यानी 'सर्व प्राणिओमां यावत् सर्व दुष्प्रत्याख्यान थाय सच्चोमां प्रत्याख्यान कर्तुं छे' एम बोलतो सत्य भाषा बोलतो नाची, असला भाषा बोले छे. ए प्रमाणे ते मृषावादी सर्व प्राणोमां यावत् सर्व ए सत्त्वोमां त्रिविधे त्रिविधे असंयत - संयमरहित, अविरत - विरतिरहित, जेणे पापकर्मनो त्याग के प्रत्याख्यान कर्तुं नथी एवो, सक्रिय — कर्मबन्धसहित, संवररहित, एकान्त दण्ड एटले हिंसा करनार अने एकान्त अज्ञ छे. सर्व प्राणोमां यावत् 'सर्व सत्त्वोमां प्रत्याख्यान कर्तुं छे' प्रमाणे बोलनार जेने आज्ञान होय के “आ जीवो छे, आ अजीबो छे, आ त्रसो छे, आ स्थावरो छे," तेने- 'सर्व प्राणोमां यावत् सबै सत्त्वोमां प्रत्यारूपान कर्त्तुं छे' र प्रमाणे बोलनारने प्रत्याख्यान थाय दुष्प्रत्याख्यान न थाप. ए प्रमाणे खरेखर ते प्रत्याख्यानी 'सूर्यायानं पाय प्राणोमां यावत् सर्व सत्यां प्रत्याख्यान व छे एम वोलतो सत्य भाषा बोले छे, मृपा भाषा बोलतो नथी. ए रीते ते सुप्रलापानी, सत्यभाषी, सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्त्वोमां त्रिविधे त्रिविधे संयत, विरति युक्त, जेणे पापकर्मनो घात ने प्रत्याख्यान कर्तुं छे एवो, अक्रियकर्मबंधरहित, संवरयुक्त एकान्त पंडित पण छे. हे गौतम! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के यावत् कंदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय. मो / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७:-उद्देशक. २. ___२. [४०] कतिविहे गं भंते ! पश्यपणाणे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुविहे पथक्त्राणे पाते, तं अदा-मूलगुणपञ्चक्खाणे य उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । ३. [प्र०] मूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिषिहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे पाते, तं जपा-सक्षमूलगुणपश्यक्खाणे य देसमूलगुणपश्चक्खाणे य । ४. [प्र०] सधमूलगुणपश्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे पाते, सं जहा-सधाओ पाणाइयायाओ वेरमणं, जाव सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं । ५. [प्र०] देसमूलगुणपश्चपखाणे णं भंते ! काविहे पन्नते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पनत्ते, सं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ रमणं, जाव थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं । ६. [प्र०] उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [३०] गोयमा! दुविहे पाते, सं जहा–सधुत्तरगुणपत्रक्खाणे य देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । ७. [प्र०] सवुत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! इसविहे पनते, तं जहा "अणागयमइकत कोडीसहियं 'नियंटियं चेद । सौगारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं॥ साकेयं चेव अद्धाए पश्चक्खाणं भवे सहा ।" प्रत्याख्यान. २. [प्र.] हे भगवन् ! केटला प्रकारे पच्चक्खाण कथु छे ! [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारे पञ्चक्खाण कथं छे. ते आ प्रकारे-मूलगुणपञ्चक्खाण अने उत्तरगुणपञ्चक्खाण. ३. [प्र०] हे भगवन् ! मूलगुणपञ्चक्खाण केटला प्रकारचें कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! मूलगुण प्रत्याख्यान वे प्रकारचें कहुं छे, ते आ प्रकारे सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान अने देशमूलगुणप्रत्याख्यान. मूलगुणप्रत्याख्यानना प्रकार. सर्वमूलगुणप्रत्या- ख्यानना प्रकार. १. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम! सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान पांच प्रकारे कर्वा छे ते आ प्रमाणे सर्व प्राणातिपातथी विराम पामवो, यावत् सर्व मृषावादथी विराम पामवो. देशमूलगुणप्रत्याख्यानना प्रकार. ५. [प्र०] हे भगवन् ! देशमूलगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! देशमूलगुणप्रत्याख्यान पांच प्रकारे कह्यु छे ते आ प्रमाणे-स्थूलप्राणातिपातथी विरमण, यावत् स्थूलमृषावादथी विरमण. उत्तरगुणप्रत्याख्या नना प्रकार. ६. [प्र०] हे भगवन् ! उत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! [उत्तरगुणप्रत्याख्यान ] चे प्रकारे कयुं छे; ते आ प्रमाणे सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान अने देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान. सर्वोत्तरगुणप्रत्यास्यानना प्रकार. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान दिश प्रकारे कर्तुं छे; ते आ प्रमाणे-१ अनागत, २ अतिक्रान्त, ३ कोटिसहित, ४ नियन्त्रित, ५ साकार, ६ अनाकार, ७ कृतपरिमाण, ८ निरवशेष, ९ संकेत, १० अद्धा प्रत्याख्यान. ए रीते प्रत्याख्यान दश प्रकारे कयुं छे. ७. सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानना दश प्रकारचं खरूप-१ भविष्यमा जे तप करवानो छे ते पूर्वे करवो ते अनागत तप. जेम, पर्युषणा पर्व भावशे स्यारे गुर्वादिनी वेयावच्च करवाथी तप करवामां अडचण यशे एम समजी प्रथम तप करवो. २ पूर्वे करवानो तप पछी करवो ते भतिकान्त तप. जेम, पर्युषणापर्वमा गुर्वादिनी येयावच करवा निमित्ते तप थइ शक्यो नथी एम धारी ते तप पछी करवो. ३ एक तप जे दिवसे पूरो थाय तेज दिवसे पीजो-तप करवो, ए रीते प्रत्याख्याननी आदि अने अन्त कोटी मेळववी ते कोटिसहित तप. ४ नियमित दिवसे विघ्न आव्या छता अवश्य तप करवो ते नियंत्रित -तप. ५ महत्तराकारादि आकार-अपवाद-पूर्वक तप करवो ते साकार तप. ६ महत्तराकारादि आकार शिवाय तप करवो ते निराकार तप. ७ दत्ति (एक साथे एकवार पात्रमा पडेल अन्नादि), कवल, गृह, चीज इत्यादिनुं परिमाण कवू ते परिमाण तप. ८ चार प्रकारना आहारनो त्याग करवो ते निरवशेष तप. ९ मुष्टि इत्यादि संकेतपूर्वक तप करवो ते संकेत तप. १० कालनुं प्रमाण करी पौरुष्यादि तप करवो ते अद्धा तप. जुओ-(भ. टी. प. २९६.) Jain Education international Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १. देसुत्तरगुणपञ्चक्लाणे गं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहे पन्नते, तं जहा-२ दिसिधयं, २ उखभोगपरिभोगपरिमाणं, ३ अन्नत्थदंडवेरमणं, ४ सामाश्यं, ५ देसावगासियं, ६ पोसहोवधासो, ७ अतिहिसंविभागो अपच्छिममारणंतियसलेहणायूसणाऽऽराहणता । ९. [H०] जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपश्चक्खाणी, उत्तरगुणपश्चक्खाणी, अपश्चखाणी १ .[उ०] गोयमा ! जीवा मूलगुणपप्पक्खाणी वि, उत्तरगुणपश्चक्खाणी वि, अपचक्याणी वि। १०. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं मूलगुणपश्चक्खाणी?-पुच्छा [उ०] गोयमा! नेरइया नो मूलगुणपशक्खाणी, नो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी; एवं जाव चउरिदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। ११. [प्र०] एएसि णं भंते ! जीवाणं मूलगुणपशक्खाणीणं, उत्तरगुणपश्चपखाणीणं, अपक्वाणीण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपश्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपक्ष क्खाणी अणंतगुणा । १२.प्र० एएसिणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। उ०] गोयमा! संवत्थोवा जीवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपञ्चपखाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी असंखिजगुणा । १३. [प्र०] एएसि णं भंते ! मणुस्साणं मूलगुणपञ्चक्खाणीणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी संखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा । १४. [प्र०] जीवा णं भंते ! किं सधमूलगुणपश्चक्खाणी, देसमूलगुणपशक्खाणी, अपञ्चक्खाणी ? [उ०] गोयमा ! जीवा सपमूलगुणपञ्चपखाणी, देसमूलगुणपञ्चक्खाणी, अपश्चक्खाणी वि । ८. [प्र०] हे भगवन् ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान *सात प्रकारे देशोत्तरगुणप्रत्या कडं छे, ते आ प्रमाणे-१ दिग्वत, २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडविरमण, ४ सामायिक, ५ देशावकाशिक, ६ पोषधोपवास, ७ 'अतिथिसंविभाग अने अपश्चिममारणान्तिक-संलेखणाजोषणाऽऽराधना. ९. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी के अप्रत्याख्यानी छ ? [उ.] हे गौतम! जीवो जीवो मूलगुणप्रयामूलगुणप्रत्याख्यानी पण छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी पण छे अने अप्रत्याख्यानी पण छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! नारकजीवो शुं मूलगुणप्रत्याख्यानी छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नारको मूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, शुं नारको मूलगुण प्रत्याख्यानी इत्यादि उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण अप्रत्याख्यानी छे. ए प्रमाणे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा. पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्यो जेम जीवो कह्या तेम जाणवा. वानमंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवो जेम नारको कह्या तेम जाणवा. ११. [प्र०] हे भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यावत् विशेषा- मूलगुणप्रत्याख्यानी धिक छे ! [उ०] हे गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी जीवो सौथी थोड़ा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी अनंत- वरनु अरुप ख्यानना प्रकार ख्यानी-वगेरे. गुण छे. १२. [प्र०] हे भगवन् ! ए (पूर्वे कहेला) जीवोमां पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी पंचे- पवेन्द्रियतिथचोर्नु भल्पबहुत्व. न्द्रिय तिर्यंच जीवो सर्वथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. ... १३. [प्र०] हे भगवन् ! ए जीवोमा मूलगुणप्रत्याख्यानी वगेरे मनुष्योनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यो मनुष्यनुं अल्पयजुत्व. सर्वथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यो संख्यातगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी मनुष्यो असंख्यगुण छे. १४. [प्र०] हे भगवन् ! झुं जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे के अप्रत्याख्यानी छे ? [उ० हे जीवो सर्वमूलगुण म याख्यानी वगेरे गौतम ! जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, अने अप्रत्याख्यानी पण छे.' * विशेष माटे जुओ-(उपासक. प. ६-१.) 4. अपधिम-जेना पछी बीजी संलेखना नथी एटले सौथी छेशी, मारणान्तिक-मरणकाले, संलेखना-शरीर अने कपायादिने कृश करनार तपविशेष-नो जोषणा-खीकारकरवा-वडे आराधन कर ते अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाऽऽराधना. देशोत्तरगुणमा दिग्नतादि सात गुणनी गणना करी, अने आ संले. खनानी गणना न करी तेनुं कारण ए छे के दिग्त्रतादि सात गुणो अवश्य देशोत्तरगुणरूप छ, भने आ संलेखनानो नियम नथी, केमके ते देशोत्तरगुणवाळाने देशोत्तरगुणरूप भने सर्वोत्तरगुणवाळाने सर्वोत्तरगुणरूप छे, तो पण देशोत्तरगुणवाळाने पण अन्ते करवा योग्य छे एम जणाववा आठमी संलेखना कही. जुओ (भ. टी. प. २९४-१). Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. १. १५. [प्र०] नेरइयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नेरइया नो सधमूलगुणपश्चक्खाणी, नो देसमूलगुणपञ्चक्खाणी, अप थक्खाणी । एवं जाव चउरिदिया । ६.प्र. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! पंचिदियतिरिक्खजोणिया नो सधमलगणपञ्चस्खाणी. देसमूलगुणपञ्चक्खाणी वि, अपचक्खाणी वि । मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा नेरइया । १७. प्रि०ा एएसि णं भंते ! जीवाणं सधमूलगुणपश्चक्खाणीणं, देसमूलगुणपश्चपखाणीणं, अपचपखाणीण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा! [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा सपमूलगुणपश्चपखाणी, देसमूलगुणपश्चपखाणी असंखेजगणा अपञ्चक्खाणी अणंतगुणा । एवं अप्पाबहुगाणि तिन्नि वि जहा पढमिल्लए दंडए; नवरं सवत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया देसमूलगुणपश्चक्खाणी, अपशक्खाणी असंखेजगुणा । १८. प्र०ा जीवा णं भंते! कि सवउत्तरगुणपञ्चक्खाणी, देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी? [उ०] गोयमा ! जीवा सवुत्तरगुणपञ्चक्खाणी वि तिन्नि वि । पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव, सेसा अपञ्चक्खाणी, जाव वेमाणिया । १९. [प्र०] एएसि णं भंते ! जीवाणं सधउत्तरगुणपञ्चक्खाणीणं० ? [3०] अप्पाबहुगाणि 'तिन्नि घि जहा पढमे दंडप, जाव मणुस्साणं। २०. [प्र०] जीवा णं भंते! किं संजया, असंजया, संजयासंजया? [उ०] गोयमा! जीवा संजया वि, असंजया वि संजयासंजया वि तिन्नि वि, एवं जहेव पनवणाए तहेव भाणियचं जाव वेमाणिया, अप्पाबहुगं तहेव तिण्ह वि भाणियश्वं । २१. [प्र०] जीवाणं भंते ! किं पञ्चक्खाणी, अपश्चक्खाणी, पश्चक्खाणापथक्खाणी ? [उ०] गोयमा ! जीवा पञ्चपखाणी वि तिन्नि वि. एवं मणुस्सा वि तिन्नि वि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आइल्लविरहिया, सेसा सवे अपञ्चक्खाणी, जाव वेमाणिया । नारक. १५. [अ०] नारकोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम! नारको सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण अप्रत्याख्यानी छे. पञ्चेन्द्रियतिर्यंच. १६. प्र०] पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यंचो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे अने अप्रत्याख्यानी छे. जेम जीवो कह्या तेम मनुष्यो जाणवा. जेम नारको कह्या तेम वानमंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको जाणवा. सर्वमूलगुणप्रत्या १७. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यावत् विशेख्यानी बगेरेनुं षाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी जीवो सर्वथी थोडा छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी जीवो असंख्यगुण छे, अने अप्रअल्पवदुधः त्याख्यानी अनंतगुण छे. ए प्रमाणे त्रणे (जीव, पंचेन्द्रियतिर्यंच अने मनुष्यना) अल्पबहुत्वो प्रथम दंडकमां सू० ११, १२, १३] कह्या प्रमाणे जाणवा, परंतु सर्वथी थोडा पंचेन्द्रिय तिर्यंचो देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, अने अप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो असंख्यगुण छे. सर्वोत्तरगुणप्रत्या १८. प्र०] हे भगवन्! शुं जीवो सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी छे, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी छे, के अप्रत्याख्यानी छे ! [उ०] हे ख्यानी.वगेरे जीवो. गौतम! जीवो सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी विगेरे त्रणे प्रकारना छे. पंचेन्द्रिय तिर्यंचो अने मनुष्यो ए.प्रमाणे छे. बाकीना वैमानिक सुधीना __जीवो अप्रत्याख्यानी छे. सर्वोत्तरगुणप्रत्या- १९. प्र०] हे भगवन् । सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यावत् विशे ____षाधिक छे! [उ०] त्रणे अल्पबहुत्वो प्रथम दंडकमां कह्या प्रमाणे यावत् मनुष्योने जाणवा. मरुपबहुत्व. संयत, असंयत, २०. प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो संयत छे, असंयत छे के संयतासंयत (देश संयत) छे ! [उ०] हे गौतम! जीवो संयत भने देशसंयत. पण छे, असंयत पण छे, अने संयतासंयत पण छे-ए त्रणे प्रकारना छे. ए प्रमाणे जेम “पन्नवणामां कर्तुं छे ते प्रमाणे यावत् वैमानिकोने अहीं कहेवू, तेम अल्पबहुत्व पण त्रणेनुं कहे. प्रत्याख्यानी विगेरे. २१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानी छे, अप्रत्याख्यानी छे, के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी (देशप्रत्याख्यानी) छे ! [उ०] हे गौतम! जीवो प्रत्याख्यानी विगेरे त्रणे प्रकारना छे. ए प्रमाणे मनुष्यो पण त्रणे प्रकारना छे. पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको प्रथमभंगरहित छे. बाकीना वैमानिक सुधीना सर्व जीवो अप्रत्याख्यानी छे. चक्खाणा भ-घ। २ तिति विख। ।मणूसाणं घ। । अस्संजया घ। ५ वि एवं ति-घ। ६ मणुस्साण पिघ। २०. * प्रज्ञा० पद. ३, प. १३७-२ सू.७०, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक २. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२. [प्र०] एएसिणं भंते! जीवाणं पच्चक्खाणीणं जाव विसेसाहिया वा? [उ.] गोयमा । सवत्थोवा जीवा पक्षक्खाणी, पञ्चक्त्राणापञ्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी अणंतगुणा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सश्वत्थोवा पणखाणापञ्चक्खाणी, अपञ्चक्वाणी असंखेजगुणा । मणुस्सा सवत्थोवा पञ्चक्खाणी, पथक्खाणापच्चक्खाणी संखेजगुणा, अपचक्खाणी असंखेजगुणा। २३. म०] जीवाणं मंते। किं सासया, असासया ? [30] गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय असासया। []. से केणटेणं भंते । एवं धुश्चर-जीवा सिय सासया, सिय असासया? [उ०] गोयमा! दवट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुधर-जाव सिय असासया। २४. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं सासया, असासया ? [३०] एवं जहा जीवा तहा नेरहया वि, पर्ष जाव वेमाणिया जाप सिय सासया, सिय असासया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । सत्तमसए वितीओ उद्देसो समतो। २२. प्र०] हे भगवन् । प्रत्याख्यानी विगेरे जीवोमां यावत् कोण. विशेषाधिक छे! [उका हे गौतम | प्रत्याख्यानी जीवो सौथी प्रत्याख्यानी विगेरेर्नु थोडा छे, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी अनंतगुण छे. देशप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो सर्वथी घोडा.छे, अने । अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. प्रत्याख्यानी मनुष्यो सर्वथी थोडा छे, देशप्रत्याख्यानी संख्यातगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. २३. प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो शाश्वत छे के अशाश्वत छे! [उ०] हे गौतम! जीवो कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् शाश्वत, बने अशाश्वत छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे! [उ०] द्रव्यनी अशाश्व 'अपेक्षाए जीवो शाश्वत छे, अने पर्यायनी अपेक्षाए जीवों अशाश्वत छे; ते हेतुथी एम कहुं हुं के यावत् कथंचित् अशाश्वत छे. २४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नारको शाश्वत छे के अशाश्वत छे ? [उ०] जेम जीवो कह्या तेम नारको पण जाणवा. ए प्रमाणे नारको शाश्वत यावत् वैमानिको पण जाणवा; यावत् कथंचित् शाश्वत अने कथंचित् अशाश्वत छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे . छे [एम कही गौतम यावत् विचरे छे.] सप्तम शतके द्वितीय उद्देशक समाप्त. Jain Education international Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिओ उद्देसो १. [प्र०] वणस्सइक्काइया णं भंते ! किं कालं सधप्पाहारगा वा, सष्टमहाहारगा वा भवंति ? [उ०] गोयमा ! पाउसपरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइकाइया सधमहाहारगा भवंति, तदाणंतरं च णं सरए, तयाणंतरं च णं हेमंते, तदाणंतरं च णं वसंते, तदातरं च णं गिम्हे, गिम्हासु णं वणस्सइकाइया सधप्पाहारगा भवंति। २. [प्र०] जइ णं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइआ सधप्पाहारगा भवंति, कम्हा णं भंते ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुफिया, फलिया, हरियगरेरिजमाणा, सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति ? उ० गोयमा ! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य, पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए विउक्कमंति, चयंति, उववजंति, एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुष्फिया, जाव चिट्ठति । ३. [प्र०] से पूर्ण भंते ! मूला मूलजीवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा, जाव चीया धीयजीवफुडा ? [उ०] हंता, गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा, जाव बीया बीयजीवफुडा। ४.०] जहणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, जीव बीया बीयजीवफुडा, कम्हा णं भंते ! यणस्सतिकाइया आहारेंति, कम्हा परिणामेंति ? [उ०] गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा पुढवीजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति; फंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपडिबद्धा, तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति, एवं जाव बीया बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति । तृतीय उद्देशक. वनस्पतिकाय अल्पा- १. [प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिको कया काले सौथी अल्पआहारवाळा होय छे, अने कया काले सौथी महाआहारवाळा होय छे ? हारी अने महाहारी. [उ०] हे गौतम ! प्रावृड् ऋतुर्मा-श्रावण भादरवा मासमां, अने वर्षा ऋतुमां-आसो कारतक मासमां वनस्पतिकायिक जीवो सौथी महाआहा- ' रवाळा होय छे, त्यार पछी शरद् ऋतुमां, त्यार पछी हेमंत ऋतुमां, त्यार पछी वसंत ऋतुमा अने त्यार बाद ग्रीष्म ऋतुमा [अनुक्रमे ] अल्प आहारवाळा होय छे. ग्रीष्म ऋतुमां सर्वथी अल्पआहारवाळा होय छे. ग्रीष्ममा मल्पाहारी २. प्रि०] हे भगवन् ! जो ग्रीष्म ऋतुमा वनस्पतिकायिक जीवो सौथी अल्प आहारवाळा होय तो ते घणा वनस्पतिकायिको प्रीष्ममां छतां पुष्पित भने फलित महोय? पांदडावाळा, पुष्पवाळा, फलवाळा, लीला छम दीपता, अने वननी शोभा वडे अत्यंत सुशोभित केम होय छे? [उ०] हे गौतम! प्रीष्म ऋतुमा घणा उष्णयोनिवाळा जीवो अने पुद्गलो वनस्पतिकायपणे उपजे छ, विशेष उपजे छे, वधे छे, विशेष वृद्धि पामे छे; ए कारणथी हे गौतम! प्रीष्म ऋतुमा घणा वनस्पतिकायिको पांदडावाळा, पुप्पवाळा यावत् होय छे.. मूलो मूलना जीवधी ३. प्र०] हे भगवन् ! शुं मूलो मूलना जीवथी व्याप्त छे, कंदो कन्दना जीवथी व्याप्त छे, यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त छे ? ध्याप्त छे. [उ०] हे गौतम ! मूलो मूलना जीवथी व्याप्त छे, यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त छे. वनरपति शी रीवे ४. [प्र०] हे भगवन् ! जो मूलो मूलना जीवथी व्याप्त छे, यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त छे, तो वनस्पतिकायिक जीवो केवी आहार करे। रीते आहार करे, अने केवी रीते परिणमावे! [उ०] हे गौतम ! मूलो मूलना जीवथी व्याप्त छे, अने ते पृथिवीना जीव साथे संबद्ध (जोडायेला) छे, माटे वनस्पतिकायिक जीवो आहार करे छे, अने तेने परिणमावे छे. ए प्रमाणे यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त छे, अने ते फलना जीव साथे संबद्ध छे, माटे ते आहार करे छे, अने तेने परिणमावे छे. . पावसवरसा ख, पाओसवरिसा-क। २ उवसोमेमाणा धि-क। जाव बीयजीव-ख । Jain Education international Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शतक ७.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५. [प्र०] अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिली, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किंट्ठिया, छिरिया, छीरविरालिया, कण्हकंदे, वजकंदे, सूरणकंदे, खेलूडे, अद्दभद्दमुत्था, पिंडहलिहा, लोहिणी, थीहू, थिरुगा, मुग्गपन्नी, अस्सकनी, सीहफनी, सीइंढी, मुसुंढी, जेयावन्ने तहप्पगारा सवे ते अणंतजीवा षिविहसत्ता? [उ.] हंता, गोयमा! आलुए, मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता। ६.०] सिय भंते ! कण्हलेसे नेरपए अप्पकम्मतराए, नीललेसे नेरपए महाकम्मतराएं? [उ०] इंता, सिया। प्रि० से केणटेणं भंते! एवं वुश्चइ-कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए, नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? [उ०] गोयमा! ठिति पडुच, से तेणटेणं गोयमा! जाव महाकम्मतराए । ७. [H०] सिय भंते ! नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए, काउलेसे नेरहए महाकम्मतराए ? [उ०] हंता, सिया। प्रि० से केणटेणं भंते! एवं वुश्चर-नीललेसे अप्पकम्मतराए, काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए ? [उ०] गोयमा! ठिति पडथ, से तेणट्रेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए । एवं असुरकुमारे वि: नवरं तेउलेसा अम्भहिया, एवं जाव वेमाणिया, जस्स जइ लेस्साओ तस्स तत्तिया भाणियधाओ, 'जोइसियस्स न भण्णइ । जाव सिय भंते ! पम्हलेस्से वेमाणिए अप्पकम्मतराए, सुक्कलेस्से वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता, सिया । से केणटेणं ? सेसं जहा नेरइयस्स, जाव महाकम्मतराए । ८.प्र.] से नूणं भंते ! जा वेदणा सा निजरा, जा निजरा सा वेदणा? [उ०] गोयमा! णो तिणटे समढ़े। [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुश्चइ-जा वेयणा न सा णिजरा, जा निजरा न सा वेयणा [उ०] गोयमा! कम्म वेदणा, णोकम्म निजरा, से तेणटेणं गोयमा! जाव न सा वेदणा। ५. [प्र०] हे भगवन् ! आलु (बटाटा ) मूला, आदु, हिरिली, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किटिका, छिरिया, छीरविदारिका, वज्र- अनन्तजीव वनस्पति. कंद, सूरणकंद, खेलुडा, आर्द्रभद्रमोथ, पिंडहरिद्रा, रोहिणी, हुथीहू, थिरुगा, मुद्गपर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सीहंढी, मुसुंढी अने तेवा प्रकारनी बीजी वनस्पतिओ शुं अनन्त जीववाळी अने भिन्न भिन्न जीववाळी छे ! [उ०] हे गौतम ! आलु (बटाटा) मूळा यावत् अनन्त जीववाळी अने भिन्न भिन्न जीववाळी छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! कदाच कृष्णलेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने नीललेश्यावाळो महाकर्मवाळो होय ! [उ०] हा, कृष्णलेल्यावालो ना रक अल्पकमैवालो गौतम! कदाच होय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-कृष्णलेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने नीललेश्यावाळो । बाळा अने नीललेझ्यावाळो मारक महाकर्मवाळो होय ! (उ०] हे गौतम! "स्थितिनी अपेक्षाए, ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के ते यावत् महाकर्मवाळो होय. महाकर्मवानो होय. ७. [प्र०] हे भगवन् ! कदाच नीललेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने कापोतलेश्यावाळो नारक महाकर्मवाळो होय ! [उ.] नीललेश्यावाळो महा कर्मवाळो, अने कापणेहा, गौतम ! कदाच होय. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी ए प्रमाणे कहो छो के-नीललेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने कापोतलेश्या- तले तलेश्यावाळो अपक वाळो नारक महाकर्मवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! स्थितिनी अपेक्षाए, ते हेतुथी हे गौतम ! ते यावत् महाकर्मवाळो होय. ए प्रमाणे मैवाको. असुरकुमारोने विषे पण जाणवं, परन्तु तेओने एक तेजोलेश्या अधिक होय छे. ए प्रमाणे वैमानिक देवो पर्यन्त जाणवू. जेने जेटली लेश्याओ होय तेने तेटली कहेवी, पण ज्योतिष्क देवोने न कहेवं, यावत्-प्र०] हे भगवन् ! कदाच पद्मलेश्यावाळो वैमानिक अल्पकर्मवाळो अने शुक्ललेश्यावाळो वैमानिक महाकर्मवाळो होय ! [उ०] हे गौतम! हा, कदाच होय. [प्र०] ते शा हेतुथी ! [उ०] बाकी- जेम नारकने कह्यं तेम जाणवू, यावत् महाकर्मवाळो होय. ८. [प्र०] हे भगवन् ! खरेखर जे वेदना ते निर्जरा, अने जे निर्जरा ते वेदना कहेवाय ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. वेदना ते निरा नथी. [प्र०] हे भगवन् , एम शा हेतुथी कहो छो के-जे वेदना ते निर्जरा अने जे. निर्जरा ते वेदना न कहेवाय ? [उ०हे गौतम! वेदना कर्म छे, अने निर्जरा नोकर्म छे, ते हेतुथी यावत् ते वेदना न कहेवाय. . मूलुए ख । २ किहिया घ। ३ खेछडे क । ४ अहए भइ-घ । ५ सिय ख। -सियस्स गंन ख। ७ सिय ख। ६. *कृष्णलेश्या अत्यन्त अशुभ परिणामरूप होवाथी अने तेनी अपेक्षाए नीललेश्या कईक शुभ परिणामरूप होवाथी सामान्यतः कृष्णलेश्यावाळो बहुकम्मी अने नीललेश्यावाळो अल्पकर्मवाळो होय, परन्तु कदाच आयुषनी स्थितिनी अपेक्षाथी कृष्णलेश्याघाळो अल्पकर्मवाळो भने नीललेश्यावाळो महाकर्मवाळो होय. जेम के कृष्णलेश्यावाळो नारक जेणे पोताना आयुष्नी घणी स्थिति क्षय करेली छे तेने घणा कर्मनो क्षय थयो होय, तेनी अपेक्षाए कोद पांचमी नरकपृथ्वीमा सत्तरसागरोपमना आयुष्यवाळो नीललेश्यावाळो जीव जे हवणांज उत्पन्न थयो होय तेने पोताना भायुषनी स्थितिनो बधारे क्षय नहि कर्यो होवाथी घणा कर्म बाकी होय, तेथी ते महाकर्मवाळो होय. जुओ-भ. टी. प. ३०१-१.- . ७. ज्यिोतिष्कने तेजो लेश्या शिवाय यीजी अन्य लेश्या नहि .होवाथी अन्यलेश्यासापेक्ष ते अल्पकर्मवाळो के महाकर्मवाळो न कहेव.य. जुओस. टी. प. ३०१-1 ८. उदयप्राप्त कर्मनुं वेदवू-अनुभव करवो ते वेदना, अने वेदित फर्मनो क्षय थवो ते निर्जरा, एटले वेदना फर्मनी थती होवाथी तेने कर्म कब, कर्म वेदित थयु एटले तेने कर्म न कही शकाय, तेथी नोकर्मनी निर्जरा थाय छे, माटे निर्जराने नोकर्म का छे. ज़ओ-(भ. टी. ५.३.१-१.) . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. ३. ९. प्र०] नेरइयाणं भंते ! जा वेयणा सा निजरा, जा निजरा सा वेयणा? [उ०] गोयमा ? णो तिणटे समढे । [प्र०] से केणष्ट्रेणं भंते ! एवं वुञ्च-नेरइयाणं जा वेयणा न सा निजरा, जा निज़ारा न सा वेयणा ? [उ०] गोयमा! नेरहयाणं कम्म वेदणा, णोकम्म निजरा; से तेणटेणं गोयमा! जाव न सा वेयणा, एवं जाव वेमाणियाणं। १०. [प्र० से घूणं भंते ! ॐ वेदेसु तं निजरिंसु, जं निजरिंसु तं घेवेंसु ? [उ०] णो तिणटे समढे। [प्र०] से केण-- ट्रेणं भंते ! एवं वुष्यह-जंधेदेंसु नो तं निजरेंसु, जं निजरेंसु नो तं वेद॑सु ? [३०] गोयमा ! कम्मं वेर्देसु, नोकम्मं निजरिंस से तेणट्रेणं गोयमा! जाव नो तं वेदेंसु । [प्र०] नेरइयाणं भंते ! जं वेर्देसु तं निजरेंसु? [उ०] एवं नेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया। ११. [प्र०] से पूर्ण भंते ! जं वेदेति तं निजरेति. जं निजरेति तं वेदेति ? [उ०] गोयमा ! णो तिणढे सम?। [प्र.] से केणट्रेणं भंते ! एवं वुथइ-जाव नो तं वेदेति ? [उ०] गोयमा! कम्मं वेदेति, नोकम्मं निजरेंति, से तेणट्रेणं गोयमा! जाव नो तं वेदेति, एवं नेरइया वि, जाव घेमाणिया। १२. [प्र०] से शृणं भंते ! जंदिस्संति तं निजरिसंति, जं निजरिस्संति तं चेदिस्संति? [उ०] गोयमा ! जो तिणट्रे समट्रे! [प्र०] से केणटेणं जाव णोतं वेदिस्संति ? [30] गोयमा! कम्मं वेदिस्संति, नोकम्मं निजरिस्संति, से तेणटेणं जाव नो तं निजरिस्संति, एवं नेत्या वि, जाव वेमाणिया। १३. [प्र०] से पूर्ण भंते ! जे वेदगासमए से निजरासमए, जे निजरासमए से वेदणासमए ? [उ०] णो तिणट्टे समझे। प्रि०ा से केणट्रेणं एवं वुञ्चइ-जे देयणासमए न से निजरासमए, जे निजरासमए न से वेदणासमए ? [उ०] गोयमा! जं समयं वेदेति नो तं समयं निजरेंति, जं समयं निजरेंति नो तं समयं वेदेति, अमम्मि समए वेदेति, अन्नम्मि समए निजरेंति, अने से वेदणासमए, अने से निजरासमप; से तेणटेणं जावन से वेदणासमए, न से निजरासमए । ते निर्जरा नथी. ने वेधं ते निर्जयु नथी. ९. प्र०) हे भगवन् ! शुं नारकोने जे वेदना छे ते निर्जरा कहेवाय, अने जे निर्जरा छे ते वेदना कहेवाय ! [उ०) हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के नारकोने जे वेदना ते निर्जरा न कहेवाय ! [उ०] हे गौतम ! नारकोने वेदना छे ते कर्म छे, अने निर्जरा छे ते नोकर्म छे, ते हेतुथी एम कहुं छु के हे गौतम ! यावत् निर्जरा ते वेदना न कहेवाय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको जाणवा. १०. प्र०] हे भगवन् ! शुं खरेखर जे वेद्यं ते निर्जयें, अने जे निर्जयुं ते वेधुं ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नधी [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहेवाय छे के जे वेद्यं ते निर्जयुं नथी, जे निर्जयुं ते वेधुं नथी ? [उ०] हे गौतम! कर्म वेद्यं, अने नोकर्म निर्जयु; ते हेतुथी हे गौतम! यावत् ते वेधु नथी. [प्र०] हे भगवन् ! नारकोए जे वेद्यं ते निर्जयु ! [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे नारको पण जाणवां, यावत् वैमानिको पण जाणवा. ११. [प्र०] हे भगवन् ! शुं खरेखर जेने वेदे छे तेने निर्जरे छे, अने जेने निर्जरे छे तेने वेदे छे ? उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहेबाय छे के यावत् जेने वेदे छे तेने निर्जरतो नथी, जेने निर्जरे छे तेने वेदतो नथी. [उ०] हे गौतम ! कर्मने वेदे छे अने नोकर्मने निर्जरे छे; ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के यावत् [जेने निर्जरे छे ] तेने वेदतो नथी. ए प्रमाणे नारको पण जाणवा, यावत् वैमानिको जाणवा. जेने वेदे छे तेने निर्जरतो नयी. जेने वेदशे तेने निर्जरशे नहि. जे वेदनानो समय छे ते. निर्जरानो समय नथीं. १२. प्रि०] हे भगवन् ! शुंजेने वेदशे तेने निर्जरशे, अने जेने निर्जरशे तेने वेदशे? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०]. हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के यावत् तेने वेदशे नहि ! [उ०] हे गौतम ! कर्मने वेदशे अने नोकर्मने निर्जरशे, ते हेतुथी यावत् जेने [ वेदशे ] तेने निर्जरशे नहि. १३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जे वेदनानो समय छे ते निर्जरानो समय , अने जे निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय छे ? उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. प्रि० हे भगवन ! शा हेतथी एम कडेवाय छे के जे वेदनानो समय ले ते निर्जरानो अने जे निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय नथी? [उ०] हे गौतम! जे समये वेदे छे ते समये निर्जरा करतो नथी, जे समये निर्जरा करे छे ते समये वेदतो नथी, अन्य समये वेदे छे, अन्य समये निर्जरा करे छे, वेदनानो समय भिन्न छे अने निर्जरानो समय भिन्न छे; ते हेतुथी यावत् वेदनानो समय छे ते निर्जरानो समय नथी. . निजरंसु ख। २ निजरिंति घ। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४. [प्र.] नेरइयाणं भंते ! जे वेदणासमए से निजरासमए, जे निजरासमए से वेदणासमए ? [30] गोयमा ! णो तिणटे समटे । [प्र०] से केणटेणं एवं बुच्चइ–नेरइयाणं जे वेदणासमए न से निजरासमए, जे निजरासमए न से घेयणासमए ? [उ०] गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदेति णो तं समयं निजरेंति, जं समयं निजरेंति नो तं समयं वेदेति, अन्नम्मि समए वेदेति, अन्नम्मि समए निजरेंति, अन्ने से वेदणासमए, अन्ने से निजरासमए, से तेणटेणं जावन से वेवणासमए, एवं जाव वेमाणियाणं। १५. [प्र०] नेरइया णं भंते! किं सासया, असासया ? [उ.] गोयमा! सिय सासया, सिय असासया । [प्र.] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नेरइया सिय सासया, सिय असासया ? [उ.] गोयमा ! अधोच्छित्तिनयट्टयाए सासया, वोच्छित्तिनयट्टयाए असासया, से तेणटेणं जाव सिय सासया, सिय असासया; एवं जाव वेमाणिया, जाव सिय असासया । सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति । सत्तमसए ततिओ उद्देसो समत्तो। १४. प्रि०] हे भगवन् ! शुं नारकोने जे वेदनानो समय छे, ते निर्जरानो समय छे, अने निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय छे? नारकोने वेदना अने निर्जरानो समय [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा कारणथी कहो छो के नारकोने जे वेदनानो समय छे ते निर्जरानो समय भिम के. नथी, अने जे निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय नथी ? [उ०] हे गौतम ! नारको जे समये वेदे छे ते समये निर्जरा करता नथी, अने जे समये निर्जरा करे छे ते समये वेदता नथी, अन्य समये वेदे छे अने अन्य समये निर्जरा करे छे, तेओनो वेदनानो समय जूदो छे, अने निर्जरानो समय जूदो छे; ते हेतुथी यावत् निर्जरानो समय ते वेदनानो समय नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. १५. [प्र०) हे भगवन् ! शुं नारको शाश्वत छे के अशाश्वत छे! [उ०] हे गौतम! कथंचित् शाश्वत छे, अने कथंचित अशा- नारको शाश्वत बने श्वत पण छे [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी एम कहो छो के नारको कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे ! [उ०] हे गौतम ! अव्युच्छित्तिनय-(द्रव्यार्थिकनय--)नी अपेक्षाए शाश्वत छे, अने व्युच्छित्तिनयनी (पर्यायनयनी) अपेक्षाए अशाश्वत छे; ते हेतुधी यावत् कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको यावत् कथंचित् अशाश्वत छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे [एम कही गौतम यावत् विचरे छे.] सप्तमशतके तृतीय उद्देशक समाप्त Jain Education international Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे नयरे जाव एवं वयासि-कतिविहा णं भंते! संसारसमावनगा जीवा एभत्ता ? [उ०] गोयमा ! छविहा संसारसमावनगा जीवा पन्नत्ता, तं जहा–पुढविकाइया, एवं जहा जीवाभिगमे जाव सर:तकिरियं वा, मिच्छत्तकिरियं वा। *[जीवा छविह पुढवी जीवाण ठिती भवट्टिती काये । निल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत्त-मिच्छत्तौ ॥] सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। सत्तमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो। जीवोना प्रकार चतुर्थ उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां [गौतम ] यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! संसारी जीवो केटला कारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! संसारी जीवो छ प्रकारना कह्या छे, ते आ -प्रमाणे-पृथिवीकायिक विगेरे. ए प्रमाणे जेम *जीवाभिगमसूत्रमा कयुं छे तेम सम्यक्वक्रिया अने मिध्यात्वक्रियासुधी अहीं जाणवू. [१जीवोना छ प्रकार, २ पृथिवीना छ प्रकार, ३ पृथिवीना भेदोनी स्थिति-आयुष , ४ भवस्थिो , ५ सामान्यकाय स्थिति ६ निर्लेपना-खाली थवानो काळ, ७ अनगारसंबंधी हकीकत, ८ सम्यक्त्वक्रिया अने मिथ्यात्वक्रिया.] हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे [एम कही गौतम यावत् विचरे छे.] संग्रगाथा. सप्तम शतके चतुर्थ उद्देशक समाप्त. . पुढविचाईआ ख। २ [ ] एतचिहान्तर्गतः पाठो वाचनान्तरे उपलभ्यते, स च टीकाकारेण लाख्यातः । ३ ठिति भ-ख । -तिका-ख। ५-छत्तं पछत्ते क।। *(जीवाभिगम. प. १३९. सू. १००-१०४.) 1 वाचनान्तरमा आवेली संग्रह गाथानो अर्थ [ ] आ कोष्टकमा आप्यो छे. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो. .१.प्र० रायगिहे जाव एवं पयासी-खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणीसंगहे पण्णते? [उ.] गोयमा! तिषिहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडया, पोयया,समुच्छिमा; एवं जहा जीवाभिगमे, जाव 'नो व पं ते विमाणे वीतीवएजा, एमहालया गं गोयमा! ते विमाणा पञ्चत्ता'। जोणीसंगह-लेसा दिट्टी नाणे य जोग-उवओगे। उववाय-द्विति-समुग्धाय-चवण-जाती-कुल-विहीओ। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। सत्तमसयस्स पंचमो उद्देसो समत्तो। पञ्चम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [गौतम ] यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो योनिसंग्रह केटला प्रकारे खेचरनो योनिसंग्रहकह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओनो योनिसंग्रह त्रण प्रकारे कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-अंडज, पोतज अने संमूछिम. जेम *जीवाभिगम सूत्रमा कहुं छे ते प्रमाणे यावत् 'ते विमानोने उल्लंघी न शके, एटला मोटा ते विमानो कह्या छे' त्या सुधी सर्व जाणवु.. [१ योनिसंग्रह, २ लेश्या; ३ दृष्टि-सम्यक्, मिश्र अने मिथ्यात्वदृष्टि, ४ ज्ञान, ५ योग, ६ उपयोग, ७ उपपात-उत्पन्न थवं, ८ स्थिति-आयुप्, ९ समुद्घात, १० च्यवन, ११ जातिकुलकोटी]. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे [ एम कही गौतम यावत् विचरे छे.] सप्तम शतके पंचम उद्देशक समाप्त. कतिविहे गं जो-घ। २ [ ] एतचिह्नान्तर्गतः पाठो वाचनान्तरे उपलभ्यते । १ * (जीवामिगम. प. १३२-१३५. सू. ९६-९९) + वाचनान्तरमा आवेली संग्रहगाथानो अर्थ आ[ ]कोष्ठकमा आप्यो छे. ३ भ. सू. Jain Education international Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसो. १.प्र. रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! किं इहगए नेएयाउयं पकरेति, उववजमाणे नेरइयाउयं पक, उववने नेरायाउयं पकरे? [उ०] गोयमा! इहगए नेण्याउयं पफरो, नो उववजमाणे नेरायाउयं पकये, नो उपवने नेरइयाउयं पकरे । एवं असुरकुमारेसु वि, एवं जाय वेमाणिपस । पमाणिपसु। २.प्र. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! किं इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववजमाणे नेखयाउयं पडिसंवेदेति, उववन्ने नेरदयाउयं पडिसंवेदेति ? [उ०] गोयमा! णो इहगए नेरायाउयं पडिसंवेदेह, उववजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने वि नेरायाउयं पडिसंवेदेति । एवं जाव वेमाणिपसु।। ३.० जीवे गं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! किं इहगए महावेयणे, उववजमाणे महावेदणे, उववने महावेदणे ? [उ०] गोयमा! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे, उववजमाणे सिय महावेदणे सिय अप्पधेयणेः अहे णं भंते ! उववन्ने भवति तो पच्छा एंगतदुक्खं वेयणं वेयति, आहश्च सायं । ४. [प्र०] जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए पुच्छा। [उ०] गोयमा । इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे, उववजमाणे सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे; अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा एगतसातं वेयणं वेदेति, आहथ असायं । एवं जाव थणियकुमारेसु। षष्ठ उद्देशक. नारकायुश्नो बंध- १. [प्र०] राजगृह नगरमा [गौतम ] यावत् ए प्रमाणे बोल्या हे भगवन्! जे जीव नारकने विषे उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रहीने नारकंनुं आयुष्, बांधे? त्यां-नारकमा उत्पन्न थतो नारकनुं आयुष् बांधे ? के त्यां उत्पन्न थइने नारकर्नु. आयुष बांधे ? [उ.] हे गौतम ! आ भवमा रहीने नारकर्नु आयुष बांधे, पण त्यां उत्पन्न थता नारकनुं आयुष न बांधे, अने उत्पन्न थइने पण नारकर्नु आयुषु न बांधे, ए प्रमाणे असुरकुमारोमा अने यावत् वैमानिकोमा जाणवू. नारकायुपर्नु २. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव नारकने विषे उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रही नारकनुं आयुष् वेदे, बेदन. त्यां उत्पन्न थता नारकर्नु आयुष् वेदे, के त्यां उत्पन्न थइने नारकनुं आयुष् वेदे ! [उ०] हे गौतम ! आ भवमा रही नारकनुं आयुष न वेदे, पण उत्पन्न थता अने उत्पन्न थइने नारकनुं आयुष् वेदे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोमां पण जाणवू. नारकमा महावेद- ३. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव नारकमां उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रहेलो महावेदनावाळो होय, नानुं वेदन त्या उत्पन्न थता महावेदनावाळो होय, के उत्पन्न थया पछी महावेदनावाळो होय ! [उ०] हे गौतम! कदाच ते आ भवमा रहेलो महावेदनावांळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; कदाच उत्पन्न थता महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय, पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे, त्यार पछी एकान्त दुःखरूप वेदनाने वेदे छे, अने क्वचित सखने वेदे ळे. ममुरकुमारमा महा- ४. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव असुरकुमारमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते संबन्धी प्रश्न. [उ०] हे गौतम! ते कदाच आ भवमा बेदनानुं वेदन. रहेलो महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; उत्पन्न थता कदाच महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे त्यार पछी एकान्त सुखरूप वेदनाने वेदे छे, अने कदाच दुःखने वेदे छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारने विषे जाणवू. । वदासी घ। २णं उ-घ। ३ वेयति ख। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५.०] जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववजित्तए पुच्छा। [उ०] गोयमा ! इहगए सिय महायणे सिय अप्पवेयणे; पर्व उववजमाणे वि, अहेणं उववन्ने भवति तओ पच्छा वेमायाए धेयणं वेदेति । एवं जाव मणुस्सेंसु, बाणमंतरजोइसिय-वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु।। ६.० जीवा गं भंते ! किं आभोगनिष्वत्तियाउया, अणाभोगनिवत्तियाउया? [उ० गोयमा! नो आभोगनिवत्तियाउया, अणाभोगनिष्पत्तियाउया । एवं नेरइया वि, पवं जाव वेमाणिया। ७. प्र०] अस्थि णं भंते ! जीवाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा! हंता, अस्थि । ८. [प्र०] कहणं भंते ! जीवाणं कंकसवेयणिज्जा कम्मा कजन्ति ? [१०] गोयमा! पाणाइवाएणं, जाव मिच्छादसणसलेणं, एवं खलु गोयमा! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति । ९. [प्र०] अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं ककसबेयणिज्जा कम्मा कजंति ? [30] एवं चेव, एवं जाव चेमाणियाणं । १०. [प्र०] अस्थि णं भंते.! जीवाणं अकक्कसवेयणिजा कम्मा कजंति ? [उ०] हंता, अत्थि । ११. [प्र०] कहं णं भंते ! जीवा अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा! पाणाइवायवेरमणेणं, जाव परिग्गहवेरमणेणं, कोहविवेगेणं, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेणं; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कसवेयणिजा कम्मा कजंति । १२. [प्र०] अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं अकक्कसवेयणिजा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा ! णो तिणटे समटे । एवं जाध वेमाणिया; नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं । १३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! जीवाणं सायावेयणिजा कम्मा फजंति ? [उ०] हंता, अत्थि ।। १४. [प्र०] कह णं भंते! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए; बहूणं पाणाणं, जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरियावणयाए; एवं खलु गोयमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति; एवं नेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं। ५. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव पृथिवीकायमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते संबन्धी प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! आ भवमा रहेलो ते पृथिवीकायमा वि विष वेदनानुं वेदनकदाच महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; ए प्रमाणे उत्पन्न थतां पण महावेदनावाळो होय के अल्पवेदनावाळो होय, पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे त्यार पछी ते विविध प्रकारे वेदनाने वेदे छे. ए प्रमाणे यावत् मनुष्योमा जाणवू. जेम असुरकुमारोने विषे [सू. ४ ] कयुं तेम वानव्यन्तर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवो विषे जाणवू. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो आभोगथी-जाणपणे आयुषनो बंध करे के अनाभोगथी-अजाणपणे आयुष्नो बंध करे? [उ.] आयुष्नो पन्ध. हे गौतम ! जीवो आभोगथी आयुष्नो बन्ध न करे, पण अनाभोगथी आयुष्नो बन्ध करे. ए प्रमाणे नारको पण जाणवा, यावत् वैमानिको जाणवा. ७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने कर्कशवेदनीय-दुःखपूर्वक भोगववा योग्य कर्मो-बंधाय छे ? [उ०] हा, गौतम ! एम छे. कर्कशवेदनीय फर्म. ८. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने कर्कशवेदनीय कर्मो केम बंधाय ! [उ०] हे गौतम ! प्राणातिपात-जीवहिंसाथी, यावत् मिथ्यादर्शन- कर्कशवेदनीय कर्मना हेतुओशल्यथी. ए प्रमाणे हे गौतम ! जीवोने कर्कशवेदनीय कर्मो बंधाय छे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के नारकोने कर्कशवेदनीय कर्मो बंधाय ? [उ०] हे गौतम ! पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् वैमा- नारकने कर्करावेदनिकोने जाणवं. नीय कर्म. १०. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने अकर्कशवेदनीय-सुखपूर्वक भोगववा योग्य कर्मो-बंधाय ! [उ.] हा, गौतम! एम छे. भकर्कशवेदनीय फर्म ११. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने अकर्कशवेदनीय कर्मो केम बंधाय ! [उ०] हे गौतम ! प्राणातिपातविरमणथी, यावत् परिग्रहविर ___ना हेतुभो. मणथी; क्रोधनो त्याग करवाथी, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग करवाथी. ए प्रमाणे हे गौतम ! जीवोने अकर्कशवेदनीय कर्मो बंधाय. १२. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नारकोने अकर्कशवेदनीय कर्मो बंधाय ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. परंतु मनुष्योने जेम जीवोने [सू. ११.] कयुं तेम जाणवू. १३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने सातावेदनीय कर्म बंधाय ! [उ०] हा, गौतम ! एम छे. सातावेदनीय कर्म १४. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने सातावेदनीय कर्म केम बंधाय ! [उ०] हे गौतम! प्राणोने विषे अनुकंपाथी, भूतोने विषे अनुकं- सातावेदनीय कर्मना पाथी, जीवोने विषे अनुकंपाथी, सत्त्वोने विषे अनुकंपाथी, घणा प्राणोने यावत् सत्त्वोने दुःख न देवाथी, शोक नहि उपजाववाथी, खेद हेतुओ. नहि उत्पन्न करवाथी, वेदना न करवाथी, नहि मारवाथी तेम परिताप नहि उपजाववाथी. ए प्रमाणे हे गौतम ! जीवो सातावेदनीय कर्मो बांधे छे. ए प्रमाणे नारकोने पण जाणवू यावत् वैमानिकोने जाणवं. Jain Education international Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. ६. १५.०] अस्थि णं भंते ! जीवाणं असायावेदणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ०] इंता अस्थि । १६.प्र० करणं भंते ! जीवाणं असायाधेयणिजा कम्मा कजंति ? [उ०] गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परज़रणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरियावणयाए; बहूणं पाणाणं, जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए जाव परियावणयाए, एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति । एवं नेरइयाण षि, एवं जाव माणियाणं । १७. प्र. जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भारहे पासे इमीसे ओसप्पिणीए दुसमदुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? [उ०] गोयमा! कालो भविस्सह हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलगभूए; समयाणुभावेण य णं खर-फरुस-धूलिमइला, दुधिसहा, वाउला, भयंकरा, वाया संवट्टगा य वाहिति इह अभिक्ख धेमाहिति य दिसा समंता रओसला, रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा; समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति, अहियं सुरिया तवइस्संति; अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, स्वत्तमेहा, खट्टमेहा, अग्गिमेहा, विजुमेहा, विसमेहा, असणिमेहा; अपिवणिजोदगा [अजवणिजोदया] वाहि-रोग-वेदणोदीरणापरिणामसलिला, अमणुनपाणियगा, चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउरं वासं वासिहिंति; जेणं भारहे वासे गामाऽऽगर-नगर-खेड-कबड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसमगयं जणवयं, चउप्पय-गवेलए, खहयरे पक्खिसंधे, गामा-ऽरन्न-पयारनिरए तसे य पाणे, बहुप्पगारे रुक्ख-गुच्छ-गुम्मलय-वल्लि-तण-पच्चयग-हरितो-सहि पवालं-कुरमादीए य तण-वणस्सइकाइए विद्धंसेहिंति, पचय-गिरि-डोंगर-उत्थल-भट्ठिमादीए य वेयद्दगिरिवजे विरावेहिति, सलिलविल-गड-दुग्गविसमनिण्णु-नयाई च गंगा-सिंधुवजाई समीकरहिंति । १८. [प्र०] तीसे णं समाए भारहवासस्स भूमीए केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति ? [उ०] गोयमा! भूमी भविस्सति इंगालब्भूया, मम्मुरम्भूया, छारियभूया, तत्तकवेल्लयब्भूया, तत्तसमजोतिभूया, धूलिबहुला, रेणुबहुला, पंकबहुला, पणगबहुला, चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दुनिकमा यावि भविस्सति । मसातावेदनीव कर्म १५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने असातावेदनीय कर्मो बंधाय ! [उ०] हा, गौतम! एम छे. असातावेदनीय १६. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने असातावेदनीय कर्म केम बंधाय ? [उ०] हे गौतम! बीजाने दुःख देवाथी, बीजाने शोक कर्मना हेतुओ. उपजाववाथी, बीजाने खेद उत्पन्न करवाथी, बीजाने पीडा करवाथी, बीजाने मारवाथी. बीजाने परिताप उत्पन्न करवाथी. तेम घणां प्राणोने यावत् सत्त्वोने दुःख देवाथी, शोक उपजाववाथी, यावत् परिताप उत्पन्न करवाथी, ए प्रमाणे हे गौतम | जीवोने असातावेदनीय कर्म बंधाय छे. ए प्रमाणे नारकोने, यावत् वैमानिकोने जाणवू. १७. [अ०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपनामे द्वीपमा भारतवर्षने विषे आ अवसर्पिणीमां दुःषमादुःषमा काल-छहो आरो ज्यारे अत्यंत उत्कट हाहाभूत काल. अवस्थाने प्राप्त थशे त्यारे भारतवर्षनो आकारभावप्रत्यवतार (आकार अने भावोनो आविर्भाव) केवा प्रकारे थशे ? [उ०] हे गौतम ! हाहाभूत (जे काळे दुःखी लोको 'हा हा' शब्द करशे ), भंभाभूत (जे काळे दुःखात पशुओ 'भां भां' शब्द करशे ), अने कोलाहलभूत (ज्यारे भयंकर वात. को दुःखपीडित पक्षीओ कोलाहल करशे) एवो काल थशे. कालना प्रभावथी घणा कठोर, धूळथी मेला, असह्य, अनुचित अने भयंकर वायु, मलिन दिशाओ. तेमज संवर्तक वायु वाशे. आ काळे वारंवार चारे बाजूए धूळ उडती होवाथी रजथी मलिन अने अंधकारवडे प्रकाशरहित दिशाओ धूमाडा जेवी झांखी देखाशे. कालनी रुक्षताथी चन्द्रो अधिक शीतता आपशे अने सूर्यो अत्यंत तपशे. वळी वारंवार घणा खराब रसवाळा, विरुद्ध भरस विरसादि मेघो. रसवाळा, खारा, खातरसमान पाणिवाळा, [खाटा पाणिवाळा ] अग्निनी पेठे दाहक पाणिवाळा, विजळी युक्त, अशनिमेघ-करावगेरेने पाडनार (पर्वतने भेदनारा, ) विषमेधो-झेरी पाणिवाळा-नहि पीवालायक पाणिवाळा, [ निर्वाह न थइ शके तेवा पाणिवाळा ], व्याधि, रोग अने वेदना उत्पन्न करनार पाणिवाळा, मनने न रुचे तेवा पाणिवाळा मेघो तीक्ष्ण धाराना पडवा डेव पुष्कळ वरसशे. जेथी भारत वर्षगां ग्राम, प्रामादिमा रहेला म. आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन अने आश्रममा रहेल मनुष्यो, चोपगा-गायो घेटा-अने आकाशमां गमन करता पक्षिअन्य पशु पक्षीओनो ओना टोळाओ; तेमज गाम अने अरण्यमा चालता त्रस जीवो तथा बहु प्रकारना वृक्षो, गुल्मो, लताओ, वेलडीओ, घास, पर्वगो-शेरडी बनस्पतिकोनो नाश. वगेरे, धरो वगेरे, ओषधी-शालिवगेरे, प्रवालो अने अंकुरादि तृणवनस्पतिओ नाश पामशे. वैताट्य शिवाय पर्वतो, गिरिओ, डुंगरो, पर्वतादिनो नाश. धूळना उंचा स्थलो, रज विनानी भूमिओ नाश पामशे. गंगा अने सिन्धुनदी शिवाय पाणिना झराओ, खाडाओ, दुर्गम अने विपम भूमिमां रहेला उंचा अने नीचा स्थलो सरखा थशे. भूमिर्नु स्वरूप १८. [प्र०] हे भगवन् ! [ते काले ] भारतवर्षनी भूमिनो केवो आकारभावप्रत्यवतार थशे ? [उ०] हे गौतम ! ते काळे अंगार जेवी, मुर्मुर-छाणाना अग्नि जेवी, भस्मीभूत, तपी गयेला कटाह (कडाया ) जेवी, ताप वडे अग्निना सरखी, बहुधूळवाळी बहुरजवाळी, बहुकीचडवाळी, बहुसेवाळवाळी, घणाकादबवाळी अने पृथ्वी उपर रहेला घणा प्राणिओने चालवू मुइकेल पडे एवी भूमि थशे. नाश. भस्सायवे-घ । २-यावियणि-घ। ३ बुहीये भं-ख । ४ उस्सप्पि-घ। ५ तूसमदूसमाए-घ, दुस्समदुस्समाए क। भंभाभूए ख । ७ कोलाहलब्भूए ख। ८ वाईति कविनाऽन्यत्र । ९धूमाईति घ। १०.उपटक-घ। ११-महिमा-ध। १२-गह-ख। १३ मुम्मुरभूया घ। १४ दोनिफमा य भघ । Jain Education international Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१ १९. [प्र०] तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ ? [उ०] गोयमा ! मणुया भविस्संति दुरूवा, दुधना, दुग्गंधा, दुरसा, दुफासा, अणिट्ठा, अकंता, जाव अमणामा, हीणस्सरा, दीणस्सरा, अणिट्रस्सरा, जाव अमणामस्सरा, अणादेजवयणपञ्चायाया, निल्लजा, कूड-कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मजायातिकमप्पहाणा, अकजनिञ्चजता, गुरुनियोय-विणयरहिया य, विकलरूवा, परूढनह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस-झामवन्ना, फुट्टसिरा, कविल-पलियकेसा, वहुण्हारुसंपिणद्ध-दुइंसणिजरूवा, संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतत्व थेरगनरा, पविरलपरिसडियदंतसेढी, उब्भडघड(य)मुहा [उब्भडघाडामुहा,] विसमणयणा, वंकनासा, वंक[ग]-वलीविगय-भेसणमुहा, कच्छू-कसराभिभूया, खर-तिक्खनख-कंडूइयविक्खयतणू, दद्द-किडिभ- सिंझै-फुडियफरसंच्छवी, चित्तलंगा, टोलागति-विसमसंधिवंधणउकुडुअट्ठिगविभत्त-दुव्यला कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया, कुरूघा, कुट्ठाणासण-कुसेज-भोइणो, असुइणो, अणेगवाहिपरिपीलियंगमंगा, खलंत-वेस्भलगती, निरुच्छाहा, सत्तपरिवजिया, विगर्यचट्ठ-नट्टतेया, अभिक्खणं सीय-उण्ह-खर-फरुसवायविज्झैडियमलिणपंसुरयगुंडियंगमंगा, बहुकोह-माण-माया, बहुलोभा, असुह-दुक्खभागी, ओसन्नं धम्मसण्ण-सम्मत्तपरिभट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता, सोलस-वीसतिवासपरमाउसो, पुत्त-नत्तुपरियालपणय[ परिपालण ]बहुला गंगा-सिंधूओ महानदीओ, वेयहुं च पञ्चयं निस्साए वावत्तरि निओदा वीयं बीयामेत्ता विलवासिणो भविस्संति । २०. [प्र०] ते णं भंते ! मणुया कं आहारं आहारेहिंति ? [उ०] गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समयेणं गंगा-सिंधूओ महानदीओ रेहपहवित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जलं 'वोज्झिहिंति, से वि य णं जले बहुमच्छ-कच्छभाइन्ने, णो चेव णं आउबहुले भविस्सति । तए णं ते मणुया सूरुग्गमणमुहुत्तंसि य सूरत्थमणमुहुत्तंसि य विलहितो निद्धाहिति, निद्धाइत्ता विलहितो मच्छ-कच्छभे थलाई गाहहिंति, गाहित्ता सियायवतत्तपहिं मच्छ-कच्छपहिं एकवीसं वाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिसंति । १९. [प्र०] हे भगवन् ! ते काळे भारतवर्षमा मनुष्योनो केवो आकारभावप्रत्यवतार थशे ? [उ०] हे गौतम ! खरावरूपवाळा, खराबवर्णवाळा, दुर्गंधवाळा, दुष्टरसवाळा, खराबस्पर्शवाळा, अनिष्ट, अमनोज्ञ, मनने न गमे तेवा, हीनखरवाळा, दीनखरवाळा, अनिष्टस्वरवाळा, यावत् मनने न गमे तेवा खरवाळा, जेना वचन अने जन्म अग्राह्य छे एवा, निर्लज, कूड कपट कलह वध बंध अने वैरमां आसक्त, मर्यादानुं उल्लंघन करवामां मुख्य, अकार्य करवामां नित्य तत्पर, मातपितादिनो अवश्य करवा योग्य विनयरहित, बेडोळ रूपवाळा, जेना नख, केश, दाढी, मूछ अने रोम वघेला छे एवा, काळा, अत्यंत कठोर, श्यामवर्णवाळा, छूटा केशवाळा, धोळा केशवाळा, बहु स्नायुथी बांधल होवाने लीधे दुर्दर्शनीय रूपवाळा, जेओना प्रत्येक अंग वांका अने वलीतरंगोथी-करचलीओथी व्याप्त छे एवां, जरापरिणत ( वृद्धावस्थायुक्त) वृद्धपुरुष जेवा, छूटा अने सडी गयेला दांतनी श्रेणिवाळा, घटना जेवा भयंकर मुखवाळा [ भयंकर छे घाटा (डोकनी पाछळनो भाग), अने मुख जेओना एवा] विषमनेत्रवाळा, वांकी नासिकावाळा, वांका अने वलिओथी विकृत थयेला, भयंकर मुखवाळा, खस अने खरजथी व्याप्त, कठण अने तीक्ष्ण नखो वडे खजवाळवाथी विकृत थयेला, ददु (दराज ) किडिभ (एक जातनो कोढ) अने सिम (कुष्ठ विशेष, करोळीआ) वाळा, फाटीगयेल अने कठोर चामडीवाळा, विचित्रअंगवाळा, उष्ट्रादिना जेवी गतिवाळा, [ खराब आकृतिवाळा ], सांधाना विषम बंधनवाळा, योग्यस्थाने नहि गोठवायेला छूटा देखाता हाडकावाळा, दुर्बल, खराबसंघयणवाळा, खराबप्रमाणवाळा, खराबसंस्थानवाळा, खराबरूपवाळा, खराब स्थान अने आसनवाळा, खराबशय्यावाळा, खराबभोजनवाळा, जेओनां प्रत्येक अंग अनेक व्याधिओथी पीडित छे एवा, रखलनायुक्त विह्वलगतिवाळा, उत्साहरहित, सत्त्वरहित, विकृतचेष्टावाळा, तेजरहित, वारंवार शीत, उष्ण तीक्ष्ण अने कठोर पवनवडे व्याप्त, जेओना अंग धूळवडे मलिन अने रजवडे व्याप्त छे एवा, बहु क्रोध, मान अने मायावाला, बहु लोभवाळा, अशुभ दुःखना भागी, प्रायः धर्मसंज्ञा अने सम्यक्त्वथी भ्रष्ट, उत्कृष्ट एक हाथ प्रमाण शरीरवाळा, सोळ अने वीश वरसना परम आयुष्वाळा, पुत्र पौत्रादि परिवारमा अत्यंत स्नेहवाळा [घणा पुत्रपौत्रादिनुं पालनकरनारा ], बीजना जेवा, वीजमात्र एवा [ मनुष्योना] बहोतेर कुटुंबो गंगा, सिन्धु महानदीओ अने वैताढ्य पर्वतनो आश्रय करीने विलमा रहेनारा थशे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते मनुष्यो केवा प्रकारनो आहार करशे ? [उ०] हे गौतम ! ते काळे अने ते समये रथना मार्गप्रमाण मनुष्योनो आहारविस्तारवाळी गंगा अने सिन्धु ए महानदीओ रथनी धरीने पेसवाना छिद्र जेटला भागमा पाणिने वहेशे, ते पाणि घणां मांछलां अने काचबा वगेरेथी भरेलु हशे, पण तेमा घणुं पाणि नहि होय. त्यारे ते मनुष्यो सूर्य उग्या पछी एक मुहूर्तनीं अंदर अने सूर्य आथम्या पछी एक मुहूर्तमां पोतपोताना विलोथी बाहेर नीकळशे अने मांछलां अने काचवा बगेरेने जमीनमा डाटशे, टाढ अने तडका बडे बफाइ गयेलां मांछलां अने काचबा वगेरेथी एकवीश हजार वर्ष सुधी आजीविका करता तेओ (मनुप्यो) त्यां रहेशे. १-वध-घ। २-कसरा-ख । ३-सिज्झ-क। ४ कुभोइणो घ। ५-तवेज्झल-घ,-त-विठभल-ख । -य चिट्टा न-घ। ७-उमडिया घ। निउदा ख। ९-हारेंसि घ। १० रहप विस्थारा ख। ११ वोज्झहते ख। १२-तत्तए म-ख । Jain Education international Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते मनुष्यो मरीने क्या जशे ! ते सिंहादि मरीने क्यों जशे कागडा बगेरे मरीने श्रीरावचन्द्र-जिनागमसंमद्दे शतक ७. उद्देश. ६. २१. [प्र०] ते णं भंते! मणुया निस्सीला, निग्गुणा, निम्मेरा, निष्पद्यक्सान पोहोचवासा लोखणं मंसाहारा, मच्छाहारा, खोहाद्वारा, कुणिमाहारा कालमासे कार्य किया कहिं गच्छिर्हिति फर्दि उचयनिर्हिति १ [४०] गोवमा ओ नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववजिर्हिति । २२ २२. [प्र०] से मंते । सीहा, बग्धा, बना, दीविया, अच्छा, तरच्छा, परस्सरा, निस्सीला तहेब जाय कहिं उचचलिहिंति [४०] गोषमा ! ओसनं नरम-तिरिषखजोणिपतु उच्चजिहिंति । २३. [प्र० ] ते णं भंते डंका, कंका, पिलका, मदुगा, सिद्दी, निस्सीला तद्देव जाव ओसनं नरग-तिरिफ्लजोगिएसु उपनिर्हिति । सेयं भेते ! सेवं भंते । ति । सत्तमस्स सस्स छढो उद्देसओ समत्तो । २१. [प्र० ] हे भगवन् ! शीलरहित, निर्गुण, मर्यादारहित, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवासरहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, मचमो आहार करनारा मृत शरीरमो आहार करनारा ते मनुष्यो मरणसमये काल करीने क्यां जो उ०) हे गीतम प्रायः नारक अने निर्यच योनिमां उत्पन्न थशे. २२. [प्र० ] हे भगवन् । ते सिंहो, बाघो को, दीपढाओ, रिछो, तरक्षो, शरभो ते प्रमाणे निःशील एवा यावत् क्या उत्पन्न परों [उ० ] हे गौतम! प्रायः नारक अने तिर्यचयोनिमां उत्पन्न पशे. २३. [प्र० ] हे भगवन् । ते कागदाओ, कंको पिएको, जलवायसो, मयूरो निःशील एवा ते प्रमाणे यावत् [क्यां उत्पन्न पशे] [उ०] प्रायः नारक अने तिथेच योनिमा उत्पन्न थशे. हे भगवन् से ए प्रमाणे छे. हे भगवन् । ते ए प्रमाणे छे [ एम कही गौतम यावत् विचरे छे] १ उत्सख । सातम शतकर्मा छट्टो उदेशक समाप्त. २ उसनं ख । ३ विकला क 'उरसरण क / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ. १. [प्र०] संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, जाव आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंवलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजा [उ.] गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया। प्र० से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चह-संवुडस्स णं जाव नो संपराइआ किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, तहेव जाव उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जा, सेणं अहासुत्तमेव रीयइ, से तेण?ण गोयमा! जाव नो संपराइआ किरिया कजद। २. [प्र०] रुवी भंते ! कामा, अरूवी कामा ? [उ०] गोयमा ! रूवी कामा, नो अरूवी कामा। ३. [प्र०] सचित्ता भंते ! कामा, अचित्ता कामा ? [उ०] गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा । ४. [प्र०] जीवा भंते ! कामा, अजीवा भंते ! कामा ? [उ०] गोयमा ! जीवा वि कामा, अजीवा वि कामा। ५. [प्र०] जीवाणं भंते ! कामा, अजीवाणं कामा ? [उ०] गोयमा ! जीवाणं कामा, नो अजीवाणं कामा। ६. [प्र.] कतिविहा णं भंते ! कामा पन्नता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा कामा पन्नत्ता, तं जहा सहा य, रूवा यं । ७. [प्र०] रूवी भंते ! भोगा, अरूवी भोगा ? [उ०] गोयमा ! रुवी भोगा, नो अरूवी भोगा । सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! उपयोग( सावधानता )पूर्वक गमन करता, यावत् उपयोगपूर्वक सूता-आळोटता के उपयोगपूर्वक वस्त्र, ___ संवृत अनगारने पात्र, कंबल अने पादपोंछनक( रजोहरण )ने ग्रहण करता अने मूकता संवृत-संवरयुक्त साधुने शुं ऐपिथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया क्रिया लागे ? [उ.] हे गौतम ! संवरयुक्त यावत् ते अनगारने ऐपिथिकी क्रिया लागे, सांपरायिकी क्रिया न लागे. [प्र०] हे भगवन् ! योपथिको किया एम शा हेतुथी कहो छो के संवरयुक्त साधुने यावत् सांपरायिकी क्रिया न लागे ! [उ०] हे गौतम ! जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ लागवान कारण. नष्ट थया होय तेने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे, तेमज यावत् सूत्रविरुद्ध चालनारने सांपरायिकी क्रिया लागे; ते संवरयुक्त अनगार सूत्र प्रमाणे वर्ते छे, ते हेतुथी हे गौतम! तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया न लागे. काम अने भोग. २. [प्र०] हे भगवन् ! कामो रूपी छे के अरूपी छे ? [उ०] हे गौतम ! कामो रूपी छे, पण हे आयुष्मान् श्रमण ! कामो काम रूपी के अरूपी? अरूपी नथी. ३. [प्र०] हे भगवन् ! कामो सचित्त छे के अचित्त छे ? [उ०] हे गौतम ! कामो सचित्त पण छे अने अचित्त पण छे. सचित्त के अचित्त? ४. [प्र०] हे भगवन् ! कामो जीव छे के अजीव छ? [उ०] हे गौतम ! कामो जीव पण छे अने अजीव पण छे. जीव के अजीक ? ५. [प्र०] हे भगवन् ! कामो जीवोने होय छे के अजीवोने होय छे? [उ.1 हे गौतम ! कामो जीवोने होय छे, पण अजीवोने जीवोने के अजीवोने? कामो होता नथी. ६. [प्र०] हे भगवन् ! कामो केटला प्रकारे कह्या छ ? [उ० ] हे गौतम ! कामो बे प्रकारे कह्या छे, जेमके शब्दो अने रूपो. ७. [प्र०] हे भगवन् ! भोगो रूपीछे के अरूपी छे ? [उ.] हे गौतम! भोगो रूपी छे, पण अरूपी नथी. भोगो रूपी के अरूपी कामा, समणाउसो ! नो घ । २ रुविं भं क-ख । ३ अरुवि भक-ख । Jain Education international Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक ७. ८. [प्र०] सचित्ता भंते ! भोगा, अचित्ता भोगा? [१०] गोयमा! सचित्ता विभोगा, अचित्ता वि भोगा। ९. [प्र०] जीवा गं भंते ! भोगा?-पुच्छा [उ०] गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। १०. [प्र०] जीवाणं भंते ! भोगा, अजीवाणं भोगा ? [उ०] गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा । ११. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! भोगा पनत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिविहा भोगा पन्नत्ता, तं जहा-गंधा, रसा, फासा । १२. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! कामभोगा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पन्नत्ता, तं जहा-सहा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । १३. [प्र०] जीवा णं भंते ! किं कामी, भोगी? [उ०] गोयमा! जीवा कामी वि, भोगी वि । [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवा कामी वि. भोगी वि ? [उ०] गोयमा ! सोइंदिय-चक्खिदियाई पडुच्च कामी, धाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च भोगी, से तेणटेणं गोयमा! जाव भोगी वि। १४. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं कामी, भोगी ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारा । १५. [प्र०] पुढेविकाइयाणं पुच्छा [उ०] गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी, भोगी। [प्र०] से केणटेणं जाव भोगी ? [उ०] गोयमा ! फासिदियं पडुच्च, से तेणटेणं जाव भोगी; एवं जाव वणस्सइकाइया; बेइंदिया एवं चेव, नवरं जिभिदियफासिंदियाइं पडुच्च भोगी; तेइंदिया वि एवं चेव, नवरं घाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च भोगी। १६. [प्र०] चरिंदियाणं पुच्छा [उ०] गोयमा! चरिंदिया कामी वि, भोगी वि । [प्र०] से केणटेणं जाव भोगी वि ? [उ०] गोयमा! चक्खिदियं पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च भोगी, से तेणटेणं जाव भोगी वि । अवसेसा जहा जीवा, जाव वेमाणिया। भोगो सचित्त के ८. [प्र०] हे भगवन् ! भोगो सचित्त छे के अचित्त छे ? [प्र०] हे गौतम ! भोगो सचित्त पण छे अने अचित्त पण छे. अचित्त।. भोगो जीव के ९. [प्र०] हे भगवन् ! भोगो जीवस्वरूप छे के अजीवस्वरूप छे? [उ.] हे गौतम! भोगो जीवस्वरूप पण छे अने अजीवखरूप अजीव! पण छे. भोगी जीवोनोयो १०. [प्र०] हे भगवन् ! भोगो जीवोने होय के अजीबोने होय ! [उ० ] हे गौतम ! भोगो जीवोने होय छे, पण अजीवोने भोगो अजीवोने! होता नथी. भोगोना प्रकार. ११. [प्र०] हे भगवन् ! भोगो केटला प्रकारना कह्या छ ? [ उ० ] हे गौतम ! भोगो त्रण प्रकारना कह्या छे; ते आप्रमाणे-गंध, रस अने स्पर्श. काम भोगना प्रकार. १२. [प्र०] हे भगवन् ! काम-भोग केटला प्रकारे कह्या छे ! [ उ० ] हे गौतम ! काम अने भोग [ बन्ने मळी ] पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श. जीवो कामी के भोगी? १३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो कामी के भोगी छे ? [उ० ] हे गौतम ! जीवो कामी पण छे, अने भोगी पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के जीवो कामी पण छे अने भोगी पण छे ! [उ०] हे गौतम! श्रोत्रंद्रिय अने चक्षुने आश्रयी जीवो कामी कहेवाय छे, तेम घ्राणेन्द्रिय, जिहेन्द्रिय अने स्पर्शनेन्द्रियनी अपेक्षाए जीवो भोगी कहेवाय छे; ते हेतुथी हे गौतम ! जीवो यावत् भोगी पण छे. नारको कामी भने १४. हे भगवन् ! शुं नारको कामी छे के भोगी छे ! [उ.1 पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारोने जाणवू. 'भोगी. पृथिवीकाय. १५. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिको कामी नथी, पण भोगी छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के पृथिवीकायिको भोगी छे ? हे गौतम! स्पर्शनेन्द्रियने आश्रयी; ते हेतुथी तेओ यावत् भोगी छे. ए प्रमाणे बेन्द्रिय ते इन्द्रिय यावत् वनस्पतिकायिको जाणवा, बेइन्द्रिय जीवो पण ए प्रमाणे जाणवा, परन्तु तेओ जिह्वा अने स्पर्शनेन्द्रियनी अपेक्षाए भोगी छे. तेइन्द्रिय जीवो. जीवो पण ए प्रमाणे जाणवा, पण घाण, जिह्वा अने स्पर्शनेन्द्रियनी अपेक्षाए तेओ भोगी छे. चतुरिन्द्रिय जीवो. १६. [प्र०] चउरिन्द्रिय जीवोनो प्रश्न. [उ.] हे गौतम! चउरिन्द्रिय जीवो कामी पण छे अने भोगी पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत् भोगी पण छे ? [उ.] ते चउरिन्द्रिय जीवो चक्षुनी अपेक्षाए कामी; घाण, जिह्वा अने स्पर्शनेन्द्रियनी अपेक्षाए भोगी छे; ते हेतुधी यावत् भोगी समजवा. वाकीना यावत् वैमानिक सुधीना जीवो जेम सामान्य जीवो कह्या तेम जाणवा. १ पुढवीकाईआ-ख। २ पडुच्चते-ख। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७. प्र० एएसिणं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, नोकामीणं नोभोगीणं, भोगीण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा कामभोगी, नोकामी नोभोगी अणंतगुणा, भोगी अणंतगुणा ।' - १८. [प्र०] छउमत्थे णं भंते ! मणूसे जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजित्तए, से तृणं भंते ! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, वलेणं, वीरिएणं, पुरिसकार-परकमेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? से पूर्ण भंते ! एयमटुं एवं वयह ? [उ०] गोयमा! णो 'तिणटे समटे, पभू णं भंते ! से उठाणेण वि, कम्मेण वि, वलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसकार-परक्कमेण वि अन्नयराई विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिचयमाणे महानिजरे, महापजवसाणे भवइ । १९. [प्र०] आहोहिए णं भंते ! मैणूसे जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु ? [उ०] एवं चेव, जहा छउमत्थे जाव महापजवसाणे भवति । २०. [प्र०] परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए, जाव अंतं करेत्तए, से पूर्ण भंते ! से खीणभोगी-? [उ०] सेसं जहा छउमत्थस्स। २१. [प्र०] केवली णं भंते ! मैणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं ? [उ०] एवं जहा परमाहोहिए, जाव महापज्जयसाणे भवइ । २२. [प्र. जे इमे भंते! असन्निणो पाणा, तं जहा-पुढविक्काइआ जाव वणस्सइकाइआ, छट्ठा य एगतिया तसा, एए गं अंधा, मूढा, तमं पविट्ठा, तमपडल-मोहजालपड़िच्छन्ना अकामनिकरणं वेदणं वेदन्तीति वत्तवं सिया? [उ०] हंता, गोयमा! जे इमे असन्निणो पाणा, जाव पुढविकाइआ जाव वणस्सइकाइआ छट्ठा य जाव वेदणं वेदेंतीति वत्तवं सिया। अस्पबहुल छयस्य मनुष्प १७. प्र०] हे भगवन् ! कामभोगी, नोकामी नोभोगी अने भोगी जीवोमां कया जीवो क्या जीवोथी यावत् विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम ! कामभोगी जीवो सौथी थोडा छे, नोकामी नोभोगी जीवो अनन्तगुण छे, अने भोगी जीवो अनन्तगुण छे. १८. [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य जे कोइ पण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते क्षीणभोगी-दुर्बलशरीरवाळो उत्थान वडे, कर्म वडे, बल वडे, वीर्य वडे अने पुरुषकार-पराक्रम वडे विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगववा समर्थ छे ? हे भगवन् ! खरेखर आ अर्थने आ प्रमाणे कहो छो! [उ० ] हे गौतम ! आ अर्थ योग्य नथी. ते उत्थान वडे पण, कर्म वडे पण, बलवडे पण, वीर्य वडे पण अने पुरुषकार-पराक्रम वडे पण कोइ पण विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगववा समर्थ छे, ते माटे ते भोगी भोगोनो त्याग करतो महानिर्जरावाळो अने महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय छे. १९. [प्र०] हे भगवन् ! अधोऽवधिक-नियतक्षेत्रना अवधिज्ञानवाळो-मनुष्य जे कोइ पण देवलोकमा देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य अधोवषिशानी. छे ते क्षीणभोगी पुरुषकार-पराक्रमवडे विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे? [ उ०] ए प्रमाणे छद्मस्थनी पेठे यावत् ते महापर्यवसानमहाफलवाळो थाय छे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! परमावधिज्ञानी मनुष्य जे तेज भवमा सिद्ध थवाने यावत् [ सर्व दुःखोनो] अन्त करवाने योग्य छे, हे परमावधि ज्ञानी. भगवन् ! खरेखर ते क्षीणभोगी विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे? [उ.] बाकी- सर्व उमस्थनी पेठे जाणवु. २१. [प्र०] केवलज्ञानी मनुष्य जे तेज भवमां सिद्ध थवाने यावत् [दुःखोनो] अन्त करवाने योग्य छे ते-[ विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे?][उ.] परमावधिज्ञानी पेठे जाणवं, यावत् ते महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय छे. फेवलशानी. २२. [प्र०] हे भगवन् ! जे आ "असंज्ञी-मनरहित प्राणीओ छे, जेमके, पृथिवीकायिको यावत् बनस्पतिकायिको अने छटा केटला असंधी जीयो मकामएक (संमूर्छिम ) त्रसजीवो, जेओ अंध-अज्ञानी, मूढ, अज्ञानान्धकारमा प्रवेश करेला, अज्ञानरूप आवरण अने मोहजाल बडे ढंकायेला छे पूर्वक पेदना । तेओ अकामनिकरण-अनिच्छापूर्वक-वेदना वेदे छे एम कहेवाय ! [उ.] हा, गौतम! जे आ असंज्ञी प्राणीओ पृथिवीकायिको यावत् वनस्पतिकायिको अने छठा [संमूर्छिम सो अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय. इणहे घ। २ मणुस्से घ। ३ मणुस्से घ। ४-छिना ख। २२. * 'जे असंज्ञी-मनरहित प्राणीओ छे, तेओने मन नहि होवाथी. इच्छाशक्ति भने ज्ञानशक्तिने अभावे भकामनिकरण-अनिष्ठापूर्वक अज्ञानपणे वेदना-सुखदुःखनो अनुभव करे आवो प्रश्ननो भावार्थ छ, तेना उत्तरमा 'हा' अनुभव करे एम कयुं छे. ४ भ. सू. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. ७. २३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं 'वेदेति ? [30] हंता, गोयमा ! अस्थि । २४. [प्र०] कहं णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? [३०] गोयमा ! जे णं णो पभू विणा पैदीवेणं मंधकारंसि रूवाई पासित्तए, 'जेणं नो पभू पुरओ स्वाइं अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जेणं नो पभू मग्गओ रुवाई अणवयपिखप्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू पासओ रूवाइं अणवलोइत्ता गं पासित्तए, जे णं नो पभू उर्ल्ड रूवाई अणालोऍत्ता णं पासित्तए, जे शं नो पभू अहे रूवाई अलोइत्ता णं पासित्तए, एस णं गोयमा! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति । २५. [प्र०] अस्थि णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? [उ०] हन्ता, अत्यि । २६.प्र. कहं णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? [उ०] गोयमा! जेणं नो पभू समुदस्स पारं गमि. त्तए, जेणं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जेणं नो पभू देवलोगगयाई रूवाइं पासित्तए, एस गं गोयमा! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति सत्तमस्स सयस्स सत्तमो उद्देसओ समत्तो । समर्थ छतो काम . २३. [प्र०] *हे भगवन् ! शुं एम छे के समर्थ छतां (संज्ञी छतां) पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने वेदे ? [उ० ] हे गौतम ! वेदना वेदे? हा एम छे. समर्थ छत पण अ २४. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ! [उ० ] हे गौतम! जे समर्थ छतां अंधकारमां कामपूर्वक वेदना केम प्रदीप शिवाय रूपो (पदार्थों ) जोवाने समर्थ नथी, जे अवलोकन कर्या शिवाय आगळ रहेला रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे अवेक्षण घेदे। कर्या विना पाछळ रहेला रूपो जोवा समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय उपरना रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय नीचेना रूपो जोवाने समर्थ नथी; हे गौतम ! ते आ समर्थ छतां पण अनिच्छापूर्वक वेदनाने वेदे छे. . समर्ध वीवेच्छापूर्वक २५. [प्र०] 1हे भगवन् ! एम छे के समर्थ पण प्रकामनिकरण-तीबेच्छापूर्वक-वेदनाने वेदे ? [उ.] हे गौतम ! हा वेदे. वेदना वेदे। समर्थ तीवेच्छापूर्वक २६. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण तीब्रेच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ! [उ० ] हे गौतम ! जे समुद्रनो पार पामवा समर्थ नथी, वेदनाने केम वेवे ! जे समुद्रने पार रहेला रूपो जोबा समर्थ नथी, जे देवलोकमां जवा समर्थ नथी, अने जे देवलोकमां रहेला रूपोने जोवा समर्थ नथी; हे गौतम ! ते समर्थ छतां पण तीवेच्छापूर्वक वेदनाने वेदे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, [एम कही गौतम यावद् विचरे छे. ] सातमां शतकमां सातमो उद्देशक समाप्त. घेदंति ख। २ दीवेणं घ। ३-झाएत्ता ख। ४ अणुलो-ध, अणालोइत्ता ख । ५-एयत्ता ख। ६ भणालोयत्ता ख । २३-२४. * जे संज्ञी-मनसहित-समर्थ छे, तेओ पण अनिच्छापूर्वक अज्ञानपणे सुखदुःखनो अनुभव करे ? हा तेओ पण करे ? हे भगवन् । जेओ समर्थ-इच्छाशक्ति भने ज्ञानशक्तियुक्त-छतां तेओ अनिच्छापूर्वक अज्ञानपणे शी रीते सुखदुःखनो अनुभव करे ? तेना उत्तरमा कह्यु छे के जे समर्थ (जोवानी शक्तिवाळो) छता अन्धकारमा रहेला पदार्थोने प्रदीप शिवाय जोइ शकतो नथी, तेम पाछळ, उंचे, नीचे रहेला पदार्थोंने उपयोग-ख्याल-शिवाय जोइ शकतो नथी, ते समर्थ छतां-इच्छाशक्ति अने ज्ञानशक्तियुक्त छतां-अज्ञानदशामा सुखदुःखनो अनुभव करे छे. ज्यारे अंसज्ञी जीव सामभ्यंने अभावे इच्छा अने ज्ञानशकिरहित होवाथी अनिच्छा अने अज्ञानदशामां सुखदुःख वेदे छे, तेम संज्ञी इच्छा अने ज्ञानशक्ति होवा छतां ते शक्तिनी प्रवृत्तिने अभावे अनिच्छा अने अज्ञा-' नदशामा सुख दुःख वेदे छे. . २५-२६. संज्ञी मनसहित होवा छता प्रकामनिकरण-तीव्र अभिलाषपूर्वक-सुख दुःखने वेदे ! हा वेदे. हे भगवन् ! शी रीते वेदे ? सेना उत्तरमा कह्यु छे के जे समुद्रनी पार जवाने समर्थ नथी, तेने पार रहेला रूपो जोवाने समर्थ नथी ते तीव्र अभिलाषपूर्वक सुख-दुःखने वेदे छे. अहीं ते इच्छाशक्ति अने ज्ञानशक्ति संपन छे, परन्तु तेने प्राप्त करवानुं सामर्थ्य नथी, मात्र तेनो तीव्र अभिलाष छे, तेथी ते सुखदुःखने वेदे छे. असंज्ञी जीवो इच्छा अने ज्ञानशक्तिने भभावे अनिच्छा,अने अज्ञानपूर्वक सुख-दुःख वेदे छे. संज्ञी जीवो इच्छा अने ज्ञानशक्तियुक्त होवा छतां उपयोगने अभावे अनिच्छा अने अज्ञानपूर्वक सुखदुःख वेदे छे. वळी संझी जीवो समर्थ तेम इच्छायुक होवा छतां प्राप्तिना सामर्थ्यने अभावे मात्र तीव्र अभिलाषथी सुख दुःख वेदे छे. Jain Education international Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमो उद्देसओ । १. [ प्र० ] मत्थे णं भंते! मणूसे तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं एवं जहा पदमसर चडत्ये उद्देस तहा भाणियां, जाय अलमा । २. [प्र० ] से णूणं भंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ? [अ०] हंता, गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य एवं जहा 'रायप्पसेणइजे' जाव खुडियं वा, महालियं वा से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव समे चैव जीवे । 3 ३. [प्र० ] नेरयाणं भंते! पावे कस्मे जे व कडे जे व फजद, जे य कखिस्सद सधे से दुफ्ले, जे निञ्जिने से मुद्दे ? [४०] हंता, गोयमा नेरवा पाये कम्मे जाप सुद्दे एवं जाव बेमाणियाणं । ४. [प्र० ] कति णं ते! सनाओ पत्रताओ ? [४०] गोयमा ! दस साओ पद्मत्ताओ, तं जहा आहारसचा, भवसन्ना, मेहुणसन्ना, परिम्गहसना, कोहसना, माणसन्ना, मायासन्ना, लोभसन्ना, लोगसन्ना, ओहसन्ना एवं जाच बेमाणियाणं । ५. नेरइया दसविहं वेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-सीयं, उंसिणं, खुद्द पिवासं, कंडुं, परज्झं, जरं, दाहं, भयं सोगं । अष्टम उद्देश. मनुष्य अनंत अने शापत अतीत काले केवळ संयम वडे [ यावत् सिद्ध घयो] [30] ९ प्रमाणे कां छे तेम यावत् 'अलमस्तु' पाठ सुधी कहेनुं. t १. [प्र० ] हे भगवन् । छद्मस्थ जैम प्रथम शतकला चोथा उदेशकमां जीव समान. २. [ प्र० ] हे भगवन् ! खरेखर हस्ती अने कुंथुनो जीव समान छे ? [ उ०] हा गौतम ! हस्ती अने कुंधुनो [ जीव समान छे. ] हस्ती अने कुंधुनो जेम 'रायपसेणीय' सूत्रमांकां छे ते प्रमाणे यावत् 'खुड्डियं वा महालिये वा' ए पाठ सुधी जाणवुं. ३. [प्र०] हे भगवन् ! नारको वडे जे पाप कर्म करायेलं छे, कराय छे अने कराशे ते सघलुं दुःखरूप छे, अने जे निर्जीर्ण पाप कर्म दुःखरूप(क्षीण) थयुं ते सुखरूप छे ? [उ०] हा, गौतम ! नारको वडे जे पाप कर्म करायुं । ते दुःखरूप छे, अने जे निर्जीर्ण थयुं ] ते यावत् सुखरूप छे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकाने जाणवु. ४. [प्र०] हे भगवन् ! संज्ञाओ केटली कहेली छे ? [उ०] हे गौतम! दश संज्ञाओ कही छे. जेम, १ आहारसंज्ञा, २ भयसंज्ञा, ३ मैथुनसंज्ञा, ४ परिग्रहसंज्ञा, ५ क्रोधसंज्ञा, ६ मानसंज्ञा, ७ मायासंज्ञा, ८ लोभसंज्ञा, ९ लोकसंज्ञा, अने १० ओघसंज्ञा. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकाने जाणवुं. १ - णुभव ख । २ उसीणं ख । , १. अपशिष्ट केवल बजे, केवल अष्ट प्रवचनमाताओना पालन पो बोध पाम्यो यावत् सर्व दुःखोनो अन्त फर्मों ? [30] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. ४. १३०२१११-१५२) छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम वडे सिद्ध थयो ? ५. [५० ] नारको दश प्रकारनी वेदनानो अनुभव करता होय छे; ते आ प्रमाणे- १ शीत २ उष्ण ३ क्षुधा, ४ पिपासा तरस, शारको प्र ५ कंडू खरज, ६ परतन्त्रता, ७ र ८ दाह, ९ भय, १० शोक. रनी वेदना. अशिष्ट अश[प्र.] उत्पन्न ज्ञानदर्शनने धारण करनारा अरिहंत, जिन, केवली पूर्ण के एम कहेवाय ? [अ०] हा, गौतम ! उत्पन्न ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा अरिहंत जिन केवली अलमस्तु पूर्ण छे एम कहेवाय. दश संज्ञाओ. / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. ८. ६. [प्र०] से गृणं भंते ! हत्थिरस य कुंथुस्स य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कजति [उ.] इंता, गोयमा! पत्थिस्स य कुंथुस्स य जाव कजति। [म] से फेणटेणं भंते ! एवं बुधा जाप कजा [उ० ] गोयमा ! अविरतिं पशुण, से तेणटेणं जाव कजाइ । ७.प्र. आहाफम्म णं भंते ! भुंजमाणे किं बंधह, किं पकरेइ, किंचिणाइ, किं उवचिणार? [उ.] एवं जहा पदमे सए नवमे उद्देसए तहा भाणियचं, जाव सासए पंडिए, पंडियतं असासयं । सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति । सत्तमस्स सयस्स अट्ठमो उद्देसो समत्तो । पाथी अने कुंथुने समान अप्रत्यास्यान किया. ६. [प्र०] हे भगवन् ! खरेखर हाथी अने कुंथुने अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय ! [उ०] हा, गौतम ! हाथी अने कुन्थुने यावत् अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के हाथी अने कुन्थुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया होय ? [उ०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी, ते हेतुथी यावत् हाथी अने कुंथुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया होय. অন্ধ, ७. [प्र०] हे भगवन् | आधाकर्म आहारने खानार [ साधु ] शुं बांधे, शुं करे, शेनो चय करे अने शेनो उपचय करे ? [उ०] जेम *प्रथम शतकना नवमां उद्देशकमां कयुं छे ए प्रमाणे यावत् पंडित शाश्वत छे, पण पंडितपणुं अशाश्वत छे' त्यां सुधी कहे,. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे [एम कही गौतम यावत् विचरे छे]. सातमां शतकमां आठमो उद्देशक समाप्त. ७. *पृ. २१०. प्र. ३०३-३०९. अवशिष्ट अंश-हे गौतम ! आधाकर्म आहारने खानार [साधु] आयुषकर्म शिवाय सातकर्मनी प्रकृतिको शिथिलबंधथी बंधायेली होय तो तेनो गाढ बन्ध करे छे, यावत् संसारमा भ्रमण करे छे. अवशिष्ट अंश-हे भगवन् ! अस्थिर वस्तु परावर्तन पामे, स्थिर वस्तु परावर्तन न पामे ! अस्थिर वस्तु भांगे, स्थिर न भांगे ? बालक शाश्वत ले, बालका अशाश्वत छे ? पंडित शाश्वत छे, पंडितपणुं अशाश्वत छे ! [उ.] हे गौतम ! अस्थिर वस्तु परावर्तन पामे, यावत् पंडितपणुं अशाश्वत छे. . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ। १. [प्र०] असंखुडे भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू एगवन्न एगलवं विउवित्तए ? [२०] णो तिणटे समढे। २. [प्र०] असंखुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवनं एगरूवं जाव-[उ० ] हंता, पम् । ३. [प्र०] से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउँपति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउधति, अश्नत्थगए पोग्गले • ? [उ.1 गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुखद, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुचर, नो अन्नत्थगए पोग्गले जाव विकुष्वति । एवं एगवन्नं अणेगरूवं चउभंगो जहा छ?सए नवमे उद्देसए तहा इहा विभाणियचं, नवरं अणगारे ईंहगय(ए)इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुधइ, सेसं तं चेव, जाव लुक्खपोग्गलं निद्धपोग्गलत्ताए परिणा. मेत्तए ? हन्ता, पभू । से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाहत्ता, जाव नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुचद । नवमो उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! असंवृत-प्रमत्त साधु-वहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय एकवर्णवाळु एक रूप विकुर्ववा समर्थ छे ? असंवत साधु. [उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. २. [प्र०] हे भगवन् ! असंवृत साधु बहारना पुद्गलोने ग्रहण करी एकवर्णवाळु एक रूप यावत् [विकुर्ववा समर्थ छे !] [उ०] हा, समर्थ छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ते साधु शुं अहीं-मनुष्य लोकमा रहेला-पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वे, त्यां रहेला पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वे के अन्य स्थळे रहेला पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वे ? [उ०] हे गौतम ! अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी विकुर्वे, पण त्यां रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी न विकुर्वे, तेम अन्यत्र रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी यावत् न विकुर्वे. ए प्रमाणे एकवर्ण अने अनेकरूप-इत्यादि चतुभंगी जेम *छट्ठा शतकना नवमा उद्देशकमां कही छे तेम अहीं पण कहेवी; परन्तु एटलो विशेष छे के अहीं रहेलो साधु अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी विकुर्वे, बाकी ते प्रमाणे यावत् 'रुक्षपुद्गलोने स्निग्धपुद्गलो पणे परिणमाववा समर्थ छे ? हा, समर्थ छे; हे भगवन् ! शुं अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी, यावत् अन्यत्र रहेला पुदगलोने ग्रहण कर्या शिवाय विकुर्वे छे त्यां सुधी जाणवं. पाहिरिए ख। २ परियादितिचा क। विगुष्वति को इहइं इह-क। २. *जुओ (पृ. ३३८ प्र.३-६). Jain Education international Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक ९. महाशिला कंटक संग्राम ४. [प्र०] णायमेयं अरया, सुयमेयं अरहया, विनायमेयं अरहया-महासिलाकंटए संगामे । महासिलाकंटए पं भंते ! संगामे वट्टमाणे के अइत्था, के पराजइत्था ? [उ०] गोयमा ! वजी विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई नव लेच्छई कासी-कोसलगा अटारस वि गणरायाणो पराजइत्था । तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटकं संगामं उवट्टियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-जोह-कलियं चाउरंगिर्णि सेणं सन्नाहेह, सन्नाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडुबियपुरिसा कोणिएणं रना एवं वुत्ता समाणा हट्ट-तुटू-जाव अंजलिं कट्ट 'एवं सामी, तहत्ति' आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमतिकप्पणा-विकप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उववाइए जाव भीमं संगामियं अउज्झं उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेंति, हय-गय- जाव समाति, संनाहित्ता जेणेव कृणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कर-यल- जाव कृणियस्स रन्नो तमाणत्तियं पञ्चप्पिगंति। तए णं से कृणिए राया जेणेव मजणघरं तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मजणघरं अणुप्पविसइ, मजणघरं अणुप्पविसित्ता पहाए, कयवलिकम्मे, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते, सवालंकारविभूसिए, सन्नद्ध-बद्ध-वम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टीए, पिणद्धगेवेज-विमलवरबचिधपट्टे, गहियाउहप्पहरणे, संकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामरबालवीतियंगे, मंगलजयसद्दकयालोए एवं जहा उववाइए जाव उवागच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरुढे । तए णं से कूणिए राया हारोत्थयसुकयरइयवच्छे जहा उववाइए जाव सेयवरचामराहिं उद्धृधमाणीहिं उद्धृवमाणीहिं हय-गय-रहपवरजोहफलियाए ४. [प्र०] अर्हते जाण्युं छे, अर्हते प्रत्यक्ष कयुं छे, अर्हते विशेषतः जाण्यु छे के महाशिलाकंटक नामे संग्राम छे. हे भगवन् । *महाशिलाकंटक संग्राम थतो हतो त्यारे कोण जीत्या अने कोण हार्या ? [उ०] हे गौतम ! वज्जी (इन्द्र) अने विदेहपुत्र (कूणिक) जीत्या, नव मल्लकी अने नव लेच्छकी जेओ काशी अने कोशलदेशना अढार गणराजाओ हता तेओ पराजय पाम्या. त्यार पछी-महाशिलाकंटक संग्राम विकुळ पछी-ते कूणिक राजा महाशिला कंटक नामे संग्राम उपस्थित थएलो जाणी पोताना कौटुम्बिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेओने एम कर्दा के हे देवानुप्रियो ! शीघ्र उदायि नामना पट्टहस्तीने तैयार करो, अने घोडा, हाथी, रथ अने योधाओथी युक्त चतुरंग सेनाने तैयार करो, तैयार करी मारी आज्ञा जल्दी पाठी आपो. त्यार बाद ते कूणिकना एम कहेबाथी ते कौटुम्बिक पुरुपो हृष्ट तुष्ट थइ यावत् अंजली करीने हे स्वामिन् ! ए प्रमाणे 'जेवी आज्ञा' एम कहीने आज्ञा अने विनय वडे वचननो स्वीकार करे छे. वचननो स्वीकार करीने कुशल आचार्योना उपदेश वडे तीक्ष्ण मतिकल्पनाना विकल्पोथी ओिपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावद् भयंकर अने जेनी साथे कोइ युद्ध न करी शके एवा उदायि नामना मुख्य हस्तीने तैयार करे छे; घोडा हाथी इत्यादिथी युक्त यावत् [चतुरंग सेनाने तैयार करे छे. ] ते सेनाने सज्ज करीने ज्यां कूणिकराजा छे त्यां तेओ आवे छे, आवीने करतल [जोडीने ] कूणिक राजाने ते आज्ञा पाछी आपे छे. त्यार बाद ते कूणिक राजा ज्यां स्नानगृह छे त्यां आवे छे, अने त्यां आवीने स्नानगृहमा प्रवेश करे छे, त्यां प्रवेश करी न्हाइ बलिकर्म (पूजा) करी प्रायश्चित्तरूप (विनोनो नाश करनार) कौतुक (मषीतिलकादि) अने मंगलो करी सर्वालंकारथी विभूपित थइ, सन्नद्ध बद्ध थइ बख्तरने धारण करी वाळेला धनुदंडने ग्रहण करी, डोकमा आभूषण पहेरी, उत्तमोत्तम चिह्नपट्ट बांधी, आयुध अने प्रहरणोने धारण करी, माथे धारण कराता कोरंटक पुष्पनी माळावाळा छत्र सहित, जेनु अंग चार चामरोना वाळ वडे वीजायलुं छे, जेना दर्शनधी मंगल अने जयशब्द थाय छे एयो (कूणिक) ओपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् आवीने उदायिनामे प्रधानहस्ती उपर चढ़यो. त्यार बाद हारवडे तेनुं वक्षःस्थळ ढंकागेलु होवाथी रति उत्पन्न करतो ओपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे वारंवार वीजाता श्वेत चामरो वडे यावत् घोडा, हाथी, रथ अने उत्तम योद्धाओथी युक्त चतुरंग सेनानी साथे परिवारयुक्त, महान् सुभटोना विस्तीर्ण समूहथी व्याप्त कूणिकराजा ज्या महाशिलाकंटक १जयिस्था ख । २ सदावेई ख । ३ तेणेव उवागच्छइत्ता घ । गच्छह घ । ५ तेणेव उया-घ । ६ अणुपवि-घ। • सकोरंट-क। ४. * महाशिलाकंटक संग्रामनो संबन्ध आ प्रमाणे छे-चम्पानगरीमा कूणिक नामे राजा हतो, तेने हाल भने विहाल नामे बे नाना भाईओ हता, ते बने हमेशा सेचनक गन्धद्दस्ति उपर बेसी विलास करता, ते जोइने कूणिकराजनी पत्नी पद्मावतीए अदेखाइथी तेनी पासेथी ते हस्ती लइ लेवा माटे कूणिकने का. कणिके तेओनी पासे हस्तीनी मागणी करी. ते बन्ने भाइओ कूणिकना भयथी नासीने हस्ती अने परिवारसहित वैशाली नगरीमा पोतांना मामा चेटक राजानी पासे गया. कूणिके दूत मोकली ते वन्ने भाईओने सौंपी देवानी मागणी करी, परन्तु चेटकराजाए सौंपवानी ना कही. कूणिके कहेराव्यु के जो तुं ते बन्ने भाईओने न मोकल तो युद्ध करवा तैयार था. चेटकराजाए उत्तर आप्यो हुँ तयार छु. तेथी कूणिके पोताना कालादि दश भाईओने चेटकराजानी साथे युद्ध करवा बोलाव्या. आ बात जाणीने चेटकराजाए पण अढार गणराजाओने एकठा कर्या. युद्ध शरु थयु. चेटकराजाने एव॒ प्रत (नियम) हतुं ते दिवसमा एकवार एक बाण फेंकता, परन्तु तेनुं बाण कदी निष्फळ जतुं नहोतुं. कूणिकना सैन्यनो दंडनायक काल नामे तेनो भाइ हतो, ते युद्ध करता चेटकराजानी पासे गयो. चेटके तेने एक बाण वडे पाज्यो, कूणिकनुं सैन्य नाडं, बन्ने सन्यो पोताने स्थाने गया. दश दिवसमां चेटकराजाए कूणिकना कालादि दश भाईओनो नाश कयों. अगिआरमे दिवसे कूणिके चेटकने जितवा माटे देवर्नु आराधन करवा अष्टम (प्रण उपवास) तप क्यु तेथी शक अने चमरेन्द्र आव्या. शके कर्यु के चेटक परमश्रावक छे तेथी तेने हुं मारीश नहि, पण तारं रक्षण फरीश. तेथी ते शके कणिकर्नु रक्षण करवा सारु बनना जेवू अमेद्य कवच कर्यु अनें चम रेन्द्रे बे संग्राम विकुळ-महाशिलाकंटक अने रथमुशल संप्राम. जुओ-(भ. टी. प. ३१६.) जुओ (औप. प. ६२-१). जुओ (औप. प. ६६-२.) 1 जुओ (औप० प. ७२-१) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७. - उदेशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१ चाउरंगिणीए सेणा सद्धिं संपरिवुडे, महयाभडचडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटप संगामे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छत्ता महासिलाकटयं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के देविंदे देवराया एगं महं अभेज्जकवयं वहरपडिरूवगं विव्वित्ता चि। एवं खलु दो हंदा संगामं संगामेति तं जहा देबिंदे व मथुरंदे व एगहत्थिणा विणं पभू कृषिए राया पैरा जिविताए । तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे नव महई नय लेच्छई फासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हयमहियपवरवीरघाइय-विवडियचिद्भयपढागे किच्छपाणगर दिसो दिसि पडिसेहित्या | - ५. [प्र० ] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ महासिलाकंटप संगामे ? [अ०] गोयमा ! महासिलाकंदर णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे था, हत्थी वा जोहे वा, सारही वा तपेण वा पत्तेच वा, कट्टेण वा, सकराए था, अभिहम्मति सधे से जाणे महासिला भई अभिहर से रोणणं गोयमा ! महासिलाकंदर संगामे । ६. [प्र० ] महासिलाकं णं भंते! संगामे बट्टमाणे कति जनसबसाइस्सीओ पहियाओ ? [30] गोवमा ! चढरासीइं जणसयसाहसीओ बहियाओ । ७. [प्र० ] ते वयं भंते! मणुया निस्सीला, जाव निष्पचस्वानपोसो बबासा, रुट्ठा, परिकुविया, समरपदिया, असुंचसंता कालमासे कार्य किया कहिं गया, कहि उबवना ? [४०] गोषमा ! ओसनं नरम-तिरिक्य जोपिय डववन्ना । ८. [प्र० ] णायमेयं अरया, सुयमेयं अरहया, विनायमेयं अरइया-रहमुसले संगामे । रहमुसले णं भंते! संगामे यमाणे के जत्था के पराजहत्था ? [४०] गोयमा बज्जी, विदेपुते, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था नवमलई नच लेच्छई पराजयित्था । तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उवट्ठियं, सेसं जहा महासिलाकंटप, नवरं भूयाणंदे हथिया जाव रदमुसलं संगामं ओयाए पुरओ य से सके देविंदे देवराया एवं तब जाय चिट्ठति मगओ य से चमरे असुरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयासं किढिणपडिरूपगं विउधित्ता णं चिट्ठह । एवं खलु तभ इंदा संगामं संगार्मेति, तं जहा देविंदे व मणुदेव असुरिंदे व एग हत्था विणं पभू कृणिए राया इसए, तब जाब दिसोदिसि पडिसेहिया । 1 संग्रामछे त्या आवे छे, यां आवीने ते महाशिलाकंटक संग्राममा उत्तयों, तेनी आगळ देवनो इन्द्र देवनो राजा शक एक मोढुं वज्रना सरखुं अमे कवच ( बख्तर ) विकुर्वीने उभो छे. ए प्रमाणे वे इन्द्रो संग्राम करे छे, जेमके एक देवेन्द्र अने बीजो मनुजेन्द्र. हवे ते कूणिक राजा एक हाथी पढे पण शत्रुपक्षनो पराजय करवा समर्थ छे. त्यार बाद ते कूणिके महाशिलाकंटक संग्रामने करता नवमल्लकि अने नवच्छक जेओ काशी अने कोसलाना अदार गणराजाओ हता, तेओना महान् योद्धाओने हण्पा, घायल कर्या अने मारी नांख्या, तेओनी चिह्नयुक्त ध्वजा अने पताकाओ पाडी नांखी, अने जेओना प्राण मुश्केलीमां छे एवा तेओने [ युद्धमांथी ] चारे दिशाए नसाडी मूक्या. महाशिला कंटक ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! शा कारणथी एम कहेवाय छे के ते महाशिलाकंटक संग्राम छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ज्यारे महाशिलाकंटक संग्राम थतो हतो त्यारे ते संग्राममां जे घोडा, हाथी, योधा अने सारथिओ तृण, काष्ठ, पांदडा के कांकरा बती हणाय त्यारे तेओ सघळा शाथी कहेवाथ के ? एम जाणे के हुं महाशिलाची हणायो, ते हेतुषी हे गौतम! ते महाशिलाकंटक संग्राम कहेवाय छे. ६. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यारे महाशिलाकंटक संग्राम धतो हतो त्वारे तेमां केटला खास माणसो हणाया [३०] हे गौतम! महा चोराशी लाख माणसो हणाया. केटला लाख माणसोनो संहार भयो ? ७. [प्र० ] हे भगवन् ! निःशील, यावत् प्रत्याख्यान अने पोषधोपवासरहित, रोषे भरायेला, गुस्से थयेला, युद्धमां घायल थयेला, मरीने तेओ क्या अनुपशांत एवा से मनुष्यो कालसमये मरण पामीने क्यों गया, क्यों उत्पन्न थया [उ०] हे गौतम! घने भागे तेओ नारक अने सिचयो निमां उत्पन्न थया छे.. उत्पन्न थयां १ ८. [ प्र० ] अर्हते जाण्युं छे, अर्हते प्रत्यक्ष कर्तुं छे, अर्हते विशेष प्रकारे जाण्युं छे के रथमुशल नामे संग्राम छे. हे भगवन् ! ज्यारे रथमुशल नाने संग्राम तो हतो त्वारे कोनो विजय थयो, अने कोनो पराजय थयो [उ० ] हे गौतम! वनी (इन्द्र) विदेहपुत्र ( कूणिक ) अने असुरेन्द्र असुर कुमारराजा चमर एओ जील्या नव महकि अने नव लेच्छकि राजाओ पराजय पाम्या. स्वार बाद ते कूणिकराजा रथमुशल संग्राम उपस्थित थयेलो जाणी [ पोताना कौटुम्बिक पुरुषोने बोलावे छे ]. बाकीनुं [ सर्व वृत्तान्त ] * महाशिलाकंटक संग्रामनी पेठे जाणवुं. परन्तु विशेष ए छे के अहीं भूतानंद नामे प्रधान हस्ती छे; यावत् ते [ कूणिक ] रथमुशलसंग्राममां उतर्यो. तेनी आगळ देवेन्द्र देवराज शक छे. ए प्रमाणे पूर्वनी पेठे यावत् रहे छे. पाडळ असुरेन्द्र असुरकुंमारनो राजा चमर एक मोतुं सोढार्नु + किठीनना जेवुं कवच विकुर्वीने रहेलो छे. ए प्रमाणे खरेखर त्रण इन्द्रो युद्ध करे छे. जेमके देवेन्द्र, मनुजेन्द्र अने असुरेन्द्र. हवे ते कूणिक एक हाथीवडे पण शत्रुओनो पराजय करवा समर्थ छे. यावत् तेणे पूर्वे कह्या प्रमाणे [ शत्रुओने ] चारे दिशाए नसाडी मुक्या. १ तेणेव उवा घ । २ चिट्ठति घ । ३ पराजइत्तषु क । ४ - मूसले ख । ५ घ। मूसलं ६ भूयाणिंदे ख । ७ जयत्तए ख । जुओ (४) 1फनियां बनाये वापस पात्र टीका. कोनो ने कोनो पराजय ? / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ७.-उद्देशक ९. ९. [३०] से केणटेणं भंते! एवं वुश्चइ रहमुसले संगामे ? [उ०] गोयमा! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए, असारहिए, अणारोहए, समुसले महया जणक्खयं, जहवहं, जणप्पमई, जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सचओ समंता परिधावित्था, से तेणटेणं जाव रहमुसले संगामे । १०. [प्र०] रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ ? [उ०] गोयमा ! छण्णउति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ। ११. [प्र०] ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव उववन्ना ? [उ०] गोयमा! तत्थ णं दससाहस्सीओ एगाए मच्छीए कुच्छिसि उववन्नाओ, एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पञ्चायाए; अवसेसा ओसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववना । १२. [प्र०] कम्हा णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियरन्नो साहेजं दैलयित्या ? [उ०] गोयमा! सक्के देविंदे देवराया पुष्वसंगतिए, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए; एवं खलु गोयमा ! सके देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रनो साहेजं दलयित्यां। १३. [प्र०] बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवर्मोइफ्षति, जाव पेरूवेइ-एवं खलु वहवे मणुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किश्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते! एवं? [उ०] गोयमा ! जण्णं से बहुजणो अन्नमनस्स एवं आइक्खति-जाव उववत्तारो भवंति; जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाइंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव परूवेमि-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं, तेणं समएणं वेसाली नाम नगरी होत्था। यन्नओ, तत्थ णं वेसालीए णगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ, अढे जाव अपरिभूए, समणोवासए, अभिगयजीवाजीवे, जाव पडिलामेमाणे छठें छटेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए णं से वरुणे णागणत्तए अन्नयां कयाई रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलामिओगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्टभत्तिए अट्टमभत्तं अणुवति, अणुवट्टित्ता स्थमुशल संग्राम शाथी कहेबाय छे? मनुष्योनो संहार. तेओ मरीने क्या उत्पन्न थया? ९. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी ते रथमुशल संग्राम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे रथमुशलसंग्राम थतो हतो त्यारे अश्वरहित, सारथिरहित, योधाओ रहित अने मुशलसहित एक रथ घणा जनसंहारने, जनवधने, जनप्रमर्दने, जनप्रलयने, तेम लोहिना कीचडने करतो चारे तरफ चारे बाजुए दोडे छे; ते कारणथी यावत् ते रथमुशलसंग्राम कहेवाय छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे रथमुशल संग्राम थतो हतो त्यारे केटला लाख माणसो हणाया ! [उ०] हे गौतम ! छन्नुं लाख माणसो हणाया. ११. प्र०] हे भगवन् ! शीलरहित ते मनुष्यो यावत् क्या उत्पन्न थया ? [उ०] हे गौतम ! तेमा दश हजार मनुष्यो एक माछलीना उदरमा उत्पन्न थया, एक देवलोकमां उत्पन्न थयो, एक उत्तम कुलने विषे उत्पन्न थयो, अने बाकीना मनुप्यो घणे भागे नारक अने तिर्यंच योनिमा उत्पन्न थया. १२. [प्र०] हे भगवन् ! देवना इन्द्र देवना राजा शके अने असुरना इन्द्र असुरकुमारना राजा चमरे कूणिक राजाने केम सहाय आपी ? [उ०] हे गौतम ! देवनो इन्द्र देवनो राजा शक कूणिकराजानो पूर्वसंगतिक-पूर्वभवसंबन्धी मित्र-हतो, अने असुरेन्द्र असुरकुमारनो राजा चमर कूणिक राजानो पर्यायसंगतिक तापसनी अवस्थामां मित्र-हतो, तेथी हे गौतम! ए प्रमाणे देवना इन्द्र देवना राजा शके अने असुरेन्द्र असुरकुमारना राजा चमरे कूणिक राजाने सहायता आपी. १३. [प्र०] हे भगवन् ! घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपणा करे छे के अनेक प्रकारना संग्रामोमांना कोइ पण संग्राममा सामा (युद्ध करता) हणायेला घायल थयेला घणा मनुष्यो मरणसमये काळ करीने कोइ पण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थाय *छे, हे भगवन् ! ए प्रमाणे केम होय ! [उ०] हे गौतम! ते बहु मनुष्यो परस्पर जे ए प्रमाणे कहे छे के-यावत् तेओ देवपणे उत्पन्न थाय छे; पण जेओए ए प्रमाणे कर्तुं छे तेओए ए प्रमाणे मिथ्या कर्तुं छे. हे गौतम ! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपणा करुं छु. हे गौतम ! ते आ प्रमाणे-ते काळे अने ते समये वैशाली नामे नगरी हती. वर्णन. ते वैशाली नगरीमां वरुणनामे नागनो पौत्र रहेतो हतो, ते धनवान्, यावत् जेनो पराभव न थइ शके एवो (समर्थ) हतो. ते श्रमणोनो उपासक, जीवाजीव तत्त्वने जाणनार, यावत् [आहारादिवडे ] प्रतिलाभतो-सत्कार करतो-निरन्तर छह छहना तप करवा वडे आत्माने वासित करतो विचरे छे. त्यार वाद ज्यारे ते नागना पौत्र वरुणने राजाना अभियोगथी (आदेशथी), गणना अभियोगथी, बलना अभियोगथी रथमुशल संग्राममा जवा माटे आज्ञा थइ त्यारे षष्ठभक्त करनार शुं युद्धमा हणायेला स्वपमें जाय! ते मिथ्या छे. रंधमुशल संग्राममा - जवानी तैयारी. दलियल्या ख। ४-माइक्वंति ख-घ। ५ परूवेंति घ। ६-माहिंसुख। छन्नउति क विनाऽन्यत्र । २ मपिछयाएक। १३. * जुओ ( गीता अ. २ लो. ३७). Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७. - उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३ O फोयिपुरिसे सहावे, सावित्ता एवं पयासी चियामेव भो देवाणुपिया! चाइग्घंटं आसरहं तामेव उपद्वावेद इय-गय• जाय सत्राता मम एवं आपत्तियं पचप्पिय तर णं ते फोटुंबियपुरिसा जाब परिसुत्ता सिप्यामेव सच्छ सजाय जाद उघट्टावेंति, इय-गय-रह० जाव खन्नार्हेति, सन्नाहिता जेणेव वरुणे नागनत्तुर, जाव पथप्पिति। तर णं से वरणे नागनत्तुर जेणेव मजणारे तेणेव उपागच्छति, जहा कूणिओ, जाय - पायच्छिते, सवालंकारविभूलिए, सन्नद्ध-बद्धे सकोरंटमदामेणं जाव धरिक्षमाणेणं; अणेगगणनायक० जाव दूय- संधिपालसद्धिं संपरिपुडे मज्जणपराओ पडिनिस्वमति, पडिनिक्लमित्ता जेणेव बाहि रिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाङग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता हय-गयरद्द- जाव संपरिवुडे, मइयाभडचडगर जाय परिक्खिते जेणेव हमुसले संगाने तेथेच उपागच्छर, उद्यागच्छित्ता रेहमुसल संगानं जाओ । तर से वरुणे वागवत्तुप रहमुसलं संगामं जयाए समाणे अयमेयारुवं अभिवाहं अभिगेण्डर रुप्यति मे रेस संगामं संगामेमाणस्स जे पुद्धिं पहाड़ से पडिणित्सर, अवसेसे जो कप्पतीति अयमेवारूचं अभिगाई अभिगेण्डर, अभिगच्छेत्ता रैद्रमुखलं संगामं संगामेति । तप णं तस्स वरुणस्स नागनचुयस्स रैहमुखलं संगामं संगामेमाणस्त्र एगे पुरिसे सरिसर, रिसत्तए, सैरिसङ्घए, सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हृवं आगए । तए णं से पुरिसे वरुणं णागनत्तुयं एवं वदासी पण भो वरुणा ! वागणया तर णं से वरुणे णागणसुप तं पुरिसं एवं बदासी तो खलु मे कप्पर देवाणुप्पिया ! अयस्स पणित तुमं चेवणं पुर्वि पहणाहि तर पं से पुरिसे वरुणे जागवावं एवं युत्ते समाणे आसुरुते जाव मिसिमसिमाणे धणुं परामुसद्द, धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसद्द, उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाति, ठाणं ठिया आययकन्नाययं उसुं करे, आययकप्राययं उखुं करिता वरुणं णागणर्य गाढप्पहारीकरे तप णं से वरुणे वागत्तुर तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीक समाने आसुरुते जाय मिसिमिसेमाणे घणुं परामुसद, धणुं परामुसित्ता, उनुं परामुसद्द, उसुं परामुखित्ता आवश्कप्राय उसुं करेइ, आययकन्नाययं उसुं करेत्ता तं पुरिसं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवइ । तए णं से वरुणे णागणत्तुप तेषं पुरिसेोगं गाढप्पहारीकर समाणे अत्थामे, अबले, अवीरिए, अपुरिसकारपरकमे अधारणिजमिति कट्टु तुरए निगिन्दर, तुरप निगडिता रहं परावते, र परावत्तित्ता रहसताओ संगामाओ पडिणिक्यमति, पडिनिक्वमित्ता एगतमंत अयम एतमंत अवश अने से [ वरुण] अष्टमभक्तने बधारे छे, अने अष्टमभक्ताने वधारीने कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे. बोलावीने तेणे ए प्रमाणे कां के हे देवानुप्रियो ! चारघंटावाळा अश्वरथने सामग्रीसहित हाजर करो; अने घोडा, हाथी, रथ अने प्रवर- [ योद्धाओथी युक्त चतुरंग सेनाने तैयार करो ], यावत् तैयार करीने ए मारी आज्ञा पाछी आपो. त्यार पछी ते कौटुम्बिक पुरुषो यावत् तेनो स्वीकार करीने छत्रसहित, ध्वजासहित [ रथने ] शीघ्र हाजर करे छे; घोडा, हाथी, रथ -[ प्रवर योद्धाओ सहित सेनाने] यावत् तैयार करे छे; तैयार करी ज्यां नागनो पौत्र वरुण के [त्यां आवी] आज्ञा पाछी आपे छे. स्पार पछी ते नागनो पौत्र वरुण ज्यां स्नानगृह के त्यो आवे छे, आवीने कूणिकनी पेठे यावत् कौतुक ( मषीतिलकादि ) अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करीने सर्वालंकारथी विभूषित थयेलो कवचने पहेरी बांधी, कोरंटनी माळायुक्त धारणकराता छत्र वडे सहित अनेक गणनायको यावत् दूत अने संधिपालनी साथै परिवरेलो स्नानगृहथी बहार नीकळे छे. बहार नीवळीने, ज्यां महारनी उपस्थानाला छे, ज्यां चारघंटायाळो अधरम के लां आवे छे, यां आपीने चारघंटावाव्य अश्वरथ उपर चढे छे, चढीने घोडा, हाथी, रच- [ अने प्रचर योधाचाळी सेना] साधे महान् सुभटोना समूह पढे यावत् विटायेलो ज्यां रथमुख संमाण छे त्यां आवे छे, अने त्यां आवी ते रथमुशल संग्राममां उतर्यो. ज्यारे नागनो पौत्र वरुण रथमुशल संग्राममां उतर्यो त्यारे ते आवा प्रकारना अभिमने ग्रहण करे छेप्रयमुशल संग्राममां युद्ध करता भने जे पखा मारे तेने मारवो कल्पे, बीजाने मारवा कल्ये नाहि. आचा प्रकारना आ अभिग्रहने धारण करी तें रथमुशल संग्राम करे छे. त्यार बाद रथमुशल संग्राम करता नागना पौत्र वरुणना रथनी सामे सेना जेवो समानवययालो, समानत्यचायालो अने समान अवशखादिउपकरणचा एक पुरुष रथमां बेसीने शीघ्र आयो त्यार याद ते पुरुषे नागना पौत्र वरुणने एम कह्युं के 'हे नागना पौत्र वरुण ! तुं मने प्रहार कर'. त्यारे ते नागना पौत्र वरुणे ते पुरुषने एम कयुं के 'हे देवानुप्रिय ! ज्यां सुघी हुं प्रथम न हणाउं त्यां सुधी मारे प्रहार करवो न कल्पे, माटे पहेलां तुंज प्रहार कर'. ज्यारे ते नागना पौत्र वरुणे ते पुरुषने एम कह्युं त्यारे ते कुपित थयेलो क्रोधाग्निथी दीपतो धनुषूने ग्रहण करे छे, धनुष्ने ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे छे, बाणने ग्रहण करी अमुक स्थाने रहीने तेने कानपर्यंत बुचे छे; खांबुचीने से भागना पीत्र वरुणने सख्त प्रहार करे छे. स्पारबाद ते पुरुषधी तथा नागनो पौत्र वरुण कुपित भइ यावद् कोधाझिणी दीपतो धनुप्ने ग्रहण करे छे, धनुपूने ग्रहण करी वाणने प्रण करे छे, बाणने ग्रहण करी तेने कानपर्यंत खेचे छे, सेंचीने ते पुरुषने एक धाए पत्थरना टुकडा चाय तेम जीवितथी जो करे छे. हवे ते पुरुषथी सख्त घयायेल ते नागनो पौत्र वरुण शक्तिरहित, निर्बल, वीर्यरहित, पुरुषार्थ अने पराक्रमरहित थयेलो पोते 'टकी नहि शके ' एम समजी घोसओने थोभावे छे, थोभावीने रखने पाछो फेरने है, रथने पालो फेरवीने रथमुशल संघामधी बहार नीफळे छे, बहार नीकळी एकान्त १ रहपवर - घ । २ से घ । १ दाम जागं । ४ दुरूह घ । ५ रदमूस - ख । ६ सरित छ । ७ सरिग्वए घ । ५ भ० सू० वरुणनो अभिप्रद प्रहार. वरुणनुं युद्धम श्री पाछा फर / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. ९. मित्ता तुरए निगिण्हइ, तुरए निगिव्हिसा रहं ठवेइ, रहं ठवेत्ता, रहाओ पंच्चोरुहद, रहाओ पचोरुहित्ता तुरए मोपा, तरए मोएत्ता तुरए विसजेइ, तुरए विसजित्ता ब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दम्भसंथारगं दूरुहइ, दम्भसंथारगं रुहिता. वाभिम संपलियंकनिसन्ने करयल- जाव कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, जाव संपत्ताणं; नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स, आइगरस्स, जाव संपाविउकामस्स, मम धम्मायरियस्स, धम्मोवदेसगस्स; वंदामि गं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए, जाव वंदति, नमंसति, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-पुधिपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए, एवं जाव थूलए परिग्गहे पञ्चक्खाए जावजीवाए, इयाणि पि" अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अंतिए सघं पाणातिवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए, एवं जहा खंदओ, जाय एयं पिणं चरमेहिं ऊसास-नीसासेहि वोसिरिस्सामि त्ति कटु सन्नाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिकंते, समाहिपत्ते, आणुपुष्वीए कालगए । तए णं तस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अवले जाव अधारणिजमिति कट्ठ वरुणं णागणत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिणिक्खममाणं पासइ, पासित्ता तुरए निगेण्हइ, तुरए निगेण्हित्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसजेति, पेंडसंथारगं दूरुहइ, पडसंथारगं दूरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कट्टु एवं वयासी-जाई भंते ! मम पियवालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई, वयाई, गुणाई, वेरमणाई, पञ्चक्खाण-पोसहोववासाई, ताई णं मम पि भवंतु ति कट्ट सन्नाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुचीए कालगए । तए णं तं वरुणं णागणतयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि दिच्चे सुरभिगंधो-दगवासे बुट्टे, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिघे य गीय-गंधधनिनादे कए या वि होत्था । तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिवं देविहि, दिवं देवजुति, दिवं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ, जाव परूवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवति । सर्व प्राण्पति- पातादिविरमण. भागमा आवे छे, एकान्त भागमा आवी घोडाओने थोभावे छे, थोभावी रथने उभो राखे छे, उभो राखी रथथी उतरे छे, उतरीने रथथी घोडाओने छुटा करे छे, छुटा करी घोडाओने विसर्जित करे छे; विसर्जित करी डाभनो संथारो पाथरे छे, डाभनो संथारो पाथरी पूर्वदिशा सन्मुख ते डाभना संथारा उपर बेसे छे. पूर्वाभिमुख पर्यकासने डाभना संथारा उपर वेसी हाथ जोडी यावत् ते नागनो पौत्र वरुण आ प्रमाणे बोल्यो-पूज्य अर्हतोने नमस्कार थाओ, यावत् जेओ [सिद्धिगतिने ] प्राप्त थया छे. श्रमण भगवान् महावीरने नमस्कार थाओ, जे तीर्थनी आदि करनारा छे, यावत् [सिद्धिने ] प्राप्त करवानी इच्छावाला छे; जे मारा धर्माचार्य अने धर्मना उपदेशक छे. त्यां रहेला भगवानने अहीं रहेलो हुँ वांदुं छु. त्यां रहेला भगवान् मने जुओ. यावत् वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने ते [वरुण ] आ प्रमाणे बोल्योपहेलां में श्रमण भगवान् महावीरनी पासे जीवनपर्यंत स्थूलप्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान कर्यु हतुं, ए प्रमाणे यावत् स्थूल परिग्रहनु प्रत्याख्यान जीवनपर्यंत कर्यु हतुं, अत्यारे अरिहंत भगवान् महावीरनी पासे सर्व प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान यावजीव करूं छु. ए प्रमाणे *स्कन्दकनी पेठे सर्व जाणवू. आ शरीरनो पण छेल्ला श्वासोच्छासनी साथे त्याग करीश, एम धारी सन्नाहपट्ट-बख्तरने छोडे छे, बख्तरने छोडीने [बाणादिना ] शल्यने बहार काढे छे, बहार काढीने आलोचना लइ प्रतिक्रान्त थइ-पडिक्कमी समाधिने प्राप्त थयेलो ते कालधर्म पाम्यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणनो एक प्रिय बालमित्र रथमुशल संग्राम करतो हतो, ज्यारे ते एक पुरुषथी सख्त घायल थयो, त्यारे ते शक्तिरहित, बलरहित यावत् पोते 'टकी नहि शके' एम समजी नागना पौत्र वरुणने रथमुशल संग्रामथी बहार नीकळता जुए छे, जोइने ते घोडाओने थोभावे छे, थोभावीने वरुणनी पेठे यावत् घोडाओने विसर्जित करे छे, अने पटना (बस्त्रना) संथारा उपर बेसे छे. संथारा उपर पूर्वदिशा सन्मुख बेसीने यावत् अंजली करीने आ प्रंमाणे बोल्यो-हे भगवन् ! मारा प्रिय बालमित्र नागना पौत्र वरुणना जे शीलवतो, गुणवतो, विरमणवतो, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवास होय ते मने पण हो, एम कही वख्सरने छोडे छे, छोडीने शल्यने काढे छे, शल्यने काढीने ते अनुक्रमे कालधर्म पाम्यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणने मरण पामेलो जाणीने पासे रहेला वानव्यंतर देवोए तेना उपर दिव्य अने सुगंधी गंधोदकनी वृष्टि करी, पांच वर्णना फुलो तेना उपर नांख्या, तथा दिव्य गीत गान्धर्वनो शब्द पण कर्यो. त्यार वाद ते नागना पौत्र वरुणनी दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति अने दिव्य देवप्रभाव सांभळीने अने जोइने घणा माणसो परस्पर एम कहे छे, यावत् प्ररूपणा करे छे के-हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे घणा मनुष्यो यावत् देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. गंधोदक तथा “पुष्पवृष्टि पञ्चोरुभति क। २.पुरच्छाभि-घ। ममं ख। ४ णं तस्सेय घ। ५ अरिहंतस्सेव घ। ६ अतियं घ। ७ पडिसं-क विनाऽन्यत्र । ८ दुरुहइ ख, दुरूहद घ। ९ दुरुहि-ख, दुरूहि-घ। १० जयणं-ख। . प्पिय-ख । १२ भाणुपुम्विए ग। १३. *जुओ (भ. श. २. उ०१ पृ. २४४) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७. – उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५ १४. [प्र०] पणे णं भंते! नागनचुर कालमासे का किया कहिं गए, कहिं उबयद्ये १ [30] गोयमा ! सोहम्मे कप्पे, अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाणि ठिती पण्णत्ता, तत्थ णं वरुणस्स वि देवरस चसारि पलिबोयमाई ठिती पन्नता से णं भंते! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्यपणं भवखणं, foraणं जाव महाविदेहे वाले सिज्झिहिति, जाव अंतं करेहिति । 1 १५. [प्र०] वरुणस्स भंते! नागणसुयरस पियालयंस कालमासे कालं किया कोई गए कई उप [अ०] गोयमा ! सुकुले पचायाते । १६. [प्र०] से णं भंते ! तओहिंतो अनंतरं उट्टित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववज्जिहिति ? [३०] गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव अंतं काहिति । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति । सत्तमसयस्स नवमओ उद्देसओ समतो । १४ [अ०] हे भगवन् ! नागनो पौत्र वरुण मरणसमये मरीने क्यों गयो, क्यां उत्पन्न थयो [30] हे गौतम! सौधर्म देवलोकने विषे अरुणाभनामे विमानमां देवपणे उत्पन्न थयो छे. त्यां केटलाक देवोनी आयुष्नी स्थिति चार पल्योपमनी कही छे. त्यां वरुणदेवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. [अ०] हे भगवन्! ते वरुणदेव देवटोकपी आयुपनो क्षय धनाधी, भवनो क्षय धमाची स्थितिनो क्ष वाय---[क्यां जशे] [३०] यावत् महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्धिने पाय यावत् [ सबै दुःखोनो ] अन्त करशे. १५. [ प्र० ] हे भगवन् ! भागना पौत्र वरुणनो प्रिय बालमित्र मरणसमय मरण पामान क्या गयो, क्या उत्पन्न भयो ? [उं०] हे गौतम ! ते कोइ सुकुलमां उत्पन्न थयो छे. १६. [प्र० ] हे भगवन् ! त्यांथी मरीने तुरत ते [ वरुणनो वाल मित्र ] क्यां जशे ! [उ०] हे गौतम! ते महाविदेह क्षेत्रमां सिद्धिने पामशे, यावत् [ सर्व दुःखोनो ] अन्त करशे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, [ एम कही गौतम यावत् विचरे छे ] सातमा शतकनो नवमो उद्देशक समाप्त. १ गच्छेद्दिति ख, गच्छहिति । २ उबवजहि-घ । वरुण मरीने क्य गयो १ वरुण देवलोकी चवी मोक्ष जशे घरुणनो मिश्र मरीने क्या गयो ? चरुणनो मिश्र त्यांची क्या अशे / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो. १. तेणं कालेणं, तेणं समर्पणं रायगिहे नाम नगरे होत्या, पद्मभो । गुणसिलर बेइए, पद्मभो । जाव पुढविसि लापेओ, वंनओ । तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्न उत्थिया परिवसंति, तं जहा - कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदय, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलेवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई । तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं, सन्निविट्ठाणं, सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था एवं खलु समणे नायपुत्ते "पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा - धम्मत्थिकार्य, जाव आगासत्धिकायं । तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अधिकार अजीवकार पद्मयेति तं जहा धम्मत्धिकार्य अधम्मत्धिकार्य आगासत्धिकार्य पोगलत्धिकार्य एवं चणं समने णायते जीवत्धिकार्य अविकार्य जीवकार्य पद्मवेति । तत्थ णं समणे गायपुते बसारि अधिकार अरुविकार पनवेति तं जहाधम्मत्थिकार्य, अधम्मत्धिकार्य, आगासत्धिकार्य, जीवत्धिकार्य एवं च णं समणे णायपुते पोवालत्थिकार्य रूविकार्य अजीयकार्य पनवेति । से कहमेयं मने एवं ? तेणं कालेणं, तेणं समपणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे । जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं, तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमंगोचे णं, एवं जहा वितिवसर नियंडुदेसर जाय मिक्वायरियाए अडमाणे अहापजतं भरत -पाणं पडिग्गाहिता रायगिहामो जगराओ जाव अतुरियं अचवलं असतं जाय रियं सोहेमाणे सोहेमाने तेर्सि अन्नउत्थियानं अदूरसामंतणं बीचयति । तप णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं भदूरसामंतेणं वीरचयमाणं पासंति, पासेता अनम सहायति, अभ्रमन्नं सहाविद्या दसमी उद्देशक १. ते काले ते समये राजगृह नामे नगर हतुं वर्णन. गुणशील चैत्य हतुं वर्णन यावत् पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते गुणशील चैपनी पासे थोडे दूर पणा अन्यतीर्थिको रहे छे. ते आ प्रमाणे कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नमदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक अने सुहस्ती गृहपति. त्यार पछी अन्य कोइ समये एकत्र आवेला, बैठेला, सुखपूर्वक वेठेला ते अन्य पंचास्तिकाय विषे तीर्थिकोनो आवा प्रकारनो आ वार्तालाप थयो- 'श्रमण ज्ञातपुत्र ( महावीर ) पांच अस्तिकायोने प्ररूपे छे. जेमके, धर्मास्तिकाय, यात्रत् संदेह. आकाशास्तिकाय. रोमां श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकाय अजीवकाय हे एम जगावे छे. जेम, धर्मास्तिफाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने पुद्गलास्तिकाय. एक जीवास्तिकायने श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपी जीवकाय जणावे छे. ते पांच अस्तिकायमां श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायने अरूपिकाय जणावे छे. जेम, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. एक पुद्गलास्तिकायने श्रमण ज्ञातपुत्र रूपिकाय अने अजीवकाय जणावे छे. ए प्रमाणे आ केम मानी शकाय ? ते काले अने ते समये श्रमण भगवान् महावीर यावत् गुणशिल चैत्यमांसमोसर्या यावत् परिषत् [ वंदन करीने ] पाछी गइ. ते काले अने ते समये श्रमण भगवान् महावीरना मोटा शिष्य गौतमगोत्री इन्द्रभूति नाने अनगार बीजा शतकना निर्मन्योदेशकमां का प्रमाणे मिक्षाचर्याए भमता यचापर्याप्त भक्त पानने ग्रहण करीने राजगृहनगर की यावत् परारहितपणे, अचलपणे, असंभ्रान्तपणे ईर्दा समितिने वारंवार शोधता ते अन्यतीर्थिकोनी थोडे दूर जाय छे. स्वारे ते अन्यत्तीर्थिको भगवान् गौतमने थोडे दूर जतां जुए छे, जोइने एक बीजाने बोलावे छे; एक वीजाने वोडावीने तेओर आ प्रमाणे क अन्यती थिंको. १ पट्टए घ । २ खपुस्तके नास्ति । ३ खपुस्तके नास्ति । ४ - याण भंते! अ-धं । ५ पंचथिक । ६ अहम्म- ख ७ असंभंते ख । ८ वी स / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७. - उदेशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३.७ सेयं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अन्दं श्मा कहा अविष्यकडा, अयं चणं गोयमे अहं अदूरसामंतेनं बीईयपर तं देवापिया ! अहं गोवमं एयम पुच्छित्तर ति कट्टु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुपति, एवं अहं पडिणिता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए, धम्मोपदेसप, समणे णावपुते पंचे अधिकार पनवेति तं जहा धम्मत्धिकार्य, जाय आगासत्धिकार्य तं चैव जान रुचिकार्य अजीवकार्य पवेति से हमे गोयमा एवं? [0] तर णं से भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिर एवं पयासीनोस वर्ष देवाप्पिया ! अस्थिभावं नत्थिति बदामो, नैत्थिमावं अस्थि ति बदामो अम्दे णं देवाविया ! सर्व अस्थिभाषं अस्थि ति दामो, खयं नत्वभावं नत्यि चि वयामोः तं चेवसा [ वेदसा ] सलु तुम्मे देवाणुप्पिया ! एयमहं सयमेव पवेक्सह ति कट्टु ते अन्नउत्थिर्षं एवं बयासी - एवं, एवं । जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, एवं जहा नियंठुद्देसप जाव भरा-पाणं पडिदंसेति भत-पाणं पडिशा समणं भगवं महावीरं बंदर, नम॑सा वंदित्ता, नर्मसित्ता नचासत्रे जाय पवासति । २. तेणं कालेणं तेणं समपर्ण समणे भगवं महावीरे महाकहापडियने या वि होत्या, कालोदाई य तं देतं हवं आगए । 'कालोदाइ'ति समणे भगवं महाबीरे कालोदाई एवं बयासी से पूर्ण ते कालोदाई ! अनया कयाइ एगयओ सहियाणं, समुवागयाणं, संनिविट्ठाणं तहेव जाव से कहमेयं मन्ने एवं ? से णूणं कालोदाई ! अत्थे समट्ठे ? हंता अस्थि । तं सच्चे णं एसम कालोदाई ! अहं पंचत्यिकार्य पन्नचेमि तं जहा धम्मत्धिकार्य जाच पोग्गलत्विकार्य तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकार अजीवत्थिकार अजीवतया पन्नवेमि, तहेव जाव एगं च णं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकायं पन्नवेमि । ३. [ प्र० ] तर णं से कालोदाई समणं भगवं महावीरं एवं वदासी- एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकायंसि, अधम्मत्थिकायंसि, आगासत्धिकार्यसि अरुचिकायंसि अजीयकार्यति चकिया केई आसइतर वो, सरसर वा चिश्तर वा निसीइत्तर ध, तुपट्टित्तर वा [४०] णो तिन समझे कालोदाई, एगंसि णं पोग्गलत्थिकार्यसि रूविकार्यसि अजीवकार्यसि चक्रिया केई आसइत्तर वा, सत्तए वा, जाव तुयट्टित्तए वा । हे देवानुप्रियो ! आपणने आ कथा ( पंचास्तिकायनी वात) अप्रकट - अज्ञात छे; अने आ गौतम आपणाथी थोडे दूर जाय छे, माटे देवानुप्रियो ! आपणे आ अर्थ गौतमने पुछवो श्रेयस्कर छे. एम कही तेओ एक बीजानी पासे ए वातनो स्वीकार करे छे; स्वीकार करीने ज्यां भगवान् गौतम छे खां आवे छे त्वां आवीने तेओए भगवान् गौतमने ए प्रमाणे वसुं हे गौतम! तमारा धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय प्ररूपे छे, ते आ प्रमाणे - धर्मास्तिकाय, यावत् आकाशास्तिकाय, यावत् रूपिकाय अजीवकाने जणा छे. हे पूज्य गौतम! ए प्रमाणे शी रीते होय त्यारे से भगवान् गौतमे से अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे कां हे देवानुप्रियो ! अमे अस्तिभावने नास्ति ( अविद्यमान ) कहेता नथी, तेम नास्तिभावने अस्ति ( विद्यमान ) कहेता नथी. हे देवानुप्रियो ! सर्व अस्तिभावने अस्ति कहीए डीए, अने नास्तिभावने नास्ति कहीए छीए, माटे हे देवानुप्रियो ! ज्ञान पडे तमे वयमेव ए अर्धनो विचार करो. एम कहने [ गौतमे ] ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे कयुं के ए प्रमाणे छे, ए प्रमाणे छे. हवे भगवान् गौतम ज्यां गुणशिल चैत्य छे, ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे - [ त्यां आवीने ] # निर्ग्रन्थोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् भक्त - पानने देखाडे छे. भक्त - पानने देखाडीने श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे छे, वांदी, नमस्कार करी बहु दूर नहि तेम बहु पासे नहि ए प्रमाणे उपासना करे छे. २. ते काले, ते समये श्रमण भगवान् महावीर महाकाया प्रतिपक्ष - ( घणा माणसोने धर्मोपदेश करवामां प्रवृत्त) हता. बालोदाची ते स्थळे शीघ्र आव्यो. हे कालोदावि ए प्रमाणे [बोलावीने] भ्रमण भगवान् महावीरे कालोदायीने आ प्रमाणे कां हे काटोदायि ! अन्यदा कोई दिवसे एकत्र एकठा घयेडा, आवेला, बेठेला एका तमने पूर्वे का प्रमाणे [ पंचास्तिकायसंत्रन्चे विचार थयो हतो ] यावत् ए. वात ए प्रमाणे केम मानी शकाय ? [एवो विचार थयो हतो ] हे कालोदायि ! खरेखर आ वात यथार्थ छे ? हा, यथार्थ छे. हे कालोदायि ! ९ बात सत्य छे. हुं पांच अस्तिकायनी प्ररूपणा करुं हुं जैमके, धर्मास्तिकाय, यावत् पुद्गलास्तिकाय तेमां चार अस्तिवाय अजीचास्तिकायने अजीव रूपे कहुं छं. पूर्वे का प्रमाणे यावत् एक पुद्गलास्तिकायने रूपिकाय जणावुं छं. त्यारे ते कालोदायिए श्रमण भगवान् महावीरने आ प्रमाणे क ―――― १ बीतीवतेति क । २- सुर्णेति घ । ३ पंचस्थि-क । ४ कह मेयं भंते! गो-घ । ५ नरिथ ति भाग ६-ए एवं वदति क । दाईति घ । ८ कयाई घ । ९ वा चित्तख । १० वा सइतर ख । ७ कालो १. *जुओ (भ. श. २. उं० ५ पृ. २८१ ). गीतमने म ३. [प्र०] हे भगवन् ! ए अरूपी अजीत्रकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायमां बेसवाने, सुवाने, उभो रहेवाने, न नीचे बेसवाने, आलोटवाने कोइ पण शक्तिमान् छे [30] आ अर्थ योग्य नथी. परन्तु हे कालोदायि एक रूपी अजीवकाय पुद्गला स्तिकायमा बेसवाने, सुवाने, यावत् आळोटवाने कोइपण शक्तिमान् छे. गीतमनो उत्तर कालोदायीनुं भगमन. / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगयचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ७.-उद्देशक. १०. ४. [प्र.] एयंसिणं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि, रूविकायंसि, अजीवकायंसि जीवाणं पावाणं कम्मा णं पावफलवि. घागसंजुत्ता कजंति ? [उ०] णो तिणढे समढे, कालोदाई!। एयंसि णं जीवत्थिकायंसि अरूविकायंसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कंजंति । एत्थ णं से कालोदाई संवुद्ध, समणं भगवं महावीरं वंदर, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि गं भंते ! तुम्भं अंतियं धम्मं निसामेत्तए, एवं जहा खंदए तहेव पैवइए, तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरह । ५. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कैयाइ रायगिहाओ जयराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिफ्खमति, पडिनिपनमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे गुणसिलए चेइए होत्था । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया । तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्र०] अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजंति ? [उ०] हंता, अत्थि। ६. [प्र०] कहं णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजंति ? [उ०] कालोदाई ! से जहानामए केह पुरिसे मणुन्नं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुंजेजा, तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए, दुगंधत्ताए जहा महासवए, जाव भुजो भुजो परिणमति; एवामेव कालोदाई! इवाए, जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा विपरिणममाणे विपरिणममाणे दुरूवताए जाव भुजो भुज्जो परिणमति; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग० जाव कजंति । ७. प्र०अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कजंति ? [उ०] हंता, अस्थि । ८. [प्र०] कहं गं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजन्ति ? [उ०] कालोदाई ! से जहाणामए के पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहमिस्सं भोजणं भुजेजा, तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भद्दए भवर, तओ पच्छा पुद्गलास्तिकायने ४. [प्र०] हे भगवन् ! ए रूपी अजीवकाय पुद्गलास्तिकायने विषे जीवोना पाप-अशुभ फल-विपाकसहित पाप कर्मो लागे ! विषे कमै लागे? [उ०] हे कालोदायि! ए अर्थ योग्य नथी. परन्तु ए अरूपी जीवकायने विषे पाप फल-विपाकसहित पापकर्मो लागे छे. अहीं कालोदायी बोध पाम्यो, ते श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे छे; वांदीने, नमस्कार करीने तेणे आ प्रमाणे कयुं हे भगवन् ! हुं तमारी पासे धर्म सांभळवा इच्छु छु. ए प्रमाणे *स्कन्दकनी पेठे तेणे प्रत्रज्या अंगीकार करी, अने ते प्रमाणे अगीयार अंगने [भणीने ] यावत् विचरे छे. ५. त्यार पछी अन्यदा कोइ दिवसे श्रमण भगवान् महावीर राजगृहनगरथी अने गुणशिल चैत्यथी नीकळी बहार देशोमां विहार करे छे. ते काळे ते समये राजगृहनामना नगरमां गुणशिल नामर्नु चैत्य हतुं. त्यां अन्यदा कोई दिवस श्रमण भगवान् महावीर यावद् समोसा. यावत् परिषद् पाछी गइ. त्यार पछी ते कालोदायी अनगार अन्य कोइ दिवसे ज्यां भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने श्रमण पापकर्म अशा वि- भगवान् महावीरने वंदन करे छे-नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करी तेणे आ प्रमाणे कडं-प्र०] हे भगवन् ! जीवोने पापकर्मो पाकसहित पोय पाप-अशुभ फल-विपाक सहित होय ! [उ०] हा होय. पापको अशुभ ६. [प्र०] हे भगवन् ! पापकर्मों पाप-अशुभ फलविपाकसहित केम होय ! [उ०] हे कालोदायि! जेम कोइ एक पुरुष सुन्दर, स्थालीमां रांधवा वडे शुद्ध (परिपक्क), अढार प्रकारना दाळ शाकादि व्यंजनोथी युक्त, विषमिश्रित भोजन करे, ते भोजन शरुआतमा होय? सारूं लागे, पण त्यार पछी ते परिणाम पामतां खराबरूपपणे, दुर्गधपणे मिहासव' उद्देशकमां कह्या प्रमाणे वारंवार परिणाम पामे छे. ए प्रमाणे हे कालोदायि! जीवोने पापकर्मो अशुभफ़लविपाक संयुक्त होय छे. कल्याणको कल्याण ७. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना कल्याण (शुभ) कर्मो कल्याणफलविपाक संयुक्त होय ! [उ०] हा, कालोदायि ! होय. फलयुक्त होय. कल्याण कोंक ८. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना कल्याण कर्मो कल्याणफलविपाकसहित केम होय ! [उ०] हे कालोदायि! जेम कोइ एक | पुरुष सुन्दर, स्थालीमां रांधवा वडे शुद्ध-परिपक, अढार प्रकारना [दाळ शाकादि ] व्यंजनोथी युक्त औषधमिश्रित भोजन करे, ते हित फेम हो। पावा णं कम्मा गंध। २ जति ! इंसा, जति । एस्थ णं घ। ३ पम्बईए ख। । कयाई ख। ५रायगिहे ग-, गुणसि ले चेहए, तप-ख। . कयाई ख। ८ -वंजणाउलंघ। ९ महस्सवए क। १० जहानाम घ। ११ केई ख । ४. 'जुओ (भ. श. २ उ. १ पृ. २३९). ६ जुिओ (भ. श. ६. उ. ३. पृ. ३७०). . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ७. - उद्देशक १०. भगवत्सुघमेस्वामिप्रणीत भगवंतीसूत्र. ३९ परिणममाणे परिणममाणे सुरुबताए, सुवन्नताए, आप सुहसार, नो क्सताए, भुजो भुजो परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणावायवेरमणे जाय परिवाइवेरमणे, कोहनियेगे, जाय मिच्छासासह विवेगे, तरसणं आवार नो भव भवर, सओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरुषत्ताप, जाय नो दुक्खसाए भुजो भुजो परिणम एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कलाणा कम्मा जाव कजंति । 1 ९. [ प्र० ] दो भंते! पुरिसा सरिसवा जाव सरिसभंडमत्तोवगरमा अनमन्त्रेनं सद्धि अगणिकार्य समारंभंति, तत्थ एगे पुरिसे अगणिकार्य उजालेति, एगे पुरिसे अगणिकायं निधावेति, एएसि णं भंते ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेत्र, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव, जाव अप्पवेषणतरायचे? जे या से पुरिसे अगणिकार्य उजाले, जे वा से पुरिसे अगणिकार्य निवेति १ [०] फालोदाई ! तत्थ नं जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेह से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, जाव महावेयणतराए चेव । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य विद्यावेद से गं पुरिसे अप्पकम्मतराय चेव जाव अप्पवेयणतराण चैव [प्र०] से केषणं भंते । एवं तत्थ जे से पुरिसे जाव अपवेयणतराए चेव ? [अ०] कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जाले से णं पुरिसे बहुतरागं पुचिकायं समारंभति, बहुतरागं आडकायं समारंभति, अणतरायं तेडका समारंभति, बहुतरागं दांडकार्य समारंभति, बहु तरावं पण सहकार्य समारंभति, बहुतरागं वसकार्य समारंभति । तत्थ पंजे से पुरिसे अगणिकार्य निशवेति से पं पुरिसे अप्पतरावं पुरचिकार्य समारंभा, अप्पतरागं भडकार्य समारंभह बहुतरागं तेडकाचं समारंभति, अप्पतरागं चावकार्य समारंभति, अष्णतरागं वणरसहकार्य समारंभति, अप्पतरागं तसकार्य समारंभति से तेगणं कालोदायी! जाव अप्पयेयणतराए चेव । " १०. [प्र० ] अत्थि णं भंते ! अविता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति ? [अ०] हंता, अस्थि. भोजन प्रारंभमां सारूं न लागे, त्यार पछी ज्यारे ते अत्यंत परिणाम पामे त्यारे ते सुरूपपणे, सुवर्णपणे, यावत् सुखपणे वारंवार परिणमे छे, दुःखपणे परिणाम पामतुं नथी. ए प्रमाणे हे कालोदायि ! जीवोने प्राणातिपातविरमण, यावत् परिग्रह विरमण, क्रोधनो त्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग प्रारंभमां सारो न लागे, पण पछी ज्यारे ते परिणाम पामे त्यारे ते सुरूपपणे यावत् वारंवार परिणमे छे, पण दुःखरूपे परिणत तो नथी. ए प्रमाणे हे कालोदायि जीवोना कल्याण कर्मों कल्याण फलविपाकसंयुक्त होय छे. ९. [ प्र० ] हे भगवन् । सरसा में पुरुषो यावत् समान भांद पात्रादिउपकरणवाळा होय, तेओ परस्पर साधे अनिकायनो समारंभ - हिंसा करे, तेमां एक पुरुष अग्निकायने प्रकट करे, अने एक पुरुष तेने ओलवे, हे भगवन् ! आ बे पुरुषोमां कयो पुरुष महाकर्मवाळ, महाक्रियावालो, महाआस्रववाळो अने महावेदनावाळो होय, अने कयो पुरुष अल्पकर्मवाळो यावत् अल्पवेदनावाळो होय के जे पुरुष 'अग्निकाने प्रकटावे छे ते, के जे पुरुष अग्निकायने ओलवी नांखे ते ? [उ०] हे कालोदायि ! ते वे पुरुषमां जे पुरुष अग्निकायने प्रकटावे छे, ते पुरुष महाकर्मवाळ यावत् महावेदनायाळ होय, अने जे पुरुष अग्निकायने ओवी नांखे छे से पुरुष अल्पकर्मवाळ यावत् अल्पवेदनावाळो होय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शाथी कहो छो के ते बे पुरुषोमां जे पुरुष [ अग्निने प्रदीप्त करे छे ते महावेदनावाळो अने के ओडवे छे ते ] यावत् अल्पवेदनायाळ होय! [उ०] हे कालोदायि! ते वेमां जे पुरुष अधिकायने प्रदीप्त करे छे, ते पुरुष घणा पृथिवीकापनो समारंभ करे छे, धोटा अनिकायनो समारंभ करे छे, पणा वायुकायनो समारंभ करे छे, घणा वनस्पतिकायनो समारंभ करे छे अने घणा सकायनो समारंभ करे छे. तेमां जे पुरुष अग्निकापने ओवी नांखे छे ते पुरुष थोडा पृथिवीकायनो, थोडा अप्फापनो, थोडा वायुकायनो, थोडा वनस्पतिकायनो, थोडा त्रसकायनो अने वधारे अग्निकायनो समारंभ करे छे. ते हेतुथी हे कालोदायि ! यावत् अल्पवेदनावाळो होय. १०. हे भगवन् ! एम छे के अचित्त पण पुद्गलो अवभास करे, उद्योत करे, तपे, प्रकाश करे ? [उ०] हे कालोदायि! हा एम छे. १ पुढवीकार्य ख २ वाउका घ ३ वाठका घ अग्निकायनो समारंभ करना बे पुरुषमां को महाकमैवालो | अचित्त पुद्गलो प्रकाश करे १ / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कया पुद्गलो प्रकाश करे ? श्रीरावचन्द्र-जिनागमसंमद्दे शतक ७. - उदेशक १०. ११. [प्र० ] कयरे णं भंते! अश्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभार्सेति ? [उ०] कालोदाई ! कुद्धस्त्र अणगारस्स तेय-लेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता, दूरं निपतद्द, देसं गता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतर, सहि सहि धे afear वि पोग्गला ओभासंति, जाव पंभार्सेति, एतेणं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओमासंति, आय पभाचंवि । ज्य hi से कालोदाई अणगा समणं भगवं महावीरे वंदति, नम॑सति, वंदित्ता, नमसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठ-ऽट्ठम- जाय बप्पापं भावेमा जहा पढमसर कालासवेसियपुत्ते जाव सद्यदुक्खप्पहीणे । सेवं भंते !, सेवं भंते! ति । ४० सचमसतस्स दसमो उद्देसओ समतो. सत्तमं सयं समचं । ११. [ प्र० ] हे भगवन् ! अचित्त छतां पण कया पुद्गलो अवभास करे, यावत् प्रकाश करे ? [उ०] हे कालोदायि ! क्रोधायमान थयेला साधुनी तेजोलेश्या नीकळीने दूर जइने दूर पडे छे. देशमां (जवा योग्य स्थाने) जइने ते देशमां - स्थानमां पडे छे. ज्यां यां से पडे. छे त्यां त्यां अचित्त पुद्गलो पण अवभास करे छे, यावत् प्रकाश करे छे. ते कारणथी हे कालोदायि ! ए अचित्त पुद्गलो पण अवभास करे छे, यावत् प्रकाश करे छे. स्मार बाद से कालोदायी अनगारे श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे छे अने घणा चतुर्थ (उपवास), षष्ठ (बे उपवास ), अष्टम ( त्रण उपवास ) ( इत्यादि तप वडे ) यावत् आत्माने वासित करता ते प्रथम शतकमां "कालासवेसियपुत्तनी पेठे यावद् सर्वदुःखथी रहित थया. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे [ एम कही गौतम यावत् विचरे छे] सातमा शतफनो दसमो उद्देशक समाप्त. ३ पभासंति छ । 11. git (m. 1.5.1 % too) . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमं सयं. १. १ पोग्गल २ आसीविस ३ रुक्ख ४ किरिय ५ आजीव ६ फासुक-७ मदत्ते । ८पडिणीय ९ बंध १० आराहणा य दस अट्ठमंमि सते ॥ पढमो उद्देसो. २. [प्र०] रायगिहे जाव एवं वदासी-काविहा णं भंते ! पोग्गला पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! तिविहा पोग्गला पन्नता, तं जहा-पओगपरिणया, मीससापरिणया, वीससापरिणया य । अष्टम शतक. १. [ उद्देश संग्रह-] १ पुद्गल, २ आशीविष, ३ वृक्ष, ४ क्रिया, ५ आजीव, ६ प्रासुक, ७ अदत्त, ८ प्रत्यनीक, ९ बन्ध अने १० आराधना-ए संबंधे दश उद्देशको आठमां शतकमां छे. [१ पुद्गलना परिणाम विषे प्रथम उद्देशक छे, २ आशीविषादि संबंधे बीजो उद्देशक छे, ३ वृक्षादि विषे त्रीजो उद्देशक छे, ४ कायिकीआदि क्रिया विषे चोथो उद्देशक छे, ५ आजीवक विषे पांचमो उद्देशक छे, ६ प्रासुकदानादि विषे छट्ठो उद्देशक छे, ७ अदत्तादान विषे सातमो उद्देशक छे, ८ प्रत्यनीक (गुर्वादिना विद्वेषी) विषे आठमो उद्देशक छे, ९ प्रयोगबन्धादिने विषे नवमो उद्देशक छे, अने १० आराधना इत्यादिने विषे दशमो उद्देशक छे. ] प्रथम उद्देशक. २. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् [गौतम ] ए प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! केटला प्रकारना पुद्गलो कह्या छ ? [उ०] हे पुगलनो गौतम ! त्रण प्रकारना पुद्गलो कह्या छे. ते आ प्रमाणे-१ प्रयोगपरिणत ( प्रयोग एटले जीवना व्यापारथी शरीरादिरूपे परिणाम पामेला) २ मिश्रपरिणत (मिश्र-प्रयोग अने स्वभाव बन्नेना संबन्ध-थी परिणाम पामेला ), अने ३ विस्रसापरिणत (विनसा-खभाव-थी परिणमेला) १ फासुग घ। २ अहमंसि सए क-ग। २. * प्रयोगपरिणामनो त्याग कर्या शिवाय विनसा-खभाव-थी परिणामान्तरने प्राप्त थयेला मृतकलेवरादि पुद्गलो ते मिश्रपरिणत कहेवाय छे अथवा विक्षसाची परिणत थयेली औदारिकादि वर्गणाओ जीवना प्रयोगथी ज्यारे औदारिकादिशरीर वगेरे रूपे परिणत थाय त्यारे ते पण मित्रपरिणत कहेवाय छे. यद्यपि औदारिकादिशरीरपणे परिणाम पामेल औदारिकादि वर्गणाओ प्रयोगपरिणत कहेवाय छे, कारण के त्यां विक्षसापरिणामनी विवक्षा नथी, पण जो विनमा भने प्रयोग ए उभयपरिणामनी विवक्षा करवामां आवे तो ते मित्रपरिणत कहेवाय छे.-टीकाकार, शिक्षसाची परिणत पणे परिणाम पाखामा आवे तो . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीरायचन्द्र-ज़िनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १. ३. प्रापओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-एगिदियपओगपरिणया, बेइंदियपओगपरिणया, जाव पंचिंदियपओगपरिणया। ____४. [प्र०] एगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइअएगिदियपओगपरिणया, जाव वणस्सइकाइअएगिदिअपओगपरिणया । ५. [प्र०] पुढविकाइअएगिदिअपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुहुमपुढविक्काइअएगिदिअपओगपरिणया, यादरपुढविकाइअएगिदियपओगपरिणया य । आउकाइअएगिदिअपयोगपरिणया एवं चेव, एवं दुयओ भेदो जाव वणस्सइकाइआ य । ६. [प्र०] बेइंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! अणेगविहा पन्नत्ता, एवं तेइंदियपयोगपरिणया, चउरिदियपयोगपरिणया वि। ७. [प्र०] पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! चउन्विहा पन्नत्ता। तं जहा-रायपंचिंदियपयोगपरिणया, 'तिरिक्खपंचिंदियपयोगपरिणता, एवं मणुस्स०, देवपंचिंदियपरिणया य । ८. प्र० नेरइयपंचिदियपओगपरिणयाणं पुच्छा। उ०] गोयमा! सत्तविहा पन्नत्ता; तं जहा–रयणप्पभापुढविनेरइअपंचिदियपयोगपरिणता वि, जाव अहेसत्तमपुढविनेरइअपयोगपरिणता वि । ९. [प्र०] तिरिक्खजोणियपंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियपयोगपरिणया, थलचरपंचिंदिय०, खहचरपंचिंदिय० । प्रयोगपरिणत ३. [प्र०] 1हे भगवन् ! प्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम | पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रथम दंडक. प्रमाणे-एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत ( एकेन्द्रिय जीवना व्यापार वडे परिणाम पामेला ), बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत, यावत् पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. एकेन्द्रियप्रयो ४. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ.] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे. ते गपरिणत. __आ प्रमाणे-पृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो, यावत् वनस्पतिकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. ५. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो, अने बादरपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. ए प्रमाणे अप्कायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो (वे प्रकारे) जाणवा, ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण बे प्रकारना जाणवा. बेइन्द्रियप्रयोग- ६. [प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना छे ? [उ०] हे गौतम ! ते अनेक प्रकारना कह्या छे. परिणत. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. पंचेन्द्रियप्र. ७. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारना कह्या छे. योगपरिणत. ते आ प्रमाणे-नारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, तिर्यंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, ए प्रमाणे मनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. नैरयिकप्रयोग- ८. प्र०) हे भगवन् ! नैरयिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! नैरयिकपंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गलो सात प्रकारना कह्या छे; ते आं प्रमाणे-रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, अने यावत् नीचे सप्तम नरकपृथिवीनैरयिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो... तिर्यंचपंचेन्द्रिय ९. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! तिर्यंचयोनिकप्रयोगपरिणत. पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो त्रण प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-जलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, स्थलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने खेचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. परिणत. १ षणस्सइकाइमाण पुच्छा, गोयमा ! अणेगविहा पश्चत्ता क। २तिरिक्ख एवं म-क।।-घरतिरिक्खपचिंदियजोणिय-क। ३. हिवे नव दंडव द्वारा (सू०३-२४) प्रयोगपरिणत पुद्गलोनुं निरूपण करे छे-१ सूक्ष्म एकेन्द्रियथी आरंभी सर्वार्थसिद्धदेवो पर्यन्त जीवोनी विशेषताथी प्रयोगपरिणत पुद्गलनो प्रथम दंडक, २ तेवी रीते सूक्ष्म पृथिवीकायिकथी प्रारंभी सर्वार्थसिद्धदेवो सुधी पर्याप्त अने अपर्याप्तना मेथी बीजो दंडक, ३ औदारिकादि पांच शरीरनी विशेषताथी त्रीजो दंडक, ४ पांच इन्द्रियोनी विशेषताथी चोथो दंडक, ५ औदारिकादि पांच शरीर अने स्पर्शादि पांच इन्द्रियोनी विशेषताथी पांचमो दंडक, ६ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अने संस्थाननी विशेषताथी उठो दंडक, औदारिकादिशरीर अने वर्णादिनी विशेषताथी सातमो दंडक, 6 इन्द्रियो भने वर्णादिनी विशेषताथी आठमो दंडक, भने ९ शरीर, इन्द्रिय अने वर्णादिनी विशेषताथी नवमो दंडक. ए प्रमाणे नव दंडक जाणवा-टीकाकार, Jain Education international Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक १: भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४३ १०. [प्र०] जलयरतिरिक्खजोणियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-समुच्छिमजलयर०, गम्भवकंतियजलयर०। ११. [प्र०] थलयरतिरिक्ख० पुच्छा। [उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-चउप्पयथलयर०, परिसप्पथलयर० । १२. प्र०] चउप्पयथलयर० पुच्छा। [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-समुच्छिमचउप्पयथलयर०, गम्भवकतियचउप्पयथलयर० । एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-उरपरिसप्पा य भुयपरिसप्पा य । उरपरिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-संमुच्छिमा य गम्भवकंतिया य। एवं भुयपरिसप्पा वि, एवं खहयरा वि। १३. [प्र०] मणुस्सपंचिंदियपओग० पुच्छा। [उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-समुच्छिममणुस्स०, गम्भवक तियमणुस्स०। १४. [प्र०] देवपंचिंदियपओग० पुच्छा। [उ०] गोयमा ! चउब्विहा पन्नत्ता, तं. जहा-भवणवासिदेवपंचिंदियपओग०, एवं जाव चेमाणिया। . १५. [प्र०] भवणवासिदेवपंचिंदिय० पुच्छा। [उ०] गोयमा! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-असुरकुमार०, जाव थणियकुमार० । एवं एतेणं अभिलावणं अट्टविहा वाणमंतरा, पिसाया जाव गंधव्वा । जोतिसिया पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-चंदविमाणजोतिसियां, जाव ताराविमाणजोइसिओ देवा । वेमाणिआ दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-कप्पोवगै० कप्पातीतगवेमाणिआ। कप्पोवगा दुवालसविहा पन्नत्ता, तं जहा-सोहम्मकप्पोवग० जाव अच्चुयकप्पोवगवेमाणिआ। कप्पातीतर्गे दुविहा पन्नत्ता, तं जहागेवेजगकप्पातीतग० अणुत्तरोववातीयकप्पातीतग० । गेवेजगकप्पातीतगे. नवविहा पन्नत्ता, तं जहा-हेटिमहेट्ठिमगेवेजगकप्पातीतग०, जाव उवरिमउवरिमगेवेजगकप्पातीतग० । १०. प्र०] हे भगवन् ! जलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०हे गौतम ! जलचर- जलचरादिप्रयोग परिणततिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-संमूर्छिमजलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने गर्भजजलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. ११. [प्र०] हे भगवन् ! स्थलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! स्थलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-चतुष्पदस्थलचरपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने परिसर्पस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. १२. [प्र०] हे भगवन् ! चतुष्पदस्थलचरतियंचयोनिकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे! (उ०] हे गौतम ! चतुष्पदस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-संमूर्छिमचतुष्पदस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने गर्भजचतुष्पदस्थलचरतियंचपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे ए अभिलाप (पाठ) वडे परिसॉं बे प्रकारना कह्या छे-उरपरिसर्प अने भुजपरिसर्प. उरपरिसर्पो वे प्रकारना कह्या छे-संमूर्छिम अने गर्भज. ए प्रमाणे भुजपरिसो अने खेचरो (पक्षीओ ) पण वे प्रकारना कह्या छे. ___ १३. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! मनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोग- मनुष्यप्रयोगपरिण परिणत पुद्गलो बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-संमूर्छिममनुष्यप्रयोगपरिणत अने गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. १४. [प्र०] हे भगवन् ! देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! देवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत देवप्रयोगपुद्गलो चार प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-भवनवासिदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, अने यावत् वैमानिकदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो. परिणत१५. [प्र०] हे भगवन् ! भवनवासिदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे! उ०] हे गौतम ! दश प्रकारना भवनवासि, व्यन्त ज्योतिषिक भने कह्या छे. ते आ प्रमाणे---असुरकुमारप्रयोगपरिणत, यावत् स्तनितकुमारप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे ए अभिलाप वडे आठ प्रकारना वानव्यंतरो, निकायोगपरिणत पिशाचो यावत् गान्धर्वो कहेवा, ज्योतिषिको पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे--चन्द्रविमानज्योतिषिकदेव, यावत् ताराविमानज्योतिषिकदेव. वैमानिक देवो वे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-कल्पोपपन्नकवैमानिकदेव अने कल्पातीतवैमानिक देव. कल्पोपपन्नकवैमानिक बार प्रकारना कह्या छे; सौधर्मकल्पोपन्नक, यावत् अच्युतकल्पोपन्नक. कल्पातीतवैमानिको हे गौतम ! बे प्रकारे कह्या छे; ते आ प्रमाणेगैवेयककल्पातीतवैमानिक देव अने अनुत्तरीपपातिककल्पातीत वैमानिक देव. गैवेयककल्पातीत वैमानिक देवो नत्र प्रकारे कह्या छे ते आ प्रमाणे--अधस्तन अधस्तन (नीचेनी त्रिकमां नीचे रहेला ) गैवेयककल्पातीत वैमानिक देवो, यावत् उपर उपर (उपरनी त्रिकमां उपरना) गैवेयक कल्पातीत देवो. १-सिय-क। २-सिअदेव-घ। ३ कप्पोवनग-घ। ४-तग गो. दुषि-घ। ५-तगा न-क। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय दंडक सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिप्र योगपरिणत. बेइन्द्रियादिप्र योगपरिणत. रणप्रभा दि नैरयिकप्रयोगपरिणत.. संमूर्छिमजलच· रादिप्रयोगप रिणत. संमूर्छिममनु ध्यादिप्रयोगपरिणत. श्रीराय चन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक. १० १६. [] अणुत्तरोववाइअकप्पातीत गवेमाणिअदेवपंचिंदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पत्ता ? [अ०] गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा - विजयअणुत्तरोववाहअ० जाव परिणया, जाव सव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिदिय जाव परिणया । (दं. १. ) ४४ १७. [प्र० ] हुमपुढविकाइ अएगिंदिअपयोगपरिणता णं भंते! पोग्गला कइविद्या पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! दुविधा पन्नत्ता, तं जहा-केति अपजत्तगं पढमं भणति पच्छा पज्जत्तगं । पजत्तासुहुमपुढविकाइअ० जाव परिणता य अपजत्तासुद्दुमपुढविक्काइअ० जाव परिणता य । बादरपुढविक्काइअपागंदिय० एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइआ । एक्केका दुविधा सुहुमा य यादरा य पज्जत्तगा अपजत्तगा य भाणिअव्वा १८. [प्र०] बैइंदियंपओगपरिणताणं पुच्छा । [30] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - पज्जन्त्तगयेइंदियपंओगपरिणता य अपजत्तग० जाव परिणया य । एवं तेइंदिया वि, एवं चउरिंदिया वि । १९. [प्र०] रयणप्पभापुढविनेरइअ० पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- पज्जत्तगरयपष्पभा० जाव परिणता य अपजत्तग० जाव परिणता य, एवं जाव आहेसत्तमा । २०. [प्र०] संमुच्छिमजलयरतिरिक्त्र ० पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - पजत्तग० अपजत्तग० । एवं गब्भवक्कंतिया वि । संमुच्छिमच उप्पयथलयरा एवं चेवः एवं गब्भवकंतिया वि । एवं जाव संमुच्छिमखहयर० गब्भवद्वंतिया य, एकेके पजत्तगा अपजत्तगा य भाणिभद्या । २१. [०] संमुच्छिममणुस्सपंचिंदिय० पुच्छा । [उ०] गोयमा ! एगविहा पन्नत्ता, अपजत्तगा चेव । २२. [प्र० ] गव्भवकंतियमणुस्स पंचिंदिय० पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविधा पन्नत्ता, तं जहा - पजत्तगगन्भवतिया वि, अपजत्तगगन्भवतिया वि । १६. [प्र०] अनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिकदेव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे - विजयअनुत्तरौपपातिकदेवप्रयोगपरिणत, यावत् सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत ( दं. १. ) १७. [ प्र० ] हे भगवन् ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकए केन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे, ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारना का छे; ते आ प्रमाणे – पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत. आ स्थळे ( बीजी वाचनामां ) कोइ अपर्याप्तने प्रथम कहे छे, अने पछी पर्याप्तने कहे छे. ए प्रमाणे बादरपृथिवी कायिकएकेन्द्रिय, यावत् वनस्पतिकायिक कहेवा. ते बधा बबे प्रकारे छे सूक्ष्म अने बादर, तथा पर्याप्त अने अपर्याप्त. १८. [प्र० ] हे भगवन् ! बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे—–पर्याप्तवैइन्द्रियप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे त्रीन्द्रियो अने चउरिन्द्रियो पण जाणवा. १९. [प्र० ] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथिवीनैरयिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [ उ०] हे गौतम! बे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे- पर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी नरकपृथ्वीसुधी जाणवुं. २०. [प्र० ] हे भगवन् ! संमूर्छिमजलचरतिर्यंचयोनिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! बे प्रकारना का छे; ते आप्रमाणे - पर्याप्तसंमूर्छिमजलचरप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तसंमूर्छिमजलचरप्रयोगपरिणत. ए प्रमाणे गर्भज जलचरो पण जाणवा. ए प्रमाणे संमूर्छिम तथा गर्भज चतुष्पदस्थलचर जीवो जाणवा, ए प्रमाणे यावत् संमूर्छिम तथा गर्भज खेचरो पण जाणवाः ते दरेकना पर्याप्त अने अपर्याप्त वे भेदो कहेवा. २१. [ प्र० ] हे भगवन् ! संमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुगलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [ उ०] हे गौतम! ते एक प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे - अपर्याप्तसंमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. २२. [प्र०] हे· भगवन् ! गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गलो केंटला प्रकारना कया छे ? [उ०] हे गौतम! ये प्रकारना कला छे, ते आ प्रमाणे -- पर्याप्तगर्भजप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्तगर्भजप्रयोगपरिणत. १ बंदिय-ध । २-पओग जाव प-क । ३ गम्भवतिया य एवं क । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८. - उद्देशक १. भगवत्सुधमेत्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४५ २३. [प्र०] असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा-पजत्तगअसुरकुमार०, अपजत्तगअसुरकुमार०; एवं जाव थणियकुमारा पजत्तगा अपजत्तगा य। एवं एतेणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया, जाव गंधया चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पोवगा, जावच्चुतो; हेट्ठिमहेट्ठिमगेविजकप्पातीत० जाव उवरिमउवरिमगेविज ० ; विजअणुत्तरोववाइअ०, जाव अपराजिअ० । २४. [०] सव्वट्टसिद्धप्पातीत० पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - पजत्तासब्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइअ०, अपजत्तासव्वटु० जाव परिणता वि ( दं. २. ). जे अपजत्तासु हुमपुढविकाइअएर्गिदिअपयोगपरिणया ते ओरालिय- तेया- कम्मगसरीरप्पयोगपरिणया । जे पज्ञत्तसुम० जाव परिणया ते ओरालिय- तेया- कम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, एवं जाव चउरिंदिया पज्जत्ता; णवरं जे पज्जत्तावाद रवाउकाइअएगिंदियप्पयोगपरिणया ते ओरालिय- वेडव्विय - तेया- कम्मसरीर० जाव परिणता सेसं तं चेव । जे अपजत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियपयोगपरिणया ते 'वेउच्चिय- तेया- कम्मसरीरप्पयोगपरिणया; एवं पजत्तगा वि, एवं जाव आहेसत्तमा । जे अंपजत्तासंमुच्छिमजलयर० जाव परिणया ते ओरालिय- तेया- कम्मासरीर० जाव परिणया, एवं पज्जत्तगा वि । गन्भवकंतिअपज्ञत्तगा एवं चेव, पजत्तगा णं एवं चैव । नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउक्काइआणं पजत्तगाणं; एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिआ एवं चतुष्पद - उरपरिसप्प - भुयपरिसप्प - खहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणिभवा । जे संमुच्छिममणुस्स पंचिदियपयोगपरिणया ते ओरालिय- तेया- कम्मसरीर० जाव परिणया। एवं गन्भवकंतिया वि; अपजत्तग-पजतगा वि एवं चैव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणियव्वाणि । जे अपज्जन्त्ताअसुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव, एवं पज्जत्तगा वि एवं दुयएणं भेदेणं जाव थणियकुमारा । एवं पिसाया, जाव गंधव्वा, चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पो०, जाओ; ट्टिमहिट्टिमगेवेज्जग०, जाव उवरिमउवरिमगेवेज्जग०, विजयअणुत्तरोववाइए, जाव सव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइए, एक्केके णं दुयओ २३. [ प्र० ] हे भगवन् ! असुरकुमारभवनवासिदेवप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे पर्याप्त असुरकुमारप्रयोगपरिणत अने अपर्याप्त असुरकुमार प्रयोगपरिणत; ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो पर्याप्त अने अपर्याप्त जाणवा. ए प्रमाणे ए अभिलाप वडे वे भेदो पिशाचो यावद् गांधर्वोना जाणवा. तेमज चन्द्रो यावत् ताराविमानो, सौधर्मकल्पोपपनक, यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक, तथा नीचे नीचेनी ग्रैवेयक कल्पातीत यावत् उपर उपरना ग्रैवेयककल्पातीतदेवप्रयोगपरिणत, विजयअनुत्तरौपपातिक, यावत् अपराजितअनुत्तरौपपातिक. २४. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतदेवप्रयोगपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! ते प्रकार ह्या छे; ते आ प्रमाणे --- पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक; यावत् अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धप्रयोगपरिणत. ए [ प्रमाणे दंडको जाणवा. ] जे पुलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे; अने जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे यावत् चउरिन्द्रिय पर्याप्ता जाणवा. परन्तु विशेष ए छे के जे पुद्गलो पर्याप्तबादरवायुकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत हे ते औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे, बाकीनुं सर्व पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. जे पुद्गलो अपर्याप्तरत्नप्रभापृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वैकिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनांरको पण जाणवा. ए प्रमाणे यावत् सप्तम पृथिवी सुधी जाणवुं. जे पुद्गलो अपर्याप्तसंमूर्छिमजलचरप्रयोगपरिणत छे ते औदारिक, तैजस, अने कार्मणशरीर यावत् परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्ता [ संमूहिम जलचर ] पण जाणवा. गर्भजअपर्याप्त अने गर्भजपर्याप्त पण एमज जाणवा. परन्तु विशेष एछे के पर्याप्तबादरवायुकायिकनी पेठे तेओने चार शरीर होय छे. ए प्रमाणे जेम जलचरोमां चार आलापक कहेला छे तेम चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प अने खेचरोमां पण चार आलापक कहेवा, जे पुद्गलो संमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे; ए प्रमाणे गर्भज अपर्याप्ता जाणवा, पर्याप्ता पण एमज जाणवा. परन्तु विशेष ए के तेओने पांच शरीर कहेबां. जेम नैरयिको संबन्धे कयुं, तेम अपर्याप्त असुकुमारभवनवासि देवो संबन्धे पण जाणवुं, तेम पर्याप्ता संबन्धे पण जाणवुं, ए प्रकारे ए बे भेदवडे यावत् स्तनितकुमारो पण जाणवा. ए प्रमाणे पिशाचो अने यावत् गांधव जाणवा. चंद्रो यावत् तारा विमानो, सौधर्मकल्प यावत् अच्युतकल्प, नीचेनी त्रिकमां नीचेना मैत्रेयक यावत् उपरनी त्रिकमां उपरना ग्रैवेयक अने विजयअनुत्तरौपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध. अनुत्तरौपपातिकना प्रत्येके बब्बे भेद कहेवा; यावत् १ - तेयाकम्मास क । २ अपजत्तगसं- घ । ३ सहा च ङ । ४ पयोगप- ङ । ५ दुपपुर्ण क। ६ दुयमेदा कम । असुरकुमारादिप्रयोगपरिणत. सर्वार्थसिद्धदेवप्रयोगपरिणत. तृतीय दंडक सूक्ष्मपृथिवीकायिका दिप्रयोग परिणत. रसप्रभादि नैरयिक प्र योगपरिणत. जलचरादितिचप्रयोगप रिणत. मनुष्यप्रपो गपरिणत. कार कुमारादि • देवप्रयोगपरिणत. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक. १. भेदो भाणिअव्वो, जाव जे य पजत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ०, जाव परिणता ते वेउब्विय तेआ-कम्मासरीरपओगपरिणया (दं. ३.). जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइअएगिदिअपयोगपरिणता ते फासिदिअपयोगपरिणया । जे पजत्तासुहुमपुढविकाइम० एवं चेव। जे अपजत्तावादरपुढविक्काइअ० एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं चउक्कएणं भेदेण जाव वणस्सतिकाइआ। जे अपजत्तावेइंदियपयोगपरिणया ते. जिभिदिय-फासिदियपयोगपरिणया, जे पजत्तावेइंदिय० एवं चेव, एवं जाव चतुरिंदिया, नवरं एक्ककं इंदियं वड्ढयव्वं, जाव अपजत्तरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपयोगपरिणता ते सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियपओगपरिणया । एवं पज्जत्तगा वि, एवं सव्वे भाणिअव्वा तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जाव जे पज्जत्तासब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणया ते सोइंदिय-चविखदिय० जाव परिणया। (दं.४.). जे अप्पजत्तासुहुमपुढविकाइअएगिदियओरालिय-तेया-कम्मसरीरपयोगपरिणया ते फासिंदियप्पओगपरिणया । जे पज्जत्तासुहुम० एवं चेव, बादरअपजत्ता एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं एतेणं अभिलावेणं जस्स जति इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणिअवाणि, जाव'जे पजत्तासचट्टसिद्धअणुत्तरोववाइअ.जाव देवपंचिंदियवेउधिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते सोइंदिय-चविखदिय-जाव फासिंदियप्पयोगपरिणता । (दं. ५.). ___ जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइअएगिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, नील-लोहिय-हालिह-सुक्किल, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि, दुभिगंधपरिणया वि; रसओ तित्तरसपरिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कसायरसपरिणया वि, अंबिलरसपरिणया वि, महुररसपरिणया वि; फासओ काखडफासपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि; संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि, वट्ट-तंस-चउरंस-आयत-संठाणपरिणया वि। जे पजत्तसुहमपुढवि० एवं चेव; एवं जहाणुपुव्वीप नेयव्वं, जाव जे पजत्तासव्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । (दं०.६.). चतुर्थ देख पुद्गलो अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक यावत् [ पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक-1 प्रयोगपरिणतं छे, ते वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे त्रण दंडक कह्या. . जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [ स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ] छे. जे पुद्गलो अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एज प्रकारे छे. जे पुद्गलो पर्याप्तबादरपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते पण एवाज छे.. ए प्रमाणे चार भेदो यावद् वनस्पतिकायिकोना जाणवा. जे पुद्गलो अपर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते जिह्वाइन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. जे पर्याप्तबेइन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा; परन्तु एक एक इन्द्रिय वधारवी [अर्थात् त्रीन्द्रियजीवोने स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रिय कहेवी, अने चउरिन्द्रियजीवोने एक चक्षुरिन्द्रिय वधारवी.] यावत् जे पुद्गलो अपर्याप्तरनप्रभापृथिवीनारकपंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तनारकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. सर्व तिर्यंचयोनिको, मनुष्यो अने देवो पण ए प्रकारे कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय इत्यादि यावत् परिणत छे. [दं. ४ ] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे.. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत छे ते ए प्रमाणे [ स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत ] छे. अपर्याप्तबादरपृथिवीकायिक अने पर्याप्तबादरपृथिवीकायिक पण ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे ए अभिलाप (पाठ) वडे जेने जेटली इन्द्रियो अने शरीरो होय तेने तेटलां कहेवा. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपञ्चेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे. [दं. ५] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे, नीलवर्णे, रक्तवर्णे, पीतवर्णे अने शुक्लवर्णे पण परिणत छे; गन्धथी सुरभिगन्ध अने दुरभिगन्धपणे पण परिणत छे. रसथी तिक्तरस, कटुकरस, कपायरस, अम्लरस अने मधुररसरूपे पण परिणत छे; स्पर्शथी कर्कशस्पर्श, यावत् रूक्षस्पर्शरूपे पण परिणत छे, अने संस्थानथी परिमंडलसंस्थान, वृत्तसंस्थान, व्यस्रसंस्थान, चतुरस्र (चोरस) संस्थान अने आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे, ते ए प्रमाणे जाणवा. अने ए प्रकारे सर्व क्रमपूर्वक जाणवू, यावत् जे पुद्गलो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक-यावत् प्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत पण छे, यावत् आयतसंस्थान रूपे पण परिणत छे. [दं. ६] पंचम दंडक. १ भाणिअब्वा ङ। २ भपजत्ता-घ। ३ कम्मास-क। ८ सुकिल्ला क। जइ घ। ५ इंदियाई का जेय प-घ। -णया विते क। Jain Education international Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दियफासिदियपयागपा शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४७ जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढविक्काइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए नेया, जस्स जइ सरीराणि, जाव जे पजत्तासचट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेउधिय-तेया-कम्मासरीर- जाव परिणया ते वन्नओ कालवनपरिणता वि, जाव आयतसंठाणपरिणता वि (दं. ७) जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियफासिंदियपयोगपरिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढदिकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए. जस्स जति इंदियाणि तस्स तति भाणियवाणि, जाव जे पज्जत्तासवटसिद्धअणुत्तरोववाइअ- जाव देवपंचिदियसोतिदिय-जाव फासिंदियपयोगपरिणता ते वनओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणता वि । (दं.८) जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्मा-फासिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढविकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुश्वीए जस्स जति सरीराणि इंदियाणि य तस्स तति भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेउविय-तेया-कम्मा-सोइंदियजाव फासिदियपओगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणता वि । एवं एते नव दंडगा। जति इंदियाणि तो कालवनपरिणया, २५. [प्र०] मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-एगिदियमीसारिणया, जाव पंचिंदियमीसापरिणया। २६. [प्र०] एगिदियमीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! एवं जहा पओगपरिणतेहि नव दंडगा भणिया, एवं मीसापरिणएहिं वि नव दंडगा भाणियचा, तहेव सवं निरवसेस, नवरं अभिलायो 'मीसापरिणया' भाणियचं, सेसं तं चेव, जाव जे पजत्तासघट्टसिद्ध-अणुत्तरोववाइअ- जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे, ते वर्णधी कालावणे पण सप्तम दंडक परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. ए प्रकारे यथानुक्रमे जाणवू. जेने जेटलां शरीर होय [तेने तेटलां कहेवां ] यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस . अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे पण परिणत छे, अने संस्थानथी यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे [दं. ७] जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत छे, यावत् आयतसंस्थान . पटन देखकरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिक एकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते पण ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे सर्व अनुक्रमे जाणवू, जेने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली कहेवी; यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावर्णे परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे परिणत छे [दं.८] - जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मण, अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावर्णे नवम दंवक पण परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. जे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिक-[एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मण तथा प्रयोगपरिणत छे ते पण ] ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे अनुक्रमे सर्व जाणवं. जेने जेटलां शरीर अने इन्द्रियो होय तेने तेटला कहेवां, यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय-वैक्रिय, तैजस अने कार्मण तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे अने यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. ए प्रमाणे ए नव दंडको कह्या. २५. [प्र०] हे भगवन् ! मिश्रपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे एकेन्द्रियमिश्रपरिणत अने यावत् पंचेन्द्रियमिश्रपरिणत. मिश्रपरिणत पुवको २६. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियमिश्रपरिणतपुद्गलो केटला प्रकारना छे ! [उ० ] हे गौतम! जेम प्रयोगपरिणतपुद्गलो संबन्धे नव दंडक कह्या तेम मिश्रपरिणतपुद्गलो संबन्धे पण नव दंडक कहेवा, तेम बाकी, सर्व कहे, परन्तु विशेष ए छे के [प्रयोग परिणतने स्थाने ] 'मिश्रपरिणत' एवो पाठ कहेवो. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकप्रयोगपरिणत छे ते यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. मिमपरिणत पुदलोने वि. पे नव दंडक १-२-णता विक। -णए हिं न-क। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीरायचन्द्र-जिनांगमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १० २७. [प्र०] वीससापरिणता णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-पन्नपरिणता, गंधपरिणता, रसपरिणता, फासपरिणता, संठाणपरिणता । जे वनपरिणता ते पंचविहा पन्नता, तं जहा-कालवनपरिणता, जाव सुक्किलवनपरिणता।जे गंधपरिणता ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुन्भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि, एवं जहा पनवणाए तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणतो आयतसंठाणपरिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि । २८. [प्र०] एगे भंते ! दवे किं पयोगपरिणए, मीसापरिणप, वीससापरिणए ? [उ०] गोयमा ! पयोगपरिणए था, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा। २९. [प्र०] जेदि पयोगपरिणते किं मणप्पयोगपरिणए, वैयप्पयोगपरिणए, कायप्पयोगपरिणए ? [उ०] गोयमा ! मणप्पओगपरिणए वा, घेयप्पयोगपरिणए वा, कायप्पओगपरिणए वा । ३०. [प्र०] जदि मणप्पओगपरिणते किं सच्चमणप्पयोगपरिणते, मोसमणप्पयोगपरिणते, सञ्चामोसमणप्पयोगपरिणते, असच्चामोसमणप्पओगपरिणते ? [उ०] गोयमा! संचमणप्पयोगपरिणते वा, मोसमणप्पयोगपरिणते वा, सचामोसमणप्पयो गपरिणते वा, असच्चामोसमणप्पओगपरिणते वा। ३१. [प्र०] जदि संञ्चमणप्पओगपरिणते किं आरंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए, अणारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए, सारंभसच मणप्पयोगपरिणए, असारंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए, समारंभसचमणप्पयोगपरिणए, असमारंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए ? [उ०] गोयमा! आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणते वा, जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए वा । विनसापरिपतपुद्गलो. २७. [प्र०] हे भगवन् । विस्रसापरिणत (स्वभावथी परिणामने प्राप्त थयेला) पुदगलो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ.] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे ते आ प्रमाणे-वर्णपरिणत, गंधपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत अने संस्थानपरिणत. जे वर्णपरिणत पुद्गलो छे ते पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-कालावर्णरूपे परिणत, यावत् शुक्लवर्णरूपे परिणत. जे गंधपरिणत छे ते बे प्रकारना छे ते आ प्रमाणे--सुगंधपरिणत अने दुर्गंधपरिणत. ए प्रमाणे जेम प्रज्ञापना पदमां का छे तेम सर्व जाणवू. यावत् जे (पुद्गलो) संस्थानथी आयतसंस्थानरूपे परिणत छे ते वर्णथी काळावर्णरूपे पण परिणत छे, यावत् रूक्षस्पर्शरूपे पण परिणत छे. एकछव्यपरिणाम २८. [प्र०] हे भगवन् ! एक द्रव्य शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! एक द्रव्य - प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत पण होय. २९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते [एकद्रव्य ] प्रयोगपरिणत होय तो शुं मिनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्प्रयोगपरिणत होय, के कायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते मनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्प्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय. मनःप्रयोगादिपरिणत. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, मृषामनःप्रयोगपरिणत होय; सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय के असल्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, मृपामनःप्रयोगपरिणत होय, सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय के असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, अनारंभसत्यमन:प्रयोगपरिणत होय, संरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, असंरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, समारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय के असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, यावत् असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत पण होय. भारंभसत्यमनप्रयोगादिप रिणत. कालावन-क। २-वणए क। ३ मीसप-क। ४जइ घ। ५ वइप्प-ध। ६ सञ्चामण-क। २७. * प्रज्ञा० पद १५-१०-१ २९. औदारिकादिकाययोगवडे मनोवर्गणा द्रव्यने ग्रहण करी तेने मनोयोग वढे मनपणे परिणमाव्या जे पुद्गलो ते मनःप्रयोगपरिणत कहेवाय छे, औदारिकादिकाययोग बडे भाषाद्रव्यने ग्रहणकरी वचनयोग वढे भाषारूपे परिणमावी बहार कढाता जे पुद्गलो ते वाक्प्रयोगपरिणत कहेवाय छ, भने फाययोग वहे ग्रहण करीने औदारिकादिशरीररूपे परिणमाव्या जे पुद्गलो ते कायप्रयोगपरिणत कहेवाय छे-टीकाकार. ३०. सत्यपदार्थना चिन्तनकरवारूप मननो व्यापार ते सत्यमनःप्रयोग कहेवाय छे. कंइक सत्य भने कंइक असत्य एम मिश्रित थयेल होय ते सत्यमृपा कहेवाय छे, अने सत्य ने असल्य बनेथी रहित ते असलमृपा कहेवाय छे. ३१. आरम्भ-जीवहिंसा, तेने विषे मनःप्रयोग एटले मननो व्यापार, ते बढे परिणाम पामेल जे पुतलो ते आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत कहेवाय छे, ए प्रमाणे बीजा पण जाणी लेवा; परन्तु विशेष ए छे के अनारंभ-जीवहिंसानो अभाव, संरभ-वधनो संकल्प भने समारंभ-परिताप उपजावपो.टीकाकार. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ४९ ___ ३२. [प्र०] जदि मोसमणप्पयोगपरिणते किं आरंभमोसमणप्पओगपरिणए वा ? [उ०] एवं जहा सञ्चेणं तहा मोसेण वि, एवं सच्चामोसमणप्पयोगेण वि, एवं असच्चामोसमणप्पयोगेण वि। ३३. [प्र०] जदि वइप्पयोगपरिणते किं सञ्चवइप्पयोगपरिणते, मोसवइप्पयोगपरिणते ? [उ०] एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणए वि, जाव असमारंभवइप्पयोगपरिणते वा।। ३४. [प्र०] जदि कायप्पयोगपरिणते किं ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते, ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणते, वेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउनियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणते, आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणते, कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणते ? [उ०] गोयमा ! ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते वा, जाव कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणते वा । . ३५. [प्र०] जदि ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते किं एगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते, एवं जाव पंचिंदियओरालिय- जाव परिणते ? [उ०] गोयमा! पगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते वा, बेइंदिय- जाव परिणते वा, जाव पंचिंदियओरालियकायप्पयोगपरिणए वा। ३२. [प्र०) हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मृषामनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभमृषामनःप्रयोगपरिणत होय ! [ उ० ] ए प्रमाणे जेम सत्यमनःप्रयोगपरिणतने विषे का तेम मृषामनःप्रयोगपरिणत विषे जाणवू. ए प्रमाणे सत्यमृषामनःप्रयोगने विषे अने असत्यामृषामन:प्रयोगने विषे पण जाणवू. ३३. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वाक्प्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यवाक्प्रयोगपरिणत होय? [उ.] ए प्रमाणे जेम मनःप्रयोगपरिणतने विषे कह्यु, तेम वचनप्रयोगपरिणतने विषे पण जाणवं, यावत् असमारंभवचनप्रयोगपरिणत होय, ____ ३४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य कायप्रयोगपरिणत होय तो शुं १ *औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, २ औदारिक औदारिकादिकाय प्रयोगपरिणत. मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ३ वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ४ विक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ५ आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ६ आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के ७ कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ.] हे गौतम ! ते एक द्रव्य औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय, यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय. ३५. [प्र०] जो ते (एक द्रव्य ) औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, औदारिककावप्रपो बेइन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, के यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, बेइन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय, यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. गपरिणत. 1-प्पयोगपरिणएण विग। २ मोसवय-क। ३४. * औदारिककायप्रयोग पर्याप्ताने ज होय छे, ते वडे परिणत जे पुद्गल द्रव्य ते औदारिककायप्रयोगपरिणत कहेवाय छे. ज्यारे औदारिकशरीर उत्पत्तिसमये अपूर्णावस्थामां कार्मण साथे मिथ थाय छे त्यारे ते औदारिकमिश्र कहेवाय छे, ते कायप्रयोगथी परिणत जे द्रव्य ते औदारिकमित्रकायप्र योगपरिपत कहेवाय छे. आ औदारिकमिश्रकायप्रयोग अपर्याप्त जीवने ज होय छे. परभवमा उत्पत्तिसमये जीव प्रथम कार्मणयोग वडे आहार करे छे, त्यार पछी ज्यो. सुधी शरीर ( शरीरपर्याप्ति ) निष्पन्न न थाय त्यांसुधी औदारिकमिश्रयोगवडे आहार करे छे. ए प्रकारे काम ग साथे औदारिकशरीरनी मित्रता होवाथी त्यां औदारिकमिश्रकायप्रयोग जाणवो; केमके उत्पत्तिने लीधे औदारिकशरीरनी प्रधानता छे. वळी औदारिकशरीरवाळो मनुष्य, तिर्यंच के बादरवायुकायिक ज्यारे वैक्रियशरीर करे त्यारे ते औदारिककाययोगने विषे वर्ततो आत्मप्रदेशोने विस्तारी वैकियशरीरयोग्य पुद्गलोने ग्रहण करे, अने ज्यांसुधी ते वैकियशरीरपर्याप्ति पूर्ण न करे त्यांसुधी वैक्रियनी साथे औदारिकशरीरनी मिश्रता होवाथी तेने औदारिकमिश्रकायप्रयोग जाणवो, केमके ते प्रारंभक होवाथी देनी (औदारिककायप्रयोगनी) प्रधानता छे. एवी रीते आहारकनी साये औदारिकनी मित्रता जाणवी. वैक्रियमिश्रकायप्रयोग देव अने नारकमां उत्पन्न थता अपर्याप्ताने होय छ; अहीं वैक्रियशरीरनी मिश्रता कार्मगनी साये छे. पळी लन्धिजन्य वैकियशरीरनो त्याग करता अने औदारिकने ग्रहण करता औदारिकशरीरवाळाने वैकियनी प्रधानता होवाथी त्यां औदारिकनी साथे वैकियनी मित्रता छे वेधी खां पैक्रियमिश्रकायप्रयोग जाणवो. आहारकमिश्रकायप्रयोग औदारिकनी साथे आहारकनी मित्रता धाय त्यारे होय छ, भने ते आहारकशरीरने त्याग करता बने औदारिकशरीरले प्रहण करतां होय छे. अर्थात्-ज्यारे आहारकशरीरी पोतार्नु कार्य समाप्त करीने पुनः औदारिकशरीरने धारण करे त्यारे आहारकर्नु प्राधान्य होवाची अवे तेनो औदारिकशरीरने ग्रहण करवामा व्यापार होवाथी ज्यांसुधी तेनो सर्वथा त्याग न करे त्यांसुधी तेनी (आहारकशरीरनी ) औदारिकनी माये मित्रता होय छे, तेथी या आहारकमिश्रकायप्रयोग जाणवो. अहीं कार्मणशरीरकायप्रयोग विप्रहगतिमा सर्व संसारी जीवोने, भने समुद्घात करता केवलज्ञानीने श्रीजा, चोपा अने पांचमा समये दोय के. Jain Education international Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ८:- उद्देशक. १. ३६. [प्र०] जदि एर्गिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणते किं पुढविक्काइयएगिंदिय - जाव परिणते वा, जाव वणस्सइकाइयएर्गिदियओरालियकायप्पओगपरिणते वा ? [30] गोयमा ! पुढविक्काइयपर्गिदिय- जाव परिणए वा, जाव वण सइकाइयएगिंदिय- जाव परिणए वा । ५० ३७. [प्र० ] जदि पुढ विकाइयएगिंदियओरालियसरीर- जाव परिणते किं सुहुमपुढविक्काइय- जाव परिणए, बादरपुढविकाइय- जाव परिणते ? [अ०] गोयमा ! सुहुमपुढविकाइयएर्गिदिय- जाव परिणते वा, बायरपुढविक्काइय- जाव परिणते वा । ३८. [प्र०] जदि सुहुमपुढविक्काइय- जाव परिणते किं पज्जत्तसुहुमपुढविक्काइय- जाव परिणते, अपजत्तसुहुमपुढविकाअ - जाव परिणते ? [अ०] गोयमा ! पज्जत्तसुहुमपुढविकाइय- जाव परिणते वा, अपजत्तसुहुमपुढविक्काइय- जाव परिणते वा एवं बादरा वि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कओ भेदो, वेइंदिय-तेइंदिय- चउरिंदियाणं दुयओ भेदो- पज्जत्तगा य अपजत्तगा य । ३९. [प्र० ] जदि पंचिदियओरालियसरी रकायप्पयोगपरिणते किं तिरिक्खजोणियपंचिदिय ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते, मणुस्सपंचिंदिय- जाव परिणते ? [ उ०] गोयमा ! तिरिक्खजोणिय- जाव परिणए वा, मणुस्सपंचिंदिय- जाव परिणए वा । ४०. [प्र०] जइ तिरिक्खजोणिय- जाव परिणए किं जलयरतिरिषखजोणिय- जाव परिणय वा, थलयर - खहचर - जाव परिणए वा ? [30] एवं चउक्कओ भेदो, जाव सहचराणं । ४१. [प्र०] जइ मणुस्पंचिंदिय- जाव परिणए किं संमुच्छिममणुस्तपंचिंदिय- जाव परिणए, गन्भवकंतियमणुस्सजाव परिणए ? [अ०] गोयमा ! दोसु वि । ४२. [प्र० ] जइ गन्भवतियमणुस्स- जाव परिणए किं पजत्तगब्भवकंतिय- जाव परिणए, अप्पजत्तगब्भवकंतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोग परिणए ? [उ०] गोयमा ! पज्जत्तगब्भवकंतिय- जाव परिणए वा, अपजत्तगब्भवक्यंतियजाव परिणए वा । ३६. [प्र० ] हे भगवन्! जो ते एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय औदा+ रिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् वनस्पतिकायिकएकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम ! पृथिवी - कायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य पृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगपरिणत होय तो शुं सूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के बादरपृथिवीकायिकए केन्द्रिय कायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० ] हे गौतम ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के बादरपृथिवीकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय. ३८. [प्र० ] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य सूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय तो शुं पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरत होय, के अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय ! [ उ० ] हे गौतम ! पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिककायप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे बादरपृथिवीकायिको जाणवा. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिकना चार भेद ( सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अने अपर्याप्त ) अने बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, अने चउरिन्द्रिय जीवोना बे भेद पर्याप्त अने अपर्याप्त जाणवा. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के मनुष्यपंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० ] हे गौतम! तिर्यंचयोनिक औदारिक शरीरकायप्रयोगपरिणत होय के मनुष्यपंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. ४०. [प्र०] हे भगवन्! जो ते एक द्रव्य तिर्यंचयोनिककायप्रयोगपरिणत होय तो शुं जलचरतिर्यंचयोनिककायप्रयोगपरिणत होय के स्थलचर अने खेचरयोनिककायप्रयोगपरिणत होय ? [30] पूर्व प्रमाणे यावत् खेचरोना [ संमूर्छिम, गर्भज, पर्याप्त अने अपर्याप्त ] चार भेदो जाणवा. ४१. [प्र० ] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं संमूर्छिममनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय के गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते ( एक द्रव्य ) [ संमूर्छिम अने गर्भज ] मनुष्यकायप्रयोगपरिप्त होय. ४२. [प्र०] हे भगवन्! जो ते एक द्रव्य गर्भजमनुष्यका यप्रयोगपरिणत होय तो शुं पर्याप्तगर्भजमनुष्यकायप्रयोगपरिणत होय के. अपर्याप्तगर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! पर्याप्तगर्भजमनुष्यकायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तगर्भजमनुष्यकायप्रयोगपरिणत होय. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रगीत भगवतीसूत्र. ४३. प्र०] जइ ओरालियमीलासरीरकायप्पओगपरिणय किं एगिदियओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए, वेइंदियजाव परिणए, जाव पंचिंदियओरालिय- जाव परिणर ? [उ०] गोयमा! एगिदियओरालिय- एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ, तहा ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणएण वि आलावगो भाणियचो; नवरं वायरवाउकाइय-गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-गब्भवतियमणुस्साणं एएसिणं पजत्तापजत्तगाणं, सेसाणं अपजत्तगाणं । ४४. प्र०] जइ वेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियवेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिंदियवेउधियसरीर-जाव परिणए ? [उ०] गोयमा! एगिदिय- जाव परिणए वा, पंचिंदिय-जाव परिणए वा।। ४५. [प्र०] जइ एगिदिय-जाव परिणए, किं वाउकाइयएगिदिय- जाव परिणए, अवाउकाइयरगिदिय- जाव परिणए ? [उ०] गोयमा! वाउकाइयएगिदिय-जाव परिणए, नो अवाउकाइय-जाव परिणए; एवं एएणं अभिलावेणं जहा 'ओगाहणसंठाणे' वेउवियसरीरं भणियं तहा इह वि भाणियवं, जाव पजत्तसवसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपजत्तसबटुसिद्धअणुत्तरोववाइअ-जाव परिणए वा। . ४६. [प्र०] जइ उचियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ? [उ०] एवं जहा वेउधियं तहा वेउधियमीसगं पि, नवरं देव-नेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पजत्तगाणं तहेव, जाव नो पजत्तसवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ- जाव परिणए, अपजत्तसबट्ठसिद्ध अणुत्तरोववातियदेवपंचिंदियवेबियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए । ४७. प्र०] जइ आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, अमणुस्साहारग-जाव परिणए ? [उ०] एवं जहां 'ओगाहणसंठाणे' जाव इविपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखेजवासाउय- जाव परिणर, नो अणिद्विपत्तपमत्तसंजयसम्मदिदिपजत्तसंखेजवासाउय- जान परिणए । ४३. [प्र०] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत बौदारिकमिभकायहोय, बेइन्द्रियऔदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! एकेन्द्रिय- प्रयोगपरिणत औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय. जेम 'औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत'नो आलापक कह्यो तेम 'औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत' नो पण आलापक कहेवो. परन्तु विशेष ए छे के 'औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत'नो आलापक बादरवायुकायिक, गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यच अने गर्भजमनुष्य पर्याप्ता अपर्याप्ता एओने, अने ते शिवाय बाकीना अपर्याप्ता जीवोने कहेवो. ४४. हे भगवन् ! जो एक द्रव्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् क्रियशरीरका पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० हे गौतम! ते एकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय के पंचेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोग- प्रयोगपरिणत. परिणत होय. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य एकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय के वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते एक द्रव्य वायुकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय, पण वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत न होय. ए प्रमाणे ए अभिलाप(पाठ)थी *प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे वैक्रियशरीरसंबन्धे कह्यु छे तेम अहीं पण कहे; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिकदेवपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग- पक्रियमिभकायपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! जेम वैक्रियशरीरप्रयोगसंबन्धे कह्यु, तेम प्रयोगपरिणतवैक्रियमिश्रकायप्रयोगसंबन्धे पण कहेवू; परन्तु विशेष ए छे के वैक्रियमिश्रकायप्रयोग देव अने नैरयिक अपर्याप्ताने अने बाकीना बधा पर्याप्ताने कहेवो; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकवैक्रियमिश्रकायप्रयोगपरिणत न होय, पण अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. (४.) ४७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं मनुष्याहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय माहारकशरीरकायके अमनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे जेम प्रिज्ञापनासूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे कह्यं छे तेम। जाणवू; यावत् ऋद्धिप्राप्त आहारकलब्धिमान् प्रमत्त साधु सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्वाळा मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत होय, पण ऋद्धिने-आहारकलब्धिने-अप्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्वाळा मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत न होय. (५.) वहा मीसगपि घ। २ जाव पयोगप-ध। . ४५. प्रज्ञा• पद २१. प. ४१४-२. पं. ४. ४७. प्रहा. पद २१. प. ४२३-१.पं.. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक. १. ४८. प्र०] जब आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगमीसासरीर०१ [उ०] एवं जहा आहारंग तहेव मीसमं पि निरवसेसं भाणियचं । ४९. [प्र०] जइ कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियकग्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिंदियकम्मासरीरजाव परिणए ? [उ०] गोयमा! एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, एवं जहा 'ओगाहणसंठाणे' कम्मगस्स भेदो तहेव इहावि, जाव पजत्तसघट्टसिद्धअणुत्तरोववाइय- जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, अपज्जत्तसञ्बट्रसिद्धअणुत्तरोजाव परिणए वा। ५०. [प्र०] जइ मीसापरिणए किं मणमीसापरिणए, वयमीसापरिणए, कायमीसापरिणए ? [उ०] गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वयमीसा०, कायमीसापरिणए वा। ५१. [प्र०] जइ मणमीसापरिणए कि सच्चमणमीसापरिणए वा, मोसमणमीसापरिणए वा ? [उ०] जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणए वि भाणियवं निरवसेसं, जाव पजत्तसन्चट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय-जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा, अपजत्तसवटसिद्धअणुत्तरोववाइय- जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा। ५२. [प्र०] जइ वीससापरिणए किं वनपरिणए, गंधपरिणए, रसपरिणए, फासपरिणए, संठाणपरिणए ? [उ.] गोयमा ! वनपरिणए वा, गंधपरिणए वा, रसपरिणए वा, फासपरिणए वा, संठाणपरिणए वा । ५३. [प्र०] जब वनपरिणए कि कालवनपरिणए, नील- जाव सुक्किलवनपरिणए ? [उ०] गोयमा ! कालवनपरिणए, जाव सुक्किलवनपरिणए । ५४. [प्र०] जइ गंधपरिणए कि सुम्भिगंधपरिणए, दुभिगंधपरिणए ? [उ०] गोयमा! सुब्भिगंधपरिणए, दुन्भिगंधपरिणए। ५५. [प्र०] जइ रसपरिणए कि तित्तरसपरिणए ?-पुच्छा [उ०] गोयमा ! तित्तरसपरिणए, जाव महुररसपरिणए । नाहारकमिश्रकायप्रयोगपरिणतः कामणशरीरकायप्रयोगपरिणत. मिमपरिणत. सत्समनोमिश्रपरिणत. ४८. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं मनुष्याहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? इत्यादि. [ उ०] हे गौतम ! जेम आहारकशरीरसंबन्धे कडं तेम आहारकमिश्रसंबन्धे पण कहे. (६) ४९. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० ] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे जेम *प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे कह्यु छे तेम अहीं पण जाणवू, यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेव. पंचेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककार्मणकायप्रयोगपरिणत होय. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मिश्रपरिणत होय तो शुं मनोमिश्रपरिणत होय, वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय ! [उ.] हे गौतम! ते मनोमिश्रपरिणत होय, वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय. ५१. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मनोमिश्रपरिणत होय तो शुं सत्यमनोमिश्रपरिणत होय, मृषामनोमिश्रपरिणत होय ? उ. हे गौतम ! जेम प्रयोगपरिणत पुद्गलो संबन्धे कयुं तेम मिश्रपरिणतसंबन्धे सर्व कहे, यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियकार्मणशरीरमिश्रपरिणत होय, के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककार्मणशरीरमिश्रपरिणत होय. ५२. प्रि०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य विस्रसापरिणत-स्वभावपरिणत होय तो शुं ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, स्पर्शपरिणत होय के संस्थानपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, स्पर्शपरिणत होय, अने संस्थानपरिणत पण होय. ५३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वर्णपरिणत होय तो शुं काळावर्णपणे परिणत होय, नीलवर्णपणे परिणत होय के यावत् शुक्लवर्णपणे परिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम ! ते काळावर्णपणे परिणत होय, यावत् शुक्लवर्णपणे पण परिणत होय. ५४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य गंधपणे परिणत होय तो शुं सुगंधपणे परिणत होय के दुर्गधपणे परिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! ते सुगंधपणे परिणत होय अने दुर्गंधपणे पण परिणत होय. ५५. [प्र०] जो ते एक द्रव्य रसपरिणत होय तो शुं तिक्तरसपरिणत होय ? इत्यादि [उ० ] हे गौतम ! ते तिक्तरसपरिणत होय यावत् मधुररसपणे परिणत होय. विनमापरिणत. पण हाय. ४९. प्रज्ञा० पद २१. प. ४२५-१. पं. ६. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८. - उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५६. [२०] जर फासपरिणए किं कणडफासपरिणर, जाव लुक्सफासपरिणय ? [४०] गोषमा! फक्सडफार रिणए, जाव सुक्खफासपरिणए । ५७. [ प्र० ] जइ संठाणपरिणए- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! परिमंडलसंठाणपरिणए वा, जाव आययसंठाणपरिणय वा । 1 ५८. [२०] दो मंदा किं पयोगपरिणया, मीसापरिणया, दीसखापरिणया । [४०] गोवमा ! पजोगपरिणया वा मीसापरिणया था, बीससापरिणया या भइया एगे पभोगपरिणए एगे मीसापरिणए अहवा गे पयोगपरिणय एगे बीससापरिणय; अहवा एगे मीलापरिणए एगे वीससापरिणए एवं ( ६ ) । ५३ ५९. [प्र०] जह पओगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया, वइप्पयोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया ? [अ०] गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया, वइप्पयोगपरिणया, कायप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे मणप्पयोगपरिणए एगे वयप्पयोगपरिणए; अहवा यमगण्ययोगपरिणार पगे कायप्पयोगपरिणयः अहवा एगे वयप्ययोगपरिणते एगे कायप्पयोगपरिणते । ६०. [प्र०] जर मणप्पभोगपरिणया किं सचमणप्ययोगपरिणया, असचामणप्ययोगपरिणया, सथामोसमणप्ययोगपरिणया, असच्चामो समणप्पयोगपरिणया ? [30] गोयमा ! सचमणण्यओगपरिणया या जाब असथा मोसमणप्य ओगपरिणया अहवा एगे सचमणप्पओगपरिणए एगे मोसमणप्पयोगपरिणए, अहवा एगे सञ्चमणप्पओगपरिणए एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणय, अवा एगे सचमणप्ययोगपरिणए एगे असयामोस मणप्पयोगपरिणयः अहवा एंगे मोसमणप्ययोगपरिणए एगे सवा ओसमणप्पयोगपरिणए; अहवा एगे मोसमणप्पयोगपरिणए एगे असच्चामोसमणप्पयोगपरिणए; अहवा एगे सच्चामोसमणप्पयोगपरिणए एगे असश्चामोसमणप्पओगपरिणए । ६१. [०] अ सचमणप्पयोगपरिणया किं आरंभसामणप्पओगपरिणया, जाव असमारंभसचमणप्ययोगपरिणया ? [30] गोयमा ! आरंभसश्च मणप्पयोगपरिणया वा, जाव असमारंभसचमणप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे आरंभसचमणप्पयोग ५६. [प्र० ] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य स्पर्शपरिणत होय तो ते शुं कर्कशस्पर्शपरिणत होय के यावत् रूक्षस्पर्शपरिणत होय ! [ उ० ] हे गौतम ! ते कर्कशस्पर्शपणे परिणत होय, यावत् रूक्षस्पर्शपणे पण परिणत होय. ५७. [प्र० ] हे भगवन् ! एक द्रव्य संस्थानपरिणत होय तो शुं ते परिमंडलसंस्थानपणे परिणत होय के यावत् आयतसंस्थानपणे परिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते परिमंडलसंस्थानपणे परिणत होय के यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत होय. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! बे द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्त्रसापरिणत पण होय. १ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बीजुं मिश्रपरिणत होय. २ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बीजुं विस्रसापरिणत होय. ३ अथवा एक द्रव्य मिश्रपरिणत होय अने बीजुं विस्रसा परिणत होय. ५९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते बे द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो ते शुं मनः प्रयोगपरिणत होय, वचनप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय [३०] हे गौतम से वे द्रथ्यो मनः प्रयोगपरिणत होय, वचनप्रयोगपरिणत होय अने कायप्रयोगपरिणत होप. १ अथवा एक द्रव्य मनः प्रयोगपरिणत होय अने बीजुं वचनप्रयोगपरिणत होय. २ अथवा एक मनःप्रयोगपरिणत होय अने बीजुं कायप्रयोगपरिणत होय. ३ अथवा एक वचनप्रयोगपरिणत होष अने बीतुं कायप्रयोगपरिणत होय. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते बे द्रव्यो मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, असत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, सत्यमुपागनः प्रयोगपरिणत होय के असल्यामृषामनः प्रयोगपरिणत होय! [उ० ] हे गौतम! सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय के यावत् असल्याषामनः प्रयोगपरिणत होय. १ अथवा एक सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय अने बीजं मृषामनः प्रयोगपरिणत होय. २ अथवा एक सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय अने भी सवामनः प्रयोगपरिणत होय. ३ अपना एक सयमनः प्रयोगपरिणत होय अने बी असलामृपामनः प्रयोगपरिणत होय. ४ अथवा एक मृषामनः प्रयोग परिणत होय अने बीजुं सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणत होय. ५ अथवा एक मृषामनः प्रयोगपरिणत होय अने बी असल्यामुपामनः प्रयोगपरिणत होय. ६ अथवा एक सत्यमुपामनः प्रयोगपरिणत होय अने बी असल्यामुपामनः प्रयोगपरिणत होय. ६१. [प्र० ] हे भगवन्! जो वे द्रव्यो सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय तो शुं १ आरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, २ अनारंभ सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, ३ संरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, ४ असंरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, ५ समारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय के ६ असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते बे द्रव्यो आरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय, यावत् असमारंभसत्यमनः द्रव्योनो प रिणाम. मनःप्रयोगादि परिणत. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिमपरिणत वे द्रभ्यो. विस्रसापरिणत ये द्रव्यो. द्रव्यनो परिणाम. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक ९. . परिणए एगे अणारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए । एवं एएणं गंमेणं यासंजोएणं नेयां, सधे संजोगा जत्थ जत्तिया उट्ठेति ते भा या, जाव सवट्टसिद्धगत्ति । चार द्रव्यनो परिणाम. ५४ ६२. [प्र० ] जति मीसापरिणया किं मणमीसापरिणया ? [अ०] एवं मीसापरिणया वि । ६३. [प्र०] जइ वीससापरिणया किं वन्नपरिणया, गंधपरिणया० ? [उ०] एवं वीससापरिणया वि, जाव अहवा गे उरंसठाणपरिणए, एगे आयतसंठाणपरिणए वा । ६४. [प्र० ] तिन्निभं ! दवा किं पयोगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया ? [३०] गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा; अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसापरिणया; अहवा एगे पयोगपरिणए दो वीससापरिणया; अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीससापरिणय; अहवा दो पयोगपरिणया एगे विससापरिणय; अहवा एगे मीसा परिणए दो वीससापरिणया अहवा दो मीससापरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा पगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणप एगे वीससापरिणए । ६५. [प्र० ] जइ पयोगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया, वयप्पयोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया ? [ उ०] गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया वा, एवं एक्कगसंयोगो, दुयासंयोगो, तियासंयोगो भाणियधो । ६६. [प्र०] जद्द मणप्पयोगपरिणया किं सञ्चमणप्पयोगपरिणया, असच्चमणप्पयोगपरिणया, सच्चामोसमणप्पयोगपरिणया, असच्चामोसमणप्पयोगपरिणया ? [30] गोयमा ! सचमणप्पयोगपरिणया वा, जाव असच्चामोसमणप्पयोगपरिणया वा; अहवा एगे सच्चमणप्पओगपरिणए दो मोसमणप्पयोगपरिणया वा । एवं दुयासंयोगो, तियासंयोगो भाणियवो एत्थ वि तहेव, जाव अहवा एगे तंससंठाणपरिणए एगे चउरंससंठाणपरिणए पगे आयतसंठाणपरिणए वा । ६७. [प्र०] चत्तारि भंते ! दद्या किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीस सापरिणया ? [उ०] गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा, । अहवा एगे पओगपरिणए तिन्नि मीसा परिणया; अहवा एगे पओगपरिणए प्रयोगपरिणत होय. १ अथवा एक द्रव्य आरंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय अने बीजुं अनारंभसत्यमनः प्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे ए रीते द्विक संयोगो करवा. ज्यां जेटला द्विकसंयोगो थाय त्यां ते सघळा कहेवा; यावत् सर्वार्थसिद्धवैमानिकदेव सुधी कहेवुं. ६२. [प्र० ] हे भगवन् ! जो बे द्रव्यो मिश्रपरिणत होय तो शुं ते मनोमि श्रपरिणत होय ? इत्यादि. [ उ० ] हे गौतम! प्रयोगपरिणत संबंधे कह्युं तेम मिश्रपरिणतसंबंधे कहे . ६३. [प्र०] हे भगवन् ! जो बे द्रव्यो विस्रसापरिणत होय तो शुं ते वर्णपणे परिणत होय, गन्धपणे परिणत होय ! इत्यादि [30] गौतम ! ए रीते पूर्वे कह्या प्रमाणे विस्रसापरिणतसंबन्धे पण जाणवुं, यात्रत् एक द्रव्य समचतुरस्रसंस्थानपणे परिणत होय अने बीजुं आयतसंस्थानपणे पण परिणत होय. मनः प्रयोगादि ६५. [प्र०] जो ते त्रणे द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनः प्रयोगपरिणत होय, वचनप्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत परिणत श्रण. होय ? [ उ० ] हे गौतम ! ते मनःप्रयोगपरिणत पण होय. ए प्रमाणे एकसंयोग, द्विकसंयोग अने त्रिकसंयोग कहेवो. ६४. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय, के विस्रसापरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम! ते (त्रणे द्रव्यो ) प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय अने विस्रसापरिणत पण होय. १ अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होय अने बे मिश्रपरिणत होय, २ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय, ३ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने एक मिश्रपरिणत होय, ४ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय, ५ अथवा एक मिश्रपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय. ६ अथवा ने मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. ७ अथवा एक प्रयोगपरिणत एक मिश्रपरिणत अने एक विस्रसापरिणत होय. ६६. [प्र०] जो ते त्रणे द्रव्यो मनः प्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय ! (इत्यादि ४ प्रश्न ). [ उ० ] हे गौतम! सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, अथवा यावत् असत्यामृषामनः प्रयोगपरिणत होय. अथवा एक सत्यमनः प्रयोगपरिणत होय अने बे मृषामनःप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे अहीं पण द्विकसंयोग अने त्रिकसंयोग कहेवो. यावत् अथवा एक त्र्यत्र ( त्रिकोण ) संस्थानपणे परिणत होय, एक समचतुरस्र ( चोरस) संस्थानपणे परिणत होय अने एक आयतसंस्थानपणे परिणत होय. ६७. [प्र०] हे भगवन् ! चार द्रव्यो शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम ! ते ( चारे द्रव्यो) प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विश्रसापरिणत होय. १ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय अने त्रण मिश्रपरिणत होय. १ गमपूर्ण छ । २ दुयसं- घ । ३ मीससाप-घ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ.श्री. कैलाससागर सूरि ज्ञान मंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र काबा शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५५ तिनि वीससापरिणया; अहवा दो पयोगपरिणया दो मीसापरिणया; अहवा दो पयोगपरिणया दो वीससापरिणया; अहवा तिन्नि पओगपरिणया एगे मीसापरिणए; अहवा तिन्नि पओगपरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा एगे मीससापरिणए तिन्नि वीससापरिणया; अहवा दो मीसंसापरिणया दो वीससापरिणया; अहवा तिन्नि मीसापरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए दो वीससापरिणया; अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसापरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए । ६८. प्र० जइ पयोगपरिणया कि मणप्पयोगपरिणया, वयप्पयोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया? [उ.] एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेजा असंखेजा अणंता य दवा भाणियवा दुयासंजोएणं, तियासंजोएणं, जाव दससंजोएणं; बारससंजोएणं उवजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उडेति ते सधे भाणियचा; एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामो तहा उवजुंजिऊण भाणियबा, जाव असंखेजा अणंता एवं चेव, नवरं एवं पदं अब्भहियं, जाव अहवा अणंता परिमंडलसंठाणपरिणया, जाव अणंता आयतसठाणपरिणया । ६९. [प्र०] एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं, मीसापरिणयाणं, वीससापरिणयाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? [उ० गोयमा! सवयोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मीसापरिणया अणंतगुणा, वीससापरिणया अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । अट्ठमसए पढमो उद्देसो समत्तो। २ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय अने त्रण विस्रसापरिणत होय. ३ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने बे मिश्रपरिणत होय. ४ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय. ५ अथवा त्रण प्रयोगपरिणत होय अने एक मिश्रपरिणत होय. ६ अथवा त्रण प्रयोगपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. ७ अथवा एक मिश्रपरिणत होय अने त्रण विस्रसापरिणत होय. ८ अथवा बे मिश्रपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय. ९ अथवा त्रण मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. १० अथवा एक प्रयोगपरिणत होय एक मिश्रपरिणत होय अने बे विस्रसापरिणत होय. ११ अथवा एक प्रयोगपरिणत होय बे मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. १२ अथवा बे प्रयोगपरिणत होय एक मिश्रपरिणत होय अने एक विस्रसापरिणत होय. ६८. प्र०] हे भगवन् ! जो ते चार द्रव्यो प्रयोगपरिणत होय तो शुं मनःप्रयोगपरिणत होय ? (वचनप्रयोगपरिणत होय के मनःप्रयोगादिपरिकायप्रयोगपरिणत होय ! ) [उ.] हे गौतम ! सर्य पूर्वनी पेठे जाणवू; ए क्रमवडे पांच, छ, सात यावत् दश, संख्याता, असंख्याता, गत चार म्यो. पांच, छ, यावत् अने अनंत द्रव्योना द्विकसंयोग त्रिकसंयोग, यावत् दशसंयोग, बारसंयोग उपयोगपूर्वक कहेवां अने ज्यां जेटला संयोगो थाय त्यां ते सर्व मनन्त द्रव्योनो परिणाम. कहेवा. ए बधा संयोगो *नवम शतकना प्रवेशनकमां जे प्रकारे कहीशुं तेम उपयोगपूर्वक विचारीने कहेवा, यावत् असंख्येय अने अनंत द्रव्योनो परिणाम ए प्रमाणे जाणवो, परन्तु एक पद अधिक करीने कहे; यावत् अथवा अनंत द्रव्यो परिमंडलसंस्थानपणे परिणत होय, यावत् अनंत द्रव्यो आयतसंस्थानपणे परिणत होय. मरुपबरव ६९. [प्र० हे भगवन् ! प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत अने विस्रसापरिणत ए पुद्गलोमां कया पुद्गलो कोनाथी यावद् विशेषाधिक छोय छे: [उ.] हे गौतम! सर्वथी थोडा पुदूलो प्रयोगपरिणत हे, तेथी मिश्रपरिणत अनंतगुण छे, अने तेथी विस्रसापरिणत अनंतगुण छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे छे] अष्टमशतके प्रथम उद्देशक समाप्त. मीसाप-घ। २-यज्वं (एक्कगसंजोगेणं ) दु-घ । Jain Education Internse भग. श. ९.१० ३२. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीविष. भा वृश्चिक- आशी विपना विषनो विषय. मेकाशी विषना विषनो विषय. उरगना विषनो विषय. मनुष्यजातिमाशीविषना विष नो विषय बीओ उद्देसो. १. [प्र०] कतिचिदा णं भंते! आसीदिसा पण्णत्ता ? [४०]] गोयमा ! दुबिदा भसीविखा परणता वं जदा जातिआसविसाय कम्मआसीविसा य । २. [प्र० ] जाइआसीविसा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! चउद्विहा पण्णत्ता, तं जहा- विच्छुयजातिसीपिसे, मंडुफजाइमसीविसे, उरगजातिवासीबिसे, मणुस्वजाति आसीविसे । २. [ro] विच्यजातिभसीविसस्स णं भंते! केवतिए विसर पण्यणते ? [४०] गोवमा ! पभू णं विच्छुषजातिमासीविसे अद्धभरहृप्पमाणमेत्तं बोंदि बिसेणं विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तर, विसर से विसट्टयाए, नो चेव णं संपत्ती करें वा करेंति या, करिस्संति वा । ४. [ प्र० ] मंडुक्कजाति आसीविस- पुच्छा । [ उ० ] गोयमा ! पभू णं मंडुकजाति आसीविसे भरहृप्पमाणमेतं बोंदिं विसेणं विसपरिग सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । एवं उरगज्ञातिभासीविसस्स वि, नगरं संयुद्दीप्यमाणमेव योदि विसेयं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । मणुस्सजातिआसीविसस्स वि एवं चैव, नवरं समयखेत्तव्यमाणमेतं बोंदि विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चेव जाव करिस्संति वा । द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] 'हे भगवन् ! * आशीविषो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! आशीविषो वे प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणेजाति आशीविष अने कर्माशीविष. २. [प्र०) हे भगवन् ! जाति आशीविषो केटला प्रकारना का छे [30] हे गौतम! ते चार प्रकारमा कक्षा छे; ते आप्रमाणे१ वृश्चिकजाति आशीविष, २ मंडूकजाति आशीविष, ३. उरगजाति आशीविष अने ४ मनुष्यजाति आशीविष. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! वृश्चिकजाति आशीविना बिपनो केटलो विषय को छे! अर्थात् वृश्चिकजाति आशी विपना विपनुं सामर्थ्य के छे ! [उ०] हे गौतम! वृद्धिकजाति आशीविष अर्धभरतक्षेत्र प्रमाण शरीरने विषवडे विदलित-नाश करवा विषयी व्याप्त करवा समर्थ छे. एटलं तेना विषनुं सामर्थ्य छे; पण संप्राप्ति संबन्ध वडे तेओए तेम कर्तुं नथी, तेओ करता नथी, अने करशे पण नहि. ४. [प्र०] मंडूकजाति आशीविषना विषनो केटलो विषय छे ! [उ०] हे गौतम! मंडूकजाति आशीविष पोताना विषथी भरतक्षेत्रप्रमाणः शरीरने ज्यास करवा समर्थ छे. बाकी सर्व पूर्वनी पेठे जाणवुं यापत् संप्राप्तिपडे तेम करो नहि. ए प्रमाणे उरगजाति आशीविष संबन्धे पण जाणवुं, परन्तु विशेष एछे के से उरगजाति आशीविष जंबूदीपप्रमाण शरीरने पोताना विषधी व्याप्त करवा समर्थ छे; बाफी सर्व पूर्ववत्' जाणवुं; यावत् संप्राप्तिथी तेम करशे नहि. ए प्रमाणे मनुष्यजाति आशीविष संबन्धे पण जाणवुं, परन्तु एटलो विशेष छे के ते मनुष्यक्षेत्रप्रमाण शरीरने पोताना विषथी व्याप्त करवा समर्थ छे. बाकी सर्व पूर्ववत् जाणवुं यावत् संप्राप्तिथी तेम करशे नहि. १ विसट्टमाणिक । १. आशी एटले दाढा, तेमां जेओने विष होय ते प्राणीओ आशीविष कहेवाय छे. तेना बे प्रकार छे-जातिभशीविष अने कर्माशीविष. साप बींछी वगेरे जाति एटले जन्मथी आशीविष छे. कर्म एटले शापादिकथी बीजाने उपघात करनारा ते कर्माशीविष कहेवाय छे. पर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्यने . तपश्चर्यादिकथी अथवा बीजा कोई कारणची आशीविवलब्धि उत्पन्न थाय छे, विधनासभावी सहकार देवलोक सुधीना देवोमा उत्पन्न बाय छे हो छे. टीका. अने तेथी तेओ शापादिकथी बीजानो नाशकरवानी शक्तिवाळा होय छे. तेओ भने देवो पर्याप्त अवस्थामा पूर्वे देणे अनुभव करेहोशी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५. प्रि०] जइ कम्मआसीविसे किं नेरइयकम्मआसीविसे, तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे, मणुस्सकम्मआसीविसे, वकासासीविसे? उ० गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे वि, मणुस्सकम्मासीविसे वि. देवकम्मासीविसे वि। ६.प्रा जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्पासीविसे ? [उ०] गोयमा ! नो एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जाव नो चरिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे। ७. [प्र०] जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, गम्भवक्रतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ? [उ०] एवं जहा वेउवियसरीरस्स भेदो, जाव पजत्तसंखेजवासाउयगम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेजवासाउय- जाव कम्मासीविसे। ८. [प्र०] जदि मणुस्सकम्मासीविसे किं समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गम्भवक्कंतियमणुस्सकम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा ! णो समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गम्भवकंतियमणुस्सकम्मासीविसे; एवं जहा वेउधियसरीरं, जाव पज्जत्तसंस्खेजवासाउयकम्मभूमंगगम्भवकंतियमणुस्सकम्मासीविसे, नो अपजत्ता- जाव कम्मासीविसे। ९. [प्र०] जदि देवकम्मासीविसे किं भवणवासिदेवकम्मासीविसे, जाव वेमाणियदेवकम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा ! भवणवासिदेवकम्मासीविसे, वौणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियदेवकम्मासीविसे वि। १०. [प्र०] जदि भवणवासिदेवकम्मासीविसे किं असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे, जाव थणियकुमार-जाव फम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा !.असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे वि, जाव थणियकुमार-जाव कम्मासीविसे वि। ५. प्र०ा हे भगवन् ! जो कर्माशीविष छे तो शुं नैरयिक कर्माशीविष छे, तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे, मनुष्य कर्माशीविष छे के देव कर्माशीविष छ ? [उ.] हे गौतम! नैरयिक कर्माशीविष नथी, पण तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे, मनुष्य कर्माशीविष छे अने देवकर्माशीविष छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! जो तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे तो शुं एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे के यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक कर्माशीविष छे ! [उ०] हे गौतम! एकेन्द्रिय तियंचयोनिकथी आरंभी यावत् चतुरिन्द्रिय तिर्यंचयोनिकपर्यन्त कर्माशीविष नथी, पण पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे. ७. प्र०] हे भगवन् ! जो पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे तो शुं संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे के गर्मजपंचेन्द्रियतियगर्भजपंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम! जेम *वैक्रियशरीरसंबंधे जीव भेद कह्यो छे तेम यावत् पर्याप्त संख्यात चाशीषिक. वर्षना आयुष्यवाळा गर्भज कर्मभूमिमां उत्पन्न थयेला पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्माशीविष होय छे, पण अपर्याप्त असंख्यातवर्षना आयुष्यवाळा यावत् कर्माशीविष नथी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! जो मनुष्य कर्माशीविष छे, तो शुं संमूर्छिम मनुष्य कर्माशीविष छे के गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे ! [उ०] गर्भज मनुष्य हे गौतम ! संमूर्छिम मनुष्य कर्माशीविष नथी, पण गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे. जेम विक्रियशरीरसंबन्धे जीवभेद कह्यो छे ते प्रमाणे यावत् कर्माशीविष. पर्याप्त संख्यातवर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां उत्पन्न थयेला गर्भज मनुष्य कर्माशीविष छे पण अपर्याप्त असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा कर्माशीविष नथी. ९. [प्र०] हे भगवन् ! जो देव कर्माशीविष छे तो शुं भवनवासी देव कर्माशीविष छे के यावत् वैमानिकदेव कर्माशीविष छे! [उ०] हे गौतम ! भवनवासी देव कर्माशीविष छे, वानव्यंतर देव, ज्योतिष्क देव, अने वैमानिकदेव पण कर्माशीविष छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! जो भवनवासी देव कर्माशीविष छे तो शुं असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे के यावत् स्तनित- कुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम ! असुरकुमार भवनवासी देव पण कर्माशीविष छे, यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव पण यावत् कर्माशीविष छे. भवनवासी क्र. माशीविष. 1-णिय जाव क-क। २-भूमागम्भ-क। ३-मंतरदेवजो-क। ७.*प्रज्ञा० २१ शरीरपद. प. ४१५-१. पं. २. ८. प्रज्ञा०२१ शरीरपद. प. ४१५-१. पं.१२. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशा. ११. [प्र०] जदि असुरकुमार- जाव कम्मासीविसे किं पजत्तअसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे, अपजत्तासुरकुमार- जाव कम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा! नो पज्जत्ताअसुरकुमार- जाव कम्मासीविसे, अपजत्ताअसुरकुमार- जाव कम्मासीविसे; एवं जाव थैणियकुमाराणं । १२. [प्र०] जदि वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पिसायवाणमंतरदेवकम्मासीविसे ? [उ०] एवं सवेसि अपजत्तगाणं, जोइसियाणं सवेसि अपजत्तगाणं ।। १३. [प्र०] जदि वेमाणियदेवकम्मासीविसे कि कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासीविसे? [उ०] गोयमा ! कप्पोपगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, नो कप्पातीयवमाणियदेवकम्मासीविसे । १४. [प्र०] जइ कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे कि सोहम्मकप्पोवग- जाव कम्मासीविसे, जाच अच्चयकप्पोवगजाव कम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, नो आणयकप्पोवग-, जाव नो अच्चुयकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे। १५. [प्र०] जइ सोहम्मकप्पोवग- जाव कम्मासीविसे किं पजत्तासोहम्मकप्पोवगवेमाणिय-, अपजत्तासोहम्मकप्पो. वगवेमाणियदेवकम्मासीविसे ? [उ०] गोयमा ! नो पजत्तासोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, अपजत्तासोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, एवं जाव नो पजत्तासहस्सारकप्पोवगवेमाणिय-जाव कम्मासीविसे, अपजत्तासहस्सारकप्पोवगजाव कम्मासीविसे। १६. दस ठाणाई छउमत्थे सबभावेणं न जाणति न पासति, तं जहा- १ धम्मत्थिकायं, २ अधम्मत्थिकायं, ३ आगासथिकायं, ४ जीवं असरीरपडिवद्धं, ५ परमाणुपोग्गलं, ६ सई, ७ गंधं, ८ वातं, ९ अयं जिणे भविस्सद वा णवा भविस्सइ, न्यन्तर. त्यासदेवो क. ११. [प्र०] हे भगवन् ! जो असुरकुमार यावत् कर्माशीविष छे तो शुं पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे के अप'शीविष. र्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष नथी, पण अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्माशीविष छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. १२. [प्र०] जो वानव्यंतर देवो कर्माशीविप छे तो शुं पिशाच वानव्यंतर देवो कर्माशीविष छे ? इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! तेओ .. बधा अपर्याप्तावस्थामा कर्माशीविप छे, तेम सघळा ज्योतिको पण अपर्याप्तावस्थामा कर्माशीविष छे. जानिक १३. प्रि०न हे भगवन् ! जो वैमानिक देव कर्माशीविष छे तो शुं कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे के कल्पातीत वैमानिक' देव कर्माशीविप छे ? [उ०] हे गौतम ! कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविप छे, पण कल्पातीत वैमानिक देव काशीविष नथी. पोपपन्नक. १४. [प्र०] जो कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे, तो शुं सौधर्मकल्पोपपन्नक यावत् कर्माशीविष छे के यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक देव कर्माशीविष छे ? [उ०] हे गौतम ! सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे, यावत् सहस्रारकल्पोपपन्नक सहस्रारधर्माशीविष. वैमानिक देव कर्माशीविष छे; पण आनतकल्पोपपन्नक, यावद् अच्युतकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष नथी. सौधर्मादि १५. [प्र०] हे भगवन् ! जो सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे, तो शुं पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव अमांशीविष. कर्माशीविष छे के अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्माशीविष छे ! [उ०] हे गौतम ! पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव __ कर्माशीविष नथी, पण अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव यावत् कर्माशीविप छे: ए प्रमाणे यावत पर्याप्त सहस्रारकल्पो यावत् कर्माशीविप नथी, पण अपर्याप्त सहस्रारकल्पोपपन्नक देव यावत् कर्माशीविप छे. दशस्थान १६. "छमस्थ (ज्ञानी) सर्वभावथी-प्रत्यक्ष ज्ञानथी आ दश वस्तुओने जाणतो नथी, तेम जोतो नथी, ते आ प्रमाणे-धर्मास्तिकाय, न जाणे. अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीररहित (मुक्त) जीव, परमाणुपुद्गल, शब्द, गंध, वायु, आ जीव जिन थशे के नहि ?, अने आ जीव १-कुमार जाव क-घ । २ कुमारभवणवासीक-घ। ३ एवं थाणिय-घ । ४ जाव क-ख-ग। ५-यदेव जाव क-क । ६ सोधम्म-फ। १६. * छद्मस्थ एटले संपूर्णज्ञान (केवलज्ञान ) रहित, परन्तु आ स्थळे तेनो अर्थ 'अवध्यादिविशिष्टज्ञान रहित' एवो जाणवो, केमके विशिष्ट अवधिशानी अमूर्त होवाथी धर्मास्तिकायादिने जाणतो नथी, पण मूर्त होवाथी परमाण्वादिकने जाणे छे. कारण के विशिष्ट अवधिज्ञाननो विषय सर्व मूर्त द्रव्यो छे अहीं कोई शंका करे के छद्मस्थ परमावादिने कथंचित् जाणे, पण सर्वं पर्यायथी न जाणे, ते माटे सत्रमा 'सर्वभावथी न जाणे' एम कयुं छे. तेनो उत्तर आ रहेएम अर्थ करवाथी दश संख्यानो नियम नहि रहे, केमके घटादि घणा पदार्थों अनन्त पर्यायरूपे छद्मस्थने जाणवा अशक्य छ, माटे सर्वभावनो अर्थ साक्षात्प्रत्यक्ष एवो करवो. एटले अवध्यादि विशिष्टज्ञानरहित छद्मस्थ धर्मास्तिकायादि दशवस्तुने प्रत्यक्षरूपे न जाणे अने न देखे.--टीका. . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८. - उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५९ १० अयं दुखणं तं करेस्सति या नवा करेस्सह । एयाणि चैव उपपन्ननाण- दंसणधरे अरहा जिणे केवली सहभाषेणं जाणा पासा, तं जहा-धम्मत्थिकार्य, जाव करेस्सति वा नवा करेस्सति । १७. [०] कतिवि णं भंते ! णाणे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा- आभिणिदोद्दियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपजवनाणे, केवलणाणे । १८. [प्र०] से किं तं आभिणिबोहियणाणे ? [उ०] आभिणिबोहियणाणे चउविहे पनते, तं जहा- उग्गहो, ईदा, अवाओ, धारणा; एवं जहा 'रायप्पसेणइज्जे' णाणाणं भेदो तद्देव इह भाणियचो, जाव सेशं केवलनाणे । १९. [प्र०] अन्नाणे णं भंते! कतिविहे पत्ते ? [उ०] गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा- महअन्नाणे, सुयभन्नाणे, विभंगणाणे । २०. [प्र० ] से किं तं महखाणे [४०] महमन्नाणे चढविदे पण्णत्ते, तं जदा उमाहे, जाप धारणा । - २१. [२०] से किं तं नाई ? [४०] उमा दुविहे पचते, तं जहा अत्योमा य वंजणोमा य एवं जयेष आभिणिबोहियनाणं तहेव, नवरं एगट्टियवज्रं जाव नोइंदियधारणा । सेत्तं धारणा, सेत्तं महअन्नाणे । २२. [प्र० ] से किं तं सुयअन्नाणे ? [अ०] जं इमं अन्नाणिपार्ह मिच्छादिट्ठिपहिं जहा नंदीए, जाव चत्तारि वेदा संगोबंगा से सुयभाणे । सर्व दुःखोनो अन्त करशे के नहि - दश स्थानोने उत्पन्न ज्ञान- दर्शनने धारण करनार अर्हन्, जिन, केवली सर्पभावची साक्षात् ज्ञानपी जाणे छे अने जुए छे. जेमके धर्मास्तिकाय, यावत् आ जीव सर्वदुः खोनो अंत करशे के नहि. ज्ञान. १७. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्ञान केटला प्रकारे कह्युं छे ! [उ०] हे गौतम! ज्ञान पांच प्रकारे कह्युं छे. ते आ प्रमाणे - आभिनिबोधिज्ञान, शुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान अने केवलज्ञान १८. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान केटला प्रकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे- अवग्रह, ईहा, अपाय अने धारणा. जेम राजप्रश्रीय सूत्रमां ज्ञानोना प्रकार कला के रोम अहीं पण कहेगा; यावत् ए प्रमाणे केवलज्ञान कयुं' त्यां सुधी कहेवुं. १९. [प्र० ] हे भगवन्! अज्ञान केटला प्रकारे कयुं छे ? [30] हे गौतम! अज्ञान त्रण प्रकारे कधुं छे, ते आ प्रमाणे मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान. २०. [प्र० ] हे भगवन् ! मतिअज्ञान केटला प्रकारे क्युं छे? [30] हे गौतम! मतिअज्ञान चार प्रकारनुं छे. ते आप्रमाणेअव यावद् धारणा. २१. [प्र०] अग्रह केला प्रकारे छे [30] अवग्रह वे प्रकारनो कह्यो छे से आ प्रमाणे अर्थावग्रह अने ईव्यंजनाहर प्रमाणे जेम नंदीसूत्रमां आभिनिबोधिकज्ञान संबंधे कह्युं छे तेम अहीं जाणवुं. परन्तु त्यां आमिनिबोधिकज्ञान प्रसंगे अवग्रहादिना || एकार्थिकसमानार्थक शब्दो कहेला छे ते शिवाय यावत् नोइन्द्रियधारणा सुधी कहेनुं, ए प्रमाणे धारणा कही. ए प्रमाणे मतिअज्ञान कयुं. २२. [प्र० ] श्रुतअज्ञान केवा प्रकारनुं छे ? [उ०] 'जे अज्ञानी एवा मिध्यादृष्टिओए प्ररूप्युं छे' - इत्यादि *"नंदीसूत्रमां कह्या प्रमाणे यावत् सांगोपांग चार वेद ते श्रुतअज्ञान, ए प्रमाणे श्रुतअज्ञान क. १७. * अभि - अर्थामिमुख एटले यथार्थ, नि-निश्चित, बोध ते आभिनिबोधिक, अर्थात् इन्द्रिय अने अनिन्द्रियनिमित्तक यथार्थ भने निश्चित बोध से अभिनिबोधिकज्ञान. श्रुत एटले श्रवण करवुं ते द्वारा जे ज्ञान थाय ते श्रुतज्ञान, इन्द्रिय अने मनथी श्रुतप्रन्थानुसारे जे बोध धाय ते श्रुतज्ञान अवधि - सर्व मूर्ती मर्यादा थी जे नाते अज्ञान. मनोद्रव्यना पर्याय आकारविशेष ज्ञान ते मनःपर्ववशान सर्व इम्म पर्याय संपूर्ण ज्ञान से ज्ञान १८. रूपादि अर्थनो विशेषरहित सामान्य बोध ते अवग्रह, विद्यमान अर्थना विशेष अपाय, निश्चित अर्थने स्मृति इत्यादि रूपे धारण करवो ते धारणा. + राजप्रनीय प. १९. || विपरीत अथवा मिथ्या ज्ञानने अज्ञान कहे छे. २१. ६ व्यंजनावग्रह - जे वडे अर्थ प्रकट कराय ते व्यञ्जन एटले उपकरणेन्द्रिय अने शब्दादिरूपे परिणाम पामेल द्रव्यनो समूह उपकरणेन्द्रिय ब प्राप्त थयेल शब्दादि विषयोनुं अव्यक्त ज्ञान ते व्यंजनावग्रह, त्यारपछी 'आ कांइक छे' एवो सामान्य अवबोध ते अर्थावग्रह. ३ नन्दी सूत्र. प. १६८-२.१.४. || अवग्रहणता, अवधारणता, श्रवणता, अवलंबनता अने मेधा-आ पांच अवग्रहना एकार्थक शब्दो कथा छे अने ईहादिना पण एकार्थक शब्दो का छे 'वे अहीं मतिअज्ञानने विषे न कहेवा. ** नंदीसत्र. प. १९४-१. पं. ४ २२. धर्मनी विचारणा करवी ते ईहा, अर्थनो निश्चय करवो ते १३०- १. पं. ४. चानना प्रकार अभिनिवोधिक पानना प्रकार. मति-मशान. अवग्रह. श्रुत-अज्ञान. / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक २० २३. [प्र०] से किं तं विभंगनाणे ? [उ०] विभंगनाणे अणेगविहे पण्णते, तं जहा-गामसंठिए, नगरसंठिए, जाव सन्निवेससंठिए, दीवसंठिए, समुहसंठिए, वाससंठिए, वासहरसंठिए, पवयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभसंठिए, हयसंठिए, गयलठिए, नरसंठिए, किन्नरसंठिए, किंपुरिससंठिए, मेहोरगसंठिए, गंधवसंठिए, उसभसंठिए, पसु-पसय-विहग-यानरणाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। २४. [प्र०] जीवाणं भंते! किं नाणी अन्नाणी? [उ.] गोयमा! जीवा नाणी वि अन्नाणी वि; जे नाणी ते अत्येगतिया दुनाणी, अत्थेगतिया तिनाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, अत्थेगतिया एगनाणी । जे दुनाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य । जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी; अहवा आभिणिबोहियनाणी, सुयणाणी, मणपज्जवनाणी । जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपजवनाणी । जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी। जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी, अत्थेगतिया तिअन्नाणी । जे दुअन्नाणी ते मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य । जे तिअन्नाणी ते मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी। २५. प्र०] नेरइया णं भंते! किंणाणी, अन्नाणी? [उ०] गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि । जे नाणी ते नियमा तिनाणी, तं जहा-आमिणिबोहियणाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी । जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी, अत्थेगतिया तिसनाणी; एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । ___ २६. [४०] असुरकुमारा णं भंते ! किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] जहेव नेरइया तहेव, तिन्नि नाणाणि नियमा, तिनि य अन्नाणाणि भयणाए, एवं जाव थणियकुमारा। ___२७. [प्र०] पुढविक्काइया णं भंते ! किं नाणी, अनाणी ? [उ०] गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी । जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । एवं जाव वणस्सइकाइया । विभगवान २३. [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञान केवा प्रकारचें कह्यु छे! [उ०] *विभंगज्ञान अनेक प्रकारचें कहुं छे, ते आ प्रमाणे-प्रामने आकारे, वर्ष (भारतादिक्षेत्र )ने आकारे, वर्षधरपर्वतने आकारे, पर्वतने आकारे, वृक्षना आकारे, स्तूपना आकारे, घोडाना आकारे, हाथीना आकारे, मनुष्यना आकारे, किंनरना आकारे, किंपुरुषना आकारे, महोरगना आकारे, गंधर्वना आकारे, वृषभना आकारे, पशु, पिसय, पक्षी अने वानरना आकारे-ए प्रमाणे अनेक आकारे विभंगज्ञान कहेलु छे. शानी भने अज्ञानी. २४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवो ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. जे जीवो ज्ञानी छे तेमां केटलाएक बे ज्ञानवाळा, केटलाएक त्रण ज्ञानवाळा, केटलाक चार ज्ञानवाळा अने केटलाक एक ज्ञानवाळा छे.जे बे ज्ञानवाला छे ते मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानवाळा छे. जे त्रण ज्ञानवाळा छे ते मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अने अवधिज्ञानवाळा छे, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानवाळा छे. जे चारज्ञानवाळा छे ते मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानवाळा छे. जे एक ज्ञानवाळा छे ते अवश्य एक केवलज्ञानवाळा छे. जे जीवो अज्ञानी छे तेमां केटलाक बे अज्ञानवाळा अने केटलाक त्रण अज्ञानवाळा छे. जे वे अज्ञानवाळा छे ते मतिअज्ञान, अने श्रुतअज्ञानवाळा छे, अने जेओ त्रण अज्ञानवाला छे तेओ मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानवाळा छे. नैरयिको. २५. [प्र०] हे भगवन् ! नारको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ०] हे गौतम ! नारको ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. तेमां जे ज्ञानी छे ते अवश्य पत्रण ज्ञानवाळा होय छे, ते आ प्रमाणे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानवाळा. जे अज्ञानी छे तेमा केटलाक वि अज्ञानवाळा छे अने केटलाएक त्रण अज्ञानवाळा छे. ए प्रमाणे त्रण अज्ञानो भजनाए ( विकल्पे ) होय छे. असुरकुमारो. २६. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] जेम नैरयिको कह्या तेम असुरकुमारो जाणवा. अर्थात् जेओ ज्ञानी छे तेओ अवश्य त्रण ज्ञानवाळा होय छे, अने जेओ अज्ञानी छे तेओ भजनाए त्रण अज्ञानवाळा होय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिक २७. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी पण अज्ञानी छे, अने ते अवश्य बे अज्ञानवाला छे, मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. महोरगगंधव संठिए ग। २ दुयनाणी क-ङ। २३. * मिथ्यादर्शन मोहनीय कर्मना उदयथी विपरीत एवं अवधिज्ञान ते विभंगहान तेनो प्राम मात्र विषय होवाथी ते प्रामाकारे कहेवाय छे. ए प्रमाणे बीजा मेदो पण जाणी लेवा. पसय बे खरीवाळु जंगली चोपगुं प्राणी विशेष.-टीकाकार. २५. सम्यग्दृष्टि नारकोने भवप्रत्यय अवधिज्ञान होय छे, तेथी तेओ अवश्य त्रज्ञानवाळा होय छे. जे अज्ञानी छे तेमा केटलाक वे अज्ञानवाळा छ, केमके कोइ असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नरकमा उत्पन्न थाय त्यारे तेओने अपर्याप्तावस्थामा विभंग न होवाथी बे अज्ञान होय छे, बने जो मिथ्यादृष्टि संझी पंचेन्द्रिय नरकमां उत्पन्न थाय तो तेओने अपर्याप्तावस्थामा पण विभंगज्ञान होय छे तेथी श्रण अज्ञान कया छे-टीकाकार. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६१ २८. [प्र०] बेइंदियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! णाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते नियमा दुनाणी, तं जहा-आमिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य । जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । एवं तेइंदिय-चढरिदिया वि। २९. [प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते अत्थेगइया दुनाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी । एवं तिण्णि णाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए । मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच नाणाएं तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए । वाणमंतरा जहा नेरइया । जोइसिय-वेमाणियाणं तिन्नि नाणाणि तिनि अन्नाणाणि नियमा। ३०. [प्र०] सिद्धाणं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी; नियमा एगनाणी केवलणाणी । ३१. [प्र०] निरयगतियाणं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि; तिनि नाणाई नियमा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। ३२. [प्र०] तिरियगतियाणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा । २८. [प्र०] *बेइन्द्रिय, जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. जेओ वेन्द्रिय, श्रीन्द्रिय ज्ञानी छे तेओ अवश्य बे ज्ञानवाळा छे, ते आ प्रमाणे-मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी. जेओ अज्ञानी छे ते अवश्य बे अज्ञानवाळा छे; ते आ " प्रमाणे-मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. ए प्रमाणे त्रीन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय जीवो संबन्धे पण जाणवु. २९. प्र०] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे अने अज्ञानी पण छे, जेओ पंचेन्द्रियतियचो. ज्ञानी छे तेमां केटलाक बे ज्ञानवाळा, अने केटलाक त्रण ज्ञानवाला छे, ए प्रमाणे त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए (विकल्पे) जाणवा. जीवोनी पेठे मनुष्योने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. नैरयिकोने कह्यु (सू.२५.) तेम वानव्यंतरोने जाणवू. ज्योतिषिको मनुष्यो गीवोनी पेठे. अने वैमानिकोने अवश्य त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. वानष्यन्तर, ज्योति पिको अने वैमानिको. ३०. [प्र०] हे भगवन्! सिद्धो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम! सिद्धो ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी, तेओ सियो. अवश्य एक केवलज्ञानवाळा छे. निरयगतिक ३१. (प्र०] हे भगवन् ! निरयगतिक-नरकगतिमां जता जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे? [उ.] हे गौतम ! ते ज्ञानी पण होय छे अने अज्ञानी पण होय छे, [जेओ ज्ञानी छे तेओने अवश्य त्रण ज्ञान होय छे अने [जे अज्ञानी छे तेओनेत्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ३२. प्र०] हे भगवन् । प्रतियंचगतिक-तियंचगतिमां जता जीवो-शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे ? [उ.] हे गौतम! तेओने अवश्य बे ज्ञान अने बे अज्ञान होय छे. तिचपतिक नाणा घ। २ अशाणा घ। २८. * बेइन्द्रियादि जीवोमा पूर्वबद्धायुष मनुष्य के तिर्यच औपशमिकसम्यग्दृष्टि उपशम सम्यक्त्व वमतो उत्पन्न थाय स्यारे तेने अपर्याप्तावस्थाए सास्वादन सम्यग्दर्शन होय छे. ते जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट छ आवलिका सुधी रहे छे, त्या सुधी ते ज्ञानी कहेवाय छे. त्यार पछी ते मिथ्यात्वने प्राप्त थाय छे त्यारे ते अज्ञानी कहेवाय छे. ३१. १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ सूक्ष्म, ५ पर्याप्त, ६ भवस्थ, ७ भवसिद्धिक, ८ संझी, ९ लब्धि, १० उपयोग, ११ लेश्या, १२ कषाय, १३ वेद, १४ आहार, १५ ज्ञान, १६ गोचर (विषय), १७ काल, १८ अंतर, १९ अल्पबहुत्व अने २० पर्याय-ए वीश द्वारो भहीं विवक्षित छे. तेमा प्रथम गतिद्वारने विषे निरयगति द्वार कहे छे. निरय-नरक ने विषे गति-गमन जेओर्नु छ तेओ निरयगतिक कहेवाय छे एटले सम्यग्दृष्टि के मिभ्यादृष्टि, शानी के अज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्य नरकमां उत्पन्न थवा वाळा अन्तर गतिमा वर्तता होय ते निरयगतिक समजवा, ते माटे अहीं निरयशन्दनी साथे गतिग्रहण करेल छे. निरयगतिकने-जो ते ज्ञानी होय तो तेने-त्रण ज्ञान अवश्य होय छे, केमके तेने अवधिज्ञान भवप्रत्यय होवाथी ते अन्तर गतिमा पण होय छे, अने तेओने प्रण अज्ञान भजनाए होय छे, केमके असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नरकमां जाय त्यारे अपर्याप्तावस्थाए विभंगशान न होवाथी तेने ये अशान होय छ, भने मिथ्यादृष्टि संझीने त्रण अशान होय छे, कारणके तेने भवप्रत्यय विभंगज्ञान होय छे. -टीका. ३२.1 तिर्यंचगतिमा जतां वचे अन्तराल गतिमां वर्तता होय ते तिर्यचगतिक जीवो जाणवा; तेने बे ज्ञान भने बे अज्ञान होय छे, केमके सम्यग्दृष्टि जीवो अवधिज्ञानथी पच्या पछी मतिश्रुतज्ञानसहित तिर्यचगतिमां जाय छे, तेथी तेने वे ज्ञान होय छे, अने मिथ्यादृष्टि जीवो विभंगज्ञानथी पज्या पछी तिर्यक गतिमा जाय छे माटे तेने बे अज्ञान होय छे.-टीका. . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यगतिक. सिद्धिगतिक. सेन्द्रिय. यदि अनिन्द्रिय. सकाधिक जीवो. पृथिवीकायिका दि सकायिक. श्रीरायचन्द्र - जिनागम संग्रहे शतक ८ - उद्देशक २. ३३. [प्र० ] मणुस्साया नं भंते जीवा किं नाणी, अन्नाणी [४०] गोयमा ! तिनि नाणाई भवणार, दो अनाणाई नियमा देवगतिया जहां निरयगतिया । 1 ६२ ३४. [प्र० ] सिद्धगतिया णं भंते ० ? [उ०] जहा सिद्धा । ३५. [२०] दिया णं भंते! जीवा किं नाणी अद्याणी ? [30] गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिनि अन्नाणारं भयणाए । ३६. [प्र०] एगिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी० ? [उ०] जहा पुढविकाइया, बेइंदिय - तेइदिय - चउरिंदियाणं दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा । पंचिंदिया जहा सइंदिया । ३७. [प्र०] अणिदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? । [ उ०] जहा सिद्धा । ३८. [प्र०] सकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] गोयमा ! पंच नाणाणि तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया नो नाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जहा - मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । तसकाइया जहा सकाइया । ३२. [प्र० ] हे भगवन्! "मनुष्यगतिक मनुष्यगतियां जता जीवो-शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ओने भजनाए (विकल्पे ) त्रण ज्ञान होय के अने अपश्य ने अज्ञान होय छे. देवगतिक देवगतिमां जता ( सू० ३१.) जाणवा. ३४. [प्र० ] हे भगवन् ! सिद्धिगतिमां जता जीवो धुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय! [उ०] तेओ सिद्धोनी पेठे (सू० ३०.) जाणचा. [४०] हे गौतम! तेजीवो निरयगतिकनी पेठे ३५. [प्र०] हे भगवन् ! |सेन्द्रिय-इन्द्रियवाळा - जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने भजनाए चार ज्ञान अने व्रण अज्ञान होय छे. ३६. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! पृथिवीकायिकनी पेठे ( सू० २७. ) [ एकेन्द्रियजीवो] जाणवा. बेइन्द्रिय, त्रीडिय अने चठरिंद्रिय जीवोने अवश्य के ज्ञान अने वे अज्ञान होय छे. पंचेंद्रिय जीवो सेन्द्रियजीबोनी पेठे ( सू० ३५.) जाणवा. ३७. [ प्र० ] हे भगवन् ! $अनिन्द्रिय- इंद्रियरहित - जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ० ] तेओ सिद्धनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा. ३८. [प्र० ] हे भगवन् ! सकायिक जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | जीवो ज्ञानी नथी पण अज्ञानी होय छे, अने ते अवश्य बे अज्ञानवाळा होय छे, ते आ प्रमाणे – मतिज्ञानाला अने श्रुतज्ञानयात्रा सकाधिक जीयो कायिक जीवोनी पेठे जाणत्रा. * वा रोमांना ३२. मनुष्यगतियां तां अंतरात गतिए वर्तता होय से अहाँ मनुष्ययति जीवो जे ज्ञानी छे से तीर्थकरनी पेठे अवशान साथै ज मनुष्यगतिमां जाय छे, अने केटलाक तेने छोडीने जाय छे, माटे तेओने त्रण अथवा बे ज्ञान होय छे. जे अज्ञानी छे तेओ विभंगज्ञानथी पढ्या पछी मनुष्यगतिमां उत्पन्न थाय छे; माटे अवश्य तेने वे अज्ञान होय छे.. + देवगतिमां जतां अन्तराल गतिए वर्तता जीवो नरकगतिकनी पेठे जाणवा. केमके जे ज्ञानी देवगतिमां जाय छे, तेओने भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवायुष्ने प्रथम समज उत्पन्न थाय छे, तेथी नारकोनी पेठे तेओने त्रण ज्ञान अवश्य होय छे. जेओ अज्ञानी छे अने असंझी थकी देवगतिमां उत्पन्न थाय छे, तेओने अपर्याप्तावस्थामां विभंगज्ञाननो अभाव होवाथी बे अज्ञान होय छे. जे अज्ञानी संज्ञी थकी आवी देवगतिमां उत्पन्न थाय छे तेने भवप्रत्यय विभंगज्ञान होवाथी त्रण अज्ञान होय छे. टीका. ३४. † अह अन्तरगतिना अभावधी सिद्ध अने सिद्धिगतिकनो भेद नथी, पण गतिद्वारना क्रमने लीधे तेनो जूदो निर्देश कर्यो छे. - टीका. T ३५. इन्द्रियद्वारने विषे सेन्द्रिय एटले इन्द्रियना उपयोगवाळा, ते ज्ञानी अने अज्ञानी बन्ने प्रकारना छे. तेमां ज्ञानीने चार ज्ञान भजनाए होय छे, एटले वे, ऋण के चार ज्ञान होय छे; पण तेओने केवलज्ञान होतुं नथी, केमके ते अतीन्द्रियज्ञान छे. अहीं बे इत्यादि ज्ञानो कहेला छे ते लब्धिनी अपेक्षाए जाणवा, उपयोगी अपेक्षा सर्वने एकज ज्ञान होय छे. अज्ञानीने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे एटले क्वचित् बे के त्रण अज्ञान होय छे. - टीका. ३६. पृथिवी पेठे एकेन्द्रीय मध्यादृष्टि होवाथी अहानी के अने ते मां साखादन गुणस्थानकनो संभव छे. ते शिवाय बीजाने वे अज्ञान होय छे. टीका. नान होय, म केमके ३७. ६ अनिन्द्रिय एटले इन्द्रियना उपयोग रहित केवलज्ञानी, तेजोने सिद्धनी पेठे एक केवल ज्ञान होय छे. - टीका. ३८. || काय एटले ओदारिकादिशरीर अपना पृथिव्यादि काय ते वडे सहित ये साविक तेजो केवली पण होय, तेगी सकायिक सम्यगृष्टिले पांच ज्ञान अने मिथ्यादृष्टिने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. टीका. / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८. - उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३९. [२०] अकाइया णं भंते! जीवा किं नाणी० [४०] जहा सिद्धा । ४०. [प्र० ] हुमाणं भंते ! जीवा किं नाणी० ? [30] जहा पुढविक्काइया । ४१. [प्र०] बादराणं भंते! जीवा किं नाणी० ? [अ०] जहा सकाइया । ४२. [०] नोडुमा नोपादरा पं भंते! जीबा० ? [30] जहा सिद्धा । ४३. [०] पत्ताणं भंते! जीवा किं नाणी० १ [४०] जहा सफाइया । ४४. [ प्र० ] पत्ता णं भंते! नेरइया किं नाणी ? [अ०] तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा नियमा, जहा नेरहुआ, एवं जाय धणियकुमारा । पुरचिकाइया जहा एगिंदिया एवं जाच चढरिंदिया । ? 1 ४५. [अ०] पक्षता भंते! पंचिदियतिरिक्खजोषिया किं नाणी अन्नाणी ? [४०] तिनि जाना, तिथि प्राणा भयणाए । मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ४६. [प्र०] अपजत्ताणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए । ४७. [प्र०] अपजता णं भंते! नेरतिया किं जागी अन्नाणी ? [४०] तिनि नाणा नियमा, तिष्णि अन्नाणा भयगाय । एवं जाच थणियकुमारा । पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिंदिया । ३९. [ प्र० ] हे भगवन्! "कायरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [३०] हे गौतम! सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०. ) तेओ जाणचा. ४०. [प्र० ] हे भगवन् ! सूक्ष्म जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] पृथिवीकायिकोनी पेठे ( सू० २७. ) जाणवा. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! बादरजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] +सकायिक जीवोनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! नोसूक्ष्म नोबादर जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०. ) जाणवा. ४३. [प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] सकायिक जीवोनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा. ४४. [ प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे ? के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अनेण अज्ञान अवश्य होय छे. जेम नैरयिको माटे कह्युं तेम यावत् स्तनितकुमार देवो माटे जाणवुं. पृथिवीकायिको एकेन्द्रियनी पेठे ( सू० ३६.) जाणवा. ए प्रमाणे यावत् चउरिंद्रियजीवो जाणवा. ४५. [२०] हे भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे त्रण अज्ञान वैभजनाए होप छे, मनुष्यो सकाविकनी पेठे (सू० ३८.) जाणचा बानव्यंतरो (सू० २५.) जाणवा ६३ ४६. [प्र०) हे भगवन्! अपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ० ] हे गौतम! तेओने प्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए छे. ३९. जेमोने पूर्वे हे काय एटले ओदारिकादि शरीर अथवा विम्याविकाय नी ते अकाविले शिवाय केटीका. * होनी ओने हो . ४०. महार व सूक्ष्म जीवो मिनीकाविनी पेठे मिया + [अ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरचिकनी पेठे ४१. सकायिक जीवोनी पेठे बादर जीवो केवलज्ञानी पण होय छे, माटे तेओने भजनाए पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. ४३. पर्याद्वार विपर्याप्त जीवो देनी पण होय छे, माठे ते सकाविनी जैन पूर्वे का प्रमाणे जगवा. टीका. ४४. § असंज्ञी थकी आवेला नारकोने अपर्याप्तावस्थामां विभंगनो अभाव होय छे अने पर्याप्त अवस्थामां तेओने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. टीका. ४५. पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचमां अवधिज्ञान के विभंग ज्ञान केटलाकने होप अने केटलाकने न होय माटे त्रण ज्ञान के त्रण अज्ञान, अथवा वे ज्ञान के बे अज्ञान तेओने होय छे. टीका. ४७. [प्र० ] हे भगवन् । अपर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी के [उ०] हे गौतम! तेओने अवश्य प्रण ज्ञान के अने विदि भजनाए त्रण अज्ञान छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार देवो जाणवा. जेम एकेन्द्रियो संबन्धे (सू० ३६.) कह्युं तेम अपर्याप्त पृथ्वीका किथी आरंभी वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहेवु. अपर्याप्त पृथि वीकायिकादि. कायरहित जीवो. सूक्ष्म जीवो. बादर जीवो. पर्याप्त जीवो. पर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक मनुष्यो अपर्याप्त जीवो. / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त बेइन्द्रियादि. नोपर्याप्त नोमपर्याप्त जीवो. नियमवख मिक्स मनुष्य भवस्थ. देवभवस्थ. अभवस्थ. अपर्याप्त मनुष्य. ४९. [प्र०) हे भगवन् ! अपर्याप्त मनुष्य शुं ज्ञानी होष से के अज्ञानी होय से [ उ० ] हे गौतम! तेओने त्रिण ज्ञान भजनार होय के अने अवश्य ने अज्ञान होय छे. नैरविकोनी पेठे (सू० ४७.) मानयंतराने जादु तथा अपर्याप्त ज्योतिषिको अने ज्योतिष भने वैमानिकोने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय . वैमानिक. नोपर्याप्त अने नोअपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] है गौतम ! तेओ सिद्धनी पेठे भवसिद्धिरु. श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे- शतक ८. - उद्देशक. २० ४८. [प्र० ] बेदियाणं पुच्छा । [अ०] दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा । एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । ४९. [१०] अपनत्तगाणं भंते! मणुस्सा किं नाणी अशाणी ? [उ०] तिभि जाणारं भववार दो अन्नाणारं नियमा । वाणमंतरा जहा नेरइया । अपजत्तगाणं जोइसिय-वेमाणियाणं तिन्नि नाणा, तिनि अन्नाणा नियमा । ६४ ५०. [ प्र० ] नोपजत्तगा नोअपजत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? [उ०] जहा सिद्धा । ५१. [प्र० ] निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी १ [उ०] जहा निरयगतिया 1 ५२. [प्र० ] तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] तिनि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए । ५३. [ प्र० ] मणुस्सभवत्था णं० १ [ उ०] जहा सकाइया । ५४. [प्र० ] देवभवत्था णं भंते ! १ [अ०] जहा निरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा । ५५. [प्र० ] भवसिद्धियाणं भंते! जीवा किं नाणी० [१] [४०] जदा सकाइया । ४८. [प्र० ] अपर्याप्त वेइन्द्रिय जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी ! [ उ०] तेओने #बे ज्ञान अने बे अज्ञान अवश्य होय छे. ए प्रमाणे यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक सुधी जाणवुं. ५०. [ प्र० ] हे भगवन् ! ( सू० ३०.) जाणवा. ५१. [प्र० ] भगवन्! निरयभवस्थ जीवो धुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ० ] हे गौतम! तेओ निरयगतिकनी पेठे (सू० ३१.) जाणया. ५२. [प्र० ] भगवन् तिर्यग्भवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ०] दे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने प्रण अज्ञान भजनाए छे. ५२. [२०] हे भगवन् ! मनुष्यभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [उ०] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा. ५४. [प्र० ] हे भगवन्! देवभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ! [अ०] हे गौतम! तेओ निरयमवस्थानी पेठे ( सू० ५१.) जाणवा. अभवस्थ - भवमां नहि रहेनारा [ शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओ ] सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा. ५५. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक- भव्य जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओ ||सकायिकनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा. ४८. अपनेन्द्रियादिमांना कोकने सासादन सम्वन्दर्शननो संभव होवाची के दान भने बाकी ने अज्ञान होन के. ४९. सम्यग्दृष्टि मनुष्यने अपर्याप्तावस्थामां तीर्थंकरादिनी पेठे अवधिज्ञाननो संभव छे तेथी त्रण ज्ञान भजनाए होय छे, पण मिध्यादृष्टिने विभंग होतं बधी माठे अवश्य मे अज्ञान होय छे. + अपर्याप्त व्यन्तरो नारकोनी पेठे अवश्य त्रण ज्ञानवाळा, वे अज्ञानवाळा के नण अशानवाळा जाणवा, केमके असंज्ञी थकी उत्पन्न थयेला देने विज्ञान मा. ज्योतिषिक अने वैमानिकने विषे संज्ञीथी ज आवीने उत्पन्न थाय छे, माटे तेभोने अपर्याप्तावस्थामां पण भवप्रत्यय अवधि के विभंगनो अवश्य सद्भाव होवाथी श्रण ज्ञान अने भ्रण अज्ञान होय छे. टीका. ५०. नोपर्यात भने मोअप एटले पर्यासमा अने अयभावना अभावी सिद्ध जीवो जानना, केमके तेओ पर्या ने अपना रहित ठीका. ५१. स्थिर नरकगतिने विषे उत्पत्तिस्थानने तथा भने निश्वगतिक एटले नरकगतियां जो अंतरावगतिमां वर्तता, पण उत्पत्तिस्थानने नहि प्राप्त थयेला-एटलो तफावत छे. तेओ निरयगतिकनी पेठे ऋण ज्ञानवाळा अने वे के ऋण अज्ञानवाळा आणवा. ५५. || भव्य जीवो सकायिकनी पेठे पांच ज्ञानवाळा के श्रण अज्ञानवाला भजनाए होय छे. टीका.. / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५१. [०] अभयसिद्धियाणं पुच्छा। [४०] गोषमा । जो नाणी, अन्नाची तिथि अाणारं भयणाए । ५७. [२०] नोमयसिद्धिया नोअनवसिद्धिया णं भंते! जीवा० १ [४०] जहा सिखा । ५८. [प्र० ] सनीणं पुच्छा। [अ०] जहा सदिया । असनी जहा बेदिया। नोसन्नी नोअसन्नी जहा सिद्धा । ५९. [२०] कतिविहाणं मंते ही पक्षता [ड०] गोयमा ! इसविदा लदी पण्णा जाणली, २ दंसणली, ३ चरिचलद्धी, ४ चरिताचरिचलद्धी, ५ दाणलखी, ६ लाभलद्धी, ७ भोगलद्धी, ८ उवभोगलखी, ९ वीरिपलबी, १० इंदियलद्धी । १५ ६०. [ प्र० ] णाणली णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता १ [30] गोयमा ! पंचविद्या पण्णत्ता, तं जहा- आभिणियोहियणागली, जाव केवलणाणलद्धी । ६१. [२०] अाणली णं भंते! कतिविदा पचता ? [४०] गोयमा ! तिविहा पद्मता, तं हा महमप्राणी, अनाणलद्धी, विभंगनाणलद्धी । ६२. [प्र० ] दंसणली पं भंते! कतिविद्या पण्णत्ता [४०] गोयमा ! तिविदा पत्ता, तं जहा सम्मणी, मिच्छासणली, सम्मामिच्छासणी | ५६. [१०] हे भगवन् ! अभवसिद्धिक अभव्य जीवो हानी छे के अज्ञानी छे [३०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी नयी पण अज्ञानी छे, अने तेलोने ऋण अज्ञान भजनाए होय . ५७. [ प्र० ] हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीवो ज्ञानी छे के अशनी छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ सिद्धोनी पेठे (सू० ३०.) जाणचा. ५८. [अ०] है भगवन्! संक्षिजीयो ज्ञानी है के अज्ञानी छे [४०] हे गौतम! तेओ सेन्द्रियनी पेठे (सू० ३५.) जाणचा. असंज्ञिजीवो बेइन्द्रियनी पेठे ( सू० २८.) जाणवा. नोसंज्ञि - नोअसंज्ञिजीवो सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा. ५९. [ प्र० ] हे भगवन् ! लब्धि केटला प्रकारे कही छे ! [उ० ] हे गौतम! "लब्धि दश प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे- १ ज्ञानलम्भि २ दर्शनधि, ३ चारित्रलब्धि ४ चारित्राचारित्रलब्धि ५ दानसन्धि, ६ लाभलब्धि ७ भोगलम्बि ८ उपभोगलब्धि, ९ वीर्यसन्धि अने १० इन्द्रियन्धि. ६०. [ प्र० ] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ज्ञानलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि, यावत् केवलज्ञानलब्धि . ६१. [अ०] हे भगवन् ! अचानउम्पि. केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम! अज्ञानलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे - मतिअज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि अने विभंगज्ञानलब्धि. ६२. [प्र० ] हे भगवन् ! दर्शनलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [ उ० ] हे गौतम! दर्शनलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे - सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि अने सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि. १ णाशुल- क । ५९. * लब्धि-ते ते प्रतिबन्धक कर्मना क्षयादिकथीं आत्माने ज्ञानादिगुणनो लाभ थवो, तेना दश प्रकार छे - १ तथाविध ज्ञानावरण कर्मना क्षय के क्षयोपशमथी यथासंभव पांच प्रकारना ज्ञाननो लाभ थवो ते ज्ञानलब्धि. २ सम्यक्, मिश्र के मिध्याश्रद्धानरूप आत्मानो परिणाम ते दर्शनलब्धि. ३ चारित्रमोहनीय कर्मना क्षय, उपशम के क्षयोपशमथी थयेलो आत्मपरिणाम ते चारित्रलब्धि ४ अप्रत्याख्यानावरण कषायना क्षयोपशमथी थयेलो देशविरतिरूप आत्मपरिणाम ते चारित्राचारित्रलब्धि ९ अन्तराय कर्मना क्षय के क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेली दानादि ५ लब्धिओ. अहीं भोग अने उपभोगमां एटलो विशेष छे एकवार मात्र जेनो उपयोग थह शके एवा आहारादिने भोग कहेवाय छे अने वारंवार जेनो उपयोग यह शके एवा वस्त्र-भवनादि पदार्थने उपभोग कहेवाय . १० मतिज्ञानावरणकर्मना क्षयोपशमथी प्राप्त थयेल भावेन्द्रियोनो तथा एकेन्द्रियादि जातिनामकर्म अने पर्याप्तनामकर्मना उदयथी द्रव्येन्द्रियोनो लाभ बवो ते इन्द्रियलब्धि. - टीका. २१ मध्यात्यमोहनकर्ममा उपशम, क्षय के क्षयोपशमची पए अदानरूप कामपरियम से सम्बन्धि १ अशुद्ध मिलना मेदनी थएस विपर्यासरूप श्रीवपरिणाम ते मिथ्यादर्शनमन्त्रि बने ३ वर्ष विशुद्ध मिग्याल दुगना पेनची उत्पन्नमएस विरूप जीवपरिणाम दे सम्यगृमिभ्यादर्शनलब्धि. ९ भ० सू० धमपसिद्धित. नो मवसिफि नोवमव सिटिक संधिमीयो. वसंती पीवो. नोसंती नोवपी जीवो. दिना प्रार चानक व्यि ज्ञानभि. प / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक २. चारित्रलम्थि. चारित्राचारिणलम्धि. धीर्यलब्धि. इन्द्रियलब्धि... शानलम्धिवाळा शानी के महानी। ६३. [प्र०] चरित्तलंधी गं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- सामाइयचरिसलद्धी, छेदोवट्ठावणियलद्धी, परिहारविसुद्धिलद्धी, सुहमसंपरायलद्धी, अहक्खायचरित्तलद्धी। ६४. [प्र०] चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते! कतिविहा पण्णता? [उ०] गोयमा! एगागारा पन्नत्ता, एवं जाव उपभोगलद्धी एगागारा पन्नत्ता। ६५. [प्र०] वीरियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-बालवीरियलद्धी, पंडियवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी। ६६. [प्र०] इंदियलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियलद्धी, जाव फासिंदियलद्धी। ६७. [प्र०] नाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी । अत्यंगतिया दुनाणी एवं पंच नाणाई भयणाए । ६३. [प्र०] हे भगवन् । चारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम ! चारित्रलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१* सामायिकचारित्रलब्धि, २ छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि, ३ परिहारविशुद्धिकचारित्रलब्धि, ४ सूक्ष्मसंपरायचारित्रलब्धि अने ५ यथाख्यातचारित्रलब्धि. ६४. [प्र०] हे भगवन् ! चिारित्राचारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम ! एक प्रकारनी कही छे, ए प्रमाणे [दान लब्धि ], यावत् उपभोगलब्धि पण एक प्रकारनी कही छे. ६५. [प्र०] हे भगवन् ! वीर्यलब्धि केटला प्रकारनी कही छे! [उ०] हे गौतम ! वीर्यलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणेबालवीर्यलब्धि, पंडितवीर्यलब्धि अने बालपंडितवीर्यलब्धि. ६६. [प्र०] हे भगवन् ! इंद्रियलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम | इंद्रियलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि. ६७. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी. केटला एक बेज्ञानवाळा छे; ए प्रमाणे तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. १-विसुद्धल-घ। २-संपरागल-क। ६३. * (१) हिंसादि सायद्य योगथी विरति ते सामायिकचारित्र, तेना बे प्रकार छे-इत्वर अने यावत्कथिक. इत्वर एटले अल्पकालिन, ते इत्वर सामायिक पहेला अने छेछा तीर्थकरना तीर्थने विषे प्रथम दीक्षा लेनारने होय छे. यावत्कथिक एटले यावज्जीव, ते चारित्र मध्यम बावीश तीर्थकरना तीर्थने विषे वर्तमान साधुओने होय छे; केमके तेओ ऋजु अने प्राज्ञ होवाथी तेओने चारित्रमा दोषनो संभव नथी तेथी तेओने प्रथमथी ज यावत्कथिक सामायिकचारित्र होय छे. अहीं कोइ शंका करे के इत्वरसामायिकवाळा साधुए यावज्जीव सावद्य योगनी प्रतिज्ञा लीधेली होवाथी भने फरीथी छेदोपस्थापनीय चारित्र लेवामा पूर्वनां चा. रित्रनो त्याग थतो होवाथी प्रतिज्ञानो भंग केम न थाय ? तेर्नु उत्तर ए छे के छेदोपस्थापनीय चारित्रमा पण सावद्ययोगनो त्याग होवाची प्रतिज्ञानो भंग यतो नथी, पण ते चारित्रनी विशेष शुद्धि थवाथी नाममात्रनो भेद थाय छे. (२) छेदोपस्थानीय-पूर्वना चारित्रपर्यायनो छेद करीने पुनः महाव्रतोने अंगीकार करवा ते, तेना बे प्रकार छ-सातिचार अने निरतिचार. इत्वरसामायिकवाळा प्रथम दीक्षितने पुनः महाव्रतोनुं आरोपग करे, अथवा बीजा तीर्थकरना साधुओ बीजा तीर्थकरना तीर्थमा प्रवेश करे त्यारे तेने निरतिचार चारित्र होय छे, जेम श्रीपार्श्वनाथना साधुओ महावीर स्वामीना तीर्थमा आवी पंच महाव्रत धर्मनो स्वीकार करे. महाव्रतोनो मूलथी भंग करनार साधु पुनः महाव्रतनो स्वीकार करे ते सातिचार. (३) परिहारविशुद्धिचारित्र-जेमा तपो विशेषथी आत्मानी विशुद्धि थाय ते, तेना बे प्रकार है-निर्विशमानक अने निर्विष्टकायिक. जेम के-नव साधुनो एक गच्छ होय छे, तेमां चार तप करनारा, चार वैयावृत्त्य (सेवा) करनारा अने एक वाचनाचार्य (गुरु) होय छे. चार तप करनारा साधुओ निर्विशमानक अने चार वैयावृत्त्य करनारा अने वाचनाचार्यने निर्विटकायिक कहेवाय छे. तेमां निविंशमानकोनो जघन्य तप आ प्रमाणे छे-ग्रीष्म ऋतुमा जघन्य एक उपवास, मध्यम बे उपवास, अने उत्कृष्ट त्रण उपवास, शिशिर ऋतुमां जघन्य बे उपवास, मध्यम त्रण उपवास अने उत्कृष्ट चार उपवास, अने वर्षाऋतुमा जघन्य त्रण उपवास, मध्यम चार उपवास अने उत्कृष्ट पांच उपवास अने पारणे आयंथील करवानुं होय छे. वल्पस्थितो ( चार चैयावृत्त्य करनारा अने एक वाचनाचार्य) प्रति दिवस आयंबील करे छे. आ प्रमाणे छ मास सुधी तप कर्या पछी तप करनारा वैयावृत्त्य करे छे अने वैयावृत्त्य करनारा छ मास पर्यन्त तप करे छे. त्यारपछी वाचनार्य पण ए प्रमाणे छ मास सुधी तप करे छे भने तेमाथी एक गुरु थाय छे, बाकीना सर्व साधुओ तेनुं वैयावृत्त्य करे छे. ए प्रमाणे अढार मासनो कल्प पूरो थया पछी तेओ गच्छमां आवे छे के जिन कल्पनो स्वीकार करे छे. परिहारविशुद्धि चारित्रने प्रहण करवानी इच्छावाळा तीर्थकर के केवलज्ञानी पासे ते चारित्रने ग्रहण करी शके छ, अथवा जेणे तीर्थकर के केवल ज्ञानीनी पासे पूर्व चारित्र ग्रहण कर्यु होय एवा साधुनी पासे पण ग्रहण करे छे. (४) सूक्ष्मसंपराय-ज्या मात्र सूक्ष्म-खल्प, संपराय-कषाय, लोभांशनो उदय छे ते सूक्ष्मसंपराय. तेना के प्रकार छै-विशुज्यमानक भने संक्लिश्यमानक. तेमां विशुधमानकचारित्र क्षपकश्रेणी अने उपशमश्रेणिए चडनारने होय छे, अने संक्लिश्यमानक उपशमश्रेणीथी पडनारने होय छे. (५) यथाख्यात-सर्वथा कषायोदयनो अभाव जे चारित्रने विषे होय ते यथाख्यात. तेना के प्रकार छ. उपशमक-कषायोनो उपशम करनार अने क्षपक-कषायोनो क्षय करनार.-टीका. ६४. चारित्राचारित्रलब्धि एटले देशविरतिलब्धि, अहीं मूलगुण, उत्तरगुण अने तेना मेदोनी विवक्षा कर्या शिवाय बीजा अप्रत्याख्यानावरणकषायन क्षयोपशमजन्य परिणाममात्रनी विवक्षा करेली होवाथी आ लब्धि एक प्रकारे कही छे-टीका. ६५.१ १.जेथी बाल-संयमरहित अज्ञानी-नी असंयम-अज्ञानपूर्वक कष्टानुष्ठानमा प्रवृत्ति थाय ते बालवीर्यलब्धि; ते चारित्रमोहना उदयथी आने वीर्यान्तरायना क्षयोपशमथी प्रकट थाय छे. २ जेमा संयमने विषे प्रवृत्ति थाय ते. पंडितवीर्यलब्धि, अने जेथी देशविरतिमा प्रवृत्ति थाय ते बालपंडितवीर्यलब्धि. टी. . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ शतक ८.-उद्देशक २. - भगवत्सुधमेखामिप्रगीत भगवतीसूत्र. ६८. [H०] तस्स अलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी । अत्थेगतिया दुअन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। ६९. [प्र० आभिणियोहियणाणलद्धीया णं भंते। जीवा किं नाणी अन्नाणी? [उ०] गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी। अत्यंगतिया दुनाणी, चत्तारि नाणाई भयणाए। ७०. प्र० तस्स अलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी? [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलनाणी। जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । एवं सुयनाणलद्धीया वि। तस्स अलद्धीया वि जहा आभिणिवोहियनाणस्स अलद्धीया । ७१. प्र०] ओहिनाणलद्धीयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी, नो अनाणी । अत्थेगतिया तिन्नाणी, अत्थेगतिया चउनाणी । जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी । जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपजवनाणी। ७२. [प्र०] तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । एवं ओहिनाणवजाइं चत्तारि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। ७३. [प्र०] मणपजवनाणलद्धियाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! णाणी, णो अन्नाणी । अत्थेगतिया तिघाणी, अत्थेगतिया चउनाणी । जे तिन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी, सुयणाणी, मणपजवनाणी। जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मणपजवनाणी। ___७४. [प्र०] तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! गाणी वि, अन्नाणी वि; मणपज्जवनाणवजाई चत्तारि णाणाई, तिणि अन्नाणाई भयणाए । ७५. [प्र०] केवलणाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी? [उ०] गोयमा! नाणी, नो अनाणी । नियमा एगणाणी-केवलणाणी। ६८. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ.] है गौतम | तेओ ज्ञानी नथी पण अज्ञानी शानसम्धिरहित. छे. केटला एक वेअज्ञानवाळा छे, अने तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ६९. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी भामिनिबोधिकहोय छे, पण अज्ञानी नथी. केटलाएक वेज्ञानवाळा छे, तेओने चार ज्ञान भजनाए होय छे. [ एटले केटलाएक त्रणज्ञानवाळा अने केटलाएक चारज्ञानवाळा होय छे.] ७०. [प्र०] हे भगवन् ! आमिनिबोधिकज्ञानलब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी ! [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने मामिनियोधिक अज्ञानी पण छे. जेओ ज्ञानी छे तेओ अवश्य एक केवलज्ञानी छे; जेओ अज्ञानी छे तेमा केटलाक बेअज्ञानवाळा छे अने केटलाक त्रण कम्धिरहितअज्ञानवाळा छे; एटले तेओने भजनाए त्रण अज्ञान होय छे. ए प्रमाणे "श्रुतज्ञानलब्धिवाळा पण जाणवा. श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवो आभिनिबोधिकलब्धिरहित जीवोनी पेठे जाणवा. ७१. प्र०] हे भगवन् ! अवधिज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे, पण अपिधानअज्ञानी नथी. तेओमां केटलाक त्रणज्ञानवाळा छे अने केटलाक चारज्ञानवाळा छे; जेओ त्रणज्ञानवाळा छे तेओ आमिनिबोधिकज्ञान, लम्भिक जीवो. श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानवाला छे. जेओ चारज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिवोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानवाळा छे. ७२. प्र०] हे भगवन् ! अवधिज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अवधिशानलम्धिअने अज्ञानी पण छे, ए प्रमाणे तेओने अवधिज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. रदित ७३. [प्र०] हे भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे, पण मनापर्यवधानअज्ञानी नथी; तेमां केटलाक त्रणज्ञानवाळा छे अने केटलाक चारज्ञानवाळा छे. जे त्रण ज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी कधिक अने मनःपर्यवज्ञानी छे, अने जेओ चार ज्ञानवाळा छे तेओ आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानी छे.. ७४. [प्र०] मनःपर्यवज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी मनापर्यवशामपण छे, तेओने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए छे. सम्धिरहित ७५. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे पण केवलशान अज्ञानी नथी. तेओ अवश्य एककेवलज्ञानवाला छे. अम्धिन ७०. * आभिनिवोधिकलब्धिवाळानी पेठे (सू०६९) श्रुतज्ञानलब्धिवाळा जाणवा, एटले तेओ ज्ञानी ज होय छे, अने तेओने चार ज्ञान भजनाए होय छे. श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवो आभिनिबोधिकलन्धिरहित जीवोनी पेठे (सू०७०) जाणवा, एटले तेओ ज्ञानी अथवा अज्ञानी होय छे, जो ज्ञानी होय तो तेने मात्र एक केवलज्ञान होय छे अने अज्ञानी होय तो त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. परन्तु ग-घ-ङ प्रतिमा “तस्स अलद्धिया जहा आभिणिवोहियनाणस्स लद्धिया" एवो पाठ छे, (श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवो आभिनिवोधिकलब्धिवाळानी पेठे जाणवा ) पण ए पाठ अर्थनी दृष्टिथी संगत लागतो नधी. क प्रतिमा आ पाठ नथी, मात्र ख प्रतिमा 'अलद्धिया' ए पाठ छे, अने ते अर्थनी साथे संगत लागतो होवाथी ते पाठ कायम राखी तेने अनुसारे अनुवाद करेलो छे-संशोधक.' . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १० ७६. प्र०] तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि । केवलनाणवजाई चत्तारिणाणा तिमि अन्नाणाई भयणाए। ७७. [३०] अन्नाणलद्धियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! नो नाणी, अन्नाणी । तिनि अनाणाई भयणाए। ७८. [प्र०] तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी । पंच नाणाई भयणाए, जहा अभाणस्स लद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स य लद्धिया अलद्धिया य भाणियचा । विभंगनाणलद्धीयाणं तिन्नि अन्नाणाई नियमा। तस्स अलद्धीयाणं पंच नाणाई भयणाए, दो अन्नाणाई नियमा। ७९. [प्र०] दसणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी? [उ०] गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि, पंच नाणाई तिन्नि अनाणाई भयणाए। ८०. [प्र०] तस्स अलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी? [उ०] गोयमा। तस्स अलद्धिया नत्थि । सम्म दसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धियाणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। ८१. [प्र०] मिच्छादसणलद्धीया णं भंते ! पुच्छा । [उ०] तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीयाणं पंच नाणाई, तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए । सम्मामिच्छादसणलद्धिया, अलद्धिया य जहा मिच्छादसणलेद्धीया अलद्धीया तहेव भाणिय; । ८२. [प्र०] चरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी? [उ०] गोयमा! पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीयाणं मणपज्जवनाणवजाइं चत्तारि नाणाई, तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए । केवलशानलन्धि- ७६. [प्र०] केवळज्ञानलब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. तेओने केवळज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण. अज्ञान भजनाए होय छे. अज्ञानहन्धिक ७७. [प्र०] हे भगवन् ! अज्ञानलब्धिवाय जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ० ] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी नथी, पण अज्ञानी छे. तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. अज्ञानन्धिरहित. ७८. प्र०] हे भगवन् ! अज्ञानलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे, पण अज्ञानी मत्यज्ञान भने श्रुता- नथी; तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. जेम अज्ञानलब्धिवाळा अने अज्ञानलन्धिरहित जीवो कह्या तेम मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानल शनि कधिहित. ब्धिवाळा अने ते लब्धिथी रहित जीवो कहेवा. [ एटले अज्ञानलब्धिवाळानी पेठे (सू० ७७) मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानलब्धिवाळा विमंगशानलम्धिक जीवो जाणवा, अने अज्ञानलब्धिरहित जीवोनी पेठे (सू० ७८) मत्यज्ञान अने श्रुताज्ञानलब्धिरहित जीवो जाणवा. ] विभंगज्ञानलब्धिवाळा लम्धिरहित. __ जीवोने अवश्य त्रण अज्ञान होय छे, अने विभंगज्ञानलाब्धरहित जीवोने भजनाए पांच ज्ञान के अवश्य बे अज्ञान होय छे. दर्शनलग्धिक. ७९. [प्र०] हे भगवन् ! "दर्शनलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ.] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. [ जेओ ज्ञानी छे ] तेओने पांच ज्ञान, अने [ जेओ अज्ञानी छे तेओने ] त्रण अज्ञान भजनाए होय छे.. दर्शनकन्धिरहित. ८०. [प्र०] हे भगवन् ! दर्शनलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ०] हे गौतम ! दर्शनलन्धिरहित जीवो होता नथी. सम्यग्दर्शनलब्धिवाळा जीवोने भजनाए पांच ज्ञान होय छे, अने सम्यग्दर्शनलब्धिरहित जीवोने भजनाए त्रण अज्ञान होय छे. मिथ्यादर्शनलम्धिक ८१. [प्र०] हे भगवन् ! मिथ्यादर्शनलब्धिवाळा जीवो ज्ञानी होय के अज्ञानी ? [उ.] तेओने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. मिनदृष्टिलम्धिक. मिथ्यादर्शनलब्धिरहित ( सम्यग्दृष्टि अने मिश्रदृष्टि ) जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धिवाळा ( मिश्रदृष्टि )जीवो मिथ्यादर्शनलब्धिवाळानी पेठे जाणवा. सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीवो जेम मिथ्यादर्शनलन्धिरहित जीवो कह्या ते प्रमाणे जाणवा. चारित्रलाधिक. ८२. [प्र०] हे भगवन् ! चारित्रलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ.] हे गौतम! तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. चारित्रलब्धिरहित जीवोने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. १ सम्मदं-घ। २ -सद्धी अलद्धी त-घ । ७९. * दर्शन-श्रद्धान, तेमा जे ज्ञानपूर्वक होय ते सम्यश्रद्धान भने अज्ञानपूर्वक होय ते मिथ्याश्रद्धान. सम्यश्रद्धावाळा ते ज्ञानी अने मिथ्याधद्धावाळा ते अज्ञानी कहेवाय छे. ८.. दर्शनलब्धिरहित नीवो नयी, केमके सर्व जीवने सम्यक् मिथ्याके मिश्र श्रद्धानमांथी एक श्रद्धान अवश्य होय छे. ८२. चारित्रलब्धिरहित जे ज्ञानी छे, तेओने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान भजनाए होय छे, केमके अविरतिपणामां आदिना बे के प्रण ज्ञान होय छे, अने सिद्धपणामां एक केवलज्ञान होय छे. सिद्ध नोचारित्री नोअचारित्री होवाथी चरित्रलन्धिरहित छे. जे अज्ञानी छे तेओने प्रण अज्ञान भजनाए होय छे. Jain Education international Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८३. [प्र०] सामाइअचरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! नाणी, केवलवजाई चचारि नाणा भयणाए । तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई, तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए । एवं जहा सामाइयचरिचलद्धीया अलखीया मणिया, एवं जाव अहक्खायचरित्तलद्धीया अलद्धीया य माणियथा, नवरं अहफ्खायचरिचलद्धीयाणं पंच नाणाई भयणाए। ४.० चरित्ताचरित्तलद्धीया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी । अत्थेगतिया दुनाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी । जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य । जे तिनाणी ते आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी । दाणलद्धियाणं पंच नाणाई, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । ८५. प्र०ा तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी । नियमा एगनाणी केवलनाणी । एवं जाव वीरियस्स लद्धी अलद्धी य भाणिया । बालवीरियलद्धियाणं तिन्नि नाणारं, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । तस्स अलदिया पंच नाणा भयणाए। पंडियवीरियलद्धीयाणं पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीयाणं मणपजवनाणवजाई णाणाई, अनाणाणि तिन्नि य भयणाए। बालपंडियवीरियलद्धियाणं तिन्नि नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीयाणं पंच नाणाई तिन्त्रि अन्नाणाई भयणाए। 23. प्रि०ा हे भगवन् ! 'मामायिकचारित्रलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे ! [उ.] हे गौतम! तेओ सामायिकचारिणज्ञानी होय छे. तेओने केवलज्ञान शिवाय चार ज्ञान भजनाए होय छे. सामायिकचारित्रलब्धिरहित जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान सम्धिक. भजनाए होय छे. ए प्रमाणे जेवी रीते सामायिकचारित्रलब्धिवाळा अने सामायिकचारित्रलब्धिरहित जीवो कह्या तेम यावत् यथाख्यात- पथाख्यातचारित्रचारित्रलब्धिवाळा अने यथाख्यातचारित्रलब्धिरहित जीवो कहेवा. परन्तु यथाख्यातचारित्रलब्धिवाळाने पांच ज्ञान भजनाए जाणवा. कम्धिक भने अलग्धिक ८४. प्र०] हे भगवन् ! चारित्राचारित्र (देशचारित्र)लब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ.1 हे गौतम! चारित्राचारित्र लम्धिक. तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी; तेमां केटलाक बेज्ञानवाळा अने केटलाक प्रणज्ञानवाळा छे. जेओ बेज्ञानवाळा छे तेओ आमिनिबोधिक ज्ञान अने श्रतज्ञानवाळा छे, जेओ त्रणज्ञानवाला छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अने अवधिज्ञानी छे. चारित्राचारित्र चारित्राचारित्र (देशचारित्र लब्धिरहित जीवोने भजनाए पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. दानलब्धिवाळाने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए । सन्धिरहित. दानलम्पिकहोय छे. ८५. प्र०] दानलब्धिरहित जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी छे, अने तेओ अवश्य एककेवल- दानलम्धिरहित. ज्ञानवाळा छे. ए प्रमाणे यावत् वीर्यलब्धिवाळा अने वीर्यलब्धिरहित जीवो कहेवा. बालवीर्यलब्धिवाळा जीवोने त्रण ज्ञान अने त्रण वीर्यलम्धिक मने बीअज्ञान भजनाए होय छे. बालवीर्यलन्धिरहित जीवोने भजनाए पांच ज्ञान होय छे. पंडितवीर्यलब्धिवाळा जीवोने पण भजनाए पांच ज्ञान वीर्यसम्धिक, पंडितहोय छे. पंडितवीर्यलब्धिरहितने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. बालपंडितवीर्यलब्धिवाळाने भजनाए वीर्यलम्धिक भने त. दग्धिक. वालपंकित्रण ज्ञान होय छे, अने बालपंडितवीर्यलब्धिरहित जीवोने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. तवीर्यसम्धिक बने अलग्धिक. ' १ एवं जहा जाव घ। ८३.• सामायिकचारित्रलब्धिवाळा जीवो ज्ञानी ज होय छे, तेथी तेओने केवलज्ञान शिवाय बाकीना चार ज्ञान भजनाए होय छे, केमके यथाख्यातचारित्रीने ज केवलज्ञान होय छे. सामायिकचारित्रनी लब्धिरहित जे ज्ञानी छे तेओने छेदोपस्थापनीयभावे अने सिद्धभावे पांच ज्ञान भजनाए छ, जे अज्ञानी छे तेओने त्रण अज्ञान भजनाए छे. परन्तु यथाख्यातचारित्रवाळाने छद्मस्थपणे अने केवलीपणे पांच ज्ञान भजनाए होय छे. ४. चारित्राचारित्रलब्धिरहित जीवो देशविरति श्रावकथी अन्य जाणवा, तेमा जे ज्ञानी छे तेने पांच ज्ञान भजनाए होय छे, अने जे अज्ञानी छे तेओने प्रण अज्ञान भजनाए छे. दानान्तरायना क्षय के क्षयोपशयथी प्रकट थयेल दानलब्धिवाळा ज्ञानी अने अज्ञानी होय छे. तेमां जेओ ज्ञानी छे तेओने पांच ज्ञान भजनाए छ, केमके केवलज्ञानी पण दानलब्धियुक्त छे. जेओ अज्ञानी छे तेओने त्रण अज्ञान भजनाए छे. ८५. "दानलब्धिरहित सिद्धो छे, तेओने दानान्तरायना क्षय थवा छतां देवा लायक वस्तुना अभावथी, पात्रना अभावथी अने दानना प्रयोजनना अभावथी दानलब्धिरहित कह्या छे, तेओ अवश्य एककेवलज्ञानसहित छे. ए प्रमाणे लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्यलब्धिवाळा अने तेथी इतर जीवो जाणवा. अहीं पूर्वे कह्या प्रमाणे लन्धिरहित सिद्धो जाणवा. यद्यपि दानान्तरायनो क्षय होवाथी केवलज्ञानीने दानादि लन्धिओ प्रकट थाय छे अने तेथी तेमनी पण दानादिकमा प्रवृत्ति थवी जोइए, तो पण तेओ कृतकृत्य थयेला होवाथी अने प्रयोजनना अभावथी तेओनी दानादिमा प्रवृत्ति थती नथी.-टीका. बालवीर्यलब्धिवाळा असंयत (अविरति) कहेवाय छे, तेमां ज्ञानीने त्रण ज्ञान अने अज्ञानीने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. बालवीर्यलन्धिरहित जीवो सर्वविरति, देशविरति अने सिद्धो जाणवा, तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. पंडितवीर्यलब्धिरहित असंयत, देशसंयत अने सिद्धो छे. तेमा असंयतने आदिना त्रण ज्ञान के त्रण अज्ञान भजनाए होय छे, देशसंयतने त्रण शान भजनाए होय छे, अने सिद्धने एक केवलज्ञान होय छे. मनःपर्यवज्ञान मात्र पंडितवीर्यलब्धिवाळाचेज होय.छे. सिद्धो पंडितवीर्यलब्धिरहित छे, केमके भहिंसादि धर्मव्यापारमा सर्वथा प्रवृत्ति करवी ते पंडितवीर्य छे अने ते तेभोने नथी.-टीका. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक २. ८६. [प्र०] इंदियलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! चत्तारि णाणाई, तिन्नि य अन्नाणाएं भयणाए। ८७. [प्र०] तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी । नियमा एगनाणी-केवलणाणी सोई. दियलद्धिया णं जहा इंदियलद्धिया। . ८८. [प्र०] तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते अत्थेगतिया दुधाणी. अत्यंगतिया पगनाणी । जे दुनाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी । जे एगनाणी ते केवलनाणी । जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । चक्विंदिय-धाणिदियाणं लद्धी अलद्धी य जहेव सोइंदियस्स । जिम्भिदियलद्धियाणं चत्तारि णाणाई, तिन्नि य अन्नाणाणि भयणाए । ८९. [प्र०] तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा नाणी वि, अन्नाणी वि । जे नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलणाणी । जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअनाणी य सुयअन्नाणी य । फासिदियलद्धीया णं अलद्धीया णं जहा इंदियलद्धिया य अलद्धीया य । ९०. [प्र०] सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] पंच नाणाई तिनि अनाणाई भयणाए । ९१. [प्र०] आभिणियोहियनाणसागारोवउत्ता णं भंते०१[उ०] चत्तारि णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणसागारोवउत्ता वि । ओहिणाणसागारोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्धीया। मणपजवनाणसागारोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणलद्धीया । केवलना एन्द्रियधिक ८६. [प्र०] हे भगवन् ! इन्द्रियलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ! [उ० ] हे गौतम! *तेओने भजनाए चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे इन्द्रियटविरहित ८७. [प्र०] इन्द्रियलन्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ.] हे गौतम | तेओ ज्ञानी छे, पण अज्ञानी नथी. ते अवश्य एक केवळज्ञानवाळा छे. श्रोत्रंद्रियलब्धिवाळा इन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (सू०८६.) जाणवा. श्रोत्रेन्द्रियलग्धि- ८८. [प्र०] श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम । तेओ ज्ञानी पण छे, अने अज्ञानी पण छे. जेओ ज्ञानी छे तेओमां केटलाक बेज्ञानवाळा अने केटलाक एकज्ञानवाळा छे. जेओ बेज्ञानवाळा छे तेओ आमिनिबोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी छे; अने जेओ एकज्ञानी छे तेओ एक-केवलज्ञानी छे, जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य बेअज्ञानवाळा छे. जेम के मतिअज्ञानी चक्षुरिन्द्रियने अने श्रुतअज्ञानी. नेत्रेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रियलब्धिवाळाने श्रोत्रेन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (सू० ८७.) चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान जाणवाः घाणेन्द्रियलन्धिबाळा नल नेत्रेन्द्रिय अने घ्राणेन्द्रियलब्धिरहित जीवोने श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीवोनी पेठे बे ज्ञान, बे अज्ञान अने एक केवलज्ञान होय छे. जिलेन्द्रियलब्धिक जिह्वेन्द्रियलब्धिवाळाने चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. विहेन्द्रियलब्धि- ८९. [प्र०] जिहेन्द्रियलब्धिरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे, अने अज्ञानी पण छे. रहित जेओ ज्ञानी छे तेओ अवश्य एक केवलज्ञानी छे, जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य बे अज्ञानवाळा छे; ते आ प्रमाणे- मतिअज्ञानी अने पशेन्द्रियसम्धिकः श्रुतअज्ञानी. स्पर्शेन्द्रियलब्धिवाळाने इन्द्रियलब्धिवाळानी पेठे (सू० ८६.) भजनाए चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान जाणवा. स्पर्शेन्द्रिय लब्धिरहित जीवोने इन्द्रियलब्धिरहित जीवोनी पेठे (सू० ८७.) एक केवलज्ञान होय छे. साकार उपयोगवाळा. ९०. [प्र०] हे भगवन् ! "साकारउपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ! [उ० ] हे गौतम ! तेओने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए (विकल्पे) होय छे. भाभिनियोधिक भने ९१. [प्र०] हे भगवन् ! आमिनिबोधिकसाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ! [उ०] हे गौतम! तेओने श्रुतचानोपयोग. भजनाए चार ज्ञान होय छे. ए प्रमाणे श्रुतज्ञानसाकारउपयोगवाळा जीवो पण जाणवा. अवधिज्ञानसाकारउपयोगवाळा जीवोने अवधिज्ञान 1-णिदियलद्धीया णं अलखीया ण य-घ। २-इंदियलद्धिया मलद्धिया छ। ८६. * इन्द्रियलब्धिवाळा जीवो जेओ ज्ञानी छे, तेओने चार ज्ञान होय छे, पण केवलज्ञान होतुं नथी; केमके केवलज्ञानीने इन्द्रियनो उपयोग नथी. जेओ अज्ञानी छे तेओने त्रण अज्ञान भजनाए छ.-टीका. ८८. 1 श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीवोमा जेओ ज्ञानी छे ते आदिना बेज्ञानवाळा छे, अने ते अपर्याप्तावस्थामा साखादनसम्यग्दृष्टि विकलेन्द्रिय जीवो छ, एकज्ञानी ते केवलज्ञानवाळा छ, तेओ इन्द्रियोपयोगरहित होवाथी थोत्रेन्द्रियलब्धिरहित छे. जे अज्ञानी छे ते आदिना बेअज्ञानवाळा छे. ८९. जिढेन्द्रियलब्धिरहित केवलज्ञानी अने एकेन्द्रिय जीवो छे, तेथी जेओ ज्ञानी छे ते एक केवळज्ञानवाला छे, अने जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य बेअज्ञानवाळा छ, केमके एकेन्द्रिय जीवोमा साखादन नहि होवाथी ज्ञाननो अभाव छ, तेम विभंगनो पण अभाव छे. ९०.1 आकार-विशेष, ते सहित जे बोध ते साकार बोध एटले विशेषग्राहक बोध, तेना उपयोगसहित ते साकारोपयुक्त कहेवाय छे. ते मानी अने अज्ञानी बन्ने होय छे. तेमा शानीने पांच ज्ञान भजनाए होय छे, एटले कदाचित् बे, अण, चार अने एक पण शान होय छे. भा बधा शान लम्धिने धाश्रयी जाणवा. उपयोगनी अपेक्षाए तो एक काळे एकज ज्ञान के एक अज्ञान होय छे. अज्ञानीने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे.-टीका. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवक.८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७२ सागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धीया । मइअन्नाणसागारोवउत्ताणं तिनि अन्नाणाई भयणाए । एवं सुयअन्नाणसागारोवउचा वि। विभंगणाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई नियमा। - ९२. [प्र०] अणागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी? [उ०] पंच नाणाई तिनि आनाणाई भयणाए। एवं चक्खदसण-अचक्खुदसणअणागारोवउत्ता वि नवरं चत्तारि णाणाई तिनि अन्नाणाई भयणाए। ९३. [प्र०] ओहिदसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते अत्येगतिया तिनाणी अत्थेगतिया चउनाणी । जे तिनाणी ते आभिणिवोहियनाणी, सुयनाणी, ओहीनाणी । जे चउनाणी ते आभिणियोहियणाणी, जाव मणपजवनाणी । जे अन्नाणी ते नियमा तिअन्नाणी, तं जहा-महअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी। केवलदसणअणागारोवउत्ता जहा केवलणाणलद्धीया। ९४. [प्र०] सजोगी णं भंते ! जीवा किं नाणी० १ [उ०] जहा सकाइया । एवं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी वि। अजोगी जहा सिद्धा। ९५. [प्र०] सलेस्सा.णं भंते ०१ [उ०] जहा सकाइया । ९६. [प्र०] कण्हलेस्सा णं भंते ! .? [उ०] जहा सइंदिया। एवं जाव पम्हलेस्सा, सुकलेस्सा जहा सलेस्सा । अलेस्सा जहा सिद्धा। लब्धिवाळानी पेठे (सू. ७१.) [त्रण के चार ज्ञान ] जाणवा. मनःपर्यवज्ञानसाकारउपयोगवाळा जीवोने मनःपर्यवज्ञानलब्धिवाळानी अवधिधान भने म पेठे (सू. ७३.) मति, श्रुत अने मनःपर्यवं ए त्रण ज्ञान, के अवधिसहित चार ज्ञान जाणवा. केवलज्ञानसाकारउपयोगवाळा जीवो मापर्यपधान साभार उपयोग केवलज्ञानलब्धिवाळानी पेठे (सू. ७५.) एक केवलज्ञान सहित जाणवा. मतिअज्ञानसाकारोपयोगवाळा जीवोने भजनाए त्रण अज्ञान होय मतिनानादि साकारोपयोग. छे. ए प्रमाणे श्रुतअज्ञानसाकारोपयोगवाळा जीवो पण जाणवा. विभंगज्ञानसाकारोपयुक्त जीवोने अवश्य त्रण अज्ञान होय छे. ९२. [प्र०] हे भगवन् ! *अनाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ० ] हे गौतम ! तेओने पांच ज्ञान अने वनाकारोप्योगवाला जीवो. त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ए प्रमाणे चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शनअनाकारोपयोगवाळा जीवो पण जाणवा. परन्तु तेओने चार ज्ञान चक्षुदर्शन बने अच. अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. क्षुदर्शनमना कारोपयोग. . ९३. [प्र०] अवधिदर्शनअनाकारोपयोगवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ.] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी पण छे अने अनि भना अज्ञानी पण छे, जेओ ज्ञानी छे तेओमा केटलाक त्रण ज्ञानवाळा अने केटलाक चार ज्ञानवाळा छे. जेओं त्रण ज्ञानवाळा छे तेओ आमि- कारा निबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अने अवधिज्ञानी छे; जेओ चार ज्ञानवाळा छे तेओ आभिनिबोधिकज्ञानी, यावत् मनःपर्यायज्ञानी छे. जेओ अज्ञानी छे तेओ अवश्य त्रणअज्ञानवाळा छे. ते आ प्रमाणे-मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, अने विभंगज्ञानी. केवलदर्शनअनाकारोपयोगवाव्य जीवो केवलज्ञानलब्धिवाळा पेठे (सू. ७५.) एक केवलज्ञानयुक्त जाणवा. ९४. [प्र०] हे भगवन् ! सियोगी जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ.] तेओ सकायिकनी पेठे (सू. ३८.) जाणवा. सयोगी जीनोए प्रमाणे मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी पण जाणवा. अयोगी-योगरहित जीवो सिद्धोनी पेठे (सू. ३०.) जाणवा. ९५. [प्र०] हे भगवन् ! लेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ० ] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे. सलेइप गीचो. (सू. ३८.) जाणवा. ९६. [प्र०] कृष्णलेश्यावाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ.] तेओ सेन्द्रिय जीवोनी पेठे (सू. ३५.) जाणवा. ए कृष्णादिलेश्या बाळा. प्रमाणे यावत् पद्मलेश्यावाळा जीवो पण जाणवा. शुक्ललेश्यावाळा सलेश्यनी पेठे (सू. ९५.) जाणवा अने अलेश्य-लेश्याविनाना-जीवो सिद्धोनी पेठे (सू. ३०.) जाणवा. ९२. * जे ज्ञानने विषे आकार-जाति, गुण, क्रियादि खरूप विशेष प्रतिभासित न थाय ते अनाकारोपयोग एटले दर्शन, अनाकारोपयोगवाळा ज्ञानी भने अज्ञानी बे प्रकारना छे. ज्ञानीने लब्धिनी अपेक्षाए पांच ज्ञान भजनाए होय छे अने अज्ञानीने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. ९३. 1 अवधिदर्शनअनाकारउपयोगवाळा ज्ञानी अने अज्ञानी बन्ने छे, कारण के दर्शननो विषय सामान्य होवाथी भने सामान्य अमिषरूप होबाथी ज्ञानी अने अज्ञानीना दर्शना मेद होतो नथी. ९४.१ योगद्वारमा सयोगीने सकायिकनी पेठे भजनाए पांच ज्ञान अनेत्रण भज्ञान जाणवा. ए प्रमाणे मनयोगसहित, वचनयोगसहित भने काययोगसहित जीवो पण जाणवा, केमके केवलीने पण मनोयोगादि होय छे. सयोगी मिथ्यादृष्टिने त्रण अज्ञान होय छ भने अयोगीने एक केवळज्ञान होय छे.-टीका. ९५. 1 लेश्याद्वारमा जेम सकायिकने भजनाए पांच शान अने प्रण अज्ञान कह्या तेम लेश्यावाळाने पण जाणवा, केमके केवलीने पण शुक्ललेश्या होवाथी ते लेश्यासहित छे. योगान्तगर्त कृष्णादि द्रव्यना संबन्धथी आत्मानो परिणाम ते लेश्या. विशेष माटे जुओ-(प्रज्ञापनाटीका. पद १७५. ३३०-१.) १६. कृष्णलेश्या इन्द्रियोपयोगनी पेठे चारज्ञानवाळा भने त्रण अज्ञानवाळाने होय छै. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकपायी वीवो. अकरायी जीवो. वेदसहित जने वेदरहित जीवो. भावारक जीवो. भनादारक. ७२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक ८.-उद्देशकस. ९७.[प्र०] सकसाई णं भंते ! ०१ [उ०] जहा सइंदिया । एवं जाव लोभकसाई। ९८. [प्र०] अकसाई णं भंते ! किं णाणी०१ [उ.] पंच नाणाई भयणाए। ९९. [प्र० सवेदगा णं भंते ! ०१ [उ०] जहा सइंदिया। एवं इत्यिवेदगा वि, एवं पुरिसवेदगा वि, पव नपुसगवेदगा वि । अवेदगा जहा अकसाई। . १००. [प्र०] आहारगा णं भंते ! जीवा० [उ०] जहा सकसाई, नवरं केवलनाणं पि। १०१. [प्र०] अणाहारगा गं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] मणपजवणाणवजाई नाणाई, अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए। १०२. [प्र०] आभिणिवोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दरओ णं आभिणिबोहियनाणी आपसेणं सबधाई जाणइ पासति, खेत्तओणं आमिणिबोहियनाणी आएसेणं सवखेत्तं जाणइ पासति, एवं कालओ वि, एवं भावओ वि। १०३. [प्र०] सुयनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पत्ते तं जहादघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दचओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदचाई जाणति पासति, एवं खेत्तओ वि, कालो वि भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सवभावे जाणति, पासति । ९७. [प्र०] हे भगवन् ! सकषायी ! जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ० ] सेंद्रिय जीवोनी पेठे (सू. ३५.) जाणवा; ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीवो जाणवा. ९८. [प्र०] हे भगवन् अकषायी! जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे. ९९. [प्र०] हे भगवन् ! *वेदसहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] तेओ सइन्द्रिय जीवोनी पेठे (सू. ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अने नपुंसकवेदी जीवो जाणवा, तथा वेदरहित जीवो अकषायी जीवोनी पेठे (सू. ९८.) जाणवा. १००. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सिकषायी जीवोनी पेठे (सू.९७.) जाणवा, परन्तु विशेष ए छे के तेओने केवलज्ञान (अधिक) होय छे. १०१. [प्र०] हे भगवन् ! अनाहारक जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ० ] हे गौतम ! तेओने मनःपर्यवज्ञान सिवायना चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. १०२. [प्र०] हे भगवन् ! "आमिनिबोधिक ज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम! आमिनिबोधिक ज्ञाननो विषय संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी आमिनिबोधिक ज्ञानी आदेशवडे (सामान्यरूपे) सर्व द्रव्योने जाणे अने जुए, क्षेत्रथी आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशवडे सर्व क्षेत्रने जाणे अने जुए; ए प्रमाणे कालथी अने भावथी पण जाणवू. १०३. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी उपयुक्त (उपयोग सहित) श्रुतज्ञानी सर्व द्रव्योने जाणे अने जुए छे. ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने कालथी पण जाणवू, भावथी उपयुक्त श्रुतज्ञानी सर्व भावोने जाणे छे अने जुए छे. १९. * वेदद्वारमा सवेदकने सेन्द्रियनी पेठे भजनाए केवलज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे, अवेदक-वेदरहित जीवोने अकषायीने पेठे भजनाए पांच ज्ञान होय छे, केमके अनिवृत्तिवादरादिगुणस्थानके अवेदक होय छे, त्यां छद्मस्थने चार ज्ञान भजनाए होय छे, भने केवलज्ञानीने पांच, केवलज्ञान होय छे.-टीका. १०० + आहारकद्वारमा जेम सकषायी चारज्ञानवाळा अने त्रणअज्ञानवाळा कह्या, तेम आहारको पण ए प्रमाणे जाणवा, परंतु आहारकोने केवलज्ञान पण होय छ, केमके केवलज्ञानी आहारक छ.-टीका. १.१. 1 विग्रहगति, केवलिसमुदुधात अने अयोगिपणामां जीवो अनाहारक होय छे भने बाकीनी अवस्थामा आहारक होय छे. मनःपर्यवज्ञान आहार. कने ज होय छे, अने अनाहारकने आदिना त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान विग्रहगतिमा, अने केवलज्ञानीने एक केवलज्ञान केवलिसमुद्घात, अने अयोगिअवस्थामा होय छे ए माटे अनाहारक जीवोने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान कह्या छे. १०२. १ ज्ञानविषयद्वारमा आभिनिबोधिक ज्ञाननो विषय द्रव्य-धर्मास्तिकायादि द्रव्य-ने आश्रयी, क्षेत्र-द्रव्योना आधारभूत आकाश ने भाश्रयी, काल-द्रव्यना पर्यायनी अवस्थिति-ने आश्रयी, अने भाव-औदयिकादि भाव अथवा द्रव्यना पर्यायो-ने आधयी चार प्रकारनो को छे. तेमा द्रव्यने आश्रयी ने आभिनिबोधिक ज्ञान थाय छे, ते धर्मास्तिकायादि द्रव्योने आदेश-सामान्यविशेषरूप प्रकार-थी, अथवा ओपथकी द्रव्यमात्ररूपे जाणे छे, परन्तु तेमा रहेला सर्व विशेषनी अपेक्षाए जाणतो नथी, अथवा आदेश-श्रुतज्ञान जनित संस्कारवडे अपाय अने धारणानी अपेक्षाए जाणे छ, केमके अपाय ने धारणा शान खरूप छ, भने अवग्रह ने ईहानी अपेक्षाए जुए छ, कारणके अवग्रह ने ईहा दर्शनरूप छे. श्रुतज्ञानजन्य संस्कारवडे लोकालोकरूप सर्व क्षेत्रने जाणे छे..ए प्रमाणे कालथी सर्व कालने अने भावथी औदयिकादि पांच भावोने जाणे छे.-टीका . १०३.६ उपयोगसहित श्रुतज्ञानी-संपूर्णदशपूर्वधरादि श्रुतकेवली सर्व धर्मास्तिकायादि द्रव्यने विशेषथी जाणे छ, भने श्रुतानुसारी मानस अचक्षुदर्शनबढे सर्व अभिलाप्य द्रव्यने जुए छे. ए प्रमाणे क्षेत्रादिने विषे पण जाणी लेवू. भावथी उपयुक्त श्रुतज्ञानी औदयिकादि सर्व भावोने, अथवा सर्व अभिलाप्य भावोने जाणे छ, यद्यपि अभिलाप्य भावोनो अनन्तमो भाग ज श्रुतप्रतिपादित छे, तो पण प्रसंगानुप्रसंगथी सर्व अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञाननो विषय छे, माटे. वेनी अपेक्षाए 'सर्व भावोने जाणे छे' एम कयुं छे.-टीका. आमिनियोधिक शाननो विषक तहाननो विषय. . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७३ १०४. प्र०] ओहिनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते ? गोयमा! से समासओ चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दष्पयो, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं ओहिनाणी रूविदचाई जाणइ पासइ, जहा नंदीए, जाव भावओ। १०५. प्रि०] मणपजवनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नते, ते जहा-दपओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दचओ णं उजमती अणंते अणंतपदेसिए, जहा नंदीए, जाव भावओ। १०६. [प्र०] केवलणाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नते, वं जहा-दघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दधओ णं केवलनाणी सवदवाई जाणइ पासइ । एवं जाव भावओ। १०७. [प्र० मइअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउविहे पन्नत्ते, तं जहा-दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयाई दवाई जाणइ पासइ, एवं जाव भावओ मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगए भावे जाणइ पासइ । १०८. [प्र०] सुयअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नत्ते, तं जहा-दधओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दद्यओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगयाई दवाइं आघवेति, पनवेइ, परवेइ । एवं खेत्तो, कालओ। भावओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगए भावे आघवेति तं चेव । १०४. [प्र०] हे भगवन् ! अवधिज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम ! संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ अवधिशाननो प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी; द्रव्यथी अवधिज्ञानी रूपिद्रव्योने जाणे छे अने देखे छे-इत्यादि जेम नंदीसूत्रमा का छे तेम यावत् भाव सुधी जाणवू. १०५. [प्र०] हे भगवन् ! मनःपर्यवज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते मनापर्यवधानको विषय. आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी ऋिजुमतिमनःपर्यवज्ञानी [मनपणे परिणत ] अनंतप्रदेशिक अनन्त स्कंधोने 'जाणे अने देखे-इत्यादि जेम नंदीसूत्रमा का छे तेम अहीं जाणवं, यावत् भावथी जाणे छे. १०६. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते केवख्याननो विग्य. आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी केवलज्ञानी सर्व द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे, ए प्रमाणे यावद् भावथी [केवलज्ञानी सर्व भावोने जाणे छे अने जुए छे.] १०७. [प्र०] हे भगवन् ! मतिअज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- मतिअचाननो विपक द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयने प्राप्त द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे; ए प्रमाणे यावर 'भावथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे छे अने जुए छे. १०८. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतअज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते छतममायनो विषयआ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत द्रव्योने कहे छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे; ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने कालथी जाणवू. भावथी श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत भावोने कहे छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे.. १०४. * द्रव्यथी अवधिज्ञानी जघन्यथी तैजस अने भाषाद्रव्योनी अंतरे रहेला एवा सूक्ष्म अनन्त पुद्गलद्रव्योने जाणे, उत्कृष्टथी बादर अने सूक्ष्म सर्व द्रव्योने जाणे, अने अवधिदर्शनथी देखे. क्षेत्रथी अवधिज्ञानी जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टथी शक्तिनी अपेक्षाए अलोकने विषे असंख्य लोकप्रमाण खंडने जाणे अने जुए, कालथी अवधिज्ञानी जघन्य आवलिकाना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टथी असंख्यात उत्सर्पिणी भने अवसपिणी अतीत अनागत कालने जाणे अने जुए-एटले तेटला कालमा रहेला रूपी द्रव्यने जाणे. यावत् भावथी अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावोने जाणे अने जुए, पण दरेक द्रव्य दीठ अनन्त भावोने न जाणे. उत्कृष्टथी पण अनन्त भावोने जाणे अने जुए. ते भावो सर्व पर्यायनो अनन्तमो भाग जाणवो. जुओ-नंदी. प. ९-१ पं. १०. १०५. ऋजु-सामान्यग्राही मति ते ऋजुमतिमनःपर्यव, जेम 'एणे घट चिन्तव्यो' एवं सामान्य केटलाक पर्यायविशिष्ट मनोद्रव्य- ज्ञान. द्रव्यथी ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी अढी द्वीपमा रहेला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोए मनरूपे परिणमावेला मनोवर्गणाना अनन्त स्कंधोने साक्षात् जाणे, परन्तु तेणे चिन्तवेल घटादिरूप अर्थने [आवा आकारवाळो मनोद्रव्यनो परिणाम आवा प्रकारना चिन्तन शिवाय न घटे' एवा] अनुमानथी जाणे; माटे 'देखे' एम कपुं. विपुलअनेकविशेषग्राही मति-ज्ञान, अर्थात् पुष्कळ विशेषविशिष्ट मनोद्रव्यर्नु ज्ञान ते विपुलमति मनःपर्यवज्ञान; जेम 'एणे द्रव्यथी माटीनो, क्षेत्रथी पाटलिपुत्रनो, कालथी वसंतकाळनो, अने भावथी पीतवर्णनो घट चिन्तब्यो.' क्षेत्रथी ऋजुमति जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्टथी तिर्यक् मनुष्यलोकर्मा रहेला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ताना मनोगत भावोने जाणे देखे, अने विपुलमति अढी आंगुल अधिक ते क्षेत्रमा रहेला मनोगत भावने जाणे देखे, कालथी ऋजुमति जघन्य पल्योपमना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टपणे पल्योपमना असंख्यातमा भाग जेटला अतीत अनागत कालने जाणे अने जुए, तेने ज विपुलमति पधारे स्पष्टपणे जाणे. भावथी ऋजुमति सर्व भावोना अनन्तमा भागे रहेला अनन्त भावने जाणे अने जुए. वेने विपुलमति विशुद्ध अने स्पष्टपणे जाणे अने जुए. जुओ-नंदी० प. १०४-२. पं. ११. १. भ. सू. . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.--उद्देशक २. १०९.प्र०] विभंगणाणस्स णं मंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! से समासओ चविहे पन्नत्ते, तं जहा-दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाइं दवाई जाणइ पासइ, एवं जाव भावो णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ पासइ । ११०. [प्र०] णाणी णं भंते ! 'णाणित्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! नाणी दुविहे पण्णत्ते, तं.जहासाइए वा अपजवसिए, साइए वा संपजवसिए । तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावदि सागरोवमाइं सातिरेगाई। १११. [प्र०] आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहिय०. एवं नाणी, आभिणिबोहियनाणी, जाव केवलनाणी, अनाणी, मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी-एएसि दसण्हवि वि संचिट्टणा जहा कायट्टिईए । अंतरं सवं जहा जीवाभिगमे । अप्पाबहुगाणि तिन्नि जहा बहुवत्तवयाए । विभंगशाननो विषय. १०९. [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी; द्रव्यथी विभंगज्ञानी विभंगज्ञानना विषयभूत द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे, ए प्रमाणे यावद् भावथी विभंगज्ञानी विभंगज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे छे अने जुए छे. शानी शानीपणे ११०. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानी ज्ञानीपणे कालथी क्यांसुधी रहे ! [उ०] हे गौतम ! ज्ञानी बे प्रकारना कह्या छे, ते आ क्यांसुधी रहे। प्रमाणे- सादि सपर्यवसित अने सादिअपर्यवसित. तेमां जे ज्ञानी सादिसपर्यवसित छे ते जघन्यथी अन्तर्मुहुर्त सुधी अने उत्कृष्टथी कांइक अधिक छासठ सागरोपम सुधी ज्ञानीपणे रहे छे. जाभिनिबोधिकादि १११. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानीपणे कालथी केटला काल सुधी रहे ! [उ.] ए प्रमाणे दशनो स्थितिकाल. ज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानी, यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी अने विभंगज्ञानी-ए दशनो ज्ञानी पणे स्थितिकाल प्रज्ञापनासूत्रना अढारमा कायस्थितिपदमां कह्या प्रमाणे जाणवो; अने जीवाभिगम सूत्रमा कह्या प्रमाणे ए दशर्नु परस्पर अन्तर जाणवू. तेमज प्रज्ञापना सूत्रना बहुवक्तव्यता पदमां कह्या प्रमाणे त्रणे ज्ञानी, अज्ञानी अने उभयना अल्पबहुत्वो जाणवा. १ अटुण्ड वि छ। ११०.* कालद्वारमा सादि अपर्यवसित (जेनी आदि छे पण अन्त नथी ते) केवलज्ञानी, अने सादि सपर्यवसित (जेनी आदि अने अन्त बजे छ ते) मत्यादिज्ञानवाळो. तेमां केवलज्ञाननो सादिअपर्यवसित काल छे, अने बीजा मत्यादिज्ञाननो सादिसपर्यवसित काल छे. तेमां आदिना बे ज्ञाननी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल कह्यो छे, अन्यथा अवधि अने मनःपर्यवनो जघन्य काल एक समय छे, अने उत्कृष्ट कंइक अधिक छासठ सागरोपम काल आदिना प्रण ज्ञानने आश्रयी कह्यो छे.-टीका. १११. 1 ज्ञानी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, अज्ञानी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी अने विभंगज्ञानीनो स्थितिकाल 'पन्नवणासूत्र'ना अढारमा कायस्थिति पदमां कह्या प्रमाणे जाणवो. तेमां ज्ञानीनो अवस्थितिकाल पूर्वे (सू. ११०.) कहेलो छे, छतां अहीं पण कयो ते एक प्रकरणना संबंधने लीधे कह्यो छ: आमिनिबोधिकज्ञान अने श्रुतज्ञाननो काल जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी कंइक अधिक छासठ सागरोपम छे. अवधिज्ञाननो उत्कृष्ट स्थितिकाल पण ए प्रकारे छे, पण जघन्यथी एक समय छे. जेमके, ज्यारे कोई विभंगज्ञानी सम्यग्दर्शन पामे त्यारे तेना प्रथम समयेज विभंगज्ञान अवधिज्ञानरूपे परिणत थाय छे, त्यार पछी तरतज बीजे समये पडे त्यारे मात्र एक समय अवधिज्ञान रहे छे. मनःपर्यवज्ञानीनो अवस्थितिकाळ जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष होय छे; जेम अप्रमत्त गुणस्थानके वर्तमान कोइ संयतने मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय, अने तरतज बीजे समये नष्ट थाय सारे तेने जघन्य एक समय थाय छे भने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष छे; पूर्वकोटी वर्षना आयुषवाळा कोई मनुष्यने चारित्र अंगीकार कर्या पछी तरतज मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय अने यावजीव रहे त्यारे तेनो स्थितिकाल उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष थाय छे. केवलज्ञाननो 'स्थितिकाल सादि अनन्त छे. अज्ञान, मत्यज्ञान अने श्रुतअज्ञाननो स्थितिकाल त्रिण प्रकारनो छ-१ अनादि अनन्त अभव्योने आश्रयी, २ अनादि सान्त भव्योने आश्रयी, अने ३ सादि सान्त सम्यग्दर्शनथी पडेलाने आश्रयी. तेमां सादि सान्त काल जघन्यथी अन्तमुहूर्त होय छे, केमके कोइ जीव सम्यग्दर्शनथी पडे अने पुनः अन्तर्मुहूर्त पछी सम्यग्दर्शन पामे. उत्कृष्टथी अनन्त काल जाणवो. केमके कोइ जीव सम्यक्त्वथी पड़ी अनंतकाले पुनः सम्यक्त्व पामे. विभंगज्ञाननो स्थितिकाल जघन्यथी एक समय छे, केमके ते उत्पन्न थया पछी बीजे समये तेनो नाश थाय, अने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम छे. जेम कोइ मनुष्यमां कंइक न्यून पूर्वकोटि वर्ष विभंगज्ञानिपणे रहीने सातमी नरक पृथिवीमा उत्पन्न थाय. जुओ-प्रज्ञा० पद. १८. प. ३८९-१६.३. अन्तरद्वारने विषे पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञानतुं अन्तर जेम जीवाभिगमसूत्रमा कहुं छे ते प्रमाणे जाणवू. आभिनिबोधिक ज्ञान- परस्पर अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी कइक न्यून अर्ध पुद्गलपरावर्त काल छे. ए प्रमाणे श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानीने पण जाणवं. केवलज्ञा. नीने परस्पर अन्तर नथी. मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानीनुं अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी कंइक अधिक छासठ सागरोपम होय छे. विर्भगज्ञानीनू जघन्यथी अन्तर अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी (वनस्पतिना काल जेटलो) अनन्तकाल छे. जुओ-(जीवाभि० प. ४५९-१५. ५.) पापांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान- अल्पबहुत्व-सौथी थोडा जीवो मनःपर्यवज्ञानी छे, तेथी अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा छ, तेथी आभिनियोधिकं ज्ञानी भने भुतज्ञानी बन्ने विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य छे, तेथी केवलज्ञानी अनन्तगुण छे. सौथी थोडा विभंगज्ञानी छे, तेथी मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी अनन्त'गुण छे अने परस्पर सरखा छे. तेमा प्रथम ज्ञानीना अल्पबहुत्वमा मनःपर्यवज्ञानी सौथी थोडा छ, कारण के संयतने ज मनःपर्यवज्ञान. होय छे. अवधिज्ञानी चारे. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११२. [प्र०] केवतिया णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! अणंता आभिणियोहियनाणपजवा पन्नत्ता। ११३. [प्र०] केवतिया णं भंते ! सुयनाणपजवा पण्णत्ता ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव केवलणाणस्स । एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स य.। ११४. [प्र०] केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपजवा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! अणंता विभंगनाणपजवा पण्णत्ता। ११५. प्रि०] एएसिणं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवाणं, सुयनाणपजवाणं ओहिनाणपजवाणं मणपजवनाणपजवाणे केवलनाणपजवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा मणपजवनाणपजवा, ओहिनाणपजवा अणंतगुणा, सुयनाणपजवा अणंतगुणा, आभिणिबोहियनाणपजवा अणंतगुणा, केवलनाणपजवा अणंतगुणा। ११२. ग्रिन हे भगवन ! आमिनिबोधिकज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छे? [ उ०] हे गौतम! आभिनिबोधिकज्ञानना अनन्त ग्रामिनियोधिकया नना पर्यायोपर्यायो कह्या छे. ११३. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [ उ० ] हे गौतम ! पूर्वप्रमाणे [अनन्त पर्यायो ] जाणवा. ए श्रुतज्ञानादिना पर्यायो. प्रमाणे यावत् केवलज्ञानना पर्यायो जाणवा, तेम मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानना पण पर्यायो जाणवा. ११४. [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [उ.] हे गौतम ! विभंगज्ञानना अनन्त पर्यायो कह्या छे. विभंगज्ञानना पर्यायो. ११५. [प्र०] हे भगवन् ! ए (पूर्वे कहेला ) आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञानना पर्या- पांच शानना पर्यायोमा कोना पर्यायो कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम ! मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो सौथी थोडा छे, तेथी अवधिज्ञानना योनुं अल्पवत्व. पर्यायो अनंतगुण छे, तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो अनन्त छे, तेथी अनंतगुण आमिनिबोधिकज्ञानना पर्यायो छे, अने तेथी अनंतगुण केवलज्ञानना पर्यायो छे. गतिमा होय छ माटे तेथी असंख्यात गुणा छे. तेथी आभिनिबोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी विशेषाधिक होवानुं कारण अवध्यादिज्ञानरहित छतां पण केटलाक 'पंचेन्द्रियजीवो अने केटलाक विकलेन्द्रियो पण (सास्वादनसम्यग्दर्शननो संभव होवाथी) मति-श्रुतज्ञानी होय छे. अज्ञानिना अल्पबहुत्वमा पंचेन्द्रियोनेज विभंगज्ञान संभवे छे माटे ते सौथी थोडा छ, मत्यज्ञानी अने श्रुताज्ञानी एकेन्द्रियो पण होय छे; माटे तेथी तेओ अनन्तगुण छ अने परस्पर तुल्य छे. ज्ञानी अने अज्ञानिना मिश्र अल्पबहुत्वमा सौथी थोडा मनःपर्यवज्ञानी छ, तेथी असंख्यात गुणा अवधिज्ञानी, तेथी आभिनिवोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य छे. तेथी विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा छ, केमके सम्यग्दृष्टि देव अने नारक करतां मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुणा छे. तेथी केवलज्ञानी अनन्तगुणा छ, केमके एकेन्द्रिय शिवाय बाकीना सर्व जीवोथी सिद्धो अनन्तगुणा छ, तेथी मत्यज्ञानी अने श्रुताज्ञानी अनन्तगुण छे अने परस्पर तुल्य छे, केमके साधारण वनस्पतिजीवो मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी होय छे अने तेओ सिद्ध पकी अनन्तगुण छे. जुओ-प्रज्ञा० पद. ३ प. १३६-२ पं. १०. ११२. * पर्याय एटले भिन्न भिन्न अवस्थाओ के मेदो. तेना बे प्रकार छे-खपर्याय अने परपर्याय. क्षयोपशमनी विचित्रताथी मतिज्ञानना अवप्रहादि अनन्त भेदो थाय छे ते स्वपर्याय कहेवाय छे, अथवा मतिज्ञानना विषयभूत ज्ञेय पदार्थो अनन्त छे, अने ज्ञेयना मेदथी ज्ञानना पण अनन्त भेदो थाय छे, माटे ते रीते पण तेना अनन्त पर्यायो छे. अथवा केवलज्ञान वडे मतिज्ञानना अंश करता अनन्ता अंश याय ते मतिज्ञानना अनन्त पर्यायो कहेवाय छे. मतिज्ञान शिवाय वीजा पदार्थोना पर्यायो छे ते तेना परपर्यायो छ भने ते स्वपर्यायथी अनन्तगुण छे. अहिं कोई शंका करे के जो ते परपर्यायो छे तो ते मतिज्ञानना छ एम केम कहेवाय, अने जो ते मतिज्ञानना छे तो परपर्यायो केम कहेवाय ? तेनो उत्तर आ प्रमाणे छे-परपदार्थोना पर्यायोनो मतिज्ञानने विषे संबन्ध नयी माटे ते परपर्याय कहेवाय छे, परन्तु मतिज्ञानना खपर्यायोने जाणवामां, अने तेनाथी जूदा पाडवामां प्रतियोगि-संबन्धी तरीके तेनो उपयोग छे माटे वे मतिज्ञानना परपर्यायो कहेवाय छे.-टीका. __ ११३. 1 श्रुतज्ञानना पण खपर्यायो अने परपर्यायो अनन्त छे. तेमां वपर्यायो जे श्रुतज्ञानना अक्षरश्रुतादि मेदो छ ते जाणवा, ते अनन्त छ, केमके तेनो क्षयोपशम विचित्र होवाथी अने विषय अनन्त होवाथी श्रुतानुसारी बोधना अनन्त प्रकार थाय छे. अथवा केवलज्ञान बडे श्रुतज्ञानना अनन्त अंशो थाय ते तेना खपर्याय कहेवाय छे, तेथी भिन्न पदार्थोना विशेष धर्मो ते श्रुतज्ञानना परपर्यायो छे. अवधिज्ञानना अनन्त खपर्यायो छ, कारणके तेना भवप्रत्यय अने क्षायोपशमिक भेदधी, नारक तिर्यच मनुष्य अने देवरूप स्वामीना मेदथी, असंख्य क्षेत्र अने कालना मेदथी, अनन्त द्रव्य पर्यायना मेदथी, अने तेना अनन्त अंशो थता होवाथी तेना अनन्त मेदो थाय छे. ए प्रमाणे मनःपर्यवज्ञानना अने केवलज्ञानना विषयना अनन्त मेदथी तेम अनन्त अंशोनी कल्पनाथी अनन्त पर्यायो थाय छे.-टीका. ११५. अहीं खपर्यायनी अपेक्षाए अल्पबहुत्व समजवं, केमके व अने परपर्यायनी अपेक्षाए सर्व ज्ञानोना सरखा पर्यायो छे. तेमां सौथी थोडा मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो छे, केमके तेनो विषय मात्र मन छे. तेथी अवधिज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके मनःपर्यवज्ञाननी अपेक्षाए अवधिज्ञाननो विषय द्रव्य अने पर्यायोथी. अनन्तगुण छे. तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छ, केमके तेनो विषय रूपी अने अरूपी द्रव्यो होवाथी तेनाथी अनन्तगुण छे. तेथी आभिनिबोधिकज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छ, कारणके तेनो विषय अभिलाप्य अने अनभिज्ञाप्य पदार्थो होवाशी तेथी अनन्तगुण छे. तेथी केवलज्ञानना । पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके तेनो विषय सर्व द्रव्यो भने सर्व पर्यायो होवाथी तेथी अनन्तगुण छे. ए प्रमाणे अज्ञानोना अल्पबहुत्वनुं कारण जाणी लेवु.-टीका. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक २० ११६.०पएसिणं भंते! मइअन्नाणपजवाणं, सुयअन्नाणपजवाणं विभंगनाणपजवाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहियावा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा विभंगनाणपजवा, सुयअन्नाणपजवा अणंतगुणा, मइअनाणपज्जवी अणंतगुणा। ११७. [प्र०] एएसि णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवाणं, जाव केवलनाणपजवाणं, मइअन्नाणपजवाणं, सुयअभाणपजवाणं, विभंगनाणपजवाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा मणपजवनाणपजवा, विमंगनाणपजवा अणंतगुणा, ओहिणाणपजवा अणंतगुणा, सुयअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयनाणपजवा विसेसाहिया, महअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा, आभिणिबोहियनाणपजवा विसेसाहिया, केवलनाणपजवा अणंतगुणा । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति। अट्ठमसए वीओ उद्देसो समत्तो। मत्यादि त्रण अशा नोना पर्यायोनुं ११६. [4] है भगवन् ! ए मंतिअज्ञान श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञानना पर्यायोमा कोना पर्यायो कोना पर्यायोथी यावद् विशेषाधिक छे? [उ.] हे गौतम ! सर्वथी थोडा विभंगज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण श्रुतअज्ञानना पर्यायो छे, अने तेथी अनंतगुण मतिअज्ञानना पर्यायो छे. पांच शान भने त्रण ११७. [प्र०] हे भगवन् ! ए आमिनिबोधिकज्ञानना यावत् केवलज्ञानना तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानना पर्यायोमा चानना पर्यायोगें अल्पबहुत्व. कोना पर्यायो कोना पर्यायोथी यावद् विशेषाधिक छे? [ उ०] हे गौतम ! *सौथी थोडा मनःपर्यायज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण विभंगज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण अवधिज्ञानना पर्यायो छे, तेथी अनंतगुण श्रुतअज्ञानना पर्यायो छे, तेना करतां श्रुतज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे, तेथी मतिअज्ञानना पर्यायो अनंतगुण छे, तेथी मतिज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे अने तेना करता केवलज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. [एम कही भगवान् गौतम याबद विहरे छे.] अष्टमशते द्वितीय उद्देशक समाप्त. ११७. * ज्ञान अने अज्ञानना मिश्रसूत्रने विषे सौथी थोडा मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो छे, तेथी विभंगज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके उपरना प्रेवेयकथी मारंभी सातमी नरक पृथिवीमां अने तिर्यक् असंख्यात द्वीप समुद्रमा रहेला केटलाक रूपी द्रव्यो भने तेना केटलाएक पर्यायो विभंगज्ञाननो विषय छ, भने ते मनःपर्यवज्ञानना विषयनी अपेक्षाए अनन्तगुण छे. विभंगज्ञानथी अवधिज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके अवधिज्ञाननो विषय सकल रुपिद्रव्यो अने प्रत्येक द्रव्यना असंख्यात पर्यायो छे, अने ते विभंगज्ञाननी अपेक्षाए अनन्तगुण छे. तेथी श्रुताज्ञानना पर्यायो अनन्त गुण छे, केमके श्रुताज्ञाननो विषय श्रुतज्ञाननी पेठे सामान्यादेशे करीने सर्व मूर्तामूर्त द्रव्यो अने सर्व पर्यायो होवाथी अवधिज्ञाननी अपेक्षाए अनन्त गुण छे. तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे, केमफे श्रुतअज्ञानने अगोचर केटलाक पर्यायने श्रुतज्ञान जाणे छे. तेथी मत्यज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छ, केमके श्रुतज्ञान अभिलाप्यवस्तुविषयक होय से, भने मस्यज्ञान तेनाथी अनन्तगुण अनमिलाप्यवस्तुविषयक पण होय छे, तेथी मविज्ञानना पर्यायो विशेषाधिक छे. तेथी केवलज्ञामना पर्यायो अनन्तगुण , केमके ते सर्व कालमा रहेला सर्व द्रव्यो अने सर्व पर्यायोने जाणे छ.--टीका. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिओ उद्देसो । १. [३०] कइविहा णं भंते ! रुक्खा पण्णता ? [उ०] गोयमा! तिविहा रुषखा पण्णत्ता, तं जहा-संखेजजीविया, असंखेजजीविया, अणंतजीविया । २. [10] से किं तं संखेजजीविया ? [उ०] संखेजजीविया अणेगविहा पण्णता, तंजहा-ताले, तमाले, तकलि, तेतलिजहा पन्नवणाए जाव नालिपरी । जे यावन्ने तहप्पगारा । सेत्तं संखेजजीविया । ३. [प्र०] से किं तं असंखेजजीविया ? [उ०] असंखेजजीविया दुविहा पनत्ता, तंजहा-एगट्ठिया य बहुधीयगा य । ४. [प्र०] से किं तं एगट्ठिया ? [उ०] एगट्ठिया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा निबंध-संबु०-एवं जहा पनवणापए जाव फला बहुबीयगा । सेत्तं बहुबीयगा । सेत्तं असंखेजजीविया । ५. [प्र०] से किं तं अणंतजीविया ? [उ०] अणंतजीविया अणेगविहा पण्णता, तं जहा-आलुए, मूलए, सिंगबेरे एवं जहा सत्तमसए जाव सिउंढी, मुसुंढी, जेयावन्ने तहप्पगारा । सेत्तं अणंतजीविया । तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! वृक्षो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! वृक्षो त्रण प्रकारना कंया छे; ते आ प्रमाणे-संख्यात- पृचना प्रकार. जीववाळा, असंख्यातजीववाळा अने अनंतजीववाळा. २. [प्र०] हे भगवन् ! संख्यातजीववाळा वृक्षो केटला प्रकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! संख्यातजीववाठा वृक्षो अनेक प्रकारमा संख्यातबीवी. कह्या छे, ते आ प्रमाणे-ताड, तमाल, तक्कलि, तेतलि-इत्यादि *प्रज्ञापना' सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् नालियरी पर्यन्त जाणवा. एसिवाय तेवा प्रकारना बीजा वृक्षो पण संख्यातजीववाळा जाणवा. ए प्रमाणे संख्यातजीवी वृक्षो कह्या. : ३. [प्र०[ हे भगवन् ! असंख्यातजीववाळा वृक्षो केटला प्रकारना छे! उि०] हे गौतम ! असंख्यातजीववाळा वृक्षो बे प्रकारना बसवातवीवी. कह्या छे; ते आ प्रमाणे-एकबीजवाळा अने बहुबीजवाळा. १. [प्र०] हे भगवन् ! एकबीजवाळा वृक्षो केटला प्रकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! एकबीजवाळा वृक्षो अनेक प्रकारना कह्या छे; एपीवाला. ते आ प्रमाणे-निंब, आम्र, जांबू'-इत्यादि प्रिज्ञापनासूत्रना 'प्रज्ञापना' नामे प्रथमपदमा कह्या प्रमाणे यावत् बहुबीजवाळा फलो सुधी जाणवा. ए प्रमाणे असंख्यातजीवी वृक्षो कह्या. अनन्तलीगी. ५. [प्र०] हे भगवन् ! अनंतजीववाळा वृक्षो केटला प्रकारे छे? [उ०] हे गौतम ! अनन्तजीववाळा वृक्षो अनेकप्रकारना कह्या छ, ते आ प्रमाणे-'आल (बटाटा), शंगबेर (आदु)-इत्यादि सप्तम शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् सिउंढी मुसुंढी सुधी जाणवा. जे बीजा पण तेवा प्रकारना वृक्षो छे तेओ पण ( अनन्तजीववाळा) जाणवा. ए प्रमाणे अनन्तजीववाळा वृक्षो कह्या. मूलए ग-ऊ। २ जाव सीओ कण्हे सि-ग, जाव सीउण्हे घ, जाव सीउण्हे मु-छ। २. * प्रज्ञा पद. १. प. १३-१. पं. ६. । ३. प्रिज्ञा पद. १. प. ३१-१ पं. ५.१ ५. भग• तृ. खं. श. ७. उ. ३. सू. ५. Jain Education international Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ३. ६.[प्र०] अह भंते ! कुम्मे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणा, गोणावलिया, मणुस्से, मणुस्सावलिया, महिसे, महिसावलिया-एएसिणं भंते ! दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा? [उ०] हंता फुडा। ७. प्र०] पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा, पादेण वा, अंगुलियाए वा, सलागाए वा, कट्टेण वा, किलिंचेण आमसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिहमाणे वा, अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा, विछिंदमाणे वा, अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेदं वा कर? [उ०] णो तिण? समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । ८. [प्र०] कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-रयणप्पभा, जाप अहे सत्तमा, ईसीपभारा। ९. [प्र०] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा? [उ.] चरिमपदं निरवसेसं भाणियचं । जाव वेमाणिया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा, अचरिमा? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति। अट्ठमसए ततिओ उद्देसो समत्तो। बीवप्रदेशोथी सृष्ट. बीवप्रदेशोने शसादिकयी पीटा थाय? ६. [प्र०] हे भगवन् ! काचबो, काचबानी श्रेणि, गोधा (घो), गोधानी श्रेणी, गाय, गायनी श्रेणि, मनुष्य, मनुष्यनी श्रेणि, महिष (पाडो), महिषनी श्रेणि-ए बधाना बे, त्रण के संख्याता खंड कर्या होय तो तेओनी वच्चेनो भाग शुं जीवप्रदेशथी स्पृष्ट-स्पर्शायेलो होय ! [उ०] हे गौतम ! हा, स्पृष्ट होय. ७. [प्र०हे भगवन् ! कोइ पुरुष [ते काचबादिना खंडोना ] अन्तराल-वच्चेना भागने हाथथी, पगथी, आंगळीथी, सळीथी, काष्ठथी अने नाना लाकडाथी स्पर्श करतो, विशेष स्पर्श करतो, थोडं विशेष आकर्षण करतो, अथवा कोइ पण तीक्ष्ण शस्त्रना समूहथी छेदतो, अधिक छेदतो, अग्नि वडे बाळतो, ते जीवप्रदेशोने थोडी के अधिक पीडा उत्पन्न करे, या तेना कोइ अवयवोनो छेद करे: उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, केमके जीव प्रदेशोने शस्त्र असर करतुं नथी. पृथ्वीमो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! केटली पृथ्वीओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! आठ पृथिवीओ कही छे, ते आ प्रमाणे रत्नप्रभा, यावत् अधःसप्तमपृथिवी अने ईषत् प्राग्भारा (सिद्धशिला). ९. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी शुचरम-प्रान्तवर्ती छे के अचरम-मध्यवर्ती छे ? इत्यादि. [उ०] अहीं (प्रज्ञापना सूत्रनुं) 'चरम' पद सघळु कहे. यावत्-प्र०] 'हे भगवन् ! वैमानिको स्पर्श चरम वडे शुं चरम छे के अचरम छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ चरम पण छे अने अचरम पण छे.' हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावत् विचरे छे.] अष्टमशते तृतीय उद्देशक समाप्त. १तरा छ, (जं अंतरं)ते अतरे घ। २ कलिंचेण घ। ३ संकमहग-घ। ९. * रत्नप्रभा पृथिवी संबन्धे एकवचनान्त अने बहुवचनान्त चरम अने अचरमना चार प्रश्नो, तेमज चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेशना बे प्रश्नो मळी छ प्रश्नो छे, भगवान् तेनो उत्तर आपे छे-हे गौतम ! रमप्रभा चरम पण नथी, तेम अचरम पण नथी-इत्यादि. चरम एटळे पर्यन्तवर्ती अगे अचरम एटले मध्यवर्ती. चरमपणु अने अचरमपणुं अन्यवस्तु सापेक्ष छे ते अन्य वस्तुनुं अहीं कथन नहि होवाथी रमप्रभा पृथिवी चरम के अचरम कही शकाय नहि, एज कारणथी बहुवचनान्त चरम, अचरम, चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेश पण कही शकाय नहि. परन्तु जो रमप्रभा पृथिवी असंख्यात प्रदेशावगाढ होवाथी तेना भनेक अवयवनी विवक्षा करीए तो ते अचरमरूप, तेम बहुवचनान्त चरमरूप, चरमान्तप्रदेशरूप अने अचरमान्तप्रदेशरूप कही शकाय, कारण के रमप्रभाना प्रान्त भागमा अवस्थित खंडो अनेकपणे विवक्षित करीए त्यारे बहुवचनान्त 'चरम' कही शकाय अने मध्यभागवर्ती खंड एकपणे विवक्षित करीए त्यारे एकवचनान्त 'अचरम' कहेवाय. ए प्रमाणे प्रदेशदृष्टिथी चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेशरूप पण कही शकाय.विशेष माटे जुओ-प्रज्ञा. चरमपद.१०.प.१५४-१. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो । १. [ प्र० ] रायगिहे जाव एवं बयासी कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ ? [30] गोयमा ! पंच किरियाओ - सामो, तंजहा - काश्या, अहिमरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियां, जाव मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ । सेयं मंते । सेयं भंते! सि अट्टमस चउत्थो उद्देसो समतो चतुर्थ उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा यावत् [ गौतम] ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन्! केटली क्रियाओ कही छे [उ०] हे गौतम! पांच क्रियाओ कही है, ते आ प्रमाणे कायिकी, अधिकरणिकी-ए प्रमाणे अहीं [ प्रज्ञापना सूत्रनुं बाबीशसुं] सप "क्रियापद यावत् 'मायाप्रत्यधिक क्रियाओ विशेषाधिक हे त्यां सुधी कहे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् से एमज छे [ एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे के ]. अष्टमशते चतुर्थ उद्देशक समाप्त १. कायिकी; अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी अने प्राणांतिपाति की ए पांच क्रियाओ छे. तेमां कायिकी क्रिया ने प्रकारे छे-अनुपरत कायिकी अनेकानि चादि सारा योगची देशी के सर्वदा अनित थपेडाने अनुपरतकाविकी क्रिया होय . आ कि मात्र अरिने हो योगया से धधकायिकी कद्देवाय छे. आ किया प्रमत्त साने पण होय छे अधिकरणिकी किया प्रकारेाधिकरणको सनेनिर्वर्तनाच संयोजन बनाये आदि माना सापने मेळवी तैयार राखवा ते संयोजनाधिकरडी, अने ना बनावा से निर्वर्तनाधिकरणिकी. पोतानुं, परनुं अथवा बनेनुं अशुभ चिंतवनुं ते प्राद्वेषिकी. जे पोताने परने अथवा उभयने दुःख आपे ते पारितापनिकी. जे पोताने, पर अपना बने जीती रहित करे ये प्राणातिपातिकी विशेषमा जुओ प्रशाप २१.४३५१. - पांच फिनामो / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजीविकना प्रश्नो सामायिक करनार आवकना मांडने कोई पहरण करे केश तो ते मांडने शोधे अपडत भांड से भ भांड थाय तो 'पो ताना भांडने शोधेछे एम फेम कहेबाय ? ममत्वभावनुं प्रत्या नीम एमवाय के पोता ना भांडने शोधे छे. एमखीने से वे के अक्षीने सेवे पंचमओ उद्देसो । १. [अ०] रायगिहे जाव एवं वयासी - आजीविया णं भंते! थेरे भगवंते एवं वयासी - समणोवासगस्स णं भंते! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ 'भंड अवहरेजा, सेणं भंते! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसर, रायमंड अणुगवेस ? [०] गोयमा ! सर्व मंडं अणुगवेसति, जो परायनं मंडं अणुणवेसा । १ - २. [प्र० ] तस्स णं भंते! तेहिं सीलवय-गुण-वेरमण-पञ्चक्खाण-पोसहोववासेहि से भंडे अभंडे मवह ? [30] हंता [प्र० ] से केखा नं अणं भंते! एवं युधा सयं मंडं अणुगवेसह, नो परायगं मंडं अणुगवेसा ? [४०] गोषमा ! ள் तस्स णं एवं भवइ-णो मे हिरण्णे, णो मे सुवन्ने, नो मे कंसे, नो मे दूसे, नो मे विपुलधण-कणग-रयण-मणि- मोत्तिय संखसिल-प्पबाल-रतरयणमादीप संतसारसाबदेखे, ममत्तभावे पुण से अपरिण्णाप भवर से तेणद्वेणं गोवमा ! एवं दुइ सयं भंड अणुगवेसर, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ । ३. [प्र० ] समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ जायं चरेज्जा, से णं भंते! किं जायं चर, अजायं चरह ? [30] गोयमा ! जायं चरर, नो अजायं चरह । पंचम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् [ गौतमे ] ए प्रमाणे कह्युं के हे भगवन् ! आजीविकोए ( गोशालकना शिष्योए ) स्थविर भगवन्तोने आ प्रमाणे क हतुं-हे भगवन् ! जेणे सामायिक व छे एवा श्रमणना उपाश्रयमां बेठेला श्रमणोपासकना भांड-वस्त्रादि वस्तुनुं कोई अपहरण करे, तो हे भगवन्! [ सामायिक समाप्त थया पछी ] ते वस्तुनुं अन्वेषण करतो ते आयक झुं पोताना भांडने शोचे छे के पारका भांडने शोधे [उ०] हे गौतम! ते श्रावक पोताना मांडने शोधे छे, पण पारका मांडने शोधतो नथी, २. [प्र०] हे भगवन् ! ते शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासवडे ते श्रावकनुं [ अपहृत ] भांड ते अभ थाय ? [उ०] हे गौतम ! हा, अभांड थाय. [प्र० ] हे भगवन् ! [ जो अभांड थाय तो ] एम शा हेतुथी कहो छो के -[ ते श्रमणोपासक ] पोताना भांडने शोघे छे, पण पारका भांडने शोधतो नथी ! [उ०] हे गौतम! [ सामायिक करनार ] ते श्रावकना मनमां एवो परिणाम होय छे - 'मारे हिरण्य नथी, मारे सुवर्ण नथी, मारे कांसुं नथी, मारे वस्त्र नथी, अने मारे विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, परवाला, रक्त रत्नो-इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य नथी' परन्तु तेणे ममत्व भावनुं प्रत्याख्यान कर्यु नथी, ते हेतुथी हे गौतम! एम कहेवायु छे के ते पोताना भांडने गवेषे छे, पण पारका भांडने गवेषतो नथी. ३. [प्र०] हे भगवन् ! जेणे सामायिक क्युं छे एवा, श्रमणना उपाश्चयमां रहेला श्रमणोपासकनी स्त्रीने कोइ पुरुष सेवे तो चं ते तेनी स्त्री सेवे छे के अस्त्रीने-अन्यनी स्त्रीने सेवे ! [उ० ] हे गौतम! ते पुरुष तेनी खीने सेवे छे पण अन्यनी खीने सेवतो नथी. १ अंडे क, इहं मंडे ग / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. प्रका तस्स णं भंते ! तेहिं सीलच्चय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ ? [उ.] ता मवह । प्रि० से केणं खाइ णं अट्टेणं भंते ! एवं बुञ्चइ-जायं चरइ नो अजायं चरइ ? [उ.] गोयमा तस्स णं एवं भवनो में माता, नो मे पिता, णो मे भाया, नो मे भगिणी, णो मे भजा, णो मे पुत्ता, णो मे धूया, नो मे सुण्हा पेजबंधणे पुण से अवोच्छिन्ने भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ । ५.प्रि० समणोवासगस्त णं भंते ! पुधामेव थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पचाइक्खमाणे किं करेउ० गोयमा! तीयं पडिकमति, पडुप्पन्नं संवरेति, अणागयं पञ्चक्खाति । ६.प्रितीयं पडिकममाणे किं १ तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति, २ तिविहं दुविहेणं पडिकमति, ३ तिविहं एगविहेणं पडिकमति दुविहं तिविहेणं पडिकमति, ५ दुविहं दुविहेणं पडिक्कमति, ६ दुविहं एगविहेणं पडिकमइ ७ एगविहं तिविहेणं पडिक्कमति, ८ एगविहं दुविहेणं पडिक्कमति, ९ एक्कविहं एकविहेणं पडिक्कमति ? [उ०] गोयमा! तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति: तिविहं दुविहेणं वा पडिकमइ, एवं चेव जाव एक्कविहं वा एक्कविहेणं पडिक्कमति । १ तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति, न कारवेति, करतं णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा । २ तिविहं दुविहेणं पडिकममाणे न करेति, न कारवेति, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा; ३ अहवा न करेति न कारवेति, करतं नाणुजाणइ मणसा कायसा; ४ अहवा न करेइ, न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा । तिविहं एगविहेणं पडिकममाणे ५ न करेति, न कारवेति, करतं नाणुजाणइ मणसा; ६ अहवा न करेइ, न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा; ७ अहवा न करेइ, न कारवेइ, करतं नाणुजाणइ कायसा। दुविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे ८ न करेइ, न कारवेइ मणसा वयसा कायसा; ९ अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा; १० अहवा न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा। दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे ११ न करेइ, न कारवेइ मणसा वयसा १२ अहवा न करेइ, न कारवेद मणसा कायसा; १३ अहवा न करेइ, न कारवेइ वयसा कायसा; १४ अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा; १५ अहवा न करेति, करेंतं नाणु १. [प्र०] हे भगवन् ! ते शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवास वडे ते श्रावकनी] स्त्री अस्त्री (अन्यस्त्री) प्रत्याख्यानयी स्त्री ते थाय ! [उ०] हा, थाय. [प्र०] हे भगवन् ! तो एम शा हेतुथी कहो छो के तेनी स्त्रीने सेवे छे पण अस्त्री (अन्यस्त्री )ने सेवतो अस्त्री थाय तो सेनी सीने नथी! उ०] हे गौतम ! [ शीलवतादि बडे ] ते श्रावकना मनमा एवं होय छे के–'मारे माता नथी, पिता नथी, भाइ नथी, बहेन नथी, सेवे के एम फेमक स्त्री नथी, पुत्रो नथी, पुत्री नथी, अने स्नुषा (पुत्रवधू) नथी, परन्तु तेने प्रेमबन्धन ट्यं नथी, ते हेतुथी हे गौतम ! ते पुरुष तेनी इबाया प्रमपन्धन अविच्छिन्न ले माटे स्त्रीने सेवे छे, पण अन्यस्त्रीने सेवतो नथी. एम कहेवाय. ५. [प्र०] हे भगवन् ! जे श्रमणोपासकने पूर्वे स्थूल प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान होतुं नथी, ते पछीथी तेनुं प्रत्याख्यान करतो शुं स्थूलप्राणातिपातर्नु करे ! [उ०] हे गौतम ! अतीत काले करेल प्राणातिपातने प्रतिक्रमे-निन्दे, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान ) प्राणातिपातनो संवर-रोध करे, अने प्र अनागतं (भविष्य) प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करे. ६. [प्र०) हे भगवन् ! अतीत कालना प्राणातिपातने प्रतिक्रमतो ते श्रमणोपासक शुं १ त्रिविध त्रिविधे प्रतिक्रमे, २ त्रिविध अतीतकाले प्राणातिद्विविधे ३ त्रिविध एकविधे, ४ द्विविध त्रिविधे, ५ द्विविध द्विविधे, ६ द्विविध एकविधे, ७ एकविध त्रिविधे, ८ एकविध द्विविधे, पातना प्रतिक भांगा. के ९ एकविध एकविधे प्रतिक्रमे ! [उ०] हे गौतम ! १ त्रिविध त्रिविधे प्रतिक्रमे, २ त्रिविध द्विविधे प्रतिक्रमे इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् ९ एकविध एकविधे प्रतिक्रमे. त्रिविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, वचन अने कायाथी करतो नथी, करावतो नथी अने करताने अनुमोदन आपतो नथी; २ द्विविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन अने वचनथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमोदन आपतो नथी; ३ अथवा मन अने कायथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ४ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ५ त्रिविध एकविधे प्रतिक्रमतो मनथी करतो नथी, करावतो नथी, अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ६ अथवा वचनथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ७ अथवा कायथी करतो नथी, करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ८ द्विविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, वचन अने कायथी करतो नथी अने करावतो नथी; ९ अथवा मन, वचन अने कायथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; १० अथवा मन, वचन अने कायथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी; ११ द्विविध द्विविधे प्रतिक्रमतो मन अने वचनथी करतो नथी अने करावतो नथी, १२ अथवा मन अने कायथी करतो नथी अने करावतो नथी, १३ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी अने करावतो नथी, १४ अथवा मन अने वचनथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १५ अथवा मन अने कायथी करतो नथी अने करनारने 1 ५. प्रत्याख्यान एटले 'नहि करूं' एवी प्रतिज्ञा. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमानप्राणाति पातना संवरसंबन्धे मोगा. अनागत प्राणातिपा तना प्रख्याख्यान संबन्धे भांगा. स्थूलमृषावादनुं प्र व्याख्यान अने तेना मांगा, यावत् स्थूल परिमद्दना भांगा. ८२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे - शतक ८. उदेशक ५० " जाण मणसा कायसाः १६ अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा; १७ अह्नवा न कारवेति, करें नाणुजाणछ मणसा वयसा १८ या न कारयेद करेंतं नाथुजापति मणसा कापसा १९ भइया न कारवेति, करैतं नानुजाण वयसा कायसा । दुविहं एकचिद्देणं परिक्रममाणे २० न करेति न कारवेति मणसा २१ अहचा न करेति न कारचेति वपसा २२ अहवा न करेति, न कारवेति कायसा; २३ अहवा न करेति, करेंतं नाणुजाणइ मणसा, २४ अहवा न करेइ, करें नाणुजाण वयसा २५ अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ कायसा; २६ अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा; २७ अहवा न कारवेद, करेतं नानुजाण पयसा २८ अहवा न कारवेद, करेंतं नाजावर कायसा । पगविहं तिविहेणं पडिक ममाणे २९ न करेइ मणसा वयसा कायसा; ३० अहवा न कारवेइ मणसा वयसा कायसा; ३१ अहवा करेंतं नाणुजाणइ aur वयसा कायसा । एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे ३२ न करेइ मणसा वयसा ३३ अहवा न करेइ मणसा कायसाः ३४ अहवा न करेइ वयसा कायसा; ३५ अवा न कारवेति मणसा वयसा; ३६ अहवा न कारवेति मणसा कायसा; ३७ अद्दवा न कारवेइ वयसा कायसाः ३८ अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा; ३९ अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा; ४० अहचा करेंतं नाणुजाण वयसा कायसा । एगविधं एगविहेणं परिक्रममाणे ४१ न करे मणसा, ४२ अहचा न करेह वयसा, ४३ अहवा न करेइ कायसा; ४४ अहवा न कारवेति मणसा; ४५ अहवा न कारवेति वयसा ४६ अहवा न कारवेति कायसा; ४७ अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा; ४८ अहवा करेंतं नाणुजाण वयसा; ४९ अहवा करेंतं नाणुजाण कायसा । ७. [अ०] पडुप्पन्नं संवरेमाणे किं तिथिदं तिविदेणं संपरे ? [30] एवं जहा पडिक्रममाणेणं पगूणपन्नं भंगा भणिया एवं संवरमाणेण वि एणपनं भंगा भाणियष्वा । ८. [ प्र० ] अणायं पञ्चवखमाणे किं तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ ? [30] एवं तं चैव भंगा एगूणपन्नं भाणियचा जाव करें नाणुजाणइ कायसा । अहवा ९. [प्र०] समणोवासगस्स नं भंते पुछामेव धूलमुसाचार अपचक्या नवर, से णं भंते पच्छा पचाइक्समाणे० १ [30] एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणियं, तहा मुसावायस्स वि भाणियष्वं । एवं अदिन्नादाणस्स वि, एवं थूलअनुमति आपतो नथी, १६ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, १७ अथवा मन अनें वचन करावतो नधी अने करनारने अनुगति आपतो नथी, १८ अथवा मन अने कायथी करावतो नयी अने करनारने अनुमति आफ्तो नथी, १९ अथवा वचन अने कायधी करावतो नभी अने करनारने अनुमति आपतो नयी २० द्विविध एकविधे प्रतिक्रमतो मनयी करतो नयी अने करावतो नथी, २१ अथवा वचनधी करतो नधी अने करावतो नधी २२ अथवा कापरडे करतो नयी अने करावतो नची, २३ अथवा मनवडे करतो नची अने करनारने अनुमति आपतो नधी, २४ अथवा वचनवडे करतो नयी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, २५ अथवा काय करतो नधी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, २६ अथवा मनवढे करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी, २७ अथवा वचनथी करावतो नथी अने करनारने अनुमति आपतो नथी २८ अथवा कायवडे करावतो नथी अने करनारने अनुमत आपत्तो नथी; २९ एकविध त्रिविधे प्रतिक्रमतो मन, वचन अने कायची करतो नथी, ३० अथवा मन, वचन अने कापी करावतो नथी, ३१ अथवा मन, वचन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी; ३२ एकविध द्विविधे प्रतिक्रमतो मन अने वचनथीको नथी, ३३ अथवा मन अने कायथी करतो नथी, ३४ अथवा वचन अने कायथी करतो नथी, ३५ अथवा मन अने वचनथी करावतो नथी, ३६ अथवा मन अने कावधी करावतो नथी, ३७ अथवा वचन अने कायथी करावतो नथी, ३८ अथवा मन अने वचनथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ३९ अथवा मन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ४० अथवा वचन अने कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी; ४१ एकविध एकविधे प्रतिक्रमतो मनथी करतो नथी, ४२ अथवा वचनथी करतो नथी, ४३ अथवा कायथी करतो नयी; ४४ अथवा मनथी करावतो नथी, ४५ अथवा वचनथी करावतो नथी, ४६ अथवा कायथी करावतो नथी, ४७ अथवा मनथी करनारने • अनुमति आपतो नथी, ४८ अथवा वचनथी करनारने अनुमति आपतो नथी, ४९ अथवा कायथी करनारने अनुमति आपतो नथी. ७. [प्र० ] प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) प्राणातिपातनो संवर (रोप) करतो [ श्रमणोपासक ] शुं त्रिविध त्रिविधे संवर करे - इत्यादि. [उ०] जेम प्रतिक्रमता ओगणपचास भांगा कह्या, तेम संवर करतां पण ओगणपचास भांगा कहेवा. ८. [ प्र० ] अनागत प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करतो [ श्रमणोपासक ] शुं त्रिविध त्रिविधे प्रत्याख्यान करे इत्यादि. [30] पूर्वे का प्रमाणे ओगणपचास भांगा यावत् 'अथवा कायवडे करनारने अनुमति आपतो नथी' स्यां सुधी कहेवा. ९. [प्र० ] हे भगवन् ! जे श्रमणोपासके पहेलां स्थूल मृषावादनुं प्रत्याख्यान कर्तुं नथी, पछीथी हे भगवन् ! ते [स्थूल मृषावादनुं ] प्रत्याख्यान करतो शुं करे ! [30] जैम प्राणातिपासना एकसो सुचताळीश भांगा काह्या, तेम मृषावादना पण एक्सो सुटतातीश भांगा कहेवा, ए प्रमाणे [ स्थूल ] अदत्तादानना, स्थूल मैथुनना अने स्थूल परिग्रहना पण भांगाओ यावत् 'अथवा कायथी करनारने अनुमति Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८३ गस्स मेहुणस्स वि, शूलगस्स परिग्गहस्स वि, जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा। एवं खलु एरिसगा समणोवासगा मवंति, नो खलु परिसगा आजीविओवासगा भवंति। १०. आजीवियसमयस्स णं अयमैटे-अक्खीणपंडिभोइणो सवे सत्ता; से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपित्ता, विलुपित्ता, उद्दवइत्ता आहारं आहारेति । तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति; तं जहा-१ ताले, २ तालपलंबे, ३ उचिहे, ४ संविहे, ५ अवविहे, ६ उदए, ७ नामुदए, ८ णम्मुदए, ९ अणुवालए, १० संखवालए, ११ अयंवुले, १२ कायरए-इञ्चेते दुवालसं आजीविओवासगा अरिहंतदेवतागा, अम्मा-पिउसुस्सूसगा, पंचफलपडिकंता, तं जहा-उंबरेहि, वडेहि, बोरोहिं, सतरोहिं, पिलक्खूहि; पलंडू-ल्हसुणकंदमूलविवजगा, अणिलंछिएहिं अणकभिन्नेहि गोणेहिं तसपाणविवजिएहिं वित्तहिं वित्ति कप्पेमाणा विहरंति । एए वि ताव एवं इच्छंति किमंग! पुण जे इमे समणोवासगा भवंति, जेसिं नो कप्पंति इमाई पन्नरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा, कारवेत्तए वा, करेंतं वा अन्नं न समणुजाणेत्तए । तं जहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खवाणिजे, केसवाणिजे, रसवाणिज्जे, विसवाणिजे, जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सर-दह-तलागपरिसोसणया, असतीपोसणया । इच्चेते समणोवासगा सुक्का, सुक्काभिजातीया भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। ११. [प्र०] कतिविहा णं भंते! देवलोगा पण्णता? [उ.] गोयमा! चउबिहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासी, याणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते । ति। अट्ठमसए पंचमओ उद्देसओ समत्तो। आपतो नथी' त्यां सुधी जाणवा. आ आवा प्रकारना श्रमणोपासको होय छे, पण आवा प्रकारना आजीविकना (गोशालना ) उपासको होता नथी. १०. आजीविक (गोशालक )ना सिद्धांतनो आ अर्थ छे–'दरेक जीवो अक्षीणपरिभोगी-सचित्ताहारी छे, तेथी तेओ [लाकडी वगेरेथी] जाणीविकनो हणीने [ तरवार वगेरेथी] छेदीने, [शूलादिथी] भेदीने, [पांख वगेरेना कापवा वडे] लोप करीने [चामडी उतारवाथी ] विलोपीने अने सिदान्तविनाश करीने खाय छे. [अर्थात् बीजा जीवो हननादिमां तत्पर छे ] पण आजीवकना मतमां आ बार आजीविकोपासको कह्या छे, ते आ आगीवकना पार प्रमाणे-१ ताल, २ तालप्रलंब, ३ उद्विध, ४ संविध, ५ अवविध, ६ उदय, ७ नामोदय, ८ नर्मोदय, ९ अनुपालक, १० शंखपालक, अमणोपासको. ११ अयंबुल अने १२ कातर-ए बार आजीविकना उपासको छे, तेओनो देव अर्हत् (गोशालक) छे, मातापितानी सेवा करनारा तेओ आ पांच प्रकारना फलने खाता नथी. ते आ प्रमाणे-१ उंबराना फल, २ वडना फल, ३ बोर, ४ सतरनां फल अने ५ पीपळाना फल. तेओ इंगळी, लसण अने कंदमूलना विवर्जक (त्यागी) छे. तेओ अनिलांछित (खसी नहि करायला), नहि नाथेला (नाक विधेला) एवा बळदो वडे त्रसप्राणीनी हिंसा विवर्जित व्यापार वडे आजीविका करे छे. ज्यारे ए गोशालकना श्रावको पण ए प्रकारे धर्मने इच्छे छे, तो पछी जे आ श्रमणोपासको छे तेओने माटे शुं कहेवू ! जेओने आ पंदर कर्मादानो स्वयं करवाने, बीजा पासे कराववाने अने अन्य भावकोने पर्य करनारने अनुमति आपवाने कल्पतां नथी. ते कर्मादानो आ प्रमाणे छे–१ अंगारकर्म, २ वनकर्म, ३ शकटकर्म, ४ भाटककर्म, ५ स्फोटककर्म, ६ दंतवाणिज्य, ७ लाक्षावाणिज्य, ८ केशवाणिज्य, ९ रसवाणिज्य, १० विषवाणिज्य, ११ यंत्रपीलनकर्म, १२ निलांछनकर्म, १३ दवाग्निदापन, १४ सरोवर, द्रह अने तलावनुं शोषण अने १५ असतीपोषण. ए श्रमणोपासको शुक्ल-पवित्र, अने पवित्रताप्रधान थइने मरणसमये काल करीने कोइ पण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थाय छे. देवलोकन ११. प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवलोको कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! चार प्रकारना देवलोको कह्या छे. ते आ प्रमाणे-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. [एम कहीने यावद् भगवान् गौतम विहरे छे.] अष्टम शतके पंचम उद्देशक समाप्त. 1-मढे पञ्चत्ते छ। २ -परिभोइ-क। ३ नमुदए । ४ छेत्तेहिं क । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसओ. १. ०] समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समण वा माहणं वा फासु-एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलामेमाणस्स किं कजति ? [उ०] गोयमा! एगंतसो निजरा कजइ, नत्थि य से पावे कम्मे क २. [प्र०] समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असण-पाण. जाव पडिलाभेमाणस्स किं कजइ ? [उ०] गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कजइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कजइ । ३. [प्र०] समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं असंजयं अविरयं-पडिहय-पञ्चक्खायपावकम्मं फासुएण वा, अफासुएण वा, एसणिजेण वा, अणेसणिज्जेण वा असण-पाण. जाव किं कजह? [उ०] गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कजा, नस्थि से कावि निजरा कजा। ४. निग्गथं च णं गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठ केइ दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-पगं आउसो! अप्पणा मुंजाहि, एग थेराणं दलयाहि, से यतं पडिग्गहेजा, थेरा य से अणुगवेसिया सिया, जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्येव अणुप्पदाय सिया, नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा मुंजेजा, नो भन्नेसिं दावए; पगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमजित्ता परिढावेयच्चे सिया। षष्ठ उद्देशक. संयतने निदोष अश- १. [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना (उत्तम) श्रमण या ब्राह्मणने प्रासुक (अचित्त) अने एषणीय (निर्दोष ) अशन, पान, नादिया प्रतलामता खादिम तथा खादिम आहार वडे प्रतिलाभता-सत्कार करता-श्रमणोपासकने शुं [फल] थाय: [उ०] हे गौतम ! एकांत निर्जरा थाय, शु.फल थाय? एकांत खादिमसमा सामना निर्जरा थाय. पण तेने पाप कर्म न थाय. सदोष अशनादियी २. [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने अप्रासुक (सचित्त) अने अनेषणीय (सदोप) अशनादि वडे प्रतिप्रतिलाभता शुं फल . : लाभता श्रमणोपासकने शुं [फल ] थाय ! [उं०] हे गौतम! घणी निर्जरा थाय, अने अत्यन्त अल्प पाप कर्म थाय. अने अल्प पाप कमैनो बर्ष याय. असंयतने आहारथी ३. [प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना विरतिरहित, अप्रतिहत अने अप्रत्याख्यात पापकर्मवाळा असंयतने प्रासुक अथवा अप्रा प्रतिलामा शुं फल सुक, एषणीय अथवा अनेषणीय अशनादि वडे प्रतिलाभता श्रमणोपासकने शुं [फल ] थाय ! [उ०] हे गौतम ! एकांत पापकर्म थाय, कर्म थाय. पण काइ निर्जरा न थाय. निर्गन्थने बे पिंख ४. गृहस्थना घरे आहार ग्रहण करवानी इच्छाथी प्रवेश करेला निर्मन्थने कोइ गृहस्थ बे पिंड (आहार) ग्रहण करवा माटे निमंत्रण. ५ उपनिमंत्रण करे के-हे आयुष्मान् ! एक पिंड तमे खाजो, अने बीजो पिंड स्थविरोने आपजो. पछी ते निग्रंथ ते (बन्ने) पिंडने ग्रहण करे अने ते स्थविरोनी शोध करे; तपास करता ज्यां स्थविरोने जुए त्यांज ते पिंड तेने आपे, जो कदाच शोधता स्थविरोने न जुए तो ते पिंड पोते खाय नहीं अने वीजाने आपे नहीं, पण एकान्त, अनापात-ज्या कोई आवे नहि एवी अचित्त अने बहु प्रामुक स्पंडिल (भूमि )ने जोइने, प्रमार्जीने त्यां परठवे. Jain Education international Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८५ ५. [०] निर्माणं गाहाबरकु पिंडबायपडियार मणुप्यचि केंद्र ती िपिंडे उपनिमंतेजा एवं आसो ! अप्पा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि; से य ते पडिग्गहेजा, थेरा य से अणुगवेसेवा, सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयधे सिया, पजाब इसपिंडे उपनिमंतेजा यरं एवं आडसो अप्यणा भुजादि, नव थेराणं दलयादि सेसं तं चैव जाय परिट्ठाय सिया | ६. [अ०] निग्धं च णं गाहाबद० जाब के दोहिं पडिग्गनहेहिं उपनिमंतेजा - एगं माउसो ! सप्पा पडिभुंजादि एवं येराणं दरवाहि से प तं पडिमजा, तहेच जाव तं नो अप्पणा परिभुंगेखा, नो असि दावण सेसं तं घेव, जाब परिद्वय सिया एवं जाव दसाई पडिग्ाहेहिं एवं जहा पडिदेहिं एवं जहा पडिगहवत्तया भणिया, एवं गोच्छेरयहरण-चोलपट्टग-कंबल - लट्ठि - संथारगवत्तवया य भाणिया, जाव दसहि संथारपछि उवनिमंतेज्जा, जाव परिवेय सिया । 3 ७. [ प्र० ] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्टेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवतिदेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि, पडिक्कमामि, निन्दामि गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, अकरणयाप अब्भुट्ठेमि, अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतिअं आलोएस्सामि, जाव तवोकम्मं पडिवजिस्सामि । से य संपट्टिए, असंपत्ते थेरा य पुवामेव अमुहा सिया, से णं भंते! कि आराहए, विराहए ? [30] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ८. [प्र० ] से व संपट्टिए असंपते अप्पणा व पुवामेव अमुळे सिया से णं भंते कि आराहए, विराइए [30] 1 गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ? ९. [ प्र० ] से य संपट्ठिए असंपत्ते थेरा य कालं करेजा, से णं भंते! किं आराहए, विराहए ? [उ०] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । ५. [अ०] गृहस्थना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादायी प्रवेश करेला निन्यने कोइ गृहस्य प्रण पिंड ग्रहण करवाने उपनि-पद्यात् देश मंत्रण करे के हे आयुधन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बीना वे पिंड स्थविरोने आपनो पछी ते निर्बंध ते पिंडोने ग्रहण करे, अने स्थविरोनी तपास करे. बाकीनुं पूर्वसूत्रनी पेठे जाणवुं यावत् परठवे, ए प्रमाणे यावद् दश पिंडोने ग्रहण करवाने उपनिमंत्रण करे, परन्तु एम कहे के हे आयुष्मन् ! एक पिंड तमे खाजो अने बाकीना नव पिंड स्थविरोने आपजो, बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवुं, यावत् परठवे. मंत्रण. ६. [प्र० ] निर्बंथ यावत् गृहपतिना कुलमां प्रवेश करे अने कोइ गृहस्थ बे पात्र वडे तेने उपनिमंत्रण करे के - हे आयुष्मन् ! पात्रोनुं उपि एक पात्रनो तमे उपभोग करजो अने बीजुं पात्र स्थपिरोने आपजो. ते बन्ने पात्रोने ग्रहण करे, बांकीनुं ते प्रमाणे जागनुं यावत् पोते ते पात्रनो उपयोग न करे अने बीजाने आपे पण नहीं, बाकीनुं पूर्वनी पेठे जाणवुं यावत् ते पात्रने परठवे. ए प्रमाणे यावत् दस पात्र सुघी कहेवुं, जे प्रमाणे पात्रनी वक्तव्यता कही छे तेम गुच्छा, रजोहरण, चोलपट्ट, कंबल, दंड अने संस्तारकनी वक्तव्यता कहेवी, यावत् दश संस्तारकवडे उपनिमंत्रण करे, यावत् तेने परठवे. ७. [ प्र० ] कोई निर्ग्रन्थे गृहपतिना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादाथी प्रवेश करता कोइ अकृत्य स्थाननुं प्रतिसेवन कयुं होय, पछी ते निर्मन्थना मनमो एम चाय के “प्रथम हुं अहींज आ अकार्य स्थाननुं आलोचन, प्रतिक्रमण, निन्दा अने गर्हा करूं, [तेना अनुबन्धने] छेदुं, विशुद्ध करूं, पुनः न करवा माटे तैयार थाउं, अने यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तप कर्मनो स्वीकार करूं. त्यार पछी स्थवि स्थविरो मूक पाय --- रोनी पासे जइने आलोचना करीश, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करीश." [ एम विचारी ] ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने त्यां पहोंच्या पहेला ते स्थविरो [ वातादि दोषना प्रकोपथी ] मूक थइ जाय-बोली न शके अर्थात् प्रायश्चित्त न आपी शके तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ! [उ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (१) ८. [ प्र० ] हवे ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंच्या पहेला ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो हे भगवन् ! शुं ते निर्मन्य मूक वाय. निर्मन्थ आराधक छे के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (२) काळ करे तो हे भगवन् ! ते निर्मन्थ स्थविरो काल करे. ९. [ प्र० ] ते निर्मन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने ते पहोंच्या पहेलां ते स्थविरो आराधक छे के विराधक ! [उ०] हे गौतम! ते निर्मन्थ आराधक हे पण विराधक नथी. (३) १ गोष्डग-ध । २ परिद्ववेयब्वे ङ । ३ अमुद्दा ग । माराधक भने विराधक. / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक २. १०. [प्र०] से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा य पुछामेव कालं करेजा, से णं भंते! किं आराहए, विराहए उ०] गोयमा! आराहए, नो विराहए । ११. [प्र०] से य संपट्टिए, संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? [उ०] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य०-एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियचा जहेव असंपत्तेणं । १२. प्र०] निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्सणं एवं भवति-इहेव ताव अहं०-एवं पत्थ वि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियवा; जाव नो विराहए । निग्गंथेण य गामाणुगाम दुइजमाणेणं अन्नयरे अकिञ्चट्टाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं०, एत्थ वि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियचा, जाव नो विराहए। १३. [प्र०] निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, जाव तवोकम्म पडिवजामि, तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि, जाव पडिवजिस्सामि । सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणी य अमुहा सिया; साणं भंते! किं आराहिया, विराहिया? उ० गोयमा! आराहिया, नो विराहिया । सा य संपट्रिया जहा निग्गंथस्स तिन्नि गमा भणिया एवं निग्गंधीए वितिनि आलावगा भाणियवा, जाव आराहिया, नो विराहिया। १४. [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-आराहए, नो विराहए? [उ०] गोयमा ! से जहा नामए के पुरिसे एगं महं उन्नालोमं वा, गयलोमं वा, सणलोमं वा, कप्पासलोमं वा, तणसूर्य वा दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खियेजा, से गृणं गोयमा! छिजमाणे छिन्ने, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, डज्झमाणे दहेत्ति वत्तवं सिया? हंता भगवं! छिजमाणे छिन्ने, जाव दहृत्ति वत्तवं सिया । से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा, धोतं वा, तंतुग्गयं वा मंजिट्ठा निम्रन्थ काल करे. संप्राप्त निन्थना चार माछापक १०. [प्र०] हवे स्थविरोनी पासे जवा निकळेलो ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे पहोंच्या पहेला पोते काळ करी जाय तो हे भगवन् ! शुं ते आराधक छे के विराधक छे ! [उ०] हे गौतम ! ते निम्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (४) ११. प्र०] ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने पहोंचता वार ते स्थविरो मूक थई जाय, तो हे भगवन् ! शुं ते निम्रन्थ आराधक छे के विराधक छे! [उ०] हे गौतम ! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. हवे ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंचता वार ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो शुं ते निम्रन्थ आराधक छे के विराधक छे!-इत्यादि संप्राप्त (पहोंचेला) निम्रन्थना चार आलापक असंप्राप्त (नहि पहोंचेला ) निर्ग्रन्थनी पेठे कहेवा. निहारभूमि के विवा- १२. कोई निम्रन्थे बहार निहारभूमि के विहारभूमि तरफ जतां कोइ एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्य होय, पछी तेने एम थाय रभूमि तरफ जता. " के 'हुं प्रथम अही तेनु आलोचनादि करूं'-इत्यादि पूर्वनी पेठे अहीं पण तेज आठ आलापक कहेवा, यावत् ते निग्रंथ विराधक नथी. ही ग्रामानुग्राम विहार निम्रन्थे प्रामानुग्रामविहार करतां कोई एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्यु होय, पछी तेने एम थाय के, हुं प्रथम तेनुं आलोचनादि करूंकरता. इत्यादि पूर्ववत् अहीं पण तेज आठ आलापक कहेवा, यावत् 'ते निग्रंथ विराधक नथी.' बाराधक निर्मन्धी. १३. [अ०] कोई साध्वीए आहार ग्रहण करवाना इरादाथी गृहपतिना घरे प्रवेश करता कोइ एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्य, पछी तेने एम थाय के-हुं प्रथम आ अकृत्यस्थान- आलोचन करं, यावत् तप कर्मनो स्वीकार करुं. त्यार पछी प्रवर्तिनी (वृद्ध साध्वी )नी पासे आलोचना करीश, यावत् तप कर्मनो स्वीकार करीश, [ एम विचारी] ते साध्वी ते प्रवर्तिनीनी पासे जवा निकळे, अने त्यां पहोंच्या पहेला ते प्रवर्तिनी मुंगी थइ जाय, तो हे भगवन् । शं ते साध्वी आराधक छे के विराधक छे! [उ०] हे गौतम ! ते सा छे पण विराधक नथी, जेम निर्ग्रथने त्रण आलापको कह्या छे तेम 'ते साध्वी जवा नीकळे'-इत्यादि त्रण 'आलापको साध्वीने कहेवा. यावत् 'ते आराधक छे पण विराधक नथी.' भाराधक शोपार्नु कारण. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के तेओ आराधक छे पण विराधक नथी ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष एक मोटा ऊनना, गजना लोमना, शणना रेसाना, कपासना रेसाना, तृणना अग्रभागना , त्रण के संख्यात छेदककडा-करी तेने अग्निमां नाखे तो हे गौतम ! ते छेदातां छेदायेलं, अग्निमां नंखाता नंखायेलं, बळतां बळेलु एम कहेवाय ! हे भगवन् । हा, छेदाता छेदायेलं, यावद् बळतां बळेलु कहेवाय, अथवा कोइ पुरुष नवं, धोएलं के तन-साळथी तरत उतरेलु कपडु मजीठना रंगनी वज्झना। २ जहानामए । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. दोणीए पक्खिवेजा, से गृणं गोयमा! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते, पक्खिप्पमाणे पश्खित्ते, रजमाणे रत्तेत्ति वत्तवं सिया हता भगवं! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्तवं सिया । से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-आराहए नो विराहए । १५. [प्र०] पदीवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाति, लट्ठी झियाइ, वत्ती झियाति, तेल्ले झियाइ, पदीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ ? [उ०] गोयमा ! नो पदीवे झियाइ, जाव नो पदीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ । १६. [प्र०] अगारस्स णं भंते। झियायमाणस्स किं. अगारे झियाइ, कुड्डा झियाइ, कडणा झियाइ, धारणा झियाइ, बलहरणे झियाइ, वंसा झियाइ, मल्ला झियाइ, वग्गा झियाइ, छित्तरा झियाइ, छाणे झियाति, जोती झियाति? [उ०] गोयमा! नो अंगारे झियाति, नो कुड्डा झियाति, जाव नो छाणे झियाति, जोती झियाति । १७. [प्र०] जीवे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए, सिय अकिरिए। १८. [प्र०] नेरइए णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए. सिय पंचकिरिए। १९. [प्र०] असुरकुमारे णं भंते ? ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए; नवरं मणुस्से जहा जीवे । २०. [प्र०] जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरोहितो कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा! सिय तिकिरिए, जाव सिय अकिरिए। कुंडीमां नांखे तो हे गौतम ! ते उंचेथी नांखता उंचेथी खायेलं, नाखतां नंखायेलं, रंगातां रंगायेलं एम कहेवाय ! हा भगवन् ! ते उंचेथी नांखतां उंचेथी नंखायेलं, यावत् रंगातां रंगायेलं कहेवाय; ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के [आराधना माटे तैयार थएलो] ते आराधक छे पण विराधक नथी. . १५. [प्र०] हे भगवन् ! बळता दीवामां शुं बळे छे ? शुं दीवो बळे छे, दीपयष्टि-दीवी बळे छे, वाट बळे छे, तेल बळे छे, बळता दीपकमा शं पळे छे! दीवानुं ढांक| बळे छे, के ज्योति-दीपशिखा बळे छे ? [उ०] हे गौतम! दीवो बळतो नथी, यावत् दीवान ढांकणुं बळतुं नथी, पण ज्योतिब.. ज्योति बळे छे. - १६. [प्र०] हे भगवन् ! बळता घरमा शुं बळे छे ! शुं घर बळे छे, भीतो बळे छे, त्राटी बळे छे, धारण (मोभनी नीचेना पळता घरमा.शं. बळे छे! ज्योति स्तंभो) बळे छे, मोभ बळे छे, वांसो बळे छे, मल्लो (भीतोना आधार थांभला ) बळे छे, छींदरीओ बळे छे, छापरं बळे छे, छादन-डाभ पळे छे. वगेरेनुं ढांकण बळे छे के ज्योति-अग्नि बळे छे! [उ०] हे गौतम ! घर बळतुं नथी, भीतो बळती नथी, यावत् डाभ वगेरेनुं छादन बळतुं नथी, पण ज्योति बळे छे. • १७. [प्र०] हे भगवन् ! एक जीव [परकीय ] एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ! [उ०] हे गौतम। परना एक औदा कदाच *त्रणक्रियावाळो, कदाच चारक्रियावाळो, कदाच पांचक्रियावाळो, अने कदाच अक्रिय (क्रिया रहित ) होय. रिक शरीरने आयी जीवने क्रिया. १८. [प्र०) हे भगवन् ! एक नारक [ परकीय ] एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ! [उ०] हे गौतम | नारकने क्रिषा. कदाच त्रणक्रियावाळो, कदाच चारक्रियावाळो अने कदाच पांचक्रियावाळो होय. १९. [प्र०] हे भगवन् ! एक असुरकुमार [ परकीय ] एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ? [उ०] हे असुरकुमारने गौतम ! पूर्वनी पेठे [त्रण, चार के.पांच क्रियावाळो होय ] ए प्रमाणे यावद् वैमानिको जाणवा. परन्तु मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. क्रिया. २०. [प्र०] हे भगवन् ! एक जीव [परकीय] औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ! [उ०] हे गौतम । ते कदाच णक्रियावाळो होय, यावत् कदाच अक्रिय होय. एकजीवनी औदाः रिक शरीरोने मामयी क्रिया .. जोति झि-घ। २ आगारे ग। १७ *कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी अने प्राणातिपातिनी-ए पांच क्रियाओ छे. तेमा एक जीव ज्यारे अन्य पृथिव्यादिक जीवना शरीरने आश्रयी कायानो व्यापार करे त्यारे तेने कायिकी, अधिकरणिकी भने प्रादेषिकी एत्रण क्रियाओ होय, केमके भवीतरागने कायिकी क्रियाना सभावमा अधिकरणिकी अने प्रादेषिकी क्रिया अवश्य होय छे, अने बीजी बे कियाओ भजनाए होय छे. एटले ज्यारे ते बीजाने परिताप उत्पन्न करे के घात करे यारे तेने पारितापनिकी के प्राणातिपातिनी क्रिया होय छे-टीका. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिक. बोने एक मौदारिक परीने आमची क्रिया. भैरविकादिने किया. जीमोने मौदारिक शरीरोने भाभी क्रिया. मैरयिकोने क्रिया जीवने वैकिय शरीरने आश्रयी क्रिया. चैरविकने वैक्रिय शरीरने भाश्रयी क्रिया. मनुष्यने जीवनी पेठे क्रियाओ होय. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक ६. २१ [प्र० ] नेरइप णं भंते! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिए ? [30] एवं एसो जहा पढमो दंडओ तथा इमो वि अपरिसेसो भाणियत्रो जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । ૮૮ २२. [अ०] जीवानं भंते! ओरालिपसरीराम कतिकिरिया ? [30] गोयमा सिच विकिरिया, जाब सिय अकिरिया । २३. [ प्र० ] नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया ? [अ०] एवं पसो वि जहा पढमो दंडओ तहर भाणियचो, जाव बेमाणिया, नवरं मधुस्सा जहा जीवा । २४. [प्र० ] जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिया ? [ उ० ] गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि पंचकरिया वि, अकिरिया वि २५. [२०] या मंते ओरालियरीरेहिंतो कतिकिरिया [४०] गोयमा ! तिकिरिया वि, पठकिरिया वि पंचकरिया वि । एवं जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । २६. [प्र० ] जीवे णं भंते! वेउचियसरीराओ कतिकिरिए ? [30] गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए सिय अकिरिए । २७. [प्र०] ने णं भंते! वेडधियसरीराओ कतिकिरिए । [३०] गोयमा ! सिप तिकिरिए, सिय चकरिए एवं जाप माणिष्ट, नवरं मणुस्खे जहा जीवे एवं जहा भोराडियसरीरेण चत्तारि दंडगा भणिता तहा वेडशियसरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियचा, नवरं पंचमकिरिया न भन्नद्द, सेसं तं चैव । एवं जहा वेउद्वियं तहा आहारगं पि, तेयगं पि, कम्मगं पि भाणियां, पक्केके चत्तारि दंडगा भाणिया, जाव वैमाणिया णं भंते! कम्मगसरीरेहिंतो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया पि चकिरिया वि। सेयं भंते । सेयं मंते । ति । अट्ठमसर छट्टो उद्देसो समतो २१. [प्र० ] हे भगवन् ! एक नैरयिक [ पर संबन्धी ] औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियावाळो होय ! [उ०] हे गौतम! जैम आ प्रथम दंडक [ सू. १८] कह्यो छे तेम आ सपळा दंडको पण यावद् वैमानिक सुची कहेगा, परन्तु मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. २२. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो [पर संबन्धी] एक औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियामाया होय [३०] हे गौतम! कदाच त्रणक्रियायाय होय, यावत् कदाच क्रियारहित होय. २३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको [ पर संबन्धी ] औदारिक शरीरने आश्रयी केटली क्रियावाळा होय ! [उ०] हे गौतम! जैम प्रथम दंडक [ सू. १८.] कह्यो छे तेनी पेठे यावद् वैमानिक सुधी आ दंडक पण कहेवो, पण मनुष्यो जीवोनी पेठे कहेवा. २४. [प्र० ] हे भगवन् ! जीयो औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रियायाळा होय! [३०] हे गौतम! कदाच त्रणकियावाज्य पण होय, चारक्रियावाळा पण होय, पांचक्रियावाळा पण होय अने किया रहित पण होय. २५. [प्र० ] हे भगवन् ! नैरयिको [ परकीय] औदारिक शरीरोने आश्रयी केटली क्रिया होय! [उ०] हे गौतम! त्रणक्रियावाळा पण होय, चारक्रियावाळा पण होय, अने पांचक्रियावाळा पण होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको जाणवा. पण मनुष्यो जीवोनी पेठे जाणवा. ए २७. [प्र०] हे भगवन् ! नैरधिक [पर संबन्धी] वैकिय शरीरने आश्रयीने केली क्रियाया होय (०) हे गौतम! कदाच प्रणकियाचाळ अनेकदाच चार क्रियावालो होय. २ प्रमाणे यावद् वैमानिक सुधी जागनुं, पण मनुष्यने जीवनी पेठे जाणवो. ए प्रमाणे जेम औदारिक शरीरना चार दंडक कह्या, तेम वैक्रिय शरीरना पण चार दंडक कहेवा, परन्तु तेमां पांचमी क्रिया न कहेवी. बाकीनुं पूर्वनी पेठे जाणवु, ए प्रमाणे जेम वैकिपशरीर संबंध कां, तेम आहारक, तैजस अने कार्मण शरीर संबंधे गण कहेतुं एक एकला चार वैमानिकने दंडक कहेवा, यावत् [ प्र०] हे भगवन् ! वैमानिको कार्मण शरीरोने आश्रयी केटली किया दोष! [४०] हे गौतम! श्रणक्रियारोने बाय पण दोय अने चारनियावाला पण होय. हे भगवन् । ते एमन के, हे भगवन्! ते एमज छे. [एम कही यावद् भगवान् गौतम - भरी शा विहरे छे. ] अष्टमशतके पष्ठ उदेशक समाप्त. २५. जीवने वेकिय शरीरने आश्रयी चार किसानो होय के पांचवा होती थी. केमके वैकिय पारीरीनो पाठ करा., २६. [अ०] हे भगवन् ! जीव [परकीय] बैकियशरीरने आश्रयी केटली क्रियावालो दोष [उ०] हे गौतम! कदाच प्रणक्रियाया कदाच चारकियामा "अनेकदाच अकिय होय. " : Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो। १. तेणं कालेणं, तेणं समयेणं रायगिहे नयरे, वन्नओ, गुणसिलए चेइए, वन्नओ, जाव पुढविसिलावट्टओ। तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति । तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवें अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना, कुलसंपन्ना, जहा बितियसए जाव जीवियास-मरणभयविप्पमुक्का, समणस्स भगवयो महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू, अहोसिरा, झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा जाव विहरति । २. तए णं ते अन्नउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो तिविहं तिविहेणं असंजय-विरय-प्पडिहय० जहा सत्तमसए बीतिए उद्देसए जाव एगंतबाला या वि भवह । ३. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिर एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजयविरय० जाव एगंतवाला यावि भवामो ? ४. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अजो! अदिघ्नं गेहह, अदिन्नं भुंजह, अदिनं सातिजह, तए णं ते तुब्भे अदिनं गेण्हमाणा, अदिन्नं भुंजमाणा, अदिनं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं असंजय-विरय. जाव एगंतबाला यावि भवह। सप्तम उद्देशक. १. ते काले अने ते समये राजगृह नामे नगर हतुं. वर्णन. गुणसिलक चैत्य हतुं. वर्णन. यावत् पृथिवीशिलापट्टक हतो. ते गुणसिलक चैत्यनी आसपास थोडे दूर घणा अन्यतीर्थिको रहे छे. ते काले-ते समये श्रमण भगवान् महावीर, तीर्थनी आदिना करनारा अन्यत्यधिको बने यावत् समोसर्या, यावत् परिषद् विसर्जित थइ. ते काले-ते समये श्रमण भगवंत महावीरना घणा शिष्यो, स्थविर भगवंतो जातिसंपन्न, साव कुलसंपन्न-इत्यादि जेम बीजा *शतकमां वर्णव्या छे तेवा, यावद् जीवितनी आशा अने मरणना भयथी रहित हता, अने श्रमण भगवंत महावीरनी आसपास उंचा ढींचण करी नीचे मस्तक नमावी, ध्यानरूप कोष्टने प्राप्त थयेला, तेओ संयम अने तप वडे आत्माने भावित करता यावत् विहरे छे. २. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिको ज्यां स्थविर भगवंतो छे त्यां आवे छे, अने त्यां आवीने तेओए ते स्थविर भगवंतोने एम का के- सम्यवीपिको. 'हे आर्यो ! तमे त्रिविधे त्रिविधे असंयत, अविरत अने अप्रतिहत पापकर्मवाळा छो'-इत्यादि जेम सातमा शतकना बीजा उद्देशकमां विवि त्रिविणे कह्या प्रमाणे यावत् एकांत बाल-अज्ञ छो. ३. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कयु के, हे आर्यो ! अमे क्या कारणथी त्रिविधे त्रिविधे असंयत, अविरत स्वबिरो“ यावद् एकांत बाल छीए. ४. त्यार बाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कडं के, हे आर्यो ! तमे अदत्त (कोइए नहीं आपेल) पदार्थ- ग्रहण करो छो, अदत्त पदार्थने खाओ छो अने अदत्तनो खाद लो छो-अर्थात् [ग्रहणादिकनी] अनुमति आपो छो, तेथी अदत्तनुं ग्रहण भिषिचे निवित मयत बोबाद करता, अदत्तने जमता अने अदत्तनी अनुमति आपता तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत, अने अविरत यावद् एकांत बाल पण छो. १ तुम्हे णं क, तुझे गं छ। २ तुम्मे क.। १.. भग.प्र.सं. पृ. २७८. श. १. उ.५.पं. १. १२ भ. सू. भिग. ह.बं. श... उ. २. सू. १.६८. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ७. ५.सए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे अदिण्णं गेण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, अदिन्नं सातिजामो? ए णं अम्हे अदिन्नं मेण्हमाणा, जाव अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव पगंतबाला यावि भवामो? ६. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्हाणं अजो! दिजमाणे अदिने, पडिग्गहेजमाणे अपडिग्गहिए, निस्सरिजमाणे अणिसिटे; तुम्भं णं अज्जो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरिजा, गाहावइस्स णं तं, नो खलु तं तुभं; तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हह, जाव अदिन्नं सातिजह; तए णं तुम्मे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतवाला यांवि भवह । ७. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, अदिषं सातिजामो; अम्हे गं अजो! दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं सातिजामो । तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा, दिनं भुंजमाणा दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहय० जहा सत्तमसए जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। ८. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! तुम्हे दिन्नं गेण्हह, जाव दिन्नं सातिजह, जए गं तुम्मे दिन्नं गेण्हमाणा, जाव एगंतपंडिया यावि भवह ? ९. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-अम्हे (म्ह) णं अजो! दिजमाणे दिन्ने, पडिग्गाहिजमाणे पडिग्गहिए, निस्सरिजमाणे निसिढे अम्हं णं अजो! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं पत्थ णं अंतरा केइ अवहरेजा, अम्हं णं तं, नो खलु तं गाहावइस्स; तए णं अम्हे दिन्नं गेहामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा, जाप दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव पगंतपंडिया वि भवामो । तुब्भे गं अजो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय० जाव एगंतवाला यावि भवह । सविरो. शा कारणथी अमे अदत्त ग्रहण करीए छी। ५. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम का के, हे आर्यों! क्या कारणथी अमे अदत्तनुं ग्रहण करीए छीए, अदत्तनुं भोजन करीए छीए अने अदत्तनी अनुमति आपीए छीए के जेथी अदत्तने ग्रहण करता, यावत् अदत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिविध त्रिविधे असंयत, यावत् एकांत बाल छीए ! A.. बन्यवीथिको ६. स्यार बाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कह्यु के, हे आर्यो! तमारा मतमा अपातुं होय ते आपलं नथी, ग्रहण करातुं होय ते ग्रहण करायेलं नथी, [ पात्रमा ] नंखातुं होय ते नंखायेलं नथी. हे आर्यो ! तमने आपवामां आवतो पदार्थ ज्यां सुधी पात्रमा पड्यो नथी, तेवामां वचमाथीज ते पदार्थने कोइ अपहरण करे तो ते गृहपतिना पदार्थ- अपहरण थयु एम कहेवाय, पण तमारा पदार्थर्नु अपहरण थयु एम न कहेवाय, तेथी तमे अदत्तनुं ग्रहण करोछो, यावद् अदत्तनी अनुमति आपो छो, माटे अदत्तनुं ग्रहण करता तमे यावत् एकांत अज्ञ छो. सविरो. ७. त्यार पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कयुं के हे आर्यो ! अमे अदत्तनुं ग्रहण करता नथी, अदत्तनुं भोजन करता नथी अने अदत्तनी अनुमति पण आपता नथी, हे आर्यो ! अमे दत्तनु-आपेल पदार्थ- ग्रहण करीए छीए, दत्तनुं भोजन करीए छीए, अने दत्तनी अनुमति आपीए छीए, माटे दत्तनुं ग्रहण करता, दत्तनुं भोजन करता अने दत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिग्धि त्रिविधे संयत, विरत अने पापकर्मनो नाश करवावाळा *सप्तम शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् एकांत पंडित छीए. अन्यवीथिको ८. त्यार बाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कडं के, हे आर्यो ! तमे क्या कारणथी दत्तनुं ग्रहण करो छो, यावत् दत्तनी अनुमति आपो छो, जेथी दत्तनुं ग्रहण करता तमे यावद् एकांत पंडित छो ! सविरो. ९. ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे कडं के हे आर्यो ! अमारा मतमां अपातुं ते अपायेलं, ग्रहण करातु ते ग्रहण करायलं, अने [पात्रमा ] नंखातुं ते खायेलुं छे, जेथी हे आर्यो ! अमने देवातो पदार्थ ज्यांसुधी पात्रमा नथी पड्यो तेवामा वचमां कोइ ते पदार्थनो अपहार करे तो ते अमारा पदार्थनो अपहार थयो एम कहेवाय, पण ते गृहपतिना पदार्थनो अपहार थयो एम न कहेवाय, माटे अमे दत्तनुं ग्रहण करीए छीए, दत्त भोजन करीए छीए, अने दत्तनी अनुमति आपीए छीए, तेथी दत्तनुं ग्रहण करता, यावत् दत्तनी अनुमति आपता अमे त्रिविध त्रिविधे संयत, यावद् एकांत पंडित पण छीए. हे आर्यो ! तमे पोतेज त्रिविध त्रिविघे असंयत यावद् एकांत बाल छो. तपणं क२ जए णं घ। ३ तुझे णं घ। ५. भग. तृ. खं.पृ. ७ श. ७.उ. २. सू... . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ९१ १०. तए गं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं जाव एगंतयाला यावि मवामो? ___११. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुम्भे णं अजो! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुजह, अदिषं सातिजह; तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हमाणा, जाव एगंतवाला यावि भवह । १२. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, जाव एगंतवाला या वि भवामो? १३. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुम्भे (भ) णं अजो ! दिजमाणे अदिने, तं चेव जाव गाहावास्स णं तं, णो खलु तं तुब्भं; तए णं तुज्झे अदिन्नं गेण्हह, तं चेव जाव एगंतवाला यावि भवह । १४. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव पगंतबाला यावि भवह। १५. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो? १६. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अजो! रीयं रीयमाणा पुढवि पेचेह, अभिहणह, वत्तेह, लेसेह, संघाएह संघट्टेह परित्तावेह, किलामेह, उद्दवेह; तए णं तुम्भे पुढविं पेञ्चेमाणा, अभिहणमाणा जाव उद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणूं असंजय-विरय० जाव एगंतवाला यावि भवह । १७. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं पञ्चामो, अभिहणामो, जाव उवद्दवेमो; अम्हे णं अजो! रीयं रीयमाणा कायं वा, जोयं वा, रियं वा पडुच्च देसं देसणं वयामो, पएसं पएसेणं वयामो; तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएस परसेणं वयमाणा नो पुढविं पेञ्चेमो, अभिहणामो, जाव उवद्दवेमो; तए पं अम्हे पुढवि अपेञ्चेमाणा, अणभिहणेमाणा, जाव अणुवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। तुब्भेणं अजो! अप्पणा चेव विविहं तिविहेणं अस्संजय जाव वाला यावि भवह । धन्यवीषिको स्थविरो. अन्यनीधिको स्थविरो. मन्यवीधिको १०. त्यार बाद ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम का के, हे आर्यो ! क्या कारणथी अमे त्रिविध त्रिविघे यावद् एकांत बाल छीए! ११. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कडं के, हे आर्यो ! तमे अदत्तनुं ग्रहण करो छो, अदत्तनुं भोजन करो छो अने अदत्तनी अनुमति आपो छो माटे अदत्तनुं ग्रहण करता तमे यावद् एकांत बाल छो. १२. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम का के, हे आर्यों! अमे क्या कारणथी अदत्तनुं ग्रहण करीए छीए, यावद् एकांत बाल छीए ! १३. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीथिकोने एम का के, हे आर्यो! तमारा मतमा अपातुं ते अपायेलं नथी-इत्यादि पूर्वनी पेठे कहे. यावद् ते वस्तु गृहपतिनी छे, पण तमारी नथी, माटे तमे अदत्तनुं ग्रहण करो छो, यावद् पूर्व प्रमाणे तमे एकांत बाल छो. १४. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कडं के, हे आर्यो ! तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत यावद् एकांत बाल छो.. १५. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कडं के, हे आर्यो ! अमे क्या कारणथी त्रिविध त्रिविधे यावद् एकांत बाल छीए ! १६. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम का के, हे आर्यों ! तमे गति करता पृथिवीना जीवने दबावो छो, हणो छो, पादाभिघात करो छो, श्लिष्ट (संघर्षित) करो छो, संहत-एकठा करो छो, संघट्टित-स्पर्शित करो छो, परितापित करो छो, क्वांत करो छो अने तेओने मारो छो; तेथी पृथिवीना जीवने दबावता, यावत् मारता तमे त्रिविध त्रिविधे असंयत, अविरत अने यावद् एकांत बाल पण छो. १७. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कयुं के, हे आर्यो ! गति करता अमे पृथिवीना जीवने दबावता नथी, हणता नथी, यावत् तेओने मारता नथी, हे आर्यो ! गति करता अमे कायना (शरीरना ) कार्यने आश्रयी, योगने (ग्लानादिनी सेवाने) आश्रयी अने सत्यने (जीवरक्षणरूप संयमने ) आश्रयी एक स्थळेथी बीजे स्थळे जइए छीए, एक प्रदेशथी बीजे प्रदेशे जइए छीए, तो एक स्थळेची बीजे स्थळे जता अने एक प्रदेशथी बीजे प्रदेशे जता अमे प्रथिवीना जीवने दबावता नथी. तेओने हणता नथी. यावत ते मारता नथी; तेथी पृथिवीना जीवोने नहि दबावता, नहीं हणता, यावत् नहीं मारता अमे त्रिविध त्रिविधे संयत, यावद् एकांत पंडित छीए. हे आर्यो ! तमे पोतेज त्रिविध त्रिविधे असंयत यावद् एकांत बाल पण छो. सविरो. अन्यदीर्षिको सविरो. तुझे गं घ। २ तुज्झे घ। ३ धेरे भगवंते ते घ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक .. १८. तए णं ते अन्नउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपाला यावि भवामो ? १९. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासो-तुम्भे णं अजो! रीयं रीयमाणा पुढविं पेयेह, जाव उवहवेहतए णं तुम्भे पुढवि पेच्चेमाणा, जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह । २०. तए णं ते अन्नउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे (भं) णं अज्जो ! गम्ममाणे अगते, बीतिकमिजमणे अवीतिकते, रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते। २१. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हं गम्ममाणे अगए, वीतिकमिजमाणे अवीतिकते, रायगिह नगरं जाव असंपत्ते; अम्हंणं अजो! गम्ममाणे गए, वीतिकमिजमाणे वीतिकंते, रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्तेः तुभं णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगए, वीतिकमिजमाणे अवीतिकंते, रायगिह नगरं जाव असंपचे । तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नउत्थिए एवं पडिहणंति, पडिहणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पन्नवासु। २२. [प्र०] कइविहे गं भंते ! गइप्पवाए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे गइप्पवाए पन्नत्ते, तं जहा-पयोगगई, ततगई, बंधण-छेयणगई, उववायगई, विहायगती; एत्तो आरम्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियचं, जाव सेत्तं विहायगई । सेवं मंते ! सेवं भंते ! ति। अट्ठमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो । अन्ववीथिको सविरो पन्यतीथिको खविरो. १८. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कह्यु के, हे आर्यो ! क्या कारणथी अमे त्रिविध त्रिविधे यावद् एकांत बाल पण छीए! १९. त्यार बाद ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कर्दा के, हे आर्यों ! गति करता तमे पृथिवीना जीवने दबावो छो, यावत् मारो छो, माटे पृथिवीना जीवने दबावता, यावत् मारता तमे त्रिविध त्रिविधे [असंयत ] यावद् एकांत बाल छो. २०. त्यार पछी ते अन्यतीर्थिकोए ते स्थविर भगवंतोने एम कर्दा के, हे आर्यो ! तमारा (मते) गम्यमान-जे स्थळे जवातुं होय ते अगत-न जवायेलं कहेवाय, जे उल्लंघन करातुं होय ते न उल्लंघन करायेलं एम कहेवाय, अने राजगृह नगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने न प्राप्त थयु एम कहेवाय. २१. ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने एम कर्दा के, हे आर्यो ! अमारा ( मते ) गभ्यमान-जे स्थळे जवातुं होय ते अगत-न जवायेलं, व्यतिक्रम्यमाण-उल्लंघन करातुं ते अव्यतिक्रांत-उल्लंघन न करायेलं, अने राजगृहनगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने असंप्राप्त-न प्राप्त थयेलुं न कहेवाय, पण हे आर्यो ! अमारा ( मते) गम्यमान ते गत, व्यतिक्रम्यमाण ते व्यतिक्रांत अने राजगृह नगरने प्राप्त करवानी इच्छावाळाने ते संप्राप्त कहेवाय छे. तमारे मते गम्यमान ते अगत, व्यतिक्रम्यमाण ते अव्यतिक्रांत अने राजगृह नगरने यावत् प्राप्त करवानी इच्छावाळाने ते असंप्राप्त छे. ते पछी ते स्थविर भगवंतोए ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे निरुत्तर कर्या, अने निरुत्तर करीने तेओए गतिप्रपात नामे अध्ययन प्ररूप्युं. २२. प्र०] हे भगवन् ! गतिप्रपातो केटला प्रकारे कह्या छे! [उ० ] हे गौतम! गतिप्रपातो पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ प्रयोगगति, २ ततगति, ३ बंधनछेदनगति, ४ उपपातगति अने ५ विहायोगति. अहींथी आरंभीने सघळु प्रियोगपद अहीं कहे. यावत् ए प्रमाणे विहायोगति छे. हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कहीने भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] यविषपात. अष्टम शतके सप्तम उद्देशक समाप्त. २२. १ प्रयोग-सत्यमनोयोगादि व्यापार पंदर प्रकारनो छे, ते वडे मन वगेरेना पुद्गलोनी गति ते प्रयोगगति. २ तत-विस्तीर्ण गति. जेम देवदत्त पाम जाय छे, केमके आ गति विस्तारवाळी छे, माटे एटला विशेषथी प्रयोगगतिथी जूदी कही छे. ३ बन्धनना छेद पडे जे गति पाय ते बन्धनछेदगति से वीवमुक्त शरीरनी के शरीरमुक्त जीवनी जाणवी. ४ क्षेत्रादिकमा जे गति ते उपपात गति. आकाशादिका नारकादि, सिद्ध जीवो, अथवा पुगसोनी पति. ५भाकाशमा गमन करतुं ते विहायोगति. जेमके परमाणुनी लोकान्त सुधी गति थाय. प्रज्ञा. पद. १६-प. १२५-२ . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमो उद्देसो । १ १. [प्र० ] रायगिहे जाव एवं वयासी - गुरु णं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! तओ पडिणीया पता, तं जहा भायरियपडिणीए उपायपडिणी, चेरपडिणीए । 1 २. [अ०] गति णं भंते पहुच कति पडिनीया पत्ता [ड०] गोयमा तथ पडिणीचा पत्ता से जहा- लोगपडिणी, परलोगपडिणी, दुहओलोगपडिणीए । २. [प्र० ] समूहं वं भंते! पदुचं कति पडिणीया पत्ता [ड०] गोषमा । तभ पडिणीया पचता, तं जदा - कुलपडि पीप, गणपडिणी, संघपडिणीए । ४. [0] अणुकंपं पडुञ्च पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! तओ पडिणीया पद्मत्ता, तं जहा - तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणी, सेहपडिणी । ५. [ प्र० ] सुयं णं भंते! पहुच पुच्छा । [ड०] गोयमा ! तओ पडिणीया पन्नत्ता, तं जहा - सुत्तपडिणीए, अत्थपडिणीप, दुभयपडिणीए । ६. [ प्र० ] भावं णं भंते! पडुष्य पुच्छा । [अ०] गोयमा ! तओ पडिणीया पन्नत्ता, तं जहा-नाणपडिणीप, दंसणपडिपीर, चरित्रापडिणीए । अष्टम उद्देश. १. [प्र०] राजगृह नगरमां [गौतमे] यावद् ए प्रमाणे कां के हे भगवन्! गुरुओने आश्रयी केटला प्रानीको (ईपी) कक्षा के ! [30] हे गौतम! त्रण "प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे - आचार्यप्रत्यनीक, उपाध्यायप्रत्यनीक अने स्थविरप्रत्यनीक २. [ प्र० ] हे भगवन् ! गतिने आश्रयी केटला प्रत्यनीको कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रत्यनीको कथा छे, ते आ प्रमाणेइहलोकनीक, परलोकप्रत्यनीक अने उभ्यलोकप्रसानीक. २. [अ०] हे भगवन्! समूहने आधी केला प्रानीको कथा छे ! [30] हे गौतम! प्रण प्रत्यनीको कथा छे, ते आ प्रमाणे- समूहक कुठप्रमनीक, गणवनीक अने पानीक ४. [प्र०]. हे भगवन् ! अनुकंपाने आश्रयी प्रश्न; अर्थात् केटला प्रत्यनीको कह्या छे ? [अ०] हे गौतम! अनुकंपाने आश्रयी ऋण अनुकंपा प्रत्यनीक प्रत्यनीको कथा छे, ते आ प्रमाणे – तपखिप्रत्यनीक, ग्लानप्रत्यनीक अने शैक्षप्रत्यनीक. ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! श्रुतने आश्रयी प्रश्न. [30] हे गौतम ! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे सूत्रप्रत्यनीक, अर्थप्रत्य - नीक अने तदुभयसनीक. ६. [प्र० ] हे भगवन् भावने आश्रयी प्रश्न. [उ०] हे गौतम! त्रण प्रत्यनीको कह्या छे, ते आ प्रमाणे ज्ञानप्रत्यनीक, दर्शनप्रत्यनीक अने चारित्रप्रत्यनीक. १. * प्रत्यनीक-विरोधी अथवा द्वेषी. आचार्य, उपाध्याय अने स्थविरनो द्वेषी होय. स्थविर - उम्मर, श्रुत अथवा दीक्षा पर्याये जे साधु मोटो होय ते. टीका. ५. मनुष्यत्वादि गतिने आधी प्रपनीको से १ रोमां इन्द्रियाविषयी प्रतिकूल अनावरण करनार लोकप्रानीय + १ इन्द्रियना विषयमा तत्पर ते परलोकप्रत्यनीक भने चौर्यादिकवडे इन्द्रियना विषयोमां तत्पर ते उभयलोकप्रत्यनीक. टीका. गतिप्रत्यनीक क्षमस्वनीक. मानमवनी. / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ८. ७. प्र०] कइविहे गं भंते ! ववहारे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे ववहारे पन्नते, तं जहा-यागमे, सुतं, आणा, धारणा, जीए । जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेजा; णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुते सिया, सुरणं ववहारं पट्टवेजा । णो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेजा; णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेजा; णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्टवेजा; इच्चेपहिं पंचहिं ववहारं पटुवेजा, तं जहा-आगमेणं, सुएणं, आणाए, धारणाए, जीएणं, जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेजा। ८. [प्र० से किमाहु भंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा? [उ.1 इच्चेतं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तहा तहा तहिं तहिं आणिस्सियोवसितं सम्मं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ । ९. [प्र.] कइविहे गं भंते! बंधे पण्णत्ते? [उ०] गोयमा! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-इरियावहियाबंधे य संपराइयधंधे य। १०. [प्र०] इरियावहियं णं भंते ! कम्मं कि नेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मणुस्सो बंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ ? [उ०] गोयमा! नो नेरइओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिओ बंधद, नो देवो बंधा, नो देवी बंधइ । पुचपडिवन्नए पडुश्च मणुस्सा य मणुस्सीओ य वंधति, पडिवजमाणए पडुच्च १ मणुस्सो वा बंधद, २ मगुस्सी वा बंधद. ३ मणुस्सा वा बंधंति, ४ मणुस्तीओ वा बंधंति, ५ अहवा मणुस्सो य मणुस्सी य बंधइ, ६ अहवा मणुस्सो य मणुस्सीओ य बंधति, ७ अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधति, ८ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधति । व्यवहार व्यवहारतुं फळ. ऐयोपथिक बने सापरायिक बंध. ऐयोपथिक बंधना खामी. ७. [प्र०] हे भगवन् ! व्यवहार केटला प्रकारनो कह्यो छे[उ०] हे गौतम ! व्यवहार पांच प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ *आगमव्यवहार, २ श्रुतव्यवहार, ३ आज्ञाव्यवहार, ४ धारणाव्यवहार अने ५ जीतव्यवहार. ते पांच प्रकारना व्यवहारमा तेनी पासे जे प्रकारे आगम होय ते प्रकारे तेणे आगमी व्यवहार चलाववो, तेमां जो आगम न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे श्रुत होय ते श्रुत वडे व्यवहार चलाववो, अथवा जो तेमां श्रुत न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे आज्ञा होय ते प्रकारे तेणे आज्ञावडे व्यवहार चलाववो. जो तेमा आज्ञा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे धारणा होय ते प्रकारे धारणा वडे तेणे व्यवहार चलाववो. जो तेमां धारणा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे जीत होय ते प्रकारे तेणे जीत वडे व्यवहार चलाववो. ए प्रमाणे ए पांच व्यवहारो वडे व्यवहार चलाववो, ते आ प्रमाणे-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत वडे जे जे प्रकारे तेनी पासे आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत होय ते ते प्रकारे तेणे व्यवहार चलाववो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! आगमना बलवाळा श्रमण निग्रंथो शुं कहे छे ? अर्थात् पंचविध व्यवहारतुं फल शुं कहे छे! [उ०] ए प्रकारे व प्रकारना व्यवहारने ज्यारे ज्यारे अने ज्या ज्यां (उचित होय ) त्यारे त्यारे त्या त्या अनिश्रोपश्रित-राग द्वेषना त्यागपूर्वक सारीरीते व्यवहरतो श्रमण निग्रंथ आज्ञानो आराधक थाय छे. ९. प्र०] हे भगवन् ! बन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे गौतम ! बन्ध बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-ऐर्यापथिकबन्ध अने सांपरायिक बन्ध. १०. [प्र०] हे भगवन् ! ऐर्यापथिक कर्म शुं १ नारक बांधे, २ तिर्यंच बांधे, ३ तिर्यच स्त्री बांधे, ४ मनुष्य बांधे, ५ मनुष्यत्री बांधे, ६ देव बांधे के ७ देवी बांधे ? [उ०] हे गौतम ! १ नारक बांधतो नथी, २ तियेच बांधतो नथी, ३ तिर्यचस्त्री बांधती नथी, ४ देव बांधतो नथी अने ५ देवी बांधती नथी; पण 'पूर्वप्रतिपन्नने आश्रयी मनुष्यो अने मनुष्य स्त्रीओ बांधे छे. प्रतिपद्यमानने आश्रयी १ मनुष्य बांधे छे. २ अथवा मनुष्यस्त्री बांधे छे. ३ अथवा मनुष्यो बांधे छे. ४ अथवा मनुष्यस्त्रीओ बांधे छे; ५ अथवा मनुष्य अने मनुष्यस्त्री बांधे छे. ६ अथवा मनुष्य अने मनुष्यस्त्रीओ बांधे छे. ७ अथवा मनुष्यो अने मनुष्यत्री बांधे छे. ८ अथवा मनुष्यो अने मनुष्यस्वीओ बांधे छे. ७. * व्यवहार एटले मुमुक्षुनी प्रवृत्ति, तेनुं कारण जे ज्ञान ते पण व्यवहार कहेवाय छे. १ भागम-केवलज्ञान, मनःपर्यव, अवधिज्ञान, चउद पूर्व, दश पूर्व अने नव पूर्व. २ श्रुत-आचारकल्पादि, ३ आज्ञा-अगीतार्थनी पासे गूढअर्थवाळा पदो वडे बीजा देशमा रहेला गीतार्थने निवेदन करवा माटे अतीचारनी आलोचना लेवी अने ते प्रमाणे बीजाना दोषनी पण शुद्धि करवी. ४ धारणा-गीतार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल भने भावनो विचार करी जे दोषनी जे शुद्धि करी होय तेने अबधारीने वैयावच करनारा वगेरेने प्रायश्चित्त आपवू. ५जीत-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिनी अपेक्षाए शारीरिक बल, धैर्य वगेरेनी हानिनो विचार करी प्रायश्चित्त आप. विशेष माटे जुओ भ. टी. प. ३८४-२. १०. जेणे पूर्व ऐपिथिक बन्ध को होय ते पूर्वप्रतिपन कहेवाय छ, अर्थात् ऐयापथिक बन्धना बीजा, त्रीजा वगेरे समयमा वर्तमान होय ते. तेवा धणा पुरुषो भने स्त्रीओ होय छे. केमके बन्ने प्रकारना केवलिओ हमेशां होय छे, ऐर्यापथिक कर्मना बन्धक वीतराग-उपशान्त मोह, क्षीणमोह, अने सयोगि केवली गुणस्थानके वर्तता होय छे. ऐयापथिकबन्धना प्रथम समये जेओ वर्तता होय ते प्रतिपद्यमान कहेवाय छे, अने तेओनो विरह संभवित होवाथी मनुष्य भने मनुष्यत्री एक एकना संयोगे अने एक ने बहुना योगे चार विकल्प थाय छे. द्विकसंयोगे पण चार विकल्पो थाय छे. ए प्रमाणे सर्वमळीने आठ विकल्पो थाय छे.-टीका. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११. [प्र०] तं भंते ! किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, नपुंसगो बंधइ; इत्थीओ बंधति, पुरिसा बंधति, नपुंसगा बंधति; नोइत्थी, नोपुरिसो, नोनपुंसगो बंधइ ? [उ०] गोयमा नोइत्थी बंधइ, नोपुरिसो बंधइ, जाव नोनपुंसगो बंधइ; पुवपडिवन्नए पहुंच अवगयवेदा वा बंधति, पडिवजमाणए पडुच्च अवगयवेदो वा वंधति अवगयवेदा वा बंधंति । १२. [प्र०] जइ भंते ! अवगयवेदो या बंधइ, अवगयवेदा वा बंधंति तं भंते ! किं १ इत्थीपच्छाकडो बंधइ, २ पुरिसपच्छाकडो बंधइ, ३ नपुंसगपच्छाकडो बंधइ, ४ इत्थीपच्छाकडा बंधंति ५ पुरिसपच्छाकडा बंधंति, ६ नपुंसगपच्छाकडा बंधति; उदाहु इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधति, इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडा य बंधंति ४, उदाहु इत्थीपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडो य वंधइ ४, उदाहु पुरिसपच्छाकडो य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ४, उदाहु इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ८; एवं एते छचीसं भंगा, जाव उदाहु इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति ? [उ०] गोयमा ! १ इत्थीपच्छाकडो वि बंधइ, २ पुरिसपच्छाकडो वि बंधइ, ३ नपुंसगपच्छाकडो वि बंधइ; ४ इत्थीपच्छाकडा वि वंधति, ५ पुरिसपच्छाकडा वि बंधंति, ६ नपुंसगपच्छाकडा वि बंधंति; ७ अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ, एवं एए चेव छच्चीसं भंगा भाणियचा, जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसकपच्छाकडा य बंधति । १३. [प्र०] तं भंते ! किं १ बंधी बंधइ बंधिस्सइ, २ बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, ३ बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, ४ बंधी न बंधा न बंधिस्सइ, ५ न बंधी बंधइ बंधिस्सइ, ६ न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, ७ न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, ८ न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? [उ०] गोयमा! भवागरिसं पडुश्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सवं जाव अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, एवं जाव अत्थेगतिए न बंधी बंधइ बंधिस्सइ, णो चेव णं न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए न बंधी न बंधड बंधिस्सइ, अत्यंगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । ११. [प्र०] हे भगवन् ! ते ऐर्यापथिक कर्मने शु १ स्त्री बांधे, २ पुरुष बांधे, ३ नपुंसक बांधे, ४ स्त्रीओ बांधे, ५ पुरुषो बांधे, ऐपिथिकर्म वेद ६ नपुंसको बांधे, ७ नोस्त्री, नोपुरुष, के नोनपुंसक बांधे ! [उ०] हे गौतम ! स्त्री न बांधे, पुरुष न बांधे, यावद् नपुंसको न बांघे; अथवा पूर्वप्रतिपन्नने आश्रयी वेदरहित जीवो बांधे, अथवा प्रतिपद्यमानने आश्रयी वेदरहित जीव अथवा वेदरहित जीवो बांधे. १२. प्र०] हे भगवन् ! जो वेदरहित जीव या वेदरहित जीवो ऐपिथिक कर्मने बांधे तो शुं १ स्त्रीपश्चात्कृत (जेने पूर्वे स्त्रीवेद स्त्रीपश्चात्कृतादि पा. होय एवो) जीव वांधे, २ पुरुषपश्चात्कृत (जेने पूर्वे पुरुषवेद होय एवो) जीव बांधे, ३ नपुंसकपश्चात्कृत (जेने पूर्वे नपुंसक वेद होय एवो) जीव बांधे, ४ स्त्रीपश्चात्कृत जीवो बांधे, ५ पुरुषपश्चात्कृत जीवो बांधे, के ६ नपुंसकपश्चात्कृत जीवो बांधे ४ अथवा स्त्रीपश्चात्कृत अने पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधे ? स्त्रीपश्चात्कृत अने पुरुषपश्चात्कृत जीवो बांधे ? ४ अथवा स्त्रीपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत बांधे ? ४ अथवा पुरुषपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत बांधे ? ८ अथवा स्त्रीपश्चात्कृत, पुरुषपश्चात्कृत अने नपुंसकपश्चात्कृत पण कहेवा. ए प्रमाणे ए छन्वीश भंगो जाणवा, यावत् अथवा स्त्रीपश्चात्कृतो, पुरुषपश्चात्कृतो अने नपुंसकपश्चात्कृतो बांधे ? [उ०] हे गौतम ! १ स्त्रीपश्चात्कृत पण बांधे. २ पुरुषपश्चात्कृत पण बांधे अने ३ नपुंसकपश्चात्कृत पण बांधे ४ स्त्रीपश्चात्कृतो बांधे, ५ पुरुषपश्चात्कृतो बांधे अने ६ नपुंसकपश्चात्कृतो पण बांधे, अथवा ७ स्त्रीपश्चात्कृतो अने पुरुषपश्चात्कृतो बांधे, ए प्रमाणे ए छन्वीश भांगा कहेवा. यावत् अथवा स्त्रीपश्चात्कृतो, पुरुषपश्चात्कृतो अने नपुंसकपश्चात्कृतो बांधे. ऐपिथिक कम संबंधे भांगा. १३. [प्र०] हे भगवन् ! ते (ऐर्यापथिक कर्मने) कोइए शुं बांध्यु छे, बांधे छे, अने बांधशे; २ बांध्यु छे, बांधे छे अने नहीं बांधे; ३ बांध्यु छे, बांधतो नथी अने बांधशे; ४ बांध्यु छे, बांधतो नथी अने नहि बांधे; ५ बांध्युं नथी बांधे छे अने बांधशे; ६ बांध्यु नथी, बांधे छे अने नहि बांधे; ७ बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे; ८ बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नही ! [उ०] हे गौतम ! *भवाकर्षने आश्रयी कोइ एके बांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे; कोइ एके बांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे नहीं; ए रीते बधुं ते प्रमाणे ज जाणवू, यावत् कोइ एके बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं. ग्रहणाकर्षने आश्रयी कोइ एके बांध्युं छे, बांधे छे अने बांधशे. ए प्रमाणे यावत् कोइ एके बांध्यु नथी, बांधे छे अने बांधशे; पण 'बांध्यु नथी, बांधे छे अने बांधशे नहीं' ए भांगो नथी. कोइ एके बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे; कोई एके बांध्यु नथी, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं. १३. * अनेक भवने विषे उपशमश्रेण्यादिनी प्राप्तिथी ऐर्यापथिक कर्मपुद्गलोर्नु आकर्ष-ग्रहण करवू ते भवाकर्ष, अने एक भवने विषे ऐपिथिक कर्मपुद्गलोर्नु प्रहण करवू ते प्रहणाकर्ष-टीका. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रारायचन्द्र-जनागमसग्रह 'शतक ८-उद्दशकट १४. [प्र०] तं भंते ! किं साइयं सपजवसियं बंधइ, साइयं अपजवसियं बंधइ, अणाइयं सपजवसियं बंधइ, अणाइयं अपजवसियं बंधा ? [उ०] गोयमा! साइयं सपजवसियं बंधइ, नो साइयं अपजवसियं बंधह, नो अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ, नो अणाइअं अपजवसियं बंधइ । १५. [प्र०] तं भंते ! किं देसेणं देस बंधइ, देसेणं सच्चं बंधइ, सघेणं देसं बंधइ, सवेणं सचं बंधइ ? [उ०] गोयमा! नो देसेणं देसं बंधइ, नो देसेणं सवं बंधइ, नो सघेणं देसं बंधइ, सघेणं सव्वं वंधइ। . १६. प्र० संपराइयं णं भंते! कम्मं किं नेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, जाव देवी बंध? [उ.] गोयमा! नेरइओ वि बंधइ, तिरिक्खजोणिओ वि बंधइ, तिरिक्खजोणिणी वि बंधइ मणुस्सो वि बंधइ, मणुस्सी वि बंधइ, देवो वि बंधइ, देवी वि बंधइ। १७. [प्र०] तं भंते ! किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ; तहेव जाव नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसगो बंधइ ? [उ.] गोयमा! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, जाव नपुंसगो वि बंधइ; अहवेए य अवगयवेदो य बंधइ, अहए य अवगयवेया य बंधंति। १८. [प्र०] जइ भंते ! अवगयवेदो य बंधइ, अवगयवेदा य वंधति तं भंते ! किं इत्थीपच्छाकडो बंधइ, पुरिसपच्छाकडो बंधइ ? [उ.1 एवं जहेव इरियावहियाबंधगस्स तहेव निरवसेसं, जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति । १९. [प्र०] तं भंते ! किं १ बंधी बंधइ बंधिस्सइ, २ बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, ३ बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, ४ बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? [उ०] गोयमा! १ अत्थेगतिए बंधी वंधइ बंधिस्सइ, २ अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, ३ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, ४ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ । ऐयोपथिक कर्मसंबंधे १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते (ऐर्यापथिक कर्म ) शुं १ सादि सपर्यवसित बांधे, २ सादि अपर्यवसित बांधे, ३ अनादि सपर्यवसित यवसितादि बांधे के ४ अनादि अपर्यवसित बांधेउ०] हे गौतम ! सादि सपर्यवसित बांधे पण सादि अपर्यवसित न बांधे, तेम अनादि सपर्यवसित भंग. अने अनादि अपर्यवसित न बांधे. देशी देशने बांधे? इत्यादि प्रश्न... सर्वथी सर्वने बांधे छे. १५. [अ०] हे भगवन् ! ते (ऐयापथिक ) कर्मने शुं "देशथी देशने बांधे, देशथी सर्वने बांधे, सर्वथी देशने बांधे, के सर्वथी सर्वने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! देशथी देशने बांधतो नथी, देशथी सर्वने बांधतो नथी, सर्वथी देशने बांधतो नथी, पण सर्वथी सर्वने बांधे छे. सापरायिककर्मबंधन स्वामी. १६. [प्र०] हे भगवन् ! सांपरायिक कर्म शुं नारक बांधे, तिथंच बांधे, यावद् देवी बांधे ! [उ०] हे गौतम! नैरयिक पण बांधे. तिर्यच पण बांधे, तिर्यंचस्त्री पण बांधे, मनुष्य पण बांधे, मनुष्यत्री पण बांधे, देव पण बांधे अने देवी पण बांधे. सीवगेरे बांधे. १७. प्र०] हे भगवन् ! शुं सांपरायिक कर्मने स्त्री बांधे, पुरुष बांधे, तेमज यावत् नोस्त्री, नोपुरुष अने नोनपुंसक बांधे ! [उ०] हे गौतम ! स्त्री पण बांधे, पुरुष पण बांधे, यावद् नपुंसक पण बांधे; अथवा एओ अने वेदरहित स्त्री वगेरे एक जीव पण बांधे, अथवा एओ अने वेदरहित अनेक जीवो पण बांधे.. स्त्रीपश्चात्कृतादि बांधे १८. [प्र०] हे भगवन् ! (सांपरायिक कर्मने) जो वेदरहितजीव अने वेदरहितजीवो बांधे तो शुं स्त्रीपश्चात्कृत बांधे के पुरुषपश्चात्कृत बांधे ! इत्यादि. [उ०] ए प्रमाणे जेम ऐर्यापथिकना बंधकने कडं (सू. १२.) तेम अहीं सर्व जाणवं, अथवा स्त्रीपश्चात्कृत जीवो, पुरुषपश्चात्कृत जीवो अने नपुंसकपश्चात्कृत जीवो बांधे छे. मांसायिक कर्मको १९. [प्र०] हे भगवन् ! शु कोइए सांपरायिक कर्मने १ बाध्यु, बांधे छे अने बांधशे; २ बांध्यु, बांधे छे अने बांधशे नहीं. ३ ध्युं, बांधे छे अने बांध्यु, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं; ४ बांध्यु, बांधतो नथी अने बांधशे नहीं : उ०] हे गौतम! १ केटला एके बांध्यु छे, बांधे छे अने पांधशे-ते संबन्धे मंगो. बांधशे; २ केटला एके बांध्यु छे, बांधे छे अने बांधशे नहीं; ३ केटला एके बांध्यु, बांधता नथी अने बांधशे; ४ केटला एके बांध्युं, बांधता. नथी अने बांधशे नहीं. १५.* जीवना देशथी-अमुक अंशथी, कर्मना देशने-अमुक अंशने बांधे ? इत्यादि प्रश्न-टीका. Jain Education international Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०. प्रगतं भंते! किं साइयं सपजवसियं बंधइ ?--पुच्छा तहेव । [उ.] गोयमा! साइयं वा सपजवसियं बंधइ, अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ, णो चेव णं साइयं अपजवसियं बंधद । २१. [प्र०] तं भंते ! किं देसेणं देसं बंधइ ? [उ०] एवं जहेव इरियावहियाबंधगस्स, जाव सघेणं सचं बंधइ । २२. [प्र०] कइ णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-णाणावरणिजं, जाव अंतराइयं । २३. [प्र०] कइ णं भंते ! परिसहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! बावीसं परिसहा पन्नत्ता, तं जहा-दिगिंछापरिसहे, पिवासापरिसहे, जाव दंसणपरिसहे। २४. [प्र०] एए णं भंते ! बावीसं परिसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ? [उ०] गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोयरंति, तं जहा नाणावरणिजे, वेयणिजे, मोहणिजे, अंतराइए। २५. [प्र०] नाणावरणिजे णं भंते ! कम्मे कति परिसहा समोयरंति ? [उ.] गोयमा! दो परिसहा समोयरंति, तं जहा-पन्नापरिसहे नाणपरिसहे य । २६. [प्र०] वेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परिसहा समोयरंति ? [उ०] गोयमा! एक्कारस परिसहा समोयरंति, तं जहा "पंचेव आणुपुची चरिया सेजा वहे य रोगे य । तणफास-जल्लमेव य एकारस वेदणिजम्मि" ॥ २७. [प्र०] दंसणमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कति परिसहा समोयरंति ? [उ०] गोयमा ! एगे दंसणपरिसहे समोयरइ। २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते (सांपरायिक कर्मने) शुं सादि सपर्यवसित बांधे छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! १ सादि सपर्य- 'सा' इसपर्यवसि आदि मांगा. वसित बांधे छे; २ अनादि सपर्यवसित बांधे छे, ३ अनादि अपर्यवसित बांधे छे; पण सादि अपर्यवसित बांधतो नथी. २१. [प्र०] हे भगवन् (सांपरायिक कर्मने) शुं देशथी (जीवना देशथी) देशने (कर्मना देशने) बांधे छे? इत्यादि. [उ०] जेम ऐर्यापथिकबंधक संबन्धे कह्यु [सू. १५.] तेम जाणवू, यावत् 'सर्वथी सर्वने बांधे छे.' देशथी देशने वांधे। कर्मप्रकृतिओ. २२. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मप्रकृतिओ केटला प्रकारे कही छे ? [उ.] हे गौतम! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणे- ज्ञानावरणीय, यावद् अंतराय. परिषहो. २३. [प्र०] हे भगवन् ! केटला परीषहो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! बावीश परीषहो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, यावद् दर्शनपरीषह. २४. [प्र०] हे भगवन् ! बावीश परीषहोनो केटली कर्मप्रकृतिओमी समवतार थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते बावीश परीषहोनो चार परिषदोनो कर्म प्रकृतिओमा समकर्मप्रकृतिमां समवतार थाय छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय अने अंतराय. वतार. २५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्ममां केटला परीषहोनो समवतार थाय ! [उ०] हे गौमत ! बे परीषहोनो समवतार थाय छे; पानावरणीय कर्म मा समवतार. ते आ प्रमाणे-प्रज्ञापरीषह अने *ज्ञानपरीषह. वेदनीय कर्ममा २६. [प्र०] हे भगवन् ! वेदनीयकर्ममा केटला परीषहोनो समवतार थाय छे ? [उ०] हे गौतम! वेदनीयकर्ममा अग्यार परीषहो समवतरे छे, ते आ प्रमाणे अनुक्रमे पहेला पांच परीषहो-(क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, अने दंशमशक.) चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श अने मलपरिषह-ए अग्यार परिषहोनो वेदनीयकर्ममा समवतार थाय छे. समवतार. २७. [प्र०] हे भगवन् ! दर्शनमोहनीयकर्ममां केटला परीषहोनो समवतार थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेमां एक दर्शन परीषहनो समवतार थाय छे. दर्शनमोहनीव कर्ममा समवतार. २५. * विशिष्ट मत्यादि ज्ञानना सद्भावे मद न करवो अने तेना अभावे दीनता न करवी ते ज्ञानपरिषह. वीजा प्रन्थोमां आ परिषहने बदले अज्ञानपरीषद्द कहेलो छे-टीका. १३ भ. सू. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयम समवतार. अन्तरायकर्ममा समवतार. सप्तविधकर्मबंध कने परिषहो. अष्टविधकर्मबन्धकने परिषहो. विधकर्मबन्ध कने परिषहो. एकविधवन्धक वीतराग छद्मथने परिपद. विधवन्धवस योगी केवलीने परिषद्दो श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.उद्देशक ८. २८. [प्र० ] चरित्तमोहणिजे णं भंते! कम्मे कति परिसहा समोयरंति ? [30] गोयमा ! सत्त परिसद्दा समोयरंति, तं जहा ९८ "अरती अचेल - इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सकार पुरस्कारे चरित्तमोहम्मि सत्तेते" ॥ २९. [प्र०] अंतराइ णं भंते! कम्मे कति परीसदा समोयरंति [ड०] गोयमा ! पगे अहानपरिसदे समोवरह । ३०. [प्र०] सत्तविहबंधगस्स णं भंते ! कति परिसहा पन्नत्ता ? [अ०] गोयमा ! बावीसं परिसद्दा पन्नत्ता, वीसं पुण वेदेइ । जं समयं सीयपरीसहं वेदेति णो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेद्द, जं समयं उसिणपरीसहं वेदे णो तं समयं सीयपरीसहं वेदेद्द, जं समयं चरियापरिसहं वेदेति णो तं समयं निसीहियापरिसहं वेदेति, जं समयं निसीहियापरीसहं वेदेह णो तं समयं चरियापरिसई बेदे । ३१. [प्र० ] अट्ठविहबंधगस्स णं भंते! कति परिसहा पन्नता ? [ड०] गोयमा ! बाचीखं परिसहा पण्णत्ता, तं जदाछुहापरीसहे, पिवासापरीसहे, सीयपरीसहे, 'दंस-मसगपरीसहे, जाव अलाभपरीसहे । एवं अट्ठविहबंधगस्सं वि । ३२. [प्र० ] छविबंधगस्स णं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परिसहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! चोद्दस परिसहा पन्नत्ता, बारस पुण वेदेश जं समयं सीयपरीसहं वेदेह णो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेश, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेह नो तं समयं सीयपरीसहं वेदे जं समयं चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं सेजापरिसदं वेदेश, जं समयं सेनापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीस वेदे । ३३. [प्र० ] एकविधगस्स णं भंते ! वीयरागछडमत्धस्स कति परीसदा पण्णत्ता १ [30] गोयमा ! एवं चेच जदेव छबंध | ३४. [प्र०] एगविहबंधगस्स णं भंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! एक्कार सपरीसहा पक्षता, नव पुण वेदेह से जहा छधिगस्स । २८. [प्र०] हे भगवन् ! चारित्रमोहनीय कर्ममां केटला परीपहो समवतरे छे ? [उ०] हे गौतम! तेमां सात परीषहो समवतरे छे, ते आ प्रमाणे- अरति, अचेल, स्त्री, * नैषेधिकी, याचना, आक्रोश अने सत्कारपुरस्कार परीषह. ए सात परीषहो चारित्रमोहमां समवतरे छे. २९. [प्र०] हे भगवन् ! अंतरायकर्ममां केटला परीपहो समवतरे छे ? [उ०] हे गौतम ! तेमां एक अलाभ परीषह समवतरे छे. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! सात प्रकारना कर्मना बांधनारने केटला परीपहो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! बावीश परीपहो कह्या छे. पण एक साथे यीश परीषहोने वेदे छे, कारण के जे समये शीतपरीपहने वेदे छे ते समये उष्णपरीवहने वेदतो नयी, अने जे समये उष्णपरीषहने वेदे छे ते समये शीतपरीषहने वेदतो नथी. तथा जे समये चर्यापरिषहने वेदे छे ते समये नैषेधिकीपरीषहने वेदतो नथी, अने जे समये नषेधिकीपरीषहने वेदे छे से समये चर्यापरीपहने वेदतो नथी. ३१. [प्र० ] हे भगवन् ! आठ प्रकारना कर्मना बांधनारने केटला परीपहो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! तेने बावीश परीपहो का छे, ते आ प्रमाणे - क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, दंशमशकपरीपह, यावद् अलाभपरीषह. ए प्रमाणे अष्टविधधकने पण सप्तविध बन्धकनी जेम जाणवु [तेने बाबीश परीषहो होय छे, अने ते एक साधे वीश परिषहोने वेदे छे.] ३२. [प्र०] हे भगवन् ! छ प्रकारना कर्मना बन्धक सरागछद्मस्थने केटला परीषहो कह्या छे ? [ उ०] हे गौतम! चौद परीषहो छे, पण ते एक साथे बार परीषहोने अनुभवे छे; कारण के जे समये शीतपरीपहने वेदे छे, ते समये उष्णपरीपहने वेदतो नथी, अने जे समये उष्णपरीपहने वेदे छे ते समये शीतपरीपहने वेदतो नथी. तथा जे समये चर्चापरिषहने वेदे छे ते समये शय्यापरीवहने वेदतो नथी, अने जे समये शय्यापरीषहने वेदे छे ते समये चर्यापरीषहने वेदतो नथी. २२. [अ०] हे भगवन् ! एक प्रकारना] कर्मना बांधनार वीतराग उद्मथने केटला परीपो कह्या छे [३०] हे गौतम! जैम छ प्रकारना कर्मना बांधनारने परिषहो कह्या छे तेम एकविधकर्मबन्धकने पण जाणवा. ३४. [प्र०) हे भगवन् ! एकविधबंधक सयोगी भवस्थ केवलानीने केला परीषहो कथा छे ? [उ० ] हे गौतम! अम्पार परीयह कहा है, तेमां साथै नव परीषहोने वेदे छे. बाकीनुं यधुंछ प्रकारना कर्मबन्धकली पेठे जाग 9 दंसपरिसहे मसग क। २स्स वि सत्तविधगस्स वि गन्ध । २०. * नैषेधिकी हादिरूप साध्यायभूमि सो जे परिषद्-उमा देवी भय न पामवो से वैध परिवहटीका. 2 / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५. [प्र०अबंधगस्स णं भंते ! अयोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! एक्कारस परीसहा पन्नत्ता, नव पुण वेदेइ । जं समयं सीयपरीसहं वेदेति नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समय सीयपरीसहं वेदेइ, जं समयं चरियापरिसहं वेदेइ नो तं समयं सेजापरीसहं वेदेति, जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेड नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ । ३६. [प्र०] जंबुद्दीचे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, मज्झंतियमुहुत्तंसि मुले य दूरे य दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? [उ०] हंता, गोयमा! जंबुद्दीवे पं. दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य, तं चेव जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मुले य दीसंति । ३७. [प्र.] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि मज्झतियमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य सवत्थ समा उच्चत्तेणं? [उ०] हंता, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण जाव उच्चत्तेणं । ३८. [प्र०] जइ णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झंतियमुहुत्तंसि, अस्थमणमुहुत्तंसि य मूले जाव उच्चत्तेणं, से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दुरे य मूले य दीसंति ? [उ०] गोयमा! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, लेसाभिता झंतियमुहुर्तसि मूले य दूरे य दीसंति, लेस्सापडिघाएणं अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति; से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति; जाव अस्थमण- जाव दीसंति ।। ३९. [प्र०] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति, अणागयं खेत्तं गच्छंति ! [उ०] गोयमा ! णो तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति, नो उ.णागयं खेत्तं गच्छंति । ४०. [प्र०] जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति, अणागयं खेत्तं ओभासंति ? (उ०] गोयमा ! नो तीय खेत्तं ओभासंति, पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासंति । ३५. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मबन्धरहित अयोगी भवस्थ केवलज्ञानीने केटला परीषहो कह्या छे! [उ०] हे गौतम! अगीयार परीषहो कमपन्धरहित कह्या छे; तेमा साथे नव परीषहोने वेदे छे; कारण के जे समये शीतपरीषहने वेदे छे ते समये उष्णपरीषहने वेदता नथी, अने जे समये अयोगी केवलीने परिषदो. उष्णपरीषहने वेदे छे ते समये शीतपरीषहने वेदता नथी. तथा जे समये चर्यापरिपहने वेदे छे ते समये शय्यापरीषहने वेदता नथी, अने जे समये शय्यापरीषहने वेदे छे ते समये चर्यापरीषहने वेदता नथी. - ३६. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपनामे द्वीपमा बे सूर्यो उगवाना समये *दूर छतां पासे देखाय छे, मध्याह्नसमये पासे छता दूर जंबूद्वीपमा स्यों दूर देखाय छे, अने आथमवाने समये दूर छतां पासे देखाय छे ? [उ०] हा, गौतम ! जंबूद्वीपमां बे सूर्यो उगवाना समये दूर छतां पासे एता देखाय छे देखाय छे-इत्यादि, यावद् आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे. . ३७. प्रि०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा बे सूर्यो उगवाना समये, मध्याह्नसमये अने आथमवाना समये सर्व स्थळे उंचाइमां सरखा सूर्यो सर्वत्र उंचा 'छे ! [उ०] हा, गौतम ! जंबूद्वीपमा रहेला वे सूर्यो उगवाना समये यावत् सर्वस्थळे उंचाइमां सिरखा छे... इमा सरखा है। ३८. [प्र०] हे भगवन् ! जो जंबूद्वीपमां बे सूर्यो उगवाना समये, मध्याह्नसमये अने आथमवाना समये यावद् उंचाइमां सरखा छे तो तेजना प्रतिषा तथी दूर छा हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के जंबूद्वीपमा बे सूर्यो उगवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, यावद् आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे. पासे देखाय छे ? [उ०] हे गौतम! लेश्याना (तेजना) प्रतिघातथी उगवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, लेश्याना-तेजना अभिता- तेजना भमिताप बी पासे छता दूर पथी मध्याह्न समये पासे छतां दूर देखाय छे, तथा लेश्याना प्रतिघातथी आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, माटे हे गौतम ! ते देखाय छे. हेतुथी एम कहेवाय छे के जंबूद्वीपमां वे सूर्यो उगवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे, याबद् आथमवाना समये दूर छतां पासे देखाय छे. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमां वे सूर्यो शुं अतीत क्षेत्र प्रति जाय छे, वर्तमान क्षेत्र प्रति जाय छे, के अनागत क्षेत्र प्रति जाय भतीत क्षेत्र प्रति छे! उ०] हे गौतम! अतीत क्षेत्र प्रति जता नथी, वर्तमान क्षेत्र प्रति जाय छे, पण अनागत क्षेत्र प्रति जता नथी. जाय छे ।-इत्यादि प्रश्न ४०. प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा बे सूर्यो शुं अतीत क्षेत्रने प्रकाशे छे. वर्तमान क्षेत्रने प्रकाशे छे के अनागत क्षेत्रने प्रकाशे भतीतक्षेत्रने प्रकाछे! [उ०] हे गौतम ! अतीत क्षेत्रने प्रकाशंता नथी, वर्तमान क्षेत्रने प्रकाशे छे, अने अनागत क्षेत्रने प्रकाशता नथी. से छे!-इत्यादि प्रश्न. वर्तमान क्षेत्रने प्रकाशे छे. ३६. * उगवाना अने आथमवाना समये द्रष्टाना स्थाननी अपेक्षाए सूर्य दूर छे पण द्रष्टाने 'नजीक छ' एम प्रतीति थाय छ, द्रष्टा उगवा अने आथमघाना समये हजारो योजन दूर सूर्यने जुए छे, अने नजीका होय एम तेने लागे छे, पण मध्याह्नसमये द्रष्टाना स्थाननी अपेक्षाए सूर्य नजीक छतां पण तेने दूर होय एम लागे छे. द्रष्टा उदय अने अस्त समयनी अपेक्षाए मध्याह्नसमये नजीक सूर्यने जुए छे, केमके ते वखते मात्र आठसो योजन- अन्तर छे, पण तेने उदय अने अस्तसमयनी अपेक्षाए दूर माने छे. तेनुं कारण (सू, ३८ मां ) बताव्युं छे.-टीका. ३७. 1 समभूतल पृथिवीनी अपेक्षाए सूर्यो सर्वत्र आठसो योजन उंचा छे-टीका. ३९. 1 अतीत क्षेत्र अतिक्रान्त करेलं होवाथी ते तरफ जतो नथी, पण वर्तमान एटले ज्या जवानुं छे ते क्षेत्र तरफ जाय छे. वळी अनागत एटले ज्यो जवाशे ए क्षेत्र तरफ पण जतो नथी.-टीका. . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ८. ____४१. [४०] तं भंते ! किं पुढे ओभासंति, अपुटुं ओभासंति ? [उ०] गोयमा ! पुढे ओभासंति, नो अपुढे बोभासंति, जाव नियमा छद्दिसिं। ४२. [प्र०] जंबुद्दीवे णं मंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोति ? [उ०] एवं खेव, जाव नियमा छदिसिं, एवं तवेंति, एवं ओभासंति, जाव नियमा छद्दिसि ।। ४३. [10] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कजइ, पडुप्पन्ने खेचे किरिया कजर, अणागए खेत्ते किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा! नो तीए खेत्ते किरिया कजइ, पडुप्पन्ने खेचे किरिया कजइ, नो अणागए खेत्ते किरिया कजह। ४४. [प्र०] सा मंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजइ ? [उ०] गोयमा ! पुट्ठा कजइ, नो अपुट्ठा कजइ, जाव नियमा छद्दिसिं। ४५. [प्र०] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उर्जा तवंति, केवतियं खेत्तं अहो तवंति, केवतियं खेत्तं तिरियं तवंति ? [उ०] गोयमा! एगं जोयणसयं उहुं तवंति; अट्ठारस जोयणसयाई अहे तवंति, सीयालीसं जोयणसहस्साई दोणि तेवढे जोयणसए एकवीसं च सट्टिभाए जोयणस्स तिरियं तवंति । ४६. [प्र०] अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरपवयस्स जे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उहोववन्नगा ? [उ०] जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा। ४७. [प्र०] बाहिया णं भंते! माणुसुत्तरस्स० ? [उ०] जहा जीवाभिगमे, जाव इंदट्ठाणे णं भंते ! केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पण्णत्ते ? गोयमा! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेण छम्मासा' । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो। स्पृष्ट क्षेत्रोने प्रका- ४१. [प्र०] हे भगवन् ! [ते सूर्यो ] स्पर्शेलां क्षेत्रने प्रकाशित करे छे के अस्पर्शेला क्षेत्रने प्रकाशित करे छे! [उ०] हे गौतम! शित करे छे. स्पर्शेलां क्षेत्रने प्रकाशे छे पण अस्पर्शेलां क्षेत्रने प्रकाशित करता नथी; यावत् अवश्य छ दिशाने प्रकाशे छे. अतीत क्षेत्रने उद्यो- ४२. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा बे सूर्यो अ॒ अतीत क्षेत्रने उयोतित करे छे ? इत्यादि. [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवं. यावद तित करे :इत्यादि. ' अवश्य छ दिशाने उयोतित करे छे, ए प्रमाणे तपावे छे, यावद् अवश्य छ दिशाने प्रकाशे छे. सूर्यनी क्रिया ४३. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा सूर्योनी क्रिया शुं अतीत क्षेत्रमा कराय छे, वर्तमान क्षेत्रमा कराय छे के अनागत क्षेत्रमा कराय वर्तमान क्षेत्रमा छ ? [उ०] हे गौतम ! अतीत क्षेत्रमा क्रिया कराती नथी, वर्तमान क्षेत्रमा क्रिया कराय छे, पण अनागत क्षेत्रमा क्रिया कराती नथी. सूर्य स्पष्ट क्रियाने ४४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं [ते सूर्यो] स्पृष्ट क्रियाने करे छे के अस्पृष्ट क्रियाने करे छे? [उ०] हे गौतम ! तेओ स्पृष्ट करे छे. क्रियाने करे छे, पण अस्पृष्ट क्रियाने नथी करता, यावद् अवश्य छ दिशामा स्पृष्ट क्रियाने करे छे. केटलं क्षेत्र उंचे ४५. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा सूर्यो केटलं क्षेत्र उंचे तपावे छे, केटलं क्षेत्र नीचे तपावे छे अने केटलुं क्षेत्र तिर्यग् तपावे छे ? तपावे के। [उ०] हे गौतम ! सो योजन क्षेत्र उंचे तपावे छे, अढारसो योजन क्षेत्र नीचे तपावे छे. अने सूडताळीश हजार बसे त्रेसठ योजन तथा एक योजनना साठीया एकवीश भाग जेटलु क्षेत्र तिर्यग् (तिरछु) तपावे छे. मनुष्योत्तर पर्वतनी ४६. प्र०] हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वतनी अंदर जे चंद्रो, सूर्यो, ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूप देवो छे, हे भगवन् ! ते शु अंदरना चन्द्रादि . ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न थयेला छे ? [उ०] जे प्रमाणे *"जीवाभिगमसूत्रमा कां छे तेम यावद् [तेओनो उपपातविरहकाल-उपजवान अन्तर देवो शुंऊर्ध्व लोकमा उत्पन्न थयेला छे ? जघन्य एक समय अने] यावद् उत्कृष्ट छ मास छे'-त्यां सुधी बधुं जाणवू. मनुष्योत्तर पर्वतनी ४७. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वतनी बहार जे चंद्रादि देवो छे तेओ शुं ऊर्ध्वलोकमां उत्पन्न धयेला छे! [उ०] जेम बहारना चंद्रादि जिीवाभिगमसूत्रमा कयुं छे तेम जाणवू, यावत्-[प्र०] 'हे भगवन् ! इन्द्रस्थान केटला काल सुधी उपपात वडे विरहित कयुं छे? [उ.] देवो. हे गौतम ! जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी छ मास, [अर्थात् एक इन्द्रना मरण पछी जघन्यथी एक समये अने उत्कृष्टथी छ मासे तेने स्थाने बीजो इन्द्र उत्पन्न थाय छे तेथी तेटलो काळ इन्द्रस्थान उपपात विरहित होय छे', ] हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन्! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे]. अष्टम शतके अष्टम उद्देशक समाप्त. ४६.* जीवा० प. ३४५-१ प्रति. ३ सू, १७१, ४७. जीवा. प. ३४५-२ प्रति. ३ सू. १७९. . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो । १. [०] कवि णं भंते! बंधे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-पयोगबंधे य वीससाबंधे य । २. [प्र० ] वीससाबंधे णं भंते ! कतिविद्दे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सादीयवीससाबंधे अणादीयवीससाबंधे य । ३. [प्र० ] अणादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - धम्मत्थिकायमनमन्त्रणाइयवीससायंधे, अधम्मत्थिकायणप्रमन्त्रअणादयचीससार्वधे, आगासत्विकाय अश्रमन्नमणाईयपीसाबंधे । 1 ४. [ प्र० ] धम्मत्थिकाय अन्नमन्न अणादीयवीससाबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सवबंधे ? [ उ०] गोयमा ! देसबंधे, नो सङ्घबंधे । एवं अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीस साबंधे वि एवं आगासत्थिकायअन्नमन्नभणादीयवीससाबंधे वि । 1 ५. [२०] धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे णं भंते! कालओ केवश्चिरं हो? [४०] गोयमा सङ्घ एवं अथम्मत्यिकार एवं आगासत्विकार वि। नवमी उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! बन्ध केटला प्रकारनो को छे [30] हे गीतम! बन्ध मे प्रकारगो को छे, ते आ प्रमाणे- प्रयोगदन्ध नेविसावन्ध २. [ प्र० ] हे भगवन् ! विस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आप्रमाणे - विसाबन्ध अने अनादि वित्रसाबन्ध. ४. [ प्र० ] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे ? [उ०] हे गौतम! *देशबन्ध छे, पण सर्ववन्ध नथी. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विसावन्ध जाणवो एवी रीते आकाशास्तिकापनो अन्योन्य अनादि विसावन्ध जाणो. ३. [प्र०] हे भगवन् ! अनादि विस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे अनादि विज्ञसाबन्ध-धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि निसाबन्ध, अधर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विससायन्ध अने आकाशास्तिकायनो पण अन्योन्य अनादि वित्रसाबन्ध. ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो अन्योन्य अनादि विस्रसाबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम! सर्व काल सुधी होय छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायनो अन्योन्य अनादि सिसाबन्ध जाणवो. ४. धर्मास्तिकायना प्रदेशोनी पीना देशो साये परस्पर संबन्ध ते देशवन्ध, परन्तु तेनो सर्वबन्ध नवी जो तेनो सर्वधन्य होय तो एक प्रदेश बीजा सर्व प्रदेशोनो अन्तर्भाव थाय अने तेथी धर्मास्तिकाय एक प्रदेशरूप याय-- टीका. बन्ध. विनसाबन्ध.. धर्मास्तिकायनो अनादि विनसा देशवन्ध. अनादि विश्वसा बन्धनी काल. / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ९. ६. [प्र०] सादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-बंधणपश्चइए, भायणपञ्चइए, परिणामपञ्चइए। ७. प्र०] से किं तं बंधणपच्चइए ? [उ०] बंधणपञ्चइए जणं परमाणुपुग्गलादुप्पएसिया-तिप्पएसिया-जाव दसपएसिया-संखेजपएसिया-असंखेजपएसिया-अणंतपएसियाणं खंधाणं वेमायनिद्धयाए, वेमायलुक्खयाए, वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपञ्चइए णं बंधे समुप्पजइ, जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं । सेत्तं बंधणपञ्चइए । ८. [प्र०] से किं तं भायणपञ्चइए? [उ.] भायणपञ्चइए जंणं जुन्नसुरा-जुन्नगुल-जुन्नतंदुलाणं भायणपच्चइए णं बंधे समुप्पजइ, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेजं कालं । सेत्तं भायणपश्चाए । ९. [प्र०] से किं तं परिणामपञ्चइए ? [उ०] परिणामपञ्चइए जं णं अम्भाणं, अब्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपञ्चइए णं बंधे समुप्पजइ, जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सेत्तं परिणामपञ्चइए । सेत्तं सादीयवीससाबंधे । सेत्तं वीससावंधे । १०. [प्र०] से किं तं पयोगबंधे ? [उ०] पयोगबंधे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-अणाईए वा अपजवसिए, साईए वा अपज्जवसिए, साईर वा सपजवसिए । तत्थ णं जे से अणाईए अपजवसिए से णं अटण्हं जीवमज्झपएसाणं, तत्थ वि णं तिण्हं तिण्हं अणाईए अपजवसिए, सेसाणं साईए । तत्थ णं जे से साइए अपजवसिए से णं सिद्धाणं । तत्थ णं जे से साईए सपजवसिए से णं चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-आलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पओगबंधे। , सादि विस्रसाबन्ध. बन्धनप्रत्ययिक बन्ध. भाजनप्रत्यायिक बन्ध. ६. [प्र०] हे भगवन् ! सादिविस्रसाबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे१ *बंधनप्रत्ययिक, २ भाजनप्रत्ययिक अने ३ परिणामप्रत्ययिक. ७. प्र०] हे भगवन् ! बंधनप्रत्ययिक [सादि बन्ध] केवा प्रकारे छे! [उ०] द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावद् दशप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातादेशिक अने अनंतप्रदेशिक परमाणु पुद्गलस्कंधोनो विषम स्निग्धता (चिकाश) वडे, विषम रूक्षता वडे अने विषम स्निग्ध-रूक्षता वडे बन्धनप्रत्ययिक बन्ध थाय छे. ते जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी असंख्य काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे बंधनप्रत्ययिक बन्ध कह्यो. ८. [अ०] हे भगवन् ! भाजनप्रत्ययिक बन्ध केवा प्रकारे होय ! [उ०] जूिनी मदिरानो, जूना गोळनो अने जुना चोखानो भाजन प्रत्ययिक बन्ध थाय छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट संख्यात काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे भाजनप्रत्ययिक बन्ध कह्यो. ९. प्र०] हे भगवन् ! परिणामप्रत्ययिक बन्ध केवा प्रकारे छे ? [उ०] वादळाओनो, अभ्रवृक्षोनो जेम तृतीय शतकमा कह्यं छे तेम यावद अमोघोनो परिणामप्रत्ययिक बन्ध उत्पन्न थाय छे. ते जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी छ मास सुधी रहे छे, ए प्रमाणे परिणामप्रत्ययिकबन्ध, सादि विस्रसाबन्ध अने विस्रसाबन्ध कह्यो. १०. [प्र०] हे भगवन् ! प्रयोगबन्ध केवा प्रकारे छे ? [उ०] प्रयोगबन्ध त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ अनादि अपर्यवसित, २. सादि अपर्यवसित अने ३ सादि सपर्यवसित प्रयोगबन्ध. तेमा जे अनादि अपर्यवसितबन्ध छे ते जीवना आठ मध्यप्रदेशोनो होय छे, ते आठ प्रदेशोमां पण त्रण त्रण प्रदेशोनो जे बन्ध ते अनादि अपर्यवसित बन्ध छे. बाकीना सर्वप्रदेशोनो सादि सपर्यवसित (सान्त ) बन्ध छे. तेमां सादि अपर्यवसित बन्ध सिद्धना जीव प्रदेशोनो छे. सादिक सपर्यवसित बन्ध चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ आलापनबन्ध, २ आलीनबन्ध, ३ शरीरबन्ध अने ४ शरीरप्रयोगबन्ध. परिणामप्रत्ययिक बन्ध. प्रयोगान्ध. ६.*१ स्निग्धत्वादि गुणद्वारा द्विप्रदेशिक, यावत् अनन्तप्रदेशिक परमाणुओनो बन्ध थाय ते बन्धनप्रत्ययिक. २ भाजन एटले आधार, ते निमित्ते जे बन्ध थाय ते भाजनप्रत्यायिक. ३ परिणाम एटले रूपान्तर, ते निमित्ते जे बन्ध थाय ते परिणामप्रत्ययिक. ८.1 एक भाजनमा रहेली जूनी मदिरा घट्ट थाय छे अने जूना गोळ तथा जूना चोखानो पिंड थाय छे ते भाजनप्रत्ययिक बन्ध जाणवो-टीका. ९. भग. द्वि. सं. श. ३ उ. ७ पृ. ११२ सू. ३. १०. ॥ प्रयोगबन्ध एटले जीवना व्यापार वडे जीव प्रदेशोनो अने औदारिकादि शरीरना पुद्गलोनो जे बन्ध थाय ते. तेना चार भांगा थाय छे. तेमा मही बीजा भांगाने छोडीने त्रण भांगा लागु पडे छे. तेमा असंख्यातप्रदेशिक जीवना जे मध्य प्रदेशो छे तेनो अनादि अपर्यवसित बन्ध छे. कारण के ज्यारे जीव केवलि समुद्घात वखते समग्र लोकने व्यापीने रहे छे त्यारे पण ते तेवीज स्थितिमा रहे छे, पण वीजा जीव प्रदेशोमा विपरिवर्तन थतुं होवाथी तेभोनो अनादि अनन्त बन्ध नथी. तेनी स्थापनाः-: चार प्रदेशोनी उपर बीजा चार प्रदेशो आवेला छे. एवी रीते समुदायथी आठ प्रदेशोनो बन्ध कहेलो छे. ते आठ प्रदेशोमां पण कोइ पण एक प्रदेशनो तेनी पासे रहेला बे प्रदेशो अने उपर के नीचे रहेला एक प्रदेश साथे एम त्रण त्रण प्रदेश साथे अनादि अपर्यवसित बन्ध छे-टीका. १ रज्जु वगेरेथी तृणादिनो बन्ध ते आलापन बन्ध. २ एक पदार्थनो बीजा पदार्थनी साथे लाख वगेरेथी बन्ध धवो ते आलीनबन्ध, ३ समुद्घात करवामां विस्तारत अने संकोचित जीवप्रदेशोना संबन्धथी तैजसादि शरीर प्रदेशोनो संबन्ध ते शरीरबन्ध. अथवा समुद्घात करवामां 'संकुचित थयेला आत्मप्रदेशोनो संवन्ध ते शरीरबन्ध' एम अन्य आचार्य माने छे. ४ औदारिकादि शरीरना व्यापारथी शरीरना पुद्गलोने ग्रहण करवारूप बन्ध ते शरीरप्रयोगबन्ध-टीका. . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवन्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, १०३ ११. [प्र०] से किं तं आलावणबंधे? [उ.] आलावणबंधे जंणं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा, पत्तभासण वा, पलालभाराण वा, वेल्लभाराण वा वेत्तलता-बाग-वरत्त-रज्जु-वल्लि-कुस-दभमादीपहिं आलावणयंधे समुप्पज्जा जहणं मंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं आलावणबंधे। १२. [प्र०] से किं तं अलियावणबंधे ? [उ०] अल्लियावणबंधे चउधिहे पन्नत्ते, तं जहा-लेसणाबंधे, उयययंधे, समुस्वयबंधे, साहणणाबंधे। १३. [प्र०] से किं तं लेसणाबंधे ? [उ०] लेसणाबंधे जंणं कुट्टाणं, कोट्टिमाणं, खंभाणं, पासायाणं, कट्ठाणं, चम्माणं, घडाणं, पडाणं, कडाणं छुरा-चिखल्ल-सिलेस-लक्ख-महुसित्थमाईपहिं लेसणएहिं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमपुर उकोसेणं संखेजं कालं । सेत्तं लेसणाबंधे।। १४. [प्र०] से किं तं उच्चयबंधे ? [उ०] उच्चयबंधे जं णं तणरासीण वा, कट्टरासीण वा, पत्तरासीण वा, तुसरासीण वा, भुसरासीण वा, गोमयरासीण वा, अवगररासीण वा उच्चत्तेणं बंधे समुप्पजइ, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखेज कालं, सेत्तं उच्चयबंधे। १५. [प्र०] से किं तं समुच्चयबंधे? [उ०] समुच्चयबंधे जंणं अगड-तडाग-नदी-दह-वावी-पुक्खरिणी-दीहियाणं गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं सरसरपंतियाणं, बिलपंतियाण, देवकुल-सभ-प्पव-थूभ-खाइयाणं, परिहाणं, पागार-हालग-चरिय दार-गोपुर-तोरणाणं, पासाय घर-सरण-लेण-आवणाणं, सिंघाडग-तिय-चउक-चच्चर-चउमुह-महापहमादीणं, छुहा-चिपखल्ल-सिलेस-समुच्चएणं बंधे समुप्पजइ, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजं कालं । सेत्तं समुच्चयबंधे। १६. [प्र०] से किं तं साहणणाबंधे ? [उ०] साहणणाबंधे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-देससाहणणाबंधे य सवसाहणणाबंधे य। पालापनदन्ध. आलीनदय. ११. [प्र०] आलापन बन्ध केवा प्रकारनो छे! [उ०] आलापन बन्ध घासना भाराओनो, लाकडाना भाराओनो, पांदडाना भारा- ओनो, पलालना भाराओनो अने वेलाना भाराओनो नेतरनी वेल, छाल, वाधरी, दोरडा, वेल, कुश अने डाभ आदिथी आलापनबन्ध थाय छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी संख्यात काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे आलापनबन्ध कह्यो. १२. [प्र०] आलीनबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] आलीनबन्ध चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ श्लेषणाबन्ध, २ उच्चयबन्ध, ३ समुच्चयबन्ध अने ४ संहननबन्ध, १३. [प्र०] श्लेषणाबन्ध केवा प्रकारनो होय ? [उ०] शिखरोनो, कुट्टिमोनो (फरस बंधीनो) स्तंभोनो, प्रासादोनो, लाकडाओनो, चामडानो, घडाओनो, कपडाओनो अने सादडीओनो चूनावडे, कचरावडे, श्लेष-वज्रलेप-वडे, लाखवडे, मीण-इत्यादि श्लेषण द्रव्योवडे श्लेषणाबन्ध थाय छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्यातकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे श्लेषणाबन्ध कह्यो. १४. [प्र०] उच्चयबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] तृणराशिनो, काष्ठराशिनो, पत्रराशिनो, तुषराशिनो, भुसानी राशिनो, छाणना ढगलानो अने कचराना ढगलानो उच्चपणे जे बन्ध थाय छे ते उच्चयबन्ध छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येयकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे उच्चयबन्ध कह्यो. केषणाबन्ध उच्चयवन्ध समुचपकन्ध, १५. [प्र०] समुच्चयबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] कुवा, तळाव, नदी, दह, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवरो, सरोवरनी श्रेणि, मोटा सरोवरनी पंक्ति, बिलनी श्रेणि, देवकुल, सभा, परब, स्तूप, खाइओ, परिघो, किल्लाओ, कांगराओ, चरिको, द्वार, गोपुर, तोरण, प्रासाद, घर, शरण, लेण (गृहविशेष ) हाटो, शृंगाटकाकारमार्ग, त्रिकमार्ग, चतुष्कमार्ग, चत्वरमार्ग, चतुर्मुखमार्ग अने राजमार्गादिनो चुनाद्वारा, कचराद्वारा अने श्लेषना (वज्रलेपना) समुच्चय वडे जे बंध थाय छे ते समुच्चयबन्ध. ते जघन्यथी अन्तर्मुहर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येयकाल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे समुच्चयबन्ध कह्यो. १६. [प्र०] संहननबन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] संहननबन्ध बे प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-'देश संहनन बन्ध अने सर्वसंहनन बन्ध. संहननयन्ध १ सभा-पम्व-थू-ग, सभा-पवय-थू-ङ । १६.* १ कोइ वस्तुना देशथी-अंशथी कोइ वस्तुना देशनो-अंशनो शकटादिना अवयवोनी पेठे संहनन एटले परस्पर संबन्धरूप बन्ध ते देशसहननबन्ध, २.क्षीरनीरादिनी पेठे सर्वात्मसंबन्धरूप बंध ते सर्वसंहननबंध-टीका. . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशर्सननबन्ध. सर्वर्सनम्रबन्ध शरीरबन्ध. पूर्वं प्रयोग प्रत्ययिक मन्य. प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रस्वयिकबन्ध. शरीरप्रयोगबन्ध. श्रदारिकशरीर प्रयो गबन्ध. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक ९० १७. से किं तं देससाहणणाबंधे ? [३०] देससाहणणाबंधे जं णं सगंड-रह- जाण - जुग्ग- गिल्लि - थिल्लि सीय-संवैमाणीलोही-लोहकडाह- कडुच्छय आसण-सयण-खंभ- भंडमन्तोवगरणमाईर्ण देससाहणणाबंधे समुप्पज्जर, जहनेणं अंतोमुद्दचं उकोसेणं संखे कालं । सेत्तं देससाहणणाबंधे । १०४ १८. [0] किं तं साहणणाबंधे ? [30] सङ्घसाद्दणणाबंधे से णं खीरोद्गमाईणं । सेतं सहसाद्दणणाबंधे, सेचं साद्दणणाबंधे, सेत्तं अल्लियावणबंधे । १९. [प्र०] से किं तं सरीरबंधे १ [30] सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- पुद्दपयगपचइए य पहुप्पन्नपभोगप माइए य । २०. [प्र० ] से किं तं पुचपओगपञ्चइए ? [ उ० ] पुवपओगपञ्चइप जं णं. नेरइयाणं संसारवत्थाणं सङ्घजीवाणं तत्थ वत्थ तेसु तेसु कारणे समोहणमाणाणं जीवप्पएसाणं बंधे समुप्पज्जइ । सेत्तं पुष्ठपयोगपश्चइए । २१. [प्र०] से किं तं पडुप्पन्नपओगपच्चइए ? [30] पडुप्पन्नपओगपच्चइए जं णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलि - समुग्धापणं समोहयस्स ताओ समुग्धायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जरः किं कारणं ? ताहे से पएसा एगत्तीगया य भवंति । सेत्तं पडुप्पन्नपओगपच्चइए । सेत्तं सरीरबंधे । २२. [प्र० ] से किं तं सरीरप्पओगवंधे ? [३०] सरीरप्पओगबंधे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा - ओराठियसरीरप्पओगबंधे, उष्विय सरीरप्पओगबंधे, आहारगसरीरप्पओगबंधे, तेयासरीरप्पओगबंधे, कम्मासरीरप्पओगबंधे । २३. [प्र० ] ओरालियस रप्पओगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, बेइंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, जोव पंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे । १७. [प्र०] हे भगवन् ! देशसंहनन बन्ध केवा प्रकारनो छे ? [उ०] हे गौतम ! गाडा, रथ, यान ( नाना गाडा ) "युग्यवाहन गिल्लि (हाथीनी अंबाडी ), थिल्लि ( पलाण ), शिबिका, अने स्यन्दमानी ( पुरुषप्रमाण वाहनविशेष ), तेमज लोढी, लोढाना कडाया, `कडछा, आसन, शयन, स्तंभो, भांड ( माटीना वासण ) पात्र अने नानाप्रकारना उपकरण - इत्यादि पदार्थोनो जे संबन्ध थाय छे ते देश संहननबन्ध छे. ते जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्येय काल सुधी रहे छे. ए प्रमाणे देशसंहनन बन्ध कह्यो. १८. [प्र०] सर्वसंहनन बन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! दूध अने पाणी इत्यादिनो सर्वसंहनन बन्ध कह्यो छे. एप्रमाणे सर्वसंहनन बन्ध कह्यो. ए रीते आलीनबंध पण को. १९. [प्र०] शरीरबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] शरीरबन्ध वे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक अने २ प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक. २०. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक शरीरबन्ध केवा प्रकारनो छे ! [उ०] ते ते स्थळे ते ते कारणोने लीघे समुद्घात करता नैरयिको अने संसारावस्थावाळा सर्व जीवोना जीवप्रदेशोनो जे बंध थाय छे ते पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध छे. ए प्रमाणे पूर्वप्रयोगप्रक्ष्ययिक बन्ध को. २१. [प्र०] प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध केवा प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] केवलिसमुदूधात वडे समुद्घात करता अने ते समुद्घातथी पाछा फरता, वच्चे मंथानमां वर्तता केवलज्ञानी अनगारना तैजस अने कार्मण शरीरनो जे बन्ध थाय ते प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध कहेवाय छे. तैजस अने कार्मण शरीरनो बन्ध शाथी थाय छे ! ते वखते ते आत्मप्रदेशो संघातने पामे छे. [ अने ते प्रदेशोने अनुस तैजस अने कार्मणनो पण बन्ध थाय छे. ] ए प्रमाणे प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध कह्यो, ए प्रमाणे शरीरबन्ध कह्यो . २२. [प्र०] शरीरप्रयोग बन्ध केवा प्रकारे कह्यो छे ? [उ०] शरीरप्रयोग बन्ध पांच प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, २ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध, ३ आहारकशरीरप्रयोगबन्ध, ४ तैजसशरीरप्रयोगबन्ध अने ५ कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध. २३. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध पांच प्रकारनो को छे. ते आ प्रमाणे - एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, द्वीन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, थावत् पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध. १ - माणिया- लोग, ङ । २ स्थानक । ३ - नियन्त्तेमा- घ । ४ भवंतिति । ५ इंदिय०, चतुरिंदिव०, पंचिदिप० ओरालिय० क । १७. * युग्य एटले गोल्लदेशमां प्रसिद्ध बे हाथ प्रमाण वेदिकायुक्त जंपान - टीका. १९.१ पूर्वप्रयुक्त प्रयोग- वेदना कषायादि समुद्घातरूप जीवनो व्यापार, ते निमित्ते थयेलो जीवप्रदेशोनो के तदाधित तैजस-कार्मण शरीरनो बन्ध पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक बन्ध २ वर्तमान काले केवली समुद्घातरूप जीवष्यापारथी थयेलो तेजस - कार्मणनो शरीरनो बन्ध ते प्रत्युत्पन्नप्रयोग प्रत्ययिक बन्ध, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १०५ २४. प्र० एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? [उ०] गोयमा! पंचविहे पण्णचे, तं जहा-पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियचो, जाव पजत्तागम्भवकंतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे य, अप्पजत्तागम्भवकंतियमणुस्स-जाव बंधे य । २५. प्र०] ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं ? [उ०] गोयमा! चीरिय-सजोग-सहधयाए पमादपञ्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडुच्च ओरालियसरीरप्पओगनामकम्मस्स उदएणं ओरालियसरीरप्पयोगबंधे। २६. [प्र०] एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं ? [उ०] एवं चेव, पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया, एवं तेइंदिया, एवं चउरिदिया। २७. प्र०] तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? [उ०] एवं चेव । २८. [प्र०] मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? [उ०] गोयमा! वीरियसजोग-सद्दधयाए पैमादपाया जाव आउयं च पडुच्च मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगर्नामकम्मस्स उदएणं । २९. प्र०] ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सव्वबंधे ? [उ०] गोयमा! देसबंधे वि, सबबंधे वि । ३०. [प्र० एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसवंधे, सवबंधे? [उ०] एवं चेव, एवं पुढविक्काइया, • एवं जाव- [प्र०] मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सबबंधे ? [उ०] गोयमा ! देसबंधे वि, सवबंधे वि। २४. प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे! उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनो एकेन्द्रियऔदारिककह्यो छे, ते आ प्रमाणे-पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध; ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम *'अवगाहनासंस्थान' पदमा शरीरप्रयोगवन्धः औदारिक शरीरनो भेद कह्यो छे तेम अहीं कहेवो; यावत् पर्याप्तगर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्तगर्भजमनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध. २५. प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे! [उ०] हे गौतम! जीवनी सिवीर्यता. औदारिकशरीरमयो गबन्ध कया कर्मना सयोगता अने सव्यताथी, प्रमादहेतुथी, कर्म, योग, (काययोग ) भव अने आयुष्यने आश्रयी औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी उदयया थाय छ। औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. २६. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणq. एकेन्द्रियौदारिक शरीरप्रयोगबन्ध. पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध ए प्रमाणे जाणवो. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, तथा बेइन्द्रिय, त्रींद्रिय अने चउरिन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध जाणवो. २७. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं. पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध२८. प्रि० हे भगवन् ! मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, WITH सयोगता अने सद्व्यताथी, तेम प्रमादहेतुथी, यावत् आयुष्यने आश्रयी मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी मनुष्यपंचेन्द्रिय- शरीरप्रयोगबन्ध. औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. २९. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धनो शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे! [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध पण छे औदारिकशरीर प्रयोगबन्ध देश के अने सर्वबन्ध पण छे. सर्वबन्ध छ। ३०. [प्र०] हे. भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे! [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवं. ए एकेन्द्रियौदारिक शरीरप्रयोगवन्ध. प्रमाणे यावत्-प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्धनो शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे! [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध । मनुष्य औदारिक पण छे अने सर्वबन्ध पण छे. 'शरीरप्रयोगवन्ध १-नामाकम्म-क,-नामाए कम्म-ङ। २-पयोग एवं क, प्पयोगबंधे वि एवं ङ। पमाद-जाव क। ४ नामाए । २४. * प्रज्ञा० पद २१. प. ४०८-१. पं. १. २५. वीर्यान्तराय कर्मना क्षयोपशम बडे उत्पन्न थयेली शक्ति ते सवीर्यता, मनोयोगादिनो व्यापार ते सयोगता, तथाविध पुद्गलादि द्रव्य ते सद्दव्यता, प्रमाद, एकेन्द्रियजातिनाम वगेरे कर्म, योग-काययोगादि, तिर्यचादि भव अने तिर्यचादिकना आयुषना लीधे उदयप्राप्त औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मथी औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे.-टीका. २९. जेम धृतादिकथी भरेली अने तपी गयेली कडाईमा नांखेलो अपूप (पुल्लो) प्रथम रामये घृतादिकने केवळ प्रहण करे, अने याकीना समये प्रहण करे अने छोडे, तेम आ जीव ज्यारे पूर्वना शरीरने छोडीने बीजं शरीर प्रहण करे त्यारे प्रथम समये उत्पत्तिस्थानके रहेला शरीरयोग्य पुद्गलोने केवळ प्रहण करे छे, माटे आ सर्वबंध छ; त्यार पछी द्वितीयादि समये (शरीरप्रायोग्य पुद्गलोने) ग्रहण करे छे अने छोडे ठे माटे वे देशबन्ध छे, तेथी औदारिकशारीरनो देशबंध पण होय छै अने सर्वबन्ध पण होय छे-टीका. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ९. ३१. [प्र०] ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबबंधे एक समय, देसबंधे जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समयऊणाई । ३२. पगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सच्चबंधे एकं समयं, देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयऊणाई । ३३. [प्र०] पुढविकाइयएगिदियपुच्छा । [उ.] गोयमा! सवबंधे एक समयं, देसबंधे जहन्नणं खुडागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयूणाई; एवं ससि सबबंधो पक्कं समयं, देसवंधो जेसि नत्थि वेउधियसरीरं तेसिं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायदा । जेसिं पुण अत्थि वेउचियसरीरं तेसिं देसबंधो जहन्नेणं पकं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयूणा कायदा, जाव मणुस्साणं देसबंधे जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समयूणाई। ३४. [प्र०] ओरालियसरीरबंधंतरंणं भंते! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा सववन्धन्तरं जहन्नेणं खुडागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुषकोडिसमयाहियाई; देसबंधंतरं जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई तिसमयाहियाई।। ३५. [प्र०] एगिदियओरालियपुच्छा । [उ०] गोयमा! सधवंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहणेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । औदारिक शरीर ३१. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! *सर्वबन्ध एक समय, अने " देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी होय छे. एकेन्द्रिक. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एकसमय, अने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. पृथिवीकायिक ३३. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्ध संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी त्रिण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त, अने उत्कृष्ट एक समय न्यून बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. ए प्रमाणे सर्वजीवोनो सर्वबन्ध एक समय छे, अने देशबन्ध जेओने वैक्रियशरीर नथी तेओने जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त होय छे, अने उत्कृष्टथी जेटली जेनी आयुष्यस्थिति छे, तेथी एक समय न्यून करवो. जेओने वैक्रियशरीर छे तेओने देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी जेटलुं जेनुं आयुष्य छे तेटलामांथी एक समय न्यून जाणयो, ए प्रमाणे यावद् मनुष्योनो देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी जाणवो. औदारिक शरीरक * ३४. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरना बन्धनुं अन्तर कालथी क्या सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर मना मन्तरनो जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भवग्रहण पर्यन्त छे, अने उत्कृष्टथी समयाधिक पूर्वकोटी अने तेत्रीश सागरोपम छे. अने देशबन्धन अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी त्रण समय अधिक तेत्रीश सागरोपम छे. एकेन्द्रिय ३५. [प्र०] एकेन्द्रियऔदारिकशरीरबन्धसंबंधे प्रश्न. (उ०] हे गौतम! तेओना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव पर्यन्त, अने उत्कृष्टथी समयाधिक बावीश हजार वर्ष सुधी होय छे. देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त सुधीनुं छे. १ समयूणाई क। २ जस्स उक्कोसिया ठि-क-घ विनाऽन्यत्र । ३ -बंधतरे ण क विनाऽन्यत्र । ४ ति उक्को-क। ५ समजणं क।। ३१. * पुल्लाना दृष्टान्तथी सर्वबन्ध एकसमय छे. अने ज्यारे वायुकायिक के मनुष्यादि वैक्रिय शरीर करीने अने तेने छोडीने औदारिक शरीरनो एक समय सर्ववन्ध करे अने पुनः तेनो देशवन्ध करी एक समय पछी तुरतज मरण पामे त्यारे जघन्यथी एक समय देशबन्ध होय छे. औदारिकशरीरवाळानी त्रण पल्योपम उत्कृष्ट स्थिति छे, तेमां प्रथम समये तेओ सर्ववन्धक छे, अने पछी एक समय न्यून त्रण पल्योपम सुधी देशवन्धक छे.-टीका. ३३. 1 जे पृथिवीकायिक जीव त्रण समयनी विग्रहगतिए उत्पन्न थयो छे ते त्रीजे समये सर्ववन्धक छे, अने बाकीना समये क्षुल्लकभवप्रमाण पोताना जघन्य आयुषपर्यन्त देशबन्धक होय छे. माटे 'ते त्रणसमयन्यून क्षुल्लकभवपर्यन्त जघन्यथी देशबन्धक होय' एम कयुं छे.-टीका. ३४. 1 कोइ जीव मनुष्यादिगतिमा अविग्रह गतिए आवी अने त्यां प्रथम समये सर्वयन्धक थईने पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त त्यां रही तेत्रीश सागरोपमनी स्थितिवाळो नारक के सर्वार्थसिद्ध देव थाय, अने पछी ते त्रण समयनी विग्रहगतिए औदारिकशरीरधारी थाय, त्यां विग्रहगतिना बे समय अनाहारक होय अने त्रीजे समये ते औदारिक शरीरनो सर्वबन्धक थाय, हवे तेमां विग्रहगतिना बे समय अनाहारक छे तेमाथी एक समय पूर्वकोटीना सर्वबन्धस्थाने प्रक्षिमः करीए तेथी पूर्वकोटी पूर्ण थइ अने एक समय अधिक थयो. ए रीते सर्वबन्धनुं उत्कृष्ट अन्तर समयाधिक पूर्वकोटि अने तेत्रीश सागरोपम थाय छे.-टीका. Jain Education international Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६. [प्र०] पुढविक्काइयएगिदियपुच्छा । [उ०] सवबंधंतरं जहेव एगिदियरस तहेव भाणियचं, देसबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं, उन्कोसेणं तिन्नि समया । जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चरिंदियाणं वाउक्काइयवजाणं, नवरं सबबंधंतरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायद्या । वाउक्काइयाणं सबंधंतरं जहण्णेणं खुडागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिन्नि वाससहस्साई समयाहियाई । देसवंधंतरं जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३७. [प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा। [उ०] सबबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुचकोडी समयाहिया। देसवंधतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियवं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३८. [प्र०] जीवस्स णं भंते ! एगिदियत्ते, नोएगिदियत्ते, पुणरवि एगिदियत्ते एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्महियाई । देसबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई । ३९. [प्र०] जीवस्सणं भंते! पुढविकाइयत्ते, नोपुढविक्काइयत्ते, पुणरवि पुढविक्काइयत्ते पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सववंधंतरं जहण्णेणं दो खुडाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई एवं चेव, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंता उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा-असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते गं ३६. प्र०] पृथिवीकायिक एकेन्द्रियना औदारिकशरीरबन्धसंबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओना सर्वबन्धन अन्तर जेम एकेन्द्रियोने कह्यं तेम कहेवू; अने देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी त्रण समय सुधीनुं होय छे. जेम पृथ्वीकायिकने कह्यु तेम वायुकायिक सिवाय यावत् चउरिन्द्रिय सुधीना जीवोने जाणवं, पण उत्कृष्टथी सर्वबन्धनुं अन्तर जेटली जेनी आयुष्य स्थिति होय तेटली एक समय अधिक करवी. (अर्थात् सर्वबन्धनुं अन्तर समयाधिक आयुष्यनी स्थिति प्रमाणे जाणवू.) वायुकायिकना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी त्रण समय न्यून क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी समयाधिक त्रण हजार वर्ष सुधी जाणवू. तेओना देशबन्धन अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त पर्यन्त जाणवू. ३७. [प्र०] पंचेन्द्रियतिर्यंचना औदारिक शरीरबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न [उ०] हे गौतम ! तेओना सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी पंचेन्द्रिय तियंचना त्रण समय न्यून क्षुल्लक भवपर्यन्त, अने उत्कृष्टथी समयाधिक पूर्व कोटि होय छे. देशबन्धनुं अन्तर जेम एकेन्द्रियोने कयुं छे ते प्रकारे बौदारिक शरीर बन्धन अन्तर सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोने जाणवू. ए प्रमाणे मनुष्योने पण समग्र जाणवू, यावत् उत्कृष्टथी अंतर्मुहुर्त छे. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! कोइ जीव एकेन्द्रियपणामां होय, अने पछी ते एकेन्द्रिय सिवाय बीजी कोइ जातिमां जाय, एकेन्द्रियौदारिक अने पुनः एकेन्द्रियपणामां आवे तो एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी केटलं होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी । शरीरना प्रयोग बन्धन अन्तर. सर्वबन्धनुं अन्तर *त्रण समय न्यून बे क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी संख्याता वर्ष अधिक बे हजार सागरोपम छे. तथा देशबन्धन अन्तर जघन्यथी एक समय अधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी संख्यात वर्ष अधिक बे हजार सागरोपम छे. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! कोइ जीव पृथिवीकायपणामां होय, त्यांथी पृथिवीकाय सिवायना बीजा जीवोमा उत्पन्न थाय । अने पुनः ते पृथिवीकायमां आवे तो पृथिवीकायिक एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर केटलं होय ! [उ०] हे गौतम! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी ए रीते त्रण समय न्यून बे क्षुल्लक भव पर्यन्त छे, अने उत्कृष्टथी कालनी अपेक्षाए अिनन्तकाल-अनन्त गोदारिक शरीरबन्धनू भन्तर १ खुड्डाग-ङ। २ एवं चेव क । ३ ओसप्पिणी ओ का-क। ३८. * कोइ एकेन्द्रिय जीव अण समयनी विग्रहगतिवडे उत्पन्न थाय, त्यां बे समय अनाहारक रहे अने त्रीजे समये सर्वबन्ध करे, पछी त्रम समय न्यून क्षुल्लक भव प्रमाण आयुष पूर्ण करी एकेन्द्रिय शिवाय बीजी जातिमा उत्पन्न थाय, त्यां पण क्षुल्लक भवनी स्थिति पूर्ण करी पुनः अविग्रह गति वढे एकेन्द्रिय जातिमां उपजे अने प्रथम समये सर्वबन्धक थाय, त्यारे प्रण समय न्यून बे क्षुल्लक भव सर्वबन्धनुं जघन्य अन्तर होय. कोइ पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीव जुगतिथी उत्पन्न थाय अने प्रथम समये सर्वबन्धक थाय त्यां बावीश हजार वर्षनुं आयुष् पूर्ण करी मरीने त्रसकायिका उत्पन्न थाय, त्यां पण संख्यातवर्षाधिक बे हजार सागरोपमनी उत्कृष्ट कायस्थितिने पूरी करी पुनः एकेन्द्रियपणे उत्पन्न थईने सर्वबन्धक थाय त्यारे उपर कहेलुं सर्वबन्धन उत्कृष्ट अन्तर थाय. अहीं सर्वबन्धना समय हीन एकेन्द्रियनी उत्कृष्ट भवस्थितिनो त्रयकायनी कायस्थितिमा प्रक्षेप करीए तो पण संख्याता वर्ष ज थाय, केमके संख्याताना संख्यात मेद छे.-टीका.. ३९. t कालनी अपेक्षाए अनन्त काल छे-एटले अनन्त कालना समयोने उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीना समयोथी अपहारता अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी थाय. क्षेत्रनी अपेक्षाए अनन्त लोक-एटले अनन्तकालना समयोने लोकाकाशना प्रदेशो वडे अपहारता अनन्त लोक थाय. अहीं वनस्पति नी काय. स्थिति अनन्तकालनी होवाथी ते अपेक्षाए सर्वबन्धनु उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल छे.-टीका. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिक शरीरना सर्वबन्धक, देशव अल्पबहुत्व. वैक्रिय शरीर प्रयोग बन्ध. वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? वायुकायिक क्रिय शरीर प्रयोगवन्ध. नैरयिकवैक्रिय शरीरप्रयोगवन्थ. १०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक ९. पोग्गलपरियट्टा आवलियांए असंखेज्जइभागो । देसबंधंतरं जहन्त्रेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो । जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जाव मणुस्साणं । वणरसइकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेजं कालं - असंखेजाओ उसप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो । ४०. [प्र०] एएसि णं भंते! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं, सङ्घबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरे- जाव विसेसाहिया वा ? [30] गोयमा ! सवत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सङ्घबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेज्जगुणा । ४१. [प्र०] वेउचियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - एर्गिदियवेउधियसरीरप्पओगबंधे य पंचेंदियवेउधियसरीरप्पओगबंधे य । ४२. [प्र०] जइ एगिंदियवेडवियसरीरप्पओगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदियसरीरप्पओगबंधे य, अवाउक्काश्यपगिंदियसरीओगबंधे ? [30] एवं पणं अभिलावेणं जहा भोगाहणसंठाणे वेउधियसरीरभेदो तहा भाणियधो, जाव पज्जत्तासधट्ठसिद्ध. अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियवेऽ द्वियसरीरप्पओगबंधे य, अपजत्तसवट्टसिद्ध - जाव पओगबंधे य । ४०. [प्र०] हे भगवन् ! ए औदारिक शरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कोनाथी यावद् विशेवाधिक ? [उ० ] हे गौतम! सौथी थोडा जीवो औदारिक शरीरना सर्वबन्धक छे, तेथी अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, अने तेथी देशबन्धक जीवो असंख्यात गुण छे. ४३. [प्र०] वेउध्धियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं ? [अ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दवयाप जाव आउयं वा लद्धिं वा पडुच्च वेउधियसरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदपणं वेउद्वियसरीरप्पओगबंधे । ४४. [प्र०] वाउक्काइयपगिंदियवे उचियसरीरप्पओगपुच्छा । [ उ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग - सद्दवयाप एवं चैव जाव लद्धिं पडुच्च वाउक्काइयए गिदियवेउधिय- जाव बंधे । ४५. [प्र०] रयणंभापुढविने रइयपंचिदियवे उद्वियसरी रप्पओगवंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं ? [उ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दवयाए जाव आउयं वा पडुच्च रैंयणप्पभापुढवि - जाव बंधे, एवं जाव अहे सत्तमाए । उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी छे, क्षेत्रंथी अनन्तलोक - असंख्य पुद्गलपरावर्त छे, अने ते पुद्गलपरावर्त आवलिकाना असंख्यातमा भागना (समय) तुल्य छे. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी समयाधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी अनन्त काल, यावत् आवलिकाना असंख्यातमा भागना सत्य तुल्य असंख्य पुद्गलपरावर्त छे. जेम पृथिवीकायिकोने कह्युं तेम वनस्पतिकायिक सिवाय बाकीना यावद् मनुष्य सुधीना जीवो माटे जाणवु. वनस्पतिकायिकोने सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी कालनी अपेक्षाए ए प्रमाणे [त्रण समय न्यून ] वे क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी असंख्यकाल-असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी सुधी छे, क्षेत्रथी असंख्य लोक छे; देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी ए प्रमाणे ( समयाधिक क्षुल्लक भव) जाणवुं. अने उत्कृष्टथी पृथिवीकायना स्थितिकाल ( असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) सुधी जाणवुं. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरनो प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो को छे ? [ उ० ] हे गौतम! बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध अने पंचेन्द्रिय वैकियशरीरप्रयोगबन्ध. ४२. [प्र० ] जो एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध छे तो शुं वायुकायिक एकेन्द्रियशरीरप्रयोगबन्ध छे के वायुकायिक भिन्न एकेन्द्रिय शरीरप्रयोगबन्ध छे ? [उ०] ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम *"अवगाहनासंस्थान' पदमां वैक्रिय शरीरनो भेद कह्यो छे तेम कहेवो; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय वैकियशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिकयावद् वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध. ४३. [प्र० ] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [ उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् आयुष् अने लब्धिने आश्रयी वैक्रियशरीरप्रयोग नामकर्मना उदयथी वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ४४. [प्र०] वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [ उ०] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने सद्रव्यताथी पूर्वनी पेठे यावद् लब्धिने आश्रयी वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग नामकर्मना उदयथी यावद् वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् आयुष्यने आश्रयी रत्नप्रभा पृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी यावद् वैकिय शरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी नरकपृथ्वी सुधी जाणवुं. १ तं चैव क । २-३- पंभपुढवि क । # ४२. प्रज्ञा० पद. २१. प. ४१४-२. पं. ५. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४६. [प्र०] तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरपुच्छा। उ०] गोयमा! वीरिय० जहा वाउकाइयाणं, मणुस्सपंचिदियवेउधिय एवं चेव । असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउधिय. जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पोवया वेमाणिया, एवं जाव अच्चयगेवेजकप्पातीया वेमाणियां, अणुत्तरोघवाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव ।। ४७. [प्र०] वेउवियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सधबंधे ? [उ०] गोयमा! देसबंधे वि, सपबंधे वि । बाउकाइयएगिदिय० एवं चेव, रयणप्पभापुढविनेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुत्तरोववाइया । ४८. [प्र०] वेउनियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सवबंधे जहन्नेणं एक समयं, उकोसेणं दो समया। देसबंधे जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई।। ४९. [प्र०] वाउक्काइयएगिदियवेउश्चियपुच्छा । [उ०] गोयमा! सवबंधे एकं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एवं समयं, उकोसेणं अंतोमुहुत्तं। ५०. [प्र.] रयणप्पभापुढविणेरइयपुच्छा । [उ०] गोयमा! सवबंधे एकं समयं, देसबंधे जहण्णेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं समयूणं, एवं जाव अहे सत्तमा, नवरं देसबंधे जस्ल जा जहन्निया ठिती सा तिसमयूणा कायवा, जाव उक्कोसिआ सा समयूणा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं, असुरकुमारनागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं; नवरं जस्स जा ठिती सा भाणियचा, जाव अणुत्तरोववाइयाणं सवबंधे एक समय, देसबंधे जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई तिसमऊणाई, उक्कोंसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई । ५१. [प्र०] वेउवियसरीरप्पओगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवश्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबंधंतरं जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ-जाव आवलियाए असंखेजइभागो; एवं देसबंधंतरं पि । १६. प्रि०] तियंचयोनिक पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सद्रव्यताथी तिर्यंचयोनिकवैक्रिय पूर्ववत् जेम वायुकायिकोने कयुं तेम जाणवू. मनुष्य पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध पण ए प्रमाणे जाणवो. असुरकुमार भवनवासीदेव शरीरप्रयोगबन्ध. पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकनी पेठे जाणवो. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ए रीते वानव्यंतर, ज्योतिषिक, सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक यावद् अच्युत, अने अवेयक कल्पातीत वैमानिकोने जाणवं. तथा अनुत्तरीपपातिककल्पातीत वैमानिकोने पण ए प्रमाणे जाणवा. ४७. प्रि०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे! [उ०] हे गौतम! ते देशबन्ध पण छे देशबन्ध बने सर्व अने सर्वबन्ध पण छे. ए प्रमाणे वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध तथा रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध जाणवो. बन्ध. ए प्रमाणे यावद् अनुत्तरौपपातिक देवो सुधी जाणवू. ४८. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्या सुधी होय! [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध जघन्यथी एक समय, अने क्रियशरीरप्रयोगउत्कृष्टथी *बे समय सुधी होय. तथा देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधी होय. वन्धकाल. ४९. [प्र०] वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध वायुकायिक वैक्रियजघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी अन्तर्मुहूर्त सुधी होय छे. शरीरप्रयोगबन्धनो ५०. [प्र०] रत्नप्रभानैरयिकवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी। रत्नप्रभा नैरयिक त्रण समय उणा दशहजार वर्ष सुधी होय, तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून एक सागरोपम सुधी होय. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी वैक्रियशरीरप्रयोग बन्धकाल. नरकपृथ्वी सुधी जाणवू. परन्तु देशबन्धने विषे जेनी जे जघन्य स्थिति होय तेने एक समय न्यून करवी, अने यावत् जेनी उत्कृष्ट स्थिति होय ते पण समय न्यून करवी. पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यने वायुकायिकनी पेठे जाणवू. असुरकुमार, नागकुमार, यावद् अनुत्तरौपपातिक देवोने नारकनी पेठे जाणवा; परन्तु जेनी जे स्थिति (आयुष्य) होय ते कहेवी, यावद् अनुत्तरौपपातिकोनो सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी त्रण समय न्यून एकत्रीश सागरोपम सुधीनो होय छे तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधीनो छे. ५१. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरना प्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर क्रियशरीरप्रयोगजघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, यावद् आवलिकाना असंख्यातमा भागना समय तुल्य असंख्य बन्धन अन्तर. पुद्गल परावर्त सुधी होय छे. ए प्रमाणे देशबन्धनुं अन्तर पण जाणवू. 1-नेरइया एवं क विनाऽन्यत्र । २-या णेयवा ङ। । एवं चेव अणु-ङ विनाऽन्यत्र । ४ सत्तमाए क-घ विना। ५ समऊणा घ। व जस्स जा उकोसा क-ङ विनाऽन्यत्र । ७ -बंधंतरे ण क विनाऽम्यन्त्र । ४८.* औदारिकशरीरी वैक्रियशरीर करतो प्रथम समये सर्वबन्धक थईने मरण पामी देव के नारक थाय त्यारे प्रथम समये सर्वबन्ध करे, माटे वैक्रियशरीरप्रयोगवन्धनो सर्वबन्ध उत्कृष्टथी बे समय होय. तथा औदारिकशरीरी वैक्रिय शरीर करतो प्रथग समये सर्वबन्ध करी यीजे समये देशबन्धक याग भने तरत ज मरण पामे माटे देशबन्ध जघन्यथी एक समय होय छे.-टीका. . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ४६. [प्र०] तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरपुच्छा। उ०] गोयमा! वीरिय० जहा वाउकाइयाणं, मणुस्सपंचिंदिया बेउधिय० एवं चेव । असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउधिय० जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पोवया वेमाणिया, एवं जाव अच्चयगेवेजकप्पातीया वेमाणियां, अणुत्तरोघवाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव। ४७. [प्र०] वेउबियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे, सवबंधे ? [उ०] गोयमा! देसबंधे वि, सपबंधे वि। पाउकाइयएगिदिय० एवं चेव, रयणप्पभापुढविनेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुत्तरोववाइया । ४८. [प्र०] वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबंधे जहन्नेणं एक समयं, उकोसेणं दो समया । देसबंधे जहन्नेणं एकं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई। ४९. [प्र०] वाउकाइयएगिदियवेउशियपुच्छा । [उ०] गोयमा! सबंधे एकं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एकं समयं, उकोसेणं अंतोमुहुत्तं । ५०. [प्र.] रयणप्पमापुढविणेरइयपुच्छा। [उ०] गोयमा! सबंधे एकं समयं, देसबंधे जहण्णेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं समयूणं, एवं जाव अहे सत्तमा, नवरं देसबंधे जस्स जा जहनिया ठिती सा तिसमयणा कायबा, जाव उक्कोसिआ सा समयूणा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं, असुरकुमारनागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं; नवरं जस्स जा ठिती सा भाणियधा, जाव अणुत्तरोववाइयाणं सवबंधे एक समयं, देसबंधे जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाइं तिसमऊणाई, उक्कोंसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयूणाई । ५१. [प्र०] वेउवियसरीरप्पओगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सबंधंतरं जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ- जाव आवलियाए असंखेजहभागो एवं देसबंधंतरं पि।। ४६. [प्र०] तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ.] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने सद्रव्यताथी तिर्यंचयोनिकवैक्रिय पूर्ववत् जेम वायुकायिकोने कडं तेम जाणवू. मनुष्य पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध पण ए प्रमाणे जाणवो. असुरकुमार भवनवासीदेव शरीरप्रयोगबन्ध. पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध रत्नप्रभापृथिवीना नैरयिकनी पेठे जाणवो. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ए रीते वानव्यंतर, ज्योतिषिक, सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक यावद् अच्युत, अने प्रैवेयक कल्पातीत वैमानिकोने जाणवू. तथा अनुत्तरौपपातिककल्पातीत वैमानिकोने पण ए प्रमाणे जाणवा. ४७. प्रि०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे? [उ.] हे गौतम! ते देशबन्ध पण छे देशबन्ध बने सर्व अने सर्वबन्ध पण छे. ए प्रमाणे वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध तथा रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध जाणवो. ए प्रमाणे यावद् अनुत्तरौपपातिक देवो सुधी जाणवू. ४८. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्या सुधी होय! [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्ध जघन्यथी एक समय, अने क्रियशरीरप्रयोगउत्कृष्टथी *बे समय सुधी होय. तथा देशबन्ध जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधी होय. वन्धकाल. ४९. [प्र०] वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध बायकायिक क्रिया जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी अन्तर्मुहूर्त सुधी होय छे. शरीरप्रयोगवन्धनो ५०. [प्र०] रत्नप्रभानैरयिकवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धसंबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी, विचारलप्रभा नैरयिकत्रण समय उणा दशहजार वर्ष सुधी होय, तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून एक सागरोपम सुधी होय. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी क्रियशरीरप्रयोगनरकपृथ्वी सुधी जाणवू. परन्तु देशबन्धने विषे जेनी जे जघन्य स्थिति होय तेने एक समय न्यून करवी, अने यावत् जेनी उत्कृष्ट स्थिति होय ते पण समय न्यून करवी. पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यने वायुकायिकनी पेठे जाणवू. असुरकुमार, नागकुमार, यावद् अनुत्तरौपपातिक देवोने नारकनी पेठे जाणवा; परन्तु जेनी जे स्थिति (आयुष्य) होय ते कहेवी, यावद् अनुत्तरौपपातिकोनो सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी त्रण समय न्यून एकत्रीश सागरोपम सुधीनो होय छे; तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधीनो छे. ५१. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरना प्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्या सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धन अन्तर क्रियाशीपयोग जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, यावद् आवलिकाना असंख्यातमा भागना समय तुल्य असंख्य गन्धर्नु भन्तर. पुद्गल परावर्त सुधी होय छे. ए प्रमाणे देशबन्धनुं अन्तर पण जाणq. १-नेरइया एवं क विनाऽन्यत्र । २-या णेयब्वा ङ। एवं चेव अणु-ङ विनाऽन्यत्र । ४ सत्तमाए क-घ विना। ५ समजणाघ। बजस्स जा उफोसा क-ङ विनाऽन्यत्र । -बंधंतरे ण क विनाऽम्यत्र । ४८. * औदारिकशरीरी वैक्रियशरीर करतो प्रथम समये सर्वबन्धक थईने मरण पामी देव के नारक थाय त्यारे प्रथम समये सर्वबन्ध करे, माटे वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनो सर्वबन्ध उत्कृष्टथी बे समय होय. तथा औदारिकशरीरी वैक्रिय शरीर करतो प्रथम समये सर्वबन्ध करी बीजे समये देशवन्धक बाग भने तरत ज मरण पामे माटे देशबन्ध जघन्यथी एक समय होय छे.-टीका. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १११ चमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो; देसवंधंतरं जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालंवणस्सइकालो; एवं जाव अच्चुए । नवरं जस्स जा ठिती सा सवबंधंतरं जहण्णेण वासपुहत्तमभहिया कायवा, सेस तं चेव । ५७. [प्र०] गेवेजकप्पातीय-पुच्छा । [उ.] गोयमा! सतवंधंतरं जहन्नेण बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो । देसवंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। ५८. [प्र०] जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइय-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सबबंधंतरं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाइं । देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाई । ५९. [प्र०] एएसिणं भंते! जीवाणं वेउचियसरीरस्स देसवंधगाणं, सवबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा वेउवियसरीरस्स सच्चवंधगा, देसबंधगा असंखेजगुणा, अवंधगा अणंतगुणा । ६०. [३०] आहारगसरीरप्पओगवंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? उ०] गोयमा! एगागारे पण्णत्ते । ६१. [प्र०] जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीरप्पओगवंधे, अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? [उ०] गोयमा! मणुस्साहारगसरीरप्पओगबंधे, नो अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगवंधे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिहिपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरप्पओगबंधे, णो अणिढिपत्तपमत्त० जाव आहारगसरीरप्पओगवंधे। , ६२. [प्र०] आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? [उ०] गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दधयाए जाव लद्धिं च पडुञ्च आहारगसरीरप्पओगणामाए कम्मरस उदएणं आहारगसरीरप्पओगबंधे। गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी *वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम, अने उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त होय. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकाल होय. ए प्रमाणे यावद् अच्युत देवलोकपर्यन्त जाणवं, परन्तु सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी जेनी जे स्थिति होय ते वर्षपृथक्त्व अधिक करवी. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू. ५७. [प्र०] ग्रैवेयक कल्पातीत वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी गैवेयककरुपातीत. वर्षपृथक्त्व अधिक बावीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी अनंतकालं-वनस्पतिकाल सुधी होय. तथा देशबन्धन अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अने उत्कृष्टथी वनस्पतिकाल जाणवो. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेवसंबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक अनुत्तरोपपातिक. एकत्रीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी संख्यात सागरोपम छे. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्टथी संख्यात सागरोपम होय छे. ५९. [प्र०] हे भगवन्! ए वैक्रियशरीरना देशबंधक, सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् अपबहुस्व. विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! वैक्रियशरीरना सर्वबन्धक जीवो सौथी थोडा छे, तेथी देशबन्धको असंख्यातगुणा छे, अने तेथी अबन्धको अनन्तगुणा छे. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरनो प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! एक प्रकारनो कह्यो छे. आहारकशरीरम योगबन्ध. ६१. [प्र०] जो (आहारकशरीरप्रयोगबन्ध) एक प्रकारनो कह्यो छे तो शुं ते मनुष्योने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध छे के मनुष्य- अहारकशरीर प्रयो. शिवाय बीजा जीवोने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध छे! [उ०] हे गौतम! मनुष्योने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण मनुष्य शिवाय, गबन्ध मनुष्य के ते 4 शिवाय चीजाने होय. बीजा जीवोने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होतो नथी. ए प्रमाणे ए अभिलापथी अवगाहनासंस्थान' पदमां कह्या प्रमाणे यावद् ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्षना आयुष्वाळा कर्मभूमिमा उत्पन्न थएला गर्भज मनुष्यने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण ऋद्धिने अप्राप्त प्रमत्तसंयतने यावद् आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होतो नथी. ६२. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी होय छे ? [उ०] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने भाधारक शरीरप्रयो गवन्ध कया कर्मना सद्रव्यताथी यावद् लब्धिने आश्रयी आहारकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे. उदयधी होय! १-पुहुत्तम-ग। २ अचुया क। ३-बंधतरे क ।४-पुहुत्त ग-ङ। ५-भूमिगगम्भ -ग, भूमिगठभ-ङ। ६ लड़ि वा ङ। ५६. *आनतकल्पनो कोई देव अढार सागरोपमना आयुषवाळो उत्पत्तिने प्रथम समये सर्वबन्धक होय, अने त्यांची च्यवीने वर्षपृथक्त्व आयुषपर्यन्त मनुष्यमा रहीने पुनः तेज आनत कल्पमा उत्पन्न थईने प्रथम समये सर्वबन्धक थाय, तेथी सर्वबन्धनुं जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम जाणवू-टीका. ५८. अनुत्तरोपपातिकने विषे उत्कृष्ट सर्वबंधान्तर अने देशबंधान्तर संख्याता सागरोपम छे, कारण के त्यांथी च्यवीने अनन्तकाल संसारमा भ्रमण करतो नथी-टीका. ६१. प्रज्ञा० पद. २१ प. ४२३-१.५-११. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक.८-उद्देशक ९. ६३. [प्र०] आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सवबंधे ? [उ०] गोयमा ! देसबंधे वि सवबंधे वि।। ६४. [प्र०] आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! सवबंधे एक समयं, देसी जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । ६५. [प्र०] आहारगसरीरप्पओगबंधंतरंणं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ? [उ०] गोयमा! सबंधंतरं जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओं कालो, खेत्तओ अंणंता लोया-अवहपोग्गलपरियई देसूणं । एवं देसबंधंतरं पि।। ६६.०] एएसि भंते! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसवंधगाणं, सबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरोहितो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सबंधगा, देसबंधगा संखेजगुणा, अबंधगा अणंदगुणा। ६७. [प्र०] तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] ! गोयमा पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे, बेइंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे, जाव पंचिंदियतेयासरीरप्पओगबंधे । ६८. [प्र०] एगिदियतेयासरीरप्पोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे, जाव पजत्तासचट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिदियतेयासरीरप्पओगबंधे य, अपजचासघट्टसिखअणुत्तरोववाइय० जाव बंधे य। ६९. [प्र०] तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते कस्स कम्मस्स उदएणं? [उ०] गोयमा! वीरिय-सजोग-सइचयाए जाप आउयं च पडुच्च तेयासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं तेयासरीरप्पयोगबंधे। ७०. [प्र०] तेयासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! किं देसबंधे, सबंधे ? [उ०] गोयमा! देसबंधे, नो सबंधे। पेशवन्ध भने सर्व- ६३. [प्र०].हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छ ? [उ०] हे गौतम! देशबन्ध पण छे, अने सर्वबन्ध पण छे. जाधारक शरीरप्र- ६४. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्या सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! तेनो सर्वबन्ध एक समय, अने योगवन्धनो काल. देशबन्ध जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पण अंतर्मुहूर्त सुधी होय छे. अन्तर ६५. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरना प्रयोगबन्धन अंतर कालथी केटलं होय छे! [उ०] हे गौतम ! तेना सर्वबन्धन अन्तर जघन्यथी अंतर्मुहर्त, अने उत्कृष्टथी कालनी अपेक्षाए अनंतकाल-अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी होय छे. क्षेत्रथी अनंतलोक-काइक न्यून अर्धपुद्गल परावर्त छे. ए प्रमाणे देशबन्धन अन्तर पण जाणवू. देशवन्धक, सर्ववन्धक ६६. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबंधक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाअने भवन्धकर्नु धिक छे ? [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा जीवो आहारकशरीरना सर्वबंधक छे, तेथी देशबंधक संख्यात गुणा छे, अने तेथी अबन्धक अपबाव. जीवो अनन्तगुणा छे. रोजसशरीरप्रयोग ६७. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनो कयो छे, ते आ प्रमाणे-१ एकेन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, २ द्वीन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, ३ त्रीन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, यावत् ५ पंचेन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध. एकेन्द्रिय ६८. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] ए अभिलापथी ए प्रमाणे जेम ( कहेवो, यावद् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवपंचेन्द्रिय तैजसशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्तसर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावद् तैजसशरीरप्रयोगबन्ध छे. तेजस शरीरप्रयो- ६९. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने गवन्ध कया कर्मना "RENT मा सद्रव्यताथी यावद् आयुष्यने आश्रयी तैजसशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी तैजसशरीरनो प्रयोगबन्ध थाय छे. देशबन्ध के सर्वबन्धः ७०. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध छु देशबन्ध छे के सर्यबन्ध छ ! [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध के पण सर्वबन्ध नथी. सर्वबन्ध नथी. -प्पभोगधंतरे ग-घ-छ। ६८. * प्रज्ञा० पद. २१. प. ४२६-१.पं... Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११३ ७१. [प्र०] तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालओ केवश्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-अणाइए वा अपजवसिए, अणाइए वा सपजवसिए। ____७२. [प्र०] तेयासरीरप्पओगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! अणाइयस्स अपजवसियस्स नत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपजवसियस्स नत्थि अंतरं। ___७३. [प्र०] एएसि णं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसवंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरोहितो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सबथोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा, देसबंधगा अणंतगुणा।। - ७४. [प्र०] कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे, जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पओगबंधे। ७५. [प्र०] णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? [उ०] गोयमा ! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए, णाणंतरापणं, णाणप्पदोसेणं, णाणचासायणयाए, णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे। ७६. [प्र०] दरिसणावरणिजफम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? [उ०] गोयमा ! दंसणपडिणीययाए, एवं जहा णाणावरणिजं, नवरं दसणनाम घेत्तवं, जाव दंसणविसंवादणाजोगेणं दसणावरणिजकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं जाव पओगवंधे। ७७. प्रि० सायावेयणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? [उ०] गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिजकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिजकम्मा० जाब बंधे। ७१. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्यां सुधी होय ! [उ०] हे गौतम! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध बे प्रकारनो तैजसशरीरप्रयोग कह्यो छे. ते आ प्रमाणे-१ अनादि अपर्यवसित अने २ अनादि सपर्यवसित. बन्धनो काल. ७२. [प्र०] हे भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्यां सुधी होय ! उ०] हे गौतम ! अनादि अपर्यवसित अने जसशरीरप्रयोग अनादि सपर्यवसित ए बन्ने प्रकारना तैजसशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर नथी. पन्धन अन्तर. ७३. [प्र०] हे भगवन् ! ए तैजसशरीरना देशबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! तैजसशरीरना अबन्धक जीवो सौथी थोडा छे, तेथी देशबन्धक जीवो अनन्तगुण छे. ____७४. प्र०] हे भगवन् ! कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ प्रकारनो कह्यो छे, ते कार्मणशरीर प्रयोग आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध, यावद् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध. ७५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [उ०] हे गौतम! ज्ञाननी प्रत्यनी- शानावरणीय कामकताथी, ज्ञाननो अपलाप करवाथी, ज्ञाननो अन्तराय–विघ्न करखाथी, ज्ञाननो प्रद्वेष करवाथी, ज्ञाननी अत्यन्त आशातना करवाथी, ज्ञानना णशरीर प्रयोगबन्ध TITTA विसंवादन योगथी अने ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी ज्ञानावरणीयकामणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. थाय ? ७६. प्र०] हे भगवन् ! दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! दर्शननी दर्शनावरणीयकाम णशरीरप्रयोगबन्ध अत्यनीकताथी-इत्यादि जेम ज्ञानावरणीयना कारणो कह्या छे तेम दर्शनावरणीय माटे जाणवा; परन्तु [ज्ञानावरणीयस्थाने ] 'दर्शनावरणीय' कहे, यावद् दर्शन विसंवादनयोगथी, तथा दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी दर्शनावरणीयकामणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ७७. प्र०] हे भगवन् ! सातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगवन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे! [उ०] हे गौतम ! प्राणीओ उपर सातावेदनीयअनुकम्पा करवाथी, भूतो उपर अनुकंपा करवाथी-इत्यादि जेम *सप्तम शतकना दुःषमा उद्देशकमां कह्यु छे तेम कहे, यावद् तेओने परिताप नहि उत्पन्न करवाथी, अने सातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी सातावेदनीयकामणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. 1-पयोगबंधंतरे ण क विनाऽन्यत्र । २-सायणाए ग। ३-नाम घे- ग-घ। ४ दसमोरे-क विनाऽन्यत्र । ७७. * भग० खं... .. . . . .. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक ९० . .७८. [प्र०] असायावेयणिज-पुच्छा । [उ०] गोयमा! परदुषखणयाए, परसोयणयाए, जहा सत्तमसए दुस्समाउदेसप, जाष परियाषणयाए असायावेयणिजकम्मा० जाव पओगबंधे।। ७९. [प्र०] मोहणिजकम्मासरीर-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! तिवकोहयाप, तिघमाणयाए, तिवमाययाए, तिथलोमयाए, तिवदसणमोहणिजयाए, तिष्वचरित्तमोहणिजयाए मोहणिजकम्मासरीरप्पओग. जाव पओगबंधे। ८०. [प्र०] नेरइयाउयकम्मासरीर-पुच्छा। [उ०] गोयमा! महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, कुणिमाहारेणं, पंचिंदियवदेणं नेत्याउयकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीर० जाय पओगयंधे । ८१. [सं०] तिरिक्खजोणियाउअकम्मासरीर-पुच्छा। [उ०] गोयमा! माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलियवयणेणं, कृण्तुल-कूडमाणेणं तिरिक्खजोणियाउअकम्मा० जाव पयोगबंधे। ८२. [प्र०] मणुस्साउयकम्मासरीर-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पगइभइयाए, पगाविणीययाए, साणुकोसणयाए, अमच्छरियाए मणुस्साउयकम्मा० जाव पयोगबंधे। ८३. [प्र०] देवाउयकम्मासरीर-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतयोकम्मेणं, अकामनिज्जराप देवाउयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। ८४. [३०] सुमनामकम्मासरीर-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! काउजुययाए, भावुजुययाए, भासुजुययाए, अषिसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे । ८५. [प्र०] असुभनामकम्मासरीर-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! कायअणुजुययाए,जाव विसंघायणाजोगेणं असुभनामकम्मा० जाव पयोगबंधे। पसातादेवनीव. मोपनीय. बारकायुष तिर्यंचयोनिकायुष्. ७८. [प्र०] हे भगवन्! असातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! बीजाने दुःख देवाथी, बीजाने शोक उत्पन्न करवाथी-इत्यादि जेम *सप्तम शतकना दुःषमा उद्देशकमा कां छे तेम यावद् बीजाने परिताप उपजाववाथी अने असातावेदनीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी असातावेदनीयकामणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. .७९. [प्र०] हे भगवन्! मोहनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तीवक्रोध करवाथी, तीव्र मान करवाथी, तीव्र माया (कपट) करवाथी, तीव्र लोभ करवाथी, तीव्र दर्शनमोहनीयथी, तीव्र चारित्रमोहनीयथी तथा मोहनीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी मोहनीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८०. [प्र०] हे भगवन् ! नारकायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! महाआरम्भधी, महापरिग्रहथी, मांसाहार करवाथी, पंचेन्द्रिय जीवोनो वध करवाथी तथा नारकायुषकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी नारकायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८१. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम! मायिकपणाथी, कपटीपणाथी, खोटुं बोलवाथी, खोटां तोलां अने खोटो मापथी तथा तिर्यंचयोनिकायुषकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी तिर्यंचयोनिकायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ___८२. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! प्रकृतिनी भद्रताथी, प्रकृतिना विनीतपणाथी, दयाळूपणाथी, अमत्सरिपणाथी तथा मनुष्यायुषकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी मनुष्यायषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८३. [प्र०] देवायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सरागसंयमथी, संयमासंयम-(देशविरति )थी, अमानतपकर्मथी, अकामनिर्जराथी तथा देवायुष्कार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी देवायुषकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८४. [प्र०] शुभनामकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कायनी सरलताथी, भावनी सरलताथी, भाषानी सरलताथी अने योगना अविसंवादनपणाथी-एकताथी तथा शुभनामकार्मणशरीरप्रयोगनाम कर्मना उदयथी यावत् प्रयोगबन्ध थाय छे.. ८५. [प्र०] अशुभनामकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कायनी वक्रताथी, भावनी वक्रतापी, भाषानी वक्रताथी, अने योगना विसंवादनपणाथी-भिन्नताथी अशुभनामकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी यावत् प्रयोगबन्ध थाय छे.. मनुष्यायुषः वायुष्ः शुभनाम. शुभनाम. - .७८, भग. सं. ३. श. ७. उ. ६. पृ. २०. सू. १६. १ समोदे-क बिनाऽन्यत्र । २ -सरीरप्पओगवंधे णं भंते पुच्छा क विनाऽन्यत्र । . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्खामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८६. [प्र०] उच्चागोयकम्मासरीर-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जातिअमदेणं, कुलअमदेणं, बलअमदेणं, रूवामदेणं, तपामदेणं, सुयअमदेणं, लाभअमदेणं, इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। ८७. [प्र०] नीयागोयकम्मासरीर-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जातिमदेणं, कुलमदेणं, घलमदेणं, जाव इस्सरियमदेणं नीयागोयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। ८८. [प्र०] अंतराइयकम्मासरीर-पुच्छा । [उ०] गोयमा! दाणंतरापणं, लाभंतरापणं, भोगंतराएणं, उपभोगंतराएणं, वीरियंतरापणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगधंधे। ८९. [प्र०] णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सपबंधे ? [उ०] गोयमा! देसवंधे, णो सबबंधे, एवं जाव अंतराइयं । ९०. [प्र०] णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवश्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! दुविहे पण, तं जहा-अणादीए एवं जहा तेयगस्स संचिटणा तहेव, एवं जाव अंतराइयस्स । . ९१. [प्र०] णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगधंतरं णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ! [उ०] गोयमा ! अणाइयस्स, एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव, एवं जाव अंतराइयस्स । ९२. [प्र०] एएसि णं भंते ! जीवाणं णाणावरणिजस्स कम्मस्स देसबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरे जाव ? [उ०] अप्पाबहुगं जहा तेयगस्स, एवं आउयवजं जाव अंतराइयस्स । - ९३. [प्र०] आउयस्स पुच्छा। [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधगा, अबंधगा संखेजगुणा। ८६. [प्र०] उच्चगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जातिमद न करवाथी, कुलमद न करवायी उसगोष बलमद न करवाथी, रूपमद न करवाथी, तपमद न करवाथी, श्रुतमद न करवाधी, लाभमद न करवायी अने ऐश्वर्यमद न करवाथी, तथा उच्चगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी उच्चगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८७. [प्र०] नीचगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जातिमद करवाथी, कुलमद करवाथी, बलमद नौबगोक करवाथी, यावद् ऐश्वर्यमद करवाथी तथा नीचगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी नीचगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८८. [प्र०] अंतरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! दाननो अन्तराय करवायी, लाभनो अन्तराय करवायी, भोगनो अन्तराय करवाथी, उपभोगनो अन्तराय करवाथी अने वीर्यनो अन्तराय करवाथी तथा अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी अंतरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ८९. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध शुं देशबन्ध छे के सर्वबन्ध छे ! [उ०] हे गौतम ! देशबन्ध छे, पानावरणीयनो पण सर्वबन्ध नथी. ए प्रमाणे यावद् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध सुधी जाणवू. देशवन्द सर्वबन्दी ९०. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कालथी क्या संधी होय ! [उ०] हे गौतम! ज्ञानावरणीयकार्मण- पानावरणीयकामक शरीरप्रयोगबन्ध बे प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-अनादि सपर्यवसित (सान्त) अने अनादि अपर्यवसित (अनन्त). ए प्रमाणे : यावत् जेम तैजस शरीरनो स्थितिकाल कह्यो छे तेम अहीं पण कहेवो, ए प्रमाणे यावद् अन्तराय कर्मनो स्थितिकाल जाणवो. ९१. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्या सुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! अनादि पानावरणीयकामण अनंत अने अनादि सांत छे. जे प्रमाणे तैजसशरीरप्रयोगबन्धन अन्तर कह्यु (सू. ७२.) ते प्रमाणे अहीं पण कहे,. ए प्रमाणे यावद् शरीर प्रयोगवन्धर्नु अंतरायकार्मणशरीरप्रयोगबन्धनुं अन्तर जाणवू. ९२. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मना देशबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे? देशबन्धक भने मा [उ०] जेम तैजस शरीरनुं अल्पबहुत्व कयु (सू. ७३.) तेम अहीं पण जाणवू. ए प्रमाणे आयुषकर्म शिवाय यावत् अन्तराय कर्म सुधी जाणq. ' मर्नु मपमहत्व ९३. [प्र०] आयुषकर्म संबन्धे प्रश्न. [उ० ] हे गौतम ! आयुषकर्मना देशबन्धक जीवो सौथी थोडा छे, अने तेनाथी अबंधक आयु कमैना पैटजीवो संख्यातगुण छे. एन्धक बनेगबन्धक बीबोर्नु मस्परहुल. भणाइए सपजवसिए, अणाइए अपज्जवसिए वा एवं -ग-ध। २ जहेव छ। ३-यक्रम्मस्स ग-छ। ४-सरे गंक विनाऽन्यत्र । ५'बाउयपु-क। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारक शरीरवन्धनो संबन्ध. तैजसशरीरनो संवन्ध. देशवन्धक के सर्व बन्धक कार्मणशरीरनो संबन्ध. बौदारिक शरीरना देशबन्ध साथै वैक्रिय शरीरनो संबन्ध. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ८. - उद्देशक ९. ९४. [०] जस्सणं भंते ओरालियसरीरस्स सङ्घबंधे से णं भंते ! वेउधियसरीरस्स कि बंधए, अबंधप ! [उं०] गोयमा ! नो बंधए, अबंधए । ११६ ९५. [प्र०] आहारगसरीरस्स किं बंधए अबंधर ? [30] गोयभा ! नो बंघए अबंधप । ९६. [प्र० ] तेयासरीररस कि बंधप, अबंध‍ [30] गोयमा ! बंध, नो अधर । शरीरबन्धनो परस्पर संबन्ध. चौदारिक शरीरना ९४. [प्र० ] हे भगवन् ! जे जीवने औदारिकशरीरनो सर्वबन्ध छे ते जीव शुं वैक्रियशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! [उ०] सर्वयन्ध साथै वै- हे गौतम ! ते बन्धक नथी; पण अबन्धक छे. क्रिपशरीरबन्धनो संवन्ध. ९७. [प्र० ] जर बंध किं देसबंध सङ्घबंध‍ ? [अ०] गोयमा ! देसबंधप, नो सङ्घबंधर । ९८. [२०] कम्मासरीरस्स कि बंधर, अबंध [30] अहेव तेयगस्स, जाव देसबंध जो ९९. [२०] जस्स णं भंते! ओराहियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते! वेडधिवसरीरस्स किं पंधर, अयंचर [४०] गोयमा ! नो बंध, अबंधर । एवं जहेव संबंधणं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियां जाव कम्मगस्स । १००. [प्र० ] जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स सङ्घबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधप, अबंधर ? [अ०] गोयमा ! नो बंध, अबंधप । आहारगसरीरस्स एवं चेव, तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं मणियं तद्वेष भाणियवं 'जाव देसबंधर, नो सङ्घबंघए । १०१. [प्र० ] जस्स णं भंते! वेउधियसरीरस्स देसवंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधर ? [30] गोयमा ! नो बंधए, अबंधर । एवं जहेव सङ्घबंधणं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियष्वं जाव कम्मगस्स । १०२. [अ०] जस्स भंते! आहारगसरीरस्स सङ्घयंधे से णं भंते! ओराडियसरीरस्स कि बंपर, अधर [30] गोषमा ! नो बंध, अवंधर एवं येउधियस्स वि, तेया कम्माणं जहेब ओरालिएणं समं भणियं तदेव माणियां | ९५. [प्र०] औदारिकशरीरनो सर्वबन्धक शुं आहारकशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? [उ०] है गौतम ! बन्धक नयी, पण अबन्धक छे. ९६. [प्र०] तैजसशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम! ते तैजसशरीरनो बन्धक छे पण अबन्धक नथी. ९७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते ( तैजस शरीरनो) बन्धक छे तो शुं देशबन्धक छे के सर्वबन्धक छे ! [उ०] हे गौतम ! देशबन्धक छे, पण सर्वबन्धक नथी. ९८. [ प्र० ] कार्मणशरीरनो बंधक के अबंधक छे ! [30] हे गौतम 1 तैजस शरीरनी पेढे यावत् कार्मणशरीरनो देशबन्धक हे पण सर्वबन्धक नथी. ९९. [प्र०] हे भगवन् ! जेने औदारिकशरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं वैक्रियशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! [उ०] हे गौतम! बन्धक नथी, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे जेम सर्वबन्धना प्रसंगे कयुं, तेम अहीं देशबन्धना प्रसंगे पण यावत् कार्मण शरीर सुधी कहे. वैक्रिय शरीरना १००. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने वैक्रियशरीरनो सर्वबन्ध छे ते जीव शुं औदारिकशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ? सर्वबन्ध साथै औदा- [उ०] हे गौतम! बन्धक नथीं, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे आहारकशरीर माटे पण जाणवुं, तैजस अने कार्मण शरीरने जेम औदारिक शरीरनी साधे कां तेम बैक्रिपशरीरनी साधे पण कहेतुं यावद् देशबन्धक छे पण सर्वबन्धक नवी रिक शरीरनो संबन्ध. देशबन्ध साये चौदा १०१. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने वैक्रियशरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! रिक शरीरबन्धन [30] हे गौतम! बन्धक नथी, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे जेम [ वैक्रियशरीरना ] सर्वबंधना प्रसंगे कयुं तेम अहीं देशबन्धना प्रसंगे पण यावत् कार्मणशरीर सुधी कहेवुं. संवन्ध आहारक शरीरना १०२. [प्र० ] हे भगवन् ! जे जीवने आहारकशरीरनो सर्वबन्ध होय ते जीव शुं औदारिकशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! सर्वबन्ध साथै बौदा [30] हे गौतम ! बन्धक नथी, पण अबन्धक छे. ए प्रमाणे वैक्रियशरीरने पण जाणवुं. अने जेम तैजस अने कार्मण शरीरने औदारिक मिक शरीरबन्धनो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११७ १०३. [प्र०] जस्स णं भंते ! आहारगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स? [उ.1 एवं जहा आहारगस्स सबंधेणं भणियं तहा देसबंधण वि भाणियवं, जाव कम्मगस्स । १०४. [प्र० जस्स गं भंते! तेयासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? [उ.1 गोयमा ! बंधए वा, अबंधए वा। १०५. [प्र०] जइ बंधए किं देसबंधए, सवबंधए ? [उ०] गोयमा! देसवंधए वा सवबंधए वा। १०६. [प्र०] वेउधियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए ? [उ०] एवं चैव, एवं आहारगसरीरस्स वि । १०७. [प्र०] कम्मगसरीरस्स किं बंधए, अबंधए ? [उ०] गोयमा! बंधए, नो अबंधए। १०८. [प्र०] जइ बंधए किं देसवंधए, सबबंधए ? [उ०] गोयमा! देसबंधए, नो सबंधए । १०९. [प्र०] जस्स णं भंते ! कम्मासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियस्स.? [उ०] जहा तेयगस्स बत्तवया मणिया तहा कम्मगस्स वि भाणियधा, जाव तेयासरीरस्स जाव देसबंधए, नो सष्पबंधए । ११०. [प्र०] एएसिणं भंते! सध्वजीवाणं ओरालिय-वेउविय-आहारग-तेया-कम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सवबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरोहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सबंधगा, तस्स चेव देसबंधगा संखेजगुणा । वेउवियसरीरस्स सबंधगा असंखेजगुणा, तस्स चेव देतबंधगा असंखेजगुणा । तेया-कम्मगाणं अबंधगा अणंतगुणा दोण्ह वि तुल्ला । ओरालियसरीरस्स सबंधगा अणंतगुणा, तस्स चेव अबंधगा विसेसाहिया, तस्स चेव देसबंधगा असंखेजगुणा । तेया-कम्मगाणं देसवंधगा विसेसाहिया; वेउवियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया, आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । अट्ठमसए नवमो उद्देसो समचो। १०३. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने आहारक शरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे! आहारक शरीरना देशबन्ध साथे बौदा [उ०] हे गौतम! जेम आहारक शरीरना सर्वबन्ध साथे कयुं छे तेम देशबन्धनी साथे पण यावत् कार्मणशरीर सुधी कहे. रिक शरीरनो संबन्ध १०१. (प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने तैजसशरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिक शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे! तैजस शरीरना देश पन्धक साये सौदा[उ०] हे गौतम ! बन्धक पण छे अने अबन्धक पण छे. रिक शरीरनो संवन्ध १०५. प्रि०] जो ते जीव [औदारिक शरीरनो] बन्धक छे तो शुं देशबन्धक छे के सर्वबन्धक छे! उ० हे गौतम! ते बौदारिक शरीरनो देशबन्धक पण छे अने सर्वबन्धक पण छे. देशवन्धक के सर्वक न्धको ... १०६. [प्र०] ते जीव शुं वैक्रियशरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवू, ए प्रमाणे आहारक शरीर माटे क्रियशरीरनो प न्धक के अबन्धको पण जाणवं. . १०७. [प्र०] ते जीव शुं कार्मण शरीरनो बन्धक छे के अबन्धक छे ! [उ०] हे गौतम ! बन्धक छे, पण अबन्धक नथी. कार्मण शरीरनो भक के अबन्धक १०८. [प्र०] जो [ कार्मण शरीरनो] बन्धक छे तो शुं देशबन्धक छे के सर्वबन्धक छे ? [उ०] हे गौतम ! देशबन्धक छे, देशवन्धक के सर्वपण सर्वबन्धक नथी. वन्धक! १०९. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने कार्मणशरीरनो देशबन्ध छे ते जीव शुं औदारिकनो बन्धक छे के अबन्धक छे! [उ०] कामण शरीरना देश बन्धक साये औदाजेम तैजसशरीरनी वक्तव्यता कही, तेम कार्मण शरीरनी पण वक्तव्यता कहेवी, यावत् तैजसशरीरनो देशबन्धक छे, पण सर्वबन्धक नथी.' संवन्ध ११०. प्र०] हे भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मणशरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबन्धक एवा सर्व शरीरना देशबन्धक, जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! १ सौथी थोडा जीवो आहारक शरीरना सर्वबन्धक छे, २ तेथी व न्यकर्नु अल्पबहुल. तेना देशबन्धक संख्यातगुणा छे, ३ तेथी वैक्रियशरीरना सर्वबन्धक असंख्यातगुणा छे, ४ तेथी तेना देशबन्धक जीवो असंख्यातगुणा छे, ५ तेथी तैजस अने कार्मण शरीरना अबन्धक जीवो अनंतगुण अने परस्पर तुल्य छे. ६ तेथी औदारिक शरीरना सर्वबन्धक जीवो अनंत गुण छे, ७ तेथी तेना अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, ८ तेथी तेना देशबन्धक जीवो असंख्येयगुणा छे, ९ तेथी तैजस अने कार्मण शरीरना देशबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, १० तेथी वैक्रिय शरीरना अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, ११ तेथी आहारक शरीरना अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे. हे भगवन् ! ते एम ज छे, हे भगवन् ! ते एम ज छे [ एम कही भगवान् गौतम! यावद् विहरे छे. ] ___ अष्टम शतके नवम उद्देशक समाप्त. १ कम्मगस-घ। २ दुह वि तुल्ला अयंधगा अणंतगुणा छ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो. १. [प्र. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी, अन्नउत्थिया णं भंते! एवं आइक्खंति, जाव एवं परुति-"एवं खल १ सील सेयं, २ सुयं सेयं, ३ सुयं सेयं, सील सेयं" से कहमेयं भंते ! एवं ? [उ०] गोयमा ! जंणं ते अनउत्थिया एवं आइक्वंति, जाव जे ते एवं आईसु, मिच्छा ते एवं आहेसु; अहं पुण गोयमा! एवं आइपखामि, जाव परूवेमि-एवं खलु मए चत्तारि परिसजाया पन्नत्ता. तं जहा-१ सीलसंपन्ने णाम एगे णो सुयसंपने, २ सुयसंपन्ने नाम एगे नो सीलसंपणे, एगे सीलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि, ४ एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने । तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सील असुयवं; उवरए, अविनायधम्मे, एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते । तत्थ णं जे से दोघे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं; अणुवरए, विनायधम्मे; एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसविराहए पन्नत्ते । तत्थ णं जे से तचे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं सुयवं; उवरए, विनायधम्मे; एस गं गोयमा! मए पुरिसे सधाराहए पन्नत्ते। तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं असुतवं; अणुवरए, अविण्णायधम्मे; एस णं गोयमा! मए पुरिसे सवविराहए पन्नत्ते । २. [प्र०] कतिविहा णं भंते! आराहणा पण्णता? [उ.] गोयमा! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं जहा-नाणाराहणा, सणाराहणा, चरिताराहणा। दशम उद्देशक. शीलज श्रेय छे'. १. [प्र०] *राजगृह नगरमां यावद् [गौतम ] ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! अन्यतीर्थिको ए प्रमाणे कहे छे, यावद् ए त्यादि अन्य तीथि प्रमाणे प्ररूपे छे-"ए रीते खरेखर १ शील ज श्रेय छे, २ श्रुत ज श्रेय छे, ३ [ शीलनिरपेक्ष ज] श्रुत श्रेय छे, अथवा [श्रुतनिर पेक्ष ज ] शील श्रेय छे, तो हे भगवन्! ए प्रमाणे केम होइ शके ! [उ०] हे गौतम! ते अन्यतीर्थिको जे ए प्रमाणे कहे छे, यावत् तेओए 'शीलसंपन्न हे पण जे ए प्रमाणे कयुं छे ते तेओए मिथ्या कह्यु छे. हे गौतम ! हुं वळी आ प्रमाणे कडं छु, यावत् प्ररूपुंछ, ए प्रमाणे में चार प्रकारना पुरुषो श्रुतसंपन्न नथी'P A कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ एक शीलसंपन्न छे पण श्रुतसंपन्न नथी, २ एक श्रुतसंपन्न छे पण शीलसंपन्न नथी, ३ एक शीलसंपन्न छे अने श्रुतसंपन्न पण छे, ४ एक शीलसंपन्न नथी तेम श्रुतसंपन्न पण नथी. तेमा जे प्रथम प्रकारनो पुरुष छे ते शीलवान् छे पण श्रुतवान् देशाराधक. नथी. ते उपरत (पापादिकथी निवृत्त ) छे, पण धर्मने जाणतो नथी. हे गौतम ! ते पुरुषने में देशाराधक कह्यो छे. तेमां जे बीजो पुरुष छे ते पुरुष शीलवाळो नथी, पण श्रुतवाळो छे. ते पुरुष अनुपरत (पापथी अनिवृत्त) छतां पण धर्मने जाणे छे. हे गौतम ! ते देशविराधक पुरुषने में देशविराधक कह्यो छे. तेमां जे त्रीजो पुरुष छे ते शीलबाळो छ अने श्रुतवाळो पण छे. ते पुरुष [पापथी ] उपरत छे अने धर्मने जाणे छे. हे गौतम ! ते पुरुषने में सर्वाराधक कह्यो छे. तेमां जे चोथो पुरुष छे ते शीलथी अने श्रुतथी रहित छे, ते पापथी उपसर्व विराधक. रत नधी अने धर्मथी अज्ञात छे. हे गौतम ! ए पुरुषने हुं सर्वविराधक कहुं छं. आराधना. माराधनाना प्रकार. २. प्र०] हे भगवन् ! आराधना केटला प्रकारनी कही छे? [उ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनी आराधना कही छे ते आ प्रमाणे १ ज्ञानाराधना, २ दर्शनाराधना अने ३ चारित्राराधना. कानमन्तव्य. माना Mill १.. केटला एक अन्यतीर्थिको एम माने छे के शील-प्राणातिपातादि विरमणरूप क्रिया मान श्रेय छे; ज्ञान- कंद पण प्रयोजन नथी, केमके ते चेष्टारहित छे. वीजा ज्ञानमात्रथी फलसिद्धि माने छे, कारण के ज्ञानरहित क्रियावाळाने फलसिद्धि थती नथी, तेथी तेओ कहे छ के श्रुत-ज्ञानज धेय हे. अन्य परस्पर निरपेक्ष श्रुत अने शीलथी अभीष्टार्थसिद्धि माने छे-एटले तेओ क्रियारहित ज्ञान, अथवा शानरहित कियाथी अभीष्ट सिद्धि माने छ, फेमके बनेमांना प्रत्येक पुरुषनी पवित्रतार्नु कारण छे. तेथी एम कहे छे के ३ शील अथवा ४ श्रुत श्रेय छे.-टीका. . २.१ ज्ञानाराधना-योग्यकाले अध्ययन, विनय, बहुमान-इत्यादि अष्टविध ज्ञानाचारनुं निरतिचारपणे परिपालन कर. २ दर्शनाराधना-दर्शन एटले सम्यक्त्व, तेना निःशंकितादि आठ प्रकारना आचारर्नु पालन करयु. ३ चारित्राचार-निरविचारपणे पंचसमित्यादि चारित्राचारनुं पालन. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८. - उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११९ ३. [प्र० ] णाणाराहणा णं भंते ! कतिविद्या पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! तिविद्या पण्णत्ता, तं जहा- उक्कोसिया, मज्झिमा, अण्णा । ४. [ प्र०] दंसणाराहणा णं भंते कतिविहा ? [30] एवं चेव तिविहा वि, एवं चरिताराहणा वि । ५. [२०] जस्स भंते! उक्कोसिया गाणाराहणा तस्स उकोसिया दंसणाराहणा, जस्स उच्कोसिया इंसणाराहणा तरस उफोसिया णाणाराहणा [30] गोयमा ! जस्स उशोसिया णाणाराहणा तस्स दंसणाराहणा उक्कोसा वा अजदधुकोसा बा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा, जहन्ना वा, अजहन्नमणुक्कोसा वा । ६. [प्र० ] जर णं भंते उफोसिया णाणाराहणा तस्स उकोसिमा चरिताराहणां जस्सुकोसिया चरिताराहणा तस्सुकोसि णाणाराहणा ? [अ०] जहा उक्कोसिआ णाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा उक्कोसिआ णाणाराहणा य परिचाराहणा य भाणिभा । ७. [प्र० ] जस्स णं भंते! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरिताराहणा, जस्सुकोसिया चरिताराहणा तस्सुकोसिया दंसणाराहणा ? [30] गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा, जहन्ना वा अजभमणुकोसा था, जस्स पुण उशोसिया चरिताराहणा तस्स दंसणारादणा नियमा उक्कोसा। ८. [प्र० ] उक्कोसियं णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति, जाव अंतं करेति ? [उ०] गोयमा ! अत्थेाइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति, जाव अंतं करोति; अत्थेगतिर दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झति, जाव अंतं करेति, अत्थे - गतिए कप्पोवरसु वा कप्पातीएसु वा उववज्जति । ९ [प्र०] कोसियं णं भंते! दंसणाराहणं आराहेता कतिहिं भवग्गणेहिं० [०] एवं चेष १०. [प्र०] उक्कोसियं णं भंते ! चरित्ताराहणं आराद्देत्ता ० १ [30] एवं चेव, नवरं अत्थेगतिए कप्पातीपसु उववज्जति । ३. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्ञानाराधना केटला प्रकारनी कही छे ? [अ०] हे गौतम! त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे - उत्कृष्ट, पानाराधना. मध्यम अने जघन्य. ४. [प्र० ] हे भगवन् ! दर्शनाराधना केटला प्रकारनी कही छे ? [ उ०] ए प्रमाणे त्रण प्रकारनी कही छे. ए रीते चारित्राराधना पण त्रण प्रकारनी जाणवी. ५. [प्र०] हे भगवन्! जे जीवने उत्कृष्ट शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय जे जीवने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय ते जीवने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होय ? [उ० ] हे गौतम! जे जीवने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होय तेने उत्कृष्ट अने मध्यम दर्शनाराधना 'होय, वळी जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट, जघन्य अने मध्यम ज्ञानाराधना होय. ६. [अ०] हे भगवन् ! जे जीवने ज्ञाननी उत्कृष्ट आराधना होय तेने चारित्रनी उत्कृष्ट आराधना होय! जे जीवने चारित्रनी . उत्कृष्ट आराधना होय तेने ज्ञाननी उत्कृष्ट आराधना होय ? [उ०] जेम उत्कृष्ट ज्ञानाराधना अने दर्शनाराधनानो संबन्ध कह्यो ते उत्कृष्ट ज्ञानाराधना अने उत्कृष्ट चारित्राराधनानो संबन्ध कहेवो. ७. [प्र०] हे भगवन्! जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय! जेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय तेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय ? [उ०] हे गौतम! जेने उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय तेने उत्कृष्ट, जघन्य अने मध्यम चारित्राराधना होय. तथा जेने उत्कृष्ट चारित्राराधना होय तेने अवश्य उत्कृष्ट दर्शनाराधना होय. दर्शनाराधना. पाना बने उत्कृष्ट दर्शनाराधनानो संवन्ध अने उत्कृष्ट चारिया धानाराधना राधनानो संबन्ध केटला भव पछी ८. [प्र० ] हे भगवन् ! जीव उत्कृष्ट ज्ञानाराधनाने आराधी केटला भव कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे ! उत्कृष्ट धानाराधक [३०] हे गौतम! केटलाक जीवो तेज भवमां सिद्ध धाय, यावत् सबै दुःखोनो नाश करे; केटलाक जीवो वे भयमां सिद्ध घाय, यावत् सर्व दुःखोनो नाश करे; अने केटलाक जीवो कल्पोपपन्न देवलोकोमां अथवा कल्पातीत देवलोकोमा उत्पन्न था. मोक्षे जाय १ दर्शना धाराधनानो संबन्ध भने उत्कृष्ट चारि ९. [प्र० ] हे भगवन् ! जीव उष्ट दर्शनाराधनाने आराधी केला भव कार्या पछी सिद्ध याय [३०] हे गौतम! पूर्वनी पेठे नाराक क्यारे मोक्षे जाय ! जाणवु. १०. [प्र० ] हे भगवन् ! उकृष्ट चारित्राराधनाने आराधी केटला भय कर्मा पछी जीवो सिद्ध थाप ! [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवु, अक्कुट परिवाराचक परन्तु केटलाएक जीवो कल्पातीत देवोमां उत्पन्न थाय.' क्यारे मोसे जाय Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १०. ११. [प्र०] मज्झिमियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझति, जाव अंतं करेति [] गोयमा ! अत्थेगतिए दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, जाव अंतं करेति, तथं पुण भवग्गहणं नाइकमह । १२. [प्र०] मज्झिमियं णं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता० ? [उ०] एवं चेव, एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि। १३. ३०] जहनियं णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझति, जाव अंतं करेति ? [उ०] गोयमा! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, जाव अंतं करेइ; सत्त-? भवग्गहणाई पुण नाइकमा । एवं दसणाराहणं पि, एवं चरित्ताराहणं पि। १४. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णते, तं जहावनपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे । १५. [प्र०] वनपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवनपरिणामे, जाव सुकिल्लवनपरिणामे । एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अट्टविहे। . १६. [प्र०] संठाणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिमंडलसंठाण. परिणामे, जाव आयतसंठाणपरिणामे । १७. [प्र०] एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसे कि दवं, दधदेसे, दवाई, दवदेसा; उदाहु दवं च दवदेसे य, उदाहु दवं च दवदेसा य, उदाहु दवाइं च दधदेसे य, उदाहु दवाई च दधदेसा य ? [उ०] गोयमा! सिय दवं, सिय दवदेसे; नो दघाई, नो दधदेसा, नो दवं च दधदेसे य, जाव नो दद्याइं च दचदेसा य । शाननी मध्यमारा- ११. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञाननी मध्यम आराधनाने आराधी केटला भव ग्रहण कर्या पछी जीव सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो धना आराधक क्यारे मोक्षे जाय। र अन्त करे? [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीवो बे भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो नाश करे, पण त्रीजा भवने अतिक्रमे नहीं. दर्शन अने चारित्रनी १२. [प्र०] हे भगवन् ! जीव मध्यम दर्शनाराधनाने आराधी केटला भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय ! [उ०] हे गौतम ! मध्यमाराधनानो पूर्वनी पेठे जाणवु. ए प्रमाणे चारित्रनी मध्यम आराधनाने माटे जाणवू. मोक्षे जाय! साननी जघन्य था- १३. प्र०] हे भगवन् ! जघन्य ज्ञानाराधनाने आराधी जीव केटला भव ग्रहण कर्या पछी सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो अन्त करे! [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीव त्रीजा भवमां सिद्ध थाय, यावत् सर्वदुःखोनो अन्त करे, पण सात आठ भवथी वधारे भवो न क्यारे मोक्षे जाय? प्रमाणे दर्शनारा- करे. ए प्रमाणे दर्शनाराधना अने चारित्राराधना माटे पण जाणवू. धना अने चारित्रा राधना. पुद्गलपरिणाम. पुद्गलपरिणामना १४. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलनो परिणाम केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रकार प्रमाणे,—वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम, रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम अने संस्थानपरिणाम. वर्णपरिणाम, गन्धप १५. प्र०ा हे भगवन् ! वर्णपरिणाम केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ काळोवर्णपरिणाम, यावत् ५ शुक्लवर्णपरिणाम. ए प्रमाणे ए अभिलापथी बे प्रकारनो गन्धपरिणाम, पांच प्रकारनो रसपरिणाम, अने आठ प्रकारनो स्पर्शपरिणाम जाणवो. संस्थानपरिणाम. १६. [प्र०] हे भगवन् ! संस्थानपरिणाम केटला प्रकारनो कह्यो छे! [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ परिमंडल संस्थानपरिणाम, यावद् ५ आयत संस्थानपरिणाम. पुद्रलासिसकायनो एक प्रदेश. १७. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश (परमाणु) १ शुं द्रव्य छे, २ द्रव्यदेश छे, ३ द्रव्यो छे, ४ द्रव्यदेशो छ, ५ अथवा द्रव्य अने द्रव्यदेश छे, ६ अथवा द्रव्य अने द्रव्यदेशो छे, ७ अथवा द्रव्यो अने द्रव्यदेश छे, ८ के द्रव्यो अने द्रव्यदेशो छ ! [उ०] हे गौतम! ते कथंचिद् द्रव्य छे, कथंचिद् द्रव्यदेश छे, पण द्रव्यो नथी, द्रव्यदेशो नथी, द्रव्य अने द्रव्यदेश नथी, यावद् व्यो अने द्रव्यदेशो नथी. १६.* १ परिमंडल-वलयाकारपरिणाम, २ वृत्ताकार, ३ श्यन, ४ चतुरन अने ५ आयतसंस्थान परिणाम-ए पांच प्रकारे संस्थानपरिणाम छे. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२१ १८. [प्र०] दो भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा कि दवं, दवदेसे-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय दवं, सिय दवदेसे, सिय दवाई, सिय दधदेसा; सिय दवं च दवदेसे य, नो दवं च दवदेसा य; सेसा पडिसेहेयवा । १९. प्र० तिन्नि भंते ! पोग्गलत्थिकायपयसा किं दवं दवदेसे-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय दवं, सिय दधदेसे, एवं सत्त भंगा भाणियवा, जाव सिय दवाइं च दवदेसे य, नो दवाइं च दवदेसा य । २०.०] चत्तारि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा किं दवं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! सिय दधं, सिय दवदेसे: अट्र वि भंगा भाणियथा, जाव सिय दवाइं च दधदेसा य; जहा चत्तारि भणिया एवं पंच, छ, सत्त, जाव असंखेजा। २१. [प्र०] अणंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा कि दचं ? [उ०] एवं चेव, जावं सिय दवाई च दश्वदेसा य । २२. [प्र०] केवतिया णं भंते ! लोयागासपएसा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! असंखेजा लोयागासपएसा पन्नत्ता। २३. [प्र०] एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवपएसा पण्णत्ता? [उ०] गोयमा! जावतिया लोयागासपएसा, एगमेगस्स णं जीवस्स ऐवतिया जीवपरसा पण्णत्ता । २४. [प्र०] कैति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? [उ०] गोयमा! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहानाणावरणिजं, जाव अंतराइयं । २५. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? [उ०] गोयमा ! अट्ट, एवं सघजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयधाओ जाव वेमाणियाणं । २६. [प्र. नाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मरस केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णता?[उ.] गोयमा अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। १८. प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो शुं द्रव्य छे के द्रव्यदेश छे ! इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न. [उ०] हे गौतम! कथं- प्रदेशो. चित् द्रव्य छे, २ कथंचित् द्रव्यदेश छे, ३ कथंचित् द्रव्यो छे, ४ कथंचित् द्रव्यदेशो छे, ५ कथंचित् द्रव्य अने द्रव्यदेश छे, पण द्रव्य अने द्रव्यदशो नथी, वाकीना विकल्पोनो प्रतिषेध करवो. . १९. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो शुं द्रव्य छे, द्रव्यदेश छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! १ कथंचित् प्रण प्रदेशो. द्रव्य छे, २ कथंचित् द्रव्यदेश छे, ए प्रमाणे सात भांगाओ कहेवा, यावत् कथंचित् द्रव्यो अने द्रव्यदेश छे, पण द्रव्यो अने द्रव्यदेशो नथी. २०. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना चार प्रदेशो शुं द्रव्य छे ! इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! १. कथंचिद् द्रव्य छे, चार प्रदेशो. २ कथंचित् द्रव्यदेश छे-इत्यादि आठ भांगा कहेवा, यावत् द्रव्यो अने द्रव्यदेशो छे, जेम चार प्रदेशो कह्या तेम पांच, छ, सात यावद् असंख्येय प्रदेशो पण कहेवा. २१. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो शुं द्रव्य छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवू, यावत् कथं- अनन्त प्रदेशो. चित् द्रव्यो अने द्रव्यदेशो छे. २२. [प्र०] हे भगवन् ! लोकाकाशना प्रदेशो केटला कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! असंख्य प्रदेशो कह्या छे. लोकाकाशना प्रदेशो. २३. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक जीवना केटला जीवप्रदेशो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! जेटला लोकाकाशना प्रदेशो कह्या एक जीवना प्रदेशो. छ तेटला एक एक जीवना प्रदेशो कह्या छे. . २४. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मप्रकृतिओ केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे-ज्ञाना- मप्रकृति. चरणीय, यावद् अन्तराय. २५. [प्र०] हे भगवन् ! नरयिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे! [उ. हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ए प्रमाणे नैरयिकोने यावर सर्वजीवोने यावद् वैमानिकोने आठ कर्मप्रकृतिओ कहेवी. वैमानिकोने कर्मप्र कृति. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्मना केटला अविभाग परिच्छेदो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! अनंत *अविभागपरिच्छेदो पानापरणीय फमैना अविभाग परिच्छेद. फझा छे. - - पुच्छा तहेव क। २ एतावतिया ग। ३ काविहाणे छ। RE.. जेना केवलज्ञानिनी प्रज्ञाथी पण विभाग न कल्पी शकाय एवा सूक्ष्म अंशोने भविभागपरिरछेद कहेवाय छे. ते कर्मपरमाणुओनी अपेक्षाए अथवा ज्ञानना जेटला अविभाग परिच्छेदोर्नु आच्छादन कर्य के तेनी अपेक्षाए अनन्त छे.-टीका. . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १०. २७. [१०] नेरइयाणं भंते! णाणावरणिजस्स कम्मरस केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता? [उ०] गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता; एवं सधजीवाणं, जाव-[प्र०] वेमाणियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं जहा णाणावरणिजस्स अविभागपलिच्छेदा भाणिया तहा अट्टण्ह वि कम्मपगडीणं माणियथा, आव वेमाणिआणं अंतराइयस्स। २८. [प्र०] एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवतिपहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए ? [उ.] गोयमा ! सिय आवेढिय-परिवेढिप, सिय नो आवेढिय-परिवेढिए, जइ आवेदिय-परिवेढिए नियमा अणंतेहिं । १.प्रा एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलि. च्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए ? [उ०] गोयमा! नियम अणंतेहिं, जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स; नवरं मणुसस्स जहा जीवस्स। ३०. [प्र०] एगमेगस्स गं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं ? [उ०] एवं जहेव नाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियच्चो जाव वेमाणियस्स; एवं जाव अंतराइयस्स भाणियचं, नवरं वेयणिजस्स, आउयस्स, णामस्स, गोयस्स-एएसि चउण्ह वि कम्माणं मणुसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणिया, सेसं तं चेव । ३१. [प्र०] जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स दरिसणावरणिजं, जस्स दंसणावरणिजं तस्स नाणावरणिजं? [उ०] गोयमा! जस्स णं णाणावरणिजं तस्स दसणावरणिजं नियम अत्थि, जस्स णं दरिसणावरणिजं तस्स वि नाणावरणिजं नियम अत्थि। ३२. [प्र०] जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स वेयणिजं, जस्स वेयणिजं तस्स णाणावरणिजं? [उ०] गोयमा! जस्स णाणावरणिजं तस्स वेयणिजं नियम अत्थि, जस्स पुण वेयणिजं तस्स णाणावरणिजं सिय अत्थि, सिय नत्यि । नैरयिक. २७. ग्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने ज्ञानावरणीयकर्मना अविभागपरिच्छेदो केटला कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! अनन्त अविभा गपरिच्छेदो कह्या छे. ए प्रमाणे सर्वजीवोने-जाणवू; यावद् [प्र०] वैमानिको संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! अनन्त अविभागपरिच्छेदो कह्या छे. जेम ज्ञानावरणीय कर्मना अविभागपरिच्छेदो कह्या तेम आठे कर्मप्रकृतिना अविभागपरिच्छेदो अन्तरायकर्म पर्यन्त यावद वैमानि कोने कहेवा. जीवनो एक एक २८. प्र० हे भगवन् ! एक एक जीवनो एक एक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्मना केटला अविभागपरिच्छेदो (अंशोथी) प्रदेश केटला हाना MP आवेष्टित-परिवेष्टित छे ! [उ०] हे गौतम ! कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होय, अने कदाचित् *आवेष्टित-परिवेष्टित न होय. जो आवेच्छेदोयी आवेष्टित ष्टित-परिवेष्टित होय तो ते अवश्य अनंत अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित-परिवेष्टित होय. एक एक नैरयिकनो २९. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिक जीवनो एक एक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्मना केटला अविभागपरिच्छेदो वडे जीवप्रदेश. आवेष्टित-परिवेष्टित होय ? [उ०] हे गौतम! अवश्य ते अनन्त अविभागपरिच्छेदो बडे आवेष्टित-परिवेष्टित होय. जेम नैरयिको माटे कर्तुं तेम यावद् वैमानिकोने कहे, परन्तु मनुष्यने जीवनी पेठे कहेवू. दर्शनावरणीयना ३०. प्र०] हे भगवन् ! एक एक जीवनो एक एक जीव प्रदेश दर्शनावरणीय कर्मना केटला अविभागपरिच्छेदो वडे आवेष्टित केटला परिच्छेदोथी वेष्टित ? था परिवेष्टित होय ? [उ०] जेम ज्ञानांवरणीय कर्मना संबन्धे दंडक कह्यो तेम अहीं पण यावद् वैमानिकने कहेवो, यावत् अन्तरायकर्म ले पर्यन्त कहेवं. पण वेदनीय, आयुष्, नाम अने गोत्र-ए चार कर्मो माटे जेम नैरयिकोने कयुं तेम मनुष्योने कहे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणेज जाणवू. शानावरणीय भने दर्शनावरणीयनो संबन्ध. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीवने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने शुं दर्शनावरणीय कर्म छे, जेने दर्शनावरणीय कर्म छे तेने शुं ज्ञानावरणीय कर्म छे ? [उ. हे गौतम ! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने अवश्य दर्शनावरणीय होय छे, जेने दर्शनावरणीय छे तेने पण अवश्य ज्ञानावरणीय होय छे. . पानावरणीय अने बेदनीयनो संबन्ध. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! जेने ज्ञानावरणीय छे, तेने शुं वेदनीय होय छे, जेने वेदनीय छे तेने ज्ञानावरणीय होय छे! उ० हे गौतम ! जेने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने अवश्य वेदनीय होय छे, अने जेने वेदनीय छे तेने ज्ञानावरणीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. २८. * केवलज्ञानिनी अपेक्षाए आवेष्टित-परिवेष्टित न होय, केमके तेने ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण थयेलं होवाथी ज्ञानावरणीयना बढे तेना प्रदेशोने परिवेष्टन होतुं नथी, अने इतर जीवोना प्रदेशो अनन्त अविभागपरिच्छेदोथी परिवेष्टित छ.-टीका. रागपरिच्छेदो . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२३ ३३. [प्र०] जस्स णं भंते ! नाणावरणिजं तस्स मोहणिजं, जस्स मोहणिजं तस्स णाणावरणिजं? [उ०] गोयमा! जस्स नाणावरणिजं तस्स मोहणिजं सिय अत्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिजं तस्स णाणावरणिजं नियमं अस्थि । ३४. [प्र०] जस्स णं भंते! णाणावरणिजं तस्स आउयं ? [उ०] एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा आउएण वि समं भाणियचं, एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं; अंतराएण समं जहा दरिसणावरणिजेण समं तहेव नियमं परोप्परं भाणियवाणि । ३५. [प्र०] जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिजं तस्स वेयणिजं, जस्स वेयणिजं तस्स दरिसणावरणिजं? [उ०] जहा णाणावरणिजं उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहिं समं भणियं तहा दरिसणावरणिजं पि उवरिमेहिं छहिं कम्मेहिं समं भापियवं, जाव अंतराइएणं। ३६. [प्र०] जस्स णं भंते ! वेयणिजं तस्स मोहणिजे, जस्स मोहणिजं तस्स वेयणिजं ? [उ०] गोयमा ! जस्स वेयणिजं तस्स मोहणिजं सिय अत्थि, सिय नत्थिा जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिजं नियम अस्थि । ३७. प्र० जस्स णं भंते! वेयणिजं तस्स आउयं? [उ.] एवं एयाणि परोप्परं नियम, जहा आउएण समं एवं नामेण वि गोएण वि समं भाणियत्वं । ३८. [प्र०] जस्स णं भंते ! बेयणिजं तस्स अंतराइयं-पुच्छा। [उ.] गोयमा! जस्स वेयणिजं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेयणिजं नियम अस्थि । ३९. [प्र०] जस्स णं भंते ! मोहणिजं तस्स आउयं, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स मोहणिजं? [उ०] गोयमा जस्स मोहणिजं तस्स आउयं नियम अत्थि, जस्स पुण आउयं तस्स पुण मोहणिजं सिय अत्थि, सिय नत्थि; एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियवं। ४०. [प्र०] जस्स णं भंते ! आउयं तस्स नाम-पुच्छा । [उ.] गोयमा! दो वि परोप्परं नियम, एवं गोत्तेण वि समं भाणियच्वं । ३३. [प्र०] हे भगवन् ! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने शुं मोहनीय छे, जेने मोहनीय छे तेने ज्ञानावरणीय छ ? [उ०] हे मानावरणीय भने गौतम ! जेने ज्ञानावरणीय छे तेने मोहनीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने मोहनीय छे तेने अवश्य ज्ञानावरणीय कर्म . संबंध होय छे.. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! जेने ज्ञानावरणीय कर्म छे तेने शुं आयुष कर्म छे ?–इत्यादि [उ०] जेम वेदनीय कर्म साथे का तेम शानावरणीय अने आयुषनी साथे पण कहे. ए प्रमाणे नाम अने गोत्र कर्मनी साथे पण जाणवू. जेम दर्शनावरणीय साथे का तेम अन्तराय कर्म साथे " अवश्य परस्पर कहे. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! जेने दर्शनावरणीयकर्म छे तेने शुं वेदनीय छे, जेने वेदनीय छे तेने दर्शनावरणीय छे! [उ० जेम दर्शनावरणीय अने ज्ञानावरणीय कर्म उपरना सात कर्मो साथे कर्तुं छे तेम दर्शनावरणीय कर्म पण उपरना छ कर्मो साथे कहे, अने ए प्रमाणे यावद अंत वेदनीयनो संबंध. राय कर्म साथे कहे. ३६. प्रि०] हे भगवन् ! जेने वेदनीय छे तेने शुं मोहनीय छे, जेने मोहनीय छे तेने वेदनीय छे! [उ०] हे गौतम! जेने घेदनीय भने मोर नीयनो सर्वच वेदनीय छे, तेने मोहनीय कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने मोहनीय छे तेने अवश्य वेदनीय छे. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! जेने वेदनीय छे तेने शुं आयुष् कर्म होय? [उ०] ए. प्रमाणे ए बन्ने परस्पर अवश्य होय. जेम आयुष्नी साथे कयुं तेम नाम अने गोत्रनी साथे पण कहेवू.. ३८. प्र०] हे भगवन् ! जेने वेदनीय कर्म छे तेने शुं अन्तराय होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेने वेदनीय छे तेने वेदनीय भने मन्तअन्तराय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. पण जेने अन्तराय कर्म छे तेने अवश्य वेदनीय कर्म होय. रायनो संबंध ३९. [प्र०] हे भगवन् ! जेने मोहनीय छे तेने शुं आयुष होय, जेने आयुष छे तेने शुं मोहनीय होय! उ०] हे गौतम! जेने मोपनीय बने बामोहनीय छे तेने अवश्य आयुष् होय, जेने आयुष्य छे तेने मोहनीय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय. ए प्रमाणे नाम, गोत्र अने अपनी प्रबंध अन्तरायकर्म कहे. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! जेने आयुष् कर्म छे तेने नाम कर्म होय!-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! ते बन्ने परस्पर अवश्य होय, आयुष भने नामक ए प्रमाणे गोत्र साथे पण कहे. मैनो संबंध . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक १०. ४१.०] जस्स णं भंते! आउयं तस्स अंतराइय-पुच्छा। [उ०] गोयमा! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स आउयं नियम अस्थि । ४२. [प्र०] जस्स णं भंते ! नामं तस्स गोयं, जस्स णं गोयं तस्स णं णाम-पुच्छा । [उ०] गोयमा! जस्स णं णाम तस्स नियमा गोयं, जस्स णं गोयं तस्स नियमा नामं; दो वि एए परोप्परं नियमा अत्थि। ४३. [प्र०] जस्स णं भंते! णामं तस्स अंतराइयं पुच्छा। उ०] गोयमा! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स णामं नियमा अस्थि । ... ४४. [प्र०] जस्स गं भंते ! गोयं तस्स अंतराइअं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियम अत्थि । ४५. [प्र०] जीवे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? [उ०] गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि । [३०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि' ? [उ०] गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी. करेणं करी. एवामेवं गोयमा! जीवे वि सोइंदिय-चक्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई पडुच पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले; से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-'जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि'। ४६. प्र०] नेरइए णं भंते ! किं पोग्गली. ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, नवरं जस्स जब इंदियाई तस्स तह वि भाणियव्वाई। ४७. [प्र०] सिद्धे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? [उ०] गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले । [प्र.] से केणगुणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव पोग्गले' ? [उ०] गोयमा! जीवं पडुच्च, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुश्चह-'सिद्धे नो पोग्गली, पोग्गले । सेवं मंते ! सेवं भंते ! ति। अट्ठमसए दसमो उद्देसो समत्तो। समत्तं अट्ठमं सयं । मायुषकर्म अने - ४१. [प्र०] हे भगवन् ! जेने आयुष् छे तेने अन्तराय कर्म होय ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेने आयुष छे तेने अन्तन्तराय कर्मनी राय कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अन्तराय कर्म छे तेने अवश्य आयुष कर्म होय. संबंध. नाम अने गोत्र ४२. [प्र०] हे भगवन् ! जेने नाम कर्म छे, तेने शुं गोत्र कर्म होय, जेने गोत्र कर्म छे तेने नाम कर्म होय-प्रश्न. उ०] हे कर्मनो संबंध. गौतम! जेने नाम कर्म छे तेने अवश्य गोत्रकर्म होयः अने जेने गोत्रकर्म छे तेने अवश्य नामकर्म होय. ए बन्ने कर्मों परस्पर अवश्य होय. नामकर्म अने अन्त- ४३. [प्र०] हे भगवन् ! जेने नाम कर्म छे तेने शुं अंतराय कर्म होय, अने जेने अंतराय कर्म छे तेने शुं नाम कर्म होय ! रायकमनो संबन्ध. [उ०] हे गौतम! जेने नामकर्म छे तेने अंतराय कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अंतराय कर्म छे तेने अवश्य नाम कर्म होय. गोत्रकर्म आने ४४. प्र०) हे भगवन् ! जेने गोत्रकर्म छे तेने शुं अंतराय कर्म होय? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | जेने गोत्रकर्म छे तेने अन्तराय कर्मनो __ अन्तराय कर्म कदाच होय अने कदाच न होय, पण जेने अन्तराय कर्म छे तेने अवश्य गोत्रकर्म होय. संबंध. जीव पुद्रती के ४५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीव पुद्गली छे के पुद्गल छे ? [उ०] हे गौतम ! जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल पण छे' ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष छत्रवडे छत्री, दंडवडे दंडी, घटवडे घटी, पटवडे पटी अने करवडे करी कहेवाय छे तेम जीव पण श्रोत्रंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय अने स्पर्शनेन्द्रियने आश्रयी पुद्गली कहेवाय छे, अने जीवने आश्रयी पुद्गल कहेवाय छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम. कहेवाय छे के 'जीव पुद्गली पण छे अने पुद्गल पण छे.' रविको पुद्गली के ४६. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिक पुद्गली छे के पुदगल छे ? [उ०] हे गौतम! ते पूर्वनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे यावत् वैमा निकोने पण कहे; परन्तु तेमा जे जीवोने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली कहेवी. सियो पुद्री के ४७. [प्र०] हे भगवन् ! | सिद्धो पुद्गली छे के पुद्गल छे ? [उ०] हे गौतम ! पुद्गली नथी, पण पुद्गल छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छे के सिद्धो यावत् पुद्गल छे? [उ०] हे गौतम! जीवने आश्रयी [ पुद्गल ] कहुं छु. ते हेतुथी एम कहेवाय छे के सिद्धो पुद्गली नथी, पण पुद्गल छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. अष्टम शतके दशम उद्देशक समाप्त. Jain Education international Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं सयं १ जंबुद्दीवे २ जोइस ३० अंतरदीवा ३१ असोच्च ३२ गंगेय । ३३ कुंडग्गामे ३४ पुरिसे णवमम्मि सतंमि चोत्तीसा ॥ पढमो उद्देसो। २.प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णामं णेगरी होत्था । वण्णओ। माणिमहे चेतिए । षणयो। सामी समोसढे, परिसा णिग्गता, जाव भगवं गोयमे पजुवासमाणे एवं वेदासी-कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे, किंसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? [उ०] एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियधा, जाव एवामेव सपुष्वावरणं जंबुद्दीवे दीवे चोहस सलिला सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवंतीति मक्खायां । सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति । इति नवमसए पढमो उद्देसो समत्तो । नवम शतक. १. [ उद्देशक संग्रह-] १ जंबूद्वीप, २ ज्योतिष्क, ३-३० अठ्यावीश अन्तद्वीपो, ३१ असोच्चा, ३२ गांगेय, ३३ कुंडग्राम अने ३४ पुरुष-ए संबन्धे नवमा शतकमां चोत्रीश उद्देशको छे. [१ जंबूद्वीप संबन्धे प्रथम उद्देशक छे, २ ज्योतिषिक देव संबन्धे बीजो उद्देशक छे, ३-३० अव्यावीश अन्तद्वीपोना त्रीजाथी आरंभी त्रीशं उद्देशको छे, ३१ असोचा-'सांभळ्या शिवाय-धर्मने पामे'-इत्यादि विषे एकत्रींशमो उद्देशक छे, गांगेय अनगारना प्रश्न विषे बत्रीशमो उद्देशक छे, ब्राह्मणकुंडग्राम संबन्धे तेत्रीशमो उद्देशक छे, अने पुरुषने हणनार संबन्धे चोत्रीशमो उद्देशक छे.] प्रथम उद्देशक. २. ते काले-ते समये मिथिला नामे नगरी हती. वर्णन. त्यां मणिभद्र चैत्य हतुं. वर्णन. त्यां महावीरखामी समोसर्या. पर्षद् [वा- दवाने] नीकळी. यावद् भगवान् गौतमे पर्युपासना करता आ प्रमाणे पूछ्युं-हे भगवन् ! जंबूद्वीप कये स्थळे छे ? हे भगवन् ! जंबूद्वीप केवा आकारे रहेलो छे ? [उ० ] अहीं "जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति कहेवी, यावद् 'जंबूद्वीप नामे द्वीपमा पूर्व अने पश्चिम चौद लाख अने छप्पन हजार- नदीओ छे' तेम कयु छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे [ एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे छे. ] जंबूद्वीप नवम शतके प्रथम उद्देशक समाप्त माणभ-ख-ग-ध। घेइए ग-घ-छ। ५वयासी ग-घ-छ। सए चउसीसा ग-घ। २ नयरी ग-छ। २. * जंबूद्वीप० प. १५.१-३०८. १. Jain Education international Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगो प्रकाश. बिओ उद्देसो. १. [] रायगिजाब एवं बेयासी जंबुद्दीचे णं भंते! दीये केवइया चंदा पमासिंसु वा पभासेति वा पभासिसंति वा ? [ड०] एवं जहा जीयाभिगमे, जावगं च सयसहस्सं तेतीसं चतु भवे सदस्साई नव य सया पचासा तारागणफोडाफोडी" || सोमं सोनिंसु, सोमिति, सोभिस्संति । - १ २. [प्र० ] लवणे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा प्रभासिसु वा पभासिति वा पमासिस्संति वा ? [४०] एवं जहा जीवाभिगमे, जाव ताराओ। धायासंडे, कालोदे, पुस्वरवरे, अम्भितरपुचखरद्धे, मणुस्सचेचे-परसु ससु जदा जीवाभिगमे, जाय एगससीपरिवारो तारागणकोटिकोटीणं"। ३. [प्र०] पुखरोदे नं भंते! समुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा० ३ [०] एवं सधेसु दीप-समुद्देसु जोतिसियाणां भाणियां, जाव संयंभूरमणे, जाव सोभं सोर्भिसु वा, सोभंति वा, सोभिस्तंति वा । सेवं भंते!, सेवं भंते! ति । नवमसर बीजो उदेसो समतो द्वितीय उद्देशक. ए १. [ प्र० ] राजगृह नगरमा यावत् [ गीतम खामीए ] ९ प्रमाणे प्रश्न क्यों के हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा केटला चंद्रो प्रकाश कर्यो, केटला प्रकाश करे छे अने केटला प्रकाश करशे ? [30] ए प्रमाणे जेम "जीवाभिगम सूत्रमां कयुं छे तेम जाणवुं यावत् 'एक लाख, तेत्री इजार, नक्सो ने पचास कोडाकोडि ताराना समूहे शोभा क्री, शोभा करे छे अने शोभा करशे' त्यां सुखी जाणवुं. छवण समुद्रम चंद्रोनो प्रकाश. धातकिखंड कालोद, २. [प्र० ] हे भगवन् ! लवण समुद्रमां केटला चंद्रोए प्रकाश कर्यो, केटला प्रकाश करे छे अने केटला प्रकाश करशे ? [उ०] ए प्रमाणे जेम 1जीवाभिगम सूत्रमां कह्युं छे तेम तारानी हकीकत सूधी सर्व जाणवुं. धातकिखंड, कालोदधि, पुष्करवर द्वीप, अभ्यंतर पुष्करार्ध पुष्करवर अन्य अने मनुष्यक्षेत्रमा - सर्व स्थळे जीवाभिगम सूत्रमां का प्रमाणे यावत् एक चंद्रनो परिवार कोटाकोटि तारागणो होय छे" त्यां सूची पुरा सर्व जाण. - पुष्करोव समुद्र. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! पुष्करोद समुद्रमां केटला चंद्रोए प्रकाश कर्यो ? – इत्यादि [ उ० ] ए रीते [ [ जीवाभिगम सूत्रमा कक्षा आवरण प्रमाणे ] सर्व द्वीप अने समुद्रोमा ज्योतिष्कोनी हकीकत यावत् 'वयंभूरमणसमुद्रमां के यावत् शोम्या, शोमे छे अने शोभशे' स्वां सुषी समुद्र. कहेवी. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, [ एम कही यावद् भगवान् गौतम विहरे छे. ] नवम शतके द्वितीय उद्देशक समाप्त. १ वदासीक, वदासि ख । २ अस्या गाथाया पूर्वार्धे नास्ति क-ख-ङ । ३ भायतिर्स- क ख । ४-कोडिको ऊ । ५ जोइस भा६ सयंभुर-क-ङ । क-ख १. जीवा प्रति. ३२.२प. ३०००१. १-३६७.२. १. जीवा प्रति. ३ उ. २ प. ३०३-१.३३५.-२० २. जीवा प्रति ३७.१५.१४८ / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो. १. [सं०] रायगिहे जाव एवं बयासी-कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं ऐगोरुयदीवे नामं दीवे पन्नते ? उ० गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतरस वासहरपद्ययस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंतामो लवणसमुहं उत्तरपुरथिमेणं तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं ऐगोरुयमणुस्साणं ऐगोरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते । गोयमा ! तिन्नि जोयणसयाई आयाम-विक्वंभेणं णैव एगूणवन्ने जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते । सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्ह वि पमाणं वनओ य एवं एएणं कमेणं एवं जहा जीवाभिगमें जाव 'सुद्धदंतदीवे,' जाव 'देवलोगपेरिग्गहा णं ते मणुया पण्णत्ता' समणाउसो! । एवं अट्ठावीसंपि अंतरदीवा सएणं सरणं आयाम-विक्खंभेणं भाणियखा, नवरं दीवे दीवे उद्देसओ, एवं सधे वि अट्ठावीसं उद्देसगा। सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति। नवमसयस्स तीसइमो उद्देसो समत्तो। व्यापीश मन्त तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [भगवान् गौतमे] यावत् ए प्रमाणे पूछ्यु-हे भगवन् ! दक्षिण दिशाना एकोरुक मनुष्योनो एकोक नामे द्वीप क्या कह्यो छे! [उ०] हे गौतम! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा आवेला मंदरपर्वत (मेरुपर्वत) नी दक्षिणे चुल्ल (क्षुद्र) हिमवंत नामे वर्षधर पर्वतना पूर्वना छेडाथी ईशान कोणमा त्रणसो योजन लवणसमुद्रमां गया पछी ए स्थळे दक्षिण दिशाना एकोरुक मनुष्योनो एकोरुक नामे द्वीप कह्यो छे. हे गौतम! ते द्वीपनी लंबाइ अने पहोळाइ त्रणसो योजन छे, अने तेनो परिक्षेप (परिधि) नवसो ओगण पचास योजनथी काइक न्यून छे. ते द्वीप एक पावरवेदिका अने एक वनखंडथी चारे बाजु विटाएल छे. ए बन्नेनुं प्रमाण तथा वर्णन ए प्रमाणे ए क्रम वडे जेम "जीवाभिगमसूत्रमा का छे तेम यावत् 'शुद्धदंत द्वीप छे, यावद् हे आयुष्मान् श्रमण! ए द्वीपना मनुष्यो मरीने देवगतिमा उपजे छे' त्यांसुधी जाणवं. ए प्रमाणे पोत पोतानी लंबाइ, अने पहोळाइथी अठ्यावीश अंतर्वीपो कहेवा; परन्तु एक एक द्वीप एक एक उद्देशक जाणवो. ए प्रमाणे बधा मळीने अठ्यावीश उद्देशको कहेवा. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज . [एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] नवम शतके त्रीशमो उद्देशक समाप्त. १ वदासि क-ख । २ पगूरु-क-ङ । एगुरु-क-ख । ३ अयं पाठो नास्ति क-ख-ङ । ४ एकोण-ग-घ, एक्काव-5।५-परिग्गहिपाणं रा-घ। -वीसं अ-घ,-पीस वि क . 'भाणिभव्वा' इत्यधिकः पाठः ग-घ। १.* जीवा० प्रति. ३ उ. १ पृ. १४४-२-१५६-१. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमो उद्देसो. १.प्रा रायगिहे जाव एवं वयासी-असोचा गं भंते ! केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स वा, तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए? [उ०] गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा आव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सबणयाए।[प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'असोचा णं जाव नो लभेजा सवणयाए' ?[उ०] गोयमा! जस्सणं णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा, जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, जस्स णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवह से णं असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए । से तेणटेणं गोयमा! एवं वुश्चा-तं चेव जाव 'नो लभेज सवणयाए। २.० असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुज्झेजा [उ.] गोयमा! असोया णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलं बोहिं वुझेजा, अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झेजा![प्र० सेकेणट्रेणं एकत्रीशमो उद्देशक. केवल्यादिपासे १. प्र०] राजगृह नगरमां यावत् [भगवान् गौतमे ] आ प्रमाणे पूछ्यु-हे भगवन् ! केवलि पासेथी, "केवलिना श्रावक पासेथी, सांभळ्या शिवाय केवलिनी श्राविका पासेथी, केवलिना उपासक पासेथी, केवलिनी उपासिका पासेथी, केवलिना पाक्षिक (वयंबुद्ध) पासेथी, केवलिना बोष थाय के न पाक्षिक श्रावक पासेथी, केवलिना पाक्षिकनी श्राविका पासेथी, केवलिना पक्षना उपासक पासेथी अने केवलिना पाक्षिकनी उपासिका पासेयी थाय!-इत्यादि. सांभळ्या विना जीवने केवलज्ञानीए कहेली धर्मना श्रवणनो-ज्ञाननो लाभ थाय ? [उ०] हे गौतम ! केवलि पासेथी यावत् तेना पाक्षिकनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीवने केवलिए कहेला धर्मश्रवणनो लाभ थाय अने कोइ जीवने लाभ न थाय. प्राहे भगवन ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के सांभळ्या विना यावत् [धर्म] श्रवणनो लाभ न थाय ! [उ०] हे गौतम! जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम करेलो छे ते जीवने केवलि पासेथी यावत् तेना पाक्षिकनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण केवलिए कहेला धर्मश्रवणनो लाभ थाय, अने जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम कर्यो नथी ते जीवने केवलि पासेथी यावत् तेना पाक्षिकनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना केवलिए कहेल धर्मने सांभळवानो लाभ न थाय. हे गौतम ! ते हेतुथी एम कर्दा छ के, तेने यावत् 'श्रवणनो लाभ न थाय.' बोधि २. [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी [धर्म ] सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध बोधिसम्यग्दर्शनने अनुभवे ! [उ०) हे गौतम! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध सम्यग्दर्शनने अनुभवे. १. जेणे केवलज्ञानीने स्वयं पूछयु छ, अथवा तेमनी पासेथी सांभळ्युं छे ते केवलिश्रावक. केवलज्ञानीनी उपासना करता फेवलीए अन्यने कहेगें जेणे सांभळ्यु होय ते केवलिउपासक. केवलिनो पाक्षिक एटले खयंयुद्ध.-टीका. अहीं श्रवण श्रुतज्ञानरूप जाणवू, अर्थात् केवलज्ञानीवगेरे पासेची सांभळ्या शिवाय कोई जीवने धर्मनो बोध थाय, अन्यथा सौभळ्या विना पोतानी मेळे घोष पामेलाने श्रवण शीरीते थाय ! Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १२९ t? भंते! जब नो लेखा? [४०] गोयमा ! जस्त्र णं रिसनावरविजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवद से णं असोचा केवलिस्स -या जाच केवलं पोदि पुरलेखा जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं समोवसमे णो कडे भवर से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं णो वुज्झेजा; से तेणट्टेणं जाव णो वुज्झेजा । ३. [ प्र० ] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा, जाव तप्पक्खियजवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अंगाराओ अणगारिय रा? [०] गोयमा ! असोया णं केवलिस्स वा जाय उबासियार या अत्येगतिर केवलं मुंडे भविता नगाराओ अणगारियं परजा; अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पवएजा । [ प्र०] से केणट्टेणं जाव नो पद्यरजा ? [४०] गोषमा ! जस्स णं धम्मंतरायाणं कम्माणं भवसमे कडे भवति से णं असोचा केवलिस्स वा जाय केवलं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पवएज्जा; जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोचा केवलिस्स या जाय मुंडे भविता जाव णो परजा से तेणणं गोपमा ! जाव नो पद्मजा । ४. [प्र० ] असोया णं भंते! केवलिस्स वा जाच उपासियार था केवलं वंमचेरवाखं आपसेखा [४०] गोयमा ! असोचा णं केवलिरख वा जाब उवासियाए वा अत्वेगतिए केवलं भचेरवास आवसेजा, अत्येतिए केवलं बंभवेरवासं नो आवसेजा । [ प्र० ] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'जाव नो आवसेजा' ? [उ०] गोयमा ! जस्स णं चरितावरणिजाणं कम्माणं समोवसमे कडे भव से णं असोचा केवलिस्स वा जाच केवलं भचेरवास आवसेजाः जस्स णं चरितावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे तो कडे भवर से नं असोथा केवलिस्स वा जाव नो आवसेना से सेणणं जाय नो आवसेजा। ५. [ प्र० ] असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा ? [अ०] गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उचाखियाए या अत्येगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा अत्वेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा। [प्र० ] से अने कोई जीवशुद्ध सम्यग्दर्शनने न अनुभवे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुची कहो छो के, यावत् [ शुद्ध सम्यग्दर्शनने] न अनुभवे [३०] हे गौतम! जे जीवे दर्शनावरणीय ( दर्शनमोहनीय) कर्मनो क्षयोपशम कयौं छे ते जीव केवली पासेची यावत् सांभळ्या विना शुद्ध सम्यग्दर्शनने अनुभवे; अने जे जीवे दर्शनावरणीय कर्मनो क्षयोपशम कर्यो नथी, ते जीव केवली पासेथी यावत् सांव्याविना शुद्ध सम्पदर्शनने न अनुभवे माटे हे गीतम! ते हेतुथी एम व छे के यावत् 'सांभळ्या विना शुद्ध सम्यक्त्वने अनुभवे नाहि. ' ३. [ प्र० ] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव मुंड - दीक्षित थइने अगारवास - गृहवास-त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने - प्रव्रज्याने स्वीकारे ? [ उ०] हे गौतम! केवली पासेथी यावत् तेना पक्षनी उपासिकापाथी सांभळ्या विना कोइ जीव मुंड थइने गृहवास स्पजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, अने कोई जीव मुंड थइ गृहवास त्याजी अनगारिकपणाने न स्वीकारे. [प्र० ] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, 'यावत् न स्वीकारे' ? [ उ०] हे गौतम! जे जीवे धर्मांतरायिक प्रमज्यानो हेतु- चारित्र धर्ममां अन्तरायभूत - चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण मुंड थाने अगारवास त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, अने जे जीवे धर्मांतरायिक कर्मोंनो क्षयोपशम कर्यो नथी ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना यावत् मुंड थइने यावद् न स्वीकारे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कह्युं छे के 'यावत् न स्वीकारे.' ४. [प्र० ] हे भगवन्! केवली पासेथी, यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेवी सांभळ्या बिना कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे ? [30] हे गौतम! केवली पासेथी, यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पणं कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे, अने कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे. [प्र० ] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के – 'यावत् ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे' ? [उ० ] हे गौतम! जे जीवे चारित्रावरणीय कर्मोंनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे, अने जे जीवे चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कनुं छे के 'यावत् ब्रह्मचर्ययासने धारण न करे.' ५. [ प्र० ] हे भगवन्! केवली पासेची यावत् सांभळ्या विना कोई जीव शुद्ध संपमवडे संयमयतना करे [30] हे गौतम! केवली पासेथी यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण 'कोइ जीव शुद्ध संयमवडे * संयमयतना करे, अने कोइ जीव न करे. [प्र०] हे भगवन् ! ९ प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, यावत् संयमयतना न करे. [३०] हे गौतम! जे जीये यतनावरणीय ए १ आगाराओ घ ङ । २ केवलि- जाव क-ख । ५. * अहिं संयम - चारित्रनो स्वीकार करीने तेना दोषने त्यागकरवारूप प्रयत्नविशेष करवो ते संयमयतना. चारित्र विषे वीर्य प्रवृत्ति ते यतना, तेने आच्छादन करनार कर्म यतनावरणीय - वीर्यन्तराय कर्म-कद्देवाय छे- टीका. १७ भ० सू० बोधिनो हेतु. प्रवज्या ब्रह्मचर्य. वासनो हेल संयम. मनी देव / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर. तु आभिनिबोधिक ज्ञान. अभिनिवोधिक शाननहेतु श्रुतज्ञान. अवधिज्ञान अने मनः पर्यवज्ञान. १३० श्रीरावचन्द्र-जिनागमसंग - शतक ९ – उद्देशक ३१. णणं च नो संजमेजा ? [30] गोयमा ! जस्स जयगाचरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भव णं असोचा पं केवलिस या जाच फेवलेणं जमे संजमेजा जस्स णं जपणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवद से णं असोचा केवलिस्स वा जाव नो संजमेजा; से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अत्थेगतिर नो संजमेजा । ६. [ प्र० ] असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेजा ? [30] गोयमा ! असोच्च. णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेजा, अत्थेगतिए केवलेणं जाव नो संवरेजा । [ प्र० ] से केणट्टेणं जाव नो संवरेजा ? [उ०] गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केलिस्सा जाय केले संघरेणं संपरेजा जस्स णं अज्झवसागावरणिजाणं कम्मानं बभवसमे जो कड़े भय से पं असोचा केवलिस्स वा जाव नो संवरेजा, से तेणट्टेणं जाव नो संवरेजा । ७. [२०] असोचा णं भंते! केवलिस्स या जाय केवलं आभिणिदोद्दियनाणं उप्पाडेजा ? [अ०] गोपमा ! असोचा केवलस्स या जाय दयासिवाए वा अत्येतिए केवलं आभिणियोदियनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिर केवलं आभिणिवोहियनाणं नो उप्पाडेला [प्र०] से केणद्वेषं जाव नो उप्पाडेजा ? [उ०] गोयमा ! जस्स णं आभिणियोहियनाणावरणिजाणं कम्माणं खोबसमे कडे भवद से पं असोचा केवलिरस या जाय केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा जस्स णं आभिणियोहियनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा, जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा; से तेणट्टेणं जाव नो उप्पाडेजा । 1 ८. [प्र० ] असोचा णं भंते! केवलि० जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेजा ? [अ०] एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स वत्तवया भणिया तहा सुयनाणस्स वि भाणियवा; नवरं सुयणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियचे । एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियचं, नवरं ओहिणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियधे । एवं केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, नवरं पजवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियवे । कर्मोंनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध संयमवडे संयमयतना करे, अने जे जीवे यतनावर - णीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना शुद्ध संयमवडे संयमयतना न करे, माटे हे गौतम! ते. तुथी एम कह्युं छेके, यावत् 'कोइ संयम न करे.' ६. [प्र०) हे भगवन्! केवली पासेची के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेची सांभळ्या बिना कोई जीव शुद्ध वरवडे वरआस्रवनो रोध करे ? [30] हे गौतम! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध संवरवडे आस्रवने रोके, अने कोइ जीव शुद्ध संवरखडे आस्रवने न रोके [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के - 'यावत् संवर न करे' ? [उ०] हे गौतम! जे जीवे अध्यवसानावरणीय (भावचारित्रावरणीय) कर्मोंनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध संवरवडे संघर आपनो रोध-करी शके अने जे जीवे अध्यवसानावरणीय कर्मोंनो क्षयोपशम नभी कर्यो ते जीव केवली पासेथी सांभळ्या विना संवर न करी शके; माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कह्युं छे के - यावत् 'संवर न करे'. ७. [प्र०] हे भगवन्! केवली पासेवी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध आभिनियोधिक ज्ञान उत्पन्न करे? [30] हे गौतम! केवली पासेथी के यावत् तेनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान उपजावी शके, अने कोइ जीव शुद्ध आभिनिवोधिक ज्ञान न उपजावी शके. [प्र०] हे भगवन्! एम शा हेतुची कहो छो के यावत् न उपजावी शके' [30] हे गौतम ! जे जीवे आभिनियोधिक ज्ञानावरणीय कमोंनो क्षयोपशम कर्यो छे ते जीव केवली पासेधी यावत् सांभळ्या विना पण शुद्ध आमिनिबोधिकज्ञान उपजावी शके, अने जे जीवे आभिनित्रोधिक ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो नथी ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभया विना शुद्ध आभिनिवोधिकज्ञान न उपजावी शके. माटे हे गीतम! ते हेतुथी एम कहां छे के 'यापन उपजावी शके.' ८. [ प्र० ] हे भगवन् ! केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीव शुद्ध श्रुतज्ञान उत्पन्न करी शके ? [उ०] ए प्रमाणे जेम आभिनिबोधिकज्ञाननी हकीकत कही, तेम श्रुतज्ञाननी पण जाणवी; परन्तु अहीं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मोंनो क्षयोपशम कहेवो. ९ प्रमाणे शुद्ध अवधिज्ञाननी पण हकीकत कहेवी, पण त्यां अवधिज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कहेवो; ए रीते शुद्ध मनः पर्यवज्ञान पण उत्पन्न करे, परन्तु मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मोंनो क्षयोपशम कहेबो. ए १ जतणा- क ख Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३१ १. प्र० असोचा णं भंते ! केवलिस्त वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेजा? उ.1 एवं चेव, नवरं केवलनाणावरणिजाणं कम्माणं खए. भाणियवे, सेसं तं चेव से तेणटेणं गोयना! एवं वुच्चइ-जाव केवलणाणं उप्पाडेजा। १०. [प्र०] असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, केवलं योहिं बुज्झेजा, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचएजा, केवलं बंभचेरवासं आवसेजा, केवलेणं संजमेणं संजमेजा, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा; जाव केवलं मणपजवनाणं उप्पाडेजा, केवलनाणं उप्पाडेजा? [उ०] गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा संवणयाए, अत्यंगतिए केवलिपन्नतं धम्मं नो लभेजा सवणयाए; अत्थेगइए केवलं बोहिं बुज्झेजा, अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो वज्झेजा; अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवएजा, अत्थेगतिए जाव नो पचएजा; अत्यैगतिए केवलं वंभचेरवासं आवसेजा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेजा; अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा, अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा; एवं संवरेण वि; अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिए जाव नो उप्पाडेजा; एवं जाव भणपजवणाणं, अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा। प्र० से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ-असोचा णं तं चेव जाव अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ? [उ.] गोयमा! जस्स णं णाणावरणिजाणं कमाणं खओवसमे नो कडे भवइ, जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, जस्स णं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, एवं चरित्तावरणिजाणं, जयणावरणिजाणं, अज्झवसाणावरणिजाणं, आभिणिबोहियणाणावरणिजाणं, जाव मणपजवनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ; जस्स णं केवलणाणावरणिजाणं जाव खए नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए, केवलं वोहिं नो वुझेजा, जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा। जस्स णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति, जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं धम्मंतराइयाणं, एवं जाव जस्स णं केवलणाणावरणिजाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, केवलं वोहि बुझेजा, जाव केवलनाणं उप्पाडेजा। ९. [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी [ सांभळ्या विना कोइ जीव ] केवलज्ञानने उत्पन्न केलशान. करी शके ? [उ०] पूर्वनी पेठे जाणवू, परन्तु अहीं 'केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय' कहेवो. बाकी बर्षा पूर्वनी पेठे जाणवू. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कडुं छे के 'यावत् केवलज्ञानने पण उत्पन्न करी शके.' १०. [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी के यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण शुं कोइ जीव केवलज्ञानीए धर्मवोध, शुद्धसम्यकहेला धर्मने श्रवण करे-जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे, मुंड थइने अगारवास त्यजी शुद्ध अनगारिकपणाने स्वीकारे, शुद्ध ब्रह्म- कवनो अनुभव बनेरे. चर्यवासने धारण करे, शुद्ध संयमवडे संयमयतना-करे, शुद्ध संवरवडे संवर-आस्रवनो रोध-करे, शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करे, यावत् शुद्ध मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न करे अने शुद्ध केवलज्ञान उत्पन्न करे? [उ०] हे गौतम ! केवली पासेथी यावत् तेनी उपासिका पासेथी सांभळ्या विना पण कोइ जीव केवलज्ञानीए कहेला धर्मने जाणे अने कोइ जीव केवलिए कहेला धर्मने न जाणे, कोइ जीव शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे अने कोइ जीव शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव न करे; कोइ जीव मुंड थइने आगारवास त्यजी शुद्ध अनगारपणुं स्वीकारे अने कोई जीव न स्वीकारे; कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण करे अने कोइ जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवासने धारण न करे; कोइ जीव शुद्ध संयम वडे संयमयतना करे अने कोइ जीव शुद्ध संयमवडे संयम न करे; ए प्रमाणे संवरने विषे पण जाणवू; कोइ जीव शुद्ध आभिनिवोधिकज्ञानने उत्पन्न करे अने कोइ जीवं यावद् न उत्पन्न करे; ए प्रमाणे यावत् मनःपर्यवज्ञान सुधी जाणवू, कोइ जीव केवलज्ञान उपजावे अने कोइ केवल्यादिनुं वचन जीव केवलज्ञान न उपजावे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-'धर्मने सांभळ्या शिवाय ते प्रमाणे यावत् कोइ जीव को सांभळ्या शिवाय केवलज्ञान न उत्पन्न करे ! [उ०] हे गौतम ! १ जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, २ जेणे दर्शनावरणीय कर्मोनो क्षयो- H करे तेनो हेतुपशम नथी कर्यो, ३ जेणे धर्मातरायिक कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, ४ ए प्रमाणे चारित्रावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, ५ यतनावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कों, ६ अध्यवसानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, ७ आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, यावत् १० मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम नथी कर्यो, अने ११ जेणे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय नथी कर्यो ते जीव केवलज्ञानी पासेथी यावत् सांभळ्या विना केवलज्ञानीए कहेला धर्मने सांभळवाने प्राप्त न करे, अर्थात् न जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव न करे, यावत् केवलज्ञानने न उत्पन्न करे. तथा जे जीवे ज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम को छे, जेणे दर्शनावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे, जेणे धर्मातरायिक कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे, ए प्रमाणे यावत् जेणे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय कर्यो छे ते जीव केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना पण केवलिए कहेल धर्मने जाणे, शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे अने यावत् केवलज्ञानने उत्पन्न करे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३१. ११. तस्स णं भंते ! छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पंगतिभद्दयाए, पैगइउवसंतयाए, पगतिपयणुकोह-माण-माया-लोभयाए, मिउमदवसंपन्नयाए, अल्लीणयाए, भद्दयाए, विणीययाए, अन्नया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-ऽपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विन्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पजद, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं असंखेजाई जोयणसहस्साइं जाणइ, पासइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे, सारंभे, सपरिग्गहे, संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्झइ, सम्मत्तं पडिवजित्ता समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरितं पडिवजति, चरित्तं पडिवजित्ता लिंगं पडिवजइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपजवेहि परिहायमाणेहि परिहायमाणेहिं सम्मदसणपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं परिवड्डमाणेहिं से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तह। १२. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा? [उ०] गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होजा, तं जहा-तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए । १३. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा? [उ०] गोयमा ! तिसु आभिणियोहियनाण-सुयणाण-ओहिनाणेसु होजा। १४. [प्र०] से णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा? [उ०] गोयमा! सजोगी होजा, नो अजोगी होजा। १५. [प्र०] जइ सजोगी होजा, किं मणजोगी होजा, वइजोगी होजा, कायजोगी होजा? [उ०] गोयमा ! मणजोगी वा होजा, वइजोगी वा होजा, कायजोगी वा होजा।। १६. [प्र०] से णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते वा होजा? [उ०] गोयमा! सागारोवउत्ते वा होजा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा। १७. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि संघयणे होज्जा ? [उ०] गोयमा ! वइरोसहनारायसंघयणे होजा। त्ति केवलिप्रमुखना ११. ते जीवने निरंतर छट्ठ छट्ठना तप करवापूर्वक सूर्यनी सामे उंचा हाथ राखी राखीने आतापना भूमिमां आतापना लेता, वचनने सांभळ्या प्रकृतिना भद्रपणाथी, प्रकृतिना उपशांतपणाथी, खभावथी क्रोध, मान, माया अने लोभ घणा ओछा थयेला होवाथी, अत्यंत मार्दव-नम्रताने शिवाय सम्पमत्वादि । कने स्वीकारे. प्राप्त थयेला होवाथी, आलीनपणाथी, भद्रपणाथी अने विनीतपणाथी अन्य कोइ दिवसे शुभ अध्यवसायवडे, शुभ परिणामवडे, विशुद्ध, विभंगशाननी उत्प- लेश्याओवडे तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मोना क्षयोपशमथी, ईहा, अपोह, मार्गणा अने गवेषणा करता विभंग नामे अज्ञान उत्पन्न थाय छे. ते उत्पन्न थएल विभंगज्ञान बड़े जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट असंख्येय हजार योजनोने जाणे छे अने जुए छे; उत्पन्न थएला विभंगज्ञान वडे ते जीवोने पण जाणे छे अने अजीवोने पण जाणे छे; पाखंडी, आरंभवाळा, परिग्रहवाळा अने संक्लेशने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति प्राप्त थयेला जीवोने पण जाणे छे अने विशुद्ध जीवोने पण जाणे छे; ते विभंगज्ञानी पहेलांज सम्यक्त्वने प्राप्त करे छे; प्राप्त करी श्रमणचारित्रनो स्वीकार. धर्म उपर रुचि करे छे, रुचि करी चारित्रने स्वीकारे छे. चारित्रने स्वीकारी लिंगवेषने खीकारे छे; पछी ते विभंगज्ञानिना मिथ्यात्वपर्यायो अधिशाननी क्षीण थता थता अने सम्यग्दर्शन पर्यायो वधता वधता ते विभंग अज्ञान सम्यक्त्व युक्त थाय छे, अने शीघ्र अवधिरूपे परावर्तन पामे छे. उत्पत्ति वेश्या- ___१२. [प्र०] हे भगवन् ! ते अवधिज्ञानी जीव केटली लेश्याओमां होय ? [उ० ] हे गौतम ! त्रण विशुद्ध लेश्याओमा होय. ते आ प्रमाणे-तेजोलेश्या, पद्मलेझ्या अने शुक्ललेझ्या. १३. [प्र०] हे भगवन् ! ते [अवधिज्ञानी ] जीव केटला ज्ञानोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान-ए त्रण ज्ञानोमां होय. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अवधिज्ञानी ] सयोगी (मनोयोगादिसहित) होय के अयोगी होय ! [उ०] हे गौतम ! ते सयोगी होय पण अयोगी न होय. मनयोगी-इत्यादि. . १५. [x०] हे भगवन् ! जो ते सयोगी होय तो शुं मनयोगी होय, वचनयोगी होय के काययोगी होय ? [उ०] हे गौतम ! ते मनयोगी होय, वचनयोगी होय अने काययोगी पण होय. उपयोग. १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते साकार-ज्ञानउपयोगवाळो होय के अनाकार-दर्शनउपयोगवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते साकारउपयोगवाळो पण होय अने अनाकारउपयोगवाळो पण होय. संघयण. १७. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया संघयणमा होय ! [उ०] हे गौतम | ते वज्रऋषभनाराचसंघयणवाळो होय. 1-मिते क, मित ख। पगती-क-ख। ३ पगई-क-ख। मछीवण-। ५ लेसासु क-ख। -जोगी वा छ। . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३३ १८. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि संठाणे होजा? [उ०] गोयमा! छण्हं संठाणाणं अन्नयरे संठाणे होजा। १९. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होजा ? [उ०] गोयमा! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होजा। २०. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि आउए होजा ? [उ०] गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुष्चकोडीआउए होजा। २१. [प्र०] से णं भंते ! किं सवेदए होजा, अवेदए होज्जा ? [उ०] गोयमा ! सवेदए होजा, नो अवेदए होजा। २२. [प्र०] जइ सवेदए होजा किं इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेदए होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए होजा; नपुंसगवेदए होजा? [उ०] गोयमा! नो इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेदए वा होजा, नो नपुंसगवेदए होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए वा होजा। २३. [प्र०] से णं भंते ! किं सकसाई होजा अकसाई होजा ? [उ०] गोयमा ! सकसाई होजा, नो अकसाई होजा । २४. [प्र०] जइ सकसाई होजा से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? [उ०] गोयमा ! चउसु संजलणकोह-माण-मायालोभेसु होजा। २५. [प्र०] तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा पण्णत्ता । २६. [प्र०] ते णं भंते ! किं पसत्था, अप्पसत्था ? [उ०] गोयमा ! पसत्था, नो अप्पसत्था । २७. से णं भंते ! तेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वढमाणेहिं अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय-जाव विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएड: जाओ विय से इमाओ नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ, तासिं च णं उवग्ग संसान. बायुए कपाप. १८. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया संस्थानमा होय ! [उ०] हे गौतम! तेने छ संस्थानमांनु कोइ पण एक संस्थान होय. १९. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटली उंचाइवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी सात हाथ अने उत्कृष्टथी पांचसो धनु- उचाइ. पनी उंचाइवाळो होय. - २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटला आयुषवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी कांइक वधारे आठ वर्ष, अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटिआयुषवाळो होय. २१. [प्र०] हे भगवन् ! शुंते वेदसहित होय के वेदरहित होय ! [उ०] हे गौतम ! ते वेदसहित होय पण वेदरहित न होय. २२. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वेदसहित होय तो शुं १ स्त्रीवेदवाळो होय, २ पुरुषवेदवाळो होय, ३ नपुंसकवेदवाळो होय पुरुषवेदादि. के ४'पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय ? [उ०] हे गौतम! स्त्रीवेदवाळो न होय, पण पुरुषवेदवाळो होय; नपुंसकवेदवाळो न होय, पण पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय. २३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते (अवधिज्ञानी) सकषायी होय के अकषायी होय ? [उ०] हे गौतम! ते सकषायी होय, पण कषायरहित न होय. २४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायवाळो होय तो तेने केटला कषायो होय ! [उ०] हे गौतम ! तेने संज्वलनक्रोध, मान, संज्वप्नक्रोधादि. माया अने लोभ-ए चार कषाय होय. २५. [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटला अध्यवसायो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेने असंख्याता अध्यवसायो कह्यां छे. पथ्यवसायो. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायो प्रशस्त होय के अप्रशस्त होय ? [उ०] हे गौतम ! प्रशस्त अध्यवसायो होय, पण अप्र- प्रशस्त अध्यवसाय. शस्त न होय. २७. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) वृद्धि पामता प्रशस्त अध्यवसायोवडे अनंत नारकना भवोथी पोताना आत्माने विमुक्त नारक, तिर्यंच, देव करे, अनंत तिर्यंचोना भवोथी आत्माने विमुक्त करे, अनंत मनुष्यभवोथी आत्माने विमुक्त करे, अने अनंत देवभवोथी आत्माने विमुक्त करे. . तथा तेनी जे आ नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति अने देवगति नामे चार उत्तर प्रकृतिओ छे, तेनी अने बीजी प्रकृतिओना आधारभूत अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करीने अप्रत्याख्यान कषायरूप क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय अनन्तानुवंध्यादिकरे, क्षय करीने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करी संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोमनो कषायनो क्षय. वट्टमाणेहिं घ। २१. * लिंगनां छेद करवा वगेरेथी नपुंसक बयेलो अर्थात् कृत्रिम नपुंसक धयेलो होय ते पुरुषनपुंसक कहेवाय छे-टीका. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३१. हिए अणताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, अणं० खवेदत्ता अपञ्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवेह, अपच्च० वेइत्ता पञ्चक्खाणावरणकोह-माण-माया-लोभे खवेद, पञ्च० खवेइत्ता संजलणकोह-माण-माया-लोभे खवेइ, संज० खवेइत्ता पंचविहं नाणावरणिजं, नवविहं दरिसणावरणिजं, पंचविहं अंतराइयं, तालमत्थाकडं च णं मोहणिजं कट्ट कॅम्मरयविकिरणकरं अपुष्टकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दसणे समुप्पन्ने । २८. [प्र०] से णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं आघवेज वा, पनवेज वा, परवेज वा ? [उ०] णो तिणटे समढे, णण्णत्थ एगण्णाएण वा, एगवागरणेण वा । २९. [प्र०] से णं भंते ! पद्यावेज वा, मुंडावेज वा ? [उ०] णो इणढे समढे, उवदेसं पुण करेजा । ३०. [प्र०] से णं भंते ! सिज्झति, जाव अंतं करेति ? [उ०] हंता सिज्झति, जाव अंतं करेति । ३१. [प्र०] से णं भंते ! किं उडे होजा, अहे होजा, तिरियं होजा? [१०] गोयमा! उहुं वा होजा, अहे वा होजा, तिरियं वा होजा; उडे होजमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइ-मालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपचएसु होजा; साहरणं पडुश्च सोमणसवणे वा होजा, पंडगवणे वा होजा; अहे होजमाणे गड्ढाए वा, दरीए वा होजा; साहरणं पडुच पायाले वा, भवणे वा होजा; तिरियं होजमाणे पन्नरससु कम्मभूमीसु होजा; साहरणं पडुच्च अड्डाइजदीव-समुद्द-तदेकदेसभाए होजा। ३२. [प्र०] ते णं एगसमए णं केवतिया होजा? [उ०] गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-'असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए, अत्थेगतिए असोच्चा णं केवलि. जाव नो लभेजा सवणयाए, जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा'। क्षय करे, पछी पांच प्रकारे ज्ञानावरणीय कर्म, नव प्रकारे दर्शनावरणीय कर्म, पांच प्रकारे अंतराय कर्म, तथा मोहनीय कर्मने छे मस्तकवाळा ताडवृक्षना समान [क्षीण] करीने कर्म रजने विखेरी नांखनार अपूर्व करणमा प्रवेश करेला एवा तेने अनंत, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सर्व पदार्थने ग्रहण करनार, प्रतिपूर्ण, श्रेष्ठ एवं केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे... अनुस्वा केवली २८. [प्र०] हे भगवन् ! ते [केवलज्ञानी] केवलिए कहेल धर्मने कहे, जणावे अने प्ररूपे ! [उ०] हे गौतम! ते अर्थ योग्य बर्मोपदेश न करे. नथी, परन्तु एक न्याय-उदाहरण अने एक [प्रश्नना] उत्तर शिवाय. [अर्थात् ते अश्रुत्वा केवली एक उदाहरण या एक प्रश्नना उत्तर शिवाय धर्मनो उपदेश न करे.] प्रवज्या न आपे. २९. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ केवली] कोइने प्रव्रज्या आपे, मुंडे-दीक्षा आपे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी, पण मात्र [ 'अमुकनी पासे प्रव्रज्या ग्रहण करो' एवो ] उपदेश करे. सिद्ध थाय. ३०. प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करे! [उ.] हा, सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे. ऊर्च, अधो भने ३१. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अश्रुत्वा केवलज्ञानी) ऊर्ध्वलोकमां होय, अधोलोकमां होय के तिर्यग् लोकमां होय ! [उ०] हे तिर्यग् लोकमां होय. ऊर्ध्वलोकमां वृत्त गौतम ! ते ऊर्ध्वलोकमां पण होय, अधोलोकमां पण होय अने तिर्यग् लोकमां पण होय. जो ते ऊर्ध्वलोकमां होय तो शब्दापाति, विकटावताढ्यमा होय. पाति, गंधापाति, अने माल्यवंत नामे वृत्तवैताढ्य पर्वतोमा होय. तथा संहरणने आश्रयी सौमनस्यवनमा के पांडकवनमा होय. जो ते अधोअधोलोकयामा- लोकमां होय तो गर्ता-अधोलोकप्रामादिमां के गुफामा होय, तथा संहरणने आश्रयी पातालकलशमां के भवनमा (भवनवासि देवोना दिमा होय. . देठाणमा होय. जो ते तिर्यग्लोकमा होय तो ते पंदर कर्मभूमिमां होय, अने संहरणने आश्रयी अढी द्वीप अने समुद्रोना एक कर्मभूमिमा होय.. भागमा होय. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अश्रुत्वा केवलज्ञानी ] एक समये केटला होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे, त्रण अने होय? उत्कृष्टथी दस होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कयुं छे के, केवली पासेथी यावत् सांभळ्या विना कोइ जीवने केवलिए कहेल धर्म श्रवणनो लाभ थाय अने केवली पासेथी सांभळ्या सिवाय कोइ जीवने केवलिप्रणीत धर्म श्रवणनो लाभ न थाय, यावत् कोइ जीव केवलज्ञानने उत्पन्न करे अने कोइ जीव केवलज्ञानने न उत्पन्न करे. भयं पाठो नास्ति क-ख। २-क्खाणावरणे को-ड। ३-लणे को-ख-दुः। ४-विकरण-घ। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३५ ३३. सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा, जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए ? [उ० गोयमा ! सोचा णं केवलिस्स वा, जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं, एवं जा चेव असोचाए वत्तधया सा चेव सोचाए वि भाणियचा, नवरं अभिलावो 'सोचे'त्ति, सेसं तं चेव निवरसेसं, जाव जस्स णं मणपज्जवनाणावरणिजाणं कम्माणं खओषसमे कडे भवति, जस्स णं केवलनाणावरणिजाणं कम्माणं खए कडे, भवइ से णं सोचा केवलिस्स वा, जाव उवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेजा, जाव केवलनाणं उप्पाडेजा। ३४. प्र०] तस्स णं अट्ठमंअट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स पगइभद्दयाए, तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पजइ, से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं असंखेजाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाई जाणइ, पासइ । ३५. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा ? [उ०] गोयमा ! छसु लेसासु होजा, तं जहा-कण्हलेस्साए, जाव सुक्कलेस्साए। ३६. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा ? [उ०] गोयमा! तिसु वा, चउसु वा होजा; तिसु होजमाणे तिसु आमिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होजा, चउसु होजमाणे आभिणिबोहियनाण-सुयणाण-ओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होजा। ३७. [प्र०] से णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा ? [उ०] एवं जोगो, उपओगो, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउयं च एयाणि सवाणि जहा असोच्चाए तहेव भाणियवाणि । ३८. [प्र०] से णं भंते ! किं सवेदए ? पुच्छा [उ०] गोयमा ! सवेदए वा होजा, अवेदए वा होज्जा । ३३. [प्र०] हे भगवन् ! केवली पासेथी यावत् तेना पक्षनी उपासिका पासेथी [धर्म ] सांभळीने कोइ जीव केवलिप्ररूपित धर्म केवल्यदि पासेथी प्राप्त करे ! [उ०] हे गौतम! केवलज्ञानी पासेथी यावत् सांभळीने कोइ जीव केवलिप्ररूपित धर्मने प्राप्त करे अने कोइ जीव न करे. ए प्रमाणे यावत् 'असोच्चा'नी जे वक्तव्यता छे ते ज वक्तव्यता 'सोचा' ने पण कहेवी. परन्तु अहीं 'सोच्चा' एवो पाठ कहेवो. बाकी सर्व पने को न पामे पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत् जे जीवे मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षयोपशम कर्यो छे, अने जे जीवे केवलज्ञानावरणीय कर्मोनो क्षय इत्यादि. कर्यो छे ते जीवने केवली पासेथी यावत् तेनी उपासिका पासेथी केवलीए कहेल धर्मनो लाभ थाय, अने ते शुद्ध सम्यक्त्वनो अनुभव करे, यावत् केवलज्ञानने प्राप्त करे. ३४. (केवलज्ञानी वगेरे पासेथी धर्म सांभळीने सम्यग्दर्शनादि जेने प्राप्त थयेल छे एवा) तेने निरन्तर अट्ठम तप करवा बडे फेवस्यादिपासेची धर्म प्रवण करीने आत्माने भावित करता, प्रकृतिनी भद्रताथी तेमज यावत् मार्गनी गवेषणा करता अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे. अने ते उत्पन्न थएल अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादियुक्त वडे जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग, अने उत्कृष्टथी अलोकने विषे लोकप्रमाण असंख्य खंडोने जाणे छे अने जुए छे. बीवने भवधिचाना दिनी प्राप्ति ___३५. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अवधिज्ञानी ] जीव केटली लेश्याओमां वर्ततो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते 'छ ए लेश्यामां वर्ततो केश्याहोय छे, ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या, यावत् शुक्ललेश्या. ३६. [प्र०] हे भगवन् ! ते [अवधिज्ञानी] केटलां ज्ञानमा वर्ततो होय ! [उ०] हे गौतम! ते त्रण के चार ज्ञानमा होय. जो त्रण ज्ञानमा होय तो आमिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञानमा होय, जो चार ज्ञानमा होय तो ते आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञानमा होय. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अवधिज्ञानी ] सयोगी होय के अयोगी होय ! [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे योग, उपयोग, संघयण, संस्थान, उंचाइ, अने आयुष् ए बधा जेम 'असोच्चा' ने कह्या (सू० १२-२०) तेम अहीं कहेवां. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( अवधिज्ञानी) शुं वेदसहित होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! वेदसहित होय के वेदरहित पण होय. जव क-स। २ सव क-ख। ३ जोगोवओ-ग-घ-छ। ३५. 'यद्यपि त्रण प्रशस्त एवी भावळेश्यामा ज ज्ञान प्राप्त थाय छे, तो पण द्रव्यळेश्यानी अपेक्षाए छ ए लेश्यामा ते अवधिशानी होय छै.-टीका. . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशांतवेद के क्षीणवेद होय ! श्रीवेदादि. सकषायी के पायी उपशांत के क्षीणकषायी ! केटला कपायो होय ! भव्यवसायो. "मोपदेश. प्रब्रज्या आपे. सेना शिष्यो पण प्रम्रज्या अपे. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ९. - उद्देशक ३१. ३९. [प्र०] जर अवेद होजा किं उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए होजा १ [उ०] गोयमा ! नो उवसंतवेदए होज्जा; स्त्रीणवेदए होजा । १३६ ४०. [प्र० ] जर सवेद होजा किं इत्थीवेदय होजा, पुरिसवेदए होजा, नपुंसगवेदए होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए होजा ? [30] गोयमा ! इत्थीवेदर वा होजा, पुरिसवेदए वा होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए वा होया । ४१. [प्र०] से णं भंते! किं सकसाई होज्जा, अकसाई होजा ? [उ०] गोयमा ! सकसाई वा होजा, अकसाई षा होजा । ४२. [प्र०] जइ अकसाई होजा किं उवसंतकसाई होजा, खीणकसाई होज्जा ? [अ०] गोयमा ! नो उवसंतक साई होज्जा, खीणकसाई होजा । 1 ४३. [प्र०] जदि सकसाई होज्जा से णं भंते ! कतिसु कसापसु होज्जा ? [३०] गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दो वा एक्कम्मि वा होजा । चउसु होजमाणे चउसु संजलणकोह - माण - माया -लोभेसु होजा, तिसु होजमाणे तिसु-संजलणमाण–माया-लोभेसु होज्जा, दोसु होजमाणे दोसु-संजलणमाया -लोभेसु होजा, एगम्मि होजमाणे एगम्मि-संजलणलोमे होजा । ४४. [प्र० ] तस्स णं भंते! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! असंखेज्जा; एवं जहा असोचाए तहेव जाय केवलवरनाण- दंसणे समुप्पज्जइ । ४५. [प्र०] से णं भंते! केवलिपन्नत्तं धम्मं आघवेज वा, पनवेज वा, परूवेज वा ? [30] हंता, आघवेज वा, पनवे वा, परूवेज वा । ४६. [प्र०] से णं भंते! पधावेज वा, मुंडावेज वा ? [उ०] हंता, गोयमा ! पचावेज वा, मुंडावेज वा । ४७. [प्र० ] तस्स णं भंते! सिस्सा वि पक्षावेज वा, मुंडावेज वा ? [30] इंता, पधावेज वा, मुंडावेज था । ३९. [प्र०] हे भगवन् ! जो वेदरहित होय तो शुं ते उपशांतवेदवाळो होय के क्षीणवेदवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! उपशांतवेदवाळो न होय, पण क्षीणवेदवाळो होय. ४०. [प्र०] हे भगवन्! जो वेदसहित होय तो शुं ते स्त्रीवेदवाळो होय, पुरुषवेदवाळो होय, नपुंसकवेदवाळो होय के पुरुषनपुंसक वेदवाळी होय ? [30] हे गौतम! ते स्त्रीवेदवाळो होय, पुरुषवेदवाळी होय के पुरुषनपुंसकवेदवाळो पण होय. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) शुं सकषायी होय के अकषायी होय ! [उ०] हे गौतम! ते सकषायी होय के अकपायी पण होय. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते अकषायी होय तो शुं उपशांतकषायी होय के क्षीणकषायी होय ? [30] हे गौतम! उपशांतकषायी न होय, पण क्षीणकषायी होय. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! जो सकषायी होय तो ते केटला कषायोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! ते चार कपायोमा, त्रण कषायोमां, बे कषायोमां के एक कषायमां होय. जो चार कषायोमां होय तो संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभमां होय. जो त्रण कषायोमां होय तो संज्वलन मान, माया अने लोभमां होय. जो बे कषायोमां होय तो संज्वलन माया अने लोभमां होय. अने जो एक कषायमां होय तो एक संज्वलन लोभमां होय. ४४. [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटलां अध्यवसायो कह्या छे ? [उ० ] हे गौतम! तेने असंख्यात अध्यवसायो कह्यां छे. ए प्रमाणे जेम ‘असोच्चा' ने कह्युं (सू. २५) तेम यावत् 'तेने श्रेष्ठ केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थाय छे' त्यां सुधी कहे. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( सोच्चा केवलज्ञानी) के लिए कहेला धर्मने कहे, जणावे, प्ररूपे ! [उ०] हा, गौतम ! ते (केवलिप्रज्ञप्त धर्म) कहे, जणावे, अने प्ररूपे. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! ते कोइने प्रब्रज्या आपे, दीक्षा आपे ? [30] हा, गौतम ! ते प्रव्रज्या आपे - दीक्षा आपे. ४७. [प्र० ] हे भगवन् ! तेना ( सोच्चा केवलिना ) शिष्यो पण प्रब्रज्या आपे, दीक्षा आपे ! [उ०] हा, गौतम ! तेना शिष्यो पण प्रव्रज्या आपे - दीक्षा आपे. १ भोमाणे. क ख । २ होमाणे क ख । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३७ ४८. [प्र०] तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि पवावेज वा, मुंडावेज वा ? [उ०] हंता, पवावेज वा, मुंडावेज वा। ४९. [प्र०] से णं भंते ! सिझति, बुज्झति, जाव अंतं करेइ ? [उ०] हंता, सिज्झति, जाव अंतं करेति । ५०. [प्र०] तस्स णं भंते ! सिस्सा वि सिझंति, जाव अंतं करेंति ? [उ०] हंता, सिझंति, जाव अंतं करेंति । ५१. [प्र०] तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि सिझंति, जाव अंतं करेंति ? [उ०] एवं चेव जाव अंतं करेंति । ५२. [प्र०] से णं भंते ! किं उडे होजा ? [उ०] जहेव असोच्चाए, जाव तदेकदेसभाए होजा। ५३. [प्र०] ते णं भंते ! एगसमए णं केवइया होजा? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं; से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुञ्चति-'सोच्चा णं केवलिस्स वा, जाव केवलिउवासियाए वा, जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगतिए केवलनाणं णो उप्पाडेजा'। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। नवमसए एगतीसइमो उद्देसो समत्तो । ४८. [प्र०] हे भगवन् ! तेना प्रशिष्यो पण प्रव्रज्या आपे, दीक्षा आपे ? [उ०] हा, गौतम! प्रव्रज्या आपे, दीक्षा आपे. प्रशिष्यो पण प्रवज्या आपे. ४९. [प्र०] हे भगवन् ! ते ( सोच्चा केवली ) सिद्ध थाय, बुद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखनो अन्त करे ? [उ०] हा गौतम ! ते सिद्ध सिद्ध थाप. थाय, यावत् सर्व दुःखोनो नाश करे. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! तेना शिष्यो पण सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करे ? [उ०] हा, गौतम ! सिद्ध थाय, यावत् सर्व शिष्यो पण दुःखोनो नाश करे. सिद थाय. ५१. [प्र०] हे भगवन् ! तेना प्रशिष्यो पण सिद्ध थाय, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करे ? [उ०] ए प्रमाणे यावत् सर्व दुःखोनो प्रशिष्यो पण अन्त करे. सिद्ध थाय. ५२. [प्र०] हे भगवन् ! ते (सोचा केवली) शुं ऊर्ध्वलोकमां होय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम 'असोचा' केवली संबंधे कह्यु (सू. शुऊर्श्वलोकमा होय ३१.) ते प्रमाणे जाणवू, यावत् [ अढी द्वीप समुद्र के] तेना एक भागमा होय. इत्यादि. ___एकसमयमा संख्या. ५३. [प्र०] हे भगवन् ! ते (सोच्चा केवली ) एक समयमा केटला होय ? [उ०] हे गौतम ! ते एक समयमा जघन्यथी एक, बे के त्रण होय, अने उत्कृष्टथी एक सो आठ होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कर्दा छे के, 'केवली पासेथी यावत् केवलिनी उपासिकापासेथी सांभळीने यावत् कोइ जीव केवलज्ञानने उपजावे अने कोइ जीव केवलज्ञानने न उपजावे.' हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] नवम शतके एकत्रीशमो उद्देशक समाप्त. Jain Education international १८ भ. स. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमो उद्देसो. १. तेणं कालेणं तेणं समपणं वाणियग्गामे णामं नयरे होत्था, । वन्नओ । दैतिपलासए चेइए । सामी समोसढे । परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिजे गंगेए णाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं दासी २. [प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उववजंति, निरंतरं नेरइया उववजंति ? [उ०] गंगेया ! संतरं पि नेरइया उववजंति, निरंतरं पि नेरइया उववजंति । ३. [प्र०] संतरं भंते ! असुरकुमारा उववजंति, निरंतरं असुरकुमारा उववजंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववजंति, निरंतरं पि असुरकुमारा उववजंति; एवं जाव थणियकुमारा। ४. [प्र०] संतरं भंते ! पुढविक्काइया उववजंति, निरंतरं पुढविक्काइया उववजंति ? [उ०] गंगेया! नो संतरं पुढविकाइया उववजंति, निरंतरं पुढविक्काइया उववजंति; एवं जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव वेमाणिया एते जहा णेरइया । ५. [प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उच्चइंति, निरंतरं नेरइया उच्चटुंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि नेरइया उच्चदंति, निरंतर पि नेपया उधटुंति; एवं जाव थणियकुमारा । बत्रीशमो उद्देशक. वाणिज्यग्राम. १.ते काले, अने ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. दूतिपलाश नामे चैत्य हतुं. श्रीमहावीर स्वामी समवसर्या. पर्षद् वांदवा निकळी. धर्मोपदेश कर्यो. पर्षद् विसर्जित थइ. ते काले-ते समये श्रीपार्श्वप्रभुना शिष्य गांगेय नामे अनगार ज्यां श्रमण भगवान् गांगेयना प्रश्नो. महावीर विराजमान हता त्यां आव्या, आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे थोडे दूर बेसीने तेणे श्रमण भगवंत महावीरने ए प्रमाणे कडंनैरयिको सान्तर २. प्र०] हे भगवन्! नैरयिको *सांतर (अन्तरसहित) उत्पन्न थाय छे के निरंतर (अन्तर शिवाय) उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे गांगेय! नैरयिको सांतर पण उत्पन्न थाय छे अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. थाय । अमरकुमार. ३. [प्र०] हे भगवन्! असुरकुमारो सांतर उत्पन्न थाय छे के निरंतर उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गांगेय! असुरकुमारो सांतर पण उत्पन्न थाय छे, अने निरंतर पण उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. पृथिवीकायिको. ४. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे? [उ०] हे गांगेय! पृथिवीकायिक वत् जीवो सान्तर उत्पन्न थता. नथी, पण निरंतर उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक जीवो सुधी जाणवू. बेइन्द्रिय जीवोथी मांडी वैमानिको. यावद् वैमानिको नैरयिकोनी पेठे (सू० २) जाणवा. नैरयिको अने यावत् ५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सांतर च्यवे छे के निरंतर च्यवे छे ? [उ० हे गांगेय! नैरयिको सांतर पण च्यवे छे अने निरंतर स्खनितकुमारनु सा- पण च्यवे छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधी जाणवू. न्तर भने निरंतर च्यवन अयं पाठो नास्ति घ । २-पलासे चे-घ-ङ। ३-गच्छइत्ता ग-घ-ङ । ४ वयासी ग-घ-ङ। ५ सांतरं क-ख । ६ उववर्ट-घ। २.* जे उत्पत्तिमा समयादिकालनु अन्तर-व्यवधान होय ते सान्तर कहेवाय छे. तेमां एकेन्द्रियो प्रतिसमय उत्पन्न थता होवाथी तेओ सान्तर उत्पन्न थता नथी, पण निरन्तर उपजे छे. ते शिवाय बीजा जीवोनी उत्पत्तिमा अन्तरनो संभव होवाथी तेओ सान्तर अने निरन्तर-ए बने प्रकारे उपजे छे. -टीका. . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३९ ६. प्रि० संतरं भंते ! पुढविकाइया उबटुंति-पुच्छा। [उ०] गंगेया। णो संतरं पुढविकाइया उबटुंति, निरंतरं पढविकाइया उच्घटुंति; एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं, निरंतरं उच्चस॒ति । ७. [प्र०] संतरं भंते ! बेइंदिया उच्वटंति, निरंतरं बेइंदिया उवटंति ? [उ०] गंगेया ! संतरं पि बेइंदिया उच्चदंति, निरंतरं पि बेइंदिया उच्चद॒ति; एवं जाव वाणमंतरा । ८. [प्र०] संतरं भंते ! जोइसिया चयंति-पुच्छा । [उ०] गंगेया! संतरं पि जोइसिया चयंति, निरंतर पि जोइसिया चयंति; एवं जाव वेमाणिया वि। ९. [प्र०] कइविहे णं भंते ! पवेसणए पन्नत्ते ? [उ०] गंगेया ! चउधिहे पवेसणए पन्नत्ते, तं जहा-नेरहयपवेसणए, "तिरिक्खजोणियपवेसणए, मणुस्सपवेसणए, देवपवेसणए । १०. [प्र०] नेरइयपवेसणए णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? [उ०] गंगेया ! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा-रयणप्पभापुढविनेरयपवेसणए, जाव अहेसत्तमापुढविनेरतियपवेसणए । ११. [प्र०] एगे णं भंते ! नेरइए नेरइयपवेसणएणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होजा, सकरप्पभाए होजा, जाव अहेसत्तमाए होजा? [उ०] गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा । १२. प्र०] दो भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा, जाव अहेसत्तमाए होजा? [उ०] गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुय ६. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवो सांतर च्यवे छे! -इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! पृथिवीकायिक जीवो निरंतर च्यवे पृथिवीकायिकादिनुं सान्तर के निरन्तर छे पण सांतर च्यवता नथी. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक जीवो सान्तर च्यवता नथी, पण निरन्तर च्यवे छे. व्यवन७. प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो सांतर च्यवे छे के निरंतर च्यवे छे! [उ०] हे गांगेय! बेइन्द्रिय जीवो सांतर पण च्यवे छे बेहन्द्रियादि. अने निरंतर पण च्यवे छे. ए प्रमाणे यावद् वानव्यन्तर सुधी जाणवू. ८. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिक देवो सांतर च्यवे छे?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय! ज्योतिषिक देवो सांतर पण च्यवे छे अने ज्योतिषिक निरंतर पण च्यवे छे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक देवो सुधी जाणवू. ९. प्र०] हे भगवन् ! *प्रवेशनक (उत्पत्ति) केटला प्रकारे कहेल छे! [उ०] हे गांगेय! प्रवेशनक चार प्रकारे कयां छे. ते आ प्रवेशनक प्रमाणे-१ नैरयिकप्रवेशनक, २ तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, ३ मनुष्यप्रवेशनक अने ४ देवप्रवेशनक. १०. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनक केटला प्रकारे कर्तुं छे? [उ०] हे गांगेय! सात प्रकारे कयुं छे. ते आ प्रमाणे-१ नैरषिकप्रवेशनक. रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक, यावद् ७ अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकप्रवेशनक. ११. प्र०] हे भगवन् ! एक नारक जीव नैरयिकप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करतो शुं १ रत्नप्रभापृथिवीमां होय, २ शर्कराप्रभापृथिवीमा एक नैरविकहोय के यावद ७ अधःसप्तमपृथिवीमां होय ! [उ०] हे गांगेय! ते १ रत्नप्रभापृथिवीा पण होय, यावद् ७ अिधःसप्तमपृथिवीमा पण होय. १२. [प्र०] हे भगवन्! बे नारको नैरयिकप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करता \ रत्नप्रभापृथिवीमा उत्पन्न थाय के यावद् अधःसप्तमपृ. नैरयिकथिवीमा उत्पन्न थाय! [उ०] हे गांगेय! ते बन्ने १ रनप्रभापृथिवीमां होय, के यावद् ७ अधःसप्तमनरकपृथिवीमा होय. १ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक वालुकाप्रभापृथिवीमा होय. यावत् ६ एक रत्नप्रभामा होय अने एक अधःसप्तमनरकपृथिवीमां होय. [३ एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक पंकप्रभापृथिवीमा होय.४ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक धूमप्रभापृथिवीमा होय. ५ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमःप्रभापृथिवीमा होय. १ तिरियजो-ग-घ। ९.* बीजी गतिमांथी च्यवीने विजातीय गतिमा जीवनो प्रवेश-उत्पाद थवो ते प्रवेशनक कहेवाय छे.-टीका. ११. 1 नहीं एक नारकना रत्नप्रभादि सात पृथिवीने आश्रयी सात विकल्प थाय छे. १२. 1 बे नारकोना अव्यावीश विकल्पो थाय छे. तेमां एक एक पृथिवीमा बन्ने नारकोनी उत्पत्तिने आधयी सात भांगा थाय छे, तथा बे पृथिवीने विषे एक एक नारकनी उपत्ति बडे द्विकसंयोगी एकवीश भांगा थाय छे. मूळ सूत्रपाठमा नहि आपेला भंगो आवा [ ] कोष्ठक नी अंदर आपेला छे. अहीं त्रीजा भंगथी मांडी उहा भंगसुधीना भंगो आप्या छे. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे ९. उद्देशक ३२. प्यार होना; जाय अहवा एगे सकरण्णभार एगे अससमाए होजा या एगे बालुप्यभार एने पंकभार होला एवं जाव अहवा एगे वालुवाप्यभार एगे अहेसत्तमाए होला एवं एकेका पुडवी उड़ेया जाय महवा एगे तमाए एगे असत माए होजा । I १३. [अ०] तिनि भंते! नेरइया नैरश्यपसणणं पचिसमाना कि रवप्यभार होजा, जाव आहेसत्तमार दोजा ? [30] गंगेया ! रयणप्पभार वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो आहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा; जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे असत्समाए होजा अहवा पगे सारणभार दो वालुयप्यभाए होजा जाय अदया एगे सकरप्पभाष दो अहेरातमाए होजा | अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा, जाव अहवा दो सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । एवं जहा सकरप्पभाए वत्तवया भणिया, तहा सङ्घपुढवीणं भाणियां, जाव अहवा दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा । ६ अथवा एक रत्नप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमः तमः प्रभा पृथिवीमां होय. ए रीते रत्नप्रभा साथे छ विकल्प थाय छे.] १ अथवा एक शर्कराप्रमापृथिवीमां होय अने एक वालुकाप्रभापृथिवीमां होय. यावत् ५ अथवा एक शर्कराप्रभामां होय अने एक अधः सप्तम नरकपृथिवीमां होय. [२ एक शर्कराप्रमापृथिवीमां होय अने एक पंकप्रभापृथिवीमां होय, ३ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक धूमप्रभा पृथिमां होय, ४ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमः प्रभापृथिवीमां होय, ५ अथवा एक शर्कराप्रभापृथिवीमां होय अने एक तमः तमापृथिवीमां होय. ए प्रमाणे पांच विकल्प शर्वराामा साथै चाय छे.] १ अथवा एक वाकयभामां होय अने एक पंकप्रभागां होय. [२] अथवा एक बालुकाप्रभामां होय अने एक धूमप्रभामां होय, ३ अथवा एक खलुकाप्रभामां होय अने एक तमः प्रभामां होय. ] ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक वालुकाप्रभामां होय अने एक अधः सप्तम नरकप्पृथिवीमां होय. ए प्रमाणे आगल आगलनी एक एक पृथिवी छोडी देवी, यावत् एक तमामां होय अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. [ एटले वालुकाप्रभा साधे चार विकल्प थाय छे. १ अथवा एक पंकप्रभाम होय अने एक धूमप्रभामा होय. २ अथवा एक पंकप्रभागां होय अने एक तमः प्रभागां होय, ३ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने एक तमःतमामां होय. ए रीते पंकप्रभा साथै म विकल्प थाय छे. १ अथवा एक धूमाभामां होय अने एक तमः प्रभागां होय, २ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने एक तमः तमामां होय. ए प्रमाणे धूमप्रभा साथे बे विकल्प थाय छे. १ अथवा एक तमः प्रभामां होय अने एक तमतमाप्रभामां होय. ए रीते तमः प्रभा साथे एक विकल्प थाय छे *] भण नैरबिको. एकसंयोगी सात विकल्पो. द्विक्संयोगी बेंता १३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता त्रण नैरयिको शुं रत्नप्रभामां होय के यावत् अधः सप्तम पृथिवीमां होय ? [उ०] हे गांगेय ! ते त्रण नैरयिको १ रत्नप्रभामां पण होय अने यावत् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. १ / अथवा एक रत्नप्रभामां अने वे शर्कराप्रभाम होय. यावत् ६ एक रनप्रभागां होय अने अधः सहम नरकमां होय. [ए प्रमाणे १-२ ना रत्नप्रभानी लीश विकल्पो. साथे अनुक्रमे बीजी नरकपृथिवीओनो संयोग करतां छ विकल्प थाय. ] १ अथवा वे रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामां होय. यावत् ६ के रत्नप्रभाम होय अने एक अधः सप्तम नरकपृथिवीमां होय [ए प्रमाणे २-१ ना बीजा छ विकल्पो थाय.] १ अथवा एक शर्कराप्रभाम अने वे वालुकाप्रभामां होय. यात् ५ अथवा एक शर्कराप्रभामा अने ये अथः सप्तम नरकमां होय. [ए रीते १-२ मा पांच विकल्प चाय.] १ अथवा वे सर्वाप्रभामा अने एक वालुकाप्रभामां होय यावत् ५ अथवा वे शर्कराप्रभामां अने एक अधः सप्तम पृथिवीमां होय. [ए प्रमाणे २-१ ना पांच विकल्प थाय. ] जेम शर्कराप्रभानी वक्तव्यता कही तेम साते पृथिवीओनी कहेवी.. [ते आ प्रमाणे - १ एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ४ एक वालुकाप्रभामां अने बे तमतमापृथिवीमां होय. एवी रीते १-२ ना चार विकल्प थाय. १ अथवा बे वालुकाप्रभामां होय अने एक पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ४ बे वालुकाप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. ए प्रमाणे २-१ मा चार विकल्प चाय १ अथवा एक पंकप्रभामां होय अने वे धूमप्रभामां होय. ९ प्रमाणे यावत् ३ एक पंक भामां होय अने वे तमःतमाप्रभामां होय. ए रीते १-२ ना त्रण विकल्प थाय. १ अथवा बे पंकप्रभामां होय अने एक धूमप्रभामां होय. एप्रमाणे यावत् ३ मे पंफप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. ए रीते २-१ ना त्रण विकल्प थाय १ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने ने तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक धूमप्रभामां होय अने बे तमतमाप्रभामां होय. एम १-२ ना बे विकल्पो थाय. १ अथवा बे धूमप्रभामां होय अने एक तमः प्रभा होय. २ अथवा मे धूमप्रभामां होय अने एक तमतमामां होय. एम २-१ ना वे विकल्प थाय १ अथवा एक तमः प्रभातं होय अने बे तमः तमाप्रभामां होय. ] यावत् १ अथवा वे तमः प्रभामां होय अने एक तमतमाप्रभामां होय. [ एम १२, २-१ ना बे विकल्प थाय. ] १२. मोने आश्रमी वियोगी (५-४-३-१-१गा महीने एकली भगाओ घाम छे, तेनी साधे एकोनी सात मांगा मेळवतां कुल अभ्यावीश भांगा थाय छे. १३. + त्रणे नैरयिको रत्नप्रभादि साते नरकपृथिवीमां उत्पन्न थाय, माटे त्रण नैरयिकोने आश्रयी एकसंयोगी सात विकल्पो थाय छे. + ऋण नैरयिकना द्विकसंयोगी १-२ अने २-१-ए बे विकल्प थाय छे. तेमां १-२ ना रत्नप्रभानी साथे बीजी बधी पृथिवीओनो अनुक्रमे योग करतां छ विकल्पो थाय, अने तेवी रीते २-१ ना पण छ विकल्पो मळीने वार विकल्पो थाय. शर्कराप्रभा साथै पांच पांच मळीने दश, वालुकाप्रभां साथै आठ, पंक प्रभा साथै छ, धूमप्रभा साथे चार, अने तमःप्रभा साथै बे-ए प्रमाणे द्विकसंयोगी बेताळीश भांगाओ थाय छे. / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४१ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा पगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभार एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए विकसयोगी पाधीश विकल्पो. - १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक पंकप्रभामां होय. यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [३ एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक तमःतमाप्रभामां होय. ए प्रमाणे रत्नप्रभा साथे पांच विकल्प थाय.] १ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय [३ एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामा होय. ए प्रमाणे शर्कराप्रभाने छोडीने चार विकल्प थाय.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. यावत् ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अध:सप्तम पृथिवीमां होय. [२ अथवा एक रत्नप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामां होय. ए रीते वालुकाप्रभा छोडीने त्रण विकल्प थाय.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [एम पंकप्रभाने छोडीने बे विकल्प थाय.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [ए एक विकल्प धूमप्रभा छोडीने थाय. ए प्रमाणे रत्न० ना ५-४-३-२-मळीने पंदर विकल्प थाय छे.] १ एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. २ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. यावत् ४ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [३ एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. ४ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामा होय. एम शर्कराप्रभा साथे चार विकल्प थाय.] १ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामा होय. यावत् ३ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [२ एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामा होय. एम वालुकाप्रभाने छोडीने त्रण विकल्प थाय.] १ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. २ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [एम पंकप्रभाने छोडीने बे विकल्प थाय.] १ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [ए रीते धूमप्रभाने छोडीने एक विकल्प थाय.] ए प्रमाणे शर्करा० ना ४-३-२-१ मळीने दश विकल्पो थाय छे.. १ अथवा एक वालुकाप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. .२ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ३ अथवा एक वाट्काप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [ए रीते वालुका० साथे त्रण विकल्प थया..] १ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमामां होय. २ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय [पंक० छोडीने बे विकल्प.] १ अथवा एक वालुकाप्रभामा एक तमामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [ए एक विकल्प मळी वालुका० साथे छ विकल्प थया.] १ अथवा एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. ३ अथवा एक पंकप्रभामां एक तमःप्रभामा . वालुयए क-ख। २ वालुयाए ङ । . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३२. एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे चालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे पंकप्पभाए पुगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। १४. [प्र०] चत्तारि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा?-पुच्छा। उ० गंगेयार: रयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि सक्करप्पभाए होजा; अह्वा एगे रयणप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे सकरप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा; एवं जहेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारेयवं; एवं एक्केकाए समं चारेयचं, जाव अहवा तिन्नि तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ६३ । अहवा. एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा; एवं जावे एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए अने एक अधःसप्तम नरंकमां होय. [एम पंक० साथे त्रण विकल्प थया.] १ अथवा एक धूमप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [धूम० साथे एक विकल्प थयो. १५-१०-६-३-१-ए बधा मळीने त्रिकसंयोगी पांत्रीस विकल्प थया. ए प्रमाणे त्रण नैरयिकोने आश्रयी एक संयोगी ७, द्विकसंयोगी ४२, अने त्रिकसंयोगी ३५ मळीने कुल ८४ विकल्प थाय छे.] १४. प्र०न हे भगवन्! नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता चार नैरयिको शुं रत्नप्रभामां होय !-इत्यादि प्रश्न [उ०] हे गांगेय! ते चारे १ रत्नप्रभामां पण होय, अने यावत् ७ अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. [ए प्रमाणे एकसंयोगी सात विकल्प थया.] पार नैरयिको. विकसयोगी प्रेसठ विकल्पो. १*अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण शर्कराप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा एक रत्नप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [एम १-३ ना छ विकल्प थया.] १ अथवा बे रत्नप्रभामां अने बे शर्कराप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावद् ६ अथवा बे रत्नप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [ए प्रमाणे बीजी रीते २-२ ना छ विकल्प थया.] १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा त्रण रत्नप्रभामा अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [ए त्रीजी रीते ३-१ ना छ विकल्प थया. ए प्रमाणे रत्नप्रभानी साथे अढार विकल्प थाय छे.] १ अथवा एक शर्कराप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभानो उपरनी नरकपृथिवीओ साथे संचार (योग) कर्यो तेम शर्कराप्रभानो पण उपरनी नरकपृथिवीओ साथे संचार करवो. एवी रीते एक एक नरक पृथिवीओ साथे योग करवो. यावत् अथवा त्रण तमामा अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने बे पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे अधःसप्तम नरकपृथिवीमा होय. [ए रीते १-१-२ ना त्रिकर्मयोगी विकल्पो. वालुयाए । २ पंकाए । ३ धूमाए ङ। ४ जाव भहवा ए-ङ। .. १४. * चार नैरयिकना १-३, २-२, ३-१-ए प्रमाणे द्विकयोगी त्रण विकल्प थाय छे. तेमा रत्नप्रभा साथे बाकीनी पृथिवीओनो योग करता १-३ ना छ भांगा, ए प्रमाणे २-२ ना छ, अने ३-१ ना छ-ए रीते अढार भांगा थाय छे. शर्कराप्रभानी साथे ते प्रमाणे त्रण विकल्पना ५-५-५ मळीने पंदर विकल्प थाय छे. एम वालुकाप्रभानी साथे ४-४-४ मळीने वार विकल्प, पंकप्रभानी साथे ३-३-३ मळीने नव विकल्प, धूमप्रभानी साथे २-२-२ मळीने छ विकल्प अने तमःप्रभानी साथे १-१-१ मळीने त्रण विकल्प-सर्व मळीने द्विकसंयोगी ६३ विकल्पो थाय छे. तेमां रत्नप्रभाना अढार भांगाओ उपर मूळ अनुवादा कह्या छे. ए प्रमाणे शर्कराप्रभा साथे आगळनी पृथिवीओनो योग करता १-३ ना पांच विकल्प थाय छे. जेम के एक शर्करामां अने त्रण वालुकामां होय.ए रीते २-२ ना पण पांच विकल्प थाय छे. जेम के बे शर्करामां अने बे वालुकामां होय. ते प्रमाणे ३-१ ना पण पांच विकल्प थाय.जेम के त्रण शर्करामां अने एक वालुकामां होय. आ रीते शर्कराप्रभाना पंदर विकल्प थाय. वालुकाप्रभा साथे पंकप्रभादि पृथिवीओनो योग करतां चार विकल्पो थाय, तेने पूर्वोत त्रण विकल्प साथे गुणतां बार विकल्प थाय. तेमज पंकप्रभा साथे धूमप्रभादिनो योग करतां त्रण विकल्प थाय, तेने पूर्वोक्त त्रण विकल्प साथे गुणतां नव विकल्प थाय. धूमप्रभा साथे तमःप्रभादिनो योग करता बे विकल्प थाय, तेने त्रण विकल्प साथे गुणता छ विकल्प थाय. 'तमःप्रभा साथे तमःतमःप्रभानो योग करता एक विकल्प थाय, तेने पूर्वना त्रण विकल्प साथे गुणतां त्रण विकल्प थाय. ए रीते आगळनी पृथिवीओनो योग करता उपर कह्या प्रमाणे रत्नप्रभाना १८, शर्कराना १५, वालुकाना १२, पंकप्रभाना ९, धूमप्रभाना ६, भने तमःप्रभाना ३ विकल्पो मळीने चार नैरयिकना द्विकसंयोगी त्रेसठ विकल्पो (भांगाओ) थाय छे. चार नैरयिकना त्रिकसंयोगी १०५ विकल्पो थाय छे, ते आ प्रमाणे-चार नैरयिकना १-१-२,१-२-१ अने २-१-१-ए त्रण विकल्प थाय छे. हवे रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभा साथे वालुकाप्रभादि आगळनी नरकपृथिवीओनो योग करतां पांच भांगा थाय छे, तेने पूर्वोक्त त्रण विकल्प साये गुणता पंदर भांगा थाय. एज प्रकारे त्रणे विकल्पोना रत्नप्रभा अने वालुकाप्रभा ए बन्नेनो बाकीनी बीजी पृथिवीओ साथे संयोग करतां कुल बार विकल्प थाय, रत्नप्रभा अने Jain Education international Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४३ पगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । एवं पएणं गमएणं जहा तिण्हं तियसंजोगो तहा भाणियो; जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १०५। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा १; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २, अहृवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए होजा ३; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ४; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा ५, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा ६; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहसत्तमाए होजा ७, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ८; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ९; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १०, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा ११; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पांच विकल्प थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ५ एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. [ एम १-२-१ ना पांच विकल्प थया. ] अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा अने एक वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमा होय. [ए रीते २-१-१ ना पांच विकल्प थया, अने त्रणे विकल्पना मळीने पंदर विकल्पो थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ४ एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ए प्रमाणे ए पाठवडे जेम त्रण नैरयिकनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम चार नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो. यावत् अथवा १०५ बे धूमप्रभामां एक तमःप्रभामा अने एक अधःसप्तम नरकमा होय. १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. [चार विकल्प थया. ] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. [त्रण विकल्प थया. १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक.धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामा एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [ए त्रण विकल्प थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामा एक पंकप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभामा होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकमा होय. [त्रण विकल्प थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [बे विकल्प थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [एक विकल्प थयो.] १ चतुःसंयोगी ५ विकल्पो. घ विनाऽन्यत्र जाव अ-। २ तियासंजो-क, तियजो-घ। ३ एवं जाव अहवा ङ। ४ अहेसत्तमाए हो-छ। पंकप्रभा ए बन्नेनो वाकीनी नरकपृथिवी साथे संयोग करवाथी नव विकल्पो थाय, रत्नप्रभा अने धूमप्रभा ए वनेनो बाकीनी पृथिवीओ साथे संयोग करता छ विकल्पो थाय, तथा रत्नप्रभा अने तमःप्रभा ए बन्नेनो तमःतमःप्रभा साथे संयोग करता त्रण विकल्प थाय. ए प्रमाणे रत्नप्रभाना संयोगवाळा १५, १२,-१, ६ अने ३ विकल्पो मळीने कुल पीस्ताळीश विकल्पो थाय छे. वढी पूर्वोक्त त्रण विकल्पोना शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभानो बाकीनी पृथिवीओ साथे संयोग करवाथी बार विकल्प थाय, तेज प्रमाणे शर्कराप्रभा अने पंकप्रभानो बाकी नी पृथिवीओ साथे संयोग करतां नव विकल्पो थाय, शर्करा अने धूमप्रभानो बाकीनी पृथिवीओ साथे संयोग करता छ विकल्प थाय, शर्कराप्रभा अने तमम्प्रभानो तमःतमःप्रभा साथे संयोग करतां त्रण विकल्पो थाय. १२-९-६-३ ए सर्व विकल्पो मळीने शर्कराप्रभाना संयोगवाळा कुल त्रीश विकल्पो थाय छे. हवे पूर्वोक्त त्रण विकल्पोना वालुका अने पंकप्रभानो बीजी पृथ्वीभो साथे संयोग करता नव विकल्प थाय छे. वालुका अने धूमप्रभानो बीजी पृथ्वीओ साथे संयोग करता छ विकल्पो थाय छे, वालुका अने तमाप्रमानो तमतमःप्रभा साथे संयोग करतां त्रण विकल्प थाय छे. ९-६-३ ए बधा मळीने वालुकाप्रभागा संयोगबाळा अढार विकल्पो थाय छ. पंकप्रभा अने धूमप्रभानो धीमी पृथ्वीओ साथे संयोग करतां पूर्वोक्त प्रण विकल्पना छ विकल्पो थाय छे, पंकप्रभा अने तमःप्रभानो तमःतमःप्रभा साथे संयोग करतां त्रण विकल्पो धाय छे. सर्व मळीने पंकप्रभाना संयोगवाळा नव विकल्पो थाय छे. हवे धूमप्रभा, तमःप्रभा तथा तमःतमःप्रभानो संयोग करतां पूर्वोक्त त्रग विकल्प साथे बीजा व्रण विकल्प थाय छे. ए प्रकारे ४५,३०,१८,१,३-ए बधा मळीने एकसो ने पांच विकल्प थाय छे. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच नैरयिक. द्विकसंयोगी ८४. विकल्पो. १४४ श्रीरामचन्द्र जिनागमसंपदे शतक ९. - उदेशक ३२० कपमा एगे समाए होला १२ अहवा एगे रणयभाए एगे यालुयप्यभार एगे पंकपनाए एगे अससमा होला १३० अहचा एगे रयणप्पभाए एगे वालुवयभाए एगे धूमप्यभार एगे तमाए होला १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयंण्यभाष पगे धूमव्यभार एगे असत्तमार होळा १५ अहवा एगे रयणाभाव एगे बालुयप्यभार एगे तमाए एगे असत्तमाय होजा १६ या एगे रणभाए एगे पंकप्पाए एगे धूमप्यभार एगे समाए होजा १७ अहया एगे रयप्यभाव एगे पंकल्पभाए एगे धूमप्यभार एगे असत्तमाए होजा १८ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकल्पभाए एगे समाए एगे असत्समाए होजा १९ अवाएगे रयणप्पभाए पगे धूमप्यभार एगे तमार पगे आहेसरामार होजा २०६ अध्या एगे सकरण्यभार एगे बालु ययभार एगे पंकणभार एगे धूमप्यभार होता २१ । एवं जहा रचणप्पभाए उवरिमाओ पुंढवीओ चारियाओं तहा करण्यभावि उवरिमाओ चारियद्याओ; जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाप होजा ३० । अवाएगे वालुवप्नाए एगे पंकल्पनाए एगे धूमप्यभाए एगे तमाए होला ३१ हवा गे बालुयप्यभाव एगे पंकप्पा एगे धूमप्पभाए एगे असत्तमार दोखा ३२ अहवा एगे वालुयप्यभाए एगे पंकप्पा एगे समाए एगे अससमाए होजा ३३: अहवा एंगे वालुयप्पभार एगे धूमप्यभाए एगे समाए एगे अससमाए होला ३४ अहवा मे पंकभार एगे धूमप्यभार ए तमाए एगे असत्तमाए होजा ३५ । १५. [२०] पंच भंते! या नेरद्र पवेसणणं पविसमाणा कि रयणप्पभार होजा पुच्छा [30] गंगेया ! रयणपभाए वा होना, जाव आहेससमा वा दोखा । अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा दो रयणप्पभाए तिन्नि सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए तिन्नि असत्तमाप होजा । अहवा तिन्नि अथवा एक रक्तप्रभागां एक प्रभाग एक धूमप्रभाग अने एक तमः प्रभामां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभागां अने एक असाम पृथिवीमां होय. [वे निकल्प क्या.] १ अथवा एक रजप्रभागां एक पंकप्रभामों एक तमः प्रभाम अने एक अध:सप्तम नरकमां होय. [ एक विकल्प थयो . ] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमः प्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. [एक विकल्प थयो. ए प्रमाणे बचा महीने रत्नप्रभाना संयोगाच्या ४-३-३-३-२-१२-१-१-बीश विकल्प थया. ] १ अथवा एक सर्वाभामां एक वालुकाप्रभागां एक पंकप्रभागां अने एक धूमप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभापृथिवीनो बीजी उपरनी पृथिवीओ साथै संचार (योग) कर्मों, तेम सर्वप्रभा पृथियोनो पण भीजी बधी उपरनी पृथिवीओ साथै योग करवो यावत् १० अथवा एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमाम अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. [ शर्कराना संयोगवाळा दश विकल्प थया. ] १ अथवा एक बालुकाप्रभामा एक पंवाभामा एक धूमप्रभामां अने एक तमः प्रभामां होय. २ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभाम अने एक अधः सप्तम पृथिवीमां होय. ३ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक पंफप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक अधः सप्तम पृथिवीमां होय. ४ अथवा एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमाम अने एक संयोगाला चार विकल्प थया.] १ अथवा एक पंकप्रभामा एक धूमप्रभामो एक [ए प्रमाणे २०१०-४-१ गळीने चतु:संयोगी पांत्री विकल्प क्या. अने सर्व द्विकसंयोगी ६३, त्रिसंयोगी १०५ अने चतुःसंयोगी ३५ वधा मळीने यसो दस विकल्पो चाय छे.] १५. [प्र० ] हे भगवन् ! पांच नैरयिको नैरपिकप्रवेशनवढे १ रत्नप्रभागां पण होय, अने यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. १ अथवा एक रत्नप्रभामा अने चार शर्कराप्रभामा होय. होय. [ए प्रमाणे 'एक अने अधः सप्तम नरकमां होय. [ए प्रमा तमः प्रभामां अने एक अथः सप्तम नरकमां होय. मळीने चार नैरपिकने आश्रयी एकसंयोगी ७, प्रवेश करता शुं प्रभामां होप इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गांगेय ! [ए प्रमाणे एक संयोगी सात विकल्प थपा. ] यावत् ६ अथवा एक रत्नप्रभामां अने चार अधः सप्तम नरकमां चार विकल्पना रजप्रभा साधे बीजी पृथ्वीओनो योग करता छ भांगा थाय. ] १ अथवा वे रसप्रभामां अने १ संचारिया - ङ । उच्चारेय - ङ । ३ ग घ ङ विना नान्यत्र । * १४. शर्कराप्रभाना संयोगवाळा बीजाथी मांडीने दशमा विकल्प सुधी आ प्रमाणे - २ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमःप्रभापृथिवीमां होय. ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमः तमः प्रभामां होय. ( त्रण विकल्प थया. ) १ एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमः प्रभामां होय. २ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमः त मप्रभाम होय ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक तमः तमःप्रभामां होय. ( त्रण विकल्प थया. ) १ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. २ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमतमामां होय. ३ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक तमः प्रभामां अने एक तमतमाप्रभामां होय. ( ए त्रण विकल्प थया. ) अथवा १० एक शर्कप्रभागां एक धूमप्रभामां एक तमाम अने एक तमतमामां होय. ** १५. पांच नैरयिकना द्विकसंयोगी १-४, २-३, ३-२, ४-१-ए चार विकल्प थाय छे, तेने रत्नप्रभाना द्विकसंयोगी छ विकल्प साधे गुणतां चोवीश भांगा था. शर्कराप्रमाना उपरनी पृथिवीओ साथै द्विकसंयोगी पांच विकल्प थाय, तेने पूर्वोक्त चार विकल्प साथै गुणतां वीश भांगा थाय. तेवी रीते Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४५ रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहेसत्तमाए होजा । अहवा चत्तारि रयणप्पमाए एगे सकरप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे अहेसजमाए होजा । अहवा एगे सक्करप्पमाए चत्तारि वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिमपुढवीओ चारियाओ तहा सकरप्पभाए वि समं चारेयवाओ; जाव अहवा चत्वारि सकरप्पसार एगे अहेसत्तमाए होजा; एवं एकेकाए समं चारेयवाओ; जाव अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। . अहवा एगे रयणप्पभाए एंगे सकरप्पभाए तिन्नि दालुयणभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एये सक्करप्पमाए तिन्नि अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करपभाए दो वालुयप्पभाए होजा; एवं जाय त्रण शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा बे रत्नप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [ए रीते 'बे ने त्रण विकल्पना छ भांगा थया.] १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने बे शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ त्रण रत्नप्रभामां अने बे अधःसप्तम पृथिवीमां होय. [ए रीते 'त्रण ने बे' विकल्पना छ भांगा थया.] १ अथवा चार रनप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ अथवा चार रत्नप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. [एम 'चार ने एक विकल्पना छ, अने बधा मळीने रत्नप्रभाना संयोगवाळा चोवीश विकल्प थया.] १ अथवा एक शर्कराप्रभामां अने चार वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभानी साथे बीजी उपरनी नरक पृथिवीओनो योग कर्यो, तेम शर्कराप्रभानी साथे उपरनी नरक पृथिवीओनो संयोग करवो. यावत् २० अथवा चार शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ए प्रमाणे [वालुकाप्रभा वगेरे ] एक एक पृथिवीनी साथे योग करवो. यावत् अथवा चार तमामां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमा होय. १*अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने त्रण अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [ए प्रमाणे 'एक एक ने त्रण' विकल्पने आश्रयी पांच भांगा थया.] १ अथवा एक विक्सयोगी २१०विकल्पो दोनि । २ संचारि- छ। ३ उच्चारिय- छ। चालुकाप्रमाना उपरनी पृथिवीओ साथे चार विकल्प थाय, तेने उपर कहेला चार विकल्प साथे गुणतां सोल विकल्प थाय. पंकप्रभाना धूमप्रभादि पृथिवीनी साये त्रण विकल्प थाय, तेने पूर्वना चार विकल्पे गुणतां बार विकल्प थाय. धूमप्रभानी साथे तमःप्रभादिनो योग करता बे विकल्प थाय, तेने पूर्वना चार विकल्पे गुणतां आठ विकल्प थाय. तमःप्रभा साथे तमतमानो योग करता पूर्वना चार विकल्पना चार विकल्पो थाय. एरीते २४, २०, १६, १२, ८ अने ४-ए बधा मळीने द्विकसंयोगी ८४ विकल्पो थाय छे. १५. पांच नैरयिकना त्रिकसंयोगी छ विकल्प थाय छे, जेमके-१-१-३, १-२-२,२-१-२,१-३-१,२-२-१,३-१-१. हवे सात नरकना त्रिकसंयोगी पांत्रीश भंगो थाय छे, ते प्रत्येकनी साथे पूर्वोक्त छ विकल्पने जोडता पांच नारकोने भाश्रयी त्रिकसंयोगी वसो ने दश भांगा थाय छे. रमप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा. रसप्रभा, बालकाप्रमा, तमःतमम्प्रभा. पंकप्रभा. पंकप्रभा, घूमप्रभा. धूमप्रभा. तमःप्रभा. तमःप्रभा. तमातम प्रमा. तमःतमःभा. धूमप्रभा, तमःप्रभा. बालकाप्रभा, पंकप्रभा. तमःतमःप्रमा. धूमप्रभा. तम प्रभा, तमःप्रभा. आ पंदर भांगाओने पूर्वोक्त छ विकल्पो साथे जोडता रत्नप्रभाना संयोगवाळा ने विकल्पो थाय छे. १ शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा. ६ शर्कराप्रभा, पंकप्रभा, तमःप्रभा. धूमप्रभा. तमःतमःप्रभा. तमःप्रभा. धूमप्रभा, तमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. पंकप्रभा, धूमप्रभा. तमःप्रभा, तमःतमःप्रभा. आ दश भांगाओनी साथे पूर्वोक्त छ विकल्पोनो योग करवाथी शर्कराप्रभाना संयोगवाळा साठ विकल्पो थाय छे.. १ घालुकाप्रभा, पंकप्रभा, ' धूमप्रभा. ४ बालुकाप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा. तमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. तमातमःप्रभा. तमःप्रभा, 'मा छ भांगाओनी साथे पूर्वोक छ विकल्पोनो योग करता वालुकाप्रभाना संयोगवाळा छत्रीश विकल्पो थाय छे. १ पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा. - ३ पंकप्रभा, तमाप्रभा, तमातमःप्रभा. तमातमःप्रभा. मात्रण भांगाओनी सांथे पूर्वोक्त छ विकल्पोनो संयोग करतां पंकप्रभाना संयोगवाळा अढार विकल्पो थाय छे. १धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमःतमःप्रभा. आ छल्ला भांगानी साथे पूर्वोक्त छ विकल्पोनो योग करतां धूमप्रभाना संयोगवाळा छ विकल्पो थाय छे. ९०,६०,३६, १८, भने ६-एषधा मळीने पांच नरयिकोने आश्रयी त्रिकसंयोगी बसो दस विकल्पो थाय छे. १९ भ.सू. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३२० अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा। अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए तिनि सकरप्पभाए एगे वालुयप्पाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिनि सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहेसत्तमाए । अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा तिनि रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालयप्पभाए तिन्नि पंकप्पभाए होजा । एवं एएणं कमेणं जहा चउण्डं तियासंजोगो भणितो तहा पंचण्ह वि तियासंजोगो भाणियधो; नवरं तत्थ एगो संचारिजइ, इह दोनि, सेसं तं चेव, जाव अवा तिन्नि धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा, पवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहेसत्तमाए । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए दो धूमप्पभाए होजा; रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां अने बे अधःसप्तम नरकमां होय. [ 'एक बे बे' ना विकल्पने आश्रयी ए पांच भंग थया.] १ अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावद् ५ अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने बे अधःसप्तम नरकमां होय. [ 'बे एक बे' विकल्पने आश्रयी ए पांच भंग थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामां त्रण शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामां त्रण शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. [ 'एक त्रण एक' ने आश्रयी पांच भंग थया.] १ अथवा बे रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ५ बे रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. [ 'बे बे एक'ने आश्रयी पांच भंग थया.] १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ५ अथवा त्रण रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां अने एक अधःसप्तममा होय. [ए 'त्रण एक एक'नी अपेक्षाए पांच भंग थया.] (३०).१ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने त्रण पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम चार नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम पांच नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो. परन्तु त्यां एकनो संचार कराय छे, अहीं बेनो संचार करवो. बाकी सर्व पूर्वोक्त जाणवू; यावत् अथवा त्रण धूमप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. (२१०). १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामां अने बे पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने वे अधःसप्तम पृथिवीमा होय. [ए चार विकल्प थया.] १ अथवा एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां बे वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ४ एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां वे वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. [४ भंग.] १ अथवा एक रत्नप्रभामा बे शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने एक अधःसप्तम नरकपृथिवीमां होय. [४ भंग.] १ अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक वालुकाप्रभामा अने एक पंकप्रभामा होय. ए प्रमाणे यावत् ४ अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा एक चतुःसंयोगी १४० विकल्पो. * चतुःसंयोगी विकल्पोनी रीति आ प्रमाणे छे-पांच नरयिकोना चतुःसंयोग '१-१-१-२' '१-१-२-१' १-२-१-१३-१-१-१ए चार प्रकारे थाय छे. तेने सात नरकना चतुःसंयोगी पांत्रीश भंगोनी साथे जोडता १४० विकल्पो थाय छे. ते आ प्रमाणे१ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा. ११ रत्नप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा. धूमप्रभा. तमःप्रभा. तमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. धूमप्रभा, तमःप्रभा. धूमप्रभा. तमःतमःप्रभा. तमःप्रभा. १६ तमःप्रभा, तमःतमःप्रभा. पकप्रभा धूमप्रभा, तमःप्रभा. धूमप्रभा, तमःप्रभा. तमःतमःप्रभा. " तमःतमःप्रभा. तमःप्रभा, तमःप्रभा, तमःतमःप्रभा. धूमप्रभा, आ वीश भंगोनी साये पूर्वोक्त चार विकल्पोनो संयोग करता रमप्रभाना संयोगवाळा एंशी विकल्पो थाय छे. पंकप्रभा, १५ , १८ १९ ॥ , Jain Education international Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९ उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४७ एवं जहा चपसंजोगो भणित्र तहा पंचन्द्र वि चकसंजोगो भाणियो, नवरं अम्महियं एगो संचारतो, एवं जाच या दो पंकप्पार पगे धूमप्यभार एगे तमाए एगे महेसत्तमार दोखा । (ए अहवा एगे रयणप्पभाएं एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा ११ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा २; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव पगे पंकप्यार पगे असत्समाए होजा ३ दवा एगे रयणप्यभार एगे सकरपभार एगे बालुयप्यभार एगे धूमप्यभाए एगे तमाए दोजा ४ अहवाएंगे रणयभार पगे सकरप्पभाए एगे वालुवप्यभार पणे धूमप्यभार पगे आहेसत्तमाप दोला ५ अहवा एगे रवणप्यभार एगे सकरण्पनाए एगे बालुवप्यनाए पगे तमाय एगे असत्तमार होखा ६ अहवा पगे रयप्यमाष पगे सकरप्पआए एगे पंकप्यनाए पगे धूमप्यभार एगे तमार होना ७५ अहवा एगे रयणप्पभाष पगे सकरप्यभार एगे पंकप्पभाष पगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ८; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए वालुकाप्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकपृथिवीमां होय. [४ भंग. ] १ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां अने बे धूमप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम चार नैरयिकोनो चतुःसंयोग कह्यो, तेम पांच नैरयिकोनो पण चतुःसंयोग कहेवो. परन्तु अहीं एकनो अधिक संचार (योग) करवो. ए प्रमाणे यावत् अथवा वे पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमामां अने एक अधः सप्तम नरकपृथिवीमां होय. अथवा १ एक भामां एक शर्वताप्रभामा एक बालुवामा एक पंवप्रभामां अने एक धूमप्रभामां होय. २ अथवा एक प्र भामा एक शर्कराप्रभामा एक बालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां अने एक तमः प्रभामां होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक पंकप्रभागां अने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमःप्रभामां होय. ५ अषया एक रनप्रभागां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. ६ अपना एक स्नाप्रभागां एक शर्कराप्रभामो एक बालुकाप्रभामां एक तमः प्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. ७ अथवा एक प्रभागां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभागां एक धूमप्रभागां अने एक तमः प्रभामां होय. ८ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभाम १ शर्करामा बाउकामा पंकप्रभा, ६ शर्कराप्रभा, २ ३ धूमप्रभा. तमःप्रभा. तमःतमः प्रभा तमःप्रभा. तमःतमः प्रभा. १० धूमप्रभा, " आ दस मंगोचाये पूर्वोक चार विकल्पोनो संयोग करवादी शर्कराप्रमाना संयोगाला चालकल्या. ३ वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, तमः प्रभा, १ वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. २ ४ धूमप्रभा, " " आ चार भंगोनी साथै पूर्वोक्त चार विकल्पोनो संयोग करवाथी वालुकाप्रभाना संयोगवाळा सोळ विकल्पो थाय छे. पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, तमः तमः प्रभा. आ एक भंग साथै पूर्वोक्त चार विकल्पोनो संयोग करवाथी पंकप्रभाना संयोगवाळा चार भांगा थाय छे. एटले ८०, ४०, १६ अने ४ ए बधा मळीने पांच नारकोना चतुःसंयोगी एकसो बालीश विकल्पो थाय छे. ४ ४ "" 33 २ १ 33 "9 22 33 " " " " "" "3 धूमप्रभा, 33 " 23 "" " "" पांच संयोगी विकल्पो दर्शावे छे-पांच नैरयिकोनो पांचसंयोगी १-१-१-१-१ ए प्रमाणे एंकज विकल्प थाय छे, तेथी ते द्वारा सात नरकपृथिवीना पांच संयोगी २१ विकल्पो थाय छे. ते आ प्रमाणे १ रनप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा. २ तमःप्रभा. तमतमा. ३ " पंकप्रभा, " धूमप्रभा, " तमः प्रभा, धूमप्रमा, तमः प्रभा. तमः तमःप्रभा. ९ " " " तमःप्रभा, " "" 33 पूर्वोक एक विकल्पना योगे शर्कराप्रभाना संयोगवाळा उपरना पांच विकल्प थाय छे. " 33 33 तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. " " . पूर्वोक एक विकल्पना योगे रत्नप्रभाना संयोगवाळा उपर कहेला पंदर विकल्पो थाय छे. १रामा बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, ४ शर्कराप्रभा, तमःप्रभा. तमः तमः प्रभा. " " ९ रनप्रभा, शर्कराप्रभा, पंप्रभा समप्रभा १० " ११ घूमप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, पंकप्रभा, १२ १३ १४ १५ 33 वालुकाप्रभा, तमः प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, "3 33 " " ... तमः प्रभा, "3 " " पंकप्रभा, " धूमप्रभा " " तमः तमःप्रभा. तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. धूमप्रभा " तमः प्रभा, 23 तमः तमः प्रभा. बालुकाप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, पंकप्रभा, " १ बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, तमः तमः प्रभा. प्रमाणे वालुकाप्रभाना संयोगताळो एक विकल्प थाय छे. १५, ५ अने १ - ए बधा मळीने पंचसंयोगी एकवीश विकल्पो थाय छे. १४०, अने २१ ए सर्व मळीने पांच नैरयिकना कुल चारसो ने बासठ विकल्पो थाय छे. " " तमः तमः प्रभा. "" तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. " " तमः तमः प्रभा. " ७, ८४, २१०, पंचसंयोगी २१ विकल्पो. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छनैरविको द्विकसंयोगी २०५ विकल्पो. १४८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंपदे शतक : ९ उदेशक ३२. होला ९ अहचा एगे रयणप्यभाएं एगे सकरण्पभाए एगे धूमप्यनाए एमे संमप्यभार एगे असत्तमाए होजा १० अहवा ए रयणप्पभाए एगे बालुयप्यभार एगे पंकप्यभार एगे धूमप्यनाए एगे समाए होजा ११ महवा एगे रयणप्पभाए एगे वायभाए पगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १२ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमप्यभार एगे अहेससमाए होला १३: महवा एगे रयणप्यभार पगे बालुयप्यभार एगे धूमप्यभार एगे समाए ए अससमाए होजा १४ अहवा एगे रयणप्यभार एगे पंकप्पभाए जाय एगे असत्तमाए होला १५ अहवा एगे सफरप्पमाएं एगे बालुवप्पभाए जाएगे समाए होला १६ अहचा एगे सफरप्यभाए जाब एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्यभार एगे बहेसतमाए होजा १७; अहवा एगे सकरप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १८१ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे चालुयन्यभाष एगे धूमप्यभार एगे तमार एगे असत्तमार होला १९ अहवा एगे सकरप्यार पगे पंकप्पाए जव एगे असत्तमाए होना २०१ अहवा पणे चालुयप्यमाष जाय एगे असत्तमाए होजा २१ । १६. [प्र०] छब्भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा - पुच्छा । [30] गंगेया ! रेंयणप्पभाए वा होजा, जाव अहेसत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए पंच सैक्करप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाप पंच वालुयप्पभाए होजा; जावं अहवा एक धूमप्रभामां अने एक अधः सप्तम नरकमां होय. ९ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक पंकप्रभामां एक एक तमः तमः प्रभामां होय. १० अपना एक रत्नप्रभामा एक शर्कराप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमः प्रभामां अने एक अधः सप्तम नरक होय. ११ अथवा एक रत्नप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक तमामां होय. १२ अपया एक रत्नप्रभामा एक बालुकाप्रभागां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां अने एक अधःतम नरकमां होय. १३ अथवा एक रत्नप्रभामा एक वालुकाप्रभागों एक पंकप्रभागां एक तमः प्रभागां अने एक अधः सप्तममां होय. १४ अथवा एक रप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमः प्रभामां अने एक अधःसप्तममां होय. १५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक पंकप्रभामां यावत् एक अधः सप्तममां होय. १६ अथवा एक शर्कराप्रभामा एक बालुकाप्रभामां यावत् एक तमामां होय. १७ अथवा एक शर्कराप्रभामां यावत् एक पंकप्रभागां एक धूमप्रभामां अने एक अधःसममा होय. १८ अथवा एक शर्वताप्रभामां यावद् एक पंकप्रभामां एक तमाम अने एक अघः सप्तममा होय. १९ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां एक धूम्डाभामां एक तमाम अने एक अधः सप्तममा होय. २० अथवा एक शर्कराप्रभामा एक पंकप्रभाम यावत् एक अधः सप्तमम होय. २१ अथवा एक वालुकाप्रभागां यावत् एक अथः सप्तम होय. १६. [अ०] हे भगवन् ! छ नैरयिको नैरमिकप्रवेशनकडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय ! इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गांगेय ! ओ १ रत्नप्रभामां पण होय, ७ यावत् अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. [ एक संयोगी सात विकल्प थया. ] १ * अथवा एक रत्नप्रभामो अने पांच शर्कराप्रभामां होय. २ अथवा एक स्वप्रमामां अने पांच वालुकाप्रभामो पण होय. यावत् ६ १ धूमाए ग । २ तमाए क । ३ धूमप्पभाए घ, तमाए क-ङ । ४ रतणप्प- क । ५ - प्पभाए वा हो- घ ङ । # १६. द्विकसंयोगी विकल्पोनी रीति आ प्रमाणे छे-छ नैरयिकोना द्विकसंयोगी पांच विकल्पो एं पांच विकल्पोने सात नरकना द्विकसंयोगी एकवीश भंगोनी साथै गुणता १०५ भंगो थाय छे. ते आ प्रमाणे रत्नप्रभा, रत्नप्रभा, १ २ ३ २ १ २ १ २ * शर्कराप्रभा. वालुकाप्रभा. पंकप्रभा. ५ ६ ए छ भंगोनी साथै पूर्वोक्त पांच विकल्पोने गुणवाथी रत्नप्रभाना संयोगवाळा त्रीश विकल्प थाय छे. धर्कप्रभा, शर्कराप्रभा, " ވ 33 वालुकाप्रभा. पंकप्रभा. धूमप्रभा. "" ए पांच भंगो साथै पूर्वो पांच निकल्पनेत वालुकाप्रभा, पंकप्रभा. धूमप्रभा. " ए चार भंगोनी साथै पूर्वोक्त पांच विकल्पोने गुणतां वालुकाप्रभाना संयोगवाळा वीश विकल्पो थाय छे. प्रभा 1 कमा धूमप्रभा. तमः प्रभा. एत्रण मंगोनी साथै पूर्वोक्त पांच विकल्पोनो गुणाकार करवाथी पंकप्रभाना संयोगवाळा पंदर विकल्प थाय छे. 1 २ धूमप्रभा, ง धूमप्रभा, तमः प्रभा. ए वे भंगोनी साथै पूर्वोक पांच विकल्पोने गुणतां धूमप्रभाना संयोगवाळा दस विकल्प थाय छे. " मानवाची विकल्प भाव है. ३ थाय छे-२-४, ३-३, ४२, १-५ अने ५-१. वालुकाप्रभा, धूमप्रभा. तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. तमःप्रभा. तमः तमः प्रभा. तमः प्रभा. तमःतमःप्रभा. तमः तमः प्रभा. तमः तमः प्रभा. तमः प्रभा, ए एक भांगा साथै पूर्वोक्त पांच विकल्पोने गुणतां तमः प्रभाना संयोगवाळा पांच विकल्प थाय छे. ए बधा ३०-२५-१५-१०-५ मळीने छ नेरविकोना द्विकसंयोगी एकसोने पांच विकल्पो थाय छे. तमः तमः प्रमा. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. एगे रयणप्पभाए पंच अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा दो रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होजा; जाव अहवा दो रयणप्पभाए सत्तमाए होजा । अहवा तिन्नि रयणप्पभाए तिनि सकरप्पभाए, एवं एएणं कमेणं जहा पचण्डं यासंजोगो तहा छह वि भाणियचो, नवरं एको अब्भहिओ संचारेयचो, जाव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए चत्तारि पंकप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्डं तियासंजोगो भणिओ तहा छण्ह वि भाणियचो, नवरं एको अहिओ उच्चारेयच्चो, सेसं तं चेव। चउकसंजोगो वि तहेव, पंचगसंजोगो वि तहेव, नवरं एको अभहिओ संचारेयचो, जाव पच्छिमो भंगो, अहवा दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए जाव एगे तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अथवा एक रत्नप्रभामां अने पांच अधःसप्तम पृथिवीमा होय. १ अथवा बे रत्नप्रभामां अने चार शर्कराप्रभामां होय. यावद् ६ अथवा वे रत्नप्रभामां अने चार अधःसप्तम पृथिवीमां होय. १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने त्रण शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रम वडे जेम पांच नैरयिकोनो द्विकसंयोग कह्यो तेम छ नैरयिकोनो पण कहेवो. परन्तु अहीं एक अधिक गणवो. यावत् १०५ अथवा पांच तमामां अने एक अधःसप्तम नरकमां होय. *१ एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार वालुकाप्रभामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार त्रिकसंयोगी विकल्पो. पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने चार अधःसप्तम पृथिवीमां होय. १ अथवा एक रत्नप्रभामां बे शर्कराप्रभामां अने त्रण वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम पांच नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम छ नैरयिकोनो पण त्रिकसंयोग कहेवो, परन्तु विशेष ए छे के तेमां एक नैरयिक अधिकं कहेवो, अने बाकी बधु पूर्ववत् जाणq. ते प्रमाणे छ नारकोनो चितुःसंयोग अने पंचसंयोग पण जाणवो. परन्तु तेमां एक नैरयिक अधिक गणवो. यावत् छेल्लो भंग- चतुसंयोग अने पंचसयोग. अथवा बे वालुकाप्रभामां एक पंकप्रभामां एक धूमप्रभामां एक तमःप्रभामां अने एक तमःतमःप्रभामां होय. .१ । अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावत् एक तमामा होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक धूमप्रभामा अने छसयोगी विकल्पो. एक अधःसप्तम नरकमां होय. ३ अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक पंकप्रभामां एक तमामां अने एक अधःसप्तममा होय. ४ अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक वालुकाप्रभामां एक धूमप्रभामां यावत् एक अधःसप्तम नरकमां होय. ५ अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामा १ सकराए ग। २ दुयसं-छ। ३ तियसं-ङ। ४ अब्भहिओ ङ। ५ पंचकसं-क। * १६. त्रिकसंयोगी विकल्पोनी रीति आ प्रमाणे छे-छ नैरयिकोना १-१-४, १-२-३, २-१-३, १-३-२, २-२-२, ३-१-२, १-४-१, २-३-१,३-२-१, अने ४-१-१ए प्रमाणे त्रिकसंयोगी दश विकल्पो थाय छे. हवे सात नरकपृथिवीना त्रिकसंयोगी ३५ विकल्पो थाय छे, ते पांच नैरयिकोना त्रिकसंयोगी विकल्प प्रसंगे (पृ. १४५) दर्शाव्या छे. तेनी साथे उपर कहेला दश विकल्पोने गुणतां ३५० भंगो थाय छे. . छ नैरयिकना चतुःसंयोगी दश विकल्पो थाय छे, ते आ प्रमाणे-१-१-१-३, १-१-२-२,१-२-१-२,२-१-१-२,१-१-३-१,१-२-२-1, २-१-२-१, १-३-१-१,२-२-१-१,३-१-१-१. हवे रत्नप्रभादि सात नरकना चतुःसंयोगी पांत्रीश विकल्पो थाय छे, ते पांच नैरयिकना चतुःसंयोगी भांगाओना कथन प्रसंगे (पृ. १४६.) दर्शावेला छे, तेनी साथे उपर कहेला दश विकल्पोने गुणतां छ नैरयिकना चतुःसंयोगी ३५० भांगाओ थाय छे. छ नैरयिकना पंचसंयोगी पांच विकल्पो थाय छे-१-१-१-१-२, १-१-१-२-१, १-१-२-१-१, १-२-१-१-१,२-१-१-१-१. हवे जे सात नरकपृथिवीना पंचसंयोगी एकवीश विकल्पो थाय छे. ते. (पृ. १४७) दर्शावेला छे. तेने उपर कहेला पांच विकल्पो साथे गुणतां छ नैरयिकोना सात नरकपृथिवीने आश्रयी पांचसंयोगी १०५ विकल्पो थाय छे. १ रमप्रभा, शर्करा०, वालुकाप्रमा, पंकप्रभा, धूम०, तमःप्रभा. | ५ रखप्रभा, शर्कराप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमःतमःप्रभा. २ , , , , तमःतमःप्रभा. ६ , वालुकाप्रभा, " " " " ३ , , , , तमःप्रभा, , शर्कराप्रभा, " " " " " ४ , " , धूमप्रभा, , , ए प्रमाणे छ नैरयिकोनो छसंयोगी एकज विकल्प थाय छे. ते द्वारा सात नरक पृथिवीना छ संयोगी सात विकल्प थाय छे. ए प्रमाणे छ नैरयिकोना एक संयोगी , द्विकसंयोगी १०५, त्रिकसंयोगी ३५०, चतुःसयोगी ३५०, पंचसंयोग १०५, अने छ संयोगी ७ सर्व मळी ९२४ विकल्पो थाय छे. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात नैरयिको. द्विक्संयोगी विकल्पो. योग योग, पंचसंयोग नेछ संयोग. सप्त संयोगी विकल्पो. माठ नैरयिको. द्विकसंयोगी विकल्पो. १५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंपदे शतक ९. - उदेशक ३२. पंकप्पभाए जाव एगे असत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे सरप्यभार एगे बालुयप्यभार, जाच एगे अहेसतमाए होला । १७. [प्र०] सत्त भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणपणं पविसमाणा० पुच्छा । [ उ०] गंगेया ! रेयणप्पभाए वा होजा, जाव' असत्समाए या दोजा । अदवा एगे रयणप्यभाए छ सकरप्पभाए होजा एवं एरणं कमेणं जहा उन्हं दुयासंजोगो तदा सत्तण्ह वि भाणियष्वं, नवरं एगो अब्भहिओ संचारिजइ, सेसं तं चेव । तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो उन्हं जहा तहा सत्तण्ड वि भाणियां, नवरं एकेको अम्भदिओ संचारेयो, जाव छेकगसंजोगो अहवा दो सकरप्पभाष वालुयप्पभाए जाएगे असत्तमाए होजा अहवा एगे रयणप्यभार एगे सकरण्पभाए जाव एगे असत्तमार होजा । L १८. [प्र०] अट्ठ भंते ! रतिया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा । [ उ०] गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव असत्तमा वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए सत्त सक्करप्पभाए होजा । एवं दुयासंजोगो, जाव छेकसंजोगो य जहा सत्तण्हं भणितो तहा अट्टह वि भाणियवो, नवरं एक्केको अब्भहिओ संचारेयो, सेसं तं चेव, जाव छँक्कसंजोगस्स | अहवा एक पंकप्रभामां यावत् एक अथ सप्तम नरकमां होय. ६ अथवा एक प्रभामा एक बालुकाप्रभाम यावत् एक अधः सक्षम नरकमां होय. ७ अथवा एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां यावत् एक अधः सप्तम नरकमां होय. १७. [प्र०] हे भगवन् ! सात नैरयिको नैरयिकप्रवेशन कवडे प्रवेश करता [ शुं रत्नप्रभामां होय ? ] इत्यादि संबन्धे प्रश्न. [30] हे गांगेय ! [ ते साते नैरयिको ] रत्नप्रभामां पण होय अने यावद् अधः सप्तम नरकपृथिवीमां पण होय. [ एक संयोगी सात विकल्प थया. ] अथवा एक रत्नप्रभामां अने छ शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम छ नैरयिकोनो द्विकसंयोग कह्यो तेम सात नैरयिकोनो पण जाणवो. पण विशेष ए छे के एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. जेम छ नैरथिकोनो 'त्रिकसंयोग, चतुःसंयोग, श्यंचसंयोग अने पिट्संयोग को तेम सात नैरपिकोनो पण जाणवो; परन्तु विशेष एछे के एक एक नैरथिकनो अधिक संचार करवो, यावत् षट्कसंयोग - ' अथवा बे शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभामां यावत् एक अधः सप्तम नरकमां होय' त्यांसुधी जाणवुं [ सप्तसंयोगी एक विकल्प - ] अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावत् एक अधः सप्तम नरकमां होय. १८. [प्र० ] हे भगवन् ! आठ नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय ? - इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गांगेय ! १ रत्नप्रभामां पण होय; यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. अथवा १ एक रप्रभामा अने सात शर्कराप्रभाम होय.' ए प्रमाणे जेम सात नैरविकोनो "द्विक्संयोग, 11त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग, १ रतण-क। २ चउक्कासं क। ३ पंचासं-क । ४ छक्कासं क। ५ छककर्स क ६ छक्कासं क ● छक्षकसं क * १७. सात नैरयिकना द्विक्संयोगी छ विकल्प थाय छे, जेम के, १६, २-५, ३-४, ४-३, ५-२, ६-१. ते छ विकल्पवडे पूर्व कहेला सात नरकना द्विकसंयोगी एकवीश भांगाने गुणतां सात नैरयिकना द्विकसंयोगी १२६ भांगा थाय छे. + सात नैरयिकोना त्रिकसंयोगी पंदर विकल्पो थाय छे - १-१-५, १-२-४, २-१-४, १-३-३, २-२-३, ३-१-३, १-४-२, २-३-२, ३–२–२, ४–१–२, १–५–१, २-४-१, ३-३-१, ४-२ -१, ५-१-१. हवे सात नरक पृथिवीना त्रिकसंयोगी ३५ विकल्पो पूर्वे ( पृ० १४१. ) जणाव्या छे, तेनी साथे उपर कहेला पंदर विकल्पोने गुणतां ५२५ भंगो थाय छे. सात गैरवियोगायोगी १-१-१-४ इत्यादि नीच मिकाबाद के लेने पूर्व जगाला (१० १४२) सात परक पृथिवीन चतुः संयोगी पांत्रीश भांगा साथै गुणतां ७०० विकल्पो थाय छे. $ सात नैरयिकोना पंचसंयोगी १-१-१-१-३ इत्यादि पंदर विकल्पो थाय छे, तेने सात नरकना पूर्वे जणावेला ( पृ० १४७.) पंचसंयोगी एकवीश विकल्पोनी साथै गुणतां ३१५ विकल्पो थाय छे. || सात नैरयिकोना षट्संयोगी १-१-१-१-१-२ इत्यादि छ विकल्प थाय छे. तेने पूर्वे कहेला ( पृ० १४९.) सात नरकपृथिवीना छसंयोगी सात विकल्पोनी साधे गुणतां ४२ विकल्पो थाय छे. सातसंयोगी एक विकल्पने सात नरकपृथिवी साधे गुणतां सात विकल्प थाय छे. ७-१२६-५२५-७००-३१९-४२-१ सर्व मळीने सात नैरयिकोना १७१६ विकल्पो थाय छे. १८. § ए प्रमाणे आठ नैरयिकोना एक संयोगी सात विकल्पो थया. औ आठ नैरयिकोना १-७ इत्यादि द्विकसंयोगी सात विकल्प थाय छे, तेने पूर्वे कला (पृ. १३९. सू. १२) सात नरकना द्विकसंयोगी एकवीश भंगो साधे गुणतां १४७ भांगा थाय छे. ft आठ नैरयिकोना १-१-६ इत्यादि त्रिकसंयोगी एकवीश विकल्पो थाय छे. तेने पूर्व जणावेला ( पृ० १४१ ) सात नरकना त्रिकसंयोगी पांत्रीश भंगो साथै गुणता ७३५ विकल्पो थाय छे. योगी ३५ विकल्प बाम छेतेने पूर्वे हे (१० १४२.) सात नरकमा चतुःसंयोगी ३५ भांगावी नैरवको ११-१५ इलादि साथै गुणतां १२२५ विकल्पो थाय छे. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९. - उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५१ सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे तमाए दो असत्तमा होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए जाव दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा । एवं संचारेयवं, जाव अहवा दो रयणप्पभापः एगे सक्करप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा । १९. [प्र०] नव भंते! नेरतिया नेरइयपवेसणपणं पविसमाणा किं० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा; जाव आहेससमा वा होना अहवा एगे रयणप्पभाए अटु सकरण्यभार होला । एवं दुयासंजोगो, जाव सतगसंजोगो व जहा अहं भणियं सहा नवणं पि भाणियां नवरं एफेको अम्भदिओ संचारेयशो, सेसं तं चैव पच्छिमो आलावगोचातिनि रयणप्यभार एगे सारण्यभार पगे वालुवप्यनाए जाब ए असत्तमाए होजा । । २० [अ०] इस भंते ! नेरइया नेरइयपयेसणपणं पविसमाणा० पुच्छा। [४०] गंगेया ! रयणप्पभाए था होला; जाव असत्तमाए वा होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए नव सकरप्पभाए होज्जा । एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा * पंचसंयोग अने पिट्संयोग कह्यो रोम आठ नैरविकोनो पण कहेवो. परन्तु विशेष ए के एक एक नैरपिकनो अधिक संचार करवो बाकी बर्ष छसंयोग सुधी पूर्व प्रमाणे जाण. [ छेडो विकल्प ] अथवा प्रण शर्कराप्रभागां एक यालुकाप्रभामां यावत् एक अधः सप्तम नरकमां होय. १ †अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् एक तमामां अने बे अधः सप्तम पृथिवीमां होय. २ अथवा एक रत्नप्रभामां यावत् बे तमामां सप्तसंयोगी विकल्पअने एक अधःसप्तम पृथिवीमां होय. ए प्रमाणे सर्वत्र संचार करवो. यावत् ७ अथवा बे रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावद् एकं ..अधः सप्तम पृथिवीमां होय. [ ए प्रमाणे ७, १४७, ७३५, १२२५, ७३५, १४७ अने ७. ए बधा मळीने आठ जीवने आश्रयी ३००३ विकल्पो थाय छे.] १९. [प्र० ] हे भगवन् ! नव नैरविको नैरविकावेशनकडे प्रवेश करता शुं रत्नप्रभामां होय इत्यादि प्रश्न. [उ० ] हे गांगेय ! ते नव नैरयिको १ रत्नप्रभामां होय, अने ए प्रमाणे यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय.$ *** अथवा एक रत्नप्रभामा अने आठ शर्कराप्रभामां पण होय' इत्यादि आठ नैरविकोनो जैम द्विक्संयोग [[त्रिकसंयोग, चतुष्क संयोग, पंचकसंयोग, संयोग, ] यावत् 88सप्तकसंयोग. को तेम नव नैरयिकोनो पण कहेयो. परन्तु विशेष ए छे के एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं तेनो छेल्लो भांगो - अथवा त्रण रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां एक वालुकाप्रभाम यावत् एक अथः सप्तम नरकमां होय. २०. [प्र०] हे भगवन् ! दश नैरयिको नैरयिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता शुं १ रत्नप्रभामां होय के यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां होय ! [उ०] हे गांगेय ! ते दश नैरयिको १ रत्नप्रभामां पण होय, अने ए प्रमाणे यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय.$$ १८. आठ नैरथिकोना १-१-१-१-५ इत्यादि पंचसंयोगी ३५ विकल्पो थाय छे, तेने सात नरकना पंचसंयोगी २१ भांगानी साथै गुणतां ७३५ विकल्पो थाय. † आठ संख्यानां छसंयोगी १-१-१-१-१-३ इत्यादि २१ विकल्पो थाय छे, तेने पूर्वे कला ( पृ. १४९.) सात नरकना छसंयोगी सात भांगा साथै गुणतां १४७ विकरूपो थाय. † आठ संख्याना सात संयोगी सात विकल्प थाय छे, तेने सात नरकना सात संयोगी एक विकल्पनी साथै गुणतां सात भंग थाय. एप्रमाणे ७-१४७ -७३५–१२२५-७३५-१४७-७ सर्व मळीने आठ नैरयिकोना सात नरकने आश्रयी ३००३ भांगा थाय छे. १९. $ नव नैरयिकोना आश्रयी एक संयोगी सात विकल्पो थया. | नव संख्याना द्विकसंयोगी आठ विकल्पो थाय, तेने सात नरकना द्विकसंयोगी एकवीश विकल्पनी साधे गुणतां १६८ भांगा थाय छे. ९ नव संख्याना १-१-७ इत्यादि त्रिकयोगी २८ विकल्पो थाय, तेने सात नरकना त्रिकसंयोगी पांत्रीश विकल्पनी साथे गुणतां ९८० भांगा थाय छे. ** 'नव संख्याना चतुष्कयोगी १-१-१-६ इत्यादि ५६ विकल्प थाय, तेने सात नरकना चतुःसंयोगी ३५ विकल्प साथै गुणता १९६० भांगा थाय छे. +f नव संख्याना १-१-१-१-५ इत्यादि पंचयोगी ७० विकल्पो थाय, तेने सात नरकना पंचसंयोगी एकवीश भांगा साथे गुणतां १४७० धाम # नव संख्याना षट्योगी १-१-१-१-१-४ इत्यादि ५६ विकल्पो थाय, तेने सात नरकना छसंयोगी सात विकल्पनी साथे गुणत ३९२ भांगा थाय छे. $$ नव संख्याना सप्तयोगी १-१-१-१-१-१-३ इत्यादि २८ विकल्पो थाय, तेने सात नरकना सप्तसंयोगी एक विकल्पनी साथे गुणत २८ भांगा थाय छे. ए प्रमाणे ७ १६८- ९८०-१९६० - १४००-३९२-२८ मळीने पांच हजारने पांच विकल्पो थाय छे. $$ २०. दश नारकना एक योगी सात विकल्प थाय. विकल्पो. नव नैरविको. द्विकसंयोगी विकल्पो. दश नैरयिको. / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विक्संयोगादि विकल्पो. संख्याको द्विकसंयोगी विकल्पो. १५२ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ९३२. । नयण्डं नवरं एकेको अम्मदियो संचारेयो, सेसं तं चेय अपच्छिम आठावगो-अहवा चत्तारि रवणप्पभाष पगे सकरण्पभाष जाव एगे असत्तमाए होज़ा । - २१. [प्र०] संखेजा भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा । [ उ०] गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा; जाव असत्तमाए वा होजा । अहवा एंगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेजा असत्तमाए होला । अहचा दो रचणप्पभाष संखेजा सरप्यभार होजा एवं जाय भवा दो रयणप्यभार संवेजा आहेसत्तमाए होजा । अहवा तिन्नि रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए होजा । एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयवो, जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होजा । एवं जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा संखेजा 1 अथवा एक रत्नप्रभामा अने नय शर्कराप्रभामां होय इत्यादि द्विकसंयोग [तथा त्रिसंयोग, चतुष्पासंयोग, श्यंचकसंयोग, पसं योग] यावत् सप्तकसंयोग म मच नारकनो को तेम दस नैरपिफनो पण जाणवो. परन्तु विशेष एछे के एक एक नैरधिकनो अधिक संचार करवो. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं तेनो छेल्लो भंग- अथवा चार रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां यावत् एक अधः सप्तमनरकमां होय. २१. [प्र०] हे भगवन् संख्याता नैरविको नैरधिकप्रवेशनकवडे प्रवेश करता झुं रत्नप्रभामां दोष इत्यादि प्रश्न. [30] हे गांगेय 1 **संख्याता नैरविको १ रत्नप्रभामां पण होय अने यावद् ७ अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. [ एक संयोगी सात विकल्प थया. ] १ अथवा एक रत्नप्रभामां होय अने संख्याता शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ एक रत्नप्रभामां होय अने संख्याता अधःसप्तम पृथिवीमां पण होय. [छ विकल्प थया. ] १ अथवा ये स्वप्रभागां अने संख्याता शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् ६ वे रत्नप्रभामां अने संख्याता अधः सप्तम पृथिवीमां पण होय. [छ विकल्प थया. ] १ अथवा त्रण रत्नप्रभामां अने संख्याता शर्कराप्रभागां होय. ए दश संख्याना १–९ इत्यादि द्विकयोगी नव विकल्पो थाय, तेने सात नरकना द्विकसंयोगी एकवीश भांगा साथे गुणतां १८९ विकल्पो थाय छे. + दश संख्याना १-१-८ इत्यादि त्रिकयोगी ३६ विकल्पो थाय छे. तेनी साथे सात नरकना त्रिकसंयोगी पांत्रीश विकल्पोने गुणतां १२६० भांगा थाय छे. + दश संख्याना चतुष्कयोगी १-१-१-७ इत्यादि ८४ विकल्पो थाय, तेनी साथे सात नरकना ३५ भांगाने गुणतां २९४० भांगा थाय छे. १-१-१-१-६ इत्यादि १२६ विकल्पो थाय, तेने सात नरकना पंचसंयोगी एकवीश भांगानी साथे गुणतां २६४६ $ दशसंख्याना पंचयोगी भांगा थाय छे. ॥ दशसंख्याना षट्कयोगी १-१-१-१-१-५ इत्यादि १२६ विकल्पो थाय छे, तेनी साथे सात नरकना छसंयोगी सात विकल्पोनी साथै गुणत ८८२ भांगा थाय छे. ९ दश संख्याना सप्तयोगी १-१-१-१-१-१-४ इत्यादि ८४ विकल्पो थाय. अने सात नरकनो सप्तसंयोगी एकज भांगो थाय छे, माटे एकनी साथे गुणतां पण ८४ मांगा थाय छे. ए प्रमाणे ७-१८९-१२६०-२९४०-२६४६-८८२-८४ सर्व मळीने दश नैरयिकना ८००८ बिकल्पो थाय छे. २१. ** अहं अग्यारथी मांडीने शीर्षप्रहेलिका सुधीनी संख्याने संख्याता जाणवा. तेमां एकयोगी सात ज विकल्प थाय छे. द्विक्संयोगमां संख्यातानां वे विभाग करतां एक अने संख्याता, बे अने संख्याता, यावत् दश अने संख्याता - ए रीते दश विकल्प, तथा 'संख्याता' अने संख्याता मळीने अगीयार विकल्पो या उपरी भादि पृथिवी साथै एकभी आरंभी सुधीना अगीवार पदनो संचार करवायी बने नीचेनी रामादिसाधे केवळ संख्यात पदनो संचार करवायी वा एथी विपरीत उपरनी पृथिवी साये 'संख्यात' पदन भने नीचेनी पृथिवी साधे एकादि पदनो संचार करी मांना भाव से विवक्षित नवी अर्थाद-एक नेता शर्कराप्रभामा एक रनप्रभामां ने संख्याता लुभायां याद करवा, पण संख्याता रत्नप्रभामां अने एक शर्कराप्रभामां, संख्याता रत्नप्रभामां अने एक वालुकाप्रभामां होय इत्यादि विकल्पो न करवा, केमके पूर्वना सूत्रोमां आज क्रम विवक्षित छे. आगळना सूत्रोमां दश वगेरे राशिओना बे भाग करी एकादि लघु संख्याओने पूर्वे मूकी छे, अने नवादि मोटी संख्याओने पछी मूकी छे, अर्थात् 'एक रत्नप्रभामा अने नव शर्कराप्रभामां' - ए प्रमाणे कर्तुं छे. पण 'नव रत्नप्रभामां भने एक शर्करा प्रभामां' एवा कोई विकल्पो जणान्या नयी. ए प्रमाणे आपण उपरनी नरकादिनी साये एकादिवानी, अने नीचेनी तरकथायेशिनो संचार को पानी भरक साथेनी संख्यातराशिमांथी एकादि संख्याने ओछी करवामां आवे तोपण संख्यात राशिनुं संख्यातपणं कायम रहे छे. तेमां रत्नप्रभानी साधे एकथी आरंभी संख्यात सुधीना अगीयार पदोनो अने बाकीनी पृथिवीओ साथे अनुक्रमे 'संख्यात' पदनो संचार करतां छासठ भांगा थाय छे संख्याता. एक. १ रन० २ ३ तमतमा० आ प्रमाणे बे अने संख्याता - इत्यादि दश विकल्पना बीजा साठ भांगा मळीने रत्नप्रभाना संयोगवाळा ६६ भांगा जाणया मरसियेोग करतां पांच विकल्प धाय, रोने पूर्वीच अगीदार विकल्प साधे गुण वालुकाप्रभाना चुम्माळीस, पंकप्रभाना तेत्रीश, धूमप्रभाना बावीश अने तमः प्रभाना भगीयार विकल्पो थाय छे. बघा मळीने द्विकसंयोगी बसोने एकत्रीस विकल्प थाय छे. शर्कराप्रभानो बाकीनी प्रभाग ५५ मासे प्रकारे संख्याता. शर्करा " वालुका ० पंक ० एक. ४ रन० ५ ६ धूम० तमा० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. उद्देशक ३२. भगवस्तुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५३ रयणप्पभाष संखेजा सक्करप्पभाए होजा, जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखेज्जा असत्तमाए होजा । अहवा एगे सफरप्यभार संखेजा वालुपण्यमाए होला, एवं जहा रेयणप्पभा उचरिमपुंडचीदि समं चारिया एवं सकरण्यमा वि उपरिमपुडवीि समं चारेयथा, एवं एक्केका पुढवी उवरिमपुंढवीहिं समं चारेयथा; जाव अहवा संखेज्जा तमाए संखेज्जा आहेसत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेज्जा पंकप्पाए होजा जाव अहवा एगे रयणप्पभाष एगे सफरण्यभाष संखेजा असत्तमाए होजा । अहचा एमे रवणप्पमा दो सपना संज्ञा वालुपण्यभार होजा; जाच बहवा एगे रवणप्पभाए दो सकरप्पनाए संसेखा अदेखतमाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयचो; अहवा एगे रयणप्पभाए संखेङ्जा सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा; जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए संखेजा प्रमाणे ए क्रम एक एक नैरयिकनो अधिक संचार करवो. यावत् १ अथवा दस रत्नप्रभामां अने संख्याता शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावद् ६ अथवा दस रनप्रभामां अने संख्याता अधः सक्षम पृथिवीगां होय. १ अथवा संख्याता रक्तप्रभामो अने संख्याता शर्कराप्रभाम ए प्रमाणे ६ अथवा संख्याता रत्नप्रभामां अने संख्याता अधः सप्तम पृथिवीमां होय. १ अथवा एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकामां होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा पृथिवीनो बीजी पृथिवी साथे योग कर्यो तेम शर्कराप्रभा पृथिवीनो पण उपरनी बधी पृथिवीओ साथे योग करवो. ए प्रकारे एक एक पृथिवीनो उपरनी पृथिवीओ साथे योग करवो. यावद् अथवा संख्याता तमः प्रभा संख्याता अथः सप्तम नरकम पण होय. [ए प्रमाणे द्विकसंयोगी विकल्पो थया. ] १ * अथवा एक र प्रभागां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता बालुकाप्रभागां होय. २ अथवा एक रसप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता पंकप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावत् अथवा एक रत्नप्रभामां एक शर्कराप्रभामां अने संख्याता अधः सप्तम पृथिवीमां होय. अथवा एक १- प्पभाए उ- ग-ध । २- पुढवीएहिं ग घ । ३ पुढवी एहिं ग घ । त्रिकसंयोगमां 'रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभा' - ए प्रथम त्रिकयोग छे. अने तेमां 'एक, एक अने संख्याता' ए प्रथम विकल्प छे. तेमां प्रथम पृथिवीमां एक जीव अने श्रीजी पृथिवीमां] संरूपता पीने अने मीमी पृथिवीम अनुकमे संख्याना विन्यासयां मेथी मांधने दस मुभीनी संख्यानो तथा संख्यातपदनो योग करवाथी पूर्वना विकल्पनी साथे मळीने अगीयार विकल्पो थाय छे. त्यार बाद बीजी अने नीजी पृथिवीमां 'संख्यात' पंद अने प्रथम पृथिवीमां बेधी मांडीने संख्यातपद सुधी संचार करतां दश विकल्प थाय छे. सर्व मळीने एकवीश विकल्पो थाय छे; ते आ प्रमाणेशर्करामा रत्नप्रभा. शर्करा प्रभा. रत्नप्रभा. १ संख्याता १ १ १. २. ३. ४. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. ६ १७. ७ १८. ८ १९. ९ २०. १० २१. संख्याता. " 23 ते एकवीस विकल्पोनी साथे सात नरकपृथिवीना त्रिकसंयोगी पांत्रीश पदोनो गुणाकार करवाथी त्रिकसंयोगी सातसो ने पांत्रीश विकल्पो थाय छे. शादिनी चार नरकगृथिवीवडे प्रथम चतुष्टयोग पावले. ते पृथिवी 'एक एक अने योधीप्रमाणे प्रथम विकल्प थाय छे. त्यार बाद पूर्वोक्त क्रमथी त्रीजी पृथिवीमां बेथी मांडीने संख्यातपदनो संचार करतां बीजा दश विकल्पो थाय छे. एम बीजी तथा प्रथम पृथिवीमां पण बेधी मांडीने संख्यातपदनो संचार करतां वीश विकल्पो थाय, अने बधा मळीने एकत्रीश विकल्प थाय. ते एकत्रीश विकल्पोनी साधे साठ नरकना चतुष्कयोनी पांत्रीश पदोनो गुणाकार करतां चतुःसंयोगी एक हजार पंचाशी विकल्पो थाय छे. १ १ १ १ १ १ १ २ वालुका. संख्याता १० " " 33' ر " " "} १ २ ३ * "3 ور " 33 " " -22 बालुका. संख्याता. " " "3 " " در .33 आदिनी पांच पृविवाये प्रथम पंचसंयोग थाय छे अने तेमां आदिनी बार पृथिवीमां 'एक एक अने पांचमी पृथिवीमां संख्याता एवं प्रथम विकल्प थाय, त्यार बाद पूर्वोक्त क्रमथी चोथी नरकपृथिवीमां अनुक्रमे बेधी मांडीने संख्यात पद सुधी संचार करवो. ए रीते बाकीनी त्रीजी, बीजी अने प्रथम पृथिवीमां पण संचार करवो. एम बधा मळीने पंचकयोगी एकताळीश विकल्पो थाय छे. तेनी साथे सात नरकपृथिवीना पंचसंयोगी एकवीश पदोनो गुणाकार करवाथी आठसोने एकसठ विकल्पो थाय छे. " षकसंयोगमां पूर्वोक्त क्रमथी एकावन विकल्पो थाय छे, अने तेनी साथे सात नरकना षट्कयोगी सात पदोनो गुणाकार करवाथी त्रणसो ने सत्तावन विकल्पो थाय छे. योग तो पूर्वी भाभी एकस विधा के ए प्रमाणे संख्या नैरविधी २३१३५१०८५ ८६१ २५७ चा ६१-वधा मळीने ३३३७ विकल्पो थाय छे. २० भ० सू० त्रिकसयोगी विकल्पो : Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्यात नैरयिको. दिवसंयोगः दि विकल्पो. छत्कृष्ट प्रवेशनक द्विक्संयोग. वि १५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे शतक ९. - उद्देशक ३२. असत्तमाए होजा | अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा; जाव अहवा दो रयणप्पभाए 'संखेजा सक्करप्पभाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा । अहवा तिन्नि रयणप्पभाष संखेजा सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए दोखा एवं एएवं क्रमेणं एक्केको रवणप्पभाष संचारेयो जाय अया संखेखा रवणप्पभाए संखेखा सकरप्पनाए संबेजा बाययभार होता जाव अहवा संखेजा रचणप्यभार संसेजा करण्यभार संग्रेजा आहेससमाए होला । अहया एगे रयण भाष पगे ययप्यभार संखेजा पंकप्पभार होना; जाव अहवा पगे रयण्णप्पभार एगे बालुवप्यभार संसेजा असत्तमाए होजा | अहवा एगे रयणप्पभाए दो वालुयप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो, चंउक्कसंजोगो, - जाव सप्तगसंजोगो य जहा दसन्हं तहेव भाणियो । पच्छिमो आलावगो सैत्तसंजोगस्स - अहवा संखेज्जा रयणप्पभाष संज्ञा सकरण्यभार जाच संखेला अहेसत्तमाए होजा । २२. [प्र० ] असंखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव आहेसतमा वा होजा अहवा एगे रयणप्यभाव असंखेखा सकरप्पभाए होजा एवं दुयासंजोगो, जाव त्तगसंजोगो व जहा संखेजाणं भणिओ तहा असंखेजाण वि भाणियचो, नवरं 'असंखेजाओ' अम्महिओ भाणियधो, सेसं तं चेव, जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिम आगो अहचा असंखेजा रयणप्पभाए असंखेखा सकरप्पभाष जाय असंखेक्षा असतनाए होला । २३. [२०] कोसे भंते! नेरहुआ नेरययवेसणयनं० पुच्छा। [४०] गंगेया ! सधे चि ताव रयणप्पभाए होला, अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा; जाव अहवा रयणप्पभाए य आहेसत्तमाए य होज्जा; अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा एवं जाव अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए व असत्तमाप व होजा अहवा रवणप्यभार वालुवण्यभार पंकप्यभार व होजा जाव अहवा रवणप्यभावानुपरत्नप्रभागां वे शर्कराप्रभामो अने संख्याता बालुकाप्रभामां होय. अथवा एक रत्नप्रभामां वे शर्कराप्रभामा अने संख्याता अथः सप्तमपृथिवीमां होय. अथवा एक रत्नप्रभामां त्रण शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी एक एक नैरयिकनो संचार करवो. अथवा एक रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय, यावद् अथवा एक रत्नप्रभामां संख्याता वाल्लुकाप्रभामां अने संख्याता अधः सप्तमपृथिवीनां होय. अथवा मे रत्नप्रभागां संख्याता शर्कराप्रभागां अने संख्याता वालुकाप्रभागां होय. सायद् अथवा वे रत्नप्रभागां संख्याता शर्कराप्रमामां अने संख्याता अधः सप्तमपृथिवीमां होय. अथवा प्रण रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामा अने संख्याता वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी रत्नप्रभामां एक एकनो संचार करवो. यावत् अथवा संख्याता रत्नप्रभामां संख्याता शर्कराप्रभामां अने संख्याता वालुकाप्रभाम होय. याद् अथवा संख्याता रतंप्रभामो संख्याता शर्कराप्रभामा अने संख्याता अधः सप्तमपृथिवीमां होय. अथवा एक रक्तप्रभामां एक वालुकाप्रभामां अने संख्याता पंकप्रभामां होय. यावद् अथवा एक रक्तप्रनामां एक वालुकाप्रभामां अने संपाता अधः सप्तमपृथिवीमां होय. अथवा एक रक्तप्रभागां ये बालुकाप्रभागां अने संख्याता पंकप्रभागां होय. ए प्रमाणे ए क्रमश्री त्रिसंयोग, चतुष्कसंयोग, यावत् सप्तकसंयोग जेम दस नैरपिकोनो बह्यो तेम कहेो. तेनो छेलो आलापक- अश्या संख्याता रत्नप्रभामा संख्याता शर्कराप्रभामा अने यावत् संख्याता अघः सप्तमपृथिवीमां होय. २२. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्यात नैरयिको नैरयिकप्रयेशन कपडे प्रवेश करता शुं रहप्रभागां होय !-- इत्यादि प्रश्न. [30] हे गांगेय ! १ रत्नप्रभामां पण होय अने यावत् ७ अधः सप्तमपृथिवीमां पण होय. * १ अथवा एक रत्नप्रभामां अने असंख्याता शर्कराप्रभामां होय. ए प्रमाणे जेम संख्याता नैरयिकोनो द्विकसंयोग, यावत् सप्तकसंयोग कह्यो तेम असंख्यातानो पण कहेवो. पण विशेष ए के अहिं 'असंख्याता' पद कहेवुं. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवु, यावत् छेल्लो आलापक - अथवा असंख्याता रत्नप्रभामां असंख्याता शर्कराप्रभामां यावद् असंख्याता अधः सप्तमपृथिवीमां पण होय. २१. [प्र० ] है भगवन् ! नैरयिकप्रवेशन कपडे प्रवेश करता नैरयिको उत्कृष्टपदे शुं रत्नप्रभामां होय - इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गांगेय ! १ सर्व नैरयिको उत्कृष्टपदे रत्नप्रभामां होय. [ द्विकसंयोगी छ विकल्प - ] १ अथवा रत्नप्रभामां अने शर्कराप्रभामां होय. २ अथवा रत्नप्रभा अने वालुकाप्रभामां होय. ए प्रमाणे यावद् अथवा ६ रत्नप्रभा अने अधः सप्तमपृथिवीमां पण होय. [ त्रिकसंयोगी १५ विकल्प ] १ अथवा राप्रभा शर्कराप्रमा अने वालुकाप्रभाग होय. ए प्रमाणे यावद् ५ रत्नप्रभा शर्कराप्रभा अने अधः सप्तमपृथिवीमां होय. ६ अथवा रप्रभा वालुकाप्रभा अने पंकप्रभामां पण होय. याच्द् १० अथवा रनप्रभा वालुकाप्रभा अने अथः सप्तमपृथिवीमां होय. १ सकरप्पभाए ङ । २ चउक्कासं क । ३ सत्तासं क। ४ सत्तासं-क । * असंख्याता नैरयिकोने आश्रयी एकयोगादि विकल्पो आ प्रमाणे छे–७, २५२, ८०५, ११९०, ९४५, ३९२, ६७-बधा मळीने २६५८ विकल्पो थाय छे. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. भाए अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए धूमाए होजा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियचं जाव अहवा रयणप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होजा । अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए य होजा; जाव अह्वा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होजा; एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्डं चंउकगसंजोगो भणितो तहा भाणियवं, जाव अहवा रयणप्पभाए धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए य होजा । अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होजा १, अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य होजा २; अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए अहेसत्तमाए य होजा ३; अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए य होजा ४; एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्डं पंचगसंजोगो तहा भाणियचं; जाव अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होजा; अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए जाव धूमप्पभाए तमाए य होजा १; अहवा रयणप्पभाए जाव धूमप्पभाए अहेसत्तमाए य होजा २; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होजा ३; अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए य होजा ४, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होजा ५; अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए जाव अहेसत्तमाए होज्जा ६; अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य जाव अहेसत्तमाए य होजा ७। २४. [प्र०] एयस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयप्पवेसणगस्स सक्करप्पभापुढवि-जाव अहे सत्तमापुढविनेरइयप्पवेसणगस्स कयरे- कयरे जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गंगेया! सवत्थोवे अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए, तमापुढविनेरइयपवेसणए असंखेजगुणे; एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए असंखेजगुणे। २५. [प्र.] तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ. गंगेया! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियप्पवेसणए । ११ अथवा रत्नप्रभा पंकप्रभा अने धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभाने मुक्या शिवाय त्रण नैरयिकोनो त्रिकसंयोग कह्यो तेम अहीं कहे. यावद् १५ अथवा रत्नप्रभा, तमःप्रभा अने तमःतमःप्रभामां पण होय. [चतुःसंयोगी २० विकल्प-] १ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा अने पंकप्रभामां होय. २ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा संयोग. वालुकाप्रभा अने धूमप्रभामां होय. यावत् ४ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमां पण होय. ५ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा पंकप्रभा अने धूमप्रभामा होय. ए प्रमाणे रत्नप्रभाने मूक्या शिवाय जेम चार नैरयिकोनो चतुष्कसंयोग कह्यो छे तेम अहीं कहेवो. यावद् २० अथवा रत्नप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अने तमःतमःप्रभामां होय. [पंचसंयोगी १५ विकल्प-] १ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा पंकप्रभा अने धूमप्रभामां होय. २ अथवा रत्नप्रभा यावत् पंचसयोग. पंकप्रभा अने तम प्रभामां होय. ३ अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमा होय. ४ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा धूमप्रभा अने तमःप्रभामां होय. ए प्रमाणे रत्नप्रभाने छोड्या शिवाय जेम पांच नैरयिकोनो पंचसंयोग कह्यो तेम कहेवो. यावद् १५ अथवा रत्नप्रभा पंकप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमा होय. [षट्कसंयोगी छ विकल्प-] १ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा यावत् धूमप्रभा अने तमःप्रभामां होय. २ अथवा रत्नप्रभा यावद् षट्कसंयोगधूमप्रभा अने अधःसप्तमपृथिवीमा होय. ३ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा यावत् पंकप्रभा तमःप्रभा अने अधःसप्तम पृथिवीमा होय. ४ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अने तमःतमःप्रभामां होय. ५ अथवा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा पंकप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमां होय. ६ अथवा रत्नप्रभा वालुकाप्रभा यावद् अधःसप्तमपृथिवीमा होय. [ सप्तसंयोगी १ विकल्प-] अथवा रत्नप्रभा । शर्कराप्रभा, यावद् अधःसप्तमपृथिवीमां होय. [ए रीते उत्कृष्ट पदना १-६-१५-२०-१५-६-१ मळी ६४ विकल्पो थाय छे.] २४. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक, शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक, यावद् अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकप्रवेश- नैरयिकप्रवेंशनक नकमा कया प्रवेशनको कया प्रवेशनकोथी यावद् विशेषाधिक छे ? उ०] हे गांगेय ! सौथी अल्प अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकप्रवेशनक छे, अल्पबहुल तेना करतां तमापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक असंख्येयगुण छे. ए प्रमाणे विपरीत क्रमथी यावत् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनक असंख्यातगुण छे. तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक. २५. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक केटला प्रकारे कह्यु छे ! [उ०] हे गांगेय ! पांच प्रकारे का छे. ते आ प्रमाणे तिर्यचप्रवेशनक -एकेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, यावतू पंचेन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनक. सप्तसंयोग. प्रशार चतुक्कसं-क। २ पंचकसं-घ। ३-सत्तमपु-क। Jain Education international Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक तिथैचयोनिक बैतिचयोनिको यावत् असंख्याता तिर्यचो. उत्कृष्ट तिर्यंच योनिकप्रवेशनक तिर्यंचयोनिकप्रवेशन काल्पबहुत्व. एक मनुष्य. श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंमद्दे शतक ९.देशक २२. २६. [०] एगे भंते! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियप्पवेसणपणं पविसमाणे किं एर्गिदिएसु होजा, जाव पंचिदिपसु होजा ? [उ०] गंगेया ! एर्गिदिएसु वा होजा; जाव पंचिदिएसु वा होजा । २७. [प्र० ] दो भंते! तिरिक्खजोगिया० पुच्छा। [४०] गंगेया ! एगिदिपसु वा होना, जाव पंचिदिएसु वा होखा । अहवा एगे एगिदिए होजा एगे' बेइंदिपसु होजा, एवं जहा नेरइयप्पवेसणए तहा तिरिषखजोणियप्पवेसणए वि भाणियचे, जाय असंसेजा। १५६ २८. [प्र०] उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिया० पुच्छा । [ उ०] गंगेया ! सधे वि ताव एगिदिएसु होजा, अहवा ए-ि दिपसु वा बेइदिएँसु वा होज्जा । एवं जहा नेरतिया चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयद्वा । एगिंदिया अमुयंतेसु दुयासंजोगो, तियासंजोगो, चैउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो उवउंजिऊण भाणियधो, जाव अहवा एगिदिएसु वा बेई दिय० जाव पंचिदिया होगा। २९. [प्र० ] यस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणिय पवेसणगरस, जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स य कयरे करे - जाव विसेसाहिया वा [30] गंगेया ! सत्थोवे पंचिदियतिरिक्लजोणियप्पवेसण, चरंदियतिरिषखजो - णियपवेसणए विसेसाहिए, तेइंदिय० विसेसाहिए, बेइंदिय० विसेसाहिए, एगिंदियतिरिवख० विसेसाहिए । ३०. [प्र०] मणुस्सष्पवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [30] गंगेया ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा- संमुच्छिममणुस्सप्प - बेसन, गम्भवतियमणुस्तपवेसणए य । ३१. [प्र० ] एगे भंते! मणुरसे मणुस्सन्पवेसणपणं परिसमाणे किं संमुच्छिममणुस्सेसु होना, गन्भवर्द्धतियमणुस्से होजा ? [उ०] गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गब्भवकंतियमणुस्सेसु वा होजा । २६. [प्र० ] हे भगवन् ! एक तिर्यंचयोनिक जीव तिर्यंचयोनिकप्रवेश नकवडे प्रवेश करतो शुं एकेन्द्रियोमां होय के यावत् पंचेन्द्रियोमां होय ? [उ०] हे गांगेय ! *१ एक तिर्यंचयोनिक जीव एकेन्द्रियमां होय अने यावत् ५ पंचेन्द्रियमां पण होय. २७. [प्र०] हे भगवन् ! वे तिर्यंचयोनिक जीवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! १ एकेन्द्रियोमां पण होय अने यावत् ५ पंचेन्द्रियोमां पण होय. अथवा एक एकेन्द्रियम अने एक बेइन्द्रियमां पण होप. ए प्रमाणे जैम नैरयिकप्रवेशनकमां कहां तेम तियंचपो निकप्रवेशनकर्मा यावत् असंख्येय तियंचयोनिको सुची कहेतुं. २८. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिको उत्कृष्टपणे [ शुं एकेन्द्रियोमां होय के यावत् पंचेन्द्रियोमां होय ?] ए प्रश्न. [ उ० ] है गांगेय ! ते बधा एकेन्द्रियोमां होय. अथवा एकेन्द्रियो अने बेइन्द्रियोमां पण होय. ए प्रमाणे जेम नैरयिकोनो संचार कर्यो तेम तिर्यंचयोनिकोनो पण संचार करो. एकेन्द्रियोने मुक्या सिवाय विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग अने पंचकसंयोग उपयोगपूर्वक कहेजो. यावत् अथवा एकेन्द्रियोमां बेइन्द्रियोमां यावत् पंचेन्द्रियोमां पण होय. २९. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कोनाथी याबद् विशेषाधिक] [४०] है गांगेय पंचेन्द्रियतियंचयोनिकप्रवेशनक सौची अल्प छे, तेथी चउरिन्द्रियतियैचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे, तेना करतां त्रीन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे, तेना करतां बेइन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे, अने तेना करतां एकेन्द्रियतिर्यंचयोनिकप्रवेशनक विशेषाधिक छे. मनुष्यप्रवेशनक ३०. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यप्रवेशनक केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गांगेय ! वे प्रकारे कह्युं छे, ते आ प्रमाणे- संमूचिममनुष्यप्रवेशनक अने गर्भजमनुष्यप्रवेशनक ३१. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यप्रवेशनकवडे प्रवेश करतो एक मनुष्य शुं संमूच्छिम मनुष्योमां होय के गर्भज मनुष्योमां होय ? [30] हे गांगेय ! ते संमूच्छिम मनुष्योमां पण होय अने गर्भज मनुष्योमां पण होय. १-२ वैदियेसु क । ३ चउक्कासंक । ४ पंचास क । २६. * यद्यपि अहिं 'एक जीव एकेन्द्रियमां उत्पन्न धाय' एम कह्युं, तेमां ए विचारणीय छे के एकेन्द्रियोमां एक जीव कदापि उत्पन्न थतो नथी, परंतु प्रतिसमय अनन्त जीवो उत्पन्न थाय छे; तोपण विजातीय देवादिभवथी नीकळीने जे एकेन्द्रियमां उत्पन्न थाय ते प्रवेशनक कहेवाय छे, ते अपेक्षाए एक जीव पण लामे. प्रवेशनक एटले जे विजातीय भवथी आवीने विजातिमां उत्पन्न थाय. सजातीय जीव सजातिमां आवीने उत्पन्न थाय, ते तो तेमां प्रविष्टज छे माटे ते प्रवेशनक न कहेवाय. हवे एक जीव अनुकमे एकेन्द्रियादि पांच स्थळे भावी उत्पन्न थाय त्यारे तेना पांच विकल्पो थाय. बे जीवो पण एक एक स्थळे साथै उत्पन्न थाय तो पण पांच ज विकल्पो थाय, अने द्विकसंयोगी दश विकल्पो थाय, हवे त्रणथी मांडीने असंख्यात तिर्यंचयोनिकोनुं प्रवेशनक नैरयिकप्रवेशनकनी पेठे जाणवुं, परन्तु नारको सात नरकष्पृथिवीमां उत्पन्न थाय अने तिर्यंचो एकेन्द्रियादि पांच स्थानकोमा उत्पन्न थाय, माटे भांगानी संख्या भिन्न भिन्न थाय, ते बुद्धिमाने स्वयं विचारी लेवा. यद्यपि अहीं अनन्त एकेन्द्रियो उत्पन्न थाय छे, परन्तु उपर बतावेलुं प्रवेशनकनुं लक्षण असंख्यात जीवोगां ज घटी शके छे माटे असंख्यात सुधी प्रवेशनक जाणवु. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिग्रणीत भगवतीसूत्र. १५७ ३२. [प्र०] दो भंते ! मणुस्सा० पुच्छा। [उ०] गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गब्भवतियमणुस्सेसु वा होजा । अहवा एगे समुच्छिममणुस्सेसु वा होजा एगे गब्भवतियमणुस्सेसु वा होजा, एवं एएणं कमेणं जहा नेरायपवे. सणए तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियचे, जाव दस । ३३. [प्र०] संखेजा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा । [उ०] गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गम्भवतियमणुस्सेसु वा होजा । अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होजा; अहवा दो समुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गम्भवकंतियमणुस्सेसु होजा; एवं एकेकं उस्सारितेसु जाव अहवा संखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा गब्भवतियमणुस्सेसु होजा । ३४. [प्र०] असंखेजा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! सवे वि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा । अहवा खेजा संमुच्छिमणुस्सेसु एगे गन्भवतियमणुस्सेसु होजा; अहवा असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु दो गन्भवतियमणुस्सेसु होजा; एवं जाव असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गम्भवतियमणुस्सेसु होजा। ... ३५. [प्र०] उक्कोसा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! सो वि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा, अहवा समुच्छिममणुस्सेसु य गम्भवतियमणुस्सेसु वा होजा। ३६. [प्र०] एयस्स णं भंते! संमुच्छिममणुस्सपवेसणगस्स गन्भवतियमणुस्सपवेसणगस्स य कयरे कयरे-जाव विसेसाहिया? [उ०] गंगेया ! सम्बत्थोवे गम्भवकंतियमणुस्सपवेसणए, संमुच्छिममणुस्सप्पवेसणए असंखेजगुणे। ३७. [प्र०] देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] गंगेया ! चउधिहे पन्नत्ते, तं जहा-भवणवासिदेवपवे. सणए, जाव वेमाणियदेवपवेसणए । ___३८. [प्र०] एगे भंते ! देवे देवपवेसणएणं पविसमाणे किं भवणवासीसु होजा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु होजा? [उ०] गंगेया! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा होजा। ३२. [प्र०] हे भगवन् ! बे मनुष्यो मनुष्यप्रवेशनकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! बे मनुष्यो संमूर्छिम मनु- ने मनुष्यो. प्योमा पण होय अने गर्भज मनुष्योमां पण होय. अथवा एक संमूर्छिम मनुष्यमां होय अने एक गर्भजमनुष्यमा होय. ए प्रमाणे ए क्रमथी जेम नैरयिकप्रवेशनक कह्यं तेम मनुष्यप्रवेशनक पण यावद् दश मनुष्यो सुधी कहे. दश मनुष्यो. ३३. प्रि०] हे भगवन् ! संख्याता मनुष्यो मनुष्यप्रवेशनकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! तेओ संमूछिम संख्याता मनुष्यो. मनुष्यमां पण होय अने गर्भज मनुष्यमां पण होय. अथवा एक संमूर्छिम मनुष्योमा होय अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. अथवा बे संमूछिम मनुष्योमा होय अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. ए प्रमाणे एक एक वधारता यावद् अथवा संख्याता संमूर्छिम मनुष्योमा अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. ३४. [प्र०] हे भगवन् ! असंख्याता मनुष्यो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते बधा संमूर्छिम मनुष्योमा होय. अथवा असंख्याता असंख्याता मनुष्यो. संमूछिम मनुष्योमा होय अने एक गर्भज मनुष्योमा होय. अथवा असंख्याता संमूर्छिम मनुष्योमा होय अने बे गर्भज मनुष्योमा होय. ए प्रमाणे यावत् असंख्याता संमूर्छिम मनुष्योमा होय अने संख्याता गर्भज मनुष्योमा होय. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! मनुष्यो उत्कृष्टपणे [कया प्रवेशनकमां होय ? ] ए संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते बधाय संमू- उत्कृष्ट मनुष्य प्रवेशनकछिम मनुष्योमा होय. अथवा संमूछिम मनुष्यो अने गर्भज मनुष्योमां पण होय. ३६. [प्र०] हे भगवन् ! संमूर्छिममनुष्यप्रवेशनक अने गर्भजमनुष्यप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे ? मनुष्यप्रवेशनक अल्पबहुत्व. [उ०] हे गांगेय ! सौथी अल्प गर्भजमनुष्य प्रवेशनक छे, अने संमूछिम मनुष्यप्रवेशनक असंख्येयगुण छे. देवप्रवेशनक. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! देवप्रवेशनक केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गांगेय ! चार प्रकारे कडुं छे. ते आ प्रमाणे-१ देवप्रवेशनकना भवनवासिदेवप्रवेशनक, यावद् ४ वैमानिकदेवप्रवेशनक. ' प्रकार. ३८. प्र०] हे भगवन् ! एक देव देवप्रवेशनकद्वारा प्रवेश करतो गुं भवनवासिमा होय, वानव्यंतरमा होय, ज्योतिषिकमां होय के एक देव. वैमानिकमां होय ? [उ०] हे गांगेय ! १ भवनवासिमां होय, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिष्क अने ४ वैमानिकमां पण होय. . ओसारिते- क, उसारिए- ङ। २-जाणं भ-ग। . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३२. ३९. [प्र०] दो भंते ! देवा देवपवेसणएणं० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतर-जोइसियवेमाणिएसु वा होजा। अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होजा, एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियो, जाव असंखेज त्ति । ४०. [प्र०] उक्कोसा भंते ! पुच्छा । [उ०] गंगेया! सवे वि ताव जोइसिएसु होजा, अहवा जोइसिय-भवणवासीसु य होजा, अहवा जोइसिय- वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिय-वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य य वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा। ४१. [प्र०] एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स, वाणमंतरदेवपवेसणगस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे कयरे-जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गंगेया! सवत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवणवासिदेवपवेसए असंखेजगुणे, वाणमंतरदेवपवेसणए असंखेजगुणे, जोइसियदेवपवेसणए संखेजगुणे। ४२. [प्र०] एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणिय मणुस्स० देवपवेसणगस्स य कयरे कयरे- जाव विसेसाहिए वा ? [उ०] गंगेया! सवत्थोवे मणुस्सपवेसणए, नेरइयपवेसणए असंखेजगुणे, देवपवेसणए असंखेजगुणे, तिरिक्खजोणियप्पवेसणए असंखेजगुणे । ४३. प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उववजंति, संतरं असुरकुमारा उववजंति निरंतरं असुरकुमारा उववजंति, जाव संतरं वेमाणिया उववजंति निरंतरं वेमाणिया उववजंति, संतरं नेरइया उच्चट्टति निरंतरं नेरतिया उच्चदंति, जाव संतरं वाणमंतरा उच्चटुंति निरंतरं वाणमंतरा उच्चदंति, सांतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति, सांतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि नेरइया उववजंति निरंतरं पि नेरतिया उववजंति, जाव संतरं पि थणियकुमारा उववजंति निरंतरं पि थणियकुमारा उववजंति; नो संतरं पुढविक्काइया उववजंति निरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरदया, जाव संतरं पिवेमाणिया उववजंति निरंतरं ३९. [प्र०] हे भगवन् ! वे देवो देवप्रवेशनकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते वे देवो १ भवनवासिमां होय, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिष्क अने ४ वैमानिकमां पण होय. अथवा एक भवनवासिमां होय अने एक वानव्यंतरमा होय. ए प्रमाणे. जेम तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक कयुं छे तेम देवप्रवेशनक पण यावद् असंख्याता देवो सुधी जाणवू. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! देवो उत्कृष्टपणे [कया प्रवेशनकमा होय ? -इत्यादि प्रश्न. उ०] हे गांगेय ! ते बधा ज्योतिषिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क अने भवनवासिमां होय. अथवा ज्योतिष्क अने वानव्यतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क अने वैमानिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी अने वानव्यंतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी अने वैमानिकमां होय. अथवा ज्योतिष्क, वानव्यंतर अने वैमानिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी, वानव्यंतर अने वैमानिकमा होय. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! भवनवासिदेवप्रवेशनक, वानव्यंतरदेवप्रवेशनक, ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक अने वैमानिकदेवप्रवेशनकमा कयु प्रवेशनक कया प्रवेशनकथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय ! वैमानिकदेवप्रवेशनक सौथी अल्प छे, तेना करतां असंख्येयगुण भवनवासिदेवप्रवेशनक छे, तेथी असंख्येयगुण वानव्यंतरदेवप्रवेशनक छे, अने तेनाथी ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक संख्यातगुण छे. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनक, तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशनक अने देवप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कया प्रवेशनकथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय ! सौथी अल्प मनुष्यप्रवेशनक छे, तेथी नैरयिकप्रवेशनक असंख्यात गुण छे, तेना करता असंख्यातगुण देवप्रवेशनक छे अने तेनाथी असंख्यातगुण तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक छे. उत्पाद अने उद्वर्तना. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सान्तर (अन्तरसहित) उत्पन्न थाय छे के निरंतर ( अन्तररहित ) उत्पन्न थाय छे ! असुरकुमारो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? यावत् वैमानिक देवो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? नैरयिको सान्तर उद्वर्ते छे-नीकळे छे के निरन्तर उद्वर्ते छे ? यावत् वानव्यंतरो सांतर उद्वर्ते छे के निरन्तर उद्वर्ते छे ? ज्योतिष्को सान्तर घ्यवे छे के निरन्तर च्यवे छे ? अने वैमानिको सान्तर च्यवे छे के निरन्तर च्यवे छे ? [उ०] हे गांगेय ! नैरयिको सान्तर उत्पन्न थाय छे अने निरन्तर पण उत्पन्न थाय छे. यावत् स्तनितकुमारो सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. पृथिवीकायिको सान्तर उत्पन्न थता नथी पण निरन्तर उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावत् वनरपतिकायिको पण निरन्तर उत्पन्न थाय छे. तथा बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर घे देवो. उत्कृष्टदेवप्रवेशनक. देवप्रवेशनकर्नु अल्पबहुत्व. सर्व प्रवेशनकर्नु अल्पबहुत्व. नैरयिकोनी 'सान्तर अने निरन्तर उत्पाद भने उद्वर्तना. .१ सांतरं सर्वत्र क। २ उवव९ति सर्वत्र घ, क्वचित् क; 'उबट्टति' कपुस्तके वहशः पाठः समुपलभ्यते । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५९ पि वेमाणिया उववजंति; संतरं पि नेपया उवदंति निरंतरं पि नेरइया उच्चद॒ति, एवं जाव थणियकुमारा । नो संतरं पुढविकाइया उच्चद्दति निरंतरं पुढविकाइया उबटुंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलायो, जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति निरंतरं पि वेमाणियां चयंति। ४४. [H०] सेतो भंते ! णेरइया उववजंति, असतो भंते ! नेरइया उववजंति ? [उ०] गंगेया! सतो नेरइया उपवजंति, नो असतो नेत्या उववजंति; एवं जाव माणिया। ४५. प्र०] सतो भंते! नेरइया उबटुंति, असतो नेरइया उबटुंति [उ०] गंगेया! सतो नेपया उच्चति, नो असतो नेरहया उधति; एवं जाव वेमाणिया, नवरं जोइसिय-चेमाणिएसु चयंति भाणियचं । ४६. [प्र०] सओ भंते ! नेरइया उववजंति, असतो भंते नेपया उववजंति; सतो असुरकुमारा उववजंति, जाव सतो वेमाणिया उववजंति, असतो वेमाणिया उववजंति; सतो नेरतिया उच्चदंति, असतो नेरइया उबदंति; सतो असुरकुमारा उच्चटुंति, जाव सतो वेमाणिया चयंति, असतो वेमाणिया चयंति ? [उ०] गंगेया! सतो नेरइया उववजंति, नो असओ नेरइया उववजंति; सओ असुरकुमारा उववजंति, नो असतो असुरकुमारा उववजंति; जाव सओ वेमाणिया उववजंति, नो असतो वेमाणिआ उववजंति; सतो नेरतिया उबटुंति, नो असतो नेरतिया उच्चट्टति; जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयति। [H०] से केणटेणं भंते ! एवं घुश्चति-सतो नेरतिया उववजंति, नो असतो नेपया उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति ! [उ०] से शृणं गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवयग्गे, जहा पंचमसए, जाव 'जे लोकह से लोए', से तेणटेणं गंगेया! एवं वुच्चर-जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो येमाणिया चयंति ।। ४७. [३०] सयं भंते ! एवं जाणह, उदाहु असयं, असोचा पते एवं जाणह, उदाहु सोचा; 'सतो नेरहया उववजंति, नो असतो नेरइया उववजंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति' ? [उ०] गंगेया! सयं एते एवं अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. यावद् वैमानिको पण सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. नैरयिको. सान्तर अने निरन्तर उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावद् स्तनितकुमारो जाणवा. पृथिवीकायिको सान्तर उद्वर्तता नथी पण निरन्तर उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिको पण जाणवा. बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर अने निरन्तर उद्वर्ते छे. पण विशेष ए छे के ज्योतिषिको अने वैमानिको च्यवे छे' एम पाठ कहेवो. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सान्तर अने निरन्तर च्यवे छे. ४४. [प्र०] हे भगवन् ! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे के असद्-अविद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे विद्यमान नैरयिको उत्पन्न वाय गांगेय ! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे, पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक पर्यन्त जाणवू. के भविषमान! ४५. [प्र०] हे भगवन् ! विद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छे के अविद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छे ? [उ०] हे गांगेय ! विद्यमान नैरयिको उद्वर्ते सद् नैरयिको छे पण अविद्यमान नैरयिको उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सुधी जाणवं. विशेष ए छे के ज्योतिष्क अने वैमानिकोमा च्यवे छे' उदत छे के असद् । एवो पाठ कहेवो. ४६. [प्र०] हे भगवन् ! सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे के असद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे ? सद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे के सद् नैरपिकादिना असद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे ? ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे के असद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे ! सद नैरयिको ना संबन्धे प्रश्न उद्वर्ते छे के असद् नैरयिको उद्वर्ते छे ? सद् असुरकुमारो उद्वर्ते छे के असद् असुरकुमारो उद्वर्ते छे ! ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे के असद् वैमानिको च्यवे छे ? [उ०] हे गांगेय ! सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. सद् असुरकुमारे उत्पन्न थाय छे पण असद् असुरकुमारो उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे पण असद् वैमानिको उत्पन्न थता नथी. सद् नैरयिको उद्वर्ते छे पण असद् नैरयिको उद्वर्तता नथी. यावद् सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी. [प्र०] सद् नैरयिकादिना हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमा उत्पाद भने उदनिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी ? हे भगवन् ! शुं ते निश्चित छे ! [उ०] हे गांगेय ! खरेखर पुरुषादानीय अर्हत् श्रीपा र्श्वनाथे "लोकने शाश्वत, अनादि अने अनन्त कह्यो छे-" इत्यादि 'पांचमा शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवं. यावत् जे अवलोकी शकायजाणी शकाय ते लोक, ते हेतुथी हे गांगेय ! एम कर्दा छे के, सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी. ४७. [प्र०] हे भगवन् ! आप स्वयं आ प्रमाणे जाणो छो, के अवयं जाणो छो! सांभळ्या शिवाय ए प्रमाणे जाणो माप स्वयं जाणो छो छो अथवा सांभळीने जाणो छो के. 'सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी, यावत् सद् के अस्वयं जाणो छो १संतो क-घ, जो ङ। २ प्रणाइए ङ। ४६ * भग. सं. २ श. ५ उ. पृ. २४९. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३२. जाणामि, नो असयं; असोचा एते एवं जाणामि, नो सोचा 'सतो नेरइया उववजंति, नो असओ नेरइया उवषजंति, जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति'। [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं धुञ्चति-तं चेव, जाव 'नो असतो वेमाणिया चयंति' ? [उ०] गंगेया! केवली णं पुरस्थिमेणं मियं पि जाणह, अमियं पि जाणइ; दाहिणेणं एवं जहा संहदेसए, जाव निब्बुडे नाणे केवलिस्स; से तेणटेणं गंगेया! एवं वुश्चइ 'तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति'। ४८. [प्र०] सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववजंति, असयं नेरइया नेरहपसु उववजंति ? [उ०] गंगेया! सयं मेरइया नेरइएसु उववजंति, नो असयं नेरइया नेरदएसु उववजंति [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव उवषजति ? [उ०] गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्ममारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए; असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवागणं, असुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं नेरड्या नेरइएसु उववजंति, नो असयं नेरइया नेरहपसु उववजंति; से तेणटेणं गंगेया! जाव उववजंति । ४९. [प्र०] सयं भंते ! असुरकुमारा० पुच्छा । [उ०] गंगेया! सयं असुरकुमारा जाव उववजंति, नो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति ।[प्र०] से केणटेणं तं चेव जाव उववजति ? [उ०] गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मोवसमेणं, कम्मविगतीए, कम्मविसोहीए, कम्मविसुद्धीए, सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागेणं, सुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववजंति, नो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति; से तेणटेणं जाव उववजंति, एवं जाप थणियकुमारा। ५०. [३०] सयं भंते ! पुढविक्काइया० पुच्छा। [उ०] गंगेया! सयं पुढविक्काइया जाव उववजंति, नो असयं पुढधिकाइया जाव उववजंति । [प्र०] से केणटेणं जाव उववजंति ? [उ०] गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए सुभा-सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभा-सुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभा-सुभाणं कम्माणं फलवैमानिको च्यवे छे, पण असद् वैमानिको च्यवता नथी' ! [उ०] हे गांगेय ! हुं ए बधुं स्वयं जाणुं छु, पण अवयं (बीजानी सहायथी) जाणतो नशी. वली सांभळ्या विना आ प्रमाणे जाणुं छु, पण सांभळीने जाणतो नथी के 'सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे, पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी, यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे, पण असद् वैमानिको च्यवता नथी.' [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के, 'हुं स्वयं जाणुं छु-इत्यादि पूर्वोक्त यावत् असद् वैमानिको च्यवता नथी' ! [उ०] हे गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्वमा मित (मर्यादित) पण जाणे, अने अमित (अमर्यादित) पण जाणे, तथा दक्षिणमां पण ए प्रमाणे जाणे. ए प्रमाणे जेम "शब्द उद्देशकमां कडं छे तेम जाणवू, यावत् 'केवलिनु ज्ञान निरावरण होय छ,' माटे हे गांगेय ! ते हेतुथी एम कहुं छु के 'हुं खयं जाणुं छं-इत्यादि यावद् असद् वैमानिको च्यवता नथी.' ४८. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको नैरयिकमां स्वयं उत्पन्न थाय छे के अवयं उत्पन्न थाय छे.! [उ०] हे गांगेय ! नैरयिको नैरयिका स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण अखयं उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'स्वयं यावद् उत्पन्न थाय छे' ! [उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, कर्मना गुरुपणाथी, कर्मना भारेपणाथी, कर्मना अत्यन्त भारेपणाथी, अशुभ कर्मोना उदयथी, अशुभ कर्मोना विपाकथी अने अशुभ कर्मोना फल-विपाकथी नैरयिको नैरयिकोमा खयं उत्पन्न थाय छे, पण नैरयिको नैरयिकोमा अस्वयं उत्पन्न थता नथी; ते हेतुथी हे गांगेय ! एम कहेवाय छे के यावत् 'तेओ खयं उत्पन्न पाय छे.' ४९. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो खयं [असुरकुमारपणे उत्पन्न थाय छे ! ] इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! असुरकुमारों खयं उत्पन्न थाय छे, पण अवयं उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के तेओ 'स्वयं यावद् उत्पन्न थाय छे' ! [उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, [अशुभ ] कर्मना उपशमथी, अशुभ कर्मना अभावथी, कर्मनी विशोधिथी, कर्मनी विशुद्धिथी, शुभ कर्मोना उदयथी, शुभ कर्मोना विपाकथी अने शुभ कर्माना फल-विपाकथी असुरकुमारो असुरकुमारपणे स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण असुरकुमारो असुरकुमारपणे अस्वयं उत्पन्न थता नथी. माटे हे गांगेय । ते हेतुथी एम कहेवाय छे के, यावत् 'उत्पन्न थाय छे.' ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न घाय छे पण अस्वयं उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के 'पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे' ! [उ०] हे गांगेय ! कर्मना उदयथी, कर्मना गुरुपणाथी, कर्मना भारथी, कर्मना अत्यन्त भारथी, शुभ अने अशुभ कर्मोना उदयथी, शुभ अने अशुभ नैरयिको स्वयं उपजे छे के अस्वयं उपजेछ। • असुरकुमारो. पृथिवीकायिको. १-पुरच्छिमेणं घ-ऊ। २ सगडुइ-क--घ-ङ । ४७ * भग० २ श. ६ उ. ४ पृ. १७०. . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १६१ विवागेणं सयं पुढविक्काइया जाव उववजंति, नो असयं पुढविक्काइया जाव उववजंति, से तेणटेणं जाव उववखंति । एवं जाव मणुस्सा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । से तेणटेणं गंगेया! एवं पुश्चति-सयं वेमाणिया जाव उववजंति, नो असयं जाव उववजंति । ५१. तप्पभितिं च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सधण्णु, सबदरिसिं । तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, २ करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं भंते! तुभं अंतियं चाउजामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं, एवं जहा कालासवेसियपुत्तो तहेव भाणियवं, जाव सचदुक्खप्पहीणे । सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति । नवमसए गंगेयो बत्तीसइमो उद्देसो समचो । कर्मोना विपाकथी, अने शुभाशुभ कर्मोना फलविपाकथी पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण यावद् अस्वयं उत्पन्न यता नथी. माटे हे गांगेय! ते हेतुथी एम कई छ के-यावत् 'पृथिवीकायिको स्वयं उत्पन्न थाय छे.' ए प्रमाणे यावत् मनुष्यो सुधी जाणबु. जेम असुरकुमारोने कयुं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिको संबन्धे कहे. माटे हे गांगेय ! ते हेतुथी एम कहुं छु के-यावत् वैमानिको स्वयं उत्पन्न थाय छे, पण अवयं उत्पन्न थता नथी.' ५१. त्यार पछी श्रीगांगेय अनगार श्रमण भगवान् महावीरने सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी जाणे छे. त्यारबाद ते गांगेय अनगार श्रमण गांगेय भगवान् महाभगवंत महावीरने त्रण वार आदक्षिणा प्रदक्षिणा करे छे, करीने वांदे छे, नमे छे; वांदीने, नमीने तेणे एम कर्दा के-हे भगवन् ! तमारी । बने दीक्षा ग्रहण पासे चार महाव्रत धर्मथी पांच महाव्रतधर्मने ग्रहण करवा इच्छु छु. ए प्रमाणे बधुं "कालासवेसिक पुत्रनी पेठे यावत् ते 'सर्वदुःखथी करी निर्वाण पामे ... मुक्त थया' त्या सुधी कहे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. नवम शतके बत्रीशमो गांगेय उद्देशक समाप्त. ५१. भगवं.१श.१ उ.पृ.२०७.. २१ भ. सू० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमो उद्देसो. १. [प्र०] तेणं कालेणं, तेणं समपणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था । वन्नओ । बहुसालए चेतिए । वन्नओ । तत्थ णं माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नाम माहणे परिवसइ, अद्वे, दित्ते, वित्ते, जाव अपरिभूए; रिउवेद-जजुवेद-सामवेद-अथधणवेद- जहा खंदओ, जाव अन्नेसु य बहुसु बंभन्नएसु सुपरिनिट्ठिए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे, उवलद्धपुण्ण-पावे, जाव अप्पाणं भावेमाणे विहए । तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा नामं माहणी होत्था, सुकुमालपाणि-पाया, जाव पियदसणा, सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवा-जीवा, उवलद्धपुन्न-पावा जाव विहरद । तेणं कालेणं, तेणं समपणं सामी समोसढे । परिसा जाव पजवासति । तैए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए उवलद्धढे समाणे हट्ठ-जाव हियए, जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवाणंदं माहणिं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे, जाव सधण्णू, सवदरिसी, आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेहए अहापडिरूवं जाव विहरति । तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए! तेहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसण-पडिपुच्छण-पजुवासणयाए, एगस्स वि आयरियरस धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्टस्स गहणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो, जाव पजुवासामो; एवं णं इहभवे य, परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । तए णं सा देवाणंदा माहणी उसभ ब्राह्मणकुंडग्राम ऋषभदत्त. देवानंदा. महावीरस्वामी समोसर्या. तेत्रीशमो उद्देशक. १. ते काले, ते समये ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. बहुशालक नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरमा ऋषभदत्त नामे ब्राह्मण रहेतो हतो. ते आढ्य-धनिक, तेजस्वी, प्रसिद्ध अने यावत् अपरिभूत-कोइथी पराभव न पामे तेवो हतो. वळी ते ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्वणवेदमा निपुण अने *स्कंदक तापसनी पेठे यावत् ब्राह्मणोना बीजा घणा नयोमा कुशल हतो. ते श्रमणोनो उपासक, जीवाजीव तत्त्वने जाणनार, पुण्य-पापने ओळखनार अने यावत् आत्माने भावित करतो विहरतो हतो. ते ऋषभदत्त ब्राह्मणने देवानंदा नामे ब्राह्मणी स्त्री हती. तेना हाथ पग सुकुमाल हता, यावत् ते दर्शन प्रिय हतुं अने तेनुं रूप सुन्दर हतुं. वळी श्रमणोनी उपासिका [ देवानंदा ] जीवाजीव अने पुण्यपापने जाणती विहरती हती. ते काले, ते समये महावीरस्वामी समोसा. पर्षत यावत् पर्युपासना करे छे. त्यार पछी ते ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान् महावीरना आगमननी आ वात जाणीने खुश थयो, यावत् उल्लसित हृदयवाळो थयो, अने. ज्या देवानंदा ब्राह्मणी हती त्यां आव्यो. त्यां आवीने तेणे देवानंदा ब्राह्मणीने आ प्रमाणे कथु के-'हे देवानुप्रिये ! ए प्रमाणे अहीं तीर्थनी आदि करनार यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर आकाशमा रहेला चक्रवडे यावत् सुखपूर्वक विहार करता बहुशालक नामे चैत्यमा योग्य अवग्रहने ग्रहण करीने यावत् विहरे छे. हे देवानुप्रिये ! यावत् तेवा प्रकारना अर्हत् भगवंतना नाम -गोत्रना पण श्रवणथी मोटुं फल प्राप्त थाय छे, तो वळी तेओना अभिगमन (सामा जq ), चंदन, नमन, प्रतिप्रच्छन अने पर्युपासन करवाथी फल थाय तेमां शुं कहे ? तथा एक पण आर्य अने धार्मिक सुवचनना श्रवणथी मोटुं फल थारा छे, तो वळी विपुल अर्थने ग्रहण करवावडे महाफल थाय तेमां शुं कहे ? माटे हे देवानुप्रिये ! आपणे जइए अने श्रमण भगवंत महावीरने वन्दन-नमन करीए, यावत् तेमनी पर्युपासना करीए. ए आपणने आ भवमा तथा परभवमा हित, सुख, संगतता, निःश्रेयस अने शुभ अनुबंधने माटे थशे. ज्यारे ते मशाळक.चैत्य. तते णं क। ४ हिदए क । ५ महप्फलं क। जाव तहा-ग-घ। . अरिहं--घ। 1 -गामे णामं न- ङ। २ अहिंग- क। ८ एयं णे इ-क, एयं णो इ-छ। १. भग.सं.१२.२ उ.१पृ. २३१. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १६३ दत्तेणं माहणेणं एवं बुत्ता समाणी हट्ठ- जाव हिंदया, करयल- जाव कड्डु उसमदत्तस्स माहणस्स एयमट्ट विणणं पडि. सुणेई। २. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुंबियपुरिस सद्दावेइ, कोडुंबियपुरिसे सहावेत्ता एवं धैयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्त-जोइय-समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगेहि, जंवूणयामयकलावजुत्त-पतिविसिटेहिं, रययामयघंटासुत्तरजयपवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियएहिं, नीलुप्पलकयामेलपहि, पवरगोणजुवाणएहिं गाणामणि-रयणघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुग-जोत्तरजयजुग-पसत्थसुविरचियनिमियं, पवरलक्खणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्टवेह, उवट्ठवेत्ता मम एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-जाव हियया, करयलएवं सामी तहत्ताणाए विणएणं वयणं जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्त-जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवटवेत्ता जाप तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति । ३. तए णं से उसभदत्ते माहणे ण्हाए, जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे सातो गिहातो पडिणिक्खमति, पंडिणिक्खमित्ता जेणेव वाहिरिया उबदाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दूरूढे । तए णं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि पहाता; कयवलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता, किंच वरपादपत्तणेउर-मणिमेहला-हाररचित-उचियकडग-खंडाग-एकावली-कंठसुत्त-उरत्थगेवेज-सोणिसुत्तग-नाणामणि-रयणभूसणविराइयंगी, चीणंसुयवत्थपवरपरिहिया, दुगुलसुकुमालउत्तरिजा, सवोतुयसुरभिकुसुमवरियसिरया, घरचंदणवंदिता, वराभरणभूसितंगी, कालागरुधूवधूविया, सिरिसमाणवेसा, जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा, बहूहिं खुजाहि, चिलाति ऋषभदत्त ब्राह्मणे देवानंदा ब्राह्मणीने ए प्रमाणे कयुं त्यारे ते खुश थइ, अने यावत् उल्लसितहृदयवाळी थईने पोताना करतलने यावत मस्तके अंजलिरूपे करी ऋषभदत्त ब्राह्मणना ए कथनने विनयपूर्वक स्वीकारे छे. २. त्यारबाद ते ऋषभदत्त ब्राह्मण पोताना कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेओने तेणे आ प्रमाणे कह्यु के-हे देवानुप्रियो ! जलदी चालयावाळा, प्रशस्त अने सदृशरूपवाळा, समान खरी अने पुच्छवाळा, समान उगेला शिंगडावाळा, सोनाना कलाप-आ. भरणोथी युक्त, चालवामां उत्तम, रूपानी घंटडीओथी युक्त, सुवर्णमय सुतरनी नाथवडे बांधेला, नील कमळना शिरपेचवाळा बे उत्तम युवान बळदोथी युक्त; अनेक प्रकारनी मणिमय घंटडीओना समूहथी व्याप्त, उत्तम काष्ठमय धोंसह अने जोतरनी बे दोरीओ उत्तम रीते मां गोठवेली छे एवा; प्रवरलक्षणयुक्त, धार्मिक, श्रेष्ठ यान-रथने तैयार करी हाजर करो अने आ मारी आज्ञा पाछी आपो'. ज्यारे ते ऋषभदत्त ब्राह्मणे ते कौटुंबिक पुरुषोने एम कर्दा त्यारे तेओए खुश थइ यावद् आनंदितहृदयवाळा थइ, मस्तके करतलने जोडी एम कर्दा के-हे खामिन् ! ए प्रमाणे आपनी आज्ञा मान्य छे'. एम कही विनयपूर्वक वचनने स्वीकारी जलदी चालवावाव्य बे बळदोथी जोडेला, यावत् धार्मिक अने प्रवर यानने (रथने ) शीघ्र हाजर करीने यावत् आज्ञाने पाछी आपे छे. ३. त्यारबाद ते ऋषभदत्त ब्राह्मण स्नान करी यावत् अल्प अने महामूल्यवाळां आभरणोथी पोताना शरीरने अलंकृत करी पोतान घरथी बहार निकळे छे. बहार निकळीने जे टेकाणे बहारनी उपस्थान शाला छे, अने ज्या धार्मिक यानप्रवर छे त्यां आवीने ते रथं उपर चढे छे. त्यारबाद ते देवानंदा ब्राह्मणी अंदर अंतःपुरमा स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, कौतुक-(मषीतिलक) मंगल अने प्रायश्चित्त करी, पगमा पहेरेला सुंदर नू पुर, मणिनो कंदोरो, हार, पहेरेलां उचित कडां, वीटीओ, विचित्रमणिमय एकावली (एकसर• वाग ) हार, कंठसूत्र, छातीमा रहेला अवेयक (लांबा हार), कटीसूत्र, अने विचित्रमणि तथा रत्नोना आभूषणधी शरीरने सुशोभित करी, उत्तम चीनांशुक वस्त्रने पहेरी, उपर सुकुमाल रेशमी वस्त्रने ओढी, बधी ऋतुना सुगंधी पुष्पोथी पोताना केशने गुंथी, कपाळमा चंदन लगावी, उत्तम आभूषणथी शरीरने शणगारी, कालागरुना धूपवडे सुगंधित थइ, लक्ष्मीसमानवेशवाळी, यावत् अल्प अने बहुमूल्यवाळा आभरणोथी शरीरने अलंकृत करी, घणी कुब्ज दासीओ, चिलातदेशनी दासीओ, यावत् अनेक देश विदेशथी आवीने एकठी थयेली, पोताना देशना पहेरवेश जेवा वेशने धारण करनारी, इंगितवडे-आकृतिवडे-चिन्तित अने इष्ट अर्थने जाणनारी, कुशल अने विनयवाळी दासीओना परिवारसहित, तेमज पोताना देशनी दासीओ, खोजाओ, वृद्ध कंचुकिओ अने मान्य पुरुषोना वृन्द साथे ते देवानंदा पोताना अंतःपुरधी निकळे छे. निकळीने ज्यां बहारनी उपस्थान शाळा छे अने ज्यां धार्मिक यान प्रवर (श्रेष्ठ स्थ) उभो छे त्यां आवे छे. आवीने यावत् ते धार्मिक उत्तम रथ उपर चढे छे. त्यारवाद ते ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणीनी साथे धार्मिक अने श्रेष्ठ यान (रथ) उपर चढीने पोताना परिवारनी साथे ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरना मध्यभागमाथी निकळे छे. निकळीने जे स्थळे बहुशालक चैत्य छे त्यां आवे छे. त्या हियया ग-घ-ङ । २ सदावियत्ता ग-घ। वदासि क। ४ परिवि ग-घ-छ। ५-यल-जाव छ। तहत्ति भाणा--घ।.स. याओ छ। 6 -क्खमहत्ता छ। ९ फिते क, किंचि ग। १० हारविराइभ-ग। । खडुअ-ए-क, खडग छ। १२-गुरुधूव-ग-घ। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३. याहि, णाणादेस-विदेसपरिपिडियाहिं, सदेसनेवत्थगहियवेसाहि, इंगित-चिंतित-पत्थियवियाणियाहिं, कुसलाहि, विणीयाहि, चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-थेरकंचुइज-महत्तरगवंदपरिविखत्ता अंतेउराओ निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा । तए णं से उसमदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिखुडे माहणकुंडग्गाम नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ, पासित्ता धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पैचोरुहइ, पच्चोरुहित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति तं जहा-सञ्चित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, एवं जहा बितियसए, जाव तिविहाए पजुवासणयाए पजुवासति । तए णं सा देवाणंदा माहणी धम्मियाओजाणप्पवराओ पैच्चोरुति, ध०२ पच्चोरुहित्ता यहूहिं खुजाहिं, जाव महत्तरगवंदपरिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा-सचित्ताणं दधाणं विउसरणयाए, अच्चित्ताणं दवाणं अविमोयणयाए, विणयोणयाप गायलट्ठीए, चपखुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणस्स एगत्तीभावकरणेणं; जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्बुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदर, नमंसद, वंदित्ता नमंसित्ता उसभदत्तं माहणं पुरओ कटु ट्ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी, णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा जाव पजुवासई । ४. तए णं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया, पप्पुयलोयणा, संवरियवलयवाहा, कंचुयपरिखित्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीप देहमाणी देहमाणी चिट्ठति । ५. [प्र०] भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति, णमंसति, वंदित्ता, णमंसित्ता एवं वयासी-किं णं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया, तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी २ चिट्ठति ? [उ०] गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वैयासी-एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए. पाहणी तेणं पुष्वपुत्तसिणेहरागेणं आगयपण्या, जाव समूसवियरोमकूवा ममं अणिमिसाए दिट्टीए देहमाणी २ चिट्ठइ । तए णं समणे भगवं महावीरे उसमदत्तस्स माणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया। आवी तीर्थकरना छत्रादिक अतिशयोने जुए छे; जोईने धार्मिक श्रेष्ठ रथने उभो राखे छे. उभो राखी तेना उपरथी नीचे उतरे छे. उतरीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच प्रकारना अभिगमवडे जाय छे. ते आ प्रमाणे-'सचित्त द्रव्योनो त्याग करवो'-इत्यादि "बीजा शतकमां कह्या प्रमाणे यावत् त्रण प्रकारनी उपासनावडे उपासे छे. ते देवानंदा ब्राह्मणी पण धार्मिक यानप्रवरथी नीचे उतरे छे, उतरीने घणी कुब्जदासीओना यावत् मान्य पुरुषना समूहथी परिवृत थईने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच प्रकारना अभिगमवडे जाय छे. ते आ प्रमाणे-१ सचित्त द्रव्यनो (फलादिनो) स्याग करयो. २ अचित्त द्रव्यनो (आभरणादिनो) त्याग नहि करवो, ३ विनयथी शरीरने. अव. नत करवं, ४ भगवंतने चक्षुथी जोतां अंजलि करवी. अने ५ मननी एकाग्रता करवी. ए पांच अभिगम वडे ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. त्या आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करे छे. करीने वांदे छे, नमे छे. वांदी अने नमी ऋषभदत्त ब्राह्मणने आगळ करी पोताना परिवारसहित उभी रहीने शुश्रूषा करती, नमती अभिमुख रहीने विनयवडे हाथ जोडी यावत् उपासना करे छे, - . ४. त्यारबाद ते देवानंदा ब्राह्मणीने पानो चढ्यो-तेना स्तनमाथी दूधनी धारा छूटी, तेना लोचनो आनंदाश्रुथी भिनां थयां, तेनी हर्षथी एकदम फुलती भुजाओने तेना कडाओए रोकी, [हर्पथी शरीर प्रफुल्लित था ] तेनो कंचुक विस्तीर्ण थयो, मेघनी धाराधी विकसित थयेला कदंबपुष्पनी पेठे तेना रोमकूप उभां थया, अने ते श्रमण भगवंत महावीरने अनिमिष दृष्टिधी जोती जोती उभी रही... ५. [प्र०] त्यारे 'भगवन् ! एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. वांदीने-नमीने तेणे आ प्रमाणे देवानंदाना स्तनमाथी कद्यु-हे भगवन् ! आ देवानंदा ब्राह्मणीने पानो केम चढ्यो, अर्थात् तेना स्तनमाथी दूधनी धारा केम वछूटी इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् दूधनी धार केम छूटी? तेने रोमांच केम थयो ? अने देवानुप्रिय तरफ अनिमिष नजरे जोती जोती केम उभी छे? [उ०] हे गौतम!' एम कही श्रमण भगवान् महा वीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कयु-हे गीतम! ए प्रमाणे खरेखर आ देवानंदा ब्राह्मणी मारी माता छे, हुं देवानंदा ब्राह्मणीनो पुत्र छं.. माटे इमना मेवी दूधनी ते देवानंदा ब्राह्मणीने पूर्वना पुत्रस्नेहानुरागथी पानो चढ्यो, अने तेना रोमकूप उभा थया, अने मारी सामु अनिमिप नजरथी जोती उभी छे. धार छूटी. त्यारबाद श्रमण भगवान् महावीरे ऋषभदत्त ब्राह्मण, देवानंदा ब्राह्मणी अने अत्यंत मोटी ऋषि पर्षदने धर्म कह्यो. यावत् पर्षद पाछी गइ, कलंबपुष्फर्ग पिव छ। १ देसी हिंग-घ। २-याहि य चे-ग-घ। ३ छत्तातीए क। १-कभइ क। ५-मुही क। • -शुप्पिए कविनाऽन्यत्र । ८ पदासि क। ९-पण्डया का ३. * भग. सं. १श. २ उ, ५ पृ. २७९. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. तए णं से उसमदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ट-तुट्टे उट्ठाए उट्टेड, २ उदृत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं पदासी-पषमेयं भंते !, तहमेयं भंते ! जहा खंदओ, आव से जहेयं तुम्मे बदह त्ति कट्ट उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्ला-ऽलंकारं ओमुया, सय२ ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, २ करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, २ उपागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिपखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं, जाव नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते। लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं जहा संभो तहेव पक्षाओ, जाप सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्झइ, जाव यहूहिं चउत्थ-छ?-ट्ठम-दसम- जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहू पासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, २ पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए असाणं झूसेति, २ झूसित्ता सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदेति, २ छेदित्ता जस्सट्टाए कीरति नग्गभावो जाव तमटुं आराहेइ, २ आराहेत्ता जाव सधदुक्खप्पहीणे।। ७. तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ठा तुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिपखुत्तो आयाहिण-पयाहिणं, जाय नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते, तहमेयं भंते ! एवं जहा उसभदत्तो तहेल जाव धम्म आइक्खियं । तए णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माहणि सयमेव पचावेति, सयमेव पवावित्ता सयमेव अजचंदणाए अजाए सीसिणित्ताए दलयइ । तए णं सा अजचंदणा अंजादेवाणंदामाहणि सयमेव पवावेति, सयमेव मुंडावेति, सयमेव सेहावेति । एवं जहेव उसमदत्तो तहेव अजचंदणाए अजाए इमं एयारूवं धम्मियं च उवदेसं संमं संपडिवजह, तमाणाए तेहा गच्छइ, जाव संजमेणं संजमति । तए णं सा देवाणंदा अजा अजचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाश्याई पकारस अंगाई अहिज्झइ, सेसं तं चेव, जाव सचदुक्खप्पहीणा। ... ८. तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पंञ्चत्थिमेणं पत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नाम नयरे होत्था । वनओ । तत्थ णं वत्तियकुंडग्गामे नयरे जमाली नाम खत्तियकुमारे परिवसह, अड्डे, दित्ते, जाव अपरिभूते, उप्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं ६. त्यारपछी ते ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, हृदयमा धारण करी खुश थयो, तुष्ट थयो, अने तेणे उभा थइने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावत् नमस्कार करी आ प्रमाणे कद्यु-'हे भगवन् । ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे.'-इत्यादि *स्कंदक तापसना प्रकरणमा कह्या प्रमाणे यावत् 'जे तमे कहो छो ते एमज छे' एम कही ते [ऋषभदत्त ब्राह्मण ] ईशान दिशा तरफ जाय छे, त्यां जइने पोतानी मेळे आभरण, माला अने अलंकारने उतारे छे, उतारीने पोतानी मेळे पंचमुष्टिक लोच करे छे. लोच करीने ज्या श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे, आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमी तेणे आ प्रमाणे का के-'हे भगवन् ! जरा अने मरणथी आ लोक चोतरफ प्रज्वलित थयेलो छे, हे भगवन् ! आ लोक अत्यन्त प्रज्वलित थयेलो छे, हे भगवन् ! लोक चोतरफ अने अत्यन्त प्रज्वलित थयेलो छे.-ए प्रमाणे ए क्रमथी स्किंदकतापसनी पेठे तेणे प्रव्रज्या भषमदत्ते प्रज्या लीधी. लीधी, यावत् सामायिकादि अगीयार अंगोनुं अध्ययन करे छे, यावद् घणा उपवास, छड, अट्ठम अने दशम यावद् विचित्र तपकर्म वडे आत्माने भावित करतो ते घणा वरस सुधी साधुपणाना पर्यायने पाळे छे. पाळीने मासिकी संलेखनावडे आत्माने वासित करीने साठ भक्तोने अनशन करवावडे व्यतीत करीने जेने माटे नग्नभाव-निर्ग्रन्थपणानो खीकार को हतो, यावत् ते निर्वाणरूप अर्थने आराधे छे, ते अर्थने आराधी त्यार बाद यावत् सर्वदुःखथी मुक्त थाय छे. ७. हवे ते देवानंदा ब्राह्मणी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, हृदयमा अवधारी आनन्दित अने संतुष्ट थइ, अने पेवानंदानी प्रमज्या. श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमस्कार करी आ प्रमाणे बोली-'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे,'-ए प्रमाणे ऋषभदत्तनी जेम यावत् तेणे भगवंत कथित धर्म कह्यो. त्यारबाद श्रमण भगवान् महावीर पोते देवानंदा ब्राह्मणीने दीक्षा आपे छे, दीक्षा आपीने पोते आर्यचंदना नामे आर्याने शिष्यापणे सोंपे छे. त्यारबाद ते आर्यचंदना आर्या पोतेज ते देवानंदा ब्राह्मणीने दीक्षा आपे छे, स्वयमेव मुंडे छे, खयमेव शिक्षा आपे छे. ए प्रमाणे देवानंदा ऋषभदत्त ब्राह्मणनी पेठे आर्यचंदनाना आ आवा प्रकारना धार्मिक उपदेशने सम्यक् प्रकारे स्वीकार करे छे, अने तेनी आज्ञा प्रमाणे वर्ते छे, यावत् संयमवडे प्रवर्ते छे. त्यारपछी देवानंदा आर्या आर्यचंदना आर्यानी पासे सामायिकादि अगीयार अंगोगें अध्ययन करे छे. बाकीर्नु पूर्व प्रमाणे जाणवं, यावत् ते [ देवानंदा सर्वदुःखथी मुक्त थाय छे. ८. हवे ते ब्राह्मणकुंडग्राम नगरनी पश्चिम दिशाए ए स्थळे क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. ते क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरमा क्षत्रियकुंदमाम, जमालि नामनो क्षत्रियकुमार रहेतो हतो. ते आढ्य--धनिक, तेजखी अने यावद् जेनो पराभव न थइ शके एवो (समर्थ )हतो. ते पोताना जमालिनु वर्णन. ५ तह घ-ङ । ६ पक्ष १ कमेणं इमं ज-ग-ध। २ -हेत्ता तएण से ग-घ। ३ इह-तुहा ग-घ। ४ -णंदं मा- ग-घ। छिमेणं ङ। ६. • भग. सं. १ श..२.उ..१ पृ. २३८... भग, खं. १ श. २ उ. २ पृ. २३९-२४२. Jain Education international Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे " शतक ९. - उद्देशक ३३० सुरंगमत्यपदित्तीसतिदेहिं गाडहि माणाविद्ययरतरुणी संपतेहिं उचनचिजमाणे उपनचित्रमाणे, उवगिजमाणे उपजमाणे, उपलालिमाणे उचलालिज़माणे, पाउस वासारत सरद-देमंत पसंत गिम्हवंते छप्पि उऊ जदाचिभवेणं माणमाणे कालं गालेमाणे, रट्टे सह-फरिस रस-रूप-गंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोगे पचणुष्यमाणे विहरति । तप णं खचिकुंडग्गा नपरे सिंघाडगतिक-च-चघर जाय बहुजणसदे ६ वा जहा उपचाहए जाय एवं वेद एवं परुवे पर्व खलु देवाणुपिया ! समने भगवं महाचीरे आदिगरे, जावं सङ्घण्णू समदरिसी माहणकुंडम्गामस्स नगररस पहिया बहुसाल वेद अहापडिरुवं जाय विहरति । तं महष्फलं तु देवाशुप्पिया तहारुवाणं मेरहंताणं भगवंताणं जदा उपचार, जाव प्रणाभिमुद्दे खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्जयंमज्झेणं निगच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव माणकुंडग्णामे नयरे जेणेव बहुसालय चेइए, एवं जहा उववाइए, जाव तिविहाए पजुवासणयाए पैज्जुवासति । तए णं तस्स जंमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयं पयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - " किं णं अज खत्तियकुंडग्गामे नयरे 'इंदमहे इवा, खंदमद्दे इ वा, मुगुंदमहे ६ वा णागमहे इ वा, जक्खमद्दे ह वा, भूयमहे वा, कूवमद्दे इवा, तडागमहे इवा, नईमहे इ वा दद्दमहे इ वा पश्चयमदे इ वा, रुक्खमहे इ वा चेइयमहे इ वा धूभम इवा, जं पर यह उन्गा, भोगा, राना, इफ्सागा, माता, कोरक्षा, खत्तिया, खतियपुत्ता, भढा, भडपुत्ता, जहा उपपाइए, जाब सेत्थवादयमितयो व्हाया, कथवलिकम्मा जहा उपचारप, जाच निग्गच्छंति" एवं संपेद्देद एवं संपेहित्ता कंचुरजपुरिखं सहायेति ० २ सदावित्ता एवं पदासी-किंणं देवापिया! अज सत्तियकुंडग्णामे नवरे इंदमई इ वा जाय निम्गच्छति । तए णं से कंचुइजपुरिसे जैमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं बुत्ते समाणे हट्ठ-तुट्ठे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छर करयल- जमालि खत्तियकुमारं जपणं विजपणं वद्धावेद, वद्धावित्ता एवं वयासी - णो खलु देवाणुप्पिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदुमहे इ वा, जाव निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे जाव सङ्घण्णू, १६६ उत्तम प्रासाद उपर जेमां मृदंगो वागे छे एवा, अने अनेक प्रकारनी सुंदर युवतिओवडे भजवाता बत्रीश प्रकारना नाटकोवडे ( नृत्यने अनुसारे) हस्तपादादि अवयवोने नचावतो २, स्तुति करातो २, अत्यन्त खुश करातो २ प्रावृष्, वर्षा, शरद, हेमंत, वसंत, अने ग्रीष्म पर्यन्त ए ए ऋतु ओम पोताना वैभव प्रमाणे सुखनो अनुभव करतो २, समयने गाळतो, मनुष्यसंबन्धी पांच प्रकारना इष्ट शब्द, स्पर्श, बस, रूप अने गन्धरूप कामभोगोने अनुभवतो विहरे छे. त्यारबाद क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमा शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क अने चत्वरम यावत् धणा माणसोनो कोलाहल पतो हतो-इत्यादि "औपपातिक सूत्रमां कह्या प्रमाणे कहेनुं यावत् घर्णा माणसो परस्पर ए प्रमाणे जावे, यावत् प्रमाणे प्ररूपे छे के हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर तीर्थनी आदिना करनारा, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर आ ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरनी बहार बहुशाल नामना चैत्यमां यथायोग्य अवग्रहने प्रहण करी यावत् विहरे छे, तो है देवानुप्रियो ! तेवा प्रकारना अर्हत् भगवंतना नामगोत्रना श्रवणमात्रथी पण मोढुं फल थाय छे' – इत्यादि * औपपातिक सूत्रने अनुसारे वर्णन कर. यावत् ते जनसमूह एक दिशा तरफ जाय छे, अने क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरना मध्यभागमांथी बहार निकले छे, निकळीने यां ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर छे, अने ज्यां बहुशालक चैत्य छे त्यां आवे छे. ए प्रमाणे बधुं औपपातिक सूत्रने अनुसारे कहे, यावत् ऋण प्रकारनी पर्युपासना करे छे. यार पछी ते घणा मनुष्यना शब्दने यावत् जनना कोलाहलने सांभळीने अने अवधारीने क्षत्रियकुमार जमालिना मनमां आवा प्रकारनो आ विचार यावत् उत्पन्न थयो- 'शुं आजे क्षत्रियकुंडग्राम नगरमा इन्द्रनो उत्सव छे, स्कन्दनो उत्सव छे, वासुदेवनो उत्सव छे, नागनो उत्सव छे, यक्षनो उत्सव छे, यक्षनो उत्सव, भूतनो उत्सव छे, कूयानो उत्सव के तव्यायनो उत्सव से, नदीनो उत्सव छे, द्रनो उत्सव छे, पतनो उत्सव छे, वृक्षनो उत्सव छे, चैलनो उत्सव हे या स्तूपनो उत्सव है, के जेबी ए बधा उपकुलना, भोकुलना राजम्यकुलना, इक्ष्वाकुकुलना, शातकुलना अने कुरुवंशना क्षत्रियो, क्षत्रियपुत्र, भटो, अने भटपुत्रो, इत्यादि औपपातिकसूत्र अनुसारे कहे, यावत् सार्थवाह प्रमुख ज्ञान करी, बलिकर्म (पूजा) करी इत्यादि औपपातिकसूत्रमा वर्णन कर्या प्रमाणे यावत् बहार निकले एम विचार करे छे. विचार करीने जमालि कंचुकिने बोलावे छे, बोलावीने तेने आ प्रमाणे कां हे देवानुप्रिय ! आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमा इन्द्रनो उत्सव है के यावत् आ यथा नगर बहार निकले छे व्यारे ते जमालि नामना क्षत्रियकुमारे ते कंचुकि पुरुषने ए प्रमाणे कं त्यारे ते हर्षित अने संतुष्ट थयो, अने ते श्रमण भगवान् महावीरना आगमननो निश्चय करीने हाथ जोडी जमालि नामे क्षत्रिकुमारने जय अने विजय पडे बधावे छे. मधावीने तेणे आ प्रमाणे कतुं हि देवानुप्रिय ! आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरमा इन्द्रनो उत्सव छे - इत्यादि तेथी यावत् बधा नीकळे छे, एम नथी, पण हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी १ अरिहंताणं ग । २ निगच्छइ ङ । १ पजुवासइ ङ । - विणिच्छिए घ । ८ आगच्छति क ङ । औपपातिक. प. ५७-१. † औपपातिक प५७-२ औपपातिक प५९-२ औपपातिक. प. ५८-१, ८. ४ धूवम- क - ङ । ५ - भिए ग घ । प - णामेणं खङ । / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३. मेयं भंते !, तहमेयं भंते !, अवितहमेयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, जाव से जहेयं तुम्भे वदह, जनवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ. अणगारियं पंचयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। २१. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं धुत्ते समाणे हट्ठ-तुढे समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता तामेव चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेइ, दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरंट० जाव धरिजमाणे णं महयाभडचडगर-जाव परिक्खित्ते, जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मझमझेणं, जेणेव सए गेहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहाइ, रहाओ पश्चोरुहित्ता जेणेव अभितरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं बद्धावेद, जएणं २ वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्म-ताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते; से विय मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-धन्ने सिणे तुम जाया! कयत्थे सि णं तुम जाया!, कयपुग्ने सिणं तुम जाया!, कयलक्खणे सि णं तुम जाया! जणं तुमे समणरस भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुहए। १२. तए.णं से जमालिखत्तियकुमारे अम्मा-पियरो दोचं पि एवं.वयासी-एवं खलु मए अम्म-तातो! समणस्स भगपओ महावीरस्स अंतिए धम्मे ते, जाव अभिरुइए । तए णं अहं अम्म-ताओ ! संसारभउधिग्गे, भीते जम्म-जरामरणेणं, तं इच्छामि णं अम्म-ताओ! तुम्भेहिं अभणुनाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता भंगाराओ अणगारियं पचहत्तए । प्रवचन उपर रुचि करुं छु, अने हे भगवन् ! निग्रंथना प्रवचनानुसारे वर्तवाने तैयार थयो छु. वळी हे भगवन् ! जे तमे उपदेशों छो ते निम्रन्थ प्रवचन एम ज छे, हे भगवन् ! तेमज छे. हे भगवन् ! सत्य छे, हे भगवन् ! असंदिग्ध (निश्चित ) छे, परन्तु हे देवानुप्रिय ! मारा माता पितानी रजा मागीने हुँ आप देवानुप्रियनी पासे मुंड-दीक्षित थइ गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने स्वीकारवा इच्छु छु.' हे देवानुप्रिय ! जेम. सुख उपजे तेम करो, प्रतिबंध न करो.' ११. ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे जमालिने ए प्रमाणे का त्यारे ते प्रसन्न अने संतुष्ट थइ श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमस्कार करीने चारघंटावाळा अश्वरथ उपर चढे छे, चढीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने बहुशालक चैत्यथी नीकळे छे. नीकळीने माथे धराता यावत् कोरंटपुष्पनी मालावाळा छत्रसहित, मोटा सुभटोना समूहथी वीटायलो ते जमालि ज्यां क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगर छे त्यां आवे छे. आवीने क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरनी मध्यभागमा थइने जे स्थळे पोतानुं घर छे अने ज्यां बहारनी उपस्थानशाला छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने घोडाओने रोकीने रथने उभो राखे छे. उभो राखीने रथथी नीचे उतरे छे. उतरीने ज्या अंदरनी उपस्थानशाला छे, ज्यां माता-पिता (बेठा) छे त्यां आवे छे, आयीने माता-पिताने जय अने विजयथी वधावे छे. वधावीने ते जमालिए आ प्रमाणे कधु-हे माता पिता! ए प्रमाणे में श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्म सांभळ्यो छे, ते धर्म मने इष्ट छे, अत्यन्त इष्ट छे, अने तेमां मारी अभिरुचि थइ छे. त्यारपछी ते जमालि कुमारने तेना माता पिताए आ प्रमाणे कथु-पुत्र! तुं धन्य छे, हे पुत्र! तुं कृतार्थ छे, हे पुत्र! तुं कृतपुण्य छे अने हे पुत्र! तुं कृतलक्षण छे के जे तें श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्मने सांभळ्यो छे, अने ते धर्म तने प्रिय छे, अत्यन्त प्रिय छे अने तेमां तारी अभिरुचि थई छे.' जमालि. १२. पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारे बीजीवार पण पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कर्दा के-हे माता-पिता! ए प्रमाणे में श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्म सांभळ्यो छे, यावत् तेमां मारी अभिरुचि यइ छे. तेथी हे माता-पिता ! हुं संसारना भयपी उद्विग्न थयो छु, जन्म जरा अने मरणधी भय पाम्यो छ, तेथी हे माता-पिता! तमारी आज्ञाथी हुँ श्रमण भगवंत महावीरनी पासे दीक्षा लेइने, गृहवासनो त्याग करी, अनगारिकपणाने ग्रहण करवा इच्छु छं. अंतियं क।४-हतिते का ५-भय-ग-ङ। १ भागारा-ग-घ-छ। २ पध्वजामिक। • आगाराओ घ ङ। जम्मणमरणेणं फ-ग। . Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १३. तए पं.सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता तं अणिटुं, अकंतं, अप्पियं, अमणुन्नं, अमणाम, असुयपुवं गिर सोचा, निसम्म, सेयागयरोमकूवपगलंतविलीणगत्ता, सोगभरपवेवियंगमंगी, नित्तेया, दीण-विमणवयणा, करयलमलियध कमलमाला, तक्खणओलुग्गदुधलसरीरलायन्नसुन्ननिच्छाया, गयसिरीया, पसिढिलभूसण-पडतखुण्णियसंचुन्नियधवलवलय. पभट्टउत्तरिजा, मुच्छावसणटुचेतगरुई, सुकुमालविकिन्नकेसहत्था, परसुणिकत्त व चंपगलया, निवत्तमहे व इंदलट्री, विमु संधिबंधणा कोट्टिमतलंसि धसत्ति सवंगेहिं संनिवडिया । तएं णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया संसंभमोवत्तियाए तुरियं कंचभिंगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारपंरिसिच्चमाणनिवावियगायलट्ठी, उक्खेवय-तालियंट-वीयणगजणियवापणं, संफसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी, रोयमाणी, कंदमाणी, सोयमाणी, विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमार एवं वयासी-तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इट्टे, कंते, पिए, मणुन्ने, मणामे, थेजे, वेसासिए, संमते, बहुमए, अणुमए भंडकरंडगसमाणे, रयणे रयणब्भूए, जीविऊसविये, हिययनंदिजणणे, उंबरपुप्फमिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! पुण पासप्रयाए, तं नो खलु जाया! अम्हे इच्छामो तुम्भं खणमवि विप्पयोगं, तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये, वढियकुलवंसतंतुकजम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि।। १४. तए णं जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म-ताओ! ज णं तुब्भे मम एवं वदह, तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते चेव, जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्म-ताओ! माणुस्सए भवे अणेगजाइजरा-मरण-रोग-सारीर-माणसपकामदुक्ख-वेयण-वसणसतोवद्दवाभिभूए, अधुए, अणितिए, असासए, संज्झब्मरागसरिसे, जलवुब्बुदसमाणे, कुसग्गजलविंदुसन्निभे, सुविणगर्दसणोवमे, विजुलयाचंचले, अणिञ्चे, सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे, पुच्विं वा पच्छा वा अवस्स विप्पजहियाचे भविस्सइ से केस णं जाणइ अम्मताओ! के पुष्विं गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्म-ताओ! तुब्भेहि अब्भणुनाए समाणे समणस्स जाव- पचहत्तए । १३. त्यारबाद जमालि क्षत्रियकुमारनी माता अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ, मनने न गमे तेवी अने पूर्वे नहीं सांभळेली बमालिनी मातानी एवी वाणीने सांभळी अने अवधारीने रोमकूपथी झरता परसेवाथी भीना शरीरवाळी थइ, शोकना भारथी तेनां अंगो अंग कंपवा लाग्यां, ते अवस्था निस्तेज थई, तेनुं मुख दीन अने शोकातुर थयु, करतलवडे चोळायेली कमलमालानी पेठे तेनुं शरीर तत्काळ ग्लान अने दुर्बल थयु. ते लावण्यशून्य, प्रभारहित अने शोभाविनानी थइ गइ. तेना आभूषणो ढीलां थइ गयां, अने तेथी तेना निर्मल वलयो पडी गयां अने भांगीने चूर्ण थइ गया. तेनु उत्तरीय वस्त्र शरीर उपरथी सरी गयु, अने मूर्छावडे तेनुं चैतन्य नष्ट थयु होवाथी ते भारे शरीरवाळी थइ गई. तेनो सुकुमाल केशपाश विखराइ गयो. कुहाडीना घाथी छेदाएली चंपकलतानी पेठे अने उत्सव पूरो थता इन्द्रध्वजदंडनी जेम तेना संधिबंधनो शिथिल थइ गयां, अने ते फरसबंधी उपर सर्व अंगोवडे 'धस्' दइने नीचे पडी गइ. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी माताना शरीरने [दासीवडे] व्याकुलचित्ते त्वराथी ढळाता सोनाना कलशना मुखथी नीकळेली शीतल अने निर्मल जलधाराना सिंचनवडे खस्थ कयु, अने ते उत्क्षेपक (वांसना बनेला ), तालवृंत (ताडना पांदडाना बनेला) पंखा अने वीजणाना जलबिन्दुसहित पवनवडे अंत:पुरना माणसोथी आश्वासनने प्राप्त थइ. रोती, आक्रंदन करती, शोक करती अने विलाप करती ते जमालि क्षत्रियकुमारनी माता ए प्रमाणे कहेवा लागी-हे जात ! तुं अमारे इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मन गमतो, आधारभूत, विश्वासपात्र, संमत, बहुमत, अनुमत, आभरणनी पेटी जेवो, रत्नस्वरूप, रत्नना जेवो, जीवितना उत्सव समान अने हृदयने आनंदजनक एकज पुत्र छो. वळी उंबराना पुष्पनी पेठे तारा नामर्नु श्रवण पण दुर्लभ छे, तो तारं दर्शन दुर्लभ होय एमां शुं कहे ? माटे हे पुत्र ? खरेखर अमे तारो एक क्षण पण वियोग इच्छता नथी. तेथी हे पुत्र ! ज्यां सुधी अमे जीवीए छीए त्यांसुधी तुं रहे. अने अमे कालगत थया पछी वृद्धावस्थामा कुलवंशतन्तुनी वृद्धि करीने निरपेक्ष एवो तुं श्रमण भगवंत महावीरनी पासे दीक्षा ग्रहण करी गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने स्वीकारजे.' ....१४. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कर्दा के-“हे माता-पिता! हमणां मने जे तमे ए प्रमाणे कर्दा के-हे पुत्र! तुं अमारे इष्ट तथा कांत एक पुत्र छो-इत्यादि यावत् अमारा कालगत थया पछी तुं प्रव्रज्या लेजे." पण हे माता -पिता ! ए प्रमाणे खरेखर आ मनुष्यभव अनेक जन्म, जरा, मरण अने रोगरूप शारीर अने मानसिक दुःखोनी अत्यन्त वेदनाथी अने सेंकडो व्यसनोथी पीडित, अध्रुव, अनित्य, अने अशाश्वत छे, तेम संध्याना रंग जेबो, पाणीना परपोटा जेवो, डाभनी अणी उपर रहेला जलबिन्दु जेवो, खमदर्शनना समान, विजळीनी पेठे चंचळ अने अनित्य छे. सडवू, पडवू अने नाश पामवो ए तेनो धर्म छे. पहेलां के पछी तेनो अवश्य त्याग करवानो छे; तो हे माता-पिता ! ते. कोण जाणे छे के-कोण पूर्वे जशे, अने कोण पछी जशे ? माटे हे मातापिता ! हुं तमारी अनुमतिथी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करवाने इच्छु छु. नियत्त ध्व-ग-घ-ङ। २-मोयत्तियाए ग-घ-ङ। ३-परिसिंचमाण-ग। ४ जीषियउस्सविए ङ। ५ हिययानंदि-घ, हियनंदिछ। ५ पुप्फ पिव क-ङ। ७-णयवओ क-छ। ८ अम्हे क। २२ भ. सू. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३. १५. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमं च ते जाया! सरीरगं पंविसिटुरुव-लक्षणबंजणगुणोववेयं, उत्तमबल-वीरीय-सत्तजुत्तं, विण्णाणवियक्खणं, संसोहागुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खम, विविवाहित रोगरहियं, निरुवय-उदत्त-लटुं, पंचिंदियपडुपढमजोधणत्थं, अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाया! नियगसरीररूव-सोहग्ग-जोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूय नियंगसरीररूव-सोहग्गजोधणगुणे अम्हेहिं कालगएहि समाणेहि परिणयवये, वद्वियकुलवंसतंतुकजम्मि निरवयवखे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि। १६. तए णं से जमाली स्वत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं व्यासी-तहा विणं तं अम्म-याओ! जं गं तुम्भे ममं एवं 'वदह-इमं च णं ते जाया! सरीरगं तं चेव जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं, विविहवाहिसयसंनिकेतं, अट्ठियकट्ठट्ठियं, छिरा-पहारुजालओणद्धसंपिणद्धं, मट्टियभंडं व दुबलं, असुइसंकिलिटुं, अणिट्ठवियसवकालसंठप्पयं, जराकुणिम-जन्जरघरं व सडण-पडण-विद्धसणधम्मं, पुश्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियचं भविस्सर; से के सणं जाणति अम्मयाओ! के पुषिं तं चेव जाव पवइत्तए। १७. तए गं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरोएवं वयासी-इमाओ य ते जाया! विपुलकुलबालियाओ सरिसियाओ, सरित्तयाओ, सरिचयाओ, सरिसलावन्न-रूव-जोधणगुणोववेयाओ, सरिसरहिंतो कुलेहितो आणिपल्लियाओ कलाकुसल-सवकाललालिय-सुहोचियाओ, मद्दवगुणजुत्त-निउणविणओवयारपंडिय-वियवखणाओ, मंजुल-मिय-महुरभणियविहसिय-विप्पेक्खियगति-विलास-चिट्ठियविसारदाओ, अविकलकुल-सीलसालिणीओ, विसुद्धकुल-वंससंताणतंतुवद्धणप्पगन्भवयभाविणीओ, मणाणुकूल-हियइच्छियाओ, अट्ट तुज्झ गुणवल्लहाओ, उत्तमाओ, निचं भावाणुरत्तसधंगसुंदरीओ भारियाओ, तं भुंजाहि ताव जाया ! एताहिं सद्धि विउले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी, विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हहिं कालगएहिं जाव पवइहिसि । माननीता १५. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता पिताए आ प्रमाणे कर्यु के-“हे पुत्र ! आ तारं शरीर उत्तम रूप, लक्षण, व्यंजन (मस, तल वगेरे) अने गुणोथी युक्त छे, उत्तम बल, वीर्य अने सत्त्वसहित छे, विज्ञानमा विचक्षण छे, सौभाग्य गुणथी उन्नत छे, कुलीन छे, अत्यन्त समर्थ छे, अनेक प्रकारना व्याधि अने रोगथी रहित छे, निरुपहत, उदात्त, अने मनोहर छे, पटु (चतुर) एवी पांच इन्द्रियोथी युक्त अने उगती युवावस्थाने प्राप्त थयेलं छे, अने ए शिवाय बीजा अनेक उत्तम गुणोथी भरपूर छे. माटे हे पुत्र ! ज्यां सुधी तारा पोताना शरीरमा रूप, सौभाग्य तथा यौवनादि गुणो छे त्यांसुधी तेनो तुं अनुभव कर, अने अनुभव करी अमो कालगत थया पछी वृद्धावस्थामा कुलवंशरूप तन्तुनी वृद्धि करीने निरपेक्ष एवो तुं श्रमण भगवान् महावीर पासे दीक्षा लइने गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने स्वीकारजे. १६. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने ए प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता! ते बरोबर छे, पण जे तमे मने ए प्रमाणे कर्दा के'हे पुत्र! आ तारुं शरीर [ उत्तमरूप, लक्षण व्यंजन अने गुणोथी युक्त छे] इत्यादि यावत् [ अमारा कालगत थया पछी ] तुं दीक्षा लेजे.' पण ए रीते तो हे माता--पिता ! खरेखर आ मनुष्यनुं शरीर दुःखनुं घर छे, अनेक प्रकारना सेंकडो व्याधिओर्नु स्थान छे, अस्थिरूप लाकडानुं बनेलं छे, नाडीओ अने स्नायुना समूहथी अत्यन्त विटाएल छे, माटीना वासणनी पेठे दुर्बल छे, अशुचिथी भरपूर छे, जेनुं शुश्रूषा कार्य हमेशा चालु छे. जीर्ण मृतक अने जीर्ण घरनी पेठे सडवू, पडवू अने नाश पामवो-ए तेना सहज धर्मो छे. बळी ए शरीर पहेला के पछी अवश्य छोडवानुं छे. तो हे माता-पिता! ते कोण जाणे छे के कोण पहेलां [जशे अने कोण पछी जशे.! ] इत्यादि. बमालि. माता-पिता १७. त्यारपछी तेना माता-पिताए ते जमालि क्षत्रियकुमारने आ प्रमाणे कधू के-'हे पुत्र! आ तारे आठ स्त्रीओ छे, ते विशाल कुलमा उत्पन्न थयेली अने बाळाओ छे, ते समान त्वचावाळी, समान उमरवाळी, समान लावण्य, रूप अने यौवनगुणथी युक्त छे; वळी ते समान कुलथी आणेली, कलामां कुशल, सर्वकाल लालित अने सुखने योग्य छे; ते मार्दवगुणथी युक्त, निपुण, विनयोपचारमा पंडित अने विचक्षण छे; सुंदर मित, अने मधुर बोलवामा, तेमज हास्य, विप्रेक्षित, (कटाक्ष दृष्टि ), गति, विलास अने स्थितिमा विशारद छे; उत्तम कुल अने शीलथी सुशोभित छे विशुद्ध कुलरूप वंशतंतुनी वृद्धि करवामां समर्थ यौवनवाळी छे: मनने अनुकूल अने हृदय वळी गुणो वडे प्रिय अने उत्तम छे, तेमज हमेशा भावमा अनुरक्त अने सर्व अंगमां सुंदर छे. माटे हे पुत्र! तुं ए स्त्रीओ साथे मनुष्यसंबन्धी विशाल कामभोगोने भोगव अने त्यार पछी भुक्तभोगी थइ विषयनी उत्सुकता दूर थाय त्यारे अमारा कालगत थया पछी यावत् तुं दीक्षा लेजे.' १.पतिविसिह-क। २ ससोभन्ग-क-ङ। ३-समूसियं क । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७१ १८. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं घयासी-तहा वि णं तं अम्म-याओ! गं तुम्मे मम एवं यह-इमाओ ते जाया! विपुलकुल- जाव पवाहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई, असासया, चंतासवा, पित्तासवा, खेलासवा, सुकासवा, सोणियासवा, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-पूय-सुक्क-सोणियसमुभवा, अमणुनदुरूव-मुत्त-पूइय-पुरिसपुन्ना, मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासउष्वेयणगा, बीभत्था, अप्पकालिया, लहूसगा, कलमलाहियासदुक्खबहुजणसाहारणा, परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा, अबुहजणणिसेविया, सदा साहुगरहणिजा, अणंतसंसारवद्धणा, कडुगफलविवागा चुडल्लिष्ठ अमुच्चमाणदुक्खाणुबंधिणो, सिद्धिगमणविग्या; से के सणं जाणइ अम्म-याओ! के पुचि गमणयाए के पच्छा ? तं इच्छामि णं अम्म-याओ! जाव पश्चात्तए । १९. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमे य ते जाया! अजय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरन्ने य, सुवन्ने य, कंसे य, दूसे य, विउलधण-कणग- जाव संतसारसावएजे, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलघंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए इद्वि-सकारसमुदए, तो पच्छा अणुहूयकल्लाणे, वड्डियकुलवंस- जाव पवइहिसि । २०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म-याओ! जणं तुम्भे ममं एवं वदह-इमं च ते जाया! अजग-पजग- जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! हिरने य, सुवन्ने य, जाव सावएज्ये अग्गिसाहिए, चोरसाहिए, रायसाहिए, मञ्चसाहिए, दाइयसाहिए, अग्गिसामने जाव दाइयसामन्ने, अधुवे, अणितिए, असासए, पुष्विं वा पच्छा वा अवस्स विप्पजहियो भविस्सइ, से केस णं जाणइ तं चेव जाव पवइत्तए। ___२१. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्म-याओ जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य, पन्नवणाहि य, सन्नवणाहि य, विनवणाहि य आघवेत्तए वा, पनवेत्तए वा, सन्नवेत्तए वा, विनवेत्तए वा, ताहे विसयपडिकूलाहिं १८. त्यारपछी ते जमालि नामे क्षत्रियकुमारे पोताना माता पिताने आ प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता! हमणा तमे जे मने कह्यु नमालि. के-हे पुत्र ! तारे विशाल कुलमा [ उत्पन्न थयेली आ आठ स्त्रीओ छे ]-इत्यादि यावत् तुं दीक्षा लेजे, ते ठीक छे. पण हे माता-पिता ! ए प्रमाणे खरेखर मनुष्यसंबन्धी कामभोगो अशुचि अने अशाश्वत छे; वात, पित्त, श्लेष्म, वीर्य अने लोहीने झरवावाळा छे; विष्ठा, मूत्र, मनुष्पसबन्धी श्लेष्म, नासिकानो मेल, वमन, पित्त, परु, शुक्र अने शोणितथी उत्पन्न थयेलां छे; वळी ते अमनोज्ञ, खराब मूत्र अने दुर्गन्धी विष्ठाथी भर- कामभागी कामभोगो मशुचि भने मशाश्वत के पुर छे; मृतकना जेवी गंधवाळा उच्छासथी अने अशुभ निःश्वासथी उद्वेगने उत्पन्न करे छे, बीभत्स, अल्पकाळस्थायी, हलका, अने कलमल-(शरीरमा रहेल एक प्रकारना अशुभ द्रव्य )ना स्थानरूप होवाथी दुःखरूप अने सर्व मनुष्योने साधारण छे; शारीरिक अने मानसिक अत्यंत दुःखवडे साध्य छ; अज्ञान जनथी सेवाएला छे; साधु पुरुषोथी हमेशां निंदनीय छ; अनंत संसारनी वृद्धि करनारा छे, परिणामे कटुकफळवाळा छे, बळता घासना पूळानी पेठे न मुकी शकाय तेवा दुःखानुबंधी अने मोक्षमार्गमां विघ्नरूप छे. वळी हे माता-पिता ! ते कोण जाणे छे के कोण पहेलां जशे अने कोण पछी जशे ? माटे हे माता-पिता ! हुं यावद् दीक्षा लेवाने इच्छं छु.' १९. त्यारपछी ते जमालि नामे क्षत्रियकुमारने तेना माता-पिताए आ प्रमाणे कयु के हे पुत्र ! आ अर्या (पितामह ), पर्या मात-पिता, (प्रपितामह ) अने पिताना पर्या-(प्रपितामह-) थकी आवेलं घणुं हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र, विपुल धन, कनक यावत् सारभूत हिरण्यादिनो उपद्रव्य विद्यमान छे, अने ते तारे सात पेढी सुधी पुष्कळ दान देवाने पुष्कळ भोगववाने अने वहेंचवा माटे पूरतुं छे. माटे हे पुत्र! मनुष्य- भोग कर संबन्धी विपुल ऋद्धि अने सन्मानने भोगव, अने त्यारपछी सुखनो अनुभव करी, अने कुलवंशने वधारी यावत् तुं दीक्षा लेजे.' २०. त्यारबाद जमालि नामे क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता ! तमे जे ए प्रमाणे कर्यु नमालि. के, 'हे पुत्र! आ हिरण्यादि द्रव्य तारा पितामह अने प्रपितामहथी यावत् आवेलुं छे, इत्यादि यावत् तुं दीक्षा लेजे. ए ठीक छ, पण हे माता-पिता ! ए प्रमाणे खरेखर ते हिरण्य, सुवर्ण, यावत् सर्व सारभूत द्रव्य अग्निने साधारण छे, चोरने साधारण छे, राजाने साधारण हिरण्यादि भनि य भने भशापाठे. छे, मृत्युने साधारण छे, दायाद (भायात) ने साधारण छे, अग्निने सामान्य छे, यावद् दायादने सामान्य छे. वळी ते अध्रुव, अनित्य, अने अशाश्वत छे. पहेलां के पछी ते अवश्य छोडवानुं छे, तो कोण जाणे छे के पहेला कोण जशे अने पछी कोण जशे ? इत्यादि यावत् हुं प्रव्रज्या लेवाने इच्छं छु.' २१. ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता पिता विषयने अनुकूल एवी घणी उक्तिओ, प्रज्ञप्तिओ, संज्ञप्तिओ अने विज्ञप्तिओथी मात-पिताकहेवाने, जणाववाने, समजाववाने, विनववाने समर्थ न थया त्यारे तेओए विषयने प्रतिकूल, अने संयमने विषे भय अने उद्वेग करनारी -सयका-ग,-स्सया ङ। २ भालाहि ग। . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्धन्य प्रवचन से. पंगालि १७२ श्रीरायचन्द्र - जि नागमसंग्रहे शतक ९. - उदेशक ३० 1 संजमभ्युदेवणकरादिं पद्मपणादि पद्मयेमाया एवं बयासी एवं खलु जाया ! णिगंये पावयणे सधे, अणुत्तरे, केवले जा श्रावस्सए, जाव सच्चदुक्खाणं अंतं करेति । अहीव एतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयद्या, वालुयाकवले श्व निस्साए गंगा वा महानदी पडिसोयगमणयाए, मेहासमुद्दो वा भुयाहिं दुत्तरो तिक्खं कमियां, गरुयं लंबेयचं, अलिधारणं वतं चरियवं । नो खलु कप्पर जाया ! समणाणं निग्गंथाणं अहाकम्मिए ६ वा, उद्देसिए इ वा, मिस्सजाए ६ वा, झोवर इवा, पूरपद या कीते इ वा पामिथे हवा, अछेजे इवा, अणिसट्टे इया, अभिदडे इवा, कंतारभत्ते पा दुमिखभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा वद्दलियाभत्ते इ वा, पाहुणगसन्ते द्द वा, सेजायरपिंडे द्द वा, रायपिंडे ह वा, मूलभोयणे इवा, कंदभोयणे इवा, फलभोयणे इ वा, बीयभोयणे इवा, हरियभोयणे इ वा भुत्तर वा पायए वा । तुमं सि च णं जाया ! सुदसमुचिए, णो चेवणं समुचिर नाएं सीयं, ना उण्हं, नालं खुडा, नालं पिवासा, ना चोरा ना वाला, ना इंसा, नालं मसगा, नालं वाइय- पित्तिय-सेंभिय- सन्निवाइए विविहरोगायंके, परिस्सहोवसग्गे उदिन्ने अहियासेत्तप । तं नो खलु जाया । अम्दे उच्छामो तुम्भं चणमपि विप्पयोगं तं मच्छाहि ताव जाया ! जव ताव अम्बे जीवामो तभो पच्छा अम्हेडा पहिसि। । ,, २२. तरणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा- पियरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्म-याओ ! जं णं तुम्भे ममं एवं वदह, एवं खलु जाया ! निमांधे पावयणे सधे, अणुत्तरे, केवले तं चैव जाय पवइहिसि एवं खलु अम्मयाओ ! निमगंधे पावणे कीवाणं, कायराणं, कापुरिसाणं, इहलोगपडिबद्धाणं, परलोगपरंमुहाणं, विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणस्स धीरस्स, निच्छियरस, बयसियरस नो खलु पत्यं किंचि वि डुकरं करणयार, तं इच्छामि णं अम्मयानो तुम्मेहिं अम्भणु एवी उक्तिओथी समजावता आ प्रमाणे कां के 'हे पुत्र ! ए प्रमाणे खरेखर निर्मथ प्रवचन सत्य अनुत्तर अने अद्वितीय छे. इत्यादि "आवश्यक सूत्रमां का प्रमाणे यावत् ते सर्व दुःखोनो नाश करनारुं छे. परन्तु ते सर्पनी पेठे एकांत निश्चितदृष्टिवा, अनानी पेठे एकांत धारवाळु, लोढाना जवने चाववानी पेठे दुष्कर, अने वेळुना कोळीयानी पेठे निःखाद छे, वळी ते गंगा नदीना सामे प्रवाहे जवानी पेठे, अने बे हाथथी समुद्र तरवाना जेवुं ते प्रवचननुं अनुपालन मुश्केल छे. तीक्ष्ण खड्गादि उपर चालवाना जेवुं [दुष्कर] छे, मोटी शिवाने उचकता बरोबर छे अने तस्यारनी धारा समान मतनुं आचरण करवानुं छे. हे पुत्र ! श्रमण नियोने + १ आधाकर्मिक, २ औदेशिक, ३ मिश्रजात, ४ अध्यवपूरक, ५ पूतिकृत, ६ क्रीत, ७ प्रामित्य, ८ अच्छेद्य, ९ अनिःसृष्ट, १० अभ्याहत ११ कांतारभक्त, १२ दुर्भिक्षभक्त, १३ ग्लानभक्त, १४ पालिका, १५ प्रापूर्णकमक, १६ शय्यातरपिंड भने १७ राजपिंट, तेमज मूलनुं भोजन, कंदनुं भोजन, फलनुं भोजन, बीजनुं भोजन अने हरित - ( लीलीबनस्पति ) नुं भोजन खावुं के पीवुं कल्पतुं नथी. बळी हे पुत्र सुखने योग्य हो पण दुःखने योग्य नथी. तेमज टाढ, तडका, भुख, तरश, चोर, आपद, डांस अने मच्छरना उपयोने, तथा वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक भने संनिपातजन्य विविध प्रकारना रोगो अने तेना दुःखोने, तेमज परीषह अने उपसर्गोने सहवाने तुं समर्थ नथी. माटे हे पुत्र ! अमे तारो वियोग एक क्षण पण इच्छता नथी; तेथी ज्यांसुधी अमे जीविए त्यांसुधी तुं रहे अने अमारा कालगत थया पछी यावत् तुं दीक्षा लेजे'. २२. मारपछी से जमालिनामे क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कंं के माता-पिता ! तमे मने जे ए प्रमाणे कह्युं के — हे पुत्र ! निर्बंथप्रवचन सत्य अनुत्तर अने अद्वीतीय छे - इत्यादि यावत् अमारा कालगत थया पछी तुं दीक्षा लेजे. ते ठीक छे, पण हे मात-पिता ए प्रमाणे खरेसर निर्मन्थ प्रवचन श्रीब-मन्दशक्ति माळा, कायर अने इलका पुरुषोने, तथा आ लोकमां आसक परलोकधी परामुख एवा विषयनी तृष्णावाव्य सामान्य पुरुषोने ( तेनुं अनुपालन ) दुष्कर छे; पण धीर, निश्चित अने प्रयावान् पुरुषने तेनुं अनुपालन जरा पण दुष्कर नथी. माटे हे माता-पिता ! हुं तमारी अनुमतिथी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे याबद् दीक्षा लेवाने १ समुद्दे इ वा ग, समुद्दे वाघ, समुद्दो ब्व ङ । २ मिस्साजा-ङ । ३ उज्जोयरपु ग घ ङ । ४ तुमं च णं ग घ । ५ जाव: म छ । ६ अम्हेहिं काळगएहिं -ङ । २१. पाश्रयणं सर्व, मधुसरे, केवायं पडिवु नेआवड, सहगर्ग, सिद्धिमर्ग इति निवाण निव्यान वित, अविसंधि, सब्वदुक्खप्पहीणमग्गं । इत्थं ठिआ जीवा सिज्ांति, बुज्नंति, मुम्वंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेति” । 2 आवश्यक प्रतिक्रमण सूत्र - १०-११.) * अर्थ- आज निर्मन्थप्रवचन सत्य, अनुपम, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, शुद्ध, शस्यने कापनार, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग, धने निर्वाणमार्गरूप छे तेमज ते असत्यरहित, निरन्तर भने सर्वदुःखना नाशनुं कारण छे. तेनामां तत्पर थयेला जीवो सिद्ध थाय छे, बुद्ध धाम छे, शुक्क थाय छे, निर्वाणने प्राप्त थाय छे अने सर्वदुःखोनो नाश करे छे. + सामुने बिना बेटीदोष होय . सोळ उद्गमदोष, सो मांना 'कार्मिक अभ्भीना दूध दो उत्पादनादोष भने दश एषपादोष तेमां आपाकर्मकादिसद सारीद्वारा ५६५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पाए समाणे. समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पच्चइत्तए। तए तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य, पन्नवणाहि य आघवित्तए वा, जाव विनवित्तफ वा, ताहे अकामाई चेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स निक्खमणं अणुमन्नित्था। २३. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेद, सहावित्ता एवं वयाली-खिप्पामेव मो देवाणुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सम्भितरबाहिरियं आसिय-संमजि-ओवलितं जहा उववाइए, जाव पञ्चप्पिणंति । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवागुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं, महग्धं, महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव पञ्चप्पिणंति । तप णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहं निसीयावेंति, निसीयावेत्ता अटुसपणं सोवणियाणं कलसाणं, एवं जहा रायप्पसेणइजे, जाव अँटुसपणं भोमेज्जाणं कलसाणं सविडिए जाव महया रवेणं महया महया निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचंति ।। २४. म० २ अभिसिंचित्ता करयल- जाव जएणं विजएणं वद्धावेंति, ज० २ वद्धावित्ता एवं वयासी-भण जाया! किं देमो, किं पयच्छामो, किणा वा ते अट्ठो ? तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-इच्छामि णं अम्मयाओ! कुत्तियावणाओ रयहरणं चे पडिग्गहं च आणि कासवगं च सदाविउं । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिता कोडंबियपुरिसे सहावेइ, को० २ सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिनि सयसहस्साई गहाय दोहिं सयसहस्सेणं कुत्तियावणाओ रयहरणं चे पडिग्गहं च आणेह, सयसहस्सेणं कासवगं सद्दावेह । तए णं ते कोडंचियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा हे?-तुट्ठ- करयल- जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सिरिघराओ तिनि सयंसहस्साई, तहेव जाव कासवगं सहावेंति । तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे 'टे तुढे पहाए कयवलिकम्मे जाव सरीरे, जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेष इच्छु छ. ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता-पिता विषयने अनुकूल तथा विषयने प्रतिकूल एवी घणी उक्तिओ, प्रज्ञप्तिओ, संज्ञप्तिओ अने विनतिओथी कहेवाने यावत् समजावयाने शक्तिमान् न थया त्यारे वगर इच्छाए तेओए जमालि क्षत्रियकुमारने दीक्षा दीक्षानुमति. लेंबानी अनुमति आपी. २३. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषोने बोलाव्या. अने बोलावीने एम कर्दा के–'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र जमालिनी दीक्षा आ क्षत्रियकुंडग्राम नगरनी बहार अने अंदर पाणीथी छंटकाव करावो, वाळीने साफ करावो, अने लींपावो'-इत्यादि जेम* औपपातिक सूत्रमा का छे तेम करीने यावत् ते कौटुंबिक पुरुषो आज्ञा पाछी आपे छे. त्यारबाद फरीने पण जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषोने बोलाव्या, अने बोलावीने आ प्रमाणे कडं के–'हे देवानुप्रियो ! जलदी जमालि क्षत्रियकुमारनो महार्थ, महामूल्य, महापूज्य अने मोटो दीक्षानो अभिषेक तैयार करो.' त्यारबाद ते कौटुंबिक पुरुषो कह्या प्रमाणे करीने आज्ञा पाछी आपे छे. त्यारबाद जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता-पिता उत्तम सिंहासनमा पूर्व दिशा सन्मुख बेसारे छे, अने बेसारीने एकसो आठ सोनाना कलशोथी-इत्यादि रािजप्रश्नीयसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् एकसोने आठ माटीना कलशोथी सर्व ऋद्विवडे यावद् मोटा शब्दवडे मोटा २ निष्कमणाभिषेकथी तेनो अभिषेक करे छे. २४. अभिषेक कर्या बाद ते जमालि क्षत्रियकुमारना माता-पिता हाथ जोडी यावत् तेने जय अने विजयथी वधावे छे. वधावीने तेओए आ प्रमाणे कर्दा के'हे पुत्र! तुं कहे के तने अमे शुं दइए, शुं आपीए, अथवा तारे काइ प्रयोजन छे? त्यारे ते जमालि क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कयु के-हे माता-पिता! हुं कुत्रिकापणथी एक रजोहरण अने एक पात्र मंगाववा तथा एक हजामने बोलाववा इच्छं छं. त्यारे ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषोने बोलाव्या अने बोलावीने कह्यु के-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र आपणा खजानामाथी त्रण लाख (सोनैया) ने लइने तेमांथी वे लाख (सोनैया) वडे कुत्रिकापणथी एक रजोहरण अने एक पात्र लावो, तथा एक लाख सोनैया आपीने एक हजामने बोलावो. ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए ते कौटुंबिक पुरुषोने ए प्रमाणे आज्ञा करी सारे तेओ खुश थया, तुष्ट थया, अने हाथ जोडीने यावत् पोताना स्वामीनु वचन स्वीकारीने तुरतज खजानामांथी त्रण लाख सुवर्णमुद्रा लइने यावत् हजामने बोलावे छे, त्यारबाद जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषो द्वारा बोलावेलो ते हजाम खुश थयो, तुष्ट थयो, यहूहिं य आ-ग-छ। २भकामए चे-ग। ३ भट्ठसयाणं ङ। ४-सिंचह ग-घ। ५ वा क। -वाक। ७-गुप्पिये। वुत्ते समाणे ङ। ९-तुहा घ। १० हतुढे क। २३. * औपपातिक. प. ६१-२. राजप्रश्नीय प. १००-१.५८.. २४. 1 कु-पृथिवी, त्रिक-त्रण, आपण-हाट; वर्ग, मृत्यु अने पातालरूप त्रण लोकमा रहेली वस्तुने मळवाना स्थान-हाटने कुत्रिकापणं कहे है-टीका. . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक ९. - उद्देशक ३३०. उचागच्छति, उवागच्छित्ता करयल- जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जपणं विजपणं वद्धावे; ज० २ वद्धावित्ता एवं. वयासी - संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिजं ? तप णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवर्ग एवं वयासी - तुमं देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे 'निक्खमणपाओग्गे अग्गकेसे कंप्पेहि । तए जं से कासवे जमालिस खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं बुत्ते समाणे हट्ट तुट्ठ- करयल- जाव एवं सामी ! तेहत्ताणाए विणणं वयणं पडिसुणे, पडिसुणित्ता सुरभिणा गंधोदरणं हत्थ - पादे पक्खालेइ, पक्खालित्ता सुद्धाए अट्टपडलाए पोत्तीए मुहं बंधर, • मुहं वंधित्ता जमालिस्स वत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाओगे अग्गकेसे कप्पेइ । तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खोणं पेडसाडपणं अग्गकेसे पडिच्छह, अ० २ पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदपणं पक्खालेइ, सुरभि० २ पक्खालित्ता अग्गेहिं वैरेहिं गंधेहिं, मलेहिं अच्चेति, अग्गेहिं० २ अचित्ता सुद्धे वत्थे बंध, सु० २ बंधिता रयणकरंडगंसि पक्खिवति, पक्खिवित्ता हीर- वारिधार - सिंदुवार छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई सुयवियोगदूसहाई अंसूई विणिम्मुयमाणी २ एवं वयासी - एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहुसु तिहीसु य पचणीसु य उस्सवेसु य जन्नेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सतीति कट्टु कैसीसगमूलें ठवेति । २५. तप णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा- पियरो 'दोघं पि उत्तरावकमणं सीहासणं रयावैति, दोघं पि२ यावत्ता जमालिस खत्तियकुमारस्त सेया-पीयपहिं कलसेहिं व्हावेंति, सेया० २ हा वित्ता पहलसुकुमालाए सुरभीप गंधकासाईए गायाइं लूहेंति, प० २ लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति, स० २ अणुर्लिपित्ता नासानि - स्सासवायवोज्यं, चक्खुहरं, वन्न-फरिसजुत्तं, हयलालापेलवाऽतिरेगं, धवलं, कणगखचितंतकम्मं, महरिहं, हंसलफ्खणपडसाडगं, परिहिति, परिहित्ता हारं पिद्धति, पिणद्धित्ता अद्धहारं पिद्धेति, पिणद्धित्ता एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेव जाव चित्तं रयणसंकडुक्कडं मउडं पिणिद्धति; किं बहुणा ? गंथिम - वेढिम - पूरिम- संघातिमेणं चउविणं मल्लेणं कप्पerai fra अलंकिय - विभूसियं करेंति । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ, लीलट्ठियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ, जाव मणि न्हायो, अने बलिकर्म (देवपूजा) करी, यावत् तेणे पोतानुं शरीर शणगार्यु, अने पछी ज्यां जमालि क्षत्रियकुमारनो पिता छे त्यां ते आवे छे. आवीने हाथ जोडीने जमालि क्षत्रियकुमारना पिताने जय अने विजयथी वधावे छे; वधाव्या पछी ते हजाम आ प्रमाणे बोल्यो के - 'हे देवानुप्रिय ! जे मारे करवानुं होय ते फरमावो'. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए ते हजामने आ प्रमाणे कह्युं के हि देवानुप्रिय ! जमालि क्षत्रियकुमारना अत्यन्त यत्नपूर्वक चार अंगुल मूकीने निष्क्रमणने (दीक्षाने) योग्य आगळना वाळ कापी नाख. त्यारपछी ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए ते हजामने ए प्रमाणे कह्युं त्यारे ते खुश थयो, तुष्ट थयो अने हाथ जोडीने ए प्रमाणे बोल्यो'हे स्वामिन् । आज्ञा प्रमाणे करीश' एम कहीने विनयथी ते वचननो स्वीकार करे छे. स्वीकार करीने सुगंधी गंधोदकथी हाथ पगने निष्क्रमण योग्य अग्रकेशो चार आंगळ अग्रकेशोने ग्रहण करे छे. ग्रहण करीने ते धुए छे, धोइने शुद्ध आठ पडवाळा वस्त्रथी मोढाने बांधी अत्यंत यत्नपूर्वक जमालि क्षत्रियकुमारना मूकीने कापे छे. त्यार पछी जमालि क्षत्रियकुमारनी माता हंसना जेवा श्वेत पटशाटकथी ते केशोने सुगंधी गंधोदकथी धूए छे. धोइने उत्तम अने प्रधान गंध तथा मालावडे पूजे छे. करंडियामां मूके छे. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी माता हार, पाणीनी धारा, सिंदुवारना जेवां पुत्रना वियोगधी दुःसह् आंसु पाडती आ प्रमाणे बोली के आ केशो अमारा माटे घणी महोत्सोमा जमालिकुमारना वारंवारं दर्शनरूप थशे' एम धारी तेने ओशीकाना मूळमां मूके छे. पूजीने शुद्ध वस्त्रवडे बांधे छे. बांधीने रत्नना. तूटी गएली मोतीनी माळा पर्वणीओ, उत्सवो, यज्ञो, अने २५. त्यार बाद ते जमालि क्षत्रियकुमारना माता-पिता पुनः उत्तर दिशा सन्मुख बीजुं सिंहासन मूकावे छे. मूकावीने फरीवार जमालि क्षत्रिय मारने सोना अने रूपाना कलशो वडे न्हवरावे छे. न्हवरावीने सुरभि, दशावाळी अने सुकुमाल सुगंधी गंधकाषाय ( गन्धप्रधान लाख वडे तेनां अंगोने लुंछे छे, अने अंगोने लुंछीने सरस गोशीर्ष चंदनवडे गात्रनुं विलेपन करे छे. विलेपन करीने नासिकाना निः !ना वायुथी उडी जाय एवं हलकुं, आंखने गमे तेवुं सुंदर, वर्ण अने स्पर्शथी संयुक्त, घोडानी लाळ करतां पण वधारे नरम, धोलुं सोनाना कसबी छेडावाळु, महामूल्यवाळु, अने हंसना चिह्नयुक्त एवं पटशाटक ( रेशमी वस्त्र ) पहेरावे छे. पहेरावीने हार अने अर्धहारने पहेरावे छे. ए प्रमाणे जेम "सूर्याभना अलंकारनुं वर्णन करेलुं छे तेम अहिं करतुं यावत् विचित्र रत्नोथी जडेला उत्कृष्ट मुकुटने पहेरावे १- भोगे ग घ ङ । २ पढिकप्पेहि घ । ३ तहत्ताणा वि क । ४-पयोगे ग घ ङ । ५ परिसान्ग। ६ चमरेहिं क । ७ सुदक श्येणंघ, सुद्धेणं वस्थेणं ङ । ८ वारिधारा ग घ । ९ ओसीसग ग । १० दोघं उत्तक । ११ सीयापी-क-घ, सेयपी-हु । १२ माहेति ग घ । १३ नाता ग-ध । १४ पिणिति, पिणिहिता क । १५ - नर्हेति, नहेत्ता क । पुप्पो अने तिथिओ, २५. राजप्रनीय प. १०२-१ * Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.--उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. रयणघंटियाजालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडं. बियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं, बत्थालंकारेणं, मल्लालंकारेणं, आभरणा लंकारेणं चउविहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुन्नालंकारे सीहासणाओ अब्भुटेइ, सिहासणाओ अब्भुद्वित्ता सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाऽभिमुहे सन्निसन्ने । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता ण्हाया, कय-(बलिकम्मा) जाव -सरीरा हंसलफ्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरमाणी सीयं दुरूहइ, सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणवरंसि सन्निसन्ना । तप णं तस्स जमालिस्सखत्तियकुमारस्स अम्मधाती व्हाया, जाव -सरीरा रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहद, सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि सन्निसन्ना । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी. सिंगारागारचारुवेसा संगयगय- जाव रूव-जोवण-विलासकलिया सुंदरथण- हिमरयय-कुमुद-कुंदें-दुप्पगासं सकोरंटमल्लदामं धवलं आयवत्तं गहाय सलील उवरि धारेमाणीओ धारेमाणीओ चिट्ठति । तए णं तस्स जमालिस्स उभओ पासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारु-जाव -कलियाओ, णाणामणि-कणग-रयणविमलमहरिहतवणिज्जु-जलविचित्तदंडाओ, चिल्लियाओ, संख-क-कुंदें-दु-दगरय-अमयमहिय-फेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलीलं 'वीयमाणीओ वीयमाणीओ चिटुंति । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स- उत्तरपुरत्थिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार- जाव -कलिया सेतं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ । तए णं तस्स जमालिस्सं खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरथिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार- जाव -कलिया चित्तकणगड तालवेंट गहाय चिट्ठइ । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ को २ सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं, सरित्तयं, सरिवयं, सरिसलावन्न-रूव-जोषणगुणोववेयं, एगाभरण-वसणगहियनिजोयं कोडंबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह । तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सरिसयं, सरित्तयं, जाव सद्दावेंति । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ट-तुट्ट-हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता, एगाभरण-वसणगहिय छे. वधारे शुं कहे! पण ग्रंथिम-गुंथेली, वेष्टिम-वींटेली, पूरिम-पूरेली अने संघातिम-परस्पर संघात वडे तैयार थयेली चारे प्रकारनी माळाओ वडे कल्पवृक्षनी पेठे ते जमालि कुमारने अलंकृत-विभूषित करे छे. त्यार बाद ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिता कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे. अने बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कह्यु के-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र सेंकडो स्तंभोवडे सहित लीलापूर्वक पुतळीओधी युक्त–इत्यादि *राजप्रश्नीयसूत्रमा विमाननुं वर्णन कर्यु छे तेवी यावत् मणिरतनी घंटिकाओना समूह युक्त, हजार पुरुषोथी उंचकी शकाय तेवी शीबिका-पालखीने तैयार करो अने तैयार करीने मारी आज्ञा पाछी आपो. त्यारबाद ते कौटुंबिक पुरुषो यावत् आज्ञाने पाछी आपे छे. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमार केशालंकार, वस्त्रालंकार माल्यालंकार अने आभरणालंकार ए.चार प्रकारना अलंकारथी अलंकृत थइ प्रतिपूर्ण अलंकारथी विभूषित थइ सिंहासनथी उठे छे. उठीने ते शिबिकाने प्रदक्षिणा दइने तेना उपर चढे छे. चढीने उत्तम सिंहासन उपर पूर्व दिशा सन्मुख वेसे छे. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी माता स्नान करी बलिकर्म करी यावत् शरीरने अलंकृत करी, हंसना चिह्नवाळा पटशाटकने लइ शिबिकाने प्रदक्षिणा करी तेना उपर चढे छे; अने चढीने ते जमालि क्षत्रियकुमारने जमणे पडखे उत्तम भद्रासन उपर बेठी. पछी जमालि क्षत्रियकुमारनी धावमाता स्नान करी यावत् शरीरने शणगारी रजोहरण अने पात्रने लइ ते शिबिकाने प्रदक्षिणा करी तेना उपर चढे छे, अने चढीने जमालि क्षत्रियकुमारने डाबे पडखे उत्तम भद्रासन उपर बेठी. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी पाछळ मनोहर आकार अने सुंदर पहेरवेशवाळी, संगतगतिवाळी यावत् रूप अने यौवनना विलासथी युक्त, सुंदर स्तनवाळी एक युवती हिम, रजत, कुमुद, मोगरानुं फुल अने चंद्रसमान कोरंटकपुष्पनी माळायुक्त, धोलू छत्र हाथमा लइ तेने लीलापूर्वक धारण करती उभी रहे छे. त्यारपछी ते जमालिने बन्ने पडखे शृंगारना जेवा मनोहर आकारवाळी अने सुंदर वेषवाळी उत्तम बे युवती स्त्रीओ यावत् अनेक प्रकारना मणि, कनक, रत्न अने विमल, महामूल्य तपनीय (रक्त सुवर्ण-) थी बनेला, उज्वल विचित्र दंडवाळां, दीपतां, शंख, अंक, मोगराना फुल, चंद्र, पाणीना बिन्दु अने मथेल अमृतना फीणना समान धोळां चामरोने ग्रहण करी लीलापूर्वक वींजती उभी रहे छे. पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी उत्तरपूर्व दिशाए शृंगारना गृह जेवी उत्तम वेषवाळी यावत् एक उत्तम स्त्री श्वेत रजतमय, पवित्र पाणीथी भरेला अने उन्मत्त हस्तीना मोटा मुखना आकारवाळा कलशने ग्रहण करीने यावत् उभी रहे छे. त्यार पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी दक्षिणपूर्वे शंगारना गृहरूप उत्तम वेषवाळी यावत् एक उत्तम स्त्री १ उपधरेमाणी २ ङ। २ वीएमाणीओ रक। -पुरच्छिमेणं ग-घ ङ। ४ सेत-श्ययाम-ग-घ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३० निजोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल- जाव बद्धावेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु ण देवाणुप्पिया! अम्हेहिं करणिजं । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कोडंबियवर तरुणसहस्सं पि एवं वयासी-तुम्मे णं देवाणुप्पिया! व्हाया कयबलिकम्मा जाव-गहियनिजोग्गा जमालिस्स खत्तियकुमांरस्स सीयं परिवहह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स जाव पडिसुणित्ता ण्हाया जाप -गहियनिजोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठ-8 मंगलगा पुरओ अहाणुपुष्वीए संपट्ठिया, तं जहा-सोस्थिय-सिरिवच्छजाव-दप्पणा; तदाणंतरं च णं पुन्नकलसभिगारं जहा उववाएइ, जाव-गगणतलमणुलिहती पुरओ अहाणुपुच्चीए संप एवं जहा उववाइए तहेव भाणिया, जाव-आलोयं च करेमाणा जयजयसहं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टिया । तदाणंतरं च णं बहवे उग्गा भोगा जहा उववाइए जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ य मग्गतो य पासओ य अहाणुपुष्वीए संपट्टिया। २६. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया व्हाया कैयवलिकम्मा जाव -विभूसिए हत्थिक्खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहि उद्धवमाणीहि उद्धवमाणीहिं हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडे, महयाभडचडगर- जाव -परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ अणुगच्छइ । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा, आसवरा, उभओ पासिं णागा, णागवरा, पिट्ठओ रहा, रहसंगेली । तए णं से जमाली खैत्तियकुमारे अभुग्गभिंगारे, परिगहियतालियंटे, ऊसवियसेतछत्ते, पवीइयसेतचामरबालवीयणाए, सविहीए जाव णादितरवेणं, तयाणंतरं च णं वहवे लैंटिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयग्गाहा, जाव घीणग्गाहा; तयाणंतरं च णं अट्टसयं विचित्र सोनाना दंडवाळा विंजणाने लइने उभी रहे छे, पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषोने बोलाव्या अने बोलावीने आ प्रमाणे कर्वा के-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र सरखा, समानत्वचावाळा, समानउमरवाळा, समानलावण्य, रूप अने यौवन गुणयुक्त, अने एक सरखा आभरण अने वस्त्ररूप परिकरवाळा एक हजार उत्तम युवान कौटुंबिक पुरुषोने बोलावो'. पछी ते कौटुंबिक पुरुषोए यावत् पोताना खामीनुं वचन खीकारीने जलदी एक सरखा अने सरखी त्वचावाळा यावत् एक हजार पुरुषोने बोलाव्या. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारना पिताए कौटुंबिक पुरुषोद्वारा बोलावेला ते कौटुंबिक पुरुषो हर्षित अने तुष्ट थया. स्नान करी, बलिकर्म (पूजा) करी, कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करी, एकसरखा घरेणां अने वस्त्ररूप परिकरवाळा थईने तेओ ज्या जमालि क्षत्रियकुमारना पिता छे त्यां आवे छे. आवीने हाथ जोडी यावत् वधावी तेओए आ प्रमाणे कर्दा के–हे देवानुप्रिय ! जे कार्य अमारे करवानुं होय ते फरमावो.' पछी ते जमालिकुमारना पिताए ते हजार कौटुंबिक उत्तम युवान पुरुषोने आ प्रमाणे कद्दु के–'हे देवानुप्रियो । स्नान करी, बलिकर्म करी अने यावत् एक सरखां आभरण अने वस्त्ररूपपरिकरवाळा तमे जमालि क्षत्रियकुमारनी शिबिकाने उपाडो.' पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारना पितार्नु वचन स्वीकारी स्नान करेला यावत् सरखो पहेरवेष धारण करेला ते कौटुम्बिक पुरुषो जमालि क्षत्रियकुमारनी शिबिका उपाडे छे. पछी ज्यारे ते जमालि क्षत्रियकुमार हजार पुरुषोथी उपाडेली शीबिकामां बेठो त्यारे सौ पहेलां आ आठ आठ मंगलो आगळ अनुक्रमे चाल्या. ते आ प्रमाणे १ स्वस्तिक, २ श्रीवत्स, यावद् ८ दर्पण. ते आठ मंगळ पछी पूर्ण कलश चाल्यो- इत्यादि* औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावद् गगन तलनो स्पर्श करती एवी वैजयंती-ध्वजा आगळ अनुक्रमे चाली-इत्यादि औिपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् जय जय शब्दनो उच्चार करता तेओ आगळ अनुक्रमे चाल्या. त्यारपछी घणा उपकुलमा उत्पन्न थयेला, भोगकुलमा उत्पन्न थयेला पुरुषो औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् मोटा पुरुषो रूपी वागुराथी वीटायेला जमालि क्षत्रियकुमारनी आगळ, पाछळ अने पडखे अनुक्रमे चाल्या. २६. त्यारपछी ते जमालिकुमारना पिता स्नान करी, बलिकर्म करी यावद् विभूषित थइ हाथीना उत्तम स्कंध उपर चडी, कोरंटक पुष्पनी माळा युक्त, [ मस्तके ] धारण कराता छत्रसहित, बे श्वेत चामरोथी वीजाता २, घोडा, हाथी, रथ अने प्रवर योधाओ सहित चतुरंगिणी सेना साथे परिवृत थइ, मोटा सुभटना वृन्दयी यावत् वींटायेला जमालि क्षत्रियकुमारनी पाछळ चाले छे, त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी आगळ मोटा अने उत्तम घोडाओ, अने बन्ने पडखे उत्तम हाथीओ, पाछळ रथो अने रथनो समूह चाल्यो. त्यार बाद ते जमालिकुमार सर्व ऋद्धिसहित यावत् वादिनना शब्दसहित चाल्यो. तेनी आगळ कलश अने तालवृन्तने लइने पुरुषो चालता हता, तेना उपर उंचे श्वेत छत्र धारण करायु हत, अने तेना पडखे श्वेत चामर अने नाना पंखाओ वीजाता हता. त्यार पछी केटलाक लाक -कुमारस्स। ५-बीयणीए ग-घ-छ। ६ तपर्णतर क । . .तुझे गं घ-ङ। २पासामी य क-ग। कय-जाव क-ङ। ७-पगहा ग-छ। • औपपा. प. ६९-१ + औपपा. प. ६९-१ . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७७ गयाणं, अट्टसयं तुरयाणं, अट्टसयं रहाणं; तदाणंतरं च णं लउड-असि-कोंतहत्थाणं बहूणं पायत्ताणीणं पुरओ संपट्रिय, तयाणंतरं च णं बहवे राईसर-तलवर-जाव सत्थवाहप्पभियओ पुरओ संपट्ठिया खत्तियकुंडग्गामं नयरं मझमझेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव बहुसालए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेत्थ गमणाए। २७. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं नयरं मझमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स सिंघाडग-तिय-चउक्त-जाव पहेसु बहवे अत्यत्थिया, जहा उववाइए, जाव अभिनंदिता य अभित्थुणता य एवं वयासी-'जय जय णंदा! धम्मेणं. जय जय नंदा! तवेणं, जय जय नंदा! भई ते अभग्गेहिं णाण-दसण-चरित्तमुत्तमेहिं, अजियाई जिणाहि इंदियाई, जीयं च पालेहि समणधम्मं; जियविग्यो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमझे, णिहणाहि य राग-दोसमल्ले तवेण "धितिधणियबद्धकच्छे, महाहि य अट्ट कम्मसत्त झाणेणं उत्तमेणं सुकेणं, अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च धीर! तेलोकरंगमज्झे, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं च णाणं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदितुणं सिद्धमग्गेणं अकुडिलेणं, हंता परीसहचमूं, अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धमत्थु'त्ति कटु अभिनंदंति य अभिथुणंति य । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिन्जमाणे पिच्छिजमाणे एवं जहा उववाइए कुणिओ, जाव णिग्गच्छति; णिग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ, पुरिससहस्सवाहिणीओ सियाओ पंचोरुहइ । तए ण तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! जमाली पत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते, जाव किमंग ! पुण पासणयाए, से जहा णामए उप्पले इ वा, पउमे इ वा, जाव सहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संवुड्ढे णोऽवलिप्पति पंकरएणं, डीवाळा, भालावाळा, यावत् पुस्तकवाळा यावत् वीणावाळा पुरुषो चाल्या. त्यारपछी एकसो आठ हाथी, एकसो आठ घोडा अने एकसो आठ रथो चाल्या, त्यारपछी लाकडी, तरवार अने भालाने ग्रहण करी मोटुं पायदळ आगळ चाल्युं, त्यारपछी घणा युवराजो, धनिको, तलवरो, यावत् सार्थवाह प्रमुख आगळ चाल्या. यावद् क्षत्रियकुंडग्राम नगरनी वच्चे थइने ज्यां ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर छे, ज्यां बहुशालक चैत्य छे अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां जवानो विचार कर्यो. २७..त्यारपछी क्षत्रियकुंडग्राम नगरनी वचोवच निकळता ते जमालि क्षत्रियकुमारने शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् मार्गोमा घणा धनना अर्थिओए, कामना अर्थिओए-इत्यादि *औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् अभिनंदन आपता, स्तुति करता आ प्रमाणे कर्यु के-'हे नंद-आनन्ददायक! तारो धर्म वडे जय थाओ, हे नन्द ! तारो तपवडे जय थाओ, हे नन्द ! तारं भद्र थाओ, अभन-अखंडित अने उत्तम ज्ञान, दर्शन अने चारित्र वडे अजित एवी इन्द्रियोने तुं जित, अने जीतिने श्रमण धर्मनुं पालन कर. हे देव ! विघ्नोने जीती -तुं सिद्धिगतिमां निवास कर. धैर्यरूप कच्छने मजबूत बांधीने तपवडे रागद्वेषरूप मल्लोनो घात कर. उत्तम शुक्ल ध्यानवडे अष्टकर्मरूप शत्रु- मर्दन कर. वळी हे धीर ! तुं अप्रमत्त थइ त्रणलोकरूप रंगमंडप मध्ये आराधनापताकाने ग्रहण करी निर्मळ अने अनुत्तर एवा केवलज्ञानने प्राप्त कर, अने जिनवरे उपदेशेल सरल सिद्धिमार्गवडे परमपदरूप मोक्षने प्राप्त कर. परीषहरूप सेनाने हणीने इन्द्रियोने प्रतिकूल उपसर्गोनो पराजय कर. तने धर्ममा अविघ्न थाओ'-ए प्रमाणे तेओ अभिनंदन आपे छे अने स्तुति करे छे. त्यारबाद ते जमालि क्षत्रियकुमार हजारो नेत्रोनी मालाओथी वारंवार जोवातो-इत्यादि औिपपातिकसूत्रमा कूणिकना प्रसंगे कह्यु छे तेम अहिं जाणवू; यावत् ते [जमालि ] नीकळे छे. नीकळीने ज्या ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर छे, ज्यां बहुशाल नामे चैत्य छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने तीर्थकरना छत्रादिक अतिशयोने जुए छे, जोइने हजार पुरुषोथी वहन कराती ते शिबिकाने उभी राखे छे. उभी राखीने ते शिबिका थकी नीचे उतरे छे. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारने आगळ करी तेना माता-पिता ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां. आवे. छे. त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी यावत् नमी तेओ आ प्रमाणे बोल्या के-'हे भगवन् ! ए प्रमाणे खरेखर आ जमालि क्षत्रियकुमार अमारे एक इष्ट अने प्रिय पुत्र छे, जेनुं नाम श्रवण पण दुर्लभ छे, तो दर्शन दुर्लभ होय तेमां शुं कहे ! जेम कोइ एक कमळ, पद्म, यावत् सहस्रपत्र कादवमा उत्पन्न थाय, अने पाणीमां वघे, तोपण ते पंकनी रजथी तेम जलना कणथी लेपातुं नथी; ए प्रमाणे आ जमालि क्षत्रियकुमार पण कामथकी उत्पन्न थयो छे अने भोगोथी वृद्धि पाम्यो छे, तो पण ते कामरजथी . संपडिया क-ङ। २ जाव णादितरवेण खत्तिय-ग-घ। ३ -तिगच-ङ। ४ अभिग्गहेहिं ग। ५ जियाई ग-।। णिश्य क। ७-बकच्छो क। -वाहिणीं सीयं घ। ९-रुभति क। १० गच्छइग-घ-छ। पउमसहस्स-ग-घ। २५. * औपपा० प. ७३-१. भोपपा. प. ७५-१. २३ भ. सू० Jain Education international Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक ९. - उद्देशक ३३. णोऽवलिप्पर जलरपणं, एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संबुडे णो विलिप्पइ कामरणं, णो विलिप्प भोगरपणं, णो विलिया मित्त-नाह-गियगसयण संबंधिपरिजनं। एस देवाशुप्पिया ! संसारभयुडिग्गे भीए जम्मणमरणेणं; देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पेष्ठतेति; तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाप्पिया ! सीसभिक्खं । १७८ २८. तरणं समणे भगवं महावीरे जमालि खत्तियकुमारं एवं वयासी - अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तए णं से जमाली खतियकुमारे समणं भगवया महावीरेणं एवं ते समाणे हट्ट तुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो जाय नर्मसिता उत्तरं पुररिथमं दिसिभागं अवकमर, अवकमित्ता सयमेव आभरण महा-लंकारं ओवर तरं णं सा जमालिस्स वत्तियकुमारस्स माया हंसलचणं पडसाडणं आभरण महा-लंकारं पडिच्छति आ० २ पडिच्छित्ता हार-वारि- जांच विणिम्यमाणी विणिम्मुयमाणी जमालि खत्तियकुमारं एवं व्यासी-घडियन्नं जाया ! जइयां जाया ! परिक्कमियध्वं जाया ! अस्सिं अ णो पैमा ति कट्टु जमालिस्स खतियकुमारस्त अम्मा-पियरो समणं भगवं महावीरं बंदंति, णमंसंति, वंदिता मंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया । २९. तसे जमाली संत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोपं करे, करिता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छ एवं जहा उसमदत्तो तहेव पइओ नवरं पंचहि पुरिससरसिद्धिं तदेव जाय सामाइयमाइवाहि एकारस अंगाई अहिज्झइ, सा० २ अहिज्झित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ट-ट्ठम- जाव - मासद्ध - मासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भाषेमाणे विहरद्द | ३०. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदर, नर्मसह वंदिता, नमंसित्ता एवं पयासी- इच्छामि वं भंते! तुभेदि अम्भणुन्नार समाणे पंचहि अगासिद्धि बहिया जणवयविहारं विहरित्तए । तर णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयम णो आढाइ, णो 1 अने भोगरजची लेपातो नथी, तेमज मिश्र, छाति पोताना स्वजन, संबन्धी अने परिजनधी पण लेपातो नथी. हे देवानुप्रिय आ जमालि ! क्षत्रियकुमार संसारना भयथी उद्विग्न थयो छे, जन्म मरणथी भयभीत थयो छे, अने देवानुप्रिय एवा आपनी पासे मुंड - दीक्षित थ अगारवासथी अनगारिकपणाने स्वीकारवाने इच्छे छे. तो देवानुप्रियने अमे आ. शिष्यरूपी भिक्षा आपीए छीए. तो हे देवानुप्रिय ! आप आ शिष्यरूप भिक्षानो स्वीकार करो'. २८. त्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ते जमालि क्षत्रियकुमारने आ प्रमाणे कछु के- 'हे देवानुप्रिय ! जेम सुख उपजे तेम करो, प्रतिबन्ध न करो यारे भ्रमण भगवान् महावीरे जमाल क्षत्रियकुमारने ए प्रमाणे कर्त्तुं स्वारे ते हर्पित यह तुष्ट थह यावत् श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी यावद् नमस्कार करी, उत्तरपूर्व दिशा तऱफ जाय छे. जइने पोतानी मेळे आभरण, माला अने अलंकार उतारे छे. पछी ते जमालि क्षत्रियकुमारनी माता हंसना चिह्नवाळां पटशाटकथी आभरण, माला अने अलंकारोने ग्रहण करे छे. ग्रहण करीने हार अने पाणीनी धारा जेबा आंसु पाडती २ तेगे पोताना पुत्र जमालिने आ प्रमाणे क के हि पुत्र! संयमने विषे प्रयत्न करजे, हे पुत्र ! यत्न करजे, हे पुत्र ! पराक्रम करजे, संयम पाळवामां प्रमाद न करीश. ए प्रमाणे ( कहीने) ते जमालि क्षत्रियकुमारना माता-पिता श्रमण भगवंत महावीरने यदि छे, नमे छे वांदी अने नमीने जे दिशाची तेओ आन्या हंता ते दिशाए पाछा गया. २९. त्यापछी ते जमालि क्षत्रियकुमार पोतानी मेळे पंच मुष्टिक लोच करे छे, करीने ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां खायेछे, आयीने "ऋषभदत्त ब्राह्मणनी पेठे तेणे प्रत्रज्या लीची. परन्तु जमालि क्षत्रियकुमारे पांचसो पुरुषो साथै प्रवज्या लीधी- इलादि सर्व जाणवुं. यावत् ते जमालि अनगार सामायिकादि अगीआर अंगोने भणे छे. भणीने घणा चतुर्थ भक्त, छट्ठ, अट्टम, अने यावत् मासा तथा मासक्षमणरूप विचित्र तपकर्मवडे आत्माने भावित करता विहरे छे. ३०. त्यार बाद अन्य कोई दिवसे ते जमालि अनगार व्यां श्रमण भगवान् महावीर के त्वां आवे छे, आवीने भ्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. वांदी अने नमीने तेणे आ प्रमाणे कह्युं के 'हे भगवन् ! तमारी अनुमतिथी हुं पांचसे अनगारनी साथे बहारना देशोमां विहार करवाने इच्छं छं.' त्यारे श्रमण भगवान् महावीरे जमालि अनगारनी आ वातनो आदर न कर्यो, स्वीकार न कर्यो, १ पवत् ङ । २ - तब्बत्ति कङ । ३- बंदर णर्मसद् ग घ । ४-५ दिसिं ग घ । ६ खत्तिए घ । ७ वागच्छित्ता एवं ग घ ङ । ८ जाव सव्वं सा घ । २९. * जुओ-भग. खं ३. स. ९-उ-३३ पृ. ६. / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठह । तए णं से जमाली अणगारे समणे भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भेहिं अभणुन्नाए समाणे पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं जाव विहरित्तए । तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि, तचं पि एयमढे णो आढाइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीर वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता, णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ, बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्ख क्खमित्ता पंचहि अणगारसरहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरह। ३१. तेणं कालेणं, तेणं समएणं सावत्थी नामं नयरी होत्था, वण्णओ; कोट्ठए चेइए, वन्नओ, जाव वणसंडस्स । तेणं कालेणं, तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, वन्नओ । पुण्णभहे चेइए, वन्नओ, जाव पुढविसिलापट्टओ । तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुडे पुवाणुपुष्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइजमाणे जेणेव सावत्थी नयरी, जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ, अ० २ ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाई पुवाणुपुछि चरमाणे, जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुष्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति, अ० २ ओगिण्हित्ता संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ३२. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य, विरसेहि य, अंतेहि य, पंतेहि य, लूहेहि य, तुच्छेहि य, कालाइकतेहि य, पमाणाइतेहि य, सीएहि य पाण-भोयणेहिं अन्नया कयाई सरीरगंसि विउले रोगातंके पाउब्भूए, उजले, विउले, पगाढे, कक्कसे, कडुए, चंडे, दुक्खे, दुग्गे, ति, दुरहियासे । पित्तजरपरिगतसरीरे, दाहबुक्कंतिए या वि विहरइ । तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेति, स० २ सद्दावित्ता एवं वयासी-तुब्भे गं देवाणुप्पिया! मम सेज्जासंथारगं संथरह । तए णं ते समणा जिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स ऐतमटुं विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जमालिस्स अणगारस्स सेज्जासंथारगं संथरंति । तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावित्ता दोच्चं पि एवं वयासी-ममं गं देवाणुप्पिया! सेज्जासंथारए णं किं कडे, कजइ ?* परन्तु मौन रह्या. त्यार पछी ते जमालि अनगारे श्रमण भगवंत महावीरने बीजी वार, त्रीजी बार पण ए प्रमाणे कयु के-'हे भगवन् ! तमारी अनुमतिथी हुँ पांचसो साधु साथे यावत् विहार करवाने इच्छु छु.' पछी श्रमण भगवान् महावीरे जमालि अनगारनी आ वातनो बीजी वार, त्रीजी वार पण आदर न कर्यो, यावत् मौन रह्या. त्यारबाद जमालि अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. वांदीने नमीने श्रमण भगवंत महावीर पासेथी अने बहुशाल नामे चैत्यथी नीकळे छे, नीकळीने पांचसो साधुओनी साथे बहारना देशोमां विहार करे छे. ३१. ते काले अने ते समये श्रावस्ती नामे नगरी हती. *वर्णन. त्यां कोष्ठक नामे चैत्य हतुं. विर्णन यावत् वनखंड सुधी जाणवू. मावस्ती नगरी. ते काले अने ते समये चंपा नामे नगरी हती, वर्णन. पूर्णभद्र चैत्य हतुं. वर्णन. यावत् पृथिवीशिलापट्ट हतो. हवे अन्य कोई दिवसे कोष्ठक चैत्य चपा नगरी, पूर्णभद्रचैत्यते जमालि अनगार पांचसो साधुओना परिवारनी साथे अनुक्रमे विहार करता, एक गामथी बीजे गाम जता ज्यां श्रावस्ती नामे नगरी छे. अने ज्यां कोष्टक चैत्य छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने यथायोग्य अवग्रहने ग्रहण करीने संयम अने तपवडे आत्माने भावित करता विहरे कोष्ठकचैत्य. छे. त्यारबाद अन्य कोई दिवसे श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रमे विचरता यावत् सुखपूर्वक विहार करता ज्यां चंपानगरी छे, अने ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे त्यां आवे छे, आवीने यथायोग्य अवग्रहने ग्रहण करी संयम अने तपवडे आत्माने भावित करता विचरे छे. ३२. हवे अन्य कोइ दिवसे ते जमालि अनगारने रसरहित, विरस, अन्त, प्रान्त, रुक्ष (लुखा) तुच्छ, कालातिक्रांत, (भुख , तरसनो काल वीती गया पछी) प्रमाणातिक्रांत (प्रमाणथी वधारे के ओछा ) शीत पान-भोजनथी शरीरमा मोटो व्याधि पेदा थयो, ते व्याधि अत्यन्त दाह करनार, विपुल, सख्त, कर्कश, कटुक, चंड, (भयंकर) दुःखरूप, कष्टसाध्य, तीव्र अने असह्य हतो, तेनुं शरीर पित्तज्वरथी व्याप्त होवाथी ते दाहयुक्त हतो. हवे ते जमालि अनगार वेदनाथी पीडित थयेलो पोताना श्रमण निग्रंथोने बोलावे छे. बोलावीने तेणे ए प्रमाणे कयु के-'हे देवानुप्रियो ! तमे मारे सुवा माटे संस्तारक (शय्या) पाथरो'. त्यारबाद ते श्रमण निम्रन्थो जमालि अनगारनी आ वातनो विनयपूर्वक स्वीकार करे छे, स्वीकारीने जमालि अनगारने सुवा माटे संस्तारक पाथरे छे. ज्यारे ते जमालि अनगार अत्यंत वेदनाथी व्याकुल थयो त्यारे फरीथी श्रमण निग्रंथोने बोलाव्या अने बोलावीने फरीथी तेणे आ प्रमाणे कयु के-'हे देवानुप्रियो । मारे माटे १ कयावि घ। २ तुझे गं घ-ङ । ३ अयमढे घ-ङ। * एवं वुत्ते समाणे समणा निरगंथा एवं विति-भो सामी ! कीरह' इत्यधिका पाठःग-घ। ३१. * जुओ उववाइअ चंपानगरीनुं वर्णन. प. १-१. जुओ उववाइअ पूर्णभद्रचैत्यर्नु वर्णन. प. ४-२. . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ९. - उद्देशक ३३. सते णं ते समणा निर्गचा जमालि अणगारं एवं वयासीनो देवाप्पिया णं सेजासंधारण कडे, कजइ । राष्ट पं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूचे अहत्थिर जाव समुप्यजित्थानं णं समने भगवं महावीरे एवं आइसर जाय एवं प बे-एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरियमाणे उदीरीए, जाय निजरिजमाणे पिजिने तं पं मिच्छा इमं व णं पञ्चम्यमेव दीसद सेज्जा संथारए कजमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हा णं सेजासंथारए कजमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए, जाव निज्जरिज्जमाणे वि अणिजिन्ने, एवं संपेहेर, संपेहित्ता समणे णिग्गंथे सहावे, सम० २ सदावित्ता एवं वयासी जं णं देवाप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइस्लर, जाव परुवेह एवं खलु चलमाणे चलिए, तं चैव स जाव पिजरमाणे अणिजिने । तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्यमाणस्स जाय परुवेमाणस्स अत्थेगईया समणा मिया पचमहं सहंति, पत्तियंति, रोयंति, अत्थेगईया समणा णिगंधा पयम नो सद्दति, नो पतियंति नो रोयंति । तत्य णं जे ते समणा निमगंधा जमालिस्स अणगारस्स एयम सइति, पत्तियंति, रोयंति से णं जमालि चेष अणगारे उपसंपत्ति णं विहरंति तस्य णं जे ते समणा णिगंधा जमालिस्स अणगारस्स एवं अहं णो सद्दति णो पतियंति णो रोयंति ते णं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओ, कोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिस्वमंति, पडिनिफ्समिता पुवाणुपुि चरमाणे गामाशुगामं दूइजमाणे जेणेच चंपा नयरी, जेणेव पुनभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति उचागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेद्र, करिता बंदद्द नम॑सद, बंदिता नर्मसत्ता सम भगवं महावीरं उवसंपजित्ता णं विहरति । ३३. तप णं से जमाली अणगारे अन्नया केयावि ताओ रोगायंकाओ विप्यमुक्के, हँट्ठे जाए, अरोप बलियसरीरे, सावस्थी नवरीओ कोयाओ घेइयाओ पडिनिषसमति, पडिनिपसमित्ता पुचाणुपु िचरमाणे, गामाशुम्गामं दृइजमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं क्यासी जहा णं देवाप्पियाणं यदये अंतेवासी समणा विग्गंचा संस्तारक कर्मों के कराय के लार पछी ते श्रमण निर्मम्धोए जमालि अनगारने एम क के देवानुप्रियाने माठे शय्यासंस्तारक कय नधी, पण कराय छे'. मार पछी ते जमालि अनगारने आ आया प्रकारनो संकल्प उत्पन्न भयो के “श्रमण भगवंत महावीर जे ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, चालतुं होय ते चाल्युं कहेवाय, उदीरातुं होय ते उदीरायुं कहेवाय, यावत् निर्जरातुं होय ते निर्जरायुं क - मायसेमिया छे. कारण के आ प्रत्यक्ष देखाय छे के, शय्या संस्तारक करातो होय स्वां सुधी ते करायो नथी, पथरातो होव यां सुधी ते पथरायो नथी; जे कारणची आ शय्या संस्तारक करातो होय खां सुथी ते करायो नथी, पथरातो होय यां सुधी ते पथरायेलो नथी; ते कारणथी चालतुं होय त्यां सुधी ते चलित नथी, पण अचलित छे; यावत् निर्जरातुं होय त्यां सुधी ते निर्जरायुं नथी पण अनिर्जरित छे" ए प्रमाणे विचार करे छे. विचार करीने ते जमालि अनगार श्रमण निर्बंधोने बोलावे छे, बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कां - 'है देवानुप्रियो ! श्रमण भगवंत महावीर जे आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के-खरेखर ए प्रमाणे “चालतुं ते चलित कहेवाय" - इत्यादि, पूर्ववत् सर्व कहे, यावत् निर्जरा होय ते निर्जरित नथी, पण अनिर्जरित छे. ज्यारे जमालि अनगार र प्रमाणे कहता हता यावत् प्ररूपणा करता हता, त्यारे केटलाएक श्रमण निर्ग्रन्थो ए वातने श्रद्धापूर्वक मानता हता, तेनी प्रतीति करता हता, रुचि करता हता; अने केटलाक भ्रमण निर्मन्थो ए यात मानता न होता, तथा तेनी प्रतीति अने रुचि करता न होता. तेमां जे श्रमण निर्मचो ते जमालि अनगारना आ मन्तव्यनी श्रद्धा करता हता, प्रतीति करता हता अने रुचि करता हता तेओ ते जमालि अनगारने आश्रयी विहार करे छे. अने जे श्रमण निर्ग्रथो जमालि अनगारना ए मन्तव्यमां श्रद्धा करता न होता, प्रतीति करता न होता अने रुचि करता न होता तेओ जमालि अनगारनी पासेथी कोष्ठक चैत्य थकी बहार नीकळे छे, अने बहार नीकळीने अनुक्रमे विचरता, एक गामथी बीजे गाम विहार करता ज्यां चंपा नगरी छे, ज्यां पूर्णभद्र चै छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर हे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवंत महासीरने प्रण बार प्रदक्षिणा करे छे, करीने बांद छे; नगे छे अने बांदी नमीने श्रमण भगवंत महावीरनी मिश्राए बिहार करे छे. ३३. त्यार पछी कोई एक दिवसे ते जमालि अनगार पूर्वोक्त रोगना दुःखथी विमुक्त थयो, हृष्ट, रोगरहित अने बलवान् शरीर'वाळो थयो अने श्रावस्ती नगरीथी अने कोष्ठक चैत्यथी बहार नीकळी अनुक्रमे विचरता ग्रामानुग्राम विहार करता ज्यां चंपानगरी छे, ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी अत्यन्त दूर नहि सेम अनन्त पासे नहि, तेम उभा रहीने श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कजिम देवानुप्रियना घणा शिष्यो अमन निर्मन्थो उप १ - पिया ! से- क । २ कथाई घ, कयाती क ३ हडे सुट्टे जा- घ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. छउमत्था भवेत्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवकंता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावकमणेणं अवकते, अहं गं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवकते। ३४. तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी-नो खलु जमाली! केवलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलेसिया थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजइ वा णिवारिजइ वा; जदि णं तुमं जमाली! उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकते, तो णं इमाइं दो वागरणाइं वागरेहि-सासए लोए जमाली! असासए लोए जमाली! सासए जीवे जमाली! असासए जीवे जमाली? । तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव कलुससमावन्ने जाए या वि होत्था, णो संचायति भगवओ गोयमस्स किंचि वि पमोक्खं आइक्खित्तए, तुसिणीए संचिट्ठइ । ३५. 'जमालि'त्ति समणे भगवं महावीरे जमालिं अणगारं एवं वयासी-अत्थि णं जमाली! ममं बढे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पगारं भासं भासित्तए, जहा णं तुमं । सांसए लोए जमाली! जण कदायि णासि, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ य, भविस्सइ य; धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अवए, अवट्ठिए णिच्चे । असासए लोए जमाली ! जं ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सपिणी भवित्ता ओस्सप्पिणी भवइ । सासए जीवे जमाली! जंन कयायि णासि, जाव णिच्चे । असासए जीवे जमाली! जण नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ । ३६. तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स एवं आइक्खमाणस्स, जाव एवं.परूवेमाणस्स एयं. अटुं नो सद्दहति, णो पत्तियइ, णो रोएइ; एयमटुं असइहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोपमाणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ महा. वीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ, दोच्चं पि आयाए अवक्कमित्ता बहूहिं असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पााणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणे, वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं होइने छद्मस्थ विहारथी विहरी रह्या छे; पण हुं तेम छमस्थ विहारथी विहरतो नथी. हुं तो उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शन धारण करनारो अर्हन् , जिन अने केवली थइने केवलिविहारथी विचर छं. ३४. त्यारपछी भगवंत गौतमे ते जमालि अनगारने आ प्रमाणे कयु के-हे जमालि | खरेखर ए प्रमाणे केवलिनुं ज्ञान के दर्शन भगवान् गौतमना पर्वतथी स्तंभथी के स्तूपथी आवृत थतुं नथी, तेम निवारित थतुं नथी. हे जमालि ! जो तुं उत्पन्न थयेला ज्ञान, दर्शनने धारण करनार जमा अर्हन, जिन अने केवली थइने केवलिविहारथी विचरे छे तो आ बे प्रश्नोनो उत्तर आप. [प्र०] हे जमालि | १ लोक शाश्वत छे के लोक शाश्वत छ अशाश्वत छे ? हे जमालि ! २ जीव शाश्वत छे के अशाश्वत छे ? ज्यारे भगवंत गौतमे ते जमालि अनगारने पूर्व प्रमाणे पूछ्युं त्यारे ते शंकित अने कांक्षित थयो, यावत् कलुषितपरिणामवाळो थयो. ज्यारे ते (जमालि) भगवंत गौतमना प्रश्नोनो काइ पण उत्तर आपवा अशाश्वती जमालि उत्तर बापवा भससमर्थ न थयो त्यारे तेणे मौन धारण कयें. मर्थ थयो. ___३५. पछी श्रमण भगवान् महावीरे 'हे जमालि !' एम कहीने ते जमालि अनगारने आ प्रमाणे कर्दा के'हे जमालि ! मारे घणा भगवान् महावीरश्रमण निग्रंथ शिष्यो छमस्थ छे, तेओ मारी पेठे आ प्रश्नोनो उत्तर आपवा समर्थ छे. पण जेम तुं कहे छे तेम 'हुं सर्वज्ञ अने जिन ना छु' एवी भाषा तेओ बोलता नथी. हे जमालि ! लोक शाश्वत छे, कारण के 'लोक कदापि न हतो' एम नथी, 'कदापि लोक नथी' एम लोक शाश्वत के. नथी, अने 'कदापि लोक नहि हशे' एम पण नथी. परन्तु लोक हतो, छे अने हशे. ते ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे. वळी हे जमालि ! लोक अशाश्वत पण छे, कारण के अवसर्पिणी थइने उत्सर्पिणी थाय छे. उत्सर्पिणी थइने अवसर्पिणी लोक अशाश्वत के. थाय छे. हे जमालि | जीव शाश्वत छे, कारण के ते 'कदापि न हतो' एम नथी, 'कदापि नथी' एम नथी अने, 'कदापि नहि हशे' बीव शाश्वत छे. एम पण नथी, जीव यावद् नित्य छे. वळी हे जमालि ! जीव अशाश्वत पण छे, कारण के नैरयिक थइने तिर्यंचयोनिक थाय छे, तिर्यंच- जीव मशाश्वत छे. योनिक थइने मनुष्य थाय छे, अने मनुष्य थइने देव थाय छे. ____३६. त्यारपछी ते जमालि अनगार आ प्रमाणे कहेता, यावत् ए प्रकारे प्ररूपणा करता श्रमण भगवान् महावीरनी आ वातनी श्रद्धा करतो नथी, प्रतीति करतो नथी, रुचि करतो नथी, अने आ बाबतनी अश्रद्धा करतो, अप्रतीति करतो अने अरुचि करतो पोते बीजी वार पण श्रमण भगवंत महावीर पासेथी नीकळे छे. नीकळीने घणा असद्-असत्य भावने प्रकट करवा वडे अने मिध्यात्वना अभिनिवेश 'वडे पोताने, परने तथा बन्नेने भ्रान्त करतो अने मिथ्याज्ञानवाळा करतो घणा वरस सुधी श्रमण पर्यायने पाळे छे, पाळीने अर्धमासिकसं तहा चेव ङ । २ भवमिए ग । ३ ताणं । ४ वागरेत्तए क। ५ जनं ण छ। कदावि घ। जो घ। ८ पाउणिति क । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३. झूसेइ, झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति, तीसं० २ छेदेत्ता तस्स टाणस्स अणालोइय-पडिकंते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमठितीएसु देवकिपिसिएसु देवेसु देवकिधिसियत्ताए उववन्ने । . . ३७. [प्र०] तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छद, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता णमंसिता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम अणगारे, से णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवन्ने ? [उ०] गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं. वयासी-एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नामं अणगारे से णं तदा मम एवं आइक्खमाणस्स ४ एयं अटुं णो सद्दहइ ३, एयं अटुं असद्दहमाणे ३ दोञ्चं पि ममं अंतियाओ आयाए अवकमइ, दोच्चं० २ अवक्कमित्ता बहूहिं असम्भावुभावणाहिं तं चेव जाव देवकिचिसियत्ताए उववन्ने । ___३८. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! देवकिब्बिसिया पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिबिहा देवकिश्चिसिया पण्णत्ता, तं जहातिपलिओवमट्रिइया, तिसागरोवमट्टिइया, 'तेरससागरोवमट्टिइया। ३९. [प्र०] कहिं णं भंते ! तिपलिओषमट्टिइया देवकिश्चिसिया परिवसंति ? [उ०] गोयमा ! उम्पि जोइसियाणं, हिडिं सोहम्मी-साणेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिपलिओवमद्वितिया देवकिचिसिया परिवति । ४०. [प्र.] कहिं णं भंते ! तिसागरोवमट्रिईया देवकिचिसिया परिवसंति ? [उ०] गोयमा! उप्पि सोहम्मी-साणाणं कप्पाणं, हिट्टि सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिसागरोवमट्टिईया देवकिचिसिया परिवसंति । ४१. [प्र०] कहिणं भंते ! तेरससागरोवमट्रिइया देवकिपिसिया देवा परिवसंति ? [उ.] गोयमा ! उप्पि बंभलोगस्स कप्पस्स हिट्टि लंतए कप्पे, पत्थ णं तेरससागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति । लेखनावडे आत्माने-शरीरने कृश करीने अनशनवडे त्रीश भक्तोने पूरा करी ते पापस्थानकने आलोच्या के प्रतिक्रम्या सिवाय मरण समये काल करीने लान्तक देवलोकने विषे तेर सागरोपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवोमा किल्बिषिक देव पणे उत्पन्न थयो. ३७. पछी ते जमालि अनगारने कालगत थयेला जाणीने भगवान् गौतम ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवान् महावीरने वांदे छे, नमे छे. वांदी-नभीने ते आ प्रमाणे बोल्या के-'हे भगवन् ! ए प्रमाणे देवानुप्रिय एवा आपनो अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामे अनगार हतो, ते काळ समये काळ करीने क्यां गयो-क्यां उत्पन्न थयो ? [उ०] 'हे गौतमादि !' ए प्रमाणे कहीने श्रमण भगवंत महावीरे भगवान् गौतमने आ प्रमाणे कह्यु के-'हे गौतम ! मारो अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामे अनगार हतो ते ज्यारे हुं ए प्रमाणे कहेता हतो, यावत् प्ररूपणा करतो हतो त्यारे ते आ बाबतनी श्रद्धा करतो नहोतो, प्रतीति के रुचि करतो नहोतो. आ बाबतनी श्रद्धा, प्रतीति के रुचि न करतो फरीथी मारी पासेथी नीकळीने घणा असद्भूत-मिथ्या भावोने प्रकट करवावडे-इत्यादि यावत् किल्बिषिकदेवपणे उत्पन्न थयो छे. किल्बिषिकदेवनी स्थिति. ३८. [प्र०] हे भगवन् ! किल्बिषिक देवो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रकारना किल्बिषिक देवो कह्या छे. ते आ प्रमाणे-त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा, त्रण सागरोपमनी स्थितिवाळा अने तेर सागरोपमनी स्थितिवाळा. किल्बिषिक ३९. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो कये ठेकाणे रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्योतिष्कदेवोनी देवोनो निवास सि. उपर अने सौधर्म अने ईशानदेवलोकनी नीचे त्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो रहे छे. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण सागरोपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो क्यां रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! सौधर्म अने ईशान देवलोकनी उपर तथा सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवलोकनी नीचे त्रण सागरोपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो रहे छे. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! तेर सागरोपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो क्यां रहे छे! [उ०] हे गौतम ! ब्रह्मलोकनी उपर अने लांतक कल्पनी नीचे तेर सागरोपमनी स्थितिवाळा किल्बिषिक देवो रहे छे. १-अपडि-ग। २-३-४ द्वितीया क । . Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ९. - उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. * ४२. [प्र०] देवकिञ्चिसिया णं भंते! केसु कम्मादाणेसु देवकिचिसियत्ताए उववत्तारो भवन्ति ? [३०] गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियपडिणीपा उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, संघपडिणीया आयरियडवज्झायाणं अयस करा, अवन्नकरा, अकित्तिकरा, बहूहिं असम्भावुब्भावणाहिं, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गामाणा, पारमाणा बहूई बालाई सामन्नपरियागं पावनंति पाउणित्ता तस्स द्वाणस्स अणालोइयपडियंता कालमासे काल किया अनयरेसु देवकिञ्जिखिसु देवकिम्बसियता उपयसारो भवति तं जहातिपलिओचमद्वितिय वा तिसागरोपमद्वितिरसु या तेरससागरोवमद्वितियसु वा । 3 ४३. [प्र० ] देवकिखिसिया णं भंते! ताओ देवलोगात्री आठवणं, भवस्वपूर्ण डिईक्वणं अतरं वयं चत्ता कहिं गच्छति कहि उपपति ? [४०] गोयमा जाव बतारि पंच नेरइयतिरिफ्यजोणिय मजुरस- देवभवम्हणाई संसारं अनुपरिपट्टित्ता तभ पच्छा सिद्धांति, युज्यंति, जाब अंत करेंति अत्थेगया अगादी अणवद्दीहमदं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहंति । ४४. [प्र०] जमाली भंते! अणगारे अरसाहारे, बिरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे, तुच्छाहारे, अरसजीबी, विरसजीवी, जाव तुच्छजीवी, उवसंतजीवी, पसंतजीवी, विवित्तजीवी ? [उ०] हंता, गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसा - हारे, विरसाहारे, जाव विवित्तजीवी । ४५. [प्र० ] जति पं भंते! जमाली अणगारे अरसाहारे, विरसाहारे, जाय विविधजीवी कहां णं भंते! जमाली अणगारे कालमा कार्य किया लंतर कप्ये तेरससागरोवमट्टितिएस देवकिडिसिप देयेसु देवकिबिसियत्ताए उवयन्ने ? [०] गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, आयरिय उवज्झायाणं अयसकारण, अवन्नकारण, जाव पिकदेव पणे उपजे १ ४२. [प्र० ] हे भगवन् ! किल्बिपिक देवो क्या कर्मना निमित्ते किल्बिपिकदेवपणे उत्पन्न थाय छे ? [ उ०] हे गौतम! कया कर्मयी किहिबजे जीवो आचार्यना प्रत्यनीक (द्वेषी), उपाध्यायना प्रत्यनीक, कुलप्रत्यनीक, गणप्रत्यनीक अने संघना प्रत्यनीक होय, तथा आचार्य अने उपाध्यायना अपश करनारा, अपर्णवाद करनारा अने अकीर्ति करनारा होय, तथा घणा असत्य अर्थने प्रगट करवायी अने मिथ्या कदाग्रहथी पोताने, परने अने बन्नेने भ्रान्त करता, दुर्बोध करता, घणा वरस सुधी साधुपणाने पाळे, अने पाळीने ते अकार्य स्थाननुं आलोचन के प्रतिक्रमण कर्या सिवाय मरणसमये का करीने कोइ पण फिल्मिपिक देवोमां किल्मिपिकदेवपणे उत्पन्न थाय छे. ते आ प्रमाणे श्रण पत्योरमनी स्थितियां प्रण गागरोपमनी स्थितिवामां के तेर सागरोपमनी स्थितियां उत्पन्न धाय.] ४३. [प्र० ] हे भगवन् ! ते किल्बिधिक देवो आयुष्यनो क्षय थवाथी, भवनो क्षय थवाथी, स्थितिनो क्षय थवाथी, तरत ते देवलोक थी च्यवने क्यां जाय - क्या उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! ते किल्बिषिक देवो *नारक, तिर्यंच, मनुष्य अने देवना चार के पांच भवो करी, एटलो संसार भ्रमण करीने खारपछी सिद्ध याय, बुद्ध पाय अने यावद दुःखोनो नाश करे. अने केटलाक किल्बिधिक देवो तो अनादि, अनंत अने दीर्घमार्ग चारगति संसाराटवीगां भम्या करे. ४४. [प्र०] हे भगवन्! शुं जमालि नामे अनगार रसरहित आहार करतो, बिरसाहार करतो, अंताहार करतो, प्रांताहार करतो, रूक्षाहार करतो, तुच्छाहार करतो, अरसजीवी, विरसजीवी, यावत् तुच्छजीवी, उपशांतजीवनवाळो, प्रशांतजीवनवाळो, पवित्र अनेक जीवनवाळो हतो ? [उ०] हे गौतम ! हा, जमालि नामे अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावद् पवित्रजीवनवाळो हतो. ४५. [ प्र० ] हे भगवन् ! जो जमालि नामे अनगार अरसाहारी, विरसाहारी अने यावद् पवित्र जीवनवाळो हतो तो हे भगवन् ! ते जमाति अनगार मरणसमये काल करीने लांतक देवलोकमां तेर सागरोपमनी स्थितियाळा किल्मिपिक देवोमा किल्बिषक देवपणे केम उत्पन्न थयो ? [उ०] हे गौतम! ते जमालि अनगार आचार्यनो अने उपाध्यायनो प्रत्यनीक हतो, तथा आचार्य अने उपाध्यायनो अयश करनार अवर्णवाद करनार हतो यावद् ते [ मिथ्या अभिनिवेश वडे पोताने, परने अने उभयने भ्रान्त करतो ] दुर्बोध करतो, यावत् घणा १ इमे आय-कङ । २ देवताएकङ । '४३. * यद्यपि 'किल्बिषिक मरीने क्यां उत्पन्न थाय ?' ए प्रश्नना उत्तरमां नारक, तिर्यंच, मनुष्य अने देवना चार पांच भवप्रहण करीने मोक्षे जाय' एमक छे, ते सामान्य कथन छे. अन्यथा देव अनं नारक मरीने देव के नारक न थाय, परन्तु तुरत तो मनुष्य के तिर्यचमां उत्पन्न भइने पछी नारक के देपमा उत्पन्न थाय. टीका किल्बिषिदेव मरीने क्या उपजे १ / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ९देशक ३३. प्पापमाणे जाय यह वासाई सामन्नपरियागं पाउणति, पाउनित्ता अद्धमासियाप संलेहनाए तीसं भत्ताई असणार छेदेति, तीस २ छेदेता तस्स ट्ठाणस्स अणालोइयपडिकंते कालमासे कालं किया लंतर कप्पे जाव उववन्ने । ४६. [प्र० ] जमाली णं भंते! देवेत्ताओ देवलोगाओ आउक्खपणं जाव कहिं उववजिहिति १ [ उ०] गोयमा ! चन्तारि, पंच तिरिक्खजोणिय - मणुस - देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियद्वित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति, जाव अंतं काहिति । सेवं मंते । सेयं भंते! सि नवमसए तेत्तीसइमो उद्देसो समतो । बरस सुधी श्रमणपणाने पाळीने अर्धमासिक संलेखना पडे शरीरने कृश करीने श्रीश भक्तोने अनशन पडे पूरा करीने ते स्थानकने आलोच्या के प्रतिक्रम्या सिवाय काळसमये काळ करीने लांतक कल्पमां यावद् उत्पन्न थयो. ४६. [प्र०]. हे भगवन् ! ते जमालि नामे देव देवपणाथी, देवलोकथी पोताना आयुषनो क्षय थया बाद यात्रत् क्यां उत्पन्न थशे ? [30] हे गौतम! तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, अने देवना चार पांच भवो करी-एटलो संसार भमी-त्यार पछी ते सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखोनो नाश करशे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [ एम कही भगवंत गौतम यावत् विहरे छे. ] नवम शते त्रीशमो उद्देशक समाप्त. १ देवताओं क । २ काहेति च । / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोत्तीसइमो उद्देसो. १. [प्र० ] तेणं कालेणं तेणं समपणं रायगिद्दे जाव एवं पयासी - पुरिसे णं भंते । पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं द्दणइ, नोपुरिसं हणइ ? [उ०] गोयमा ! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणति । [ प्र०] से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चर - पुरिसं पण, जाव नोपुरिसेवि हणइ ? [उ०] गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं पुरिसं हृणामि, से णं पगं पुरिसं इणमाणे अणेगे जीवे हणह, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुश्चइ - पुरिसं पि हणा, जाव नोपुरिसे वि हणइ । २. [ प्र० ] पुरिसे णं भंते! आसं हणमाणे किं आसं द्वणइ नोआसे वि हणइ ? [उ०] गोयमा ! आसं पिहणर, नोभासे विद्दण । [ प्र० ] से केणट्टेणं ? [अ०] अट्ठो तहेव, एवं हत्थि, सीहं, वग्धं जाव चिंत्तलगं । *पए सने इकगमा । ३. [प्र० ] पुरिसे णं भंते! अन्नयरं तेसं पाणं हणमाणे किं अम्नयरं तैर्स पाणं हणह, नोअन्नतरे तसे पाणे हणइ ? [0] गोयमा ! अन्नयरं पि तसं पाणं हणइ, णोअन्नयरे वि तसे पाणे हणइ । [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चर - अन्नयरं पि तसं पार्ण, नोअन्नयरे वि तसे पाणे हणइ [अ०] गोयमा । तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं पगं अन्नयरं तसं पाणं हणामि, सेणं पगं अनयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! तं चैव । एए सजे वि एकगमा । चोत्रीशमो उद्देशक. १. [प्र० ] ते काले-ते समये राजगृह नगरमां [ भगवान् गौतमे ] यावत् ए ग़माणे पुछ्युं के - हे भगवन् ! कोई पुरुष पुरुषनो घात करतो शुं पुरुषनो ज घात करे के नोपुरुषनो घात करे ? [उ०] हे गौतम! पुरुषनो पण घात करे अने नोपुरुषोनो ( पुरुष शिवाय बीजा जीवोनो) पण घात करे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के - पुरुषनो घात करे अने यावत् नोपुरुषोनो पण घात करे ? [30] हे गौतम! ते घात करनारना मनमां तो एम छे के 'हुं एक पुरुषने हणुं छं', पण ते एक पुरुषने हणतो बीजा अनेक जीवोने हणे छे; माटे ते हेतुथी हे गौतम! एम कहुं हुं छे के ते पुरुषने पण हणे अने यावत् नोपुरुषोने पण हणे. २. [प्र०] हे भगवन् ! अश्वने हणतो कोइ पुरुष शुं अश्वने हणे के नोअश्वोने ( अश्व सिवाय बीजा जीवोने) पण हणे ! [उ०] हे गौतम! ते अश्वने पण हणे अने नोअखोने पण हणे. [ प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो ! [उ०] हे गौतम ! उत्तर पूर्ववत् जावो. ए प्रमाणे हस्ती, सिंह, वाघ तथा यावत् चिल्ललक संबन्धे पण जाणवुं. ए बधानो एक सरखो पाठ जाणवो. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! कोइ पुरुष कोइ एक त्रस जीवने हणतो शुं ते त्रस जीवने हणे के ते शिवाय बीजा त्रस जीवोने पण हणे ? [30] हे गौतम ! ते कोइ एक त्रस जीवने पण हणे, अने ते शिवाय बीजा त्रस जीवोने पण हणे. [प्र०] हे भगवन् । ए प्रमाणे आप शाहेतुथी कहो छो के 'ते कोई एक त्रस जीवने हणे अने ते शिवाय बीजा त्रस जीवोने पण हणे' ? [उ०] हे गौतम! ते हणनारना मनमां ए प्रमाणे होय छे के 'हुं कोइ एक त्रस जीवने हणुं धुं', पण ते कोई एक त्रस जीवने हणतो ते शिवाय बीजा अनेक त्रस जीवो हणे छे. माटे हे गौतम! इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं. ए बधाना एक सरखा पाठ कहेवा. १ - चिलगं ग घ ङ। # 'एए सब्वे इचगमा' इत्यधिकः पाठो ग पुस्तक एव । २-३ तपा-ध । २४ भ० सू० पुरुषने हणतो पुरुषने हणे के नो पुरुषने ह पुरुष भने नोपु रजनी बात करे. अपने हणतो अपने के नो धोने हणे अमुक त्रसने हणतो तेने हुणे के बीजा मसोने पण इणे ? Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३४. ४. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसि हणइ, नोइसि हणइ ? [उ०] गोयमा! इसि पि हणइ नोइसिं पि हणइ । प्र०] से कणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जाव नोइसि पि हणइ ? [उ०] गोयमा तस्स णं एवं भवद-एवं खलु अहं एग इसिं हणामि, से णं एग इसि हणमाणे अणंते जीवे हणइ, से तेणटेणं निफ्लेवो। ___५. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढे, नोपुरिसवेरेणं पुढे ? [उ०] गोयमा ! नियमं ताव पुरिसवेरेणं पुढे, अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवरेण य पुढे, अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि य पुढे एवं आसं, एवं जाव चित्तलगं, जाव अहवा चित्तलावेरेण य णोचित्तलावरेहि य पुढे । ६. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! इसि हणमाणे किं इसिवेरेणं पुढे, नोइसिवेरेणं पुढे ? [उ०] गोयमा ! नियमं ताव इसिवेरेण य नोइसिवेरेहि य पुढे । ७.० पुंढविकाइए णं भंते! पुढविकायं चेव आणमइ वा, पाणमति वा, ऊससति वा, नीससह वा? [उ०] हंता, गोयमा ! पुढविक्काइए पुढविकाइअं चेव आणमति वा, जाव 'नीससति वा। ८. [प्र०] पुढविक्काइए णं भंते! आउक्काइयं आणमं(म)ति, जाव नीससं(स)ति वा ? [उ.] हंता, गोयमा! पुढविक्काइए चेव आउकाइयं आणमं(म)ति, जाव नीससं(स)ति वा; एवं तेउक्काइयं, वाउकाइयं, एवं वणस्सइकाइयं । ९. प्र०] आउकाइए णं भंते ! पुढविक्काइयं आणमति वा, पाणमति वा ? [उ.] एवं चेव । ४ । ऋषिने एणतो ४. [प्र०] हे भगवन् ! ऋषिने हणतो कोई पुरुष शुं ऋषिने हणे के ऋषि शिवाय बीजाने पण हणे ! [उ०] हे गौतम ! ऋषिने ऋषिने हणे के ते हणे अने ऋषि शिवाय बीजाने पण हणे. प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के यावद् ऋषि शिवाय बीजाने पण शिवाय बीजाने हो हणे ! [उ०] हे गौतम! ते हणनारना मनमा एम होय छे के 'हुं एक ऋषिने हणुं छं.', पण ते एक ऋषिने हणतो "अनंत जीवोने हणे छे. ते हेतुथी एम कहेवाय छे-इत्यादि उपसंहार जाणवो. पुरुषने हणनार ५. [प्र०] हे भगवन् ! कोइ पुरुष बीजा पुरुषने हणतो शुं पुरुषना वैरथी बन्धाय के नोपुरुषना (पुरुष शिवाय बीजा जीवोना) थी वैरथी बन्धाय ? [उ०] हे गौतम ! ते अवश्य पुरुषना वैरथी बन्धाय, १ अथवा पुरुषना वैरथी अने नोपुरुषना वैरथी बन्धाय, २ अथवा बन्धाय के नो. पुरुषना वैरपी पुरुषना वैरथी अने नोपुरुषना वैरोथी बन्धाय. ए प्रमाणे अश्वसंबन्धे अने यावत् चिल्ललक संबन्धे पण जाणवू. यावत् अथवा चिल्ललबन्धाय कना वैरथी अने नोचिल्ललकना वैरोथी बन्धाय. ऋषिना वैरथी के ६. [प्र०) हे भगवन् ! ऋषिनो वध करनार पुरुष शुं ऋषिना वैरथी बन्धाय के नोऋषिना वैरथी बन्धाय ! [उ०] हे गौतम ! ते नोऋषिना वैरोथी अवश्य ऋषिना वैरथी अने नोऋषिना वैरोथी बन्धाय. पृथिवीकायिक पृथिवीकायिकने ७. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करे अने मुके [उ०] हे श्वासोच्छासरूपे गौतम ! हा, पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे अने मूके. प्रहण करे भने मूके। पृथिवीकायिक ८. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव अप्कायिकने आणप्राणरूपे-श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे अने मूके ! [उ०] हा, ग्रहण करे भने गौतम ! पृथिवीकायिक अप्कायिकने श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे, यावत् मूके. ए प्रमाणे अग्निकाय, वायुकायिक अने वनस्पतिकायिमूके ? कसंबन्धे प्रश्नो करवा.. अप्कायिक पृथि- ९.[प्र०] हे भगवन् ! अप्कायिक जीव पृथिवीकायिकने आनप्राणरूपे श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे अने मूके! (उ०] ए रीते वीकायिकने ग्रहण बरे. पूर्व प्रमाणे जाणवू. बन्धाय ? १ अर्णता जीवा कना-ङ। २ नियमा घ, नियमेणं ङ। ३ चिल्ललगं ग-घ-ङ। ४-५ चिल्ललगवे- ग-घ-ङ। नियमाघ । ७-काइया ग-घ-ङ। ८-कायं घ। ९-मंति पाणमंति वा उससंति नीससंति वा ग-घ-छ। १०-मंति वा ग-घ-ङ। "-संति वा का -घ-ङ। ४. * "ऋषिनो वध करनार कोई पुरुष ऋषिने हणे अने ते शिवाय बीजा जीवोने पण हणे" ते संबन्धे टीकाकार भा प्रमाणे खुलासो करे - "ऋषिनो हणनार पुरुष ऋपिनो घात करता ते शिवाय बीजा अनन्त जीवोनो घात करे, कारण के ऋषि जीवतो होय तो अनेक प्राणिओने प्रतिबोध करे, अने तेओ प्रतिबोध पामीने अनुक्रमे मोक्षे जाय, मुक्त जीवो तो अनन्त जीवोना अहिंसक छे, अने ते अनन्त जीवोनी अहिंसामा ऋषि कारण छे माटे ऋपिनो वध करनार तेनी अने वीजा अनन्त जीवोनी हिंसा करे छे."-टीका. ५. पुरुषने हणनार पुरुषे पुरुषनो घात करेलो होवाथी ते ना पापथी ते अवश्य बन्धाय, पण ज्यारे ते तेम करता बीजा कोइ एक प्राणीनी हिंसा करे. त्यारे ते नोपुरुषवैरथी पण बन्धाय, अने अनेक प्राणिओनी हिंसा करे तो नोपुरुषवैरोथी बन्धाय. ६. ऋषिनो घात करनार पुरुष ऋषिना वैरथी अने नोऋषिना वैरोथी बन्धाय. आ पक्षमा मा एकज भंग जाणवो. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ शतक ९.-उद्देशक ३४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १०. [प्र०] आउकाइए णं भंते ! आउकाइयं चेव आणमति वा ? [उ०] एवं चेव; एवं तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयं । ११. [प्र०] तेउक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं आणमति वा ? [उ०] एवं, जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! षणस्साहकार्य चेव आणमति वा ? [उ०] तहेव ।। १२. प्रि०] पुढविकाइए णं भंते ! पुढविक्काइयं चेव आणममाणे वा, पाणममाणे वा, ऊससमाणे वा, णीससमाणे या कइकिरिए ? [उ०] गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। १३. [प्र०] पुढविकाइए णं भंते ! आउक्काइयं आणममाणे वा! [उ०] एवं चेव; एवं जाव वणस्सइकाइय, एवं आउकाइएण वि सधे विभाणियधा, एवं तेउक्काइएण वि, एवं वाउकाइएण वि । जाव [प्र०] वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा-पुच्छा । [उ.] गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। . १४. [प्र०] वाउकाइए णं भंते ! रुषखस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? [उ०] गोयमा ! सिय तिकिरिप, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए; एवं कंद, एवं जाव [प्र०] बीयं पचालेमाणे वा पुच्छा [उ०] गोयमा। सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति । नवमसए चोत्तीसइमो उद्देसो समत्तो । नवमं सयं समत्तं । १०. [प्र०] हे भगवन् ! अप्कायिक जीव अप्कायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करे अने मूके ? [उ०] पूर्व प्रमाणे लप्कायिक ब कायिकने ग्रहण जाणवू. ए प्रमाणे तेजःकाय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय संबन्धे पण जाणवू. करे भने मूके! ११. [प्र०] हे भगवन् ! अग्निकायिक जीव पृथिवीकायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे अने मूके ! ए प्रमाणे अकायिक पृथियावत् [प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छासरूपे ग्रहण करे अने मूके ! [उ०] उत्तर करने का पूर्ववत् जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करतो अने मूकतो केटली पृथिवीकायिका दिकने क्रियाओ. क्रियावाळो होय ! उ०] हे गौतम! ते कदाच त्रणक्रियावाळो, कदाच चारक्रियावाळो अने कदाच पांचक्रियावाळो होय. १३. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव अप्कायिकने आनप्राणरूपे-श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करतो [ केटली क्रियावाळो होय !] [उ०] इत्यादि पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिक संबन्धे पण जाणवू. तथा ए प्रमाणे अप्कायिकनी साथे सर्व पृथिवीकायादिकनो संबन्ध कहेवो. तेज प्रकारे तेजःकायिक अने वायुकायिकनी साथे सर्वनो संबन्ध कहेवो. यावत् प्र०] हे भगवन् । वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिकने आनप्राणरूपे–श्वासोच्छ्रासरूपे ग्रहण करतो [अने मूकतो केटली क्रियावाळो होय !] [उ०] हे गौतम । ते कदाच त्रणक्रियावाळो, कदाच चारक्रियावाळो अने कदाच पांचक्रियावाळो पण होय. १४. [प्र०] हे भगवन् ! वायुकायिक जीव वृक्षना मूळने किंपावतो के पाडतो केटली क्रियावाळो होय ?. [उ०] हे गौतम! वायुकायिकने कदाच त्रणक्रियावाळो होय, कदाच चारक्रियावाळो होय अने कदाच पांचक्रियावाळो पण होय. ए प्रमाणे यावत् कंद संबन्धे जाणवू. किया. ए प्रमाणे यावत् [प्र०] बीजने कंपावतो-इत्यादि संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कदाच त्रणक्रियावाळो, कदाच चारक्रियावाळो अने कदाच पांचक्रियावाळो होय. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. नवमशते चोत्रीशमो उद्देशक समाप्त. नवम शतक समाप्त. १२. * पृथिवीकायिकादि जीव पृथिवीकायिकादिक ने श्वासोच्छासरूपे प्रण करतां ज्यारे तेने पीडा उत्पन्न न करे त्यारे तेने कायिकी इत्यादि त्रण क्रिया होय, ज्यारे पीडा करे त्यारे पारितापनिकी सहित चार क्रिया, भने घात करे त्यारे प्राणातिपातिकीयुक्त पांच क्रिया होय.-टीकाकार. १४. वृक्षना मूळने कंपावq के पाडq ते नदीना काठा उपर रहेला वृक्षोना मूळ पृथ्वीथी ढंकायेला न होय त्यारे संभवे छे.-टीकाकार. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वादि दिशाओ दिक्षाभोना प्रकार. १. दसमं सयं १ 'दिसि २ संवुड अणगारे ३ आयडी ४ सामहत्थि ५ देवि ६ सभा । ७-२८ उत्तरअंतरदीवा दसमम्मि सयंमि चउत्तीसा ॥ २. [ प्र० ] रायगिद्दे जाव एवं वयासी - किमियं भंते! 'पोईण 'ति पशुब्धइ ? [30] गोयमा ! जीवा चेव अजीवा नेव । ३. [प्र० ] किमियं भंते! 'पेंडीणा' ति पयुच्चइ ? [ उ० ] गोयमा ! एवं चेष, एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उहा, एवं हो । ४. [प्र० ] कति णं भंते । दिसाओ पन्नताओ ? [ उ०] गोयमा ! दस दिसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा - १ पुरत्थिमा, २ पुरस्थिमदाहिणा, ३ दाहिणा, ४ दौहिणपश्चत्थिमा, ५ पञ्चत्थिमा, ६ पश्चत्थिमुत्तरा, ७ उत्तरा, ८ उत्तरपुरत्थिमा, ९ उड्डा, १० अहो । 'दशम शतक. १. [ उद्देशक संग्रह - ] १. दिशा, २ संवृंत अनगार, ३ आत्मऋद्धि, ४ श्यामहस्ती, ५ देवी, ६ सभा अने ७-३४ उत्तर दिशाना अन्तरद्वीपो - ए सबन्धे दशम शतकमां चोत्रीश उद्देशको छे. [१ दिशा संबंधे प्रथम उद्देशक, २ संवृत ( संवरयुक्त ) अनगारादि विषे बीजो उद्देशक, ३ आत्म ऋद्धि - पोतानी शक्ति थी देवो देवावासोने उल्लंघन करे - इत्यादि संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ श्यामहस्ति नामे श्रीमहावीरना शिष्यना प्रश्न संबन्धे चोथो उद्देशक, ५ देवी - चमरादि इन्द्रनी अग्रमहिषी - संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६ सभा - सुधर्मा सभा - संबंधे छो उद्देशक अने ७-३४ उत्तर दिशाना अव्यावीश अन्तरद्वीपो संबन्धी सातथी चोत्रीश उद्देशको छे. ] प्रथम उद्देशक. २. [प्र०] राजगृह नगरमां [गौतम] यावत् आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! आ पूर्वदिशा ए. शुं कहेवाय छे ! [अ०] हे गौतम 1. ते *जीवरूप अने अजीवरूप कहेवाय छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! आ पश्चिम दिशा ए शुं कहेवाय छे ! [उ०] है गौतम ! पूर्वनी पेठे जाणवुं. ए प्रमाणे दक्षिण दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्वदिशा, अने अधोदिशा संबन्धे पण जाणवुं. ४. [प्र०] हे भगवन् ! केटली दिशाओ कही छे ! [ उ० ] हे गौतम! दश दिशाओ कही छे; ते आ प्रमाणे- १ पूर्व, २ पूर्वदक्षिण ( अग्नि कोण), ३ दक्षिण, ४ दक्षिणपश्चिम (नैर्ऋत कोण ), ५ पश्चिम, ६ पश्चिमोत्तर ( वायव्य कोण ), ७ उत्तर, ८ उत्तरपूर्व ( ईशान कोण), ९ ऊर्ध्व अने १० अधो दिशा. १. दिस सं-गं चोतसा क ३ पाईजाति ग । ४ पडी गात्ति घ। ५ दाहिणाप-ग . २. प्राची एटले पूर्व दिशा जीवरूप छे, केमके त्यां एकेन्द्रियादिक जीवो रहेला छे, अने पुद्गलास्तिकाय वगेरे अजीव पदार्थ रहेला छे माटे अजीवरूप पण छे. टीका. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०. प्रदेश १. भगवत् धर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. १८२ [०] यासि भंते देख दिसाणं कति नामभेजा पत्ता? [उ०] गोयमा ! दस नामपेक्षा पण्णत्ता, सं अदा-१ हंदा २ अषी ३ जमा य नेरई वारुणी व वाया सोमा ईसानी व विमला व तमा व योद्धा । ६. [अ०] [ईदा भंते! दिसा कि १ जीवा, २ जीवदेसा, ३ जीवपरसा, ४ अजीया ५ बजीवदेखा, ६ अजीवदेसा ? [30] गोयमा ! जीवा वि, तं चैव जाव अजीवपपसा वि । जे जीवा ते णियमा एर्गिदिया, बेइंदिया, जाव पंचिदिया, अणिदिया । जे जीवदेसा ते नियमा एर्गिदियदेसा, जाव अर्णिदियदेसा । जे जीवपपसा ते एगिंदियपरसा बेइंदियपपसा, जामणिदिपसा जे भजीचा से दुबिहा पत्ता, संजदारूविभजीया व अरूविभजीवा व जे कविभजीवा से चढविदा पत्ता जहा संधा, संघदेसा, संधपरसा, परमाणुपोग्गला जे अरूविभजीपा ते सत्तविदा पन्नसा तं जहा १ नोधम्मतं त्थिका धम्मत्थिकायस्त देसे, २ धम्मत्थिकायस्स पपसा, ३ नोअधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसे, ४ अधम्मत्थिकायस्थ परसा, ५ नोआगासत्धिकार आगासत्विकायस्स देखे, ६ भागासत्धिकाचस्स परसा, ७ भद्धासमए । 1 1 ७. [ प्र० ] अग्गेयी णं भंते! दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा - पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! १ णोजीवा जीवदेसा वि, २ जीवपयसा वि; १ अजीवा वि, २ अजीवदेसा वि, ३ अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते नियमा एर्गिदियदेसा । १ अहवा एगिंदियदेसाय बेइंदियस्स देसे, २ अहवा ऐगिंदियदेसा य बेइंदियस्स देसा य, ३ अहवा एैर्गिदियदेसा य बेदियाण व देखा १ अहवा पगिदियदेसा य तेईदियस्स देखे अ पर्व चेय तियभंगो भाणियो एवं जाय अणदिवाणं तियभंगो । जे जीवपरसा ते नियमा एगिंदियपपसा अहवा एर्गिदियपपसा य बेइंदियस्स परसा, अहवा एर्गिदियपरसा य 1 ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! ए दश दिशाओना केटला नाम कयां छे ! [उ०] हे गौतम! दश नाम कह्यां छे. ते आ प्रमाणे- १ * ऐन्द्री दिशा मोना दश ( पूर्व ), २ आग्नेयी (अंग्नि कोण), ३ याम्या (दक्षिण), ४ नैर्ऋती (नैर्ऋतकोण), ५ वारुणी (पश्चिम), ६ वायव्या, ७ सोम्या ( उत्तर ), ८ ऐशानी ( ईशान कोण ), ९ विमला ( उर्ध्व दिशा ), अने १० तंभा ( अधो दिशा ). ए दिशाना नामो अनुक्रमे जाणवां. नाम. ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! ऐन्द्री (पूर्व) दिशा शुं १ जीवरूप छे, २ जीवना देशरूप छे के जीवना प्रदेशरूप छे ? अथवा १ अजीव रूप छे, २ अजीवना देशरूप छे के ३ अजीवना प्रदेशरूप छे ! [उ०] हे गौतम । ऐन्द्री दिशा जीवरूप छे- इत्यादि पूर्व प्रमाणे यावत् अजीवप्रदेशरूप पण छे. तेमां जे जीवो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, यावत् पंचेन्द्रिय, तथा अनिन्द्रिय (सिद्धो ) छे. जे जीवना देशो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो छे, यावद् अनिद्रिय मुक्तजीवना देशो छे. जे जीपप्रदेशो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना प्रदेशो के, वेदन्द्रियजीवना प्रदेशो के बाप अनिन्द्रिय (मुक्त) जीवना प्रदेशो छे यही जे अजीबो छे से वे प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणे- एक रूपअजीव अने अरूपिअजीव तेमां जे रूपिअजीयो छे ते चार प्रकारना कहाा छे, ते आ प्रमाणे-१ स्कंध, २ स्कंध देश, ३ कंपप्र देश अने ४ परमाणु पुल तथा जे अरूपिअजीयो छे ते सात प्रकारना कह्या छे से आ प्रमाणे १ नोधर्मास्तिकायरूप धर्मास्तिकायनो देश, २ धर्मास्तिकायना प्रदेशो, ३ नोअधर्मास्तिकायरूपं अधर्मास्तिकायनो देश, ४ अधर्मास्तिकायना प्रदेशो, ५ नो आकाशास्तिकायरूप आकाशास्तिकायनो देश, ६ आकाशास्तिकायना प्रदेशो, अने ७ अद्धासमय (काशी). ७. [प्र०] हे भगवन् प्रेची दिशा (अफ्रिकोण) १ जीवरूप छे, २ जीवदेशरूप छे के ३ जीवप्रदेशरूप - इयादि प्रश्न करवो. [30] हे गौतम! १ मोजीवरूप जीवना देश अने २ जीवना प्रदेशरूप छे, ३ अजीवरूप छे, ४ अजीवना देशरूप के अने ५ अजीवना प्रदेशरूप पण छे. तेमां जे जीवना देशो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो छे, १ अथवा एकेन्द्रियोना देशो अने बेन्द्रियजीवनो देश छे, २ अथवा एकेन्द्रियोना देशो अने बेइन्द्रियना देशो छे; ३ अथवा एकेन्द्रियोना देशो अने वेइन्द्रियोना देशो छे. १ अपना एकेन्द्रियोना देशो अने त्रीन्द्रियनो देश छे इत्यादि पूर्व प्रमाणे अहं त्रण विकल्पो जाणवा. ए प्रमाणे यावद् अनिदिय सुचीत्रण विकल्पो मांगा कद्देवा तेमां जे जीवना प्रदेशो छे. ते अवश्य एकेन्द्रियोना प्रदेशो के १ अथवा एकेन्द्रियोना प्रदेशो अने बेन्द्रियना प्रदेशो छे, २ अथवा एकेन्द्रियोना प्रदेशो अने बेइन्द्रियोना प्रदेश छे. २ प्रमाणे सर्वत्र प्रथम मांगा सिवाय वे मांगा जागवा, ए प्रमाणे पापद् १ दस ग । २ बोधन्या ग ५. * इन्द्र तेनो खामी छे, माटे ते गेरे होना निनामो छ - ३-गिदियस्त देखा क। ४-देसा, घ । ५- गिंदियरस दे - घ । ऐन्द्री दिशा कहेवाय छे, ए प्रमाणे अमि, यम, नैर्ऋति, वरुण, वायु, सोम भने ईशान देवो खामी होवाथी आमेकी होमाची अर्थ दिशाने विमला भने अन्धकार होना यो दिशानेबा ६. प्राचीदिशा अखंड धर्माकारूनी, परन्तु देव देश भने असंख्यात प्रदेशका छे, माठे से धर्माविका . ए प्रमाने से मोरूपादिप ७. आयी दिशा जीवस्वरूप नथी, कारणके दरेक विदिशाओनो व्यास एक प्रदेशरूप छ, अने एक प्रदेशमा जीवनो समावेश भतो नधी, केमके तेनी अवगाहना असंख्य प्रदेशात्मक छे. टीकाकार. ऐन्द्री दिशा वीवरूप के इत्यादि. b. / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०.-उद्देशक १. घेइंदियाण य पएसा । एवं आइल्लविरहिओ जाव आणदियाणं । जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-रूविअजीवा य अरूविराजीवा य। जे सविअजीवा ते चउबिहा पन्नत्ता, तं जहा-खंधा, जाव परमाणुपोग्गला। जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तं जहा-१ नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे, २ धम्मत्थिकायस्स पएसा, एवं अहमत्थिकायस्स वि, जाव ६ आगासस्थिकायस्स पएसा, ७ अद्धासमए । विदिसासु नस्थि जीवा; देसे भंगो य होह सवत्थ । ८.०] जमा णं भंते ! दिसा किं जीवा ? [उ०] जहा इदा तहेव निरवसेसा । नेरई य जहा अग्गेयी । वारुणी जहा इंदा। वायवा जहा अग्गेयी। सोमा जहा इंदा। ईसाणी जहा अग्गेयी। विमलाए जीवा जहा अग्गेयीए । अजीवा जहा इंदा । एवं तमाए वि. नवरं अरूवी छबिहा, अद्धासमयो न भन्नति । ९. [प्र०] कति णं भंते! सरीरा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता. तं जहा-१ ओरालिए, जाव ५ कम्मए । १०. [प्र०] ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] एवं ओगाहणासंठाणं निरसेसं भाणियचं, जाव, 'अप्पाबहुगंति । सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति। दसमसए पढमो उद्देसो समत्तो। अनिद्रिय सुधी जाणवू. हवे जे अजीवो छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-रूपिअजीव अने बीजा अरूपिअजीव. जे रूपिअजीवो छे ते चार प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ स्कंधो, यावत् ४ परमाणुपुद्गलो. तथा जे अरूपिअजीवो छे ते सात प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ नोधर्मास्तिकायरूप धर्मास्तिकायनो देश, २ धर्मास्तिकायना प्रदेशो; ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय संबन्धे पण जाणवू; यावत् आकाशास्तिकायना प्रदेशो अने अद्धासमय. विदिशाओमां जीवो नथी, माटे सर्वत्र देशविषयक भांगो जाणवो. वाम्या दिशा. ८. [प्र०] हे भगवन् ! याम्या (दक्षिण) दिशा शुं जीवरूप छे-इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जेम ऐन्द्री दिशा संबन्धे कधु (सू. ६) तेम सर्व अहीं जाणवू. जेम आग्नेयी दिशा संबन्धे कधु (सू. ७) ते प्रमाणे नैर्ऋती दिशा माटे जाणवू. जेम ऐन्द्री दिशा संबन्धे कयुं तेम वारुणी (पश्चिम) दिशा माटे जाणवू. वायव्यदिशाने आग्नेयीनी पेठे जाणवू. ऐन्द्रीनी पेठे सोम्या अने आग्नेयीनी पेठे ऐशानी दिशा जाणवी. तथा विमला-ऊर्ध्व दिशा-मां जेम आग्नेयीमां जीवो कह्या तेम जीवो अने ऐन्द्रीमां अजीवो कह्या तेम अजीवी जाणवा. ए प्रमाणे तमा-अधोदिशा-ने विषे पण जाणवं, परन्तु विशेष ए छे के, *तमा दिशामा अरूपिअजीवो छ प्रकारना छे, कारण के त्यां अद्धासमय (काल) नथी. ९. [प्र०] हे भगवन् ! शरीरो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! शरीरो पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे१ औदारिक, [२ वैक्रिय, ३ आहारक, ४ तैजस] यावत् ५ कार्मण. १०. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीर केटला प्रकारे कडुं छे ? [उ०] हे गौतम ! अहिं सर्व अवगाहनासंस्थान' पद अल्पबहुत्व सुधी कहे. हे भगवन् ! ते एमज छे, ए भगवन् ! ते एमज छे, [एम कही यावत् भगवान् गौतम विहरे छे] शरीरना प्रकार. औदारिक शरीरना प्रकार. दशमशते प्रथम उद्देशक समाप्त. १-संठाणपदे नि-ग। ८. * समयनो व्यवहार गतिमान् सूर्यना प्रकाश उपर अवलंबित छे, ते (गतिमान् सूर्यनो प्रकाश) तमाने विषे नथी माटे त्या अदासमय (काल) नथी. यद्यपि विमलाने विषेपण गतिमान् सूर्य नो प्रकाश नहि होवाथी समयना व्यवहारनो संभव नथी, तो पण मेरुपर्वतना स्फटिककांडने विषे गतिमान् सूर्यना प्रकाशनो संक्रम थाय छे, तेथी त्यो समयव्यवहार होइ शके छे. टीकाकार. १०.1 प्रज्ञा पद. २१. प. ४०७.२-४३३.२. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो. १. [प्र०] रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्त णं भंते ! अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रुवाई निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स, उहूं रूवाई आलोएमाणस्स, अहे रूवाणि आलोएमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा जाव तस्स णं णो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जति । [प्र०] से केणटेणं मंते! एवं वुच्चइ-जाव संपराइया किरिया कजति ? [उ०] गोयमा! जस्स गं कोह-माण-माया-लोभा० एवं जहा सत्तमसप पढमोदेसए जाव से णं उस्सुत्तमेव रीयति से तेणटेणं जाव से संपराइया किरिया कजइ ।। २. [प्र०] संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ ? पुच्छा [उ०] गोयमा! संवुड० जाव तस्सणं इरियावहिया किरिया कजइ, नो संपराइया किरिया कजा। [प्र०] से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ ? [उ०] जहा सत्तमे सए सत्तमोद्देसए, जाव से णं अहासुत्तमेव रीयति से तेण?णं जाव नो संपराइया किरिया कजइ । ३. [प्र०] कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीतोसिणा; एवं जोणीपयं निरसेसं भाणियवं। द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् [ गौतम ] ए प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! वीचिमार्गमां-कषायभावमां-रहीने आगळ रहेलां रूपोने कषायभावना रहेला जोता, पाछळना रूपोने देखता, पडखेना रूपोने अवलोकता, ऊंचेना रूपोने आलोकता अने नीचेना रूपोने अवलोकता संवृत (संवरयुक्त) संत साधने संवृत साधुने ऐर्याप विकी के सांपराविकी अनगारने शुं ऐर्यापथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! वीचिमार्गमां (कषायभावमां) रहीने यावत् रूपोने क्रिया लागे । जोता संवृत अनगारने ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे. [प्र०) हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के संवृत अनगारने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ क्षीण थया होय तेने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे-इत्यादि "सप्तम शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् 'ते संवृत अनगार सूत्र विरुद्ध वर्ते छे' त्यांसुधी कहे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे छे. २. प्र०] हे भगवन् ! अवीचिमार्गमां-अकषायभावमां-रहीने आगळना रूपोने जोता, यावत् अवलोकता संवृत अनगारने शुं ऐर्याप- पायभावमा रहेला साभुने थिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम! यावत् अकषायभावमा रहीने आगळ रूपोने जोता यावत् ते संवृत अनगारने MIT ऐपिथिकी क्रिया लागे, पण सांपरायिकी क्रिया न लागे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के ते अनगारने ऐर्याप- परायिकी क्रिया। थिकी क्रिया लागे पण सांपरायिकी क्रिया न लागे? [उ०] हे गौतम! 'जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ क्षीण थया छे तेने ऐर्यापथिकी ऐर्यापमिकी - क्रिया लागे छे-इत्यादि जेम सप्तम शतकना प्रथम उद्देशकमां (उ० १. सू० १८.) कयुं छे तेम अहीं पण यावत् 'ते अनगार सूत्रानुसारे वर्ते लालाराका छे' त्यांसुधी कहे, हे गौतम ! ते हेतुथी तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागती नथी. ३. [प्र०] हे भगवन् ! योनि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! योनि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-शीत, ___योनिउष्ण अने शीतोष्ण..ए प्रमाणे अहीं समग्र योनिपद कहेवू. १.* भग. ख. ३. श. ७३.१पृ.५ सू. १.. ३.प्रज्ञा. पद ९ प. २२४. २-२२७. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०.-उद्देशक २. ४.प्र०] काविहा णं भंते ! वेयणा पण्णता? [उ०] गोयमा! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीओसिणा । एवं वेयणापयं निरवसेसं भाणियचं, जाव [प्र०] 'नेण्या णं भंते । किं दुषखं घेणं वेदेति, सुदं यणं वेदेति, अनुषखममुहं घेयणं वेदेति [उ०] गोयमा! दुषखं पिबेयणं वेदेति, सुहं पि वेदणं घेदेति, अदुषखमसुद्द पिवेयणं वेदेति। ५. मासियं णं भंते! भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निश्चं वोसट्टे काप, चियत्ते देहे-एवं मासिया भिक्खुपडिमा निरवसेसा भाणियधा, जहा दसाहि, जाव 'आराहिया भवइ । ६. भिक्खू य अनयरं अकिञ्चटाणं पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिकते कालं करेद. नत्थि तस्स आराहणा, से णं तरस ठाणस्स आलोइय-पडिकंते कालं करेह अत्थि तरस आराहणा । भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-'पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि पयस्स ठाणस्स आलोपस्सामि, जाव पंडिकमिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिकंते जाव नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिकंते कालं कर अत्थि तस्स आराहणा । भिक्खू य अन्नयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तरस णं एवं भवइ-'जइ ताव समणोवासगा वि कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोपसु देवत्ताप उववत्तारो भवंति, किमंग ! पुण अहं अणपन्नियदेवत्तणंपि नो लभिस्सामिपत्ति कट्ट से णं तरस ठाणरस अणालोइय-पडिकंते कालं करेइ नत्थि तरस आराहणा, सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिकते कालं कर अत्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते !, सेवं भंते । त्ति । दसमसए बीओ उद्देसो समत्तो। वेदनाना प्रकार ४. [प्र०] हे भगवन् ! वेदना केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! वेदना त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- शीत, नैरपिकोने वेदना. उष्ण अने शीतोष्ण. ए प्रमाणे अहीं संपूर्ण “वेदनापद कहेवू. यावत्-[प्र०] 'हे भगवन् ! नैरयिको शुं दुःखपूर्वक वेदना वेदे छे, सुखपूर्वक वेदना वेदे छे के सुख-दुःख शिवाय वेदना वेदे छे ! [उ०] हे गौतम | नैरयिको दुःखपूर्वक वेदना वेदे छे, सुखपूर्वक वेदना वेदे छे अने सुखदुःख सिवाय पण वेदना वेदे छे. मिधु प्रतिमा. ५. [प्र०] हे भगवन् ! जे अनगारे मासिक भिक्षु प्रतिमाने स्वीकारेली छे, अने हमेशां शरीरना ममत्वनो त्याग कर्यो छे-देहनो त्याग आराधना कर्यो छे-इत्यादि मासिक भिक्षु प्रतिमानो संपूर्ण विचार अहिं दशाश्रुत स्कंधमां बताव्या प्रमाणे यावत् [ बारमी प्रतिमा ] 'आराधी होय छे' त्यांसुधी जाणवो. ६. जो ते भिक्षु कोइ एक अकृत्यस्थानने सेवीने अने ते अकृत्यस्थाननु आलोचन तथा प्रतिक्रमण कर्या विना काल करे तो तेने आराधना थती नथी, परन्तु जो ते ते अकृत्यस्थान- आलोचन अने प्रतिक्रमण करीने काल करे तो तेने आराधना थाय छे. वळी कदाच कोइ भिक्षुए अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कयु होय, पछी तेना मनमा एम विचार थाय के 'हुं मारा अंतकालना समये ते अकृत्यस्थानआलोचन करीश, यावत् तपरूप प्रायश्चित्तनो खीकार करीश,' त्यार पछी ते भिक्षु ते अकृत्यस्थान- आलोचन के प्रतिक्रमण कर्या विना मरण पामे तो तेने आराधना थती नथी, अने जो ते भिक्षु ते अकृत्यस्थाननु आलोचन अने प्रतिक्रमण करी काल करे तो तेने आराधना थाय छे. वळी कोइ भिक्षु कोइ एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन करी पछी मनमा एम विचारे के, 'जो श्रमणोपासको पण मरणसमये काल करीने कोइ एक देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थाय छे, तो शुं हुं अणपन्निकदेवपणु पण नहि पामुं,' एम विचारीने ते अकृत्यस्थान- आलोचन के प्रतिक्रमण कर्या विना जो काल करे तो तेने आराधना थती नथी, अने जो ते अकृत्यस्थानने आलोची तथा प्रतिक्रमी पछी काल करे तो तेने आराधना थाय छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, [एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] दशमशते द्वितीय उद्देशक समाप्त. जाव द-घ, जहा दसा जा-ङ। २ चरम-घ। ३ परिवजिस्सामि घ। ४भसपनिय-ना-घ। ४. * प्रज्ञा० पद ३५५ ५५३.२-५५७. . Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीओ उद्देसो. रायगिद्दे जाव एवं वयासी-आइवीए णं भंते ! देवे जाव चत्तारि, पंच देवावासंतराई वीतिळते. तेण परं परिडीए उन हता, गोयमा! आयडीए णं तं चेव, एवं असुरकुमारे वि । नवरं असुरकुमारावासंतराई, सेसं तं चेव । एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे, जोइस-वेमाणिए, जाव तेण परं परिड्डीए। २. [प्र०] अप्पहीए णं भंते ! देवे से महहियस्स देवस्स मज्झमझेणं वीइवरजा ? [उ०] णो इणटे समढे । ३. [प्र०] समिहीए णं भंते ! देवे समवीयस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएजा ? [उ०] णो इणटे समढे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा। ४. [प्र०] से णं भंते ! किं विमोहित्ता पभू, अविमोहित्ता पभू? [३०] गोयमा! विमोहित्ता पभू, नो अविमोहेत्ता पम् । ५. [प्र०] से भंते ! किं पुचि विमोहित्ता पच्छा वीइवएजा, पुष्श्विं वीतीवइत्ता पच्छा विमोहेजा ? [उ०] गोयमा ! पुधिं विमोहित्ता पच्छा वीईवरज्जा, णो पुष्विं वीईवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा । तृतीय उद्देशक. १.प्र० राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम] यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! शुं देव पोतानी शक्तिवडे यावत् चार राजगृह नगर. पांच देवावासोने उल्लंघन करे, अने त्यारपछी बीजानी शक्तिवडे उलंघन करे ! [उ०] हा, गौतम! पोतानी शक्तिवडे चार पांच देवावासोनुं देवमात्मशतिथी उल्लंघन करे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहे. ए प्रमाणे असुरकुमार संबन्धे पण जाणवू, परन्तु ते आत्मशक्तिथी असुरकुमारोना आवासोनं उल्लंघन पार पाच देवावा सोने उठंथे। करे. बाकी सर्व पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए रीते आ अनुक्रमथी यावत् स्तनितकुमार, वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक सुधी जाणवू. तेओ यावत् चार पांच देवावासोनू उल्लंघन करे अने त्यारपछी आगळ परनी शक्तिथी उल्लंघन करे' यांसुधी जाणवू. २. [प्र०] हे भगवन् ! अल्पऋद्धिक-अल्पशक्तिवाळो देव महर्द्धिक-महा शक्तिवाळा देवनी वच्चे यइने जाय ! [उ०] हे गौतम! अल्पदिक देव मह दिक देवनी बच्चोपच ए अर्थ योग्य नथी. [अर्थात् ते वचोवच थइने न जाय.] थईने जाय। ३. [प्र०] हे भगवन् ! समर्द्धिक-समानशक्तिवाळो-देव समानशक्तिवाळा देवनी वच्चे थइने जाय ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य समर्दिक देव समनथी. पण जो ते प्रमत्त (असावधान) होय तो तेनी वच्चे थईने जाय. दिक देवनी वच्चोवच्च थईने जाय?. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते देव सामेना देवने विमोह पमाडीने जइ शके, के विमोह पमाड्या सिवाय जइ शके: [उ.] हे गौतम! मोह पमाडीने ते देव सामेना देवने विमोह पमाडीने जइ शके, पण विमोह पमाड्या सिवाय न जई शके. जई शके के ते शि वाय जाय। ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते देव पहेलां विमोह पमाडीने पछी जाय के पहेला जइने पछी विमोह पमाडे ! [उ०] हे गौतम ! मोह पमाडीने जाय ते देव पहेला विमोह पमाडीने पछी जाय, पण पहेला जइने पछी विमोह न पमाडे. १९२ १ e " जामोरपमाडे? १ जोइसिए ङ, जोइस-वेमाणिय-घ। २ जाव परं ङ। ३ महिड्डिय-ग-ङ। ४ समिट्ठीय--ङ। ५ से तं भं-ङ। २५ भ. सू. Jain Education international Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०:-उद्देशक ३. ६. [प्र०] महिद्दीए णं भंते ! देवे अप्पड्डियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीईवएज्जा ? [उ०] हंता, वीइवएजा । ७. [प्र०] 'से भंते ! किं विमोहित्ता पभू, अविमोहेत्ता पभू? [उ०] गोयमा ! विमोहेत्ता वि पभू, अविमोहेत्ता वि पभू। ८. [प्र०] से भंते ! किं पुष्विं विमोहित्ता पच्छा वीइवएजा, पुष्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा ? [उ०] गोयमा! पुविं वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवएजा, पुचि वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा। . ९. [प्र०] अप्पडिए णं भंते ! असुरकुमारे महड्डियस्स असुरकुमारस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा ? [उ०] णो इणढे समटे । एवं असुरकुमारेण वि तिन्नि आलावगा भाणियधा जहा ओहिएणं देवेणं भणिया । एवं जाव थैणियकुमारेणं, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएणं एवं चेव । १०. [प्र०] अप्पहिए णं भंते ! देवे महिड्डियाए देवीए मझमझेणं वीइवरजा ? [उ०] णो इणटे समढे। ११. [प्र०] समड्डिए णं भंते ! देवे समड्डियाए देवीए मझमझेणं० ? [उ०] एवं तहेव देवेणं य देवीए य दंडओ माणियचो, जाव वेमाणियाए। १२. [प्र०] अपड्डिया णं भंते ! देवी महड्डियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं० ? [उ०] एवं एसो विततिओ दंडओ भाणियचो, जाव [प्र०] 'महिहिया वेमाणिणी अप्पड्डियस्स वेमाणियस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? [उ०] हंता, वीइवएज्जा'। १३. [प्र०] अप्पहिया णं भंते ! देवी महड्डियाए देवीए मझमझेणं वीइवएजा ? [उ०] णो इणटे समटे । एवं समडिया देवी समड्डियाए देवीए तहेव, महिड्डिया वि देवी अप्पड्डियाए देवीए तहेव, एवं एकेके तिन्नि तिन्नि आलावगा महदिक देव अप.. ६. [प्र०] हे भगवन् ! महर्द्धिक-महाशक्तिवाळो देव अल्पशक्तिवाळा देवनी वचोवच थईने जाय ? [उ०] हा, गौतम ! जाय. दिक देवनी वच्चे ' थईने जाय? ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते महर्द्धिक देव शुं ते अल्पशक्तिवाळा देवने विमोह पमाडीने जइ शके के विमोह पमाड्या विना जइ शके ? मासिक देव मल्प किन [उ०] हे गौतम ! विमोह पमाडीने पण जइ शके अने विमोह पमाड्या विना पण जइ शके. डीने जाय के ते शिवाय जाय। ८. [प्र०] हे भगवन् ! ते महर्द्धिक देव शुं पूर्वे विमोह पमाडीने पछी जाय के पूर्वे जाय अने पछी विमोह पमाडे महरिक देव मोह गौतम ! ते महर्द्धिक देव पहेलां विमोह पमाडीने पछी जाय, के पहेला जइने पछी विमोह पमाडे. पमाडीने जाय के जाई. ने मोह पमाडे? ९. प्र०] हे भगवन् । अल्पशक्तिवाळो असुरकुमार महाशक्तिवाळा असुरकुमारनी वचोवच थइने जइ शके। उ०] हे गौतम ! अमरकुमार आ अर्थ योग्य नथी. ए प्रमाणे सामान्य देवनी पेठे असुरकुमारना पण *त्रण आलापक कहेवा. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधी कहेवू. तथा वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवोने पण ए प्रमाणे कहेवू. अल्पर्दिक देव मह. १०. प्र०] हे भगवन् ! अल्पशक्तिवाळो देव महाशक्तिवाळी देवीनी वचोवच थइने जाय ! [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी; दिक देवीनी वच्चे थाने जाय! अथात् न जाय. समर्दिक देव समा ११. [प्र०] हे भगवन् ! समानशक्तिवाळो देव समानशक्तिवाळी देवीनी वचोवच थइने जाय ! [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे पूर्वनी ढिक देवीनी बच्चे पेठे देवनी साथे देवीनो दंडक कहेवो, यावत् वैमानिक सुधी जाणवू. थईने जाय! अल्पविक देवी मह. १२..प्रि०] हे भगवन् । अल्पशक्तिवाळी देवी.महाशक्तिवाळा देवनी वचोवच थइने जाय ! [उ०] हे गौतम ! न जाय, ए प्रमाणे दिक देवनी बच्चे ' अहीं त्रीजों दंडक पूर्व प्रमाणे कहेवो; यावत्-प्र०] 'हे भगवन् ! महाशक्तिवाळी वैमानिक देवी अल्पशक्तिवाळा वैमानिक देवनी वचोवच मादिक वैमानिक थइने जाय ! [उ०] हा, गौतम | जाय.' भल्पर्धिक देवी मह. १३. [प्र०] हे भगवन् ! अल्पशक्तिवाळी देवी मोटी शक्तिवाळी देवीनी वचोवच थइने जाय ? [उ०] हे गौतम ! आ अर्थ योग्य खिक देवीनी बच्चे नथी. ए प्रमाणे समानशक्तिवाळी देवीनो समानशक्तिवाळी देवी साथे, तथा महाशक्तिवाळी देवीनो अल्पशक्तिवाळी देवी साथे ते प्रमाणे समर्थिक देवी सम• आलापक कहेवा, अनेए रीते एक एकना त्रण त्रण आलापक कहेवा. यावत्-[प्र०] 'हे भगवन् ! मोटीशक्तिवाळी वैमानिक देवी अल्पशक्तिवाळी सिंक देवीनी साये. देवी. १से गं भं-घ। २-कुमारे विघ। ३-कुमाराणं घ। ४ देवीण य ग-ध। ९.१ अल्पर्दिक साथे महर्दिक, २ समर्द्धिक साथे समर्द्धिक, अने महद्धिक साथे अल्पचिकना-प्रण आलापक जाणवा. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९५ भाणियचा, जाव-[प्र०] 'महड्डिया णं भंते! वेमाणिणी अप्पड्डियाए चेमाणिणीए मज्झमझेणं वीइवएजा ? [उ.] हता, वीइवपज्जा'। सा भंते ! किं विमोहित्ता पभू०१ तहेव जाव 'पुर्वि वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा' । एए चत्तारि दंडगा। १४.प्र०] आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं 'खु खुत्ति करेति ? [उ.1 गोयमा ! आसस्सणं धावमाणस्स हिययस्स य जगयस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कडए नामं वाए समुच्छइ, जेणं आसस्स धावमाणस्स 'खु खुत्ति करेइ । १५. [प्र०] अह भंते ! आसइस्सामो, सइस्सामो, चिट्ठिस्सामो, 'निसिइस्सामो, तुट्टिस्सामो; “आमंतणी आणवणी जायणी तह पुच्छणी य पण्णवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥ अणभिग्गहिया भासा भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धया । संसयकरणी भासा वोयडमचोयडा चेव" ॥ पनवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा? हंता, गोयमा! आसइस्सामो, तं चेव जाव न एसा भासा मोसा । सेवं भंते!. सेवं भंते ! त्ति । दसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो। वैमानिक देवीनी वचोवच थइने जाय ! [उ०] हा, गौतम ! जाय; यावत्-प्र०] 'हे भगवन् । शुं ते महाशक्तिवाळी देवी विमोह पमाडीने मार्मिक वैमानिक जइ शके के विमोह पमाड्या विना जइ शके ! वळी पहेलां विमोह पमाडे, अने पछी जाय के पहेला जाय अने पछी विमोह । साये. (उ०] हे गौतम] पूर्व प्रमाणे जाणवं, यावत् 'पूर्वे जाय अने पछीथी विमोह पमाडे त्यां सुधी कहे. ए प्रमाणे ए *चार दंडक कहेवा. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे घोडो दोडतो होय त्यारे ते 'खु खु' शब्द केम करे छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे घोडो दोडतो महर्षिक देवी मोह होय छे त्यारे हृदय अने यकृत् (लीव्हर)-नी वच्चे कर्कटनामे वायु उत्पन्न थाय छे, अने तेथी घोडो दोडतो होय छे त्यारे ते 'ख ख' पमाणीने जावक ते . शिवाय शब्द करे छे, दोवता घोडाने 'खु खु' शब्द केम थाय १५. [प्र०] हे भगवन् ! 'अमे आश्रय करीशुं, शयन करीशुं, उभा रहीशु, बेसीशं, (पथारीमां) आळोटशुं-इत्यादि भाषा"१ आमंत्रणी, २ आज्ञापनी, ३ याचनी, ४ प्रच्छनी, ५ प्रज्ञापनी, ६ प्रत्याख्यानी, ७ इच्छानुलोमा, ८ अनभिगृहीत, ९ अभिगृहीत, १० भाषाना संशयकरणी, ११ व्याकृता, अने १२ अव्याकृता भाषा छे." तेमांनी आ प्रज्ञापनी भाषा कहेवाय ! अने ए भाषा मृषा ( असत्य) न कहे- चार प्रकार. वाय ! [उ०] हे गौतम ! 'आश्रय करीशुं'-इत्यादि भाषा पूर्ववत् कहेवाय, पण मृषा भाषा न कहेवाय. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] दशमशते तृतीय उद्देशक समाप्त १ कम्बदए ग। २ निसइस्सामोग। १३..१ सामान्य देव साथै देवीनो दंडक, २ देव साथे देवनो दंडक, ३ देवी साथे देवनो दंडक, ४ देवी साथे देवीनो दंडक.-ए चार दंडक पाणवा. १५. *१ संबोधन करवापूर्वक बोलाती भाषा ते आमन्त्रणी, २ आज्ञापूर्वक बोलाती भाषा ते भाज्ञापनी. जेम के 'घट कर'. ३ कोइ पण वस्तुनी याचना करवी ते याचनी. ४ अज्ञात अथवा संदिग्ध अर्थनो प्रश्न करवो ते प्रच्छनी. ५ उपदेश आपवारूप ते प्रज्ञापनी. ६ निषेध करवो ते प्रत्याख्यानी. ७ इच्छाने अनुकूल भाषा ते इच्छानुलोमा. ८ अर्थना अभिप्रह-निश्चय शिवाय बोलाय ते अनभिगृहिता. जेमके 'तने ठीक लागे ते कर'. ९ अर्थना निश्चयपूर्वक बोलाय ते अभिगृहिता. जेमके 'आ प्रमाणे कर'. १. अर्थनो संशय करनारी ते संशयकरणी, जेमके सैन्धवशब्द पुरुष, लवण अने घोडाना अर्थनो संशय उत्पण करें छे. ११ लोकप्रसिद्धशब्दार्थवाळी भाषा ते ब्याकृता. १२ भने गंभीरशब्दार्थवाळी भाषा ते अव्याकृता.-टीका. जुओ प्रज्ञापना भाषापद प० २५६-१६.१.. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक. १. तेणं कालेणं, तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था, वण्णओ। दूतिपलासए चेहए । सामी समोसढे । जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं, तेणं. समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे, जाव उटुंजाणू जाव विहरति । तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नाम अणगारे पगहभदए, जहा रोहे, जाव उहजाणू जाव विहरइ । तए णं से सामहत्थी अणगारे जायसढे जाव उट्ठाए उढेइ, उद्वित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति. उवागच्छित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो जाव पजवासमाणे एवं वयासी। २. [प्र.] अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररणो तायत्तीसगा देवा ? [उ०] हंता, अत्थि। प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा' ? [उ०] तायत्तीसगा देवा एवं खलु सामहत्थी-तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी नाम नयरी होत्था । वन्नओ । तत्थ णं कायंदीए नयरीए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया परिवसंति, अड्डा, जाव अपरिभूता अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, पन्नओ, जाव विहरंति । तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुधिं उग्गा उग्गविहारी, संविग्गा, संवि. ग्गविहारी भवित्ता, तओ पच्छा पासत्था, पासत्थविहारी, ओसन्ना, ओसन्नविहारी, कुसीला, कुसीलविहारी, अहाच्छंदा, अहाच्छंदविहारी बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति । पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं मूसेंति, अत्ताणं चतुर्थ उद्देशक, बाणिज्यमाम. १.ते काले-ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. त्यां दूतिपलाश नामे चैत्य हतुं. त्यां भगवान् महावीर स्वामी समोसा. दूतिपलाशचैत्य परिषद धर्मोपदेश श्रवण करीने पाछी गइ. ते काले-ते समये श्रमण भगवंत महावीरना मोटा शिष्य इंद्रभूति नामे अनगार यावद् ऊर्चश्यामहस्तो अनगार. जानु (जेना दींचण उभा छे एवा) यावद् विहरे छे. ते काले-ते समये श्रमण भगवान महावीरना शिष्य श्यामहस्ती नामे अनगार हता. जे *रोह नामे अनगारनी पेठे भद्रप्रकृतिना यावद् ऊर्ध्वजानु विहरता हता. त्यार पछी श्रद्धावाळा ते श्यामहस्ती अनगार यावत् उभा थइने ज्यां भगवान् गौतम छे त्यां आवे छे, आवीने भगवान् गौतमने त्रणवार प्रदक्षिणा करी, वंदी, नमी अने पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्याचमरेन्द्रने प्रायविं- २. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इन्द्र चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छे ! [उ०] हा, चमरेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छे. प्र०हे शक देवो छ। भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के असुरकुमारना इंद्र चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! [उ०] हे श्यामहस्ती! ते त्रायस्त्रिंशक श्रायसिंशक देवोनो संबन्ध. देवोनो संबन्ध आ प्रमाणे छे-ते काले-ते समये आ जंबूद्वीपमां, भारतवर्षमां काकंदी नामे नगरी हती, वर्णन. ते काकंदी नगरीमा परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश श्रमणोपासक गृहपतिओ रहेता हता, जेओ धनिक, यावत् अपरिभूत (जेनो पराभव न थइ शके एवा समर्थ) हता, जीवाजीवने जाणनारा, अने पुण्य पापना ज्ञाता तेओ यावद् विहरे छे. त्यारपछी ते परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश श्रमणोपासक साहाया क। कुमारस्स ता-घ। २ तावत्तीसं का १. भगवं.१.१३.६ पृ. १६७. Jain Education international Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९७ यसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना । ३.०] जप्पमिदं च णं भंते ! ते कायंदगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना तप्पभिई च णं भंते ! एवं वुच्चइ-'चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररनो तायत्तीसगा देवा? तए णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए, कंखिए, वितिगिच्छिए उट्ठाए उढेइ । उट्टाए उट्रित्ता सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदद, नमसइ । वंदित्ता, नमंसित्ता एवं क्यासी ४.प्रअत्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा २१ [उ० हंता, अस्थि । से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ-एवं तं चेव सवं भाणियच्वं, जाव 'तप्पभिई च णं एवं वुच्चइ-चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो 'तायत्तीसगा देवा २१ [उ०] णो इण? समटे, गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते; जं न कयाई नासी, न कयाइ न भवइ, ण कयाइ ण भविस्सई; जाव णिच्चे अधोच्छित्तिनयट्ठयाए, अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति । ५. [प्र०] अत्थि णं भंते ! वलिस्स वइरोयर्णिदरस वइरोयणरन्नो तायत्तीसगा देवा २? [उ०] हंता, अत्थि । [प्र. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'बलिस्स वइरोयर्णिदस्स जाव तायत्तीसगा देवा २' ? [उ०] एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं, तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विभेले णामं सन्निवेसे होत्था । वन्नओ । तत्थ णं विभेले सन्निवेसे जहा चमरस्स जाव उववन्ना । [प्र०] जप्पभिई च णं भंते! विभेलगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा बलिस्स वइरोयणिदरस सेसं तं चेव जाव निच्चे अबोच्छित्तिणयट्टयाए, अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति । गृहपतिओ पूर्वे उग्र, उपविहारी ( उग्रचर्यावाळा) * संविग्न अने संविग्नविहारी हता, पण पाछळथी पासत्था, पासत्थविहारी (पासस्थानी चर्यावाळा ) अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथाछंद, अने यथाछंदविहारी थईने तेओ घणा बरससुधी श्रमणोपासकना पर्यायने पाळे छे, पाळीने अर्धमासिक संखेलनावडे आत्माने सेवीने त्रीश भक्तोने अनशनपणे व्यतीत करीने ते प्रमादस्थानआलोचन अने प्रतिक्रमण कर्या विना काल समये काल करी तेओ असुरेंद्र, असुरकुमार राजा चमरना त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थया. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारथी मांडीने ते काकंदीना रहेनारा अने परस्पर सहाय करनारा, तेत्रीश.श्रमणोपासको असुरेंद्र, असुरकुमारराजा चमरना त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थया त्यारथी एम कहेवाय छे के असुरेंद्र, असुरकुमारराजा चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छ ! ( अर्थात् ते पूर्वे त्रायस्त्रिंश देवो न होता ! ). ज्यारे ते श्यामहस्ती अनगारे भगवंत गौतमने ए प्रमाणे कयुं, त्यारे भगवान् गौतम शंकित; कांक्षित अने अत्यन्त संदिग्ध थया, अने तेओ उभा थईने ते श्यामहस्ती अनगारनी साथे ज्यां श्रमण भगवान् महावीर हता त्यां आवे छे त्यां आवीने श्रमण भगवान महावीरने वांदी अने नमीने आ प्रमाणे बोल्या १. [प्र०] हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरकुमारना राजा चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छे ! [उ०] हा, गौतम! छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के ते चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छे ?-इत्यादि पूर्वे कहेलो त्रायस्त्रिंशक देवोनो सर्व संबन्ध कहेवो; यावत् काकंदीना रहेनारा श्रमणोपासको त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थया छे त्यारथी शुं एम कहेवाय छे के चमरने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! (ते पूर्वे शुं नहोता!) [उ०] हे गौतम! ते अर्थ योग्य नथी, पण असुरेंद्र असुरकुमारना राजा चमरना त्रायस्त्रिंशक देवोना नामो शाश्वत कह्या छे, जेथी तेओ कदी न हतां एम नथी, कदी न हशे एम नथी; कदी नथी एम पण नथी. यावत् [तेओ नित्य छे, अव्युच्छित्तिनय(द्रव्यार्थिकनय-) नी अपेक्षाए अन्य च्यवे छे अने अन्य उत्पन्न थाय छे. [पण तेओनो विच्छेद थतो नथी.] ५. [प्र०] हे भगवन् ! वैरोचनेंद्र, वैरोचनराजा बलिने त्रायस्त्रिंशक देवो छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के वैरोचनेंद्र बलिने त्रायस्त्रिंशक देवो छे? [उ०] हे गौतम ! बलिना त्रायस्त्रिंशक देवोनो संबन्ध आ प्रमाणे छे-ते काले-ते समये जंबूद्वीपना भारतवर्षमा बिभेल नामे संनिवेश (कस्बो) हतो. वर्णन. ते बिभेल सन्निवेशमा परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश श्रमणोपासको रहेता हता. इत्यादि जेम चमरेन्द्रना संबन्धे का तेम अहीं पण जाणवू. यावत् तेओ त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थया. ज्यारथी मांडीने ते बिभेल संनिवेशना परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश गृहपतिओ श्रमणोपासको वैराचनेन्द्र बलिना त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थया-इत्यादि पूर्वोक्त सर्व हकीकत यावत् 'तेओ नित्य छे, अव्यवच्छित्तिनयनी अपेक्षाए अन्य च्यवे छे अन्य उत्पन्न थाय छे' त्यांसुधी जाणवी. २. * संविग्म-मोक्ष मेळववा तत्पर थयेला, अथवा संसारथी भयभीत थयेला, संविनविहारी-मोक्षने अनुकूल चर्यावाळा. ज्ञानादिथी बाह्य ते पासत्था, हमेशां पासत्थाना भाचारवाळा ते पासत्थविहारी. अवसन्न-थाकी गयेला, आळसथी सम्यक् अनुष्ठानने बरोबर नहि करनारा, अर्थात् जन्मथी मांदीने शिथीलाचारी. कुशील-ज्ञानादि आचारनी विराधना करनार हमेशा ज्ञानादिआचारना विराधक ते कुशीलविहारी. यथाछन्दआगमने परतन्त्र नहि होवाथी खच्छन्दी, अने हमेशा खच्छन्दी ते यथाच्छन्दविहारी.-टीका. पनीन्द्रने चायनि शक देवो. . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०.-उद्देशक ४. ६. [प्र०] अस्थि णं भंते ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णोतायत्तीसगा देवा २१ [उ०] हंता अत्थि । [प्र०] से केणट्टेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१ [उ०] गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते, जं न कयाई नासी, जाव अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति। एवं भूयाणंदस्स वि, एवं जाव महाघोसस्स । ७. [प्र०] अत्थि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरन्नो पुच्छा। [उ०] हंता अत्थि । [प्र०] से केणटेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१ [उ०] एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं, तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पलासए नामं सन्निवेसे होत्था । वन्नओ। तत्थ णं पलासए सन्निवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया जहा चमरस्स जाव विहरंति । तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुछि पि पच्छा वि उग्गा, उग्गविहारी, संविग्गा, संविग्गविहारी बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति, झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदंति, छेदित्ता आलोइय-पडिकंता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववना । जप्पमिदं च णं भंते! पालासिगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा, सेसं जहा चमरस्स जाव अन्ने उववजंति ।। ८. प्र०] अस्थि णं भंते! ईसाणस्स० [उ०] एवं जहा सकस्स, नवरं चंपाए णयरीए जाव उववन्ना । जप्पभिहं च णं भंते | चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चेव, जाव अन्ने उववजंति । ९. [प्र०] अस्थि णं भंते! सणंकुमारस्स देविंदस्स देवरनो पुच्छा । [उ०] हंता अत्थि । [प्र०] से केणटेणं! [उन जहा धरणस्स तहेव, एवं जाव पाणयस्स, एवं अच्चुयस्स, जाव अन्ने उववजंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । दसमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो। धरणेन्द्रने त्रायविं शक देवो. शकेन्द्रने बायनि शक देवो. ६.प्र०] हे भगवन् ! नागकुमारना इंद्र अने नागकुमारना राजा धरणने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! [उ०] हे गौतम! हा, छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के धरणेन्द्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छ ? उ० हे गौतम ! नागकुमारना इंद्र अने नागकमारना राजा धरणना त्रायस्त्रिंशक देवोना नामो शाश्वत कन्या छे, जेथी तेओ कदापि न हता एम नथी, कदापि नथी एम नथी, अने कदापि न हशे एम पण नथी. यावत् अन्य च्यवे छे अने अन्य उपजे छे. ए प्रमाणे भूतानंद अने यावत् महाघोष इन्दना त्रायस्त्रिंशक देवो संबन्धे पण जाणवू. ७. [प्र०] हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज शक्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छ ? [उ०] हा गौतम ! छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के देवेंद्र देवराज शक्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छे ? [उ०] हे गौतम! शक्रना त्रायस्त्रिंशक देवोनो संबन्ध आ प्रमाणे छे-ते काले-ते समये आ जंबूद्वीपना भारतवर्षमां पलाशक नामे संनिवेश हतो. वर्णन. ते पलाशक नामे संनिवेशमा परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश श्रमणोपासको रहेता हता-इत्यादि जेम चमर संबन्धे कयुं ते प्रमाणे यावत् तेओ विचरे छे. त्यारपछी परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश गृहपति श्रमणोपासको पहेला अने पछी उग्र, उपविहारी, संविग्न अने संविग्नविहारी थइने घणा वर्ष सुधी श्रमणोपासकपर्यायने पालीने मासिक संलेखनावडे आत्माने सेवे छे, सेवीने साठ भक्तो अनशन वडे व्यतीत करीने आलोचन, प्रतिक्रमण करीने समाधिने प्राप्त थाय छे, अने मरणसमये काळ करी यावत् त्रायस्त्रिंशकदेवपणे उत्पन्न थाय छे. ज्यारथी आरंभीने पलाशक संनिवेशना निवासी परस्पर सहाय करनारा तेत्रीश गृहपतिओ श्रमणोपासको शकना त्रायस्त्रिंशकपणे उत्पन्न थया इत्यादि सर्व वृत्तान्त चमरेन्द्रना प्रमाणे यावत् 'अन्य छे च्यवे छे अने अन्य उत्पन्न थाय छे' त्यांसुधी जाणवो. ८. [प्र०] हे भगवन् ! ईशान इंद्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! [उ०] शक्रनी पेठे ईशानेन्द्रने पण जाणवू; परन्तु विशेष ए छे के ते गृहपतिओ श्रमणोपासको पलाशक संनिवेशने बदले चंपानगरीमा उत्पन्न ययेला छे. 'ज्यारथी चंपाना निवासी त्रायस्त्रिंशकपणे उत्पन्न थया'इत्यादि पूर्वोक्त सर्व वृत्तान्त यावत् 'अन्य उपजे छे' त्यांसुधी जाणवो. ९. [प्र०] हे भगवन् ! देवोना राजा देवेंद्र सनत्कुमारने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! [उ०] हा, गौतम ! छे. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के सनत्कुमार देवेंद्रने त्रायस्त्रिंशक देवो छे! [उ०] हे गौतम! जेम धरणेन्द्र संबन्धे कयुं ते प्रमाणे अहीं जाणवू. ए रीते यावत् प्राणतथी मांडीने अच्युतपर्यन्त यावत् 'बीजा उत्पन्न थाय छे' त्यांसुधी कहेवू. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम विहरे छे.] ईशानेन्द्रने पाय•विंशक देवो. सनत्कुमारने त्रायखिशक देवो. दशमशते चतुर्थ उद्देशक समाप्त. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमओ उद्देसो. १.प्र० तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे । गुणसिलए चेइए । जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं. तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना, कुलसंपन्ना, जहा अट्टमे सए सत्तमहेसए जाव विहरति । तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड़ा, जायसंसया, जहा गोयमसामी, जाव पजुवासमाणा एवं वयासी २. [प्र०] चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररनो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? [उ०] अजो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ काली, २ रायी, ३ रयणी, ४ विजु, ५ मेहा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठ-४ देवीसहस्स परिवारो पन्नत्तो। ३. [प्र०] पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अन्नाई अट्ट-ट्ट देवीसहस्साई परिवार विउवित्तए ? [उ०] एवामेव सपुधावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए। ४. [प्र०] पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिखाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? [उ०] णो इणटे समढे। [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ'नो पभू चमरे असुरिंदे चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए'१ [उ०] अजो! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोल-बट्ट-समुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ पंचम उद्देशक. १. ते काले-ते समये राजगृह नामे नगर हतुं, अने त्यां गुणसिल नामे चैत्य हतुं. [श्रमण भगवान् महावीर समोसा . ] यावत् राजगृह नगर. गुणसभा धर्मश्रवण करीने] पाछी गइ. ते काले-ते समये श्रमण भगवान् महावीरना धणा शिष्यो पूज्य स्थविरो जातिसंपन्न-इत्यादि जेम शालवल्या आठमां शतकना सातमा *उद्देशकमां कयुं छे तेम यावत् विहरे छे, त्यार पछी ते स्थविर भगवंतो जाणवानी श्रद्धावाला यावत् संशयवाळा थईने गौतमस्वामीनी पेठे पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्या. २. प्रि० हे भगवन् ! असुरेंद्र असुरकुमारना राजा चमरने केटली अग्रमहिषीओ (पट्टराणीओ.) कही छे ! [उ०] हे आर्यो ! चम- चमरेन्द्रने अनमहिरेन्द्रने पांच पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-काली रायी, रजनी, विद्युत् अने मेधा. तेमांनी एक एक देवीने आठ आठ हजार देवीओनो परिवार कह्यो छे. ३. प्र०] हे भगवन् ! शुं ते एक एक देवी आठ आठ हजार देवीओना परिवारने विकुवा समर्थ छे[उ०] हे आर्यो ! हा, ए मममहिषीमोनो प्रमाणे पूर्वापर बधी मळीने [पांच पट्टराणीओनो परिवार ] चालीश हजार देवीओ छे अने ते त्रुटिक (वर्ग) कहेवाय छे. परिवार. ४. प्र०] हे भगवन् ! असुरेंद्र अने असुरकुमारोनो राजा चमर पोतानी चमरचंचा नामनी राजधानीमां सुधर्मा सभामां चमर नामे चमरेन्द्र पोतानी ससिंहासनमा बेसी ते त्रुटिक (स्त्रीओना परीवार) साथे भोगववा लायक दिव्यभोगोने भोगववाने समर्थ छे! [उ०] हे आर्यो! ए अर्थ . भामा देवीओ साये योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के चमरचंचा राजधानीमां ते असुरेंद्र अने असुरकुमारनो राजा चमर मर्थ छ। दिव्य भोगोने भोगववा समर्थ नथी ? [उ०] हे आर्यो! असुरेंद्र अने असुरकुमारना राजा चमरनी चमरचंचा नामनी राजधानीमा सुधर्मा 1. *भग० तृ. खं. श. ८ उ. ७ पृ. ८९. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०.-उद्देशक ५. सन्निक्खित्ताओ चिटुंति; जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररनो अग्नेसिं च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण र अश्वणिजाओ, वंदणिजाओ, नमंसणिजाओ, पूयणिजाओ, सकारणिज्जाओ, सम्माणणिज्जाओ, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेयं पजुवासणिजाओ भवंति, तेसि पणिहाए नो पभू, से तेणद्वेणं अजो! एवं पुश्चइ-'नो पभू चमरे असुरिंदे जाव चमरचंचाए जाव विहरित्तए' । [प्र०] पभू णं अजो! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि, तायत्तीसाए जाव अन्नेसि च बहूणं असुरकुमारेहिं देवेहि य, देवीहि य सद्धि संपरिखुडे महयाहय- जाव भुंजमाणे विहरित्तए ? [उ०] केवलं परियारिडीए, नो चेव णं मेहुणवत्तियं । ५. [प्र०] चमरस्स णं भंते। असुरिंदस्स असुरकुमाररनो सोमस्स महारनो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? [उ.] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ कणगा, २ कणगलता, ३ चित्तगुत्ता, ४ वसुंधरा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगंसि. देवीसहस्सं परिवार पण्णत्ते [प्र०] पभू णं ताओ एगामेगाए देवीए अन्नं एगमेगं देवीसहस्सं परियार विउवित्तए। उ०] एवामेव सपुधावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए। ६. प्र०] पभू णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं? [उ०] अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं परिवारो जहा सूरियाभस्स, सेसं तं चेव, जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं । ७. [प्र०] चमरस्स णं भंते ! जाव रनो जमस्स महारनो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं चेव, नवरं जमाए रायहाणीए, सेसं जहा सोमस्स, एवं वरुणस्स वि, नवरं वरुणाए रायहाणीए; एवं वेसमणस्स वि, नवरं वेसमणाए रायहाणीए, सेसं तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । नामे सभामां माणवक चैत्यस्तंभने विषे वज्रमय अने गोल-वृत्त डाबडामा नांखेलां जिनना घणां अस्थिओ (हाडकांओ) छे, जे असुरेंद्र अने असुरकुमारना राजा चमरने तथा बीजा घणा असुरकुमार देवोने अने देवीओने अर्चनीय, वंदनीय, नमस्कार करवा योग्य, पूजवायोग्य, सत्कार करवा योग्य अने संमान करवा योग्य छे, तथा कल्याण अने मंगलरूप देव चैत्यनी पेठे उपासना करवा योग्य छे, माटे ते जिनना अस्थिओना.प्रणिधानमा [ संनिधानमा ] ते असुरेंद्र पोतानी राजधानीमां यावत् [ भोगो भोगववा] समर्थ नथी. तेथी हे आर्यो ! एम कहेवाय छे के चमर असुरेंद्र यावत् चमरचंचा राजधानीमां यावत् [ते देवीओ साथे दिव्य भोगो] भोगववा समर्थ नथी. पण हे आर्यो ! ते असुरेंद्र असुरकुमारराजा चमर चमरचंचा नामे राजधानीमां, सुधर्मा सभामा, चमरनामे सिंहासनमा बेसी चोसठ हजार सामानिक देवो, त्रायस्त्रिंशक देवो, अने बीजा घणा असुरकुमार देवो तथा देवीओ साथे परिवृत थइ मोटा अने निरन्तर थता नाट्य, गीत, अने वादित्रोना शब्दो वडे केवल परिवारनी ऋद्धिथी भोगो भोगववा समर्थ छे, परन्तु मैथुननिमित्तक भोगो भोगववा समर्थ नथी. चमरेन्द्रना सोम ५. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इंद्र अने असुरकुमारना राजा चमरना [लोकपाल ] सोम महाराजाने केटली पट्टराणीओ लोकपालने पट्टरा- कही छे? [उ०] हे आर्यो! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता अने वसुंधरा. त्यां एक एक जीओ. देवीने एक एक हजार देवीनो परिवार छे. तेओमांनी एक एक देवी एक एक हजार हजार देवीना परिवारने विकुर्वी शके छे. ए प्रमाणे पूर्वापर बधी मळीने चार हजार देवीओ थाय छे. ते त्रटिक (देवीओनो वर्ग) कहेवाय छे. सोम लोकपाल पो- ६. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इंद्र अने असुरकुमारना राजा चमरना [लोकपाल ] सोम नामे महाराजा पोतानी सोमा नामे तानी सभामा देवीओ राजधानीमा सुधर्मा सभामा सोमनामे सिंहासनमा बेसी ते त्रुटिक (देवीओना वर्ग) साथे भोग भोगववा समर्थ छे ! [उ०] चमरना संबन्धे साये भोग भोगववा समर्थ । कयुं छे ते सर्व अहीं पण जाणवू. परन्तु तेनो परीवार *सूर्याभनी पेठे जाणवो. अने बाकीनुं सर्व पूर्व प्रमाणे कहे, यावत् ते देवीओ साथे पोतानी सोमा राजधानीमा मैथुननिमित्तक भोग भोगववा समर्थ नथी. यमने भयमहिषीओ.. ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते चमरना [ लोकपाल ] यम नामे महाराजाने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्यो ! पूर्व प्रमाणे वकीन्द्रने अग्रमही जाणवू. विशेष ए छे के [यम लोकपालने] यमा नामे राजधानी छे. बाकी बधुं सोमनी पेठे जाणवू. तथा ए प्रमाणे वरुणना संबन्धे पण पीओ. जाणवू, परन्तु तेने वरुणा राजधानी छे. ते प्रमाणे वैश्रमणने पण जाणवं. परन्तु तेने वैश्रमणा राजधानी छे. बाकी सर्व पूर्व प्रमाणे जाणा, यावत् 'तेओ मैथुननिमित्ते भोग भोगववा समर्थ नथी.' ६. " जुओ राजप्र. प. १४-१. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०-उद्देशक ५. भगक्त्सुधर्मस्वामिप्रणीत-भगवतीसूत्र. 2.प्रि० बलिस्सणं भंते । वइरोयर्णिदस्स पुच्छा। [उ०] अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा- सुमा, निसुंमा, ३ रंमा, ४ निरंभा, ५ मदणा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ट-ट्ट०, सेसं जहा चमरस्स, नवरं बलिचंचाए रायन हाणीप, परिवारों जहा मोउद्देसए सेसं तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । ९. [प्र०] बलिस्स णं भंते! वइरोयर्णिदस्स, वइरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ। तं जहा-१ मीणगा, २ सुभद्दा, ३.विजया, ४ असणी । तत्य गं एगमेगाए देवीए, सेसं जहा चमरसोमस्स एवं जाव वेसमणस्स । .१०. [प्र०] धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ? [उ०] अजो! छ भग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ इला, २ सुक्का, ३ सतारा, ४ सोदामिणी, ५ इंदा, ६ घणविजुया। तत्थ पं रंगमेगाए देवीए छ छ देवीसहस्सा परिवारो पण्णत्तो । ११. [प्र०] पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई छ छ देविसहस्साई परियारं विउवित्तए ? [30] एवामेव सपुधावरेणं छत्तीसाइं देविसहस्साई, सेत्तं तुडिए । [प्र०] पभू णं भंते! धरणे ०१ [उ०] सेसं तं चेव, नवरं धरणाए रायहाणीए, घरपणसि सीहासणंसि, सओ परिवारो, सेसं तं चेव । १२. [प्र०] धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स लोगपालस्स कालवालस्स महारत्रो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ। (उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ असोगा, २ विमला, ३ सुप्पभा, ४ सुदंसणा । तत्थ पं रगमेगाए०, अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं । एवं सेसाणं तिण्ह वि।। १३. [प्र०] भूयाणिदस्स भंते ! पुच्छा। [उ०] अजो! छ अग्गमहिसीओ, पनत्ताओ, तं जहा-१ रूया, २ रुयंसा, ३ सुरूया, ४ रूयगावती, ५ रूयकता, ६ रूयप्पभा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा धरणस्स । ८. [प्र०] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र बलिने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य ! पांच पट्टराणीओ कही छे; ते आ प्रमाणे क्लीन्द्रने भाग-शुभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा अने मदना. तेमांनी एक एक देवीने आठ आठ हजार देवीओनो परिवार होय छे-इत्यादि सर्व चमरेन्द्रनी मा पेठे जाणवू; परन्तु बलि नामे इन्द्रने बलिचंचा नामे राजधानी छे. अने तेनो परिवार तृतीय शतकना प्रथम "उद्देशकमां कह्या प्रमाणे 'जाणवो, बाकी सर्व पूर्वप्रमाणे जाणवू. यावत् ते मैथुननिमित्ते भोग भोगववा समर्थ नथी. ९. [प्र०] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा बलिना [लोकपाल ] सोम नामे महाराजाने केटली पट्टराणीओ कही छे! उ.] पलिना लोकपाल हे आर्य! चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-मेनका, सुभद्रा, विजया अने अशनी. तेमा एक एक देवीनो परिवार वगेरे बधुं सोमने असमदि पीमो. 'चमरना सोम नामे लोकपालनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे यावत् वैश्रमण सूधी जाणवु.. १०. [प्र०] हे भगवन् ! नागकुमारना इन्द्र अने नागकुमारना राजा धरणने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य! तेने धरणेन्द्रने अन छ पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-इला, शुक्रा, सतारा, सौदामिनी, इन्द्रा अने घनविद्युत्. तेमां एक एक देवीने छ छ हजार देवी- मा ओनों परिवार कह्यो छे. ११. प्रि०] हे भगवन् ! तेमांनी एक एक देवी अन्य छ छ हजार देवीओना परिवारने विकुर्वी शके ! [उ०] तेओ पूर्वे कह्या धरणेन्द्रनी देवीप्रमाणे पूर्वापर सर्व मळीने छत्रीश हजार देवीओने विकुर्ववा समर्थ छे. ए प्रमाणे ते त्रुटिक (देवीओनो समूह ) कह्यो. [प्र०] हे भगवन्! शुं धरणेन्द्र पोतानी धरणा नामे राजधानीमां धरण नामे सिंहासनमा बेसी पोताना परिवार देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थ छे इत्यादि ! . [उ.] बाकी सर्व पूर्ववत् जाणवू, [अर्थात् मैथुननिमित्ते त्यां भोग भोगववा समर्थ नथी.] १२. [प्र०] हे भगवन् ! नागकुमारना इन्द्र धरणना लोकपाल कालवाल नामे महाराजाने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे धरणना लोकपाल आर्य! चार पट्टराणीओ कही छे; ते आ प्रमाणे-अशोका, विमला, सुप्रभा अने सुदर्शना. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे चमरना कालवाने नमः महिपीओ. लोकपालोनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे बाकीना त्रणे लोकपालो संबन्धे जाणवू. १३. [प्र०] हे भगवन् ! भूतानेन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्य । छ पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, रूपकांता अने रूपप्रभा. तेमां एक एक देवीनो परिवार इत्यादि सर्व धरणेन्द्रनी पेठे जाणq. भूतानेन्द्रने नयमहिषीयो. ८.* भग• खं. २ श. ३ उ०१ पृ. ११. - २६ भ. सू. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १०.-उद्देशक ५० १४. [प्र०] भूयाणंदस्स णं मंते । नागवित्तस्स पुच्छा । [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पनत्ताओ, तं जहा१ सुणंदा, २ सुभद्दा, ३ सुजाया, ४ सुमणा । तत्थ णं एगमेगाए. अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं । एवं सेसाणं तिथि लोगपालाणं । जे दाहिणिल्ला इंदा तेसिं जहा धरणिदस्स, लोगपालाण वि तेसिं जहा धरणस्स लोगपालाणं । उत्तरिल्लाणं दाणं जहा भूयाणंदस्स, लोगपालाण वि तेसिं जहा भूयाणंदस्स लोगपालाणं, नवरं इंदाणं सधेसि पयहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, परियारो जहा तहए सए पढमे उद्देसए । लोगपालाणं सधेसि रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, परियारो जहा चमरस्स लोगपालाणं । १५. प्र. कालस्स णं भंते! पिसायिंदस्स पिसायरण्णो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? [उ०] अजो! चत्तारि अग्गाहसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ कमला, २ कमलप्पभा, ३ उप्पला, ४ सुदंसणा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगी देविसहस्सं, सेसं जहा चमरलोगपालाणं । परिवारो तहेव, णवरं कालाए रायहाणीए, कालंसि सीहासणंसि, सेसंतं. चेव, एवं महाकालस्स वि।। - १६. [प्र०] सुरुवस्स णं भंते ! भूतिंदस्स भूतरन्नो पुच्छा। [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, म जहा-१ रूववई, २ बहुरूवा, ३ सुरूवा, ४ सुभगा । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं पडिरूवस्स वि। १७. [प्र०] पुण्णभद्दस्स णं भंते ! जक्खिंदस्स पुच्छा। [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ; तं जहा१ पुन्ना, २ बहुपुत्तिया, ३ उत्तमा, ४ तारया । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं माणिभहस्स वि । १८. [प्र०] भीमस्स णं भंते ! रक्खसिंदस्स पुच्छा । [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा१ पउमा, २ पैउमावती, ३ कणगा, ४ रयणप्पभा । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं जहा कालस्स । एवं महाभीमस्स वि। भवानेन्द्रना लोकपा-. १४. [प्र०] हे भगवन् ! भूतानेंद्रना लोकपाल नागवित्तने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्य | तेने चार पट्टराणीओ ने मप्रमहिषीओ. कही छे. ते आ प्रमाणे-सुनंदा, सुभद्रा, सुजाता अने सुमना. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे बधुं चमरेन्द्रना लोकपालोनी पेठे जाणवं. ए प्रमाणे बाकी रहेला त्रणे लोकपालोना संबन्धे जाणवु, जे दक्षिण दिशिना इन्द्रो छे तेओने धरणेन्द्रनी पेठे (सू. १०.) जाणवं, अने तेओना लोकपालोने पण धरणेंद्रना लोकपालोनी पेठे जाणवू. तथा उत्तर दिशिना इंद्रोने भूतानेंद्रनी पेठे (सू. १३.) जाणवू. तेओना लोकपालोने पण भूतानेंद्रना लोकपालोनी पेठे जाणवू; परन्तु विशेष ए छे के सर्व इन्द्रोनी राजधानीओ अने सिंहासनो इंद्रना समान नामे जाणवां. अने तेओनो परिवार तृतीय शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे समजवो. तथा बधा लोकपालोनी राजधानीओ अने सिंहासनो पण तेओनां समान नामे जाणवां. अने तेओनो परिवार चमरेन्द्रना लोकपालोना परिवारनी पेठे जाणवो. काळेन्द्रने अम १५. [प्र०] हे भगवन् ! पिशाचना इंद्र अने पिशाचना राजा कालने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य ! तेने चार महिषीभो. पट्टराणीओ कही छे. ते आ प्रमाणे-कमला, कमलप्रभा, उत्पला अने सुदर्शना. तेमांनी एक एक देवीने एक एक हजार देवीनो परिवार छे, बाकी बधुं चमरना लोकपालोनी पेठे जाणवू, अने परिवार पण तेज प्रमाणे जाणवो. परन्तु विशेष ए छे के काला नामे राजधानी अने काल नामे सिंहासन जाणवू. तथा बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे महाकालसंबंधे पण जाणवू. मुरूपेन्द्रने मअमहिपीओ. १६. [प्र०] हे भगवन् ! भूतना इन्द्र अने भूतना राजा सुरूपने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य ! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, अने सुभगा. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे कालेन्द्रनी पेठे जाणवू. अने एज प्रमाणे प्रतिरूपेन्द्र संबंधे पण जाणवं. पूर्णभदने - अमंहिषीओ. १७. [प्र०] हे भगवन् ! यक्षना इन्द्र पूर्णभद्ने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा अने तारका. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे कालेन्द्रनी पेठे जाणवं, अने ए प्रमाणे माणिभद्र संबन्धे पण जाणवू. १८. [प्र०] हे भगवन् ! राक्षसना इंद्र भीमने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-पद्मा, पद्मावती, कनका अने रत्नप्रभा. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे सर्व कालेन्द्रनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे महामीमेन्द्रसंबन्धे पण जाणq. राक्षसनापन्द्र भीमने भग्रमहिपीओ. १ वसुमती का १४. भग.द्वि.ख. २०३ उ०१पृ.१. . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १९. [प्र०] किन्नरस्स णं मंते ! पुच्छा । अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ वडेंसा, २ केतुमती, ३.रतिसेणा, ४ रइप्पिया । तत्थ णं, सेसं तं चेव, एवं किंपुरिसस्स वि । २०. [प्र०] सप्पुरिसस्स णं पुच्छा । [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ रोहिणी, २ नवमिया, ३ हिरी, ४ पुप्फवती । तत्थ णं एगमेगाए, सेसं तं चेव, एवं महापुरिसस्स वि। ___२१. [प्र०] अतिकायस्स णं पुच्छा । [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ भुयंगा, २ भुयगवती, ३ महाकच्छा, ४ फुडा । तत्थ णं सेसं तं चेव, एवं महाकायस्स वि। २२. [प्र०] गीयरइस्स णं पुच्छा। [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ सुघोसा, २ विमला, ३ सुस्सरा, ४ सरस्सई । तत्थ णं सेसं तं चेव । एवं गीयजसस्स वि । सन्वेसि एएसि जहा कालस्स, नवरं सरिसनामियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सेसं तं चेव । २३. [प्र०] चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो पुच्छा। उ०] अजो। चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-१ चंदप्पभा, २ दोसिणाभा, ३ अच्चिमाली, ४ पभंकरा । एवं जहा जीवाभिगमे जोइसियउद्देसए तहेव सूरस्स वि १ सूरप्पभा, २ आयवाभा, ३ अच्चिमाली, ४ पभंकरा । सेसं तं चेव, जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । २४. [प्र०] इंगालस्स णं भंते ! महग्गहस्स कति अग्गमहिसीओ पुच्छा। [उ०] अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णसाओ, तं जहा-१ विजया, २ वेजयंती, ३ जयंती, ४ अपराजिया। तत्थ णं एगमेगाए देवीए सेसं तं चेव चंदस्स, नवरं इंगालवडेंसए विमाणे, इंगालगंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं वियालगस्स वि । एवं अट्ठासीतीए वि महागहाणं भाणियवं, जाव भावकेउस्स, नवरं वडेंसगा सीहासणाणि य सरिसनामगाणि, सेसं तं चेव। १९. [प्र०] हे भगवन् ! किंनरेन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे किन्नरेन्द्रने भन. -अवतंसा, केतुमती, रतिसेना अने रतिप्रिया. तेओनां एक एकनो परिवार वगेरे पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे किंपुरुषेन्द्र संबंधे मादपीओ. पण जाणवु. २०. [प्र०] हे भगवन् ! सत्पुरुषेन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे! (उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे. ते आ सरपुरुषेन्द्रने मन महिषीमो. प्रमाणे-रोहिणी, नवमिका, ही अने पुष्पवती. तेमा एक एकनो परिवार वगेरे बर्षा पूर्वनी पेठे जाणq. ए प्रमाणे महापुरुषेन्द्र संबन्धे पण जाणवू. २१. [प्र०] हे भगवन् ! अतिकायेन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ अतिकायेन्द्रने प्रमाणे-भुजंगा, भुजगवती, महाकच्छा अने स्फुटा. तेमां एक एकनो परिवार वगेरे बधु पूर्वनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे महाकायेन्द्र संबन्धे । भामहिपीओपण जाणवू. २२. [प्र०] हे भगवन् ! गीतरतीन्द्रने केटली पट्टराणीओ होय छे ! [उ०] हे आर्य ! तेने चार पट्टराणीओ होय छे, ते आ प्रमाणे गीतरतीन्द्रने -सुघोषा, विमला, सुखरा अने सरखती. तेमां एक एकनो परिवार वगेरे बर्षा पूर्वनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे गीतयश इन्द्र संबन्धे पण भनमहिषीमो. समजवू. आ सर्व इन्द्रोने बाकीनुं सर्व कालेन्द्रनी पेठे जाणQ; परन्तु विशेष ए छे के, राजधानीओ अने सिंहासनो इन्द्रना समान नामे जाणवां, बाकी सर्व पूर्वनी पेठे जाणवू. २३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिष्कना इन्द्र अने ज्योतिष्कना राजा चन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ. हे आर्य! तेने चन्द्रने अग्रमचार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिौली अने प्रभंकरा-इत्यादि जेम *जीवाभिगमसूत्रमा ज्योतिष्कना उद्दे दिपीओ. शकमां कयुं छे तेम जाणवू. सूर्यसंबन्धे पण बधुं तेमज जाणवू. सूर्यने चार पट्टराणीओ छे, ते आ प्रमाणे-सूर्यप्रभा, आतपाभा, अर्चिाली अने प्रभंकरा-इत्यादि सर्व पूर्वोक्त कहे, यावत् तेओ पोतानी राजधानीमा सिंहासनने विषे मैथुननिमित्ते भोगो भोगवी शकता नथी. २४. [प्र०] हे भगवन् ! अंगार नामना महाग्रहने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे आर्य! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, अंगारमइने ते आ प्रमाणे-विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे बधुं चन्द्रनी पेठे जाणवू परन्तु विशेष ए अग्रमहिषीओ. छे के, अंगारावतंसकनामना विमानमा अने अंगारक नामना सिंहासनने विषे यावत् मैथुननिमित्ते भोगो भोगवता नथी. बाकी सर्व पूर्ववत् जाणवू. तथा ए प्रमाणे यावत् व्याल नामे प्रहसंबन्धे पण जाणवू. एम अव्याशी महाग्रहो माटे यावत् भावकेतु ग्रह सुधी कहे. परन्तु विशेष ए छे के, अवतंसको अने सिंहासनो इन्द्रना समान नामे जाणवां. बाकी बधुं पूर्वप्रमाणे जाणवू. 1 सुभगा क। २ भुयंग-घ। २३. * जीवाभि० प्र० ३३० २५० ३८३-१. . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकने अयमहि बीओ. शक्र सुधर्मा समा मां देवीओ साये भोग भोगवना समर्थ छे १ शकना लोकपाल सोमने अग्रमहि पीओ. ईशानेन्द्र ने अग्र महिषीओ. ईशानना लोकपाल सोमने अग्रम हिपीओ. श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे शतक १०. - उद्देशक ५० २५. [प्र० ] संकस्स णं भंते ! दोविंदस्स देवरनो पुच्छा । [उं०] अजो ! अटू अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा१पडमा २ सिवा ३ सेवा, ४ मंजू, ५ अमला, ६ अच्छरा ७ नवमिया, ८ रोहिणी सत्य णं एगमेगार देवीए सोलस सोलस देवीसहस्सा परिवारो पण्णत्तो । [प्र०] पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस सोलस देविसहस्साइं परियारं वित्तिय १ [४०] यामेव सपुढायरेणं अट्ठावीसुत्तरं देविसयसहस्वं परिवारं विवित्सर, सेतं तुडिए । ? २०४ २६. [ प्र० ] पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडेंसर विमाणे, सभाप सुहम्माए, ससि सीदाससि टिपणं सद्धि से जदा चमरस्स, नवरं परिवारो जहा मोउदेशय । २७. [प्र०] सहस्त्र णं देविंदस्य देवरम्रो सोमरस मद्दारथ्यो कति जग्गमहिसीलो पुच्छा [ उ० ] भो ! बारिअग्गमदिसीमो पद्मशानो, तं जहा १ रोहिणी, २ मदणा, ३ चिता, ४ सोमा । तत्थ णं यममेगा०, सेसं जहा चमरहोगपालाणं, नवरं सयंपभे विमाणे, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीद्दासणंसि, सेसं तं चेव, एवं जाव-वेसमणस्स, नवरं विमाणाई जहा ततियसए । २८. [प्र०] [सारस णं भंते! पुच्छा। [४०] भजो ! अट्ट अम्मामहिसीओ पद्मत्ताओ, तं जहा-१ कण्दा २ कण्डराई, १३ रामा ४ रामरक्खिया, ५ वसू, ६ वसुगुप्ता, ७ वसुमित्ता, ८ वसुंधरा । तत्थ णं एगमेगाए सेसं जहा सक्कस्स । २९. [प्र० ] ईसारस णं भंते! देबिंदस्स सोमस्स महारनो कति अम्गमहिसीओ पुच्छा [उ० ] भजो ! चत्तारि अग्गम दिसीओ पताओ तं जदा-१ पुदयी २ राई, ३ रयणी ४ बिजू तत्थ पं० सेसं जहा सफरस लोगपालाणं, पर्व ज्ञाव वरुणस्स, णवरं विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं तं चेव, जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । T , " दसमसए पंचमो उदेसो समतो | २५. [ प्र० ] हे भगवन् ! देवना इन्द्र देवना राजा शकने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य ! तेने आठ पट्टराणीओ कही छे, वे आ प्रमाणे- पद्मा, शिवा, श्रेया, अंजु, अमला, अप्सरा, नवमिका अने रोहिणी, तेमांनी एक एक देवीनो सोळ सोळ हजार देवीओनो परिवार होय छे. तेमांनी एक एक देवी बीजी सोळ सोळ हजार देवीओना परिवारने विकुर्वी शके छे. ए प्रमाणे पूर्वापर मळीने एक लाख अने अठ्यावीश हजार देवीओना परिवारने विकुर्ववा समर्थ छे. ए प्रमाणे त्रुटिक ( देवीओनो समूह ) कह्यो. २६. [प्र० ] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र सौधर्म देवलोकमां सौधर्मवतंसक विमानमां सुधर्मा समाने विषे अने शक्र नामे सिंहासनमा बेसी ते त्रुटिक ( देवीओना समूह ) साथै भोग भोगववा समर्थ छे ? [ उ०] हे आर्य ! बाकी सर्व चमरेन्द्रनी पेठे जाणवुपरन्तु विशेष एछे के तेनो परिवार "तृतीयशतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवो. २७. [अ०] हे भगवन् देवेन्द्र देवराज शकना (लोकपाल) सोन नामे महाराजाने केटली पट्टराणीओ कही है। [३०] है आर्य तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे - रोहिणी, मदना, चित्रा अने सोमा. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे चमरेन्द्रना लोकपालोनी पेठे जाणवो; परन्तु विशेष ए छे के स्वयंप्रभ नामे विमानमां सुधर्मा सभामां अने सोम नामना सिंहासनमां बेसीने मैथुननिमित्ते देवीओनी साथै भोग भोगववा समर्थ नथी - इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवुं. ए प्रमाणे यावद् वैश्रमण सुधी जाणवुं. परन्तु विशेष ए छे के तेमना विमानो "तृतीयशतकमां कथा प्रमाणे का. २८. [ प्र० ] हे भगवन् ! ईशानेन्द्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ? [उ०] हे आर्य ! तेने आठ पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणेकृष्णा, कृष्णराजि, रामा, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता, बसुमित्रा अने वसुंधरा. तेमां एक एक देवीनो परिवार वगेरे बधुं शकनी पेठे जाणवु. २९. [प्र० ] हे भगवन् । देवेन्द्र देवराज ईशानना [लोकपाल ] सोम नामे महाराजाने केटली पहराणीओ कही छे ! (उ०] दे आर्य ! तेने चार पट्टराणीओ कही छे, ते आ प्रमाणे- पृथिवी, रात्री, रजनी, अने विद्युत् तेमां एक एकनो परिवार वगेरे बाकी बधुं शकना लोकपालोनी पेटे जाग र प्रमाणे यावद वरुण सुधी जाणवुं. पस्तु विशेष एछे के चिया शतकमा कक्षा प्रमाणे विमानो कहना, बाकी वधुं पूर्वी पेठे जाणवुं यावत् ते मैथुननिमित्ते [ राजधानीमा पोताना सिंहासन उपर बेसीने] भोग भोगयता नथी. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. दशम शते पंचम उद्देशक समाप्त. २६. * भग० खं. २ श० ३ उ० १ पृ० १६. २९. भग० खं. २ ० ४ उ० १-८ पृ० १३०. / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छओ उद्देसो । १. [प्र० ] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए एवं जहा रायप्पसेणइजे, जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा- १ असोगवडेंसर, जाव मज्झे ५ सोहम्मवर्डेसप । से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसयस हस्लाई आयामविक्खंभेणं, "एवं जह सूरियाभे तद्देव माणं, तद्देव उववाओं । सक्कस्स य अभिसेओ तहेव जद्द सूरियाभस्स || अलंकारभच्चणिया तद्देव जाव आयरक्त त्ति" दो सागरोवमाई ठिती । [0] सणं भंते! देबिंदे देवराया के महिडिए, जाव केमहासोक्खे ।' [ उ० ] गोयमा ! महिडिए, जाब महासोक्खे । सेणं तत्थ बत्तीसार विमाणावाससयसहस्साणं जाव विहरह, एवं महिडिए जाव महासोक्खे सके देविंदे देवराया । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति । दसमसए छट्टओ उद्दसो समत्तो । षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्रनी सुधर्मा नामे सभा क्यां कही छे ? [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मेरु पर्वतनी दक्षिणे आ रत्नप्रभापृथिवीना [ बहु सम अने रमणीय भूमिभागनी उंचे घणा कोटाकोटि योजन दूर सौधर्म नामे देवलोकने विषे ] इत्यादि *रायपसेणीय' सूत्रमां कह्या प्रमाणे यावत् पांच अवतंसक विमानो कह्या छे, ते आ प्रमाणे- अशोकावतंसक, यावत् वच्चे सौधर्मावतंसक छे. ते सौधर्मावतंसक नामे महा विमाननी लंबाई अने पहोळाई साडा बार लाख योजन छे. शक्रनुं प्रमाण, उपपात ( उपजवुं ), अभिषेक, अलंकार अने अर्चनिका ( पूजा ) - इत्यादि यावत् आत्मरक्षको सूर्याभ देवनी पेठे जाणवा. तेनी स्थिति (आयुष) बे सागरो - मनी छे. २. [ प्र० ] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र केवी महाऋद्धिवाळो छे, केवा महासुखवाळो छे ? [उ०] हे गौतम! ते महाऋद्धिवाळो यावत् महासुखवाळो बत्रीश लाख विमानोनो खामी थइने यावद् विहरे छे, ए प्रमाणे महाऋद्धिवाळो अने महासुखवाळो ते देवेन्द्र देवराज शक्र छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [ एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. ] दशम शते षष्ठ उद्देशक समाप्त. १ - महिडिया क । २ - सोक्खा क । १. *जुओ अवतसंक विमाननुं वर्णन रायप० प० ५९. जुओ रायप० प० ९७-११२. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] कहिणं भंते! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते १ [उ०] एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं, जाव सुद्धदंतदीवो त्ति । एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति । दसमसए सत्तमादि चोत्तीसइमपञ्जन्ता अट्ठावीसं उद्देसा समत्ता । समत्तं दसमं सयं । ' उद्देशक ७-३४. १. [प्र०] हे भगवन् ! उत्तरमा रहेनारा एकोरुक मनुष्योनो एकोरुक नामे द्वीप कये स्थळे कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम "जीवामिगमसूत्रमा कह्या प्रमाणे सर्व द्विपो संबन्धे यावत् शुद्धदंतद्वीप सुधी कहेb. ए प्रमाणे प्रत्येक द्वीप संबन्धे एक एक उद्देशक कहेवो. एम अठ्यावीश उद्देशको कहेवा. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [ एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे छे. ] दशम शते ७-३४ उद्देशको समाप्त. दशम शतक समाप्त. 5* जीवाभि० प्रति. ३.उ.१५०१४४-१५६. Jain Education international Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकारसं सयं। उप्पल सालु पलासे कुंभी नाली य पउम कन्नीय । नलिण सिव लोग काला-लभिय दस दो य एकारे ॥ रढमो उद्देसो। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासि-[प्र०] उप्पले णं भंते ! एगपत्तए किं पगजीवे . अणेगजीवे ? [उ०] गोयमा ! एगजीवे, णो अणेंगजीवे । तेण परं जे अन्ने जीवा उववजंति तेणं णो एगजीवे, अणेगजीवे । एकादश शतक. १. [ उद्देश संग्रह-] १ उत्पल, २ शालूक, ३ पलाश, ४ कुंभी, ५ नाडीक, ६ पम, ७ कर्णिका, ८ नलिन, ९ शिवराजर्षि, १० लोक, ११ काल, अने १२ आलंभिक-ए संबन्धे अगीयारमा शतकमां बार उद्देशको छे. [उत्पल-अमुक जातना कमल-संबन्धे प्रथम उद्देशक, शालूक-उत्पलकन्द-संबन्धे बीजो उद्देशक, पलाश-खाखरा-ना वृक्ष संबन्धे त्रीजो उद्देशक, कुंभी वनस्पति संबन्धे चोथो उद्देशक, नाडीक वनस्पति संबन्धे पांचमो उद्देशक, पद्म-अमुक जातना कमलं-विषे छठो उद्देशक, कर्णिका संबन्धे सातमो उद्देशक, नलिन-अमुक प्रकारना कमल-संबंधे आठमो उद्देशक, शिवराजर्षि संबन्धे नवमो उद्देशक, लोकने विषे दशमो उद्देशक, कालसंबन्धे अगीआरमो उद्देशक, अने आलमिक-आलमिकानगरीमा करेला प्रश्न-संबंधे बारमो उद्देशक.-ए प्रमाणे अगीयारमा शतकमां बार उद्देशको छ.] 'प्रथम उद्देशक. २. [प्र०] ते काले-ते समये राजगृह नगरने विषे पर्युपासना करता [गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! उत्पल शुं एक पक. जीववावं छे के अनेकजीववाळु छ ? [उ०] हे गौतम ! ते एक जीववाळु छे, पण अनेक जीववाळु नथी. त्यार पछी ज्यारे ते उत्पलने तत्पर के अनेक जीपीछे। विषे बीजा जीवो-जीवाश्रित पांदडा वगेरे अवयवो-उगे छे त्यारे ते उत्पल एक जीववाळु नथी, पण अनेक जीववाळु छे. * प्रथम उद्देशकार्थसंग्रह गाथा-" उवधाओ २ परिमाणं ३ भवहारु-४ चत्त ५ बन्ध ६ घेवे य । ७ उदए ८ उदीरणाए ९ लेसा दिट्ठी य ११ नाणे य ॥ १२ जोगु-१३ वओगे १४ वन-१५ रसमाई १६ उसासगे १७ य माहारे। बिरई १९ किरिया २० बन्धे २९ सम-२२ कसायि२३ स्थि-२४ पन्धे य ॥२५ सनिं-२६ दिय-२७ भणुबन्धे २८ संवेहा-२९ हार-३० ठिह-३समुग्धाए। ३२ घयणं ३१ मूलादीसु य उववाओ सम्वजीवाणं ॥" ____संग्रह गाथानो अर्थ-१ उपपात, २ परिमाण, ३ अपहार, ४ उंचाई, ५ ज्ञानावरणादिकर्मनो बन्ध, ६ वेदक, ७ उदय, ८ उदीरणा, ९ लेश्या, १० दृष्टि (सम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि भने मिथ्यादृष्टि), ११ ज्ञान, १२ योग, १३ उपयोग, १४ वर्ण, १५ रसादि १६ उच्छासक, १७ आहार, १८ विरति, १९ किया, २. बन्धक, २१ संज्ञा, २२ कषाय, २३.स्त्रीवेदादि, २४ समुद्घात, २५ संज्ञी, २६ इन्द्रिय, २७ अनुबन्ध, २८ संवेध, २९ आहार, ३० स्थिति, ३१ समुद्घात, ३२ च्यवन, अने ३३ सर्व जीवोनो मूलादिमा उपपात-एरीते प्रथम उद्देशकना ३३ द्वारो जणाच्या छे. Jain Education international Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक ११.-उद्देशक १. ३.० ते गं भंते ! जीवा कोहिंतो उववजंति? कि नेरपहिंतो उववजंति, तिरि०मण देवहितो उपषजंति ? [उ०] गोयमा! नो नेरतिपहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिपहिंतो वि उववजंति मणुस्सेहितो० देवहितो वि उववजंति । एवं उववामो भाणिअयो जहा वकंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति । ४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमए णं केवइआ उववजंति ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । . ५. [प्र० ते णं भंते ! जीवा समए २ अवहीरमाणा २ केवतिकालेणं अवहीरंतिउ०] गोयमा! ते णं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा २ असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया । ६. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिआ सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजरभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । ७. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा? [उ०] गोयमा ! नो अबंधगा, बंधए वा, बंधगा वा । एवं जाव अंतराइअस्स। ८. [प्र०] नवरं आउअस्स पुच्छा । [उ०] गोयमा! १ बंधए वा, २ अबंधए वा, ३ बंधगा वा, ४ अबंधगा वा; ५ अहवा बंधएअ अबंधए अ, ६ अहवा बंधए अ अबंधगा य, ७ अहवा बंधगा य अबंधए अ, ८ अहवा बंधगा य अबंधगा य । एते अट्ठ भंगा। ९. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं वेदगा अवेदगा ? [उ०] गोयमा ! नो अवेदगा, वेदए षा वेदगा वा । एवं जाव अंतराइअस्स । उपपात-जीवो. ३. [प्र०] हे भगवन् ! [ उत्पलमां ] ते जीवो क्याथी आवीने उपजे छे-शुं नैरयिकथी, तिर्यंचथी, मनुष्यथी के देवथी आवीने " उपजे छे ? [उ०] हे गौतम! ते जीवो नैरयिकथी आवीने उपजता नथी, पण तिर्यंचथी, मनुष्यथी के देवथी आवीने उपजे छे. जेम आवीने उप प्रज्ञापनासूत्रनां *व्युत्क्रांतिपदमां कयुं छे ते प्रमाणे वनस्पतिकायिकोमां यावत् ईशान देवलोक सुधीना जीवोनो उपपात कहेवो. परिमाण-एक समय- . ४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो [ उत्पलमां ] एक समयमां केटला उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक, बे के त्रण मां फेटला उपजा अने उत्कृष्टथी संख्यात के असंख्याता जीवो एक समयमा उत्पन्न थाय. अपहार-प्रतिसमय ५. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवो समये समये काढवामां आवे तो केटले काले ते पूरा काढी शकाय! [उ०] हे काढवामां आवे तो गौतम ! जो ते जीवो समये समये असंख्य काढवामां आवे, अने ते असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काल सुधी काढवामां आवे तो क्यारे खाली थाय! पण ते पूरा काढी शकाय नहीं. शरीरावगाहना. ६. [प्र०] हे भगवन् ! उत्पलना जीवोनी केटली मोटी शरीरावगाहना कही छे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य-ओछामा ओछी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली, अने उत्कृष्ट कईक अधिक हजार योजन होय छे. शानावरणीयादि ७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो शुं ज्ञानावरणीय कर्मना बंधक छे के अबंधक छे! [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानावरणीय कर्मना बन्धक कर्मना अबंधक नथी, पण बन्धक छे. अथवा एक जीव बंधक छे अने अनेक जीवो पण बंधक छे. ए प्रमाणे यावद् अंतरायकर्म संबंधे पण जाणवू. आयुष कर्मना ब- ८.[प्र०] परन्तु आयुषकर्मना संबंधे प्रश्न करवो. [हे भगवन् ! शुं ते उत्पलना जीवो आयुषकर्मना बंधक छे के अबंधक छे ?] [उ०] हे गौतम! १ [ उत्पलनो] एक जीव बंधक छे, २ एक जीव अबंधक छे, ३ अनेक जीवो बंधक छे, ४ अनेक जीवो अबंधक छे, ५ अथवा एक बंधक अने एक अबंधक छे, ६ अथवा एक बंधक अने अनेक अबंधक छे, ७ अथवा अनेक बंधक अने एक अबंधक छे. ८ अथवा अनेक बंधक अने अनेक अबंधक छे. ए प्रमाणे ए आठ भांगा जाणवा. शानावरणीयादिक ९. प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवो ज्ञानावरणीयकर्मना वेदक छे के अवेदक छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ अवेदक मैना वेदक. नथी, पण एक जीव वेदक छे अथवा अनेक जीवो अवेदक छे. ए प्रमाणे यावद् अंतराय कर्म सुधी जाणq. -न्धक. ३. * प्रज्ञा० पद ६५० २०४. ७.1 उत्पलने प्रारंभमां ज्यारे एकज पांदडं होय छे त्यारे तेमां एक जीव होवाथी एक जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मनो बन्धक कहेवाय छे, परन्तु ज्यारे अनेक पांदडा थाय छे त्यारे तेमां अनेक जीवो होवाथी अनेक जीवो बन्धक कहेवाय छे.-टीका. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११. - उदेशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ૨૦૪ १०. [प्र० ] ते णं मंते जीवा किं सायावेयगा असायावेयगा १ [४०] गोयेमा ! सायावेदप वा असायावेयर वा अभंगा। ११. [४०] ते णं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं उदई अणुदई ? [अ०] गोयमा ! जो अणुदई, उदई वा, उदइणो वा । एवं जाव अंतराइअस्स । १२. [४०] ते णं मंते । जीवा णाणावरणिजस्तं कम्मस्स किं उदीरगा अणुदीरगा [अ०] गोयमा ! नो अणुदीरगा, उदीरण वा उदीरगा वा । एवं जाव अंतराइअस्स । नवरं वेयणिजा - उपसु अट्ठ भंगा . १३. [ प्र० ] ते णं मंतें ! जीवा कि कण्हलेसा, नीललेसा, तेउलेसा ? [अ०] गोयमा ! कण्हलेसे वा, जाव तेउलेसे वा कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा या तेउलेस्सा वा । अहवा कण्हलेसे य नीललेस्सें य, एवं एप दुयासंजोग - तियासंजोग - चउक्कसंजोगेणं असीती भंगा भवंति । १४. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा किं सम्मद्दिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? [30] गोयमा ! नो सम्मद्दिट्ठी, मो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी वा मिच्छादिट्टिणो वा । १५. [] ते ते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी वा, अन्नाणिणो वा । १६. [प्र० ] ते णं भंते! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? [30] गोयमा ! णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी था, कायजोगिणो वा । १०. [प्र०] है भगवन् ! ते [ उत्पलना ] जीवो साताना वेदक छे के असाताना वेदक छे ! [उ०] हे गौतम ! ते जीवो साताना वेदक छे अने असाताना पण वेदक छे. अहीं पूर्व प्रमाणे आठ भांगा कहेंका. कर्मनो उदय. ११. [प्र०] हे भगवन् ! तें [ उत्पलना ] जीवो ज्ञानावरणीय कर्मना उदयषाळा छे के अनुदयवाळा छे ! [30] हे गौतम! तेओ ज्ञानावरणीयादि ज्ञानावरणीयकर्मना अनुदयवाळा नथी, पण एक जीव उदयवालो के अथवा अनेक जीवों उदयवाळा छे. ए प्रमाणे यावत् अंतरायकर्म संबंधे जाणवुं. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो ज्ञानावरणीयकर्मना उदीरक छे के अनुदीरक छे ! [उ०] हे गौतम! 'तेओ अनुदीरक नथी, पण एक जीव उदीरक छे, अथवा अनेक जीवो उदीरक छे. ए प्रमाणे यावत् अंतरायकर्म सुधी जाणवुं परन्तु विशेष ए छे के वेदनीयकर्म अने आयुषकर्ममां पूर्ववत् (सू० ८) आठ भांगा कहेवा. १३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा, कापोतलेश्यावाळा के तेजोलेश्यावाळा होय ! [उ०] हे गौतम ! एक जीव कृष्णलेश्यावाळो, यावत् एक तेजोलेश्यावाळो होय, अथवा अनेक जीवो कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा, कापोतलेश्यावाळा अने तेजोलेश्यावाळा होय, अथवा एक कृष्णलेश्यावाळो अने एक नीललेश्यावाळो होय. ए प्रमाणे द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग अने चतुष्कसंयोग वडे सर्व मळीने * एंशी भांगा कहेवा. १४. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो सम्यग्दृष्टि छे, मिथ्यादृष्टि छे, के सम्यगुमिध्यादृष्टि छे ! [ उ०] हे गौतम! दृष्टि सम्यग्दृष्टि के तेओ सम्यग्दृष्टि नथी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नथी, पण एक जीव मिथ्यादृष्टि छे, अथवा अनेक जीवो मिथ्यादृष्टिओ छे. के मिध्यादृष्टि १ १६. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो मनयोगी, वचनयोगी के काययोगी छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ मनयोगी नथी, वचनयोगी नथी, पण एक काययोगी छे अथवा अनेक काययोगिओ छे. १५. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ उत्पलना ] जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हें गौतम ! ते ज्ञानी नथी, पण एक पान वानी के अशा · अज्ञानी छे, अथवा अनेक अज्ञानीओ छे. नी १ १३. * उत्पल वनस्पतिकायिक होवाथी तेमां प्रथमनी चार लेश्याओ होय छे. एकयोगे एक जीवना चार तथा अनेक जीवोना चार भांगा मळीने तेभोना आठ भांगा थाय छे. द्विकसंयोगमा एक अने अनेकनी चउभंगी थाय छे. कृष्णादि चार लेश्याना छ द्विकसंयोग थाय छे, तेने पूर्वोक चउभंगी साथै गुणतां द्विकयोगी चोवीश विकल्पो थाय छे. चार लेश्याना त्रिकयोगी आठ विकल्प थाय छे, तेने पूर्वोक चउभंगी साथे गुणतां त्रिकसंयोगी बत्रीश विकल्पो थाय छे, अने चतुःसंयोगे सो विकल्पो थाय छे, सर्व मळीने एंशी भांगा थाय छे. २७ भ० सू० उदीरक. लेश्या. योग-मनयोगी वचनयोगी के काययोगी ? Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग-साकार उप योगी के अनाकार उपयोगी १ शरीरना वर्णादि. प्यारा निवास निःश्वासक आहारक के अनावा रक श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंप्रहे शतक ११. - उदेशक १. १७. [अ०] से मं भंते! जीवा किं सागारोवडता, गणागारोवडता ? [30] गोयमा ! सागारोवडते वा अणागारोबउ वा अटु मंगा । २१० १८. [अ०] देसि नं भंते! जीवाणं सरीरमा कतिबन्धा, कविगंधा, कतिरसा, कतिफांसा पत्रचा [30] गोयमा ! पंचवत्रा, पंचरसा, दुगंधा अट्ठफासा पन्नत्ता । ते पुण अप्पणा अवन्ना, अगंधा, अरसा, अफ्रासा पन्नत्ता । १९. [२०] ते भंते! जीवा कि उस्सासमा निस्सासमा पोउस्सासनिस्सासगा ? [30] गोयमा ! उस्सासप वा निस्सासप वा पोउरसासनिस्सासए वा उस्सासगा था, निस्सासगा था, मोउस्सासनिस्सासगा या अदया उरसाखर प निस्सास य, अहवा उस्सासप य णोउस्सासनिस्सासप य, अहवा निस्सासए य णोउस्सासनिस्सासए प अहवा उस्सासर व निस्सासए व णोउस्सासनिस्सासर य । अट्ठ मंगा एप छद्दीसं मंगा भयंति । २०. [प्र० ] ते णं भंते ! जीवा किं आहारगः अणाहारगा ? [30] गोयमा ! णो अणाहारगा, आहारए वा, अणाद्वारए बा एवं अट्ठ भंगा। १७. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो साकार उपयोगवाळा छे के अनाकार उपयोगवाळा छे ? [उ०] हे गौतम! एक जीव साकार उपयोगवाको छे, अथवा एक जीव अमाकारउपयोगवाळो छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे ( सू० ८) आठ भांगा कहेना. १८. [अ०] हे भगवन् । ते [उत्पखना] जीवोना शरीरो केटला वर्णवाल, केटा गंधाळा, केटला रसमा अने केला. स्पर्शवाळां कां छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच वर्णवाळां, पांच रसवाळां, बे गंधवाळां अने आठ स्पर्शवाळां कह्यां छे. अने जीवो पोते वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श रहित छे. १९. [प्र० ] हे भगवन् ! शुंते [ उत्पलना ] जीवो उच्छ्रासक ( श्वास लेनारा ) छे, निःश्वासक (श्वास मूकनारा) के के अनुनिःश्वासक (श्वास नदि लेनारा अने महि मूकनारा) होप के [४०] हे गीतम ! १ कोई एक कछे, २ कोई एक निःसक छे अने ३ कोई एक अनुच्छासकनिः श्रासक पण छे. 8 अपना अनेक जीवो उच्छासक छे, ५ अनेक निःश्वासक छे, अने ६ अनेक अनुच्छुक निःश्वासक पंण . १-४ अथवा एक उच्छ्रासक, अने एक निःश्वासक छे, अने एक अनुष्ठासक - निःश्रासक के १-४ अपना एक निःश्वासक अने एक अनुहा- निःश्वासक के एक निःश्वासक अने एक अनुच्छासकनिःश्वासक छे. ए प्रमाणे आठ भांगा करवा. ए सर्वे महीने उन्नीश २०. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना ] जीवो आहारक छे के अनाहारक छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ सघळा अनाहारक नयी, पण एक आहारक छे, अथवा एक अनाहारक छे. इयादि आठ भांगा अहीं कहेना. १९. * एक अने अनेकना एकत्व योगे छ भांगा, द्विकयोगे बार भांगा, अने त्रिकयोगे आठ भांगा थाय छे. तेमां एकत्व योगे छ मांगा कहेला छे. द्विकयोगे बार भांगा आ प्रमाणे १ – एक १- अनेक त्रिकयोगे आठ भांगा थाय छे, ते आ प्रमाणे उ. १. १. १. 1. २. १. उ.नि. 9-9 १-२ २ उ. अनु. १-१ १ – १ नि. १. १. 1 २. १. 1. २. २. वधा मळीने २६ भांगा थाय छे. अनु. १. २. 1. २. १-४ अथवा एक उच्छासक १-८ अथवा एक उच्छासक, भांगा पाय छे. ܟ ܘ ܦ ܩ नि. अनु. IIII 12 / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ५. . भगवत्सुधमेखामिप्रणांव भगवतीसूत्र. २१. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं विरता, अविरता, विरताविरता ? [उ०] गोयमा ! नो विरता नो विरयाविरया, अविरए वा अविरया था। २२. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा. कि सकिरिया अकिरिया ? [उ०] गोयमा ! णो अकिरिया, सकिरिए धा, स. किरिया वा। २३. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा कि सत्तविहबंधगा अट्टविहबंधगा ? [उ०] गोयमा सत्तविहबंधए पा, अविहर्ष। घर वा । अट्ट मंगा। २४. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता, भयसन्नोवउत्ता, मेहुणसन्नोवउत्ता, परिग्गहसन्नोवउत्ता! [उ०] गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ता वा असीती भंगा। २५. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं कोहकसायी, माणकसायी, मायाकसायी, लोभकसायी ? [उ०] असीती भंगा। २६..[प्र०] ते णं भंते जीवा किं इत्यिवेदगा, पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा ? [उ०] गोयमा! नो इत्थिवेद्गा, नो पुरि सवेदगा, नपुंसगवेदए वा, नपुंसगवेदगा वा। २७. [प्र०] ते णं भंते जीवा किं इत्थिवेदबंधगा, पुरिसवेदवंधगा, नपुंसगवेदबंधगा,? [उ०] गोयमा ! इथिवेदबंधएं वा, पुरिसवेदबंधए वा, नपुंसगवेबंधए वा छधीसं भंगा। २८. [प्र०] ते णं भंते जीवा किं सन्नी, असन्नी ? [उ०] गोयमा ! णो सन्त्री, प्रसन्नी वा असन्निणों वा । २९. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं सइंदिया अणिदिया ? [उ०] गोयमा ! णो अणिदिया, सइंदिए वा, सइंदिया वा । २१. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलना जीवो सर्वविरति छे, अविरति छे के विरताविरत (देशविरति) छे! । उ०] हे सर्वविरति, मविरति गौतम ! ते सर्वविरति नथी, विरताविरत (देशविरति ) नथी, पण एक जीव अविरति छ, अथवा अनेक जीवो अविरति छे. के देशविरति । २२. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवो शुं सक्रिय छे के अक्रिय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ अक्रिय नथी पण तेमांनो एक सक्रिय के प्रक्रिय? जीव सक्रिय छे अथवा अनेक जीवो सक्रिय छे. २३. [प्र०] हे भगवन् । शुं ते उत्पलना जीवो सात प्रकारे कर्मना बंधक छे के आठ प्रकारे कर्मना बंधक छे! [उ०] हे समविषयंपक के मष्टविषधका गौतम । ते जीवो सात प्रकारे कर्मना बंधक छे, अथवा आठ प्रकारे बंधक छे. अहीं आठ भांगा कहेवा.. २४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते [ उत्पलना] जीवो आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा, भयसंज्ञाना उपयोगवाळा, मैथुनसंज्ञाना उपयोग- माहारादि संशाओ. पाळा, के परिग्रहसंज्ञाना उपयोगवाळा छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा छे-इत्यादि "एंशी भांगा कहेवा.. २५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलना जीवो क्रोधकषायवाळा, मानकषायवाळा, मायाकषायवाळा के लोभकषायवाला छे ! [उ०] कषायहे गौतम ! अहीं पण एंशी भांगा कहेवा. २६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलना जीवो स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा के नपुंसकवेदवाळा होय ? [उ०] हे गौतम ! ते स्त्रीवे- वेद दवाळा नथी, पुरुषवेदवाळा नथी, पण एक जीव नपुंसकवेदवाळो के अनेक नपुंसकवेदवाळा होय. २७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलना जीवो स्त्रीवेदना बंधक, पुरुष वेदना बंधक के. नपुंसक वेदना बंधक छे ! [उं०] हे वेदना बन्धक. गौतम ! ते स्त्रीवेदना बंधक, पुरुषवेदना बंधक अथवा नपुंसकवेदना बंधक छे. अहीं पण छन्वीश भांगा कहेवा. २८. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलजीवो संज्ञी छे के असंज्ञी छे? उ०] हे गौतम ! ते संज्ञी नथी, एक असंज्ञी छे, अथवा संशी के मसंदी। अनेक असंज्ञिओ छे. २९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते उत्पलजीवो इंद्रियसहित छे के इंद्रियरहित छे ! [उ०] हे गौतम ! ते इंद्रियरहित नथी, पण सेन्द्रिय के अनि एक जीव. इंद्रियवाळो छे, अथवा अनेक जीवो इंद्रियवाळा छे. विवा २४. * लेण्याद्वारनी पेठे अहिं पण एंशी भांगा कहेवा. जुओ सू० १३ नुं टीप्पन. २५. अहिं पण एक अने अनेकना उच्छामकादिनी पेठे छन्वीश भांगा कहेवा. जुओ सू० १९ नुं टीप्पन. Jain Education international Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक १. ___३०. [३०] से भंते ! उप्पलजीवेति कालतो केवचिरं होइ ? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुद्धत्तं, उक्कोसेणं अंसनेज कालं। ३१.० से भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे, पुणरवि उप्पलजीवेति केवतियं कालं सेवेजा ? केवतियं कालं गतिरागति करेजा [उ.] गोयमा! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाई भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहघेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं असंखेजं कालं, एवंतियं कालं सेवेजा-पवतियं कालं गतिरागतिं करेजा। ३२. [प्र०] से णं भंते ! उप्पलजीवे, आउजीवे० [उ०] एवं चेवं, एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा, जाव पाउ. जीवे माणियो। ३३. प्र० से गं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे, से पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवइयं कालं सेवेज्जा-केवतियं कालं गतिरागतिं करेजा उ०] गोयमा! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गणाई, कालादेसणं जहश्रेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालं.तरुकालं, एवइयं कालं सेवेजा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा । . ३४. प्र० से णं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं सेवेजा-केवइयं कालं गतिरागति करेजा ? [उ०] गोयमा! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेजाइं भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमहत्ता, उक्कोसेणं संखेजं कालं, एवतियं कालं सेवेजा-एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा । एवं तेइंदियजीवे, एवं चरिदियजीवे वि। ३५. [प्र० से णं भंते ! उप्पलजीवे पर्चेदियतिरिक्खजोणियजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति पुच्छा । [उ०] गोयमा! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ताई, उक्कोसेणं पुष्धकोडिपुहुत्तं, एवतियं कालं सेवेजा-पवतियं कालं गतिरागतिं करेजा । एवं मणुस्सेण वि समं जाव एवतियं कालं गतिरागति करेजा। भनुबन्ध-उत्पलनो ३०. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलनो जीव उत्पलपणे कालथी क्यांसुधी रहे ! [उ.] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहर्त सुधी अने जीव उत्पलपणे क्या मुधी रहे। उत्कृष्टथी असंख्य काल सुधी रहे. संवेध-उत्पलनो ३१. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलनो जीव पृथिवीकायिकमा आवे, अने फरीथी पाछो उत्पलमां आवे -ए प्रमाणे केटलो काळ जीव पृथिवीमा भावी सेवे-केटला काळ सुधी गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्यथी* बे भव अने उत्कृष्टथी असंख्यात भव सुधी उत्पलमा भावे त्यारे केटलो काल गमना- गमनागमन करे, कालनी अपेक्षाए जघन्यथी बे अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी असंख्यकाल एटलो काल सेवे-तेटलो काल गमनागमन करे. गमन करे। ३२. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलनो जीव अप्कायिकपणे उपजे अने फरीथी ते पाछो उत्पलमा आवे, ए प्रमाणे केटलो काल गमनागमन करे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. जेम पृथिवीना जीव संबन्धे (सू० ३१) कयुं तेम यावत् वायुना जीव सुधी कहे. उत्पलनो जीव वन- ३३. (प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलनो जीव बनस्पतिमां आवे, अने ते फरीथी उत्पलमां आवे ए प्रमाणे केटलो काल सेवे-केटलो स्पतिमा जईने पुन: काल गमनागमन करे ? [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्यथी बे भव, अने उत्कृष्टथी अनंत भव सुधी गमनागमन करे. कालनी उत्पलमा आवे त्यारे ते केटलो काल अपेक्षाए जघन्यथी बे अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी अनंत काल-वनस्पतिकाल पर्यन्त; एटलो काळ सेवे-एटलो काल गमनागमन करे. गमनागमन करे। उत्पलनो जीव बेइ- ३४. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलनो जीव बेइन्द्रियमा आवे, अने ते फरीथी उत्पलपणे उपजे; ए प्रमाणे ते केटलो काल सेवेन्द्रियमा जाने केटलो काल गमनागमन करे ? [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्यथी बे भव, उत्कृष्टथी संख्याता भवो; तथा कालनी अपेक्षाए जघलारे केटलो काळ न्यथी बे अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी संख्यातो काल; एटलो काल सेवे-एटलो काल गमनागमन करे. एज प्रमाणे त्रीन्द्रियपणे, अने चतुजाय? रिदियजीवपणे गमनागमन करवामां पूर्ववत् काल जाणवो. उत्पननो जीव पं. ३५. [प्र०] हे भगवन् ! उत्पलनो जीव पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकपणे उपजे अने ते फरीथी उत्पलपणे उपजे, एम केटलो काल घेन्द्रिय तियेच थाने उत्पमा आवे त्यारे गमनागमन करे ! [उ०] हे गौतम ! भवनी अपेक्षाए जघन्यथी बे भव, उत्कृष्टथी आठ भवो, कालनी अपेक्षाए जघन्यथी वे अंतर्मुहूर्त, अने केटलो काळ जाय। उत्कृष्टथी पूर्वकोटिपृथक्त्व; एटलो काल सेवे-एटलो काल गमनागमन करे. ए प्रमाणे उत्पलनो जीव मनुष्य साथे पण यावत् एटलो काल गमनागमन करे. ३१. प्रथम भव पृथिवीकायिकपणे अने पीजो उत्पलपणे, त्यारपछी मनुष्यादि गतिमा आवे-टीका. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक १. भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१३ ३६. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ? [उ०] गोयमा ! दवओ अर्णतपदेसियाई दधाई, एवं जहा आहारुदेसए वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सथप्पणयाए आहारमाहारेति । णवरं नियमा छहिसिं सेसं तं चेव । ३७. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? [उ०] गोयमा ! जहनेणं अंतोमुडुत्तं, उकोसेणं दस वाससहस्साई। ३८. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पन्नता? [उ०] गोयमा ! तओ समुग्घाया पनत्ता । तं जहाघेदणासमुग्याए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्धाए । ___ ३९. [प्र०] ते गं भंते ! जीवा मारणंतिमसमुग्धाएणं किं समोहता मरंति, असमोहता मरंति ? [उ०] गोयमा! समोहता वि मरंति, असमोहता वि मरंति ।। ४०. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति-कहिं उववज्जति ? किं नेरइएसु उववजंति, तिरिक्तजोणिपसु उववजंति ? एवं जहा वकंतीए उच्चट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियचं । ४१. [प्र०] अह भंते ! सवे पाणा, सवे भूता, सचे जीवा, सवे सत्ता, उप्पलमूलत्ताए, उप्पलकंदत्ताए, उप्पलनालचाए, उप्पलपत्तत्ताप, उप्पलकेसरत्ताए, उप्पलकन्नियत्ताए, उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुष्पा ? [उ०] हन्ता, गोयमा! असति, बद्धवा अयंतखुतो । सेवं भंते ! सेवं भंते ति। पढमो उप्पलउद्देसओ समतो ३६. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवो कया पदार्थनो आहार करे ? [उ०] हे गौतम! ते जीवो द्रव्यथी अनन्तप्रदेशिक • आहार द्रव्योनो आहार करे, इत्यादि सर्व *आहारक उद्देशकमां वनस्पतिकायिकोनो आहार कह्यो छे ते प्रमाणे यावत् तिओ सर्वात्मना-सर्व प्रदेशोए आहार करे छे, त्यां सुधी कहेवं, परन्तु एटलो विशेष छे के तेओ अवश्य छए दिशीनो आहार करे छे, बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. . ३७. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवोनी स्थिति (आयुष) केटला काल सुधी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मु- ___ आयुष हूर्त, अने उत्कृष्टथी दस हजार वर्षनी स्थिति कही छे. . ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवोने केटला सिमुद्घातो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेओने त्रण समुद्घातो कया छे, समुपात. ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात अने मारणांतिकसमुद्घात. ३९. [प्र०] हे भगवन् ! ते [उत्पलना] जीवो मारणांतिक समुद्घात वडे समवहत (समुद्घातने प्राप्त) थइने मरे, के असमवहत (समुद्घातने प्राप्त थया शिवाय) मरे ? [उ०] हे गौतम! ते समवहत थइने पण मरे अने असमवहत थइने पण मरे. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! ते उत्पलना जीवो मरीने तरत क्यां जाय! क्या उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोमा उत्पन्न थाय, तिर्यचयोनिकोमा उत्पन्न थाय, मनुष्योमा उत्पन्न थाय के देवोमा. उत्पन्न थाय ? [उ.] हे गौतम | प्रिज्ञापना सूत्रना व्युत्क्रांतिपदमा उद्वर्तना प्रकरणमा वनस्पतिकायिकोने कह्या प्रमाणे अहीं पण कहेवू. ४१. [4] हे भगवन् ! सर्व प्राणो, सर्व भूतो, सर्व जीवो अने सर्व सत्खो उत्पलना मूलपणे, कंदपणे, नालपणे, पांदडापणे, केस- सर्व जीवोर्नु परपल रपणे, कर्णिकापणे अने थिभुग (पांदडार्नु उत्पत्ति स्थान) पणे पूर्व उत्पन्न थया छे ? [उ०] हा, गौतम! जीवो अनेकवार अथवा अनन्त . पणे पबई. वार पूर्वे उत्पन्न थया छे. हे भगवन् । ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे. व्यवन. एकादश शते प्रथम उत्पलोद्देशक समाप्त. ३६.*प्रज्ञा० पद २० उ०११०४९८-५०५. ३८. समुद्घात माटे जुओ प्रज्ञा० पद ३६५०५५८, ४०.१ प्रज्ञा० पद ६५०२०४, Jain Education international Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो. १. [प्र०] सालुए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? [उ०] गोयमा ! एगजीवे । एवं उप्पलुईसगवत्तधया अपरिसेसा भाणियधा जाव 'अणंतखुत्तो', नवरं सरीरोगाहणा जहन्नणं अंगुलस्स असंखेजमार्ग, उक्कोसेणं घणुपुहु। सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। वीओ उद्देसो समतो। द्वितीय उद्देशक. शालूक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एक पांदडावाळो शालूक (उत्पलकन्द) शुं एक जीववाळो छे के अनेक जीववाळो छ। [उ०] हे गौतम! ते एक जीववाळो छे, एं प्रमाणे उत्पलोद्देशकनी सधळी वक्तव्यता कहेवी, यावद् 'अनन्तवार उत्पन्न थया छे.' परन्तु विशेष ए छे के, शालूकना शरीरनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली, अने उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व छे, बाकी बधु पूर्ववतू जाणवं. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. एकादशशते द्वितीयोद्देशक समाप्त. Jain Education international Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईओ उद्देसो। १. [प्र०] पलासे गं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? [उ०] एवं उप्पलुद्देसगवत्तवया अपरिसेसा माणियथा । नवरं सरीरोगाणा जहनेणं अंगुलस्स असंखेजइभार्ग, उक्कोसेणं गाउयपुहुत्ता, देवा परसु चेव न उवषजंति । २. [H०] लेसासु ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसे, नीललेसे, काउलेसे ? [उ०] गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा काउलेस्से वा छवीसं भंगा। सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । तईओ उद्देसो समत्तो। पाश. तृतीय उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! पलाशवृक्ष [प्रारंभा] एक पांदडावाळो होय व्यारे शुं एक जीववाळो होय के अनेक जीववाळो होय ? उ०] हे गौतम ! *उत्पलउद्देशकनी बधी वक्तव्यता अहीं कहेवी. परन्तु विशेष.ए के.के, पलाशना शरीरनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट गाउपृथक्त्व छे. वळी देवो च्यवीने ए पलाशवृक्षमा उत्पन्न यता नथी. २. [प्र०] लेश्याद्वारमा हे भगवन् ! शुं पलाशवृक्षना जीवो कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा के कापोतलेश्यावाळा होय ! [उ०] हे गौतम ! ते कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा के कापोतलेश्यावाळा होय, ए प्रमाणे छिन्वीश भांगा कहेवा. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. . एकादश शते तृतीय उद्देशक समाप्त. १. भग.सं. ३ २०११०१सू. १. महिं एक भने अनेकना तच्छ्रासकादिनी पेठे २६ भांगा जाणवा. जुओ भग० ख० ३ श०११०१सू. १९ नुं टीप्पन. . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैमिक उत्थो उद्देसी । १. [प्र०] कुंभिए णं भंते ! एगपसप किं एगजीवे अणेगजीवे १ [उ०] एवं जहा पळासुद्देसप तथा माणियते । नवरं ढिती जणं अंतोमुडुतं, उक्कोसेणं वासपुचं । सेसं तं चैष । सेवं भंते । सेवं भंते 1 ति । चतुर्थ उद्देश १. [प्र०] हे भगवन् ! एक पदिंडावाळी कुंमिक (वनस्पतिविशेष) चं एक जीववाळो होय के अनेकजीबवाळो होय ! [3] हे गौतम! ए प्रमाणे "पलाशोदेशकमा कक्षा प्रमाणे बघु कहेतुं, परन्तु विशेष ए के के कुंमिकनी स्थिति (आयु) लघम्यथी अंतर्मुहूर्त, अने उत्कृष्ट वर्ष यक्त्व - वे वर्षी नव वर्ष -सुधीनी होय छे. बाकी बधुं पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् 1 से एमज छे, 9. त्थो उद्देस समो । भग० खं० ३ ० ११ उ०३ सू० १. एकादशशते चतुर्थ उद्देशक समाप्त. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो। १. नालिए ण भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? [३०] एवं कुंभिउदेसगवत्तवया निरवसेसं भाणियवा । सेवं भंते से भंते । ति। पंचमो उद्देसो समत्तो पंचम उद्देशक नाडिक १. [प्र०] हे भगवन् ! एकपादडावाळो नाडिक (वनस्पतिविशेष) | एक जीववाळो छे के अनेकजीववाळो छ ! [उ०] हे गौतम ! कुंभिक उद्देशकनी (उ० ४ सू०१) बघी वक्तव्यता अहीं कहेवी. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. एकादश शते पंचम उद्देशक समाप्त. २० भ० ०. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसो । - १. [प्र०] पउमे णं भते! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? [३०] एवं उप्पलुद्देसगपञ्चधया निरषसेसा माणियधा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। छटो उद्देसो समचो। षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एक पांदडावाळु पद्म शुं एक जीववाळु होय के अनेक जीववाळु होय ! [उ०] हे गौतम ! उत्पल उद्देश का (उ० १ सू० १) कह्या प्रमाणे बधू कहे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. एकादश शते षष्ठ उद्देशक समाप्त . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] कषिप णं भंते ! एगपत्तए किं पगजीव, अणेगजीवे ? [उ०] एवं चेव निरवसेस भाणिययं । सेवं मते ! सेवं भंते ! ति। सत्तमो उद्देसो समतो। सप्तम उद्देशक १. [प्र०] हे भगवन् ! एक पांदडावाळी कर्णिका शुं एक जीववाळी छे के अनेक जीववाळी छे ! [उ०] हे गौतम ! बधं पूर्व प्रमाणे कहे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. कर्णिका. एकादश शते सप्तम उद्देशक समाप्त. . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो। १. [प्र०] नलिणे गं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? [उ०] एवं वेव निरवसेसं जाप 'अयंतषुत्तो। से भंते से भंते ! ति। अट्ठमो उद्देसो समत्तो। नलिन. अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! एकपत्रवाळु नलिन (कमलविशेष) शुं एकजीववाळु छे के अनेकजीववाळु छ ! [उ०] हे गौतम ! ए बधु पूर्व प्रमाणे (उ० १ सू० १) यावत् 'सर्व जीवो अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्यांसुधी कहे. हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. एकादश शते अष्टम उद्देशक समाप्त. . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिनागपुरे णामं णगरे होत्था । वन्नओ । तस्स णं हत्थिनागपुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमागे एत्य णं सहसंबवणे णामं उज्जाणे होत्था । सघोदुयपुष्फ-फलसमिद्धे, रम्मे, गंदणवणसन्निष्पगासे, सुहसीतलंच्छाए, मणोरमे, सादुप्फले, अकंटए, पासादीए, जाव-पडिरूवे । तत्थ थे हथिणापुरे णगरे सिवे नाम राया होत्था। महयाहिमवंत० वन्नओ । तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी णामं देवी होत्था । सुकुमाल० वनओ । तस्स णं सिवस्स रनो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे णामं कुमारे होत्था । सुकुमाल० जहा सूरियकते, जावप-चुवेक्खमाणे २ विहरति । २. तए णं तस्स सिवस्स रनो अन्नया कया वि पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि रजधुरं चिंतेमाणस्स अयमेयासवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-'अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं० जहा तामलिस्स, जाव-पुत्तेहिं वहामि, पसूहि वड्ढामि, रज्जेणं पर रटेणं, बलेणं, वाहणेणं, कोसेणं, कोट्ठागारेणं, पुरेणं, अंतेउरेणं वहामि; विपुलधण-कणग-रयण जाव संतसारसावएजेणं अतीव २ अभिवड्डामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं. जाव एगंतसोक्खयं उन्हमाणे विहरामि? तं जाव ताव अहं हिरण्णेणं वहामि, तं चेव जाव अभिवहामि, जाव मे सामंतरायाणो वि वसे वटुंति, तावता मे सेयं कल्लं पादुप्पभाताए जाव जलंते सुबई लोही-लोहकडाह-कडुच्छुयं तंबियं तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमारं रजे ठावेत्ता तं सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडु नवम उद्देशक. अवतरणहस्तिनापुर १. ते काले-ते समये हस्तिनापुर नामे नगर हतुं. वर्णन. ते हस्तिनापुर नगरनी बहार उत्तरपूर्व दिशामां-ईशानकोणमां-सहसाम्रवन नामे उद्यान हतुं. ते उद्यान सर्व ऋतुना पुष्प अने फलथी समृद्ध, रम्य अने नंदनवन समान हतुं. तेनी छाया सुखकारक अने शीतळ हती, ते मनोहर, खादिष्ठफलवाळू, कंटकरहित, प्रसन्नता आपनार, यावत् प्रतिरूप-सुन्दर-हतुं. ते हस्तिनापुर नगरमां शिव नामे राजा हतो, ते मोटा हिमाचल पर्वतनी पेठे (सर्व राजाओमां) श्रेष्ठ हतो, [इत्यादि राजानुं वर्णन कहे,.] ते शिव राजाने धारिणी नामे पट्टराणी हती, तेना हाथ पग सुकुमाल हता,-[इत्यादि स्त्रीचं वर्णन कहेवू]. ते शिवराजाने धारिणी राणीथी उत्पन्न थयेलो शिवभद्र नामे पुत्र हतो, तेना हाथ पग सुकुमाल हता-इत्यादि कुमारनुं वर्णन सूर्यकांत राजकुमारनी पेठे* कहे. यावत् ते कुमार [राज्य, राष्ट्र, सैन्यादिने] जोतो जोतो विहरे छे. शिवराजाशिवमपुत्र २. हवे कोइ एक दिवसे शिवराजाने पूर्वरात्रिना पाछला भागमा राज्यकारभारनो विचार करता आ आवो अध्यवसाय-संकल्प शिवराजानो संकल्प.. उत्पन्न थयो के मारा पूर्व पुण्यकर्मोनो प्रभाव छे, इत्यादि तामलि तापसनी पेठे कहे, जे यावत् हुं पुत्रोवडे, पशुओवडे, राज्यवडे, राष्ट्रनडे, बलबडे, वाहनवडे, कोशषडे, कोष्ठागारवडे, पुरवडे अने अन्तःपुरवडे वृद्धि पामु छु. वळी पुष्कळ धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्यवडे अतिशय अत्यंत वृद्धि पामु छं, तो शुं हवे हुँ मारा पूर्व पुण्यकर्मोना फलरूप एकान्त सुखने भोगवतो ज विहरं ! ते माटे ज्यांसुधी हुं हिरण्यथी वृद्धि पामुं छु, यावत् पूर्वे कह्या प्रमाणे वृद्धि पामु छु, ज्यांसुधी सामंत राजाओ मारे ताबे छे, सांसुधी मारे काले प्रातःकाळे १. * सूर्यकान्तकुमारनुं वर्णन जुओ राजप्र०प०११५. २. 1 तामलि तापसना संकल्पनुं वर्णन जुओ भग० खं. १२.३ २०१० २५. Jain Education international Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शंतक ११.-उद्देशक ९. च्छुयं तंबियं तावसमंडगं गहाय जे इमे गंगाकुले वाणपत्था तावसा भवंति, तं जंहा-होत्तिया, पोत्तिया, जहा उववाइए जावकट्टसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति, तत्थ णं जे ते दिसापोक्खी तावसा तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खिय आए पवइत्तए । पवइते वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि-'कप्पइ मे जावजीवाए छटुं-छट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ पगिज्झिय २ जाव विहरित्तए' त्ति कट्ठ एवं संपेहेति । ३. संपेहेत्ता कलं जाव जलंते सुबहुं लोही-लोह० जाव घडावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासि'खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! हत्थिनागपुरं णगरं सब्भितर-बाहिरियं आसिय०' जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति । तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासि-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं ३ विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेहः । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव उवट्ठवेंति । तए णं से सिवे राया अणेगगणनायग-दंडनायग० जाव-संधिपालसद्धिं संपरिखुडे सिवभई कुमारं सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहं णिसियावेति । णिसियावेत्ता अट्टसएणं सोवन्नियाणं कलसाणं जाव-अट्ठसपणं भोमेजाणं कलसाणं सबिड्डीए जाव-रवेणं मया २ रायाभिसेगेणं अभिसिंचति । म०२ पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लूहेति । पम्हल० २ सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेव जमालिस्स अलंकारो तहेव जाव-कप्परुक्खगं पिव अलंकिय-विभूसियं करेति । करित्ता करयल० जाव-कट्ट सिवभई कुमार जएणं विजपणं वद्धावेति । जएणं० २ ताहिं इट्ठार्हि कंताहि पियाहिं जहा उववाइए कूणियस्स जाव-परमाउं पालयाहि, इजणसंपरिबुडे हथिणापुरस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूणं गामा-गर-णगर जाव विहराहि' ति कट्ट जयजयसई पउंजति । तए णं से सिवभद्दे कुमारे राया जाते । मया हिमवंत० वन्नओ जाव-विहरइ । ४. तए णं से सिवे राया अन्नया कयाई सोभणसि तिहि-करण-दिवस-मुहुत्त-नक्खत्तंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेति । उवक्खडावेत्ता मित्त-णाइ-नियग० जाव-परिजणं रायाणो य खत्तिया आमंतेति । आमंतेत्ता तओ सूर्य देदीप्यमान थये छते घणी लोढीओ, लोहना कडायां, कडछा अने त्रांबाना बीजा तापसना उपकरणोने घडावीने शिवभद्र कुमारने राज्यमा स्थापीने घणी लोढीओ, लोहना कडायां, कडछा अने त्रांबाना तापसना उपकरणो लइने, जे आ गंगाने कांटे वानप्रस्थ तापसो रहे छे, ते आ प्रकारे-अग्निहोत्री, पोतिक-वस्त्र धारण करनारा-इत्यादि *उववाइ' सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत्-जेओ काष्ठथी शरीरने तपावता विचरे छे, ते तापसोमा जे तापसो दिशाप्रोक्षक (पाणी वडे दिशाने पूजी फल पुष्पादि ग्रहण करनारा) छे, तेओनी पासे मारे मुंड थइने दिक्प्रोक्षकतापसपणे प्रव्रज्या अंगीकार करवी श्रेय छे, प्रव्रज्या ग्रहण करीने हुं आ आवा प्रकारनो अभिग्रह ग्रहण करीश, ते आ प्रकारेयावज्जीव निरंतर छह छह करवाथी दिक्चक्रवाल तपकर्म वडे उंचा हाथ राखीने रहे£ मने कल्पे-ए प्रमाणे ते शिवराजा विचारे छे. ३. ए प्रमाणे विचारीने आवती काले प्रातःकाळे सूर्य देदीप्यमान छते, अनेक प्रकारना लोढी, कडाया वगेरे तापसना उपकरणो तैयार करावी पोताना कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे. बोलावीने तेणे तेओने आ प्रमाणे कद्यु-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र आ हस्तिनापुर नगरनी बाहेर अने अंदर जल छंटकावी साफ करावो-इत्यादि यावत् तेम करी तेओ तेनी आज्ञाने पांछी आपे छे. त्यारपछी ते शिवराजा फरीने पण ते कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कधु-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र शिवभद्र कुमारना महाअर्थवाळा यावत् विपुल विमान या राज्याभिषेकनी तैयारी करो. त्यारबाद ते कोटुंबिक पुरुषो ते प्रमाणे यावत् राज्याभिषेकनी तैयारी करे छे, त्यारपछी ते शिवराजा अनेक भिषेक. गणनायक, दंडनायक, यावत् संधिपालना परिवारयुक्त शिवभद्र कुमारने उत्तम सिंहासन उपर पूर्व दिशा सन्मुख बेसाडे छे, बेसाडीने एकसो साठ सोनाना कलशोवडे, यावत् एकसो आठ माटीना कलशोवडे, सर्व ऋद्धिथी यावत् वादित्रादिकना शब्दोवडे मोटा राज्याभिषेकथी अभिषेक करे छे. त्यारपछी पापण जेवा सुकुमाल अने सुगंधि गंधवस्त्रवडे तेनां शरीरने साफ करे छे, साफ करीने सरस गोशीर्षचंदन वडे लेप करी यावत् जेम जिमालिनुं वर्णन कर्यु छे तेम कल्पवृक्षनी पेठे तेने अलंकृत-विभूषित करे छे. त्यारपछी हाथ जोडी शिवभद्रकुमारने जय अने विजयथी वधावे हे वधावीने इष्ट, कान्त, प्रिय वाणीवडे आशीर्वाद आपता औपपातिक सूत्रमा कोणिक राजा संबन्धे कह्या प्रमाणे तेओए कह्यु-यावत् तुं दीर्घायुषी था, अने इष्ट जनना परिवारयुक्त हस्तिनापुर नगर अने बीजा अनेक ग्राम, आकर तथा नगरोनुं खामिपणुं भोगव-इत्यादि कहीने तेओ जय जय शब्द बोले छे. त्यार बाद ते शिवभद्र कुमार राजा थयो, ते मोटा हिमाचलनी पेठे सर्व राजाओमां मुख्य थइने यावत् विहरे छे, अहीं शिवभद्रराजानुं वर्णन कर. शिवराजनी प्रवज्या. . त्यारपछी ते शिवराजा अन्य कोइ दिवसे प्रशस्त तिथि, करण, दिवस अने नक्षत्रना योगमां विपुल अशन, पान, खादिम अने खादिम वस्तुओने तैयार करावे छे, तैयार करावी मित्र, ज्ञाति, यावत् पोताना परिजनने, राजाओने अने क्षत्रियोने आमन्त्रण करे २. * तापसोनुं वर्णन जुओ उववाइअ प०९०-१. ३. जमालिनु वर्णन जुओ भग. सं. ३००९ उ.३३ पृ.१७४. कोणिकर्नु वर्णन जुओ उववाइस प०७३-१. . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११-देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२३ 1 पच्छा ण्ाए जाव- सरीरे भोवणवेलाए भोयणमंडयंसि सुहासणवरगर ते मित-जाति-नियगसयण जाव-परिजनं राहि यतिवयि सर्व विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं एवं जहा तामली जाय सकारेति, संमाणेति । सकारेता संमाणेता तं मित्त - णाति० जाव-परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभदं च रायाणं आपुच्छइ । आपुच्छित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाहकटुच्यं जाव-भंडगं गहाय जे इमे गंगाफूलगा वाणपत्था तायसा भवंति तं चैव जाव तेसि अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति - ' कप्पर मे जावज्जीवाए छटुं० तं चेच जाव अभिग्ग अभिगिन्हति अभिगिन्हित्ता पढमं उटुसमणं उपसंपजिता पं विहरद । ५. तप णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्समणपारणगंसि आयापणभूमीण पश्चोरहर, पथोरुहिता बागलवत्थनियत्ये येणेव सप उडतेणेव उपागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता फिटिणसंकायणं गिन्हति गिन्हित्ता पुरत्थिमं दिसं पोफलेति, 'पुरत्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवे रायरिसी, अभिरक्खित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य भूलाणि य तयाणि व पचाणि व पुष्पाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाण' ति कट्टु पुरत्थिमं दिसं पसरति, पुर० २ जाणिव तत्थ कंदाणि व जाब-हरियाणि य ताई मेण्हति गिव्हित्ता किटणसंकाय भरेद, किडि० २ दब्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं च गिण्हति, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेति, किढि० २ वेदिं वड्डेति वे० २ उवलेवण-संमजणं करेइ, उ० २ दम्भ - कलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छति, तेणेव० २ गंगामहानदीं ओगाहेति, गंगा० २ जलमजणं करे, जल० २ जलकीडं करेइ, जल० २ जलाभिसेयं करेति, जला० २ आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवय- पितिकयकज्ञे दब्भ-कलसाहत्थगए गंगाओ महानईओ पच्चत्तरद्द, गंगाओ० २ जेणेव सर उडप तेथेच उद्यागच्छद तेणेच० २ दमेहि य कुसेहि य बालुयापहि य वेर्ति रपति, बेर्ति रपत्ता सरएणं अरणिं महेति, सर० २ अरिंग पाडेति, २ अरिंग संधुक्के, २ समिहाकट्ठाई पक्खिवर, समिहा० २ अरिंग उज्जालेइ, मग २ " अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादद्दे [वं जहा ] सकद्धं बलं ठाणं, सिखा भंडं कमंडलुं ॥ दंडात छे, आमन्त्रण करी त्यार बाद स्नान करी यावत् शरीरने अलंकृत करी भोजनवेलाए भोजनमंडपमां उत्तम सुखासन उपर बेसी, ज्ञ अने पोताना वजन यावत् परिजन साये तथा राजा अने क्षत्रियो साथै विपुल अशन, पान, खादिम अने खादिम भोजन करी "तामलि तापसनी पेठे यावत् ते शिवराजा बधाओनो सत्कार करे छे, सन्मान करे छे, सरकार अने सन्मान करीने मित्र, जाति, पोताना खजन, यावत् परिजननी तथा राजाओ, क्षत्रियो अने शिवभद्र राजानी रजा मागे छे. रजा मागीने अनेक प्रकारना छोडी, लोढाना कटायां, कडछा यावत् तापसना उचित उपकरणो लइने गंगाने कांठे जे आ वानप्रस्थ तापसो रहे छे - इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवुं यावत् ते दिशाप्रोक्षक तापसोनी पासे दीक्षित थई दिशाप्रोक्षकतापसरूपे प्रव्रज्या ग्रहण करी प्रव्रजित थइने ते आ प्रकारनो अभिग्रह धारण करे छे- 'मारे यावजीव निरंतर छ छनो तप करलो कल्पे' इत्यादि पूर्वपत् अभिग्रह ग्रहण करीने प्रथम छट्टु तपनो स्वीकार करी विहरे छे. ५. त्यारबाद प्रथम छट्ट तपना पारणाना दिवसे ते शिव राजर्षि आतापना भूमिथी नीचे आवे छे, नीचे आवीने वल्कलना वस्त्र पहेरी ज्यां पोतानी झुंपडी छे त्यां आवे छे, त्यां आवी किढिन ( वांसनुं पात्र ) अने कावडने ग्रहण करे छे, ग्रहण करी पूर्व दिशाने प्रोक्षित करी 'पूर्व दिशाना सोम महाराजा धर्मसाधनमां प्रवृत्त थएला शिव राजर्षिनुं रक्षण करो, अने पूर्व दिशामा रहेला कंद, मूल, छाल, पांदडा, पुष्प, फळ, बीज अने हरित - लीली वनस्पतिने लेवानी अनुज्ञा आपो' - एम कही ते शिव राजर्षि पूर्व दिशा तरफ जाय छे, जइने व्यां रहेला कंद, यावत्-लीली वनस्पतिने ग्रहण करीने पोतानी कावड भरे छे. त्यार पछी दर्भ, कुश, समिध-काष्ट अने झाडनी शाखाने मरडी पांदडाओने ले छे; लेईने ज्यां पोतानी झुंपडी छे त्यां आवे छे, आवीने कावडने नीचे मूके छे, मूकीने वेदिकाने प्रमार्जित करे छे; पछी वेदिकाने [ छाणा पाणीवडे ] डीपी शुद्ध करे छे. त्यारबाद डाभ अने कलशने हाथमां उड़ यां गंगा महानदी छे, लां आवीने गंगा महानदीमां प्रवेश करे छे, प्रवेश करी डुबकी मारे छे, जलक्रीडा करे छे, अने स्नान करे छे, पछी आचमन करी चोक्खा थइ - परम पवित्र देवता अने पितृकार्य करी डाभ अने पाणीनो कलश हाथमां उड़ गंगा महानदीथी बहार नोकळीने ज्यां पोतानी झुंपडी छे त्यां आये छे, आवीने डाभ, कुश अने वालुका वडे वेदिने बनावे छे, बनावी मथनकाष्ठवडे अरणिने घसे छे, घसीने अग्नि पाडे छे, पाडीने अग्नि सुळगावे छे, पछी तेमां समिधना काष्ठोने नांखी ते अग्निने प्रज्वलित करे छे, अने अग्निनी दक्षिण बाजुए आ सात वस्तुओ मुके छे, ते आ प्रमाणे–“१ सकथा ( उपकरणविशेष ), २ वल्कल, ३ दीप, ४ शय्याना उपकरण, ५ कमंडल, ६ दंड अने ७ आत्मा ( पोते). ए सर्वने ४. तामलितापसनुं वर्णन जुओ भग० सं० २ श० ३ उ० १५० २६. 2. + गंगाने किनारे रहेता तापसोनुं वर्णन जुओ उवनाइअ प० ९०- १. शिवराजर्षिनो अभिग्रह / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवराजर्विने विभंगहान २२४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११ - उद्देशक ९. प्पा अहे ताइं समादद्दे ।" महुणा य घपण य तंदुलेहि य अरिंग हुणइ, अरिंग हुणित्ता चरुं साहेइ, वरं साहेता बलि हसदेव करे ० २ अतिहिपूयं करे, अतिहि० २ तब पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति । ६. तपणं से सिवे रायरिसी दोघं छट्ठक्खमणं उवसंपजित्ता णं विहरइ । तप णं से सिवे रायरिसी दोघे छट्ठक्स. मणपारणगंसि आयावणभूमीओ पचोरहर आयावण २ एवं जहा पढमपारणगं, नवरं दाहिणगं दिसं पोषखेति, दाहिण० २ दाहिणार दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव आहारमाहारे । तर णं से सिवे रायरिसी त 'छट्टक्खमणं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । तप णं से सिवे रायरिसी सेसं तं चैव नवरं पञ्चच्छिमार दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चैव जाव आहारमाहारेह । तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठक्खमणं उवसंपजित्ता णं विहरद्द, तणं से सिवे रायरिसी चउत्थछट्ठक्खमण० एवं तं चेव, नवरं उत्तरदिसं पोक्खेइ, उत्तराप दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाने पत्थियं अभिरक्स सिर्प, सेसं तं चैव जाय तो पच्छा अप्यणा आहारमाहारे । ७. तप णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं जाव - आयावेमाणस्स पराइमइयाए आव - विणीययाए अन्नया कया वि तयावरणिजाणं करमाणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गण - गवेसणं करेमाणस्स विन्भंगे नाम नाणे समुपने से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्यन्नेणं पासद अरिंस टोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेन परं न जाणति न पासति । 1 ८. तरणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेवारूवे अन्मस्थिर जाच समुप्यजित्या- 'अत्थि णं ममं अइसेसे नाण-इंस समुप्पत्रे, एवं सतु अरिंस टोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेज परं योच्छिया दीया य समुद्दा य एवं संपेद्देर, पर्व० २ आायाaणभूमीओ पचोरुहद्द, आ० २ वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छद्द, तेणेव० २ सुबहुं लोही- लोहकडाहकडुच्छ्रयं जाव-भंडगं किढिणसंकाइयं च गेण्हर, २ जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छर, तेणेच ० २ अंडनिफ्से करे मंड० २ दत्थिनापुरे नगरे सिंघाडग तिग० जाय पसु बहु जणरस एवमादपसर, जाव एवं परयेद'शत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाण-दंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य' । तए णं तस्स - एकठा करे छे." पछी मध, घी अने चोखा वडे अग्निमां होम करे छे, होम करीने चरु - बलि तैयार करे छे, अने बलिथी वैश्वदेवनी पूजा करे छे, मारवाद अतिथिनी पूजा करी ते शिव राजर्षि पोते आहार करे छे. ६. ज्यावाद ते शिवराजर्षि फरीवार छड तप करीने विहरे छे, पछी ते शिवराजर्षि आतापनाभूमिथी उतरी बल्कनुं यह पहेरे के इत्यादि वधुं प्रथम पारणानी पेठे जाणवु परन्तु विशेष ए छे के बीना पारणा वखते दक्षिण दिशाने प्रोक्षित करे-पूजे, तेम वतीने एम कहे के 'दक्षिण दिशाना ( लोकपाल ) यम महाराजा प्रस्थान - परलोकसाधन - मां प्रवृत्त थएला शिवराजर्षिनुं रक्षण करो" इत्यादि सर्व पूर्वपत् कहेतुं यावत् पोते आहार करे छे. पछी ते शिवराजर्षि जीजा छट्ट तपने स्वीकारी विहरे छे, तेना पारणानी बधी हकिकत पूर्वनी पेठे जाणवी, परन्तु विशेष ए छे के, पश्चिम दिशानुं प्रोक्षण-पूजन करे, अने एम कहे के पश्चिम दिशाना ( लोकपाल ) वरुण · महाराजा प्रस्थान - परलोक साधनमा प्रवृत्त थपेका शिव राजर्षिनुं रक्षण करो, बाकी वधुं पूर्व प्रमाणे जाग यावत् आर पछी ते आहार करे पछी ते शिवराजर्षि चोथा छट्टना तपने स्वीकारी विहरे छे- इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं. परन्तु ( चोथे पारणे ) उत्तर दिशाने पूजे छे, अने एम कहे छे के 'उत्तर दिशाना (लोकपाल ) वैश्रमण महाराजा धर्मसाधनमां प्रवृत्त थयेला शिवराजर्षिनुं रक्षण करो, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाण यावत् प्यार पछी पोते आहार करे छे. ७.९ प्रमाणे निरंतर उट्टना तप करयाथी दिनचकवा तप करता यावत् आतापना लेता ते शिवराजर्षिने प्रकृतिनी भद्रता अने यावद् विनीतताथी अन्य कोइ दिवसे तेना आवरणभूत कर्मोंना क्षयोपशम थ्वाथी ईहा, अपोह, मार्गणा अने गवेषण करता विभंग ना ज्ञान उत्पन्न . पछी ते उत्पन्न थयेला ते निभंगज्ञान बड़े आ लोकमां सात द्वीपो अने सात समुद्रो हुए छे, ते पछी आगळ जाणता नयी के जोता नथी. शिवराजर्षिनो सात ८. साबाद ते शिवराजर्षिने आ आया प्रकारनो अध्यवसाय उत्पन्न भयो के, 'मने अतिशयवालुं ज्ञान अने दर्शन अपन प तमु भने ए प्रमाणे आ लोकमां सात द्वीप अने सात समुद्रो छे, अने त्यारपछी द्वीपो अने समुद्रो नथी' - एम विचारे छे, विचारीने आठापना भूमिश्री इनो अध्यवसाय. नीचे उतरे छे, अने वाकलना वो पहेरी यो पोतानी झुपडी छे त्यां आयी अनेक प्रकारना लोढी, छोढाना कडायां अने कच्छा यावद् बीजा उपकरणो अने कावडने ग्रहण करे छे, अने ज्यां हस्तिनापुर नगर छे अने ज्यां तापसोनुं यावद् आश्रम छे त्यां आवे छे, आव उपकरण वगेरेने मूके छे, अने हस्तिनापुर नगरमां शृंगाटक, त्रिक, यावद् राजमार्गोमां घणा माणसोने एम कहे छे, यावदू एम प्ररूपे छे के, 'हे देवानुप्रियो ! मने अतिशयवालुं ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयुं छे, अने आ लोकमां ए प्रमाणे सात द्वीपो अने सात समुद्रो छे,' : Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२५ सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग० जाव-पहेसु बहु जणो अन्नमस्स एवमाइक्खड़, जाव परूवेइ-'एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्वड, जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे, जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य'। से कहमेयं मन्ने एवं? - ९. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा जाव पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी जहा बितियसए नियंठुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ, एवं जाव परूवेइ-'एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य'। से कहमेयं मन्ने एवं ? . १०. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमद्रं सोचा निसम्म जाव-सट्टे जहा नियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-जन्नं गोयमा! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ, तं चेव सवं भाणियचं, जाव-भंडनिक्खेवं करेति, हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, तणं मिच्छा । अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि-'एवं खलु जंबुहीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जावसयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेजे दीवसमुद्दे पन्नत्ते समणाउसो। ११. [प्र०] अत्थि णं भंते ! वुद्दीवे दीवे दवाइं सवन्नाई पि अवन्नाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाइं पिअरसाई पि सफासाई पि अफासाई पि अनमन्नबद्धाइं अन्नमनपुट्ठाई जाव-घडताए चिटुंति ? [30] हंता अत्थि।। त्यारबाद ते शिवराजर्षि पासेथी ए प्रकारर्नु वचन सांभळी, अवधारी हस्तिनापुर नगरमा शंगाटक, त्रिक, यावद् राजमार्गोमां घणा माणसो परस्पर एम कहे छे-यावद् एम प्ररूपे छे-हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि आ प्रमाणे कहे छे यावत् प्ररूपे छे के हे देवानुप्रियो ! मने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयुं छे, यावत् ए प्रमाणे आ लोकमा सात द्वीप अने सात समुद्रो छे, त्यार पछी नथी, ते एम केवी रीते होय? ९. ते काले-ते समये महावीर स्वामी समोसर्या, पर्षद् पण पाछी गई. ते काले-ते समये श्रमण भगवान् महावीरना मोटा शिष्य इंद्रभूति नामे अनगार बीजा शतकना निम्रन्थोदेशकमां *वर्णव्या प्रमाणे यावत् भिक्षाए जता घणा माणसोनो शब्द सांभळे छे-बहु माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे यावत् प्ररूपे छे के 'हे देवानुप्रियो ! शिव राजर्षि एम कहे छे-यावत् एम प्ररूपे छे-हे देवानुप्रियो ! मने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयु छे, अने यावत् सात द्वीप अने सात समुद्रो छे, त्यार पछी द्वीपो अने समुद्रो नथी, तो ए प्रमाणे केम होय? १०. [प्र०] व्यार पछी भगवान् गौतमे घणा माणसो पासे आ वात सांभळी, अवधारी श्रद्धावाळा थई निग्रंथ उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यायत् श्रमण भगवंत महावीरने पूज्यु-हे भगवन् ! शिवराजर्षि कहे छे के-'यावत् सात द्वीप अने सात समुद्र छे, त्यार पछी काइ नथी' शिवराजपि संमत तो ए प्रमाणे केम होइ शके ? [उ०] 'हे गौतम' ! एम कही श्रमण भगवान् महावीरे गौतमने आ प्रमाणे कह्यु-हे गौतम ! घणा माणसो जे सात समुद्र संबन्धे प्रश्न परस्पर ए प्रमाणे कहे छे-इत्यादि बधुं कहे, यावद् ते शिवराजर्षि पोताना उपकरणो मूके छे अने हस्तिनापुर नगरमा जइ शृंगाटक, त्रिक अने बहु प्रकारना मार्गोमां आ प्रमाणे कहे छे, यावत् सात द्वीपो अने समुद्रो छे त्यार पछी नथी, त्यारबाद ते शिवराजर्षिनी पासे आ वात सांभळी अने अवधारी हस्तिनापुर नगरमा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे के-'यावत सात द्वीप अने समुद्रो छे, ते पछी कांइ नथी' इत्यादि, मिथ्या (असत्य ) छे. हे गौतम! हुं ए प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपुंछु-ए प्रमाणे जंबूद्वीपादि द्वीपो अने लवणादि समुद्रो बधा [वृत्ताकारे होवाथी ] आकारे एक सरखा छे, पण विशालताए द्विगुण द्विगुण विस्तारवाळा होवाथी अनेक प्रकारना छे-इत्यादि सर्व जीवाभिगम'मा कह्या प्रमाणे जाणवं, यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! आ तिर्यग्लोकमां स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपो अने समुद्रो कह्या छे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा वर्णवाळां, वर्णरहित, गंधवाळा, गंधरहित, रसवाळां, रसरहित, स्पर्शवाळा अने पर्णादिरहित भने वर्णादिसहित दम्यो स्पर्शरहित द्रव्यो अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट यावद् अन्योन्य संबद्ध छे ? [उ०] हे गौतम! हा, छे. जुओ भग० ख०१पृ. २८१. * भगवान् गौतमनुं वर्णन जुओ भग० सं० १२.२०५पृ० २८०. १. 1 द्वीप भने समुद्रोनुं वर्णन जुओ जीवाभि० प्रति० ३ उ. १५० १७६-१. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ९. १२. प्र०] अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दवाई सवन्नाई पि अवन्नाई पि सगंधाइं अगंधाई पि सरसाई पि अरसाई पि सफासाई पि अफासाई पि अन्नमन्नबद्धाई अन्नमनपुट्ठाई जाव-घडताए चिटुंति ? [उ०] हंता अस्थि । १३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दवाई सवन्नाई पि एवं चेव, एवं जाव-सयंभूरमणसमुद्दे ? [उ०] जाव हंता अत्थि। १४. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा, निसम्म हट्रतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया। १५. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० जाव-पहेसु बहुजणो अनमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-जन्न 'देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणे जाव-समुहा य', तं नो इणटे समठे, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं तं चेव जाव-भंडनिक्खेवं करेइ, भंडनिक्खेवं करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० जाव-समुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म जाव-समुद्दा य तण्णं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा तं चेव जाव असंखेजा दीवसमुद्दा पन्नत्ता समणाउसो! १६. तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव-कलुससमावन्नस्स से विभंगे अन्नाणे खिप्पामेव परिवडिए । १७. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पन्जित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव-सचन्न सन्बदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंबवणे उजाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स जहा उववाइए जाव-गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीर, वंदामि जाव पजुवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सइत्तिकट्ठ एवं संपेहेति । कथन यथार्थ नथी. लवणसमुद्रमा १२. [प्र०] हे भगवन् ! लवण समुद्रमा वर्णवाळा, वर्णविनाना, गंधवाळां, गंध विनाना, रसवाळां, रसविनाना, स्पर्शवाळां ने स्पर्श द्रव्यो . विनाना द्रव्यो अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत् अन्योन्य संबद्ध छे ? [उ०] हे गौतम! हा, छे. धातकि खंडमा १३. [प्र०] हे भगवन्! धातकिखंडमां अने ए प्रमाणे यावत् स्वयंभूरमण समुद्रमा वर्णवाळां ने वर्णरहित इत्यादि पूर्वोक्त द्रव्यो द्रव्यो. परस्पर संबद्ध छे इत्यादि यावत् ? [उ०] हे गौतम ! हा, छे त्या सुधी जाणवू. १४. त्यारबाद ते अत्यन्त मोटी अने महत्वयुक्त परिपद् श्रमण भगवान महावीर पासेथी ए अर्थ सांभळी अने अवधारी हृष्ट तुष्ट थइ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी जे दिशामाथी आवी हती ते दिशामा गइ. शिवराजर्षिर्नु १५. त्यारबाद हस्तिनापुर नगरमा शंगाटक यावद् बीजा मार्गोमां घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के है देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जे एम कहे छे-यावत् प्ररूपे छे–'हे देवानुप्रियो! मने अतिशयवाळु ज्ञान उत्पन्न थयुं छे, यांवत् बीजा द्वीपमहावीरस्वामीनुं समुद्रो नथी; ते तेनुं कथन यथार्थ नथी. श्रमण भगवान् महावीर ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के-छ8 छट्ठना तपने निरंतर करता कथन-असंख्यात द्वीप-समुद्रो. - शिवराजर्षि पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत् पोताना उपकरणो मूकीने हस्तिनापुर नामना नगरमां शंगाटक यावत् बीजा मार्गोमां ए प्रमाणे क', छे-यावत् सात द्वीप-समुद्रो छे, बीजा नथी. त्यारबाद ते शिवराजर्षिनी पासे ए वात सांभळीने अवधारीने घणा माणसो एम कर छ'शिवराजर्षि जे कहे छे के मात्र सात द्वीप समुद्रो छे' ते मिथ्या छे, यावत् श्रमण भगवान् महावीर ए प्रमाणे कहे छे के हे आयुष्मन् श्रमण जंबूद्वीपादि द्वीपो अने लवणादि समुद्रो एक सरखा आकारे छे-इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं, यावत् असंख्याता द्वीप-समुद्रो कह्या छे. शिवराजर्षि शंकित . १६. त्यार बाद ते शिवराजर्षि घणा माणसो पासेथी ए वातने सांभळीने अने अवधारीने शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित अचै थया. कलुषित भावने प्राप्त थया, अने शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित अने कलुषित भावने प्राप्त थयेला शिवराजर्षितुं विभंग नामे अज्ञान तरतज नाश पाम्यु. शिवराजर्षिनो महा- १७. त्यार पछी ते शिवराजर्षिने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत् उत्पन्न थयो-"ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर धर्मनी . आदि करनारा, तीर्थंकर, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे; अने तेओ आकाशमा चालता धर्मचक्रवडे यावत् सहस्राम्रवन नामे उधानम आववानो संकल्प. यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करी यावद् विहरे छे. तो तेवा प्रकारना अरिहंत भगवंतोना नामगोत्रनुं श्रवण कबुं ते महा फळवाळु छे, तो अभिगमन वंदनादि माटे तो शुं कहेवू !-इत्यादि *औपपातिक सूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत् एक आर्य धार्मिक सुवचननुं श्रवण करवू महा फलवाळु छे, तो तेना विपुल अर्थ- अवधारण करवा माटे तो शुं कहे ! तेथी हुं श्रमण भगवान् महावीरनी पासे जाउं, वांदु अने नमुं, यावत् तेओनी पर्युपासना करुं, ए मने आ भवमा अने परभवमां यावत् श्रेयने माटे थशे" एम विचारे छे. * जुओ औपपा० ५० ५७-२. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२७ १८. एवं २त्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तावसावसह अणुप्पविसति, ता० २ सुबहुं लोही-लोहकडाह० जाव किढिणसंकातिगं च गेण्हइ, गेण्डित्ता तावसावंसहाओ पडिनिक्समति, ताव. २ पडिवडियविम्भंगे हथिणागपुरं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, बंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता नञ्चासन्ने नाइदूरे जाव- पंजलिउडे पजुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए० जाव-आणाए आराहए भवइ । १९. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा, निसम्म जहा खंदओ, जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ, २ सुबहुं लोही-लोहकडाह जाव-किढिणसंकातिगं एगंते एडेइ, ५० २ सयमेव पंचमुट्रियं लोयं करेति, सयमे० २ समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसभदत्ते तहेव पवइओ, तहेव इक्कारस अंगाई अहिजति, तहेव सवं जाव-सष्वदुक्खप्पहीणे । २०. [प्र. भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी जीवा भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ? [उ०] गोयमा! वयरोसभणारायसंघयणे सिझंति । एवं जहेव उववाइए तहेव “संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा"। एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियवा, जाव-"अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोंति सासयं सिद्धा" ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सिवो समत्तो। एकारससए नवमो उद्देसो समत्तो। भागमन. १८. ए प्रमाणे विचार करी ज्या तापसोनो मठ छे त्यां आवे छे. आवी तापसोना मठमा प्रवेश करी घणी लोढी, लोढाना कडाया शिवराजर्षितुं महायावत् कावड वगेरे उपकरणोने लेइ तापसोना आश्रमथी नीकळे छे. नीकळीने विभंगज्ञानरहित ते शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगरनी वच्चो- पारस्वामी पास वच्च थईने ज्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान छे, ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवान् महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करीने वांदे छे अने नमे छे. वांदी अने नमीने तेओथी बहु नजीक नहीं अने बहुदूर नहीं तेम उभा रही यावत् हाथ जोडी ते शिवराजर्षि श्रमण भगवंत महावीरनी उपासना करे छे. त्यार बाद ते शिवराजर्षिने अने मोटामा मोटी पर्षदने श्रमण भगवंत महावीर धर्मकथा कहे छे. अने यावत् ते शिवराजर्षि आज्ञाना आराधक थाय छे. १९. पछी ते शिवराजर्षि श्रमण भगवान् महावीरनी पासेथी धर्मने सांभळी अने अवधारी "स्कंदकना प्रकरणमां कह्या प्रमाणे शिवराजर्षिनी दीक्षा. यावत् ईशान कोण तरफ जइ घणी लोढी, लोढाना कडाया यावत् कावड वगेरे तापसोचित उपकरणोने एकांत जग्याए मूके छे. मूकीने पोतानी मेळे पंच मुष्टि लोच करी, श्रमण भगवंत महावीर पासे ऋिषभदत्तनी पेठे प्रव्रज्यानो स्वीकार करे छे, अने ते प्रमाणे अग्यार अंगोनुं अध्ययन करे छे, तथा एज प्रमाणे यावत् ते शिवराजर्षि सर्व दुःखथी मुक्त थाय छे. २०. 'हे भगवन्'! एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे अने नमे छे, वांदी अने नमीने भगवंत गौतमे आ प्रमाणे पूज्यु-प्र०] "हे भगवन् ! सिद्ध थता जीवो कया संघयणमां सिद्ध थाय ? [उ०] हे गौतम! जीवो वज्रऋषभनाराच संघयणमां सिद्ध थाय"-इत्यादि औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे "संघयण, संस्थान, उंचाइ, आयुष, परिवसना (वास)" अने ए प्रमाणे आखी *सिद्धिगंडिका कहेवी; यावत् अ याबाध (दु.खरहित) शाश्वत सुखने सिद्धो अनुभवे छे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावद् विहरे छे. एकादश शते शिवनामे नवम उद्देशक समाप्त. १९. जुओ भग० सं० १.१ उ. १ पृ. २३८. ऋिषभदत्तनी प्रवज्या जुओ भग• खं० ३ श०९ उ. ३३ पृ. १६५. २. सिद्धना खरूपर्नु वर्णन जुओ औपपा०प० ११२-१. पभोपपातिक सूत्रने अन्ते सिद्धना स्वरूप वर्णन करनार "कहिं पडिहया सिद्धा." इत्यादि बावीश गाथाना प्रकरणने सिद्धिगंडिका कहे छे. . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकना प्रकार. क्षेत्रलोकना प्रकार. erroोक क्षेत्रलोकना प्रकार. तिर्यक्कू क्षेत्रलोक ऊर्ध्वलो क्षेत्र कना प्रकार. अपोलोकनुं संस्थान.. दसम उस । १. [प्र० ] रायगिहे जाव - एवं वयासी - कतिविहं ण भत । लोए पन्नत्ते ? [४०] गोयमा ! चउधिदे लोए पन्नत्ते, संजहादधलोप, खेत्तलोप, काललोप, भावलोए । - २. [प्र० ] खेत्तलोप णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [ उ०] गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, तंजदा-१ अहोलोयसेत्तलोप, २ तिरियलोयखेत्तलोप, ३ उडलोयखेत्तलोए । ३. [प्र० ] अहोलोयखेत्तलोप णं भंते ! कतिविद्दे पन्नत्ते ? [30] गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहारयणप्पभापुढवि अहेलोयखेत्तलोए, जाव- अहेसत्तमापुढविअहोलोयखेत्तलोए । ४. [प्र०] तिरियलोयखेत्तलोप णं भंते ! कतिविहे पन्नते ? [ उ०] गोयमा ! असंखेज्जविहे पन्नत्ते, तंजदा - जंबुद्दीव दीवे तिरियलोयखेत्तलोए, जाव- सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए । ५. [प्र०] उढलोगखेत्तलोप णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [30] गोयमा ! पन्नरसविहे पन्नत्ते, तंजा-सोहम्मकप्पउडलोगखेत्तलोप, जाव-अच्चुयउढलोप, गेवेज्जविमाणउडलोप, अनुत्तरविमाण० ईसिपब्भारपुढविउडलोगखेत्तलोए । ६. [प्र० ] अहोलोग खेत्तलोप णं भंते । किंसंठिए पन्नत्ते १ [30] गोयमा ! सप्पागारसंठिए पनसे ।. दशम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां [ गौतम ] यावद् आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! लोक केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम लोक चार प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणे- १ द्रव्यलोक, २ क्षेत्रलोक, ३ काललोक अने ४ भावलोक. २. [प्र०] हे भगवन् ! क्षेत्रलोक केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! त्रण प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- १ अधोलोकक्षेत्रलोक, २ तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक अने ३ ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक. ३. [प्र०] हे भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रलोक केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! सात प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ रत्नप्रभापृथिवीअधोलोकक्षेत्रलोक, यावत् ७ अधः सप्तमपृथिवी अधोलोक क्षेत्रलोक. ४. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक केटला प्रकारनो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम! असंख्य प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणेजंबूद्वीपतिर्यग्लोकक्षेत्रलोक, यावत् स्वयंभूरमणसमुद्रतिर्यग्लोक क्षेत्रलोक. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [30] हे गौतम ! पंदर प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे१ सौधर्मकल्पऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक, यावद् १२ अच्युतकल्पऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक, १३ मैवेयकविमानऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक, १४ अनुत्तरविमानऊलोकक्षेत्रलोक अने १५ ईषत्प्राग्भारपृथिवीऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक. ६. [प्र०] हे भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रलोक केवा संस्थाने छे ? [उ०] हे गौतम ! अधोलोक त्रापाने आकारे छे. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११. - उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ७. [प्र० ] तिरियलोपत्रे त्तलोप थे भंते किंसंडिए पते ? [] गोवमा ! इरिडिय] पसे । ८. [अ०] उसोयखेत्तलोय-पुच्छा [अ०] उड्डमुईगाकारसंठिए पक्षले । ९. [0] खोप णं मंते किंसंडिए पते १ [ड०] गोयमा सुपडुगसंठिए लोप पप, संजा विधि, जो संखिते, जहा सत्तमसप पदमुदेस जाच अंतं करेति । १०. [प्र० ] अलोप णं भंते । किंसंठिए पनते १ [उ०] गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पनन्ते । ११. [प्र०] अहेलोगखेत्तलोप णं भंते! किं जीवा, जीवदेसा, जीवपपसा ? [उ०] एवं जहा वृंदा दिसा तदेव निरसेसं भाणिय, जाय-भद्धासमय i २२९ १२. [०] तिरियलोष लोप णं भंते किं जीवा० १ [४०] एवं चेच, एवं उलोवलेतलोर वि, नवरं अमी छविदा, अद्धासमओ नत्थि । १३. [प्र० ] लोप णं भंते किं जीवा० १ [उ०] जहा वितियसप अत्थिउद्देसप लोयागासे, नवरं अरूवी सत्तविहा, जा-अम्मत्धिकायस्स परसा, नोआगासत्विकाप, भागासत्विकायस्स देखे, आगासत्विकायपरसा, अद्धासमर, सेसं तं चेच १४. [प्र० ] अलोए णं भंते! किं जीवा० १ [उ०] एवं जहा अत्थिकायउद्देसप अलोयागासे, तद्देव निरवसेसं जावअतभागूणे । '७. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक केवा संस्थाने छे ? [अ०] हे गौतम! ते झालरने आकारे छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक केवा आकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! उभा मृदंगने आकारे छे. ९. [प्र० ] हे भगवन् ! लोक केवा आकारे संस्थित छे ? [उ०] हे गौतम! लोक सुप्रतिष्ठकने आकारे संस्थित छे, ते आ प्रमाणे- लोकनुं संस्थान"नीचे पहोळो, मध्यभागमां संक्षिप्त - संकीर्ण" - इत्यादि * सातमा शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवुं. [ ते लोकने उत्पन्न ज्ञान दर्शनने धारण करनारा केवलज्ञानी जाणे छे अने त्यार पछी सिद्ध थाय छे ] यावद् 'सर्व दुःखोनो अन्त करे छे'. १०. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक केवा आकारे कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! अलोक पोला गोळाने आकारे कह्यो छे. • लोक संस्थान. ११. [अ०] हे भगवन्! अंधोलोक क्षेत्रलोक शुं जीनरूप छे, जीवदेशरूप छे, जी प्रदेशरूप के इलादि [अ०] हे गौतम! जैम अपोलो जीव + ऐन्द्री दिशा संबन्धे कह्युं छे ते प्रमाणे सर्व अहिं जाणवुं, यावद् 'अद्धासमय (काल) रूप छे'. रूप के इत्यादि प्रश्न. १२. [प्र० ] हे भगवन् । तिर्यग्लोक शुं जीवरूप छे इत्यादि [ उ०] पूर्ववत् जाणवुं. ए प्रमाणे ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक संबन्धे पण जाणवु पन्तु विशेष एछे के ऊ अरूपी धन्य छ प्रकारे छे, कारण के वां अद्धा समय नथी. ९ * लोकनुं संस्थान जुओ भग० खं० ३ श० ७ ० १ ० २. ११ + जुओ ऐन्द्री दिशासंबन्धे प्रश्न भग० खं० ३ श० १० १. पृ० १८९. १३ | भग० खं० १ ० २ उ० १० पृ० ३१०. सू० ६६. १२११२ धर्माखिकामना प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय ४ अधर्मास्तिकायना प्रदेश ५ आकातिकायनो देश, ६ अशास्तिकायना प्रदेशो, भने ७ काल. ए अरूपीना सात प्रकार छे. तेमां प्रथम धर्मास्तिकाय छे. कारण के ते संपूर्ण लोकने विषे विद्यमान छे. धर्मास्तिकायनो देश नथी, केमके लोकमा अखंड धर्मास्तिकाय छे. तथा धर्मास्तिकायना प्रदेशो छे, कारण के धर्मस्तिकाय ते प्रदेशोना समुदायरूप छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना 'पण बे मेद जाणवा. आकाशास्तिकाय नथी, कारण के लोकमां तेनो एक भाग छै, अने तेथीज आकाशास्तिकायनो देश छे. आकाशास्तिकायना प्रदेशो छे. तथा काल द्रव्य छे. टीका. १४ ९ भग० खं० १ ० २ ० १० पृ० ३१० सू० ६७० तिर्यग्लोकनुं संस्थान. १३. [प्र०] हे भगवन् ! लोक शुं जीव छे इत्यादि ? [उ०] बीजा शतकना | अस्तिउद्देशकमां लोकाकाशने विषे कर्तुं छे ते रूप प्रमाणे अहं जाण. परन्तु विशेष एछे के अहिं अरूपी सात प्रकारे जाणवा, यावद् ४ 'अधर्मास्तिकायना प्रदेशो, ५ नोआकाशास्तिकाय इत्यादि. · रूप, आकाशास्तिकायनो देश, ६ आकाशास्तिकायना प्रदेशो अने ७ अद्धासमय. बाकी पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं. सो १४. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक शुं जीव छे इत्यादि ? [उ०] जेम [अस्तिकायउद्देशकमा अलोकाकाराने विषे कयुं छे ते प्रमाणे लोकाकाश जीवअजाण यावत् ते [ सर्वाकाशना ] 'अनन्तमा भाग न्यून छे. रूप के इत्यादि. संस्थान. तिर्यग्लोक जीवरूप के इत्यादि. / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रहे-- शतक ११.-उद्देशक १०. १५. [प्र०] अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते। एगंमि आगासपएसे किं जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीबपएसा ? [उ०] गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते नियमा १ एगिदियदेसा, २ अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, ३ अहवा एगिदियदेसा य बेईदियाण य देसा । एवं मझिल्लविरहिओ जाव-अणिदिएसु, जाव-अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य । जें जीवपएसा ते नियमा १ एगिदियपएसा, २ अहवा पगिदियपएसा य बेंदियस्स पएसा, ३ अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आइल्लविरहिओ जाव पंचिदिएसु, अणिदिपसु तियभंगो। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रुवी अजीवा य अरूवी अजीवा य । रुवी तहेव, जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-१ नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देखें, २ धम्मत्थिकायस्स पएसे, एवं ४ अहम्मत्थिकायस्स वि, ५ अद्धासमए । १६. [प्र०] तिरियलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा० १ [उ.] एवं जहा अहोलोगखेत्तलो. गस्स तहेव, एवं उड्ढलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउबिहा । लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगंमि आगासपएसे। १७. [प्र०] अलोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे पुच्छा [उ०] गोयमा ! नो जीवा, नो जीवदेसा, तं चेव जाव अणंतहि अगुरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सवागासस्स अणंतभागणे । १८. दवओ गं अहेलोगखेत्तलोए अणंताई जीवदयाई, अगंताई अजीवदधाई, अणंता जीवाजीवदया । एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि, एवं उडलोयखेत्तलोए वि । दखओ णं अलोए णेवत्थि जीवद्या, नेवत्थि अजीवदया, नेवत्थि जीवाजीवदया, एगे अधोलोकना एक १५. [प्र०] हे भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रलोकना एक आकाशप्रदेशमा शुं १ जीवो, २ जीवना देशो, ३ अजीवो. ४ अजीवोनः आकाशप्रदेशमा शं देशो अने ५ अजीवना प्रदेशो छे ! [उ०] हे गौतम ! जीवो नथी, पण जीवोना देशो, जीवोना प्रदेशो, अजीवो, अजीवना देशो अने जीवो छे इत्यादि. अजीवना प्रदेशो छे. तेमां त्यां जे जीवोना देशो छे ते अवश्य १ एकेन्द्रियजीवोना देशो छे २ अथवा एकेन्द्रिय जीवोना देशो अने वे.. इन्द्रिय जीवनो देश छे, ३ अथवा एकेन्द्रिय जीवोना देशो अने बेइन्द्रियोना देशो छे. ए प्रमाणे *मध्यम भंगरहित बाकीना विकल्पा यावद् अनिन्द्रियो-सिद्धो संबन्धे जाणवा. यावद् 'एकेन्द्रियोना देशो अने अनिन्द्रियोना देशो' छे, तथा त्यां जे जीवना प्रदेशो छे ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवोना प्रदेशो छे, १ अथवा एकेन्द्रिय जीवोना प्रदेशो अने एक बेइन्द्रिय जीवना प्रदेशो छे, २ अथवा एकेन्द्रिय जीवोना प्रदेशो अने बेइन्द्रियोना प्रदेशो छे. ए प्रमाणे यावत् पंचेन्द्रिय अने अनिन्द्रियो संबन्धे प्रथम भंग शिवाय त्रण भांगा जाणवा. तथा त्यां जे अजीवो छे ते बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-रूपिअजीव अने अरूपिअजीव. तेमां रूपिअजीवो पूर्व प्रमाणे जाणवा.. अने जे अरूपिअजीवो छे ते पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ नोधर्मास्तिकाय धर्मास्तिकायनो देश, २ धर्मास्तिकायनो प्रदेश, ए प्रमाणे ४ अधर्मास्तिकाय संबन्धे पण जाणवू. अने ५ अद्धा समय. तिर्यग्लोकना पक . १६. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोकना एक आकाश प्रदेशमा शुं जीवो छे ! इत्यादि [उ०] जेम अधोलोकक्षेत्रलोकना संबन्धे कर्तुं तेम अहीं बधुं जाणवू. ए प्रमाणे ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकना एक आकाश प्रदेशने विषे पण जाणवं, परन्तु विशेष ए छे के, त्यां जीवो के इत्यादि. लोकना एक आकाश अद्धासमय नथी, माटे अरूपी चार प्रकारना छे, लोकना एक आकाश प्रदेशमा अधोलोकक्षेत्रलोकना एक आकाश प्रदेशमा जेम का ठे प्रदेशमा शुं जीव तेम जाणवू. होय। भलोकना एक १७. [प्र०] हे भगवन् ! अलोकना एक आकाश प्रदेश संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! त्यां 'जीवो नथी, जीव देशो नथी'आकाशप्रदेशमा " इत्यादि पूर्वनी पेठे [सू. १४] कहे, यावत् अलोक अनन्त अगुरुलघुगुणोथी संयुक्त छे अने सर्वाकाशना अनंतमा भागे न्यून छे. दव्यादिथी अपोलो- १८. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यथी अधोलोकक्षेत्रलोकमां अनन्त जीव द्रव्यो छे, अनंत अजीव द्रव्यो छे अने अनंत जीवाजीव कादिनो विचार. द्रव्यो छे. ए प्रमाणे तिर्यग्लोकक्षेत्रलोकमां तथा ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकमां पण जाणवू. द्रव्यथी अलोकमां जीव द्रव्यो नथी, अजीव द्रव्यो नथी अने जीवाजीव द्रव्यो नथी, पण एक अजीवद्रव्यनो देश छे, यावत् सर्वाकाशना अनंतमा भागे न्यून छे. कालथी अधोलोकक्षेत्रलोक कोइ १५ श. १० उ०१प्रदर्शित एकेन्द्रिय जीवोना देशो अने बेइन्द्रिय जीवना देशो-ए मध्यम भांगो होतो नथी, कारणके एक आकाशप्रदेशमा एक बेइन्द्रिय जीवना घणा देशो संभवित नथी. नोधर्मास्तिकाय-अधोलोकना एक आकाशप्रदेशमा संपूर्ण धर्मास्तिकाय नथी. पण तेनो देश भने प्रदेश होय छे तेथी तेने नोधर्मास्तिकावरूप कहेल छे. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक १०. भगवरसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३१ अजीवदयदेसे जाव सधागासअणंतभागूणे । कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि, जाव निचे, एवं जाव अलोगे। भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता वन्नपजवा, जहा खंदए, जाव अणंता अगुरुयलहुयपजवा, एवं जाव लोप । भावमओ णं अलीए नेवत्थि वनपजवा, जाव नेवत्थि अगुरुयलढयपजवा, एगे अजीवदव्वदेसे, जाव अणंतभागूणे । १९. प्र०] लोए णं भते । के महालए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सवदीव० जाव-परिक्खेवेणं । तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्डीया जाव-महेसक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पवए मंदरचूलियं सवओ समंता संपरिक्खिताण चिनेजा, अहेणं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाऽभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे जमगसमगं बहिगाभिमुहे पक्खिवेजा, पभू णं गोयमा! ताओ एगमेने देते चत्तारि बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाते, एवं दाहिणाभिमुहे, एवं पञ्चत्थाभिमुहे, एवं उत्तराभिमुहे, एवं उहामि० एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति, णो चेव णं जाव संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स अट्रिमिंजा पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति, णो चेव गं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तेसि णं भंते । देवाणं किं गए बहुए अगएबहुए? गोयमा! गए बहुए नो अगए बहुए, गयाउ से अगए असंक्खेजइभागे, अगयाउ से गए असंखेजगुणे, लोए णं गोयमा ! ए महालए पन्नत्ते। २०. [प्र०] अलोए णं भंते ! के महालए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! अयंणं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खभेणं, जहा खंदए, जाव-परिक्खेवेणं । तेणं कालेण तेणं समएणं दस देवा महिड्डिया तहेव जाव-संपरिक्खित्ता. णं संचिढेजा, अहे णं अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तियाओ अट्ट बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पच्चयस्स चउसु वि दिसासु चउसु दिवस न हतो एम नथी, यावत् नित्य छे. ए प्रमाणे यावत् अलोक जाणवो. भावथी अधोलोकक्षेत्रलोकमा 'अनंत वर्ण पर्यवो छे'-इत्यादि जेम *स्कंदकना अधिकारमा कयुं छे तेम जाणवू, यावद् अनंत अगुरुलघुपर्यवो छे. ए प्रमाणे यावत् लोक सुधी जाणवू. भावथी अलोकमा वर्णपर्यवो नथी, यावत् अगुरुलघुपर्यवो नथी, पण एक अजीवद्रव्यनो देश छे अने ते सर्वाकाशना अनंतमा भागे न्यून छे. १९. प्र०] हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! आ जंबूद्वीप नामे द्वीप सर्व द्वीपो अने समुद्रोनी अभ्यं- लोकनो विस्तारतर छे, यावत् परिधि युक्त छे. ते काले-ते समये महर्धिक अने यावत् महासुखवाळा छ देवो जंबूद्वीपमां मेरुपर्वतने विषे मेरुपर्वतनी चूलिकाने चारे तरफ वींटाइने उभा रहे, अने नीचे मोटी चार दिकुमारीओ चार बलिपिंडने ग्रहण करीने जंबूद्वीपनी चारे दिशामां बहार मुख राखीने उभी रहे, पछी तेओ ते चारे बलिपिंडने एक साथे बाहेर फेंके, तोपण हे गौतम! तेमांनो एक एक देव ते चार बलिपिंडने पृथिवी उपर पड्या पहेलां शीघ्र ग्रहण करवा समर्थ छे. हे गौतम ! एवी गतिवाळा ते देवोमाथी एक देव उत्कृष्ट यावद् त्वरित देवगतिवडे पूर्व दिशा तरफ गयो, ए प्रमाणे एक दक्षिण दिशा तरफ गयो, ए प्रमाणे एक पश्चिम दिशामां, एक उत्तर दिशामां, एक ऊर्ध्व दिशामा अने एक देव अधोदिशामा गयो. हवे ते काले, ते समये हजार वर्षना आयुषवाळो एक बाळक उत्पन्न थयो, त्यार पछी ते बाळकना भातापिता मरण पाम्या, तोपण तेटला वखत सुधी पण ते गएला देवो लोकना अंतने प्राप्त करी शकता नथी. त्यार बाद ते बाळकनुं आयुप क्षीण थयु-पूरं थयु, तोपण ते देवो लोकान्तने प्राप्त करी शकता नथी. पछी ते बाळकना अस्थि अने मज्जा नाश पाम्या, तोपण ते देवो लोकना अंतने पामी शकता नथी, त्यार बाद सात पेढी सुधी तेना कुलवंश नष्ट थया, तोपण ते देवो लोकांतने प्राप्त करी शकता नथी. पछी ते बाळकनुं नामगोत्र पण नष्ट थयु तोपण ते देवो लोकना अंतने पामी शकता नथी. [प्र०] जो एम छे तो हे भगवन् ! ते देवोए ओळंगेलो मार्ग घणो छे के ओळंग्या विनानो मार्ग घणो छ ? [उ०] हे गौतम! ते देवो बडे ओळंगायेल-गमन करायेल-क्षेत्र वधारे छे, पण नहि ओळंगायेलं-नहि गमन करायेलं क्षेत्र वधारे नथी. गमन करायेला क्षेत्रथी नहि गमन करायेलु क्षेत्र असंख्यातमा भागे छे. अने नहि गमन करायेला क्षेत्रथी गमन करायेलं क्षेत्र असंख्यात गुण छे. हे गौतम ! लोक एटलो मोटो कह्यो छे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक केटलो मोटो कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम! 'आ मनुष्यक्षेत्र लंबाइ अने पहोळाइमां पीस्ताळीश अलोकनो विस्तार १८ * जुओ स्कंदकना अधिकारमा लोकना खरूपनु वर्णन. भग० सं० १ श० २ उ. १ पृ. २३५.. +चौर स्पर्शवाळा पुद्गलस्कन्धो तथा अरूपी द्रव्यमा अगुरुलघु पर्यायो होय छे, अने ते द्रव्यो अलोकमां नहि होवाथी त्यां अगुरुलघुपर्यायो नथी-टीका. १९ 1 त्रण लाख, सोल हजार, बसो सत्त्यावीश योजन, श्रण कोश, एकसो अव्यावीश धनुष अने कंइक अधिक साडा तेर आंगळ-एटली जंबूद्वी. पनी परिधि छे-टीका. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११. - उद्देशक १०. विदिसासु बहियाभिमुद्दीओ ठिया ते अट्ठ बलिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेजा, पभू णं ग्रोमा ! तओ एममेगे देवे ते अतिपिंडे धरतिलसंपत्ते विप्यामेव पडिसाहरितर ते गोवमा ! देवा ताप विद्वाए जाम देवग लोगते डिचा असम्भावपट्टयाए एगे देवे पुरच्छामिमुहे पयाए पगे देवे दादिणपुरच्छाभिमुद्दे पवाए एवं जाप - उत्तरपु रच्छामिमुहे एगे देवे उड्डानिमुद्दे, एगे देवे अहोनिमुहे पयाए ते काळेणं तेयं समरणं वाससयसदस्याउ दारए पयाए । तपणं तस्स दारगरस अस्मापियरो पहीणा भवंति नो चेवणं ते देवा अलोयतं संपादणंति तं चैव जायतेर्सिनं देवार्ण किं गए बहुए अगए बहुए ? गोयमा ! नो गए बहुए अगर बहुप, गयाड़ से अगए अनंतगुणे, अगयाउ से गए अनंतभागे, अलोप णं गोषमा ! महालय पते । " २३२ २१. [०] [लोगस्स भंते! एगंमि आगासपरसे जे पनिदियपरसा जाद-पंचिदियपरसा अणिदियपदेसा अन्नमत्रबज्रा अनमपुट्ठा, जान-अन्नमसमभरपडतार चिठ्ठेति ? अस्थि णं भंते ! अप्रwer किंचि आचाहं वा याबाई वा उप्पायंति, छविच्छेदं वा करेंति ? [अ०] णो तिणट्ठे समट्ठे । [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चड़ लोगस्स णं एगंमि आगासपएसे जे एगिदियपरसा जाव चिद्वेति णत्थि भंते! अन्नमन्नस्त किचि आबाई या जाय कति ?, [४०] गोयमा से जदानामए महिया सिया सिंगारागारचारुबेसा, जाय फलिया रंगाणंसि जणसपाडलंसि जणसयसहस्साउलंखि बत्तीसहविहस्स नहस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवदंसेजा, से नूणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाए दिट्ठीए सबओ समंता समभिलोपंति? इंता सममिलोपंति ताओ गोषमा दिडीओ तंसि नहियंसि ओ समंता संनिपडियाओ, हंता सन्निपडियाओ, अत्थि पं गोयमा ताओ दिडीओ तीसे नट्टियार किंचि वि आबाई या बाबाई या उप्पारंति छविच्छेदं वा करेंति ? णो तिण सम | अहवा सा नट्टिया तासि दिट्ठीणं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पापति, छविच्छेदं वा करेइ ? णो तिणट्टे समट्टे । ताओ वह विडीओ असमचार दिट्ठीए किंचि आबाई या बाबाहं या उप्पापंति छविच्छेदं वा करेन्ति है, जो तिगडे समने से तेणद्वेणं गोषमा । एवं च तं चैव जाव उविच्छेदं वा करेति । " 1 , लाख योजन छे' - इत्यादि जेम "स्कंदकना अधिकारमां कह्युं छे तेम जाणवुं यावत् ते परिधियुक्त छे. ते काले-ते समये दस महर्षिक देवो पूर्वी पेढे ते मनुष्य लोकनी चारे बाजु वींटाइने उभा रहे तेनी नीचे मोटी आठ दिकुमारीओ आठ वलिपिंडने लेने मानुषोत्तर पर्वतनी चारे दिशामां अने चारे विदिशामां बाह्याभिमुख उभी रहे अने ते आठ वलि पिंढने उड़ने एकल साथै मानुषोत्तर पर्वतनी बाहेरंनी दिशामां फेंके, तो हे गौतम! तेमांनो कोई पण एक देव ते आठ बलिपिंडोने पृथिवी उपरं पड्या पहेलां शीघ्र संहरवा समर्थ छे. हे सौतम ! ते देवो उत्कृष्ट, यावद् त्वरित देवगतिथी लोकना अंतमां उभा रही असत् कल्पना वडे एक देव पूर्व दिशा तरफ जाय, एक देव दक्षिणपूर्वं तरफ जाय, अने ए प्रमाणे यावत् एक देव पूर्व तरफ जाय, वळी एक देव ऊर्ध्व दिशा तरफ जाय, अने एक देव अधोदिशा तरफ जाय ते काले ते समये लाख वर्षना आयुष्याय एक बालकनो जन्म पाय पड़ी सेना मातापिता मरण पाने तोपण ते देवो अटोक़ना अन्तने प्राप्त करी शकता नथी - इत्यादि पूर्वे कहेलं. अहीं कहेवुं यावत् [ प्र० ] हे भगवन् । ते देवोनुं रामन करायेलं क्षेत्र बहु छे नहि गमन करायेलं क्षेत्र बहु छे ? [उ०] हे गौतम! तेओनुं गमन करायेलं क्षेत्र बहु नथी, पण नहि गमन करायेलं क्षेत्र बहु छे. गमन करायेला क्षेत्र करतां नहि गमन करायेल्लुं क्षेत्र अनन्तगुण छे, अने नहि गमन करायेला क्षेत्र करतां गमन करायेलं क्षेत्र अनंतमे भागे छे. हे गौतम! अलोक एटलो मोटो कह्यो छे. • २१. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना एक आकाशप्रदेशमां जे एकेन्द्रिय जीवोना प्रदेशो छे, यावत् पंचेन्द्रियना प्रदेशो अने अनि - न्द्रियना प्रदेशो के ते शुं वधा परस्पर बद्ध छे, अन्योऽन्यसृष्ट छे, यावद् अन्योन्य संबद्ध के ? बळी हे भगवन्! ते वधा परस्पर एक लोकना एक आकाश प्रदेशमा जीवना प्रदेशो परस्पर संबद्ध छे भने एक बीजाने बीजाने कांइ पण आबाध । ( पीडा ) व्यावाधा ( विशेष पीडा ) उत्पन्न करे, तथा अवयवनो छेद करे ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ पीडा उत्पन्न करे ? नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के लोकना एक आकाशप्रदेशमां जे एकेन्द्रियना प्रदेशो यावत् रहे छे, अनो से परस्पर एक बीजाने कांद पण आयाधा वा व्यावाया करता नथी [30] हे गौतम! जैम शृंगारना आकार सहित सुन्दर पवाळी अ संगीतादिने विषे निपुणतावाळी कोई एक नर्तकी होय अने ते सेंकडो अथवा लाखो माणसोथी भरेला रंगस्थानमा बत्रीश प्रकारना नाट्य-. मांनुं कोई एक प्रकारनं नाट्य देखाडे तो हे गौतम! ते प्रेक्षको शुं ते नर्तकीने अनिमेप दृष्टिथी चोतरफ जुए ! हा, भगवन् ! जुऐ. तो हे गीतम! ते प्रेक्षकोनी दृष्टि से नर्तकीने विषे चारे बाजुची पडेली होय छेदा पडेली होय छे, हे गौतम! प्रेक्षकोनी ते दृष्टिओ शुं ते नर्तकीने कांइ पण आवाधा वा व्यावाधा उत्पन्न करे, अथवा तेना अवयवनो छेद करे ? हे भगवन् ! ए अर्थ योग्य नथी. अथवा ते नर्तकी ते प्रेक्षकोनी दृष्टिओने कंद पण आवाधा के व्यावाधा उत्पन्न करे अथवा सेना अवयवनो छेद करे। ए अर्थ यथार्थ नगी. अपवा ? दृष्टि परस्पर एक वीजी दृष्टिओने कांइपण आबाधा के व्याबाधा उत्पन्न करे, अथवा तेना अवयवनो छेद करे ? ए अर्थ यथार्थ नथी. अर्थात् न करे, ते हेतुथी एम कहेवाय छे के पूर्वोक्त यावत् अवयवनो छेद करता नथी. ' २० * स्कंदकना अधिकारमां सिद्धिक्षेत्रनुं वर्णन जुओ भग० खं० १ श० २ ० १ पृ० २३५. . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २३३ २२. [प्र०] लोगस्स णं भंते ! पगंमि आगासपए जहन्नपए जीवपएसाणं, उक्कोसपए जीवपरसाणं, सधजीवाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा लोगस्स एगमि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसा, सधजीवा असंखेजगुणा, उक्कोसपए जीवपएसा विसेसाहिया । सेवं भंते ! सेवं भंते । ति । एकारससए दसमोइसो समत्तो। २२. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना एक आकाशप्रदेशमा जघन्यपदे रहेला जीवप्रदेशो, उत्कृष्टपदे रहेला जीवप्रदेशो अने सर्व एकभाकाश प्रदेशमा जीवोमा कोण कोना करता यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! लोकना एक आकाशप्रदेशमा जघन्य पदे रहेला जीवप्रदेशो सौथी या पदे रखेला बीव थोडा छे, तेना करता सर्व जीवो असंख्यात गुण छे, अने ते करतां पण उत्कृष्ट पदे रहेला जीवप्रदेशो विशेषाधिक छे. हे भगवन् । ते देशो तथा सर्व जी एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, एम कही [भगवान् गौतम ] यावद् विहरे छे. घोर्नु भवपयाहुल. एकादश शते दशम उद्देश समास. ३. भ. सू. Jain Education international Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमो उद्देसो। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णामं नगरे होत्था, वन्नओ। दूतिपलासए चेहए, वन्नओ। जाव-पुढविसिलापट्टओ । तत्थ णं वाणियगामे नगरे सुदंसणे णामं सेट्ठी परिवसइ, अड्डे, जाव-अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव-विहरइ । सामी समोसढे, जाव-परिसा पजुवासइ । तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धटे समाणे हटुतुढे पहाए कय-जाव-पायच्छित्ते सवालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, साओ० २ सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियगाम नगरं मझ-मझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव इतिपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । तेणेव० २ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा-सच्चित्ताणं दवाणं० जहा उसभदत्तो, जाव-तिविहाए पज्जुवासणाए पजवासह । तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेट्टिस्स तीसे य महतिमहालयाए जाव-आराहए भवइ । तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठ० उट्टाए उट्टेइ, उट्ठाए० २ -त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव-नमंसित्ता एवं वयासी २. [प्र०] कइविहे गं भंते ! काले पन्नत्ते ? [उ०] सुदसणा! चउधिहे काले पन्नत्ते, तंजहा-१ पमाणकाले, २ अहाउनिबत्तिकाले, ३ मरणकाले, ४ अद्धाकाले । वाणिज्यनामइतिपडाशक चैत्य अगीयारमो उद्देशक. १. ते काले, ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. दूतिपलाशक चैत्य हतुं. वर्णन. यावत् पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते वाणिज्यग्राम नगरमा सुदर्शन नामे शेठ रहेतो हतो; ते आढ्य-धनिक, यावत् अपरिभूत-कोइथी पराभव न पामे तेवो, जीवा-जीव तत्त्वनो जाणनार श्रमणोपासक हतो. त्यां महावीर स्वामी समवसर्या. यावत् पर्षद्-जनसमुदाये पर्युपासना करे छे. त्यार बाद महावीर स्वामी आव्यानी आ वात सांभळी सुदर्शन शेठ हर्षित अने संतुष्ट थया, अने स्नान करी, बलिकर्म यावत् मंगलरूप प्रायश्चित्त करी, सर्व अलंकारथी विभूषित थइ, पोताना घेरथी बहार नीकळे छे, बहार नीकळीने माथे धारण कराता कोरंटकपुष्पनी माळावाळा छत्र सहित पगे चालीने घणा मनुष्योना समुदायरूप वागुग-बन्धनथी विंटायेला ते सुदर्शन शेठ वाणिज्यग्राम नगरनी वच्चोवच्च थईने नीकळे छे. नीकळीने ज्यां दूतिपलाश चैत्य छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे, आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच प्रकारना अभिगमवडे जाय छे, ते अभिगमो आ प्रमाणे छे-१ 'सचित्त द्रव्योनो त्याग करवो'-इत्यादि जेम "ऋषभदत्तना प्रकरणमा कयुं छे तेम अहीं जाणवू, यावत् ते सुदर्शन शेठ त्रण प्रकारनी पर्युपासना वडे पर्युपासे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीरे ते सुदर्शन शेठने अने ते मोटामा मोटी सभाने धर्मकथा कही, यावत् ते सुदर्शन शेठ आराधक थाय छे. त्यार पछी सुदर्शन शेठ श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्म सांभळी अने अवधारी हर्षित अने संतुष्ट थइ उभा थाय छे, उभा थइने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावद् नमस्कार करी तेणे आ प्रमाणे पूछ्युं २. [प्र०] हे भगवन् ! काल केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे सुदर्शन ! काल चार प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-१ प्रमाणकाल, २ यथायुर्निवृत्तिकाल, ३ मरणकाल अने ४ अद्धाकाल. १. * भग० सं० ३ श० ९ उ० ३३ पृ० १६४. काछना प्रकार . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३५ ३. [प्र०] से किं तं पमाणकाले ? [उ०] पमाणकाले दुविहे पन्नत्ते, तं-जहा-दिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाणकाले य। चउपोरिसिए दिवसे चउपोरिसिया राई भवइ । उक्कोसिआ अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवर, जहनिया तिमुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । ४. [प्र०] जदा णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति, तदा णं कतिभागमुहुक्तभागेणं परिहायमाणी २ जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति? जदा णं जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति, तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी २ उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? [उ०] सुदंसणा! जदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तदा ण बावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी २ जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । जदा णं जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तया णं वावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिवहमाणी २ उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति । ५. [प्र०] कदा णं भंते! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स राईए वा पोरिसी भवइ, कदा वा जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? [उ०] सुदंसणा! जदा णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ, जहनिया तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ । जया णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्तिया राई भवति, जहनिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ, जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ। ६. [प्र०] कदा णं भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, कदा वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति ? [उ०] सुदंसणा! आसाढपुन्निमाए उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पोसस्स पुन्निमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवर, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ७. [प्र०] अस्थि णं भंते ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवन्ति ? [उ.] हन्ता, अत्थि।। ८. [प्र०] कदा णं भंते! दिवसा य राईओ य समा चेव भवन्ति ? [उ०] सुदंसणा! चित्ता-सोयपुनिमासु णं पत्थ प्रमाणकार. ३. [प्र०] हे भगवन् ! प्रमाणकाल केटला प्रकारे छे ? [उ०] प्रमाणकाल बे प्रकारनो कह्यो छे; ते आ प्रमाणे-दिवसप्रमाणकाल अने रात्रीप्रमाणकाल, अर्थात् चार पौरुषीना-प्रहरनो दिवस थाय छे, अने चार पौरुषीनी रात्री थाय छे. अने उत्कृष्ट-मोटामा मोटी साडा चार मुहूर्तनी पौरुषी दिवसनी, अने रात्रिनी थाय छे. तथा जघन्य-न्हानामा न्हानी पौरुषी दिवस अने रात्रिनी त्रण मुहूर्तनी थाय छे. १. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे दिवसे के रात्रीए साडा चार मुहूर्तनी उत्कृष्ट पौरुषी होय छे त्यारे ते मुहूर्तना केटला भाग घटती घटती दिवसे अने रात्रीए त्रण मुहूर्तनी जघन्य पौरुषी थाय ? अने ज्यारे दिवसे के रात्रीए त्रण मुहूर्तनी न्हानामा न्हानी पौरुषी होय छे त्यारे ते मुहूर्तना केटला भाग वधती वधती दिवस अने रात्रीनी साडाचार मुहूर्तनी उत्कृष्ट पौरुषी थाय ? [उ०] हे सुदर्शन ! ज्यारे दिवसे अने रात्रीए साडाचार मुहूर्तनी उत्कृष्ट पौरुषी होय छे त्यारे ते मुहूर्तना एकसो बावीशमा भाग जेटली घटती घटती दिवस अने रात्रीनी जघन्य त्रण मुहूर्तनी पौरुषी थाय छे, अने ज्यारे दिवसे अने रात्रीए त्रण मुहूर्तनी जघन्य पौरुषी होय छे त्यारे मुहर्तना एकसो बावीशमा भाग जेटली वधती वधती दिवसे अने रात्रीए साडाचार मुहूर्तनी उत्कृष्ट पौरुषी थाय छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! व पारे दिवसे अने रात्रीए साडाचार मुहूर्तनी उत्कृष्ट पौरुषी होय, अने क्यारे दिवसे अने रात्रीए त्रण मुहूर्तनी जघन्य पौरुषी होय ! [उ०] हे सुदर्शन ! ज्यारे अढारमुहर्तनो मोटो दिवस होय अने बार मुहर्तनी न्हानी रात्री होय त्यारे साडाचार भर्तनी दिवसनी उत्कृष्ट पौरुषी होय छे, अने रात्रीनी त्रण मुहूर्तनी जघन्य पौरुषी होय छे. तथा ज्यारे अढारमुहूर्तनी मोटी रात्री होय अने नगर मुहर्तनो न्हानो दिवस होय त्यारे साडा चार मुहूर्तनी रात्रिनी उत्कृष्ट पौरुषी होय छे, अने त्रण मुहर्तनी दिवसनी जघन्य पौरुषी होय छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! अढार मुहूर्तनो मोटो दिवस, अने बार मुहूर्तनी न्हानी रात्री क्यारे होय ? तथा अढार मुहूर्तनी मोटी रात्री अने बार मुहूर्तनो न्हानो दिवस क्यारे होय ? [उ०] हे सुदर्शन | आषाढपूर्णिमाने विषे अढार मुहर्तनो मोटो दिवस होय छे, अने बार मुहूर्तनी न्हानी रात्री होय छे. तथा पोषमासनी पूर्णिमाने समये अढार मुहूर्तनी मोटी रात्री भने बार मुहूर्तनो न्हानो दिवस होय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! दिवस अने रात्री ए बन्ने सरखा होय ! [उ०] हा, होय. ८. [प्र०] क्यारे ( दिवस अने रात्री ) सरखां होय ? [उ०] हे सुदर्शन ! ज्यारे चैत्री पूनम अने आसो मासनी पूनम होय त्यारे . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ११. दिवसा य राईओ य समा चेव भवन्ति, पन्नरसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ता राई भवइ । चउभागमुद्दत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । सेत्तं पमाणकाले। ९. [प्र०] से किं तं अहाउनिवत्तिकाले ? [उ.] अहाउनिष्पत्तिकाले जन्नं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण पा देवेण वा अहाउयं निवत्तियं सेत्तं पालेमाणे अहाउनिवत्तिकाले । .... १०. [प्र०] से किं तं मरणकाले? [उ०] जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ सेत्तं मरणकाले। ११. [प्र०] से किं तं अद्धाकाले ? [उ०] अद्धाकाले अणेगविहे पन्नत्ते । से गं समयट्ठयाए आवलियट्टयाए जावउस्सप्पिणीट्ठयाए । एस णं सुदंसणा! अद्धादोहारच्छेदेणं छिजमाणी जाहे विभागं नो हवमागच्छइ सेत्तं समए । समयट्टयाए असंखेजाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा 'आवलिय' त्ति पवुच्चइ । संखेजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए जाव-सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं । १२. [प्र०] एएहि णं भंते ! पलिओवम-सागरोवमेहिं किं पयोयणं? [उ०] सुदंसणा! एएहिं पलिओवम-सागरोवमेहि नरेइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई मविजंति । १३. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? [उ०] एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियच्वं जाव-अजहन्नमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिति पन्नत्ता । १४. [प्र०] अत्थि णं भंते! एएसि पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा? [उ०] हन्ता, अत्थि । १५. [प्र०] से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ 'अत्थि णं एएसि णं पलिओवम-सागरोषमाणं जाव-अवचएति वा'? [उ.] एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणागपुरे नाम नगरे होत्था, वन्नओ । सहसंबवणे उजाणे, वन्नओ । तत्थ णं हथिणागपुरे नगरे बले नाम राया होत्था, वन्नओ । तस्स णं बलस्स रनो पभावई णामं देवी होत्था । सुकुमाल० वन्नओ, जाव-विहरइ । तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दिवस अने रात्री ए बन्ने सरखा होय छे. त्यारे पंदर मुहर्तनो दिवस होय. छे अने पंदर मुहर्तनी रात्री होय छे. अने ते दिवस अने रात्रीनी मुहुर्तना चोथा भागे न्यून चार मुहूर्तनी पौरुषी होय छे. ए प्रमाणे प्रमाणकाल कह्यो. ९. [प्र०] हे भगवन् ! यथायुर्निवृत्तिकाल केवा प्रकारे कहेलो छे ? [उ०] जे कोइ नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य के देवे पोते जेचं आयुष्य बांध्यु छे ते प्रकारे तेनुं पालन करे ते यथायुनिर्वृत्तिकाल कहेवाय छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! मरणकाल ए शुं छे ? [उ०] ( ज्यारे ) शरीरथी जीवनो अथवा जीवथी शरीरनो वियोग थाय ( त्यारे ) ते मरणकाल कहेवाय छे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! अद्धाकाल ए केटला प्रकारे छे ? [उ०] अद्धाकाल अनेक प्रकारनो कह्यो छे; समयरूपे, आवलिकारूपे, बने यावद् उत्सर्पिणीरूपे. हे सुदर्शन! कालना बे भाग करवा छतां ज्यारे तेना बे भाग न ज थइ शके ते काल समयरूपे समय कहेवाय छे. असंख्येय समयोनो समुदाय मळवाथी एक आवलिका थाय छे. संख्यात आवलिकानो [एक उच्छ्रास ] थाय छे-इत्यादि बधुं* शालि उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् सागरोपमना प्रमाण सुधी जाणवू. १२. [प्र०] हे भगवन् ! ए पल्योपम अने सागरोपमरूपनुं शुं प्रयोजन छे? [उ०] हे सुदर्शन! ए पल्योपम अने सागरोपम वडे नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य तथा देवोना आयुषोनुं माप करवामां आवे छे. १३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोनी स्थिति (आयुष) केटला काल सुधीनी कही छे ? [उ०] अहीं सिंपूर्ण स्थितिपद कहे, यावद् [पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध देवोनी ] उत्कृष्ट नहि अने जघन्य नहि एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे' त्यां सुधी जाणवं. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ए पल्योपम तथा सागरोपमनो क्षय के अपचय थाय छे ? [उ०] हा, थाय छे.. १५. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के पल्योपम अने सागरोपमनो यावत् अपचय थाय छे! [उ.] हे सुदर्शन ! ए प्रमाणे खरेखर ते काले, ते समये हस्तिनागपुर नामे नगर हतुं. वर्णन. त्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान हतुं. वर्णन. ते हस्तिनागपुर नगरमा बल नामे राजा हतो. वर्णन. ते बल राजाने प्रभावती नामे राणी हती. तेना हाथ पग सुकुमाल हता-इत्यादि वर्णन जाणवू. यावत् ते विहरती हती. त्यार बाद अन्य कोइ पण दिवसे तेंवा प्रकारना, अंदर चित्रवाळा, बहारथी धोळेला, घसेला अने सुंवाळा करेला, जेनो दस्तिनागपुर. बलराजा. भावती राणी. बासगृह. ११.* भग. खं० २०६०७ पृ. ३२१. १३.प्रज्ञा पद ४५० १६८-१७८. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. दुमिय-घट्ट-मट्टे, विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले, मणि-रयणपणासियंधयारे, बहुसम-सुविभत्तदेसभाए, पंचवन्न-सरस-सुरमिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए, कालागुरुपवर-कुंदुरुक्क-तुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंधि-वरगंधिए, गंधवद्विभूए तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणवट्टिए, उभओविब्बोयणे, दुहओ उन्नए, मझे णय-गंभीरे, गंगापुलिनवालुयउद्दालसालिसप, उवचिय-खोमिय-दुगुल्लपट्टपडिच्छायणे, सुविरइयरयत्ताणे, रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आइणग-रूय-बूर-णवनीय-तूलफासे, सुगंधवरकुसुम-चुन्न-सयणोवयारकलिए, अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्त-जागरा ओहीरमाणी २ अयमेयारूवं ओरालं, कल्लाणं, सिवं, धनं, मंगलं, सस्सिरियं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुद्धा। १६. हार-रयय-खीरसागर-ससंककिरण-दगरय-रययमहासेल-पंडुरतरोरुरमणिज-पेच्छणिजं, थिर-लट्ठ-पउ?वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-तिक्खदाढाविडंबियमुह, परिकम्मियजच्चकमलकोमल-माइअसोभंतल?उटुं, रत्तुप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुजीहं, मूसागयपवरकणगताविअआवत्तायंत-वट्ट-तडिविमलसरिसनयणं, विसालपीवरोरुं, पडिपुनविपुलखधं, मिउविसयसुहुमलवखण-पसत्थ-विच्छिन्न-केसरसडोवसोभियं, ऊसिय-सुनिम्मिय-सुजाय-अप्फोडिअलंगूलं, सोम, सोमाकारं, लीलायंतं, जंभायंतं, नहयलाओ ओवयमाणं, निययवयणमतिवयंतं, सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। १७. तए णं सा पभावती देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव-सस्सिरियं महासुविणं पासित्ता णं पडिवुद्धा समाणी हट्टतुटू-जाव-हियया धाराहयकलंबपुप्फगं पिव समूसियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हति, ओगिण्हित्ता सयणिज सय० २ अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रनो सयणिजे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव० २ बलं रायं ताहि इट्ठाहि कंताहि पियाहिं मणुन्नाहि मणामार्ह ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं मिय-महुर-मंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी २ पडिबोहेति, पडि० २ बलेणं रम्ना अब्भणुनाया समाणी नाणामणिरंयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयति, णिसियित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहि इट्ठाहिं कंताहिं जाव-संलवमाणी २ एवं वयासी . प्रभावती बागी. उपरनो भाग विविध चित्रयुक्त अने नीचेनो भाग सुशोभित छे एवा, मणि अने रत्नना प्रकाशथी अंधकाररहित, बहु समान अने सुविभक्त भागवाळा, मुकेला पांच वर्णना सरस अने सुगंधी पुष्पपुंजना उपचार वडे युक्त, उत्तम कालागुरु, कीन्दर अने तुरुष्क-शिलारसना धूपथी चोतरफ फेलायेला सुगंधना उद्भवथी सुंदर, सुगंधि पदार्थोथी सुवासित थयेला, सुगंधि द्रव्यनी गुटिका जेवा ते वासघरमां तकीयासहित, माथे अने पगे ओशीकावाळी, बन्ने बाजुए उंची, वचमां नमेली अने विशाल, गंगाना किनारानी रेतीना *अवदाल सरखी (अत्यंत शव्या. कोमल), भरेला क्षौमिक-रेशमी दुकूलना पट्टथी आच्छादित, रजस्त्राणथी (उडती धूळने अटकावनार वस्त्रथी) ढंकायेली, रक्तांशुकमच्छरदानी सहित, सुरम्य, आजिनक (एक जात- चामडा- कोमळ वस्त्र ), रू, बरु, माखण अने आकडाना रूना समान स्पर्शवाळी, सुगंधि उत्तम पुष्पो, चूर्ण, अने बीजा शयनोपचारथी युक्त एवी शय्यामां कंइक सुती अने जागती निद्रा लेती लेती प्रभावती देवी अर्ध- महासमने जोर रात्रीना समये आ एवा प्रकारना, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारक अने शोभा युक्त महास्वमने जोइने जागी. १६. मोतीना हार, रजत, क्षीरसमुद्र, चंद्रना किरण, पाणीना बिंदु अने रूपाना मोटा पर्वत जेवा धोळा, विशाळ, रमणीय अने सिंह वर्णन. दर्शनीय, स्थिर अने सुंदर प्रकोष्ठवाळा, गोळ, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट, अने तीक्ष्ण दाढोवडे फाडेला मुखवाळा, संस्कारित उत्तम कमलना जेवा कोमल, प्रमाणयुक्त अने अत्यन्त सुशोभित ओष्ठवाळा, राता कमलना पत्रनी जेम अत्यंत कोमळ ताळु अने जीभवाळा, मूषामा रहेला, अग्निथी तपावेल अने आवर्त करता उत्तम सुवर्णना समान वर्णवाळी गोळ अने विजळीना जेवी निर्मळ आंखवाळा, विशाल अने पुष्ट जंघावाळा, संपूर्ण अने विपुल स्कंधवाळा, कोमल, विशद-स्पष्ट, सूक्ष्म, अने प्रशस्त, लक्षणवाळी विस्तीर्ण केसरानी छटाथी सुशोभित, उंचा करेला, सारीरीते नीचे नमावेला, एन्दर अने पृथिवी उपर पछाडेल पूछडाथी युक्त, सौम्य, सौम्य आकारवाळा, लीला करता, बगासां खाता सिंहने खममा बोरने जागी अने आकाश थकी उतरी पोताना मुखमा प्रवेश करता सिंहने स्वप्नमा जोइ ते प्रभावती देवी जागी. १७. त्यार बाद ते प्रभावती देवी आ आवा प्रकारना उदार यावत् शोभावाळा महास्वप्नने जोइने जागी अने हर्षित तथा संतुष्ट हृदयवाळी थई, यावत् मेघनी धारथी विकसित थयेला कदंबकना पुष्पनी पेठे रोमांचित थयेली [प्रभावती देवी] ते स्वप्मनु स्मरण करे छे, स्मरण करीने पोताना शयनथी उठी त्वराविनानी, चपलतारहित, संभ्रमविना, विलंबरहित पणे राजहंससमान गतिवडे ज्या बल- बलराजाना भयन गृह तरफ भावे राजा- शयनगृह छे त्यां आवे छे, आवीने इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनगमती, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल्य, सौन्दर्ययुक्त, मित, मधुर अने मंजुल-कोमल वाणीवडे बोलती २ ते बल राजाने जगाडे छे. त्यार बाद ते बल राजानी अनुमतिथी विचित्र मणि अने रनोनी रचना वडे विचित्र भद्रासनमा बेसे छे. सुखासनमा बेठेली स्वस्थ अने शान्त थएली ते प्रभावती देवीए इष्ट, प्रिय, यावत् मधुर वाणीथी बोलता २ आ प्रमाणे कधु १५. * पग मूकबाथी नीचे सरी अवाय एवी रेताळ जमीनने अवदाल कहे छे. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वमनुं फल. प्रभावती देवी मना फक्नो स्वीकार करे छे। श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११. - उद्देशक ११. १८. एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगण० तं चैव जाव-नियगवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिवुद्धा, तण्णं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव- महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्स ? तप णं से बले राया पभावईए देवीए अंतियं पयमङ्कं सोचा निसम्म हट्ट तुट्ट० जाव - इयहियप धाराद्दयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हर, ओगिव्हित्ता ईहं पविस्सह, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाaिri nyari बुद्धिविनाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ, तस्स० २-त्ता पभावई देवि ताहि इट्ठाहिं कंताहि जाव - मंगलाहिं मिय-महुर- सस्सिरि० संलवमाणे २ एवं वयासी २३८ १९. ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, कल्लाणे णं तुमे जाव - सस्सिरीए णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, आरोग्ग-तुट्ठि - दीहाउ - कल्लाण - मंगल्लकारण णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए । पुत्तलाभो देवाणुपिए! रज्जलाभी देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्टमाणराइंदियाणं विइकंताणं अम्हं कुलके, कुलदीवं, कुलपधयं, कुलवडेंसयं, कुलतिलगं, कुळकित्तिकरं, कुलनंदिकरं, कुलजसकरं, कुलाधारं, कुलपायचं, कुलविवर्द्धणकरं, सुकुमालपाणि-पायं, अहीणपडिपुन्नपंचिदियसरीरं, जाव-ससिसोमाकारं, कंतं, पियदंसणं, सुरूवं, देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि । २०. से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोवणगमणुष्पत्ते सुरे वीरे विकते वित्थिन्न- विउलबलवाहणे रजवई राया भविस्सइ । तं उराले णं तुमे जाव-सुमिणे दिट्ठे, आरोग्ग-तुट्ठि० जाव- मंगलकारपणं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे ति कट्टु भावति देवि ताहिं इट्ठाहिं जाव-वग्गूहिं दोषयं पितश्चं पि अणुबूद्दति । तए णं सा पभावती देवी बलस्स रनो अंतियं पयमहं सोचा निसम्म हट्ठ-तुट्ठ० करयल० जाव एवं वयासी- 'एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! से जहेयं तुज्झे वदद्द'त्ति कट्टु तं सुविणं सम्मं पडिच्छर, पडिच्छित्ता बलेणं रन्ना अम्भणुन्नाया समाणी णाणामणि- रयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुट्ठेह, अब्भुट्ठेत्ता अतुरियमचवल० जाव गतीए जेणेव सए सग्रणिजे तेणेव १८. हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे खरेखर में आजे ते तेवा प्रकारनी अने तकीयावाळी शय्यामां [सुतां जागतां] इत्यादि पूर्वोक्त जाणवुं, यावत् मारा पोताना मुखमां प्रवेश करता सिंहने स्वनमा जोइने जागी. तो हे देवानुप्रिय ! ए उदार यावत् महास्त्रमनुं बीजं सुं कल्याणकारक फल अथवा वृत्तिविशेष थशे ? त्यार पछी ते बल राजा प्रभावती देवी पासेथी आ वात सांभळी, अवधारी हर्षित, तुष्ट, यावत् आल्हादयुक्त हृदयवाळो थयो, मेघनी धाराथी विकसित थयेला सुगंधि कदंब पुष्पनी पेठे जेनुं शरीर रोमांचित थयेलं छे अने जेनी रोमराजी उभी थयेली छे, एवो बलराजा ते स्वप्ननो अवग्रह - सामान्य विचार करे छे, पछी ते स्वप्नसंबन्धी ईहा (विशेष विचार ) करे छे. तेम करीने पोताना स्वाभाविक, मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञानथी ते स्वप्नना फलनो निश्चय करे छे. पछी इष्ट, कांत, यावत् मंगलयुक्त, तथा मित, मधुर अने शोभायुक्त वाणीथी संलाप करता २ ते बल राजाए आ प्रमाणे कधुं १९. हे देवी! तमे उदार स्वम जोयुं छे, हे देवी! तमे कल्याणकारक स्वप्न जोयुं छे, यावत् हे देवी! तमे शोभायुक्त स्वप्न जोयुं छे, तथा हे देवी! तमे आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष, कल्याण अने मंगलकारक स्वप्न जोयुं छे. हे देवानुप्रिये ! तेथी अर्थनो लाभ थशे, हे देवानुप्रिये ! भोगनो लाभ थशे, हे देवानुप्रिये ! पुत्रनो लाभ थशे, हे देवानुप्रिये ! राज्यनो लाभ थशे, हे देवानुप्रिये । खरेवर तमे नव मास संपूर्ण थया बाद साडा सात दिवस वित्या पछी आपणा कुलमां ध्वजसमान, कुलमां दीवासमान, कुलमां पर्वतसमान, कुलमां शेखरसमान, कुलमां तिल समान, कुलनी कीर्ति करनार, कुलने आनंद आपनार, कुलंनो जश करनार, कुलना आधारभूत, कुलमां वृक्षसमान, कुलनी वृद्धिकरनार, सुकुमाल हाथपगबाळा, खोडरहित अने संपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीरवाळा, यावत् चंद्रसमान सौम्य आकारवाळा, प्रिय, जेनुं दर्शन प्रिय छे एवा, सुन्दररूपवाळा, अने देवकुमार जेवी कांतिवाळा पुत्रने जन्म आपशो. २०. अने ते बालक पोतानुं बालकपणुं मूकी, विज्ञ अने परिणत - मोटो थईने युवावस्थाने पामी शूर, वीर, पराक्रमी, विस्तीर्ण अने विपुल बल तथा वाहन वाळो, राज्यनो धणी राजा थशे. हे देवी! तमे उदार स्वन जोयुं छे, हे देवी! तमे आरोग्य, तुष्टि अने यावत् मंगलकारक स्वम जोयुं छे' - एम कही ते बल राजा इष्ट यावद् मधुर वाणीथी प्रभावती देवीनी बीजी वार अने श्रीजी बार ए प्रमाणे प्रशंसा करे छे. त्यार बाद ते प्रभावती देवी बल राजानी पासेथी ए पूर्वोक्त वात सांभळीने, अवधारीने हर्षवाळी अने संतुष्ट थइ हाथ जोडी आ प्रमाणे बोली- 'हे देवानुप्रिय ! तमे जे कहो छो ते एज प्रमाणे छे, हे देवानुप्रिय ! तेज प्रमाणे छे, हे देवानुप्रिय ! ए सत्य छे, हे देवानुप्रिय ! ए संदेहरहित छे, हे देवानुप्रिय । मने इच्छित छे, हे देवानुप्रिय ! ए में स्वीकारेलुं छे, हे देवानुप्रिय ! ए मने इच्छित अने स्वीकृत छे' एम कही स्वमनो सारी रीते स्वीकार करे छे, स्वीकार करीने बल राजानी अनुमतिथी अनेक जातना मणि अने रत्ननी Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३९ उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सयणिजंसि निसीयति, निसीहत्ता एवं वयासी-'मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्सइ' त्ति कट्ट देव-गुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहि सुविणजागरियं पडिजागरमाणी २ विहरति । २१. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्त-सुइअ-संमजिओ-वलित्तं सुगंधवरपंचवन्नपुष्फोवयारकलियं कालागुरुपवर-कुंदुरुक जाव-गंधवट्टिभूयं करेह य करावेह य, करेत्ता करावेत्ता सीहासणं रएह, सीहासणं रयावेत्ता ममेतं जाव-पश्चप्पिणह । तए णं ते कोढुंबिय० जाव-पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं वाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव-पञ्चप्पिणंति । २२. तए णं से बले राया पञ्चूसकालसमयंसि सयणिजाओ अभुट्टेइ, सय० २ -त्ता पायपीढाओ पचोरुहइ, पाय० २ -हित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति, अट्टणसालं अणुपविसइ, जहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मजणघरे जाव -ससि पियदंसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छिइ, तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयइ निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपञ्चुत्थुयाइं सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रयावेइ, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं, अहियपेच्छणिजं, महग्ध-वरपट्टणुग्गयं, सण्हपट्टबहुभत्तिसयचित्तताणं, ईहामिय-उसभ० आव-भत्तिमित्तं, अम्भितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता नाणामणि-रयणभत्तिचित्तं अत्थरय-मउयमसूरगोत्थयं, सेयवत्थपञ्चुत्थुयं, अंगसुहफासुयं, सुमउयं पभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, रयावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं पयासी २३. 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंगमहानिमित्तसुत्त-त्थधारए, विविहसत्थकुसले, सुविणलक्खणपाढए सहावेह' तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव-पडिसुणेत्ता बलस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हथिणपुरं णगरं मझमज्झेणं जेणेव तेसिं सुविणलक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता ते सुवि रचना वडे विचित्र एवा भद्रासनथी उठे छे, उठीने त्वरा विना, चपलतारहित यावद् गति वडे [ ते प्रभावती देवी ] ज्यां पोतानी शय्या छे त्यां आवी शय्या उपर बेसे छे, बेसीने तेणे आ प्रमाणे कडं-'आ मारं उत्तम, प्रधान अने मंगलरूप स्वप्न वीजा पापस्वप्नोथी न हणाओ' एम कहीने ते प्रभावती देवी देव अने गुरु संबन्धी, प्रशस्त, मंगलरूप अने धार्मिक कथाओवडे स्वप्न जागरण करती करती विहरे छे. २१. त्यार बाद ते बल राजाए कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कह्यु-हे देवानुप्रियो! आजे तमे जल्दी बहारनी उपस्थानशालाने सविशेषपणे गंधोदकवडे छांटी, वाळी अने छाणथी लीपीने साफ करो. तथा सुगंधी अने उत्तम पांच वर्णना पुप्पोथी शणगारो, वळी उत्तम कालागुरु अने कींदरुना धूपथी यावद् गंधवर्तिभूत-सुगंधी गुटिका समान करो, करावो, अने त्यारपछी त्यां सिंहासन मूकावो, सिंहासन मूकावीने आ मारी आज्ञा यावत् पाछी आपो.' त्यार बाद ते कौटुंबिक पुरुषो यावत् आज्ञानो स्वीकार करी तुरतज सविशेषपणे बहारनी उपस्थान शालाने साफ करीने यावत् आज्ञा पाछी आपे छे. २२. त्यार बाद ते बल राजा प्रातःकाल समये पोतानी शय्याथी उठीने पादपीठथी उतरी ज्या व्यायामशाळा छे त्यां आवे छे. आवीने व्यायामशाळामा प्रवेश करे छे, त्यार पछी ते स्नानगृहमा जाय छे. व्यायामशाला अने स्नानगृहनुं वर्णन *औपपातिक सूत्रमां कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत् चंद्रनी पेठे जेनुं दर्शन प्रिय छे एवो ते बल नरपति स्नानगृहथी बहार नीकळे छे, बहार नीकळीने ज्यां अने बानगृहमा प्रवेश बहारनी उपस्थानशाला छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने पूर्वदिशा सन्मुख उत्तम सिंहासनमा बेसे छे. त्यार बाद पोतानाथी उत्तरपूर्वदिशामां -ईशान कोणमां धोळा वस्त्रथी आच्छादित अने सरसव वडे जेनो मंगलोपचार करेलो छे एवा आठ भद्रासनो मूकावे छे. त्यार बाद पोतानाणी थोडे दूर अनेक प्रकारना मणि अने रत्नथी सुशोभित, अधिक दर्शनीय, कीमती, मोटा शहेरमा बनेली, सूक्ष्म सूतरना सेंकडो कारीगरीवाळा विचित्रताणावाळी, तथा ईहामृग अने बळद वगेरेनी कारीगरीथी विचित्र एवी अंदरनी जवनिकाने-पडदाने खसेडे छे, खसेडीने [जलनिकानी अंदर ] अनेक प्रकारना मणि अने रत्नोनी रचना वडे विचित्र, गादी अने कोमळ गालमसूरीयाथी ढंकायेलं, श्वेत वस्त्रवडे आच्छादित, शरीरने सुखकर स्पर्शवाळू तथा सुकोमळ एq एक भद्रासन प्रभावती देवी माटे मूकावे छे. त्यार पछी ते बल राजाए कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कडं २३. 'हे देवानुप्रियो! तमे शीघ्र जाओ, अने अष्टांग महानिमित्तना सूत्र अने अर्थने धारण करनारा, अने विविध शास्त्रमा कुशल एवा स्वप्नना लक्षण पाठकोने बोलावो.' त्यार बाद ते. कौटुंबिक पुरुषो यावत् आज्ञानो स्वीकार करीने बल राजानी पासेथी नीकळे छे; स्वप्रपाठकोने बोलानीकळीने सत्वर, चपलपणे, झपाटाबंध अने वेगसहित हस्तिनापुर नगरनी वचोवच ज्या स्वप्नलक्षणपाठकोना घरो छे, त्यां जइने स्वप्नलक्ष- ववानी आशा. २२. * जुओ औपपा० ५० ६४-२. Jain Education international Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ११. लक्खणपाढए सद्दावेति । तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ट-तुटुण्डाया कय० जाव-सरीरा सिद्धत्थग-हरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सरहिं २ गेहेहितो णिग्गच्छंति, सपहिं २-च्छित्ता हथिणापुर नगरं मझमझेणं जेणेव बलस्स रनो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगओ मिलंति, एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल. बलरायं जएणं विजएणं वद्धाति । तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रना बंदिय-पूइअ-सकारिअ-संमाणि समाणा पत्तेयं २ पुत्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति । तए णं से बले राया पभावति देविं जवणियंतरियं ठावेइ, ठावेत्ता पुप्फ-फल पडिपुनहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाठए एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव-सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तण्णं देवाणुप्पिया! एयस्स ओरालस्स जाव केमन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइः १ तए णं सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हट्ठ-तुट्ठ० तं सुविणं ओगिण्हर, ओगिण्हित्ता ईहं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ, तस्स०२-त्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालेंति, संचालेत्ता तस्स सुविणस्स द्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्त रन्नो पुरओ सुविणसत्थाई उचारेमाणा २ एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि र विणा दिट्ठा । तत्थणं देवाणुप्पिया! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कट्टिसि वा गम्भं वकममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोइस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । तं जहा-"गय-वसह-सीह-अभिसेयदाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च" ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोइसण्डं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । बलदेवमायरो वा बलदे. वंसि गम्भं वकममाणंसि एपसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एतेसि णं चउदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता गं पडिवुझंति । इमे य णं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिटे, तं ओराले गं देवाणुप्पिया! प्रभावतीए देवीए सुविणे दिटे, जाव-आरोग्ग-तुढि० जाव-मंगलकारए णं देवाणुप्पिया! प्रभावतीए देवीए सुविणे दिवे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए! भोग णपाठकोने बोलावे छे. ज्यारे ते बल राजाना कौटुंबिक पुरुषोए ते स्वप्नलक्षणपाठकोने बोलाव्या त्यारे तेओ प्रसन्न थया, तुष्ट थया अने स्नान करी बलिकर्म करी यावत् शरीरने अलंकृत करी, मस्तके सर्षप अने लीली धरोनुं मंगल करी पोत पोताना घेरथी नीकळे छे, नीकळीने हस्तिनागपुर नगरनी वच्चे थइ ज्या बल राजानु उत्तम महालय छे, त्यां आवे छे, त्यां आवीने श्रेष्ठ महालयना द्वार पासे ते स्वप्नपाठको एकठा थाय छे, एकठा थइने ज्यां बहारनी उपस्थानशाला छे त्यां आवे छे, त्यां आवी हाथ जोडी बल राजाने जय अने विजयथी वधावे छे. त्यार बाद ते बल राजाए वांदेला, पूजेला, सत्कारेला अने सम्मानित करेला ते स्वप्नलक्षणपाठको पूर्वे गोठवेला भद्रा सनो उपर बेसे छे. त्यार पछी ते बल राजा प्रभावती देवीने जवनिकानी-पडदानी अंदर बेसाडे छे. त्यार बाद पुष्प अने फलथी परिपूर्ण पाठकोने हस्तवाळा ते बल राजाए अतिशय विनयपूर्वक ते स्वप्मलक्षणपाठकोने आ प्रमाणे कह्यु-हे देवानुप्रियो! ए प्रमाणे खरेखर आजे प्रभासामना फलभो प्रश्न. वती देवी ते तेवा प्रकारना वासगृहमां यावत् स्वममा सिंहने जोइने जागेली छे, तो हे देवानुप्रियो! आ उदार एवा स्वप्मनुं यावत् बीजूं कयु कल्याणरूप फल अने वृत्तिविशेष थशे. त्यार पछी ते स्वप्मलक्षणपाठको बल राजानी पासेथी ए वात सांभळी तथा अवधारी खुश अने संतुष्ट थई ते स्वप्न संबन्धे सामान्य विचार करे छे, सामान्य विचार करी तेनो विशेष विचार करे छे, अने पछी ते स्वप्नना अर्थनो निश्चय करे छे, अने त्यार बाद तेओ परस्पर साथे विचारणा करे छे. त्यार पछी ते स्वप्नना अर्थने स्वयं जाणी, बीजा पासेथी ग्रहण करी, ते संबन्धी शंकाने पूछी, अर्थनो निश्चय करी अने स्वमना अर्थने अवगत करी बल राजानी आगळ खप्नशास्त्रोनो उच्चार करतां तेओए आ प्रमाणे का-'हे देवानुप्रिय! ए प्रमाणे खरेखर अमारा स्वप्नशास्त्रमा बेताळीश सामान्य स्वप्नो, अने त्रीश महास्वप्नो मळीने कुल बहोंतेर जातना स्वप्नो कहेला छे. तेमां हे देवानुप्रिय! तीर्थकरनी माताओ के चक्रवर्तिनी माताओ ज्यारे तीर्थंकर के चक्रवर्ती गर्भमां आवीने उपजे त्यारे ए त्रीश महास्वप्नोमाथी आ चौद स्वप्नोने जोइने जागे छे, ते चौद स्वप्नो आ प्रमाणे छे- “१ हाथी, २ बलद, ३ सिंह, ४ लक्ष्मीनो अभिषेक, ५ पुष्पमाळा, ६ चंद्र, ७ सूरज, ८ ध्वजा, ९ कुंभ, १० पद्मसरोवर, ११ समुद्र, १२ "विमान अथवा भवन, १३ रत्ननो ढगलो अने १४ अग्नि" वळी वासुदेवनी माताओ ज्यारे वासुदेव गर्भमां आवे त्यारे ए चौद महास्वप्नोमांना कोइ पण सात महास्वप्नो जोइने जागे छे. तथा बलदेवनी माताओ ज्यारे बलदेव गर्भमां प्रवेश करे प्यारे ए चौद महास्वप्नोमांना कोइ पण चार महास्वप्नोने जोइने जागे छे. मांडलिक राजानी माताओ ज्यारे मांडलिक राजा गर्भमा प्रवेश करे त्यारे ए चौद महास्वप्नोमांना कोइ एक महास्वप्न जोइने जागे २३. * जो तीर्थकर देवलोकथी आवीने उपजे तो तेनी माता स्वममा विमान जुए भने नरकथी भावीने उपजे तो तेनी माता खनमा भवन जुए के-टीका. . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११. - उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४१ I लाभो देवाप्पिए ! पुसलाभो देवाणुप्पिए ! रजलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु देवाणुप्पिए । पभावती देवी नवहूं मासाणं बहुपतिपुत्राणं जायचीतिकंताणं तुम्हं कुलकेलं जाय-पयादिति से वि य णं दारच उम्मुकबालमाचे जाय-रजवई राया भविस्सर, अणगारे वा भावियप्पा । तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे, जाव-आरोग्ग-तुट्ठ दीहाउस कलाग० जाव-दिडे | - " २४. तप से बले राया सुविणलचणपाडगाणं अंतिम पयम सोचा निसम्म हट्ट तु० करयल० जाप कडु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं वयासी-'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्मे वदह' त्ति कट्टु तं सुविणं सम्मं पडिच्छद्द, तं० २ - च्छित्ता सुविणलक्षणपाडर चिउलेणं असण- पाण- साइम साइम- पुण्फ-बत्थ-गंध-महालंकारेणं सकारेति सम्माणेति, सकारेत्ता सम्मापेता बिउलं जीवियारिहं पीदाणं यति विडलं २ वित्ता पडिविसजेति, पडिविसजेता सीहासणाओ मधु, सी० २-ता जेणेव पभावती देवी तेनेव उपागच्छद्द, तेणेव उवागच्छित्ता पभावति देवि ताहिं दाहिं ताहि जायसंलवमाणे २ एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा बावन्तरि सवसुविणा दिट्ठा तत्थ णं देवाप्पिए! तित्थगरमायरो या चक्रवट्टिमायरो वा तं चैव जान अनयरं एवं मदासुविनं पासिता णं पढ़ि खुज्झति । इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, जाव-रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे या भावियप्पा तं ओराले गं तुमे देवी! सुविणे विट्टे, जाव-दिडे, ति कट्टु पभावति देवि ताहिं इट्टाहिं कंतादि जाब- दोघं पि तां पि अणुवृहद । २५. तसा प्रभावती देवी बलरस रनो अंतियं एयम सोया जिसम्म हट्ट तुडु० करयल० जाव एवं वयासी'यमेयं देवाणुप्पिया ! जाव-तं सुविणं सम्मं पडिच्छति, तं० २- च्छित्ता बलेणं रन्ना अन्भणुन्नाया समाणी नाणामणि- रयणभत्तिचित्त० जाव अब्भुट्ठेति । अतुरियमचवल० जाव गतीए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छर, ते० २- च्छित्ता सयं भवणमणुपविट्ठा । २६. तप णं सा पभावती देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव- सवालंकारविभूसिया तं गन्धं णाइसीपहिं नाइउण्हेहिं नाइतितेहि नारकडुपर्हि नाइकसापहि नाइअंबिलेहिं नाहमहुरेहिं उउभयमाणमुदेहिं भोषण-च्छायण-गंध-मलेहिं जं तस्स छे. तो हे देवानुप्रिय ! आ प्रभावती देवीए एक महास्वन जोयुं छे, हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवीए उदार स्वप्न जोयुं छे, यावत् आरोग्य, 'तुष्टि यावत् मंगल करनार स्वम जोयुं छे. तेथी हे देवानुप्रिय ! तमने अर्थलाभ थशे, भोगलाभ थशे, पुत्रलाभ थशे अने राज्यलाभ यशे.. तथा हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे खरेखर प्रभावती देवी नव मास संपूर्ण थया पछी अने साडा सात दिवस वित्या पछी तमारा कुलमां ध्वज समान एवा यावत् पुत्रनो जन्म आपशे अने ते पुत्र पण बाल्यावस्था मूकी मोटो थशे त्यारे ते यावद् राज्यनो पति राजा थशे, अथवा भावितात्मा साधु थशे. तेथी हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवीए उदार स्वप्न जोयुं छे, यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष तथा कल्याण करनार स्वम जोयुं छे. २४. प्यार बाद ते बलराजा स्वमलक्षणपाठको पासेथी ए वातने सांभळी अने अवधारी हर्षित, अने संतुष्ट थयो, अने हाथ जोडी यावत् तेणे स्वलक्षणपाठकोने आ प्रमाणे कां - 'हे देवानुप्रियो ! आए प्रमाणे छे के, यावत् जे तमे कहो छो'- एम कही ते स्वमोनो सारी रीते स्वीकार करे छे. त्यार बाद स्वलक्षणपाठकोनो पुष्कळ अशन, पान, खादिम, खांदिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला अने अलंकारो यडे सत्कार करे छे, सम्मान करे छे, तेम करीने जीविकाने उचित घणुं प्रीतिदान आपे छे; अने प्रीतिदान आपीने से स्वलक्षणपाठकोने रजा आपे छे. खार पछी पोताना सिंहासनथी उठे छे, उठीने ज्यां प्रभावती देवी छे व्यां आवी प्रभावती देवीने तेगे ते प्रकारनी इष्ट, मनोहर यावत् मधुर वाणीवडे संताप करता करता आ प्रमाणे हे देवानुप्रिये! ए प्रमाणे सरेवर स्वप्नशास्त्रमां वेताळीश साधारण स्वमो अने श्रीश महास्वनो तथा बधा मळाने यहाँतेर स्वप्नो देखाया छे. तेमां हे देवानुप्रिये तीर्थंकरनी माताओ के चक्रवर्तिनी माताओ इत्यादि पूर्व कहे, यावत् कोई एक महात्वमने जोड़ने जागे छे. हे देवानुप्रिये। तमे आ एक महास्वम जोयुं छे, हे देवी! लगे उदार स्वप्न जोयुं छे, गाय से राज्यनो पति राजा पशे के भावितात्मा अनगार पो. हे देवि । तमे उदार स्वम जोयुं छे, यावत् मंगलकर स्वम जोयुं छे, एम कही प्रभावती देवींनी ते प्रकारनी इए, कांत, प्रिय एवी यावद् मधुर वाणीवडे वे बार अने त्रण वार पण प्रशंसा करे छे. २५. त्यार बाद ते प्रभावती देवी बल राजानी पासेथी ए वातने सांभळीने अवधारीने हर्षवाळी, अने संतुष्ट थइ यावत् हाथ जोडी आ प्रमाणे बोली- 'हे देवानुप्रिय ! ए ए प्रमाणे ज छे' यावद् एम कही यावत् ते स्वनने सारी रीते ग्रहण करे छे. त्यार पछी बल राजानी अनुमतिथी अनेक प्रकारना मणि अने रंजनी कारीगरीधी युक्त तथा विचित्र एवा ते भद्रासनथी उठी खरारहित, अचलपणे यावत् हंससमानगति बडे ज्यां पोतानुं भवन के स्पां आवी रोणे पोताना भवनमा प्रवेश कर्यो. २६. त्यार बाद ते प्रभावती देवी स्नान करी, नाहि, अतिवष्ण नहि, अतितिक्त नदि, अतिकटु नहि, ३१ भ० सू० बलिकर्म - देवपूजा करी, यावत् सर्व अलंकारथी विभूषित थइ ते गर्भने अतिशीत अति तुरा नहि, अतिवाट नहि, अने अतिमधुर नहि एवा, तथा दरेक ऋतुमां गर्भनुं रक्षण. : Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ११. गम्भस्स हियं मितं पत्थं गम्भपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणा-सहिं पइरिकसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्यदोहला संपुग्नदोहला सम्माणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला ववणीयदोहला चवगयरोग-मोह-भय-परित्तासा तं गम्भं सुहं-सुहेणं परिवहति । तए णं सा पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुनाणं अद्धट्रमाणराइंदियाणं वीतिकंताणं सुकुमालपाणि-पायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खण-बंजणगुणोववेयं जाव-ससिसोमाकारं कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाया। २७. तए णं तीसे पभावतीए देवीए अंगपंडियारियाओ पभावतिं देवि पसूर्य जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छन्ति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जाव-बलं रायं जयेणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावतीपियट्टयाए पियं निवेदेमो, पियं भे भवउ' । तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हट्ठ-तुटु० जाव-धाराहयणीव० जाव-रोमकूवे तासिं अंगपडियारियाणं मउडवजं जहामालियं ओमोयं दलयति, दलयित्ता सेतं रययामयं विमलसलिलपुनं भिंगारं च गिण्हइ, गिण्हित्ता मत्थए धोवइ, मत्थए धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति, पीइदाणं दलयित्ता सकारेति सम्माणेति । २८. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेद, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, चारग० २-करेत्ता माणुम्माणवडणं करेह, मा० करेत्ता २ हथिणापुर नगरं सभितरबाहिरियं आसिय-संमजिओ-वलितं जाव-करेह कारवेह, करेत्ता य कारवेत्ता य यसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसकारं वा उस्सवेह, २ ममेतमाणत्तियं पञ्चप्पिणह' । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रना एवं वुत्ता० जाव-पञ्चप्पिणंति । तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता तं चेव जाव मजणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता उस्सुकं उक्करं उकिट्ठ अदिजं अमिजं अभडप्पवेसं अदंडकोडंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालाचराणुचरियं अणुद्धयमुइंगं अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेति । तए णं से बले राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवा वेमाणे य, सए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छेमाणे पडिच्छावमाणे एवं विहरइ । तए णं तस्स दारगस्स पुत्रजन्म बबामणी. भोगवतां सुखकारक एवा भोजन, आच्छादन, गंध अने माला वडे ते गर्भने हितकर, मित, पथ्य अने पोषणरूप छे तेवा आहारने योग्य देश भने योग्य काळे ग्रहण करती, तथा पवित्र अने कोमळ शयन अने आसनवडे एकान्तमा सुखरूप अने मनने अनुकूल एवी विहारभूमिवडे प्रशस्त दोहदवाळी, संपूर्ण दोहदवाळी, सन्मानित दोहदवाळी, जेनो दोहद तिरस्कार पाम्यो नथी एवी, दोहदरहित, दूर थयेला दोहदवाळी, तथा रोग, मोह, भय अने परित्रास रहित ते गर्भने सुखपूर्वक धारण करे छे. त्यार बाद ते प्रभावती देवीए नव मास पूर्ण थया पछी अने साडा सात दिवस वीत्या पछी सुकुमालहाथ-पगवाळा अने दोषरहित प्रतिपूर्णपंचेन्द्रिय युक्त शरीरवाळा, तथा लक्षण, व्यंजन अने गुणथी युक्त, यावत् चंद्रसमानसौम्य आकारवाळा, कांत, प्रियदर्शन अने सुंदर रूपवाळा पुत्रने जन्म आप्यो. २७. त्यार बाद ते प्रभावती देवीनी सेवा करनार दासीओए तेने प्रसव थयेलो जाणी ज्यां बल राजा छे त्यां आवी हाथ जोडी यावत् बल राजाने जय अने विजयथी वधावीने आ प्रमाणे कर्दा-'हे देवानुप्रिय! ए प्रमाणे खरेखर प्रभावती देवीनी प्रीति माटे आ (पुत्रजन्मरूप) प्रिय निवेदन करीए छीए, अने ते आपने प्रिय थाओ.' त्यार बाद ते बल राजा शरीरनी शुश्रुषा करनार दासीओ पासेथी पर वात सांभळी अवधारीने हर्षित अने संतुष्ट थइ यावद् मेघनी धाराथी सिंचायला कदंबकना पुष्पनी पेठे यावद् रोमांचित थइ ते अंगरक्षिका दासीओने मुकुट सिवाय पहरेल सर्व अलंकार आपे छे. आपीने ते राजा श्वेत रजतमय अने निर्मल पाणीथी भरेला कलशने लइ ते दासीओना मस्तक धुए छे, मस्तकने धोइने तेओने जीविकाने उचित घणुं प्रीतिदान आपी सत्कार अने सन्मान करी विसर्जित करे छे. २८. त्यार बाद ते बल राजाए कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कयु-'हे देवानुप्रिय! तमे शीघ्र हस्तिनापुर नगरमां केदीओने मुक्त करो, मुक्त करीने मान (माप) अने उन्मानने (तोलाने) वधारो; त्यार बाद हस्तिनागपुर नगरनी बहार अने अंदरना भागमा छंटकाव करो, साफ, करो, संमार्जित करो अने लीपो; तेम करी अने करावीने सहस्र यूपोनो अने सहस्र चक्रोनो पूजा, महामहिमा अने सत्कार करो, ए प्रमाणे करी मारी आ आज्ञा पाछी आपो. त्यार बाद ते बल राजाना कहेवा प्रमाणे करी ते कौटुंबिक पुरुषो तेनी आज्ञा पाछी आपे छे. त्यार पछी ते बल राजा ज्या व्यायामशाला छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने-इत्यादि पूर्ववत् कहे. यावद् स्नानगृहथी बहार नीकळी जकात रहित, कररहित, प्रधान, विक्रयनो निषेध करेलो होवाथी] आपवा योग्य वस्त रहित, मापवा योग्य मेयरहित, सुभटना प्रवेशरहित, दंड तथा कुदंडरहित, [ऋण मुक्त करेलु होवाथी ] अधरिमयुक्त-देवारहित, उत्तम गणिकाओ अने नाटकीयाओथी युक्त, अनेक तालानुचरो वडे युक्त, निरंतर वागतां मुंदगोसहित, ताजा पुष्पोनी माला युक्त, प्रमोद सहित, अने क्रीडा युक्त एवी स्थितिपतिता-पुत्रजन्ममहोत्सव पर अने देशना लोको साथे मळीने दस दिवस सधी करे छे. स्यार बाद दस दिवस सुधी स्थितिप उपवन्मोत्सव Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवंतीसूत्र. २४३ अम्मा-पियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेइ, तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेइ, छठे दिवसे जागरियं करेइ, एकारसमे दिवसे वीतिकंते निवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडार्विति, उवक्खडावेत्ता जहा सिवो जाव-खत्तिए य आमंतेति, आ० २ तओ पच्छा पहाया कय० तं चेव जाव सकारेंति सम्माणेति, २ तस्सेव मित्त-णाति-जाव-राईण य खत्तियाण य पुरओ अजय-पजय-पिउपजयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेयारूवं गोन्नं गुणनिष्फन्नं नामधेजं करेंति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रनो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स नामधेजं महब्बले,' तए णं तरस दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं करेंति 'महब्बले'त्ति। २९. ए णं से महब्बले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तंजहा-खीरधाईए, एवं जहा दढपइन्ने, जाव-निवाय-निवाघायंसि सुहंसुहेणं परिवहति । तए णं तस्स महब्बलस्स दारगरस अम्मा-पियरो अणुपुत्रेणं ठितिवडियं वा चंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परंगामणं वा पयचंकमणं वा जेमामणं वा पिंडवद्धणं वा पजपावणं वा कण्णवेहणं चा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं च उवणयणं च अन्नाणि य बहूणि गब्भाधाण-जम्मणमादियाइं कोउयाई फरेंति । ३०. तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासगं जाणित्ता सोभणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहुत्तसि० एवं जहा दृढप्पइन्नो, जाव- अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था । तए णं तं महब्वलं कुमारं उम्मुक्कबालभावं जाव-अलं भोगसमत्थं विजाणित्ता अम्मा-पियरो अटु पासायवडेंसए करेंति, अब्भुग्गय-मूसिय-पहसिए इव वन्नओ जहा रायप्पसेणइजे, जाव-पडिरूवे, तेसि गं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं भवणं करेंति अणेगखंभसयसंनिविटुं, वन्नओ जहा रायप्पसेण. इजे पेच्छाघरमंडवंसि जाव-पडिरूवे । तिता-उत्सव चालु हती त्यारे ते बल राजा सो रूपियाना, हजार रूपियाना अने लाख रूपियाना खर्चवाळा भागो, दानो अने द्रव्यना अमुक भागोने देतो अने देवरावतो तथा सो रूपियाना, हजार रूपियाना तथा लाख रूपियाना लाभने मेळवतो, मेळवावतो ए प्रमाणे रहे छे. त्यार बाद ते छोकराना मातापिता प्रथम दिवसे स्थितिपतिता–कुलनी मर्यादा प्रमाणे क्रिया करे छे; बीजे दिवसे चंद्र अने सूर्य, दर्शन पुत्र नाम पाडवू. करावे छे, छठे दिवसे धर्मजागरण करे छे अने अग्यारमो दिवस वीत्या बाद अशुचि जातकर्म करवानुं निवृत्त थया पछी बारमे दिवसे पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम पदार्थोने तैयार करावे छे, अने जेम *शिव राजा संबन्धे कह्यं तेम क्षत्रियोने आमंत्रे छे. प्यार पछी स्नान तथा बलिकर्म करी इत्यादि पूर्वोक्त यावत् सत्कार अने सन्मान करी तेज मित्र, ज्ञाति यावत् राजन्य अने क्षत्रियोनी समक्ष अर्या-पिता, पर्या-पितामह अने पिताना पण पितामहथी, घणा पुरुषोनी परंपराथी वघेलं, कुलने योग्य, कुलने उचित अने कुलरूपसंतानतंतुने वधारनार आ आवा प्रकारचें, गुणयुक्त अने गुणनिष्पन्न नाम पाडे छे. जेथी अमारो आ छोकरो बल राजानो पुत्र अने प्रभावती देवीनो आत्मज छे, माटे ते अमारा आ पुत्रनुं नाम 'महाबल' हो. त्यार बाद ते छोकराना माता पिता तेनुं 'महाबलं' एवं नाम करे छे. २९. त्यार पछी ते महाबल नामे पुत्रनुं पांच धावो वडे पालन करायु. ते पांच धावो आ प्रमाणे छे-क्षिीरधात्री, ए प्रमाणे बधुं पांच धावोवढे पुत्र दृढप्रतिज्ञनी पेठे जाणवू. यावत् ते कुमार वायुरहित अने निर्व्याघात-अडचणरहित स्थानमा अत्यंत सुखपूर्वक वृद्धि पामे छे. पछी ते महाबलना मातापिताए जन्मना दिवसथी मांडी अनुक्रमे स्थितिपतिता, सूर्यचंद्रनुं दर्शन, धर्मजागरण, नामकरण, भांखोडीया चालवू, पगे चालवू, जमाडवू, कोळीआ वधारवा, बोलाव, कान विंधाववा, वर्षगांठ करवी, चूडा-शिखा रखाववी, उपनयन-शीखवq ए बधां अने ए शिवाय बीजा घणां गर्भाधान, जन्म वगेरे कौतुको करे छे. ३०. त्यार पछी ते महाबल कुमारने तेना मातापिता आठ बरसथी अधिक उमरनो जाणी प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र अने मुहू- महावल कुमारने तमा [कलाचार्य पासे भणवा माकले छे ]-इत्यादि ए प्रमाणे बधुं । दृढप्रतिज्ञनी पेठे कहे, यावत् ते महाबल कुमार विषयोपभोगने भण समर्थ थयो. त्यार बाद ते महाबल कुमारनो बालभाव व्यतीत थयो जाणी, यावद् तेने विषयोपभोगने योग्य जाणी तेना माता पिता तेने माटे आठ श्रेष्ठ प्रासादो तैयार करावे छे, ते प्रासादो अतिशय उंचा अने [ श्वेत वर्णना होवाथी] जाणे हसता होयनी-इत्यादि वर्णनई राजप्रश्नीयसूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवू. यावत् ते प्रासादो अत्यंत सुंदर छे, ते प्रासादोना बराबर मध्यभागमा एक मोटुं भवन तैयार करावे छे, ते भवन सेंकडो थांभला उपर रहेलं छे-इत्यादि वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे प्रेक्षागृह अने मंडपना वर्णननी पेठे जाणवू, यावत् ते सुन्दर हतुं. २८ * भग. श०११ उ.९पृ० २२२. २९ पांच धावोना नामो आ प्रमाणे छे-१ क्षीरधात्री ( दूध पानारी),२ मज्जनधात्री (मान करावनारी), ३ मंडनधात्री (अलंकार पहेरावनारी), ४ क्रीडा करावनार धात्री, अने ५ अंकघात्री-खोळामां बेसाडनार. जुओ प्रतिज्ञसंबन्धे राजप्र. १४७-१,२. ३० । जुओ राजप्र०प०१४७-२. जुओ राजप्र०प०८५-२.३ प्रेक्षाग्रह मंडपर्नु वर्णन जुओ राजप्र०प०३५-१. Jain Education international Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावकनुं पाणिप्रवण. प्रीतिदान. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे शतक ११. उद्देशक ११. ३१. तप णं तं महब्बलं कुमारं अम्मा-पियरो अन्नया कया वि सोभणंसि तिहि करण - दिवस नक्खत्त-मुडुत्तंसि पदार्थ कपबलिकम्मं कयफोउय- मंगलपायच्छित्तं सवालंकारविभूसियं पमक्सणगहाण गीय- पाय पसाइण-गतिलग पं कणअविद्यववहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य घरको उय मंगलोवयारकयसंतिकम्मं सरिसयाणं सरितयाणं सरिक्षयाणं सरिसलावक्ष-रूव- जोधणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय- मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेर्हितो आणिल्लियाणं अट्टहं रायवरकनाणं पगदिवसेणं पाणि गिण्हाविंसु । २४४ ३२. तरणं तस्स महाबलरस कुमारस्स अम्मा- पियरो अयमेवारुवं पीइदाणं दलयंति से जदा अहिरनकोडीयो, तं अट्ठ सुवनकोडीओ, अट्ठ मउडे मउडप्पवरे, अट्ठ कुंडलजुए कुंडलजुयप्पवरे, अट्ठ हारे हारप्पवरे, अटू अद्धहारे अद्धहारण्य वर, अट्ठ पगावलीओ गावलिप्यवराओ एवं मुसावलीओ एवं कणगावलीओ, एवं रचणावलीओ, अट्ठ फडगजोद कडगजोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, अट्ठ खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई, एवं वडगजुयलाई, एवं पट्टजुयलाई, एवं दुगुल्लजुयलाई, अट्ट सिरीओ, अट्ठ हिरीओ, एवं धिईओ, कितीओ, बुद्धीओ, लच्छीओ, अट्ठ नंदाई, अट्ठ भद्दाई, अट्ठ तले तलप्पवरे, सङ्घरयणामप, नियगवरभवणकेऊ अड झर झयप्यपरे अ वये वयप्यवरे, दसगोसाद रिसएनं वपर्ण, अट्ट नाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसवणं नादरणं, अट्ठ आसे आसप्यवरे, सरवणामए, सिरिधरपडिरुवर, अट्ट हत्थी हरियण्यवरे, खारपणाम सिरिघरपरूिवए, अट्ट जाणाई जाणप्पवराई, अट्ठ जुगाई जुगप्पवराई, एवं सिबियाओ एवं संदमाणीओ, एवं गिल्लीओ, बिल्लीओ, अट्ट विषडजाणारं वियडजाणण्यवराई, अट्ठ रहे पारिजाणिय, भट्ट रहे संगामिए, अट्ठ आसे आसण्यवरे, भट्ट दावी इत्थिष्यवरे, अट्ट गाने गामप्यवरे, दसकुलसाइरिसपणं गामेणं, भट्ट दासे दासप्यवरे, एवं चेव दासीओ, एवं किंकरे एवं कंचुरजे, एवं वरिसधरे, एवं महत्तरए, अट्ठ सोवन्निए ओलंबणदीवे, अट्ठ रुप्पामर ओलंबणदीवे, अट्ठ सुवन्नरुप्पामए ओलंयणदीवे, अट्ट सोचनिय उपचणदीवे, अड्ड पंजरदीये, एवं चेव तिनि वि, अट्ट सोचनिय थाले, अट्ठ रूप्यमय धाले, अट्ट सुचनरूप्पम थाले, अट्ठ सोवन्नियाओ पत्तीओ ३, अट्ठ सोवन्नियाई थासयाई ३, अट्ठ सोवन्नियाई मलगाई ३, अट्ठ सोवभियाओ तलियाओ ३, अट्ठ सोवन्नियाओ कावइआओ ३, अट्ठ सोवन्निए अवण्डर ३, अट्ठ सोवन्नियाओ अवयक्काओ ३, अट्ठ सोवणि पायपीटर ३, अट्ट सोनियाओ भिखियाओं ३ अट्ट सोबधिया करोडियाओं ३, अटु सोचनिय पांके ३, ३१. स्यार पछी बीजा कोई एक दिवसे शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र अने मुहूर्तमां जेणे ज्ञान, बलिकर्म-पूजा, रक्षा आदि कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त कर्तुं छे एवा महाबल कुमारने सर्व अलंकारथी विभूषित करी अने सधवा स्त्रीओए करेला अभ्यंजनविलेपन, स्नान, गीत, वादित्र, मंडन, आठ अंगमां तिलक अने कंकण पहेरावी मंगल अने आशीर्वादपूर्वक उत्तम रक्षा वगेरे कौतुकरूप अने सरसव वगैरे मंगलरूप उपचार वडे शांतिकर्म करी, योग्य, समानत्वचावाळी, समान उमरवाळी, समान लावण्य, रूप, यौवन अने गुणोपी युक्त, विनीत, जेणे कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करेलं हे एवी, समान राजकुठची आली एवी, उत्तम, राजानी आठ श्रेष्ठ कन्याओनुं एक दिवसे पाणिग्रहण करायुं. ३२. प्यार पछी ते महाबल कुमारना माता पिता एवा प्रकारनुं आ प्रीतिदान आपे छे, ते आ प्रमाणे आठ कोटि हिरण्य, आठ कोड सोनैया, मुकुटोमा उत्तम एवा आठ मुकुट, कुंडगड उत्तम एवी आठ कुंडलनी जोडी, हारोगां उत्तम एवा आठ हार, अर्थहारमां श्रेष्ठ एवा आठ अर्धहार, एकसरा हारमा उत्तम एवा आठ एकसरा हार, एज प्रमाणे मुक्तावलीओ, कनकावलीओ अने रत्नावलीओ जाणवी; कडा युगलमां उत्तम एवा आठ कहानी जोडी, ए प्रमाणे तुडय बाजुबंधनी जोडी, रेशमी वस्त्र युगलमां उत्तम एवा आठ रेशमी बननी जोडी, ए प्रमाणे सूतराउ वस्त्रनी जोडीओमां उत्तम एवी आठ सूतराउ वस्त्रनी जोडीओ, ए प्रमाणे टसरनी जोडीओ, पट्टयुगलो, दुकूलयुगलो, आठ श्री, आठ, एप्रमाणे भी, कीर्ति, बुद्धि, अने लक्ष्मी देवीओनी प्रतिमा जागवी. आठ नंदो, आठ महो, ताडमां उत्तम एवा आठ तालवृक्ष सबै रत्नमय जाणवा. पोताना भवनना केतु - चिह्नरूप ध्वजमां उत्तम एवा आठ ध्वजो, दस हजार गायोनुं एक व्रज- गोकुल थाय छे, तेवा गोकुलमां उत्तम एवा आठ गोकुलो, नाटकोमा उत्तम अने बत्रीश माणसोथी भजवी शकाय एवा आठ नाटको, घोडाओमां उत्तम एवा आठ घोडा, आ बधुं रत्नमय जाणवु. भांडागार समान हाथीओमां उत्तम एवा आठ रत्नमय हाथीओ, भांडागार समान सर्वरत्नमय यानोमां श्रेष्ठ एवा आठ यानो, "युग्यमां उत्तम आठ युग्यो (अमुक जातना वाहनो), ए प्रमाणे शिबिका, स्यदंमानिका, ए प्रमाणे गिल्ली, ( हाथीनी उपरनी अंबाडी ), थिओ ( घोडाना आडा पलाणो ), विकट यानोमा ( उघाडा वाहनोमां ) प्रधान एवा आठ विकट यानो, आठ पारियानिक ( क्रीडाना ) रथो, संग्रामने योग्य एवा आठ रथो अधोमां उत्तम एवा आठ अथ हाथीओमा उत्तम एवा आठ हाथीओ, ग्रामोमां उत्तम एवा आठ गामो, जेमां दस हजार कुलो रहे ते एक गाम कहेवाय छे. दासोमा उत्तम एवा आठ दासो, एज प्रमाणे दासीओ, ए प्रमाणे किंकरो, ए प्रमाणे कंचुकिओ र प्रमाणे वर्षधरो, (अंतःपुरना रक्षक खोजाओ ) ए प्रमाणे महत्तरको (वडाओ ), आठ सोनाना, आठ रुपाना तथा आठ सोना - रुपाना अवलंबन ३२ * युग्य- एक जातनुं वाहन, जेने गोलदेशमां जम्पान कहे छे- टीका. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११. - उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४५ - अट्ठ सोवन्नियाओ पडिसेजाओ ३, अट्ठ हंसासणाई, अट्ठ कोंचासणारं, एवं गरुलासणाई, उन्नयासणारं, पणयासणाई, दीहासणाई, महासणारं, पफ्लासणाई, मगरासणारं, अड्ड पडमासणाई, भट्ट दिसासोबत्थियासणाई, बठ्ठ तेहसमुग्गे, जहा रावप्यसेण, जाय अट्ट सरिसचसमुग्गे, अट्ट खुजाबो, जहा उच्चाइए, जाव अट्ट पारिसीओ, अट्ठ छत्ते, अट्ठ उत्तधारिओ बेडीओ, अट्ट चामराओ, घट्ट चामरधारीओ चेडीओ, बटु तालियंटे, अड्ड तालिवंटधारीत्रो बेडीओ, अट्ठ करोडियाधारीओ बेडीओ, जह खीरघातीओ, जाव- अट्ठ अंकधातीओ, अट्ठ अंगमद्दियाओ, अट्ठ उम्मदियाओ, अट्ठ ण्हावियाओ, अट्ठ पसाहियाओ, अष्टु धनपेसीओ, अट्ट चुनगपेसीओ, अट्ठ कोडागारीओ अट्ठ दवकारीओ अट्ठ उवत्याणियाज, अद्रु नाडरखाओ, अड्डु कोहुंचिणीओ, अट्ट महाणसिणीओ, भट्ट भंडागारिणीओ अ अन्झाधारिणीओ, अट्ठ पुष्कधरणीओ, अट्ठ पाणिघरणीओ, ब बलिकारीओ, अट्ठ अट्ठ सेज्जाकारीओ, अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ अट्ठ बाहिरियाओ पडिहारीओ अट्ठ मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकाओ, अन्नं वा सुबहुं हिरन्नं वा सुवन्नं वा कंसं वा दूसं वा विउलघण-कणग० जाव-संतसारसावएजं, अलाहि जाब आससमाज कुसाओ पकामं दार्ड, पकामं भोतुं पकामं परिभाषडं तर गं से महत्वले कुमारे एगमेगाए भजाए एगमेगं हिरनकोडिं दयति, एगमेगं सुचनकोर्डि इलयति, एगमेगं मउ उडप्पवरं दृलयति एवं तं चैव सर्व जाय एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं वा सुबहुं हिरन्नं वा जाव - परिभाएउं । तए णं से महब्बले कुमरे उप्पि पासायवरगए जहा जमाली जाव-विहरति । , ३३. तेणं कालेणं तेणं समरणं विमलस्स अरहओ पओप्पर धम्मयोसे नामं अणगारे जाइसंपन्ने, वनभो जहा केसिसामिस्स, जाय पंचहि अणगारसहिं सद्धि संपरिवुडे पुचाणुपुधिं चरमाणे गामाणुन्गामं दृतिखमाणे जेणेव हत्यिणागपुरे दीपो ( हांडीओ ), आठ सोनाना, आठ रुपाना अने आठ सोना - रुपाना उत्कंचनदीपो ( दंडयुक्त दीवाओ ), ए प्रमाणे त्रणे जातना पंजरदीपो-फानसो, आठ सोनाना, आठ रुपाना अने आठ सोना-रुपाना थाळी, आठ सोनानी, आठ रुपानी अने आठ सोना-रुपानी पात्रीओ, ( नाना पात्रो ), ए प्रमाणे त्रणे जातना आठ स्थासको तासको, आठ मल्लको चपणीया, आठ तलिका - रकेबीओ, आठ कलाचिका - चमचा, आठ तावेयाओ, आठ तवीओ, आठ पादपीठ - ( पण मूकवाना बाज़ोठ), आठ मिसिका ( अमुक प्रकारना आसनो), आठ करोटिका (अमुक जाताना पात्रो, छोटा अथवा कचोला), आठ पलंग, आठ प्रतिशष्या (टोपणी प्रमुख नानी बीजी शय्याओ), आठ हंसासनो, आठ क्रींचासनो, एप्रमाणे गरुडासनो, उंचा आसनो, नीचा आसनो, दीर्घासनो, भद्रासनो, पक्षासनो, मकरासनो, आठ पद्मासनो, आठ दिवस्वस्तिकासनो, आठ तेलना डाबडा - इत्यादि बधुं * राजप्रश्नीय सूत्रमां कह्या प्रमाणे कहेतुं, यावद् आठ सरसवना डाबडा, आठ कुब्ज दासीओ - इत्यादि बधुं औपपातिक सूत्रमां का प्रमाणे कहेनुं यावत् आठ पारसिक देशनी दासीओ; आठ छत्रो, आठ छत्र धरनारी दासीओ, आठ चामरो, आठ चामर वरनारी दासीओ, आठ पंखा, आठ पंखा वींजनारी दासीओ, आठ करोटिका - तांबूलना करंडिया ने धारण करनारी दासीओ, आठ क्षीरधात्रीओ (दूध पानारी धावो), यावद् आठ अंकधात्रीओ (खोव्यमां रमाडनारी पावो) आठ अंगमर्दिकाओ, शरीरनुं अल्प मर्दन करनारी दासीओ, आठ उन्मर्दिकाओ ( अधिक मर्दन करनारी दासीओ), आठ स्नान करायनारी दासीओ, आठ अलंकार पहेरायनारीओ आठ चंदन पसनारीओ, आठ तांबूल चूर्ण पीसनारीओ, आठ कोष्ठागारनुं रक्षण करनारी, आठ परिहास करनारी, आठ सभामां पासे रहेनारी, आठ नाटक करनारीओ, आठ कौटुंबिफीओ साचे जनारी दासीओ, आठ रसोइ करनारी, आठ मांडागारनुं रक्षण करनारी, आठ मारणो, आठ पुष्प धारण करनारी, आठ पाणी लावनारी, आठ बलि करनारी, आठ पथारी तैयार करनारी, आठ अंदरनी अने आठ बहारनी प्रतिहारीओ, आठ माला करनारीओ, आठ पेषण करनारी, अने ए शिव बीडं धणुं हिरण्य, सुवर्ण, कांसुं, वन तथा विपुल धन, क्लक, यावत् विद्यमान सारभूत धन आप्णुं, से सात पेढीसुधी इच्छापूर्वक आपया अने भोगक्याने परिपूर्ण हतुं प्यार बाद ते महावल कुमार दरेक श्रीने एक एक हिरण्यकोटि, एक एक सुवर्णकोटि अने मुकुटोमां उत्तम एक एक मुकुट आपे छे. ए प्रमाणे पूर्वोक्त सर्व वस्तुओ एक एक आपे छे, यावत् एक एक पेषण करनारी दासी तथा बीजुं पण घणुं हिरण्य यावद् वहेंची आपे छे. त्यार पछी ते महाबल कुमार उत्तम प्रासादमां उपर बेसी /जमालिनी पेठे याय मिले. , आगमन. २३. ते काले ते समये विमलनाथ तीर्थंकरना प्रपौत्र-प्रशिष्य धर्मघोष नामे अनगार दता, ते जातिसंपन्न हता इत्यादि वर्णन भा केशी खामीनी पेठे जाणवं यावत् तेओ पांचसो साधुना परिवारनी साधे अनुक्रमे एक गामथी बीजे गाम विहार करता, ज्यां हस्तिनागपुर नामे नगर छे, अने ज्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान छे त्यां आवे छे, आवीने यथा योग्य अवग्रहने ग्रहण करी संयम अने तपवडे आत्माने ३२ * जुओ राजप्रश्नीय प० ६८- १ + जुओ ओपपा० प० ७६-२ जमालिनुं वर्णन जुओ भग० खं० ३० ९४०३३ १० १६६. ३३१ जुओ राजप्र० प० ११८ - १. / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक ११. नगरे, जेणेव सहसंबवणे उजाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिना अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति, ओगिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए णं हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय० जाव-परिसा पजवासा । ३४. तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महयाजणसदं वा जणवूहं वा एवं जहा जमाली तहेव चिंता, तहेव कचुइजपुरिसं सहावेति, कंचुइजपुरिसो वि तहेव अक्खाति, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल. जाव-निग्गच्छइ । एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे, सेसं तं चेव, जाव-सो वि तहेव रहवरेणं निग्गच्छति । धम्मकहा जहा केसिसामिस्स । सो वि तहेव अम्मा-पियरो आपुच्छइ, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पावइत्तए, तहेव वुत्तपडिवुत्तया, नवरं इमाओ य ते जाया! विउलरायकुलबालियाओ कला०, सेसं तं चेव जाव-ताहे अकामाई चेव महब्बलकुमारं एवं वयासी-'तं इच्छामो ते जाया! एगदिवसमवि रजसिरिं पासित्तए'। तए णं से महब्बले कुमारे अम्मा-पियराण वयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिति । तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियचो, जाव-अभिसिंचति । करयलपरिग्गहियं महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं वद्धावित्ता जाव-एवं वयासी-भण जाया! किं देमो, किं पयच्छामो', सेसं जहा जमालिस्स तहेव, जाव-तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइयाई चोइस पुवाई अहिजति, अहिजिता बहूहि चउत्थ० जाव-विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुन्नाई दुवालस वासाई सामनपरियागं पाउणति, बहु० २-णित्ता मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताइं अणसणाए. आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उर्ल्ड चंदम-सूरिय० जहा अम्मडो, जाव बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्यंगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता, तत्थ णं महब्बलस्स वि दस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता । से णं तुमं सुदंसणा! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाइं दिवाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्ता ताओ चेव देवलोगाओ आउक्खएणं ३ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्रिकुलंसि पुत्तत्ताए पश्चायाए । भावित करता यावद् विहरे छे. ते समये हस्तिनागपुर नगरमां शृंगाटक, त्रिक-[ वगेरे मार्गोमां घणा माणसो परस्पर एम कहे छे इत्यादि] यावत् परिषद् उपासना करे छे. ३४. त्यार बाद ते महाबल कुमार घणा माणसोना शब्दने, जनना कोलाहलने सांभळी ए प्रमाणे यावत् *जमालिनी पेठे जाणवू, यावत् ते महाबल कुमार कंचुकी पुरुषने बोलावे छे, अने कंचुकी पुरुष पण तेज प्रमाणे कहे छे, परन्तु एटलो विशेष छे के ते कंचुकी धर्मघोष मुनिना आगमननो निश्चय जाणीने हाथ जोडीने यावद् नीकळे छे. ए प्रमाणे हे देवानुप्रिय! विमलनाथ अरिहंतना प्रशिष्य धर्मघोष नामे अनगार अहीं आव्या छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे जाणवू, यावत् ते महाबल कुमार पण उत्तम रथमां बेसीने वांदवा नीकळे छे. धर्मकथा किशिमहावल कुमार स्वामिनी पेठे जाणवी. महाबल कुमार पण ते प्रमाणे मातापितानी रजा मागे छे, परन्तु ते 'धर्मघोष अनगारनी पासे दीक्षा लइ अगारथी-गृहवंदन करवा माटे वासथकी अनगारिकपणुं लेवाने इच्छु छु' एम कहे छे-इत्यादि उक्ति अने प्रत्युक्ति ति प्रमाणे (जमालिना चरितमां वर्णव्या प्रमाणे) जाणवी. जबुं.दीक्षा लेवानी रजा मागवी. " परन्तु हे पुत्र ! [आ तारी स्त्रीओ] विपुल एवा राजकुलमा उत्पन्न थयेली बालाओ छे, वळी ते कलाओमां कुशल छे-इत्यादि बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. यावत् मातापिताए इच्छा विना ते महाबल कुमारने आ प्रमाणे कद्यु-'हे पुत्र ! एक दिवस पण तारी राज्यलक्ष्मीने जोवा अमे इच्छी एछीए,' त्यारे ते महाबल कुमार मातापिताना वचनने अनुसरीने चूप रह्यो. पछी ते बल राजाए कौटुंबिक पुरुषोने बोलाव्या-इत्यादि शिवभद्रनी महाबल कुमारने राज्याभिषेक भने पेठे राज्याभिषेक जाणवो, यावत् राज्याभिषेक कर्यो, अने हाथ जोडीने महाबल कुमारने जय अने विजयवडे वधावी यावद् आ प्रमाणे कयुदीक्षा. हे पुत्र! कहे के तने शुं दइए, तने शुं आपीए,' इत्यादि बाकी- बधुं गजमालिनी पेठे जाणवू; यावत् त्यार पछी ते महाबल अनगार धर्मघोष • अनगारनी पासे सामायिकादि चउद पूर्वोने भणे छे, भणीने धणा चतुर्थ भक्त, यावद् विचित्र तपकर्मवडे आत्माने भावित करीने संपूर्ण बार प्रमदेवलोका सप- वर्ष श्रमण पर्यायने पाळे छे, पाळीने मासिक संलेखनावडे निराहारपणे साठ भक्तोने वीतावी, आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त मई मने त्यांची थइ मरण समये काल करी ऊर्ध्व लोकमां चंद्र अने सूर्यनी उपर बहु दूर अंबडनी पेठे यावत् ब्रह्मलोक कल्पमा देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां व्यनी सुदर्शन मेष्ठीपये उपज. केटलाक देवोनी स्थिति दस सागरोपमनी कहेली छे. तेमां महाबल देवनी पण दस सागरोपमनी स्थिति कहेली छे. हे सुदर्शन ! तुं ते ब्रह्मलोक कल्पमा दस सागरोपम सुधी दिव्य अने भोग्य एवा भोगोने भोगवी ते देवलोकथी आयुषनो, भवनो अने स्थितिनो क्षय थया पछी तुरतज च्यवी अहीज वाणिज्यग्राम नामना नगरमां श्रेष्टिना कुलमा पुत्रपणे उत्पन्न थयो छे. ३४ *जुओ भग० खं०३ श. ९ उ० ३३ पृ. १६६. जुओ राजप्र. प. १२०-१. 1 जुओ भग• खं०३ श. ९० ३३ पृ. १६९-१७२. जुओ भग० ख० ३श.११.१ पृ. २२२. भिग० ख० ३ श. ९उ० ३३ पृ. १७३. जुओ औषपा० अंबडाधिकार प०१७-२. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक ११. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४७ ३५. तए णं तुमे सुदंसणा! उम्मुक्कबालभावेणं विनायपरिणयमेत्तेणं जोधणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेऽवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए; तं सुटु णं तुमं सुदंसणा! इदाणि पकरेसि । से तेणट्रेणं सुदंसणा! एवं वुच्चइ-अस्थि गं एतेसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खयेति वा अवचयेति वा । तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्टिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढें सोचा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्नीपुश्वजातीसरणे समुप्पन्ने, एयमटुं सम्मं अभिसमेति । तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुवभवे दुगुणाणीयसहसंवेगे आणंदसुपुन्ननयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, आ०२-रेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुझे वदह'त्ति कट्ट उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमइ, सेसं जहा उसमदत्तस्स, जाव-सवदुक्खप्पहीणे; नवरं चोद्दस पुताई अहिजइ, बहुपडिपुन्नाई दुवालस वासाई सामनपरियागं पाउणह, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । महब्बलो समत्तो। एक्कारसमे सए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो । . ३५. त्यार बाद हे सुदर्शन ! बालपणाने वीतावी विज्ञ अने मोटो थइ, यौवनने प्राप्त थइ तें तेवा प्रकारना स्थविरोनी पासे केवलिए कहेलो धर्म सांभळ्यो, अने ते धर्म पण तने इच्छित अने स्वीकृत थयो, तथा तेना उपर तने अभिरुचि थइ. हे सुदर्शन ! हाल तुं जे करे छे ते सारं करे छे. ते माटे हे सुदर्शन ! एम कहेवाय छे के ए पल्योपम अने सागरोपमनो क्षय अने अपचय थाय छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी ते सुदर्शन शेठने शुभ अध्यवसायवंडे, शुभ परिणामवडे अने विशुद्ध लेश्याओथी तदावरणीय र्मोनो क्षयोपशम थवाथी ईहा, अपोह, मार्गणा अने गवेषणा करतां संज्ञिरूप पूर्व जन्मनु स्मरण उत्पन्न थयु, अने तेथी भगवंते कहेला आ अर्थने सारी रीते जाणे छे. त्यार बाद ते सुदर्शन शेठने श्रमण भगवंत महावीरे पूर्वभव संभारेलो होवाथी बेवडी श्रद्धा अने संवेग उत्पन्न थयो, तेनां लोचन आनंदाश्रुथी परिपूर्ण थया, अने तेणे श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार आदक्षिण प्रदक्षिणा करी, वांदी अने नमीने आ प्रमाणे कह्यु-'हे भगवन् ! तमे जे कहो छो ते एज प्रमाणे छे-यावत् एम कही ते सुदर्शन शेठ उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा तरफ गया. बाकी बधुं ऋषभदत्तनी पेठे जाणवं, यावत् ते सुदर्शन शेठ सर्व दुःखथी रहित थया. परन्तु विशेष ए छे के ते पूरां चौद पूर्वो भणे छे, अने संपूर्ण बार वरस सुधी श्रमणपर्यायने पाळे छे. बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे–एम कही यावद विहरे छे. सुदर्शन शेठने चातिस्मरण सुदर्शन शेठनी प्रया. एकादश शते महाबल नाम एकादश उद्देशक समाप्त. १५ जुलो भगा. . ३ ४०.१ ७० ३.४० १५. ३५* जुओ भग• खं० ३.१ उ०३२ पृ. १६५. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो उद्देसो। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था । वन्नओ। संखवणे चेइए । वन्नओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभइपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति, अड्डा, जाव-अपरिभूया, अभिगयजीवा-जीवा जाव-विहरंति । तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कया वि एगयओ सहियाणं समुवागयाणं संनिविट्ठाणं सनिसन्नाणं अयमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था-देवलोगेसु णं अजो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? तए णं से इसिभहपुत्ते समणोवासए देवढ़ितीगहियढे ते समणोवासए एवं वयासी-देवलोएसु णं अजो! देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव-दससमयाहिया, संखेज़समयाहिया, असंखेजसमयाहिया, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता । तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । तए णं ते समणोवासया इसिभद्दपुत्तस्स समणोवासगस्स एचमाइक्खमाणस्स जाव-एवं परूवेमाणस्स एयमटुं नो सद्दहंति, नो पत्तियंति, नो रोयंति, एयमटुं असद्दहमाणा अपत्तियमाणा, अरोपमाणा जामेव दिसं.पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव-समोसदे, जाव-परिसा पजवासह । तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्ट-तुट्ठा एवं जहा तुंगिउद्देसए जाव पज्जवासंति । तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा, जाव-आणाए आराहप भवइ । बारमो उद्देशक. भाळमिका नगरी. १. ते काले-ते समये आलभिका नामे नगरी हती. वर्णन. शंखवन नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते आलभिका नगरीमा ऋषिभद्रपुत्र प्रमुख शंखवन चैत्य. घणा श्रमणोपासको-श्रावको रहेता हता. तेओ धनिक यावद् कोइथी पराभव न पामे तेवा अने जीवा-जीव तत्त्वने जाणनारा हता. त्यार ऋषिभद्रप्रमुख 'अमणोपासको. बाद बीजा कोइ एक दिवसे एकत्र मळेला, आवेला, एकठा थयेला अने बेठेला ते श्रमणोपासकोनो आ आवा प्रकारनो वार्तालाप थयो-है अमणोपासकोनो आर्य! देवलोकमां देवोनी केटला काल सुधी स्थितिं कही छे ? त्यार बाद देवस्थिति संबन्धे सत्य हकीकत जाणनार ऋषिभद्रपुत्रे ते श्रमवार्तालाप. देवलोकमां देवोनी णोपासकोने आ प्रमाणे कडुं–'हे आर्य ! देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी कही छे, त्यार पछी एकसमय अधिक, बे स्थिति. जघन्यस्थिति. ___ समय अधिक, यावद् दश समय अधिक, संख्यात समयाधिक, अने असंख्य समयाधिक करतां उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. उत्कृष्टस्थिति. त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे (अर्थात् तेनाथी उपरनी स्थितिना देवो अने देवलोको नथी.) त्यार पछी ए प्रमाणे कहेतां, यावत् एम प्ररूपणा करता ते श्रमणोपासको ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासकना आ अर्थनी श्रद्धा करता नथी, प्रतीति करता नथी अने रुचि करता नथी. ए अर्थनी श्रद्धा, प्रतीति अने रुचि नहि करता तेओ जे दिशाथी आव्या हता तेज दिशा तरफ पाछा गया. २. ते काले-ते समये श्रमण भगवंत महावीर यावत् समवसर्या, यावत् परिषद तेमनी उपासना करे छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको [श्री महावीर स्वामी आव्यानी] आ वात सांभळी, हर्षित अने संतुष्ट थया-इत्यादि *तुंगिक उद्देशकनी पेठे जाणवं, यावत् तेओ पर्युपासना करे छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने तथा अत्यन्त मोटी ते पर्षदने धर्मकथा कही. यावत् तेओ आज्ञाना आराधक थया. २* भग० ख०१ श.२ उ०५पृ. २७८. Jain Education international Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४९ ३. तए गं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ट-तुट्टा उट्ठाए उट्टेइ, उ. २-त्ता समणं भगवं महावीरं चंदन्ति, नमंसन्ति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-[प्र०] एवं खलु भंते ! इसिभहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ, जाव-परूवेइ-देवलोएसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पन्नता, तेण परं समयाहिया, जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, से कहमेयं भंते ! एवं ? [उ.] 'अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-जन्नं अजो! "इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवं आइक्खड़, जाव-परुवेइ-देवलोगेसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया, जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगाय," सच्चे गं एसमटे, अहं पुण अजो! एवमाइक्खामि, जाव-परूवेमि-'देवलोगेसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई तं चेव जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य,' सच्चे णं एसमटे । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदन्ति नमंसन्ति; वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति नमसंति, वंदित्ता, नमंसित्ता एयमटुं सम्म विणपणं भुजो २ खामेति । तए णं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, प० २-च्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, अ० २-इत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वं० २-त्ता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया। ४. [प्र०] 'भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वं० २-त्ता एवं वयासी-पभू णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पच्चइत्तए ? [उ०] गोयमा! णो तिणढे, समटे । गोयमा ! इसिभइपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलच्चय-गुणवय-वेरमण-पञ्चमखाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाणिहिति, व०२-णित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, मा०२-सेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति, २ आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिति । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ पं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती भविस्सति । ५. [प्र०] से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे तातो देवलोगाओ आउक्खएणं भव० ठिइक्खएणं जाव-कहिं उववजिहिति ? देवोनी खिति. ३. त्यार पछी ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी, हर्षित अने संतुष्ट थया, अने प्रयत्नथी उभा थइ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमीने आ प्रमाणे कह्यु-'हे भगवन् ! ए प्रमाणे खरेखर ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक अमने ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, हे आर्य! देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी कही छे, अने ते पछी समयाधिक यावद् उत्कृष्ट स्थिति [ तेत्रीश सागरोपमनी कही छे ], अने पछी देवो अने देवलोक व्युच्छिन्न थाय छे, तो हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे केवीरीते होय ? उ०] 'हे आर्यो ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कह्यु-'हे आर्यो ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक जे तमने आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, देवलोकोमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी छे, अने ते पछी समयाधिक करताइत्यादि कहे, यावत् त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे. ए वात साची छे. हे आर्यो ! हुं पण एज प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपुंछ के देवलोकमां देवोनी स्थिति जघन्य दस हजार वर्षनी छे-इत्यादि पूर्वोक्त कहेवं, यावत् त्यार बाद देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे, ए अर्थ सत्य छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी ए वात सांभळी अने अवधारी श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी ज्यां ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे, आवीने ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासकने वांदी तथा नमी ए अर्थने (सत्य वातने न मानवारूप अपराधने ) सारी रीते विनयपूर्वक वारंवार खमावे छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको तेने प्रश्नो पूछे छे, अने पूछी अर्थने ग्रहण करे छे, ग्रहण करी श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी जे दिशाथकी आव्या हता, पाछा तेज दिशा तरफ गया. ४. [प्र०] 'हे भगवन् ! ए प्रमाणे कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमस्कार करी आ प्रमाणे कडं-'हे कपिभद्रपुत्र अनगारिकपणाने भगवन् ! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र आप देवानुप्रियनी पासे दीक्षा लइ गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने लेवाने समर्थ छे[उ०] लेखाने समय हे गौतम ! आ अर्थ यथार्थ नथी; पण हे गौतम ! श्रमणोपासक ऋपिभद्रपुत्र घणा शीलव्रत, गुणवत, विरमणबत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासो वडे तथा यथायोग्य स्वीकारेल तपकर्म वडे आत्माने भावित करतो घणां वरसो सुधी श्रमणोपासकपर्यायने पाळी, मासिक संलेखनावडे आत्माने सेवी, साठ भक्तो निराहारपणे वीतावी आलोचन अने प्रतिक्रमण करी, समाधिने प्राप्त थइ मरण समये काल करी सौधर्मकल्पमा अरुणाभ नामे विमानमां देवपणे उत्पन्न थशे. त्यां केटलाक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे तेमां ऋपिभद्रपुत्र देवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति हशे. ऋषिभद्रपुत्र ५. [प्र०] हे भगवन् ! पछी ते ऋषिभद्रपुत्र देव ते देवलोकधी आयुपनो क्षय थया पछी, भवनो क्षय थया पछी, अने स्थितिनो देवलोकथी च्यवी ३२ भ. सू. क्या जो . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक १२. [उ.] गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव-अंतं काहेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं मावेमाणे विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे अप्रया कया वि आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिषत्रमह. पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरद । ६. [प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था । वन्नओ। तत्थ णं संखवणे णामं चेहए होत्था । वन्नओ । तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिवायए परिवसति, रिउवेद-जजुष्वेद० जाव-नएसु सुपरिनिट्रिए छट्रं-छट्रेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ० जाव-आयावेमाणे विहरति । तए णं तस्स पोग्गलस्स छटुं-छट्टेणं जाव-आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जहा सिवस्स जाव-विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पन्ने । सेणं तेणं विभंगेणं नाणेणं समुप्पनेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठितिं जाणति पासति । तए णं तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-'अत्थि णं ममं अइसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तण परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव-असंखेजसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य'-एवं संपेहेति, एवं संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहह, आ० २-हित्ता तिदंडकुंडिया जाव-धाउरत्ताओ य गेहइ, गेहेत्ता जेणेव आलंभिया णगरी, जेणेव परिवायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेति, भं० २-रेत्ता आलंभियाए नगरीए सिंघाडग० जाव-पहेसु अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव-परुवेइ-'अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई, तहेव जाव-वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । तए णं आलंभियाए नगरीए एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स, तं चेव जाव से कहमेयं मन्ने एवं ? सामी समोसढे, जावपरिसा पडिगया। भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहुजणसहं निसामेइ, तहेव. २-त्ता तहेव सवं भाणियचं, जाव-अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, एवं भासामि, जाव परूवेमि-'देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव-उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। ७. [प्र०] अत्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दवाई सवन्नाई पि अवन्नाई पि ? [उ०] तहेव जाब-हंता अत्थि, एवं ईसाणे क्षय थया बाद यावत् क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमा सिद्धिपद पामशे, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त-नाश करशे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एम कही भगवान् गौतम यावत् आत्माने भावित करता विहरे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे आलभिका नगरीथी अने शंखवन नामे चैत्यथी नीकळी बहारना देशोमां विचरे छे. ६. [प्र०] ते काले-ते समये आलभिका नामे नगरी हती. वर्णन. त्यां शंखवन नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते शंखवन चैत्यनी थोडे दूर पुद्गल नामे परिव्राजक रहेतो हतो. ते ऋग्वेद, यजुर्वेद अने यावत् बीजा ब्राह्मण संबन्धी नयोमा कुशल हतो. ते निरंतर छट्ठ छट्ठनो तप करवापूर्वक उंचा हाथ राखीने यावत् आतापना लेतो हतो. त्यार बाद ते पुद्गल परिव्राजकने निरन्तर छ? छट्ठना तप करवापूर्वक यावद् आतापना लेता प्रकृतिनी सरलताथी *शिव परिव्राजकनी पेठे यावद् विभंग नामे अज्ञान उत्पन्न थयु, अने ते उत्पन्न थयेला विभंगज्ञानवडे ब्रह्मलोक कल्पमा रहेला देवोनी स्थिति जाणे छे अने जुए छे. पछी ते पुद्गल परिव्राजकने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावद् उत्पन्न थयो'भने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयु छे, देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी छे, अने पछी एक समय अधिक, बे समय अधिक, यावद् असंख्य समय अधिक करतां उत्कृष्टथी दस सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे'-एम विचार करे छे, विचारीने आतापनाभूमिथी नीचे उतरी त्रिदंड, कुंडिका, यावद् भगवां वस्त्रोने ग्रहण करी ज्यां आलभिका नगरी छे, अने ज्यां तापसेना आश्रमो छे त्यां आवे छे, आवीने पोताना उपकरणो मूकी आलभिका नगरीमां शृंगाटक, त्रिक, यावद् बीजा मार्गोमां एक बीजाने ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे-'हे देवानुप्रिय! मने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयु छे, अने देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी छे'–इत्यादि पूर्वोक्त कहे, त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे.' त्यार बाद 'आलभिका नगरीमां'-ए अभिलापथी जेम शिव राजर्षि माटे पूर्वे कयुं [ श० ११ उ० ९ सू० ८] तेम अहीं कहे, यावद् ए प्रमाणे केवी रीते होय ! हवे महावीर स्वामी समवसर्या अने यावत् परिषद् वांदीने विसर्जित थइ. भगवान् गौतम तेज प्रमाणे भिक्षाचर्या माटे नीकळ्या अने तेओ घणा माणसोनो शब्द सांभळे छे–इत्यादि बधुं पूर्ववत् कहेवू, यावद् हे गौतम ! हुं पण ए प्रमाणे कहुं छु, बोलं छु, यावत् प्ररूपं छु के देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी कही छे, अने त्यार पछी एक समयाधिक, द्विसमयाधिक यावद् उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम स्थिति कही छे, अने त्यार बाद देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्मकल्पमा वर्णसहित अने वर्णरहित द्रव्यो छे?-इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! हा, छे. ए प्रमाणे सिद्धिपद पामशे. .५. • जुओ भग० सं०३ श०११ ३०९ पृ. २२४. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११.-उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५१ वि, एवं जाव अच्चए, एवं गेवेजविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपम्भाराए वि जाव-हंता अत्थि । तए णं सां महतिमहालिया जाव-पडिगया। ८. तए णं आलंभियाए नगरीए सिंघाडग-तिय अवसेसं जहा सिवस्स, जाव-सबदुक्खप्पहीणे, नवरं तिदंड-कुंडियं जाव-धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवडियविन्भंगे आलंभियं नगरं मझं-मज्झेणं निग्गच्छति, जाव-उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमति, अवक्कमित्ता तिदंडकुंडियं च जहा खंदओ, जाव पवइओ सेसं जहा सिवस्स, जाव-"अवाबाहं सोक्खं अणुभवंति सासयं सिद्धा"। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। दुवालसमो उद्देसो समत्तो। समत्तं एगारसमं सयं । तुति यावद् ईशान देवलोकमां पण जाणवू. ते प्रमाणे यावद् अच्युतमां, अवेयकविमानमां, अनुत्तरविमानमां अने ईषत्पागभारा पृथिवीमा (सिद्धशिलामां) पण वर्णसहित अने वर्णरहित द्रव्यो छे. त्यार बाद ते अत्यन्त मोटी परिषद् यावद् विसर्जित थई... ८. पछी आलभिका नगरीमा शंगाटक, त्रिक वगेरे मार्गोमा घणा माणसोने एम कहे छे इत्यादि *शिव राजर्षिनी पेठे कहे, यावत् ते सर्व दुःखथी रहित थया. परन्तु विशेष ए छे के, त्रिदंड, कुंडिका यावद् गेरुथी रंगेला वस्रने पहेरी विभंगज्ञान रहित थयेलो ते पुद्गल परिव्राजक आलभिका नगरीनी बच्चे थईने नीकळे छे. नीकळीने यावद् उत्तरपूर्व (ईशान ) दिशा तरफ जइ स्किंदकनी पेठे ते पुद्गल परिव्राजक त्रिदंड, कुंडिका यावद् मूकी प्रव्रजित थाय छे. बाकी बधुं शिवराजर्षिनी पेठे यावद् 'सिद्धो अन्याबाध अने शाश्वत सुखने अनुभवे छे' त्यांसुधी जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'–एम कही यावद् भगवान् गौतम विहरे छे. एकादश शते द्वादश उद्देशक समाप्त. एकादश शतक समाप्त. ८.* भग० ख०३ श०११३०९पृ० २२४. भिग• खं०१२०१ उ०१पृ. २३३. . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुवालसमं सयं। १ संखे २ जयंति ३ पुढवि ४ पोग्गल ५ अइवाय ६ राहु ७ लोगे य । ८ नागे य ९ देव १० आया बारसमसए दसुद्देसा ॥१॥ पढमो उद्देसो। १.तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम नगरी होत्था, वन्नओ। कोट्ठए चेहए, वन्नओ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति, अड्डा, जाप-अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरति । तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था, सुकुमाल जाव-सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवा-जीवा जाव-विहय। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नाम समणोवासएपरिवसइ, अड्डे, अभिगय जाव-विहरह। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी .समोसढे । परिसा निग्गया, · जाव-पजुवासइ । तए णं ते समणोवासगा इमीसे कहाए जहा आलंभियाए जाव-पजुवासंति। तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा, जाव-परिसा पडिगया । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीररस अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ट० समणं भगवं महावीरं वंदंति, नमसंति, वंदित्ता बारमुं शतक. [ उद्देशक संग्रह-] १ शंख, २ जयंती, ३ पृथिवी, ४ पुद्गल, ५ अतिपात, ६ राहु, ७ लोक, ८ नाग, ९ देव अने १० आत्मा-ए विषयो संबन्धे दश उद्देशको बारमा शतकमां कहेवामां आवशे. प्रथम उद्देशक. श्रावस्ती नगरी. १. ते काले, ते समये श्रावस्ती नामनी नगरी हती. वर्णन. कोष्ठक नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते श्रावस्ती नगरीमा शंखप्रमुख घणा शखप्रमुख श्रमणा श्रमणोपासको रहेता हता. तेओ धनिक यावद् अपरिभूत-कोइथी पराभव न पामे तेवा अने जीवाजीव तत्त्वने जाणनारा हता. ते शंख पासको. शंखने उत्पला की नामना श्रमणोपासकने उत्पला नामे स्त्री हती, ते सुकुमाल हाथपगवाळी, यावत् सुरूपा अने जीवाजीव तत्त्वने जाणनारी श्रमणोपासिका हती. अकलिलामणो. यावद् विहरती हती. ते श्रावस्ती नगरीमा पुष्कली नामे श्रमणोपासक रहेतो हतो, ते धनिक अने जीवाजीव तत्त्वनो ज्ञाता हतो. ते काले, पासक ते समये त्यां महावीर खामी समवसर्या, परिषद् वांदवाने नीकळी, यावत् ते पर्युपासना करे छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको भगवंत आ व्यानी आ वात सांभळी *आलभिका नगरीना श्रावकोनी पेठे यावत् पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने तथा ते अत्यंत मोटी सभाने धर्मकथा कही, यावत् सभा पाछी गई. पछी ते श्रमणोपासकोए श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्म सांभळी, अवधारी हर्षित अने संतुष्ट थई श्रमण भगवंत महावीरने वांद्या अने नमन कयु, वांदीने, नमीने प्रश्नो पूल्या, प्रश्नो पूछीने तेना १*जुओ भग० ख० ३२० ११ उ० १२ पृ. २४८. Jain Education international Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५३ नमंसित्ता पासिणाई पुच्छंति प०२-च्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, अ०२-यित्ता उट्टाए उट्टेति, उ०२-त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । २. तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी-'तुझे णं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडावेह, तए णं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयम, विणएणं पडिसुणेति । तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-'नो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव-साइमं आसाएमाणस्स ४ पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खल मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवन्नस्स ववगयमाला-वन्नग-विलेवणस्स निक्खित्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दन्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए'त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेत्ता जेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव सप गिहे, जेणेव उप्पला समणोवासिया, तेणेव उवागच्छइ,ते०२-च्छित्ता उप्पलं समणोवासियं आपुच्छर, आपुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, ते०२-च्छित्ता पोसहसालं अणुपविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पमजाइ, पो. २-जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, उ० २-हित्ता दब्भसंथारगं संथरति, दम्भ० २-रिता दम्भसंथारगं दुरूहह. द०२ दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव-पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरति । ३. तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साई २ गिहाई,तेणेव उवागच्छंति, ते २-च्छित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता अन्नमन्नं सहावेंति, अ०२-वेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हहिं से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविए, संख्ने य णं समणोवासए नो हवमागच्छद, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अहं संखं समणोवासगं सहावेत्तए। ४. तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी-'अच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया! सुनिव्वुया वीसत्था. अहन्नं संखं समणोवासगं सद्दावेमित्ति कट्ट तेसि समणोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता सावत्थीए नगरीए मझं-मज्झेणं जेणेव संखस्स समणोवासगस्स गिहे, तेणेव उवागच्छइ, ते २-च्छित्ता संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपविटे। ५.तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एजमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ट० आसणाओ अब्भु M नथी. अर्थों ग्रहण कर्या, अर्थों ग्रहण करी अने उभा थई श्रमण भगवंत महावीर पासेथी अने कोष्ठक नामे चैत्यथी नीकळीने तेओए श्रावस्ती नगरी तरफ जवानो विचार को. २. पछी ते शंख नामे श्रमणोपासके ए बधा श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कडं के हे देवानुप्रियो! तमे पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारने तैयार करावो, पछी आपणे पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारनो आखाद लेता, विशेष खाद लेता, परस्पर देता अने खाता पाक्षिक पोषधनुं अनुपालन करता विहरीशुं. त्यार पछी ते श्रमणोपासकोए शंख नामना श्रमणोपासकनुं वचन विनयपूर्वक स्वीकार्य. त्यार बाद ते शंख नामे श्रमणोपासकने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावद् उत्पन्न थयो-'अशन, यावत् खादिम आहारनो आखाद लेता, विवाद लेता, परस्पर आपता अने खाता पाक्षिक पोषधने ग्रहण करीने रहे मने श्रेयस्कर नथी, पण मारी पोषधशा- शंखनो संकल्प पशनादिनो आहार लामां ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि अने सुवर्णनो त्याग करी माला, उद्वर्तन अने विलेपनने छोडी शस्त्र अने मुसल वगेरेने मूकीने तथा डाभना , " परवा पाक्षिक पोषष संथारा सहित मारे एकलाने-बीजानी सहाय शिवाय-पोषधनो स्वीकार करी विह श्रेय छे.' एम विचार करी, श्रावस्ती नगरीमा ज्यां वो मने श्रेयस्कर पोतार्नु घर छे, अने ज्यां उत्पला श्रमणोपासिका रहे छे, त्यां आवी उत्पला श्रमणोपासिकाने पूछी, ज्यां पौषधशाला छे त्या जइ, पोषधशालामा प्रवेश करी, पोषधशालाने प्रमार्जी निहार अने पेशाब करवानी जग्याने प्रतिलेही-तपासीने डाभनो संथारो पाथरी तेना उपर बेठो, बेसीने पोषधशालामा पोषधग्रहण करी ब्रह्मचर्यपूर्वक यावत् पाक्षिक पोषधनुं पालन करे छे. ३. त्यार बाद ते श्रमणोपासकोए श्रावस्ती नगरीमा पोतपोताने घेर जइ, पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने तैयार करावी परस्पर एक बीजाने बोलावी आ प्रमाणे का-'हे देवानुप्रियो! आपणे पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने तैयार भीगन माट शव ममणोपासकने यो करावेलो छे, पण ते शंख श्रमणोपासक जलदी आव्या नहि, माटे हे देवानुप्रियो! आपणे शंख श्रमणोपासकने बोलाववा श्रेयस्कर छे. नववा योग्य छे, ४. त्यार बाद ते पुष्कली नामना श्रमणोपासके ते श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कयुं-'हे देवानुप्रियो ! तमे शांतिपूर्वक विसामो ल्यो, पुफलि शंखने योअने हुं शंख श्रमणोपासकने बोलावं छं, एम कही श्रमणोपासकोनी पासेथी नीकळी श्रावस्ती नगरीना मध्य भागमां ज्यां शंख श्रमणोपास कावया याप . कर्नु घर छे, त्यां जइ तेणे शंख श्रमणोपासकना घरमा प्रवेश कर्यो. ५. पछी ते [शंख श्रावकनी पत्नी ] उत्पला श्रमणोपासिका ते पुष्कलि श्रमणोपासकने आवतो जोइ, हर्षित अने संतुष्ट थई पो Jain Education international Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक १. ट्रेड, आ०२-त्ता सत्त- पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता पोस्खलि समणोवासगं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ, आ०२-प्ता एवं वयासी-'संदिसतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं तए णं से पोषखली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी-कहिनं देवाणुप्पिए! संखे समणोवासए' ? तए णं सा उप्पला समणोषासिया पोक्वलि समणोवासयं एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव-विहरा। ६. तए णं से पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला, जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छद, ते०.२-च्छिता गमणागमणाए पडिक्कमइ, ग० २-मित्ता संखं समणोवासगं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं से विउले असणे०जाव-साइमे उवक्खडाविए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! तं विउलं असणं जाव-साइम आसाएमाणा जाव-पडिजागरमाणा विहरामो। ७. तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी-णो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणस्स जाव-पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पइ मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव-विहरितए, तं छंदेणं देवाणुप्पिया! तुम्भे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह। ८. तए णं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओपडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सावत्थि नगरि मज्झं-मझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, ते०२-च्छित्ता ते समणोवासए एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव-विहरइ, तं छदेणं देवाणुप्पिया! तुझे विउलं असणं ४ जाव विहरह, संने णं समपोवासए नो हवमागच्छइ । तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणं ४ आसाएमाणा जाध-विहरंति । ९. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुष्वरत्ता-वरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव -समुप्पजित्था-'सेयं खलु मे कलं जाव-जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव-पजुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए'त्ति कट्ठ एवं संपेहेति, एवं संपेहेत्ता कलं जाव जलंते पोसहसालाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति, स०२-मित्ता पादविहारचारेणं सावत्थि नगरि मझमज्झेणं जाव-पजुवासति, अभिगमो नत्थि । ताना आसनथी उठी, सात आठ पगलां तेनी सामे जइ पुष्कलि श्रमणोपासकने वांदी अने नमी आसनवडे उपनिमंत्रण कर्या बाद आ प्रमाणे बोली-'हे देवानुप्रिय! कहो, के तमारा आगमननुं शुं प्रयोजन छे ? त्यारे ते पुष्कलि श्रमणोपासके ते उत्पला श्रमणोपासिकाने आ प्रमाणे कडं-'हे देवानुप्रिये ! शंख श्रमणोपासक क्या छे' ? त्यार बाद ते उत्पला श्रमणोपासिकाए ते पुष्कलि श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कडं-'हे देवानुप्रिय ! खरेखर शंख श्रमणोपासक पोषधशालामा पोषध ग्रहण करी ब्रह्मचारी थइने यावद् विहरे छे.' ६. त्यार बाद ते पुष्कलि श्रमणोपासके ज्यां पोषधशाला छे, अने ज्यां शंख श्रमणोपासक छे त्यां आवी, गमनागमनने (जतां आवतां कोइ जीवनी हिंसा करी होय तेने) प्रतिक्रमी शंख श्रमणोपासकने वांदी अने नमीने तेने आ प्रमाणे कह्यु-'हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे खरेखर अमे घणो अशन, यावत्-स्वादिम आहार तैयार कराव्यो छे, तो हे देवानुप्रिय ! आपणे जइए, अने पुष्कळ अशन, यावत्-स्वादिम आहारनो आस्वाद लेता यावत्-पोषधनुं पालन करता विहरीए. शंखे कईके-आहा- ७. त्यार बाद ते शंख श्रमणोपासके ते पुष्कलि श्रमणोपासकने आ प्रमाणे का-'हे देवानुप्रिय! पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारनो आस्वाद लेता यावत् पोषधनुं पालन करी विहरवू मने योग्य नथी, मने तो पोषधशालामां पोषधयुक्त थइने यावत्पोषधन पालन विहवू योग्य छे. माटे हे देवानुप्रिय! तमे इच्छा प्रमाणे घणा अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारनो आस्वाद लेता यावद् विहरो.' नधी. ८. त्यार बाद ते पुष्कलि श्रमणोपासक शंख श्रमणोपासकनी पासेथी पोषधशालामांथी बहार नीकळी श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा ज्यां ते श्रमणोपासको छे त्यां आव्यो, अने त्यां आवी ते श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कडं-'हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर शंख श्रमणोपासक पोषधशालामा पोषध ग्रहण करीने यावद् विहरे छे. [ तेणे कडुं छे के-] 'हे देवानुप्रियो! तमे इच्छा मुजब घणा अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारनो आस्वाद लेता यावत् विहरो, शंख श्रमणोपासक तो शीघ्र नहि आवे'. त्यार बाद ते श्रमणोपासको ते विपुल अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने आखादता यावद्-विहरे छे.. शंखनो महाबीर ९. त्यार बाद मध्य रात्रिना समये धर्म जागरण करता ते शंख श्रमणोपासकने आवा प्रकारनो आ विचार यावत् उत्पन्न थयोस्वामिने वंदन करवानो संकरप. 'आवती काले यावत् सूर्य उगवाना समये श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी यावत् पर्युपासना करी त्यांथी पाछा आवीने पाक्षिक पोषध पारवो श्रेयस्कर छे'-एम विचार करे छे, एम विचारी आवती काले यावत् सूर्योदय समये पोपधशालाथी बहार नीकळी शुद्ध, बहार शंख भगवंतने Mirasad जवा योग्य तथा मंगलरूप वस्रो उत्तम रीते पहेरी पोताना घरथी वहार नीकळी पगे चाली श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा थइने जाय छे, यावत् पर्युपासना करे छे. अहिं [पोपयुक्त होवाथी ] तेने *अभिगमो नथी.. *पांच अभिगम संवन्धे जुओ भग० खं० १ श० २ उ०५ पृ. २७९. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२. - उद्देशक १. • भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५५ १०. तप नं ते समगोवासमा कलं पाडु० जाब-जलते व्हाया कपचलिकम्मा जाय सरीरा सपदि २ मेद्देदितो पडिनिक्वमंति, स० २ मित्ता एगयओ मिलायंति, एगयो मिलाचित्ता से जदा पढमं जाय पनुवासंति । तप पं समणे मग महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य धम्मकडा, जाव आणार आरादर भवति । तर पं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीररस अंतियं धम्मं सोया निसम्म हट्ठा उद्वार उद्वेति उ० २-सा समणं भगवं महावीरं यदति नर्मसंति, वंदित्ता नर्मसित्ता जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति, ते० २- च्छित्ता संखं समणोवासयं एवं वयासी- 'तुमं देवाशुप्पिया ! हिजो अम्हे अप्पणा चेव एवं वयासी, तुम्हे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं० जाव - विद्दरिस्सामो, तप णं तुम पोसहसालार जाय विहरिए, तं मु णं तुमं देवापिया ! अम्हे हीलसि । 'अजोति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासर एवं वयासी- 'माणं अजो ! तुज्झे संखं समणोवासगं हीलह, निंदह, खिंसह, गरहह, अवमन्नद्द, संखे णं समणोवासए पियधम्मेचे धम्मे चेच, सुदवखुजागरियं जागरिए । 1 ११. [प्र० ] 'भंते 'ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदद्द नम॑सह, वंदिता नर्मसिता एवं व्यासी करविदा भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? [30] गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता, तंजदा - बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया [प्र०] से केणणं भंते! एवं पुचइतिविहा जागरिया पण्णत्ता, तंजावुराजागरिया, अयुद्धजागरिया, मुदयु जागरिया' ? [30] गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन्ननाण- दंसणधरा जहा खंदए जाव- सवन्न सङ्घदरिसी, एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया जाव - गुत्तबंभचारी एए णं अबुद्धा अवुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवा - जीवा जाव विहरन्ति, पते णं सुदक्खुजागरियं जागरंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं च 'तिविहा जागरिया जाव - सुदक्खुजागरिया' । - १२. [प्र० ] तप णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कोहवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ, किं पकरेति, किं चिणाति, किं उवचिणाति । संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ एवं जहा पढमसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव- अणुपरियट्टा । १०. त्यार बाद [ पूर्वे कला ] ते श्रमणोपासको आवती काले यावत् सूर्योदय समये स्नान करी, बलिकर्म करी यावत् शरीरने अलं- वीजा श्रमणोपासको कृत करी पोत पोताना घरची नीकी एक स्थळे भेगा थाय छे, एक स्थळे मेगा पहने-खादि वधुं प्रथम निर्गमवत् जाग यायत् (भगवंत पण दिवा जाय छे. महावीरनी पासे जइ ) तेमनी पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने तथा ते सभाने धर्मकथा कही. यावत् 'ते अज्ञाना आराधक थाय छे' यां सुची जागनुं खार बाद ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीरनी पासेवी धर्मने सांभाळी, अबधारी, हृष्ट अने तुष्ट थया, अने उभा थइ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी, ज्यां शंख श्रमणोपासक छे त्यां आव्या; आवीने शंख श्रमणोपासकने तेओए एम कह्युं के - 'हे देवानुप्रिय ! तमे गइ काले अमने एम कह्युं हतुं के, 'हे देवानुप्रियो ! तमे पुष्कळ अशनादि आहारने तैयार करावो, यावद् - आपणे विहरीशुं, त्यार बाद तमे पोषधशालामां यावद् विहर्या, तो हे देवानुप्रिय ! तमे अमारी ठीक हीलना ( हांसी) करी. ' पछी 'हे आर्यो !' एम कही श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कयुं - 'हे आर्यो !' तमे शंख श्रमणोपासकनी हीलना, निंदा, खिसना, गर्हा अने अवमानना न करो, कारण के ते शंख श्रमणोपासक धर्मने विषे प्रीतिवाको अने दतावा छे, तथा तेणे [ प्रसाद अने निद्राना त्यागथी ] सुदृष्टि - ज्ञानीनुं जागरण करेल छे. ए ११. [प्र०] 'भगवन्' प्रमाणे कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे, बांदी अने नमी तेणे आ प्रमाणे कंद भगवन् ! जागरिका केठला प्रकारनी कही छे (उ०) हे गौतम! जागरिका प्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- १ बुद्धजाग रिका, २ अबुद्धजागरिका अने ३ सुदर्शनजागरिका. [प्र० ] हे भगवन् ! तमे ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जागरिका त्रण प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे- बुद्धजागरिका, अबुद्धजागरिका अने सुदर्शनजागरिका' ? [उ०] हे गौतम! जे उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनना धारण बरनारा आ अरिहंत भगवंतो इयादि स्कंदकना अधिकारमां का प्रमाणे सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे बुद्धो [केज्ञानपडे ] बुद्धजागरिका जागे छे. जे आ भगवंत अनगारो ईर्यासमितियुक्त, भाषासमितियुक्त अने यावत्- गुप्त ब्रह्मचारी छे, तेओ [ 'केवलज्ञानी नहि होवाथी] अयुद्ध छे अने तेओ अनुजागरिका जागे छे तथा जे आ श्रमणोपासको जीवाजीवने जाणनारा छे, यावत् एओ [ सम्यग्दर्शनी होवाथी ] सुदर्शन जागरिका जागे छे. माटे ते हेतुथी हे गौतम! ए प्रमाणे कह्युं छे के जागरिका त्रण प्रकारनी छे, यावत् सुदर्शनजागरिका छे. १२. [१०] सार बाद ते शंख श्रमणोपासके भ्रमण भगवंत महावीरने बांदी, नमी आ प्रमाणे हे भगवन्! 'क्रोधने वश होवाथी पीडित थयेलो जीव शुं बांधे, शुं करे, शेनो चय करे अने शेनो उपचय करे ? [30] हे शंख ! क्रोधने वश थवाथी पीडित थयेलो जीव शुं बांधे? थयेलो जीव आयुष सिवायनी सात कर्मप्रकृतिओ शिथिल बन्धनथी बांधेली होय तो कठिन बन्धनवाळी करे - इत्यादि सर्व प्रथम शतकमां कहेला संवररहित अनगारनी पेठे जाणवुं यावत् ते [ संवररहित साधु ] संसारमां भमे छे. कोषयी व्याकुल १० * भग० सं० १ ० २ उ० ५ पृ० २७८. ११ भग० खं० १० २ उ० १५० २३४. १२ भग० सं० १० १३०११० ८३. शंखनी निन्दा न करो. जागरिकाना प्रकार. / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक १. १३. [प्र०] माणवसट्टेणं भंते ! जीवे एवं चेव, एवं मायावस ऽवि । एवं लोभवसट्टेऽवि, जाव-अणुपरिभट्टा । १४. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पयमढें सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया संसारभउविग्गा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छा, ते. २-च्छित्ता संखं समणोवासगं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो २ खाति । तए णं ते समणोवासगा सेसं जहा आलंभियाए जाव-पडिगया। १५. [३०] 'भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पभू णं मंते ! संखे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं० [उ०] सेसं जहा इसिमद्दपुत्तस्स, जाव-अंतं काहेति । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति जाव-विहरह। पढमो उद्देसो समत्तो। मानी जीव शं बांध? १३. [प्र०] हे भगवन् ! मानने वश थवाथी पीडित थयेलो जीव शुं बांधे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवं, अने एज प्रमाणे मायाने वश थवाथी पीडित थयेला अने लोभने वश थवाथी पीडित थयेला जीव संबन्धे पण जाणवू; यावत् ते संसारमा भमे छे. १४. त्यार बाद ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीर पासेथी ए प्रमाणे वात सांभळी, अवधारी भय पाम्या, त्रास पाम्या, त्रसित थया अने संसारना भयथी उद्विग्न थया. तथा तेओ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी ज्यां शंख श्रमणोपासक छे त्यां जइ शंख श्रमणोपासकने वांदी, नमी ए ( अविनयरूप ) अर्थने सारी रीते विनयपूर्वक वारंवार खमावे छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको यावत् पाछा गया. तेनो बाकी रहेलो वृत्तांत *आलभिकाना श्रमणोपासकोनी पेठे जाणवो. शंख प्रमज्या ग्रहण १५. [प्र०] 'भगवन् ! एम कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे कयु-हे भगवन् ! ते शंख श्रमकरवा समर्थ छे? पोणासकाली णोपासक आप देवानुप्रियनी पासे प्रव्रज्या लेवाने समर्थ छे? [उ०] बाकी बधुं ऋषिभद्रपुत्रनी पेठे जाणवू. यावत्-ते सर्व दुःखोनो अन्त करशे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही विहरे छे. द्वादशशते प्रथम उद्देशक समाप्त. १४* आलभिकाना भ्रमणोपासक संबन्धे जुओ भग० ख०३ श०११ उ० १२ पृ. २४८. १५ ऋपिभद्रपुत्रनो संवन्ध जुओ भग० ख० ३ श० ११ उ० १२ पृ. २४८. Jain Education international Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नाम नगरी होत्था। वनभो। चंदोवतरणे चेहए । वनओ । तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रनो पोत्ते सयाणीयस्स रनो पुत्ते चेडगस्स रनो नत्तुए मिगावतीए देवीए अत्तर जयंतीए समणोवासियाए भत्तिजए उदायणे नामं राया होत्था। वन्नओ। तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रनो सुण्हा सयाणीयस्स रनो भजा चेडगस्स रनो धूया उदायणस्स रनो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होत्या । पमओ, सुकुमाल. जाव-सुरुवा समणोवासिया जाव-विहरइ । तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रखो धूया सयाणीयस्स रनो भगिणी उदायणस्स रनो पिउच्छा मिगावतीए देवीए नणंदा वेसालीसावयाणं अरहंताणं पुषसिजायरी जयंती नामं समणोवासिया होत्था, सुकुमाल. जाव-सुरुवा अभिगय जाव विहरह। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । जाव-परिसा पजुवासइ । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लढे समाणे हट्ठ-तुढे कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, को० २-त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! कोसंबि नगरि सभितर-बाहिरियं० एवं जहा कूणिओ तहेव सवं जाव-पजुवासइ । तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लछट्ठा समाणी हट्ट-तुट्टा जेणेव मियावती देवी तेणेव उवागच्छइ, ते०२-च्छित्ता मियावर्ति देवि एवं वयासी-एवं जहा नवमसए उस द्वितीय उद्देशक. १. ते काले, ते समये कौशांबी नामे नगरी हती. वर्णन. चन्द्रावतरण चैत्य हतुं. वर्णन. ते कौशांबी नगरीमां सहस्रानीक राजानो कौशाम्बी नगरी. पौत्र, शतानीक राजानो पुत्र, चेटक राजानी पुत्रीनो पुत्र, मृगावती देवीनो पुत्र, अने जयंती श्रमणोपासिकानो भत्रीजो उदायन नामे राजा हतो. वर्णन. ते कौशांबी नगरीमां सहस्रानीक राजाना पुत्रनी पत्नी, शतानीक राजानी पत्नी, चेटक राजानी पुत्री, उदायन राजानी माता ज्दावन राजाभने जयंती श्रमणोपासिकानी भोजाइ मृगावती नामे देवी हती. सुकुमाल हाथपगवाळी-इत्यादि वर्णन जाणवु, यावत् सुरूपवाळी अने श्रमणोपासिका हती. वळी ते कौशांबी नगरीमा जयंती नामे श्रमणोपासिका हती, जे सहस्रानीक राजानी पुत्री, शतानीक राजानी भगिनी, जयंती ममणीउदायन राजानी फोइ, मृगावती देवीनी नणंद अने श्रमण भगवंत महावीरना साधुओनी प्रथम शय्यातर (वसति आपनार) हती. ते पासिका. सुकुमाल, यावत् सुरूपा अने जीताजीवने जाणनारी यावद् विहरती हती.. २. ते काले, ते समये महावीर स्वामी समवसर्या, यावत् पर्षत् पर्युपासना करे छे. त्यार बाद ते उदायन राजा आ (श्रमण भगवंत महावीर पधार्यानी) वात सांभळी हृष्ट तुष्ट थयो, अने तेणे कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कडं-'हे देवानुप्रियो । शीघ्रज कौशांबी नगरीने बहार अने अंदर साफ करावो'-इत्यादि बधुं *कूणिक राजानी पेठे कहे, यावत्-ते पर्युपासना करे छे. त्यार बाद (श्रमण भगवंत महावीर पधार्यानी) आ वात सांभळी ते जयंती श्रमणोपासिका हृष्ट अने तुष्ट थइ, अने ज्यां मृगावती देवी छे त्या आवी तेणे मृगावती देवीने आ प्रमाणे कयु-ए प्रमाणे नवम शतका ऋिषभदत्तना प्रकरणमा कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत् [श्रमण भगवंत महावीरर्नु दर्शनं आपणा कल्याण माटे] थशे. त्यार बाद जेम देवानंदाए ऋषभदत्तना वचननो खीकार कर्यो तेम मृगावती देवीए ते जयेती श्रमणो चंदोत्तरायणे । २ तंजहा-मुरु-छ।। जयंती स-छ। ३.उववा०प०६३-२. भग० ख०३०९उ.३३ पृ. १६२. भग.ख०३०९०११पृ. ११३. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक २. भदत्तो जाव-भविस्सइ । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा जाव-पडिसुणेति । तए णं सा मियावती देवी कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, को०२-त्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरण-जुत्तजोइय० जावधम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह' जाव-उवट्ठवेंति, जाव-पच्चप्पिणंति । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं ण्हाया कयबलिकम्मा जाव-सरीरा बहूहिं खुजाहिं जाव-अंतेउराओ निग्गच्छति, अं० २-च्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, ते २-च्छित्ता०२ जाव-दुरूढा । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी नियगपरियाल. जहा उसभदत्तो जाव-धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चोरुहइ । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं यहूहिं खुजाहिं जहा देवाणंदा जाव-वंदर नमंसइ, उदायणं रायं पुरओ कट्ठ ठितिया चेव जाव पजुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रनो मियावईए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महतिमहा० जाव धम्म परिकहेइ, जाव परिसा पडिगया, उदायणे पडिगए, मियावती देवी वि पडिगया । ३. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-[प्र०] कन्नं भंते ! जीवा गरुयत्तं हवमागच्छन्ति ? [उ०] जयंती! पाणाइवाएणं, जाव-मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गरुयत्तं हवमागच्छंति । एवं जहा पढमसए जाव-वीईवयंति । ४. [३०] भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ परिणामओ ? [उ०] जयंती! समावओ, नो परिणामओ। ५. [प्र०] सवेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति ? [उ०] हता! जयंती! सच्चेऽवि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति। ६. [प्र०] जइ णं भंते ! सखे वि भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, तम्हा णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? [उ०] णो तिणटे समटे। [प्र०] से केणं खाइएणं अटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'सच्चे विणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, नो पासिकाना वचननो स्वीकार कर्यो, त्यार पछी ते मृगावती देवीए कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कयुं-'हे देवानुप्रियो ! वेगवाळु, जोतरसहित यावत् धार्मिक श्रेष्ठ यान जोडीने जलदी हाजर करो,' यावत्-ते कौटुंबिक पुरुषो यावत् हाजर करे छे, अने तेनी आज्ञा जयंती मृगावती पाछी आपे छे. त्यार बाद ते मृगावती देवी ते जयंती श्रमणोपासिकानी साथे स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, यावत्-शरीरने शणगारी सहित भगवंतने घणी कुब्ज दासीओ साथे यावत् अंत:पुरथी बहार नीकळे छे, नीकळी ज्या बहारनी उपस्थानशाला छे, अने ज्या धार्मिक श्रेष्ठ वाहन वंदन करवा जाय छे. तैयार उभं छे, त्यां आवी यावत् ते वाहन उपर चढी. त्यार बाद जयंती श्रमणोपासिकानी साथे धार्मिक श्रेष्ठ यान उपर चडेली ते मृगावती देवी पोताना परिवारयुक्त ऋषभदत्त ब्राह्मणनी पेठे यावत्-ते धार्मिक श्रेष्ठ वाहनथी नीचे उतरे छे. पछी जयंती श्रमणोपासिकानी साथे ते मृगावती देवी घणी कुब्ज दासीओना परिवार सहित देिवानंदानी पेठे यावद् वांदी, नमी उदायन राजाने आगळ करी त्यांज रहींजयंतीना प्रश्नो. नेज यावद् पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे उदायन राजाने, मृगावती देवीने, जयंती श्रमणोपासिकाने अने ते अत्यन्त मोटी परिषदने यावद् धर्मोपदेश कर्यो, यावत् परिषद् पाछी गइ, उदायन राजा अने मृगावती देवी पण पाछा गया. ३. त्यार बाद ते जयंती श्रमणोपासिका श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हृष्ट अने तुष्ट थइ, श्रमण भग वंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोली के-प्र०] हे भगवन् ! जीवो शाथी गुरुत्व-भारेपणुं पामे [उ०] हे जयंती | जीवो प्राणाजीवो शाथी भारेपणु पा? तिपातथी-जीवहिंसाथी यावद् मिथ्यादर्शनशल्यथी, ए प्रमाणे खरेखर जीवो भारेकर्मापणुं प्राप्त करे छे. ए प्रमाणे जेम प्रथम शतका कयुं छे तेम जाणवू, यावत् तेओ मोक्षे जाय छे. भव्यपणे स्वाभाविक ४. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोनुं भवसिद्धिकपणुं स्वभावथी छे के परिणामथी छे ! [उ०] हे जयंती! भवसिद्धिक जीवो खभावथी छे के परिणाम- छे, पण परिणामथी नथी. सर्व भव्यजीवो ५. [प्र०] हे भगवन् ! सर्वे भवसिद्धिक जीवो सिद्ध शे? [उ०] हे जयंती ! हा, सर्वे भवसिद्धिक जीवो सिद्ध थशे. मोक्ष जो! तो शुं लोक भव्य ६. [प्र०] हे भगवन् ! जो सर्वे भवसिद्धिको सिद्ध थशे तो आ लोक भवसिद्धिक जीवो रहित थशे ! [उ०] ते अर्थ यथार्थ नथी, रहित यशे? अर्थात् बधा भवसिद्धिको सिद्ध थाय तोपण भवसिद्धिक विनानो लोक नहिं थाय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे तमे शा हेतुथी कहो छो २* भग० सं० ३ श० ९ उ. ३३ पृ. १६४. भिग० ख०३ पृ. १६४. ३१ भग० ख० १ श०१ उ. ९पृ० १९९. ४॥खाभाविक भावने खभाव कहे छे, जेम पुदगलने विषे मूर्तत्व स्वाभाविक भाव छे. रूपान्तरने परिणाम कहे छे, जेम चालत्य, यौवन, पद्धत्व वगेरे परिणामथी धयेला भावो छे. . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ शतक १२.-उद्देशक २७ भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. चेवणं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ? [उ०] जयंती! से जहानामए सवागाससेढी सिया, अणादीया अणवदग्गा परिचा परिखुडा, साणं परमाणुपोग्गलमत्तेहि खंडेहिं समए २ अवहीरमाणी २ अणंताहिं ओसप्पिणी-अवसप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेवणं अवहिया सिया, से तेणटेणं जयंती! एवं बुच्चइ-'सचे विणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धिअविरहिए लोए भविस्सह । ७.[प्र०] सुत्तत्तं भंते! साहू, जागरियत्तं साहू? [उ०] जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू । [प्र०] से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ 'अत्थेगइयाणं जाव-साहू' [उ.] जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलोइ अहम्मपलजमाणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव-परियावणयाए वहृति, एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं संजोएत्तारो भवंति, एएसि जीवाणं सुत्तत्तं साह । जयंती! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव-धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू । एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव-सत्ताणं अदुक्खणयाए, जाव-अपरियावणयाए वटुंति, ते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति । एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ-'अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। ८. [प्र०] बलियत्तं भंते ! साहू, दुबलियत्तं साहू ? [उ०] जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव साहू ? [उ०] जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जावविहरंति, एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । एए णं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुबलियत्तस्स वत्तवया भाणियधा। बलियस्स जहा जागरस्स तहा भाणियचं, जाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू, से तेणटेणं जयंती! एवं वुच्चइ-तं चेव जाव-साहू। के 'बधाय पण भवसिद्धिको सिद्ध थशे, अने लोक भवसिद्धिक जीवोथी रहित नहीं थाय ? [उ० हे जयंती ! जेमके सर्वाकाशनी श्रेणी होय, ते अनादि, अनंत, बन्ने बाजुए परिमित अने बीजी श्रेणीओथी परिवृत होय, तेमांथी समये समये एक परमाणु पुद्गलमात्रखंडो काढता काढतां अनन्त उत्सर्पिणी अने अनन्त अवसर्पिणी सुधी काढीए तोपण ते श्रेणि खाली थाय नहीं; ते प्रमाणे हे जयंती! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के, बधाय भवसिद्धिक जीवो सिद्ध थशे, तो पण लोक भवसिद्धिक जीवो विनानो थशे नहि. ७. [३०] हे भगवन् ! सुतेलापणुं सारं के जागरितत्त्व-जागेलापणुं सारं ? [उ०] हे जयंती ! केटलाक जीवोनुं सूतेलापणुं सारं, म अने केटलाक जीवोनुं जागेलापणुं सारु. [पं०] हे भगवन् ! शा हेतुथी तमे एम कहो छो के 'केटलाक जीवोनुं सूतेलापणुं सारं अने केट- जागतापणुं सारी लाक जीवोनू जागेलापणुं सारं ? [उ०] हे जयंती ! जे आ जीवो अधार्मिक, अधर्मने अनुसरनारा, जेने अधर्म प्रिय छे एवा, अधर्म कहेनारा, अधर्मने ज जोनारा, अधर्ममां आसक्त, अधर्माचरण करनारा अने अधर्मथीज आजीविकाने करता विहरे छे, ए जीवोनुं सूतेलापणुं सारं छे. जो ए जीवो सूतेला होय तो बहु प्राणोना, भूतोना, जीवोना तथा सत्त्वोना दुःख माटे, शोक मादे, यावत्-परिताप माटे थता नथी, वळी जो ए जीवो सूतेला होय तो पोताने, वीजाने के बन्नेने घणी अधार्मिक संयोजना वडे जोडनारा होता नथी, माटे ए जीवोन सूतेलापणुं सारं छे. तथा हे जयंती ! जे आ जीवो धार्मिक अने धर्मानुसारी छे, यावत्-धर्मवडे आजीविका करता विहरे छे, ए जीवोनुं जागेलापणुं सारं छे; जो ए जीवो जागता होय तो ते घणा प्राणीओना यावत्-सत्त्वोना अदुःख (सुख) माटे यावत्-अपरिताप (शान्ति) माटे वर्ते छे, वळी ते जीवो जागता होय तो पोताने, परने अने बन्नेने घणी धार्मिक संयोजना (क्रिया) साथे जोडनारा थाय छे, तथा ए जीवो जागता होय तो धर्मजागरिकावडे पोताने जागृत राखे छे, माटे ए जीवोन जागेलापणुं सारं छे, ते हेतुथी हे जयंती! एम कहेवाय छे के, 'केटलाक जीवोनुं सूतेलापणुं सारं अने केटलाक जीबोनु जागेलापणुं सारं छे'. ८. [प्र०] हे भगवन्! सबलपणुं सारं के दुर्बलपणुं सारं ? [उ०] हे जयंती! केटलाक जीवोनुं सबलपणुं सारं अने केटलाक ___ सवरूपणुं सारं के जीवोनुं दुर्बलपणुं सारु. [प्र०] हे भगवन् ! तमे ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, 'केटलाक जीवोनुं सबलपणुं सारं अने केटलाक जीवोनुं दुलपणु सार! दुर्बलपणुं सारं' ? [उ०] हे जयंती ! जे आ जीवो अधार्मिक छे, अने यावद् अधर्मवडे आजीविका करता विहरे छे, ए जीवोनुं दुर्बलपणुं सारं, जो ए जीवो दुबला होय तो कोइ जीवना दुःख माटे थता नथी-इत्यादि 'सूतेला'नी पेठे दुर्बलपणानी वक्तव्यता कहेवी, अने 'जा- . गता'नी पेठे सबलपणानी वक्तव्यता कहेवी; यावत्-धार्मिक क्रिया-संयोजनाबडे जोडनारा थाय छे, माटे ए जीवोनुं बलवानपणुं सारुं छे, ते हेतुथी हे जयंती! एम कहेवाय छे के-इत्यादि केटलाक जीवोनुं बलवानपणुं अने केटलाक जीवोनुं दुर्बलपणुं सारं छे. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षस्व सारं के आळ सुपर्ण साई श्रन्द्रियवशा शुं करे १ जयदीप प्रज्या ग्रहण करी. श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंम - शतक १२ - उद्देशक २. ९. [प्र०] दक्खन्तं भंते ! साहू, आलसियत्तं साहू ? [अ०] जयंती 1 अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, मत्येगतिया जीवाणं आलसियतं साहू [प्र०] से केमद्वेषं भंते ! एवं दुतं चेव जाय साहू ? [४०] जयंती ! जे इमे जीवा मह मिया जाय-चिरंति, परसि पं जीवाणं आलसियतं साहू एए नं जीवा आलसा समाणा नो बहूणं, जहा सुता बालसा भाणियचा, जहा जागरा तहा दक्या भाणियचा, जाव संजोएत्तारो भवंति एवं णं जीवा दफ्या समाणा बहूहिं आयरियचेयावच्चेहिं, जाव - उवज्झाय०, थेर०, तवस्सि०, गिलाण०, सेह०, कुल०, गण०, संघ०, साहम्मियवेयायचेदि अत्ताणं संजोपत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं दक्खत्तं साहू, से तेणट्टेणं तं चेव जाव साहू । 1 २६० १०. [प्र०] सोइंदियवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ ? [30] एवं जहा कोहवसट्टे तद्देव जाव - अणुपरियट्टा । एवं चक्खिदिवसट्टे वि, एवं जाव फासिंदियवसट्टे वि, जाव - अणुपरियट्टछ । 1 ११. तपणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवन महावीरस्स अंतियं एवम सोचा निसम्म हट्ट तुट्टा से जा देवानंदा तहेव पया, जाव सचदुक्खप्पडीणा सेवं भंते! सेयं भंते चि । बीओ उद्देस समत्तो । ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! दक्षपणुं - उद्यमीपणुं सारं के आलसुपणुं सारं ? [उ०] हे जयंती ! केटलाक जीवोनुं आलसुपणुं सारं. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो-इत्यादि तेज प्रमाणे आजीवो अधार्मिक [ अधर्मानुसारी] यापद् विहरे छे, ए जीवोनुं आपणं सारुं छे. ए जीवो जो आळ माटे थता नथी - इत्यादिबधुं 'सूतेला'नी पेठे कहेतुं, तथा 'जागेला'नी पेठे दक्ष - उद्यमी जाणवा, यावत् - [ धार्मिक प्रवृत्तिओ साथै ] जोडनारा चाय छे. बळी ए जीनो दक्ष होप तो आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, म्लान, शैक्ष ( नव दीक्षित), कुछ, गण, संघ, अने साथर्मिकना घणा वैयावच्च-सेवा-साथे आत्माने जोडनारा थाय छे. तेथी ए जीवोनुं दक्षपणं सारुं छे. माटे हे जयंती ! ते हेतुथी एम कहुं लुंइत्यादि तेज प्रमाणे कहे, यावत् केटाएक जीवोनुं दक्षपणुं सारुं छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियने वश थवाथी पीडित थयेलो जीव शुं बांधे ? [उ०] हे जयंती ! जेम क्रोधने वश थयेला जीव संबन्घे कह्युं तेम अहीं पण जाणवुं, यावत् ते संसारमां भमे छे. ए प्रमाणे चक्षुइन्द्रियने वश थयेला अने यावत् स्पर्शेन्द्रियवश थयेला जीव संबन्धे पण जाणवुं यावत् ते संसारमा भने छे. ११. त्यार बाद ते जयंती श्रमणोपासका श्रमण भगवंत महावीर पासेथी ए वात सांभळी, हृदयमां अवधारी, हर्षवाळी अने संतुष्ट थई - इत्यादि (बाकी) बधुं * देवानंदानी पेठे जाणवुं यावत् तेणे प्रव्रज्या ग्रहण करी अने सर्व दुःखथी मुक्त थई. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे. द्वादशशते द्वितीय उद्देशक समाप्त. केटलाक जीवोनुं दक्षपणुं सारं अने कहेवुं. [उ०] हे जयंती ! जे होय तो घणा जीवोना दुःख ११ * जुओ देवानंदा संबन्धे भग० खं० ३ श० ९ उ० ३३४० १९५० Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईओ उद्देसो. १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं पयासी-का गं भंते ! पुढवीओ पनचाओ ? [७०] गोयमा ! सत्त पुढषीमो पण्णचानो, तंजहा-पढमा, दोचा, जाव-सत्तमा । । २. [प्र०]पढमा णं भंते ! पुढवी किंनामा, किंगोता पण्णत्ता [उ०] गोयमा! धम्मा नामेणं, रयणप्पभा गोणं, एवं जहा जीवाभिगमे पढमो नेरहयउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियचो, जाव अप्पाबहुगं ति । सेवं मंते। सेवं भंते ! ति। तईओ उद्देसो समत्तो। तृतीय उद्देशक. पृथिवीओना १. [प्र०] राजगृह नगरमा [भगवान् गौतमे] यावद्-आ प्रमाणे पूज्यु-हे भगवन् ! केटली पृथिवीओ कही छे ! [उ०] हे गौतम | सात पृथिवीओ कही छे, ते आ प्रमाणे-प्रथमा, द्वितीया यावत्-सप्तमी. प्रकार, प्रथमपविधीना नाम भने गोक २. [प्र०] हे भगवन् । प्रथम पृथिवी कया नामवाळी अने कया गोत्रवाळी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! प्रथम पृथिवीनु नाम 'धम्मा' छे अने गोत्र रत्नप्रभा छे-ए प्रमाणे "जीवाभिगम' सूत्रमा प्रथम नैरयिक उद्देशक कह्यो छे ते बधो यावद्-अल्पबहुत्व सूधी अहिं कहेवो. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. द्वादशशते तृतीय उद्देशक समाप्त. २.जुओ नैरयिक संबन्धे जीवा० प्रति०३५.८८. Jain Education international Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो। १. रायगिहे जाव-एवं वयासी-दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहनंति, एगयओ साहण्णित्ता किं भवति। 1 गोयमा! दुप्पपसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहा कजर, एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयो परमाणुपोग्गले भवा। २.प्रतिन्नि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नति, साहण्णित्ता किं भवति ? [उ०] गोयमा तिपएसिप बंधे भवति । से भिजमाणे दुहा वि तिहा वि कजइ, दुहा कन्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिप खंधे भवर, तिहा कजमाणे तिण्णि परमाणुपोग्गला भवंति । ३.प्र० चत्तारि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नंति ? जाव-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! चउपएसिए खंधे भवर, से मिजमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा वि कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे भवा, महवा दो दुपएसिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवर, पउहा कजमाणे चत्तारि परमाणुपोग्गला भवंति । ४. [प्र०] पंच भंते ! परमाणुपोग्गला-पुच्छा। [उ०] गोयमा! पंचपएसिए बंधे भवइ । से मिजमाणे दुहाऽवि तिहाऽषि चउहाऽवि पंचहाऽवि कजइ दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयो दुप चतुर्थ उद्देशक. बे परमाणुओ १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावद्-आ प्रमाणे पूज्यु-हे भगवन् ! बे परमाणुओ एकरूपे एकठा थाय, अने एकरूपे एकठा थहने पछी एकरूपे एकठा तेनु शुं थाय ! [उ०] हे गौतम! तेनो द्विप्रदेशिक स्कंध थाय, अने जो तेनो मेद थाय तो तेना बे विभाग थाय-एक तरफ एक बानेशुं थाय? परमाणुपुद्गल रहे, अने बीजी तरफ एक (बीजो) परमाणुपुद्गल रहे.. . अण परमाणुमो. २. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण परमाणुपुद्गलो एकरूपे एकठा थाय ? अने एकठा थईने तेनुं शुं थाय ? [उ०] हे गौतम! तेनो त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. जो तेनो भेद-वियोग थाय तो तेना बे के त्रण विभाग थाय, जो बे विभाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, अने बीजी तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध रहे. .. तथा जो तेना त्रण विभाग थाय तो त्रण परमाणुपुद्गल रहे. . चार परमाणुओ. ३. [प्र०] हे भगवन् । चार परमाणुपुद्गलो एकरूपे एकठा थाय ? इत्यादि प्रश्न. [२०] हे गौतम ! चतुष्पदेशिक स्कंध याय, अने जो ते स्कंधनो मेद थाय तो तेना बे, त्रण अने चार भाग थाय. जो बे भाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध रहे.. .... अथवा बे द्विप्रदेशिक स्कंध रहे. | . जो त्रण भाग थाय तो एक तरफ वे छूटा परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध रहे. | ... जो चार भाग थाय तो जूदा चार परमाणुपुद्गल रहे. |•|| II. पांच परमाणुओ. १. [प्र०] हे भगवन् । पांच परमाणुओ एकरूपे एकठा थाय ! [अने पछी शु थाय ?] इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पंचप्रदेशिक स्कंध थाय. जो ते मेदाय तो तेना बे, त्रण, चार अने पांच विभाग थाय. जो तेना बे विभाग थाय तो एक तरफ एक परमाणु Jain Education international Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ शतक १२.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पसिए खंधे, एगयओ तिपएसिप खंधे भवइ, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, पगयओ तिप्पएसिए खंधे भवति. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति; चउहा कन्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवति, पंचहा कज्जमाणे पंच परमाणुपोग्गला भवंति । ५. [प्र०] छन्भंते ! परमाणुपोग्गला-पुच्छा । [उ०] गोयमा! छप्पपसिए खंधे भवइ; से भिजमाणे दुहाऽवि तिहाऽवि जाव-छविहाऽवि कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयो दुप्पएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ; अहवा दो तिपएसिया खंधा भवन्ति; तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवहा अहवा तिन्नि दुपएसिया खंधा भवन्ति, चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवा अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओदो दुप्पएसिया खंधा भवंति; पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति; छहा कजमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति । . ६. [प्र०] सत्त भंते ! परमाणुपोग्गला-पुच्छा। [उ०] गोयमा! सत्तपएसिए खंधे भवद; से मिजमाणे दुहाऽवि जावसत्तहाऽवि कजह दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा पगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिप्पएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवह, तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति, चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, .. छ परमाणुमो. पुद्गल अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय. ..... अथवा एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. | ./..... जो तेना त्रण विभाग थाय तो एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. | , | .... अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ जुदा जुदा बे द्विप्रदेशिक स्कंधो थाय. ना..|... जो तेना चार विभाग थाय तो एक तरफ जुदा त्रण परमाणुओ अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध थाय. | म न .. जो तेना पांच विभाग थाय तो जुदा पांच परमाणुओ थाय. | ५. [प्र०] हे भगवन् ! छ परमाणुपुद्गलो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! षट्प्रदेशिक स्कंध थाय. जो तेनो मेद थाय तो तेना बे, त्रण, चार, पांच के छ विभाग थाय. जो तेना बे भाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ एक पंचप्रदेशिक स्कंध थाय. ..... अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ एक चतुष्पदेशिक स्कंध थाय. | . .... अथवा बे त्रिप्रदेशिक स्कंधो थाय. ... .... जो तेना त्रण भाग थाय तो एक तरफ जुदा जुदा बे परमाणुपुद्गल अने एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय. ग .. . अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. | D R .... अथवा त्रण द्विप्रदेशिक स्कंधो थाय. | ... जो तेना चार भाग थाय तो एक तरफ जुदा त्रण परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. I II... अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ द्विप्रदेशिक बे स्कंधो थाय | I ... जो तेना पांच भाग थाय तो एक तरफ जुदा चार परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध थाय. | • IRRI. .. जो तेना छ भाग थाय तो जुदा जुदा छ परमाणु पुद्गलो थाय. i ६. [प्र०] हे भगवन् ! सात परमाणुपुद्गलो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सप्तप्रदेशिक स्कंध थाय. जो तेना विभाग थाय तो बे, सात परमाणभो. त्रण, यावत् सात विभाग थाय छे. जो बे विभाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ छप्रदेशिक स्कंध थाय. ....... अथवा एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध थाय. ...... अथवा एक शिक स्कंध अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय. ..... जो तेना त्रण भाग थाय तो एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध थाय। गा. ..... अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ द्विप्रदेशिक अने चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय. ..... अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. [ ...]. अथवा एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कंधो अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय. | III...]. जो तेना चार भाम थाय तो एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय. .. अपवा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ परमाणुओ. २६४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे- शतक १२.देशक ४. यो तिथि दुपपसिया धंधा भयंति पंचदा कजमाणे एगयओ बचारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपयसिए बंधे नया अवा एगयओ तिनि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपपसिया संधा भवंति, छहा कज्रमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, गयओ दुपपसिए संधे भवर, सप्तद्दा कलमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवति । ७. [ प्र० ] अट्ठ भंते! परमाणुपोग्गला- पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! अट्ठपएसिए खंधे भवद्द; जाव-दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ सत्तपरसिए बंधे भवर अहवा एगयओ दुपपसिए खंधे, एगयओ छप्पयसिप बंधे भवर, अहवा एगयओ तिपयसिप बंधे एगयओ पंचपपसिए बंधे भवर; अहवा दो चउप्परसिया खंधा भवंति; तिहा कज्ज्रमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला भयंति, मनयत्रो उप्पयसिप संधे भवर अचा गयो परमाणुपोले, एगयो दुप्परसिप बंधे, एगयओ पंचपपलिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउपपसिए संधे अव अवा एगयओ दो दुपपसिया संधा, एगयओ चउप्पयसिप संधे भवर अहवा गयओ दुपरसिर बंधे, एगयओ दो तिपपलिया खंधा भवंति चउहा कज्ज्रमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपरसिए बंधे भवति; अहवा एगयो दोष परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपरसिप संधे, एगयओ चउप्परसिए बंधे भवति अहषा एगयओ दो परमाणुपमाला, एगयओ दो तिपरसिया संधा भवंति अहचा एगवओ परमाणुपोग्गले, बगवओो दो दुपरसिया संधा, एगो तिपरसिए खंधे भवति अहवा चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति पंचहा कज्रमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिर संधे भवति अहचा गयो तिथि परमाणुपोग्ला, एगयओ दुपपसिए संधे, पनवओ तिपयसिप बंधे भवति भवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिन्नि दुपएसिया संधा भवंति छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ , एक तरफ से परमाणुपुलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक त्रिप्रादेशिक स्कंध वाय. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुङ्गल बने एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कंधो पाय... जो तेना पांच विभाग वाय तो जुदा चार परमाणुपुङ्गलो, भने एक त्रिप्रदेशिक स्कंच थाय [. अथवा एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो अने जो तेना छ भाग थाय तो एक तरफ जुदा पांच परमाणुपुद्गलो तथा जो तेना सात भाग थाय तो जुदा जुदा • एक तरफ वे द्विप्रादेशिक स्कंधो धाय. [.] अने एक तरफ एक द्विप्रादेशिक स्कंध पाय सात परमाणुपुद्गलो था. ७. [प्र०] हे भगवन् ! आठ परमाणुपुद्गलो थाय तो बे, त्रण, चार, पांच, छ, सात के आठ एक तरफ सात प्रदेशनो एक स्कंध थाय छे. प्रदेशनो एक स्कंध थाय छे. थाय छे. आठ प्रदेशनो एक स्कंध थाय. [ जो तेना विभाग विभाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुग अथवा एक तरफ बे प्रदेशोनो एक स्कंध अने एक तरफ छ अथवा एक तरफ त्रण प्रदेशनो एक स्कंध अने एक तरफ पांच प्रदेशनो एक स्कंध अथवा चार चार प्रदेशना बे स्कंध थाय छे. जो तेना त्रण विभाग थाय तो एक तरफ जुदा ने परमाणुपुद्रो अने एक तरफ छ प्रदेशनो एक स्कंध थाय छे. परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध थाय छे. तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. अथवा एक तरफ वे द्विप्रदेशिक स्कंधो अने एक चतुभ्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. अथवा एक तरफ एक अथवा एक संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! विभाग थाय. ] यावत् तेना बे शिक स्कंध अने एक तरफ वे त्रिप्रादेशिक स्कंध थाय छे. प्रण परमाणुपुद्रो अने एक तरफ पांच प्रदेशनो एक स्कंध थाय छे. परमाणुपुद्गल, एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कंधो अने दिप्रदेशिक पाय छे. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेजो तेना चार विभाग थाय तो एक तरफ जुदा • अथवा एक तरफ हुदा ने अथवा एक अथवा एक तरफ एक 1. अथवा चार अने एक तरफ ]. अथवा एक तरफ प्रण परमाणुओ अने एक तरफ एक द्विप्रदे ]. अपना एक तरफ मे परमाणुपुङ्गलो, एक जो ओ तेना छ विभाग थाय तो एक तरफ हुदा पांच परमाणुDOOD ..... अथवा एक तरफ चार परमाणुपुङ्गको जो तेना सात विभाग भाव तो एक तरफ उदा परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक चार प्रदेशनो स्कंध थाय छे. तरफ वे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ वे त्रिप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. शिक स्वन्ध अने एक त्रिप्रदेशिक स्कंध पाय तरफ प्रण द्विप्रदेशिक स्कन्धो पाय े. छे. पुद्गलो अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय छे. अने एक तरफ बेद्विप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. एक त्रिप्रदेशिक एक स्कंध थाय छे. तेना पांच विभाग थाय तो एक तरफ जुदा चार परमाणु पुद्गलो, • Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. तिपएसिए खंधे भवद अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवन्ति, सत्तहा कज्जंमाणे एगयो छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भषइ अट्टहा कजमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवंति। ८.०] नव भंते ! परमाणुपोग्गला-पुच्छा। [उ०] गोयमा! जाप-नवविहा कजंति, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवति, एवं एक्केकं संचारतेहिं जाव-अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, पगयओ चउपएसिए खंधे भवइ; अहवा तिनि तिपएसिया खंधा भवंति, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; पंचहा कन्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला; एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अह्वा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ नत्र परमाणुगो. छ परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध थाय छे. . जो तेना आठ विभाग थाय तो जुदा जुदा आठ परमाणुपुद्गलो थाय छे..|||||||| |||. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नव परमाणुपुद्गलो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नवप्रदेशनो एक स्कंध थाय छे; अने जो तेना विभाग करवामां आवे तो बे, त्रण, चार, पांच, छ, सात, आठ के यावत् नव विभाग थाय छे. तेना जो बे विभाग थाय तो एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ एक अष्टप्रदेशिक स्कंध थाय छे. . ए प्रमाणे एक एकनो संचार करवो; यावत्-अथवा एक तरफ एक चार प्रदेशनो स्कंध अने एक तरफ पांच प्रदेशनो स्कंध थाय छे. . जो तेना त्रण भाग करवामां आवे तो एक तरफ के परमाणुपुद्गलो, अने एक तरफ एक सप्तप्रदेशिक स्कंध थाय छे. - :.:. अथवा एक तरफ एक परमाणपटल एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध, अने एक तरफ छप्रदेशिक स्कंध थाय छे. . अथवा एक तरफ एक परमाणु, एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध, अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध थाय छे.ा . अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ बे चतुष्प्रदेशिक स्कंधो थाय छे. :::. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध, एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. . . . . •TE. अथवा त्रण त्रिप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. ::: तेना चार भाग थाय तो एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ छप्रदेशनो एक स्कंध थाय छे. . . :::. अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध थाय छे.. . 1 . अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ चारप्रदेशिक स्कंध थाय छे. | म. अथवा एक तरफ एक परमाणु पुद्गल, एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कंधो, अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. | . :. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. .. .... अथवा एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध धाय छे. . .... पांच भाग थाय तो एक तरफ जुदा चार परमाणुओ अने एक तरफ एक पंचप्रदेशिक स्कंध थाय छे.| 1 . अथवा एक तरफ त्रण परमाणुओ अने एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ चतुष्प्रदेशिक स्कंध थाय छे. | 8. अथवा एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कन्धो थाय छे. . अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ वे द्विप्रदेशिक स्कंधो अने एक त्रिप्रदेशिक स्कंध थाय छे. | I ... अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ चार द्विप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. जो तेना छ भाग करवामां आवे तो एक तरफ पांच परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध होय छे. अ. थवा एक तरफ चार परमाणुपुद्गलो, एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कंध होय छे. १ संचारेंतेहिं घ, संचारिएहिं ङ । ३४ भ. सू० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ४. तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति; छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा पगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा भवंति, सत्ता कजमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयो दो दुपएसिया खंधा भवंति; अट्टहा कज़माणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति, नवहा कजमाणे नव परमाणुपोग्गला भवंति । . ९. [प्र०] दस भंते! परमाणुपोग्गला-[उ०] जाव-दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ नवपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ अट्ट पएसिए खंधे भवइ, एवं एक्केकं संचारेयच्वं ति, जाव-अहवा दो पंच पएसिया खंधा भवंति; तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा पगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयो छप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो तिपएसिया खंधा, एगयो चउप्पएसिए खंधे भवइ, चउहा कजमाणे एगयो तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिन्नि तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिन्नि तिपएसिआ खंधा भवन्ति । अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ छपएसिए संधे दश परमाणु ... अथवा एक तरफ त्रण परमाणुओ अने एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कंधो होय छे. .. . |... जो तेना सात भाग करवामां आवे तो एक तरफ छ परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध होय छे. 1. अथवा एक तरफ पांच परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कंधो होय छे.. स. आठ भाग करवामां आवे तो एक तरफ सात परमाणुओ अने एक तरफ द्विप्रदेशिक एक स्कंध होय छे. .. जो तेना नव भाग करवामां आवे तो जुदा नव परमाणुओ होय छे. || ||||||||||| |||. ९. [प्र०] हे भगवन् ! दश परमाणुओ संबन्धे प्रश्न. [उ०] (तेनो एक दशप्रदेशिक स्कंध थाय छे. अने जो तेना विभाग करवामां आवे तो बे, त्रण, चार, पांच, छ, सात, आठ, नव अने दश विभाग थाय छे.) यावत् बे भाग करवामां आवे तो एक तरफ एक परमाणु अने एक तरफ नव प्रदेशनो एक स्कंध थाय छे.||::]. अथवा एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ अष्टप्रदेशिक एक स्कंध होय छे. | MEE. ए प्रमाणे एक एकनो संचार करवो; यावत्-अथवा बे पंचप्रदेशिक स्कंधो थाय छे. .जो तेना त्रण विभाग करवामां आवे तो एकतरफ वे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक आठ प्रदेशनो स्कंध होय छे. .' अथवा एक तरफ परमाणुपुद्गल, एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध, अने एक तरफ सप्तप्रदेशिक स्कंध होय छे. . . अथवा एक तरफ परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कंध अने एक छ प्रदेशिक स्कंध होय छे. | ED:. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध होय छे. ||| . अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध, एक तरफ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ पंचप्रदेशिक स्कंध होय छे. | अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बे चतुष्प्रदेशिक स्कंधो होय छे.. . अथवा एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध होय छे. | म. तेना चार विभाग करवामां आवे तो एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो, अने एक तरफ सप्तप्रदेशिक स्कंध होय छे. | मन अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ छप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. .. . अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक पंचप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. ||ान . अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ बे चतुष्प्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | FEE. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कंध, एक तरफ संचारतेणं क संचरिति छ। . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २६५ भवइ, अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एंगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवद अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एग: प्रो दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहंवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा पंच दुपएसिया खंधा भवंति; छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, पगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति: सत्तहा कजमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा पगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिनि दुपएसिया खंधा भवंति; अट्टहा कजमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपपसिया खंधा भवंति; नवहा कजमाणे एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति । दसहा कजमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति ।। १०. [प्र०] संखेजा णं भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नति, एगयओ साहणित्ता किं भवति? उ० गोयमा! संखेजपएसिए खंधे भवति । से भिजमाणे दुहाऽवि, जाव-दसहाऽवि संखेजहाऽवि कजति । दुहा कजमाणे एगयओ परमा त्रिप्रदेशिक स्कंध; अने एक चतुष्पदेशिक स्कंध होय छे. . अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ त्रण त्रिप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. 1 . अथवा एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक चतुप्रदेशिक स्कंध होय छे... B. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ त्रण त्रिप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. III...I...I. अथवा एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ वे त्रिप्रदेशिक स्कन्धो होय . . . तेना पांच विभाग करवामां आवे तो एक तरफ चार परमाणुपुद्गल अने एक तरफ एक छप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. :::. अथवा एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक पंचप्रदेशिक स्कंध होय छे. . . अथवा एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक चतुष्प्रदेशिक स्कंध होय छे. मा. अथवा एक तरफ बे परमाणुओ, एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | E D. अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कन्धो होय छे.||||| ... .... अथवा एक तरफ परमाणुपुद्गल, एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. नाबा.... अथवा पांच द्विप्रदेशिक स्कन्धो होय छे.... .. . तेना छ विभाग करवामां आवे तो एक तरफ जूदा पांच परमाणुओ अने एक तरफ एक पंचप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | अथवा एक तरफ चारपरमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध तथा एक तरफ एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होय छे. नाना-ME. अथवा एक तरफ चार परमाणुपुद्गलो, अने एक तरफ बे त्रिप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. नानाजान. अथवा एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो, एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | ना .... अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ चार द्विप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | • IT. . तेना सात विभाग करवामां आवे तो एक तरफ छ परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक चतुःप्रदेशिक स्कन्ध होय छे.. 1 . अथवा एक तरफ पांच परमाणुओ अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध तथा एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | TRI ... अथवा एक तरफ चार परमाणुओ, अने एक तरफ त्रण द्विप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | L I.I... तेना आठ विभाग करवामां आवे तो एक तरफ सात (जूदा ) परमाणुओ अने एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. || |||||...]. अथवा एक तरफ छ परमाणुओ, अने एक तरफ बे द्विप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. || |. 1 तेना नव विभाग करवामां आवे तो एक तरफ आठ परमाणुओ अने एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. . I I I II ... अने जो तेना दश विभाग करवामां आवे तो जुदा दश परमाणुओ थाय छे. II I . १०. [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता परमाणुओ एक साथे मळे अने एक साथे मळीने तेनुं शुं थाय ? [उ०] हे गौतम! तेनो संख्याता संख्याता परमाणुओ प्रदेशनो स्कन्ध थाय. जो तेनो भेद-विभाग थाय तो तेना बे, यावत् दस के संख्याता विभाग थाय. जो तेना बे भाग करवामां आवे तो एक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ४. णुपोग्गले, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; एगयो तिपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; एवं जाव-अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपए सिए खंधे भवति; अह्वा दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ, एवं जाव-अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; अह्वा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति एवं जाव-अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति; चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति, एवं जाव-अहह्वा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति जाव-अहवा एंगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति; जाव-अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति, अहवा चत्तारि संखेजपएसिया खंधा भवंति एवं तरफ एक परमाणुपुद्गल अने एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध थाय छे सं०. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कंध थाय छे. सं० अथवा एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध थाय छे. सं०. ए प्रमाणे यावद् एक तरफ दशप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. :::: सं०]. अथवा बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं० सं०]. तेना त्रण विभाग करवामां आवे तो एक तरफ बे परमाणुओ अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०]. अथवा एक तरफ एक परमाणु, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. 1: सं०. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०]. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे.| -11 ... सं०. ए प्रमाणे यावत्-अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ दश प्रदेशिक स्कन्ध अने एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, अने एक तरफ बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे..||सं० सं०]. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. [ सं० सं०. ए प्रमाणे यावत्-अथवा एक तरफ एक दशप्रदेशिक स्कन्ध अने बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. EEE सं० सं०. अथवा त्रण संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. तेना चार भाग करवामां आवे तो एक तरफ त्रण परमाणुपुद्गलो, अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०. अथवा एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०]. अथवा एक तरफ बे परमाणुओ, एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अने एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | •|| . ... .. ए प्रमाणे यावद्-अथवा एक तरफ बे परमाणुओ, एक तरफ दशप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. | | सं०. अथवा एक तरफ बे परमाणुओ अने एक तरफ बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | |सं० सं०/. अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. ना .म. सं०. ए प्रमाणे यावद्-अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक दश प्रदेशिक स्कन्ध अने बे संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे.| सं० सं०. अथवा एक परमाणुपुद्गल अने त्रण संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं० सं० सं०]. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने त्रण संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे... सं० सं० सं०]. ए प्रमाणे यावद-अथवा एक तरफ एक दश प्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ त्रण संख्यातप्रदेशिक स 10] सं० [सं० . अथवा चार संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं० सं०] [सं० || सं० ए प्रमाणे एक्रमथी पंचसंयोग पण कहेवो; यावत् नव संयोग सुधी कहे. तेना दश विभाग करवामां आवे तो एक तरफ नव परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. मागा सं ०. अथवा एक तरफ आठ परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कंध अने एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. || |||||||| सं०. अथवा एक तरफ आठ परमाणुपुद्गलो, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. Jain Education international Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ - उदेशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २६९ पणं कमेणं पंचगसंजोगो वि भाणियचो, जाव- नवगसंजोगो । दसहा कज्जमाणे एगयओ नव परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेअपरसिप संधे भवति या एगयओ बट्ट परमाणुपोगला, एगयओ दुपरसिए, एगयओ संज्ञपरसिए बंधे भवति । एएणं कमेणं एक्वेक्को पूरेयधो, जाव - अहवा एगयओ दसपपसिए खंधे, एगयओ नव संखेज्जपरसिया संधा भवंति; अहवा द संखेजपरसिया संधा भयंति संखेजदा कलमाणे संखेजा परमाणुयोग्गला नवंति । 1 ११. [प्र०] असंखेजाणं भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहनंति, एगयओ साहणित्ता किं भवति ? [उ०] गोयमा ! अक्षरसिप बंधे भवति से मिलमाणे दुद्दाऽचि जाय इसदाऽपि संखेचहाऽचि, असंलेखहाऽवि कवर। दुद्दा फ माणे एगयओ परमाणुषोमा, एगयो असंखेजपरसिए संधे भवति जाब-अहवा एगयओ दसपरसिए बंधे भवर, एगयत्रो असिनपसिए बंधे भवति महवा एगयओ संखेजपपसिए संधे, पगयओ बसंतेजपरसिए संधे मवतिः अहवा दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जपपलिए बंधे भवति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपपसिए, एगयओ असंखिजपपसिए खंधे भवति, जाव - अहवा एगयओ परमाणुपोगले एगयओ इसपरसिए बंधे, एगयओ असंखपरसिए संघ भवति अहचा एगयओ परमाणुपोन्गले, एगयओ संखेअपपसिए खंधे, एगयओ असंलेजपरसिर संधे भवति अदवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो असंलेजपरसिया संधा भयंति अहवा एगयो दुपपसिए संधे, एगयओ दो असंखेजपरसिया संघा भयंति एवं जाच अहचा एगयओ संसेजपरलिए संधे, एगयओ दो असंखिखपरसिया खंधा नवंति अहचा तिग्नि असंलेजपरसिया संधा भवति । चउहा कजमाणे एगओ तिनि परमाणुपोमाला, एगयओ असंखेजपपलिए बंधे भवति एवं चडगसंजोगो, जाव- दसगसंजोगो, एए जहेच संखेज्जपपसियस्स, नवरं असंखेजगं एवं अहिगं भाणियां, जाव- अहवा दस असंखेज्जपरसिया खंधा भवंति । संखेज्जहा फज्रमाणे एगवओ संबेजा परमाणुषोमाला, एगपत्र असंसेजपरसिए संधे भवति सहवा एगयओ संबेना दुपपसिया संघा, एगयओ अखेपरसिप खंधे भवति पर्व जाव- अहचा एगपत्र संखेजा दसपरसिया संधा, एगयो अपर 1 संए क्रमपडे एक एकनी संख्या वधारवी, याबद्-अथवा एक दशप्रदेशिक स्वत्थ अने एक तरफ नव संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं० अथवा दश संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं०. जो तेना संख्यात भागो करवामां आवे तो संख्याता परमाणुपुद्गलो थाय छे. ::::: सं० सं० सं० सं० सं० सं० सं० सं० | सं० सं० सं० सं० सं० सं० सं० सं० सं० , धाप [४०] हे गौतम! नो असंख्यात प्रदे असं०]. ११. [१०] हे भगवन् । असंख्याता परमाणुपुद्रलो एक मळे, अने पछी तेनुं न्याय जो तेना विभाग करीए तो वे, यावत् दश, संख्याता के असंख्याता विभाग धाय. जो वे विभाग करवामां आवे तो एक तरफ एक परमाणुपुद्रल अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कंध होय छे. [] [अ०] याबद्-अथवा एक तरफ दशप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कम्भ होय छे. [:::::] (०) अथवा एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध भने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं०] असं०. अथवा बे असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. सं०] [असं]. करवामां आवे तो एक तरफ वे परमाणुपुद्रको अने एक तरफ असंख्यात्प्रदेशिक स्कन्ध होय छे. जो तेना त्रण विभाग असं०] अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे.. | असं०]. यावद्-अथवा एक तरफ परमाणुपुद्गल, एक तरफ दशप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. असं०. अथवा एक तरफ एक परमाणु, एक तरफ संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. सं० अ० अपना असं०. एक तरफ एक परमाणु, अने एक तरफ चे असंख्यातप्रदेशिक कम होय छे. 12 [असं] असं०] अथवा एक तरफ द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बै असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. असं०] [अ०] ९ प्रमाणे पाच-अपना एक तरफ संख्यातप्रदेशिक सं०] असं०] असं०/- अथवा त्रण असंख्यात प्रदेशात्मक स्कन्धो होय छे. जो तेना चार भाग करवामां आवे तो एक तरफ त्रण परमाणुओं अने एक तरफ एक असंख्यातप्रदेशात्मक स्कन्ध | असं०. ए प्रमाणे चतुष्कसंयोग, यावद् दशकसंयोग जाणवो. अने ए सर्व संख्यात प्रदेशिकनी पेठे जाणवु, परन्तु एक ‘असंख्यात' शब्द अधिक क्रहेवो. यावद्-अथवा दश असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. जो संख्याता विभाग करवामां आवे ए स्कन्ध अने एक तरफ बे असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. असं० [सं०] असं, होय े || छे. तो एक तरफ संख्याता परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ असंख्यातप्रदेशात्मक स्कन्ध होय छे. अथवा एक तरफ संख्याता द्विप्रदेशिक स्कन्धो भने एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. ए प्रमाणे यावद्-अथवा एक तरफ संख्याता दशप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक शुमो. : Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ४. सिए खंधे भवति; अहवा एगयओ संखेजा संखेजपएसिया खंधा, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति; अंहवा संखेजा असंखेजपएसिया खंधा भवंति । असंखेजहा कजमाणे असंखेजा परमाणुपोग्गला भवंति ।। १२. [प्र०] अणंता णं भंते! परमाणुपोग्गला जाव-किं भवति ? [उ०] गोयमा! अणंतपएसिए खंधे भवति से भिजमाणे दुहाऽवि तिहाऽवि जाव-दसहाऽवि संखेजा-असंखेजा-अणंतहाऽवि कजइ । दुहा कजमाणे एगयो परमाणुपोमंगले एगयओ अणंतपपसिए खंधे भवति; जाव-अहवा दो अणंतपएसिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिप, एगयो अणंतपपसिए खंधे भवति; जाव-अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ असंखेजपएसिए खंधे, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयो दो अणंतपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव-अहवा एगयओ दसपएसिप खंधे, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ संखेजपदेसिए खंधे, एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ असंखेजपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिन्नि अणंतपएसिया खंधा भवंति । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति; एवं चउक्कसंजोगो, जाव-असंखेजगसंजोगो, एते सच्चे जहेव असंत्रेजाणं भणिया तहेत अणंताणऽवि भाणियचं, नवरं एक्कं अणंतगं अभहियं भाणियवं, जाव-अहवा एगयओ संखेजा संखेजपएसिया खंधा, एगयो अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ संखेजा असंखेजपएसिया खंधा, एगयो अणंतपएसिए खंधे भवति, अहवा संखेजा अणंतपएसिया खंधा भवंति । असंखेजहा कजमाणे एगयओ असंखेजा परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपपसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ असंखेजा दुपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति, जाव-अहवा एगयओ असंखेजा संखेजपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ असंखेजा असंखेजपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति, अहवा असंखेजा अणंतपएसिया खंधा भवंति । अणंतहा कज्जमाणे अणंता परमाणुपोग्गला भवंति । असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा एक तरफ संख्याता संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक असंख्यप्रदेशात्मक स्कन्ध होय छे. अथवा संख्याता असंख्यातादेशिक स्कन्धो होय छे. जो तेना असंख्य विभाग करवामां आवे तो असंख्य परमाणुपुद्गलो थाय छे. अनन्त परमाणुभो. १२. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्त परमाणुपुद्गलो एकठा थाय अने एकठा थया पछी तेनुं शुं थाय: [उ०] हे गौतम! तेनो अनन्तप्रदेशात्मक स्कन्ध थाय. जो तेना विभाग थाय तो बे, त्रण, यावत् दस, संख्यात, असंख्यात अने अनन्त विभाग थाय. बे विभाग करवामां आवे तो एक तरफ परमाणुपुद्गल अने एक तरफ अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. - अनं०). यावद्-अथवा बे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. अनं०] अनं०]. जो तेना त्रण विभाग करवामां आवे तो एक तरफ बे परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. 1. अनं०]. अथवा एकतरफ एक परमाणु, एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ एक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. ||1अनं०]. यावद्-अथवा एक तरफ एक परमाणुपुद्गल, एक तरफ असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे.| | असं०. अनं०. अथवा एक तरफ एक परमाणु, अने एक तरफ बे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | मन अनं०ा. अथवा एक तरफ एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. 1-1 अनं०/ अन.. ए प्रमाणे यावद्-अथवा एक तरफ एक दशप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. | अनं० अन०. अथवा एक तरफ एक संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ बे अनन्त प्रदेशिक स्कन्धो होय छे. [सं०] अनं० अनं०]. अथवा एक तरफ एक असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अने एक तरफ वे अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. असं० अनं०] अनं०. जो तेना चार भाग करवामां आवे तो एक तरफ त्रण परमाणुओ अने एक तरफ एक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अनं०-ए प्रमाणे चतुष्कसंयोग, यावद्-संख्यातसंयोग कहेवो. ए बधा संयोगो असंख्यातनी पेठे अनन्तने पण कहेवा; परन्तु एक 'अनन्त' शब्द अधिक कहेवो, यावद्-अथवा एक तरफ संख्याता संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा एक तरफ संख्याता असंख्येयप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा संख्याता अनंतप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. जो तेना असंख्याता विभाग करीए तो एक तरफ असंख्यात परमाणुपुद्गलो अने एक तरफ एक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा एक तरफ असंख्यात द्विप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक अनन्त प्रदेशिक स्कंध होय छे, यावद्-अथवा एक तरफ असंख्याता संख्यातप्रदेशिक स्कन्धो अने एक तरफ एक अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा एक तरफ असंख्याता असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धो भने एक तरफ अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होय छे. अथवा असंख्याता अनन्तप्रदेशिक स्कन्धो होय छे. जो तेना अनन्त विभाग करवामां आवे तो अनन्त परमाणुपुद्गलो थाय छे. . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७१. १३. प्र०] एएसि णं भंते !.परमाणुपोग्गलाणं साहणणा-भेदाणुवाएणं अणंताणंता .पोग्गलपरियट्टा समणुगंतवा भवं. तीति मक्खाया? [उ०] हंता, गोयमा! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा० जाव-मक्खाया। १४. [प्र०] कइविहे गं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते? [उ०] गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते, तंजहा-१ ओरालियपोग्गलपरियडू, २ वेउधियपोग्गलपरियट्टे, ३ तेयापोग्गलपरियट्टे, ४ कम्मापोग्गलपरियट्टे, ५ मणपोग्गलपरियडे वइपोग्गलपरियट्टे, ७ आणापाणुपोग्गलपरियट्टे । १५. [प्र.] नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णते, तंजहा-१ ओरालियपोग्गलपरियट्टे, २ वेउवियपोग्गलपरियट्टे, जाव-७ आणापाणुपोग्गलपरियडू एवं जाव-वेमाणियाणं । १६. प्र० एगमेगस्सं णं भंते ! नेरइयस्स केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? [उ०] अणंता, [प्र० केवइया पुरेक्खडा [उ.] कस्सई अत्थि, कस्सइ नत्थि; जस्सत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा। १७. [प्र०] एगमेगस्स गं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया ओरालियपोग्गल ? [उ०] एवं चेव, एवं जावचेमाणियस्स। १८. [प्र०] एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स केवतिया वेउवियपोग्गलपरियट्टा अतीता? [उ.] अणंता, एवं जहेव ओरालियपोग्गलपरियट्टा तहेव वेउचियपोग्गलपरियट्टाऽवि भाणियचा, एवं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव-आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, पते पगत्तिया सत्त दंडगा भवंति। १९. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? [उ०] गोयमा! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? [उ०] अणंता, एवं जाव-वेमाणियाणं, एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टाऽवि, एवं जाव-आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, जाव-वेमाणियाणं, एवं एए पोहत्तिया सत्त चउच्चीसतिदंडगा। • १३. हे भगवन् ! ए परमाणुपुद्गलोना संयोग अने भेदना संबंधथी अनन्तानन्त पुद्गलपरिवर्तो जाणवा योग्य छे माटे कह्या छे! अनन्तानन्त, पुद्गल [उ.] हा, गौतम! संयोग अने मेदना योगथी ए परमाणुपुद्गलोना अनंतानंत पुद्गलपरिवर्तो जाणवा योग्य छे माटे कह्या छे. परिवतो. १४. प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम! पुद्गलपरिवर्तों सात प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिकपुद्गलपरिवर्त, २ वैक्रियपुद्गलपरिवर्त, ३ तैजसपुद्गलपरिवर्त, ४ कार्मणपुद्गलपरिवर्त, ५ मनपुद्गलपरिवर्त, ६ वचनपुद्गलपरिवर्त अने ७ आनप्राणपुद्गलपरिवर्त. पुद्गलपरिवर्तना प्रकार. १५. प्रि०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारना पुद्गलपरिवर्तो कह्या छे ! [उ०] हे गौतम | तेओने सात पुद्गलपरिवों कह्या नैरयिकोने पदलछे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिकपुद्गलपरिवर्त, २ वैक्रियपुद्गलपरिवर्त, यावद् ७ आनप्राणपुद्गलपरिवर्त. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवं. परिवतो. १६. प्रि०हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो अतीत-थया छे ! [उ०] हे गौतम ! अनन्त थया छे. एक नरयिकने औदा[प्र०] केटला थनारा छे ! [उ०] कोइने थवाना होय छे अने कोइने नथी; जेने थवाना छे तेने जघन्यथी एक, बे के त्रण थवाना छे: अने रिकपुद्गलपरिवो. उत्कृष्टथी संख्याता, असंख्याता के अनन्ता थवाना होय छे. १७. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक असुरकुमारने केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो थया छे ? [उ०] ए प्रमाणे-उपर कह्या प्रमाणे भमुरकुमारने औदाजाणवू, ए प्रमाणे यावद् वैमानिक सुधी जाणवू. रिकपुद्गलपरिवर्त. १८. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने केटला वैक्रियपुद्गलपरिवर्तो थया छे ! [उ०] अनन्ता थया छे. ए प्रमाणे जेम औदा- एक नायिकने वैकिरिकपुद्गलपरिवर्त संबन्धे कडं तेम वैक्रियपुद्गलपरावर्त संबन्धे पण जाणवू. यावद् वैमानिक सुधी कहे. ए प्रमाणे यावद् आनप्राणपुद्गलपरिवर्त यपुद्गलपरिवतों. संबन्धे पण जाणवु. ए प्रमाणे एक एकने आश्रयी सात दंडको थाय छे. १९. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो थया छे ? [उ०] हे गौतम! अनन्ता थया छे. [प्र०] केटला नैरयिकोने पुल औदारिकपुद्गलपरिवर्तो थवाना छे! [उ०] अनन्ता थवाना छे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सुधी जाणवू. ए रीते वैक्रियपुद्गलपरिवर्तो, यावद् आनप्राणपुद्गलपरिवर्तो संबन्धे पण यावत् वैमानिको सुधी जाणवू. एम [सात पुद्गलपरिवर्त संबन्धे] बहुवचनने आश्रयी सात दंडको [नैरयिकादि ] चोवीश दंडके कहेवा. परिवत. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ .. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक १२.-उद्देशक ४. २०. [प्र०] एगमेगस्स णं भंते ! नेरश्यस्स नेइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलंपरियद्वा अतीतां! [उ०] नस्थि एको वि। [प्र०] केवतिया पुरेक्खडा ? [उ०] नत्थि एको वि। २१. [प्र०] एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा० उ०] पवं चेव, एवं जाव-थणियकुमारत्ते जहा असुरकुमारत्ते ।। २२. प्रि० एगमेस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता [उ. अणंता, [प्र०] केवतिया पुरेक्खडा [उ०] कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि; जस्सस्थि तस्स जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि या, उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं जाव-मणुस्सत्ते, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा असुरकमारते। २३. प्रि०] पगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा ? [उ०] एवं जहा नेरइयस्स वत्तवया भणिया, तहा असुरकुमारस्स वि भाणियचा, जाव-वेमाणियत्ते, एवं जाव-थणियकुमारस्स, एवं पुढविका- . इयस्स वि, एवं जाव-वेमाणियस्स, सन्वेसि एको गमो। २४. [प्र०] एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया वेउधियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? [उ०] अर्णता, [प्र०] केवतिया पुरेक्खडा ? [उ०] एकोत्तरिया जाव-अणंता वा, एवं जाव-थणियकुमारत्ते। - २५. [प्र०] पुढवीकाइयत्ते पुच्छा । [उ०] नत्थि एक्कोऽवि, [प्र०] केवतिया पुरेक्खडा ? [उ.] नत्थि एकोऽवि, एवं जत्थ वेउवियसरीरं अत्थि तत्थ एगुत्तरिओ, जत्थ नत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियचं, जाव-चेमाणियस्स वेमाणियत्ते । तेयापोग्गलपरियट्टा, कम्मापोग्गलपरियट्टा य सवत्थ एक्कोत्तरिया भाणियचा, मणपोग्गलपरियट्टा सवेसु पंचिंदिएसु एगोत्तरिया, विगलिदिएसु नत्थि । वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव, नवरं एगिदिएसु नत्थि भाणियधा। आणापाणुपोग्गलपरियट्टा सवत्थ एकोत्तरिया, जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते । एक नैरयिकने नैर- २०. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने नैरयिकपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो अतीत-थया छे ! [उ०] तेओने एक यिकपणामा नौदा पटलपरिवर्त, पण औदारिकपुद्गलपरिवर्त थयो नथी. [प्र०] केटला औदारिक पुद्गलपरिवर्ती थवाना छे ! [उ० तेओने एक पण थबानो नथी. एक नैरपिकने भमु. २१. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने असुरकुंमारपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो थया छे ! [उ०] उपर कह्या प्रमाणे रपणामा नौदारिक - जाणवू, ए प्रमाणे जेम असुरकुमारपणामां कडं तेम यावत् स्तनितकुमारपणामां पण जाणQ. पुद्गलपरिवर्त. एक नैरयिकने पृथिबीकायपणामा औदा २२. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने पृथिवीकायपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो थया छे ! [उ०] अनन्ता थया छे. प्र०] केटला थवाना छे ! [उ०] कोइने थवाना छे अने कोइने थवाना नथी, जेने थवाना छे तेने जघन्यथी एक, बे के त्रण थवाना छे' अने उत्कृष्टथी संख्याता, असंख्याता के अनन्ता थवाना छे, ए प्रमाणे यावत् मनुष्यपणामां पण जाणवु. तथा वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिकपणामां जेम असुरकुमारपणामां कयुं तेम जाणवू. एक भसुरकुमारने नैरयिकपणामां और दारिकपुद्गलपरिवत. २३. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक असुरकुमारने नैरयिकपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो अतीत-थया छे ! [उ०] जेम नैर, यिकनी वक्तव्यता कही तेम असुरकुमारनी पण वक्तव्यता कहेवी. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिकपणामां कहेवू. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमार सुघी कहे. ए प्रमाणे पृथिवीधी आरंभी यावद् वैमानिकसुधी बधाओने एक गम-पाठ कहेवो. एक नैरयिकने नर- २४. [प्र०] हे भगवन् ! एक एक नैरयिकने नैरयिकपणामां केटला वैक्रियपुद्गलपरिवर्तो थया छे ? [उ०] अनन्ता थया छे. [प्रक यिकपणामा क्रिया HER' केटला थवाना छे ? [उ०] हे गौतम ! एकथी मांडीने यावद् अनन्ता थवाना छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारपणाम जाणवू. नैरयिकने पृथिवीकापिकपणामां वैक्रियः युगलपरिवर्त. २५. [प्र०] पृथिवीकायिकपणामा प्रश्न.-एक एक नैरयिकने पृथिवीकायिकपणामां वैक्रियपुद्गलपरिवों केटला थया छे! [उन एक पण नथी. [प्र०] केटला थवाना छे ? [उ०] एक पण नथी. ए प्रमाणे जे जीवोने वैक्रियशरीर छे तेओने एकादि पुद्गलपरावर जाणवा, अने जेओने वैक्रियशरीर नथी तेओने पृथिवीकायिकपणामां का छे तेम कहेवं, यावद् वैमानिकने वैमानिकपणामां कहे. तैजसपुद्गलपरिवर्तो अने कार्मणपुद्गलपरिवर्ती सर्वत्र एकथी मांडीने अनन्तसुधी कहेवा. मनःपुद्गलपरिवर्तो बधा पंचेन्द्रियोमा एकथी आरंभी [अनन्त सुधी] कहेवा. ते (मनःपुद्गलपरिवर्तो) विकलेन्द्रियोमा नथी. वचनपुद्गलपरिवर्तो पण ए प्रमाणे जाणवा; परन्तु विशेष ए छे के ते एकेन्द्रिय जीवोमा नथी. श्वासोच्छासंपुद्गलपरिवों बधा जीवोमा एकथी मांडीने वधारे जाणवा; यावद्-वैमानिकने वैमानिकपणामां कहेवू. . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.' २७३ __.२६. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा- अतीता? [उ०] नत्थि एकोऽवि।०] केवइया पुरेक्खडा? [उ०] नत्थि एको वि, एवं जाव-थणियकुमारत्ते । २७: प्र०] पुढविकाइयत्ते पुच्छा। [उ०] अणंता। [प्र०] केवइया पुरेक्खडा? [उ.] अणंता, एवं जाव-मणुस्सत्ते। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते, एवं जाव-वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं सत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणियचा; जत्थ अत्थि तत्थ अतीता वि पुरेक्खडा वि अणंता भाणियचा, जत्थ नत्थि तत्थ दोऽवि नत्थि भाणियचा। जाव-प्र०] वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवतिया आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीया? [उ०] अणंता । [4] केवतिया पुरेक्खडा?[उ०] अणंता। २८. [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालियपोग्गलपरिय? ? [उ०] गोयमा! जणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाइं ओरालियसरीरत्ताए गहियाई, बद्धाई, पुट्ठाई, कडाई, पटुवियाई, निविट्ठाई, अभिनिविट्ठाई, अभिसमन्नागयाई, परियादियाई, परिणामियाई, निजिन्नाई, निसिरियाई, निसिट्ठाई भवंति; से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालियपोग्गलपरियट्टे' । एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टेऽवि, नवरं वेउब्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउधियसरीरप्पायोग्गाई, सेसं तं चेव सवं, एवं जाव-आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, नवरं आणापाणुपायोग्गाई सम्बदवाइं आणापाणुत्ताए सेसं तं चेव । ___ २९. [प्र०] ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स निधत्तिजइ ? [उ०] गोयमा! अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं एवतिकालस्स निबत्तिजइ, एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टे वि, एवं जाव-आणापाणुपोग्गलपरियट्टेऽवि । ३०. [प्र०] एयस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, वेउवियपोग्गल, जाव-आणापाणुपोग्गलपरियनिचत्तणाकालस्स कयरे-कयरहितो जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सच्चत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्टनिवत्त २६. प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने नैरयिकपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो व्यतीत थया छे ? [उ०] एक पण व्यतीत थयेल नैरयिकोने नैरयिक नथी. [प्र०] केटला थवाना छे ? [उ०] एक पण थवानो नथी. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारपणामां जाणवू. पणामा केटला औदारिकपुद्र परिवर्त व्यतीत थया छ। २७. [प्र०] पृथिवीकायिकपणामां प्रश्न. (नैरयिकोने पृथिवीकायिकपणामां केटला औदारिकपुद्गलपरिवर्तो व्यतीत थया छे!) [उ०] नैरयिकोने पृथिवीअनन्ता व्यतीत थया छे. [प्र०] केटला थवाना छे? [उ०] अनन्ता थवाना छे. ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यपणामां जाणवं. तथा जेम नैर- कायि कायिकपणामा बौदा रिकपुद्गलपरिवर्व. यिकपणामा कयुं छे तेम वानव्यन्तर, ज्योतिष्क अने वैमानिकपणामां कहे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकने वैमानिकपणामां कहे. ए रीते साते पुद्गलपरिवर्तो कहेवा; ज्यां होय छे त्यां अतीत-थयेला अने पुरस्कृत-भावी पण अनन्ता कहेवा, अने 'ज्यां नथी त्यां अतीत अने भावी बन्ने पण नथी-' एम कहे. यावद्-[प्र०] वैमानिकोने वैमानिकपणामां केटला आनप्राणपुद्गलपरिवर्तो थयेला छे? [उ०] अनन्ता थयेला छे. [प्र०] केटला थवाना छे ? [उ०] अनन्ता थवाना छे. औदारिकपुद्गरूपरि कहेवाय। २८. [प्र०] हे भगवन् ! 'औदारिकपुद्गलपरिवर्त औदारिकपुद्गलपरिवर्त'-एम शा हेतुथी कहेवाय छे! [उ०] हे. गौतम | औदा- रिकशरीरमां वर्तता जीवे औदारिकशरीरने योग्य द्रव्यो औदारिकशरीरपणे ग्रहण करेला छे, स्पर्शेला छे, करेला छे, स्थिर करेला छे, स्थापन करेला छे, अभिनिविष्ट-सर्वथा लागेला छे, सर्वथा प्राप्त थयेलां छे, सर्व अवयववडे ग्रहण करायेला छे, परिणाम पामेला छे, निर्जरायेला छे, जीवप्रदेशथी नीकळेला छे, अने जीवप्रदेशथी जूदा थयेलां छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम ! एम 'औदारिकपुद्गलपरिवर्त औदारिकपुद्गलपरिवर्त' कहेवाय छे. ए प्रमाणे वैक्रियपुद्गलपरिवर्त पण जाणवो. परन्तु विशेष ए छे के, वैक्रियशरीरमा वर्तता जीवे वैक्रियशरीरने योग्य पुद्गलो कहेबां, बाकी बधुं तेज प्रमाणे कहे. ए प्रमाणे यावद् आनप्राणपुद्गलपरिवर्त सुधी जाणवू; विशेष ए छे के, त्या 'आनप्राणयोग्य सर्व द्रव्यो आनप्राणपणे ग्रह्यां छे' इत्यादि कहे, बाकी बधुं पूर्वनी पेठेज जाणवू. २९. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिकपुद्गलपरिवर्त केटला काळे नीपजे? [उ०] हे गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीवडे- औशरिकपुद्गलपरि वर्तनो निष्पत्तिकाल. एटला काळे-औदारिकपुद्गलपरिवर्त नीपजे. ए प्रमाणे वैक्रियपुद्गलपरिवर्त पण जाणवो. ए प्रमाणे यावत् आनप्राणपुद्गलपरिवर्त पण जाणवो. पचन ३०. [प्र०] हे भगवन् ! ए औदारिकपुद्गलपरिवर्तना निष्पत्तिकाळमां, वैक्रियपुद्गलपरिवर्तना निष्पत्तिकाळमां, यावद्-आनप्राणपुद्गलप- औदारिकादिपुद्गलप. रिवर्तना निष्पत्तिकाळमां कयो काळ कोनाथी (अल्प), यावत् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सर्वथी थोडो कार्मणपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्ति- रिवर्तकानुं अरुपकाळ छे, तेनाथी अनन्तगुण तैजसपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ छे, तेनाथी अनन्तगुण औदारिकपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ छे, तेनाथी ३५ भ० सू० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक १. णाकाले, तेयापोग्गलपरियनिष्पत्तणाकाले अणंतगुणे, ओरालियपोग्गल. अणंतगुणे, आणापाणुपोग्गल० अणंतगुणे, मणपोग्गल. अणंतगुणे, वइपोग्गल. अणंतगुणे, घेउधियपोग्गलपरियट्टनिषत्तणाकाले अर्णतगुणे। ___३१. [प्र०] एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव-आणापाणुपोग्गलपरियहाण य कयरे कयरेहितो जावविसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सपत्थोवा वेउवियपोग्गलपरियट्टा, वइपो० अणंतगुणा, मणपो० अणंतगुणा, आणापाणुपो० अनंतगुणा, ओरालियपो० अणंतगुणा, तेयापो० अणंतगुणा, कम्मगपो० अणंतगुणा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति भगवं जाव-विहरह। द्वादश शते चतुर्थ उद्देशक समाप्त. आनप्राणपुद्गलनो निष्पत्तिकाळ अनन्तगुण छे, तेनाथी मनःपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ अनन्तगुण छे, तेनाथी वचनपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ अनन्तगुण छे, अने तेनाथी वैक्रियपुद्गलपरिवर्तनो निष्पत्तिकाळ अनन्तगुण छे. पलपरिवर्तन अल्प- . ३१. [प्र०] हे भगवन् ! ए औदारिकपुद्गलपरिवर्त, यावद्-आनप्राणपुद्गलपरिवर्त-एओमां परस्पर कया पुद्गलपरिवर्त कोनाथी यावद्पहुत्व. विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा वैक्रियपुद्गलपरिवर्तो छे, तेनाथी अनन्तगुणा वचनपुद्गलपरिवर्तो छे, तेनाथी अनन्तगुणा मनःपुद्गलपरिवर्तो छे, तेनाथी अनन्तगुणा आनप्राणपुद्गलपरिवर्तो छे, तेनाथी अनन्तगुण औदारिकपुद्गलपरिवर्तो छे, तेनाथी अनन्तगुणा तैजसपुद्गलपरिवर्तो छे, अने तेनाथी अनन्तगुण कार्मणपुद्गलपरिवर्तो छे. 'हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छ'-एम कही यावद्-भगवान् गौतम विहरे छे. द्वादश शते चतुर्थ उद्देशक समाप्त. . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ। १. प्र० रायगिहे जाव-एवं वयासी-अह भंते! १ पाणाइवाए, २ मुसावाए, ३ अदिनादाणे, ४ मेहुणे, ५ परिगहे-एस णं कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पण्णते ?.[उ०] गोयमा! पंचवन्ने, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे, पण्णत्ते॥ २. [प्र०] अह भंते ! १ कोहे, २ कोवे, ३ रोसे, ४ दोसे, ५ अखमा, ६ संजलणे, ७ कलहे, ८ चंडिके, ९ भंडणे, १० विवादे-एस णं कतिवन्ने, जाव-कतिफासे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! पंचवन्ने, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते ॥ ३. [प्र०] अह भंते ! १ माणे, २ मदे, ३ दप्पे, ४ थंभे, ५ गधे, ६ अत्तुक्कोसे, ७ परपरिवाए, ८ उकासे, ९ अवकासे, १० उन्नते, ११ उन्नामे, १२ दुन्नामे-एस णं कतिवन्ने ४ ? [उ०] गोयमा! पंचवन्ने, जहा कोहे तहेव ॥ पंचम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [गौतम] यावद्-आ 'प्रमाणे बोल्यां के हे भगवन् ! १ *प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ अदत्तादान, प्राणातिपातबगेरे के ४ मैथुन अने ५ परिग्रह-ए बधा केटला वर्णवाळा, केटला गन्धवाळा, केटला रसवाळा अने केटला स्पर्शवाळा कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! " ते पांच वर्णवाळा, बे गन्धवाळा, पांच रसवाळा अने चार स्पर्शवाळा कह्या छे. - २. [प्र०] हे भगवन् ! १ क्रिोध, २ कोप, ३ रोष, ४ दोष,५ अक्षमा, ६ संज्वलन, ७ कलह, ८ चांडिक्य (रौद्राकार), ९ भंडन क्रोधादि केटला र (दंडादिथी युद्ध करवू) अने १० विवाद-ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शबाळा कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! पांच वर्णवाळा, र्णादि सहित छे? बे गन्धवाळा, पांच रसवाळा अने चार स्पर्शवाळा कह्या छे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! १tमान, २ मद, ३ दर्प, ४ स्तंभ, ५ गर्व, ६ अत्युत्कोश, ७ परपरिवाद, ८ उत्कर्ष, ९ अपकर्ष, १० उन्नत (उन्नय), ११ उन्नाम अने १२ दुर्नाम-ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! पांच वर्णवाळा-इत्यादि जेम क्रोध संबन्ध कडं तेम अहिं जाणवू. मान बगेरे फेटला वर्णादियुक्त छ । १* प्राणातिपात-जीवहिंसाथी उत्पन्न थयेलं कर्म अथवा जीवहिंसाने उत्पन्न करनार चारित्रमोहनीय कर्म उपचारथी प्राणातिपात कहेवाय छे. ए रीते मृषावादादि संबन्धे पण जाणवू. अने ते कर्म पुद्गलरूप होवाथी तेने वर्णादिक होय छे, माटे तेने पांच वर्ण वगेरे कह्या छ-टीका. २ क्रोधना परिणामने उत्पन्न करनार कर्मने क्रोध कहे छे. तेमां १ कोध सामान्य नाम छे अने कोपादि तेना विशेषवाची नामो छ. २ कोधना उदयथी. खभावथी चलित थर्बु ते कोप, ३ कोधनी परंपरा ते रोष, ४ पोताने अथवा परने दूषण मापq ते दोष, अथवा अप्रीतिमात्र ते द्वेष, ५ बीजाए करेला अपराधने सहन न करवो ते अक्षमा, ६ वारंवार क्रोधथी बळवू ते संज्वलन, ७ मोटेथी बूम पाडी परस्पर अनुचित बोलवू ते कलह, ८ रौद्राकार धारण करवो ते चांडिक्य, ९ दंडादिथी युद्ध करवं ते भंडन भने १० परस्पर विरोधथी उत्पन्न थयेला वचनो ते विवाद. अथवा आ बधा क्रोधना एकार्थक शब्दो छे-टीका. ३tमानना परिणामने उत्पन्न करनार कर्मने मान कहेवाय छे. तेमा १ मान सामान्य नाम छे भने मदादि तेना विशेषवाची नामो छ, २ मद-हर्ष, ३ दर्प-दृप्तपणु, ४ स्तंभ-अनमनस्वभाव, ५ गर्व-अहंकार, ६ अत्युत्कोश-बीजाथी पोतानी उत्कृष्टता बताववी, ७ परपरिवाद-परनिन्दा, ८ उत्कर्ष-मानथी पोतानी के परनी क्रियाने उत्कृष्ट करवी, अथवा अभिमानथी पोतानी समृद्धि वगेरेने प्रकट करवी, ९ अपकर्ष-अभिमानथी पोताना अथवा परना कोइ पण कार्यथी बन्ध पडवू, अथवा अभिमानथी अप्रकट रहेg,१० उन्नत-पूर्वे प्रवृत्त नमननो त्याग करवो, अथवा उन्नय-अभिमानथी नीतिनो त्याग करवो, ११ उन्नामनमेलाने अभिमानथी न नमQ अने १२ दुर्नाम-मदथी दुष्टरीते नमवू. महिं स्तंभादिक मानना कार्य छे. अथवा आषधा शन्दो मानना एकार्थवाचक छे-टीका, Jain Education international Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया. " लोभ. राग द्वेष वगेरे केटला वर्णादियुक्त के प्राणातिपात विरम नादि केटला वर्णादियुक्त छे १ रानीमति श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२. उद्देश ५. ४. [प्र० ] अह भंते ! १ माया, २ उवही, ३ नियडी, ४ वलये, ५ गहणे, ६ णूमे, ७ कक्के, ८ कुरूप, ९ जिम्हे, १० किशिसे, ११ आयरणया, १२ ग्रहणया, १३ पंचणया १४ पलिउंचणया, १५ सातिजोगे य-एस णं कवियत्रे ४ पनते [अ०] गोयमा ! पंचवन्ने, जहेव कोहे । २७६ ५. [ प्र० ] अह भंते । १ लोभे, २ इच्छा, ३ मुच्छा, ४ कंखा, ५ गेही, ६ तण्हा, ७ भिज्झा, ८ अभिज्झा, ९ आसासणया, १० पत्थणया, ११ लालप्पणया, १२ कामासा, १३ भोगासा, १४ जीवियासा, १५ मरणासा, १६ नंदीरागे - एस णं कतिवने ४ ? [उ०] जहेब कोहे । ६. [अ०] अह मंते पेजे, दोसे, कलहे, जाय-मिच्छादंसणस एस णं कतिपत्रे ? [30] जहेच कोहे तहेष चडफासे । ७. [ प्र० ] अह भंते ! १ पाणाइवायवेरमणे, जाव - ५ परिग्गहवेरमणे, ६ कोहविवेगे जाव - १८ मिच्छादंसणसल्लविवेगेएस णं कतिवन्ने, जाव - कतिफासे पण्णत्ते ? [30] गोयमा ! अवने, अगंधे, अरसे, अफासे पण्णत्ते । ८. [ प्र०] अह भंते ! १ उप्पत्तिया, २ वेणइया, ३ कम्मिया, ४ परिणामिया-एस णं कतिवन्ना ? [अ०] तं चैव जाव अफासा पन्नत्ता । ४. [ प्र० ] हे भगवन् । १* माया, २ उपधि, ३ निकृति, ४ वलय- वक्रताजननस्वभाव, ५ गहन, ६ नूम, ७ कल्क, ८ कुरूपा ९ जिझता, १० किल्विष, ११ आदरणता ( आचरणता ), १२ गूहनता, १३ वंचनता, १४ प्रतिकुंचनता, १५ सातियोग - ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा छे ? [उ०] हे गौतम! ए बधा पांच वर्णवाळा - इत्यादि क्रोधनी पेठे जाणवा. ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! १ लोभ, २ इच्छा, ३ मूर्छा, ४ कांक्षा, ५ गृद्धि, ६ तृष्णा, ७ भिध्या, ८ अभिध्या, ९ आशंसना, १० प्रार्थना, ११ लालपनता, १२ कामाशा, १३ भोगाशा, १४ जीविताशा, १५ मरणाशा अने १६ नंदिराग - ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा छे ! [उ०] हे गौतम! क्रोधनी पेठे (सू. २ ) जाणवु. ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! १ प्रेम - राग, २ द्वेष, ३ कलह, यावत्-८ मिथ्यादर्शनशल्य - ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा छे ? [उ०] क्रोधनी पेठे ते बधा चार स्पर्शवाळा छे. ७. [प्र०) हे भगवन् । १ प्राणातिपात विरमण यावद्-५ परिग्रहविरमण ६ कोनो माग, त्याग - ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत् केटला स्पर्शवाळा कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! वर्ण विनाना, गंध विनाना का छे. ८. [अ०] हे भगवन् । ११ औत्पत्तिकी (स्वाभाविक उत्पन्न धवेली), २ वैनयिकी ( गुरुना विनय - शास्त्राभ्यासद्वारा पयेली बुद्धि ), ३ कार्मिकी ( कर्मद्वारा थयेली ) अने ४ पारिणामिकी ( लांबा काल सुधी पूर्वापर अर्थना अबलोकनादिकथी उत्पन्न थयेली ) बुद्धि - ए केटला वर्णवाळी, यावत्-केटला स्पर्शवाळी कही छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवुं यावद्-स्पर्शरहित कही छे. याबद्- १८ मिथ्यादर्शनशयनो विनाना, रस विनाना अने स्पर्श १ माया सामान्यवाचक नाम छे अने उपधिआदि तेना मेदो छे. २ उपधि- छेतरवा योग्य मनुष्यनी पासे जवाना कारणभूत भाव, ३ निकृतिआदर करवा वडे बीजाने छेतरयुं, अथवा पूर्वकृत मायाने ढांकवा बीजी माया करवी, ४ वलय-जे भाव वडे वलयनी पेठे वक वचन के चेष्टा प्रवर्ते ते भाव, ५ गहन - बीजाने छेतरवा माटे गहनना जेवी न समजी शकाय तेवी वचनजाल, ६ नूम-बीजाने ठगवा नीचतानो अथवा नीच स्थाननो आश्रय करवो, ७ कहक - हिंसादिनिमित्ते परने हेतरवानो अभिप्राय, ८ कुरूप निन्दितरीते मोह पमाढनार अभिप्राय ९ जिझता बीजाने छेतरवानी बुद्धिधी कार्यमा मन्दमायायी जेवाय ते ११ आदरणता (आवरता जे मायाविशेषथी को पवन आदर करे ते आदरणता, अथवा बीजाने छेतरवा विविध क्रियानुं आचरण करवुं ते आचरणता, १२ गूहनता पोताना खरूपने छुपाववु १३ वंचनता - परने तर १४ प्रतिकुंचनता-सपने १५ सोउत्तम इन्यनी साधे हीन इव्यनो योग करो अथवा आमा मायाना कराते, १० वचन एकार्थक शब्दो छ टीका. १ ५ सामान्याची नाम इच्छदिन विशेष मेदोछे, १ इच्छा पूर्ण संरक्षण करवानी निरन्तर अभिलाषा कक्षाअप्राप्त पदार्थनी इच्छा, ५ वृद्धि प्राप्त अर्थमां आसक्ति, ६ तृष्णा-प्राप्त पदार्थनो व्यय न थाय तेवी इच्छा, ७ भिध्या-विषयोनुं ध्यान, एकाग्रता, ८ अभिष्याभरत आग्रह, चलायमान चित्तनी स्थिति, ९ आशंसना - पोताने इष्ट अर्थनी इच्छा, १० प्रार्थना - बीजा माटे इष्ट अर्थनी मागणी, ११ लालपनता अत्यन्त बोलवाथी प्रार्थना करवी १२ कामाशा इष्ट शब्द अने रूप प्राप्तिनी संभावना, १३ भोगाशा - इष्ट गंधादि प्राप्तिनी संभावना, १४ जीविताशा जीवितव्यनी प्राप्तिनी संभावना, १५ मरणाशा कोइक अवस्थामां मरण प्राप्तिनी संभावना, १६ नंदीराग छती समृद्धिनो राग थवो टीका. ७ प्राणातिपात विरमगादि जीवन उपयोगरूप है, भने जीवन उपयोग अमूर्त होवाची ते वदता के. उत्पत्ति प्रयोजन के, परन्तु जेनेशा धर्म भने अभ्यासादिनी अपेक्षा नयी ते ओखती बुद्धि का नय सेनद्धि से जीवन सभाव होनाची अमूर्त के अने तेथी ते वर्णादिरहित छे एादि भने गादि प्रतिपादक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ५. १५. [प्र०] मणुस्साणं पुच्छा। [उ०] ओरालिय-वेउधिय-आहारग-तेयगाई पडुग्ध पंचवन्ना, जाव-अटफासा पण्णता, कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेरइयाणं, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । धम्मत्थिकाए, जाव-पोग्गलत्यिकाएएए सचे अवन्ना, जाव-अफासा, नवरं पोग्गलत्थिकाए पंचवन्ने, पंचरसे, दुगंधे, अट्टफासे पण्णत्ते । णाणावरणिजे, जावअंतराइए-एयाणि चउफासाणि । १६. [प्र०] कण्हलेसा णं भंते ! कइवन्ना-पुच्छा । [उ०] दधलेसं पडुच्च पंचवन्ना, जाव-अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुश्य अवन्ना ४, एवं जाव सुक्कलेस्सा । सम्मद्दिट्टि ३, चक्खुइंसणे ४, आभिणिबोहियणाणे ५ जाव-विभंगणाणे, आहारसन्ना, जाव-परिग्गहसन्ना-एयाणि अवनाणि ४ । ओरालियसरीरे, जाव-तेयगसरीरे-एयाणि अट्ठफासाणि । कम्मगसरीरे चउफासे, मणजोगे, वयजोगे य चउफासे, कायजोगे अट्ठफासे । सागारोवओगे य अणागारोवओगे य अवन्ना। १७. [प्र०] सम्वदधा गं भंते ! कतिवन्ना-पुच्छा । [उ.] गोयमा! अत्थेगतिया सवदवा पंचवन्ना, जाव-अट्टफासा पण्णत्ता, अत्थेगतिया सव्वदच्छा पंचवन्ना, चउफासा पण्णत्ता; अत्थेगतिया सघदया एगवण्णा, एगगंधा, एगरसा, दुफासा पन्नत्ता, अत्थेगइया सघदया अवन्ना, जाव-अफासा पन्नत्ता । एवं सवपएसा वि, सधपजवा वि, तीयद्धा अवन्ना, जावअफासा पण्णत्ता, एवं अणागयद्धा वि, एवं सघद्धा वि। १८. [प्र०] जीवे णं भंते! गम्भं वकममाणे कतिवघ्नं, कतिगंधं, कतिरसं, कतिफासं परिणाम परिणमा ? [उ.] गोयमा ! पंचवन्नं, पंचरसं, दुगंधं, अट्ठफासं परिणाम परिणमइ ।। १९. [प्र०] कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? [उ०] हंता गोयमा! कम्मओ णं तं चेव जाव-परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति। मनुष्यो. १५. [प्र०] हे भगवन्! मनुष्यो केटला वर्णवाळा कह्या छे?-इत्यादि. उ०] औदारिक, वैक्रिय, आहारक अने तैजस पुद्गलोनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळा, यावत्-आठ स्पर्शवाळा कह्या छे, कार्मणपुद्गल अने जीवनी अपेक्षाए नैरयिकोनी पेठे (सू० १३.) जाणवा. बानव्यन्तरादि. जेम नैरयिको कह्या तेम वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको कहेवा. धर्मास्तिकाय अने यावत्-पुद्गलास्तिकाय-ए बधा वर्णरहित छे, धर्मास्तिकायादि. यावत् स्पर्शरहित छे; पण विशेष ए छे के, पुद्गलास्तिकाय पांच वर्णवाळो, पांच रसवाळो, बे गंधवाळो अने आठ स्पर्शवाळो होय छे.१ शानावरणादि. ज्ञानावरणीय, यावद्-८ अंतराय कर्म-ए बधो चार स्पर्शवाळां छे. कृष्णलेश्यादि. १६. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्या केंटला वर्णवाळी छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम *द्रव्यलेश्यानी अपेक्षाए पांच वर्णवाळी, सम्यग्दृष्टयादि. ___ यावद्-आठ स्पर्शवाळी कही छे अने भावलेश्यानी अपेक्षाए वर्णादिरहित छे. ए प्रमाणे यावत्-शुक्ललेश्या सुधी जाणवू. १ सम्यग्दृष्टि, २ मिथ्यादृष्टि, ३ सम्यग्मिध्यादृष्टि, ४-७ चक्षुदर्शन वगेरे चार दर्शन, ८-१२ आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) वगेरे पांच ज्ञान, यावद्-विभंगज्ञान, औटारिकादि शरीर. साकारोपयोग अने आहारसंज्ञा, यावत्-परिग्रहसंज्ञा-ए बधां वर्णादिरहित छे. औदारिक शरीर, यावत्-तैजस शरीर-ए बधां-आठ स्पर्शवाळां छे. कार्मणशरीर, अनाकारोपयोग. मनोयोग अने वचनयोग चार स्पर्शवाळा छे, काययोग आठ स्पर्शवाळो छे, साकारोपयोग अने अनाकारोपयोग-ए बन्ने वर्णादिरहित छे. सर्वद्रव्यो. १७. [प्र०] हे भगवन् ! बधां द्रव्यो केटला वर्णवाळां छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम | सर्व द्रव्योमांना केटलाक पांच वर्ण वाळां, यावद्-आठ स्पर्शवाळां छे, अने केटलाक पांच वर्णवाळा अने चार स्पर्शवाळां छे. तथा सर्व द्रव्योमांना केटलाक एक वर्णवाळा, एक गंधवाळां, एक रसवाळां अने बे स्पर्शवाळां छे, वळी सर्व द्रव्योमांना केटलाक वर्णरहित, यावद्-स्पर्शरहित छे. ए प्रमाणे सर्व प्रदेशो, सर्व पर्यायो अने अतीतकाळ पण वर्णरहित, यावत् स्पर्शरहित कह्या छे. ए प्रमाणे भविष्यकाळ अने सर्वकाळ पण जाणवो. गर्भमा उत्पन्न थतो १८. [प्र०] हे भगवन् ! गर्भमा उत्पन्न थतो जीव केटला वर्णवाळा, केटला गंधवाळा, केटला रसवाळा अने केटला स्पर्शवाळा परिणामवडे परिणमे ? [उ०] हे गौतम ! ते पांच वर्णवाळा, पांच रसवाळा, बे गंधवाळा अने आठ स्पर्शवाळा परिणामवडे परिणमे. जीव भने जगत् क- १९. [प्र०] हे भगवन् ! जीव कर्मवडे विविधरूपे--मनुष्य-तिर्यंचादि अनेकरूपे-परिणमे छे ? कर्म शिवाय विविधरूपे परिणमतो मधी विविधरूपे परिणमे छ। नथी ? तथा जगत् कर्मवडे विविधरूपे परिणमे छे ? कर्म विना परिणमतुं नथी? [उ०] हा, गौतम ! कर्मथी जीव अने जगत्-जीवनो समूह विविधरूपे परिणमे छे, कर्म विना परिणम नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही भगवान् गौतम] यावद् विहरे छे. जीव. द्वादश शते पंचम उद्देशक समाप्त. १६ * लेझ्याना बे प्रकार छे-द्रव्य अने भाव. तेमां द्रव्यलेश्या बादरपुद्गलपरिणामरूप होवाथी तेने पांचवर्ण, यावत्-आठ स्पर्श होय छ, अने भाव लश्या आन्तरपरिणामरूप होवाथी वर्णादिरहित छ---टीका. Jain Education international Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठओ उद्देसओ। १. रायगिहे जाव-एवं वयासी-बहुजणे णं मंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति, जाव-एवं परुवेइ-'एवं खलु राहू चंदं गेण्हति, एवं' २, से कहमेयं मंते ! एवं ? [उ०] गोयमा ! जन्नं से बहुजणे अन्नमन्नस्स० जाव-मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि, जाव एवं परूवेमि-“एवं खलु राहू देवे महिड्डीए, जाव-महेसक्खे, वरवत्थधरे, वरमल्लधरे, वरगंधधरे, वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स नव नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-सिंघाडए १, जडिलए २, खत्तए ३, खरए ४, दहरे ५, मगरे ६, मच्छे ७, कच्छभे ८, कण्हसप्पे ९ । राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवन्ना पण्णत्ता, तंजहा-किण्हा, नीला, लोहिया, हालिहा, सुकिल्ला । अत्थि कालए राहुविमाणे खंजणवन्नामे पण्णत्ते, अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवन्नामे पन्नत्ते, अत्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिटुवन्नाभे पन्नत्ते, अत्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवन्नामे पन्नत्ते, अत्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवन्नामे पन्नत्ते । जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउष्पमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरथिमेणं आवरेत्ता गं पचत्थिमेणं वीतीवयह तदा णं पुरथिमेणं चंदे उवदंसेति, पञ्चत्थिमेणं राहू, जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउवमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पञ्चत्थिमेणं आवरेत्ता णं पुरथिमेणं बीतीवयति तदा णं पञ्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेति, पुरथिमेणं राहू, एवं जहा पुरस्थिमेणं पञ्चत्थिमेण य दो आलावगा भणिया तहा दाहिणेण य उत्तरेण य दो आलावगा भाणियचा, एवं उत्तरपुरथिमेण दाहिणपञ्चत्थिमेण य दो आलावगा भाणियष्वा, एवं दाहिणपुरथिमेणं उत्तरपच्चच्छिमेण य दो आलावगा भाणियचा, एवं चेव जाव-तदा णं उत्तरपञ्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेति, दाहिणपुरथिमेणं राहू । जदा णं राहू आग षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा (भगवान् गौतम) यावद्-आ प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-ए प्रमाणे प्ररूपे छे के 'ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने असे छे, ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने असे छे'; हे भगवन् ! एवी रीते केम होय! राहु चन्द्रने प्रसे के. ते संबन्धे प्रस. [उ०] हे गौतम! बहु माणसो परस्पर जे कहे छे ते यावत् ए प्रमाणे मिथ्या असत्य कहे छे. हे गौतम ! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु, " यावद्-आ प्रमाणे प्ररूपुं छं-ए प्रमाणे खरेखर राहु महर्धिक, (महाऋद्धिवाळो) यावद्-महासुखवाळो, उत्तम वस्त्रो, उत्तम माला, उत्तम राहु देवनु वर्णन सुगंध अने उत्तम आभूषण धारण करनार देव छे, ते राहुदेवना नव नामो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ शंगाटक, २ जटिलक, ३ क्षत्रक, पहुना नामो. खर, ५ दर्दुर, ६ मकर, ७ मत्स्य, ८ कच्छप अने ९ कृष्णसर्प. ते राहदेवना विमानो पांच वर्णवाळा कह्या छे, ते आ प्रमाणे- राहुना विमानो. १ काळा, २ नीला ( लीला ), ३ लाल, ४ पीळा अने ५ शुक्ल. तेमां राहुनुं जे काळु विमान छे ते खंजन-काजळना जेवा वर्णवाळू छे, जे नील ( लीलु) विमान छे ते काचा तुंबडाना वर्ण जेवू छे, जे लाल वर्णनुं राहुनुं विमान छे ते मजिठना वर्ण जेवं छे, जे पीलं राहुन विमान छे ते हळदरना वर्ण जेवु छे, अने जे धोळ विमान छे ते राखना ढगलाना वर्ण जेवू कडुं छे. ज्यारे आवतो के राहु आवतो के जतो जतो, विकुर्वणा करतो के काम-क्रीडा करतो राहु पूर्वमा रहेला चंद्रना प्रकाशने आवरीने पश्चिम तरफ जाय त्यारे पूर्वमां चंद्र . चन्दना प्रकाशने पोताने देखाडे छे, अर्थात् चन्द्र पूर्वमा देखाय छे, अने पश्चिममा राहु पोताने देखाडे छे, अर्थात् राहु पश्चिममा देखाय छे. ज्यारे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के काम-क्रीडा करतो राहु पश्चिममां चंद्रना प्रकाशने आवरीने पूर्व तरफ जाय त्यारे पश्चिममां चंद्र पोताने देखाडे छे, अने पूर्वमा राहु पोताने देखाडे छे. ए प्रमाणे जेम पूर्व अने पश्चिमना बे आलापक कह्या तेम दक्षिण अने उत्तरना बे आलापक कहेवा, ए प्रमाणे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) अने दक्षिण-पश्चिमना (नैर्ऋत कोणना) बे आलापक कहेवा. ए प्रमाणे दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) अने उत्तर-पश्चिमना (वायव्य कोणना) बे आलापक कहेवा. ए रीते यावतू-त्यारे उत्तर-पश्चिम-(वायव्य कोण) मा चन्द्र पोताने . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ६. च्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउष्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति'एवं खलु राहू चंदं गेहति, एवं०१ २ । जदा णं राहू आगच्छमाणे ४ चंदस्स लेस्सं आवरेत्ता णं पासेणं बीहषयह तदा मणस्सलोए मणुस्सा वदंति-'एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना, एवं० २ । जदा गं राहू आगच्छमाणे वा चंदस्स लेस्सं आवरेत्ता णं पच्चोसक्कइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-'एवं खलु राहुणा चंदे वंते, एवं०१२। जदाणं राहू आगच्छमाणे वा ४ जाव-परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ता णं चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-'एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे एवं० २। २.प्र०] कतिविहे णं भंते! राहू पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! दुविहे राहू पन्नत्ते, तंजहा-धुवराहू य पचराहू य । तत्थ गंजे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति, तंजहापढमाए पढम भाग, बितियाए बितियं भागं, जाव-पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमसमये चंदे .रत्ते भवति, अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते यं भवति; तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे २ चिट्ठति, पढमाए पढमं मागं, जाव-पन्नरसेसु पन्नरसमं भार्ग, चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ । तत्थ णं जे से पचराहू से जहन्नेणं छह मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदुस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स। ३. [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'चंदे ससी' २ ? [उ०] गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरनो मियंके विमाणे कंता देवा. कंताओ देवीओ, कंताई आसण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोहसराया सोमे कंते सुभए पियदसणे सुरूवे, से तेणटेणं जाव-ससी। ४. [प्र०] से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-'सूरे आइच्चे, सूरे० २१ २ ? [उ०] गोयमा! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव-उस्सप्पिणी इ वा अवसप्पिणी इ वा, से तेणटेणं जाव-आइच्चे । देखाडे छे, अने दक्षिण-पूर्वमा (अग्निकोणमा) राहु पोताने देखाडे छे. वळी ज्यारे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो राहु चंद्रनी ज्योत्स्नानुं आवरण करतो २ स्थिति करे, त्यारे मनुष्यलोकमां मनुष्यो कहे छे के, 'ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने प्रसे छे.' ए प्रमाणे ज्यारे राहु आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो चंद्रना प्रकाशने आवरीने पासे थइने जाय त्यारे मनुष्यलोकमा मनुष्यो कहे छे के-'ए प्रमाणे खरेखर चंद्रे राहुनी कुक्षि भेदी' २, अर्थात् राहुनी कुक्षिमा प्रवेश कर्यो. ए प्रमाणे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो राहु ज्यारे चंद्रनी लेश्याने ढांकीने पाछो वळे त्यारे मनुष्य लोकमां मनुष्यो कहे छे के, 'ए प्रमाणे खरेखर राहुए चंद्रने वम्यो'. वळी ए प्रमाणे ज्यारे राहु आवतो के यावत्-कामक्रीडा करतो चंद्रना प्रकाशने नीचेथी, चारे दिशाथी अने चारे विदिशाथी आवरीने-ढांकीने रहे त्यारे मनुष्यलोकमां मनुष्यो कहे छे के-'ए प्रमाणे खरेखर राहुए चंद्रने प्रस्यो.' राहुना प्रकार. २. प्रि०] हे भगवन् ! राहु केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! राहु बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-ध्रुवराहु (नित्यराहु ) अने पर्वराहु. तेमां जे ध्रुवराहु छे ते कृष्णपक्षना पडवाथी मांडीने [प्रतिदिवस] पोताना पन्नरमा भागवडे चन्द्रलेश्या-चंद्रबिम्बसंबन्धी पन्नरमा भागने ढांकतो २ रहे छे, ते आ प्रमाणे-एकमने दिवसे प्रथम भागने ढांके छे, बीजना दिवसे बीजा भागने ढांके छे, ए प्रमाणे यावद्-अमावास्याने दिवसे चंदना पंदरमा भागने ढांके छ; अने कृष्णपक्षने छेल्ले समये चंद्र रक्त-सर्वथा आच्छादित थाय छे अने बाकीना समये चंद्र रक्त-अंशथी आच्छादित अने विरक्त-अंशथी अनाच्छादित होय छे. शुक्लपक्षना प्रतिपदथी आरंभी (प्रतिदिवस ) तेज चंद्रनी लेझ्याना पंदरमा भागने देखाडतो २ रहे छे. ते आ प्रमाणे-पडवाने विषे पहेला भागने देखाडे छे, यावत् पूर्णिमाने विषे पंदरमाभागने देखाडे छे. शुक्लपक्षना छेवटना समये चन्द्र विरक्त-राहुथी सर्वथा मुक्त होय छे, अने बाकीना समये चन्द्र रक्त-आच्छादित अने विरक्त-अनाच्छादित होय छे. तेमां जे पर्वराहु छे ते ओछामा ओछां छ मासे (चंद्रने के सूर्यने) ढांके छे. अने वधारेमा वधारे बेताळीशयने क्यारे दकि? मासे चंद्रने अने वधारमा वधारे अडताळीश वरसे सूर्यने ढांके छे. चन्द्रने ३. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी चन्द्रने 'ससी' सश्री-ए प्रमाणे कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्योतिष्कना इंद्र अने ज्योतिष्कना ससी (सश्री)शोभा- राजा चंद्रना मृगांक (मृगना चिह्नवाळा ) विमानमा मनोहर देवो, मनोहर देवीओ, मनोहर आसन, शयन, स्तंभ तथा सुंदर पात्र वगेरे युक्त कहेवाय छे ? उपकरणो छे, तथा ज्योतिष्कनो राजा अने ज्योतिषिक इंद्र चंद्र पोते पण सौम्य, कांत, सुभग, प्रियदर्शन अने सुरूप छे, ते माटे चंद्र ससी-सश्री-शोभासहित कहेवाय छे. शा हेतुथी सूर्यने आ ४. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी सूर्यने आदित्य (आदिमां थयेलो) एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! समयो, आवलिकाओ, दित्य कहेवाय छे? यावत्-उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओना आदिभूत-कारण-सूर्य छे, माटे आदित्य-आदिमां धनार कहेवाय छे. [अर्थात् अहोरात्रादिक कालना समय-आवलिका-अने मुहर्तादि भेदो सूर्यनी अपेक्षाए. थाय छे, माटे सूर्यने अहोरात्रादि कालनो आदिभूत होवाथी आदित्य कहेवाय छे. ] . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८१ ५. [प्र०] चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? [उ०] जहा दसमसए जाव-णो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव। .. ६. [प्र०] चंदिम-सूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पश्चणुभवमाणा विहरंति ? [10] गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोषणुट्ठाणबलत्थे पढमजोधणुढाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे, अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लद्धटे, कयकज्जे, अणहसमग्गे पुणरवि नियगगिहं हवमागए, पहाए कयबलिकम्मे, कयकोउय-मंगलपायच्छित्ते, सवालंकारविभूसिए, मणुघ्नं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे, तंसि तारिसगंसि वासघरंसि, वन्नओ महब्बले कुमारे, जाव-सयणोवयारकलिए ताए तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारवेसाए जाव-कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धिं इट्टे सहे फरिसे जाव-पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणे विहरेजा, से णं गोयमा! पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुभवमाणो विहरति ? ओरालं समणाउसो! तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं पत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव कामभोगा, असुरिंदवजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा; असुरकु. माराणं देवाणं कामभोगेहितो गहगण-नक्षत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो अनंतगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा, गहगण-नक्खत्त-जाव-कामभोगेहिंतो चंदिम-सूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टयरा चेव कामभोगा, चंदिम-सूरिया णं गोयमा! जोतिसिंदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव-विहरद । छ?ओ उद्देसओ समतो। चन्द्रने अपमहि ५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिकना इंद्र अने ज्योतिषिकना राजा चंद्रने केटली पट्टराणीओ कही छे ! [उ०] हे गौतम! जेम "दशम शतकमां कयुं छे तेम अहीं जाणवं, यावत्-पोतानी राजधानीमां सिंहासन विषे जिनना अस्थिओनु संनिधान होवाथी] ' मैथुन निमित्ते देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थ नथी' त्यां सुधी जाणवं, तथा सूर्य संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवं. ६. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिष्कना इंद्र अने राजा, चंद्र अने सूर्य केवा प्रकारना कामभोगोने भोगवता विहरे छे ! [उ०] जेम सूर्य भने चन्द्र केवा प्रथम युवावस्थाना प्रारंभमां बलवान् कोइ एक पुरुषे प्रथम उगती युवावस्थामां बळवाळी भार्या साथे ताजोज विवाह कर्यो, अने पछी ते धन । प्रकारना कामभोगो भोगवे छे। मेळवंवा माटे सोळ वरस एभी परदेश गयो, अनेते धनने मेळवी, कार्य समाप्त करी समस्त विघ्नरहितपणे पाछो पोताने घेर तुरत आव्यो, स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करी तथा सर्वालंकारथी विभूषित थई मनोज्ञ, अने स्थालीमां पाक करवा बडे शुद्ध तथा अढार प्रकारना व्यंजन-शाकादिथी युक्त भोजन कर्या बाद मिहाबल उद्देशकमां वासगृहनुं वर्णन कयु छे तेवा प्रकारना-शयनोपचार युक्त वासगृहमां यावत्-तेवा प्रकारनी उत्तम शृंगारना गृहरूप सुंदर वेषवाळी, यावत्-कलित-कलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त, अने मनने अनुकूल एवी स्त्री साथे इष्ट शब्द, स्पर्श यावत्-पांच प्रकारना मनुष्य संबंधी कामभोगोने भोगवतो विहरे छे, हे गौतम ! हते ते पुरुष वेदोपशमनना-विकार शांतिना-समये केवा प्रकारना सुखने भोगवे ! हे आयुष्मन् श्रमण ! ते पुरुष उदार सुिखने अनुभवे. हे गौतम ! ते पुरुषना कामभोगो करतां वानव्यंतर देवोने अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे. वानव्यंतर देवोना कामभोगोथी असुरेन्द्र सिवायना भवनवासी देवोने अनन्तगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे, असुरेन्द्र सिवाय भवनवासी देवोना कामभोगो करतां असुकुमार देवोना कामभोगो अनंतरण विशिष्टतर होय छे, असुरकुमार देवोना कामभोगो करतां अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओने होय छे. ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओना कामभोगो करतां अनंतगुण विशि४तर कामभोगो ज्योतिषिकना इन्द्र अने ज्योतिषिक देवोना - राजा चन्द्र तथा सूर्यने होय छे. हे गौतम! ज्योतिष्कना इन्द्र, अने ज्योतिष्कना राजा चंद्र अने सूर्य आवा प्रकारना कामभोगोने अनुभवता विहरे छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने (वांदी अने नमी ) यावद् विहरे छे. द्वादश शते षष्ठ उद्देशक समाप्त ५. भग० सं०३.२०१० उ०१०पृ० २०३ सू० २३. ६ भग० सं०३-२०११-उ०११पृ० २३६ सू० १५. अहिं कामभोगोना सुखने-सुखाभासने उदार सुख तरीके कबु ते प्राकृत जननी दृष्टिए समजवू, वास्तविक रीते तो ते दुःखरूप ज छै.-अनुवादक. ३६ भ. सू. . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ। १. [प्र०] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव-एवं वयासी-केमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? [३०] गोयमा! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, पुरथिमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणणं असंखिज्जाओ एवं चेव, एवं पञ्चत्थिमण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उहं पि, अहे असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं। २. [H०] पयंसि णं मंते ! एमहालगंसि लोगंसि अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि परसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? [उ०] गोयमा! नो इणटे समढे । [.] से केणटेणं भंते । एवं वुच्चइ-'एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा, न मए वा वि' १ [उ०] गोयमा! सेजहानामए-केह पुरिसे अयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा, सेणं तत्थ जहन्नेणं एक वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेजा, ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्नेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेजा, अत्थि गं गोयमा! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जे गं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणपण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहि वा सिंगेहिं वा खुरेहिं पा नहोहिं वा अणकंतपुष्वे भवइ ? णो तिणट्टे समझे, होजा विणं गोयमा! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जे गं तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव-णहहिं वा अणकंतपुधे, णो नेव णं एयंसि एमहालगंसि लोगसि लोगस्स य सासयं भा, संसारस्स य अणादिभावं, जीवस्स य णिचभावं, कम्मबहुत्तं, जम्मण-मरणबाहुलं च पडुश्च नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि परसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वा वि, से तेणटेणं तं चेव जाव-न मए वा वि। सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] ते काले-ते समये यावद्-[भगवान् गौतम ] आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम | लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे; ते पूर्व दिशाए असंख्य कोटाकोटी योजन छे, दक्षिण दिशाए ए प्रमाणे असंख्याता कोटाकोटी योजन छे, ए प्रमाणे पश्चिम दिशाए अने उत्तर दिशाए छे. तथा एज प्रमाणे ऊर्ध्व-उपर अने नीचे पण असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-लंबाइ अने विष्कंभ-विस्तारथी छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! आ एवडा मोटा लोकमां एवो कोइ परमाणुपुद्गलना जेटलो पण प्रदेश छे के, ज्या आ जीव उत्पन्न थयो न होय, अने मरण पाम्यो पण न होय ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-'आ एवडा मोटा लोकमां एवो कोइ परमाणुपुद्गलमात्र पण प्रदेश नथी, के ज्यां आ जीव उत्पन्न थयो न होय अने मर्यो न होय ! [उ.] हे गौतम! जेम कोइ एक पुरुष सो बकरीने माटे एक मोटो अजाव्रज-बकरीनो वाडो-करे, तथा तेमा ओछामा ओछी एक, बे के त्रण अने वधारेमां वधारे एक हजार बकरीओ नाखे, अने ते वाडामा घणुं पाणी अने घणुं गोचर-चरवानुं स्थळ-होवाधी ते बकरीओ जघन्यथी एक दिवस, बे दिवस के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी छ मास सुधी रहे, तो हे गौतम! ते वाडानो एवो कोइ परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश होय के जे ते बकरीओनी लिंडिओथी, मूत्रथी, श्लेष्मथी, नाकना मळथी, वमनथी, पित्तथी, शुक्रथी, लोहिथी, चामडाथी, रोमथी, शिंगडाथी, खरीथी अने नखथी पूर्व स्पर्श न करायेलो होय ! [हे भगवन् !] ए अर्थ यथार्थ नथी. हे गौतम! कदाच कोइ एक परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश होय के जे ते बकरीओनी लीडोओथी, यावत् नखोथी पूर्व स्पर्श न करायेलो होय. तो पण आ एवडा मोटा लोकमां लोकना शाश्वत भावने लइने, संसारना अनादिपणाने लीधे, जीवना नित्य भावने आश्रयी, अने कर्मनी बहुलताने अने जन्म तथा मरणनी बहुलताने अपेक्षी एवो कोई परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश नथी के ज्यां आ जीव न जन्म्यो होय के न मर्यो होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी पूर्वोक्त यावत्-'ते मर्यो न होय. लोकर्नु महत्व Jain Education international Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८३ ३. [प्र०] कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ! [उ०] गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउदेसए तहेव आवासा ठावेयषा, जाव-अणुत्तरविमाणेत्ति, जाप-अपराजिए सट्ठसिद्धे। ४.०] अयं णं मंते ! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयाषासंसि पुढविकाइयत्ताए, जाव-वणस्सइकाइयत्ताप, नरगत्ताए, नेरायत्ताए उववन्नपुषे [उ०] हंता गोयमा! असई, अदुवा अणंतखुत्तो। . ५. [प्र०] सधजीवा वि णं भंते ! इमीसे रयणप्पमाए पुढधीए तीसाए णिरया० [उ०] तं चेव जाव-अणंतखुत्तो। ६. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे सकरप्पभाए पुढवीए पणवीसा० [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा माणियथा, एवं जाव-धूमप्पभाए। ७. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगंसि० [उ०] सेसं तं चेव । ८. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालपसु महानिरएसु एगमेगंसि निरयावा. संसि० [३०] सेसं जहा रयणप्पभाए । ९. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि पुढविभाइयताए, जाव-वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुथे? [उ०] हंता गोयमा । जाव-अणंतखुत्तो । सधजीवा वि णं भंते ! एवं चेव, एवं जाव-थणियकुमारेसु । नाणतं आवासेसु, भावासा पुषभणिया । नरकपूविवी. ३. [प्र०) हे भगवन् ! पृथिवीओ केटली कही छे! [उ०] हे गौतम ! सात पृथिवीओ कही छे, अहीं प्रथम शतकना पंचम "उद्दे- शकमां कह्या प्रमाणे नरकादिना आवासो कहेवा, ए प्रमाणे यावत्-अनुत्तरविमान, यावत्-अपराजित अने सर्वार्थसिद्ध सुधी जाणवू. १. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमा अने तेना त्रीश लाख नरकावासोमांना एक एक नरकावासमा पृथ्वीकायि- ा जीव रत्नप्रभाना कपणे, यावद्-वनस्पतिकायिकपणे, नरकपणे, नैरयिकपणे, पूर्वे उत्पन्न थएलो छे? [उ०] हा, गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न । एकएक नरकावासमा पृथिवीकायिकादिपणे थएलो छे. उत्पन्न थयो छ। सर्व जीवो. ५. प्र०हे भगवन् ! सर्व जीवो पण आ रत्नप्रभा पृथिवीमा अने तेना त्रीस लाख नरकावासमांना [ एक एक नरकावासमा पृथिवीकायिकपणे, यावद्-वनस्पतिकायिकपणे यावत्-पूर्वे उत्पन्न थएला छे! [उ०] पूर्वे कह्या प्रमाणे त्या अनेकवार अथवा ] यावत्अनंतवार पूर्व उत्पन्न थएला छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव शर्कराप्रभाना पचीस लाख नरकावासमांना एक एक नरकावासमां पृथिवीकायिकपणे यावत् वन- शर्कराप्रभाना नर• कावासमा पृथिवीकास्पतिकायिकपणे यावत्-पूर्वे उत्पन्न थएलो छ ? [उ०] जेम रत्नप्रभाना बे आलापक कह्या तेम शर्कराप्रभाना पण [एक जीव अने सर्व पणापत्र जीव आश्रयी ] बे आलापक कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-धूमप्रभा सुधी आलापक कहेवा. धयो छे? तमा पृथिवी. - . ७. [प्र०] है भगवन् ! आ जीव तमापृथिवीमांना पांच न्यून एक लाख निरयावासमांना एक एक नरकावासमा [पृथिवीकायिकपणे यावत्-वनस्पतिकायिकपणे पूर्वे उत्पन्न थएलो छे ?] [उ०] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ८. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव अधःसप्तम नरकपृथिवीना पांच अनुत्तर अने अत्यन्त म्होटा नरकावासोमांना एक एक नरका- सप्तम पृथिवीमा वासमा पूर्व उत्पन्न थयो छे! [उ०] बाकी बधुं रत्नप्रभानी पेठे जाणवू. पूर्व उत्पन्न थयो । अमरकुमार. ___-९. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव असुरकुमारोना चोसठ लाख असुरकुमारावासोमाना एक एक असुरकुमारावासमां पृथिवीकायिकपणे, यावत्-वनस्पतिकायिकपणे, देवपणे, देवीपणे, आसन, शयन अने पात्र वगेरे उपकरणपणे पूर्व उत्पन्न थएलो छे। [उ०] हा, गौतम! यावद् अनंतवार उत्पन्न थएलो छे. सर्व जीवो ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-'स्तनितकुमारो' सुधी जाणवं, परन्तु तेओना आवासोनी संख्यामा भेद छे, अने ए आवासो पूर्वे कहेला छे. ३* भग• खं० १२० १३.५पृ० १४१-१४३. Jain Education international Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ७, १०. प्र०] अयं णं भंते ! जीवे असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगसि पुढविक्काइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव-वणस्सइकाइयत्ताए उववन्नपुवे ? [उ०] हंता गोयमा ! जाव-अणतखुत्तो । एवं सधजीवा वि, एवं जाव-वणस्सइकाइएसु। ११. [प्र०] अयं णं भंते ! जीवे असंखेजेसु बेदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि दियावासंसि पुढविक्काइयत्ताए, जाववणस्सइकाइयत्ताए, बेइंदियत्ताए उववन्नपुवे ? [उ०] हंता गोयमा! जाव-खुत्तो । सधजीवा विणं एवं चेव, एवं जाव-मणुस्सेसु, नवरं तेंदियपसु जाव-वणस्सइकाइयत्ताए तेंदियत्ताए, चारिदिपसु चरिंदियत्ताए, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए, मणुस्सेसु मणुस्सत्ताए, सेसं जहा दियाणं, वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मी-साणाण य जहा असुरकुमाराणं । १२. प्र०] अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगसि वेमाणियावासंसि पुढविकाइयत्ताए[उसेसं जहा असुरकुमाराणं जाव-अणंतखुत्तो, नो चेव णं देवित्ताए, एवं सधजीवा वि एवं जाव-आणय -पाणएसु, एवं आरण-युएसु वि । १३. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे तिसु वि अट्टारसुत्तरेसु गेविजविमाणावाससयेसु० [उ.] एवं चेव । १४. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि० [उ०] तहेव जावअणंतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए वा देवीत्ताए पा, एवं सधजीवा वि । १५. [प्र०] अयन्नं भंते ! जीवे सधजीवाणं माइत्ताए, पितित्ताए, भाइत्ताए, भगिणित्ताए, भजताए, पुत्तत्ताए, धूयताए, सुण्हत्ताए उववनपुरे ? [उ०] हंता गोयमा ! असई, अदुवा अणंतखुत्तो। १६. [प्र०] सधजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स माइत्ताए जाव-उववनपुवा ? [उ०] हंता गोयमा! जायअणंतखुत्तो। पृथिवीकायिकावास १०. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव असंख्याता लाख पृथिवीकायिकावासमांना एक एक पृथिवीकायिकावासमां पृथिवीकायिकपणे मां पूर्वे उत्पन्न थयो ? यावद्-वनस्पतिकायिकपणे पूर्व उत्पन्न थयो छे । [उ०] हा, गौतम! यावत्-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे; ए प्रमाणे सर्व जीवो पण जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिकोमा पण जाणवू. मेइन्द्रियावासमा पूर्वे ११. [प्र०] हे भगवन्! आ जीव असंख्याता लाख बेइंद्रियावासमांना एक एक बेइंद्रियावासमां पृथिवीकायिकपणे, यावत्उत्पन्न भयो । वनस्पतिकायिकपणे अने बेइंद्रियपणे पूर्व उत्पन्न थएलो छे ? [उ०] हा, गौतम! त्यां यावद्-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे. सर्व जीवो पण ए प्रमाणे जाणवा, ए प्रमाणे यावदू-मनुष्योमा जाणवू. परन्तु विशेष ए छे के, तेइंद्रियोमा यावद्-वनस्पतिकायिकपणे, यावत् तेइंद्रियपणे चउरिंद्रियोमा चरिंद्रियपणे, पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकोमा पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकपणे, अने मनुष्योमा मनुष्यपणे उत्पत्ति जाणवी. बाकी बधुं बेइंद्रियोनी पेठे जाणवू. जेम असुरकुमारो संबंधे कह्यं तेम वानव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म अने ईशानमा पण जाणवू. सनत्कुमारकल्पमा. १२. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव सनत्कुमार कल्पमां तेना बार लाख विमानावासमांना एक एक वैमानिकावासमां पृथिवीकायपणे, यावत्-पूर्वे उत्पन्न थयलो छे ? [उ०] बाकीनुं बधुं असुरकुमारोनी पेठे (सू० ९) यावद्-'अनंतवार उत्पन्न थएलो छे' त्यां सुधी जाणवू. पण त्यां देवीपणे उत्पन्न थयो नथी. ए प्रमाणे सर्व जीवो संबन्धे पण जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-आनत अने प्राणतमा तथा आरण-अच्युता पण जाणq. मैनेयक विमाना- १३. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव त्रणसोने अढार अवेयक विमानावासमांना एक एक आवासमां पृथिवीकायिकपणे, यावद्-पूर्वे वासमा. उत्पन्न थएलो छे! [उ०] ए प्रमाणे जाणवू. (यावत्-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे.) अनुत्तर विमाना.. १४. [प्र०] हे भगवन्! आजीव पांच अनुत्तर विमानोमांना एक एक अनुत्तर विमानमा पृथिवीकायिकपणे, (यावत्-पूर्वे उत्पन्न भएलो वासमा. छे!) [उ०] ते प्रमाणे यावदू-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे, पण देवपणे अने देवीपणे उत्पन्न थयो नथी. ए प्रमाणे सर्व जीवो पण जाणवा. मा नीव सर्व जीवोना १५. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना मातापणे, पितापणे, भाईपणे, बहेनपणे, स्त्रीपणे, पुत्रपणे, पुत्री अने पुत्रवधूपणे पूर्व • माता पिता इत्यादि -संबन्धरूपे उत्पन्न उत्पन्न थएलो छे ! [उ०] हा, गौतम! अनेकवार, अथवा अनंतवार उत्पन्न थयेलो छे. थयो छे ? सर्व जीवो आ जीवना १६. [प्र०] हे भगवन् ! सर्व जीवो पण आ जीवना मातापणे, यावत्-पूर्व उत्पन्न थएंला छे ? [उ०] हा, गौतम! थावद्-अनेकमांता इत्यादि सबग्धरूपे उत्पन्न वार अथवा अनंतवार उत्पन्न थया छे. थया छे! Jain Education international Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२. - उद्देशक ७. भगवत्पुचखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८५ १७. [प्र०] अयण्णं भंते! जीवे सङ्घजीवाणं अरित्ताप, वेरियत्ताए, घातगत्ताए, वहगत्ताप, पडिणीयत्ताए, पञ्चामितउपवनपुत्रे [ड०] हंता गोषमा ! जाव अनंतसुतो । १८. [२०] सजीवां चि णं भंते 10 [४०] एवं चेव । १९. [प्र० ] अयनं भंते जीवे सजीवानं रावतार, परावतार, जाव-सत्यवादचार उपवनपुत्रे ? [०] ता गोमा ! असतं, जाव- अनंतखुत्तो । सङ्घजीवाणं एवं चेव । २०. [अ०] अयनं मंते ! जीये सङ्घजीवाणं दासताप, पेसत्तार, भयगताप, भाइलगताप, भोगपुरिसत्तार, सीसन्ताप, बेसार उचचनपुचे [0] दंता गोयमा । जाप अनंतसुतो एवं सहजीया विभतसुत्तो 'सेयं भंते! सेवं भंते ति जाव- विहरद्द | 1 सत्तमो उद्देसओ समत्तो । १७. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना शत्रुपणे, वैरिपणे, घातकपणे, वधकपणे, प्रत्यनीकपणे अने शत्रुना मित्रपणे पूर्वे भा जीव सर्व जीवना उत्पन्न परों के [अ०] था, गौतम या अनंतबार उत्पन्न भयो छे. ! ! शत्रुरूपे उत्पन्न थयो छे १ सर्व जीवो. १८. [अ०] है भगवन् । यथा य जीवो ( आ जीवना वैरिपणे यावत् पूर्वे उत्पन्न धरला छे ) [ उ० ] ए प्रमाणे जाणवु. ? १९. [१०] हे भगवन् ! आजीव सर्व जीवोना राजातरीके, युवराजतरीके यावत् सार्थवाहतरीके पूर्वे उत्पन्न परतो हे जीवना [30] हा गौतम! अनेकवार अथवा अनंतवार उत्पन्न थयो छे. ९ प्रमाणे सर्व जीवो संबंधे पण जाण राजा तरीके उत्पन्न भयेल छे ? २०. [प्र० ] हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना दासपणे प्रेष्य-चाकरपणे, भृतकपणे, भागीदारपणे, भोगपुरुषपणे (बीजाए उपार्जेला आजीव सर्व जीवना धननो भोग करनारपणे), शिष्यपणे, अने शत्रुपणे पूर्वे उत्पन्न थरलो छे ! [उ०] हा गौतम ! यावत्-अनंतवार उत्पन्न थयो छे, ए प्रमाणे सर्व जीवो पण यावद् अनंतवार उत्पन्न थया छे. हि भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे. एम कही यावद्-विहरे छे. दासरूपे उत्पन भयेल के १ सर्व जीवो. द्वादश शते सप्तम उद्देशक समाप्त. / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ १.प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव-एवं वयासी-देवेणं भंते! महिड्डीए जाव-महेसक्खे अणंतरं चयं चाचा बिसरीरेसु नागेसु उववजेजा [उ०] हंता गोयमा! उववजेजा। २. [प्र०] से णं तत्य अचिय-वंदिय-पूड्य-सकारिय-सम्माणिए दिवे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे यावि भवेजा ? . [उ०] हंता, भवेज्जा। ३. [प्र०] से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता सिझेजा, बुझेजा, जाव-अंतं करेजा ? [उ०] हंता सिझिजा, जाव-अंतं करेजा। ४. [प्र०] देवे गं भंते ! महिहीए एवं चेव जाव-बिसरीरेसु मणीसु उववजेजा । [अ०] एवं चेव जहा नागाणं । ५.प्र. देवे गं भंते ! महिद्दीए जाव-बिसरीरेसु रुक्नेसु उववजेजा [उ०] हंता, उववजेजा एवं चेष, नवरं इमं. नाणतं-जाव-सभिहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भवेजा इंता भवेज्जा, सेसं तं चेव जाव-अंतं-करेजा।' किद्धिवालो देव HOT अष्टम उद्देशक. १. [प्र०] ते काले, ते समये, [भगवान् गौतम ] यावद्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! महाऋद्धिवाळो यावद्-महासुखवाळो देव च्यवीने-मरण पामीने तुरतज मात्र "बे शरीरनेज धारण करनारा नागोमां, (सर्प अथवा हाथीमां) उत्पन्न थाय! [उ०] हा गौतम! उत्पन्न थाय. नागना जन्मा २. [प्र०] हे भगवन् ! त्यां ते नागनां जन्ममा अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान, सत्य, सत्यावपातरूप (जेनी चैत पूजित थाय' सेवा सफल छे एवो) ते संसारनों अन्त करे, अने पासे रहेला [पूर्वना संबन्धी देवोए] जेनुं प्रतिहार कर्म कयु छे एवो थाय ? [उ०] हा थाय. ३. [प्र०] ते त्याथी मरण पामीने सिद्ध थाय, बुद्ध थाय, यावद्-संसारनो अन्त करे! [उ०] हा, सिद्ध थाय, यावद्-अन्त करे. ४. [प्र०] हे भगवन् ! महर्षिक देव-ए प्रमाणे यावद्-वे शरीरवाळा मणिमा उत्पन्न थाय! [उ०] ए प्रमाणे नागनी पेठे जाणवू. शरीरवाळा मणिउत्पन्न थाय। शरीरवाळा शर्मा उत्पन्न थाय! ५. [प्र०] हे भगवन् ! महर्धिक यावद्-महासौख्यवाळो देव बे शरीरनेज धारण करनारा वृक्षोमा उत्पन्न थाय! [उ०] हा, गौतम! उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्व प्रमाणे जाणवं. परन्तु एटलो विशेष छे के 'जे वृक्षमा ते उत्पन्न थाय ते वृक्ष यावत्-समीपमा रहेला देवकृत प्रातिहार्यवाळु थाय, तथा ते वृक्ष] छाणथी लीपेल अने खडीथी धोळेल होय, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवं, यावद्-'ते संसारनो अन्त करे.' १* जेओ नागर्नु शरीर छोडीने मनुष्यशरीरने पामी मोक्ष प्राप्त करशे ते मात्र बे शरीरने धारण करनारा नागो कहेवाय छे. ५१ प्रतिहारकर्म-पासे रही तेचं रक्षणादि कार्य करवू. देवाधिष्ठित विशिष्ट वृक्षो बद्धपीठवाळा होय छे, तेथी तेनी पीठ-चौतरो छाणवगेरेथी लींपेल अने खडी वगेरेशी धोळेल होय छे-टीका. Jain Education international Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२. उदेशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८७ ६. [अ०] यह भंते! गोलंगूलबसमे, कुकुडवसमे, मंडुकवसमे पर णं निस्सीला निष्ठया निम्गुणा निम्मेरा निष्पचपाणपोसदोषवासा कालमासे कार्ड किया हमीसे रयणप्पभाष पुढवीप उकोसेणं सागरोपमद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयचाप उपजा १ [०] समणे भगवं महावीरे वागरे- 'उपपक्षमाणे उपयले 'ति वत्तई सिया । ७. [२०] अह मंते सीधे पन्धे जहा उस (ओस ) णिउद्देस जाव- परस्सरे एप णं निस्सीला० [४०] पर्व चेष जाव-पत्त सिया । ८. [अ०] अह मंते । ढंके के विलय मग्गुर सिखी पर पं निस्सीला०] [४०] सेसं तं चेच जाव-वचवं सिया 'सेवं मंते । सेयं भंते! सि जाय-विहर। 1 अमो उद्देसो समतो रममा ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! वानरवृषभ- मोटो वानर, मोटोको अने मोटो देउको ए बधा शीवरहित, प्रतरहित, गुणरहित, मर्या नाव दारहित, प्रख्याख्यान अने पौषधोपवासरहित मरणसमये काल करी आ रक्तप्रभा पृथिवीमा उत्कृष्टपी सागरोपमनी स्थितियाळा नरकमा नेरयिकपणे उत्पन्न' थाय ! [उ०] श्रमण भगवंत महावीर कहे छे के [हा नैरयिकरूपे उत्पन्न, थाय,] कारण के "जे उपजतुं होय ते 'उत्पन्न युं' एम कवाय ८. [प्र० ] हे भगवन् ! कागडो, गीध, वीलक, देडको अने मोर - ए बधा शीलरहित - इत्यादि प्रश्न. [उ०] उत्तर पूर्ववत् जाणवुं. हे भगवन् ! 'ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' -एम कही यावद - विहरे के .. ७. [प्र० ] हे भगवन् ! सिंह, वाघ - वगेरे अवसर्पिणी उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् - परासर - ए बधा शीलरहित - इत्यादि यावत् सिंह वगैरे पण नैर [30] पूर्व प्रमाणे जाणवुं. यिक पणे उपजे द्वादशशते अष्टम उद्देशक समाप्त. ६ * जे समये वानरादि छे ते समये ते नारकरूपे नथी, माटे ते नारकरूपे केम उत्पन्न धाय ! आ प्रश्नना उत्तरमां भगवान् महावीर कहे छे के 'जे उपज होय ते उत्पन्न भएलं' एम कहेवाय, माटे वानरादि नारकरूपे जे उत्पन्न थवाना छे ते उत्पन्न भएला एम कद्देवाय टीका. ७ जुओ भग० खं० ३ ० ७ उ० ६ ० २२ सू० १२. वगेरे जीवो उत्प थाय काक बरोरे / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो। १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा-१ भवियदधदेवा, २ नरदेवा, ३ धम्मदेवा, ४ देवादिदेवा, ५ भावदेवा । २. [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं बुञ्चइ-भवियदधदेवा भवियदधदेवा ? [उ०] गोयमा ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्तजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववजित्तए से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुधइ-'भवियदधदेवा ।। ३.[40] से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-'नरदेवा नरदेवा' ? [उ०] गोयमा! जे इमे रायाणो चाउरंतचकवट्टी उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहिपइणो समिद्धकोसा बत्तीसरायवरसहस्साणुयातमग्गा सागरवरमेहलाहिवरणो मणुस्सिदा, से तेणटेणं जाव-'नरदेवा । ४.०से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चइ-'धम्मदेवा धम्मदेवा' १ [उ०] गोयमा! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया, जाव-गुत्तबंभयारी, से तेणटेणं जाव-'धम्मदेवा । नवम उद्देशक. देवोना भव्यदेवादि प्रकार. १. [प्र०] हे भगवन् ! देवो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! देवो पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१*भव्यद्रव्यदेव, २ नरदेव, ३ धर्मदेव, ४ देवाधिदेव अने ५ भावदेव. भव्यद्रव्यदेव कहेवान २. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी 'भव्यद्रव्यदेव' 'भव्यद्रव्यदेव'–एम कहो छो! [उ०] हे गौतम । जे पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिक के मनुष्य देवोमा उत्पन्न थवाने भव्य-योग्य छे, ते माटे ते 'भव्यद्व्यदेव' २ कहेवाय छे. नरदेव. ३. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी 'नरदेध' 'नरदेव'-एम कहो छो? [उ०] हे गौतम ! जे आ राजाओ चार दिशाना अन्तना स्वामी चक्रवर्तीओ छे, जेने समस्त रत्नोमा प्रधान चक्ररत्न उत्पन्न थयु छे एवा, नव निधिना स्वामिओ, समृद्ध भंडारवाळा, जेओनो मार्ग बत्रीस हजार राजाओ वडे अनुसराय छे एवा, महासागररूप उत्तम मेखलापर्यन्त पृथ्वीना पति अने मनुष्यना इंद्रो छे ते माटे 'नरदेवो' 'नरदेवो'-एम कहेवाय छे. धर्मदेव. ४. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी 'धर्मदेव' 'धर्मदेव'-एम कहो छो? [उ०] हे गौतम ! जे आ अनगार भगवंतो, इर्यासमितिवाळा. यावद्-गुप्त ब्रह्मचारी छे, माटे ते हेतुथी 'धर्मदेव' 'धर्मदेव'-एम कहेवाय छे. * भव्यद्रव्यदेव-अहिं द्रव्यशब्द अप्राधान्यवाचक छे, भूतकाळमां देवत्वपर्यायने प्राप्त थयेला अथवा भविष्य काळमां देवपणाने पामनार, वर्तमानमां देवना गुणथी शून्य होवाथी अप्रधान एवा द्रव्यदेव कहेवाय छे, तेमां भविष्यमा देवपणाने प्राप्त थनार भव्यद्रव्यदेव कहेवाय छे. २ नरदेव-मनुष्योमा देवनी पेठे आराधवा लायक नरदेव कहेवाय छे. ३ धर्मदेव-श्रुतादि धर्मवढे देवो जेवा, अथवा जेने धर्म प्रधान छ एवा 'धार्मिक देवोने' धर्मदेव कहे छ. ४ देवाधिदेव-पारमार्थिक देवपणु होवाथी सामान्य देवो करता अधिक-श्रेष्ठ देवाधिदेव कहेवाय छ, अथवा देवातिदेव पण कहे छे. ५ भावदेवदेवगत्यादि कर्मना उदयथी देवपणानो अनुभव करनार भावदेव कहेवाय छे. Jain Education international Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T शतक १२.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८९ ५. [प्र०] से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'देवाधिदेवा देवाधिदेवा' ? [उ०] गोयमा! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन नाण-दसणधरा जाव-सबदरिसी, से तेणटेणं जाव-'देवाधिदेवा' २। ६.प्र.] से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ-'भावदेवा भावदेवा' ? [उ.] गोयमा ! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसवेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति, से तेण?णं जाव-'भावदेवा' २। ७.प्र. भवियदचदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं नेरइपहिंतो उववजंति. तिरिक्ख० मणुस्स. देवेहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा ! नेरइएहितो उववजंति, तिरि० मणु० देवेहितो वि उववजंति, भेदो जहा वकंतीए सच्चेसु उववाएयचा जाव-'अणुत्तरोववाइय'त्ति, नवरं असंखेजवासाउयअम्मभूमगअंतरदीवगसट्टसिद्धवजं जाव-अपराजियदेवेहितो वि उववजंति, णो सबट्ठसिद्धदेवेहितो उववजंति । - ८. [प्र०] नरदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरतिए०-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नेरतिपहिंतो वि उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहितो वि उववजंति । ९. [प्र०] जइ नेरइएहितो उवजंति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववजंति, जाव-अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववजंति ? [30] गोयमा! रयणप्पभापुढविनेरइएहितो उववजंति, नो सकर० जाव-नो अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववजंति । १०. [प्र०] जइ देवहितो उववजंति किं भवणवासिदेवेहितो उववजंति, वाणमंतर० जोइसिय० वेमाणियदेवेहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा! भवणवासिदेवेहितो वि उववजंति, वाणमंतर०, एवं सचदेवेसु उववाएयचा, वकंतीभेदेणं जावसचट्ठसिद्धत्ति । ५. [३०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय छे ? [3] हे गौतम ! जे आ अरहित-भगवंतो उत्पन्न देवाधिदेव. थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनारा यावद्-सर्वदशी छे, ते हेतुथी यावद् 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! जे आ भवनपतिओ, वानव्यंतरो, भावदेव. ज्योतिष्को अने वैमानिक देवो देवगति संबन्धी नाम अने गोत्र कर्मोने वेदे छे, ते माटे 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय ? शुं नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय, तिर्यंचोथी आवीने उत्पन्न भव्यद्रव्यदेवो क्याथी थाय, मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थाय, के देवोथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! नैरयकोथी आवी उत्पन्न थाय, तिर्यंचोथी, मा मनुष्योथी, अने देवोथी पण आवीने उत्पन्न थाय. अहीं व्युत्क्रान्ति पदमां कह्या प्रमाणे भेद-विशेषता कहेवी, अने तेओनी सर्वने विषे उत्पत्ति कहेवी, यावत्-अनुत्तरौपपातिक सुधी कहे, परन्तु विशेष ए छे के, असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा जीवो, अकर्मभूमिना जीवो, अंतरद्वीपना जीवो अने सर्वार्थसिद्ध वर्जिने यावद्-अपराजित देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे. पण सर्वार्थसिद्धना देवो उत्पन्न थता नथी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय?-शुं नैरयिकोथी, तिर्यंचोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवीने उत्पन्न नरदेवो क्याथी आ-. थाय ! उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिको अने देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे, पण तियेच अने मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थता नथी. वीने उपजे? ९. प्र०] जो तेओ नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय तो \ रत्नप्रभाना नैरयिकोथी आवीने (नरदेवो) उत्पन्न थाय के यावद्-अध:- रमप्रभादिमाथी का रा । पृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! तेओ रत्नप्रभाना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय, पण शर्कराप्रभाथी नाक पृथिषीथी भावी उपजे। अ.पीने न उत्पन्न थाय, यावद्-अधःसप्तमपृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न न थाय. १०. [प्र०] जो तेओ देवोथी आवी (नरदेवो) उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय के वानव्यंतर, ज्यो- शुं भवनवासीवादि तिष्क अने वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय, तथा वानव्यंतर, देवोपी मापी उपजे? देवोमोपी कपा ज्योतिषिक अने वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे सर्व देवो संबन्धे व्युत्क्रांति पदमा कहेली विशेषतापूर्वक यावत् सर्वार्थसिद्ध सुधी उपपात कहेवो. १. प्रज्ञा० पद ६ प० २१५. ७* प्रज्ञा० पद ६ प० २१५. ३७ भ. सू० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ९. ११.० धम्मदेवा गं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरदएहितो? [उ०] एवं वकंतीभेदेणं सधेसु उववाएयवा जाव-'सचट्ठसिद्ध'त्ति। नवरंतमा-अहेसत्तमाए नो उववाओतेउ-वाउ-असंखिजवासाउयअकम्मभूमग-अंतरदीवगवजेसु। १२. प्र०ा देवाधिदेवा गं भंते ! कतोहिंतो उवउजंति, किं नेरइएहिंतो उववजंति ? पुच्छा। [उ.] गोयमा! नेहएहिंतो उववजंति, नो तिरि० नो मणु० देवेहितो वि उववजंति । १३. [प्र०] जइ नेरइएहितो० [उ०] एवं तिसु पुढवीसु उववजंति, सेसाओ खोडेयवाओ। १४. [प्र०] जइ देवेहितो० [उ०] वेमाणिपसु ससु उववजंति जाव-सचट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेयधा । १५. [4] भावदेवा णं भंते! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं जहा वतीए भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियो। १६. [प्र०] भवियतष्वदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उकोसेणं तिमि पलिओवमाई। १७. [प्र०] नरदेवाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं सत्त वाससयाई, उक्कोसेणं चउरासीई पुचसयसहस्साई । १८. [प्र०] धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी । धर्मदेव क्याथी मावी ११. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी, [तिर्यचोथी, मनुष्योथी के देवोयी आवी] उत्पन्न उपजे! थाय! [उ०] ए प्रमाणे बधुं *व्युत्क्रांति पदमां कहेला भेद-विशेषवडे यावत्- सर्वार्थसिद्ध सुधी सर्वथकी उपपाद कहेवो, परन्तु विशेष ए छे के, तिमःप्रभा अने अधःसप्तमपृथ्वीथी, तथा तेजःकाय, वायुकाय, असंख्यवर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिजो, अकर्मभूमिजो अने अंतरद्वीपज मनुष्य तथा तिर्यचोधी आवी धर्मदेवो उत्पन्न न थाय. [अर्थात्-ए सिवाय बाकीना स्थानथी आवी धर्मदेव थाय.] देवाधिदेव क्याथी १२. [प्र०] हे भगवन् ! देवाधिदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय-शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! भावी उपजे! नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे, तिथंच अने मनुष्योथी आवी उत्पन्न थता नथी, पण देवो थकी आवीने उत्पन्न थाय छे. रत्नप्रभादि नरक : थिवीमाथी का नर- १३. [प्र०] जो नैरयिकोथी आवी ( देवाधिदेव ) उत्पन्न थाय [तो शुं रत्नप्रभाना नैरयिकयी आवी उत्पन्न थाय]-इत्यादि प्रश्न. क पृथिवीथी मावी उपजे? " [उ.] ए प्रमाणे प्रथम त्रण पृथिवीथी आवी देवाधिदेव] उत्पन्न थाय छे. बाकीनी पृथिवीओनो प्रतिषेध करवो. देवोमा सर्व वैमानिक १४. [प्र०] जो तेओ देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनपति वगेरेथी आवी उत्पन्न थाय! [उ०] सर्व वैमानिक देवोथी, देवोथीभावीने उपजे. यावत्-सर्वार्थसिद्धथी आवी उत्पन्न थाय. बाकीना देवोनो निषेध करवो. भावदेवो क्याथी १५. [प्र०] हे भगवन्! भावदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय? [उ०] •जेम व्युत्क्रांतिपदमा भवनवासिओनो उपपात कह्यो भावी उपने! के तेम अहिं कहेवो. भव्यदन्यदेवनी १६. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवोनी केटला काळ सुधी स्थिति कही छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओनी ओछामा ओछी अन्तस्थिति. मुहूर्त अने वधारेमां वधारे त्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे. नरदेवनी स्थिति. १७. [प्र.] नरदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओनी जघन्य स्थिति सातसो वर्षनी अने उत्कृष्ट चोराशीलाख पूर्वनी स्थिति कही छे. थर्मदेवनी स्थिति. १८. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी, अने उत्कृष्ट देशोनपूर्वको टिनी कही छे. - ११* प्रा. पद६ प० २१५. तिमःप्रभा पृथिवीथी नीकळेलाने मनुष्यपणुं प्राप्त थाय, पण चारित्र प्राप्त यतुं नथी, तथा सातमी नरकपृथिवी, तेजःकाय, वायुकाय, असंख्यवर्षना आयुषवाळा कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज भने अन्तपिज मनुष्य अने तिर्यचो-थकी नीकळेलाने मनुष्यपणाना अभाव यकी चारित्र होतुं नथी, तेथी त्यांथी नीकळी तेओ धर्मदेव (चारित्रयुक्त अनगार) थता नथी-टीका. १३ प्रथम त्रण नरकपृथिवीथकी नीकळेला तीर्थकरपणे उपजे छे, पण नीचेनी चार पृथिवीथी नीकलेळा तीर्थकरो थता नथी, माटे बाकीनी चार पृथिवीनो प्रतिषेध करवो-टीका. १५ प्रज्ञा० पद ६ प० २११. घणा स्थानोथी आधी भवनपति देवपणे उपजे छे, कारणके असंशी पण तेमा उत्पन्न थाय छे, माटे भवनपति संबन्धे उपपात कह्यो छे-टीका. १६६ अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळो पंचेन्द्रिय तिर्थच देवपणे उपजे, माटे भव्यद्रव्यदेवनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी कही छे, तेमज प्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा उत्तरकुरु आदिना मनुष्यो अने तिर्यचो देवपणे उत्पन्न थाय माटे उत्कृष्ट प्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे-टीका. १७३ चक्रवर्तिनी जपन्य स्थिति सातसो वर्षनी होय छे, जेमके ब्रह्मदत्तनी, अने उत्कृष्ट स्थिति चोराशी लाखं पूर्वनी होय छे, जेमके भरतनी. १८|| कोईपण मनुष्य अन्तर्मुहूर्त आयुष बाकी होय त्यारे चारित्रनो स्वीकार करे, तेनी अपेक्षाए धर्मदेवनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी, भने जे । कहक न्यून पूर्वकोटि वर्षपर्यन्त चारित्र पालन करे तेनी अपेक्षाए उत्कृष्ट स्थिति जाणवी टीका. Jain Education international Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ शतक १२.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. . १९. [प्र०] देवाधिदेवाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं बावत्तरि वासाई, उक्कोसेणं चउरासीदं पुषसयसहस्साई । २०. [प्र०] भावदेवाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। २१. प्र. भवियदधदेवा णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहुत्तं पभू विउवित्तए ? [उ०] गोयमा! एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहुत्तं पि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउच्चमाणे एगिदियरूवं वा जाव-पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउच्चमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव-पंचिंदियरूवाणि वा, ताई संखेजाणि वा असंखेजाणि वा, संवद्धाणि वा असंबद्धाणि वा. सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउचंति, विउवित्ता तओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाई कजाई करेंति, एवं नरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि । २२. [प्र०] देवाधिदेवाणं पुच्छा, [उ०] गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहुत्तं पि पभू विउवित्तए, नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा, विउविंति वा, विउविस्संति वा । २३. [प्र०] भावदेवाणं पुच्छा [उ०] जहां भवियदधदेवा । २४. प्र०ा भवियदधदेवा णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? कि नेरइएसु उववजंति ? जाव-देवेसु उववजंति ? [उ०] गोयमा! नो नेरइएसु उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेसु उववजंति, जर देवेसु -उधवजंति सधदेवेसु उववजंति जाव-सट्ठसिद्धत्ति । ____२५. [प्र०] नरदेवा णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नेरइएसु उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, णो देवेसु उववजंति, जइ नेरइएसु उववजंति०, सत्तसु वि पुढवीसु उववजंति । २६. [प्र०] धम्मदेवा णं भंते ! अणंतरं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नो नेरइएसु उववजेजा, नो तिरि०, नो मणु०, देवेसु उववजंति। १९. [प्र०] देवाधिदेव संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओनी जघन्य स्थिति बहोंतर वर्षनी, अने उत्कृष्ट स्थिति चोरा- देवाधिदेवनी स्थिति. शीलाख पूर्वनी कही छे. २०. [प्र०] भावदेवोनी स्थिति संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओनी जघन्य स्थिति दशहजार वर्षनी, अने उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश भावदेवनी स्थिति. सागरोपमनी कही छे. २१. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो एक रूप विकुर्ववाने समर्थ छे के अनेकरूपो विकुर्ववाने समर्थ छे ! [उ०] हे गौतम। भव्यद्रव्यदेवनी [भव्यद्रव्यदेव वैक्रियलब्धिसंपन्न मनुष्य के तिर्यच एक रूप विकुर्ववाने पण समर्थ छे अने अनेकरूपो पण विकुर्ववाने समर्थ छे. एक विकुषणा रूपने विकुर्वतो एक एकेंद्रियरूपने यावत्-एक पंचेन्द्रियरूपने विकुर्वे छे, अथवा अनेक रूपोने विकुर्वतो अनेक एकेंद्रियरूपोने के अनेक पंचेन्द्रियरूपोने विकुर्वे छे, ते रूपो संख्याता के असंख्याता, संबद्ध के असंबद्ध, समान के असमान विकुर्वे छे, विकुळ पछी पोताना यथेष्ट कार्यों करे छे. ए प्रमाणे नरदेव अने धर्मदेव संबंधे पण जाणवू. २२. [प्र०] देवाधिदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ एक रूप विकुर्ववाने पण समर्थ छे, अने अनेक रूप विकुर्ववाने पण देवाधिदेवनी विकुसमर्थ छे. पण तेणे औत्सुक्यना अभावधी शक्ति छता] संप्राप्तिवडे (करवावडे ) वैक्रियरूप विकुयु नथी, विकुर्वता नधी अने विकुर्वशे . पण नहि. २३. [प्र०] भावदेवसंबन्धे प्रश्न. [उ०] जेम भव्यद्रव्यदेवो संबन्धे ( सू० २१) कयुं तेम भावदेवसंबन्धे पण जाणवू. भावदेवनी विकुर्वणा शक्ति. २४. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो तुरतज मरण पामी क्या जाय-क्यां उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोमा उपजे, यावद्-देवोमा भव्यद्रव्यदेवो मरण उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकोमां, तिथंचोमां के मनुष्योमा उत्पन्न थता नथी, पण देवोमा उत्पन्न थाय छे. जो देवोमां पामी क्या जाय । उत्पन्न थाय तो ते सर्वदेवोमा उत्पन्न थाय, यावत् सर्वार्थसिद्धमा उत्पन्न थाय. २५. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवो अन्तररहित-तुरतज मरण पामी क्या उत्पन्न थाय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोमा उत्पन्न नरदेव मरण पामी थाय, पण तिर्यच, मनुष्य के देवमा उत्पन्न न थाय, जो नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो साते नरकपृथिवीमा उत्पन्न थाय. क्या उपजे? - २६. [प्र०] हे भगवन्! धर्मदेवो तुरतज मरण पामी क्या उत्पन्न थाय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिकोमा, तियेचोमां के धर्मदेव मरण पामी मनुष्योमा उत्पन्न थता नथी, पण देवोमा उत्पन्न थाय छे. क्या जाय। ___२५ * यद्यपि कोईक चक्रवर्तिओ देवमा उत्पन्न थाय छे, परन्तु ते नरदेवपणु छोडी भने धर्मदेवपणुं पामीने उपजे छ, कामभोगोनो त्याग कर्या शिवाय नरदेव अवस्थामा तो ते नैरयिकमांज उपजे छे. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मदेव कथा देवोमां उत्पन्नथाय ? देवाधिदेवो मरण पानी क्यों जाय ? भावदेव मरण पामी क्यों जाय ? भष्यद्रष्य देवोनी स्थिति... मध्यद्रयदेवने वेटखाकाळनुं अन्तर होय ? नरदेवने परस्पर के टलं अन्तर दोष ? श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक १२. - उद्देशक ९. २७. [प्र०] जइ देवेसु उववजंति किं भवणवासि पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! नो भवणवासिदेवेसु उववजंति, नो वाणमंतर, नो जोइसिय०, वेमाणियदेवेसु उबवजंति, सधेसु वेमाणिएसु उववजंति जाव-सङ्घट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइएसु-जाव उववजंति, अत्थेगइया सिज्यंति, जाव-अंतं करेंति । २९२ २८. [प्र० ] देवाधिदेवा अनंतरं उट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति ? [अ०] गोयमा ! सिज्यंति, जाव- अंत करेंति । १ २९. [०] [भावदेवा भंते! अनंतरं दधद्वित्ता- पुच्छा [४०] जहा वतीय असुरकुमाराणं उच्चट्टणा तथा भाषिता । ३०. [प्र० ] भवियदवदेवे णं भंते! 'भवियद्यदेवेति कलओ केवचिरं दोइ ? [30] गोषमा जघेणं अंतोमुंडु, उद्योगं तिथि पलिओदमाई, एवं जदेव ठिई समेव संचिणा वि जायभायदेषस्स, नवरं धम्मदेयस्स अहणं एवं समयं उकोसेणं देणा पुपकोडी | ३१. [प्र० ] भविषद्वदेवस्स णं भंते! फेयतियं कालं अंतरं दोइ ? [३०] गोयमा जहणं दसवाससहरसाई अंतो मुडुत्तमम्भदियाई, उकोसे अनंतं कालं यणरसइकालो । ३२. [प्र० ] नरदेवाणं पुच्छा । [ उ०] गोयमा ! जहन्नेणं सातिरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अणतं कालं - अवहं पोग्गलपरिय देणं । २७. [१०] जो तेओ (धर्मदेवो) देयोमा उत्पन्न धाय तो झुं भवनवासी देवोमां उत्पन्न धाग - इयादि प्रभ. [30] हे गौतम! भवनवासिदेयोगां, यानव्यंतरोमा अने ज्योतिष्फोमां उत्पन्न पता नधी, पण वैमानिक देवोमा उपल थाय छे. सर्व वैमानिकम यावत् सर्चासिद्ध अनुसरीपपातिक देयोगां यावद्-उत्पन्न धाय के अने बेटाक सिद्ध थाय छे, यावत् सर्वं दुःखोनो नाश करे छे. २८. [प्र० ] हे भगवन् ! देवाधिदेवो अन्तररहित- तुरतज मरण पामी क्यां जाय -क्यां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! तेओ सिद्ध थाय, यावत् - सर्व दुःखोनो अन्त करे. २९. [प्र० ] हे भगवन्! भावदेवो तुरतज मरण पामी क्यो जाय-ए प्रश्न. [30] 'जैम 'व्युत्क्रांति' पदमां अमुरकुमारोगी उद्वर्तना कही छे तेम अहिं भावदेवोनी पण उद्वर्तना कहेवी. ३०. [प्र० ] हे भगवन् । भव्यद्रव्यदेवो 'भव्यद्रव्यदेवरूपे' काळधी क्यांसुधी होय! [उ०] हे गौतम! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी त्रण पल्योपम सुधी होय. ए प्रमाणे जेम भवस्थिति कही तेम संस्थिति पण यावद्-भावंदेव सुधी जाणवी. परन्तु धर्मदेव जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट कंईक न्यून पूर्वकोटि वर्ष सुधी होय. ३१. [अ०] हे भगवन्! भव्यद्रव्यदेवने परस्पर केला काळ अंतर होय! [उ०] हे गौतम! जधन्य अंत अधिक दशहजार वर्ष, अने उत्कृष्ट अनंतकाळ वनस्पतिकाळ पर्यन्त अन्तर होय. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवने परस्पर केटलुं अन्तर होय - ए प्रश्न. [ उ०] हे गौतम! जघन्य "कांइक अधिक एक सागरोपम, अने ठाकूष्ट अनंतफा कांइक न्यून अर्धपुद्रलपरिवर्त पर्यन्त अन्तर होप. - २९ प्रज्ञा० पद ६ ५० २१५-१. ३० अशुभ भावने प्राप्त कर्या पछी शुभ भावने एक समय मात्र प्राप्त करी तुरतज मरण पामे ते अपेक्षाए धर्मदेवनी जघन्य स्थिति एक समयनी t जाणवी. ३१ईने जानीस्थित यन्तरादि उपाय भने खांची मरी शुभ पृथ्वी आदिम कई महीने पुनः भव्यद्रव्य देव तरीके उपजे - एरीते अन्तर्मुहूर्त अधिक दशहजार वर्षेनुं अन्तर होय. अहिं कोई शंका करे छे के "देवपणाथी च्यवी तुरतज भव्यद्रव्यदेव तरीके उत्पत्ति भोगाची दस हजार वर्ष अन्तर होय, पण तूर्त अधिक फेम हो" अहिं समाधान करे व भानुपतीदेव व्ययी शुभ पृथिव्यादिमां उत्पन्न उनी प्राचीन टीकाकारनो आशयघन से मतने सरीउपर कोई अन्तर होय छे-वीजा समाधान भा प्रमाणे आपे छे - " जेणे देवनुं आयुष बांधेलं छे ते अहिं भव्यद्रव्यदेव तरीके इष्ट छे, तेथी दशहजारवर्षनी स्थितिवाळा देवभवधी व्यवी भव्यइब्यदेवपणे उत्पन्न धान भने अन्तहूर्त पछी आपनो बन्ध करे सारे पूर्वे को अन्तर घटे व्यदेव मरी देव कई सांची व्यवी वनदिने विषे अनन्तकाल पर्यन्त रही पुनः भव्यद्रव्यदेव थाय - ते अपेक्षाए उत्कृष्ट अन्तर जाणवु. " ३२ नरदेव - चक्रवर्ती कामभोगोमां आसक्त थई प्रथम नरकपृथिवीमां जघन्य सागरोपम आयुष भोगवी पुनः चक्रवर्ती थाय, अने ज्यांसुधी चकरन उत्पन्न न थाय तेटला काल अधिक एक सागरोपम जघन्य अन्तर होय. कोई सम्यग्टष्टिज चक्रवर्तीपणुं पामे, अने ते उत्कृष्ट कंईक न्यून अर्ध पुद्गलपरावर्त संसार भ्रमण करी पुनः सम्यक्त्व पानी छेवटे नरदेवत्व पामी मोक्षे जाय, ते अपेक्षाए नरदेवनुं उत्कृष्ट अन्तर होय - टीका. / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २९३ ३३. [प्र०] धम्मदेवस्स णं पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, जाव-अवडं पोग्ग. लपरियट्ट देसूणं । ३४. [प्र०] देवाधिदेवाणं पुच्छा। [1०1 गोयमा! नत्थि अंतरं। ३५. [प्र०] भावदेवस्स णं पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। ३६. [प्र०] एएसि णं भंते ! भवियदचदेवाणं, नरदेवाणं, जाव-भावदेवाण य कयरे कयरोहिंतो जाव-विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा नरदेवा, देवाधिदेवा संखेजगुणा, धम्मदेवा संखेजगुणा, भवियदधदेवा असंखेजगुणा, भावदेवा असंखेजगुणा। ३७. [प्र०] एएसि णं भंते ! भावदेवाणं भवणवासीणं, वाणमंतराणं, जोइसियाणं, वेमाणियाणं सोहम्मगाणं, जाव-अधुयगाणं, गेवेजगाणं, अणुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहिंतो जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा सवत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेजा भावदेवा संखेजगुणा, मज्झिमगेवेजा संखेजगुणा, हेट्ठिमगेवेज्जा संखेजगुणा, अधुए कप्पे देवा संखेजगुणा, जाव-आणयकप्पे देवा संखेजगुणा, एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव-जोतिसिया भावदेवा असंखेजगुणा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति । नवमो उद्देसओ समत्ती. ३३. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवने परस्पर केटलं अन्तर होय. ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी *पल्योपमपृथक्त्व (बेथी धर्मदेवने परस्पर के नव पल्योपम ) अने उत्कृष्ट अनंतकाळ कंइक न्यून अपार्ध पुद्गलपरिवर्त पर्यन्त अन्तर होय. लुं अन्तर होय! ३४. [प्र०] हे भगवन् ! देवाधिदेवने परस्पर केटलं अन्तर होय-ए संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम | तेने अिंतर नथी. देवाधिदेवने अन्तर ३५. [प्र०] भावदेवना परस्पर अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहर्त अने उत्कृष्ट अनंतकाळ-वनस्पतिकाळ भावदेवर्नु अन्तर. पर्यन्त अन्तर होय. ३६. प्रि० हे भगवन् । भव्यद्रव्यदेवो, नरदेवो, यावद्-भावदेवोमांना कोण कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे! [उ०] हे गौतम! भव्यम्यदेवाविर्नु सौथी थोडा नरदेवो छे, ते करतां देवाधिदेवो संख्यातगुण छे, तेथी धर्मदेवो संख्यातगुण छे, ते करता भव्यद्रव्यदेवो असंख्यातगुण छे परस्पर अल्पमतुल्य. अने तेथी भावदेवो असंख्यातगुण छे. ३७. [प्र०] हे भगवन् ! भावदेवो भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, सौधर्म, ईशान यावंद्-अच्युतक, प्रैवेयक तथा भावदेवनु अल्पवात. अनुत्तरौपपातिक-एओमांना कोण कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे ! [उ०] हे गौतम ! सर्वथी थोडा अनुत्तरौपपातिक भावदेवो छे, ते करतां उपना अवेयेक भावदेवो संख्यातगुण छे, ते करतां मध्यम प्रैवेयक भावदेवो संख्यातगुण छे, तेथी अधस्तन अवेयक भावदेवो संख्यातगुण छे, ते करतां अच्युत कल्पना देवो संख्यातगुण छे, यावद्-आनतकल्पना देवो संख्यातगुण छे. ए प्रमाणे जेम 'जीवाभिगम'सूत्रमा त्रिविध जीवना अधिकारमा देवपुरुषोनुं अल्पबहुत्व कमु छे तेम अहीं पण यावद्-'ज्योतिष्क भावदेवो असंख्येयगुण छे' त्या सुधी कहेवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' [एम कही-भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] द्वादश शते नवम उद्देशक समाप्त. ३३ * कोईक धर्मदेव-चारित्रयुक्त साधु सौधर्म देवलोकमा पल्योपमपृथक्त्वना आयुषवाळो देव घई त्याथी च्यवी पुनः मनुष्यपणु पामी आठ वर्ष पछी चारित्र स्वीकारे, ते अपेक्षाए कांईक अधिक पल्योपमपृथक्त्व अन्तर होय-टीका. ३४ । देवाधिदेव मोक्षे जाय छे तेथी देओने अन्तर होतुं नथी-टीका. ३. 1 जीवाभि० प्रति. २५०७१-१. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो । १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता? [उ०] गोयमा! अट्ठविहा आया पण्णत्ता, तंजहा-१ दवियाया.. कसायाया, ३ योगाया, ४ उवओगाया, ५ णाणाया, ६ दसणाया, ७ चरित्ताया, ८ वीरियाया। २.प्र. जस्स णं भंते । दवियाया तस्स कसायाया, जस्स कसायाया तस्स दविवाया? [उ.] गोयमा! जस दवियाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियम अस्थि । ३. [प्र०] जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स जोगाया ? [उ०] एवं जहा दवियाया कसायाया भणिया तहा दवियाया जोगाया भाणिया। प्रिन जस्स णं भंते ! दवियाया, तस्स उवओगाया-पवं सवत्थ पुच्छा भाणियवा। [उ०] गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स उपभोगाया नियम अत्थि, जस्स वि उवओगाया तस्स वि दवियाया नियम अत्थि, जस्स दवियाया तस्स गाणाया भय दशम उद्देशक. भास्माना प्रकार. १. [प्र०] हे भगवन् । आत्मा केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! आठ प्रकारना आत्मा छे, ते आ प्रमाणे-*१ द्रव्यात्मा, २ कषायात्मा, ३ योगात्मा, ४ उपयोगात्मा, ५ ज्ञानात्मा, ६ दर्शनात्मा, ७ चारित्रात्मा अने ८ वीर्यात्मा. द्रण्यात्मा भने २. [प्र०] हे भगवन् ! जेने 'द्रव्यात्मा होय तेने शुं कषायामा होय अने जेने कषायात्मा होय तेने शुं द्रव्यात्मा होय ! [उ०] है कपायात्मानो गौतम ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने कषायात्मा कदाचित् होय अने कदाचित् न होय, पण जेने कषायात्मा होय, तेने तो अवश्य द्रव्यात्मा होय.' द्रव्यामा भने ३. [प्र०] हे भगवन् ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने योगात्मा होय ! [अने जेने योगात्मा होय तेने द्रव्यात्मा होय! उ०] ए प्रमाणे योगात्मानो संवन्प. जेम द्रव्यात्मा अने कषायात्मानो संबन्ध कह्यो तेम द्रव्यात्मा अने योगात्मानो संबन्ध कहेवो. द्रव्यात्मा बने ४. प्र०] हे भगवन् । जेने द्रव्यात्मा होय तेने उपयोगात्मा होय! [ अने जेने उपयोगात्मा होय तेने द्रव्यात्मा होय !] ए. उपयोगात्मानो प्रमाणे सर्वत्र प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने उपयोगात्मा अवश्य होय, अने जेने उपयोगात्मा होय तेने पण संबन्ध. संवन्ध. * उपयोगलक्षण आत्मा एक प्रकारे छे, तो पण अमुक विशेषताने लीधे तेना आठ प्रकार छ, ते आ प्रमाणे-१ त्रिकाळवी आत्मा द्रव्य ते द्रव्यात्मा, ते सर्व जीवोने होय छे, २ क्रोधादिकषाययुक्त आत्मा ते कषायात्मा, ते सकषायी जीवोने होय छे, पण उपशान्तकषाय अने क्षीणकषायने होतो नथी, ३ मन, वचन भने कायव्यापारवाळाने योगात्मा होय छे, ४ साकार भने निराकार उपयोगवाळा सिद्ध भने संसारी सर्व जीवने उपयोगात्मा होय छे, ५ सम्यग् विशेषावबोधरूप ज्ञानात्मा सर्व सम्यग्दृष्टिने होय छे, ६ सामान्यअवबोधरूप दर्शनात्मा सर्व जीवोने होय छे, ७ चारित्रात्मा विरतिवाळाने होय छे, ८ अने वीर्यात्मा करणवीर्यवाळा सर्व संसारी जीवोने होय छे-टीका. २ अहिं द्रव्यात्मा-आदि भाठ पदोनी स्थापना करवी, तेमां प्रथम सू० २-४ सुधी द्रव्यात्मानो बाकीना कषायात्मा बगेरे सात आत्मानी साथे संबन्ध बतावे छे-जेने द्रव्यात्मल-जीवल होय, तेने कषायात्मा कदाचित् (सकषायावस्थामां) होय, अने कदाचित् क्षीणकषाय अने उपशान्तकषायवाळाने न होय, पण जेने कषायात्मा होय छे तेने द्रव्यात्मख-जीवन अवश्य होय छ, केमके जीवत्व शिवाय कषायो होता नथी. . ३१ जेने द्रव्यात्मा होय तेने योगात्मा सयोगीअवस्थामां होय छे, अयोगी (योगरहित ) केवली भने सिद्धोने योगात्मा होतो नथी, पण जेने योगात्मा होय तेने अवश्य द्रव्यात्मा होय छे, केमके जीवत्व शिवाय योगो होता नथी. आ हकीकत पूर्वसूत्रमा बताव्या प्रमाणे जाणवी. . ४ जे जीवने द्रव्यात्मा होय छे तेने अवश्य उपयोगात्मा होय छ, भने जेने उपयोगात्मा होय छे तेने अवश्य द्रव्यात्मा होय छे, केमके द्रव्यात्मा भने उपयोगात्मानो परस्पर नियत संबन्ध छे. सिद्ध भने अन्य संसारी जीवोने द्रव्यात्मा पण छ, भने उपयोगात्मा पग छे; कारण के उपयोग ए जीपचें लक्षण छे. . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ शतक १२.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. णाए जस्स पुण णाणाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स दसणाया नियम अत्थि, जस्स वि दसणाया तस्स दवियाया नियम अत्थि, जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियम अस्थि, एवं वीरियायाए वि समं । ५. [प्र०] जस्स णं भंते ! कसायाया तस्स जोगाया-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जस्स कसायाया तस्स जोगाया नियम अत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि, एवं उवओगायाए वि समं कसायाया नेयधा, कसायाया य णाणाया य परोप्परं दो वि भइयचाओ, जहा कसायाया य उवओगाया य तहा कसायाया य दसणाया य कसायाया य चरित्ताया य दो वि परोप्परं भइयचाओ, जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियचाओ, एवं जहा कसायायाए वत्तवया भणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहि सम भाणियधाओ। जहा दवियायाए वत्तवया मणिया तहा द्रव्यात्मा अवश्य होय, जेने द्रव्यात्मा होय तेने ज्ञानात्मा भजनाए-विकल्पे होय, अने जेने ज्ञानात्मा होय तेने द्रव्यात्मा द्रव्यारमानोशाना स्मानी साये संबन्ध अवश्य होय. जेने द्रव्यात्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय, जेने दर्शनात्मा होय तेने द्रव्यात्मा पण अवश्य होय, जेने मामासा द्रव्यात्मा होय तेने चारित्रात्मा भजनाए-विकल्पे होय, अने जेने चारित्रात्मा होय तेने द्रव्यात्मा अवश्य होय. ए प्रमाणे वीर्यात्मानी संबन्ध. चारित्रास्मा साथे पण संबन्ध कहेवो. साये संपन्न. वीर्यास्मा. ५. [प्र०] हे भगवन् ! जेने कषायात्मा होय तेने शुं योगात्मा होय !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! जेने कंषायात्मा होय तेने कषायामा भने योगात्मा अवश्य होय, अने जेने योगात्मा होय तेने कदाचित् कषायात्मा होय अने कदाचित् न पण होय. ए प्रमाणे उपयोगात्मानी साथे। योगात्मानो ___ संबन्ध.. कषायात्मानो संबन्ध जाणवो. तथा कषायात्मा अने ज्ञानात्मा ए बन्ने परस्पर भजनाए-विकल्पे कहेवा. जेम कषायात्मा अने उपयोगात्मानो संबन्ध कह्यो तेम कषायात्मा अने दर्शनात्मानो संबन्ध कहेवो. तथा कषायात्मा अने चारित्रात्मा-ए बन्ने-परस्पर भजनाए कहेवा. जेम कथायात्मा भने कषायात्मा अने योगात्मा कहा, तेम कषायात्मा अने वीर्यात्मा पण कहेवा. ए प्रमाणे जेम कषायात्मानी साथे इतर [छ] आत्मानी वक्तव्यता दर्शनात्मानोसंबन्ध कही, तेम योगात्मानी साथे पण उपरना [पांच] आत्माओनी वक्तव्यता कहेवी. जेम द्रव्यात्मानी वक्तव्यता कही तेम उपयोगात्मानी ४. जेने द्रव्यात्मा होय छे तेने झानात्मा विकल्पे होय छे, जेमके सम्यग्दृष्टिने तत्त्वना विशेषावबोधरूप सम्यग्ज्ञान होय छ, भने मिभ्याधिने सम्यग्ज्ञान होतुं नथी; पण जेने ज्ञानात्मा होय छे तेने द्रव्यात्मा सिद्धनी पेठे अवश्य होय छे. जेने द्रव्यात्मा होय छे तेने सामान्य अवयोधरूप दर्शनात्मा अवश्य होय छे, जेम सिद्धने केवलदर्शन होय छ, जेने दर्शनात्मा होय छे तेने द्रव्यात्मा पण अवश्य होय छे. जेमके चक्षुदर्शनादिवाळाने द्रव्यात्मा-जीवख होय छे. जेने द्रव्यात्मा होय छ तेने चारित्रात्मा भजनाए होय छे, कारण के सिद्ध अथवा विरतिरहितने द्रव्यात्मा छतां पण हिंसादि दोषथी निवृत्तिरूप चारित्रात्मा होतो नथी, अने विरतिषाळाने होय छे, माटे भजना जाणवी. जेने चारित्रात्मा होय छे तेने द्रव्यात्मा अवश्य होय छे, केमके चारित्रवाळाने जीवत्वनुं नियतसाहचर्य होय छे. ए प्रमाणे द्रव्यात्मानो वीर्यात्मानी साथे संबन्ध जाणवो. जेमके द्रव्यात्मानो चारित्रात्मानी साथे भजना अने नियम कयो तेम वीर्यात्मानी साथे पण जाणवं. ते आ प्रमाणे-जेने द्रव्यात्मा होय छे तेने वीर्यात्मा होतो नथी, जेमके सकरण वीर्यनी अपेक्षाए सिद्धने वीर्यात्मा नथी, बीजा संसारीने होय छे. पण जेने वीर्यात्मा होय छे तेने द्रव्यात्मा अवश्य होय छे. जेमके वीर्यवाळा संसारी जीवोने द्रव्यात्मा होय छे. ५ हवे कषायात्मानी साथे बीजा छ आत्मानो संबन्ध बतावे छे-जेने कषायात्मा होय छे तेने योगात्मा होय छ, केमके कोइ पण सकषायी अयोगी (योगरहित ) होतो नथी. पण जेने योगात्मा होय छे तेने कषायात्मा कदाच होय के न होय, केमके सयोगी पकषायी अने अकषायी बन्ने प्रकारना होय छे.ए प्रमाणे उपयोगात्मा पण कहेवो, ते आ प्रमाणे-जेने कषायात्मा होय छ तेने उपयोगात्मा अवश्य होय छे, केमके उपयोगरहितने (जड पदार्थने) कषायो होता नथी, पण जेने उपयोगात्मा होय छे तेने कषायात्मा भजनाए होय छे. उपयोगात्मा छता पण सकषायीने कषायात्मा होय छे, पण वीतरागने कषायो होता नथी. कषायात्मा भने ज्ञानात्मानी परस्पर भजना जाणवी. जेमके जेने कषायात्मा होय छे तेने ज्ञानात्मा कदाचित् होय छे, अने कदाचित् होतो नथी. कारण के सकषायी सम्यग्दृष्टिने ज्ञानात्मा होय छे, पण मिथ्यादृष्टि सकषायीने ज्ञानात्मा होतो नथी, तथा जेने ज्ञानात्मा होय छे तेने कषायात्मा कदाचित् होय छे, कदाचित् होतो नथी. कारण के शानीने कषायो होय छ, भने होता पण नथी. जेम कषायात्मा अने उपयोगात्मानो संबन्ध कह्यो, तेम कषायामा भने दर्शनात्मानो संबन्ध कहेवो, जेमके जेने कषायात्मा होय छे तेने दर्शनारमा अवश्य होय छे, दर्शनरहित जड पदार्थने कषायारमा होतो नथी, पण तेने दर्शनाल्मा होय छे, तेने कषायात्मा कदाचित् होय छे भने कदाचित् होतो नथी, केमके दर्शनवाळाने कषाय होय छे भने होता पण नथी. कषायात्मा भने चारित्रात्मा परस्पर भजनाए जाणवा, जेमके जेने फषायात्मा होय छे तेने चारित्रात्मा कदाचित् होय छे, कदाचित् होतो नथी, कारण के सकषायीने प्रमत्त साधुनी पेठे चारित्र होय छ, भने असंयतनी पेठे तेनो अभाव पण होय छे. ते आ प्रमाणे-जेने चारित्रात्मा होय छे तेने कषायामा कदाचित् होय छे भने कदाचित् होतो नथी. सामायिकादि चारित्रवाळाने कषायो होय छे भने यथास्यातचारित्रवाळाने पेनो अभाव होय छे. जेम कषायात्मा भने योगात्मा कया तेम कषायामा भने वीर्यात्मानो संबन्ध कहेवो. . $ए प्रमाणे योगात्मानो उपयोगात्मा वगेरे उपरना पांच पदो साथे पूर्व प्रमाणे संबन्ध कहेवो, जेने चारित्रात्मा होय छे तेने योगात्मा कदाच सयोग चारिप्रवाळानी पेठे होय छे अने अयोगीनी पेठे कदाच होतो नथी. पण अन्य वाचनामा भावो पाठ छै 'जस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियम भरिय' जेने प्रत्युपेक्षणादिरूप चारित्रात्मा होय छे तेने योगात्मा अवश्य होय छे-टीका. || हवे उपयोगात्मानी साये वीजा चार पदोनो संबन्ध अतिदेश द्वारा जणावे छे. . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ . श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२:-उद्देशक १०. उवयोगायाए वि उवरिल्लाहिं समं भाणियथा । जस्स नाणाया तस्स दसणाया नियम अस्थि, जस्स पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियम अस्थि, णाणाया वीरियाया दो वि परोप्परं भयणाए । जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दो वि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियम अस्थि । जस्स चरित्ताया तस्स वीरियाया नियम अत्थि, जस्स पुण चीरियाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय नत्थि। ६. [प्र०] एयासि णं भंते ! दवियायाणं, कसायायाणं, जाव-वीरियायाण य कयरे कयरेहितो जाव-विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा ! सवत्थोवाओ चरित्तायाओ, नाणायाओ अणंतगुणाओ, कसायाओ अर्णतगुणाओ, जोगायाओ विसेसा. हियाओ, वीरियायाओ विसेसाहिआओ, उवयोग-दविय-दसणायाओ तिन्नि वि तुल्लाओ विसेसाहिआओ। ७. [प्र०] आया भंते ! नाणे अन्नाणे ? [उ०] गोयमा ! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, गाणे पुण नियमं आया । ८. [प्र०] आया भंते ! नेरइयाणं नाणे, अन्ने नेरइयाणं नाणे ? [उ०] गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे, सिय अनाणे। नाणे पुण से नियमं आया, एवं जाव थणियकुमाराणं । ९. [प्र.] आया भंते ! पुढविकाइयाणं अन्नाणे, अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे? [30] गोयमा! आया पुढविकाइयाणं अन्नाणे, अन्नाणे वि नियमं आया, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, बेइंदिय-तेइंदिय-जाव-धेमाणियाणं जहा नेरहयाणं । १०. [प्र०] आया भंते ! दंसणे, अन्ने दंसणे ? [उ०] गोयमा ! आया नियमं दसणे, दंसणे वि नियमं आया। ११. [प्र० आया भंते! नेरइयाणं दसणे, अन्ने नेरइयाणं दसणे? [उ०] गोयमा! आया नेरइयाणं नियमा दंसगे, दसणे वि से नियमं आया, एवं जाव-वेमाणिआणं निरंतरं दंडओ। नियम पण उपरना आत्माओनी साथे वक्तव्यता कहेवी. जेने *ज्ञानात्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय, भने जेने वळी दर्शनात्मा होय तेने ज्ञानात्मा भजनाए होय. जेने ज्ञानात्मा होय तेने चारित्रात्मा भजनाए होय-एटले कदाचिद् होय अने कदाचिद् न होय, वळी जेने चारित्रात्मा होय तेने ज्ञानात्मा अवश्य होय. तथा ज्ञानात्मा अने वीर्यात्मा-ए बन्ने परस्पर भजनाए-विकल्पे होय. जेने दर्शनात्मा होय तेने उपरना चारित्रात्मा, वीर्यात्मा ए बन्ने भजनाए होय, वळी जेने ते बन्ने आत्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय. जेने चारित्रात्मा होय तेने अवश्य वीर्यात्मा होय, वळी जेने वीर्यात्मा होय तेने चारित्रात्मा कदाचिद् होय अने कदाचिद् न होय. . ६. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यात्मा, कषायामा, यावद्-वीर्यात्मामां कया आत्मा कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! १ अस्पबहुत्व. सौथी थोडा चारित्रात्मा छे, २ ते करतां ज्ञानात्मा अनंतगुण छे, ३ तेथी कषायात्मा अनंतगुण छे, ४ ते करतां योगात्मा विशेषाधिक छे, ५ तेथी वीर्यात्मा विशेषाधिक छे, ६ ते करतां उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा अने दर्शनात्मा-ए त्रणे विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य छे. ७. प्र. हे भगवन् ! आत्मा ज्ञानवरूप छे के अज्ञानस्वरूप छे ! [उ०] हे गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानस्वरूप छे, अने मात्मा ज्ञान स्वरूप छे के कदाचित् अज्ञानस्वरूप छे. पण ज्ञान तो अवश्य आत्मस्वरूप छे. ८..प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोनो आत्मा ज्ञानरूप छे, के अज्ञानरूप छे ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोनो आत्मा कदाचिद ज्ञानयिकोनो आत्मा. रूप छे, अने कदाचिद् अज्ञानरूप पण छे. परन्तु तेओनुं ज्ञान अवश्य आत्मरूप छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. थिवीकायिकोनो ९. [प्र०] हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकोनो आत्मा ज्ञानरूप छे के अज्ञानरूप छे ? [उ०] हे गौतम! पृथ्वीकायिकोनो आत्मा अवश्य भात्मा. अज्ञानरूप छे, अने तेओर्नु अज्ञान पण अवश्य आत्मरूप छे. ए प्रमाणे यावद्-वनस्पतिकायिको सुधी जाणवू. वेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने यावद्-वैमानिकोने नैरयिकोनी पेठे (सू०८) जाणवु. १०. प्र० हे भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप छे के तेथी दर्शन बीजुं छे? [उ०] हे गौतम! आत्मा अवश्य दर्शनरूप छे अने के तेथी अन्य छे ? दर्शन पण अवश्य आत्मा छे. अन्यस्वरूप छे? विकोनो भात्मा. ११. [प्र०] हे भगवन्! नैरयिकोनो आत्मा दर्शनरूप छे? के नैरयिकोर्नु दर्शन तेथी अन्य छे? (उ०] हे गौतमनैरयिकोनो आत्मा अवश्य दर्शनरूप छे, अने तेओनुं दर्शन पण अवश्य आत्मा छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी निरंतर (चोवीस) दंडक कहेवा. ५. ज्ञानात्मा साथे उपरना प्रण आत्मानो संबन्ध बतावे छे. 1 दर्शनात्मा साथे उपरना बे पदोनो संबन्ध बतावे छे. ज्ञान-सम्यग्ज्ञान अने अज्ञान-मिथ्याज्ञान प्रहण करवू. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२.उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. १९७ ? १२. [प्र०] आया मंजे ! रवणप्पमापुडवी अन्ना रवणप्यमा पुढयी [४०] गोषमा ! रवणप्यमा १ सय आया, २ सिय नोआया, ३ सय अवत्त आयाति य नोआवाह य [प्र०] से केणद्वेगं भंते! एवं युवद रयणप्पभा पुढची सिय आया, सिव नोमाया, सिय अवत्त आताति व नोआताति य' ? [ड०] गोयमा ! अपणो आदिट्ठे १ आया, परस्स आदि २ नोनाया ३ तदुभयस्त आदि भवतवं रवणप्यभा पुढची आयाति य नोआयाति य से तेा तंज- जो आयाति य । १३. [प्र० ] आया भंते! सकरण्पमा पुढची ? [४०] जहा रवणप्पना पुढची तदा सकरप्पभाए वि एवं जाय-भ सत्तमा । १४. [०] आया भंते! सोहम्मे कप्पे पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सोहम्मे कप्पे १ सिय आया, २ सिय नोआया, जाव -नो आयाति य । [ प्र० ] से केणट्टेणं मंते ! जाव - 'नो आयाति य' १ [उं०] गोयमा ! अप्पणो आइट्ठे १ आया, परस्स आइडे २ नो भाषा, तदुभयरस धार अवतयं आताति व नोबांताति प से तेण तं चेच जाव 'नोभावाति य' । एवं जा-अर कप्पे | १५. [२०] आया मंते 1 गेपिविमाणे, अपने विजविमाणे [४०] एवं जहा रवणण्पभा तहेच, एवं अणुत्तर विमाणा वि एवं ईसिप भारा वि । , " १६. [प्र० ] आया भंते! परमाणुपोग्नले अग्ने परमाणुपोम्पले ? [30] एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोमाले विभाणियते । १७. [प्र० ] आया भंते ! दुपएसिए खंधे, अन्ने दुपएसिए खंधे ? [ उ०] गोयमा ! दुपपसिए संधे ९ सिय आया, २ ] रूप के असदरूप छे १ १२. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी आत्मा - सत्स्वरूप छे के अन्य-असत्स्वरूप रत्नप्रभा पृथिवी छे ? [उ०] हे गौतम! रत्नप्रभा रत्नप्रभा पृथिवीसपृथ्वी १ कथंचित् आत्मा सद्रूप छे, २ कथंचित् नोआमा असद्रूप पण छे, अने ३ सद्रूपे अने असद्रूपे [ उभयथा कथंचित् अवक्तव्य-कहेवाने अशक्य छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, 'रत्नप्रभा पृथिवी कथंचिद् आत्मा - सद्रूप छे, कथंचित् नोआमा असद्रूप छे, अने सद् अने असद्-ए उभयरूपे कथंचिद् अवक्तव्य छे. [३०] हे गौतम! "रजप्रभा पृथिवी पोताना आदेशची सरूपथी आत्मा विद्यमान छे, परना आदेशथी - पररूपे विवक्षायी नोआत्मा - अविद्यमान छे, अने उभयना आदेशथीस्व अने परनी विवक्षाथी आत्मा - सद्रूपे अने नोआत्मा - असद्रूपे अवक्तव्य छे. ते हेतुथी पूर्व प्रमाणे कां छे तेम आत्मा - सद् अने यावद् - नोआत्मा - असद्रूपे अवक्तव्य छे. - - १३. [प्र० ] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी आत्मा - सद्रूप छे? - इत्यादि प्रश्न. [३०] जेम रत्नप्रभा पृथ्वी कही तेम शर्कराप्रभा पृथ्वी शर्करा प्रभा पृथिवी. संबंघे पण जाणवुं. ए प्रमाणे यावद्-अधः सप्तम पृथ्वी सुधी जाणवु. १४. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक आत्मा - सद्रूप छे ? - इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम! सौधर्म कल्प १ कथंचित् आत्मा - सद्रूप सौधर्म देवलोक छे, २ कयंचिद् नोआमा असद्रूप छे, याद् आत्मा-सद् अने नोआमा असद्रूपे कयंचिद् अवक्तव्य छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, 'ते याबद्- आत्मा अने नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे ! [उ० ] हे गौतम! पोताना आदेशथी आत्मा विद्यमान छे, परना आदेशाची नोखामा अभिधमान छे, अने वनेना आदेशाची अवक्तव्य आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवाप्य छे, माटे ते हेतुषी इखादि पूर्वोक्त याद् आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवक्तव्य छे. ए रीते याच अच्युतकल्प पण जाणवी. १५. [प्र०] हे भगवन् ! ग्रैवेयक विमान आत्मा - विद्यमान छे के तेथी अन्य ( अविद्यमान ) ग्रैवेयक विमान छे ? [ उ० ] ए बधुं मैत्रेयक विमानरत्नप्रभा पृथिवीनी पेठे (सू० १२) जाणवुं, अने ते प्रमाणे अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशिला) सुधी जाणवुं. १६. [२०] हे भगवन् ! एक परमाणुपुद्गल आत्मा विद्यमान छे के तेवी अन्य (अविषमान) परमाणुपुद्गल छे ! [30] हे गौतम! जेम सौधर्मकल्प संबन्धे कह्युं ( सू० १४ ) तेम एक परमाणुपुद्गलसंबन्धे पण जाणवुं. १७. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा विद्यमान छे के तेथी अन्य द्विप्रदेशिक स्कंध छे ! [३०] हे गौतम द्विप्रदेशिक द्विपदेशिक सन् १२ पृथिवी पोताना दि] पर्याय आमा रुद्रूप छे, परम पर्याय बनोरथारूप के अने खपरा पर्याय व आत्मस्वरूप के अनात्मस्वरूप ए बन्ने प्रकारे कहेवाने अशक्य छे. ए प्रमाणे परमाणु [ सू० १६] सुधी त्रण भांगा थाय छे. १७+ द्विप्रदेशिक स्कन्धने विषे छ भांगा थाय छे, तेमां प्रथमना त्रण भांगा सकल स्कन्धनी अपेक्षाए थाय छे, अने ते पूर्वे कहेला छे. बाक़ीना त्रण भांगा देखणी अपेक्षा . द्विप्रदेशिक एन्थ होवाथी लेना एक देशनी खपर्याय दे सकने विवक्षा करीए अने भीना देशनी परपर्याय व किए तो प्रदेश मे कथंचि आत्मा भने चिद अनात्मरूपे होय, तथा रोना एक देशनी पर्याय सद्रूपे विवक्षा करी बीजा देशनी सद् अने असद् ए उभयरूपे विवक्षा करीए तो ५ कथंचित् आत्मरूप अने अवक्तव्य कहेवाय. तथा ते स्कन्धनो एक देश परपर्यायव असद्रूपे तरी अने एक वीजा देशनी उभयरूपेक्षा करीए तो ते गोवामा भने अपव्य उद्देयाय कचित् आत्मा, नोभारमा भने अयक्तव्य - ए प्रमाणे सातमो भांगो द्विप्रदेशिक स्कन्धने विषे तेना वे अंश होवाथी थतो नथी, त्रिप्रदेशिकादि स्कन्धने विषे तो आ साते भांगा थाय छे. ६ ३८ भ० सू० प असद्रूप ? / Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.--उद्देशक १० सिय नोआया, ३ सिय अवत्तवं आयाइ य नोआयाति य, ४ सिय आया य नोआया य, ५ सिय आया य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य, ६ सिय नोआया य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य । १८. प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं तं चेव जाव-'नोआया य अवत्तछं आयाति य नोआयाति या १ [उ०] गोयमा! १ अप्पणो आदितु १ आया, २ परस्स आदिढे नोआया, ३ तदुभयस्स आदिढे अवसवं दुपएसिए खंधे आयाति य नोआयाति य, ४ देसे आदिढे सम्भावपजवे देसे आदिट्टे असब्भावपज्जवे दुप्पएसिए खंधे आया य नोआया य, ५ देसे आदिट्टे सम्भावपजवे देसे आदिदे तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तवं आयाइ य नो आयाइ य, ६ देसे आदिट्टे असम्भावपजवे देसे आदिढे तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नोआया य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य, से तेणट्रेणं तं चैव जाव-'नोआयाति य'। १९. [प्र०] आया भंते ! तिपएसिए खंधे अन्ने तिपएसिए खंधे ? [उ०] गोयमा ! तिपएसिए खंधे १ सिय आया, २ सिय नोआया, ३ सिय अवत्तवं आयाति य नोआयाति य, ४ सिय आयाय नोआया य, ५ सिय आया य नोआयाओ य, ६ सिय आयाओ य नोआया य, ७ सिय आया य अवत्त आयाति य नोयाति य, ८ सिय आया य अवसवाई आयाओ य नोआयाओ य, ९ सिय आयाओ य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य, १० सिय नोआया य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य, ११ सिय नोआया य अवत्तवाइं आयाओ य नोआयाओ य, १२ सिय नोआयाओ य अवत्तवं आयाइ य नोआयाइ य, १३ सिय आया य नोआया य अवत्तवं आयाई य नोआयाह य। २०. [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुचइ-तिपएसिए स्कंधे सिय आया-एवं चेव उच्चारेयचं जाव-सिय आया य नोआया य अवत्तत्वं. आयाति य नोआयाति य? [उ०] गोयमा! १ अप्पणो आइढे आया, २ परस्स आइडे नोआया, ३ तदुभयस्स आइडे अवत्तवं आयाति य नो आयाति य, ४ देसे आइढे सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भावपजवे तिपएसिए स्कंध १ कथंचित् आत्मा-विद्यमान छे, २ कथंचिद्-नोआत्मा-अविद्यमान छे, अने ३ आत्मा तथा नोआत्मा रूपे कथंचिद् अवक्तव्य छे, ४ कथंचिद् आत्मा छे, अने कथंचिद् नोआत्मा पण छे, ५ कथंचिद् आत्मा छे, अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ६ कथंचित् नोआत्मा छे, अने आत्मा अने नोआत्मा-उभयरूपे अवक्तव्य छे... शा हेतुथी सद्रूप १८. [40] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-इत्यादि पूर्वोक्त यावद्-आत्मा अने नोआत्मा-ए उभयरूपे अव. के इत्यादि. क्तव्य छे ? (उ०] हे गौतम ! १ (द्विप्रदेशिक स्कंध ) पोताना आदेशथी आत्मा छे, २ परना आदेशथी नोआत्मा छे, ३ उभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ४ एक देशनी अपेक्षाए सद्भावपर्यायनी विवक्षाथी अने एक देशनी अपेक्षाए असद्भावपर्यायनी विवक्षाथी द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान, तथा नोआत्मा-अविद्यमान छे, ५ एक देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने एक देशना आदेशथी सद्भाव अने असद्भाव ए बन्ने. पर्यायनी अपेक्षाए द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान अने आत्मा तथा नोआत्मा ए उभयरूपे अवक्तव्य छे.. ६ एक देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने एक देशना आदेशथी सद्भाव अने असद्भाव-ए बन्ने पर्यायनी अपेक्षाए ते द्विप्रदेशि स्कंध नोआत्मा-अविद्यमान अने आत्मा तथा नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे. ते हेतुथी ए प्रमाणे कर्तुं छे के यावद्-नोआत्मा-अविद्यमान छे.' त्रिप्रदेशिक स्कन्धना १९. प्र०] हे भगवन् ! "त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान छे के तेथी अन्य त्रिप्रदेशिक स्कंध छे! [उ०] हे गौतम! त्रिप्रदेभारमा-भादि तेर शिक स्कंध १ कथंचित् आत्मा-विद्यमान छे, २ कथंचिद् नोआत्मा-अविद्यमान छे, ३ आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे कथंचिद् अवक्तव्य छे, ४ कथंचिद् आत्मा तथा कथंचित् नोआत्मा छे, ५ कथंचिद् आत्मा तथा नोआत्माओ छे, (एकवचन अने, बहुवचन.)६ कथंचिद् आत्माओ अने नोआत्मा छे, (बहुवचन अने एकवचन.) ७ कथंचिद् आत्मा अने कथंचिद् आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ८ कथंचिद् आत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे. ९ कथंचिद् आत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, १० कथंचिद् नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ११ कथंचिद् नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ-ए. बन्ने रूपे अवक्तव्यो छे, १२ कथंचिद् नोआत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए. उभयरूपे अवक्तव्य छे, १३ कथंचिद् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए बन्ने रूपे अबक्तव्य छे. शा हेतुथी त्रिप्रदेशि- २०. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, 'त्रिप्रदेशिक स्कंध कथंचिद् आत्मा छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहे, यावद्: क स्कन्धना 'आत्माइत्यादि मांगा थाय कथंचिद् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे ! [उ०] हे गौतम ! (त्रिप्रदेशिक स्कंध) पोताना आदेशथी १. आत्मा छे, २ परना-आदेशथी नोआत्मा छे, ३ उभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा-ए उभय रूपे अवक्तव्य छे, ४ एक देशना आदेशची सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए भने एक देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा भने नोआत्मारूप छ, ५ एक १९ * त्रिप्रदेशिक स्कन्धने विषे तेर भांगा थाय छे. तेमा पूर्वे कहेला सात भांगामाथी आदिना त्रण भागा सकल स्कन्धनी अपेक्षाए थाय छ, पछीना यीजा प्रण भांगाना एकवचन अने बहुवचनना भेद थकी त्रण प्रण विकल्पो थाय छे. अने सातमो भांगो एकज प्रकारनो छे. मामा. . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतके १२.-उद्देशक १६. भमवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २९९ खधे आया य नोआया य, ५ देसे आदिट्टे सम्भावपजवे देसा आइटा असब्भावपजवा तिपएसिए खंधे आया य नोआयाओ य, ६ देसा आदिट्ठा सम्भावपजवा देसे आदिटे असब्भावपजवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नोआया य, ७ देसे आदिवे सम्मावपजवे. देसे आदिट्टे तदुभयपनवे तिपएसिए बंधे आया य अवतचं आयाइ य नोआयाइ य, ८ देसे आदितु सम्भावपजवे देसा आदिवा.तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे आया य अवत्तचाई आयाउ य नोआयाउ य, ९ देसा आदिट्ठा सम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आयाउ य अवत्तष्ठं आयाति य नो आयाति य, एए तिन्नि भंगा, १० देसे आदिट्टे असम्भावपजवे देसे आदिटे तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे नोआया य, अवत्तवं आयाइ य नोआयाति य, ११ देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे नोआया य अवत्तवाई आयाउ य नोआयाउ य, १२ देसा आदिट्ठा असम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपजवे तिपएसिएं खंधे नोआयाउ य अवत्त आयाति य नो आयाति य, १३ देसे आदिढे सम्भावपजवे देसे आदिढे असम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आया य नोआया य अवत्त, आयाति य नोआयाइय। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'तिपएसिए खंधे सिय आया तं-चेव जावनोआयाति य। २१. [प्र०] आया भंते! चउप्पएसिए खंधे अन्ने० पुच्छा। उ०] गोयमा! चउप्पएसिए खंधे १ सिय आया, २ सिय नोआया, ३ सिय अवत्तचं आयाति य नोआयाति य, ४-७ सिय आया य नोआया य ४, ८-११ सिय आया य अवतन्त्र ४, १२-१५ सिय नोआया य अवत्तवं ४, १६ सिय आया य नो आया य अवत्तवं आयाति य नोआयाति य ४, १७ सिय आया य नोआया य अवत्तवाइं आयाओ य नोआयाओ य, १८ सिय आया य नोआयाओ य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य, १९ सिय आयाओ य नोआया य अवत्त आयाति य नोआयाति य। २२. [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'चउप्पएसिए खंधे सिय आया य नोआया य अवत्तवं-तं चेव अटे पडिउच्चारेयवं ? [उ०] गोयमा! १ अप्पणो आदिटे आया, २ परस्स आदिट्टे नोआया, ३ तदुभयस्स आदिट्टे अवत्त आयाति देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिकस्कंध आत्मा तथा नोआत्माओ छे, ६ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्माओ भने नोआस्मारूप छे, ७ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी उभय-सद्भाव तथा असद्भाव पर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिकस्कंध आत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ८ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी उभयपर्यायनी विवक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा भने आत्माओ तथा नोआत्माओ-ए उभयरूपे अवक्तव्यो छे, ९ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए भने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा ए उभयरूपे अवक्तव्य छे.-ए त्रण भागाओ जाणवा. १० देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी उभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवक्तव्य छे, ११ देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ-ए उभयरूपे अवक्तव्यो छे, १२ देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध नोआत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा उभयरूपे अवक्तव्य छे, १३ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध (कथंचिद् ). आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा उभयरूपे अवक्तव्य छे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कर्दा छे के-'त्रिप्रदेशिक स्कंध कथंचिद्-आत्मा छे-इत्यादि यावद्-नो आत्मा छे-'त्यां सुधी बधुं कहे. २१. [प्र०] हे. भगवन् ! चतुःप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा-विद्यमान छ के तेथी अन्य छे–इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! *चतुःप्र- चतुष्पदेशिक स्कन्थदेशिक स्कन्ध १ कथंचिद् आत्मा छे, २ कथंचिद् नोआत्मा छे, ३ आत्मा अने नोआत्मा उभयरूपे कथंचिद् अवक्तव्य छे, ४-७ कथंचिद् आत्गा अने नोआत्मा छे ४, (एकवचन अने बहुवचनना चार भांगाओ)८-११ कथंचिद् आत्मा अने अवक्तव्य छे ४, १२-१५ कथंचिद् नोआत्मा अने अवक्तव्य छे ४, १६ कथंचिद् आत्मा अने नोआत्मा तथा आत्मान्नोआत्मरूपे अवक्तव्य छे, १७ कथंचिद् आत्मा, नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओरूपे अववक्तव्यो छे, १८ कथंचित् आत्मा नोआत्माओ तथा आत्मा अने नोआत्मा-उभयरूपे अवक्तव्य छे. १९ कथंचिद् आत्माओ, नोआत्मा तथा आत्मा अने अनात्मरूपे अवक्तव्य छे. २२. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के चतुःप्रदेशिक स्कन्ध कथंचित् आत्मा, नोआत्मा अने अवक्तव्य छे–इत्यादि शा हेतुथी 'भारमा' पूर्व प्रमाणे अर्थनो पुनरुच्चार करी प्रश्न करवो. उ०] हे गौतम! १ पोताना आदेशथी-स्वरूपनी विवक्षाथी आत्मा छे, २ परना आदेशथी-पररूपनी विवक्षाथी नोआत्मा छे, ३ तदुभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ४ देशना आदेशथी सद्भा २१* चतुष्प्रदेशिक स्कन्धने विषे पण त्रिप्रदेशिक स्कन्धनी पेठे जाणवू, परन्तु त्यां ओगणीश भांगाओ थाय छे. तेमा प्रथमना प्रण भागाओ सकलादेशी-सकल स्कन्धनी अपेक्षाए थाय छे, ते प्रमाणे बाकीना चार भांगाना प्रत्येके चार चार विकल्पो थाय छे. . Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनांगमसंग्रहे शतक १२:-उद्देशक १०. य नोआयाति य, ४ देसे आदितु सम्भावपजवे देसे आदिटे असम्भावपजवे चउभंगो, सम्भावपजवेणं तदुभयेण य चउभंगो, असम्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो, देसे आदिट्टे सम्भावपजवे देसे आदिट्टे असम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे चउप्पा एसिए खंधे आया य नोआया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १६, देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भावपजवे देसा आदिट्ठा तदुभयपजवा चउप्पएसिए खंधे भवद आया य नोआया य अवत्तन्वाइं आयाओ य नोभायाओ य १७, देसे आदितु सम्भावपजवे देसा आदिट्ठा असम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपजवे चउप्पएसिए खंधे माया य नोआयाओ य अवत्त आयाति य नोआयाति य १८, देसा आइट्रा सम्भावपजवा देसे आइट्टे असम्भावपज्जवे देसे आइट्रे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आयाओ य नोआया य अवत्तचं आयाति य नो आयाति य १९, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुधह चउप्पएसिए खंधे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्त, निश्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयवा जाव-नोआयाति य । २३. प्र०ा आया भंते ! पंचपएसिए खंधे अन्ने पंचपएसिए खंधे ? [उ०] गोयमा! पंचपएसिप खंधे १ सिय भाया, २ सिय नोआया, ३ सिय अवत्त आयाति य नोआयाति य, ४-७ सिय आया य नोभाया य सिय अवत्तवं ४, ८-११ नोआया य अवत्तष्वेण य४, तियगसंजोगे पक्कोण पडइ । . २४. [प्र० से केणटेणं भंते! तं चेव पडिउच्चारेयचं। [30] गोयमा! १ अप्पणो आदिट्टे आया, २ परस्स आदिट्टे नोआया, ३ तदुभयस्स आदिद्वे अवत्तचं, ४ देसे आदितु सब्भावपजवे देसे आदिट्टे असब्भावपजवे-एवं दुयगसंजोगे सो पडंति तियगसंजोगे एकोण पडइ । छप्पएसियस्स सधे पडंति । जहा छप्पएसिए एवं जाव-अणंतपएसिए । 'सेवं भंते । सेवं भंतेति जाव-विहरति । बारसमसए दसमो उद्देसो समत्तो। समत्तं बारसमं सयं। वपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशर्थी अंसद्भावपर्यायनी अपेक्षाए [एकवचन अने बहुवचनना] चार भांगा थाय छै, सद्भावपर्याय अने तदुभयनी अपेक्षाए चार भांगा थाय छे, तथा असद्भाव अने तदुभयनी अपेक्षाए पण चार भांगा थाय छे, तथा १६ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, १७ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए भने देशोना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआमाओरूपे अवक्तव्य छे, १८ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदे यपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा-उभयरूपे अव्यक्तव्य छे, १९ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्माओ, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के, चतुष्प्रदेशिक स्कंध कथंचिद् आत्मा छे, कथंचिद् नोआत्मा छे अने कथंचित् अवक्तव्य छे,-ए निक्षेपमा पूर्वोक्त भांगाओ यावद्-'नो आत्मा छे" त्या सुघी कहेवा. (चमदेशिक स्कन्ध- २३. [प्र०] हे भगवन् ! पंचप्रदेशिक स्कंध आत्मा छे, के तेथी अन्य पंचप्रदेशिक स्कंध छे ? [उ०] हे गौतम ! पंचप्रदेशिक बा २२ मांगाओ. स्कंध १ *कथंचित् आत्मा छे, २ कथंचित् नोआत्मा छे, अने ३ आत्मा तथा नोआत्मारूपे कथंचित् अवक्तव्य छे, ४ कथंचित् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा अने अनात्मा-उभयरूपे कथंचित् अवक्तव्य छे. नोआत्मा अने अवक्तव्यवडे ए प्रमाणे चार भांगा करवा, त्रिक संयो गमा ( आठ भांगा थाय छे) एक आठमो भांगो उतरतो नथी, एटले सात भांगाओ थाय छे. (कुल मळीने बावीश भांगाओ थाय छे.) धा हेतुथी ते 'आत्मा' २४. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी (पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा छे)-इत्यादि पाठनो पुनः उच्चार करवो. [उ०] हे गौतम ! १ इत्यादिरूप छे ? (पंचप्रदेशिक स्कन्ध ) पोताना आदेशथी आत्मा छे, २ परना आदेशथी नोआत्मा छे, ३ तदुभयना-आदेशथी अवक्तव्य छ, ४ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए कथंचित आत्मा के भने आत्मा नथी-ए प्रमाणे द्विकसंयोगमा सर्वे भांगा उपजे छे, मात्र त्रिकसंयोगमा (आठमो) एक भांगो उतरतो नथी. षट्प्रदेशिक स्कन्धने विषे सर्वे भांगाओ लागु पडे. छे, जेम षट्प्रदेशिक स्कन्धने विषे कह्यु, तेम यावत्-अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध संबन्धे जाणवं, 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-' एम कही [भगवान् गौतम] यावद् विहरे छे. . द्वादश शतके दशम उद्देशक समाप्त द्वादश शतक समाप्त. . २३ * पंचप्रदेशिक स्कन्धना बावीश भांगा थाय छे, तेमां आदिना त्रण भांगा पूर्व प्रमाणे सकलादेशरूप छे, त्यार पछीना त्रण भांगाना प्रत्येके चार चार विकल्प थाय छ, भने सातमा भांगाना सात विकल्प थाय छे. त्रिकसंयोगना मूळ आठ भांगा थाय, तेमां अहिं प्रथमना सात भांगा ग्रहण करवा, एक छेल्ला. भांगानो भसंभव होवाथी ते न ग्रहण करवो. छ प्रदेशिक स्कन्धने विषेत्रेवीश भांगा थाय छे.-टीका. Jain Education international Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तेरसमं सयं । १ पुढवी २ देव ३ मणंतर ४ पुढवी ५ आहारमेव ६ उववाए । ७. भासा ८ कम ९ अणगारे 'केयाघडिया १० समुग्धाए ॥ २. [०] रायगि जाव - एवं वयासी कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नताओ ? [उ०] गोयमा ! सत पुढवीओ पन्नताओ, तं जहा - १ रयणप्पभा, जाव - ७ असत्तमा । ३. [प्र०] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाएं पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । [ प्र०] ते णं भंते । किं संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? [उ०] गोयमा ! संसेज वित्थडा वि असंखेजवित्थडा वि । ४. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाष पुढबीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेनवित्थडेसु नरपसु १ एगसमपण केवतिया नेरइया उववजंति ? २ केवंतिया काउलेस्सा उववजंति ? ३ केवइया कण्हपक्खिया उववजंति १ ४ केवतिया त्रयोदशशतक. १. [ उद्देशक संग्रह - ] १ नरक पृथ्वी विषे प्रथम उद्देशक, २ देवनी प्ररूपणा संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ अनन्तराहार- उपपात क्षेत्री प्राप्ति समये तुरत आहार करनारा - नारक संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ पृथिवी - नरकपृथिवीनी वक्तव्यता प्रतिपादन करवा माटे चोथो उद्देशक, ५ आहार - नारकादिना आहारनी प्ररूपणा करवा माटे पांचमो उद्देशक, ६ उपपात - नारकादिना उपपात संबन्धे छो उद्देशक, ७ भाषा संबन्धे सातमो उद्देशक, ८ कर्मनी प्ररूपणा करवा माटे आठमो उद्देशक, ९ अनगार - भावितात्मा अनगार वैक्रिय धिना सामर्थ्यी केयाघडिया - हाथमां दोरडाथी बांधेली घटीका लइने [एवारूपे] आकाशमां गमन करी शके- इत्यादिक अर्थनुं प्रतिपादन करवा माटे नवमो उद्देशक, १० अने समुद्घातनुं प्रतिपादन करवा माटे दशमो उद्देशक - ए प्रमाणे तेरमा शतकने विषे दश उद्देशको कहेवामां आवशे. प्रथम उद्देश. २. [प्र०] 'राजगृह नगरमाँ [भगवान् गौतम] यावत्-ए प्रमाणे बोल्या के - हे भगवन् ! केटली नरक पृथिवीओ कहेली छे ! [उ०] हे गौतम! सात नरकपृथिवीओ कहेली छे, ते आ प्रमाणे - १ रत्नप्रभा यावत्- ७ अधः सप्तमनरकपृथिवी. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा नरकपृथिवीने विषे केटला लाख नरकावासो कहेला छे ! [उ०] हे गौतम! त्रीश लाख नरकावासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते नरकावासो संख्याता योजन विस्तारवाळा छे के असंख्याता योजन विस्तारवाळा छे ! [उ०] हे गौतम! संख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे अने असंख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे. ४. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये १ केटला नारक जीवो उत्पन्न याय, २ केटला कापोतलेश्यावाळा उत्पन्न थाय, ३ केटला "कृष्णपाक्षिकजीवो उत्पन्न थाय, ४ १ केयाइडिया क । ४ * जे जीवोने कंइक न्यून अर्धपुद्गलपरावर्त संसार बाकी होय छे ते शुक्लपाक्षिक, अने तेथी अधिक संसार बाकी होय ते कृष्णपाक्षिक कहेवाय छे. टीका. नरकपृथिवी. रतपमानेविषे नरकावासो. संख्याता योजन विस्तारवाळा नरका बासोमा एक समये नारकादिनो उत्पाद Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतंक १३. - उद्देशक १. सुखिया पति १५ केवतिया सभी उपबति ? ६ केवतिया असन्नी उपपति ७ केवतिया भवसिद्धीया उपयति ? ८ केवतिया अभवसिद्धीया उच्चजंति ९ केवतिया आभिनिबोहियनाणी उपचति १ १० केवइया सुचनाणी उपवज्रंति ? ११ केवइया ओहिनाणी उववज्रंति ? १२ केवइया मइअन्नाणी उववजंति ? १३ केवइया सुयअन्नाणी उववजंति ? १४ केवइया विब्भंगनाणी उववजंति ? १५ केवइया चक्खुदंसणी उववजंति ? १६ केवइया अचक्खुदंसणी उववज्जंति ? १७ केवइया ओहिसणी उववजंति ? १८ केवइया आहारसन्नोवउत्ता उववजंति ? १९ केवइया भयसन्नोवउत्ता उववजंति ? २० केवइया मेणसोबत्ता उबजंति ? २१ केवइया परिग्गहसनोयडा उपजंति ? २२ केवइया इत्यिवेयगा उपयजति २३ फेबइया पुरिसयेद्गा उपयति ? २४ केवइया नपुंगवेदगा उचचजंति ? २५ केवइया कोहकसाई उपपति २८ जाय केवइया लोकसायी उपचजंति ? २९ केपदया सोइंदिपउघडता उपपति जाव-३३ केपश्या फासिंदियोउसा उपपति ३४ या नोइंद्रियोपता उचचजंति ३५ केवतिया मणजोगी उपवनंति ३६ केवलिया बजोगी उपयजंति ? ३७ केवतिया फायजोगी उपचजंति ?१ ३८ केवतिया सागारोषउत्ता उपपति ३९ केवतिया अणागारोवउत्ता उच्चवज्रंति ? [४०] गोयमा इमीसे णं रवणप्पभाष पुढबीए तीसाए निरवापाससयसहस्सेसु संसेजवित्थडेसु नरपसु जहणं एको वा दो यातिथि वा उक्कोसेणं संखेजा नेरइया उचचजंति, जहणं एको वा दो वा तिथि था, उनोस्सेणं संसेखा काउलेस्सा उववजंति, जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेजा कण्हपक्खिया उववजंति, एवं सुक्कपक्खिया वि, एवं सन्नी, एवं असनी वि, एवं भवसिद्धीयां, एवं अभवसिद्धिया, आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मद्दअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी एवं चेव, चक्खुदंसणी ण उववजंति, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेजा अचक्खुदंसणी उववजंति, एवं ओहिणी वि, आहारसन्नता व जाब- परिग्गहसनोउता वि इत्वीचेया न उचचजंति, पुरिसपेयमा वि न उचचजंति, जहणं. एको वा दो प्रातिनि था, उक्लोसेणं संसेजा नपुंसगवेद्गा उपयजंति, एवं कोदकसाई, जाय-लोकसाई सोइंदिय उवउत्तान उववजंति, एवं जाव - फासिदिभोवउत्ता न उववजंति, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा केटला शुक्लपाक्षिक जीवो उत्पन्न थाय, ५ केटला संज्ञी जीवो उत्पन्न थाय, ६ केटला असंज्ञी जीवो उत्पन्न थाय ७ केटला भवसिद्धिक जीवो उत्पन्न थाय, ८ - केटला अभवसिद्धिक जीवो उत्पन्न थाय, ९ केटला आभिनिबोधिकज्ञानी - मतिज्ञानी उत्पन्न थाय, १० केटला श्रुतज्ञानी उत्पन्न था, ११ केटला अवधिज्ञानी उत्पन्न थाय १२ केटला मतिअज्ञानी उत्पन्न धाय, १३ केटला श्रुतअज्ञानी उत्पन्न था, १४ विभंगज्ञानी उत्पन्न पाय, १५ केटला चक्षुदर्शनी उत्पन्न चाय, १६ केटला अचक्षुदर्शनी उत्पन्न चाय, १७ केटला अवधिदर्शनी उत्पन्न थाय, १८ केटला आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा जीव उत्पन्न थीय, १९ केटला भयसंज्ञाना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, २० केटला मैथुन - ज्ञाना उपयोगवाव्य उत्पन्न थाय २१ केटला परिग्रह संज्ञाना उपयोगवाव्य उत्पन्न चाय, २२ केटला स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न पाप, २३ केटला पुरुषवेदी उत्पन्न धाप, २४ केटा नपुंसकवेदी उत्पन्न वाय, २५ केटला कोकायाला जीव उत्पन्न याय, यावत् २८ केटा लोक उत्पन्न चाय २९ केटला श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगमान्य उत्पन्न धाय यावत् ३३ केटला स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगा उत्पन्न ', थाय, ३४ केटला नोइन्द्रिय ( मन ) ना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, ३५ केटला मनयोगी उत्पन्न थाय, ३६ केटला वचनयोगी उत्पन्न थाय, ३७ केटला काययोगी उत्पन्न थाय, ३८ केटला साकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय, अने ३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय ? [उ० ] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना श्रीश लाख नरकावासोगांना संख्याता योजनना विस्तारवाव्य नरकावासोने विषे १ जघन्यथकी एक, वे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता नारको उत्पन्न थाय छे, २ जघन्यथी एक बे के त्रण, अने उत्कृष्टथी संख्याता कापोतलेश्या वाळा उत्पन्न थाय छे, कारण के प्रथम नरक पृथिवीमां कापोतलेश्या होय छे. ३ जमन्यथी एक, वे के प्रण भने उत्कृष्टथी संख्याता कृष्णपाक्षिक जीवों उत्पन्न थाय छे, ए प्रमाणे शुक्लपाक्षिक संबंधे पण जाणवुं, ए रीते संज्ञी अने असंज्ञीने पण कहेवुं, ए प्रमाणे भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक जीवो पण जाणवा. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी ए सर्व ए प्रमाणेज उत्पन्न थाय छे. चक्षुदर्शनवाळा जीवो उत्पन्न थता नथी. जघन्ययी एक, ये अथवा त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता अचक्षुदर्शनपाला जीवो उत्पन्न थाय छे. [कारणके उत्पत्ति समये सामान्य उपयोगरूप अचक्षुदर्शन छे.].एम अवधिदर्शनथाळां पण जाणवा. ए रीते आहार संज्ञाना उपयोगाच्या अने यावत् परिग्रह संज्ञाना उपयोगवाळा. पण ए प्रमाणे उत्पन्न थाय छे. स्त्रीवेदवाळा अने पुरुषवेदवाळा जीवो [भवप्रत्यय नपुंसकवेद होवाथी ] उत्पन्न थता नथी. जधन्यथकी एक, बे के ऋण अने उत्कृष्टथी संख्याता नपुंसकवेदी उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे क्रोधकषायी, अने यावत् लोभकषायी जागवा. श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगा उत्पन पता नथी, अने यावत् स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगाय पण उत्पन्न पता नथी. जधन्ययी एक बे ४ 'इन्द्रियो अने मन शिवाय सामान्य उपयोगमन्त्रने पण अचक्षुदर्शन कहे छे भने ते उत्पत्तिसमये पण होय छे तेथी उत्तरमा 'अचदर्शनी उत्पन्न थाय छे' - एम कधुं छे. + याम दीपना उपयोगा भने मैथुनज्ञाना उपयोग जीवो महण करा. 1. ** / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक १. भगवत्सुंधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नोइंदिओवउत्ता उववजंति, मणजोगी ण उववजंति, एवं वइजोगी वि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिमि वा, उकोसेणं संखेजा कायजोगी उववजंति, एवं सागारोवउत्ता वि, एवं अणागारोवत्ता वि।। ५.० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु एगसमएणं केवडया नेहया उच्चति ? केवतिया काउलेस्सा उच्चट्टति ? जावं-केवतिया अणागारोवउत्ता उच्चस॒ति ? [उ०] गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमपणं जहन्नेणं एको वा दो वा तिमि "वा, उक्कोसेणं संखेजा नेहया उच्चद॒ति, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा काउलेस्सा उच्चति, एवं जावसनी । असन्त्री ण उच्चति । जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उच्चदंति, एवं जाव-सुयमनाणी । विभंगनाणी ण उववर्ल्डति, चक्खुदंसणी ण उच्चटुंति । जहन्नेणं एको वा दो वा-तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा अचमखु. दसणी उच्चट्ठति, एवं जाव-लोभकसायी। सोइंदिओवउत्ता ण उच्वहृति, एवं जाव-फासिदियोवउत्ता न उच्चति । जहन्ने] एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उबटुंति । मणजोगी न उच्वदृति, एवं वाजोगी वि। जहन्ने] एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा कायजोगी उच्चटुंति, एवं सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। ६. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु केवइया नेरइया, पन्नत्ता केवइया काउलेस्सा, जाव-केवतिया अणागारोवउत्ता पन्नत्ता ? केवतिया अणंतरोवपन्नगा पन्नचा १ ? केवइया परंपरोववनगा पन्नत्ता २१ केवइया अणंतरोवगादा पन्नत्ता ३ ? केवइया परंपरोवगाढा पन्नत्ता ४ ? केवइया अणंतराहारा पन्नत्ता ५ ? केवतिया परंपराहारा पन्नत्ता ६ ? केवतिया अणंतरपजत्ता पन्नत्ता ७ ? केवतिया परंपरपजत्ता पन्नत्ता ८१ केवतिया चरिमा पन्नत्ता ९१ केवतिया अचरिमा पन्नत्ता १०१ [उ०] गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरपसु संखेजा नेरतिया पन्नत्ता, संखेजा काउलेस्सा पन्नत्ता, एवं जाव-संखेजा सन्त्री पत्ता। के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता *नोइंदियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय छे. मनयोगी अने वचनयोगी उत्पन थता नथी. जघन्यथी एक, बे अने त्रण तथा उत्कृष्टथी संख्याता काययोगवाळा उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने ए रीते अनाकारोपयोगवाळा पण उत्पन्न थाय छे. .. ५. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समयमां एक समये नारकाकेटला नारक जीवो उद्वर्ते-मरण पामे, केटला कापोतलेश्यावाळा उवर्ते, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाळा उद्वर्ते? [उ०] हे गौतम! ना आ रत्नप्रभा पृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोमा एक समये जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी सिंख्याता नारको उद्वर्ते, जघन्यथी एक, बे के त्रणं अने उत्कृष्टथी संख्याता कापोतलेश्यावाळा उद्वर्ते, ए प्रमाणे यावत्-संज्ञी जीवो सुधी उद्वर्तना जाणवी. असंज्ञी जीवो उद्वर्तता नथी. भवसिद्धिक जीवो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते के. ए प्रमाणे यावत् श्रुतअज्ञानी सुधी जाणवू. विभंगज्ञानी अने चक्षुदर्शनी उद्वर्तता नथी. जघन्यथी एक, बे के त्रण भने उत्कृष्टथी संख्याता अचक्षुदर्शनी उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीवो सुधी जाणवू. श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावत्स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा पण उद्वर्तता नथी. जघन्यथी एक, बे के त्रण भने उत्कृष्टथकी संख्याता नोइंद्रियना उपयोगवाळा उदर्ते छे. मनयोगी उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे वचनयोगी पण उदवर्तता नथी. काययोगी जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा पण जाणवा. [ए प्रमाणे नारक जीवोने विषे उद्वर्तनानुं परिमाण कयुं]. ६. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ केटला रसप्रभामा नारक जीवोनी सत्ता. नारक जीवो कहेला छे ? २ केटला कापोत लेश्यावाळा, यावत्-३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा कहेला छे. १ केटला अनन्तरोपपन्न-प्रथम समये उत्पन्न थयेला होय छे, अने केटला परंपरोपपन्न-उत्पत्ति समयनी अपेक्षाए बे इत्यादि समयोने विषे उत्पन्न थयेला होय छे. केटला अनंतरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रने विषे प्रथम समयमा रहेला छे, केटला परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रमा द्वितीयादि समयने विषे रहेला छे, केटला अनंतराहार-प्रथम समये आहार करवावाळा छे, केटला परंपराहार-द्वितीयादि समये आहार करवावाळा छे, केटला अनंतरपर्याप्ता-प्रथम समये पर्याप्ता होय छे, अने केटला परंपरपर्याप्ता-द्वितीयादि समये पर्याप्ता होय छे, केटला चरम-जेने छेल्लो तेज नारकभव बाकी छे एवा होय छे अथवा केटला नारक भवना चरम छेल्ले समये वर्ते छे, १० अने केटला अचरम-चरमथकी विपरीत होय छे ! [उ०] हे गौतम! आ:रतप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता. योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ संख्याता नारक जीवो कहेला छे, २ ४* नोइन्द्रिय-मन, यद्यपि अहिं अपर्याप्तावस्थामा मनःपर्याप्तिनो अभाय होवाथी द्रव्य मन होतुं नथी, तो पण चैतन्यरूप भावमन हमेशा होय छे, माटे 'नोइन्द्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय छे'-एम कयुं छे-टीका. ' संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासने विषे संख्याताज नारको समाइ शके. उद्वर्तना परभवना प्रथम समयने विषे होय, अने नारकी असंज्ञीने विषे न उपजे, माटे असंही उदवर्तता नथी.-टीका. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ 'श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक १. असनी सिय अस्थि, सिय नत्थिा जइ अत्थि जहनेणं एको वा दो वा.तिन्नि घा, उक्कोसेणं संखेजा पन्नत्ता । संखेजा भवसिद्धीया पञ्चत्ता, एवं जाव-संखेजा परिग्गहसन्नोवउत्ता.पन्नत्ता, इथिवेदगा नत्थि, पुरिसवेदगा नत्थि, संखेजा नपुंसगवेदगा पन्नत्ता, एवं कोहकसायी वि । मानकसाई जहा असन्नी, एवं जाव-लोभकसायी । संखेजा सोइंदियोवउत्ता पनत्ता, एवं जावफासिदियोवउत्ता । नोइंदियोवउत्ता जहा असन्नी । संखेजा मणजोगी पन्नत्ता, एवं जाव-अणागारोवउत्ता । अणंतरोववनगा सिय अत्थि, सिय नत्थि; जद्द अत्थि जहा असन्नी । संखेजा परंपरोववनगा पन्नत्ता । एवं जहा अणंतरोववनगा तहा अणंतरोवगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपजत्तगा, चरिमा । परंपरोवगाढगा, जाव-अचरिमा जहा परंपरोववन्नगा। ७. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववजंति, जाव-केवतिया अणागारोवउत्ता उववजंति ? [उ०] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए, निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं असंखेजा नेरइया उववजंति । एवं जहेव संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा तहा असंखेजवित्थडेसु वि तिनि गमगा भाणितवा, नवरं असं. खेजा भाणियवा, सेसं तं चेष, जाव-असंखेजा अचरिमा पन्नत्ता, नाणत्तं लेस्सासु, लेस्साओ जहा पढमसए, नवरं संखेजवित्थडेसु वि असंखेजवित्थडेसु वि ओहिनाणी ओहिदसणी य संखेजा उच्चट्टावेयधा, सेसं तं चेव । ८. [प्र०] सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयहस्सा पण्णत्ता । [प्र०] ते गं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि । नवरं असन्नी तिसु वि गमएसुन भन्नति, सेसं तं चेव । J संख्याता कापोतलेश्यावाळा कहेला छे, ए प्रमाणे यावत्-संख्याता संज्ञी जीवो कहेला छे. *असंज्ञी जीवो कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी. जो होय छे तो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता होय छे, संख्याता भवसिद्धिक जीवो कहेला छे, ए प्रमाणे यावत् संख्याता परिग्रहसंज्ञाना उपयोगवाळा कहेला छे; स्त्रीवेदी नथी अने पुरुषवेदी पण नथी, नपुंसकवेदी संख्याता होय छे. ए प्रमाणे क्रोधकषायी पण संख्याता होय छे. मानकषायी असंज्ञीनी पेठे [कदाचित् होय छे अने कदाचिद् होता नथी.] ए प्रमाणे यावत्-[मायाकषायी अने] लोभकषायी जाणवा. संख्याता श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा कह्या छे, ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा पण कह्या छे. नोइंद्रियना उपयोगवाळा असंज्ञीनी पेठे जाणवा, संख्याता मनोयोगी कहेला छे, अने ए प्रमाणे यावत् [संख्याता] ३९ अनाकारोपयोगी जाणवा. अनंतरोपपन्न-प्रथम समये उत्पन्न थवावाळा नारको कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी. जो होय तो ते असंज्ञीनी पेठे जाणवा. संख्याता परंपरोपपन्न-द्वितीयादि समये उत्पन्न थयेला जाणवा. ए प्रमाणे जेम अनंतरोपपन्न कह्या तेम अनंतरावगाढ अनंतराहारक, अनन्तरपर्याप्तक अने चरम-जेने छेल्लोज नारक भव बाकी छे ते अथवा नारकभवने छेल्ले समये वर्तता-जाणवा. परंपरावगाढ, यावत् अचरम सुधी जेम परंपरोपपन्न कह्या तेम कहेवा. [ए प्रमाणे संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासनी वक्तव्यता कही.] असंख्ययोजनवाळा . ७. [प्र०] हे भगवन् ! आ रनप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये मरकावासोमा नार. केटला नारको उत्पन्न थाय, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाा उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभापृथ्वीना त्रीश लाख नरकावाकादिनो उत्पाद. सोमांना असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी असंख्याता नारको उत्पन्न थाय छे, ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा नरकने विषे [उत्पाद, च्यवन अने सत्ता-] ए त्रणं आलापक कह्या तेम असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण त्रण आलापक कहेवा, परन्तु अहिं 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवू. यावत् 'असंख्याता अचरम नारको कहेला छे'–स्यां सुधी कहे. लेश्याने विष विशेषता छे, अने ते लेश्याओ प्रिथम शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. परन्तु एटलो विशेष छे के संख्यात योजन विस्तारवाळा अने असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी सिंख्याता ज च्यवे छे,-एम कहे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू.. शर्कराप्रभामा ८. [प्र०] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा नरक पृथिवीने विषे केटला नरकावासो होय छे-ते संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पचीश नरकाबासो. लाख नरकावासो होय छे. [प्र०] हे भगवन्! ते नरकावासो शुं संख्यातायोजनविस्तारवाळा होय के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा होय? [उ०] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबन्धे कयुं तेम शर्कराप्रभा संवन्धे जाणवू, परन्तु [उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता-] ए त्रणे आलापकने विषे असंज्ञी न कहेवा [कारण के असंज्ञी प्रथम नरकपृथिवीने विषेज उपजे छे.] बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवु. ६. असंझीधकी मरण पामी जेओ नारकपणे उत्पन्न थया छे, तेओ अपर्याप्तावस्थामा भूतभावनी अपेक्षाए असंज्ञी कहेवाय छे, तेओ अल्प होय छे माटे 'असंझी कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी' एम कडुं छे-टोका. 1 भग० ख०१ श० १ २० २ पृ. १०४. जुओ प्रशा० लेश्यापद १५ उ० २ प० ३४३-२. अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी तीर्थकरादि ज होय, ते. थोडा होय माटे ते संख्याताज नीकळे.-टीका. . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा. भी उगमसागर तर पान माल 2 महापीर पोन वायना पेपर शतक १३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. .. ९. [प्र०] पालुयर्पमाए णं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, सेसं जहा सकरप्पमाए, णाणत्तं लेसासु, लेसाओ जहा पढमसप। १०. [प्र०] पंकप्पभाए णं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! दस निरयावाससयसहस्सा पनत्चा, एवं जहा सकरप्पभाए, नपर मोहिनाणी ओहिदसणी य न उच्चदंति, सेसं तं चेव। ११. [३०] धूमप्पभाए णं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! तिन्नि निरयावाससयसहस्सा, एवं जहा पंकप्पभाए। १२. [प्र०] तमाए णं भंते ! पुढचीए केवतिया निरयावास० पुच्छा । [उ०] गोयमा ! एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णत्ते । सेसं जहा पंकप्पभाए। १३. प्रि०ा अहेसत्तमाए णं भंते | पुढवीए कति अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पन्नत्ता [उ.] गोयमा! पंच अणुत्तरा जाव-अपइट्टाणे। प्र०] ते ण मंते! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा? [उ.] गोयमा संखेजवित्थडेय असं. खेजवित्थडा य। . १४. [प्र०] अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालया० जाव-महानिरएसु संख्नेजवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया० १ [उ०] एवं जहा पंकप्पभाए, णवरं तिसु नाणेसु न उववजंति, न उष्वदृति, पन्नत्ता एसु तहेव अस्थि, एवं असंखेजवित्थडेसु वि, नवरं असंखेजा भाणियष्वा । . १५. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु किं सम्म. हिट्ठी नेरतिया उववजंति, मिच्छदिट्ठी नेरतिया उववजंति, सम्मामिच्छदिट्ठी नेरतिया उववजंति ? [उ०] गोयमा सम्मदिट्ठी वि नेरक्या उववजंति, मिच्छादिट्ठी वि नेरइया उववजंति, नो सम्मामिच्छदिट्टी नेरच्या उववजंति । ९. [प्र०] वालुकाप्रभा संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पंदरलाख नरकावासो कह्या छे, बाकी बधुं शर्कराप्रभानी पेठे जाणq. पण वालुकाप्रभार्मा लेश्याने विषे *विशेषता छे, अने ते प्रिथम शतकमा कह्या प्रमाणे जाणवी. नरकावासो. १०. [प्र०] हे भगवन् ! पंकप्रभा नरकने विषे केटला नरकावासो कह्या छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम!. दश लाख नरका- पंकप्रमामा वासो कह्या छे. ए प्रमाणे जेम शर्कराप्रभा संबन्धे कहां, तेम अहिं पण जाणवं. परन्तु अहिंथी अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी च्यवता नथी, नरकावासो. नरम बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू. ११. [प्र०] धूमप्रभा संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! त्रण लाख नरकावासो कह्या छे, ए प्रमाणे जेम पंकप्रभा संबन्धे कयुं छे। धूमप्रभामा तेम अहिं जाणवू. नरकावासो. १२. [प्र०] हे भगवन् ! तमा नरकपृथिवीने विषे केटला नरकावासो कह्या छे?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पांच न्यून एक तमःप्रभामा लाख नरकावासो कह्या छे. बाकी बधुं पंकप्रभा पेठे जाणवू. नरकाबासो, १३. [प्र०] हे भगवन्! अधःसप्तम नरक पृथिवीने विषे अनुत्तर अने अत्यंत मोटा एवा केटला महानरकावासो कडा छे! [उ०] सप्तम नरकमा नरकावासो हे गौतम! अनुत्तर अने मोटा पांच नरकावासो कह्या छे. यावत्-[१ काल, २ महाकाल, ३ रोर, ४ महारोर, अने] ५ अप्रतिष्ठान. [प्र०] हे भगवन् ! ते नरकावासो अ॒ संख्यात योजनना विस्तारवाळा छे के असंख्यात योजनना विस्तारवाळा छे ! [उ०] हे गौतम! वच्चेनो अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यातयोजनना विस्तारवाळो छे अने बीजा असंख्यातयोजनना विस्तारवाळा छे.. १४. [प्र०] हे भगवन्! अधःसप्तम नरकपृथिवीना पांच अनुत्तर अने अत्यंत मोटा यावत्-महानरकावासोमांना संख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासने विषे एक समये केटला नारको उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पंकप्रभाने विषे कयुं तेम अहिं जाणवू परंतु एटलो विशेष छे के अहिं त्रण ज्ञानसहित उत्पन्न थता नथी, [केमके सम्यक्त्वभ्रष्ट ज अहिं उपजे छे.] तेम च्यवता पण नथी. तो पण ए पांच नरकावासोमा ए प्रमाणे-प्रथमादि नरकपृथिवीनी जेम त्रण ज्ञानवाळा होय छे. ए प्रमाणे असंख्यातायोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण जाणवू, परन्तु त्यां 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. १५. [अ०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजननिस्तारवाळा नरकावासोने विषे शुं सम्यान रत्नप्रभार्मा ग्दृष्टि नारको उत्पन्न थाय, मिथ्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय के सम्यग्मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि पण नारको संख्यातायोजन विस्तारवाल उपजे, मिथ्यादृष्टि पण नारको उपजे, परन्तु सम्यग्मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थता नथी. नरकावासोर्मा - सम्यग्दृष्टि बगेरेनो ९.प्रथमनी बे नरक पृथिवीमां कापोतलेल्या होय छेत्रीजी नरकपृथिवीमा मिश्र-कापोत अने. नील बन्ने लेश्या छे. चतुर्थं पृथिवीमो नीलळेश्या वाद. छ, पांचमी पृथिवीमा मिश्र-कृष्ण भने नील बन्ने लेश्या छे, छठी पृथिवीमां कृष्णलेश्या छे अने सातमी नरकपृथिवीमा परमकृष्णलेश्या छे. + भग० ख०१२०१3०२ पृ.१०४. जुओ प्रज्ञा लेश्या पद १७ उ० २५०३४३-२, १. भवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थकर ज होय भने चोथी आदि नरकपृथिवीथी नीकळेला तीर्थकर न थाय माटे 'अहिथी अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी च्यवता नथी' एम कयुं छे-टीका.. _JainEducation International३९ भ. सू. . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टिवगेरेनी उद्वर्तना. सप्तम नरकम सम्यग्दृष्टि वगेरे उपजे १ कृष्णा दिलेश्यावाळो भने कृष्णलेश्या बाळा नारकोमा उत्पन्न धाय १ श्रीरायचन्द्र- जिनागमसंग्रहे शतक १३. - उद्देशंक १. १६. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाष पुढवीप तीसाए निरयावाससयुसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरपसु किं सम्मदिट्ठी नेरइया उति १ [उ०] एवं चेव । नीकलेश्यावाळा नारकोमा उत्पन्न थाय ? वेनो हेतु. ३०६ १६. [प्र०] हे भगवन्! आ रत्नप्रभापृथ्वीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे शुं सम्यदृष्टि नारकी च्यवे ? - इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवुं. सम्यग्दृष्टि वगेरेथी १७. [प्र० ] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजनविस्तारवाळा नरकावासो शुं सम्यग्दृष्टि नारको व्यविरहित होय. वडे अविरहित-सहित छे, मिथ्यादृष्टि नारको वडे अविरहित छे के सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारको वडे अविरहित छे ! [उ०] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि १७. [१०] इमीले णं. भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए. निरयावाससयसद्दस्सेसु संखेज्ञवित्थडा नरगा किं सम्मद्दिट्ठीहिं नेरइपहिं अविरहिया, मिच्छादिट्ठीहिं नेरइपहिं अविरहिया, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइपहिं अविरहिया वा ? [ उ०] गोयमा ! सम्मद्दिट्ठीहिं विनेरइपहिं अविरहिया, मिच्छादिट्ठीहिं वि नेरहपहिं अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्ठीहिं नेरहपहिं अविरहिया विरहिया वा । एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिनि गमगा भाणियचा 1 एवं सक्करप्पभाष वि, एवं जाव-तमाए वि । १८. [प्र०] अद्देसत्तमाए णं भंते ! पुढवीप पंचसु अणुत्तरेसु जाव-संखेजवित्थडे नरप किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया - पुच्छा । [उ०]-गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी नेरइया न उववज्रंति, मिच्छादिट्ठी नेरइया उववज्रंति, सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया न उववज्रंति, एवं उति वि, अविरहिए जद्देव रयणप्पभाए । एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिनि गमगा । १९. [प्र०] से नूणं भंते! कण्हलेस्से, नीललेस्से, जाव-सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरद्दयसु उववज्जंति ? [अ०] इंता, गोयमा ! कण्हलेस्ले जाव-उववजंति । [प्र० ] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुश्चइ - कण्हलेस्ले जाव - उववजंति ? [उ०] गोयमा ! लेस्लट्ठासु संकिलिस्समाणेसु २ कण्हलेसं परिणमइ, कण्ह० २ - मित्ता कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजंति, से तेणट्टेणं जाव-उववज्रंति । २०. [प्र०] से नूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव-सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववजंति ? [अ०] हंता, गोयमा ! जाव-उववजंति । [प्र०] से केणट्टेणं जाव-उववजंति ? [30] गोयमा ! लेस्सट्टाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं परिणमति, नील० २-णमित्ता नीललेस्सेसु नेरइपसु उववज्रंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव-उववजंति । २१. [प्र०] से नूणं भंते! कण्हलेस्से नील० जाव-भवित्ता काउलेस्सेसु नेरइपसु उववजंति ? [उ०] एवं जहा नीलले - साप तद्दा काउलेस्साए वि भाणियचा, जाव-से तेणट्टेणं जाव-उववजंति । 'सेवं भंते । सेवं भंते' । ति । त्रयोदश शतके प्रथम उद्देशक समाप्त. १९. [प्र०] हे भगवन्! खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, नीललेश्यावाळो, यावत् - शुक्ललेश्यावाळो थईने कृष्णलेश्यावाळा नारकोने विषे `उत्पन्न थाय? [उ०] हा, गौतम ! कृष्णलेश्यावाळो थईने यावत् - उत्पन्न थाय. [प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी आप एम कहो छो के 'कृष्णलेश्यावाळो थईने यावत्—उत्पन्न - थाय ?' [उ०] हे गौतम! लेश्याना स्थानको संक्लेशने पामतां पामतां कृष्णलेश्यारूपे परिणमे छे, कृष्णलेश्यारूपे परिणाम थया बाद ते कृष्णलेश्यावाळा 'नारकोने विषे उत्पन्न थाय छे, ते कारणथी यावत्- 'उत्पन्न थाय छे.' . २०. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, यावत् - शुक्ललेश्यावाळो थईने नीललेश्यावाळा नारकोने विषे उत्पन्न थाय ! [उ०] हा, गौतम ! यावत् उत्पन्न थाय. [ प्र० ] हे भगवन्! शा हेतुथी यावत् उत्पन्न थाय ? [ उ० ] हे गौतम । लेश्याना स्थानको संक्केशने पामतां अने विशुद्धि पामतां, नीललेश्यारूपे परिणमे छे, नीललेश्यारूपे परिणाम थया बाद नीललेश्यावाळा नारकोमां ते उत्पन्न थाय छे, ते हेतुथी हे गौतम! यावत् उत्पन्न थाय छे. कापोतले श्यावा २१. [प्र०] हे भगवन्! खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, नीललेश्यावाळो, अने यावत् - [ शुक्ललेश्यावाळो थईने ] कापोतलेश्यावाळा नारकोने ळा नारकोमा उपजे ! विषे उत्पन्न थाय? [उ०] जेम नीललेश्या संबन्धे कयुं, तेम कापोतलेश्या संबन्धे पण यावत्- ' ते हेतुथी यावद्-उत्पन्न थाय छे,' त्यां सुधी नारको वडे अंविरहित छे, अने मिध्यादृष्टि नारको वडे अविरहित छे, परन्तु सम्यग्मिध्यादृष्टि नारको वडे कदाचित् अविरहित होय छे अने कदाचित् विरहित होय छे. ए प्रमाणे असंख्याता योजनविस्तारवाळा नरकोने विषे पण [उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता संबन्धे] त्रण आंलापक कहेवा. ए प्रमाणे शर्कराप्रभाने विषे अने यावत्-तमापृथिवी सुधी कहे. १८. [प्र०] हे भगवन् ! अधः सप्तमपृथ्वीना पांच अनुत्तर नरकावासोमांना यावत्- संख्याता योजनविस्तारवाळा नरकावासने विषे शुं सम्यग्दृष्टि नारको उत्पन्न थाय ? - इत्यादि प्रश्न. [उ० ] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि नारको उत्पन्न थता नथी, पण मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय छे. सम्यग्मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न - थता नथी. [ सम्यग्मिथ्यादृष्टि काल न करे माटे न उपजे. ] ए प्रमाणे उद्वर्तना पण कहेवी. जैम रत्नप्रभाने विषे सत्ता संबन्धे नारको मिथ्यादृष्ट्यादिवडे अविरहित - सहित कला छे तेम अहिं कहेतुं, ए प्रमाणे असंख्याता योजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण त्रण आलापको कहेवा. कहेवुं. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' | त्रयोदश शतके प्रथम उद्देशक समाप्त. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो. १. [प्र०] कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ! [उ०] गोयमा ! चउधिहा देवा पनत्ता, तंजहा- भवणवासी, २ वाणर्मतरा, ३. जोइसिआ, ४. वेमाणिा । २. [३०] भवणवासी णं भंते. 1 देवा कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! इसविहा पण्णत्ता, तंजहा- १ असुरकुमारा-एवं भेओ जहा बितियसए देवुद्देसए, जाव-अपराजिया, सवठ्ठसिद्धगा। ३. [प्र०] केवइया णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! चोसटैि असुरफुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता [प्र०] ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ! [उ०] गोयमा ! संखेजवित्थडा नि, असंखेजवित्थडा वि। ४. [प्र०] चोसट्ठीप णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारापासेसु एगसमरणं केवतिया असुरकुमारा उववजंति, जाव-केवतिया तेउलेस्सा उघवजंति, केवतिया कण्हपक्खिया उववजंति ? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, नवरं दोहिं वेदेहिं उपवजंति, नपुंसगवेयगा न उववजंति, सेसं. तं चेव । उधतगा वि तहेव, नवरं असन्नी उच्चस॒ति । ओहिनाणी.ओहिदसणी या ण उच्चटुंति, सेसं तं चेष, पन्नत्ता एसु तहेव, नवरं संस्खेजगा इत्थि द्वितीय उद्देशक. . १. [प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवो कहेला छे! [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारना देवो कहेला छे, ते. आ प्रमाणे-१ भवनवासी, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिषिक अने ४ वैमानिक. देवोना प्रकार, २. [प्र०] हे भगवन्! भवनवासी देवो केटला प्रकारना कहेला छे! [उ०] हे गौतम ! दश प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ असुरकुमार-इत्यादि भेदो बीजा शतकना 'देवोद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् 'अपराजित अने सर्वार्थसिद्ध' पर्यन्त कहेवा. भवनवासी देवोना प्रकार. असुरकुमारना भावासो. ३. [प्र०] हे भगवन् । असुरकुमारना केटला लाख आवासो कह्या छे? [उ०] हे गौतम! चोसठ लाख असुरकुमारना आवासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते असुरकुमारना आवासो संख्याता योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यातायोजनविस्तारवाळा छे । उ० हे गौतम 1 सिंख्याता. योजनविस्तारवाळा पण छे अने असंख्यातयोजनविस्तारवाळा पण छे. ४. [प्र०] हे भगवन्! चोसठ लाख असुरकुमारना आवासोमांना संख्यातायोजनविस्तारवाळा असुरकुमारोना आवासोमां. एक समये केटला असुरकुमारो उपजे, यावत्-केटला तेजोलेश्यावाळा उत्पन्न थाय, केटला कृष्णपाक्षिक जीवो उत्पन्न याय ! ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबंधे [उ०१ प्र० ४] प्रश्न कर्यो हतो, तेम अहिं प्रश्न करवो. अने ते प्रकारे उत्तर पण आपवो, परन्तु एटलो विशेष छे के अहीं बे वेदो सहित उपजे, नपुंसकवेदवाया न उपजे, बाकी बर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवू. उद्वर्तना संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवं, परन्तु एटलो अमुरकुमारमा उत्पाद. उद्ववेना. - २. भग.सं.१०२३०७ पृ. २९५. जुओ जीवा. प्रति. १९०४८-१. ३ । असुरकुमारादिना जे भवनो सौथी न्हाना छे, ते जंबूद्वीपना समान छ, मध्यम संख्याता योजनविस्तारवाळा छे अने पाकीना ( मोटा )छे ते असंख्ययोजनना विस्तारवाळा छे. . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामकुमार। दिना भावासो. वानव्यन्तर देवोना आवास. एक समये वानव्य तर देवोनो उत्पाद ज्योतिषिक देवोना विमानावास. ३०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक १३ - उद्देशक २. वेदगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेदगा वि, नपुंसगवेदगा नत्थि । कोहकसाई सिय अत्थि सिय नत्थि, जद अत्थि जहन्त्रेण एको या दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता । एवं माण० माय० । संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं चैव । तिसुषि गमपसु संखेज्जेसु चत्तारि लेस्साओ भाणियवाओ, एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं तिसु वि गमपसु मसंखेज्जा भाणिया, जाव - असंखेजा अचरिमा पण्णत्ता । ५. [ प्र० ] केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास ० १ [अ०] एवं जाव- धणियकुमारा, नवरं जत्थ जत्तिया भवणा । ६. [प्र०] केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? [30] गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नता । [प्र० ] ते णं मंते ! किं संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा १ [४०] गोयमा ! संसेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा । ७. [प्र० ] संखेजेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमपणं केवतिया वाणमंतरा उववजंति ? [30] एवं जहा असुरकुमाराणं संखेजवित्थडेसु तिनि गमगा तहेव भाणियचा वाणमंतराण वि तिन्नि गमगा । ८. [ प्र० ] केवतिया णं भंते! जोतिसिय विमाणाचाससयसहस्सा पण्णता ? [अ०] गोयमा ! असंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [प्र० ] ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा० १ [उ०] एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वितिभि गमगा भाणियष्वा, नवरं एगा तेउलेस्सा । उववजंतेसु पन्नत्तेसु य असन्नी नत्थि, सेसं तं चेव । विशेष छे के असंज्ञी उद्वर्ते छे-च्यवे छे, [ कारण के ईशानदेवलोकसुधीना देवो पृथिवीकायादि असंज्ञीमां उपजे छे.] अवधिज्ञान अवधिदर्शनी त्यांची उद्वर्तता- नीकळतां नथी, [ कारण के असुरकुमारादिथी नीकळेला तीर्थंकरादि न थाय अने अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनसहित तीर्थंकरादि ज उद्वर्ते. ] बाकीनुं बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. सत्ताने आश्रयी पूर्वे ज कहेलं छे ते प्रमाणे सर्व कहेवुं. परन्तु एटलो विशेष छे के त्यां संख्याता स्त्रीवेदषाळा कहेला छे. ए प्रमाणे पुरुषवेदवाळा पण कहेला छे, नपुंसकवेदवाळा नथी. "क्रोधकषायवाळा कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी. जो होय छे तो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता. होय छे, ए प्रमाणे मानं अने माया संबंधे पण जाणवुं. लोभकषायवाळा संख्याता कहेला छे. [ कारण के देवगतिमां लोभकषायी घणा होय छे, तेथी हमेशां ते संख्याता ज होय.] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. संख्यातासंबन्धे उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ताना त्रण आलापकोने विषे चार लेश्याओ कवी. ए प्रमाणे असंख्याता योजनविस्तारवाळा असुरकुमारावासों संबंधे पण जाणवुं, परन्तु त्रणे आलापकोने विषे 'असंख्याता' पाठ कहेवो, यावत्- 'असंख्याता अचरम का' छे. ५. [प्र० ] हे भगवन् ! केटला लाख नागकुमारना आवासो कहेला छे ? [ उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवा. यावत् स्तनितकुमार सुधी [ उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता संबंधे त्रण आलापक] कहेवा, परन्तु एटलो विशेष छे के ज्यां जेटला लाख भवनो होय त्यां तिला लाख भवनो कहेवां. ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! वानव्यंतर देवोना केटला लाख आवासो कहेला छे ! [अ०] हे गौतम! वानव्यंतरदेवोना असंख्याता लाख आवासो कहेला छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ते आवासो शुं संख्यातयोजनविस्तारवाळा छे के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा छे? [ उ०] हे गौतम! संख्यात योजनविस्तारवाळा छे, पण असंख्यात योजनविस्तारवाळा नथी, ७. [प्र० ] हे भगवन् ! संख्यातालाख योजनविस्तारवाळा वानव्यंतरदेवोना आवासने विषे एक समये केटला वानव्यंतरदेवो उपजे ! [उ०] जेम असुरकुमारोना संख्याता योजनविस्तारवाळा आवासोने विषे त्रण आलापको कह्या छे ते प्रमाणे वानव्यंतर संबन्धे पण त्रण आलापको कहेवा. ८. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्योतिषिक देवोना केटला लाख विमानावासो कह्या छे ? [ उ० ] हे गौतम! ज्योतिषिक देवोना असंख्याता लाख विमानावासो कहेलां छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ते विमानावासो शुं संख्यात योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यात योजनविस्तारवाळा छे? [उ०] ए प्रमाणे जेमं वानव्यंतर देवो संबंधे कह्युं छे, ते प्रमाणे ज्योतिषिकोने पण त्रण आलापको कहेवा, परन्तु एटलो विशेष छे के अहिं एक मात्र तेजोलेश्या कहेवी. उत्पादने विषे अने सत्ताने विषे असंज्ञी जीवो उपजता तेम उद्वर्तता नथी, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. ४ * देवोमां क्रोध, मान अने मायारूप कषायना उदयवाळा कोइक समये ज होय छे, माटे 'कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी' - एम कधुं छे, भने लोभकषायना उदयवाळा सर्वेदा होय छे, माटे 'संख्याता लोभकषायी होय छे'- एम. कत्युं छे, ५ + असुरकुमारने चोसठ लाख, नागकुमारने चोराशी लाख, सुवर्णकुमारने बहोंतेर लाख, वायुकुमारने छन्नुं लाख, द्वीपकुमार, दिकुमार, उद्धिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार अने अभिकुमारना प्रत्येक युगलने छोंतेर लाख भवनो होय छे. टीका. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०९ ९.प्र०] सोहम्मे पं.भंते! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नता? [उ०] गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [प्र०] ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? [उ०] गोयमा! संखेजवित्थडा वि असं. खेजवित्थडा.वि.। १०.[सोहम्मे णं भंते! कप्पे बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवतिया सोहम्मा देवा उववजंति, केवतिया तेउलेस्सा उववजंति? [उ०] एवं जहा जोइसियाणं तिन्नि गमगा तहेव तिन्नि गमगा भाणि• यथा, नवरं तिसु वि 'संखेजा' भाणियधा, ओहिनाणी ओहिदंसणी य चयावेयधा, सेसंतं चेव । असंखेजवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि 'गमगा, णवरं तिसु. वि गमएसु 'असंखेजा' भाणियथा । ओहिनाणी य ओहिदसणी य संस्खेजा चयंति, सेसं तं चेव । एवं जहा सोहम्मे वत्तवया भणिया तहा ईसाणे वि छ गमगा भाणियवा। सणंकुमारे एवं चेव, नवरं इत्थीवेयगा न उवधजंति, पत्रत्तेसु य न भण्णंति, असन्नी तिसु वि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव, एवं जाव-सहस्सारे, नाण विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव । ११..[प्र०] आणय-पाणएसु.णं भंते ! कप्पसु केवतिया विमाणावाससया पण्णता?[उ०] गोयमा!चत्तारि विमा णावाससया पण्णत्ता। प्र०] तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडाउ०] गोयमा! संखेजवित्थडा वि, असंखेजवित्थडा वि । एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे, असंस्नेजवित्थडेसु उववजंतेसु य चयंतेसु य एवं चेव 'संखेजा' भाणियचा, पन्नत्तेसु असंत्रेजा, नवरं नोइंदियोवउत्तां अणंतरोववनगा अणंतरोगादगा अणंतराहारगा अणंतरपजत्तगा य पपसिं जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं संखेजा, पन्नत्तेसु असंखेज्जा माणियवा। आरण-शुएसु एवं चेव जहा आणय-पाणएसु, नाणत्तं विमाणेसु, एवं गेवेजगा वि । ९.प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म देवलोकने विषे केटला लाख विमानावासो कहेला छे! [उ०] हे गौतम! बत्रीश लाख विमानावासो सौधर्मदेवलोककहेला छे. [प्र०] हे भगवन्! ते विमानावासो अ॒ संख्याता योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा छे! [उ०] हे गौतम! ' संख्याता योजनविस्तारवाळा छे अने असंख्यात योजनविस्तारवाळा पण छे. १०. [प्र०] हे भगवन् । सौधर्म देवलोकने विषे बत्रीश लाख विमानावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा विमानोने विषे एक एक समये सौष मैपी मांडीने समये केटला सौधर्म देवो उत्पन्न थाय, केटला तेजोलेश्यावाळा उत्पन्न थाय : [उ०] जेम ज्योतिषिकोने त्रण आलापको कह्यां तेम अहिं पण सासारखी त्रण आलापको कहेवां, परन्तु त्रणे आलापकोमा 'संख्याता' एवो पाठ कहेवो. [अहिंथी नीकळी तीर्थकरादि चाय माटे] 'अवधिज्ञानी अने बोनो उत्पाद.. अवधिदर्शनी च्यवे'-एम कहे, बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. असंख्यातायोजनविस्तारवाळा विमानावासोमा ए प्रमाणे त्रण आलापको कहेवा, परन्तु एटलो विशेष छे के ए त्रणे आलापकोमा 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी संख्याता च्यवे छे. [केमके तीर्थकरादिक अवधिज्ञान अने अवधिदर्शन सहित च्यवे अने ते संख्याता होय.] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे जेम सौधर्म देवलोकनी वक्तव्यता कही, तेम ईशान देवलोकने विषे [त्रण संख्याताना अने त्रण असंख्याताना] ए प्रमाणे छ आलापको कहेवा. सनकुमारने विषे पण एमज जाणवं, परन्तु एटलो विशेष छे के अहिं स्त्रीवेदवाळा उत्पन्न थता नथी, तेम सत्तामा पण होता नथी. त्रणे आलापकोने विषे असंज्ञी न कहेवा. [कारण के अहिं संज्ञीथी आवी उपजे छे अने संज्ञीने विषे जाय छे.] बाकी, बर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-सहस्रार देवलोक सुधी जाणवं, परन्तु विमानो अने लेश्याओमां विशेष छे. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू. ११. [प्र०] हे भगवन् ! आनत अने प्राणत देवलोकने विषे केटला शत (सेंकडो) विमानावासो कहेला छे! [उ०] हे गौतम! मानत भने मा णत देवकोका चारसो विमानावासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते विमानावासो अ॒ संख्याता योजनविस्तारवाय छे के असंख्यातायोजनविस्तारवाया। विमानावासछे! [उ०] हे गौतम! संख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे अने असंख्यातयोजनविस्तारवाळा पण छे. ए प्रमाणे संख्यातायोजनविस्तारवाळा विमानावासोने विषेत्रण आलापको सहस्रार देवलोकनी पेठे कहेवा. *असंख्यात योजनविस्तारवाळा विमानोने विषे उत्पाद अने च्यवन संबन्धे ए प्रमाणे 'संख्याता' ज कहेवां; सत्तामा असंख्याता कहेवा; परन्तु एटलो विशेष छे के नोइंद्रिय-मनना उपयोगवाळा, अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनंतराहारक अने अनंतरपर्याप्ता-ए पांच पदने विषे जघन्यथकी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उपजे, अने सत्तामा असंख्याता होय-एम कहे. जेम आनत अने प्राणतने विषे कह्यु, तेम आरण अने अच्युतने विषे पण ए प्रमाणे जाणवं, परंतु विमानोनी संख्यामा विशेषता छे. ए प्रमाणे प्रैवेयक संबंधे पण जाणवू. . ११* मानतादि देवलोकमां संख्यातायोजनविस्तारवाळा विमानावासमा उत्पाद, च्यवन अने स्थिति विषे संख्याता देवो होय छे, अने असंख्यात योजन विस्तारवाळा विमानोमां उत्पाद अने च्यवनने विषे संख्याता होय छे, अने स्थितिविषे असंख्याता देवो होय छे, कारण के गर्भज मनुष्य की ज आनतादि देवोमा उत्पंज थाय छे, तथा ते देवो त्यांथी च्यवीने गर्भज मनुष्यमा ज उत्पन्न थाय छ, भने ते संख्याताज होय छे, माटे एक समये संख्यातानों ज उत्पाद अने च्यवन संभवे छ, भने तेओर्नु भायुष असंख्यवर्षर्नु होवाथी तेना जीवनकालमा असंख्य देवो उपजे छे, तेथी स्थितिने विषे असंख्याता देवो होय छे.-टीका. अहिं आरण अने अच्युत देवलोकमां त्रणसो विमान छे. प्रवेषक. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक २. १२, प्र०] कति णं भंते ! अणुसरविमाणा' पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! पंर्च अणुत्तरविमाणा पन्नता।प्रि० तेणे भंते.! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? [उ०] गोयमा! संखेजवित्थडे य असंखेंजवित्थडा य । १३. [प्र०] पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया देवा ज्ववजंति, केवतिया सुक्कलेस्सा उववजंति-पुच्छा तहेव । [उ०] गोयमा ! पंचसुणं अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एको वा दोवा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेजा अणुत्तरोषवाइया देवा उववजंति, एवं जहा गेवेज विमाणेसु संखेजवित्थडेसु, नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अन्नाणेसु एप न उववजंति, न चयंति, न पन्नत्तएसु भाणियधा, अचरिमा.वि खोडिजंति, जाव-संखेजा चरिमा पन्नत्ता, सेसं तं चेव । असंखेजवित्थडेसु वि एए न भन्नति, नवरं अचरिमा अत्थि, सेसं जहां गेवेजएसु असखेजवित्थडेसु जाव-असंखेजा अचरिमा पन्नत्ता। .१४. [प्र०] चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं. सम्मट्टिी असुरकुमारा उववजंति, मिच्छादिट्ठी ? [उ०] एवं जहा रयणप्पभाए तिन्नि आलावगा भणिया तहा भाणियथा । एवं असंखे. जवित्थडेसु वि तिन्नि गमगा; एवं जाव-गेवेजविमाणे, अणुत्तरविमाणेसु एवं चेवा, नवरं तिसु वि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य न भन्नति, सेसं तं चेव ।। १५. [प्र०] से नूणं भंते ! कण्हलेस्से, नील० जाव-सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु देवेसु उववजंति ? [उ०] हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियचं, नीललेसाए वि जहेव नेरइयाणं, जहा नीललेस्साए एवं. जाव:पम्हलेस्सेसु, सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेस्सट्ठाणेसु विसुज्झमाणेसु २ सुक्कलेस्सं परिणमति, सु० २. परिणमित्ता सुकले स्सेसु देवेसु उववजंति । से तेणटेणं जाव-उववजंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । तेरसमसए वीओ उद्देसो समत्तो अनुत्तर विमानो. १२. [प्र०] हे भगवन् । केटला अनुत्तर विमानो कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम! पांच अनुत्तर विमानो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् । ते अनुत्तर विमानों संख्याता योजनविस्तारवाळां छे के असंख्याता योजनविस्तारवाळां छे! [उ.०] हे गौतम! "संख्याता योजनविस्तार वाळु पण छे, तेमज असंख्याता योजनविस्तारवाळा पण छे.. पाँच अनुत्तरमा १३. [प्र०] हे भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा विमानने विषे एक समये केटला अनुत्तरोपपातिक एक समये दैवोना र उत्पादादि. देवो उत्पन्न थाय, केटला शुक्ललेश्यावाळा उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम! पांच अनुत्तरविमानोमा संख्याता योजन विस्तारवाळा सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमानने विषे जघन्यथी एक, बे के त्रण, अने उत्कृष्टथी संख्याता अनुत्तरौपपातिक देवो उत्पन्न थाय छे ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा अवेयक विमानो संबन्धे कडं ते प्रमाणे अहिं कहेवं, परन्तु एटलो विशेष के. कृष्णपाक्षिको, अभळ्या अने त्रण अज्ञानने विषे वर्तता जीवो, अहिं उपजता नथी, च्यवता नथी अने सत्तामा पण होता नथी-एम कहेवू. अचरमनो (जेने, छेल्लो अनुत्तर देवनो भव नथी, पण वधारे भवो छे तेनो) पण प्रतिषेध करवो, [ केमके अनुत्तरसर्वार्थसिद्धने विषे जे चरम होय तेज उपजे.] यावत-त्या संख्याता चरम' (जेने छेल्लो अनुत्तर देवनो भव छे तेओ) कहेला छे. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवं. असंख्याता योजन विस्तावाळा अनुत्तर विमानोने विषे पण पूर्वोक्त (कृष्णपाक्षिकादिक) न कहेवां; पण त्यां अचरम (जेने ते छेल्लो भव नथी एवा) उपजें छे. बाकी जेम अवेयकने विषे कयुं तेम असंख्याता योजन विस्तारवाळा अनुत्तर विमानोने विषे यावत्-'असंख्याता अचरम कह्या छे' त्या सुधी जाणवू. बारकुमारावासमा १४. [प्र०] हे भगवन् ! चोसठलाख असुरकुमारना आवासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा असुरकुमारना आवासोने विषे शु सम्यग्दृष्टयादि सम्यग्दृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, (के मिश्रदृष्टि उत्पन्न थाय) [उ०] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबन्धे त्रण आलापको कह्या (उ० १ सू० १३.) तेम अहिं पण कहेवा. ए प्रमाणे असंख्याता योजन विस्तारवाळा असुरकुमारोना आवासोने विषे पण सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टि संबन्धे ए त्रण आलापको कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-प्रैवेयक विमानने विषे अने अनुत्तर विमानने विषे पण जाणवू, परन्तु एटलो विशेष छे के अनुत्तरविमानसंबन्धे उत्पाद, च्यवन अने सत्ताना त्रण आलापकने विषे मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिं न कहेवा. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाण. कृष्णादिलेश्या- १५. [प्र०] हे भगवन्! खरेखर कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाव्य, यावत्-शुक्ललेश्यावाळा थईने कृष्णलेझ्यावाळा देवोमा उत्पन्न बाळा थईने कृष्ण थाय? [उ०] हा, गौतम! जेम नारको संबन्धे प्रथम उद्देशकमां (सू० १९) का छे ते प्रमाणे जाणवू. नीललेल्यावाळाने पण जेम लेश्यावाला देवोमा नारकोने कयुं छे तेम कहेवू. जेम नीललेश्यावाळाने विषे कयुं छे तेम यावत्-पद्मलेश्यावाळा अने शुक्ललेश्यावाळा माटे पण जाणवू. परन्तु एटलो विशेष छे के-लेश्याना स्थानको विशुद्ध थतां थतां शुक्ललेश्यारूपे परिणमे छे, शुक्ललेश्यारूपे परिणमन थया पछी शुक्ललेश्यावाळा देवोमा ते उत्पन्न थाय छे, ते कारणथी हे गौतम! यावत् 'उत्पन्न थाय छे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. त्रयोदश शतके द्वितीय उद्देशक समाप्त. १२ * तेमां वच्चेनुं सर्वार्थसिद्ध विमान लक्ष योजन प्रमाण होवाथी संख्यातायोजन विस्तारवाळु छे, अने विजयादि चार विमानो असंख्ययोजनविस्तारवाळो छे. उपजे। उत्पत्र थाय? . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईओ उद्देसो। १. [प्र०] नेतया णं भंते ! अणंतराहारा, ततो निष्पत्तणया, एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियच्वं । 'सेवं भंते! सेवं भते ति। तेरसमसए तईओ उद्देसो समतो. तृतीय उद्देशक. १. प्र० हे भगवन् ! नारको [उपजवाना क्षेत्रने प्राप्त था] अनन्तराहारी-तुरतज आहार करवावाळा होय ! अने स्यार पछी निर्व- नारको ममन्तरातना-शरीरनी उत्पत्ति करे, [त्यार पछी लोमाहारादिद्वारा पुद्गलो ग्रहण करे, त्यार पछी इन्द्रियादिरूपे पुद्गलोनो परिणाम करे, त्यार बाद . बार बाद मनुक्रमे परिचारणा-शब्दादि विषयोनो उपभोग-करे, अने त्यार पछी अनेक प्रकारना रूपो विकुर्वे ! [उ०] [हा, गौतम!] इत्यादि प्रज्ञापना सूत्रनुं परिचारणा करे? "परिचारणा पद समग्र कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे.' त्रयोदश शतके तृतीय उद्देशक समाप्त *प्रज्ञा० पद ३४ प०१४३: . Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो। १. [प्र०] कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णताओ, तंजहा-१ रयणप्पमा, जाव-७ अहेसत्तमा। २. प्र०] अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया जाव-अपइट्टाणे । तेणं जरगा छठ्ठीए तमाए पुढवीए नेरपाहतो १ मईततरा चेव, २ महाविच्छिन्नतरा चेव, ३ महावासतरा चेव, ४ महापइरिकतरा चेव; १ णो तहा महापवेसणतरा चेव, २ आइनतरा चेव, ३ आउलतरा चेव, ४ अणोमाणतरा चेव । तेसु णं नरपसु नेरतिया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइपहितो १ महाकम्मतरा चेव, २ महाकिरियतरा चेव, ३ महासवतरा चेव, ४ महावेयणतरा चेव नो तहा १ अप्पकम्मतरा चेव, २ अप्पकिरियतरा चेव, ३ अप्पासवतरा चेव, ४ अप्पवेदणतरा चेव, १ अप्पडियतरा चेष, २ अप्पजुत्तियतरा चेव, १ नो तहा महवियतरा चेव, २ महजुइयतरा चेव । छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णते, ते णं नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नरएहिंतो नो तहा महत्तरा चेव, महाविच्छिन्नतरा चेव ४, महप्पवेसणतरा चेव आइन्नतरा चेव ४ । तेसु णं नरएसु णं नेरतिया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरियतरा चेव ४, नो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव ४ ।महड्डियतरा चेव महाजुइयतरा चेव, नो तहा अप्प चतुर्थ उद्देशक. नरकपृथिवी. १.प्र०] हे भगवन् ! केटली नरक पृथिवीओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! *सात पृथिवीओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ रत्नप्रभा, यावत्-७ अधःसप्तम पृथिवी. १ नरयिकद्वार. २. प्र०] हे भगवन्! अधःसप्तम नरकपृथिवीमां पांच अनुत्तर अने अत्यन्त मोटा नरकावासो यावत्-'अप्रतिष्ठान' सुधी कहेला छे, ते नरकावासो छट्ठी तमःप्रभापृथिवीना नरकावासोथी अत्यन्त मोटा, अतिविस्तारवाळा, घणा अवकाशवाळा; घणाजन रहित अने शून्य छे, परन्तु ते महाप्रवेशवाळा नथी, [अर्थात् छट्ठी नरक पृथिवीमां जेम घणा जीवोनो प्रवेश थाय छे, तेम सप्तम नरकपृथिवीमां घणा जीवोनो प्रवेश थतो नथी.] [घणा नारकोवडे) ते अत्यन्त संकीर्ण भने अत्यन्त व्याप्त नथी, अर्थात् ते नरकावासो घणा विशाल छे. ते नरकावासोमां रहेला नारको छटी तमा पृथिवीना नारकोथी महाकर्मवाळा, महाक्रियावाळा, महाआश्रववाळा अने महावेदनावाळा छे, परन्तु तेओ [छट्ठी नरक पृथिवीनी अपेक्षाए] अल्पकर्मवाळा, अल्पक्रियावाळा, अल्पआश्रववाळा अने अल्पवेदनावाळा नथी. ते नारको अत्यन्त अल्पऋद्धिवाळा अने अत्यन्त अल्पद्युतिवाळा छे; परन्तु ते महाऋद्धिवाळा अने महाद्युतिवाळा नथी. छट्ठी तमा नरकपृथिवीमां पांच न्यून एक लाख नरकावासो कहेला छे. ते नरकावासो सातमी नरकपृथिवीना नरकावासो करतां तेवा अत्यन्त मोटा अने महाविस्तारवाळा नथी, परन्तु ते महाप्रवेशवाळा अने नारकोवडे अत्यन्त संकीर्ण छे. ते नरकावासोमा नारको सातमी नरकपृथिवीना नारको करतां अल्पकर्मवाळा अने अल्पक्रियावाला छे, परन्तु तेवा अत्यन्त महाकर्मवाळा अने महाक्रियावाळा नथी. तेओ सप्तमनरकपृथिवीना नारकोथी महाऋद्धिवाळा अने महाद्युतिवाळा छे. परन्तु तेथी अल्पऋद्धिवाळा अने अल्पद्युतिवाळा नथी, छट्ठी तमा नरकपृथिवीना नरकावासो पांचमी धूमप्रभानरकपृथिवीना १ *आ उद्देशकमा १३ द्वारो कहेला छे, ते या प्रमाणे-१ नैरयिक, २ स्पर्श, ३ प्रणिधि, ४ निरयान्त, ५ लोकमध्य, ६ दिशा-विदिशाप्रवह, ७ अस्ति कायप्रवर्तन, ८ अस्तिकायप्रदेशस्पर्शना, ९ अवगाहना, १० जीवावगाढ, ११ अस्तिकायनिषदन, १२ बहुसम अने १३ लोकसंस्थान, Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक १३ देशक४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१३ हियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव । छट्टीए णं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरपर्हितो महत्तरा चेव ४, नो ता महप्पसणारा देव ४ तेसु णं नरपसु नेरतिया पंचमाए धूमप्पभाष पुढचीप नेरहपहिंतो महाकम्मतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव ४; अप्पयितरा चेच २ नो तदा महट्टियतरा चैष २ पंचमाप णं धूमप्पभाष पुढचीर तिनि निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता एवं जहा छट्टीए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति जाव- रयणप्पभंति, जाव-नो सहा महिपतरा चेव, अप्पत्तियतरा चेव । ३. [२०] रवणप्यनापुढविनेरचा नं भंते! केरिसयं पुढयिकासं पचणुम्भयमाणा विरंति [४०] गोयमा मणिहूं, साप-अमणामं एवं जाय-असत्तमपुढविनेरया एवं आउफासं, एवं जाय वणरसइफासं । ४. [0] इमाणं भंते! रयणप्पभापुढवी दोघं सकरप्पभं पुढविं पणिहाय सङ्घमहंतिया बादल्लेणं, सङ्घखुड़िया सवंतेसु० [४०] एवं जहा जीवाभिगमे चितिए नेरइयउद्देसए । ५. [प्र० ] इमीसे णं भंते! रयणप्यभार पुढवीर णिरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाश्या० १ [४०] एवं जहा नेप आव सत्तमा । ६. [प्र०] कहि मं भंते! लोगस्स आयाममध्ये पण्णत्ते १ [४०] गोयमा ! हमीसे णं रयणप्पभाप उपासंतररस असंजतिभागं ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । ७. [प्र०] कहि णं मंते ? अहेलोगस्स मायाममज्झे पष्णते ? [30] गोयमा ! चउत्थीप पंकष्पभाष पुढची उच्चातरस्स सातिरेगं भद्धं ओगाहिता पत्य णं अहेलोगस्स आयाममजले पण्णत्ते । नरकावासोथी अत्यन्तमोटा छे- इत्यादि चार बोल कहेवा. परन्तु तेनी पेठे ते महाप्रवेशवाळा नथी, अर्थात् तेमां घणा जीवो प्रवेश करता नथी. ते नरकावासोमां नारकीओ पांचमी धूमप्रभा पृथिवीना नारको करतां महाकर्मवाळा छे ४, परन्तु तेवा अल्पकर्मवाळा नथी-४, ते अल्पऋद्धिवाळा छे, परन्तु ते प्रमाणे ते अत्यन्त महर्द्धिक नथी. पांचमी धूमप्रभा नरकपृथिवीमां त्रण लाख नरकावासो कहेला छे- इत्यादि जेम छट्ठी तमापृथिवी संबंधे कह्युं, तेम साते नरकपृथिवीओ संबन्धे परस्पर यावत् - 'रत्नप्रभा' - सुधी कहेतुं, यावत् - तेथी [ शर्कराप्रभाना नारको ] महाऋद्धिवाळा नथी, पण अल्पद्युतिवाळा छे. ३. [प्र० ] हे भगवन् ! रनप्रभा पृथिवीना नारको केवा प्रकारना पृथिवीना स्पर्शने अनुभवता बिहरे छे [अ०] हे गौतम! "अनिष्ट, यावत्–मनने प्रतिकूळ–[पृथिवीना स्पर्शने अनुभवता विहरे छे. ] इत्यादि यावत् - अधः सप्तम पृथिवीना नारको संबंधे जाणवुं, ए [अनिष्ट अने प्रतिकूल ] पाणीना स्पर्शने, यावत् - वनस्पतिना स्पर्शने ( अनुभवता विहरे छे.) ४. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी बीजी शर्कराप्रमापृथिवीनी अपेक्षाए जाडाइमां सर्व करतां मोटी छे अने चारे दिशाए लंबाई पदोव्यइमां सर्वधी न्हानी छे [उ०] हा गौतम इयादि जैम जीवाभिगम सूत्रना बीजा नैरधिक उद्देशकमा कि तेम अहिं जाण. ५. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना नरकावासोनी आसपास जे पृथिवीकायिक जीवो छे, यावत्-वनस्पतिकायिक जीवो छे ते [महाकर्मवाळा खने महावेदनावाळा [४०] दा, गौतम !] इल्यादि जैम जीवामिगम सूत्रना नैरयिक उद्देशकमा कर्ता छे तेम * यावत् — अधः सप्तमनरकपृथिवी सुधी जाणवुं. ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! लोकना आयाम - लंबाईनो मध्य भाग क्यां कहेलो छे ? [उ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना आकाशना लंडनो असंख्यातमो भाग उल्लंघन कर्ता पछी अहीं छोकना आपागनो मध्यभाग कहेलो छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! क्यां अधोलोकना आयाम - लंबाईनो मध्य भाग कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! चोथी पंकप्रभा पृथिवीना आकाशना खंडनो कंइक अधिक अरधो भाग उल्लंघन कर्या पछी अहिं अधोलोकना आयामनो मध्य भाग कहेलो छे. ३ # जुओ जीवा• प्रति० ३३० २०१२७-१. यावत् शब्दमी जराविक अनेकानि करना, बादर तेजस्काधिक मात्र समयक्षेत्रने विषे न होय के मरने विषे तेनो सद्भाव होतो नथी, परन्तु त्यां अभिसमान उष्ण अन्य वस्तुओं होय छे, तेथी 'तेजस्कायिकना स्पर्शने अनुभवे छे' एम कभुं छे-टीका. ४+ जीवा • प्रति० ३ उ० २ १० १२७- १. रत्नप्रभा पृथिवी जाडाइमां एक लाख भने एंशीहज़ार योजनप्रमाण होवाथी सर्व करतां मोटी छे, अने शर्कराप्रभा योजनमा दोवाची तेनाची न्हानी छे तेमज रनप्रभा लंबाई अने पोलाइमां एक रनु (राज) प्रमाण के तेथी हानी छे प्रमाण होवाची मोटी केटीका. ५ जीवा० प्रति० ३०२०१२७-२ ४० भ० सू० एक लाख भने बत्रीश हजार भने पार्कप्रभा देवी अधिक २ स्पर्शद्वार. ३ प्रणिभिदार. ४ निरयान्तद्वार. ५. कोकमध्यदार. मोकोकमध्य. / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ४. प्रा कहि णं भंते ! उद्दलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! उप्पि सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं हेर्टि बंभलोए कप्पे रिटुविमाणे पत्थडे पत्थ णं उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। ... कहिनं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स बहुमझदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेढिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्स मज्झे अट्टपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तंजहा-१ पुरच्छिमा, २ पुरच्छिमदाहिणा-एवं जहा दसमसए जावनामधेजं ति। १०. [प्र०] इंदा णं भंते ! दिसा १ किमादीया, २ किंपवहा, ३ कतिपदेसादिया, ४ कतिपदेसुत्तरा, ५ कतिपदेसिया, ६ किंपजवसिया, ७ किंसंठिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! इंदा गं दिसा १ रुयगादीया, २ रुयगप्पवहा, ३ दुपएसादीया, ४ दुपएसुत्तरा, ५ लोगं पडुच्च असंखेजपएसिया, अलोगं पडुच्च अणंतपएसिया, ६ लोगं पडुच्च साईया सपजवसिया, अलोगं पडुच्च साईया अपजवसिया, ७ लोगं पडुच्च मुरजसंठिया, अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिया पन्नत्ता। ११. [प्र०] अग्गेयी णं भंते! दिसा १ किमादीया, २ किंपवहा, ३ कतिपएसादीया, ४ कतिपएसविच्छिन्ना, ५ कतिपएसिया, ६ किंपजवसिया, ७ किंसंठिया पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! अग्गेयी णं दिसा १ रुयगादीया, २ रुयगप्पवहा, ३ एगपएसादीया, ४ एगपएसविच्छिन्ना, ५ अणुत्तरा लोगं पडुच्च असंखेजपएसीया, अलोगं पडुश्च अणंतपएसीया, ६ लोगं पडुच्च साइया सपजवसिया, अलोगं पडुश्च साइया अपज्जवसिया, छिन्नमुत्तावलिसंठिया पण्णत्ता । जमा जहा इंदा, नेरी जहा अग्गेयी । एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि, जहा अग्गेई तहा चत्तारि वि विदिसाओ। १२. [प्र०] विमला णं भंते! दिसा किमादीया०-पुच्छा जहा अग्गेयीए। [उ.] गोयमा! विमला गं दिसा १ रुयगादीया, २ रुयगप्पवहा, ३ चउप्पएसादीया, ४ दुपएसविच्छिन्ना, अणुत्तरा लोगं पडुच सेसं जहा अग्गयीए, नवरं व्यगसंठिया पण्णत्ता, एवं तमा वि। कचलोकमध्य. ८. [प्र०) हे भगवन् ! क्यां ऊर्ध्वलोकनी लंबाईनो मध्यभाग कहेलो छे ? [उ०] हे गौतम ! सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवलोकना उपर अने ब्रह्मदेवलोकनी नीचे रिष्ट नामे त्रीजा प्रतरने विषे अहिं ऊर्ध्वलोकना आयामनो मध्य भाग कहेलो छे. तिर्यग्लोकमध्य ९. [प्र०] हे भगवन् । तिर्यग् लोकना आयामनो मध्यभाग क्या कहेलो छे ? [उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीपमा मेरुपर्वतना बरोबर मध्य भागने विषे आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपर अने नीचेना क्षुद्र (सर्व करतां लघु) एवा बे प्रतरो छे, तेने विषे तिर्यग्लोकना मध्यभागरूप आठ प्रदेशनो रुचक कहेलो छे, ज्यांथी आ दश दिशाओ नीकळे छे, ते आ प्रमाणे-१ पूर्वदिशा, २ पूर्वदक्षिण, इत्यादि जेम दशम . शतकना *प्रथम उद्देशकने विषे कहुं छे ते प्रमाणे यावत् 'दिशाना दश नाम छे'- त्यां सुधी जाणवू. ६ दिशा-विदिशा १०. प्र०] हे भगवन् । १ ऐन्द्री (पूर्व) दिशानी आदिमां शुं छे ! २ ते क्याथी नीकळे छे ? ३ तेनी आदिमां केटला प्रदेशो प्रवदवार. छे! ४ केटला प्रदेशोनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय छे ! ५ ते केटला प्रदेशनी छे ? ६ तेनो अन्त क्यां छे ! अने ७ ते केवा आकारे कहेली ऐन्द्री दिशा क्याथी नीकळे । छे ? [उ०] हे गौतम ! १ ऐन्द्री दिशानी आदिमां रुचक छे, २ ते रुचक थकी नीकळे छे, ३ तेनी आदिमां बे प्रदेशो छे, ४ बे प्रदेशनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय छे, ५ लोकने आश्रयी ते असंख्यातप्रदेशवाळी छे, अलोकने. आश्रयी अनन्तप्रदेशात्मक छे, ६ लोकने आश्रयी आदि अने अन्तसहित छे, अने अलोकने आश्रयी सादि अने अनन्त छे, ७ लोकने आश्रयी मुरज-मृदंगने आकारे छे, अने अलोकने आश्रयी गाडानी ऊधने आकारे कहेली छे. आग्नेयी. ११. [प्र०] हे भगवन् ! १ आग्नेयी दिशानी आदिमां शुं छे ! २ ते क्याथी नीकळे छे ? ३ तेनी आदिमां केटला प्रदेशो छ । ४ ते केटला प्रदेशना विस्तारवाळी छे ! ५ ते केटला प्रदेशनी छे? ६ तेने अन्ते शुं छे ! ७ अने ते केवा आकारे छे! [उ०] हे गौतम ! १ आग्नेयी दिशानी आदिमा रुचक छे, २ ते रुचक थकी नीकळे छे, ३ तेनी आदिमा एक प्रदेश छे, ४ ते एक प्रदेशना विस्तारवाळी छे, ५ ते उत्तरोत्तर वृद्धिरहित छे, अने लोकने आश्रयी असंख्यप्रदेशात्मक छे, अलोकने आश्रयी अनन्त प्रदेशात्मक छे, ६ लोकने आश्रयी आदि अने अन्त सहित छे, अने अलोकने आश्रयी सादि अने अनन्त छे. अने ७ ते तूटी गएली मोतीनी माळाना आकारे कहेली छे. याम्या दक्षिण. याम्या (दक्षिण) दिशा ऐन्द्री (पूर्व) दिशानी पेठे जाणवी. नैर्ऋती आग्नेयी दिशानी पेठे जाणवी-इत्यादि जेम ऐन्द्री दिशा कही, तेम चारे नैकवी. दिशाओ अने आग्नेयी दिशा कही तेम चारे विदिशाओ जाणवी. अध्वंदिशा. १२. [प्र०] हे भगवन् ! विमला (ऊर्ध्व) दिशानी आदिमां शुं छे ? इत्यादि आग्नेयीनी पेठे प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! १ विमला दिशानी आदिमां रुचक छे, २ ते रुचक थकी नीकळे छे, ३ तेनी आदिमा चार प्रदेश छे, ४ ते बे प्रदेशना विस्तारवाळी छे, ५. उत्तरोत्तर वृद्धि रहित ते दिशा लोकने आश्रयी असंख्यातप्रदेशात्मक छे. बाकी बधुं आग्नेयी दिशाने विषे कयुं छे तेम जाणवू. परन्तु तमादिशा. एटलो विशेष छे के ते रुचकने आकारे कहेली छे. ए प्रमाणे तमा (अधो) दिशा पण जाणवी. ९. भग• खं० ३ ० १० उ०१ पृ. १८८. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१५ १३. [प्र०] किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ ? [उ०] गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एषतिए लोप त्ति पवुच्चइ, तंजहा१ धम्मत्थिकाप, २. अहम्मत्थिकाए, जाव-५ पोग्गलत्थिकाए । १४. [प्र०] धम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमण-गमणभासु-म्मेस-मणजोगा-वइजोगा-कायजोगा, जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सचे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति, गइलपत्रणे णं धम्मत्थिकाए। - १५. [प्र०] अहम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा! अहम्मत्थिकारणं जीवाणं ठाण-निसीयणतुयट्टण, मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सधे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति, ठाणलपत्रणे गं अहम्मत्थिकाए । १६. [प्र०] आगासत्थिकारणं भंते ! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा ! आगासत्थिकारणं जीवदघाण य अजीवदवाण य भायणभूए । “एगेण वि से पुग्ने दोहि वि पुन्ने सयं पि माएजा । कोडिसपण वि पुन्ने कोडिसहस्सं पि माएजा" अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए । १७. [प्र०] जीवत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? [उ०] गोयमा जीवत्थिकारणं जीवे अणंताणं आभिणियोहियनाणपजवाणं, अणताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अत्थिकायउद्देसए जाव-उवओगं गच्छति, उवओगलक्खणे णं जीवे । १८. [प्र०] पोग्गलत्थिकाए णं पुच्छा। [उ०] गोयमा ! पोग्गलंत्थिकारणं जीवाणं ओरालिय-घेउधिय-आहारग-तेयाकम्मए सोइंदिय-चखिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-आणापाणूणं च गहणं पवत्तति, गहणलक्षणे णं पोग्गलत्थिकाए। १३. [प्र०] हे भगवन् ! आ लोक केवो कहेवाय छे ! [उ०] हे गौतम ! आ लोक पंचास्तिकायरूप कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे१ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, यावत्-३ आकाशास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय अने] ५ पुद्गलास्तिकाय. १४. [प्र०] धर्मास्तिकाय बडे जीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ? [उ०] हे गौतम ! धर्मास्तिकाय वडे जीवोनू आगमन, गमन, भाषा, ७अखिकाय प्रवर्तनहार. उन्मेष (नेत्रनुं उघड), मनोयोग, वचनयोग अने काययोग प्रवर्ते छे; ते शिवाय बीजा तेवा प्रकारना गमनशील भावो छे, ते सर्व धर्मा धर्मास्तिकायबढे स्तिकायथी प्रवर्ते छे; केमके गतिलक्षण धर्मास्तिकाय छे. जीवोर्नु प्रवर्तन. १५. प्र०] अधर्मास्तिकाय वडे जीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ! (उ०] हे गौतम! अधर्मास्तिकाय वडे जीवोनं उभा रहेवं, बेसवं, अधर्मास्तिकायवदे प्रवर्तन. सुवु अने मनने स्थिर कर-वगेरे प्रवर्ते छे, ते शिवायं बीजा स्थिर भावो छे ते सर्वे अधर्मास्तिकाय थकी प्रवर्ते छे, केमके स्थितिलक्षण अधर्मास्तिकाय छे. १६. प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायवडे जीवोनी अने अजीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ! [उ० हे गौतम! आकाशास्तिकाय आकाशास्तिकायबडे प्रवर्तन. जीव अने अजीव द्रव्यनो आश्रयरूप छे. अर्थात् तेथी जीव अने अजीवद्रव्यनो अवगाह प्रवर्ते छे. "एक-[परमाणु-]थी के बे[परमाणु] थी पूर्ण एक आकाशप्रदेशनी अंदर सो परमाणुओ पण माय, अने सो क्रोड [परमाणुओ] वडे पूर्ण एक आकाशप्रदेशा हजार कोड [परमाणुओ] पण "माय;" केमके अवगाहनालक्षण आकाशास्तिकाय छे. १७. प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायवडे जीवोनुं शुं प्रवर्ते ! [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायवडे जीव अनन्त आभिनिबोधिक- नीवालिकायबडे मतिज्ञानना पर्यायो, अने अनन्त श्रुतज्ञानना पर्यायोना-इत्यादि जेम बिीजा शतकना अस्तिकाय उद्देशकमा कड्यु छे तेम अहिं कहेवं, यावत्-ते [ज्ञान अने दर्शनना] उपयोगने प्राप्त थाय छे, केमके उपयोगलक्षण जीव छे. १८. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय वडे शुं प्रवर्ते ! [उ०] हे गौतम ! पुद्गलास्तिकायवडे जीवोने औदारिक, वैक्रिय, आहा- पुद्रलास्तिकायबरे प्रवर्तन. रक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग अने श्वासोच्छासन ग्रहण प्रवर्ते छे. केमके ग्रहणलक्षण पुद्गलास्तिकाय छे. १६* जेम एक ओरडानो भाकाश एक दीवाना प्रकाशथी भराय, भने बीजो दीवो करीए तो तेनो प्रकाश पण त्यांज समाय, एम सो के सहन दीवानो प्रकाश पण त्या ज समाय, पण बहार न नीकळे तेम पुद्गलनो परिणाम विचित्र होवाथी एक, बे, संख्याता, असंख्याता के अनन्त परमाणुषी पूर्ण एक आकाश प्रदेशमा एकथी मांटीने अनन्त परमाणुओ सुधी त्यां समाय. १७१ भग० ख०१ श०२१०१.पृ.३०९. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ४. १९. [प्र०] एगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] गोयमा ! जहन्नपदे तिहि, उक्कोसपदे छहिं । [प्र०] केवतिपहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे? [उ०] गोयमा ! जहन्नपए चउहिं, उकोसपए सत्तहि । प्रि०] केवतिपहिं आगासत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] गोयमा! सत्तहिं । [प्र०] केवतिपहिं जीवत्थिकायपएसोहि पुटे ? [उ०] गोयमा! अणंतेहिं । प्र०] केवतिपहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] गोयमा! अणंतेहिं । प्र०] केवतिपहिं अद्धासमएहिं पुढे? [उ०] सिय पुढे सिय नो पुट्टे, जइ पुढे नियम अणंतहि । २०. [प्र०] एगे भंते ! अहम्मत्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] गोयमा ! जहन्नपए चउहि, उक्कोसपए सत्तहिं । [प्र०] केवतिएहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] जहन्नपए तिहिं, उक्कोसपए छहिं, सेसं. जहा धम्मत्थिकायस्स। २१. [प्र०] एगे भंते ! आगासत्थिकायपएसे केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ०] गोयमा ! सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे जहन्नपदे एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा चउहिं वा, उक्कोसपए सत्तहिं । एवं अहम्मत्थिकायप्पएसेहि वि । ८ मस्तिकायप्रदेश १९. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय ? [उ०] हे गौतम ! *जघधर्मास्तिकायनोएक स्पर्शनाद्वार... न्यपदे त्रण प्रदेशोवडे, अने उत्कृष्टपदे छ प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना. प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ! [उ०] प्रदेश धर्मास्तिका- हे गौतम! जघन्यपदे चिार, अने उत्कृष्ट पदे सात अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. (प्र० केटला आकाशास्तिकायना प्रदे शोबडे स्पर्शायलो होय ? [उ०] हे गौतम ! आकाशास्तिकायना सात प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ? [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायना अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र०] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ? [उ०] हे गौतम ! पुद्गलास्तिकायना अनन्तप्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र०] केटला अद्धा-काल-ना समयोवडे स्पर्शायलो होय ? [उ०] कदाचित् कालना समयोवडे स्पर्शायलो होय अने कदाचित् स्पर्शायलो न होय. जो स्पर्श करायलो होय तो अवश्य अनन्तसमयोवडे स्पर्श करायेलो होय. २०. [प्र०] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय ? [उ०] हे गौतम ! जघएक प्रदेश. न्यपदे चार, अने उत्कृष्टपदे सात धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यपदे त्रण अने उत्कृष्टपदे छ प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. बाकी बधुं धर्मास्तिकायना प्रदेशनी पेठे कहे,. आकाशास्तिकायनो २१. [प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय ! [उ०] हे गौतम ! एक प्रदेश ||कदाचित् [लोकने आश्रयी ] स्पर्श करायेलो होय अने कदाचित् [अलोकने आश्रयी ] स्पर्श करायेलो न होय. जो स्पर्श करायेलो होय १९ * अहिं जघन्यपद लोकान्तना कोणने विषे होय छे, ते भूमिने नजीक ओरडाना कोणनी पेठे जाणवू. स्थापना]- त्या धर्मास्तिकायना एक प्रदेशने उपरना एक प्रदेश अने पासेना बे प्रदेशो-एम धर्मास्तिकायना त्रण प्रदेशोनी स्पर्शना होय छे. भने उत्कृष्टपदे ... चार दिशाना चार प्रदेशो भने ऊर्ध्व तथा अधोदिशाना एक एक प्रदेश मळीने छ प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. स्थापना-6. . धर्मास्तिकायना एक प्रदेशने जघन्यपदे जेम धर्मास्तिकायना त्रण प्रदेशनी स्पर्शना कही छे, तेवी रीते अधर्मास्तिकायना त्रण प्रदेशनी स्पर्शना तथा धर्मास्तिकायना एक प्रदेशने स्थाने रहेला अधर्मास्तिकायना एक प्रदेशनी स्पर्शना-मळीने चार प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. भने उत्कृष्टपदे छ दिशाना छ प्रदेशो अने धर्मास्तिकायना प्रदेशने स्थाने रहेला एक अधर्मास्तिकायनी प्रदेशनी एम सात प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. लोकान्ते पण अलोकाकाश होवाथी पूर्वोक्त सात आकाशास्तिकायना प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. . एक धर्मास्तिकायना प्रदेशने विषे अने तेनी पासे अनन्तजीवना अनन्त प्रदेशो विद्यमान होवाथी ते जीवना अनन्त प्रदेशो वडे स्पर्शायेल होय. ए प्रमाणे पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशोवडे पण स्पर्शायलो होय. ___ अद्धासमय मात्र समयक्षेत्र-अढी द्वीपमा होय छे, तेनी बाहेर नथी, केमके समयादिक काल सूर्यनी गतिद्वारा निष्पन्न थाय छे, तेथी कदाचित् धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश स्पर्शायेल होय अने कदाचित् न होय. जो स्पर्शायेल होय तो अनन्त अद्धासमयो वडे स्पर्शायेल होय, केमके ते अनादि होवाथी तेने अनन्त समयनी स्पर्शना होय छे. अथवा वर्तमानसमयविशिष्ट अनन्त द्रव्यो ते अनन्त समय कहेवाय छ, माटे अनन्त समयोवडे स्पृष्ट कहेवाय छे. २० $ अधर्मास्तिकायना एक प्रदेशनी वाकीना द्रव्योना प्रदेशोनी साथे स्पर्शना धर्मास्तिकायप्रदेशनी स्पर्शनाने अनुसारे जाणवी. - २१|| आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश लोकने आश्रयी धर्मास्तिकायना प्रदेश वडे स्पृष्ट होय छे, अने अलोकने आश्रयी स्पृष्ट होतो नथी. जो स्पृष्ठ होय तो जघन्य पदे १ लोकान्तमा वर्तमान धर्मास्तिकायना एक प्रदेश वडे अलोकाकाशना अग्रभागमा वर्ततो एक आकाश प्रदेश स्पृष्ट होय, २ वक्रगत आकाशप्रदेश धर्मास्तिकायना बे प्रदेश वडे स्पृष्ट होय, ३ जे अलोकाकाशना प्रदेशनी आगळ, नीचे अने उपर धर्मास्तिकायना प्रदेशो छे ते धर्मास्तिकायना त्रण प्रदेशो पडे स्पृष्ट होय. ४ लोकान्तने विषे खुणामा रहेलो आकाशप्रदेश ते तदाधित प्रदेश, उपरना के नीचेना अने बे दिशामा रहेला बे प्रदेश-ए रीते चार धर्मास्तिकायना प्रदेशो बडे स्पृष्ट होय. ५जे आकाशनो प्रदेश उपरना, नीचेना, बे दिशाना अने त्यांज रहेला धर्मास्तिकायना प्रदेशथी स्पृष्ट होय ते पांच प्रदेशो वडे स्पीय. ६ जे उपर, नीचे, त्रण दिशा अने त्यांज रहेला धर्मास्ति कायना प्रदेशो वडे स्पीय ते छ प्रदेशो वडे स्पृष्ट होय. ७ अने जे उपर, नीचे, चार दिशामा अने त्यां रहेला प्रदेशो वडे स्पर्शाय ते धर्मास्तिकायना सात प्रदेशो वडे स्पृष्ट होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशो वडे स्पर्शना जाणवी. Jain Education international Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१७ [प्र०] केवतिएहिं आगासस्थिकायपएसेहिं पुढे ? [उ.] छहि । [प्र०] केवतिपहिं जीवत्थिकायपएसहिं पुढे १ [उ०] सिय पुढे सिय नो पुढे, जब पुढे नियमं अणंतेहिं । एवं पोग्गलस्थिकायपएसेहि वि, अद्धासमपहि वि। २२. प्रग एगे भंते ! जीवत्थिकायपएसे केवतिपहिं धम्मत्थिकाय-पुच्छा। [उ०] जहन्नपदे चउहि, उकोसपए सत्तहिं। एवं अहम्मत्थिकायपएसेहि वि।[4] केवतिपहिं आगासस्थिकाय-पुच्छा। [उ.] सत्तहिं। [प्र०] केवतिपहिं जीवत्थि? [उ०] सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ।। २३. [०] एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसे केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं० १ [उ०] एवं जहेव जीवत्थिकायस्स । २४. प्रान दो भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्टा ? [उ०] गोयमा ! जहन्नपए छहिं, उकोसपए बारसहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहि वि। [प्र०] केवतिएहिं आगासत्थिकाय? [उ०] बारसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। २५. [प्र०] तिन्नि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्ठा ? [उ०] जहन्नपए अट्ठहिं, उकोसपए सत्तरसहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहि वि । [प्र. केवतिपहिं आगासथि० १ [उ० सत्तरसहि, सेसं जहा धम्म तो जघन्यपदे एक, बे, त्रण के चार धर्मास्तिकायना प्रदेशवडे स्पर्श करायेलो होय, अने उत्कृष्टपदे सात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोनी साथे पण स्पर्श जाणवो. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] हे गौतम ! छ प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय? [उ०] कदाचित् स्पर्श करायेलो होय अने कदाचित् स्पर्श न करायेलो पण होय. जो स्पर्श करायेलो होय तो अवश्य अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. ए प्रमाणे पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे अने अद्धा-कालना समयोवडे पण स्पर्शना जाणवी. २२. प्र०] हे भगवन्! जीवास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय-ए प्रश्न. उ०] जीवास्तिकायनो एक जघन्यपदे चार अने उत्कृष्टपदे सात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्श करायेल होय. [प्र०] प्रदेश. केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] सात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. २३. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] जेम जीवा- पुनलास्तिकायनो स्तिकायना एक प्रदेश संबन्धे कयुं तेम अहिं जाणवू. एक प्रदेश २४. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय ! (उ०] हे गौतम! पुद्गलास्तिकायना बे *छ प्रदेशोवडे, अने उत्कृष्टपदे बार प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्शना जाणवी. प्रदेशो. प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय ? उ०] बार प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवं. २५. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय ? [उ०] जघन्यपदे पुद्गलास्तिकायना आठ, अने उत्कृष्टपदे सत्तर प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्श करायेला होय. प्र०] केटला त्रण प्रदेशो. २४ * अहिं चूर्णिकारनुं आवा प्रकारचें व्याख्यान छ-"लोकान्ते द्विप्रदेशिक स्कन्ध एक प्रदेशने अवगाहीने रहेलो छे, तो पण ते प्रदेशने 'प्रतिद्रव्यनी अवगाहना होय छे' ए नयमतनी विवक्षाथी अवगाह प्रदेश एक छतां पण भिन्न मानवाथी ते बे प्रदेशो वडे स्पर्शायेलो छे, तथा जे तेनी उपरनो के नीचेनो प्रदेश छे ते पण नयना मतथी बे प्रदेशथी स्पर्शायेलो छे, अने पासेना बे अणुओ एक एक प्रदेशनो स्पर्श करे छे-आ प्रमाणे धर्मास्तिकायना छ प्रदेशो वडे क्यणुक स्कन्धनो स्पर्श थाय छे. नयना मतनो आश्रय न करीए तो ह्यणुक स्कन्धने चार प्रदेश नी जघन्य स्पर्शना होय छे." वृत्तिकार आ प्रमाणे कहे छे-।। "अहिं जे बे बिंदुओ छे ते बे परमाणुओ जाणवा, तेमां आ तरफनो परमाणु आ तरफना धर्मास्तिकायना प्रदेश वडे स्पर्श करायेल होय, भने :पेली तरफनो परमाणु पेली तरफना धर्मास्तिकायप्रदेश पडे स्पृष्ट होय-ए प्रमाणे बे प्रदेशो, तथा जे ये प्रदेशोमा बे परमाणुओ स्थापित करेला छेतेनी आगळना बे प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय-ए प्रमाणे चार थया, अने बे अवगाढ प्रदेशनी स्पर्शना होय-एम छ प्रदेशनी स्पर्शना होय. उत्कृष्ट बार प्रदेशनी स्पर्शना होय छे, ते आ प्रमाणे - द्विपदेशावगाढ होवाथी बे प्रदेश, बे उपरना अने बे नीचेना, पासेना बब्बे, अने उत्तर दक्षिणनो एक एक मळीने बार प्रदेशनी । स्पर्शना होय छे. २५ पुद्लास्तिकायना त्रण प्रदेशने एक प्रदेशावगाढ छतां पूर्वोक्त नयना मतथी अवगाढ त्रण प्रदेश, नीचेना के उपरना प्रण प्रदेश भने पासेना बे प्रदेश-ए प्रमाणे धर्मास्तिकायना आठ प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. अहिं बधा जघन्य पदे विवक्षित परमाणुथी बमणा करी अने बे अधिक करीए एटला प्रदे. शोनी स्पर्शना होय छे. अने उत्कृष्टपदे विवक्षित परमाणुथी पांचगुणा करी बे अधिक करीए एटला प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. तेमा एक परमाणुने बमणा करीए अंने बे सहित करीए एटले जघन्यपदे चार प्रदेशनी स्पर्शना होय, अने उत्कृष्टपदे एक परमाणुने पांच गुणा करीए अने बे सहित करीए एटले सात प्रदेशनी स्पर्शना होय छे. ए प्रमाणे घणुक-त्र्यणुकादिने विषे जाणवू-टीका. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपना संख्याता प्रदेशो. पुद्रलास्तिकायना असंख्य प्रदेशो. कान अनन्त प्रदेशो. ३१८ श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंपदे 1 शतक १३ - उद्देशक ४त्थिकायस्स । एवं एएणं गमेणं भाणियवं जाव- दस, नवरं जहन्नपदे दोनि पक्खिवियष्ठा, उक्कोसपए पंच । चत्तारि पोग्गलत्विकायरस जधपर दसहि, उकोसपर पापीसार पंच पुग्गल०, जनपर बारसहि, उकोसपर सत्तावीसार छ पोगाल० जनपर बोस, उकोसपर बत्तीसार सत पोग्गल० जणं सोलसहि, उक्कोसपर सप्ततीसार भट्ठ पोम्पल जहअपर अट्ठारसहि, उक्कोसेणं बायालीसाए । नव पोग्गल० जहन्नपप वीसाए, उक्कोसपदे सीयालीसाए । दस पोग्गल० जहनपर बावीसार, उकोसपर मायनाय आगासत्धिकायरस सङ्घत्थं उकोसगं भाणियच्चं । ? २६. [४०] [संजा भंते! पोग्गलत्थिकायपरसा केवतिपहिं धम्मत्थिकायपपसेहिं पुट्टा [४०] जनपदे तेणेय संखेजपणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं, उक्कोसपर तेणेव संखेजपणं पंचगुणेणं दुरूवाद्दिएणं । [प्र०] केवतिएहि अधम्मत्थिकाय परसेहिं ? [30] एवं चैव । [प्र०] केवतिपहिं आगासत्थिकाय ? [अ०] तेणेव संखेजपणं पंचगुणेणं दुरूवाद्दिपणं । [ प्र०] केवइपि जीवत्थिकाय ? [30] अणंतेहिं । [प्र०] केवहपर्हि पोग्गलत्थिकाय ० १ [उ०] अणतेर्हि । [प्र०] केवइपहिं अद्धासमपहिं ? [४०] सिय पुढे, सिय नो पुढे, जब अनंतेहिं । २७. [प्र० ] असंज्ञा भंते! पोग्गहत्यिकायप्यरसा केवतिपदि धम्मत्धिकायपदेसेहि० १ [४०] जदभपर तेणेव असंखेखणं गुणेणं दुरुचाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव असंसेजपणं पंचगुणं दुरूवाद्दिपणं, सेसं जहा संखेजाणं जाव-नियमं अर्णतेदि । २८. [अ०] अनंता भंते योग्गलत्धिकायपरसा केवतिपहिं धम्मत्थिकाय ? [०] एवं जदा असंसेजा तहा अणता मिनिरवसेसं । आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय ? [उ०] सत्तर प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवुं.. ऐ प्रमाणे आ पाठ वडे यावत् - दश प्रदेशो सुधी कहेवुं. परन्तु एटलो विशेष छे के जघन्यपदे बेनो अने उत्कृष्टपदे पांचनो प्रक्षेप करवो. चार पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो जघन्यपदे दश अने उत्कृष्टपदे बावीश प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. पुद्गलास्तिकायना पांच प्रदेशो जघम्यपदे बार अने उत्कृष्टपदे सत्याचीश प्रदेशोवडे स्पर्श करावेला होय. पुद्गलास्तिकायना छ प्रदेशो जघन्यपदे चौद अने उत्कृष्टपदे वत्रीश प्रदेशोबडे स्पर्श बराला होय. पुद्वास्तिकायना सात प्रदेशो जधन्यपदे सोळ अने उत्कृष्टपदे साउनीश प्रदेशोपडे स्पर्श करायेला होय. पुद्गलास्तिकायना आठ प्रदेशो जघन्यपदे अढार अने उत्कृष्टपदे बेंतालीश प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय. पुद्गलास्तिकायना नव प्रदेशो जघन्यपदे वीश अने उत्कृष्टपदे सुडतालीश प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय. पुद्गलास्तिकायना दश प्रदेशो जघन्यपदे बावीश अने उत्कृष्टपदे बावन प्रदेशोकड़े स्पर्शायेला होय. आकाशास्तिकायनुं सर्वत्र उत्कृष्टपद कहें. २६. [प्र० ] हे भगवन् संख्याता पुद्रलास्तिकायना प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेला दोष ? [४०] जघन्यपदे तेज संख्याता प्रदेशने बमणा करी बे रूप अधिक करीए, अने उत्कृष्टपदे तेज संख्याता प्रदेशने पांच गुणा करी बे रूप अधिक करी. [तेला प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय.] [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शाय ? [उ०] ए प्रमाणे [ धर्मास्तिकायनी पेठे ] जाणवुं. [ प्र० ] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय ? [उ०] तेज संख्याताने पांचगुणा करी बे रूप अधिक करीए [तेटला प्रदेशोवडे स्पर्श कराये दोष. ] [ प्र० ] केटला जीवास्तिकापना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय [30] अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श कराल होय. [प्र० ] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र० ] केटला अद्धासमयोबडे स्पर्श करायेल होय! [उ०] कदाच स्पर्श करायेल होय, अने कदाच स्पर्श न कराये होय, यावत् अनन्त समयोचडे स्पर्श कराये होप. २७. [प्र० ] हे भगवन् ! पुद्रवास्तिकायना असंख्याता प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श कराय ! [30] जघन्यपदे तेज असंख्याताने बमणा करीए अने वे रूप अधिक करीए लेटला प्रदेशोवडे स्पर्श कराय, अने उत्कृष्टपदे सेन असंख्याताने पांच गुणा करीए, अने बे रूप अधिक करीए एटला प्रदेशोवडे स्पर्श कराय. बाकी बधुं जेम संख्यातासंबन्धे कह्युं तेम अहिं जाणवुं, यावत्- 'अवश्य अनन्त समयोवडे स्पर्श कराय' सो सुधी जाणवु २८. [प्र० ] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श कराय ! [ उ० ] ए प्रमाणे जेम असंख्याता प्रदेश संबन्धे कयुं तेम अनन्ता प्रदेश संबन्धे पण समझ जागर्नु २५ * आकाशास्तिकायनुं उत्कृष्टपद छे, पण जघन्यपद नथी, कारण के आकाश सर्व स्थळे विद्यमान छे. टीका. २६ दशथी उपरांत संख्यानी गणना संख्यातामां ज थाय छे. जेमके वीश प्रदेशनो एक स्कन्ध लोकान्तना एक प्रदेशने विषे रहेलो छे, भने ते अमुक नयना अभिप्रायथी वीश अवगाढ प्रदेशोवडे, अने तेज नयना मतथी उपरना के नीचेना वीश प्रदेशो वडे तथा पासेना ने प्रदेशो बडे-ए प्रमाने जयपत प्रदेशोवडे सचय उष्टपदे निस्पचरित (विक) वीश भवगड प्रवेशो नीशा नीचेना भने नीश उपर प्रदेश भने पूर्व अने पश्चिम, ए बने दिशाए वीश वीश प्रदेशोवडे, तथा उत्तर अने दक्षिण बाजु एक एक प्रदेशवडे- सर्व मळी एकसो वे प्रदेशोवडे स्पर्शाय. - टीका. २८ + अहिं एटली विशेषता छे के जेम जधन्यपदने विषे उपरना के नीचेना अवगाह प्रदेशो औपचारिक छे, तेम उत्कृष्ट पदने विषे पण जाणवुं, केमके अवगाहथी निरुपचरित अनन्त आकाश प्रदेशो होता नथी, पण असंख्याता होय छे. टीका. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३१९ २९. [प्र०] एगे भंते! अद्धासमए केवतिपहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे? [उ०] सत्तहिं । प्र०] केवतिपहिं अहम्मथि[उ.] पवं चेव, एवं आगासस्थिकाएहि वि । [प्र०] केवतिपहिं जीवस्थिकाय? [उ०] अणंतेहिं, एवं जाव'अद्धासमपहि। ३०. [प्र०] धम्मत्थिकाए णं भंते ! केवतिपहिं धम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? [उ०] नत्थि पक्केण वि । [प्र०] केवतिपहिं अधम्मत्थिकायप्पएसेहिं ? [उ०] असंखेजेहिं । प्र०] केवतिपहिं आगासस्थिकायपदेसेहिं० [उ०] असंखेजेहिं । प्र० केवतिएहिं जीवत्थिकायपएसेहिं ? [उ.] अणंतेहिं । [प्र०] केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपरसेहि.? [उ०] अणंतेहिं प्र०] केवतिएहिं अद्धासमएहिं ? [उ०] सिय पुढे, सिय नो पुढे, जइ पुढे नियमा अणंतेहिं । ३१. [प्र०] अहम्मत्थिकाए णं भंते ! केवइएणं धम्मत्थिकाय? [उ०] असंखेजोहिं । [प्र०] केवतिपहिं अहम्मत्थि०१ उ०] णत्थि एक्केण वि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमएणं सधे वि सट्टाणए नत्थि एक्केण वि पुट्टा । परदाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजेहिं भाणियचं, पच्छिल्लएसु 'अणंता' भाणियचा, जाव-अद्धासमयो त्ति, जाव-[प्र०] केवतिपहिं श्रद्धासमएहिं पुढे ? [उ०] नत्थि एक्केण वि। ३२. [प्र. जत्थ गं भंते! एगे धम्मत्थिकायपएसे ओगाढे, तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायप्पपसा ओगाढा? [उ.] नस्थि एको वि । [प्र०] केवतिया अहम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ? [उ०] एको । [प्र०] केवतिया आगासत्थिकायपदेसा० ? २९. प्र० हे भगवन् ! अद्धा-कालनो एक समय केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! (उ०] *अद्धासमय कालनो एक समय. सात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] उपर प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्शना जाणवी. [अ०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. ए प्रमाणे यावत्-[अनन्त] अद्धासमयोवडे स्पर्शना जाणवी. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायद्रव्य केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] एक पण प्रदेशवडे स्पर्श धर्मास्तिकायदम्य. करायेल न होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र.] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] असंख्यात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] अनन्ता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला अद्धासमयोवडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] कदाच स्पर्श करायेल होय अने कदाच स्पर्श करायेल न होय. जो स्पर्श करायेल होय तो अवश्य अनन्त समयोवडे स्पर्श करायेल होय. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवड़े स्पर्श करायेल होय ! [उ०] असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श धर्मास्तिकाय. करायेल होय. प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] एक पण प्रदेशवडे स्पर्श करायेल न होय. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे ए पाठ वडे सर्वे पण स्वस्थानके एक पण प्रदेशवडे स्पर्श करायेल नथी, परस्थानके-आदिनां त्रण स्थानके-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय ए त्रण स्थळे असंख्याता प्रदेशो वडे स्पर्श करायेल होय एम कहे. अने पछीना त्रण स्थळे 'अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय'-एम यावत्-अद्धा समय सुधी कहे. यावत्-प्र०] केटला अद्धा समयोबडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०] एक पण समयवडे स्पर्श करायेल न होय. ३२. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ-रहेलो होय त्यां बीजा केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ९अवगाद्वार २९ महिं वर्तमानसमयविशिष्ट समयक्षेत्रमा रहेलो परमाणु अद्धासमय तरीके जाणवो, अन्यथा अद्धासमयने धर्मास्तिकायना सात प्रदेश साथे स्पर्शना न होय. अहिं जघन्यपद नथी, केमके अद्धासमय मनुष्यक्षेत्रना मध्यवती छे. जघन्यपदनो तो लोकान्तने विषे संभव छ, भने लोकान्तने विषे काल नथी. श्रद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्य एक धर्मास्तिकायना प्रदेशने विषे अवगाढ छ, भने वीजा तेनी छ दिशाए धर्मास्तिकायना छ प्रदेशो रहेला छ-ए प्रमाणे तेने सात प्रदेशोनी स्पर्शना होय छे. महिं यावत्शब्दथी एक अद्धासमय अनन्त पुद्गलास्तिकायप्रदेशोवडे अने अनन्त श्रद्धासमयोवडे स्पर्श करायेल होय, ते या प्रमाणे-भद्धासमयविशिष्ट अणुद्रव्य अद्धासमय कहेवाय छे, ते एक अद्धासमय पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशोवडे भने अनन्त अद्धासमय-अद्धासमयविशिष्ट अनन्त परमाणुओवडे स्पर्श कराय छे. ३१ ज्या केवल धर्मास्तिकायादि द्रव्यनो तेना प्रदेशोनी साथे स्पर्शनानो विचार थाय ते खस्थानक कहेवाय, भीजा द्रव्यना प्रदेशोनी साथे स्पर्शनानो विचार थाय ते परस्थानक कहेवाय. तेमा खस्थानके एक पण प्रदेशवडे स्पृष्ट नथी, अने परस्थानके धर्मास्तिकायादि त्रण सूत्रने विषे असंख्य प्रदेशोवडे स्पृष्ट होय छे, केमके धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने तत्संबद्ध आकाशना असंख्य प्रदेशो छे. जीवादि प्रण सूत्रने विषे अनन्त प्रदेशो बढे स्पृष्ट होय छे. केमके तेओना अनन्त प्रदेशो छे. यावत् एक अद्धासमय क्रेटला अद्धासमयो वडे स्पर्श करायेल होय! एक पण अद्धासमय बढे स्पर्श करायेल नथी, कारण के निरुपचरित अदासमय एक ज होवाथी तेनी समयान्तरनी साथे स्पर्शना नथी. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३-उद्देशक ४. [उ०] एक्को। [प्र०] केवतिया जीवत्थिकायपदेसा? [उ०] अणंता। [प्र०] केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा० १ [उ०] अणंता । [प्र०] केवतिया अद्धासमया? [उ०] सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता। ३३. [प्र०] जत्थ णं भंते! एगे अहम्मत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवंतिया धम्मत्थिंकायपदेसा ओगाढा? उ.] एक्को। [प्र०] केवतिया अहम्मत्थि ? [उ०] नत्थि एक्को वि । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । २४.प्रा जत्थ णं भंते ! एगे आगासस्थिकायपएसे ओगादे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगादान सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा पक्को, एवं अहम्मत्थिकायपएसा वि। [प्र०] केवइया आगासत्थिकाय ? [उ.] नत्थि एक्को वि। [प्र०] केवतिया जीवत्थि० ? [उ०] सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता, एवं जाव-अद्धासमया। ३५. [३०] जत्थ णं भंते! एगे जीवत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि.? [उ०] पक्को, एवं अहम्मत्थिकायपदेसा वि । एवं आगासत्थिकायपरसा वि।[प्र०] केवतिया जीवस्थि० ? [उ०] अणंता, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । ३६. [प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय ? [उ०] एवं जहा जीवत्थिकायपएसे तहेव निरवसेसं ।। ३७. [प्र०] जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय ? [उ०] सिय एक्को सिय दोन्नि, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि, पवं आगासत्थिकायस्स वि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। ३८. [प्र०] जत्थ णं भंते ! तिन्नि पोग्गलत्थिकायपदेसा तत्थ केवइया धम्मत्थिकाय ? [उ०] सिय एको, सिय ज्या धर्मास्तिकायनो छ ? [उ०] एक पण प्रदेश अवगाढ नथी. (प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ-रहेला होय? [उ०] एक अधर्मास्तिकायनो प्रदेश रहेलो एक प्रदेश अवगाढ होय त्या माजा होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेश अवगाढ होय ? [उ०] एक प्रदेश अवगाढ होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ धर्मास्तिकायादिना होय ? उ०] अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय. [प्र०] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! [उ०] अनन्ता प्रदेशो अवगाढ होय. केटला प्रदेश भवन गाढ होया प्र०] केटला अद्धासमयो अवगाढ होय ! [उ०] अद्धासमयो कदाच अवगाढ होय अने कदाच अवगाढ न होय; जो अवगाढ होय तो अनन्त अद्धासमयो अवगाढ होय. अधर्मास्तिकायनो ३३. प्र०] हे भगवन् ! ज्यां अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ-रहेलो होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! पक प्रदेश [उ०] त्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! [उ०] एक पण नथी. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. भाकाशास्तिका- ३४. [प्र०] हे भगवन् ! ज्या आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? यनो एक प्रदेश. [उ०] त्या धर्मास्तिकायना प्रदेशो कदाच अवगाढ-रहेला होय, अने कदाच न अवगाढ होय. जो अवगाढ होय तो एक प्रदेश अवगाढ होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशो पण जाणवा. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! [उ०] एक पण न होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! [उ०] कदाच अवगाढ होय अने कदाच न अवगाढ होय. जो अवगाढ होय तो अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय. ए प्रमाणे यावत्-अद्धासमय सुधी जाणवू. बीवास्तिकायनो एक ३५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्या जीवास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ! [उ.] प्रदेश. त्यां एक प्रदेश अवगाढ होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशो पण जाणवा. आकाशास्तिकायना प्रदेशो पण ए रीते जाणवा. [प्र०] जीवास्तिकायना केटला प्रदेशो अवगाढ होय ? [उ०अनन्ता प्रदेशो अवगाढ होय. बाकी बधु धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. पुद्गलास्तिकायनो ३६. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायना केटला प्रदेशो अवगाढ होय ? [उ०] एक प्रदेश. - ए प्रमाणे जेम जीवास्तिकायना प्रदेश संबन्धे कयुं तेम बधुं कहेवू. पुद्राग्निापना ३७. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायना केटला प्रदेशो अवगाढ-रहेला होय ! वे प्रोमो. [उ०] कदाच एक प्रदेश अवगाढ होय, अने कदाच वे प्रदेशो अवगाढ होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय संबन्धे पण जाणवू. ए प्रमाणे आकाशास्तिकाय संबंधे पण जाणवू. बाकी बधुं [जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमय संबन्धे] जेम धर्मास्तिकायना प्रदेशनी वक्तव्यतामा कछु छे तेम पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशनी वक्तव्यताने विषे पण कहे. [अर्थात् तेओना अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय छे.] पुद्गास्तिकायना ३८. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो अवगाढ-रहेला छे त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? त्रण प्रदेशो. [उ.] कदाच एक, कदाच बे अने कदाच त्रण प्रदेशो अवगाढ होय. [कारणके ज्यारे पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो एक आकाशास्ति Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२१ दोन्नि, सिय तिन्नि, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि, एवं आगासस्थिकायस्स वि, सेसं जहेव दोण्ड, एवं एकेको वडियष्ठो पएसो आइल्लुपहिं तिहिं अत्थिकारहि, सेसेहिं जहेव दोण्हं जाव-दसण्हं सिय एको, सिय दोन्नि, सिय तिनि, जाव-सिय दस । संखेजाणं सिय पक्को, सिय दोन्नि, जाव-सिय दस, सिय संखेजा । असंखेज्जाणं सिय एको, जाव-सिय संखेजा, सिय असंखेजा। जहा असंखेजा एवं अणंता वि। ३९. प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि०१ [उ०] एको। प्र०] केवतिया अहम्मत्थि० १ [उ०] एक्को। [प्र०] केवतिया आगासत्थि० ? [उ०] एको । [40] केवइया जीवत्थि०१ [उ०] अणंता, एवं जावअद्धासमया। ४०. [प्र०] जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? [..] नत्यि एको वि । [प्र०] केवतिया अहम्मत्थिकाय ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया आगासत्थि० १ [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया जीवत्थिकाय ? [उ०] अणंता । एवं जाव-अद्धासमया । ४१. प्र०] जत्थ णं भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय० १ [उ०] असंखेजा । [प्र०] केवतिया अहम्मत्थि०१[उ०] नत्थि एको वि । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स, एवं सवे, सटाणे नत्थि एको विभाणियचं, परदाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेजा भाणियचा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणंता भाणियवा जाव-अद्धासमओ ति । जाव-[प्र०] केवतिया अद्धासमया ओगाढा! [उ०] नत्थि एको वि। कायना प्रदेशने अवगाहीने रहे त्यारे तेने विषे एक धर्मास्तिकायनो प्रदेश अवगाहीने रहे, ज्यारे बे आकाशास्तिकायना प्रदेशने अवगाहीने रहे त्यारे त्यां बे धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे, अने ज्यारे त्रण आकाशास्तिकायना प्रदेशोने अवगाहीने रहे त्यारे त्या त्रण धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे.] ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायना संवन्धे कहे. बाकी जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने आश्रयी जेम बे पुद्गलप्रदेशसंबन्धे कयुं तेम त्रण पुद्गलप्रदेश संबन्धे पण कहे. [अर्थात्-त्रण पुद्गल प्रदेशने स्थाने अनन्त जीवप्रदेशो, अनन्त पुद्गलपरमाणुओ अने अनन्त अद्धासमय अवगाढ होय.] ए प्रमाणे आदिना त्रण अस्तिकायने विषे एक एक प्रदेश वधारवो, बाकीनाने विषे जेम बे पुद्गलांस्तिकायना प्रदेशसंबन्धे कयुं तेम यावत्-दश प्रदेश संबन्धे पण कहे. एटले ज्यां पुद्गलास्तिकायना दश प्रदेशो अवगाढ होय त्या धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदाचित् बे प्रदेश, कदाचित् त्रण प्रदेश, यावत्-कदाचित् दश प्रदेशो अवगाढ होय. ज्या संख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदाचित् बे प्रदेश, यावत्-कदाचित् दश प्रदेशो, यावत्-संख्याता प्रदेशो अवगाढ होय. असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो ज्यां अवगाढ-रहेला होय त्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश, यावत्-कदाचित् संख्याता प्रदेशो, अने कदाचित् असंख्याता प्रदेशो अवगाढ होय. जेम असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो माटे. का तेम अनन्त प्रदेशो माटे पण जाणवू. [अर्थात् ज्यां पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायना कदाचित् एक, यावत्-संख्याता अने यावत्-असंख्याता प्रदेशो रहेला होय.] ३९. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक अद्धासमय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] एक प्रदेश क मबासमय. रहेलो होय. प्र० केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! उ०] एक प्रदेश रहेलो होय. प्रि०ा केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] एक प्रदेश रहेलो होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ०] अनन्त प्रदेशो रहेला होय. ए प्रमाणे यावत् अद्धासमय सुधी जाणवू. [अर्थात् पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयो अनन्ता रहेला होय.] ____४०. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यां एक धर्मास्तिकाय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] त्यां धर्मा- एक धर्मास्तिकाय. स्तिकायनो एक पण प्रदेश रहेलो न होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो होय ! [उ०] अनन्ता होय. ९ प्रमाणे यावत्-अद्धासमय सुधी जाणवू. ___४१. [प्र०] हे भगवन् ! ज्या एक अधर्मास्तिकाय अवगाढ-रहेलो होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ०] एक मर्मास्तिकाप. असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय! [उ०] एक पण प्रदेश न होय. बाकी [आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने] धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवं. सर्व धर्मास्तिकायादि द्रव्यने 'खस्थानके एक पण प्रदेश नथी'ए प्रमाणे कहेवू, अने परंस्थानके आदिना त्रण द्रव्यने (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायने) 'असंख्याता' कहेवा, अने पाछळना त्रण द्रव्यने 'अनन्ता' यावत्-अद्धासमय सुधी कहेवा. यावत्-प्र०] केटला अद्धासमय अवगाढ होय : उ०] एक पण नथी. ४१ भ. सू. . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ४. ४२. [प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे पुढविक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र० केवतिया आउकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवइया तेउकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवइया वाउकाइआ ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? [उ०] अणंता। ४३. [प्र०] जत्थ णं भंते । पगे आउक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० १ [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया आउ० ? [उ०] असंखेजा । एवं जहेव पुढविक्काइयाणं वत्तष्वता तहेव सच्चसि निरवसेसं भाणियचं जाव-वणस्सइकाइयाणं, जाव- [प्र०] केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? [उ०] अणंता । ४४. [प्र०] एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकार्यसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्टित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? [उ०] नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एतंसि णं धम्मत्थि० जाव-आगासत्थिकायंसि णो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव-ओगाढा' १ [उ०] गोयमा! से जहानामए-कूडागारसाला सिया, दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा,जहा रायप्पसेणइजे, जाव-दुवारवयणाई पिहेइ, दु०२ पि. हेत्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेजा, से नूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमन्नपुट्ठाओ जाव-अन्नमनघडत्ताय चिटुंति ? हंता चिटुंति । चक्किया गं गोयमा! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव-तुयट्टित्तए वा ? भगवं! णो तिणटे समटे । अणंता पुण तत्थ जीवा भोगाढा, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जाव-'ओगाढा' । ४५. [प्र०] कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? कहिणं भंते ! लोए सध्धविग्गहिए पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए उवरिमडिल्लेसु खुडागपयरेसु एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सधविग्गहिए पण्णत्ते। पृथिवीकायिक. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक पृथिवीकायिक जीव अवगाढ होय त्या बीजा केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता पृथिवीकायिको रहेला होय. [प्र०] केटला अप्कायिक जीवो अवगाढ होय ! [उ०] असंख्याता जीवो अवगाढ होय. [प्र०] केटला तेज कायिक जीवो रहेला होय ? [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र०] केटला वायुकायिक जीवो रहेला होय! [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र.] केटला वनस्पतिकायिको रहेला होय ! [उ०] अनन्ता वनस्पतिकायिको रहेला होय. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक अप्कायिक रहेलो होय त्यां केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय! [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र०] केटला अप्कायिको रहेला होय ! [उ०] असंख्याता रहेला होय. ए प्रमाणे जेम पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही, तेम सर्वमी सघळी वक्तव्यता यावत्-वनस्पतिकाय सुधी कहेवी. यावत्-प्र०] केटला वनस्पतिकायिको रहेला होय? उ.] अनन्ता रहेला होय. भप्कायिक ११ अस्तिकाय- धर्मास्तिकायादि त्रण द्रव्यमा बेसवाने समर्थ थाय। ४४. [प्र०] हे भगवन् ! आ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाशास्तिकायने विषे कोइ पुरुष बेसवाने, उभो रहेवाने, नीचे बेसवाने अने आळोटवाने शक्तिमान् होय ! [उ०] हे गौतम! आ अर्थ यथार्थ नथी, परन्तु ते स्थाने तो अनन्ता जीवो अवगाढ-रहेला छे. प्र०] हे भगवन्! शा हेतुथी एम कहो छो के आ 'धर्मास्तिकाय, यावत्-आकाशास्तिकायने विषे कोइ पुरुष बेसवाने शक्तिमान् नथी'इत्यादि यावत्-त्या अनन्ता जीवो अवगाढ-रहेला छे ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ कूटागारशाला होय, तेने अंदर ने बहार लीपी होय, चारे तरफथी ढांकेली होय, अने तेनां बारणां पण बन्ध कां होय-इत्यादि* राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे तेनुं वर्णन जाणवू, यावत्ते कूटागार शालाना द्वारना कमाडने बंध करी, ते कूटागार शालाना बराबर मध्यभागमा जघन्यथी एक, बे, त्रण अने उत्कृष्टथी एक हजार दीवाओ सळगावे. हे गौतम ! खरेखर ते दीवाओनुं तेज परस्पर मळीने, परस्पर स्पर्श करीने, यावत् एक बीजा साथे एकरूपे थइने रहे ! हा, भगवन् ! रहे, हे गौतम! कोइ पण पुरुष ते दिवाओना तेजमां बेसवाने यावत्-अथवा आळोटवाने शक्तिमान् थाय? हे भगवन्! ए अर्थ योग्य नथी, पण अनन्ता जीवो त्यां अवगाढ-रहेला होय छे, ते माटे हे गौतम! एम कहेवाय छे के यावत्-'अनन्ता जीवो या अवगाढ होय छे.' १२ बहुसमदार. ४५. [प्र०] हे भगवन् ! लोकनो बराबर सम-(प्रदेशनी वृद्धि हानिरहित) भाग क्या कहेलो छे! हे भगवन् ! लोकनों सर्वथी संक्षिप्तसांकडो भाग क्या कहेलो छे ! [उ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपर अने नीचेना क्षुद्र (लघु) प्रतरने विषे अहिं लोकनो बराबर सिमभाग कहेलो छे, अने अहिंज लोकनो सर्वथी संक्षिप्त (सांकडो) भाग कहेलो छे. ४४ * कूटागारशालानुं वर्णन जुओ-राजप्रश्नीय प०१३४.. . .४५ आ.बन्ने क्षुद् प्रतरोथी आरंभीने उपर अने नीचे प्रतरती वृद्धि थाप छे-टीका. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ - उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४६. [प्र० ] कहि णं मंते ! विग्गद्दविग्गहिए लोप पण्णत्ते ? [30] गोयमा । विग्गद्दकंडप पत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोप पण्णत्ते । ४७. [प्र० ] किंसंठिए णं भंते ! लोप पण्णत्ते ! [उ०] गोयमा ! सुपइट्टियसंठिए लोप पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने, मज्झे जहा सत्तमसप पढमुद्दे से जाव - 'अंतं करेति' । ४८. [प्र० ] यस्स णं भंते ! अहेलोगस्स, तिरियलोगस्स, उडलोगस्स य कयरे कयरेहिंतो जाव-विसेसाद्दिया वा १ [30] गोयमा ! सङ्घत्थोवे तिरियलोप, उडलोप असंखेजगुणे, अहेलोप विसेसाहिए । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! ति । ४६. [प्र०] हे भगवन्! क्यां विग्रहविग्रहिक - लोकरूप शरीरनो वक्रतायुक्त भाग छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्यां विग्रहकंडक - वक्रता - -लोकनो वक्रभाग. युक्त अवयव छे (अर्थात् लोकरूप शरीरनो ब्रह्मदेवलोकरूप कोणीनो भाग छे, त्यां प्रदेशनी वृद्धि हानि होवाथी वक्र अवयव छे ) यां लोकरूपशरीर वक्रतायुक्त छे. तेरसमस चउत्थो उद्देसो समतो । ४७. [प्र०] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान केवा प्रकारे कयुं छे ! [उ०] हे गौतम! लोकनुं सुप्रतिष्ठक - ( उंधा वाळेला शरावना उपर मूकेला शरावसंपुट )ने आकारे आ लोक कह्यो छे. नीचे विस्तीर्ण, मध्यमां संक्षिप्त - इत्यादि जेम "सातमा शतंकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्- 'संसारनो अन्त करे छे' त्यां सुधी जाणवुं. ४७ ३२३ ४८. [प्र०] हे भगवन्! आ अधोलोक, तिर्यग्लोक, अने ऊर्ध्वलोकमां कयो लोक कोनाथी यावत्-विशेषाधिक छे? [उ०] सर्वथी थोडो तिर्यग्लोक छे, तेथी असंख्यातगुण ऊर्ध्वलोक छे अने तेथी विशेषाधिक अधोलोक छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ' भग० सं० ३ ० ७ उ० १० २. त्रयोदश शतके चतुर्थ उद्देशक समाप्त १२ संस्थानद्वार. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो। १.प्र. नेरइया भंते! कि सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, मीसाहारा [उ. गोयमा! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा । एवं असुरकुमारा, पढमो नेरहयउद्देसओ निरवसेसो भाणियो। 'सेवं भंते ! सेवं भंते'पत्ति। तेरसमसए पंचमो उद्देसओ समत्तो। पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको शुं सचित्ताहारी छे, अचित्ताहारी छे के मिश्राहारी (सचित्त अने अचित्त उभय आहारवाळा) छे! [उ०] हे गौतम! तेओ सचित्ताहारी नथी, मिश्राहारी नथी, परन्तु अचित्ताहारी छे. असुरकुमारो ए प्रमाणे जाणवा. अहीं 'प्रज्ञापना'सूत्रना अठ्यावीशमा आहारपदनो] "प्रथम नैरयिक उद्देशक समग्र कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे.'एम कही भगवान् गौतम यावद्-विहरे छे. त्रयोदश शतके पंचम उद्देशक समाप्त छट्ठो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-संतरं भंते ! नेरतिया उववजंति, निरंतरं नेरइया उववजंति [उ०] गोयमा ! संतरं पि नेरइया उववजंति, निरंतरं पि नेरइया उववजंति । एवं असुरकुमारा वि, एवं जहा गंगेये तहेव दो दंडगा जाव'संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयंति' । षष्ठ उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमा [भगवान् गौतम] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! नारको सांतर-समयादिकना अंतर सहित उपजे, के निरन्तर-समयादिकना अंतर रहित उपजे ? [उ] हे गौतम! नैरयिको सांतर पण उपजे छे, अने निरन्तर पण उपजे छे. असुरकुमारो पण ए प्रमाणे जाणवा, ए प्रमाणे जिम गांगेय उद्देशकमां कां छे तेम उत्पाद अने उद्वर्तना संबंधे बे दंडको यावत्-'वैमानिको सांतर पण च्यवे छे, अने निरन्तर पण च्यवे छे'-त्यां सुधी कहेवा. १* प्रहा• पद २८ प० ४९८-२. १ जुओ भग० ख० ३ श० ९ उ० ३२ पृ० १५८. Jain Education international Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२५ २. [प्र०] कहिन्नं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो चमरचंचा नामं आवासे पण्णते? [उ०] गोयमा। वहीवे दीवे मंदस्स पचयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे-एवं जहा बितियसए समाउद्देसए वत्तष्टया सञ्चेव अपरिसेसा नेयधा, नवरं इमं नाणत्तं-जाव-तिगिच्छकूडस्स उप्पायपवयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपचयस्स भन्नेसि च बहूणं सेसं तं चेव जाव-तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं। तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपञ्चच्छिमेणं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साई अरुणोद्गसमुहं तिरियं धीइवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते, चउरासीइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पन्नाटुं च सहस्साई छञ्च बत्तीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । से णं एगेणं पागारेणं सपओ संमता संपरिक्खित्ते । से णं पागारे दिवह जोयणसयं उडं उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाए रायहाणीए वत्तवया भाणियवा सभाविहूणा, जाव-चत्तारि पासायपंतीओ। ३. [प्र०] चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे वसहि उवेति [उ०] नो तिणट्टे समटे। [प्र.] से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'चमरचंचे आवासे० १ [उ०] गोयमा! से जहानामप-इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा, उज्जाणियलेणाइ वा, णिजाणियलेणाइ वा, वारिधारियलेणाइ वा, तत्थ णं वहये मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति, सयंति-जहा रायप्पसेणइजे जाव-कल्लाणफलवित्तिविसेसं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, अन्नत्थ पुण वसहि उति, एवामेव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररनो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डा-रतिपत्तियं, अन्नत्य पुण वसहि उति, से तेणट्रेण जाव-आवासे। 'सेवं भंते ! सेवं भंते! ति जाव-विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाह रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ जाव-विहरा। २. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इन्द्र अने असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंचा नामे आवास क्या कह्यो छे! [उ०] हे असुकुमारमा चमरे . न्द्रनो चमरचंच नामे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मेरु पर्वतनी दक्षिणे तिर्यग् असंख्याता द्वीपसमुद्रो उल्लंघीने अरुणवर द्वीपनी बाह्य वेदिकाना अन्तथी अरु भावासणवर समुद्रमां बेंतालीश लाख योजन गया बाद चमरेन्द्रनो तिगिच्छककूटनामे *उत्पातपर्वत आवे छे, तेनी दक्षिण दिशाए ६५५ क्रोड, ३५ लाख अने पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तीर्थो गया बाद नीचे रत्नप्रभा पृथिवीनी अंदर चालीश हजार योजन जइए एटले चमरेन्द्रनी चमरचंचा नामे राजधानी आवे छे-इत्यादि] बीजा शतकनी आठमा 'सभा उद्देशकमां-जे वक्तव्यता कही छे ते समग्र अहिं कहेवी, परंतु तेमां आ विशेष छे के तिगिच्छककूट नामे उत्पात पर्वत, चमरचंचानामे राजधानी, चमरचंच नामे आवासपर्वत, अने बीजा घणाना-इत्यादि बधुं ते प्रमाणे कहे, यावत्-त्रण लाख, सोळ हजार, बसो सत्यावीश योजन [त्रण गाउ, बसो अठ्यावीश धनुष अने कंइक विशेषाधिक ] साडा तेर अंगुल-एटली चमरचंचानी परिधि छे. ते चमरचंचा राजधानीथी दक्षिण-पश्चिम दिशाए (नैऋत्य कोणने विषे, छसो पंचावन कोड, पांत्रीश लाख, अने पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तिर्छा गया बाद अहिं असुरकुमारना इंद्र भने असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास कह्यो छे. ते लंबाइ भने पहोळाइमा चोराशी हजार योजन छे. तेनी परिधि बे लाख, पासठ हजार अने छसो बत्रीश योजनथी कंइक विशेषाधिक छे. ते आवास एक प्राकारथी (किल्लाथी) चोतरफ विंटाएलो छे. ते प्राकार उंचोउंचाइमा दोढसो योजन छे. ए प्रमाणे चमरचंचा राजधानीनी बधी वक्तव्यता यावत्-"चार प्रासाद पंकितओ छे"-त्यां सुधी कहेवी, परन्तु [१ सुधर्मासभा, २ उपपातसभा, ३ अभिषेकसभा, ४ अलंकारसभा अने ५ व्यवसायसभा-] ए पांच सभा न कहेवी. ३. [प्र०] हे भगवन्! असुरेंद्र असुरकुमारना राजा चमर चमरचंच नामे आवासमा रहे छे ! [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. [प्र०] चमरेन्द्र चमरचंच नामे भावासमा हे भगवन्! एम शा हेतुथी कहो छो के, चमरचंच नामे आवासमां-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! जेमके आ मनुष्यलोकमा उपकारकपीठबद्ध घरो, उद्यानमा रहेला लोकने उपकारक (नगरप्रवेश गृहो) घरो, नगरनिर्गम-नगरथी बहार नीकळतां प्राप्त थतां घरो भने वारिधारायुक्त (फुवारायुक्त) घरो होय, त्यां घणा पुरुषो अने स्त्रीओ बेसे, सुवे-इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत्-'कल्याणरूप फळ अने वृत्तिविशेषने अनुभवतां रहे छे' त्यां सुधी कहे, पण त्यां रहेठाण करता नथी, अर्थात् पोतानो निवास तो वीजे स्थळे करे छे, ए प्रमाणे हे गौतम! असुरेन्द्र असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास केवल क्रीडा अने रति निमित्ते छे, अने बीजे स्थळे ते पोतानो वास करे छे; ते हेतुथी एम कर्दा छे के चमरचंच आवासने विषे ते पोतानो वास करतो नथी.' 'हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे'–एम कही यावद् विहरे छे. • त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे राजगृह नगरथकी अने गुणसिलक चैत्यथकी यावद्-विहार करे छे.. २* चमरेन्द्रने तिर्यग्लोकमां जवु होय त्यारे आ पर्वत उपर आवी उत्पतन करे छे माटे ते पर्वतने उत्पातपर्वत कहेवामां आवे छे.-टीका. 1 जुओ भग० खं०१श. २ उ०८ पृ. २९७. ३ राजप्र०प०७६ सू० ३२. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ६. ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, वन्नओ। पुनभद्दे चेहए, वन्नओ। तए ण समणे 'भगधं महावीरे अन्नया कदाइ पुषाणुपुष्विं चरमाणे जाव-विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुन्नभद्दे चेतिए तेणेव उवागच्छद, ते०३ -च्छित्ता.जाव-विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नाम नगरे होत्था, वन्नओ। तस्स बीतीभयस्स नगररस बहियां उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं मियवणे नामं उजाणे होत्था, सवोउय० वन्नओं । तत्थ णं बीतीभए नगरे उदायणे नामं राया होत्था, महया० वन्नओ। तरस णं. उदायणस्स रनो पभावती नाम देवी होत्था, सकमाल० वन्नओ। तस्स गं उदायणस्स रनो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभीतिनामं कुमारे होत्था, सुकुमाल जहा सिंवभहे, जाव- पञ्चवेक्खमाणे विहरति । तस्स णं उदायणस्स रनो नियए भाइणिज्जे केसीनामं कुमारे होत्था, सुकुमाल जावसरुवे । सेणं उदायणे राया सिंधूसोवीरप्पामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं, वीतीभयप्पामोक्खाणं तिण्हं तेसट्रीणं नगरागरसयाणं, महसेणप्पामोक्खाणं दसण्डं राईणं बद्धमउडाणं विदिन्नछत्त-चामर-वालवीयणाणं, अन्नेसि च बहूर्ण राई-सरतलवर जाव-सत्थवाहप्पभिईणं आहेवचं पोरेवच्चं जाव-कारेमाणे, पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव-विहरह । ५.तए णं से उदायणे राया अन्नया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, जहा संखे जाव-विहरा । तए तस्स उदायणस्स रनो पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव-समुप्पज्जित्था"धन्ना णं ते गामा-गर-नगर-खेड-कव्यड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाहसन्निवेसा, जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरह, धन्ना गं ते राईसर-तलवर जाव-सत्थवाहप्पभिईओ, जे णं समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, जाव-पज्जुवासंति। जाणं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुष्विं चरमाणे गामाणुगाम जान-विहरमाणे इहमागच्छेजा, इह समोसरेजा, इहेब बीतीभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा जाव-विहरेजा, तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेजा, नमसेजा, जाव-पजुषासेजा। तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रन्नो अयमेयारूवं अम्भत्थियं जाव-समुप्पन वियाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुग्नभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्स्नमित्ता पुषाणुपुछि चरमाणे गामाणु० जाव-विहरमाणे जेणेव सिंधूसोवीरे जणवए जेणेव वीतीभये णगरे, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ, ते०२-च्छित्ता बीतमय. चंपानगरी. ४. ते काले ते समये चंपा नामनी नगरी हती. वर्णन. पूर्णभद्र चैत्य हतुं. वर्णन. त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे पर्णभद्र चैत्य. अनुक्रमे गमन करता, यावत्-विहार करता ज्यां चंपा नगरी छे, अने ज्या पूर्णभद्र चैत्य छे त्यां आवे छे, त्या आवीने यावद्-विहरे छे. सिन्धूसौनीरदेश. ते काले ते समये सिंधूसौवीर देशने विषे वीतिभय नामे नगर हतुं. ते वीतभय नगरनी बहार उत्तरपूर्व दिशाए (ईशान कोणने विषे) मृगवन नामर्नु उद्यान हतुं. ते सर्व ऋतुना पुष्पादिकथी समृद्ध हतुं-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते वीतभय नगरने विषे उदायन नामे राजा उदायन राजा. जा. हतो, ते महाहिमवान् जेवो-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते उदायन राजाने प्रभावती नामनी देवी (राणी) हती, ते सुकुमालहाथपगवाळीप्रभावती देवी इत्यादि वर्णन 'जाणवू. ते उदायन राजाने प्रभावती देवीथी थयेलो अभीचि नामे कुमार हतो. ते सुकुमाल-इत्यादि वर्णन "शिवभदनी पेठे जाणवं, यावत्-ते राज्यनी चिंता करतो विहरे छे. ते उदायन राजाने पोतानो भाणेज केशी नामे कुमार हतो, ते सुकुमालहाथपगवाळो अने यावत्-सुरूप हतो. ते उदायन राजा सिंधूसौवीर प्रमुख सोळ देश, वीतभयप्रमुख त्रणसोने त्रेसठ नगर अने आकरचें (सुवर्णादि. खाणोनुं ) तथा जेने छत्र चामर अने वालव्यजन-(विंजणो) आपेला छे एवा महासेन प्रमुख दश मुकुटबद्ध राजाओ, अने एवा बीजा घणा राजा, युवराज, तलवर (कोटवाल) यावत्-सार्थवाह प्रमुखनु अधिपतिपणुं करतो, राज्यनुं पालन करतो, जीचाजीव तत्त्वने जाणतो, श्रमणोनो उपासक थईने यावत्-विहरे छे. ५. त्यारबाद ते उदायन राजा अन्य कोइ दिवसे ज्या पोषधशाला छे त्यां आवे छे, अने शिंख श्रमणोपासकनी पेठे यावत्विहरे छे. त्यारबाद ते उदायन राजाने मध्यरात्रीने समये धर्मजागरण करता आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो-"ते गाम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मंडब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम, संबाध अने सन्निवेश धन्य छे, ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विचरे छे, ते राजा, शेठ, तलवर यावद्-सार्थवाह प्रमुख धन्य छे, जेओ श्रमण भगवंत महावीरने वंदन-नमस्कार करे छे अने यावत्-पर्युपासना करे छे. जो श्रमण भगवंत महावीर अनुक्रमे विचरता एक गामथी बीजे गाम जता, यावद्-विहार करता अहिं आवे, अहिं समोसरे, अने आ वीतभयं नगरनी बहार मृगवन नामे उद्यानमा यथायोग्य अवग्रहने ग्रहण करी संयम अने तपवडे आत्माने भावित करता यावद्-विचरे तो हुँ श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करूं, अने नमस्कार करूं, यावत्-तेमनी पर्युपासना करूं. त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीर उदायन राजाना आवा प्रकारना उत्पन्न थएला आ संकल्पने जाणीने चंपा नगरीथी अने पूर्णभद्र चैत्य थकी नीकळे छे, नीकळीने ४* भग० सं० ३ श० ११३०९ पृ. २२१. ५१ भग० ख०३श. १२ उ०१पृ०२५३. . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ शतक १३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. जाव-विहरति । तए णं वीतीभये नगरे सिंघाडग० जाव-परिसा पजुवासइ । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लद्धडे समाणे हट्टतुट्ट० कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, को०२-त्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीयीभयं नगरं सम्मितरबाहिरियं जहा कृणिओ उववाइए जाव-'पजुवासति'। पभावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाव-पजुवासंति । धम्मकहा। तए णं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ट-तुट्टे उट्ठाए उढेइ, उट्ठा० २-ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव-नमंसित्ता एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जाव-से जहेयं तुझे वदहति कट्ट जं नवरं देवाणुप्पिया! अभीयिकुमारं रजे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव-पश्चयामि । 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । तए णं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट-तुटे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता.नमंसित्ता तमेव आभिसेकं हत्थि दूरुहति, दुरूदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ६. तए णं तस्स उदायणस्स रनो अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-"एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इट्टे कंते, जाव-किमंग पुण पासणयाए ? तं जदी णं अहं अभीयीकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता जाव-पचयामि, तो णं अभीयीकुमारे रजे य रट्टे य जाव-जणवए य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोववन्ने, अणादीयं, अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अभीयीकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-पवइत्तए, सेयं खलु मे णियगं भाइणेज केसि कुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव-पचइत्तए'-एवं संपेहेह, एवं संपेहेत्ता जेणेव वीतीमये नगरे तेणेव उवागच्छद, ते०२-गच्छित्ता वीतीभयं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ, ते० २-च्छित्ता आभिसेक्कं हत्थि ठवेति, आमि० २-वेत्ता आभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ, आ० २-भित्ता जेणेव सीहासंणे तेणेव उवागच्छति, ते० २-च्छित्ता अनुक्रमे गमन करता, एक गामथी बीजे गाम यावत्-विहरता, ज्यां सिंधुसौबीर देश छे, ज्यां वीतभय नगर छे, अने ज्या मृगवन नामे उद्यान छे त्यां आवे छे, त्या आवीने यावद्-विहरे छे. ते समये वीतभयं नगरमा शंगाटक-शीगोडाना जेवा त्रिकोण (आकारवाळा)इत्यादि मार्गोमा [घणा माणसो परस्पर कहे छे के 'अहिं मृगवन उद्यानमा भगवान् महावीर पधार्या छे' एम सांभळीने घणा क्षत्रियो वगेरे वंदन करवा नीकळे छे इत्यादि ] यावद्-परिषद् पर्युपासना करे छे. त्यार पछी भगवान् महावीर आव्यानी आ वातथी विदित थयेला ते उदायन राजाए हर्षित अने संतुष्ट थई कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी आ प्रमाणे कर्यु के-“हे देवानुप्रियो। तमे शीघ्र वीतभय नगरने अंदर अने बहार साफ करावो"-इत्यादि बधुं *औपपातिक सूत्रमा कूणिक संबन्धे कयुं छे तेम अहिं पण कहे. यावत्-ते पर्युपासना करे छे. तथा प्रभावती प्रमुख देवीओ पण तेज प्रमाणे यावत्-पर्युपासना करे छे. त्यारबाद [भगवंते] धर्म कथा कही. पछी ते उदायन राजा श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, अवधारी हर्षित अने संतुष्ट थई उठी उभो थाय छे, उभो थइने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत्-नमस्कार करीने आ प्रमाणे बोल्यो-'हे भगवन् ! ए ए प्रमाणे ज छे, हे भगवन् ! ते ते प्रकारे छे' यावत्जे प्रकारे आ तमे कहो छो, परन्तुं एटलो विशेष छे के, हे देवानुप्रिय! अभीचिकुमारने राज्यने विष स्थापन करूं, अने त्यारबाद हुं देवानुप्रिय एवा आपनी पासे मुंड थईने यावत्-प्रव्रज्यानो स्वीकार करे. [ भगवंते कयुं के ] 'हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो, प्रतिबंध न करो.' त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे उदायन राजाने ए प्रमाणे कडं एटले ते हर्षित अने संतुष्ट थई श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे, वंदन अने नमस्कार करीने ते अभिषेकने योग्य (पट्ट) हस्ती उपर चढी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने मृगवन नामना उद्यानथी नीकळीने ज्यां वीतभय नामे नगर छे ते तरफ जवानो तेणे विचार कर्यो. ६. त्यार पछी ते उदायन राजाने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो के 'ए प्रमाणे खरेखर अभीचिकुमार मारे एक पोताना भाणेज के पुत्र छे अने ते मने इष्ट अने प्रिन छे, यावत्-तेनुं नाम श्रवण पण दुर्लभ छे, तो पछी तेनुं दर्शन दुर्लभ होय तेमां शुं कहे, ते माटे शी कुमारने राम्या भिषेक करवानो ना जो हुँ अभीचिकुमारने राज्यने विषे स्थापीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे मुंड थई यावत्-प्रव्रज्या ग्रहण करुं, तो अभीचिकुमार राज्य, यननो संकल्प. राष्ट्र, यावत्-जनपदमां अने मनुष्यसंबंधी कामभोयोमा मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित अने तल्लीन थई अनादि अनंत अने दीर्धमार्गबाळा चारगतिरूप संसार अटवीने विषे परिभ्रमण करशे, ते माटे अभीचिकुमारने राज्यने विषे स्थापन करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे यावत्प्रव्रज्या लेवी ए श्रेयरूप नथी, परंतु मारे मारा भाणेज केशीकुमारने राज्यने विषे स्थापन करीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रव्रज्या लेवी श्रेयरूप छे-ए प्रमाणे विचार करे छे. एम विचारीने ज्यां वीतभय नगर छे. त्यां आवी वीतभय नगरनी वच्चे ज्यां पोतार्नु घर छ, भने ज्या बाहेरनी उपस्थानशाला छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने अभिषेकने योग्य-पट्ट हस्तीने उभो राखीने तेना उपरथी नीचे उतरे छे, नीचे उतरीने ज्यां सिंहासन छे, त्यां आवी उत्तम सिंहासन उपर पूर्व दिशासन्मुख बेसे छे, बेसीने कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी तेणे ए प्रमाणे ५* जुओ-औप० ५० ६३-२५० १२. Jain Education international Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ६. सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीइत्ता कोथुवियपुरिसे सद्दावेति को०२-वेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीतीभयं नगरं सम्भितरबाहिरियं० 'जाव-पञ्चप्पिणंति । तर णं से उदायणे राया दोञ्चं पि कोडंबियपुरिसे सहावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! केसिस्स कुमारस्स महत्थं ३-एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहरस कुमारस्स तहेव भाणियन्वो जाव-'परमाउं पालयादि, इटुजणसंपरिखुडे सिंधूसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीतीभयपामोक्खाणं तिन्नि तेसट्ठीणं नगरा-गरसयाणं महसेणपामोक्खाणं दसहं राईणं अन्नेसिं च बहूणं राईसर० जाव-कारेमाणे, पालेमाणे विहराहि'त्ति कटु जयजयसदं पउंजंति । तए णं से केसी कुमारे राया जाए, महया० जाव-विहरति । ७. तए णं से उदायणे राया केसि रायाणं आपुच्छइ । तए णं से केसी राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति-एवं जहा जमा. लिस्स तहेव सभितरवाहिरियं तहेव जाव-निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेति । तए णं से केसी राया अणेगगणणायग० जाव-संपखुिडे उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुद्दे निसीयावेति, निसीयावेत्ता अट्टसरणं सोधनियाणं० एवं जहा जमालिस्स जाव-एवं वयासी-'भण सामी ! किं देमो, किं पयच्छामो, किणा वा ते अट्ठो' ? तए णं से उदायणे राया केसि रायं एवं वयासी-'इच्छामि णं देवाणुप्पिया! कुत्तियावणाओ०'-एवं जहा जमालिस्स, नवरं पउमावती अग्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पयोगदूसहा । तए णं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेति, दो० २ रयावेत्ता, उदायणं रायं सेयापीतपहिं कलसेहिं० सेसं जहा जमालिस्स, जाव-सन्निसन्ने, तहेव अम्मधाती, नवरं पउमावती हंसलपखणं पडसाडगं गहाय सेसं तं चेव, जाव-सीयाओ पञ्चोरुभति, सी० २-मित्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते २-च्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति, उ. २-अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं तं चेव पउमावती पडिच्छति, जाव-'घडियवं सामी! जाव-नो पमादेयचंति कट्टु केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता, नमंसित्ता जाव-पडिगया । तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्टियं लोयं० सेसं जहा उसभदत्तस्स, जाव-सव्वदुषखप्पहीणे । कह्यु-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र वीतभय नगरने बहार अने अंदरथी साफ करावो'-इत्यादि यावत्-तेओ तेम करीने आज्ञा पाछी आपे छे. त्यारपछी ते उदायन राजाए बीजीवार कौटुंविक पुरुषोने बोलावीने आ प्रमाणे कर्दा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र केशीकुमारनो महाअर्थवाळो ३ विपुल राज्याभिषेक करो'. ए प्रमाणे जेम *शिवभद्रकुमारनो राज्याभिषेक कह्यो छे तेम अहिं 'दीर्घायुषी थाओ'-त्या सुधी कहेवो. हवे ते यावत्-इष्टजनथी परिवृत थइ सिंधूसौवीर प्रमुख सोळ देशो, वीतभय प्रमुख त्रणसो त्रेसठ नगरो अने खाणोनु तथा महासेन प्रमुख दश राजाओ, अन्य बीजा घणा राजा अने युवराज वगेरेनु स्वामिपणुं यावत्-करतो, पालन करतो विहर' एम कही 'जय जय' शब्द बोले छे. त्यारे ते केशीकुमार राजा थयो अने ते मोटा हिमवान् पर्वतना जेवो-इत्यादि वर्णन जाणवं, यावद्-ते विहरे छे. ७. त्यारबाद उदायन राजा केशी राजा पासे दीक्षा लेवानी] रजा मागे छे, स्यार पछी ते केशीराजा कौटंबिक पुरुषोने बोलावे छइत्यादि जिम जमालि संबन्धे कयुं छे तेम नगरनी बहार अने अंदर साफ करावो-इत्यादि यावद्-निष्क्रमणाभिषेक-दीक्षाभिषेक करे छे. त्यारपछी अनेक गणनायक वगेरेना परिवार युक्त ते केशी राजा उदायन राजाने उत्तम सिंहासन उपर पूर्वदिशा सन्मुख बेसाडीने एकसो आठ सोनाना कलशो वडे अभिषेक करे छे-इत्यादि जेम जिमालि संबंधे कयुं छे तेम कहे, यावत्-ते केशी राजाए ए प्रमाणे कह्यु के-'हे स्वामिन् ! अमे शुं दइए, अमे शुं आपीए, अने तमारे शेर्नु प्रयोजन छे ? पछी ते उदायन राजाए केशी राजाने ए प्रमाणे कह्यु-'हे देवानुप्रिय! कुत्रिकापणथी [हुं एक रजोहरण अने एक पात्र] मंगाववा इच्छु छु.-इत्यादि जेम जमालि संबन्धे कथु तेम अहिं जाणवू. परन्तु एटलो विशेष छे के जेने प्रियनो वियोग दुःसह छे एवी पद्मावती अग्रकेशोने ग्रहण करे छे. त्यार बाद केशी राजा बीजीवार पण उत्तर दिशा तरफ सिंहासन गोठवावीने उदायन राजानो श्वेत अने पीत (सोना--रुपाना ) कळशो वडे अभिषेक करे छे. बाकी बधुं जमालिनी पेठे जाणवं, यावत्-ते शिबिकामां बेठो. ते प्रमाणे धावमाता संबन्धे जाणवू, परंतु एटलो विशेष छे के अहिं पद्मावती हंसना चिह्नबाळा रेशभी पटने ग्रहण करी-इत्यादि बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू, यावत्-ते उदायन राजा शिविका थकी उतरीने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे, त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार वंदन अने नमस्कार करी उत्तर-पूर्व दिशा-ईशान कोण तरफ जईने पोते ज आगरण, माला अने अलंकारने मूके छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहे, यावत्-पद्मावती तेने ग्रहण करे छे, अने यावत्-तेि बोली के-] 'हे खामिन् ! संयमने विषे प्रयत्न करजो, यावत्-प्रमाद न करशो'-एम कही केशी राजा अने पद्मावती श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे. वंदन अने नमस्कार करीने तेओ पोताने स्थानके गया पछी उदायन राजा पोतानी मेळे पंच मुष्टिक लोच करे छे-बाकीर्नु वृतांत निषभदत्तनी पेठे जाणवू, यावत्-ते सर्व दुःखथी रहित थाय छे. ६*जुभो शिवभद्रकुमारना राज्याभिषेक संबंधे भग० सं० ३ श. ११३०९पृ. २२२. 1 जुओ-भग० सं० ३ श. १३०३३ पृ. १५३. जुओ-भग० सं० ३ ० ९ उ. ३३ पृ. १५३. उ.३३ प्र. १६५ जुओ-भग० खं०३ श. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२९ ८. तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव-समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भाइणिजं केसिकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव-पवइए'-इमेणं एयासवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरियालसंपरिखुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता पुवाणुपुश्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव कूणिए राया, तेणेव उवागच्छइ, ते २च्छित्ता कृणियं रायं उवसंपजित्ता णं विहरइ । तत्थ विणं से विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि होत्था । तए णं से अभीयीकुमारे समणोवासए यावि होत्था, अभिगय जाव-विहरइ, उदायणमि रायरिसिमि समणुबद्धवरे यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोसटैि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता । तए णं से अभीयीकुमारे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेएत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिकंते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोयट्ठीए आयावा० जाव-सहस्सेसु अन्नयरंसि आयावाअसुरकुमारावासंसि आतावाअसुरकुमारदेवत्ताए उववन्नो । तत्थ णं अत्थेगइयाणं आयावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, तत्थ णं अभीयिस्स वि देवस्स एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। [प्र.] से णं भंते ! अभीयीदेवे ताओ देवलोगाओ आउफ्खएणं ३ अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? [उ.] गोयमा! महाविदेहे वासे सिझिहिति, जाव-अंतं काहिति । 'सेवं भंते! सेवं भंते ! ति । तेरसमसए छट्ठो उद्देसो समत्तो। ८. त्यार पछी अन्य कोई दिवसे अभीचिकुमारने मध्यरात्रिने समये कुटुंबजागरण करता आवा प्रकारनो आ विचार उत्पन्न थयो'ए प्रमाणे खरेखर हुँ उदायन राजानो पुत्र अने प्रभादेवीनी कुक्षिथी उत्पन्न थयो छु, अने ते उदायन राजाए मने छोडी पोताना भाणेज केशिकमारने राज्य उपर बेसाडी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे यावत्-प्रव्रज्या लीधी' आवा प्रकारना आ मोटा अप्रीतिरूप मानसिक आंतर दुःखथी पीडित थएलो ते अभीचिकुमार पोताना अंतःपुरना परिवारसहित पोतानुं भांडमात्रोपकरण-पात्र वगेरे सामग्री लईने नीकळे छे, नीकळी अनुक्रमे जतां-एक गामथी बीजे गाम जतां ज्यां चंपा नगरी छे, अने ज्यां कणिक राजा छे त्यां आवी कूणिकनो आश्रय करी विहरे छे. अने त्यां पण तेने विपुल भोगनी सामग्री प्राप्त थई. पछी ते अभीचिकुमार श्रावक पण थयो, अने जीवाजीवतत्त्वनो ज्ञाता थइ यावत्-विहरे छे, तो पण ते अभीचिकुमार उदायन राजर्षिने विषे वैरना अनुबन्धथी युक्त हतो. ते काले, ते समये आ रत्नप्रभा पृथिवीना नी पासे चोसठ लाख असुरकुमारोना आवासो कह्या छे, हवे ते अभीचिकुमार घणा वर्षों सुधी श्रमणोपासक पर्यायने पाळी अर्ध मासिक संलेखनाथी त्रीश भक्तो अनशनपणे व्यतीत करी, ते पाप स्थानकनी आलोचना अने प्रतिक्रमण कर्या सिवाय मरणसमये काळधर्म पामी आ रत्नप्रभा पृथिवीना नरकावासोनी पासे चोसठ लाख आयाव (आताप-प्रकाशरूप ) असुरकुमारावासोमांना कोइ एक आयावरूप असुरकुमारावासमां आतावरूप असुरकुमार देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाक आयावरूप असुरकुमार देवोनी एक पल्योपम स्थिति कही छे, भने त्यां अभीचिदेवनी पण एक पल्योपमनी स्थिति कही छे. प्र०] हे भगवन् ! ते अभीचिदेव आयुःक्षय थया पछी तथा भ थया पछी मरण पामी क्या जशे-क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम! महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्ध थशे, यावत्-सर्व दुःखोनो अंत करशे. "हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही भगवान् गौतम यावत्-विहरे छे. त्रयोदश शते षष्ठ उद्देशक समाप्त Jain Education international ४३भ० स० Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं पयासी-आया भंते ! भासा, अन्ना भासा ! [उ०] गोयमा ! नो आया भासा, अन्ना मासा।. २. [प्र०] रूवि भंते ! भासा, अरुवि भासा ? [उ०] गोयमा ! रुवि भासा, नो अरूवि भासा । ३. [प्र०] सश्चित्ता भंते ! भासा, अचित्ता भासा ? [उ०] गोयमा ! नो सञ्चित्ता भासा, अचित्ता भासा । ४. [प्र०] जीवा भंते ! भासा, अजीवा भासा ? [उ०] गोयमा! नो जीवा भासा, अजीवा भासा । ५. [प्र०] जीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा ! [उ०] गोयमा ! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा । ६. [प्र०] पुचि भंते ! भासा, भासिजमाणी भासा, भासासमयवीतिकता भासा ? [उ०] गोयमा! नो पुष्विं मासा, भासिजमाणी भासा, जो भासासमयवीतिकता भासा । . ७. [प्र०] पुचि भंते ! भासा भिज्जति, भासिजमाणी भासा मिजति, भासासमयवीतिकता भासा मिजति ! [उ०] गोयमा! नो पुyि मासा भिजति, भासिजमाणी भासा मिजा, नो भासासमयवीतिकता भासा भिजति । भाषा आत्मस्वरूप सप्तम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! "भाषा ए आत्मा-जीवखरूप ले के तेथी , अन्य छे! [उ०] हे गौतम ! भाषा ए आत्मा नथी, पण तेथी अन्य (पुद्गलखरूप) भाषा छे. रूपी के अरूपी २. [प्र०] हे भगवन् ! भाषा रूपी-रूपवाळी छे के अरूपी-रूप विनानी छ ? [उ०] हे गौतम! भाषा (पुद्गलमय होवाथी) रूपी छे, पण रूप विनानी नथी. सचित्त के अचित्त ३.प्र०] हे भगवन् ! भाषा सचित्त-सजीव छे के अचित्त-अजीव छ ? [उ०] हे गौतम ! भाषा सचित्त नथी, पण अचित्त छे. श्रीवस्वरूप के भजी- ४. [प्र०] हे भगवन् ! भाषा जीवरूप-प्राणधारणरूप छे के अजीवस्वरूप छे ? [उ०] हे गौतम ! भाषा जीवरूप नथी, पण वस्वरूप अजीवरूप छे. जीवोने भाषा के . ५. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने भाषा होय छे के अजीवोने भाषा होय छे ? [उ०] हे गौतम! जीवोने भाषा होय छे, पण अजी अजीवोने भाषा बोने भाषा नथी होती. भाषा क्यारे कहेवायो ६. प्र०] हे भगवन् ! शुं बोलाया] पूर्वे भाषा कहेवाय, बोलाती होय त्यारे भाषा कहेवाय, के बोलाया पछी भाषा कहेवाय । [उ.] हे गौतम! बोलाया पहेला भाषा न कहेवाय, तेमज बोलाया पछी पण भाषा न कहेवाय, पण बोलाती होय त्यारे भाषा कहेवाय. भाषा क्यारे मेदाय? ७. [प्र०] हे भगवन् ! शुं बोलाया पहेला भाषा मेदाय, बोलाती भाषा मेदाय, के बोलाया पछी भाषा मेदाय ! [उ०] हे गौतम ! बोलाया पहेला भाषा न भेदाय, तेमज बोलाया पछी भाषा न मैदाय, पण बोलाती होय त्यारे भाषा मेदाय. १*जीवथी प्रयोजाय छे, जीवना बन्ध अने मोक्षर्नु कारण थाय छे माटे जीवनो धर्म होवाथी भाषा 'आत्मा-जीव'-एम कही शकाय 1 अथवा भाषा जीवखरूप नथी-एम पण कहेवाय ! केमके ते श्रोत्रेन्द्रियप्राय होवाथी मूर्तपणावडे जीव करतां भिन्न छे, माटे शंकाथी आ प्रश्न थाय छे. उत्तर-भाषा पुद्गलमय होवाथी ते भात्मस्वरूप नथी.-टीका. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. .. ८. [प्र०] कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णता ? [उ०] गोयमा ! चउधिहा भासा पण्णत्ता, तंजहा-१ सच्चा, २ मोसा, ३ सञ्चामोसा, ४ असञ्चामोसा। .. ९. [प्र०] आया भंते ! मणे, अन्ने मणे ? [उ०] गोयमा ! नो आया मणे, अन्ने मणे । जहा भासा तहा मणे वि, जावनो अजीवाणं मणे। १०. [प्र०] पुष्विं भंते ! मणे, मणिजमाणे मणे? [उ.] एवं जहेव भासा । ११. [३०] पुष्विं भंते ! मणे भिजति, मणिजमाणे मणे भिजति, मणसमयवीतिकंते मणे भिजंति ? [उ०] एवं जहेव भासा। १२. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते? [उ०] गोयमा ! चउधिहे मणे. पन्नत्ते, तंजहा-१ सच्चे, जाय-४ असञ्चामोसे। १३. [प्र०] आया भंते ! काये, अन्ने काये ? [उ०] गोयमा ! आया वि काये, अन्ने वि काये । १४. प्र० रूवि भंते ! काये, अरूवि काये?-पुच्छा । [उ०] गोयमा! रूवि पि काये, अरूवि पि काए, एवं एकेके पुच्छा। गोयमा! सञ्चित्ते वि काये, अश्चित्ते वि काए । जीवे वि काए, अजीवे वि काए, जीवाण विकाए, अजीवाण विकाए। . १५. [प्र०] पुyि भंते ! काये ?-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पुyि पि काए, कायिजमाणे वि काए, कायसमयवीतिकतें वि काये। १६. [प्र०] पुyि भंते ! काये भिजति ?-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पुषि पि काए मिजति, जाव-काए भिजति । ८. [प्र०] हे भगवन् ! भाषा केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम ! भाषा चार प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ सल्य, भाषाना मकार. २ मृषा-असत्य, ३ सत्यमृषा-सत्य त्यने असत्य मिश्र, अंने ४ असल्यामृषा-सत्य पण नहि तेम असत्य पण नहि. ९. [प्र०] मन ए आत्मा छ, के तेथी अन्य मन छ ? [उ०] हे गौतम ! मन ए आत्मा नथी, पण मन अन्य छे–इत्यादि जेम भाषा .. मन. संबन्धे का, तेम मनसंबन्धे पण जाणवू, यावत्-अजीवोने मन नथी. मन भात्मा छे के तेषी भन्य छ। १०. [प्र०] हे भगवन् ! [मनननी] पूर्वे मन होय, मनन समये मन होय, के मननसमय वील्या पछी मन होय ! [उ०] जेम मन क्यारे होय? भाषासंबन्धे कयुं तेम जाणवू. ११. [प्र०] हे भगवन् ! मनननी पूर्वे मन मैदाय, मननसमये मन भेदाय, के मननसमय वीत्या पछी मन मेंदाय ! [उ०] जेम मन क्यारे मेदाय? भाषासंबन्धे कयु छे तेम अहिं जाणवू. १२. प्रि०] हे भगवन् ! मन केटला प्रकारचें कयुं छे[उ०] हे गौतम ! मन चार प्रकारचं कडं छे, ते आ प्रमाणे-१ सल्य, मनना प्रकार. २ असत्य, [३ मिश्र] यावत्-४ असल्यामृषा-सत्य पण नहि अने असत्य पण नहि. १३. [प्र०] हे भगवन् ! काय-शरीर आत्मा छे के तेथी अन्य-आत्माथी *भिन्न-काय छे ! [उ०] हे गौतम ! काय आत्मा पण काय आत्मा के के छे, अने आत्माथी मिन्न पण काय छे. तेथी अन्य। १४. [प्र०] हे भगवन् ! काय रूपी छे के अरूपी छे ! [उ०] हे गौतम! काय रूपी पण छे अने काय अरूपी पण छे. ए रूपी के अरूपी ? प्रमाणे पूर्ववत् एक एक प्रश्न करवो. हे गौतम! काय सचित्त पण छे अने अचित्त पण छे, काय जीवरूप पण छे भने अजीवरूप पण छे, तथा काय जीवोने होय छे, तेम अजीवोने पण होय छे १५. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वे काय होय?-इत्यादि पूर्ववत् ] प्रश्न. उ०] हे गौतम! काय-शरीर [जीवनो संबन्ध थया] पूर्वे पण काय क्यारे होय? होय, चीयमान-पुद्गलोना ग्रहण समये पण काय होय, अने कायसमय-पुद्गल ग्रहण समय वील्या पछी. पण काय होय. १६. [प्र०] हे भगवन्! काय [जीवे ग्रहण कर्या] पूर्वे भेदाय !-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पूर्वे पण काय भेदाय, यावत्- काय क्यारे भेदाय ? पुद्गल ग्रहण समय वीत्या बाद] पण यावत्-भेदाय. . १३* काय-आत्मखरूप छे, केमके काये करेला कर्मनो अनुभव आत्माने थाय छ, अथवा काय आत्माथी मिन्न छ, केमके कायना एक अंशनो छेद थवा छतां पण आत्मानो छेद थतो नथी, माटे आ प्रश्न उपस्थित थाय छे. उत्तर-कथंचितू काय आत्मखरूप पण छे, केमके शरीरने स्पर्श थता तेनो भात्माने अनुभव थाय छे, तेमज कथंचिंदू आत्माथी भिन्न पण छ, जो अत्यंत अभिन्न होय तो. शरीरनो नाश थता आत्मानो नाश पण थाय-टीका. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायना प्रकार. मरणना प्रकार. अवीचिकमरणना प्रकार. द्रव्यावीचिकमरणना प्रकार. क्षेत्राी चिकमरण. नारकक्षेत्राबी चिक मरण. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे - शतक १३ - उद्देशक ७. १७. [प्र०] कवि णं भंते ! काये पन्नत्ते ? [अ०] गोयमा ! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तंजहा - १ ओराले २ ओरालि - यमीसप, ३ वेधिए, ४ वेउचियमीसए, ५ आहारए, ६ आहारगमीसए, ७ कम्मए । १८. [प्र०] कतिविहे णं भंते ! मरणे पन्नत्ते ? [अ०] गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णत्ते, तंजद्दा- १ आवीचियमरणे, २ ओहिमरणे, ३ आदिंतियमरणे, ४ बालमरणे, ५ पंडियमरणे । २३२ १९. [०] आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [30] गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा -१ दवावीचियमरणे, २ खेत्तावीचियमरणे, ३ कालावीचियमरणे, ४ भवावीचियमरणे, ५ भावावीचियमरणे । २०. [ प्र० ] दवावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! चउष्विहे पण्णत्ते, तंजहा -१ नेरइयदवावीचियमरणे, २ तिरिक्खजोणियदधावीचियमरणे, ३ मणुस्सदष्वावीचियमरणे, ४ देवदधावीचियमरणे । [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'नेरइयदवावीचियमरणे नेरइयदवावीचियमरणे' ? [अ०] गोयमा ! जण्णं नेरद्दया नेरद्दए दधे वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई, बद्धाई, पुट्ठाई, कडाई, पट्टवियाई, निविट्ठाई, अभिनिविट्ठाई, अभिसमन्नागयाइं भवंति ताई दवाई आवीचीयमणुसमयं निरंतरं मरंति न्ति कट्टु से तेणटुणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - 'नेरइयदधावीचियमरणे, एवं जावं - देवदशावीचियमरणे । २१. [ प्र० ] खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [अ०] गोयमा ! चउष्विहे पण्णत्ते, तंजहा-१ 'नेरइयखेत्तावीचियमरणे, जाव - ४ देवखेत्तावीचियमरणे' । २२. [प्र०] से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ - 'नेरइयखेत्तावीचियमरणे नेर० २ १ [अ०] गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइयखेत्ते वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए० एवं जहेव दवावीचियमरणे तदेव खेत्तावीचियमरणे वि । एवं जाव-भावावीचियमरणे । 1 १७. [प्र० ] हे भगवन् ! काय केटला प्रकारे कहेल छे ? [उ०] हे गौतम! काय सात प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे१ औदारिक, २ औदारिकमिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रियमिश्र, ५ आहारक, ६ आहारकमिश्र, ७ कार्मण. २०. [प्र० ] हे भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण केटला प्रकारे कयुं छे ? [ उ०] हे गौतम! चार प्रकारे कह्युं छे, ते आ प्रमाणे- १ नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण, २ तिर्यंचयोनिकद्रव्यावीचिकमरण, ३ मनुष्यद्रव्यावीचिकमरण अने ४ देवद्रव्यावीचिकमरण. [प्र०] हे भगनैरयिकद्रव्याबीचिक वन् ! एम शा हेतुथी नैरयिकद्रव्यावीचिकमरणने नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण कहो छो ? [उ०] हे गौतम! नारकजीवपणे वर्तता नारकोए जे मरण. द्रव्योने नैरयिक आयुषपणे [स्पर्शथकी] ग्रह्मां छे, [बंधनथी] बांधेलां छे, [ प्रदेशथी] पुष्ट कर्या छे, [विशिष्टरसथी ] करेलां छे, [स्थितिवडे ] प्रस्थापित कर्यां छे, [जीवप्रदेशोमां] निविष्ट-प्रवेशेलां छे, अभिनिविशिष्ट - अत्यंत गाढ प्रवेशेला छे, अने अभिसमन्वागत - उदयाभिमुख थयेलां छे, ते द्रव्योने आवीचिक - निरंतर प्रतिसमय मरे छे-छोडे छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम! नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण नैरयिकद्रव्या-वीचिकमरण कहेवाय छे. ए प्रमाणे [ तिर्यंचयोनिकद्रव्यावीचिकमरण, मनुष्यद्रव्यावीचिकमरण अने] यावत् - देवद्रव्यावीचिकमरण जाणवुं. १८. [प्र०] हे भगवन्! मरण केटला प्रकारे कह्युं छे ? [30] हे गौतम! मरण पांच प्रकारनुं कह्युं छे, ते आ प्रमाणे - १ * आवीचिकमरण, २ अवधिमरण, ३ आत्यंतिकमरण, ४ बालमरण, ५ पंडितमरण. १९. [प्र०] हे भगवन् ! आवीचिकमरण केटला प्रकारे कह्युं छे ? [उ०] हे गौतम ! आवीचिकमरण पांच प्रकारे कयुं छे, ते आ. प्रमाणे - १ द्रव्यावीचिकमरण, २ क्षेत्रावीचिकमरण, ३ कालावीचिकमरण, ४ भवावीचिकमरण, अने ५ भावावीचिकमरण. २१. [प्र०] हे भगवन्! क्षेत्रावीचिकमरण केटला प्रकारे कह्युं छे ? [उ०] हे गौतम! चार प्रकारे कह्युं छे, ते आ प्रमाणे - नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण, २ तिर्यंचयोनिक क्षेत्रावीचिकमरण, यावत्-४ देवक्षेत्रावीचिकमरण. २२. [प्र० ] हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे शा हेतुथी नारकक्षेत्रावीचिकमरण नारकक्षेत्रावीचिकमरण कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! नारकक्षेत्रमां वर्तता नारक जीवोए जे द्रव्योने पोते नारकायुषपणे ग्रहण करेलां छे, अने तें [द्रव्योने प्रतिसमय निरंतर मूके छे] - इत्यादि द्रव्यावीचिकमरण संबंधे कहेलुं छे ते अहिं कहेतुं, ते माटे नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण कहेवाय छे। अने ए प्रमाणे यावत् - [कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण, तथा] भावावीचिकमरण पण जाणवुं. १८ * १ आसमन्तात्, वीचि तरंगनी पेठे प्रतिसमय अनुभवाता आयुषकर्म पुद्गलोनो अन्य अन्य आयुषना दलिकना उदय थवा साथै क्षय थवो ते आवीचिमरण; २ अवधि-मर्यादासहित मरण, अर्थात् नरकादि भवना हेतुभूत जे वर्तमान आयुषकर्मना पुद्गलोनो अनुभव करीने मरण पाने, अने पुनः तेज आयुषकर्मना पुलोने आगामी भवमां ग्रहण करीने मरण पामशे ते अवधिमरण कहेवाय छे; कारण के ते द्रव्यनी अपेक्षाए पुनः ते पुद्गलोने ग्रहण करे त्यां सुधी जीव मरण पामेलो छे, वळी परिणामना विचित्रपणाथी ग्रहण करीने छोडेला पुद्गलोनुं पुनः प्रहण पण संभवे छे; ३ जे नारकादिआयुषकर्मना दलिक भोगवी मरण पामे, अने मरण पामी वळी तेज आयुषकर्मना पुनलोनो अनुभव कर्या शिवाय मरण पामशे एवं जे मरण ते द्रव्यनी अपेक्षाए अत्यन्तभाषीपाथी आत्यन्तिकरण कहेवाय छे; ४ अविरतिनुं मरण ते बालमरण; ५ अने सर्वविरतिनुं मरण ते पंडितमरण कहेवाय छे. टीका. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३३ २३. [प्र०] ओहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-१ दधोहिमरणे; २ खेतोहिमरणे, जाद-५ भावोहिमरणे । २४. [प्र०] दधोहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-१ नेरदयदधोहिमरणे, जाव-४ देवदत्वोहिमरणे। २५. [प्र.] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयदधोहिमरणे २१ [३०] गोयमा! जण्णं नेरइया नेरइयंदचे वट्टमाणा जाई दवाई संपयं मरंति, तेणं नेरइया ताई दवाई अणागए काले पुणो वि मरिस्संति, से तेणटेणं गोयमा! जाव-दधोहिमरणे । एवं तिरिक्खजोणिय०, मणुस्स०, देवदघोहिमरणे वि। एवं एएणं गमेणं खेत्तोहिमरणे वि, कालोहिमरणे वि, भवोहिमरणे वि, भावोहिमरणे वि। ____२६. [प्र०] आदितियमरणे णं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ दवादितियमरणे, २ खेत्तादितियमरणे, जाव-५. भावादितियमरणे । २७. [प्र०] दधादिंतियमरणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! चउधिहे पन्नत्ते, तंजहा-१ नेरइयवधादितियमरणे, जाव-४ देवदयादितियमरणे । २८. [प्र०] से केणटेणं भंते एवं बुच्चइ-'नेरइयदधादितियमरणे नेर० २.१ [उ०] गोयमा ! जणं नेहया नेरइयदधे वट्टमाणा जाई दवाई संपयं मरंति, तेणं नेरइया ताई दवाई अणागए काले नो पुणो वि मरिस्संति, से तेणट्रेणं जाव-मरणे । एवं तिरिक्ख०, मणुस्स०, देवाइंतियमरणे, एवं खेत्ताइंतियमरणे वि, एवं जाव-भावाइंतियमरणे वि। २९. [प्र०] बालमरणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुवालसविहे पन्नत्ते, तंजहा-१ वलयमरणं, जहा खंदए, जाव-१२ गद्धपढे। २३. [प्र०] हे भगवन् ! अवधिमरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम! पांच प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्याव- अवधिमरण. धिमरण, २ क्षेत्रावधिमरण, [३ कालावधिमरण, ४ भवावधिमरण] यावत्-अने ५ भावावधिमरण. २४. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यावधिमरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारे कयुं छे. ते आ प्रमाणे-१ नैर- द्रव्यावधिमरण. यिकद्रव्यावधिमरण, २ यावत्-तिर्यश्चयोनिकद्रव्यावधिमरण, ३ मनुष्यद्रव्यावधिमरण] अने ४ देवव्यावधिमरण. २५. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकद्रव्यावधिमरण शा माटे कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! नारकपणे वर्तता नारक जीवो जे द्रव्योने नैरयिकदम्यावधिमसांप्रत काले मूके छे, अने वळी ते नारको थइने तेज द्रव्योने भविष्यकाळे फरीथी [ग्रहण करीने] पण छोडशे, ते माटे हे गौतम ! नैरयिक रण द्रव्यावधिमरण कहेवाय छे. ए प्रमाणे तिर्यंचयोनिकद्रव्यावधिमरण, मनुष्यद्रव्यावधिमरण अने देवव्यावधिमरण पण जाणवं. तथा ए पाठ वडे क्षेत्रावधिमरण, कालावधिमरण, भवावधिमरण अने भावावधिमरण जाणवु. २६. [प्र०] हे भगवन् ! आत्यंतिकमरण केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ भात्यन्तिक मरण. द्रव्यात्यंतिकमरण, २ क्षेत्रासंतिकमरण, यावत्-५ भावात्यंतिकमरण. पाय । २७. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यायन्तिकमरण केटला प्रकारे कर्तुं छे ? [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ वष्यात्यन्तिकमरण. नैरयिकद्रव्यात्यन्तिकमरण, अने यावत्-४ देवव्यात्यंतिकमरण... २८. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी नैरयिकद्रव्यात्यंतिकमरण' २ कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! नारकपणे वर्तता जे नारक जीवो . नैरयिकद्रव्यात्यन्तिजे द्रव्योने सांप्रत काळे छोडे छे, ते नैरयिको ते द्रव्योने भविष्यकाले फरी वार नहि छोडे, हे गौतम! ते हेतुथी 'नैरयिकद्रव्यात्यंतिकमरण' कम २ कहेवाय छे. ए प्रमाणे तिर्यंचयोनिकद्रव्यात्यंतिकमरण, मनुष्यद्रव्यात्यन्तिकमरण, अने देवद्रव्यात्यन्तिकमरण पण जाणवू, तथा ए प्रमाणे क्षेत्रात्यन्तिकमरण, यावत्--कालात्यंतिकमरण, भवात्यंतिकमरण अने] भावासंतिकमरण जाणवू. २९. [प्र०] हे भगवन् ! बालमरण केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम! बार प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ "वलय- पालमरणना प्रकार. मरण,-इत्यादि स्किन्दकना अधिकारमा कह्या प्रमाणे यावत्-१२ गृध्रस्पृष्टमरण जाणवू. २९१वलयमरण-अत्यन्त क्षुधाथी वलवलता मरण पामवं, अथवा संयमथी भ्रष्ट थयेलानुं मरण ते वलन्मरण के वलयमरण कहेवाय छ, १२ गृास्पृष्ट मरण-गीध पक्षीओए अथवा शिकारी पशुओए स्पृष्ट-विदारण करवाथी जे मरण थाय ते. जुओ भग• खं०१० २०१पृ. २३५. For Private & Personal use only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ रायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ७. ३०. [प्र०] पंडियमरणे. गं भंते ! काविहे पण्णत्ते? [उ०] गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-१ पाभोवगमणे य २ भत्तपञ्चक्खाणे य। ३१. [प्र०] पाओवगमणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-णीहारिमे य. अनीहारिमे य, जाव-नियमं अपडिकम्मे। ३२. [प्र०] भत्तपध्यक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] एवं तं चेवं, नवरं नियम सपडिकम्मे । 'सेवं भते ! सेवं भंते ति। तेरसमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो। पंडितमरण. ३०. [प्र०] हे भगवन् ! पंडितमरण केटला प्रकारे कडुं छे ! [उ०] हे गौतम! बे प्रकारे कयुं छे, ते आ प्रमाणे-१ पादपोपगमन (पडेला पादप-वृक्षनी पेठे हाल्या चाल्या शिवाय एकज स्थितिमा उपगमन-रहे, ), २ भक्तप्रत्याख्यान (आहार पाणिनो त्याग करवो ). पादपोपगमन. ३१. [प्र०] हे भगवन् ! पादपोपगंमन मरण केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम! वे प्रकारचं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे१ निर्झरिम (वसतिना एक भागमां पादपोपगमन कराय के ज्यांथी मृत कलेवरने बहार काढवू पडे ते नियरिम पादपोपगमन) २ अनि रिम (पर्वतनी गुफामां के तेवा बीजा स्थळे पादपोपगमन करे के ज्यांथी तेनुं मृत कलेवर बहार न काढवू पडे ते) यावत्-आ बने प्रकारर्नु पादपोप गमन मरण अवश्य अप्रतिकर्म (शरीरसंस्काररहित ) होय छे. भक्तप्रत्यास्थान. . ३२. [प्र०] हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यानरूप मरण केटला प्रकारे कयुं छे ! [उ०] ए प्रमाणे पूर्व कह्या प्रमाणे तेना (निर्हारिम अने अनि रिम ए बे मेद जाणवा) पण विशेष ए छे के आ बन्ने प्रकार- भक्तप्रत्याख्यानरूप मरण अवश्य सप्रतिकर्म-शरीरसंस्कारसहित होयः छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही विहरे छे. त्रयोदशशते सप्तम उद्देशक समाप्त Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो। १. [प्र०] कति णं भंते ! कम्मपगंडीओ पण्णताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णतामओ, एवं बंधविरउद्देसो भाणियो निरवसेसो जहा. पनवणाए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! ति। तेरसमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो। अष्टम उद्देशक. कर्मप्रकृति. १. [प्र०] हे भगवन् ! कर्मनी केटली प्रकृतिओ कही छे? [उ०] हे गौतम ! कर्मनी आठ प्रकृतिओ कही छे, अहिं प्रज्ञापना सत्रनो *बंधस्थिति नामे संपूर्ण उद्देशक कद्देवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एम कही यावत्-विहरे छे. त्रयोदशशतें अष्टम उद्देशक समाप्तः नवमो उद्देसो। , १. रायगिहे जाव-एवं वयासी-[प्र०] से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडिय गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि मावियप्पा केयाघडियाकिञ्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उर्ल्ड वेहासं उप्परजा[उ०] गोयमा! हंता, उप्परजा । २. [३०] अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाहत्यकिञ्चगयाई रूवाई विउवित्तए ? [उ०] गोयमा! से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे-एवं जहा तइयसए पंचमुद्देसए जाव-'नो चेव णं संपत्तीए विउधिसु वा विउचिंति वा विउविस्संति वा'। नवम उद्देशक. १. [प्र०] राजगृहमा [भगवान् गौतम] यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन्! जेम कोइ एक पुरुष दोरडाथी बांधेली घटिकाने क्रियशक्तिभी कोई दोरडाची बांधली लइने गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा साधु दोरडाथी बांधेली घटिकाचें कार्य हस्तगत करी [वैक्रियलब्धिथी एबुं रूप धारण करी] पोते पटिका लेने पवा ऊंचे आकाशमा उडे ? [उ०] हा गौतम! उडे.. रूपे गमन करे। ___ . २. [प्र०] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार दोरडाथी बांधेली घटिकाने हाथमां धारण करवारूप केटला रूपो विकुर्वी शकवाने फेटका रूपो विकुवी समर्थ होय! [उ०] हे गौतम! 'जेम कोइ एक युवान पुरुष युवति स्त्रीने हाथ वडे आलिंगे'-इत्यादि ए प्रकारे तृितीयशतकना पांचमा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-संप्राप्ति (संपादन) करवावडे तेवां रूपो विकुळ नथी, विकुर्वता नथी अने विकुर्वशे पण नहि. * प्रज्ञा० पद २४ ५० ४९१-२. २ । भग० श. ३ उ० ५.१० १९०-१. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १३.-उद्देशक ९. ३. [प्र०] से जहानामए केइ पुरिसे हिरन्नपेलं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं० १ [उ०] सेसं तं चेव, एवं सुवन्नपेलं, एवं रयणपेलं, वहरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं, एवं वियलकिइं, सुंबकिहूं, चम्मकिइं, कंवलकिइं, एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरनभारं, सुवन्नभारं, वहरभारं । ४. [प्र०] से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया २ उहृपादा अहोसिरा चिट्टेजा; एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वग्गुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उर्दु वेहासं०? [उ०] एवं जन्नोवइयवत्तधया भाणियचा, जाव-विउधिस्संति वा । ५. [प्र०] से जहानामए जलोया सिया, उदगंसि कायं उचिहिया २ गच्छेज्जा, एवामेव० [उ०] सेसं जहा वग्गुलीए। ६. [प्र०] से जहाणामए वीर्यवीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे २ गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे० ? [उ०] सेसं तं चेव । ____७. [प्र०] से जहाणामए पविखविरालए सिया, रुक्खाओ रुपखं डेवेमाणे २ गच्छेजा, एवामेव अणगारे० १ [उ०] सेसं तं चेव। ८. [प्र०] से जहानामए जीवंजीवगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे २ गच्छेजा, एवामेव अणगारे० १ [उ०] सेसं तं चेव । ९. [प्र०] से जहाणामए हंसे सिया, तीराओ तीरं अभिरममाणे २ गच्छेजा, एवामेव अणगारे हंसकिञ्चगएणं अप्पागेणं० [उ०] तं चेव । १०. [प्र०] से जहानामए समुद्दवायसए सिया, वीईओ वीई डेवेमाणे २ गच्छेजा, एवामेव० ? [उ०] तहेव । हिरण्यनी पेटी लेइने गमन करे। ३. [प्र०] जेम कोइ एक पुरुष हिरण्यनी पेटीने लइने गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण हिरण्यनी पेटीना कृत्यने हस्तगत करी (एवं रूप विकुर्वी) पोते गगनमा उडे ! [उ०] बाकी बधुं पूर्ववत् जाणवू. ए प्रकारे सुवर्णनी पेटी, रत्ननी पेटी, वज्रनी पेटी, वस्त्रनी पेटी अने घरेणांनी पेटीने लइने [आकाशमां गमन करे !] ए प्रमाणे विदलकट-बांसनी सादडी, शुंबकट-घासनी सादडी, चर्मकट, चामडाथी भरेल खाटली वगेरे, अने कांबळकट-पाथरवाना उनना कांबळा, तथा लोढाना भारने, तांबाना भारने, कलइना भारने, सीसाना भारने, हिरण्यना-रूपाना भारने, सुवर्णना भारने अने वज्रना भारने लइने पण गमन करे. बडवागुलीनी पेठे गमन करे। १. [प्र०] हे भगवन् ! जेम कोइ एक वडवागुली होय अने ते पोताना बन्ने पग [वृक्षादिक साथे] उंचा लटकावी, उंचा पग अने माथु नीचे राखीने रहे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण वागुलीना कृत्यने प्राप्त थयेलो [अर्थात् वागुलीनी पेठे] पोते आकाशमा उंचे उडे ! [उ०] हा, उडे. एज प्रमाणे यज्ञोपवीतनी (जनोइनी) वक्तव्यता पण कहेवी. [जेम कोइ ब्राह्मण गळामां जनोइ नाखी गमन करे तेम भावितात्मा अनगार तेवू रूप विकुर्वे-इत्यादि), परन्तु (संप्राप्तिवडे तेवां रूपो) विकुर्वशे नहि. जलौकानी पेठे. गमन करे? ५. [प्र०] हे भगवन् ! जेम कोइ एक जळो होय अने ते पोताना शरीरने पाणीमां प्रेरी प्रेरीने गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार तेवू रूप विकुर्वी आकाशमां गमन करे। [उ०] बाकी बधुं वागुलीनी पेठे जाणवू. बीजचीजक पक्षीनी पेठे गमन करे। ६.प्र०] हे भगवन् ! जेम कोइ एक बीजबीजक पक्षी होय, अने ते पोताना बन्ने पगने घोडानी पेठे साथै उपाडतुं गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार [तेवा आकारे आकाशमा उडे ? [उ०] हा, उडे.] बाकी बधु पूर्वनी पेठे जाणवू. ७. [प्र०] जेम कोइ एक बिलाडक नामे पक्षी होय, अने ते एक वृक्षथी बीजा वृक्षे जतुं, बीजा वृक्षथी त्रीजा वृक्षे जतुं गति करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार [तेवा आकारे गमन करे ? [उ०] हा गमन करे. बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. विडालक पक्षीनी पेठे गमन करे? जीवंजीवक पक्षीना नेम ममन करे। ८. [प्र०] जेम कोइ एक जीवंजीवक नामे पक्षी होय, अने ते पण पोताना बन्ने पगने घोडानी पेठे साथे उपाडतुं गति करे, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पोते तेवा आकारे आकाशमा उडे ? [उ०] बाकी बर्षा पूर्व पेठे जाणवू. हंस पेठे गति करे ? ९. [प्र०] जेम कोइ एक हंस होय अने ते आ कांठेथी बीजे काठे रमतो रमतो गति करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण हंस कृत्यने प्राप्त करी पोते गगनमा हिंसने आकारे उडे !] [उ.] पूर्ववत् जाणवू. समुद्रवायसना भा. कारे गति करे! १०. [प्र०] जेम कोइ एक समुद्रवायस (समुद्रनो कागडो) होय, अने ते एक तरंगथी वीजा तरंगे जतो गति करे, ए प्रमाणे [भावितात्मा साधु पोते एवा आकारे गगनमा गति करे!] [उ०] ते प्रमाणे जाणवु. . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ - उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११. [प्र०] से जहानामय केर पुरिसे पकं गदाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भाविपप्पा वदत्यकिश्चपणं अप्पा ० १ [30] से जहा केयाघडियाए, एवं छत्तं, एवं चमरं । 1 १२. [प्र० ] से जहानामए केद्र पुरिसे रयणं गद्वाय गच्छेजा, एवं चेय, एवं बरं, बेरुलिवं जाव-रिहं एवं उप्पलहृस्थगं, पउमहत्थगं, कुमुदहत्थगं, एवं जाव-से जहानामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं महाय गच्छेजा ० ? [उ०] एवं चैव १३. [प्र०] से जहानामय केइ पुरिसे भिसं अवद्दालिय २ गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भिसकिञ्चगपणं अप्पाणेणं ०१ [30] तं चैव । १४. [प्र०] से जहानामए मुणालिया सिया, उदगंसि कायं उम्मजिय २ चिट्टिज्जा, एवामेव० १ [30] सेसं जहा वग्गुलीए । १५. [प्र० ] से जहानामए वणसंडे सिया, किण्हे, किण्होभासे, जाव - निकुरंबभूए, पासादीए ४, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वणसंगिए अप्पानं उहं बेहासं उप्पारक्षा ? [30] सेसं तं चैव । १६. [२०] से जहानाम पुक्खरणी सिया, चउकोणा, समतीरा, अणुपुत्रसुजाय० जाव सदुखदयमदुरसरणादिया पासादीया ४ पामेव अपगारे वि भावियया पोक्खरणीकिचगणं अप्यानेणं उहं वेदासं उप्परना ? [४०] हंता उप्परना। १७. [प्र० ] अगगारे णं भंते! भावियच्या केवतियाई पभू पोक्सरणीकियागयाई रुचाई विउचित [३०] से तं चैव जाव- विउविस्संति वा । १८. [अ०] से भंते । किं माषी विउयति, अमावी विष्ठति ? [४०] गोषमा ! मायी विश्वर, जो अमावी विउवा । मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोदय एवं जहा तहयसर उत्देसर जाप अत्थि तस्स आराहणा' 'सेवं भंते! सेवं भंते!'ति विरह । तेरसमसए नवमो उद्देसो समतो ११. [प्र० ] जेम कोइ एक पुरुष चकने उइने गति करे, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पोते चकल्पने हस्तगत करीने [एवा आकारे आकाशमां उडे ? ] [ उ०] बाकी बधुं पूर्वे कहेली दोरडाथी बांधेल घटिकानी पेठे ( सू० १) जाणवुं. एज प्रमाणे छत्र तथा चामरने लइने गमन करे. १२ [प्र०) जैम को एक पुरुष रहने लड़ने गमन करे, ए प्रमाणे यत्र, बैहुर्ग यावत् रिष्ट (श्यामरन), ए प्रमाणे उत्पादने हस्तगत करी, पद्मने हस्तगत करी, ए प्रमाणे यावत्- कोइ एक पुरुष सहस्रपत्रने लइने गति करे, तेम भावितात्मा अनगार पोते एवा आकारे आकाशमां गति करे ? [उ०] ए प्रमाणे जाणवुं. १३. [प्र० ] हे भगवन् ! जेम कोइ एक पुरुष बिसनी - कमळनी डांडलीने तोडी तोडीने गति करे, ते प्रमाणे अनगार पण पोते बिसकृत्यने प्राप्त करी - [ एवा प्रकारे ] पोते गगनमां गमन करे ? [30] पूर्ववत् जाणवुं. १४. [प्र० ] जेम कोइ एक मृणालिका-कमलनो छोड पाणीमां कायने - पोताना शरीरने डुबाडी डुबाडी [ मुख बहार राखी ] रहे, एप्रमाणे भावितात्मा अनगार पोते एवा आकारे गगनमां उडे ? [उ०] बाकी बधुं वागुलीनी पेठे जाणवुं. १५. [प्र०] जेम कोइ एक वनखंड होय, अने ते काळो, काळा प्रकाशवाळो, यावत् - मेघना समूहरूप, प्रसन्नता देनार अने [ दर्शनीय] होय, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पोते वनखंडना कृत्यने प्राप्त करी अर्थात् एवा आकारे पोते गगनमां उडे ? [30] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. १७. [१०] हे भगवन् । भावितात्मा अनगार पुष्करिणीना कृपने [उ०] बाकी पूर्व प्रमाणे जाणवुं, पण ते संप्राप्तिथी यावत् - विकुर्वशे नहि. १८. [अ०] हे भगवन्! [पूर्वोक्त रूपो] मायावाये विकुर्वे के मायारहित (अमगार) विकुर्वे (उ०) हे गौतम! मायावाको निकुर्वे पण मायारहित साधु न विकुर्वे. मायावाळो साधु विकुर्वणारूप प्रमाद स्थानकनी आलोचना अने प्रतिक्रमण कर्या शिवाय काळ करे - इत्यादि "तृतीय शतकाना चोगा उद्देशकमां का प्रमाणे आणवं, यावत्- 'तेने आराधना याय सेवां सुधी कहेतुं 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'- एम कही [भगवान् गौतम !] याबद्-विहरे छे. भग० सं० २ ० ३ उ० ४ पृ० ९२. ४३ भ० सू० त्रयोदशशते नवम उद्देशक समाप्त पुरुषनी जेम गति करे , १६. [प्र०] जेम कोइ एक पुष्करिणी बाब होय, अने ते चोखंडी, समान कांटावाळी जेने अनुक्रमे सुशोभित वप्रवंडी के रामाका एमी, पोपट वगैरे पक्षीओना मोटा शब्दवाळी, तेओना मधुर स्वरवादी अने प्रसन्नता आपनार होय, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पुष्करिणीना कृष्णने प्राप्त करी एवा आकारने विकुर्वी पोते आकाशमा उडे [उ०] हा उबे. आकाशर्मा गमन करे ? प्राप्त एवा आकारवाला केटां रूपो विकुर्ववाने समर्थ थाय! बेट रदस्त पुरषनी पेठे गति करे विस. बुलिका. भाषा बनखंड. के मात्रा रहित चिकुवें / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो। १. [प्र०] कति णं भंते ! छाउमत्थियसमुग्धाया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पन्नत्ता, तंजहा१ यणासमुग्याए, एवं छाउमत्थियसमुग्धाया नेयचा, जहा पन्नवणाए, जाव-आहारगसमुग्धायेति । 'सेवं मंते !.सेवं मंते!" त्ति जाव-विहरति । तेरसमसए दसमो उद्देसो समत्तो। तेरसमं सयं समत्तं । दशम उद्देशक समुद्रात. १. [प्र०]-हे भगवन् ! छानस्थिक समुद्घातो केटला कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! छानस्थिक छ समुद्घातो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ वेदनासमुद्घात-इत्यादि ए प्रमाणे छानस्थिक समुद्घातो *प्रज्ञापनासूत्रना समुद्घात पदमां कह्या प्रमाणे यावत्-आहारसमुद्घात सुधी जाणवा. हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही [भगवान् गौतम]यावद्-विहरे छे. त्रयोदशशते दशम उद्देशक समाप्त त्रयोदशशतक समाप्त. ..प्रज्ञा. पद ३६५.५५८ः . Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोदसमं सयं । १. १ र २ उम्माद ३ सरीरे ४ पोग्गल ५ अगणी तहा ६ किमाहारे । ७ संसि ८ मंतरे खलु ९ अणगारे १० केवली चैव ॥ पढमो उद्देसो । २. [प्र० ] रायगिछे जाव एवं वयासी- अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वीतिकंते, परमं देवावासमसंपत्ते, पत्थ णं अंतरा कालं करेजा, तस्स णं भंते ! कहिं गती, कहिं उववाप पनते १ [०] गोयमा ! जे से तत्थ परियसओ तल्लेसा देवावासा, तर्हि तस्स गई, तर्हि तस्स उववार पन्नते । से य तत्थ गए विराहेजा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपजित्ता णं विहरति । चतुर्दश शतक. १. [उद्देशक संग्रह - ] १ चरमशब्दसहित होवाथी चरमनामे प्रथम उद्देशक, २ उन्मादना अर्थनो प्रतिपादक होवाथी उन्मादनाम बीजो उद्देशक, ३ शरीरशब्दसहित होवाथी शरीरनामे त्रीजो उद्देशक, ४ पुद्गल - पुद्गलार्थं प्रतिपादित करवाथी पुद्गलनामे चोथो उद्देशक, ५ अग्निशब्दसहित होवाथी अग्निनामे पंचम उद्देशक, ६ किमाहार - ( कई दिशाना आहारवाळो होय छे ! ) ए प्रश्नयुक्त होवाथी किमाहारनामे षष्ठ उद्देशक, ७ *“चिरसंसिद्धो सि गोयमा' ! - आ पदमां आवेला संश्लिष्टशब्दसहित होवाथी सातमो संश्लिष्ट उद्देशक, ८ नरकपृथिवीना 'अन्तरने प्रतिपादन करवाथी आठमो अन्तर उद्देशक, ९ प्रारंभमां 'अनगार' - पद होवाथी नवमो अनगार उद्देशक, अने १० आरंभमा 'केवली' - ए पद होवाथी दशमो केवली उद्देशक - [ए प्रमाणे चौदमां शतकमां दश उद्देशको कहेवामां आवशे.] प्रथम उद्देशक. २. [प्र० ] राजगृह नगरमा [ भगवान् गौतम] यावद् - आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार (साधु) जेणे चरम - छेल्ला देवावासनुं उल्लंघन कर्तुं छे अने हजी परम-आगळना देवावासने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे ते काळ करे मरण पामे तो हे भगवन् ! तेनी: क्यां गति थाय अने तेनो क्यां उत्पाद थाय ? [ उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसायस्थानने विषे वर्तमान अनगार चरम - सौधर्मादिदेवलोकना आ छेडे वर्तमान देवावासनी स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायस्थानने ओळंगी गयो छे, अने परम-उपर रहेला सनत्कुमारादि देवलोकना स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे काळ करे तो ते क्यां उपजे ?] [उ०] हे गौतम! चरम देवावास अने परम देवावासनी पासे ते लेश्याबाळां देवावासो छे त्यां तेनी गति अने त्यां तेनो उत्पाद कहेलो छे. [सौधर्मादिदेवलोक अने सनत्कुमारादि देव - "लोकनी पासे ईशानादि देवलोकमां जे लेश्याए, साधु मरण पामे ते लेश्यावाळा देवावासोने विषे तेनी गति अने तेनो उत्पाद थाय छे.] ते साधु ज़इने पोतानी पूर्व लेश्याने विराधे-छोडे तो ते कर्मलेश्या – भावलेश्याथी पडे छे, अने जो ते त्यां जइने न विराधे तो तेज लेश्यानो आश्रय करी विहरे छे. हे गौतम! तुं लांबा काळथी [मारी साथे] संबन्धवाळो छे. २ + देव अने नारको द्रव्य लेश्याथी पडतां नथी, भावलेश्याथी पढे छे, कारण के तेने द्रव्यलेश्या अवस्थित होय छे. भावितात्मा अन गार जेणे चरम देवानासन उलं धन कर्तुं छे भने परम देवावासने प्राप्त भयो नयी ते मरीने क्या उपजे Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक १. ३. [प्र०] अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिकंते, परमं असुर० [उ०] एवं चेव, एवं जावथणियकुमारावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं, जाव-विहरति । ४.प्र० नेरइयाणं भंते! कह सीहा गती, कहं सीहे गतिविसर पण्णत्ते [उ.] गोयमा से जहानामए-केहपुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव-निउणसिप्पोवगए आउट्टियं बाहं पसारेजा, पसारियं वा बाहं आउंटेजा, विक्खिण्णं वा मुदि साहरेजा, साहरियं वा मुट्टि विक्खिरेजा, उन्निमिसियं वा अच्छि णिम्मिसेजा, निम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवे एयारूवे ? णो तिणढे समढे, नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति; नेरइयाणं गोयमा! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसर पण्णत्ते; एवं जाव-वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियो । सेसं तं चेव । ५. [प्र०) नेरइया णं भंते ! किं अणंतरोववन्नगा, परंपरोववन्नगा, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा ? [उ०] गोयमा ! नेरहया अणंतरोववन्नगा वि, परंपरोववनंगा वि, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव-अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि ? [उ०] गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोववनगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जेणं नेहया अपढम अमरकुमारावास. ३. [प्र०] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार चरम-आ तरफ छेल्ला असुरकुमारावासने ओळगी गयो छे अने परम असुरकुमारावासने प्राप्त थयो नथी, ते जो आ अवसरे मरण पामे तो ते क्या उपजे ? [उ०] ए प्रमाणे जाणवू. ए रीते यावत्-स्तनितकुमारावास, ज्योतिषिकावास अने वैमानिकावासपर्यन्त यावत्-विहरे छे' त्यां सुधी जाणवु. नारकोनी शीघ गति. ४. प्रि०] हे भगवन् ! नैरयिकोनी केवा प्रकारनी शीघ्र गति कही छे, अने तेओनो केवा प्रकारनी शीघ्र गतिनो विषय (समय) कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक पुरुष तरुण, बलिष्ट, युगवाळो (विशिष्ट बलवाळा सुषमादिकाळमां उत्पन्न थयेलो) अने यावत्निपुण शिल्पशास्त्रनो ज्ञाता होय; ते पोताना संकुचित हाथने (त्वराथी) पसारे अने पसारेला हाथने संकुचित करे, पसारेली मुठिने संकुचित करे, अने संकोचेली मुठीने पसारे-उघाडे, उघाडेली आंखने मींची दे अने मींचेली आंखने उघाडे, हे गौतम ! (नारकोनी ) आवा प्रकारनी-शीघ्रगति अथवा शीघ्र गतिनो विषय होय ? आ अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. नारको एक समयनी (ऋजुगतिवडे) अने बे समय के त्रण समयनी *विग्रहगतिवडे उत्पन्न थाय छे. हे गौतम! तेवा प्रकारे (एक समय, बे समय के त्रण समयनी) नैरयिकोनी शीघ्रगति अथवा शीघ्रगतिनो विषय कह्यो छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु विशेष ए छे के, एकेन्द्रियोने (उत्कृष्ट ) चार समयनी विग्रहगति कहेवी. बाकी (पृथिवीकायिकादि दंडकने विषे ) बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. माणपु. नारको अनन्तरो. पपन, परंपरोपप के मनन्तरपरपरानुपपत्र । ५. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको अनन्तरोपपन्न (जेओनी उत्पत्तिमा समयादिकनुं अन्तर नथी, अर्थात् नारकभवना प्रथम समये उत्पन्न धयेला एवा) , परंपरोपपन्न (जेओनी उत्पत्तिने बे-त्रण-इत्यादि समयनी परंपरा थयेली छे तेवा) छे, अनन्तरपरंपरानुपपन्न (जेओनी अनन्तर अने परम्पर-ए बन्ने प्रकारनी उत्पत्ति थयेली नथी एवा ) छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको अनन्तरोपपन्न छे, परंपरोपपन्न छे अने अनन्तरपरंपरानुपपन्न पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, नैरयिको यावत्-अनन्तरपरंपरानुपपन्न छे ! [उ०] हे गौतम ! जे नैरयिको प्रथम समये उत्पन्न थया छे तेओ 'अनन्तरोपपन्न' कहेवाय छे, जे नैरयिकोनी उत्पत्तिमा प्रथम समय शिवाय द्वितीयादि समयो व्यतीत थया छे तेओ 'परंपरोपपन्न' कहेवाय छे अने जे नैरयिको विग्रहगतिने प्राप्त थया छे ते 'अनन्तरपरंपरानुपपन्न' कहेवाय छे, ___ ४ * अहिं एक भवथी भवान्तरमा गमनकरवारूप गति जाणवी. नारको नरकगतिमां एक समय, बे समय अने त्रण समयनी गतिवडे उत्पन्न थाय छे. तेमा ऋजुगति एक समयनी होय छे, अने विप्रहगति बे अथवा त्रण समयनी होय छे ते शीघ्रगति कहेवाय छे. बाहुप्रसारणादि गतिनो काल असंख्य सम. यनो छे, तेथी तेवा प्रकारनी गतिने शीघ्रगति न कहेवाय. त्यारे जीव समश्रेणिए आवेला उत्पत्ति स्थानके जइने उपजे छे त्यारे तेने ऋजुगति एक समयनी होय छे, पण ज्यारे उत्पत्तिस्थानक समश्रेणिमा होतुं नथी त्यारे विग्रहगति बे के त्रण समयनी होय छे भने एकेन्द्रिय जीवने उत्कृष्ट चार समयनी विग्रहगति होय छे; तेमां बे समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे-ज्यारे कोइ जीव भरतक्षेत्रनी पूर्व दिशाथी नरकमा पश्चिम दिशाए उत्पन्न थाय, त्यारे प्रथम समये नीचे भावे, पीजे समये तिर्जा उत्पत्तिस्थानके जाय. ए रीते बे समयनी विग्रहगति जाणवी. त्रण समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे-ज्यारे कोइ जीव भरतनी पूर्व दिशाथी मरकमा वायव्य दिशा तरफ उपजे त्यारे ते एक समये समश्रेणिद्वारा नीचे आवे, बीजे समये तिर्यग् पश्चिम दिशाए जाय, त्रीजा समये तिर्यग् वायव्य दिशाने विषे उत्पतिस्थानके जइने उपजे. ए प्रमाणे नारकोनो शीघ्रगतिकाल अथवा आवा प्रकारनी शीघ्रगति कही. एकेन्द्रियोने चार समयनी विप्रहगति आ प्रमाणे होय छे-एक समयमा प्रसनाडीथी बहार अधोलोकनी विदिशाथी दिशा तरफ जाय, केमके जीवनी गति श्रेणिने अनुसारे होय छे. बीजा समये लोकना मध्यभागमा प्रवेश करे, त्रीजा समये उंचे (ऊर्ध्वलोकमां ) जाय, अने चोथे समये प्रसनाडीथी नीकळी दिशाने विषे व्यवस्थित उत्पत्तिस्थाने जाय. आ वात सामान्यरीते घणा जीवने आश्रयी कही. अन्यथा एकेन्द्रियने पांच समयनी विग्रहगति संभवे छे. ते था प्रमाणे-१सनाडीथी बहार अधोलोकनी विदिशाथी दिशा तरफ जाय, २ बीजा समये लोकमा प्रवेश करे, ३त्रीजा समये ऊर्ध्वलोकमा जाय, ४ चोथा समये त्यांथी दिशा तरफ जाय, अने ५ पांचमा समये विदिशामा रहेला उत्पत्तिस्थानके जाय. एम पांच समयनी विप्रहगति कही. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मवामिप्रणीत भगवतीसूत्र. समयोववनगा ते ण नेरइया परंपरोववनगा, जेणं नेरइयां विग्गहगइसमावनगा ते णं नैरइया अणंतरपरंपरअणुववन्नगा, से तेणटेणं जाव-अणुववन्नगा वि, एवं निरंतरं जाव-वेमाणिया। ६. [प्र०] अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख०, मणुस्स०, देवाउयं पकरेंति ? [10] गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव-नो देवाउयं पकरेंति । ७. [प्र०] परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति, जाव-देवाउयं पकरेंति ? [उ०] गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । . .प्र. अणंतरपरंपरअणुववनगा णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा । [उ.] नो नेरदयाउयं पकरेंति, जाव-नो देवाउयं पकरेन्ति, एवं जाव-वेमाणिया, नवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववनगा चत्तारि वि आउयाई पकरेंति, सेसं तं चेव । ९. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया, परंपरनिग्गया, अणंतरपरंपरअनिग्गया ? [उ०] गोयमा! नेण्या णं अणंतरनिग्गया वि, जाव-अणंतरपरंपरनिग्गया वि। [प्र०] से केणटेणं जाव-अणिग्गया वि?. [उ०] गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया, जे णं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया, जे णं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते ण नेरइया अणंतरपरंपरअणिग्गया, से तेणटेणं गोयमा! जाव-अणिग्गया वि, एवं जाववेमाणिया। . १० [प्र०] अणंतरनिग्गया णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति, जाव-देवाउयं पकरेंति ? [उ०] गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव-नो देवाउयं पकरेंति । माटे ते हेतुथी हे गौतम ! नैरयिको पूर्व प्रमाणे यावत्- 'अनन्तरपरम्परानुपपन्न छे-'त्यां सुधी कहेवू. ए प्रमाणे निरन्तर यावत्-वैमानिको सुधी कहे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न (प्रथम समये उत्पन्न थयेला ) नैरयिको शुं नैरयिकर्नु आयुष बांधे, तिर्यचर्नु आयुष बांधे, अनन्तरोपपन्न ना रको पाश्रयी मामनुष्यनुं आयुष बांधे, के देवनुं आयुष बांधे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकनुं आयुष न बांधे, यावद्-देवतुं आयुष पण न बिधि. युपमो बन्ध. . ७. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपन्न नैरयिको शुं नैरयिकनुं आयुष बांधे, यावद-देवतुं आयुष बांधे? उ०] हे गौतम! तेओ परंपरोपपन्न नैरमि " कोने गायुपनो वन्ध. नैरयिक, आयुष बांधता नथी, तिथंचनुं आयुष बांधे छे, मनुष्यनुं आयुष पण बांधे छे, देवआयुष बांधता नथी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरपरंपरानुपपन्न (विग्रहगतिने प्राप्त थयेला ) नैरयिको शुं नैरयिक- आयुष बांधे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] अनन्तरपरंपरानु हे गौतम ! तेओ नैरयिक- आयुष न बांधे, यावत्-देवायुष पण न बांधे. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सुधी जाणवु. परन्तु एटलो विशेष । पपज्ञ नैरयिको. 'छे के परंपरोपपन्न पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको अने मनुष्यो चारे प्रकारना आयुष बांधे छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे कहेवू. . ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको अनन्तरनिर्गत (नरकादिथी नीकळी भवान्तर प्राप्त थयेला जेओने प्रथम समय वर्ते छे, समया- अनन्तरनिर्गतादि दिना अन्तरनो अभाव छे)-परंपरनिर्गत (नरकादिथी नीकळी भवान्तरने प्राप्त थयेला जेओने बे-त्रण-इत्यादि समयोनुं अन्तर छे) नैरयिको. अने अनन्तर-परम्परानिर्गत (जेओ नरकथी नीकळी विग्रहगतिमां वर्तता होय छे, अने ज्यां सुधी उत्पत्ति क्षेत्रने प्राप्त न थाय त्यांसुधी ते अनन्तरभावे अने परंपरभावे अनिर्गत एवा) छे ? [उ०] हे गौतम! नारको अनन्तरनिर्गत पण होय छे. यावत्-अनन्तरपरम्परानिर्गत पण होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के यावत्-'नारको अनन्तरपरम्परानिर्गत छे' ! [उ.] हे गौतम । जे नैरयिको नर- नारको अनन्तरकथी प्रथम समये नीकळेला छे तेओ अनन्तरनिर्गत, जेओ प्रथमसमय व्यतिरिक्त द्वितीयादि समयथी निकळेला छे तेओ परंपर -निर्गतादि फेम पर कहेवाय । निर्गत, अने जेओ विग्रहगतिने प्राप्त थयेला छे तेओ अनन्तरपरंपरानिर्गत छे. माटे ते हेतुथी हे गौतम! एम कहेवाय छे के नैरयिको यावत्-अनन्तरपरम्परानिर्गत छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी [ए त्रण त्रण आलापको] कहेवा. १०. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरनिर्गत नारको शुं नरकायुष बांधे, के यावद्-देवायुष बांधे, [उ०] हे गौतम ! तेओ नारकायुष भनन्तरनिर्गता दिने भानयी न बांधे, यावत्-देवायुष न बांधे. भायुषनो बन्ध ५* जेओनी अनन्तर भने परम्पर-ए बन्ने प्रकारनी उत्पत्ति नथी एवा विग्रहगतिमा वर्तमान जीवो 'अनन्तरपरंपरानुपपन्न' कहेवाय छ, केमके मनन्तर उत्पत्ति भवना प्रथमसमये होय छे, परंपरोत्पत्ति द्वितीयादि समये होय छे, अने विप्रहगतिमा बन्ने प्रकारनी उत्पत्तिनो अभाव छे. ६ अहिं अनन्तरोपपन अने अनन्तरपरंपरानुपपन्न नैरयिको चारे प्रकारना आयुषनो बन्ध करता नथी, केमके ते अवस्थामा तेवा प्रकारना मध्यवसायना अभावे सर्व जीवोने आयुषनो बन्ध थतो नथी. पोताना आयुषना तृतीय भागादि बाकी होय त्यारे आयुषनो बन्ध थाय छे; तेथी परंपरोपपण नैरयिको पोताना आयुषना छ मास बाकी होय त्यारे अने मतान्तरे उत्कृष्टथी छ मास अने जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त बाकी होय त्यारे भवनिमित्तक तिर्यच अने मनुष्यायुष बांधे छे, ते विशवाय देव भने नारकना आयुषनो बन्ध करता नथी.-टीका. IN हवा. . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरनिर्गत. अनन्तर परंपरानिर्गत. 'अनन्तरखेदोप पन-बगेरे. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे -- शतक १४ - उद्देशक १० ११. [अ०] परंपरनिग्गया णं भंते! नेरइया किं नेरइयाउयं०- पुच्छा। [30] गोयमा ! नेरहयाउयं पिपकरेंति, जावदेवायं पि करेंति । ३४२ १२. [प्र०] अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते! नेरइया - पुच्छा। [30] गोयमा ! नो नेरहयाज्यं पकरेंति, जाव-नो देवाउयं पकरेंति, एवं निरवसेसं जाव - वेमाणिया । १३. [प्र०] नेरइयां णं भंते! किं अणंतरखेदोववनगा, परंपरखेदोषवनगा, अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नगा ? [ उ०] गोयमा ! नेरइया०, एवं एएणं अभिलावेणं तं चेव चत्तारि दंडगा भाणियष्वा । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! 'त्ति जाव - विरह । ' चोदसमसए पढमो उद्देसो समतो । ११. [प्र० ] हे भगवन् ! परंपरनिर्गत नारको शुं नारकायुष बांधे - इत्यादि प्रश्न. [ उ०] हे गौतम । तेओ नारकायुष पण बांध, यावत्-देवायुष पण बांधे. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! अनन्तरपरंपरानिर्गत नारको शुं नारकायुष बांधे ? - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओ नरकायुष न बांधे, यांव-देवायुष पण न बांध. [कारण के अनन्तरपरंपरानिर्गत नारको विग्रहगतिने विषे होय छे अने त्यां आयुषनो बन्ध तो नथी.] एं प्रमाणे समग्र यावदू-वैमानिको सुघी जाणवु. १३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको शुं अनन्तरखेदोपपन्न ( समयादिना अन्तररहित - प्रथम समये जेओनो दुःखयुक्त उत्पाद छे एवा ) छे, परंपरखेदोपपन्न ( जेओना खेदयुक्त उत्पादमां बे-त्रण इत्यादि समयो थयेला छे एवा ) छे के अनन्तरपरंपरखेदानुपपन्न ( जेओनी उत्पत्ति अनन्तर - तुरतज अने परम्पर खेदवडे नथी तेवा ) छे ? [उ०] हे गौतम! ए नैरयिको अनन्तरखेदोपपन्न - इत्यादि त्रणे प्रकारना छे. प्रमाणे अभिलापथी पूर्व प्रमाणे *चार दंडको कहेवा 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे,' एम कही [भगवान् गौतम] यावदू - विहरे छे. चतुर्दशशतके प्रथम उद्देशक समाप्त. १३*१ खेदोपपन दंडक, २ खेदोपपन्नने आश्रयी आयुषना बन्धनो दंडक, ३ खेदनिर्गतदंडक, भने ४ खेदनिर्गतने आधयी आयुषना बंधनो दंडक - ए प्रमाणे चार दंडक जाणवा. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो। १. [प्र०] कतिविहे गं भंते ! उम्मादे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जफ्यावेसे य मोहणिजस्स य कम्मस्स उदएणं । तत्थ णं जे से जक्खापसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव । तत्थ गंजे से मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव । : २. [प्र०] नेरइयाणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जपखावेसे य मोहणिजस्स य कम्मस्स उदएणं । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जक्खावेसे य मोहणिज्जस्स जाव-उदएणं' ? [उ०] गोयमा! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिजस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिजं उम्मायं पाउणेजा, से तेणट्रेणं जाप-उम्माए। ३. [पं०] असुरकुमाराणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते ? [उ०] एवं जहेव नेरड्याणं, नवरं देवे वा से महिहीयतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पपिस्त्रवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिजस्स वा, सेसं तं चेव, से तेणटेणं जाव-उदएणं, एवं जाव-थणियकुमाराणं । पुढविक्काइयाणं जाव-मणुस्साणं एएसि जहा नेरइयाणं, पाणमंतर-जोहस-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । द्वितीय उद्देशक. १. प्रि० हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उन्माद कह्यो छे? [उ०] हे गौतम | बे प्रकारनो *उन्माद कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ उन्मादना प्रकार. यक्षना आवेशरूप, अने २ मोहनीयकर्मना उदयथी थयेलो. तेमां जे यक्षावेशरूप उन्माद छे ते सुखपूर्वक वेदी शकाय अने सुखपूर्वक मूकी शकाय तेवो छे, अने तेमां जे मोहनीयकर्मना उदयथी थयेलो उन्माद छे ते दुःखपूर्वक वेदवा लायक अने दुःखपूर्वक मूकी शकाय तेवो छे. २. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो उन्माद कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओने बे प्रकारनो उन्माद होय छे, ते. नारकोनो सन्माद. आ प्रमाणे-१ यक्षावेशरूप उन्माद अने २ मोहनीयकर्मना उदयथी थयेलो उन्माद. [प्र०] हे भगवन् ! आप एम शा हेतुथी कहो छो के, नारकोने शा है. 'नैरयिकोने एक यक्षावेशरूप अने बीजो मोहनीयकर्मजन्य एम बे प्रकारनो उन्माद होय छे' ? [उ०] हे गौतम ! देव ते नैरयिकना उपर तुथी उन्माद होय! अशुभ. पुद्गलोनो प्रक्षेप करे अने ते अशुभ पुद्गलोना प्रक्षेपथी ते नारक यक्षावेशरूप उन्मादने प्राप्त थाय; अने मोहनीय कर्मना उदयथी मोहनीयजन्य उन्मादने पामे; माटे हे गौतम! ते हेतुथी यावत्-'मोहनीयजन्य उन्माद कह्यो छे.' ३. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारोने केटला प्रकारनो उन्माद कह्यो छे? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकनी पेठे यावत् बे प्रकारनो अमुरकुमारोने उन्माद. उन्माद कह्यो छे. परन्तु विशेष ए छे के तेनाथी महर्दिक-महासामर्थ्यवाळो देव ते [असुरकुमारो उपर] अशुभ पुद्गलोनो प्रक्षेप करे, अनेते अशुभ पुद्गलोना प्रक्षेप करवाथी ते यक्षावेशरूप उन्मादने प्राप्त थाय. अथवा मोहनीयकर्मना उदयथी मोहनीयजन्य उन्मादने प्राप्त थाय. बाकी बधुं पूर्वप्रमाणे ते हेतुथी यावत्-मोहनीयजन्य उन्माद कह्यो छे' त्यां सुधी जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारं सुधी जाणवु. पृथिवी यिकथी आरंभी यावत् मनुष्योने नैरयिकनी पेठे जाणq. जेम असुरकुमारोने कडं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबन्धे पण कहे. उन्माद-स्पष्ट चेतनानो (विवेकज्ञाननो) भ्रंश, तेना बे प्रकार है-१-यक्ष-देवविशेषना प्रवेश करवाथी चेतनानो भ्रंश थाय ते यक्षावेशरूप उन्माद, अने मोहनीयकर्मना उदयथी आत्मा पारमार्थिक सद्-असदुना विवेकथी भ्रष्ट थाय ते मोहनीयजन्य उन्माद. २ मोहनीयजन्य उन्मादना बे मेद छे१ मिथ्यात्वमोहनीयजन्य अने २ चारित्रमोहनीय जन्य. मिथ्यात्वमोहनीयना उदयथी प्राणी अतत्त्वने तत्त्व माने अने तत्त्वने अतत्त्व माने छे; चारित्रमोहनीयना उदयथी विषयादिनुं खरूप जाणतां छतों पण तेमां अज्ञानीनी पेठे वर्ते छे. अथवा वेदमोहनीयना उदयथी हिताहितनुं भान भूली उन्मत्त थाय छे. टीका. Jain Education international Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र दृष्टि करे ! इन्द्र दृष्टि केवी री करे? शुं अमरकुमार देवो दृष्टि करे ले ज्ञानेन्द्रादि तम स्काय करे ? श्रीराय चन्द्र-जिनागमसंप्रहे ४. [प्र० ] अस्थि णं भंते! पज्जन्ने कालवासी वुट्टिकायं पकरेति ? [अ०] हंता अत्थि । ५. [प्र० ] जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया वुट्टिकायं काउकामे भवति से कह मियाणिं पकरेति ? [अ०] गोयमा ! ताहे व से सक्के देविंदे देवराया अन्भितरपरिसाए देवे सहावेति, तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिपरिसर देवे सहावेंति, तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सहावेंति, तए णं ते बाहि परिसगा देवा सहाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सहावेंति, तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दार्वेति, तए णं ते जाव- सद्दाविया समाणा वुट्टिकाइए देवे सहावेंति, तए णं ते बुट्टिकाइया देवा सहाविया समाणा वुट्ठिकार्य करेंति, एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया बुट्टिकायं पकरेति । ३४४ शतक १४. - उद्देशक २. ६. [प्र०] अत्थि णं भंते! असुरकुमारा वि देवा बुट्टिकायं पकरेंति ? [उ० ] हंता अस्थि । [प्र०] किंपत्तियं णं भंते! असुकुमारा देवा बुट्टिका पकरेंति ? [अ०] गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता एएसि णं जम्मणमहिमासु वा निक्खमणमहिमासु वा णाणुप्पायमहिमासु वा परिनिष्वाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंति, एवं नागकुमारा वि, एवं जाव - धणियकुमारा । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया एवं चैव । ७. [प्र०] जाहे णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति ? [अ०] गोयमा ! साहे चेव णं से ईसाणे देविंदे देवराया अभितरपरिसाए देवे सहावेति, तए णं ते अब्भितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा एवं जहेव सकस्स जाव-तप णं ते आभिओगिया देवा सहाविया समाणा तमुक्काइप देवे सहावेंति, तप णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्कायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं पकरेति । ८. [प्र० ] अस्थि भंते! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति ? [ उ० ] हंता अत्थि । [प्र०] किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति ? [अ०] गोयमा ! किड्डा- रतिपत्तियं वा पडिणीय विमोहणट्टयाए वा गुत्तीसारक्खणहे या अप्पणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति, एवं जाव - वेमाणिया । 'सेव भंते ! सेवं भंते!' त्ति जाव- विहरइ । वीओ उद्देसो समत्तो. ४ [प्र० ] हे भगवन् ! शुं एम छे के काले वरसनार पर्जन्य (मेघ) दृष्टिकाय ( जलसमूह ) ने वरसावे ? [ अथवा जिन जन्ममहोसवादिकाले वृष्टि करनार पर्जन्य- इन्द्र वृष्टि करे ? [उ०] हा, गौतम ! वृष्टि करे. ५. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यारे देवेन्द्र अने देवनो राजा शक्र वृष्टि करवानी इच्छावाळो होय त्यारे ते वृष्टि केवी रीते करे [अ०] हे गौतम! [ज्यारे ते वृष्टि करवानी इच्छावाळो होय ] त्यारे देवेन्द्र अने देवनो राजा शक्र अभ्यन्तर परिषदना देवाने बोलावे छे, अने बोलावेला ते अभ्यन्तर परिषदना देवो मध्यम परिषदना देवोने बोलावे छे, मध्यम परिषदना बोलावेला ते देवो बहारनी परिषदना देवोने बोलावे छे, त्यार पछी बहारनी परिषदना बोलावेला ते देवो बहारबहारना देवोने बोलावे छे, भने बोलावेला ते बहार बहारना देवो आभियोगिक देवोने बोलावे छे, अने बोलावेला ते आभियोगिक देवो वृष्टिकायिक ( वृष्टि करनारा ) देवोने बोलावे छे, पछी ते बोलावेला वृष्टिकायिक देवो वृष्टि करे छे. ए प्रमाणे हे गौतम! देवेन्द्र देवनो राजा शक्र वृष्टिकाय करे छे. ६. [प्र० ] हे भगवन् ! असुरकुमार देवो पण शुं वृष्टि करे छे ? [उ०] हे गौतम! हा, करे छे. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमार देवो शाहेतुथी वृष्टि करे छे ? [उ०] हे गौतम ! जे आ अरिहंत भगवंतो छे, एओना जन्मोत्सवानिमित्ते, दीक्षोत्सव निमित्ते, ज्ञानोत्पत्तिनिमित्ते अने निर्वाणना उत्सवनिमित्ते ए प्रमाणे असुरकुमार देवो दृष्टि करे छे. ए प्रमाणे नागकुमारो अने यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवुं. वानव्यंतर ज्योतिषिक अने वैमानिक सबन्धे पण ए प्रमाणे जाणवुं. ७. [प्र०] हे भगवन् ! देवेन्द्र जने देवना राजा ईशान ज्यारे तमस्कायने करवाने इच्छे त्यारे ते तेने केवी रीते करे? [3] है गौतम ! त्यारे देवेन्द्र अने देवना राजा ईशान अभ्यन्तर परिषदना देवोने बोलावे छे, त्यार बाद बोलावेला ते अभ्यन्तर परिषदना देवो - इत्यादि पूर्वोक्त बधुं शक्रनी पेठे यावत्- बोलावेला ते आभियोगिक देवो तमस्कायिक ( तमस्काय करनार) देवोने बोलावे छे, अने त्यार पछी बोलावेला ते तमस्कायिक देवो तमस्काय करे छे. हे गौतम! ए प्रमाणे देवेंद्र अने देवना राजा ईशान तमस्काय करे छे.. अमरकुमार तम करे। ८. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं एम छे के असुरकुमार देवो पण तमस्कायने करें ? [उ०] हे गौतम! हा, करे छे [प्र०] हे भगवन् ! शाहेतु तमस्काय असुरकुमार देवो शा हेतुथी तमस्काय करे छे ? [उं०] हे गौतम! क्रीडा के रतिनिमित्ते, शत्रुने मोहपमाडवा निमित्ते, छुपावेला द्रव्यने साचववा निमित्ते अथवा पोताना शरीरने ढांकी देवा निमित्ते हे गौतम! ते असुरकुमार देवो पण तमस्काय करे छे. ए प्रमाणे यावत् - वैमानिको सुधी जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावद् [भगवान् गौतम] विहरे छे. करे ? चतुर्दशशतके द्वितीय उद्देशक समाप्त. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईओ उद्देसो। १. देवे गं भंते ! महाकार महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मझमझेणं वीइवएजा? [उ०] गोयमा! अत्थेगइए वीइवपजा, अत्थेगतिए नो वीइवएजा। प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'अत्थेगतिए धीदवएजा, अत्यंगतिए नो वीइवएजा' ? [उ०] गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा-मायीमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य अमायीसम्मदिट्ठीउववनगा य, तत्थ णं जे से मायीमिच्छद्दिट्टीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता नो वंदति, नो नमसति, नो सकारेति, नो सम्माणेइ, नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं जाव-पजुवासति, से णं अणगारस्स भाषियप्पणो मझमज्झेणं वीइवरजा । तत्थ णं जे से अमायीसम्महिट्रिउववन्नए देवे से गं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता वंदति, नमसति, जाव-पजवासति । सेणं अणगारस्स भावियप्पणो मझमज्झेणं नो वीयीवएजा, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जाव-नो वीइवएजा। २.प्र०] असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे-१ [उ०] एवं चेव, एवं देवदंडओ भाणियबो जाव-वेमाणिए । ३. [प्र०] अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं सकारे ति वा, सम्माणे ति वा, किइकम्मे इ वा अब्भुटाणे इ वा, अंजलिपग्गहे ति वा; आसणाभिग्गहे ति वा, आसणाणुप्पदाणे ति वा, इंतस्स पञ्चग्गच्छणया, ठियस्स पजवासणया, गच्छतस्स पडिसंसाहणया ? [उ०] नो तिणढे समटे । ४.[प्र०] अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सकारे ति वा, सम्माणे ति पा, जाव-पडिसंसाहणया वा? उ०] हंता अस्थि, एवं जाव-थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं जाव-चउरिदियाणं एएसि जहा नेरयाणं । __ तृतीय उद्देशक. १. प्र०] हे भगवन् ! महाकाय-मोटा परिवारवाळो अने मोटा शरीरवाळो देव भावितात्मा अनगारनी बच्चे थईने जाय ? [उ०] हे महाकाय देख भा वितात्मा भनगारनी गौतम ! केटला एक देव जाय, अने केटला एक देव न जाय. (प्र०] हे भगवन् ! आप एम शा हेतुथी कहो छो के, 'केटला एक देव जाय थाने जाया अने केटला एक न जाय ? [उ०] हे गौतम ! देवो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ मायीमिथ्यादृष्टिउपपन्न अने २ अमायीसम्यग्दष्टिउपपन्न; तेमां जे मायीमिध्यादृष्टिउपपन्न देवो छे ते भावितात्मा अनगारने जुए छे अने जोइने वांदतो नथी, नमतो नथी, सत्कार करतो नथी, सन्मान करतो नथी, अने कल्याणरूप अने मंगलभूत देवचैत्यनी पेठे यावत्-तेनी पर्युपासना करतो नथी, तेथी ते देव भावितात्मा अनगारनी 'बच्चे थईने जाय. तेमां जे अमायीसम्यग्दृष्टिउपपन्न देवो छे, ते भावितात्मा अनगारने जुए छे, जोइने वांदे छे, नमे छे, यावत्-तेनी पर्युपासना करे छे, तेथी ते भावितात्मा अनगारनी वच्चे थईने न जाय, माटे ते हेतुथी हे गौतम ! एम कयुं छे के, 'कोइ जाय अने कोइ न जाय.' २. [प्र०] हे भगवन् ! घणा परिवारवाळा अने महाशरीरवाळा असुरकुमारो [भावितात्मा अनगारनी वच्चे थइने जाय !] इत्यादि महाकाय असुर प्रश्न. [उ०] पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे *देवदंडक यावत्-वैमानिको सुधी कहेवो. कुमार भावितात्मा . ३. [प्र०] हे भगवन् ! नारकोमा सत्कार (विनय करवाने योग्य व्यक्तिनो आदर करवो), सन्मान (तथाविध सेवा करवी) कृति- थईने जाय? कर्म (वंदन ), अभ्युत्थान (गौरव करवाने लायक व्यक्तिने जोता आसननो त्याग करी उभा थq ), अञ्जलिकरण (बन्ने हाथ जोडवा), न विनय होय । आसनाभिग्रह (आसन आपq ), आसनानुप्रदान-गौरवने योग्य व्यक्तिमाटे आसनने एक स्थानथी बीजे स्थाने लाववं, गौरव योग्य मनुप्यनी सामा जवू, बेठेलानी सेवा करवी, अने जाय त्यारे तेनी पाछळ जवू-इत्यादि विनय छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ-युक्त नथी. अर्थात्-नैरयिकोने सत्कारादि विनय नथी. ४. [प्र०] है भगवन् । असुरकुमारोमा सत्कार, सन्मान यावत्-जनारनी पाछळ जवु-वगेरे विनय छ । [उ०] हे गौतम ! हा छे. भरकुमारोमा ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवु. जेम नैरयिकोने कयुं तेम पृथिवीकायिकथी आरंभी यावत्-चतुरिन्द्रिय जीवो संबन्धे पण जाणवू. सत्कारादि विनय. २ * नारक अने पृथिवीकायिकांदि जीवोने उपरना कार्यनों असभव होवाथी अने मात्र देवोने ज संभव होवाथी आप्रसंगे मात्र देवदंडक कहेलो छे-टीका. ४४ भ० सू० अनगारनीचे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक ३. ५. [प्र०] अस्थि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सकारे इवा, जाव-पडिसंसाहणया वा? [उ०] हंता अत्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पयाणे इ वा । मणुस्साणं जाव-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । ६. [प्र०] अप्पड्डीए णं मंते! देवे महडियरस देवस्स मज्झमझेणं वीइवरजा ? [उ.] नो तिणट्टे समटे। ७. [प्र०] महावीए णं भंते! देवे समड्डियस्स देवस्स मज्झमझेणं वीइवरजा' [उ०] णो इणटे समढे, पमत्तं पुण बीयपजा। ८. [प्र०] से णं भंते ! किं सत्येणं अक्कमित्ता पभू, अणक्कमित्ता पभू? [उ०] गोयमा। अक्वमित्ता पभू, नो अणकमित्ता पभू । ९. [प्र०] से णं भंते ! किं पुष्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीयीवएजा, पुष्विं वीईवएजा पच्छा सत्थेणं अकमेज्जा ? [उ०] एवं एएण अभिलावेणं जहा दसमसए आइवीउद्देसए तहेव निरवसेसं चत्तारि दंडगा भाणियचा जाव-'महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए'। १०. [प्र०] रयणप्पभापुढविनेरइया णं मंते ! केरिसयं पोग्गलपरिणामं पचणुभवमाणा विहरंति? [उ०] गोयमा! अणिटुं, जाव-अमणाम, एवं जाव-अहेसत्तमापुढविनेरइया, एवं वेदणापरिणाम, एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरायउद्देसए जाव-[प्र०] अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसनापरिणामं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ? [उ०] गोयमा! मणिटुं, जाप-अमणाम । 'सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति । चोदसमसए तईओ उद्देसो समत्तो।। ५. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकोमा सत्कार, यावत्-जनारनी पाछळ वळावा जवें-इत्यादि विनय होय छे ? [उ०] हे चोमा सत्कारादि । - गौतम हा, होय छे. परन्तु आसनामिग्रह-आसन आपQ, आसनानुप्रदान-आसनने एक स्थानथी बीजे स्थानके लावq-इत्यादि विनय विनय होय । अपकशिवालो होतो नथी. मनुष्यो अने यावद्-वैमानिकोने जेम असुरकुमारने कडं तेम कहे. देव महाकदिवाळा देवनी बच्चे थईने ६. [प्र०] हे भगवन् ! अल्पऋद्धिवाळो देव महाऋद्धिवाळा देवनी बच्चे थइने जाय ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. बाय। समानकदिवाळो ७. [प्र०] हे भगवन् । समानऋद्धिवाळो देव समानऋद्धिवाळा देवनी बच्चे थईने जाय ! [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी. देव समानाशि- पण जो ते [समानऋद्धिवाळो देव] प्रमत्त होय तो तेनी वच्चे थईने जाय. . पाळा देवनी बचे थईने जाय! ८. [प्र०] हे भगवन् ! (बच्चे थईने जनार ते देव ) शुं शस्त्रथी प्रहार करीने जवा समर्थ थाय के प्रहार कर्या शिवाय जवा समर्थ बच्चे थईने जनारदेव शाररीने थाय ! [उ०] हे गौतम! शस्त्रप्रहार करीने जवा समर्थ थाय, पण प्रहार कर्या शिवाय जवा समर्थ न थाय. जायके कर्या शिवाय जाय। "" . ९. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते देव प्रथम शत्रप्रहार करे अने पछी जाय के पहेला जाय अने पछी शस्त्रप्रहार करे ? [उ.] इत्यादि प्रथम शसपहार आ प्रकारना अमिलापथी *दशम शतकना आइडिअनामे (आत्मर्द्धिक) उद्देशकमां कह्या प्रमाणे समग्रपणे चार दंडको (त्रिण आलापककर्या पछी जाय के गया सहित ) कहेवा, यावद् 'मोटी ऋद्धिवाळी वैमानिक देवी अल्पऋद्धिवाळी वैमानिक देवीनी वच्चे थईने जाय.' हार करे। १०. प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीना नारको केवा प्रकारना पुद्गलपरिणामने अनुभवता विहरे छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ नारको फेवा प्रकारना पुद्गलपरि- अनिष्ट, यावत्-मनने नहि गमता पुद्गलपरिणामने अनुभवता विहरे छे. ए प्रमाणे यावत्-सातमी नरकपृथिवीना नारको सुधी जाणवं. ए णामने अनुभवे ले। रीते यावत्-वेदनापरिणामने पण अनुभवे छे-इत्यादि जेम जीवाभिगम सूत्रना बीजा निरयिक उद्देशकमां कडं छे ते प्रमाणे अहिं कहे. यावत्-प्र०] हे भगवन् ! सातमी नरकपृथिवीना नैरयिको केवा प्रकारना परिग्रहसंज्ञापरिणामने अनुभवे छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ अनिष्ट, यावत्-मनने नहि गमता परिग्रहसंज्ञापरिणामनो अनुभव करता विहरे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'एम कही [भगवान् गौतम ] यावद् विहरे छे. चतुर्दशशते तृतीय उद्देशक समाप्त. * भग० ख०३ श०१० उ०३ पृ० १९३. अल्पर्द्धिक अने महर्चिकनो प्रथम आलापक, समर्द्धिक भने समर्चिकनो यीजो आलापक, तथा महर्द्धिक अने अल्पर्द्धिकनो त्रीजो बालापक. तेमा अल्पर्दिक अने महर्द्धिकनो आलापक तथा समर्द्धिकालापक-ए बे भालापक साक्षात् कह्या छे, केवल समर्दिकालापकने अन्ते बाकीना सूत्रनो अंश आ प्रमाणे जाणवो-"प्रथम शस्त्रथी हणीने जाय, पण पूर्वे जईने पछी न हणे. हे भगवन् ! महर्द्धिक देव अल्पर्धिक देवना मध्यमां थईने जाय? हा जाय. ते महर्दिक देव शनथी हणीने जवा समर्थ होय के हण्या शिवाय जवा समर्थ होय? हे गीतमहणीने पण जवा समर्थ होय अने हण्या शिवाय पण जवा समर्थ होय. हे भगवन् ! पूर्वे शस्त्रवडे हणीने पछी जाय के पूर्व जईने पछी हणे ! हे गौतम ! पूर्वे शस्त्रवडे हणीने पछी जाय, अथवा पूर्व जईने पछी शनवडे हणे." ' ११ देव अने देवनो प्रथमदंडक, २ देव अने देवी संबन्धे बीजो दंडक, देवी भने देव संबन्धे त्रीजो दंडक, अने ४ देवी भने देवी संबंधे चोथो दंडक-ए रीते चार दंडक जाणवा. १. नैरयिकसंबंधे हकीकत जीवाभिगमसूत्र प्रति. ३ उ० १-२-३१० ८९-१२९ सुधीमा छ, परन्तु उपरना सूत्रने लगतो थोडो पाठ मात्र प्रति. नेरयिक उ•३५.१२९ मा छे. . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थो उद्देसो । १. [प्र० ] एस णं भंते 1 पोग्गले तीतमर्णतं सासयं समयं लुक्खी, समयं अलुक्खी, समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा १ पुचि णं करणेणं अणेगवन्नं अणेगरुवं परिणामं परिणमति ? अह से परिणामे निज्जिने भवति, तभ पच्छा पगवने पगरु सिया ? [30] हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतं तं चैव जाव एगरुवे सिया । २. [प्र० ] स णं भंते ! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं ० १ [अ०] एवं चेव, एवं अणागयमणंतं पि । ३. [प्र० ] एस णं भंते! संधे तीतमनंतं० [४०] एवं चेच, संधे वि जहा पोले । ४. [प्र०] एस णं भंते! जीये तीतमनंतं सासयं समयं दुक्खी, समयं अनुपखी, समयं दुफ्ती या अनुषयी या पुि aणं करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं परिणमइ ? अह से वेयणिजे निजिन्ने भवति, तभ पच्छा एगभावे एगभूप सिया १ [४०] हंता गोषमा ! एस णं जीये जान एगभूष सिया, एवं पप्पनं सासयं समयं पर्व भणागयमणंतं सासयं समयं । चतुर्थ उद्देशक. पुत्रक परिणाम. अतीतकालने विषे एक समयमा पुद् , १. [प्र० ] हे भगवन् ! आ पुद्गल [ परमाणु के स्कन्ध] अनन्त - अपरिमित अने शाश्वत अतीतकाळने विषे एक समय सुधी रुक्षस्पर्शयाओ एक समय सूची अरुक्ष स्निग्धस्पर्शवालये, तथा एक समय सुधी रुक्ष अने झिग्ध बने प्रकारना स्पर्शचाये हतो! अने पूर्वे करण-प्रयोगकरण अने विस्रसाकरणधी अनेक वर्णवाळा अने [अनेक गन्ध, रस, स्पर्श अने संस्थानना मेदथी] अनेकरूपवाळा परिणामरूपे गरूनो परिणाम. परिणत भयो हतो [परमाणुनो भिन्न भिन्न समये अनेक वर्णादिरूपे परिणाम थाय छे, अने स्कन्धनो एकसमये अनेक वर्णादिरूपे परिणाम थाय छे.] हवे ते अनेक वर्णादिपरिणाम क्षीण थाय त्यार पछी ते पुद्गल एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो हतो ! [उ०] हा, गौतम ! आ पुद्गल अतीतकालने विषे- इत्यादि यावत् - ' एकरूपवाळो हतो' त्यां सुधी समग्र पाठ कहेवो. २. [प्र० ] हे भगवन् । आ पुल (परमाणु के स्कन्ध) शाचतं वर्तमान काळने विषे ( एक समय सुधी रूक्षस्पर्शनाळ, निग्धस्पर्शबाळो, तथा स्निग्ध अने रूक्ष बन्ने स्पर्शवाळो होय ? अने प्रयोग अने विस्रसाथी अनेक वर्णादिरूपे परिणत थाय ? ते परिणामना क्षीण थया बाद एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो होय ! ) [ उ०] पूर्वप्रमाणे उत्तर जाणवो, ए प्रमाणे अनागतकाल संबन्धे पण जाणवुं. २. [अ०] हे भगवन्! अनन्त अपरिमित अने शाश्वत अतीतकालने विषे पुद्गलस्कन्ध (एक समय सुधी रूक्षस्पर्शवा खिग्धस्पर्शवाळो तथा स्निग्ध अने रूक्ष-ए बन्ने स्पर्शवाळो हतो ! अने अनेकवर्ण अने अनेकरूपवाळा परिणामरूपे परिणत थयो हतो ! पछी ते परिणामना क्षीण थवाथी तेनो एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो परिणाम थयो हतो ) [ उ०] ए प्रमाणे जेम पुद्गलसंबन्धे कं म स्वन्यसंबन्धे पण जाणवु. ४. [ प्र० ] हे भगवन् ! आ जीव अनन्त - अपरिमित अने शाश्वत अतातकाळन विषे एक समय ( दुःखना हेतुथी ) दुःखी, एक समय (सुखना हेतुथी ) अदुःखी सुखी, तथा "एक समय [सुख अने दुःखना हेतुथी ] दुःखी के सुखी हतो! अने पूर्वे करणथी - कालस्वभावादि कारणवडे शुभाशुभकर्मबंधना हेतुभूत क्रियाथी - अनेक प्रकारना सुखिपणुं अने दुःखिपणुं - इत्यादि भाववाळा, अने अनेकरूपवाळा परिणामरूपे परिणत भयो हतो खारपछी वेदना लायक ज्ञानावरणादि कर्मनी निर्जरा क्या बाद जीव एकमावयालो अने एकरूपवाळो हतो! [उ०] हा, गौतम ! आ जीव यावत्-एक रूपवाळो हतो. ए प्रमाणे शाश्वत एवा वर्तमानसमयसंबन्धे तथा अनन्त अने शाश्वत भविष्यकाळ संबन्धे पण जाणवं. सुख भने दुःखना कारणो एकसमये विद्यमान होय छे, परन्तु सुख अने दुःखनुं वेदन एकसमये होतुं नथी, कारण के जीवने एकसमये एकज उपयोग होय छे. वर्तमानकाले पुद्गल परिणाम. अनागतकाल. पुद्गलस्कन्ध. अतीत, वर्तमान भने अनागतकाले जी परिणाम. / Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुपुङ्गल शाश्वत के अशाश्वत ? परमाणु चरम के अचरम ? सामान्य परिणाम. श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४. - उद्देशक ४. ५. [५० ] परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए, असासए ? [30] गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए । [30] सेकेणटुणं भंते । एवं धासिय सासर, सिय असासप' १ [४०] गोयमा ! दचट्टयाए सासप, पद्मपखवेहिं जापकासपत्नहिं असास से तेजद्वेणं जावसिय सासर, सिय असासए । - ३४८ ६. [ प्र० ] परमाणुपोग्गले णं भंते । किं चरिमे, अचरिमे ? [30] गोयमा ! दवादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे, खेत्ता देसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, भावादेसेणं सिय चरिमे, लिय अचरिमे । ७. [०] कवि णं ते! परिणामे पण्णत्ते ? [30] गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तंजदा-जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य एवं परिणामपर्य निरयसेसे भाणियां 'सेवं भंते! सेवं भंते! चि जाय-विहरति । I चोदसमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो । ५. [ प्र० ] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल शाश्वत छे के अशाश्वत छे ? [उ०] हे गौतम ! ते कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित्. अशा - श्वत छे. [प्र०] हे भगवन्! आप एम शा हेतुथी कहो छो के 'कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे' : [ उ०] हे गौतम! द्रव्यार्थरूपे ते परमाणुपु शाश्वत छे, अने वर्णपर्यायवडे यावत् स्पर्शपर्याय डे अशाचत छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम! एम का छे के 'परमाणुपुङ्ग कचित् शाखत छे अने कचित् अशाच छे.' ६. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुद्गल चरम छे के अचरम छे ? [ उ०] हे गौतम! ( परमाणुपुद्गल ) द्रव्यनी अपेक्षाए * चरम नथी, पण अचरम छे. क्षेत्रादेशथी कदाचित् चरम छे अने कदाचित् अचरम छे. कालादेशथी कदाचित् चरम छे अने कदाचित् अचरम छे. भावादेशथी कथंचित् चरम अने कथंचित् अचरम छे. ७. [ प्र० ] हे भगवन् ! परिणाम केटला प्रकारनो को छे [उ०] हें गौतम ! परिणाम से प्रकारनो को छे, ते आ प्रमाणेजीयपरिणाम अने अजीव परिणाम ए प्रमाणे अहिं [प्रज्ञापना सूत्र] परिणामपद संपूर्ण कहे. 'हे भगवन् से एमज छे, हे भगवन् ! से एमज छे' - एम कही [भगवान् गौतम ] यावद् विहरे छे. चतुर्दशशत के चतुर्थ उद्देशक समाप्त. ६ * जे परमाणु विवक्षित परिणामधी रहित थईने पुनः ते परिणामने पामशे नहि ते परमाणु ते परिणामनी अपेक्षाए चरम कहेवाय छे, अने जे परते परिणाम पाशे ते अपेक्षा ते अचरम कद्देवाय छे. इम्पनी अपेक्षाए परमा चरम सभी पथ चरम छे, कारण परमाणुपरि नामीति पर संचातपरिणामने पानी कलामारे पुनः परमाणुपरिणामने पाशे क्षेत्री अपेक्षाए परमाणु कथंचित् चरम अने म छेप्रमाणे क्षेत्रमा जे परमारो के हसमुप्राप्ताव ज्ञानीना संबन्धविशिष्ट ते परमाणु कोइ पण समये ते क्षेत्रनो आश्रय नहि करे, केमके ते केवलीनुं निर्वाण थवाथी ते क्षेत्रमा पुनः कदि आववाना नथी, माटे ए प्रमाणे क्षेत्र श्री परमाणु चरम कहेवाय छे, विशेषणरहित क्षेत्रनी अपेक्षाए परमाणु करी ते क्षेत्रमां अवगाढ थशे, माटे 'अचरम' कद्देवाय छे. कालनी अपेक्षाएं कथंचित् चरम छे अने कथंचित् अचरम छे, ते आ प्रमाणे जे पूर्वाह्नादि कालने विषे जे केवलीए समुद्घात कर्यों, ते कालने बिषे जे परमाणु रहेलो छे ते परमाणु ते केवलिसमुद्घातविशिष्ट ते काळने कदि पण प्राप्त नहि करे, कारण के ते केवलज्ञानी मोक्षे जवाधी पुनः समुद्घात करवाना नथी, माटे तेनी अपेक्षाए कालथी चरम, अने विशेषणरहित कालनी अपेक्षाए परमाणु अचरम छे. भावनी अपेक्षाए परमाणु चरम अने अचरम छे. ते आ प्रमाणेकेसरे जे परमाणु वर्णादिभावविशेष प्राप्त भयो तो ते परममिति विधिवर्णदिपरिणामनी अपेक्षा चरम छे, कारण के केवलज्ञानीना निर्वाण थवाथी पुनः ते परमाणु विशिष्ट परिणामने प्राप्त नहि थाय. आ व्याख्यान चूर्णिकारना मतने अनुसरी करेलुं छे. टीका. परियम के परिणाम अर्यान्तरप्राप्ति सवा एकरुपे अवस्थित रहे तेज सेनो सर्वथा नाश थवो ते परिणाम नथी.” तेमां जीवपरिणाम दश प्रकारनो छे-१ गति, २ इन्द्रिय, ३ कषाय, ४ लेश्या, ५ योग, ६ उपयोग, ७ ज्ञान, ८ दर्शन, ९ चारित्र, • अने १० वेद. अजीवपरिणाम पण दश प्रकारनो छे- १ बन्धन, २ गति, ३ संस्थान, ४ मेद, ५ वर्ण, ६ गन्ध, ७ रस, ८ स्पर्श, ९ अगुरुलघु अने १० शब्दपरिणाम. -- टीका. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो। १. [प्र० नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवरजा ? [10] गोयमा! अत्थेगतिए थीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएजा। [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं धुञ्चइ- 'अत्थेगइए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवरजा [उ.] गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावनगा य अविग्गहगतिसमावनगा य, तत्थ णं जे से विग्गहगतिसमावन्नए नेरतिए से णं अगणिकायस्स मझमज्झेणं वीइवएजा । [प्र०] सेणं तत्थ झियाएज्जा ? [उ०] णो तिणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कम । तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावनए नेरपए से णं अगणिकायस्स मझमझेणं णो घीइवएज्जा, से तेणट्रेणं जाव-'नो वीइवएजा'। २. [प्र०] असुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायस्स पुच्छा । [उ०] गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएजा। [प्र०] से केण?णं जाव-नो वीइवएजा? [उ०] गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णता, तंजहा-विग्गहगइसमावनगा य अविग्गहगइसमावनगा य । तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं-एवं जहेव नेरतिए जाव-'कमतिः । तत्थ गंजे से अविग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से गं अत्यंगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं वीतीवएजा, अत्यंगतिए नो वीए पंचम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! नारक अग्निकायना मध्यभागमां थईने जाय ? [उ०] हे गौतम कोइ एक नारक जाय अने कोइ एक नारक न नारक अनिकायना जाय. [प्र.] ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के, 'कोइ एक नारक जाय अने कोइ एक नारक न जाय' ! [उ०] हे गौतम ! नैरयिको मध्यभागमा गमन करे। बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला, अने अविग्रहगतिसमापन्न-उत्पत्तिक्षेत्रने प्राप्त थयेला. तेमां जे विग्रहगतिने प्राप्त थयेल नारक छे ते अग्निकायना मध्यमां थईने जाय. [प्र०] ते त्या बळे ? [उ०] आ अर्थ यथार्थ नथी, केमके तेने *अग्निरूप शस्त्र असर करतुं नथी. तेमां जे अिविग्रहगतिने प्राप्त थयेल नारक छे ते अग्निकायनी मध्यमा थईने न जाय. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कडं के, 'कोइ एक नारक जाय अने कोइ एक न जाय" २. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारो अग्निकायनी वच्चे थईने जाय?-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोइ एक ( असुरकुमार ) जाय असुरकुमारो. अने कोइ एक न जाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम आप शा हेतुथी कहो छो के, 'कोइ एक जाय अने कोइ एक न जाय ? [उ०] हे गौतम! असुरकुमारो बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला अने अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला. तेमा जे विग्रहगतिने प्राप्त असुरकुमारो छे-इत्यादि बधुं नारकनी पेठे जाणवू. यावत्-'तेने (अग्नि वगेरे) शस्त्र असर करतुं नथी.' तेमां जे अविग्रहगति प्राप्त असुरकुमारो छे तेमांना कोइ एक अग्निनी वच्चे थईने जाय अने कोइ एक न जाय. [प्र०] जे अग्नि वच्चे थईने जाय ते त्यां बळे ! [उ०] ए १. * विप्रहगतिने प्राप्त थयेलो जीव कार्मणशरीरयुक्त होवाथी अने ते सूक्ष्म होवाथी तेने अमिवगेरे शस्त्र असर करतुं नथी.-टीका. + अविग्रहगतिसमापन्न-उत्पत्ति क्षेत्रने प्राप्त थयेलो नारक समजवो, 'परन्तु ऋजुगतिने प्राप्त थयेलो'-ए अर्थ अहिं विवक्षित नथी, कारण के तेनो अहिं अधिकार नथी, उत्पत्तिक्षेत्रने प्राप्त थयेलो नारक अग्निकाय मध्ये थईने जतो नथी, केमके नारक क्षेत्रने विषे बादर अग्निकायनो अभाव छ, भने मनु'ध्यक्षेत्रने विषेज बादर अग्निकायनो सद्भाव छ.-टीका. २१ विग्रहगति प्राप्त असुरकुमार विग्रहगति प्राप्त नारकनी पेठे जाणवो, भविग्रहगति प्राप्त-उत्पत्तिक्षेत्रने प्राप्त थयेल असुरकुमार, के जे मनुष्यलोकर्मा आवे ते अमिनी बच्चे थईने जाय, जे (मनुष्यलोकमां) न आवे ते अग्निकायनी व थईने न जाय, जे बच्चे थईने जाय छे ते पण बळे नहि, कारण के वेक्रिय शरीर सूक्ष्म छ भने तेनी गति अति शीघ्र छे.-टीका. Jain Education international Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक ५. वएज्जा । [प्र०] जे णं वीतीवपज्जा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति, से तेणTणं०, पवं-जाव थणियकुमारे । पगिदिया जहा नेरइया । ३. [प्र०] बेइंदिया गं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं० १ [उ०] जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं-प्र०] जे णं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] हंता झियाएजा, सेसं तं चेव, एवं जाव-चउरिदिए । । ४.प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकाय-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवरजा, अत्थेगतिए नो वीइवरजा । [प्र.] से केण?णं० १ [उ.] गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावनगा य अविग्गहगइसमावन्नगा य । विग्गहगइसमावन्नए जहेव नेरइए, जाव-'नो खलु तत्थ सत्थं कमइ' । अविग्गहगइसमावनगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इढिप्पत्ता य अणिढिप्पत्ता य । तत्थ गंजे से इहिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएजा, अत्थेगइए नो वीयीवरजा । [प्र.] जेणं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थ णं जे से अणिढिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएजा, अत्थेगतिए नो वीइवरजा । [प्र०] जेणं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? [उ०] हंता झियाएजा, से तेणटेणं जाव-'नो वीयीवएजा' एवं मणुस्से वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे। ५. नेरतिया दस ठाणाई पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-१ अणिट्ठा सद्दा, २ अणिट्ठा रूवा, ३ अणिट्ठा गंधा, ४ अणिट्ठा रसा, ५ अणिट्ठा फासा, ६ अणिट्ठा गती, ७ अणिट्ठा ठिती, ८ अणिढे लावन्ने, ९ अणिटे जसो-कित्ती, १० अणिटे उट्ठाण-कम्म-बल-चीरिय-पुरिसक्कारपरकमे। एकेन्द्रियो. बेइन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यंच अग्निनी बच्चे थईने - जाय! अर्थ यथार्थ नथी. केमके तेने अग्नि वगेरे शस्त्र असर करतुं नथी. ते हेतुथी हे गौतम! एम का छे के 'कोइ एक [असुरकुमार जाय अने कोइ एक न जाय.' ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. एकेन्द्रियो “संबन्धे नैरयिकनी पेठे जाणQ. ३. [प्र०] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो अग्निकायनी मध्यमां थईने जाय ? [उ०] जेम असुरकुमारो संबन्धे कर्तुं तेम बेइन्द्रिय संबन्धे कहे. परन्तु विशेष ए छे के, [प्र०] 'जे बेइन्द्रिय अग्नि वच्चे थईने जाय, ते त्यां बळे ? [उ०] हा, ते त्यां बळे'-एम कहे. अने बाकी बधुं पूर्वे कह्या प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय सुधी जाणवू. ४. [अ०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अग्निनी वच्चे थईने जाय?-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! कोइ एक जाय अने कोइ एक न जाय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'कोइ एक जाय अने कोइ एक न जाय' ? [उ०] हे गौतम ! पंचेन्द्रियतियंचयोनिको बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला अने अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला. तेमां जे विग्रहगतिने प्राप्त थयेला पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको छे ते नैरयिकनी पेठे जाणवा, यावत्-'तेने शस्त्र असर करतुं नथी.' जे पंचेन्द्रियतियचो अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला छे ते बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-ऋद्धिप्राप्त (वै क्रियल ब्धियुक्त) अने ऋद्धिने अप्राप्त (वैक्रियलब्धिरहित). तेमां जे पंचेन्द्रियतिथंचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला छे, तेमांथी कोइ एक अग्निनी वच्चे थइने जाय अने कोइ एक अग्निनी बच्चे थईने न जाय. [प्र०] जे अग्निनी वच्चे थईने जाय छे ते त्या बळे ? [उ०] ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी, केमके तेने शस्त्र असर करतुं नथी. तेमां जे पंचेन्द्रिय तिर्यचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला नथी तेमाथी कोइ एक अग्निनी बच्चे थईने जाय अने कोइ एक न जाय. [प्र०] जे जाय ते बळे ! [उ.] हा, बळे; माटे हे गौतम ! ते हेतुधी एम कडं छे के, यावत्-'कोइ एक अग्निनी वच्चे थइने जाय अने कोइ एक न जाय' ए प्रमाणे मनुष्य संबन्धे पण जाणवू. जेम असुरकुमारो संबन्धे कह्यु, तेम वानव्यंतर, ज्योतिपिक अने वैमानिक संवन्धे पण कहेवं. ५. नारको दश स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गंध, ४ अनिष्ट रस, ५ अनिष्ट स्पर्श; ६ 'अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अनिष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यशःकीर्ति अने १० अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य तथा पुरुषकारपराक्रम. नोरको दश स्था करे छे. २* ग्रिगतिप्राप्त एकेन्द्रिय जीवो अग्नि वचे थईने जाय, अने सक्षम होवाथी ते बळे नाहि. अविप्रहगतिप्राप्त एकेन्द्रियो अनि वचे थईने जता नथी, कारण के तेओ स्थावर छे. तेजः (अमि) अने वायु गतित्रस होवाथी तेनुं अमिमध्यमां थईने जQ संभवे छे, परन्तु ते अहिं विवक्षित नथी, अहिं तो स्थावरपणानी विवक्षा छे अने तेथी तओमां गतिनो अभाव छे. तथा वाय्वादिनी प्रेरणाथी पृथिव्यादिनुं अग्निमध्यमा गमन संभवित छे, परन्तु अहिं खातश्यकृत गमन विवक्षित होवाथी तेनुं स्वतंत्रपणे अग्मिने विषे गमन संभवित नथी-टीका. ५ अनिष्टगति नारकोनी अप्रशस्तविहायोगतिरूप के नरकगतिरूप अनिष्ट गति, नरकमा रहेवारूप अथवा नरकायुरूप अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्यशरीरनो बेडोळ आकारविशेष, अपयश अने अपकीर्तिरूप अनिष्ट यशःकीर्ति, वीर्यान्तरायना क्षयोपशमादिथी उत्पन्न थयेल उत्थानादिवीर्यविशेष अनिष्टनिन्दित छे. Jain Education international Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ - उदेशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६. असुरकुमारा दस ठाणारं पश्चणुग्भवमाणा विहरंति, तंजहा - १ इट्ठा सहा, २ इट्ठा रुवा, जाव- इट्ठे उट्ठाण-कम्मबल - पीरिय- पुरिसकारपरक्कमे, एवं जाय धणियकुमारा । ७. पुढविकाया छट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा इट्ठाणिट्ठा फासा, इट्ठाणिट्ठा गती, एवं जाव - परक्कमे एवं जाव- वणस्सइकाइया । ८. बेदिया सत्त द्वाणाई पथणुग्भवमाणा विहरंति, संजहारट्ठापिट्ठा रसा, सेसं जहा पगिदियाणं । ९. तेंदिया अट्ठट्ठाणाई पञ्चणुग्भवमाणा विहरन्ति, तं जहा इट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेंदियाणं । १०. चउरिंदिया नव ट्ठाणाई पश्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा - इट्ठाणिट्ठा रुवा, सेसं जहा तेंदियाणं । ११. पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा - इट्टाणिट्ठा सहा, जाव - परक्कमे, एवं मस्सा वि, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । ३५१ १२. [अ०] देवे णं भंते ! महिडीए जाब- महेसक्से बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू, तिरियपचयं वा तिरियमिति वा उल्लंघेत वा लंघेत्तर वा ? [उ०] गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे । " १३. [प्र०] देवे णं भंते ! महिडीए जाब मसको बाहिरए पोगले परिवारता पभू तिरिष० जाव-पयेत्तर वा [३०] हंता पभू । ' सेवं भंते ! सेवं भंते 'ति । चोदसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो. ६. असुरकुमारो दश स्थानोने अनुभवता बिहरे छे से आ प्रमाणे १ इष्ट शब्द, २ इष्ट रूप यावत् १० इए उत्थान, कर्म, बल, वीर्य अने पुरुषकार पराक्रम र प्रमाणे यावत् स्वनितकुमारो सुची जाणं. ७. पृथिविकायिको छ स्थानोने अनुभवता हिरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इथनिष्ठ स्पर्श, २ इष्टानिष्ट गति यावत्-६ 'इष्टानिष्ट पुरुषकार - पराक्रम' – ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी जाण ८. बेइन्द्रिय जीवो सात स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट रस - इत्यादि समग्र एकेन्द्रियोनी पेठे अहिं कहेवुं. ९. तेइन्द्रिय जीवो आठ स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट गन्ध - इत्यादि बाकी बधुं बेइन्द्रियोनी पेठे कहेतुं . १०. परिन्द्रिय जीवो नव स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट रूप इयादि बाकी वधुं तेइन्द्रिय जीवोनी द्र पेठे जाणवुं. जीवो. ११. पंचेन्द्रियचियोनिको दश स्थानकोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे- १ इष्टानिष्ट शब्द इलादि यावत्-पराक्रम सुधी वे कहेवुं. ए प्रमाणे मनुष्यो पण जाणवा. जेम असुरकुमार संबन्धे कह्युं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक भने वैमानिक संबन्धे कहे. तिर्यचो. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना - भवधारणीय शरीर व्यतिरिक्त पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय तिर्छा पर्वतने के तिर्धी [प्राकारनी] भींतने उल्लंघवा के वारंवार उल्लंघवा समर्थ थाय ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, [अर्थात् भवधारणीय शरीर व्यतिरिक्त बीजा बहारना पुलोने ग्रहण कर्या शिवाय पर्वतादिने उहुंघचानुं सामर्थ्य प्रवर्ततुं नथी.] १२. [प्र०] हे भगवन्! मोटी दिवालये यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारमा पुलोने ग्रहण करी तिर्छा पर्वताने के तिहीं प्राकारनी भीतने उल्लंघना समर्थ के [त०] हा, गौतम | समर्थ छे. 'हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन्! ते एमज छे'-एम कही [ भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.] चतुर्दश शतके पंचम उद्देशक समाप्त. ७ * एकेन्द्रियोनी शुभाशुभ क्षेत्रमां उत्पत्ति थवानो संभव होवाथी तेने साता अने असाताना उदयनो संभव छे माटे तेने इष्टानिष्ट स्पर्शादि होय छे. यद्यपि तेओ स्थावर छे तेथी तेने खभावधी गमनरूप गतिनो संभव नथी तो पण तेओमां परप्रेरित गति होय छे, अने ते शुभाशुभरूप होवाथी 'इष्टानिष्ट' शनिष्टान्य मदि ने पत्थरने विषे जाग स्थावर होवाथी एकेन्द्रिवने विवे उत्थानादि होता नथी, परन्तु पूर्वअमला उत्था नादिना संस्कारमा बरकुमारी पृथिवीकायिको. मैन्द्रियो महर्द्धिक देव लो ग्रहण कर्या शिवा य पर्वता दिने उ लंबी शके १ पहारना पुगकोने करीत ग्रहण दिने उल्लंघनास मर्थ छे. / Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठ्ठओ उद्देसो। १. [प्र०] रायगिहे जाव-एवं वयासी-नेरहया णं भंते ! किमाहारा, किंपरिणामा, किंजोणीया, किंठितीया पण्णत्ता [उ०] गोयमा ! नेरइया णं पोग्गलाहारा, पोग्गलपरिणामा, पोग्गलजोणिया; पोग्गलद्वितीया, कम्मोवगा, कम्मनियाणा, कम्मद्वितीया, कम्मुणामेव विप्परियासमेंति, एवं जाव-वेमाणिया। २. [प्र. नेरहया णं भंते ! किंबीयीदवाइं आहारैति अवीचिदवाई आहारति उ०] गोयमा! नेरतिया वीचिदखाई पि आहारैति, अवीचिदवाई पि आहारैति । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चर-'नेरतिया वीधि० तं चैव जाव-आहारेंति'.? [उ.] गोयमा ! जे णं नेरइया एगपएसूणाई पि दवाई आहारेति, ते णं नेरतिया वीचिदवाई आहारेंति, जे णं नेरतिया पडि. पुनाई दवाई आहारेंति ते गं नेरइया अवीचिदचाई आहारेंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चद-जाव-आहारेंति, एवं जाववेमाणिया आहारैति । ३. [प्र०] जाहे णं भंते ! सके दोविंदे देवराया दिखाई भोगभोगाई जिउंकामे भवति से कहमियाणि पकरेंति [उ.] गोयमा! ताहे चेव णं से सके देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवगं विउच्चति, एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साई, जाव-अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्वेणं । तस्स गं नेमिपडिरूवगस्स उरि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पन्नत्ते, जाव-मणीणं फासे, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमझदेसभागे तत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं विउच्चति पंच जोयणसयाई उडे उच्चत्तेणं, अड्डाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अभुग्गय-मूसिय० वन्नओ जाव-पडिरूवं । षष्ठ उद्देशक. नारकोने आहार १. [प्र०] राजगृहमा [भगवान् गौतम] आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! नारको शो आहार करे, अने ते [आहारनो] शो परिपरिणाम, योनि, णाम थाय, तेनी योनि (उत्पत्तिस्थानक) केवी होय, अने तेनी स्थिति-अवस्थानुं कारण शुं छे ? [उ०] हे गौतम ! नारको पुद्गलनो आस्थिति वगेरे. हार करे, अने तेनो पुद्गलरूपे परिणाम थाय, [शीत अने उष्ण स्पर्शवाळा] पुद्गलो एज तेनी योनि-उत्पत्तिस्थानक छे, [ आयुषकर्मना] पुद्गलो ए तेनी नरकमां स्थितिनुं कारण छे. तथा ते [बन्धद्वारा] कर्मने प्राप्त थयेला छे, ते नारकपणानुं निमित्तभूतकर्मवाळा छे, कर्म पुद्गलथी तेओनी स्थिति छे, अने कर्मने लीधे अन्य पर्यायने प्राप्त थाय छे. ए प्रमाणे यायद्-वैमानिको सुधी जाणवू. नारको वीचि भने २. [प्र०] हे भगवन् ! नारको वीचिद्रव्योनो आहार करें छे के अवीचि द्रव्योनो आहार करे छे ! [उ०] हे गौतम नारको वीअवीचिद्रव्यनो चिद्रव्योनो पण आहार करे छे अने अवीचिद्रव्योनो पण आहार करे छे. प्र०] हे भगवन्! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के, माहार करे . 'नारको वीचिद्रव्यो अने अवीचिद्रव्योनो पण आहार करे छे' ? [उ०] हे गौतम! जे नारको एक प्रदेश पण न्यून द्रव्योनो आहार करे छे तेओ वीचिद्रव्योनो आहार करे छे, अने जे नैरयिको परिपूर्ण द्रव्योनो आहार करे छे तेओ अवीचि द्रव्योनो आहार करे छे, ते हेतुथी हे गौतम ! एम कर्तुं छे के, 'नारको कीचि तथा अवीचि ए बन्ने प्रकारना द्रव्योनो आहार करे छे.' ए प्रमाणे यावद्-'वैमानिको आहार करे छे' त्यां सुधी जाणवू.. ग्यारे इन्द्र भोग ३. [प्र०] हे भगवन् ! देवोनो इन्द्र अने देवोनो राजा शक्र ज्यारे भोगववा योग्य दिव्य [मनोज्ञ स्पर्शादिक भोगोने भोगववाने भोगवा इच्छे इच्छे त्यार ते तेने ते वखते केवी रीते भोगवे ? [उ०] हे गौतम ! त्यारे ते देवोनो इन्द्र अने देवोनो राजा शक एक मोटुं चक्रना जे, (वृत्तात्यारे ते शुं करे। कार ) स्थान ििवकुर्वे छे, तेनी लंबाइ अने पहोळाइ एक लाख योजननी अने तेनी परिधि त्रण लाख [ सोळ हजार बसो सत्यावीश योजन त्रण क्रोश, एकसो अठ्यावीश धनुष अने कंइक अधिक साडातेर] आंगुल छे. ते चक्रना आकारवाळा स्थाननी उपर बरोबर सम अने रमणीय २ * जेटला पुद्गलद्रव्यना समुदायथी संपूर्ण आहार थाय ते अवीचिद्रव्य, अने संपूर्ण आहारथी एकादिप्रदेश न्यून आहार ते वीचिद्रव्य. ३ अिहिं शक्रने सुधर्मासभा भोगस्थान छे, तो पण ते चक्रना आकारवालु स्थान विकुर्वे छे ते जिननी भाशातनानो त्याग करवा माटे छे. कारण के सुधर्मा सभामा माणवक स्तम्भने विषे डाभडामां जिनना अस्थिओ छे, अने तेनी पासे (मैथुननिमित्त) विषयोपभोग करवामा जिननी भाशातना थाय, माटे मैथुन निमित्तक विषयोपभोगमाटे चकना आकारवाळु बीजें स्थान विकुर्वे छे.-टीका. . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ - उदेशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५३ 11 तस्स पासायवर्डिसगस्य उल्लोए पउमलयाभत्ति चित्ते, जाव- पडिरूवे । तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे, जाय-मणीर्ण फासो, मणिपेडिया अजोयनिया जदा बेमाणियाणं तीसे णं मणिपेडिया उवरिं महंगे देवसयणजे विवर, सयणिजवन्नओ, जाव- पडिरूवे । तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, होहि व अणिपाई नट्टाणिण य गंधज्ञाणिरण यसद्धि महयाहयनदृ० जाव दिखाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह । - ४. [अ०] जाये ईसा देविंदे देवराया दिवाएं० [०] जहा सके तथा ईसाने वि निरवसेसं, एवं सकुमारेषि, नवरं पासायचसो छ जोयणसयाई उई उच्च लेणं, तिथि जोवणसयाई विक्खभेणं, मणिपेडिया तहेच अट्ठजोगणिया तीखे मणिपेडिया उचरिं एत्थ णं महेगं सीहासणं विउच्चर सपरिवारं भाणियां । तत्थ णं वर्णकुमारे देविंदे देवराया वाचत्तरीप सामाणियसाहस्सीहिं जाव - चउहिं बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि य बहूहिं सणकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि देवीहि यसद्धिं संपरिवुडे महया जाय-बिहरद एवं जहा संकुमारे तहा जाव पाणओ ओ, नवरं जो जस्ल परिवारो सो तस्स भाणियचो, पासायउच्चत्तं जं सपसु २ कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्धद्धं वित्थारो, जाव - अच्यस्स नवजोयणसयाई उहूं उत्पत्तेणं, अद्धपंचमाई जोयणसवाई विषयांमेणं, तत्व णं गोयमा ! अधुर देविंदे देवराया दसाई सामाणियसादस्लीि जाव - विहरह, सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । चोदसमस छट्टओ उद्देसो समत्तो । भूमिभाग कहेलो छे. [तेनुं वर्णन ] यावत् - 'मनोज्ञ स्पर्श होय छे' त्यां सुधी जाणवुं. ते चक्राकारवाळा ते स्थाननी बरोबर मध्यभागे एक मोटो प्रासादावतंसक - भूषणरूप सुन्दर प्रासाद विकुर्वे छे. ते उंचाइमां पांचसे योजन उंचो अने तेनो विष्कंभ - विस्तार अढीसो योजननो छे. ते प्रासाद अभ्युद्गत- अत्यन्त उंचो [अने प्रभाना पुंजवडे व्याप्त होवाथी जाणे हसतो होयनी ! ]- इत्यादि * प्रासादवर्णन जाणवु, यावत्तू - ते प्रतिरूप - सुंदर अने दर्शनीय छे. तथा ते प्रासादावतंसकनो उल्लोच - उपरनो भाग पद्म अने लताओना चित्रामणथी विचित्र अने यावद् - दर्शनीय छे. वळी ते प्रासादावतंसकनो अंदरनो भाग बराबर सम अने रमणीय छे, यावत्- 'त्यां मणिओनो स्पर्श होय छे' - त्यां सुधी वर्णन जागवली यां आठ योजन उंची एक मणिपीठिका छे, अने ते वैमानिकोनी मणिपीठिका जेवी जाणची, ते मणिपीठिकानी उपर एक मोटी देवशय्या विकुर्वे छे, ते देवशय्यानुं वर्णन यावत् 'प्रतिरूप' छे त्यां सुधी कहेवुं. त्यां देवनो इन्द्र अने देवनो राजा शक्र पोतपोताना परिवारयुक्त आठ पट्टराणीओ साथै गन्धर्वानीक अने नाज्यानीक ए वे प्रकारना अनीकली साथे मोटेची आहत बगाडेला नाव्य, गीत अने वादित्रना शब्दवडे यावत्-भोगववा योग्य दिव्य भोगोने भोगवतो विहरे छे. ४. [ प्र० ] हे भगवन् ! देवेन्द्र अने देवनो राजा ईशान दिव्य भोगोने भोगववा इच्छे प्यारे ते केवी रीते भोगवे ? [30] जेम शक्र संबन्धे कांतेम ईशान संबन्धे पण समग्र कहेतुं. ए प्रमाणे सनत्कुमारने विषे पण जाणवुं, परन्तु विशेष ए के के ए प्रासादावतंसक उंचाईमा छसो योजन अने पहोळाइमां त्रणसो योजन छे. तथा ते मणिपीठिकानी उपर एक मोटुं सिंहासन सपरिवार - पोताना परिवार ने योग्य आसन सहित विकुर्वे हे इयादि कहे. तेमां देवेन्द्र अने देवनो राजा सनत्कुमार महोंतेर हजार सामानिक देवो साधे, यावत्-बे खाख अपाशी हजार आत्मरक्षक देवो साथ अने सनकुमार कल्पमा रहेनारा घणा वैमानिक देवो अने देवीओ साधे परिवृत यह [मोटा गीत अने वादित्रना] शब्दोवडे यावत् - विहरे छे. ए प्रमाणे जेम सनत्कुमार संबन्धे कयुं, तेम यावत्-प्राणत तथा अच्युत देवलोक सुधी जाण. परन्तु विशेष एछे के, जेनो जेटली परिवार होय सेनो सेटलो कहेवो. पोत पोताना कल्पना विमानोनी उंचाइना जेटली प्रासादनी "उंचाई जाणवी, अने उंचाइना अडधा भाग जेटलो तेनो विस्तार जाणवो, यावत् - अच्युत देवलोकनो प्रासादावतंसक नवसो योजन उंचो छे, अने साठा चारसो योजन पहोलो छे. तेमां हे गौतम देवेन्द्र देवराज अच्युत दश हजार सामानिक देवो साधे यावद्विहरे छे. बाकी बधुं पूर्वं प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही यावद् - [ भगवान् गौतम] विहरे छे. चतुर्दश शतके षष्ठ उद्देशक समाप्त. ३ * प्रासादवर्णन संबन्धे जुओ-भग० सं० १ पृ० ३००. कुमारेन्द्र मात्र सिहासन प्रयोजन नथी है, परन्तु एक भईखाननी पेढे देवशय्या विभी कारण के ते सर्वमात्रची करतो होवाथीने + सनत्कुमारेन्द्रनो परिवार कह्यो छे, माहेन्द्रने सीतेर हजार सामानिक देवो अने बे लाख एंशी हजार अंगरक्षक देवो होय छे, ब्रह्मदेवलोकने साठ हजार, लान्तकने पचास हजार, शुक्रने चाळीश हजार, सहस्रारने श्रीश हजार, आणत प्राणतने वीश हजार भने आरण-अच्युतने दश हजार सामानिक देवो होय छे, अने तेथी चारगुणा आत्मरक्षक देवो जाणवा. , ॥ सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवलोकना विमान छसो योजन उंचा छे, माटे तेना प्रासादनी उंचाइ पण छसो योजन जाणवी, ब्रह्म अने लान्तकने विषे सातसो योजन, म भने ससारने विषे आठो योजन आत प्राप्त भने धारण-अच्युतेन्द्रनादो योजना छे भने तेनो विचार भी भरो छे. यावत्-अच्युतनो नवसो योजन प्रासाद उंचो छे, अने तेनो विस्तार साडा चारसो योजन छे. आ अच्युत देवलोकने विषे अच्युतेन्द्र दश हजार सामानिक देवोनी साधे यावत् विहरे छे. अहिं एटलो विशेष छे के सनत्कुमारादि इन्द्रो सामानिकादि देवोना परिवार सहित चक्रना आकारवाळा स्थानने विषे जाय छे, कारण के तेओना समक्ष स्पर्शादि विषयोनो उपभोग करवो अविरुद्ध छे, शक्र अने ईशानेन्द्र परिवार सहित त्यां जता नथी, कारण के ते कायसेवी होवाथी तेओना समक्ष काय प्रतिचारणा ( कायद्वारा विषयोपभोग ) सेववो लज्जनीय अने अनुचित छे. टीका. ४५ भ० सू० -- (शानेन्द्र भोग भोगके रो बवा इच्छे प्यारे से केवी भोगवे ? : Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञाननी अप्रा तिमी खित्र वयेका गौतम स्वामीने माश्वासन. अनुत्तरोपपातिक देवो जाणे छे भने जुए के १ 'तुल्यता. सो उसो । १. [ प्र० ] रायगि जाव - परिसा पडिगया । 'गोयमा' ! दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी'चिर संसिद्धोऽसि मे गोयमा ! चिरसंधुओऽसि मे गोयमा । चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा । चिरजुसिमोऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा । चिराणुवत्ती सि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोप अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं ? मरणा कायस्स भेदा, ओ चुत्ता दो वितुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणता भविस्सामो । २. [ प्र० ] जहा णं भंते! वयं एयमहं जाणामो, पासामो, तहा णं. अणुत्तरोववाइया वि देवा एयमहं जाणंति, पासंति ? [30] हंता गोयमा ! जहा णं वयं एयमहं जाणामो, पासामो तहा अणुत्तरोववाइया वि देवा एयम जाणंति, पासंति । [प्र०] से केणट्टेणं जाव- पासंति ! [उ०] गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं श्रणंताओ मणोदववग्गणाओ लाओ, पत्ताओ, अमिसमन्नागयाओ भवंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुश्च - जाव - ' पासंति' । ३. [ प्र० ] कवि णं भंते ! तुल्लप पण्णत्ते ? [30] गोयमा ! छविहे तुल्लए पण्णत्ते, तंजद्दा- १ दधतुल्लप, २ खेततुल्लप, ३ कालतुल्लए, ४ भवतुल्लए, ५ भावतुल्लप, ६ संठाणतुल्लए । सप्तम उद्देशक. १. राजगृहमा यावत्-परिषद् वांदीने पाछी गई. [भगवान् श्री महावीर स्वामी केवलज्ञाननी अप्राप्तिथी खिन्न थयेला गौतम स्वामीने 'आश्वासन आपवा माटे पोतानो तेमनी साथेनो लांबा कालनो परिचय बतावी भविष्यमा पोतानी साथे तेमनी तुल्यता बतावे छे-] श्रमण भगवंत महावीरे ‘हे गौतम !” एम भगवान् गौतमने बोलावी आ प्रमाणे कहुं-" हे गौतम! तुं मारी साथै घर्णा काळ सुघी स्नेहथी बंधायेल छे, हे गौतम! तें घणा लांबा काळथी [ स्नेहने लीधे ] मारी प्रशंसा करी छे, हे गौतम! तारो मारी साथै घणा लांबा काळथी परिचय छे, हे गौतम! तें घणा लांबा काळथी मारी सेवा करी छे, हे गौतम! तुं घणा लांबा काळथी मने अनुसर्यो छे, हे गौतम! तुं घणा लांबा काळथी मारी साथे अनुकूलपणे वर्त्यो छे, हे गौतम! अनन्तर ( तुरतना) देवभवमां अने तुरतना मनुष्यभवर्मा [ए प्रमाणे तारी साथै संबन्ध छे, ] वधारे शुं ! पण मरण पछी शरीरनो नाश थया बाद अहींथी व्यवी आपणे बन्ने सरखा, एकार्थ - एकप्रयोजनवाळा, (अथवा एक सिद्धिक्षेत्रमा रहेवावाळा ) विशेषता अने भेदरहित थईशुं. २. [प्र० ] हे भगवन् ! जेम आपणे बन्ने आ (पूर्वोक्त) अर्थने *जाणीए छीए अने जोइए छीए, तेम अनुत्तरौपपातिक देवो पण एवात जाणे छे अने जुए छे ? [30] हा, गौतम ! जेम आपणे बन्ने पूर्वोक्त वातने जाणीए छीए अने जोइए छीए तेम अनुत्तरौपपातिक देवोपण एवात जाणे छे अने जुए छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'जेम आपणे जाणीए छीए तेम अनुत्तरौपपातिक देवो पण जाणे छे अने जुए छे' ? [उ०] हे गौतमं ! अनुत्तरौपपातिक देवोए मनोद्रव्यनी अनंत वर्गणाओ ( अवधिज्ञाननी लब्धिथी) [ज्ञेयरूपे] मेळवी छे, प्राप्त करी छे, अने [ गुण- पर्यायना ज्ञानथी ] व्याप्त करी छे, माटे हे गौतम! एम कहेवाय छे के ते (अनुत्तरौपपातिक देवो ) जाणे छे अने जुए छे.. ३. [प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारे तुल्य कहेल छे ! [उ०] हे गौतम ! तुल्य छ प्रकारे कहेलं छे, ते आ प्रमाणे- १ द्रव्यतुल्य, २ क्षेत्रतुल्य, ३ कालतुल्य, ४ भवतुल्य, ५ भावतुल्य अने ६ संस्थानतुल्य. २ * गौतमखामी महावीर भगवंतने कहे छे-" हुं भविष्यकाळमां आपना तुल्य थइश" एम आप केवलज्ञानथी जाणो छे भने ते बात हूं आपना उपदेशथी जाणं धुं, तेम अनुत्तरोपपातिक देवो पण आ बात जाणे छे अने जुए छे ?- ए प्रश्ननो आशय छे- टीका. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पा. भी लालसागर तुरिवान C महावीर जैन व्यासचना केन्द्र शतक १४. – उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५५ ४. [ प्र० ] से केणट्टे भंते! एवं बुधई 'दधतुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स द भ तुले, परमाणुपोग्गले. परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दवओ णो तुल्ले, दुपपसिए बंधे दुपपसियस्स खंधस्स दवभो तुले, दुपपसिप बंधे दुपपसियवइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुले, एवं जाव- दसपपसिप, तुल्लसंखेज्जपपसिए खंधे तुल्लसंखेजपरसियरस संघ दओ तुले, तुलसंखे जपपलिए खंधे तुल्लसंखेजपरसियवइरित्तस्स खंधस्स दखओ णो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेजपरसिप वि एवं तुलअणतपसिए वि से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चर - 'दधतुल्लए' २ । ५. [ प्र० ] से केणट्टे भंते । एवं बुच्चर - 'खेत्ततुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! एगपरसोगाढे पोग्गले एगपएसोगादस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुले, एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ णो तुले, एवं जाव- दसपएसोगाढे, तुलसंखेजपरसोगाढे तुलसंखेज ०, एवं तुल्लभसंखेजपरसोगाढे वि, से तेणट्टेणं जाव - 'खेत्ततुल्लए' २ । ६. [प्र० ] से केणट्टे भंते ! एवं बुवइ - 'कालतुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयठितियस् य पोग्गलस्स कालओ तुल्ले, एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयठितीयवइरित्तस्स पोग्गलस्स कालओ णो तुले, एवं जाब - दससमयद्वितीय, तुल्लसंखेज्जसमयठितीए एवं चेव, एवं तुल्लअसंखेज्जसमयद्वितीए वि, से तेणट्टेणं जाब- 'कालतुल्लए' २ । ७. [प्र० ] से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'भवतुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवट्टयाए तुल्ले, नेरद्दयवरिस भवट्टयाए नो तुल्ले, तिरिक्खजोणिए एवं चेव, एवं मणुस्से, एवं देवे वि, से तेणद्वेणं जाव - 'भवतुल्लए' २ । ८. [प्र०] से केणट्टेणं भंते 1 एवं बुच्चइ - 'भावतुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालस्स पोग्गलस्स भाव तुले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ णो तुल्ले, एवं जाव - दसगुणकालप, एवं तुलसंखेज्जगुणकालप पोग्गले, एवं तुल्लअसंखेज्जगुणकालए वि, एवं तुल्लअनंतगुणकालए वि, जहा कालए एवं नीलए, लोदि ४. [प्र० ] हे भगवन् ! द्रव्यतुल्य ए 'द्रव्यतुल्य' एम केम कहेवाय ? [अ०] हे गौतम! एक परमाणुपुद्गल बीजा परमाणुपुद्गलनी 1 साथे द्रव्यथी तुल्य छे, पण परमाणुपुद्गल परमाणुपुद्गल शिवायना बीजा पदार्थ साथे द्रव्यथी तुल्य नथी; ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक स्कन्ध (बीजा) द्विप्रदेशिक स्कन्धनी साथे द्रव्यथी तुल्य छे, पण द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्विप्रदेशिक स्कन्ध सिवायना बीजा पदार्थ साथै द्रव्यथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत् - दशप्रदेशिक स्कन्ध सुधी कहेवु. तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध ( तेना ) तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्धनी सा द्रव्यथी तुल्य छे, पण तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध शिवायना बीजा पदार्थ साथे द्रव्यथी तुल्य नथी, ए प्रमाणे तुल्यअसंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध तथा तुल्यअनन्तप्रदेशिक स्कन्ध संबन्धे पण जाणवुं. माटे हे गौतम! ते कारणथी द्रव्यतुल्य ए 'द्रव्य - तुल्य' कहेवाय के. ५. [प्र०] हे भगवन् ! क्षेत्रतुल्य ए 'क्षेत्रतुल्य' शा कारणथी कहेवाय छे ! [ उ०] हे गौतम! आकाशना एक प्रदेशावगाढ-एक प्रदेशमां रहेल पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशमां रहेल पुद्गलद्रव्यनी साथे क्षेत्रथी तुल्य कहेवाय छे; पण एक प्रदेशमां रहेल पुद्गलद्रव्य शिवायना द्रव्य साथै क्षेत्रथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत् - दशप्रदेशावगाढ- दश प्रदेशमां रहेल पुद्गल द्रव्य संबन्धे पण जाणवुं. तथा तुल्यसंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्धनी साथे तुल्यसंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्ध तुल्य होय, ए प्रमाणे तुल्यअसंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्ध संबन्धे पण जाणवुं. माटे हे गौतम । ते हेतुथी क्षेत्रतुल्य ए 'क्षेत्रतुल्य' कहेवाय छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! कालतुल्य ए 'कालतुल्य' शा हेतुथी कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! एक समयनी स्थितिवाळु पुद्गलद्रव्य एक समयनी स्थितिवाळा पुद्गलनी ताथे कालथी तुल्य छे. एक समयनी स्थितिवाळु पुद्गलद्रव्य एक समयनी स्थिति सिवायना पुद्गलद्रव्य साथै कालथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत् - दशसमयनी स्थितिवाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे जाणवु. तुल्यसंख्यातासमयनी स्थितिवाळा अने तुल्य - असंख्यात समयनी स्थितिवाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे पण ए प्रमाणे जाणवुं. ते हेतुथी ए प्रमाणे कालतुल्य ए 'कालतुल्य' कहेवाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के भवतुल्य ए 'भवतुल्य' छे ? [ उ०] हे गौतम! नारक जीव नारकनी साथै भवरूपे तुल्य नारक नारक सिवायना बीजा जीव साथे भवरूपे तुल्य नथी. ए प्रमाणे तिर्यंचयोनिक, मनुष्य अने देवसंबन्धे पण जाण. माटे हे गौतम! ते हेतुथी यावत्- 'भवतुल्य' कहेवाय छे. ८. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के भावतुल्य ए 'भावतुल्य' छे ! [उ०] हे गौतम! एकगुण काळावर्णवाळु 'पुद्गलद्रव्य एकगुण काळावर्णवाळा पुद्गलद्रव्यनी साथै भावथी तुल्य छे, परन्तु एकगुण काळावर्णवालुं पुद्गलद्रव्य एकगुणकाळा वर्ण शिवायना बीजा पुद्गलद्रव्य साथे भावतुल्य नथी. ए प्रमाणे यावद् दशगुण काळावर्णवाळा पुद्गल संबन्धे जाणवु. तुल्यसंख्यातगुणकाळा, तुल्यअसं . प्रम्यतुश्य. क्षेत्र तुल्य. काळतुष्य. भवतुल्य भावमुश्य Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खानव. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १४. - उद्देशक ७ हालिदे कि, एवं सुभिगंधे, एवं दुम्निगंधे, एवं तित्ते, जाब- महुरे एवं कंपखडे, जाब- लुक्ने, उदय भावे उदयरस भावस्य भाव तुले, उदय भावे उद्देश्यभाववदरित्तरस माधरस भावओो जो तुले, एवं उचसमिप, खइप, खोसमिय, पारिणामिए । संनिवादप भावे संनिवाइयस्स मायरस से तेणद्वेषं गोयमा एवं सद- 'भाषतुल २. ३.५६ पछी मरणसमुद्र घात करी अनासक्त मई माहार करे ? शाहेतुथी एम कहे बाय के ? ९. [प्र० ] से केणट्टे भंते! एवं बुच्चद्द- 'संठाणतुल्लए' २१ [अ०] गोयमा ! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स ठाणओ तुले, परिमंडलसंठाणवइरित्तस्स संठाणओ नो तुल्ले, एवं वट्टे, तंसे, चउरंसे, आयए, समचउरंसठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणो हे समचरंसे संढाणे समचरंसठाणवइरित्तस्स संठाणरस संढाणओ मो तुले एवं जायपरिमंडले व एवं जाप डुंडे से तेजद्वेगं जाय- 'संडाणतुल्लए' २ । 2 ख्यातगुणकाळा अने तुल्यअनंतगुणकाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे पण ए प्रमाणे जाणवुं. जेम काळावर्णवाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे कहुँ, म नील (लीला) राता, पीळा अने शुक्ल पुद्गलद्रव्य संबन्धे पण जाणवुं. ए प्रमाणे सुगंधी, दुर्गंधी, कटुक यावद् मधुर द्रव्य संबन्धे तथा कर्कश औदविकादि भाव - ( बरसठ ) यावद् - रुक्ष पुद्गलद्रव्य संबन्धे जाणवुं. औदयिक भाव * औदयिक भावनी साथे भावथी तुल्य छे. औदयिक भाव सिवायना बडे तुक्य. बीजा भाव साथे भावधी तुल्य नथी. ए प्रमाणे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भावसंबन्धे जाणवुं सांनिपातिक ( अनेक भावना मळवावडे थयेला ) भाव सांनिपातिक भावनी साथे भावथी तुल्य छे. ते हेतुथी हे गौतम! एम कहेवाय छे के भावतुल्य ए 'भावतुल्य' छे. १०. [प्र०] भत्तपञ्चक्खायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव - अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए काल करेति तय पच्छा अमुच्छिए अभिये जाव-अणज्झोचवले आहारमाहारेति [४०] हंता गोपमा ! भत्तपचक्यायर णं णगारे तं चैव । [प्र०] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ- 'भत्तपच्चक्खायए णं तं चेव' ? [अ०] गोयमा ! भत्तपच्चक्वायर णं अणगारे मुच्छिए जाव - अज्झोववने आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेश, तओ पच्छा अमुच्छिप जाव- आहारे भवद्द, से तेणट्टेणं गोषमा ! गाव आदारमाद्वारेति । ९. [ प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के संस्थानतुल्य ए 'संस्थानतुल्य' छे ? [उ०] हे गौतम ! ( १ ) परिमंडल - संस्थान परिमंडलसंस्थाननी साथै संस्थानवडे तुल्य छे, परिमंडलसंस्थान ते शिवायना बीजा संस्थाननी साथै संस्थानवडे तुल्य नथी. ए प्रमाणे (२) वृत्त (गोळ) संस्थान, (३) यस (त्रिकोण) संस्थान, (४) चतुरस्र-चोरससंस्थान अने (५) आयत-ठं संस्थान पण जाण तथा समचतुरस्त्र संस्थान समचतुरस संस्थाननी साधे संस्थानची तुल्य छे, पण समचतुरस्र सिवायना बीजा संस्थाननी साधे संस्थानथी तुल्य नधी. ए प्रमाणे न्यग्रोधपरिमंडल, अने यावत्- हुंड संस्थान सुधी जाणवुं. माटे हे गौतम! ते हेतुथी यावत् - संस्थानतुल्य ए 'संस्थानतुल्य' कहेवाय छे. आहारनो त्यागी अनगार थ १०. [अ०] हे भगवन् । भत्तावाल्यान करनार (आहारनो लागी) अनगार मूर्छित यावत् अस्यन्त आसत पईने आहार आहार करे भने करे, अने पछी स्वभावथी काल - मारणांतिक समुद्घात करे, त्यार पछी अमूर्छित-मूर्छा विना, अगृद्ध-लालच विना यावत् - अनासक्त थई आहार करे ? [उ०] हा, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार - इत्यादि पूर्व प्रमाणे आहार करे. [ प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार - इत्यादि [ पूर्व प्रमाणे ] आहार करे ? [उ०] हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार (प्रथम) मूर्च्छित, यावत् - आहारने विषे आसक्त होय छे, त्यार पछी स्वभावथी ते काल-मारणांतिक समुद्घात करे छे अने त्यार बाद याबद् आहारने विषे अमूर्च्छित-रागरहित थई आहार करे छे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी भक्तप्रवाख्यान करनार अनगार पूर्व प्रमाणे यावद'आहार करे छे.' * १ कर्मनो उदय, अथवा कर्मना उदयथी थयेलो जीवनो परिणाम ते औदयिक भाव २ उदयप्राप्त कर्मनो क्षय अने उदयमां नहि प्राप्त थयेला कर्मना उदयने अमुक काळसुधी रोकवो ते औपशमिक भाव एटले उपशमक्रिया, अथवा कर्मना उपशम वडे थयेलो आत्मानो परिणाम ते ओपशमिक भाव; ३ कर्मनो क्षय अथवा कर्मना क्षयं थवा वडे उत्पन्न थयेलो भाव-परिणाम ते क्षायिक भाव. ४ क्षय-उदय प्राप्त कर्मना नाश साथै उपशम-उदयने रोकवो ते क्षायोपशमिक भाव, अथवा क्षयोपशमवडे थयेलो जे आत्मपरिणाम ते क्षायोपशमिकभाव. अहिं औपशमिक भने क्षायोपशमिक भावनी व्याख्या एक प्रकारनी छे, तो पण एटो विशेष के क्षायोपशमिक भागने विषे मात्र शिकवेदन नभी प्रदेशवेदन के भने औपशमिक भावने विषे प्रदेश न. ५ कर्मना क्षयादि शिवाय अनादि काऴनो खाभाविक भाव ते पारिणामिक भाव ६ औदयिकादि वे त्रण भावोनो संयोग ते सांनिपातिक भाव कहेवाय छे टीका. संस्थान आकारविशेष लेना ये प्रकार छे जीवस्थान अने र अजीवसंस्थान मां अजीवसंस्थान पांच प्रकारे छे (१) परिमंजस्थान पुनी पेठे महारथी मोळ अने मध्यम पोकळ होय. तेथा पन भने प्रतरना मैदी ने प्रकार. (२) पोसावरहित सेवा पन बने एमे बी एक एकनामा प्रदेश भने विषादे ए प्रमाणे (३) *यन (त्रिकोणाकार ), (४) चतुरस्र (चतुष्कोण), (५) आयत - दंडनी पेठे लांबु, तेना त्रण प्रकार छे १ श्रेण्यायत, २ प्रतरायत अने ३ घनायत. वळी एक एक प्रकार प्रदेशमा भने विदेशमा आा पांच प्रकारमा संस्थानाने प्रयोग नामकर्मना उदयवी जीवोनो आकार विशेष थाय ते जीवसंस्थान कद्देवाय छे. तेना समचतुरस्रादि छ प्रकार छे. टीका. कुंभाराची पेठेबहारची गोल बने अंदरची Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४. - उद्देशक ७० भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५७ ११. [०] अस्थि भंते ! लवसत्तमा देवा २ १ [अ०] हंता अस्थि । [प्र०] से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुवद- 'लवसमा देवा' २१ [४०] गोयमा ! से जहानामए केद्र पुरिसे तरुणे जाच निउणसिप्पोबगर सालीण वा, वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, जवजवाण वा, पक्काणं, परियाताणं, हरियाणं, हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपजणपणं अभिपणं पडसाद - रिया २ पडिसंखिचिया २ जाय इणामेव २ सि क सत्त लवर लुजा, जति णं गोयमा तेर्सि देवाणं एवतियं कार्य साउद पहुप्पते तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्यंता जाव अंतं करेंता, से तेणट्टेणं जाव 'लवसत्तमा देवा' २ । १२. [प्र०] अत्थि णं भंते ! 'अणुत्तरोववाइया देवा' २ १ [अ०] हंता अस्थि । [प्र० ] से केणट्टेणं भंते । एवं बुवा'अणुत्तरोवचाईमा देवा' २ [४०] गोयमा अनुत्तरोचचाश्याणं देवानं अणुतरा सद्दा, जाव अणुत्तरा फासा से तेजद्वेणं गोयमा ! एवं बुवइ - जाव - 'अणुत्तरोववाइया देवा' २ | - ? १२. [प्र०] अणुत्तरोपवाइया णं भंते देवा णं केवतिपणं कम्मायसेसेणं अणुत्तरोववाहयदेवता उपषन्ना [४०] गोवमा जायतियं मत्तिएं समने निचे कम्मं निजरेति एवतिपणं कम्मावसेसेणं अनुत्तरोपवाश्या देवा देवचार उच या 'सेवं भंते! सेवं भंते 'ति । 1 चोदसमसए सचमो उद्देसो समचो । ११. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं * लवसत्तम देवो ए लवसत्तम देवो छे ! [उ०] हा, गौतम ! छे. [प्र० ] हे भगवन् ! लवसत्तम देवो ए 'लवसत्तम देवो' एम शा हेतुथी कहेवाय छे ? [उ० ] हे गौतम! जेम कोई जुवान पुरुष यावत् - निपुण शिल्पनो ज्ञाता होय, अने ते पाकेला, लणवाने योग्य थयेला, पीळा थयेला अने पीळीनाळवाळा शालि, त्रीहि, गहुँ, जब अने जवजव ( धान्यविशेष) ने [ हाथथी ] एकठा करी, मुठिवढे ग्रहण करी 'आ काप्या' ए प्रमाणे शीघ्रतापूर्वक नवीन पाणी चढावेत तीक्ष्ण दातरदायडे सात लब ( कोळी) जेटला समयमा कापी नाखे, हे गौतम! जो ते देवोनुं एटलं ( सात लव जेटलं ) आयुष्य वधारे होत तो ते देवो तेज भवमां सिद्ध थात, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करत. माटे ते हेतुथी हे गौतम! ते लवसत्तम देवो ए 'लवसत्तम' एम कहेवाय छे. १२. [प्र० ] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक देवो २ छे ? [उ०] हा गौतम ! छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी अनुत्तरौपपातिक देवो अनुत्तरोपपातिक 'अनुत्तरौपपातिक' एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! अनुत्तरौपपातिक देवोनी पासे अनुत्तर शब्दो, यावत् - अनुत्तर स्पर्शो होय छे, माटे हे गौतम! ते हेतुची यावद् तेओने अनुत्तरोपपातिक देवो कहेवामां आवे छे. देवो. १३. [प्र०] हे भगवन्! केटलं कर्म वाकी रहेपाथी अनुत्तरोपपातिक देवो अनुत्तरीपपातिकदेवपणे उत्पन्न थाय? (उ०] हे गौतमं ! श्रमण निर्मन्थ छट्ठ भक्तवडे जेटला कर्मनी निर्जरा करे तेटलं कर्म बाकी रहेवाथी अनुत्तरौपपातिक देवो अनुत्तरौपपातिकदेवपणे उत्पन्न थाय छे. हि भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन्! ते एमज -एम कही [ भगवान् गौतम] यावद् विहरे छे. चतुर्दश शतके सप्तम उद्देशक समाप्त. ११ * शालि वगेरे धान्यनी एक कोळी लणता जेटलो काळ लागे तेने 'लव' कहे छे. तेवा सप्तम लव सुधीनुं आयुष ओधुं होवाथी जे विशुद्ध अध्यवसायवाळा मनुष्यो मोक्षे न गया, पण सर्वार्थसिद्ध विमानमा उत्पन्न थया ते लवसप्तम देवो कद्देवाय छे.- टीका, बसतम देवो. बी रहेवाथी अनुत्तर देवपणे उत्पन्न बाय? / Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो। १. [प्र०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए केवतियं अबाहाए अंतरे पण्णते ? [उ०] गोयमा! असंत्रेजाई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । २. [प्र०] सकरप्पभाए जं भंते ! पुढवीए वालुयप्पमाए य पुढवीए केवतियं० १ [उ०] एवं चेव, एवं जाप-तमाए अहेसत्तमाए य । __३. [प्र०] अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीप अलोगस्स य केवतियं अबाहाए अंतरे पणते ? [उ०] गोयमा ! असंनेबाईजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। ४. [४०] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोतीसस्स य केवतियं०-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। . ५. [३०] जोतिसस्स णं मंते ! सोहम्मी-साणाण य कप्पाणं केवतियं-पुच्छा । [7०] गोयमा! असंखेजाई जोयण नाप-अंतरे पण्णते। ६. [३०] सोहम्मी-साणाणं भंते ! सणंकुमार-माहिदाण य केवतियं० १ [७०] एवं चेव । अष्टम उद्देशक. रसप्रभा अने शर्करा- १. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी अने शर्कराप्रभा पृथिवी- अबाधावडे-व्यवधानवडे केटलं अन्तर कहेलं छे ! [उ.] प्रभानु अन्तर. हे गौतम ! असंख्यलाख योजन [अबाधाए] अंतर कहेलं छे. शर्करांप्रमा अने २. [प्र०] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा अने वालुकाप्रभा पृथिवीनु केटलं अबाधावडे अंतर कयु छ ! [उ०] हे गौतम ! पूर्ववत् जाणवू. बालकामभानु अन्तर. र प्रमाणे यावत्-तमा-छट्ठी नरकपृथिवी अने अधःसप्तम सातमी नरक पृथिवी सुधी जाणवु. सप्तम नरक पृथिवी भने भलोकन भन्तर, * ३. प्र०] हे भगवन् ! सातमी नरक पृथिवी अने अलोकनु केटलं अबाधावडे अंतर कडं छे! [उ०] हे गौतम ! असंख्य लाख योजन अबाधाए अन्तर कयुं छे. संप्रभा भने ज्योति पिकनुं अन्तर. ___४. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी अने ज्योतिषिकनु (सूर्य-चन्द्रादिनुं) केटर्छ अबाधावडे अंतर कयुं छे-एम प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम! सातसो ने नेवू योजन अबाधावडे अंतर कडुं छे. ५. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिक अने सौधर्म-ईशानकल्पनु केटलं अन्तर कथु छ ! [उ०] हे गौतम ! असंख्याता योजन यावत्-अन्तर कयुं छे. ज्योतिषिक भने सौधर्म-शानदेव लोकनु अन्तर. सौषम-शान भने सनत्कुमार-माहे. गर्नु अन्तर. ६. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म-ईशान अने सनत्कुमार-माहेन्द्रनुं केटलं अन्तर कयुं छे! [उ०] पूर्वप्रमाणे जाणवू. Jain Education international Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३५९ ७.[10] सणंकुमार-माहिंदाणं भते। बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतियं०१ [उ०] एवं चेव । ८. [अ०] बंभलोगस्स गं भंते ! लंतगस्स य कप्पस्स केवतियं० [३०] एवं चेव । ९. [प्र. लंतयस्स णं भंते। महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतियं० [उ०] एवं चेव, एवं महासुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयकप्पाणं, एवं आणय-पाणयाण य कप्पाणं आरण-चुयाण य कप्पाणं, एवं मारणअयाणं गेविजविमाणाण य, एवं गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य । १०. [प्र०] अणुत्तरविमाणाणं भंते! ईसिंपव्माराए. य पुढवीए केवतिए?-पुच्छा [उ०] गोयमा! दुवालसजोयणे अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ११. [प्र०] ईसिंपन्भाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अबाहाए ?-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! देसूणं जोवणं अबाहाए अंतरे पण्णते। १२. [प्र०] एस गं मंते ! सालरुपने उण्हाभिहए, तण्हामिहए, दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किया कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति' [उ०] गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ अच्चिय-वंदियपूइय-सकारिय-सम्माणिए, दिधे, सच्चे, सञ्चोवाए, सन्निहियपाडिहेरे, लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ, से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गमिहिति, कहिं उववजिहिति? [उ०] गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव-अंतं काहिति । १३. [प्र०] एस णं भंते ! साललट्ठिया उण्हाभिहया, तण्हाभिहया, दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किया जापकहिं उववजिहिति ? [उ०] गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमूले महेसरिए नगरीए सामलिरुखत्ताए पञ्चायाहिति, साणं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय० जाव लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सह । से गं भंते ! तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता० सेसं जहा सालरुक्खस्स, जाव-अंतं काहिति । सनत्कुमार-माहेन्द्र ७. [प्र०] हे भगवन् ! सनत्कुमार-माहेन्द्र अने ब्रह्मलोक कल्पनु केटलं अन्तर होय छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. भने ममदेवलोकन मन्तर. . ८. [प्र०] हे भगवन् ! ब्रह्मलोक अने लांतककल्प वचे केटछं अंतर छे ! [उ०] पूर्ववत् जाणवू. मझलोक अने शान्त फर्नु अन्तर. ९. [प्र०] हे भगवन् ! लांतक अने महाशुक्र कल्पनु केटलं अंतर होय छे! [उ०] पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे महाशुक्र कल्प लान्तक भने मदाअने सहस्रारनुं अन्तर जाणवू, तथा सहस्रार अने आनत-प्राणतकल्पो, आनत-प्राणतकल्प अने आरण अच्युतकल्पनु, आरण-अच्युतकल्प शुकनु अन्तर. भने प्रैवेयकन, अने प्रैवेयक अने अनुत्तरविमाननुं अन्तर पूर्ववत् जाणधुं. १०. [प्र०] हे भगवन् । अनुत्तरविमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीन केटलं अन्तर होय छे ! [उ०] हे गौतम! बार योजन- अ- अनुत्तरविमान भने बाधावडे अन्तर कयुं छे. ईषत्मारभारा पि वीनुं अन्तर. ११. [प्र०] हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथिवी अने अलोकनु केटलं अबाधावडे अंतर कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! कंइक न्यून ईषत्प्राग्भारा भने एक योजन अबाधाए अन्तर छे. अलोकर्नु अन्तर. १२. [प्र०] हे भगवन् ! [सूर्यनी] गरमीथी पीडित थयेलो, तृषाथी हणायेलो अने दावानळनी जाळथी बळेलो आ शालवृक्ष शालपक्ष मरीने कालमासे-मरणसमये काल करी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! आज राजगृह नगरमां शालवृक्षपणे फरीथी उत्पन्न क्या ज़। थशे, अने ते त्यां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित अने दिव्य-प्रधानभूत थशे. तथा सत्यरूप-सत्यावपात-जेनी सेवा सफल थाय छे एवो, [पूर्वभवसंबन्धी देवोए ] जेनुं प्रतिहारपणुं-सांनिध्य कयु छे एवो, तथा जेनी पीठ-चोतरो लीपेलो अने धोळेलो छे एवो ते (पूजनीय) थशे. प्र०] हे भगवन् ! [ते शालवृक्ष ] त्यांथी मरण पामी क्यां जशे अने क्या उत्पन्न थशे ! उ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, तथा यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे. १३. [प्र०] हे भगवन् । सूर्यनी गरमीथी हणायेल, तृषाथी पीडित थयेल तथा दावानळनी जाळथी बळेली आ शालयष्टिका- शालयष्टिका. शालवृक्षनी न्हानी शाखाओ कालमासे–मरण समये काल करी क्या जशे अने क्यां उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! आ ज जंबूद्वीपना भारतवर्षमां विन्ध्याचलनी तळेटीमा 'माहेश्वरी' नगरीमा ते शाल्मली वृक्षरूपे उत्पन्न थशे, अने ते त्यां अर्चित, बंदित अने पूजित थशे, तथा यावत्-तेनो चोतरो लींपेलो, धोळेलो अने पूजित थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते त्यांथी मरण पामी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे:• इत्यादि बधु शालवृक्षनी पेठे जाणवू, यावत्-ते सर्व दुःखोनो अन्त करशे. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४:-उद्देशक ८ १४. [प्र०] एस.णं भंते ! उंबरलट्ठिया उपहाभिया ३ कालमासे कालं किच्चा जाव-कहिं उववजिहिति ।[10] गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्ते नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति । से णं तत्थ अन्चिय-वंदियजाव-भविस्सति । से गं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता-सेसं तं चेव जाव-अंतं काहिति।। १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि० एवं जहा उववाइए, जाव-आराहगा। १६. बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए, एवं जहा उववाइए अम्मडस्स वत्तधया जाव-दहप्पइण्णो अंतं काहिति । १७. प्रा अस्थि भंते! अवाबाहा देवा २१० ता अस्थि ।प्र०सेकेणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ-'अचावाहा देवा' २१[उ.] गोयमा! पभू णं एगमेगे अवाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिवं देविति, दिवं देवजुति, दिवं देवाणुभाग, दिवं बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाई वा पबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेति, एसुहुमं च णं उवदंसेजा, से तेणटेणं जाव-'अवाबाहा देवा' २। १८. [प्र०] पभू णं भंते! सके देविंद देवराया पुरिसस्स सीसं पाणिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुमि पक्खिवित्तए ? [उ०] हंता पभू । [प्र०] से कहमिदाणि पकरेति ? [उ०] गोयमा ! छिदिया छिदिया च णं पक्खिवेजा, भिंदिया भिंदिया च णं पक्खिवेजा, कोट्टिया कोट्टिया च णं पक्खिवेजा, चुन्निया चुन्निया च णं पक्खिवेजा, तओ पच्छा खिप्पामेव पडिसंघाएजा, नो चेव गं तस्स पुरिसस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएजा, छविच्छेदं पुण करेति, एसुहुमं च णं पक्खिवेजा। उबरयष्टिका मरण पामी क्या ज १४. प्र०] हे भगवन् ! [सूर्यनी] गरमीथी हणायेल, तृषाथी पीडायेल अने दवाग्निजाळथी बळी गयेल आ उंबरवृक्षनी शाखा मरणसमये काल करी क्यां जशे, क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम! ते आज जंबूद्वीपना भारतवर्षमा पाटलिपुत्र नामना नगरमां पाटलिवृक्षपणे उत्पन्न थशे. अने त्यां ते अर्चित, वंदित अने यावत्-पूजनीय थशे. [प्र०] ते त्यांथी मरण पामी क्या जशे, क्या उत्पन्न थशे [उ०] ए बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू, यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे. १५. ते काले, ते समये अंबड परिव्राजकना सातसो शिष्यो ग्रीष्म कालना समयने विष विहार करता-इत्यादि बधुं *औपपातिक सूत्रमा कह्या प्रमाणे अहिं कहे. यावत्-'तेओ आराधक थया'-त्यां सुधी जाणवू. र परिमाजक १६. हे भगवन् ! घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे के, 'अंबड परिव्राजक कांपिल्यपुर नगरमा सो घेर जमे छे'--इत्यादि बधुं औिपपातिक सूत्रमा कह्या प्रमाणे अंबडनी बधी वक्तव्यता कहेवी, यावत्-दृढप्रतिज्ञनी पेठे यावत्-'ते सर्व दुःखोनो अन्त करशे.' भव्यावाच देक. १७. [प्र०] हे भगवन् । शुं एम छे के अव्याबाध देवो ए 'अव्याबाध देवो' (पीडा नहि करनारा) कहेवाय छे! [उ.] हा गौतम ! एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के अव्याबाध देवो ए 'अव्याबाध देवो' छे! [उ०] हे गौतम! एक एक अव्याबाध देव एक एक पुरुषनी एक एक पापण उपर दिव्य देवर्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव अने बत्रीश प्रकारना दिव्य नाट्यविधिने बतावी शकवा समर्थ छे, परन्तु ते पुरुषने स्वल्प के अधिक दुःख.थवा देतो नथी, तेम तेना अवयवनो छेद पण करतो नथी. एवी सूक्ष्मतापूर्वक (नाट्यविधि ) बतावी शके छे, ते हेतुथी अव्याबाध देवो ए 'अव्याबाध' (पीडा नहि करनार देवो) एम कहेवामां आवे छे. इन्द्र कोहना माथाने १८. [प्र०] हे भगवन् ! देवना इन्द्र अने देवना राजा शक्र (कोइ) पुरुषना माथाने हाथवडे तरवारथी कापी नाखी कमंडलुमां तरवारथी कापी कम MIM नाखवा समर्थ छे ! [उ०] हा, समर्थ छे. [प्र०] ते ते वखते कमंडलमां केवी रीते नाखे ! [उ०] ते शक माथाने छेदी छेदीने, मेदी भेदीने, तेने जरा पण दुःख कूटी कूटीने अने चूर्ण करी करीने कमंडलुमां नांखे, अने त्यार पछी तुरतज (ते माथाना अवयवोने) मेळवे-एकठा करे, एटलु सूक्ष्म नधीय. करी कमंडलमा नांखे, तेना अवयवोनो छेद करे तो पण ते पुरुषने जरा पण पीडा उत्पन्न न थाय. १५ * जुओ औपपा० ५० ९३. "ग्रीष्मकाळे अंबडपरिव्राजकना सातसो शिष्योए गंगानदीना बन्ने कोठा उपर आवेला कांपिल्यपुरथी पुरिमताल नगर तरफ प्रयाण कयु. त्यार पछी तेओए ज्यारे अटवीमा प्रवेश क्यों त्यारे पूर्व साथे लीधेलं पाणी थइ रघु, त्यार बाद तरसथी पीडायेला तेओ पाणीनो मापनार कोह पण नहि मळवाथी अदत्तने नहि ग्रहण करतां अरिहंतने नमस्कारकरवापूर्वक अनशन लईने काल करीने ब्रह्मदेव लोकमा गया अने परलोकना आराधक थया. १६ 1 अंबडपरिव्राजक वैक्रियलब्धिना सामर्थ्यथी मनुष्योने विस्मय करवा माटे सो घेर जमे छे भने सो घेर पोते रहे छे. जुओ-औपपा. ५० ९६. दृढप्रतिज्ञ संबन्धे जुओ राजप्र०प० १४९. १७ जे परने पीडा न करे ते अव्याबाध. १ सारखत, २ आदित्य, ३ वहि, ४ वरुण, ५ गर्दतोय, ६ तुषित, ७ अव्यायाध, ८ अन्यर्चा भने १७. रिष्ट-ए नव लोकान्तिक देवोमांना सातमा अव्यावाध नामे लोकान्तिक देव छे. तत्वार्थसूत्रमा वरुणने बदले अरुण भने अन्यर्चाने बदछे मरुत् ए नाम भापेलं छे, "सारखता-दित्य-बना-रुण-गर्दतोय-तुषिता-व्यायाध-मरुतोऽरिष्टाश्च (तत्त्वा० अ०४ सू. २६.). Jain Education international Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४. - उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६१ १९. [प्र०] अत्थि णं भंते ! जंभया देवा २१ [अ०] हंता अस्थि । [प्र०] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुध- 'जंभया देवा' २१ [०] गोयमा ! जंभगा णं देवा निचं पमुइय-पक्कीलिया कंदप्परतिमोद्दणसीला, जेणं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, से णं पुरिसे महंत अयसं पाउणिज्जा, जे णं ते देवे तुट्ठे पासेज्जा, से णं महंतं जसं पाउणेज्जा, से तेणट्टेणं गोयमा ! 'अंभगा देवा' २ | २०. [प्र० ] कतिविहाणं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ? [अ०] गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा- १ अन्नजंभगा, २ पाणजंभगा, ३ वत्थजंभंगा, ४ लेणजंभगा, ५ सयणजंभगा, ६ पुप्फजंभगा, ७ फलजंभगा, ८ पुप्फ-फलजंभगा, ९ विजागंभगा, १० अवियत्तजंभगा । २१. [प्र० ] भगाणं भंते ! देवा कहिं वसहि उवेंति ? [अ०] गोयमा ! सधेसु चेव दीवेयसु, चित्त-विचित्तजमगपचपसु, कंचणपचपसु य, पत्थ णं जंभगा देवा वसहि उवेंति । २२. [प्र० ] भगाणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता । 'सेकं भंते । सेवं भंते' ! त्ति जाव- विहरति । चोदसमसए अट्टमो उद्देसो समत्तो । १९. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं एम छे के जृंभक देवो ते जृंभक ( स्वच्छन्दचारी) देवो छे ? [उ०] हा, गौतम ! एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! कया हेतुथी जृंभकदेवो ए 'जृंभकदेवो' (स्वच्छन्दचारी देवो) कहेवाय ? [ उ० ] हे गौतम! जृंभकदेवो हंमेशा प्रमोदवाळा, अत्यन्त क्रीडाशील, कंदर्पने विषे रतिबाळा अने मैथुन सेववाना स्वभाववाळा होय छे, जे ते देवोने गुस्से थयेला जुए छे, ते पुरुषो घणो अपयश पामे छे, तथा जेओ ते देवोने तुष्ट थयेला जुए छे तेओ घणो यश पामे छे, माटे हे गौतम! ते हेतुथी जृंभकदेवो ए 'जंभकदेवो' एम कहेवाय छे. २०. [प्र०] हे भगवन् ! जृंभक देवो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! दश प्रकारना कह्या छे - १* अन्नजृंभक, २ पा- जनक देवोना प्रकार नजृंभक, ३ वस्त्रजृंभक, ४ गृहजृंभक, ५ शयनजृंभक, ६ पुष्पजृंभक, ७ फलजृंभक, ८ पुष्प - फलजुंभक, ९ विद्याजृंभक अने १० अल्पक्तभक. २१. [प्र०] हे भगवन् ! जृंभक देवो क्यां वसे छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ ( जृंभकदेवो ) बधा दीर्घ वैताढ्योमां, चित्र, विचित्र, यमक अने समक पर्वतोमां तथा कांचनपर्वतोमां वसे छे. २० * भोजनविषे तेनो अभाव करवो के सदभाव करवो, तेने अरूप कर के घणुं करवुं, सरस करवुं के नीरस करवुं- इत्यादि चेष्टा करे ते अनजृंभक देवो कहेवाय छे. ए प्रमाणे पानादिजृंभक देवो पण जाणवा. अन्नादिना विभाग शिवाय सामान्यरूपे जे चेष्टा करे ते अव्यक्तजृंभक कहवाय छे. टीका. ४६ भ० सू० देवो. म देवो शाथी कवाय २२. [प्र०] हे भगवन् ! जृंभक देवोनी स्थिति केटला काळनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! तेनी एक पल्योपमनी स्थिति कही भक देवोनी स्थिति. छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' - एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. चतुर्दश शतके अष्टम उद्देशक समाप्त. जंभक देवो क्या रहे Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो। १. [प्र०ा अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासा, तं पुण जीर्ष सरूवि सकम्मलेस्सं जाणा, पासह [उ.] हंता गोयमा! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव-पासति । २. [प्र०] अस्थि णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४ १ [उ०] हंता अस्थि । ३. [प्र०] कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति, जाव-पभाति [उ० गोयमा। जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ ताओ ओभासंति, पभासेंति, एवं एएणं गोयमा! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति ४। ४. [प्र०] नेरपयाणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? [उ०] गोयमा! नो अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला! नवम उद्देशक. ने भावितारमा अन- १. [प्र०] हे भगवन् ! [ संयमभावनावडे ] *भावितात्मा अनगार जे पोतानी कर्मलेश्याने [विशेषरूपे] जाणतो नथी, अने [सामा• गार पोतानी कर्मले न्यरूपे] जोतो नथी ते सरूपी-सशरीरी अने कर्म-लेश्यासहित जीवने जाणे अने जुए ! [उ०] हा, गौतम! भावितात्मा अनगार जे पोश्याने जाणतो नथी सशरीर जीवन ताना कर्मसंबन्धी लेश्याने जाणतो अने जोतो नथी ते शरीरसहित अने कर्म-लेश्यावाळा पोताना आत्माने यावत्-जुए छे. जाणे छ। रूपी पुद्गलस्कन्धो २. [प्र०] हे भगवन्! रूपी-वर्णादियुक्त सकर्मलेश्य-कर्मने योग्य कृष्णादि लेश्याना पुद्गलस्कन्धो प्रकाशित थाय छे! उ०] हा. प्रकाशित थाय छे! गौतम! तेवा पदलस्कन्धो प्रकाशित थाय छे. जे पुद्गलो प्रकाशित थाय छे ते केटला छे। ३. प्र०) हे भगवन् ! रूपवाळा अने कर्मने योग्य अथवा कर्मसंबन्धी लेश्याना जे पुद्गलो प्रकाशित थाय छे, यावत् प्रभासित थाय छे ते केटला छे ! [उ०] हे गौतम! चंद्र अने सूर्यना विमानोथी जे आ बहार नीकळेली लेश्याओ (प्रकाशना पुद्गलो) छे तेओं अवभासित थाय छे, प्रभासित थाय छे, ए प्रमाणे हे गौतम ! ए बधा रूपयुक्त, किर्मने योग्य लेश्यावाळा पुद्गलो प्रकाशित थाय छे. नैरबिकोने आत्त- ४. प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिकोने आत्त-सुखकारक पुद्गलो होय छे के अनात्त-दुःखकारक पुद्गलो होय छे ? [उ०] हे सुखोत्पादक पुद्गलो गौतम! तेओने आत्त पुद्गलो नथी पण अनात्त पुद्गलो होय छे. होता नथी. १* भावितात्मा अनगार छमस्थ होबाथी ज्ञानावरणादि कर्मने योग्य अथवा कर्मसंबन्धी कृष्णादि लेश्याने जाणतो नथी, कारण के कर्मद्रव्य अने .लेश्याद्रव्य अति सूक्ष्म होवाथी छनस्थना ज्ञानने अगोचर छे, परन्तु ते कर्म अने लेश्यावाळा तथा शरीरयुक्त आत्माने जाणे छे, कारण के शरीर चक्षुथी प्राह्य होवाथी अने आत्मानो शरीरनी साथे कथंचित् अमेद होवाथी [ तथा ते खसंविदित होवाथी ] तेने जाणे छे—टीका. . ३ यद्यपि चंद्रादिविमानना पुद्गलो पृथिवीकायिक होवाथी सचेतन छे अने तेथी ते कर्म-लेश्यावाळा छ, पण तेथी नोकळेला प्रकाशना पुर्लो कर्मटेश्यावाळा नथी, तोपण तेथी नीकळेला होवाथी प्रकाशना पुद्गलो उपचारथी कर्मलेश्यावाळा कही शकाय छे.-टीका. . Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ शतक १४.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५. [प्र०] असुरकुमाराणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? [उ०] गोयमा ! अत्ता पोग्गला, णो. अणत्ता पोग्गला, एवं जाव-थणियकुमाराणं । ६.०] पुढविकाइयाणं-पुच्छा । [उ०] गोयमा! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि पोग्गला । एवं जाव-मणुस्साणं । चाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । ७. प्र०] नेरइयाणं भंते । किं इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला? [उ.] गोयमा! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला, जहा. अत्ता भणिया, एवं इट्ठा वि, कंता वि, पिया वि, मणुना वि भाणियचा । एए पंच एंडगा। ८. [प्र०] देवे णं भंते ! महडिए जाव-महेसक्खे स्वसहस्सं विउवित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए ? [उ०] हंता पभू। ९. [प्र०] सा णं भंते ! किं एगा भासा भासासहस्सं १ [३०] गोयमा ! एगा णं सा भासा, णो खलु तं भासासहस्सं। १०. तेणं कालेणं, तेणं सभएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गय बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासर, पासित्ता जायसढे जाव-समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, जाव-नमंसित्ता जाव-एवं वयासी[प्र०] किमिदं भंते । सूरिप, किमिदं भंते । सूरियस्स अट्टे [उ०] गोयमा! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स अट्टे । ११. [प्र०] किमिदं भंते ! सूरिए, किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा ? [उ०] एवं चेव, एवं छाया, एवं लेस्सा। ५. [प्र०] हे भगवन् । शुं असुरकुमारोने आत्त-सुखकारक पुद्गलो होय छे के अनात्त पुद्गलो होय छे! [उ.] हे गौतम | तेओने आत्त पुद्गलो होय छे, पण अनात्त पुद्गलो होता नथी. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. भमुरकुमारने आत्त पुद्रको ६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पृथिवीकायिकोने आत्त पुद्गलो होय छे के अनात्त पुद्गलो होय छे । उ०] हे गौतम ! तेओने आत्त पृथिवीकायिकोने पुद्गलो पण होय छे, अने अनात्त पुद्गलो पण होय छे. ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यो सुधी जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकोने आत्त मने बनात पुरलो. असुरंकुमारोनी पेठे जाणवू. ७.प्र०] हे भगवन् । शुं नारकोने इष्ट पुद्गलो होय छे के अनिष्ट पुद्गलो होय छे! [उ०] हे गौतम! तेओने इष्ट पुद्गलो होता नथी, पण अनिष्ट पुद्गलो होय छे. जेम आत्त पुद्गलो संबन्धे कयु, तेम इष्ट, कांत, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलो संबन्धे पण कहे. वळी ए प्रमाणे अहिं पांच दंडक कहेवा. नारकोने के अनिष्ट पत्रलो होय । ८. [प्र०] हे भगवन् ! महर्द्धिक यावत्-मोटा सुखवाळो देव हजार रूपोने विकुर्वीने हजार भाषा बोलवा समर्थ छे! [उ०] महसिक पेवर्नु एजार हा, गौतम! तेम करवा समर्थ छे. रूपो विकुबीने एजार मापा बोल वार्नु सामर्थ.. ९. [प्र०] हे भगवन् ! ते एक भाषा छे के हजार भाषा छे! [उ०] हे गौतम ! ते एक भाषा छे, पण हजार भाषा नथी. एक भाषा के हजार १०. ते काले, ते समये भगवंत गौतमे तुरतनो उगेलो भने जासुमणाना पुष्पना पुंज जेवो रातो बालसूर्य जोयो, ते सूर्यने जोइने श्रद्धावाळा, अने यावत्-जेने प्रश्ननुं कुतूहल उत्पन्न थयुं छे एवा भगवंत गौतम खामी ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आव्या, अने यावत्-नमीने यावत्-आ प्रमाणे बोल्या-प्र०] हे भगवन् । सूर्य ए शुं छे अने हे भगवन् । सूर्यनो अर्थ शो छ। उ०] हे गौतम! सूर्य ए शुभ पदार्थ छे, अने सूर्यनो अर्थ पण शुभ के. सूर्यनो सवे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! सूर्य ए शुं छे अने सूर्यनी. प्रभा ए शुं छे! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे छाया-प्रतिबिंब अने लेश्या-प्रकाशना समूह संबन्धे पण जाणवू. सूर्यनी प्रभा पशु ९. एक समये बोलाती सत्यादि कोइ पण प्रचारनी भाषा एक जीवत्व अने एक उपयोग होवाथी ते एक भाषा कहेवाय छ, पण हजार माषा कहे. पाती नथी-टीका. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक ९. १२. [प्र०] जे इमे भंते! अज्जचाए समणा निग्गंथा विहरंति, पते णं कस्स तेयलेस्सं बीतीवयंति [उ०] गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयति, दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीयीवयति, एवं एएणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ, चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गहगण-नफ्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेयलेस्संपीतीवया, पंचमासपरियार यसमणे निग्गंथे चंदिम-सूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणं तेयलेस्सं वीईवयइ, छमासपरियाप समणे निग्गंथे सोहम्मी-साणाणं देवाणं०, सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणंकुमार-माहिंदाणं देवाणं०, अट्टमासपरियाए संभलोग-लंतगाणं देवाणं तेय, नवमासपरियाए समणे निग्गंथे महासुक्क-सहस्साराणं देवाणं तेय०, दसमासपरियाए आणय-पाणय-आरण-युयाणं देवाणं०, एकारसमासपरियाए गेवेजगाणं देवाणं०, बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं धीयीवयति, तेण परं सुके सुकाभिजाए भविता तो पच्छा सिन्झति, जाव-अंतं करेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते'!त्ति जाव-विहरति । चोद्दसमसए नवमो उद्देसो समत्तो। श्रमणोना मुखनी १२. [प्र.] हे भगवन् ! जे आ श्रमण निग्रंथो आर्यपणे-पापकर्मरहितपणे विहरे छे, तेओ कोनी तेजोलेश्याने सुखने अतिक्रमे छे! अर्थात्-तेमनुं सुख कोनाथी चडीयातुं छे ! [उ०] हे गौतम! एक मासना दीक्षा पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ वानव्यंतर देवोनी तेजोलेश्याने-सुखने अतिक्रमे छे, (अर्थात्-वानव्यंतर देवो करतां अधिक सुखी छे.) बे मासना पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ असुरेंद्र सिवायना भवनवासी देवोनी तेजोलेश्याने-सुखने अतिक्रमे छे. ए प्रमाणे ए पाठ वडे त्रण मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्ग्रन्थ असुरकुमार देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, चार मासना पर्यायवाळो श्रमण निम्रन्थ ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूप ज्योतिषिक देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, पांच मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्मन्थ, ज्योतिप्कना इन्द्र, ज्योतिष्कना राजा चंद्र भने सूर्यनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, छ मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्ग्रन्थ सौधर्म अने ईशानवासी देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे], सात मासना पर्यायवाळो श्रमण निम्रन्थ सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवोनी, आठ मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्ग्रन्थ ब्रह्मलोक अने लांतक देवोनी, नव मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्ग्रन्थ महाशुक्र अने सहस्रार देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, दश मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्ग्रन्थ आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, भगीयार मासना पर्यायवाळो श्रमण निम्रन्थ अवेयक देवोनी अने बार मासना पर्यायवाळो श्रमण निम्रन्थ अनुत्तरोपपातिक देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे. त्यार बाद शुद्ध अने शुद्धतर परिणामवाळो थइने पछी सिद्ध थाय छे, यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करे छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे'-एम कही यावद् विहरे छे. चतुर्दश शतके नवम उद्देशक समाप्त . Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो। १. [प्र०] केवली गं भंते! छउमत्थं जाणइ, पास [उ०] हंता जाणा, पासा । २. [प्र०] जहाणं भंते! केवली छउमत्थं जाणा, पासइ, तहाणं सिद्धे वि छउमत्थं जाणइ, पास [उ.] हंता जाणा, पासा। ३. [प्र०] केवली णं भंते ! आहोहियं जाणइ, पासा ! [उ०] एवं चेव । एवं परमाहोहियं, एवं केलिं, एवं सिखं, जाप-जहा णं भंते ! केवली सिद्धं जाणा, पासइ, तहाणं सिद्धे वि सिद्ध जाणा, पासह ? [उ.] हंता जाणा, पासा। .. ४. [प्र०] केवली गं भंते ! भासेज वा घागरेज पा? [उ०] हंता भासेज वा, पागरेज वा। ५. [40] जहा णं भंते ! केवली भासेज वा वागरेज वा तहा गं सिद्ध वि भासेज वा वागरेज वा? [उ.] णो · तिणढे समटे । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुश्चद्-'जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज वा णो तहा णं सिझे भासेज वा वागरेज वा'? [उ०] गोयमा! केवली.णं सउट्ठाणे, सकम्मे, सबले, सवीरिए, सपुरिसकारपरकमे, सिद्धे णं अणुटाणे जाप-अपुरिसकारपरकमे, से तेणटेणं जाव-वागरेज था। ६. [प्र०] केवली गं भंते ! उम्मिसेज वा, निम्मिसेज वा ? [उ०] हंता उम्मिसेज वा, निम्मिसेज वा, एवं चेव, एवं माउद्देज वा पसारेज षा, एवं ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएजा। दशम उद्देशक. १. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी छमस्थने जाणे अने जुए ! [उ०] हा, जाणे अने जुए. केवलज्ञानी एच स्थने जाणे. २. [प्र०] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी छमस्थने जाणे अने जुए सेम सिद्ध पण छपस्थ जीवने जाणे अने जुए ! [उ०] हा, सिद्ध पण छगस्थने गौतम! जाणे अने जुए. जाणे. ३. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी आधोवधिकने-प्रतिनियतक्षेत्रविषयक अवधिज्ञानवंतने जाणे अने जुए उ०] हा, गौतम! केवली अवधिशानीने जाणे अने जुए. एम परमावधिज्ञानीने पण जाणे अने जुए. ए प्रमाणे केवलज्ञानी अने सिद्धने पण जाणे, यावत्-प्र०] जेम हे भगवन् ! केवलज्ञानी सिद्धने जाणे अने जुए तेम सिद्ध पण सिद्धने जाणे अने जुए ! [उ०] हा, जाणे अने जुए. . ४. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कहे ? [उ०] हा, गौतम ! केवली बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कहे. केवलशानी पोले ! ५. [प्र०] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कहे तेम सिद्ध पण बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर आपे : [उ०] हे केवलीनी पेठे सिह गौतम! ए अर्थ समर्थ-युक्त नथी, अर्थात् सिद्ध बोले नहि. [प्र०] हे भगवन् ! कया हेतुथी एम कहो छो के-'जेम केवलज्ञानी बोले । केवलज्ञानीनी पेठे अथवा कहे तेम सिद्ध बोले नहि अथवा प्रश्नोत्तर न कहे' ! [उ०] हे गौतम ! केवलज्ञानी उत्थान-उभा थq, कर्म-गमनादि क्रिया, सिद्ध केम न गोले ! बल, वीर्य अने पुरुषकार-पराक्रम सहित होय छे पण सिद्धो उत्थानरहित, यावत्-पुरुषकार-पराक्रमरहित होय छे, माटे हे गौतम ! सिद्धो केवलीनी पेठे यावत्-प्रश्नोत्तर कहेता नथी. ६. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी पोतानी आंख उघाडे अने मींचे? [उ.] हा, गौतम! आंख उघाडे अने मींचे, एज प्रमाणे केवलबानी आंख शरीरने संकुचित करे अने प्रसारे, उभा रहे, बेसे अने आडे पडखे थाय, तथा शय्या (वसति) अने नैषेधिकी (थोडा काल माटे वसति) करे. ५ . Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १४.-उद्देशक १०. ७. [प्र०] केवली गं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणति, पासति ? [उ०] हंता जाणइ, पासइ । ८.[प्र०] जहा णं भंते ! केवली इमं रयणप्पमं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणद, पासा, तहा णं सिद्धेवि इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणइ, पासइ ? [उ०] हंता जाणइ, पासइ । ९. [प्र०] केवली णं भंते ! सक्करप्पभं पुढविं सक्करपभापुढवीति जाणइ, पासइ ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव-अहेसत्तमा। १०. [प्र०] केवली णं भंते ! सोहम्मं कप्पं जाणइ, पासइ ? [उ०] हंता जाणइ, पासह एवं चेव, एवं ईसाणं, एवं जाव-अञ्चुयं । ११. [प्र०] केवली गं भंते ! गेवेजविमाणे गेवेज विमाणेत्ति जाणइ, पासइ ? [उ०] एवं चेव, एवं अणुत्तरविमाणे वि । १२. [प्र०] केवली णं भंते ! ईसिपब्भारं पुढवि ईसीपब्भारपुढवीति जाणइ, पासइ ? [उ०] एवं चेव । १३. [प्र०] केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ, पासद [उ०] एवं चेव, एवं दुपएसियं खंध, एवं जाव-प्र०] जहा णं भंते ! केवली अणंतपएसियं खंधं अणंतपएसिए खंधेत्ति जाणइ, पासइ तहा णं सिद्ध वि अणंतपएसियं जाव-पासह [उ०] हंता जाणइ, पासइ । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति । चोदसमसए दसमो उद्देसो समत्तो। समत्तं चोदसमं सयं। केवलशानी रत्नप्रभा ७. [प्र०] हे भगवन् ! केवली रत्नप्रभा पृथिवीने आ 'रत्नप्रभा पृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे! [उ.] हा गौतम ! जाणे पृथिवीने जाणे अने देखे. सिद्ध पण रसप्रभा पृथिवीने जाणे! - केवली शर्कराप्रमाने जाणे। ८. [प्र०] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी रत्नप्रभा पृथिवीने आ 'रत्नप्रभा' एम जाणे अने देखे तेम सिद्ध पण रत्नप्रभा पृथिवीने रत्नप्रभा'-एम जाणे अने देखे ? [उ०] हा, गौतम! जाणे अने देखे. ९. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी शर्कराप्रभा पृथिवीने 'शर्कराप्रभापृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं. ए प्रमाणे यावत्-सातमी नरकपृथिवी सुधी जाणवू. १०. [प्र०] हे भगवन् ! केवली सौधर्मकल्पने 'सौधर्मकल्प' एम जाणे अने देखे ! [उ०] हा, गौतम ! जाणे अने देखे. ए प्रमाणे ईशान अने यावत् अच्युतकल्प सुधी जाणवू. ११. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी प्रैवेयकविमानने 'प्रैवेयकविमान' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-अनुत्तरविमान संबन्धे पण जाणवू. केवली सौधर्मादि कल्पने जाणे? मैवेयकादिने जाणे? ईपत्याग्भारा पृथिवीने जाणे? १२. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी ईषत्प्राग्भारा पृथिवीने 'ईषत्प्राग्भारा पृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे। उ०] ए प्रमाणे जाणवू. परमाणु पुदलने जाणे। १३. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी परमाणुपुद्गलने ‘परमाणुपुद्गल' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [उ.] हा, गौतम ! जाणे अने देखे. ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक स्कन्ध, अने यावत्-जेम-प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी अनन्तप्रदेशिक स्कन्धने 'अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध'एम जाणे अने देखे तेम सिद्ध पण अनन्तप्रदेशिक स्कन्धने यावत्-जुए ? [उ०] हा, जाणे अने जुए. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. चतुर्दश शतके दशम उद्देशक समाप्त. चतुर्दश शतक समाप्त. Jain Education international Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नरसमं सयं । नमो सुयदेवयाए भगवईए। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम नगरी होत्था, वन्नओ। तीसे गं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तत्थ णं. कोट्टए नामं चेहए होत्था, वन्नओ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी आजीविओवासिया परिवसति, अड्डा जाव-अपरिभूया, आजीवियसमयंसि लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता, अयमाउसो ! 'आजीवियसमये अटे, अयं परमटे, सेसे अणट्टे'त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरह । तेणं कालेण तेणं समएणं गोसाले मंखलिपुत्ते चउधीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउब्भवित्था, तंजहा-१ साणे, २ कलंदें, ३ कण्णियारे, ४ अच्छिद्दे, ५ अग्गिवेसायणे, ६ अजुणे गोमायुपुत्ते । तए णं. ते छ दिसाचरा अट्रविहं. पुधगयं मग्गदसमं सतेहिं २ मतिदसणेहिं निजहंति, स०२-हित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवट्ठा पंचदश शतक.. भगवती श्रुतदेवताने नमस्कार. १. ते काले अने ते समये श्रावस्ती नामे नगरी हती. वर्णन. ते श्रावस्ती नगरीनी उत्तर-पूर्व दिशाए (ईशानकोणमां) कोष्ठक भावस्ती नगरी. नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते श्रावस्ती नगरीमा आजीविक मतनी उपासिका हालाहला नामे कुंभारण रहेती हती. ते ऋद्धिवाळी यावत्-कोइथी .. कोटक चैत्य. हालाइला कुंभारण. पराभव न पामे तेवी हती. तेणे आजीविकना सिद्धांतनो अर्थ (रहस्य) ग्रहण को हतो, अर्थ पूछयो हतो अने अर्थनो निश्चय कर्यो हतो. तेना अस्थिनी मज्जा प्रेम अने अनुरागवडे रंगाएली हती. 'हे आयुष्मान् ! आजीविकना सिद्धांतरूप अर्थ तेज खरो अर्थ छे अने तेज परमार्थ छे, बाकी सर्व अनर्थ छे'-ए प्रमाणे ते आजीविकना सिद्धांतवडे आत्माने भावित करती विहरती हती. ते काले भने ते समये चोवीश वर्षना दीक्षा पर्यायवाळो मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला नामे कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमा आजीविकना संघवडे परिवृत थई आजीविकना गोशाक्तार्नु संघसहिसिद्धांतवडे आत्माने भावित करतो विहरे छे. ते वखते ते मंखलिपुत्र गोशालकनी पासे अन्य कोइ दिवसे आ छ "दिशाचरो आव्या. ते । रणने घेर आगमन. आ प्रमाणे-१ शान, २ कलंद, ३ कर्णिकार, ४ अछिद्र, ५ अग्निवेश्यायन अने ६ गोमायुपुत्र अर्जुन. त्यार पछी ते छ दिशाचरोए पूर्व- गोशालकने छ दि शाचरोनुं भावी श्रुतमां कहेला आठ प्रकारना निमित्त, (नवमा) गीतमार्ग अने दशमा नृत्यमार्गने पोतपोतानी मतिना दर्शनवडे (पूर्वश्रुतमांथी) उद्धरी मळवू. मंखलिपुत्र गोशालकनो (शिष्यभावे ) आश्रय कर्यो. त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक ते अिष्टांग महानिमित्तना कइंक (स्वल्प) उपदेशवडे सर्व प्राणीओ, सर्व भूतो, सर्व जीवो अने सर्व सत्त्वोने आ छ बाबतना अनतिक्रमणीय-अन्यथा न थाय तेवा उत्तर आपे छे, ते छ बाबत आ प्रमाणे-१ लाभ, २ अलाभ, ३ सुख, ४ दुःख, ५ जीवित अने ६ मरण. त्यार पछी ते मंखलिपुत्र गोशालक अष्टांग १* आ छ दिशाचरो पासत्था (पतित) थयेला महावीर खामीना शिष्य हता-एम प्राचीन टीकाकार कहे छे अने पार्श्वनायनी परंपरामा थयेला छएम चूर्णिकार कहे छे.-टीका. + निमित्तना आठ प्रकार छ-१दिव्य, २ औत्पात, ३ आंतरिक्ष, ४ भीम, ५ आंग, ६ खर, ७ लक्षग भने ८ व्यंजन. Jain Education international Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावस्ती नगरीमा क्षणा माणसो कहे ताने जिन कहेतो बिचरे छे' ते केम मानी शकाय । ३६८ श्रीरावचन्द्र– जिनागमसंग्रहे शतक १५. इंसु । तर पं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्ठगस्स महानिमित्तस्स केणह उल्लोयमेत्तेगं सधेखि पाणावं, सप्तेसिं भूषाणं, सखि जीवाणं, सप्तेसिं सत्ताणं इमाई छ अणइकमणिजाई वागरणाई वागरेति तं जहा “१-लाभं २ अलामं ३ सुद्धं ४ दुखं ५ जीवियं ६ मरणं तहा" । तप णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्ठगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए नगरीए अजिणे जिणप्पलाबी, अगरहा अरइप्पलायी, अकेवली केवलिप्लावी, असनू सधनुप्पलाबी, अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरद । २. सार बाद श्रावस्ती नगरीना शृंगाटकना आकारवाय त्रिक अने यावत्-राजमार्गोने विषे घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-एम प्ररूपे छे के 'हे देवानुप्रिय ए प्रमाणे खरेखर मंखलिपुत्र गोशालक जिन भईने पोताने जिन कहेतो, यावत्-जिन शब्दमो प्रकाश करतो विचरे छे, तो ए प्रमाणे केम मानी शकाय ते वाले से समये महावीर स्वामी समोसर्या यावत् पदा (बांदीने) पाछी गइ ते काले-ते समये श्रमण भगवंत महावीरना ज्येष्ठ अंतेवासी (शिष्य) गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामे अनगार यावत्-छट्ट छट्टने पारणे - इत्यादि बीजा शतकता "निर्मन्थ उदेशकमा कक्षा प्रमाणे यावत् गोचरी माटे परता घणा माणसोनो शब्द सांभळे, घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे के, 'हे देवानुप्रिय ! खरेखर मंखलिपुत्र गोशालक जिन थईने पोताने जिन कहेतो, यावत्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे छे, तो ९ प्रमाणे केम मानी शकाय सार बाद भगवान् गौतम घणा माणसो पासेवी आ बात सांभळीने भने अवधारीने श्रद्धावाळा थई यावत् - भातपाणी देखाडी यावत् पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्या- 'ए प्रमाणे खरेखर हे भगवन् ! हुं छट्ट छट्टने पारणे ए इत्यादि पूर्वोक्त कहेतुं वत्-ते गोशालक जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे छे, तो हे भगवन् ! ए प्रमाणे केम होय ? माटे हे भगवन् ! भगवंते कहे लोगो मंखलिपुत्र गोशालकनो जन्मथी आरंभीने अन्त सुधीनो आपनाथी कहेवायेलो वृत्तान्त सांभळवा इच्छं छं.' 'हे गौतम' ! ए प्रमाणे कही शालकनो वृत्तान्त. श्रमण भगवान् महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कां - 'हे गौतम! जे घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे के ए प्रमाणे खरेखर मंखलिपुत्र गोशालक जिन थईने अने पोताने जिन कहेतो यावत्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे छे, ते मिथ्या-असत्य छे.' हे गौतम ! ई का प्रमाणे कहुं हुं यावत् प्ररूपं धुंए प्रमाणे खरेखर आ मंखडिपुत्र गोशालको मंजलिनामे खजातिनो पिता हतो. ते मंखलिनामे मंखने भद्रा नामे स्त्री हती. ते सुकुमाल हाथपगवाळी, यावत्-प्रतिरूप-सुंदर हती. त्यार बाद ते भद्रा नामे स्त्री अन्य कोह दिवसे गर्भिणी थइ. ते काले अने ते समये सरवण नामे गाम हतुं. ते ऋद्धिवालुं, उपद्रवरहित, यावत्-देवलोक समान प्रकाशवाळु अने मनने प्रसन्नता आपनार हतुं. ते सरपण नामे गामने विषे गोबहुल नामे ब्राह्मण रहेतो हतो. ते धनिक, यावत्- कोईथी पराभव न पाये तेवो अने ऋग्वेद--इत्यादि यावत्- ब्राह्मणना शास्त्रोने विषे निपुण हतो. ते गोबल ब्राह्मणने एक गोशाला हती. ते वखते ते मंखलि नामे मंख मंखलि पिता. भद्रा स्त्री. सरवणप्राम. गोवदुलाह्मण. २. तर सात्थी नगरीए सिंघाडग-जाय पदेसु बहुजणो अक्षमणस्स एवमाचा जाब एवं परुचेति एवं खलु देवाणुपिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव-पकासेमाणे विहरति, से कहमेयं मने एवं' ? तेणं कालेणं सेणं समपर्ण सामी समोसडे, जाय परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव-छटुंछट्टेणं एवं जहा बितियसए नियंडुद्देसर जाव- अडमाणे बहुजणसं निसामेति, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमारसह ४ एवं खलु देवाप्पिया ! गोसाले मंसलिपुत्ते जिणे जिणप्पलायी जायपगासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं १ तप णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म जाव-जायस जाव-मत्तपाणं पडिदंखेति, जाब- पज्जुवासमाने एवं वयासी "एवं खलु अहं भंते छहं० तं चैव जाव- जिणसदं पगासेमाणे विहरति' से कहमेयं भंते ! एवं ? तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उट्ठाणपरियाणियं परिकहियं । 'गोयमा' दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी जच्णं गोयमा से बहुजणे अश्रमप्रस्स एपमा ४ एवं I गोसाले मंखलिते जिने जिणप्पलाची जाब- पगासेमाणे विहरह' तण्णं मिच्छा अहं पुण गोषमा । एवमारस्वामि जाव- परूमि- 'एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंचलिनामं मंसे पिता होत्या तस्स णं मंखलिस मंत्रस्स भद्दानामं भारिया होत्था, सुकुमाल० जाव- पडिरुवा । तप णं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदायि गुक्षिणी यावि होत्था । तेण कालेनं तैणं समएणं सरवणे नामं सन्निवेसे होत्था, रिद्ध-त्थिमिय० जाव-सन्निभप्पगासे, पासादीप ४ । तत्थ णं सरवणे सनिवेसे गोबडुले नाम माहणे परिवसति भट्टे जाब- अपरिभूर, रिउच्छेद० जाव सुपरिनिट्ठिए वापि होत्या तस्स णं गो । 3 महानिमित्तना कोइक एवा उपदेशमात्रवडे श्रावस्ती नगरीमां अजिन छतां 'हुं जिन छु' एम प्रलाप करतो, अर्हत् नहि छतां 'हुं अर्हत् लुं' एम मिथ्या बकवाद करतो, केवली नहि छतां 'हुं केवली हूं' एम निरर्थक बोलतो, सर्वज्ञ नहि छतां 'धुं सर्वज्ञ छु' एम मिथ्या कथन करतो अने अजिन छतां जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे छे. २ * भग० खं० श० २०५० २८१. / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३६९ " - बलरस माहणस्स गोसाला याचि होत्या तर पं से मंसली मंले अन्नया कदापि भंद्दार भारियार गुहिणी सदि चित्तफलगहत्थगए मंखतपेणं अप्यानं भावेमाणे पुत्राणुपुषि चरमाणे गामायुगामं दूश्खमाणे जेणेव सरवणे सन्निवेसे जेणेच गोबलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उपागच्छा ते० २ च्छित्ता गोयलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्लेवं करेति, भंड० २ करेत्ता सरवणे सन्निवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे वसहीए सङ्घओ समंता मग्गणगणं करोति, सहीए सानो समंता मम्गण - गवेखणं करेमाणे अन्नत्थ वसाई अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए। तए णं सा भद्दा भारिया नवहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण इंदियाणं वीतिकंताणं सुकुमाल० जाव- पडिरूवगं दारगं पयाया । तप णं तस्स दारगस्स अम्मा- पियरो एक्कारसमे दिवसे. बीतिकंते जाय - यारसादे दिवसे अयमेवारूयं गोणं गुणनिष्पन्नं नामपेक्षं करेंति- "जम्हा वं अम् इमे दार गोयल माहणस्स गोसालाए जाए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेजं 'गोसाले' 'गोसाले त्ति । तए णं तस्स दारगस्स अम्मा-पिपरो नामधे करेंति 'गोसाले 'ति । तर णं से गोखाले दारण उम्मुवालमा विष्णाय परिणयमेते जोडणगमणुप्यते 'सयमेव पाडि चित्तफलगं करेति खयमेव० २ करेता चित्तफलनहत्थगए मंसणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । ३. तेणं फालेयं तेषं समरणं अहं गोषमा! तीसं वासाई आगारयासमझे वसिता अम्मा-पहिं देवत्तगहिं एवं जहा भावणार जाव देवसमादाय मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पादतए तर अहं गोयमा पदमं वासं अ मासंअद्धमासेणं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए । दोचं वासं मासंमासेणं ममाणे पुढापुचिरमाणे गामाशुगामं दृदमाणे जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, ते० २- च्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हामि, अहा० २ - व्हित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उषागए तप णं अहं गोयमा ! पढमं मासखमणं उपसंपजित्ता पं विरामि तर णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंचणे अप्पा भाषेमाणे पुछा चरमाणे जाय- दूरखमाणे जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छर, ते० २- च्छित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति, भं० २ करेत्ता रायगिहे नगरे उच्च-नीय जाब- अनस्थ कत्थ वि यस अलभमाणे तीसे व तंतुवायसाला एगदेसंसि वासावासं उदागर, जत्थेव पं भिक्षाचर अन्य कोई दिवसे गर्भिणी एवी भद्रा नामे स्त्री साथे चित्रनुं पाटीउं हाथमां लइ भिक्षाचरपणावडे आत्माने भावित करतो अनुकने विचरतो एक गागची बीजे गाम जतो ज्यां शरवण नामे सन्निवेश-ग्राम छे अने ज्यां गोबड नामे ब्राह्मणानी गोशाला के या आव्यो; आयीने गोबहुनामे प्राणनी गोशालाना एक भागमां पोतानुं राचरची मूक्युं मूकीने शरवण नामे गाममां उच्च नीच अने मध्यम कुळना घर समुदायमा भिक्षाचर्या माटे फरतो रहेवा माटे चोतरफ स्थाननी गवेपणा करवा लाग्यो, चोतरफ गवेषणा करतां कोइ पण स्थळे रहेबानुं स्थान नहि मळतां तेणे गोबहुल ब्राह्मणनी गोशालाना एक भागमां वर्षाऋतु माटे आवास कर्यो. ते वखते ते भद्रानामे स्त्रीए पूरा नवमास अने साडा सात दिवस बील्ला पछी सुकुमालहाधपगाळा अने यावत् सुन्दर एवा पुत्रने जन्म आप्यो स्यार बाद से बालकना मात-पिता अगियारमो दिवस वीत्या पछी यावद्-बारमे दिवसे आ आवा प्रकारनुं गुणयुक्त अने गुणनिष्पन्न नाम पाड्युं. कारण के 'आ बाळक गोबहुलनामे ब्राह्मणनी गोशालामां उत्पन्न थयो छे, ते माटे आ बाळकनुं नाम गोशालक हो' - एम विचारी मातापिताए ते बाळकनुं 'गोशालक एवं नाम पाठ बार बाद ते गोशालक नामे बाळक बाल्यावस्यानो लाग करी विज्ञानवडे परिणतमतिवाळो धइ यौवनने पोशाक नाम प्राप्त थयो अने पोतेज स्वतंत्र चित्रपट हाथमां लइ मंखपणावडे आत्माने भावित करतो विहरवा लाग्यो. भगवान् महावीरे गया पछी दीक्षा लीची. व ३. ते काले अने ते समये हे गौतम! में श्रीश वर्ष सुधी गृहवासमा रहीने मातापिता देवगत थया पछी ए प्रमाणे - ( आचारांगना "बीजा तस्कंधना पंदरमा भावना अध्ययनने विषे कक्षा प्रमाणे 'मातापिता जीवता दीक्षा नहि वर्ड' आयो अभिग्रह पूर्ण थयो मातापिता देशको जाणी सुवर्णनो त्याग करी, बलनो त्याग करी - इत्यादि यावत् - एक देवदूष्य वस्त्रने ग्रहण करी मुंड - दीक्षित थईने गृहस्थावासनो त्याग करी न्यानो स्वीकार कर्मों. ते बखते हे गौतम! हुं पला वर्धने त्रिषे अर्धमास अर्धमासक्षमण करतां अस्थिमामनी निश्राए प्रथम वर्षाकालमा रहेवा माटे आव्यो, बीजा वर्षे मास मासक्षमण करतां करतां अनुक्रमे विहार करतां, एक गामथी बीजे गाम जतां ज्यां राजगृह नगर छे, ज्यां नालंदानो बाह्य भाग छे अने ज्यां तंतुवाय- वणकरनी शाला छे त्यां आव्यो, आवीने यथायोग्य अवग्रहने ग्रहण करी तंतुवायनी शालाना एक भागमां वर्षाऋतुमां रह्यो. त्यार बाद हे गौतम ! हुं प्रथम मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. ते समये मंखलिपुत्र गोशालक चित्रपट हाथमा ग्रहण करी मंसपणावडे मिक्षाचरपणावडे आत्माने भावित करतो अनुक्रमे विचरतो, यापद एक गामधी बीजे गाम जतो राजगृह नगर छे, ज्यां नादानो बाह्य भाग हे अने व्यां वणकरनी शाळा हे त्या आव्यो, त्यो आवीने तंतुवायनी शालाना एक भागमां राचरचील्लु मूक्युं. मूकीने राजगृह नगरमा उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां आहारने माटे जतो, यावत्- बीजे क्यांइ पण वसति बीना वर्षे राजगृह मम चातुर्मास. नगर. ३ -- आचारात द्विश्रुत भावनाध्ययन प० ४२१-२ । ४७ भ० सू० : Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह 'शतक १ अहं गोयमा !। तए णं अहं गोयमा! पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिषखमामि, तंतु० २-पखमित्ता णालंदाबाहिरियं मझमझेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, रायगिहे नगरे उश्च-नीय० जाव-अडमाणे विजयस्स गाहावहस्स गिहं अणुपविट्टे । तए णं से विजए गाहावती ममं एज्जमाणं पासति, पासित्ता हट्टतुट्ठ० खिप्पामेव आसणामो अम्भुट्टेइ, खि० २-टेत्ता पायपीढाओ पञ्चोकहर, पा० २-हित्ता पाउयाओ ओमुयइ, पा० २ ओमुरत्ता एगसारियं उत्सरासंग करेति, करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणुगच्छद, २ ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, २ ममं बंदति नमंसति, २ ममं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेस्सामित्ति कट्ट तुडे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, पडिलाभिते वि तट्रे । तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दवसुद्धणं दायगसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच दिखाई पाउम्भूयाई, तंजहा-१वसुधारा घुट्टा, २ दसद्धवन्ने कुसुमे निवातिए, ३ चेलुफ्खेवे कए, ४ आहयाओ देवदुंदुभीओ, ५ अंतरा वि य णं आगासे 'अहो दाणे दाणे' त्ति घुटे । तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग० जाव-पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव-एवं परूवेइ-'धन्ने णं देवाणुप्पिया! विजए गाहावती, कयत्थे णं देवाणुप्पिया! विजये गाहावई, कयपुग्ने णं देवाणुप्पिया! विजए गाहावई, फयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! विजये गाहावई, कया णं लोया देवाणुप्पिया! विजयस्स गाहावइस्स, सुलखे णं देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधु साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिवाई पाउम्भूयाई, तंजहा-१ वसुधारा वुट्ठा, जाव-'अहो दाणे दाणे'त्ति घुटे, तं धन्ने, कयत्थे, कयपुग्ने, कयलक्खणे, फया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, विज.' २ । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए पयमद्रं सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छर, तेणेव उवागच्छित्ता पासइ विजयस्स गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं वुटुं, दसद्धवन्नं कुसुमं निवडियं, ममं च णं विजयस्स गाहावइस्स गिहाओ पडिनियखममाणं पासति, पासित्ता हतुट्टे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता ममं तिषखत्तो मळतां ते तंतुवायनी शालाना एक भागमा ज्यां हुं रहेलो हतो त्या वर्षाऋतुमा रहेवा माटे आव्यो. त्यार बाद हे गौतम ! हुं प्रथम मासक्षमणना पारणाने दिवसे तंतुवायनी शालाथकी बहार नीकळी नालंदाना बहारना भागना मध्य भागमा थई ज्यां राजगृह नगर छे त्यां आव्यो. राजगृह नगरमा उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां यावत्-आहार माटे फरता में विजयनामे गाथापतिना घरमा प्रवेश कर्यो. ते वखते ते विजयनामे पारणाने दिवसे वि- गाथापतिए मने आवता जोयो, मने आवता जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थइ ते तुरत आसनथी उठ्यो, उठीने जलदी सिंहासनथी उतरी पादुजयगाथापतिना घेर " कानो त्याग करी एक साडीवाळू उत्तरासंग करी, अंजलिवडे हाथ जोडी सात आठ पगलां मारी सामो आव्यो, मारी सामो आवीने मने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नमस्कार कर्या, वंदन अने नमस्कार करी 'भने पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारथी प्रतिलामीश-सत्कारीश'-एम विचारी ते संतुष्ट थयो, प्रतिलाभतां पण संतुष्ट थयो, प्रतिलाभ्या बाद पण संतुष्ट थयो, अने त्यार पछी ते विजयगाथापतिए द्रव्यनी शुद्धिथी, दायकनी शुद्धिथी अने पात्रनी शुद्धिथी तथा त्रिविध-मन, वचन, कायानी शुद्धिथी अने त्रिकरण शुद्धिथी विजयगृहपतिने घेर- दानवडे मने प्रतिलाभवाथी देव- आयुष बांध्यु, संसार अल्प कर्यो भने तेना घरमां आ पांच दिव्यो प्रगट थयां, ते आ प्रमाणे-१वसुपांच दिव्यर्नु प्रगट धारानी वृष्टि, २ पांच वर्णना पुष्पोनी वृष्टि, ३ ध्वजारूप वस्त्रनी वृष्टि, ४ देवदुंदुभिर्नु वागवू अने ५ आकाशने विषे 'आश्चर्यकारी दान, आश्चर्यकारी दान'-एवी उद्घोषणा. त्यार बाद राजगृह नगरमा शंगाटक-त्रिकमार्ग, यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर एम कहे छे, यावत्-एवी प्ररूपणा करे छे के 'हे देवानुप्रिय! विजयगाथापति धन्य छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति कृतार्थ छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति पुण्यशाळी छे, हे देवानुप्रिय! विजयगाथापति कृतलक्षण छे, हे देवानुप्रिय! विजयगाथापतिना उभय लोक सार्थक छे अने विजयगाथापतिनुं मनुष्यसंबन्धी जन्म अने जीवितर्नु फल प्रशंसनीय छे, जेना घरने विषे तेवा प्रकारना साधु--उत्तम अने सौम्य आकारवाळा-श्रमणने प्रतिलाभवाथी आ पांच दिव्यो प्रगट थयां; ते पांच दिव्यो आ प्रमाणे-१ वसुधारानी वृष्टि, यावत्-५ 'आश्चर्यकारी दान, आश्चर्यकारी दान'–एवी उद्घोषणा. ते माटे ते धन्य छे, कृतार्थ छे, कृतपुण्य छे, कृतलक्षण छे, अने तेना बन्ने लोक सार्थक छे, तेमज विजयगृहपतिनुं मनुष्यसंबन्धी जन्म अने जीवितर्नु फल प्रशंसनीय छे.' त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक घणा माणसो पासेथी आ वात गोशालकनुं विजय- सांभळी, अवधारी जेने संशय अने कुतूहल उत्पन्न थया छे एवो ते विजयगृहपतिना घेर आव्यो. आवीने तेणे विजयगृहगुरुपतिने पर पतिना घरने विषे वर्षेली वसुधारा, नीचे पडेला पांच वर्णोना पुष्पो, तथा घरथी बहार नीकळतां मने अने विजयगृहपतिने जोया; जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थइ ते गोशालक ज्यां हुं हतो त्या आव्यो, त्या आवी मने त्रणवार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नमस्कार करी तेणे आ प्रमाणे कडं-'हे भगवन् ! तमे मारा धर्माचार्य छो अने हुं तमारो धर्मशिष्य छु.' ते वखते हे गौतम! में मंखलिपुत्र गोशालकनी आ पातनो आदर न कर्यो, तेम स्वीकार न कर्यो; परन्तु हुं मौन रह्यो. त्यार बाद हे गौतम! हुँ राजगृह नगर धकी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमा थई ज्यां तंतुवायनी शाला छे त्यां आव्यो, त्या आवी बीजा मासक्षमणनो खीकार करी विहरवा लाग्यो. त्यार पछी हे भागसन, . Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३७१ आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ममं एवं वयासी-'तुझे णं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहन्नं तुझं धम्मंतेवासी'। तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमद्वं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि । तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता णालंदं बाहिरियं मझमज्झेणं जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता दोच्चं मासखमणं उवसंपजित्ता णं विहरामि । तए णं अहं गोयमा! दोच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तं० २-खमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे नगरे जाव-अडमाणे आनंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविढे । तए णं से आणंदे गाहावती ममं एजमाणं पासति-एवं जाहेव विजयस्स, नवरं ममं विउलाए खजगविहीए 'पडिलाभेस्सामी ति तुट्टे, सेसं तं चेव, जाव-तचं मासक्खमणं उवसंपजित्ता गं विहरामि । तए णं अहं गोयमा! तच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तंतु० २-क्खमित्ता तहेव जाव-अडमाणे सुणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविढे । तए णं से सुणंदे गाहावती एवं जहेव विजयगाहावती, नवरं मम सधकामगुपिएणं भोयणेणं पडिलाभेति, सेसं तं चेव जाव-चउत्थं मासक्खमणं उवसंपजित्ता णं विहरामि । तीसे गं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्था, सन्निवेसवन्नओ। तत्थ णं कोल्लाए संनिवेसे बहुले नामं माहणे परिवसइ, अड्ढे जाव-अपरिभूए, रिउवेय० जाव-सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था । तए णं से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासियपाडिवगंसि विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं माहणे आयामत्था । तए णं अहं गोयमा ! चउत्थमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तंतु०२-क्खमित्ता णालंदं बाहिरियं मझमझेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव · कोल्लाए संनिवेसे तेणेव उवागच्छामि, ते. उवागच्छित्ता कोल्लाए सन्निवेसे उच्च-नीय० जाव-अडमाणस्स बहुलस्स माणस्स गिहं अणुप्पविट्टे । तए णं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेव जाव-ममं विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमन्नेणं पडिलाभेस्सामीति तुट्टे । सेसं जहा विजयस्स, जाव-बहुले माहणे बहु० २। ४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहे नगरे सम्भितरबाहिरियाए ममं सचओ समंता मग्गणगवेसणं करेति, ममं कत्थ वि सुतिं वा खुर्ति वा पवत्ति वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, ते. २ उवागच्छित्ता साडियाओ य पाडियाओ य कुंडियाओ य वाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेति, आयामेत्ता सउत्तरोष्टुं मुंडं कारेति, स० २ कारेत्ता तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमति, तं० २-पखमित्ता णालंद बाहिरियं गौतम ! बीजा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमां थई ज्यां राजगृह नगर छे त्या बीजं मासक्षमण. यावद-भिक्षा माटे जता आनंदगृहपतिना घेर प्रवेश कर्यो. त्यार बाद ते आनंदगृहपति मने आवतो जोई-इत्यादि बधो वृत्तांत विजय. भगवंतनो वीमा मासक्षपणना पार गृहपतिनी पेठे (सू० ३.) जाणवो, परन्तु एटलो विशेष छे के 'मने अनेक प्रकारनी भोजन विधिथी प्रतिलामीश'-एम विचारी ते आनंद. गृहपति संतुष्ट थयो-इत्यादि बाकीनुं वृत्तान्त पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत्-हुं त्रीजा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. त्यार बाद गृहपतिना घेर प्रवेश. हे गौतम ! में त्रीजा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी बहार नीकळी यावत्-भिक्षाए जतां सुनन्दगृहपतिना घेर प्रवेश कर्यो. त्यार श्रीजु मासक्षमण. श्रीजा मासक्षबाद ते सुनन्दगृहपतिए-इत्यादि सर्व वृत्तान्त विजयगृहपतिनी पेठे (सू० ३) जाणयो, परन्तु एटलो विशेष छे के तेणे मने सर्वकामना । णना पारणाने गुणयुक्त भोजनवडे प्रतिलाभ्यो. बाकीनु बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. त्यार पछी हुं चोथा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. हवे ते दिवसे सुनन्दगृहनालंदाना बहारना भागथी थोडे दूर एक कोल्लाक नामे सन्निवेश हतो. अहीं सन्निवेशन वर्णन जाणवं, ते कोल्लाक सन्निवेशने विषे पतिना पर प्रवेश. कोलाक सनिवेश बहुल नामे ब्राह्मण वसतो हतो. ते धनिक, यावत्-कोइथी पराभव न पामे तेवो हतो. ते ऋग्वेद-इत्यादि ब्राह्मणोना शास्त्र तथा रीत-रीवा- पहुळ मामण, जमां कुशळ हतो. त्यार बाद ते बहुल नामे ब्राह्मणे कार्तिक चातुर्मासनी प्रतिपदने विषे पुष्कळ मधु-खांड अने घी-संयुक्त परमानक्षीरवडे ब्राह्मणोने जमाड्या. ते वसते हे गौतम ! हुं चोथा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी नीकळी नालंदाना बहारना मध्यभागमा थई ज्यां कोल्लाक नामे सन्निवेश हतो त्या आव्यो, त्या आवी कोल्लाक संनिवेशने विषे उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां यावत्-भिक्षाचर्याए जतां मे बहुल ब्राह्मणना घेर प्रवेश कर्यो. त्यार पछी ते बहुल ब्राह्मणे मने आवतां जोयो-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहेg, चतुर्थ मासक्ष यावत्-'मने मधु अने घृत संयुक्त परमानवडे प्रतिलाभीश' एम धारी ते संतुष्ट थयो-बाकी बधुं विजयगृहपतिनी पेठे (सू० ३) जाणवू, दिवसे बहुल मार णना पारणाने यावत्-'बहुल ब्राह्मण धन्य छे'. नाघेर प्रवेश १. त्यारबाद मंखलिपुत्र गोशालके मने तन्तुवायनी शाळामां नहि जोवाथी राजगृह नगरनी बहार ने अंदर चोतरफ मारी गवेषणातपास करी, परंतु मारी क्याइ पण श्रुति, क्षुति-शब्द के प्रवृत्ति नहि मळवाथी ज्यां तन्तुवायनी शाळा हती त्यां ते गयो, त्या जईने तेणे शाटिका-अंदरना वस्त्रो, पाटिका-उपरना बस्त्रो, कुंडीओ, उपानह-पगरखां अने चित्रपटने ब्राह्मणोने आपीने दाढी अने मुंछन मुंडन कराव्यु. त्यारबाद तन्तुवायनी शाळा थकी नीकळी नालंदाना बाहेरना मध्य भागमां थई ज्यां कोल्लाक नामे सन्निवेश छे त्यां आव्यो. त्यार पछी कोल्लाक सन्निवेशनां बहारना भागमा घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे, यावत्-प्ररूपे छे के-'हे देवानुप्रियो ! बहुल नामे भगवते करेलो गोशालकनो शिष्यतरीके स्वीकार. Jain Education international Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंतनो गोशा कासार्थ ग्रामची कूर्मग्राम तरक बिहार भने ३७२ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १५. मज्मणं निगच्छद, निगग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लागसनियेसे शेणेव उवागच्छइ । तर णं तस्स कोल्हागस्स संनिवेसरल यडिया बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति, जाव-परूवेति- 'धन्ने णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चैव जाव-जीवियफले बहुलस्स माहणस्स ०२ । तर णं तस्स गोसालरस मंसलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयम सोचा निसम्म अयमेवारुवे अम्म थिए जव समुप्यजित्था - 'जारिसिया णं ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स रही जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक मे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, नो खलु अत्थि तारिसिया णं अन्नस्स करसह तहारुवस्स समणस्स या माहणस्स या इही ती जाय परकमे लखे पत्ते अभिसमग्रागण तं निस्संदिद्धं च मं एत्थ ममं धम्मायरिष धम्मोवदेसर समणे भगवं महावीरे भविस्सतीति कट्टु कोलामसन्निवेसे सम्भितरवाहिरिए ममं सचओ समंता मग्गणगवेसणं करे, ममं सभ जाय करेमाणे कोल्लागसंनिवेगसरस दहिया पणियभूमीए मए सर्दि अभिसमन्नागए । तर पं से गोसाले मंलिपुते हट्ट तुट्टे ममं तिक्तो आग्राहिनं पाहिणं जाय नमखित्ता एवं ययासी- 'तुझे णं भंते! मम धम्मावरिया, अहन्नं तुझं अंतेवासी' । तप णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं पडिसुणेमि । तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुचेणं सद्धि पणियभूमीप छवासाई लाभं अलाभं सुखं दुखं सकारमसकारं पचणुव्यमाणे अणिजागरिय विहरित्या | तकना छोडने उखेडी नांखj. - ५. तए णं अहं गोयमा ! अन्नया कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पबुट्ठिकार्यंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं सिद्धत्थामाओ नगराओ कुम्मगामं नगरं संपट्ठीए विहाराए । तस्स णं सिद्धत्थगामस्स नगरस्स कुम्मगामस्स नगरस्स य अंतरा पत्थणं महंगे तिलभए पत्तिए पुफिर हरियगरेरिजमाणे खिरीए अतीव २ उचसोमेमाणे २ चिट्ठर । तप णं से गोसाले मंखलिते तं तिथं भगं पासह, पासित्ता ममं बंदति नम॑सति, वंदिता नर्मसित्ता एवं पयासी एस णं भंते! तिलयंन‍ किं निप्पस्सिर नो निष्पन्नस्सति एए य स तिलपुष्फलीचा उदात्ता २ कहिं गच्छहिंति, कहिं उपवञ्चिदिति त अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी- 'गोसाला ! एस णं तिलथंभए निष्फजिस्सह, नो न निष्फ जिस्सइ, एए य सन्त तिलपुष्कजीवा उदाइन्ता २ एयरस चेय तिलभगस्स गाए तिलसंगलिया सत्त तिला पश्चावादस्संति' । तर णं से गोसाले मंखलिते ममं एवं आइक्यमाणस्स एयम नो सद्दति, नो पत्तियति, जो रोड, एयम असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोपमाणे ममं पणिद्वार 'अयं नं मिच्छावादी भवद' ति कट्टु ममं अंतियाओं सणियं २ पचोसकर, पश्चोसकित्ता जेनेव से ५. त्यारबाद हे गौतम ! अन्य कोई दिवसे प्रथम शरद काळना समयमां ज्यारे दृष्टि थती न होती त्यारे में मंखलिपुत्र गोशालकनी साधे सिद्धार्थ ग्रामनामे नगरथी कूर्मग्राम नामे नगर तरफ जया माटे प्रयाण कर्पु, सिद्धार्थ प्रामनामे नगर अने कूर्मग्राम नगरनी बच्चे अहिं एक मोटो तमो छोड पत्रवाटो, पुष्पवालो, हरितपणाची अत्यंत शोभतो अने शोभावडे अत्यंत अधिक अधिक दीपतो हतो. हवे ते मंखलिपुत्र गोशालके ते सखना छोडने जोयो, जोइने मने वंदन अने नमस्कार करी आ प्रमाणे कां के है भगवन् । आ तनो छोड नीपजशे के नहि नीपजे आ सात तलना पुष्पना जीवो मरी मरीने गोशालकने में आ प्रमाणे वतुं गोशालक आ तनो छोड नीरजशे आज तलना छोड़नी एक तलफळीने विषे सात तलरूपे उपजशे.' प्रतीति तेम रुचि न करी, आ वातनी श्रद्धा नहि करतां प्रतीति नहि करतां मिया करवा माटे थाओ' - एम समजी मारी पासेथी धीमे धीमे गयो, अने ज्यां ते तलनो छोड छे, मार्गमा तलना छो गोशालकनो भग दंत महावीरने प्रश्न- तलनो छोड नीपजशे के नहि गोशालक म बंतनी वातने अने अरुचि करतां 'भारा निमित्ते आ मिथ्यावादी त्यां आवीने तेणे ते तलना छोडने माटीसहित मूळथी उखेडी नांख्यो, उखेडीने तेने एकान्ते मूक्यो. हे गौतम! तत्काळ ज आकाशमां दिव्य वादळ थयुं, अने ते दिव्य वादळ क्षण वारमा ज ब्राह्मण धन्य छे' - इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे कहेतुं यावत् - 'बहुल ब्राह्मणनो जन्म अने जीवितव्यनुं फळ प्रशंसनीय छे.' ते वखते घणा माणसो पासेथी आ बात सांभळीने अने अवधारीने मंखलिपुत्र गोशालकने आवा प्रकारनो आ विचार यावत् उत्पन्न थयो- 'मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीरने जेवी ऋद्धि, द्युति - तेज, यश, बल, वीर्य अने पुरुषकार - पराक्रम लब्ध छे, प्राप्त थएल छे, सन्मुख चल छे, ते प्रकारनी ऋद्धि शुति-तेज, यावत् पुरुषकार पराक्रम अन्य कोई तेया प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने उम्ध, प्राप्त के सन्मुख थएल नथी, ते माटे अवश्य अहिं मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत महावीर हशे ' - एम विचारी ते कोलाक सन्निबेनी बहार भने अंदर चोतरफ मारी मार्गणा भने गवेषणा करवा लाग्यो. चोतरफ मारी गवेषणा करतो कोलाक सनिवेपना बहारना भागमा मनोह भूमि विषे ते मने मध्यो त्यारबाद ते मंखलिपुत्र गोशालक प्रसन्न अने संतुष्ट पई मने प्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत्नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्यो - "हे भगवन् ! तमे मारा धर्माचार्य छो, अने हुं तमारो शिष्य हुं". त्यारे हे गौतम! में मंखलिपुत्र गोशालकनी ए बातने सीकारी यारवाद हे गौतम हूं मंसलिपुत्र गोशालकनी साधे प्रणीतभूमीने विषे छ वर्ष सुची लाम, अलाभ, सुख, दुःख, सत्कार अने असत्कारनो अनुभव करतो अने तेनी अनित्यतानो विचार करतो विहरवा लाग्यो. क्यां जशे अने क्यां उपजशे' ? हे गौतम! त्यारे मंखलिपुत्र नहि नीपजे एम नहि, आ सात तलना पुष्पना जीयो मरी मरीने स्पारे ९ प्रमाणे कहेतां मारी आ बातनी मंखलिपुत्र गोशालके श्रद्धा, : Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३७३ तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं तिलथंभगं सलेट्ठयायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडेत्ता एगते पडेति । तक्षणमेतं चणं गोयमा! दिवे अभवद्दलए पाउन्भूए । तए णं से दिवे अभवद्दलए खिप्पामेव पतणतणापति, खिप्पामेव पविजयाति, खिप्पामेव नचोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासणं दिवं सलिलोदगं वासं वासति, जेणं से तिलथंमए आसत्थे पञ्चायाए, तत्थेव बद्धमूले, तत्थेव पतिट्ठिए । ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता २ तस्सेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया। ६. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि, तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ पगिज्झिय २ भिमहे आयावणभमीए आयावेमाणे विहरइ, आइच्यतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सवओ समंता अभिनिस्सर्वति, पाणभूय-जीव-सत्त-दयट्ठयाए च णं पडियाओ २ तत्थेव भुजो २ पञ्चोरुभेति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि पासति, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं २ पञ्चोसक्कइ, ममं० २ पञ्चोसक्कित्ता जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छति, ते. २-च्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जूयासेजायरए' ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं णो आढाति, नो परियाणति, तुसिणीए संचिट्ठति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि दोच्चं पि तचं पि एवं वयासी-'किं भवं मुणी, मुणिए, जाव-सेजायरए' । तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव-मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पञ्चोरुभति, आ० २-रुभित्ता तेयासमुग्याएणं समोहन्नइ, तेया० २ समोहणित्ता सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ, स० २-सक्कित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरइ । तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपण?याए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ गं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सा उसिणा तेयलेस्सा पडिहया । तए णं से वेसियायणे वालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए सीओसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स गर्जना करवा लाग्यु, एकदम वीजळी चमकवा लागी, अने तुरतज.अत्यंत पाणी अने अत्यंत कादव न थाय तेवी थोडा पाणीनां बिंदुवाळी, रज अने धूळने शांत करनार एवी दिव्य उदकनी वृष्टि थई. (अथवा सीतादिक महानदीओना पाणी जेवा पाणीनी वृष्टि थई.) जेथी करी ते तलनो छोड स्थिर थयो, विशेष स्थिर थयो, उग्यो अने बद्धमूल थई त्यां ज प्रतिष्ठित थयो. ते सात तल पुष्पना जीवो मरण पामी पामीने तेज तलना छोडनी एक तलफळीमा सात तलरूपे उत्पन्न थया. ६. त्यार बाद हे गौतम ! हुं मंखलिपुत्र गोशालकनी साथे ज्यां कूर्मग्राम नामे नगर छे त्यां आव्यो. ते वखते ते कूर्मग्राम नगरनी बहार गोशालकने वेश्या. वेश्यायन नामे बालतपस्वी निरंतर छह छट्ठना तप करवावडे पोताना बन्ने हाथ उंचा राखी राखीने सूर्यना सन्मुख उभो रही आतापनाभूमिने । विषे आतापना लेतो विहरतो हतो. सूर्यना तेजवडे तपेली यूकाओ चोतरफथी नीकळती हती, अने ते सर्व प्राण, भूत, जीव अने सत्त्वनी गोशालकनु पहा. दयाने माटे पडी गयेली ते यूकाओने पाछी त्यां ने त्यां मूकतो हतो. हवे ते मंखलिपुत्र गोशालके वेश्यायन नामे बालतपस्वीने जोयो, तेमन गोशालक जोईने मारी पासेथी ते धीमे धीमे पाछो गयो. पाछो जईने ज्यां वेश्यायन नामे बालतपस्वी छे त्यां आवी वेश्यायन नामे बालतपस्वीने ए प्रमाणे उपर तेजोलेश्यानुं का- 'शुं तमे "मुनि छो के मुनिक-चसकेल छो, अथवा यूकाना शय्यातर छो' ? त्यारे ते वेश्यायन नामे बालतपस्वीए मंखलिपत्र गोशाल- मुक, शीतलेश्या मूकी भगवंते करेलु कना ए कथननो आदर अने स्वीकार कर्यो नहि, परन्तु मौन धारण कयु. त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालके वेश्यायन नामे बालतपस्वीने गोशालकनुं रक्षण. बीजी वार अने त्रीजी वार पण ए प्रमाणे कर्वा के 'तमे मुनि छो, चसकेल छो, के यूकाना शय्यातर छो' ? ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके बीजी वार अने त्रीजी वार ए प्रमाणे कयुं त्यारे ते वेश्यायन नामे बालतपस्वी एकदम कुपित थयो अने यावत्-क्रोधे धमधमायमान थई आतापनाभूमिथी नीचे उतर्यो. नीचे आवीने तेजःसमुद्घात करी सात आठ पगला पाछो खसी मंखलिपुत्र गोशालकना वधने माटे तेणे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी. त्यारबाद हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालकना उपर अनुकंपाथी वेश्यायन बालतपस्वीनी तेजोलेश्यानु प्रतिसंहरण करवा माटे आ प्रसंगे में शीत तेजोलेश्या बहार काढी, अने मारी शीत तेजोलेश्याए वेश्यायन बालतपस्वीनी उष्ण तेजोलेश्यानो प्रतिघात कर्यो. त्यार पछी ते वेश्यायन बालतपस्वीए मारी शीततेजोलेश्याधी पोतानी उष्णतेजोलेझ्यानो प्रतिघात थयेलो जाणीने अने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने कंइ पण थोडी के वधारे पीडा अथवा अवयवनो छेद नहि करायेलो जोईने पोतानी उष्ण तेजोलेश्याने पाछी खेंची लीधी, पोतानी उष्ण तेजोलेश्याने पाछी खेंचीने ते आ प्रमाणे बोल्यो-'हे भगवन् ! में जाण्यु, हे भगवन् ! में जाण्यु.' त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालके मने ए प्रमाणे कडं के 'हे भगवन्! आ यूकाना शय्यातर बालतपस्वीए आपने 'हे भगवन् ! में जाण्यु, हे भगवन् ! . Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५, सरीरगस्स किंचि आबाहं वा वावाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता सीओसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरद, सीओ०२साहरित्ता ममं एवं वयासी-'से गयमेयं भगवं ! से गयमेयं भगवं'। तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं बयासी-किं भंते ! एस जूयासिजायरए तुब्भे एवं वयासी-'से गयमेयं भगवं! से गयमेयं भगवं? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'तुमं गं गोसाला! वेसियायणं बालतवस्सि पाससि, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं २ पञ्चोसक्कसि, जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि, ते० २-च्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जयासेजायरए' ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तव एयमद्वं नो आढाति, नो परिजाणति, तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं तुमं गोसाला! वेसियायणं बालतवस्सि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-किं भवं मुणी, मुणिए, जावसेजायरए' ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तुमं दोच्चं पि तञ्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव-पच्चोसक्कति, पञ्चोसक्त्तिा तव वहाए सरीरगंसि तेयलेस्सं निस्सिरइ । तए णं अहं गोसाला! तव अणुकंपणट्टयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सीयतेयपडिसाहरणट्टयाए पत्थ गं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निस्सिरामि, जाव-पडिहयं जाणित्ता तव य सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासेत्ता सीओसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, सी० २-साहरित्ता ममं एवं वयासी-से गयमेयं भगवं! से गयमेयं भगवं! तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमढें सोच्चा, निसम्म भीए जाव-संजायमये ममं वंदति नमंसति; ममं वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'कहनं भंते! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति' ? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जेणं गोसाला! एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दू बाहाओ पगिझिय २ जाव-विहरति, से गं अंतो छण्डं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवति' । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमद्रं सम्मं विणएणं पडिसुणेति । ७. तए णं अहं गोयमा! अन्नदा कदाइ गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि कुम्मगामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपढिए विहाराए, जाहे य मो तं देसं हवमागया जत्थ णं से तिलथंभए । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी'तुज्झे गं भंते ! तदा ममं एवं आइक्खह, जाव-परूवेह-गोसाला! एस णं तिलथंभए निष्फजिस्सइ, नो न निप्पजिस्सइ, तं चेव जाव-पञ्चायाइस्संति' तणं मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसइ-'एस णं से तिलथंभए णो निष्फन्ने, अनिफनमेव । ते य में जाण्यु'-एम शुं कह्यु ! त्यारे हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालकने में आ प्रमाणे कह्यु के-हे गोशालक! तें वेश्यायन बालतपखीने जोयो अने जोईने मारी पासेथी धीमे धीमे तुं पाछो गयो, पाछो जईने ज्या वेश्यायन बालतपस्वी हतो त्यां गयो, अने त्यां जईने तें वेश्यायन बालतपस्वीने एम कर्दा के–'शुं तमे मुनि छो, चसकेल छो के यूकाना शय्यातर छो' ? तो पण वेश्यायन बालतपस्वीए तारा ए कथननो आदर-स्वीकार न कर्यो अने ते मौन रह्यो. त्यारबाद हे गोशालक ! तें वेश्यायन बालतपखीने बीजीवार अने त्रीजीवार पण ए प्रमाणे कह्यु के-'तमे मुनि छो, चसकेल छो के यूकाना शय्यातर छो' ? त्यारबाद ज्यारे तें बीजीवार अने त्रीजीवार ए प्रमाणे कयुं एटले ते वेश्यायन बालतपस्वी गुस्से थयो, अने यावत्-पाछो जईने तारो वध करवा माटे तेणे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी. त्यार पछी हे गोशालक ! में तारी दयाथी वेश्यायन बालतपस्वीनी तेजोलेश्यानुं प्रतिसंहरण करवा माटे ए अवसरे में शीत तेजोलेश्या मूकी, यावत्तेणे तेनी उष्ण तेजोलेश्या प्रतिघात थएली जाणीने अने तारा शरीरने कंइ पण थोडी के वघारे पीडा अथवा अवयवनो छेद नहि करा येलो जोईने पोतानी उष्ण तेजोलेश्या पाछी खेंची लीधी; अने पाछी खेंचीने मने ए प्रमाणे कमु के-'हे भगवन् ! में जाण्यु, हे भगवन् ! भगवंते गोशालकने में जाण्यु.' त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालक मारी पासेथी आ वात सांभळी, हृदयमा अवधारी भय पाम्यो, यावत्-भयभीत थई मने वंदन तेजोळेश्याप्राप्तिनो अने नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्यो-'हे भगवन् ! (अप्रयोगकाळे) संक्षिप्त अने (प्रयोगकाळे) विपुल तेजोलेश्या केम प्राप्त थाय'! विधि बताव्यो. त्यारे हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालकने में ए प्रमाणे कह्यु-'हे गोशालक! जे नखसहित वाळेली अडदना बाकळानी मुठीवडे अने एक विकटाशय-एक चुलुक पाणी वडे निरन्तर छट्ठ छठनो तप करी उंचा हाथ राखी राखीने यावत्-विहरे तो तेने छ मासने अन्ते (अप्रयोगकाळे ) संक्षिप्त अने [प्रयोगकाळे ] विस्तीर्ण एवी तेजोलेश्या प्राप्त थाय'. त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालके मारा आ कथननो विनयवडे सारी रीते स्वीकार कर्यो. भगवंतनुं गोशाल ७. त्यार बाद हे गौतम! अन्य कोई दिवसे मंखलिपुत्र गोशालकनी साथे कूर्मग्रामनगरथी सिद्धार्थप्रामनगर तरफ जवा माटे में कनी साथे सिद्धार्थग्राम तरफ प्रयाण प्रयाण कयु. ज्यारे अमे ज्यां ते तलनो छोड हतो ते प्रदेश तरफ तुरत आव्या त्यारे मंखलिपुत्र गोशालके मने ए प्रमाणे कयु-'हे भगवन् ! अने भगवंतना वचः तमे मने ते वखते ए प्रमाणे कडं हतुं, यावत्-एम प्ररूप्यु हतुं के 'हे गोशालक! आ तलनो छोड नीपजशे, नहि नीपजे एम नहिनने मिथ्या करवा माटे तलना छोडनी इत्यादि यावत्-तलरूपे उपजशे' ते मिथ्या-असत्य थयु, आ प्रत्यक्ष देखाय छे के आ पेलो तलनो छोड उग्यो नथी, अने तेथी उग्या गोशालकनी तपास. शिवाय ते सात तल पुष्पना जीवो मरण पामी पामीने आज तलना छोडनी एक तलफळीमा सात तलरूपे उत्पन्न थया नथी. त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालकने में ए प्रमाणे कयुं के 'हे गोशालक! ते वखते ए प्रमाणे कहेता, यावत्-प्ररूपणा करता मारा ए कथननी तुं श्रद्धा Jain Education international Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३७५ सत्त तिलपुप्फजीवा उदाइत्ता २ नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया' । तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'तुमं णं गोसाला! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्स, जाव-परूवेमाणस्स एयमटुं नो सइहसि, नो पत्तियसि, नो रोयसि, एयमढे असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयन्नं मिच्छावादी भवउत्ति कट्ट ममं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसकसि, पञ्चोसक्कित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छद, ते० २-गच्छित्ता जाव-पगंतमंते एडेसि । तक्षणमेत्तं गोसाला! दिवे अब्भवद्दलए पाउन्भूए । तए णं से दिवे अब्भवहलए खिप्पामेव तं चेव जाव-तस्स चेव निलथंभास एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया; तं एस णं गोसाला! से तिलथंभए निष्फन्ने, णो अनिप्फन्नमेव । ते य सत्त तिलपुःफजीवा उदाइत्ता २ एयस्स चेव तिलथंभयस्स पगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया । एवं खलु गोसाला! वणस्सइकाइया पउपरिहारं परिहरंति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स, जाव-परूवेमाणस्स एयमटुं नो सहहति ३, एयमटुं असदहमाणे जाव-अरोएमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छति, ते २-गच्छित्ता २ ताओ तिलथंभयाओ तं तिलसंगलियं खुति, खुड़िता करयलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ । तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ते सत्त तिले गणमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-'एवं खलु सबजीवा वि पउपरिहारं परिहरंति'-एस णं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्टे, एस णं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए अवकमणे पन्नत्ते। ८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते पगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए य एगेण य वियडासएणं छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडे बाहाओ पगिज्झिय २ जाव-विहर। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छण्डं मासाणं संखित्तविउलतेयलेसे जाए। ९. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नया कया वि इमे छ हिसाचरा अंतियं पाउभवित्था, तंजहा १-साणे तं चेव, सधं जाव-अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरति, तं नो खलु गोयमा! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव-जिणसई पगासेमाणे विहरह, गोसाले गं मंखलिपुत्ते अजिणे, जिणप्पलावी जाव-पगासेमाणे विहए । तर णं सा करतो न होतो, प्रतीति करतो न होतो, रुचि करतो नहोतो, ए कथननी श्रद्धा नहि करतां, प्रतीति नहि करतां अने रुचि नहि करतां मने आश्रयी-मारा निमित्ते आ मिथ्यावादी थाओ'-एम समजी मारी पासेथी धीमे धीमे तुं पाछो गयो, पाछो जईने ज्यां ते तलनो छोड हतो त्यां आवी यावत्-तेने माटीसहित उखाडीने एकांते मूक्यो. हे गोशालक! ते वखते तत्क्षणमा आकाशमां दिव्य वादळ प्रगट ययु, त्यार बाद ते दिव्य पाणीनुं वादळ एकदम गर्जना करवा लाग्यु-इत्यादि यावत्-ते तलना छोडनी एक तलफळीमां सात तलरूपे उत्पन्न थया छे. ते माटे हे गोशालक! ते तलनो छोड निष्पन्न थयो छे, अनिष्पन्न छे-एम नथी. ते सात तलना पुष्पना जीवो मरीने आज तलना छोडनी एक तलफळीमां सात तलरूपे उत्पन्न थथा छे. ए प्रमाणे हे गोशाटक ! वनस्पतिकायिको मरीने प्रवृत्त परिहारनो परिहार-उपभोग करे छे. अर्थात्-मरीने तेज शरीरमां पुनः उपजे छे. त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालके ए प्रमाणे कहेतां यावत्-प्ररूपणा करतां मारा आ कथननी श्रद्धा, प्रतीति अने रुचि न करी, आ कथननी अश्रद्धा, यावत्-अरुचि करतां ज्यां ते तलनो छोड हतो त्यां जईने तेणे ते तलना छोडथी ते तलनी तलफळीने तोडीने हस्ततळमा मसळी सात तल बहार काढ्या. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालकने ते सात तलने गणतां आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो के 'ए प्रमाणे खरेखर सर्व जीवो पण प्रवृत्त परिहार परिहरे छे.' अर्थात्-मरीने गोशालकनो परिव3. हे गौतम! मंखलिपुत्र गोशालकनो आ परिवर्तवाद छे. अने हे गौतम ! मारी पासेथी ( तेजोलेश्यानो उपदेश) देवादस्वीकार बने १५२१) भगवंतची तेनुं जूदा ग्रहण करीने मंखलिपुत्र गोशालकनुं आ अपक्रमण (जूदा पडवु) छे. पढq. ८. त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक अडदना बाकुळानी मुठीवडे अने एक विकटाशय-चुलुक पाणीवडे निरन्तर गोशालकने तेजोछट्ट छद्दनो तप करी उंचा हाथ राखी राखीने विचरे छे. त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालकने छ मासने अन्ते संक्षिप्त अने विपुल । तेजोलेश्या उत्पन्न थई. ९. त्यार पछी ते मंखलिपुत्र गोशालकने अन्य कोई दिवसे आ छ दिशाचरो आवी मळ्या. तेना नाम आ प्रमाणे-१ शान-इत्यादि गोशालकना । सर्व पूर्वोक्त यावत्-जिन नहि छतां जिन शब्दने प्रकाशित करतो ते विहरे छे' त्यां सुधी कहे. माटे हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक विशाच पया बने ते वे खरी रीते जिन नथी, परन्तु जिननो प्रलाप करतो, यावत्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे छे. मंखलिपुत्र गोशालक अजिन छे, तो पण जिन तरीके विचरवा पोताने जिन कहेतो यावद्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो ते विहरे छे. त्यार बाद अत्यन्त मोटी पर्षदा "शिवराजर्षिना चरित्रने विषे कह्यं का . Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५. महतिमहालया महश्चपरिसा जहा सिवे जाव-पडिगया । तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग० जाव-बहुजणो अन्नमनस्व जाव-पकवेइ-'जन्नं देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव-विहरद' तं मिच्छा । समणे मगवं महावीरे एवं आइक्खइ-जाव-परूवेइ-'एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नामं मंखे पिता होत्या । तए णं तस्स मंखलिस्स एवं चेव तं सवं भाणियचं, जाव-अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरद, तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव-विहरद, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव-विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव-जिणसई पगासेमाणे विहरह' । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा, निसम्म आसुरुत्ते, जाव-मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पञ्चोरुहह, आया० २ पञ्चोरुहित्ता सावत्यि नगरिं मझमज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंमकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिखुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं यावि विहरह। १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम थेरे पगइभहए, जाव-विणीए, छटुंछट्टेणं अणिक्त्तेिणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तए णं से आणंदे थेरे छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव-उच्च-नीय-मज्झिम. जाव-अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइवयइ । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एहि ताव आणंदा! इओ एग महं उवमियं निसामेहि' । तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंत्रलिपुते तेणेव उवागच्छति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वयासी-"एवं खलु आणंदा ! इतो चिरातीयाए अद्धाए केह उच्चावया वणिया अत्थत्थी, अस्थलुद्धा, अत्थगवेसी, अत्थकंखिया, अत्थपिवासा, अत्थगवेसणयाए णाणाविहविउलप गोशालक जिन छे तेम वांदीने पाछी गइ. त्यार पछी श्रावस्ती नगरीमा शंगाटक-त्रिक मार्ग, यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर यावत्-प्ररूपणा करे तनु के के हे 'देवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशालक जिन थई जिननो प्रलाप करतो यावत् विहरे छे, ते मिथ्या-असत्य छे. श्रमण भगवान् महाकपन. वीर एम कहे छे, यावद्-प्ररूपे छे के ए प्रमाणे खरेखर ते मंखलिपुत्र गोशालकने मंखलिनामे मंख (भिक्षाचरविशेष ) पिता हतो. हवे ते मंखलिने-इत्यादि सर्व यावत्-जिन नहि छतां जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे छे–त्यां सुधी कहेवू. ते माटे मंखलिपुत्र गोशालक जिन नथी, परन्तु जिननो प्रलाप करतो यावद्-विहरे छे. श्रमण भगवान् महावीर जिन छे, अने जिनप्रलापी, यावत्-जिन शब्दनो प्रकाश करता विहरे छे.' त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक घणा माणसो पासेथी आ कथन सांभळी, विचारी, अत्यन्त गुस्से थयो, यावत्-अतिशय क्रोधे बळतो ते आतापना भूमिथी नीचे उतर्यो, आतापनाभूमिथी नीचे उतरी श्रावस्ती नगरीना मध्य भागमा थईने ज्यां हालाहला कुंभारणनो कुंभकारापण-हाट छे त्यां आव्यो, आवीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमा आजीविक संघवडे सहित अत्यन्त अमर्षने धारण करतो ए प्रमाणे विहरवा लाग्यो. उपरर्नु कथन १०. ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान् महावीरना शिष्य आनन्द नामे स्थविर प्रकृतिना भद्र अने यावद्-विनीत हता. ते सांभळी गोशाल छट्ठ छट्ठना निरन्तर तपकर्म करवावडे अने संयमवडे आत्माने भावित करता विहरता हता. हवे ते आनंद स्थविरे छट्टक्षपणना पारणाने भामंदने गोशाल- दिवसे प्रथम पौरुषीने विषे-इत्यादि गौतम स्वामीनी *पेठे रजा मागी, अने यावत्-ते उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां यावत्-गोचरीए कनो समागम, भगवंतने वाळी भस्म जता हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटथी थोडे दूर गया. ते वखते मंखलिपुत्र गोशालके हालाहला कुंभारणना हाटथी थोडे दूर जा करवानी तेणे आ- आनन्द स्थविरने जोया, जोईने तेणे ए प्रमाणे कह्यु के 'हे आनन्द ! अहिं आव, अने एक मारुं दृष्टान्त सांभळ, ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके पेली धमकी, ते माटे तेणे कहेलु ए प्रमाणे कयुं एटले ते आनन्द स्थविर ज्यां हालाहला कुंभारण- कुंभकारापण छे, अने ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक छे त्या आल्या.' हवे वणिको दृष्टान्त. ते मंखलिपुत्र गोशालके आनंद स्थविरने आ प्रमाणे कयु-'हे आनन्द ! ए प्रमाणे खरेखर आजथी घणा काल पहेला अनेक प्रकारना धनना अर्थी, धनना लोभी, धननी गवेषणा करनारा, धनना कांक्षी अने धननी तृष्णावाळा केटला एक वणिकोए धन मेळववा माटे अनेक प्रकारना पुष्कळ प्रणीत-सुन्दर भांड-वस्तुओ (अथवा करीयाणारूप भांडने) लईने तथा गाडी अने गाडाओना समूहवडे पुष्कळ अनाज अने पाणीरूप पाथेय ग्रहण करीने एक मोटी गामरहित, पाणीना प्रवाहरहित, सार्थादिकना आगमनरहित अने लांबा मार्गवाळी अटवीमा प्रवेश कर्यो.' त्यार पछी ते वणिकोनुं गामरहित, पाणीना प्रवाह रहित, सार्थादिकना आगमनरहित अने लांबा रस्तावाळी ते अटवीनो कंइक भाग गया पछी पूर्व लीधेलं पाणी अनुक्रमे पीतां पीतां खूट्यु. त्यारे पाणिरहित थयेला अने तृषाथी पीडाता ते वणिकोए परस्पर बोलावीने आ प्रमाणे का-'ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रियो ! आ गामरहित-इत्यादि यावत्-अटवीमां कंइक भाग गया पछी पहेला लीधेलं आपणु *१. भग० ख०१०२ उ०५पृ. २८१. Jain Education international Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५० भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. णियभंडमायाए सगडीसागडेणं सुबहुं भत्तपाणं पत्थयणं गहाय एग महं अगामियं, अणोहियं, छिन्नावायं, दीहमद्धं अडविं अणुप्पविदा । तए णं तेसिं वणियाणं तीसे अगामियाए, अणोहियाए, छिन्नावायाए, दीहमद्धाए अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुषगहिए उदए अणुपुत्रेणं परिभुजेमाणे परिभुजेमाणे खीणे । तए णं ते वणिया खीणोदगा समाणा तण्हाए परिम्भवमाणा अनमने सहावेंति, अन्न० २-सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए जाय-अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुष्पगहिए उदए अणुपुत्रेणं परिभुजेमाणे परिभुजेमाणे खीणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अहं इमीसे अगामियाए जाव-अडवीए उदगस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेत्तए'त्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति, अन्न. २-सुणेत्ता तीसे गं अगामियाए जाव-अडवीए उदगस्स सवओसमंता मग्गणगवेसणं करेंति, उदगस्स सचओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एगं महं वणसंडं आसाति, किण्हं किण्होभासं जाव-निकुरंबभूयं पासादीयं जाव-पडिरूवं । तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए पत्थ णं महेगं वम्मीयं आसादेति । तस्स णं वम्मियस्स चत्तारि वप्पुओ अब्भुग्गयाओ, अभिनिसढाओ, तिरियं सुसंपग्गहियाओ, अहे पन्नगद्धरूवाओ, पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ, पासादियाओ जाव-पडिरूवाओ। तए णं ते वणिया हट्टतुट्ठ० अन्नमन्नं सद्दावेंति, अ० २ सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे इमीसे अगामियाए जाव -सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणेहिं इमे वणसंडे आसादिए, किण्हे, किण्होमासे, इमस्स गं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए इमे वम्मीए आसादिए, इमस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पुओ अभुग्गयाओ, जाव-पडिरूवाओ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पि भिन्दित्तए, अवियाई ओरालं उदगरयणं अस्सादेस्सामो । तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति, अन्न० २-सुणेत्ता तस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पं भिदंति । ते णं तत्थ अच्छं पत्थं जञ्चं तणुयं फालियवन्नाभं ओरालं उद्गरयणं आसादेति । तए णं ते वणिया हट्टतुट्ठ० पाणियं पिबंति, पा० २ पिबित्ता वाहणाई पजेंति, वा० २ पजेत्ता भायणाई भरेंति, भा० भरेत्ता दोच्चं पि अन्नमन्नं एवं वदासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोच्चं पि वप्पं भिंदित्तए, अवियाई एत्थ ओरालं सुवन्नरयणं आसादेस्सामो' । तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमटुं पडिसुऐति, अन्न० २-सुणेत्ता तस्स वम्मीयस्स दोच्चं पि वप्पं भिंदंति, ते णं तत्थ अच्छं जच्चं तावणिजं महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं सुवन्नरयणं अस्सादेति । तए णं ते वणिया हट्ठतुट्ठ० भायणाई भरेंति, पवहणाई भरैति, भरेत्ता तच्चं पि अन्नमन्नं एवं वयासी -'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिन्नाए ओराले उद्गरयणे आसादिए, दोच्चाए वप्पाए भिन्नाए ओराले सुवन्नरयणे अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स तचं पि वप्पं भिदित्तए । अवि पाणी अनुक्रमे पीतां पीतां खूटी गयुं छे, ते माटे हे देवानुप्रियो ! आ गामरहित, यावत्-अटवीने विषे आपणे पाणीनी चोतरफ गवेषणा करवी श्रेयस्कर छे'–एम विचार करी एक बीजानी पासेथी आ वात सांभळीने तेओए गामरहित यावत्-अटवीमां पाणीनी चोतरफ तपास करी. पाणीनी चोतरफ तपास करतां तेओने एकमोटुं वनखंड प्राप्त थयु. जे वनखंड श्याम अने श्याम कान्तिवाळु यावत्-महामेघना समूह जेवू, प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने यावत्-सुन्दर हतुं. ते वनखंडना बरोबर मध्य भागमा तेओए एक मोटो वल्मिक-राफडो जोयो. ते वल्मिकने सिंहनी केशवाळी जेवां अवयवोवाळां उंचां चार शिखरो हता, ते तीळ-विस्तीर्ण, नीचे अर्ध सर्पना जेवां, अर्ध सर्पनी आकृतिवाळां, प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने यावत्-सुन्दर हता. ते वल्मिकने जोइने प्रसन्न अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए एक बीजाने बोलावीने आ प्रमाणे कयुं के 'हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर आपणे आ गामरहित-एवी अटवीमां यावत्-चोतरफ तपास करतां आ श्याम अने श्याम कान्तिवाळु वनखड जोयु, अने आ वनखंडना बराबर मध्य भागमां आ वल्मिक जोयो. आ वल्मिकने चार उंचा यावत्-प्रतिरूपसुन्दर शिखरो छे, ते माटे हे देवानुप्रियो ! आ वल्मिकनुं पहेलं शिखर फोड, ए श्रेयस्कर छे, के जेथी आपणे पुष्कळ उत्तम पाणी प्राप्त करीए'. त्यार पछी ते वणिकोए एक वीजा पासेथी आ कथन सांभळीने ते वल्मिकना प्रथम शिखरने फोड्यु. तेथी तेओने त्यां स्वच्छ, हितकारक, उत्तम, हलकुं अने स्फटिकना वर्ण जेवू, पुष्कळ अने उत्तम पाणी प्राप्त थयु. त्यार पछी प्रसन्न अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए पाणी पीg, अने ( बळद वगेरे) वाहनोने पाणी पायुं, पाणी पाईने पात्रो भर्या, पात्रो भरीने बीजी वार तेओए परस्पर आ प्रमाणे कह्यु'हे देवानुप्रियो ! आपणे ए प्रमाणे खरेखर आ वल्मिकना प्रथम शिखरने भेदवावडे पुष्कळ उत्तम पाणी प्राप्त कयु, तो हे देवानुप्रियो ! • हवे आपणे आ वल्मिकना बीजा शिखरने भेदवू श्रेयस्कर-योग्य छे, के जेथी आपणे अहिं उदार अने उत्तम सुवर्ण प्राप्त करीए.' त्यार बाद ते वणिकोए एक बीजानी पासेथी आ कथन सांभळीने ते वल्मिकना बीजा शिखरने पण फोड्यु. तेथी तेमां स्वच्छ, उत्तम, तापने सहन करनार महाअर्थवाळु महाप्रयोजनवाळु-अने महामूल्यवाळु पुष्कळ उत्तम सुवर्ण प्राप्त कयु. सुवर्णने प्राप्त करवाथी प्रसन्न अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए पात्रो भयो, पात्रो भरीने वाहनो भयो, वाहनो भरीने त्रीजी वार तेओ परस्पर ए प्रमाणे बोल्या-'हे देवानुप्रियो ! आपणे आ वल्मिकना प्रथम शिखरने भेदतां उदार एवं उत्तम जल प्राप्त कयु, अने बीजं शिखर भेदतां उदार एवं उत्तम सुवर्ण प्राप्त ४८ भ. सू. Jain Education international Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंमद्दे शतक १५. या एत्थ ओरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो' । तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमङ्कं पडिसुर्णेति, अन्न० २ -सुणेत्ता तस्स वम्मीयरस तथं पिवपं निदंति । ते णं तत्व विमलं निम्मलं नित्तलं निकलं महत्वं महम्धं महरिहं भोराढं मणिरयणं अस्सादेति । तप णं ते वणिया हट्टतुट्ट० भाषणाई भरेति, भा० २ भरेता पवहणाई भरेंति, भरेता चउत्थं पि अन्नमन्नं एवं वासी एवं खलु देवाप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमार बप्पार मिनार ओराले उद्गरवणे अस्सादिए, दोबार पप्पा भित्राए ओराले सुवणरयणे अस्सादिए, तघार बप्पार मिनार ओराले मणिरवणे अस्सादिए, सेयं तु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमरस वम्मीयस्स चडत्थं पि वप्पं भिदित्तप, अवियाई उत्तमं महग्घं महरिहं ओरालं वइररयणं अस्सादेसामो' । तप णं तेसिं वणियाणं एगे वणिए हियकामए, सुहकामए, पत्थकामए, आणुकंपिए, निस्सेसिए, हिय - सुद्द - निस्सेसकामए से पणिय एवं पयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हे इमस्स बम्मीयस्थ पदमार पप्यार मिनार ओराले उद्गरवणे जाव - तच्चाप वप्पाए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिप, तं छोउ अलाहि पजतं, एसा चउत्थी वप्पा मा भिज्जउ, चडत्थी णं वप्यासउवसग्गा पावि दोत्था' । तर णं ते वणिया तस्स पणियरस हियकामगरस सुहकाम० जाव-हिय सुदनिस्सेसकामगस्स एवमादयमाणस्स जाब- परुवेमाणस्स एयम नो सहंति, जाब-नो रोयंति एयम असहमाणा जानअरोपमाणा तस्स वम्मीयस्स चडत्थं पि वप्यं निति से गं तत्थ उम्गविसं चंडबिसं घोरविलं महाविसं अतिकायमहाकार्य मसिसाका लगयं नयनविसरोसपुत्रं अंजणपुंजनिगरण्यगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलवलंतजीहं धरणितलवेनिभूयं उक्कडफुडकुडिलजडुलकक्खडविकडफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधर्मेतघोसं अणागलियचंडतिध्वरोसं समुहिं तुरियं चवलं धर्मतं दिट्ठीवि सप्यं संघर्हेति । तप से दिट्ठीविसे सप्पे तेहिं वणियहिं संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव - मिसिमिसेमाणे सणियं २ उट्ठेति उता सरसरसरस्स धम्मीयस्स सिहरतलं दुरुतेर, सि० २ दुरुदेशा आइथं णिज्झाति, आ० २ णिजाइत्ता ते वणिए अणिमिसाए दिट्ठीए सबओ समंता समभिलोएति । तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं सप्पेणं अणि - मिसार दिट्ठीए सओ समंता समभिलोइया समाया सिप्पामेव समंदमतोदगरणमायाए एगाहचं कूडाहचं मासरासी कया याच होत्या । तत्थ गं जे से बचिए तेर्सि चियाणं विकामर जाय हिय सुद्र निस्सेसकामए से अनुकंपया देववार समंदमत्तोवगरणमायाए नियगं नगरं साहिए" एयामेव आणंदा ! तब वि धम्मायरिपणं धम्मोवरसपणं समषेणं नायपुत्रेणं , I - 1 --- क. ते माटे हे देवानुप्रियो ! आपणे हवे आ बल्मिकनुं त्रीनुं शिखर पण फोडनुं श्रेयस्कर छे, के जेथी अहिं उदार एवं मणिरत्न प्राप्त करीए.' त्यार पछी ते वणिकोए एक बीजानी पासेथी आ कथन सांभळीने ते वल्मिकनुं त्रीजुं शिखर पण भेधुं. तेथी तेओए त्यां विमल, निर्मल, अत्यन्त गोळ, निष्फल - प्रासादिदोषरहित, महाअर्थ - महाप्रयोजनातुं महामूल्यवानुं अने उदार एवं मणिरत्न प्राप्त कर्तुं मणिरत्नने प्राप्त करवाथी हृष्ट अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए पात्रो भर्यां, पात्रो भरीने वाहनो भर्यां, वाहनो भरीने तेओए चोथी वार पण एक बीजाक के 'हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर आ वल्मिकना प्रथम शिखरने भेदवाथी पुष्कळ अने उत्तम पाणी प्राप्त कर्यु, बीजुं शिखर मेदवाधी पुष्कळ सुवर्ण प्राप्त कीं, त्रीनुं शिखर मेदवाथी उदार मणिरत्न प्राप्त करूं, तो हे देवानुप्रियो ! आपने हवे आ बल्मिकना चोथा शिखरने पण मेद योग्य छे के जेवी आपणे उत्तम, महानृत्य, महाप्रयोजनया महापुरुषने योग्य अने उदार एवं बज्ररत्न प्राप्त करीए.' त्यार पछी ते वणिकोना हितनी इच्छावाळो, सुखनी इच्छावाळो, पथ्यनी इच्छावाळो, अनुकम्पावाळो, निश्रेः यस - कल्याणनी इच्छावा तेमज हित, सुख अने निःश्रेयसनी इच्छावाळो एक क्षणिक हतो, तेणे से वणिकोने ए प्रमाणे कां 'हे देवानुप्रियो ! आपणे आ बल्मिकना प्रथम शिखरने भेदवाथी उदार अने उत्तम जल प्राप्त कयुं, यावत्-त्रीजुं शिखर भेदवाथी उदार मणिरत्न प्राप्त कयुं, एटलं घणुं .. छे, हवे आपणे आ चोथुं शिखर भेदवुं योग्य नथी, कारण के चोथुं शिखर कदाच आपणने उपद्रव करनार थाय'. त्यारे ते वणिकोए हितनी इच्छावाळा, सुखनी इच्छावाळा यावत्-हित, सुख अने निःश्रेयसनी इच्छावाळा तथा उपर प्रमाणे कहेता, यावत्-प्ररूपणा करता एवा ते वणिकना कथनमां श्रद्धा न करी, यावत्-रुचि न करी, तेना कथननी श्रद्धा नहि करता यावत्-रुचि नहि करता ते वणिकोर - ते वल्मिकता चोथा शिखरने पण मे. तेथी तेओए त्वां उपविषचा प्रचंडविषयाळ, घोरवाल, महाविपाल, अतिपापालो, मोटा शरीरवाळो अने मपी तथा मूपाना समान काळावर्णवाळो दृष्टिना विप अने रोपवडे पूर्ण, मधीना ढगलाना जेवी कान्तिवाळो, लाल आंखवाळो, जेने चपल अने साथे चालती वे जीभो छे एवो, पृथिवीतलमां वेणिसमान, उत्कट स्पष्ट वक्र जटिल - "केशवाळीयुक्त अने विस्तीर्ण फणानो आटोप करवामां दक्ष, आकर-खाणने विषे अग्निथी तपावेला लोढाना जेवो घमघमायमान शब्द छे जेनो एवो, नहि जाणी शकाय तेवो उम्र अने तीन रोपवाटो, चानना मुखपेठे त्वरित अने थप शब्द करतो एवो टि ते वणिक ते दृष्टिविष सर्पनो स्पर्श कर्यो एटले अत्यन्त गुस्से थयेला, अने यावत् - क्रोधथी बळता तेणे धीमे वल्मिका शिखर ऊपर चढीने सूर्यने जोड़ने से वणिकोने अनिमिष दृष्टिवढे चोतरफ जोया खार पछी ते सर्प स्पयों बार बाद १० 'स्कन्धना भागमां सिंहनी पेठे सपने पण केशवाळीनो संभव छे- टीका. * 4 धीमे उठी सरसराट करता दृष्टिविष सर्वे चोतरफ जोई ते : Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३०१ ओराले परियाए आसाइए, ओराला कित्ति-वन-सह-सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुवंति, गुवंति, थुवंति इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' इति । तं जदि मे से अज किंचि वि वदति तो गं तवणं तेएणं एगाह कडाहाचं भासरासिं करेमि, जहा वा वालेणं ते वणिया । तुमं च णं आणंदा! सारफ्वामि, संगोवामि, जहा वा से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए, जाव-निस्सेसकामए अणुकंपयाए देवयाए सभंड० जाव-साहिए । तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तव धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स नायपुत्तस्स एयमटुं परिकहेहि' । तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए, जाव-संजायभए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं सावत्थिं नगरि मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणे० २-गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नर्मसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! छ?क्खमणपारणगंसि तुम्भेहिं अभणुन्नाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय जाव-अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए. जाव-वीयीवयामि, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए० जाव-पासित्ता एवं वयासो-'एहि ताव आणंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि'। तए णं अहं गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छामि । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! इओ चिरातीयाए अद्धाए केइ उच्चावया वणिया० एवं तं चेव सवं निरवसेसं भाणियचं, जाव-नियगनगरं साहिए'। तं गच्छ गं तुमं आणंदा! धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स जाव-परिकहेहि। ११. [प्र०] तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहञ्चं भासरासिं करेत्तए, विसए णं भंते! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स जाव-करेत्तए, समत्थे णं भंते ! गोसाले जाव-करेत्तए ? [उ०] पभू णं आणंदा! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव-करेत्तए.। विसए णं आणंदा! गोसाल. जाव-करेत्तए। समत्थे णं आणंदा! गोसाले जाव-करेत्तए, वणिकोने पात्र विगेरे उपकरणसहित एक प्रहारवडे कूटाघात-पाषाणमययंत्रना आघातनी पेठे जल्दी भस्मराशिरूप कर्या. ते वणिकोमा जे वणिक ते वणिकोना हितनी इच्छावाळो, यावत्-हित, सुख अने निःश्रेयस-कल्याणनी इच्छावाळो हतो तेना उपर दयाथी ते देवे पात्र वगेरे उपकरण सहित तेने पोताना नगरे मूक्यो". ए प्रमाणे हे आनन्द ! तारा पण धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्रे उदार पर्याय–अवस्था प्राप्त कर्यो छे, अने तेनी देवो, मनुष्यो अने असुरोसहित आ जीवलोकमां 'श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण भगवान् महावीर'-एवी उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोक-यश व्याप्त थया छे, व्याकुल थया छे, अने स्तवाया छे. तो जो मने ते आज कंइ पण कहेशे तो मारा तपना तेजवडे एक घाए कूटाघात-पाषाणमययन्त्रना आघातनी पेठे जेम सर्प वणिकोने बाळ्या तेम बाळीने भस्म करीश. हे आनन्द ! जेम ते वणिकोर्नु हित इच्छनार यावत्-निःश्रेयस-कल्याण इच्छनार ते वणिकने देवताए अनुकंपाथी पात्रो वगेरे उपकरण सहित पोताने नगरे मूक्यो तेम हुँ तार संरक्षण अने संगोपन करीश, ते माटे हे आनन्द ! तुं जा, अने तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्रने आ वात कहे. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालाए ते आनन्द स्थविरने आ प्रमाणे कडं एटले ते भय पाम्या, अने यावत्भयभीत थयेला ते मंखलिपुत्र गोशालानी पासेथी अने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणथी पाछा वळीने शीघ्र अने त्वरित श्रावस्ती नगरीना मध्य भागमांथी नीकळीने ज्यां कोष्ठक चैत्य हतुं अने ज्यां श्रमण भगवान् महावीर हता, त्या आल्या. त्यां आवीने श्रमण भगवान् महा- गोचरीयी पाछा वीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी वंदन अने नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्या-'हे भगवन् ! खरेखर ए प्रमाणे हुँ छ? खमणना पारणाने विषे फरता आनंद गोशालके आपेली आपनी अनुज्ञाथी श्रावस्ती नगरीमा उच्च, नीच अने मध्यमकुळमां गोचरीए जतां हालाहला कुंभारणना घर पासेथी यावत्-जतो हतो, त्यां धमकी- भगवंतने मंखलिपुत्र गोशालाए मने हालाहला कुंभारणना घरथी थोडे दूर जतां यावत्-जोइने ए प्रमाणे का-'हे आनन्द ! अहीं आव, अने मारुं निवेदन एक दृष्टान्त सांभळ.' त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालके ए प्रमाणे कयुं एटले ज्यां हालाहला कुंभारणर्नु कुंभकारापण हाँ, अने ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो, त्यां हुं आव्यो, त्यारे मंखलिपुत्र गोशालके मने आ प्रमाणे कह्यु-'हे आनन्द ! खरेखर आजथी घणा काल पूर्वे अनेक प्रकारना केटलाएक वणिको-इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावत्-देवताए पोताना नगरे मूक्यो.' ते माटे हे आनन्द ! तुं जा अने तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशकने यावत्-कहे. ११. [प्र०] हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक पोताना तपना तेजवडे एक घाए कूटाघातनी पेठे भस्मराशि करवाने प्रभु-समर्थ छे, गोशालक तपोजन्य हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालकनो यावत्-तेम करवानो *विषय छे, हे भगवन् ! गोशालक यावत्-तेम करवाने समर्थ छे ! [उ०] हे, के तेजोलेश्या बडे आनन्द! मंखलिपुत्र गोशालक तपना तेजवडे यावत्-तेम करवाने प्रभु-समर्थ छे, हे आनन्द! गोशालक मंखलिपुत्रनो तेम करवानो यावद्- समर्थ छे ते संबन्धे प्रश्नोत्तर. ११. प्रभुख बे प्रकारे छ-विषयमात्रनी अपेक्षाए भने करवानी अपेक्षाए, माटे पुनः प्रश्न करे छे के विषयनी अपेक्षाए समर्थ छे के करवानी अपेक्षाए समर्थ छ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसग्रह शतक १५ नो चेव णं अरहते भगवंते, परियावणियं पुण करेजा। जावतिए णं आणंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए, एत्तो अणंतगुणविसिट्टयराए चेष तवतेए अणगाराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अणगारा भगवंतो। जावइए णं आणंदा ! अणगाराणं भगघंताणं तवतेए एत्तो अणतगुणविसिट्ठयराए चेव तवतेए थेराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण थेरा भगवंतो । जावतिए णं आणंदा। थेराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टयतराए चेव तवतेए अरहंताणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरहंता भगवंतो। तं पभू णं आणंदा! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं जाव-करेत्तए, विसए णं आणंदा! जाव-करेत्तए, समत्थे णं आणंदा! जाव करेत्तए, नो चेव णं अरहंते भगवंते, पारियावणियं पुण करेजा। १२. तं गच्छ णं तुमं आणंदा! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमटुं परिकहेहि-'मा णं अजो! तुम्भं केइ गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसाले णं मंखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं विपडिवन्ने । तए णं से आणंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीर वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव गोयमादिसमणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छद, तेणे०२-गच्छित्ता गोयमादिसमणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु अजो! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय तं चेव सवं जाव-नायपुत्तस्स एयमटुं परिकहेहि, तं मा णं अजो! तुम्भं केई गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ, जाव-मिच्छं विषडिवन्ने । १३. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमढें परिकहेइ, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता आजीवियसंघसंपरिखुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं जाव-सात्थि नगरि मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्टए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० २-गच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी विषय छे, हे आनन्द ! तेम करवाने यावद्-गोशालक समर्थ छे, परन्तु अरिहंत भगवंतने बाळी भस्म करवा समर्थ नथी, तो पण तेमने परिताप-दुःख उत्पन्न करवा समर्थ छे. हे आनंद ! मंखलिपुत्र गोशालकनुं जेटलं तपनुं तेज छे, तेथी अनगार भगवंतनुं अनन्तगुण विशिष्ट तपतेज छे, कारण के अनगार भंगवत क्षमा-कोधनो निग्रह-करवामां समर्थ छे. हे आनन्द ! अनगार भगवंतोनुं जेटलं तपोबल छे, तेथी अनन्त गुण विशिष्ट तपोबल *स्थविर भगवंतोनुं छे, केमके स्थविर भगवंतो क्षमा करवामां समर्थ होय छे. हे आनंद ! स्थविर भगवंतोनुं जेटलं तपोबल होय छे, तेथी अनन्तगुण विशिष्ट बपोबल अरिहंत भगवंतोनु होय छे, कारण के अरिहंत भगवंतो क्षमा करवामां समर्थ होय छे. हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक पोताना तप-तेजवडे यावत्-भस्मराशि करवाने समर्थ छे, हे आनंद! यावत्-तेम करवानो तेनो विषय (शक्ति) छे, हे आनन्द ! तेम करवाने यावत्-समर्थ छे. परन्तु अरिहंत भगवंतने तेम करवाने समर्थ नथी, मात्र तेमने दुःख उत्पन्न कर वाने शक्तिमान् छे. भगवते श्रानंदने १२. हे आनंद! ते माटे तुं जा, अने गौतमादि श्रमण निग्रन्थोने आ वात कहे के-'हे आर्यो! तमे कोई मंखलिपुत्र गोकई के-तुं गौत शालकनी साथे धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचन न कहेशो, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा तेना मतथी प्रतिकूलपणे अर्थन के गोशालकनी साये स्मरण न करावशो, अने धर्मसंबन्धी प्रत्युपचार-तिरस्कार वडे तेनो तिरस्कार न करशो.. मंखलिपुत्र गोशालके श्रमण निम्रन्थो साथे मिकंपण वादविवाद न थ्यात्व-म्लेच्छपणुं अथवा अनार्यपणुं विशेषतः आदर्यु छे'. त्यार पछी श्रमण भगवान् महावीरे ए प्रमाणे कयुं एटले ते आनन्द स्थविर करे. श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमी ज्यां गौतमादि श्रमण निग्रंथो छे त्या आवीने तेणे गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थोने बोलाव्या, बोलावीने आ प्रमाणे कर्यु के-'हे आर्यो ! छट्ठ क्षपणना पारणाने दिवसे श्रमण भगवंत महावीरे अनुज्ञा आपी एटले हुं श्रावस्ती नगरीमा उच्च, नीच अने मध्यमकुलमां गोचरीए जतो हतो-इत्यादि सर्व यावत्-ज्ञातपुत्रने आ अर्थने कहे जे'-त्यांसुधी कहे, ते माटे हे आर्यो ! तमे कोई मंखलिपुत्र गोशालकने धर्मसंबन्धी तेना मतने प्रतिकूल वचन न कहेशो, यावत्-तेणे निम्रन्थोनी साथे विशेषतः अनार्यपणुं आदर्य छे. भगवंत प्रति गोशा- १३. जेटलामा आनन्द स्थविर गौतमादि श्रमण निम्रन्थोने आ वात कहे छे तेटलामा हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटथी लकनो उपालंभ. नीकळी आजीविकसंघसहित घणा अमर्पने धारण करतो मंखलिपुत्र गोशालक शीघ्र अने त्वरित गतिए यावत्-श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमांथी नीकळी ज्या कोष्टक चैत्य छे अने ज्या श्रमण भगवंत महावीर छे त्या आव्यो. त्यां आवीने तेणे श्रमण भगवंत महावीरथी थोडे दूर उभा रही श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कधु-हे आयुष्मान् काश्यपगोत्रीय ! मने ए प्रमाणे सारं कहो छो, हे आयुष्यमान् गोशालकनो काश्यप! तमे मने एम ठीक कहो छो के 'मंखलिपुत्र गोशालक मारो धर्मसंबन्धी शिष्य छे' २. जे मंखलिपुत्र गोशालक तमारो धर्म गोशालकपणे *११ स्थविर-वृद्ध तेना प्रण प्रकार छे १ वयःस्थविर-उमरमा वृद्ध, २ श्रुतस्थविर-शास्त्रज्ञानमा वधेला, अने ३ पर्यायस्थविर-जेनो दीक्षापर्याय त्रीश वर्षथी अधिक होय ते. इनकार. . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. 'सुट्ठ णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी, साहू णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी-गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मतेवासी, गोसाले० २, जे णं से मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किया अन्नघरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववन्ने, अहन्नं उदाइनाम कुंडियायणीए, अजुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अ०२ विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, गो० २ अणुप्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । जे वि आई आउसो कासवा! अम्हं समयंसि केइ सिज्झिसु वा सिझंति वा सिज्झिस्संति वा सवे ते चउरासीतिं महाकप्पसयसहस्साई, सत्त दिघे, सत्त संजूहे, सत्त सन्निगन्भे, सत्त पउट्टपरिहारे, पंच कम्मणि सयसहस्साई सटुिं च सहस्साई छप्प सए तिनि य कम्मसे अणुपुत्रेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिवाइंति, सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा।से जहा वा गंगा महानदी जओ पवूढा, जहिं वा पजुवत्थिया, एस णं अद्धा पंचजोयणसयाई आयामेणं, अद्धजोयणं विक्खंभेणं, पंच धणुसयाई उच्चहेणं, एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा, सत्त महागंगाओ सा एगा सादीणगंगा, सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मधुगंगा, सत्त मचुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ, सा एगा भावंतीगंगा, सत्त आवंतीगंगाओ सा एगा परमावती, एवामेव सपुवावरेणं एगं गंगासयसहस्सं सत्तर सहस्सा छप्प गुणपन्नं गंगासया भवतीति मक्खाया। तासि दुविहे उद्धारे पण्णते, तंजहा-सुहुमबोंदिकलेवरे चेव, बायरबोंदिकलेवरे चेव । तत्थ गंजे से सुहुमबोंदिकलेवरे से ठप्पे । तत्थ णं जे से बायरबोंदिकलेवरे तओ णं वाससए २ गए २ गमेगं गंगावालुयं अवहाय जावतिएणं कालेणं से कोटे खीणे, जीरए, निल्लेवे, निट्ठिए भवति सेत्तं सरे सरप्पमाणे । एएणं सरप्पमाणेणं तिन्नि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे, चउरासीह महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे । अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चहत्ता उधरिले माणसे संजूहे देवे उववज्जति १ । से णं तत्थ दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह, विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता पढमे सन्निगम्भे जीवे पञ्चायाति १ । सेणं तओहिंतो अणंतरं उष्पट्टित्ता मज्झिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजह २१ से णं तत्थ दिवाई भोगभोगाई जाव-विहरिता ताओ देवलोयाओ आउफ्खएणं समतप्रदर्शन. संबन्धी शिष्य हतोते शुक्ल पवित्र अने शुक्लाभिजातिवाळो-पवित्रपरिणामवाळो थईने मरणसमये काळ करी कोइपण देवलोकने विषे देवपणे गोशालक पोतार्नु स्वरूप निवेदन उत्पन्न थयो छे, हुं कौंडिन्यायनगोत्रीय उदायी नामे छु, अने में गौतम पुत्र अर्जुनना शरीरनो त्याग करी मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरमा प्रवेश भने ते द्वारा करीने आ सातमो प्रवृत्तपरिहार-शरीरान्तर प्रवेश कर्यो छे. वळी हे आयुष्मन् काश्यप ! जे कोई अमारा सिद्धान्तने अनुसारे मोक्षे गयेला छ, जाय छे अने जशे ते सर्वे चोराशी लाख महाकल्प (कालविशेष), सात देवभवो, सात संयूथ निकायो, सात संज्ञीगर्भ-मनुष्यगर्भवास, सात प्रवृत्त्रपरिहार-शरीरान्तरप्रवेश अने पांच लाख, साठ हजार, छसो त्रण कर्मना भेदोनो अनुक्रमे क्षय कर्या पछी सिद्ध थाय छे, बुद्ध थाय छे, मूकाय छे, निर्वाण पामे छे, अने सर्व दुःखनो अन्त कर्यो छे, करे छे अने करशे. जेम गंगा महानदी ज्यांची नीकळे छे अने चोराशी लाख ज्यां समाप्त थाय छे ते गंगानो अद्धा-मार्ग आयाम-लंबाइवडे पांचसो योजन छे, विष्कंभ-विस्तार अर्ध योजन छे, अने उडाइमा पांचसो महाकल्पनु प्रमाण. धनुष छे-ए रीते गंगाप्रमाणे सात गंगाओ मळीने एक महागंगा थाय छे, सात महागंगाओ मळीने एक सादीन गंगा थाय छे, सात सादीन गंगाओ मळीने एक मृत्युगंगा थाय छे, सात मृत्युगंगा मळीने एक लोहितगंगा थाय छे, सात लोहितगंगाओ मळीने एक अवंतीगंगा थाय छे, सात अवन्ती गंगाओ मळीने एक परमावती गंगा थाय छे. ए प्रमाणे पूर्वापर मळीने एक लाख, सत्तर हजार, छसो अने ओगण पचास गंगा नदीओ थाय छे-एम कर्तुं छे. ते गंगानदीनी वालुकाकणनो बे प्रकारे उद्धार कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-१ सूक्ष्मबोंदिकलेवररूप अने २ बादरबोंदिकलेवररूप. [जेमा वालुकाकणना सूक्ष्मबोंदि-सूक्ष्मआकारवाळा कलेवरो-असंख्यात खंडो कल्पेला छे ते सूक्ष्मबोंदिकलेवररूप उद्धार कहेवाय छे, अने जेमा बादरबोंदि-बादरआकारवाळा कलेवरो-वालुकाकणो छे ते बादरबोंदिकलेवररूप उद्धार कहेवाय छे.] तेमा सूक्ष्म बोंदिकलेवररूप उद्धार ठे ते स्थापी राखवा योग्य छे. [अर्थात् निरूपयोगी होवाथी तेना विचारनी आवश्यकता नथी.] तेमा जे बादरबोंदिकलेवररूप उद्धार छे तेमाथी सो सो वर्षे एक एक वालुकाना कणनो अपहार करीए अने जेटला काळे गंगाना समुदायरूप ते कोठो क्षीण-खाली थाय, नीरज-वालुकारहित थाय, निर्लेप थाय, अने निष्ठित-समाप्त थाय त्यारे सरप्रमाण काल कहेवाय छे. एवा प्रकारना त्रण लाख सरप्रमाण काळवडे एक महाकल्प थाय छे, चोराशी लाख महाकल्पे एक महामानस थाय छे. अनन्त संयूथ-अनन्तजीवना सात दिव्यभवान्तरित समुदायरूप निकायथी जीव च्यवी संयूध-देवभवने विषे उपरना मानस-सरप्रमाण आयुषवडे उत्पन्न थाय छे १, अने ते त्यां दीव्य अने सात मनुष्य भवो. भोग्य एवा भोगोने भोगवतो विहरे छे. हवे ते देवलोकथी आयुषनो क्षय थवाथी, भवना क्षयथी अने स्थितिना क्षयथी तुरतज च्यवीने प्रथम संज्ञी गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्यपणे उत्पन्न थाय छे १. त्यारबाद ते त्यांथी च्यवीने तुरतज मध्यम मानस-सरप्रमाण आयुषवडे संयूथ-देवनि १३ * जेम लेश्या-परिणामना कृष्णादि छ प्रकार छे, तेम तेवा परिणामवाळा आत्माना पण कृष्ण, कृष्णामिजातीय, नील, नीलाभिजातीय, यावत्- . शुक्ल, शुक्लाभिजातीय-ए छ प्रकारो होय एम लागे छे. अहिं चूर्णिकार कहे छे के 'गोशालकनो सिद्धान्त संदिग्ध होवाथी ते संबन्धे अमे काई लखता नथी.' पण अहिं टीकाकारे मात्र शब्दार्थ कयों छे. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५. ३ जाव-चहत्ता, दोच्चे सन्निगम्भे जीवे पञ्चायाति २। से णं तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता हेटिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजह ३। सेणं तत्थ दिवाई जाव-चहत्ता तच्चे सन्निगन्भे जीवे पञ्चायाति ३ । से णं तओहितो जाव-उष्पट्टित्ता उपरिले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजिहिति ४ ।से णं तत्थ दिवाई भोग० जाव-चहत्ता चउत्थे सन्निगम्भे जीवे पश्चायाति ४।से गं तोदितो अणंतरं उघट्टित्ता मज्झिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजति ५।से तत्थ दिवाइं भोग० जाव-चइत्ता पंचमे सन्निगम्भे जीवे पञ्चायाति ५ । से गं तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता हिडिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजति ६ । से णं तत्थ दिवाई भोग० जाव-चइत्ता छ? सन्निगन्भे जीवे पञ्चायाति ६ । से णं तओहिंतो अणंतरं उष्पट्टित्ता बंभलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते, पाईणपडी'. णायते उदीणदाहिणविच्छिन्ने, जहा ठाणपदे जाव-पंच वडेंसगा पन्नत्ता, तंजहा-१असोगवडेंसए, जाव-पडिरूवा । से णं तत्थ देवे उववजइ ७ । से णं तत्थ दस सागरोवमाई दिधाई भोग० जाव-चहत्ता सत्तमे सनिगम्भे जीवे पश्चायाति ७। सेणं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण जाव-वीतिकंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउकुंडलकुंचियकेसए मट्ठगंडतलकन्नपीढए देवकुमारसप्पभए दारए पयाति । से णं अहं कासवा! तए णं अहं आउसो कासवा! कोमारियपधजाए कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकन्नए चेव संखाणं पडिलभामि; सं० २-लभित्ता इमे सत्त पउट्टपरिहारे परिहरामि, तंजहा-१पणेजस्स, २ मल्लरामस्स, ३ मंडियस्स, ४ रोहस्स, ५ भारहाइस्स, ६ अजुणगस्स गोयमपुत्तस्स, ७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स । तत्थ णं जे से पढमे पउट्टपरिहारे से णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडिकुच्छिसि चेइयंसि उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं विप्पजहामि, उदा० २-जहित्ता एणेजगस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, एणे०२-प्पविसित्ता बावीसं वासाइं पढम पउहपरिहारं परिहरामि । तत्थ गंजे से दोच्चे पउट्टपरिहारे से णं उइंडपुरस्स नगरस्स बहिया चंदोयरणंसि चेश्यंसि एणेजगस्स सरीरगं विप्पजहामि, एणे० २-जहित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, मल्ल० २-विसित्ता एकवीसं वासाई दोचं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंपार नगरीए बहिया अंगमंदिरंमि चेइयंसि मल्लरामस्स सरीरगं विष्पजहामि, मल्ल० २-जहित्ता मंडियस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, मंडि० २ प्पविसित्ता वीसं वासाइं तथं पउपरिहारं परिहरामि। तत्थ णं जे से चउत्थे पउट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावणंसि चेयंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, मंडि० २-जहित्ता रोहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, रोह० २-प्पविसित्ता एकूणधीसं वासाई कायविषे उत्पन्न थाय छे. २. त्यां दिव्य भोगववा योग्य भोगोने भोगवी यावत्-विहरी ते देवलोकथी आयुषना क्षयथी ३ यावत्-थ्यवीने बीजा संज्ञीगर्भ-गर्भज मनुष्यने विषे जन्मे छे. २. त्यार पछी त्यांथी नीकळी तुरत हेठेना मानस प्रमाण आयुष वडे संयूथ-देवनिकायने विषे उपजे छे. ३. त्यां दिव्य भोगोने भोगवी त्यांथी च्यवी त्रीजा संज्ञीगर्भ-गर्भज मनुष्यने विषे जन्मे छे. ३. त्यांथी यावत्-नीकळी उपरना मानसोत्तर-महामानस आयुषवडे संयूथ-देवनिकायने विषे उपजे छे. ४. त्या दिव्य भोगोने भोगवी यावत्-त्यांथी च्यवी चोथा संज्ञीगर्भ-गर्भजमनुष्यने विषे उपजे छे. ४. त्यांथी च्यवीने तुरत मध्यम मानसोत्तर आयुषवडे संयूथ-देवनिकायमा उपजे छे. ६. त्यां दिव्य भोगो भोगवी यावत्-त्यांथी च्यवी पांचमां संज्ञीगर्भ-गर्भज मनुष्यमां उत्पन्न थाय छे. ५. त्यांथी च्यवीने तुरत हेठेना मानसोत्तर आयुषसहित संयूथ-देवनिकायमा उपजे छे. ६. त्या दिव्य भोगो भोगवी यावत्-च्यवी छट्ठा संज्ञी गर्भज मनुष्योमा उपजे छे. ६. त्यांथी नीकळी तुरत ब्रह्मलोक नामे कल्प-देवलोक कह्यो छे, ते पूर्व तथा पश्चिम लांबो छे, अने उत्तर तथा दक्षिण विस्तारवाळो छे, जेम प्रज्ञापना सूत्रना *स्थानपदने विषे कयुं छे तेम अहिं जाणवू, यावत्-तेमां पांच अवतंसक विमानो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-१ अशोकावतंसक, यावत्प्रतिरूप-सुन्दर छे; ते देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. ७. त्यां दश सागरोपम सुधी दिव्य भोगो भोगवीने यावत्-त्यांथी च्यवीने सातमा संज्ञीगर्भ-गर्भज मनुष्यमां उपजे छे. ७. त्यां नव मास बरोबर पूर्ण थया पछी अने साडासात दिवस व्यतीत थया बाद सुकुमाल, भद्र, मृदु अने दर्भना कुंडलनी पेठे संकुचित केशवाळो, कर्णना आभूषणवडे जेना गालने स्पर्श थयो छे एवो, देव कुमारसमान कान्ति वाळो बाळक जन्म्यो; हे काश्यप ! ते हुँ छं. त्यार पछी हे आयुष्मन् काश्यप ! कुमारावस्थामा प्रव्रज्यावडे, कुमारावस्थामा ब्रह्मचर्यसात शरीरान्तर• वडे अविद्धकर्ण-व्युत्पन्न बुद्धिवाळा एवा मने प्रव्रज्या ग्रहण करवानी बुद्धि थई अने सात प्रवृत्त परिहार-शरीरान्तरने विषे संचार कर्यो, प्रवेश. ते आ प्रमाणे-१ ऐणेयक, २ मल्लराम, ३ मंडिक, ४ रोह, ५ भारद्वाज, ६ गौतमपुत्र अर्जुन अने ७ मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरमा प्रवेश कर्यो. तेमां जे प्रथम प्रवृत्तपरिहार-शरीरान्तर प्रवेशमा राजगृहनगरनी बहार मंडिकुक्षिनामे चैत्यने विषे कुंडियायन गोत्रीय उदाप्रथमशरीरप्रवेश. यनना शरीरनो त्याग करी ऐणेयकना शरीरमा प्रवेश कर्यो. प्रवेश करी बावीश वर्ष सुधी प्रथम शरीरान्तरमा परावर्तन कर्य. बीजा दिवीयशरीरप्रवेश. शरीरान्तरप्रवेशमा उइंडपुर नगरनी बहार चन्द्रावतरण चैत्यने विषे ऐणेयकना शरीरनो त्याग करी मल्लरामना शरीरमा प्रवेश कर्यो, अने तृतीयशरीरप्रवेश. प्रवेश करीने एकवीश वरस सुधी बीजा शरीरान्तरमा परावर्तन कयु. त्रीजा शरीरान्तरप्रवेशमां चंपानगरीनी बहार अंगमंदिरनामे चैत्यचे चतुर्यशरीरप्रवेश. विषे मल्लरामना शरीरनो त्याग करी मंडिकना शरीरमा प्रवेश कों, अने त्यां वीश वर्ष सुधी त्रीजु शरीरान्तर परावर्तन कयु. तेमा जे चोथु १३ * प्रज्ञा• पद २५०१०३-२. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ર 9 उत्थं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से णं आलभियाए नगरीए बहिया पत्तकालगयंसि चेयंसि रोहस्स सरीरगं विप्यजहामि, रोह० २ - जहिया भारद्दाइस्स सरीरगं अणुप्यविसामि भा० २ प्यविसित्ता अट्ठारस वासाइं पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से छट्ठे पउट्टपरिहारे से णं वेसालीए नगरीए बहिया कोंडियायणसि इयंसि भारद्वाइयस्स सरीरं विप्पजहामि मा० २ जहित्ता अजुगगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि अ० २ -प्पविसित्ता सत्तरस वासाई छटुं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्टपरिहारे से णं इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अनुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजदामि अज्जुण० २ विप्यजहित्ता । गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं 'अलं थिरं धुवं धारणिजं सीयसहं उण्हसहं खुद्दासहं विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्टु तं अणुप्यविसामि तं० २ प्यवित्ता सोलस वासाई दमं सत्तमं पडट्टपरिहारं परिहरामि । एवमेव आउसो कासवा ! एगेणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पट्टपरिहारा परिहरिया भवतीति मक्खाया, तं सु णं आउसो कासवा 1 मर्म एवं वयासी, साधु गं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी- 'गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासि सि गोसाले ० २ ॥ १४. तरणं समणे भगवं महाबीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बवासी 'गोसाला ! से जहानामए तेणए सिया, गामेलपहि परम्भमाणे प० २ कत्थ य गडुं वा दरि वा दुग्गं वा णिनं वा पचयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उन्नालोमेण वा सणलोमेण या कप्पापपण या तणसूपण या असणं आवरेत्ता णं चिद्वेजा, से णं अणावरिय आवरियमिति अप्पाणं मन्नइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मन्नति, अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मन्नति, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मति एयामेव तु पि गोसाला ! अपने संते अन्नमिति अप्याणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! 3 , सच्चैव ते सा छाया नो अन्ना' । १५. तर से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं सुते समाणे आसुरुते ५ समणं भयं महावीरं उच्चावचाहि आउसणाहि आउसति, उच्चा० २ आउसित्ता उच्चावयाहि उणादि उसेति उसेत्ता उद्यादवाहि निमं शरीरान्तर परावर्तन के ते वाराणसी नगरीनी बहार काममहावन नामे चैलने विषे मंडिकना शरीरनो व्याग करी रोहकना शरीरमा प्रवेश कर्यो, प्रवेश करीने खां ओगणीश वर्ष सुधी चोधुं शरीरान्तर परावर्तन कई रोमां जे पांच शरीरान्तर परावर्तन छे ते आलभिका नग रीनी बहार प्राप्तकाल नागे चैखने विषे रोहना शरीरनो त्याग करी भारद्वाजना शरीरमा प्रवेश क्यों प्रवेश करीने अठार वर्ष सुधी पांचमुं पश शरीरान्तर परावर्तन क तेमां जे छ शरीरान्तर परावर्तन छे ते वैशाली नगरीनी बहार कुंडियायननामे चैत्यने लिये भारद्वाजमा शरीरनो स्याग करी गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरमा प्रवेश कर्यो, प्रवेश करीने त्यां सत्तर वर्ष सुची शरीरान्तर परावर्तन क तेमां जे सातर्मु शरीरान्तर परावर्तन छे ते आज श्रावस्ती नगरीने विषे हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण - हाटने विषे गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरनो त्याग करी मंखलिपुत्र गोशालकनुं शरीर समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करवा योग्य, शीतने सहन करनार, उष्णताने सहन करनार, क्षुधाने सहन करनार, विविध डांस मच्छर वगैरे परिषह अने उपसर्गने सहन करनार, तथा स्थिर छेएम समजी तेमां में प्रवेश कर्यो, अने तेमां सोळ वरससुधी आ सातमुं शरीरान्तरपरावर्तन कयुं छे. ए प्रमाणे हे आयुष्मन् काश्यप ! में एकसो तेत्रीश वर्षमां सात शरी- सप्तमशरीरप्रवेश. रान्तर परावर्तन कर्या -एम में कहुं छे. ते माटे हे आयुष्णन् काश्यप । तमे मने ए प्रमाणे सारं कहो छो, हे आयुष्मन् काश्यप ! तमे मने ए प्रमाणे ठीक कहो छो के 'लिपुत्र गोशालक मारो धर्मान्तेवासी छे'. २. १४. [ उपर प्रमाणे गोशालके कह्युं एटले ] श्रमण भगवान् महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे क- 'हे गोशालक ! जेम कोइ चोर होय अने ते ग्रामवासी जनोपी पराभव पामतो २ कोइ गर्ता-खाडो, गुफा, दुर्ग- दुःखे जया योग्य स्थान, निन-नीचाण प्रदेश, पर्वत के विषमखाडा अने टेकरामाला प्रदेशने नहि प्राप्त करतो एक मोटा उनना खोमची, शणना कोमधी, कपासना टोमधी अने तृणना अग्रभागथी पोताने ढांकीने रहे, अने ते नहि ढंकाया छतां हुं ढंकायेल छं एम पोताने माने, अप्रच्छन्न- नहि छुपाया छतां पोताने प्रच्छन्न–छुपायेल माने, नहि संतावा छतां पोताने संतायेल माने, अपलापित- गुप्त नहि छतां पोताने गुप्त माने, ए प्रमाणे हे गोशालक ! तुं पण अन्य नहि छतां हूं अन्य हूं-एम पोताने देखावे छे. ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, हे गोशालक एम करवाने तु योग्य नथी. ! तेज आ तारी प्रकृति छे, अन्य नथी. १५. श्रमण भगवान् महावीरे ९ प्रमाणे कां एटले ते मंसलिपुत्र गोशालक एकदम गुस्से वयो जने भ्रमण भगवान् महावीरने अनेक प्रकारना अनुचित बचनोवडे आक्रोश करया साम्यो, आक्रोश करीने अनेक प्रकारनी उदर्पणा-पगभवना वचनोवढे तिरस्कार करवा लाग्यो, तिरस्कार करी अनेक प्रकारनी निर्भर्त्सना वडे निर्भसित करवा लाग्यो, निर्भर्त्सना करी अनेक प्रकारनी निश्छोना - कर्कश षष्ठशरीरप्रवेश. भगवन्ते कथं के हे पोशाक! सारा आत्माने पावे छे. वचनो कहेवा. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शाप्तक १५. छणाहिं निम्मंछेति, उ०.२ निभंछेत्ता उश्यावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, उ० २ निच्छोडेता एवं वयासी-'नट्रेसि कदाइ, विणडे सि कदाइ, भट्टे सि कयाइ, नट्ठ-विणटु-भट्टे सि कदायि, अन्ज न भवसि, नाहि ते ममाहितो सुपमत्थिा। १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईणजाणवए सवाणुभूती णामं अणगारे पगइभइए, जाव-विणीए, धम्मायरियाणुरागेणं एयमढें असदहमाणे उट्टाए उट्टेति, उ० २ उर्दुत्ता जेणेव गोसाले मंस्त्रलिपुले तेणेव उवागच्छर, ते० २-गच्छित्ता गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी-जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्त वा अंतियं पगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव बंदति नमसति, जाव-कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं पजुवासार, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव पचाविए, भगवया चेव मुंडाषिए, भगवया चेव सेहाषिए, भगबया चेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकए, भगवओ चेव मिच्छ विप्पडिवने, तं मा एवं गोसाला!, नारिहसि गोसाला! सभेव ते सा छाया नो अन्ना । तए णं से गोसाले मंस्खलिपुसे सवाणुभूतिणाम अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आम्रुत्ते ५ सपाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहवं भासरासिं करेति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सघाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहाचं भासरासिं करेत्ता दोश्च पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहि आउसइ, जाव-सुहं नत्थि। १७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुणक्खत्ते णाम अणगारे पगहमहए, जाव-विणीप, धम्मायरियाणुरागेणं जहा सधाणुभूती तहेव जाव-स येव ते सा छाया नो अन्ना । तप णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुणक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेह । तए णं से सुनक्लत्ते अणगारे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्द, ते०२-गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदा नमसइ, वंदित्सा नमंसित्ता सयमेव पंच महधयाई आरुभेति, स. २ आरुभत्ता समणा य समणीओ य खामेह, सम० २ खामेत्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते आणुपुधीए कालगए । वचनो वडे हलका पाडवा प्रयत्न करवा लाग्यो, अने तेम करी ते गोशालक आ प्रमाणे बोल्यो-"कदाचित्-हुँ एम मार्नु छु के तुं नष्ट थयो छे, कदाचित् विनष्ट थयो छे, कदाचित् भ्रष्ट थयो छे, अने कदाचित् नष्ट, विनष्ट अने भ्रष्ट थयो छे, कदाचित् तुं आजे हइश नहि, तने माराथी सुख थवानुं नथी". सर्वानुभूति अनगा- १६. ते काळे अने ते ते समये श्रमण भगवंत महावीरना अन्तेवासी-शिष्य पूर्व देशमा उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार गोशालकने सत्य भद्र प्रकृतिना अने यावत् विनीत हता. ते पोताना धर्माचार्यना अनुरागथी आ गोशालकनी वातनी अश्रद्धा करता उठ्या, उठीने या कपन. मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्यां आवी मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कह्यु-“हे गोशालक ! जे तेवा प्रकारना श्रमण के ब्राह्मणनी पासे एक पण आर्य-निर्दोष अने धार्मिक सुवचन सांभळे छे ते पण तेने वंदन अने नमस्कार करे छे, यावत्-ते कल्याणकर अने मंगलकर देवना चैत्यनी पेठे तेनी पर्युपासना करे छे; पण हे गोशालक ! तारे माटे तो शुं कहे, ! ! ! भगवंते तने दीक्षा आपी, अर्थात् शिष्यरूपे स्वीकार कर्यो, भगवंते तने मुंड्यो, भगवंते तने व्रतसमाचार शीखव्यो, भगवंते तने शिक्षित कर्यो अने भगवते तने बहुश्रुत कर्यो, तो पण तें भगवंतनी साथे अनार्यपणुं आदर्यु छे; ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, हे गोशालक तुं एम करवाने योग्य नथी. आ तेज गोशालके सर्वानुभूति तारी प्रकृति छे, अन्य नथी." ए प्रमाणे सर्वानुभूति अनगारे कह्यु एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक गुस्से थयो, अने सर्वानुभूति अनगारने पोताना तपना तेजथी एक प्रहारे करी कूटाघात-पाषाणमय यंत्रना आघातनी पेठे बांळी भस्म कर्या. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालके सर्वानुभूति अनगारने पोताना तपना तेजथी एक धाए कूटाघातनी पेठे भस्मराशि करीने बीजी वार,पुण श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारनी आक्रोशना वडे आक्रोश कर्यो, यावत्-'माराथी तमने सुख थवानुं नथी." का. मुनक्षत्र अनगारर्नु १७. ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान् महावीरना अन्तेवासी कोशलदेश-अयोध्यादेशमा उत्पन्न थयेला सुनक्षत्र नामे अनगोशाळकने कथन. गार भद्र प्रकृतिना अने यावत्-विनीत हता. ते धर्माचार्यना अनुरागथी-इत्यादि जेम सर्वानुभूति संबन्धे कडं तेम अहिं यावत्-'आ तारी प्रकृति छे अन्य नथी' त्यांसुधी कहेवू; सुनक्षत्र अनगारे ए प्रमाणे कयुं एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से थयो, अने सुनक्षत्र गोशालके सुनक्षत्र अनगारने तेणे तपना तेजधी बाळ्या. मंखलिपुत्र गोशालकवडे तपना तेजथी बळेला सुनक्षत्र अनगारे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां अमगारने पण आवी श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी वन्दन अने नमस्कार कर्या. बन्दन अने नमस्कार करी स्वयमेव पांच महाव्रतनो बाळ्या. उच्चार करी साधुओ अने साध्वीओने खमाव्या,.खमावीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ते अनुक्रमे काळधर्मने पाम्या. Jain Education international Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५० भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खतं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेसा तथं पि समणं भगवं महावीरं उणावयाहिं माउसणार्ह माउसति, सई तं चेव जाव-सुहं नत्थि । तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुतं पर्व पयासी-'जे वि ताप गोसाला! तहारूषस्स समणस्स वा माहणस्स या तं चेव जाव-पज्जवासति, किमंग पुण गोसाला! तुमं मए चेव पवाविए, जाव-मए चेष बहुस्सुइकए, ममं चेव मिच्छं विप्पडियने ? तं मा एवं गोसाला! जाव-नो अना, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ तेयासमुग्धाएणं समोहनाद, तेया०- . हणित्ता सत्तट्र पयाई पञ्चोसकर, पञ्चोसकित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति । से जहानामए वाउक्कलिया ह वा वायमंडलिया वा सेलंसि वा कुटुंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजमाणी वा निवारिजमाणी वा सा गं तत्थ णो कमति, नो पक्कमति, एवामेव गोसालस्स वि मंखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो कमति, नो पक्कमति, अंचियंचियं करेति, अंचि० २ करेत्ता आयाहिणपयाहिणं करेति, आ० २ करेत्ता उह बेहासं उप्पइए; से णं तओपडिहए पडिनियत्ते समाणे तमेव गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो अणुप्पविटे। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेएणं अन्नाइटे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं बयासी-'तुम णं आउसो कासवा! ममं तवेणं तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो छह मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि' । तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-नो खलु अहं गोसाला! तव तवेणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो छण्डं जाव-कालं करेस्सामि, अहघ्नं अन्नाई सोलस वासाएं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तुम णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेएणं अन्नाइट्टे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तजरपरिगयसरीरे जाव-छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि'। १९. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-जाव-पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव-एवं परूवेइ-'एवं खलु देवाणुप्पिया! सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेहए दुवे जिणा संलषंति, एगे वयंति-तुमं पुर्वि कालं करेस्ससि, एगे पदंति तुमं पुष्विं कालं करेस्ससि, तत्थ णं के पुण सम्मावादी के पुण मिच्छावादी, ? तत्थ णं जे से महप्पहाणे जणे से वदति-'समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी, 'अजोति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं १८. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालक सुनक्षत्र अनगारने तपना तेजथी बाळीने त्रीजीवार श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारना गोशाकनो भगवंत प्रति श्रीमी पारनो अनुचित वचनोथी आक्रोश करवा लाग्यो-इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावत्-"तने माराथी सुख थवानुं नथी." त्यारे श्रमण भगवान् बाक्रोश. महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कडं के 'हे गोशालक ! जे तेवा प्रकारना श्रमण अने ब्राह्मण--[आर्य अने धार्मिक सुवचन सांभळे छे-इत्यादि] पूर्वोक्त कहे, ते तेनी यावत् -पर्युपासना करे छे, तो हे गोशालक! तारे माटे तो शुं कहेवू !! में तने प्रव्रज्या आपी, यावत्-में तने बहुश्रुत कर्यो, अने तें मारी साथे मिथ्यात्व-अनार्यपणुं आदर्यु छे. ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, यावत्-ते आ तारी ज प्रकृति छे, अन्य नथी.” श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से थयो, गोशालके भगवंत्तनो अने तैजस समुद्घात करी, सात आठ पगला पाछो खसी तेणे श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवामाटे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी. प. माथी तेजोलेश्या जेम कोइ वातोत्कलिका (जे रही रहीने वायु वाय ते) के वंटोळीओ होय ते पर्वत, भीत, स्तंभ के स्तूपवडे आवरण करायेलो के निवा- पहार कावी. रण करायेलो होय तो पण तेने विषे समर्थ थतो नथी, विशेष समर्थ थतो नथी, ए प्रमाणे मंखलिपुत्र गोशालकनी तपोजन्य तेजोलेश्या श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवा माटे शरीरमांथी बहार काढ्या छतां तेने विषे समर्थ थती नथी, विशेष समर्थ थती नथी, पण गमनागमन करे छे, गमनागमन करीने प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करी उंचे आकाशमा उछळे छे, अने त्यांथी स्खलित थईने पाछी फरती तपोजन्य तेजोलेश्या मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने बाळती बाळती तेना शरीरनी अंदर प्रविष्ट थाय छे. त्यार बाद पोतानी तेजोलेश्यावडे तेजोलेश्या गोशालपराभवने प्राप्त थयेला मंखलिपुत्र गोशालके श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कह्यु-'हे आयुष्मन् काश्यप ! मारी तपोजन्य तेजोले- कना हुं तारा तपना तेजश्याथी पराभवने प्राप्त थई छ मासने अन्ते पित्तज्वरयुक्त शरीर छ जेनुं एवो तुं दाहनी पीडाथी छनस्थ अवस्थामां काळ करीश.' त्यारे थी पराभूत था छ श्रमण भगवंत महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने ए प्रमाणे कयुं के 'हे गोशालक! हुं तारी तपोजन्य तेजोलेश्याथी पराभव पामी छ मासने करीश नहि, पण अन्ते यावत्-काळ करीश नहिं, पण वीजा सोळ घरस सुधी जिन-तीर्थकरपणे गन्धहस्तीनी पेठे विचरीश, परन्तु हे गोशालक ! तुं पोतेज तुं सात रात्रीने तारा तेजथी पराभव पामी सात रात्रिने अन्ते पित्तज्वरथी पीडित शरीरवाळो थई छमस्थावस्थामा काळ करीश.' ते काळ करीश एडं गोशालकने १९. त्यार पछी श्रावस्ती नगरीमां शृंगाटकना आकारवाळा त्रिकोण मार्गमा यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे भगवंतर्नु कथनकहे छे, यावत्-आ प्रमाणे प्ररूपे छे-“हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर श्रावस्ती नगरीनी बहार कोष्ठक चैत्यने विपे बे जिनो परस्पर भावस्तीनगरीना न कहे छे, तेमां एक आ प्रमाणे कहे छ के 'तुं प्रथम काळ करीश' अने बीजा एम कहे छे के 'तं प्रथम काळ करीश.' तेमां के नोनो भगवंत भने गोशालकना सम्यग्वादी-सत्यवादी छे, अने कोण मिथ्यावादी छे ! तेमा जे जे प्रधान-मुख्य माणसो छे ते बोले छे के श्रमण भगवान् महावीर सम्यग्वादी छे, ग्वादिस्व संबन्धे ४९ भ. सू. प्रवाद. . Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रदे शतक १५. घयासी-'अजो' से जहानामए तणरासी दवा कट्टरासी इवा पत्तरासी इ वा तयारासी वा तुसरासी वा भुसरासीरवा गोमयरासी इ वा अवकररासीइ वा अगणिझामिए अगणिझूसिए अगणिपरिणामिए इयतेए गयतेए नटुतेए भट्टतेए लुत्तए विणटुतेये जाव-एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते मम वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरेत्ता हयतेए गयतेए जाव-विणटुतेए आए. छंदणं अजो! तुम्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोपह, धम्मि० २ पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मि० २ पडिसारेत्ता धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, धम्मि०२ पडोयारेत्ता अट्टेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य कारणेहि य निप्पट्टपसिणवागरणं करेह । . २०. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ता समाणा समणं भगषं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएंति, ध० २ पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेंति, ध०२ पडिसारेत्ता धम्मिएणं पटोयारेणं पडोयारेति, ध० २ पडोयारेता अट्रेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव-वागरणं करेंति । २१. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोतिजमाणे जाव-निप्पट्टपसि. णवागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव-मिसिमिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पापत्तए, छविच्छेदं वा करेत्तए । तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहिं निग्गंथेहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोपजमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं, धम्मिएणं पडोयारेण य पडोयारेजमाणं, अटेहि प हेऊहि य जाय-करेमाणं, आसुरुत्तं जाव-मिसिमिसेमाणं समणाणं मिग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा पाबाई या छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पासित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ आयाए अवकमंति, आयाए अवकमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिपखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, आ० २ करेत्ता, वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उपसंपज्जित्ता णं विदरंति, अत्यंगहया आजीविया थेरा गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । अने मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी छे." श्रमण भगवान् महावीरे हे आर्यो !' ए प्रमाणे निर्ग्रन्थोने बोलावी एम कर्दा के 'हे आर्यो! जेम कोइ तृणनो राशि, काष्ठनो राशि, पांदडानो राशि, त्वचा-छालनो राशि, तुष-फोतरानो राशि, भुसानो राशि, छाणनो राशि अने कचरानो राशि अग्निथी दग्ध ययेलो, अग्निथी युक्त अने अग्निथी परिणमेलो होय तो ते जेनुं तेज हणायुं छे, जेनुं तेज गयेलं छे, जेर्नु तेज नष्ट थयुं छे, जेनुं तेज भ्रष्ट थयुं छे, जेनुं तेज लुप्त थेयेलं छे अने जेनुं तेज विनष्ट थयेलुं छे एवो यावत्-थाय, ए प्रमाणे मंखलिपुत्र गोशालक मारो वध करवा माटे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढीने जेनुं तेज हणायुं छे एवो, तेजरहित अने यावत्-विनष्टतेजवाळो थयो छे, माटे हे आर्यो! तमारी इच्छाथी तमे मंखलिपुत्र गोशालकनी साथे धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचन कहो, धार्मिक प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूटपणे विस्मृत अर्थ- संस्मरण करावो, धार्मिक प्रतिसारणा करी धार्मिक वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करो, तेमज अर्थ-प्रयोजन, हेतु, प्रश्न, व्याकरण-उत्तर अने कारण वडे पूछेला प्रश्ननो उत्तर न आपी शके तेम निरुत्तर करो'. ममणोए गोशालकने २०. ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं त्यारे ते श्रमण निम्रन्यो श्रमण भगवंत महावीरने वादे छे, नमे छे. - वंदन-नमस्कार करी ज्यां गोशालक मंखलिपुत्र छे त्यां आवी मंखलिपुत्र गोशालकने धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचनो कयों. कहे छे, धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतने प्रतिकूलपणे अर्थ- स्मरण करावे छे, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा करी धर्मसंबन्धी वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करे छे अने अर्थ-प्रयोजन, हेतु अने कारणवडे यावत्-तेने निरुत्तर करे छे. निबत्तर यवायी गो- २१. त्यार बाद श्रमण निग्रन्थोए धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल प्रश्नो करी अने यावत्-तेने निरुत्तर कर्यो एटले शाकनुं गुस्से थर्बु मंखलिपुत्र गोशालक अत्यन्त गुस्से थयो अने यावत्-क्रोधथी अत्यंत प्रज्वलित थयो, परन्तु श्रमण निर्मन्योना शरीरने कंइपण पीडा के बने सेना केटला ए के शिष्योनुं भगवंत- उपद्रव करवाने तथा तेना कोइ अवयवनो छेद करवाने समर्थ न थयो. त्यार पछी आजीविक स्थविरो श्रमण निम्रन्थो वडे धर्मसंबन्धी ने मामयी रहे. तेना मतथी प्रतिकूलपणे कहेवायेला, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे स्मरण करावायेला, अने धर्मसंबन्धी प्रत्युपचार वडे प्रत्युपचार करायेला तथा अर्थ अने हेतुथी यावत्-निरुत्तर करायेला, अत्यन्त गुस्से करायेला, यावत्-क्रोधथी बळता, श्रमण अने निर्गन्थना शरीरने कंईपण पीडा-उपद्रव के अवयवोना छेद नहि करता एवा मंखलिपुत्र गोशालकने जोईने तेनी पासेथी पोते नीकळ्या, अने त्यांची नीकळी ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आव्या, त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वांदी अने नमीने श्रमण भगवान् महावीरनो आश्रय करी विहरवा लाग्या, अने केटला एक आजीविक स्थविरो मंखलिपुत्र गोशालकनोज आश्रय करी विहरवा लाग्या. Jain Education international Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्टाए हदमागए तमढे असाहेमाणे, रुंदाई पलोएमाणे, दीहुण्हाई नीससमाणे, दाढियाए लोमाए लुंचमाणे, अवटुं कंडूयमाणे, पुलिं पप्फोडेमाणे, हत्थे विणिझुणमाणे, दोहि वि पाएहिं भूमि कोट्टेमाणे, 'हा हा अहो! हओऽहमस्सि'त्ति कटु समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्वमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए, मजपाणगं पियमाणे, अभिक्खणं गायमाणे, अभिक्खणं नश्चमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे, सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरति । २३. 'अजो'त्ति समणे भगवं महावीरे समणे निगंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-'जावतिए णं अजो! गोसालेणं मंस्खलि. पुत्तेणं ममं वहाए सरीरगंसि तेये निसट्टे, से णं अलाहि पजत्ते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा-१ अंगाणं, २ वंगाणं, ३ मगहाणं, ४ मलयाणं, ५ मालवगाणं, ६ अच्छाणं, ७ वच्छाणं, ८ कोच्छाणं,९ पाढाणं, १० लाढाणं, ११ वजाणं, १२ मोलीणं, १३ कासीणं, १४ कोसलाणं, १५ अवाहाणं, १६ संभुत्तराणं धाताए, वहाए, उच्छादणयाए, भासीकरणयाए । जंपिय अंजो! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए, मजपाणं पियमाणे, अभिक्खणं जावअंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ, तस्स वि य णं वजस्स पच्छादणट्टयाए इमाइं अट्ठ चरिमाइं पनवेति । तंजहा-१ चरिमे पाणे, २ चरिमे गेये, ३ चरिमे नट्टे, ४ चरिमे अंजलिकम्मे, ५ चरिमे पोक्खलसंवट्टए महामेहे, ६ चरिमे सेयणए गंधहत्थी, ७ चरिमे महासिलाकंटए संगामे, ८ अहं च णं इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थंकराणं चरिमे तित्थंकरे सिन्झिस्सं, जाव-अंतं करेस्सं ति । जंपिय अजो! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाइं परिसिंचमाणे विहराए, तस्स वि य णं वजस्स पच्छादणट्टयाए इमाइं चत्तारि पाणगाइं चत्तारिऽपाणगाई पनवेति । २४. [प्र०] से किं तं पाणए ? [उ०] पाणए चउष्विहे पन्नत्ते, तंजहा-१ गोपुट्ठए, २ हत्थमहियए, ३ आयवतत्तए, ४ सिलापम्भट्ठए, सेत्तं पाणए । २२. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालक जेने माटे शीघ्र आव्यो हतो ते कार्यने नहि साधतो, दिशाओ तरफ लांबी दृष्टिथी जोत गोशालकनं भगवंत दीर्घ अने उष्ण नीसासा नांखतो, दाढिना वाळने खेचतो, अवटु-डोकनी पाछळना भागने खजवाळतो, पुतप्रदेशने प्रस्फोटित करतो, AIMADI र पासेची पालाएका हस्तने हलावतो अने बको पग वडे भूमिने कूटतो, 'हा हा ! अरे ! हुं हणायो छु'-एम विचारी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने कोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्यां श्रावस्ती नगरी छे, अने ज्यां हालाहलानामे कुंभारणतुं कुंभकारापण-हाट छे त्यां आव्यो. त्यां आवीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणमा जेना हाथमां *आम्रफल रहेलं छे एवो, मद्यपान करतो, वारंवार गातो, वारंवार नाचतो, वारंवार हालाहला कुंभारणने अंजलि करतो अने माटीना भाजनमा रहेला शीतल माटीना पाणी वाडे गात्रने सींचतो विहरे छे. तेजोलेश्यानं सामध्य. २३. हे आर्यो' ! एम कहीने श्रमणं भगवान् महावीरे श्रमण निर्ग्रन्थोने आमंत्रीने ए प्रमाणे कर्तुं के हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालके मारो वध करवा माटे शरीरथकी तेजोलेश्या काढी हती, ते आ प्रमाणे-१ अंग, २ बंग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालव, ६ अच्छ, ७ वत्स, ८ कौत्स, ९ पाट, १० लाट, ११ वज्र, १२ मौली, १३ काशी, १४ कोशल, १५ अबाध अने १६ संभुक्तर-ए सोळ देशनो घात करवा माटे, वध करवा माटे, उच्छेदन करवा माटे, भस्म करवा माटे समर्थ हती. वळी हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुंभ.रणना कुंभकारापणमां आम्रफल हाथमां ग्रहण करी मद्यपान करतो, वारंवार यावत्-अंजलिकर्म करतो विहरे छे ते अवध-दोषने प्रच्छादन-ढांकवामाटे आ आठ चरम-छेल्ली वस्तु कहे छे. ते आ प्रमाणे-१ चरम पान, २ चरम गान, ३ चरम नाट्य, ४ चरम अंजलिकर्म, ५ चरम पुष्कल संवर्त महामेघ, ६ चरम सेचनक गन्धहस्ती, ७ चरम महाशिलाकंटक संग्राम अने ८ हुँ आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरोमां चरम तीर्थंकरपणे सिद्ध थईश, अने यावत्-'सर्व दुःखोनो अन्त करीश'. वळी हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक माटीना पात्रमा रहेला माटीमिश्रित शीत पाणीवडे शरीरने सींचतो विचरे छे ते अयद्यने पण ढांकवाने माटे आ चार प्रकारना पानक-पीणां अने चार नहि पीवा योग्य (शीतल भने दाहोपशमक) अपानक जणावे छे २४. [प्र०] पाणी केटला प्रकारे कयुं छे ! [उ०] पाणी चार प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे-१ गायना पृष्ठथी पडेलु, २ हा- चार प्रकारना पानक यथी मसळेलं, ३ सूर्यना तापथी तपेलं, अने ४ शिलाथी पडेलं. ए प्रमाणे पाणी कडं. २२ ° गोशालके तेजोडेश्याजनित दाहना उपशम माटे चूसवा माटे हाथमा भाम्रफल (गोटली) रास्यु हवं. Jain Education international Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक १५२५. [प्र०] से किं तं अपाणए। [उ०] अपाणए चउचिहे पण्णत्ते, तंजहा-१ थालपाणप, २ तयापाणप, सिंवलिपाणए, ४ सुद्धपाणए। २६. [प्र०] से किं तं थालपाणए ? [उ०] था०२ जणं दाथालगंवा दावारगं घा दाकुंभगं वा दाकलसंषा सीयलग उल्लगं हत्थेहिं परामुसइ, न य पाणियं पियइ, सेत्तं थालपाणए । २७. [प्र०] से किं तं तयापाणए ? [उ०] त० २ जण्णं अंबं वा अंबाडगं वा जहा पयोगपदे जाव-घोरं या तिंदुरुयं वा, तरुणगं वा, आमगं वा आसगंसि आवीलेति वा पवीलेति वा, न य पाणियं पिया, सेत्तं तयापाणए । २८. [प्र०] से किं तं सिंबलिपाणए ! [उ०] सि० २ जणं कलसंगलियं वा, मुग्गसिंगलियं, वा माससंगलियं वा सिंबलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा, पवीलेति वा, ण य पाणियं पियति, सेत्तं सिंबलिपाणए । ____ २९. [प्र०] से किं तं सुद्धपाणए ? [उ०] सु० २ जण्णं छमासे सुद्धखाइमं खाइति, दो मासे पुढविसंथारोवगए य, दो मासे कट्रसंथारोवगए, दो मासे दब्भसंथारोवगए, तस्स गं बहुपडिपुनाणं छण्डं मासाणं अंतिमराईए इमे दो देवा महड्डिया जाव-महेसक्खा अंतियं पाउन्भवंति, तंजहा-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य । तए णं ते देवा सीयलपहिं उल्लपाहि हत्थेहिं गाया परामुसंति, जेणं ते देवे साइजति, से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेति, जे गं ते देवे नो साइजति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, से णं सपणं तेएणं सरीरगं झामेति, स. २ झामेत्ता तो पच्छा सिज्झति, जाव-अंतं फरेति, सेत्तं सुद्धपाणए। ३०. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले णामं आजीविओवासए परिवसइ, अद्दे, जाव-अपरिभूए, जहा हालाहला, जाव-आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए गं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अन्नया कदायि पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अमथिए जाव-समुप्पज्जित्था-'किंसंठिया हल्ला पण्णता? भपानकना चार . प्रकार २५. [प्र०] अपानक केटला प्रकारे छे ! [उ०] अपानक चार प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ स्थालनु पाणी, २ वृक्षादिनी छालन पाणी, ३ शींगोनू पाणी अने ४ शुद्ध पाणी (देवहस्तना स्पर्शन पाणी). सॉम्पानी. २६. [प्र०] स्थालपाणी केवा प्रकारे कडुं छे! [उ०] जे उदकथी भींजायेलो स्थाल, पाणीथी मीनो वारक-करवडो, पाणीथी मीनो मोटो घट, पाणीथी भीनो म्हानो घट, अथवा पाणीथी भीना माटीना वासण, तेनो हाथथी स्पर्श करे पण पाणी न पीए ते स्थालपाणी, ए प्रमाणे रयालपाणी कह्यु. तचापाणी. २७. प्रि०] स्वचापाणी केवा प्रकारच्छे : उ०] जे आंबो, मंबाडग-इस्यादि प्रयोगपदमा का प्रमाणे यावत्-बोर, तिंदुरुक सुधी जाणवा, ते तरुण-अपक्व अने आम-काचा होय, तेने मुखमां मौखी थोडं चावे, विशेष चावे, पण पाणी न पीए ते त्वचापाणी. ए प्रमाणे त्वचापाणी कद्यु. शीगर्नु पाणी. २८. [प्र०] शीगोनू पाणी केवा प्रकारनुं छे! [उ०] जे कलायसिंबली वटाणानी शींग, मगनी शौंग, अडदनी शींग के शिंबलीनी शींग वगेरे तरुण-अपक्व अने आम-काची होय तेचे मुखमा थोहूं चावे के विशेष चावे, पण तेनुं पाणी न पीए ते शीगोनू पाणी कहेवाय. ए प्रमाणे शीगर्नु पाणी कडं. शुद्ध पाणी. २९. [प्र०] शुद्ध पाणी केवा प्रकारर्नु छे ! [उ०] जे छ मास सुधी शुद्ध खादिम आहारने खाय, तेमां बे मास सुधी पृथिवीरूप संस्तारकने विषे रहे, बे मास सुधी लाकडाना संस्तारकने विषे रहे, अने बे मास सुधी दर्भना संस्तारकने विषे रहे. तेने बरोबर पूर्ण धयेला छ मासनी छेल्ली रात्रीए महर्द्धिक अने यावत्-महासुखवाळा बे देवो तेनी पासे प्रगट थाय, ते आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्रः त्यार पछी ते देवो शीतल अने आई हस्त वडे शरीरना अवयवोनो स्पर्श करे, हवे जे ते देवोने अनुमोदे, एटले तेना आ कार्यने सारं जाणे ते आशीविषपणे कर्म करे, जे ते देवोने न अनुमोदे, तेना पोताना शरीरमा अग्निकाय उत्पन्न थाय, अने ते पोताना तेज वडे शरीरने बाळे, अने त्यार पछी ते सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करे, ते शुद्ध पानक कहेवाय. ए प्रमाणे शुद्ध पाचक कड्यं. बाबीविकोपासक ३०. ते श्रावस्ती नगरीमा अयंपुलनामे आजीविकमतनो उपासक-श्रावक रहेतो हतो. ते धनिक, यावत्-कोइथी पराभव न पामे अर्थपुलकनो गोशा- तेवो अने हालाहला कुंभारणनी पेठे यावत्-आजीविकना सिद्धान्त बडे आत्माने मावित करतो विहरतो हतो. सार पछी ते अयंपुल नामे कनी पासे जवानो संकल्प. आजीविकोपासकने अन्य कोइ दिवसे कुटुंबजागरण करता मध्यरात्रिना समये आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो के "केवा २७ "प्रा. प. १६५. ३२८-१. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३८९ तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीओवासगस्स-दोचं पि अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाव-समुप्पज्जित्था-'एवं खलु ममं धम्मायरिए, धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पन्ननाणदसणधरे जाव-सवन्न सचदरिसी इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए फुटकारीए कुंभकारावर्णसि आजीवियसंघसंपरिखुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरप, तं सेयं खलु मे कल्लं जाएजलंते गोसालं मंखलिपुत्तं वंदित्ता, जाव-पजुषासेत्ता इमं पयारूपं वागरणं वागरित्तय सि कडु एवं संपेक्षेति, एवं संपेन कजाब-जलते पहाए, कय जाव-अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे, सामओ गिहाओ पडिनिक्खमति, सा०२ पडिनिक्समित्ता पायविहारचारेणं सावत्थि नगरि मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छर, तेणेप उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगयं जाव-अंजलिकम्मं करेमाचं सीयलएणं मट्टिया० जाव-गायाई परिसिंचमाणं पासर, पासित्ता लजिए, विलिए, विडे, सणियं २ पथोसकर । तए णं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लजियं जाव-पञ्चोसकमाणं पासर, पासित्ता एवं बयासी-एहि ताव अयंपुला! एत्तओ'। तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहिं एवं पुत्ते समाणे जेणेष आजीविया थेरा तेणेष उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता आजीविए थेरे बंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता नचासन्ने जाव-पजुवासह । 'अयंपुलाए आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी-से नूणं ते अयंपुला! पुष्परतावरत्तकालसमयंसि जाव-किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता' ? तए णं तव अयंपुला! दोश्च पि अयमेया० तं चेव सवं भाणियचं, जाव-सावत्थि नगरि मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव इहं तेणेव हवमागए । से नूणं ते अयंपुला! अट्टे समटे हंता अस्थि । जंपिय अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अंवकूणगहत्थगए जाव-अंजलिं करेमाणे विहरति, तत्थ वि णं भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाई पनवेति, तंजहा-चरिमे पाणे, जाव-अंतं करेस्सति' । जे वि य अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया० जाव-विहरति, तत्थ वि चं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाई पनवेति । से किं तं पाणए ? २ जाव-तओ पच्छा सिझति, जाव-अंतं करेति । तं गच्छ गं तुम अयंपुला! एस चेव तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरपं यागरित्तपत्ति। आकारे हल्ला (कीटविशेष ) कहेली छे"! सार पछी ते अयंपलनामे आजीविकोपासकने बीजी बार थाना प्रकारको संकल्प उत्पन थयो के "ए प्रमाणे खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक उत्पन्न पयेला ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा, यावत्सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे, तेओ आज श्रावस्ती नगरीमा हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमां आजीविकसंघसहित आजीविकना सिद्धान्त वडे आत्माने भावित करता विहरे छे. ते माटे मारे आवती काले यावत्-सूर्योदय थये मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन करी, पर्युपासना करी आवा प्रकारनो आ प्रश्न पूछवो श्रेयरूप छे"-एम विचारी काले यावत्-सूर्योदय थये ज्ञान करी, बलिकर्म करी, अल्प अने महामूल्य आभरणवडे शरीरने अलंकृत करी, पोताना घर थकी बहार नीक्कळी, पणे चाली, श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा थई, ज्या हालाहला नामे कुंभारणकुंभकारापण छे, त्यां आवी ते हालाहला नामे कुंभारणना कुंभकारापणमा जेना हाथमा आम्रफल रहेलुं छे एवा यावत्-हालाहला कुंभारणने भयंपुनर्नु पागमन, अंजलिकर्म करता अने शीतल माटीमिश्रित जलवडे यावत्-शारीरना अवयवने सिंचता मंखलिपुत्र गोशालकने जुए छे जोइने ते लज्जित, " . गोशालकनी विचित्र शालकन ए, भानत लागत अवस्था जोड़ पाएं विलखो अने वीडित थई धीमे धीमे पाछो जाय छे. त्यार पछी ते आजीविक स्थविरोए लज्जित यावलू-पाछा जता आजीविकोपासक अयं- जचु, स्थपिरोए अयंपुलने जोई ए प्रमाणे कडुं-हि अयंपुल ! अहिं आव'. ज्यारे आजीविक स्थविरोए ए प्रमाणे का त्यारे ते अयंपुल ज्या आजीविक स्थविरो CHILITY तेना मनना संफापर्नु हता त्यां आव्यो, अने त्यां आवी आजीविक स्थविरोने वंदन-नमस्कार करी अत्यन्त पासे नहि तेम अत्यंत दूर नहि एम बेसी पर्युपासना निवेदन भने तेना करवा लाग्यो. 'हे अयंपुल'! एम कही आजीविक स्थविरोए आजीविकोपासक अयंपुलने ए प्रमाणे कयु-" हे अयंपुल ! खरेखर तने मध्य मननु समाधान. रात्रिना समये यावत्-केवा आकारवाळी हल्ला कहेली छे । [एवो संकल्प थयो हतो ! ] स्यार पछी तने बीजीवार आवा प्रकारनो आ संकल्प थयो हतो!इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावत्-श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा ज्यां हालाहला कुंभारण- कुंभकारापण छे अने ज्यां आ स्थान छे, त्यां तुं शीघ्र आव्यो. हे अयंपुल ! खरेखर आ वात सत्य छे! हा सत्य छे. हे अयंपुल ! वळी तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणमा आम्रफल हाथमा लइ यावत्-अंजलि करता विहरे छे, तेमां पण ते भगवान् आठ चरमनी प्ररूपणा करे छे. ते आ प्रमाणे-१ चरमपानक०, यावत्-सर्व दुःखनो अन्त करशे. वळी हे अयंपुल | तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक शीतल माटीना पाणी वडे यावत्-शरीरने छांटता यावत्-विहरे छे, तेमा पण ते भगवान् चार पानक अने चार अपानक प्ररूपे छे. पानक केवा प्रकारे छे ? यावत्-त्यार पछी ते सिद्ध थाय छे, यावत्-'सर्व दुःखोनो अन्त करे छे'. ते माठे हे अयंपुल! तुं जा, अने आ तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालकने आवा प्रकारनो आ प्रश्न पूछो.' Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५. ३१. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहिं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ-तुट्टे उट्ठाए उट्टेति, उ०२ उद्वेत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंबकूणगएडायणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुवंति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ, सं० २ पडिष्छिता अंबकूणगं एगंतमंते एडेड । तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छर, तेणेव उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो० जाव-पजुवासति । 'अयंपुला, दी गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी-से नूणं अयंपुला! पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव-जेणेव ममं अंतियं तेणेव हवमागए । से नूणं अयंपुला। अढे समझे ? हंता अत्थि, तं नो खलु एस अबकूणए, अंबचोयए णं एसे। किंसंठिया हल्ला पन्नत्ता ? सीमूलसंठिया हल्ला पण्णता । वीणं वाएहि रे वीरगा वी० २। तए णं से अयंपुले आजीवियोवासप गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूपं वागरणं वागरिए समाणे हट्ट-तुट्टे जाव-हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छति, पसिणाइ पुच्छित्ता अट्ठाइं परियादियह, अ० २ परियादिइत्ता उट्ठाए उडेति, उट्टाए उद्देत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जाव-पडिगए। ३२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएइ, आभोइत्ता आजीविए थेरे सहावेइ, आ० २ सद्दावेत्ता एवं वयासी-'तुम्भे गं देवाणुप्पिया! ममं कालगयं जाणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेह, सु० २ पहावित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लूहेह, गा० २ लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपह, स० २ अणुलिंपित्ता महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह, मह० २ नियंसित्ता सवालंकारविभूसियं करेह, स०२ करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहेह, पुरि० २ दुरूहित्ता सावत्थीए नयरीए सिंघाडग० जाव-पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव-जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थयराणं चरिमे तित्थयरे, सिद्ध, जाव-सम्बदुक्खप्पहीणे'-इहिसकारसमुदएणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह । तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम, विणएणं पडिसुणेति । । लनामकल्व न नव . . ... ... . . . . . . अयंपुरूनुं गोशालक ३१. त्यार बाद ते अयंपुल आजीविक स्थविरोए ए प्रमाणे कडं एटले हृष्ट अने संतुष्ट थई उठ्यो, उठीने ज्यां मंखलिपुत्र गोशापासे आगमन. लक हतो त्या जवा तेणे विचार कर्यो. त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकने आम्रफल एक स्थळे मूकाववा माटे संकेत कर्यो. त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक आजीविक स्थविरोनो संकेत जाणी आम्रफलने एक स्थळे मूके छे. त्यार पछी ते आजीविकोपासक अयं पुल ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्या आवी मंखलिपुत्र गोशालकने त्रण वार प्रदक्षिणा करी यावत्-पर्युपासना करे छे. 'हे अयंपुल' ! गोशालकवडे अयंपु. ए प्रमाणे कही मंखलिपुत्र गोशालके आजीविकोपासक अयंपुलने आ प्रमाणे कह्यु-'अयंपुल ! खरेखर तने मध्यरात्रिना समये यावत् तने संकल्प थयो हतो, अने ज्यां हुं छु त्यां मारी पासे तुं शीघ्र आव्यो, हे अयंपुल ! खरेखर आ वात सत्य छे'! हा सत्य छे. ते माटे दन भने तेना मननु समाधान. खरेखर आ आम्रनी गोटली नथी, परन्तु ते आम्रफलनी *छाल छे. "केवा आकारवाळी हल्ला होय छे" [ आवो जे संकल्प थयो हतो तेना उत्तरमा] वांसना मूलना आकार जेवी हल्ला होय छे. [वळी वच्चे गोशालक उन्मादमां कहे छे-] "हे वीरा! वीणा वगाड, हे वीरा! वीणा वगाड.' त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालके आवा प्रकारनो आ प्रश्ननो उत्तर आप्यो एटले प्रसन्न-संतुष्ट अने जेनुं चित्त आकर्षित थयु छे एवो आजीविकोपासक अयंपुल मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन-नमस्कार करी प्रश्नो पूछे छे, प्रश्नो पूछीने अर्थ ग्रहण करे छे, अर्थ ग्रहण करी उठी [पुनः] मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन अने नमस्कार करी यावत्-ते [ स्वस्थानके ] पाछो जाय छे. पोताना मरण बाद ३२. त्यार बाद मंखलिपुत्र गोशालके पोतार्नु मरण नजीक जाणीने आजीविक स्थविरोने बोलाव्या, अने बोलावी तेणे ए प्रमाणे देवने उत्सवपूर्वक ब. कह्यु-“हे देवानुप्रियो! ज्यारे मने कालधर्म प्राप्त थयेलो जाणो त्यारे सुगंधी गन्धोदक बडे स्नान करावजो, स्नान करावी छेडावाळा अने सुकुमाल गोशालकनी मला. गन्धकाषाय (सुगंधी भगवा ) वस्त्रवडे शरीरने साफ करजो, शरीरने साफ करी सरस गोशीर्षचन्दनवडे शरीरने विलेपन करजो, विलेपन करी महामूल्य हंसना चिह्नवाळा पटशाटकने पहेरावजो, पहेरावी सर्वालंकारथी विभूषित करजो, विभूषित करी हजार पुरुषोथी उपाडवा लायक शीबिकामां बेसाडजो, शीबिकामां बेसाडी श्रावस्ती नगरीमां शंगाटकना आकारवाळा यावत्-राजमार्गमा मोटा मोटा शब्दथी उद्घोषणा करता आ प्रमाणे कहेजो-“ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी, यावत्-जिनशब्दने प्रकाश करता विहरीने आ अवसर्पिणीना चोवीश तीर्थकरोमां छेल्ला तीर्थकर थईने सिद्ध थया, यावत्-सर्वदुःखरहित थया-आ प्रमाणे ऋद्धि अने सत्कारना समुदायथी मारा शरीरने बहार काढजो." त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकनी ए वातनो विनयपूर्वक खीकार कर्यो. मण.. ३.* गोशालक अयंपुलने कई छ के तुं जे आम्रफलनी गोटली धारे छ ते नथी, पण भाम्रफलनी छाल छे, अने तेनु पानक निर्याणसमये पीका योग्य छे. टीका Jain Education international Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत् धर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३९१ ३३. तए णं तस्स गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-'णो खलु अहं जिणे, जिणप्पलावी, जाव-जिणसई पगासेमाणे विहरति (विहरिते), अहं णं गोसाले चेष मंखलिपुत्ते समणधायए, समणमारए, समणपटिणीए, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए, अवन्नकारए, अकित्तिकारए, पहूहि असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा धुग्गाहेमाणे, वुप्पाएमाणे विहरित्ता सपणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं । समणे भगवं महाधीरे जिणे जिणप्पलावी जाव-जिणसहं पगासेमाणे विहरह'-एवं संपेहेति, एवं संपेहिता, आजीविए थेरे सद्दावेद, आ० २ सदावेत्ता उच्चावयसवहस्साविए पकरेति, उपा० २ पकरेत्ता एवं बयासी-'नो खलु अहं जिणे, जिणप्पलावी, जाव-पकासेमाणे विहरद (विद्दरिए), अहम्नं गोसाले मंखलिपुत्ते, समणघायए, जाव-छउमत्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीर जिणे, जिणप्पलावी, जाव-जिणसई पगासेमाणे विहरइ, तं तुम्भंणं देवाणुप्पिया! ममं कालगयं जाणेत्ता वामे पाए सुंबेणं बंधह, वा. २ बंधित्ता तिक्खुत्तो मुहे उट्ठहद्द, ति०२ उमुहित्ता सावत्थीए नगरीए सिंघाडग० जाव-पहेसु आकट्ठविकट्टि करेमाणा महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं वदा-'नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव-विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते, समणघायए, जाव-छउमत्थे चेव कालगए । समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी, जाव-विहरह'-महया अणिड्डी-असकारसमुदएणं मम सरीरगस्स नीहरणं करेजाह'-एवं वदित्ता कालगए। ३४. तए णं आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराई पिहेंति, दु० २ पिहेत्ता हालाहलाप कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्थि नगरिं आलिहंति, सा०२ आलिहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पादे सुंबेणं बंधति, वा०२ बंधित्ता तिपखुत्तो मुहे उट्ठभंति, उट्ठभित्ता सावत्थीए नगरीए सिंग्घाडग० जाय-पहेसु आकट्ठविक४ि करेमाणा, णीयं २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी-'नो खल देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव-विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए, जावछउमत्थे चेव कालगए। समणे मगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी जाव-विहरह, सवहपडिमोक्खणगं करेंति, स०२ करेत्ता दोचं पि पूया-सकार-थिरीकरणटुयाए गोसालस्स मंस्त्रलिपुत्तस्स वामाभो पादामओ सुंबं मुयंति, सुं० २ मुइत्ता हालाहलाए ३३. हवे ते मंखलिपुत्र गोशालकने सात रात्री परिणमतां-व्यतीत यतां सम्यक्त्व प्राप्त थयु, अने तेने आवा प्रकारनो अध्यव- गोशालकने सम्यक्त्व साय-संकल्प उत्पन्न थयो-"हुँ खरेखर जिन नथी, तो पण जिनप्रलापी, यावत् जिन शब्दने प्रकाशतो विहयों छं. हुं श्रमणनो घात कर- SEE एमपोतानी वास्तनार, श्रमणने मारनार, श्रमणनो प्रत्यनीक-विरोधी, आचार्य अने उपाध्यायनो अपयश करनार, अवर्णवादकारक अने अपकीर्ति करनार विक स्थिति प्रकाशित मंखलिपुत्र गोशालक छं. तथा धणी असद्भावना वडे अने मिथ्यात्वाभिनिवेश वडे पोताने, परने अने बन्नेने न्युग्राहित-भ्रान्त करतो, करवी, तेनो पश्चात्ताप बने महावीरजिन छे न्युत्पादित (मिथ्यात्वयुक्त) करतो विहरीने मारा पोतानी तेजोलेश्या वडे पराभव पामी सात रात्रीना अन्ते पित्तज्वरथी व्याप्त शरीरवाळो थई - तेनुं निवेदन. दाहनी उत्पत्तिथी छद्मस्थावस्थामा ज काल करीश. श्रमण भगवान महावीर जिन छे अने जिनप्रलापी यावत्-जिनशब्दने प्रकाशित करता विहरे छे-"एम विचारी ते (गोशालक) आजीविक स्थविरोने बोलावे छे, बोलावीने अनेक प्रकारना सोगन आपे छे, सोगन आपीने ते आ प्रमाणे बोल्यो-"हुँ खरेखर जिन नथी, पण जिनप्रलापी यावत्-जिनशब्दने प्रकाश करतो विहो छु, हुं श्रमणनो घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक छु, यावत्-छमस्थावस्थामां काळ करीश. श्रमण भगवान् महावीर जिन, जिनप्रलापी, यावत्-जिनशब्दनो प्रकाश करता विहरे छे ते माटे हे देवानुप्रियो । तमे मने काळधर्म पामेलो जाणीने मारा डाबा पगने दोरडावती बांधी त्रणवार मुखमा धुंकजो, मने काळधर्म पामे लो जागी मारामा थूकीने श्रावस्ती नगरीमा शंगाटकना आकारवाळा, यावत्-राजमार्गने विषे घसडता अत्यन्त मोटे शब्दे उद्घोषणा करता करता एम कहेजो के 'हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नथी, पण जिनप्रलापी अने जिनशब्दने प्रकाशित करतो वियों छे. आ श्रमणनो धी घसडनो भने मु. घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक यावत्-छद्मस्थावस्थामा ज काळधर्म पाम्यो छे. श्रमण भगवान् महावीर जिन अने जिनप्रलापी थई । जिन नथी' पम न्: यावत्-विहरे छे, एम ऋद्धि अने सत्कारना समुदाय शिवाय मारा शरीरने बहार काढजो"-एम कहीने ते (गोशालक) काळधर्म पाम्यो. पोषणा करता मारा शरीरने निंदापूर्वक ३४. त्यार पछी आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकने काळधर्म पामेल जाणीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना द्वार बन्ध बहार कादजो-एवी कर्या. बारणा बन्ध करीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना बरोबर मध्य भागमा श्रावस्ती नगरीने आळेखीने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने ना शिष्योने म. डाबे पगे दोरडा वडे बांधीने त्रणवार मुखमां थूकीने श्रावस्ती नगरीना शंगाटकना आकारवाळा, यावत्-राजमार्गने विषे घसडता धीमा धीमा लामण.. शब्दथी उद्घोषणा करता करता आ प्रमाणे बोल्या-“हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र-गोशालक जिन नथी, पण जिनप्रलापी थईने यावत् भाजीविक स्पविरोर्नु हालाइला कुंमारणवियों छे, आ श्रमणघातक मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थावस्थामां ज काळधर्म पाम्यो छे. श्रमण भगवान् महावीर जिन, अने जिन- नादार बन्ध करीश्राप्रलापी थईने यावत्-विहरे छे." ए प्रमाणे तेओ शपथथी छटा थाय छे, अने बीजी वार तेनी पूजा अने सत्कारने स्थिर करवामाटे मंख हर वस्तीने माळेखी गो शालकनाका प्रमलिपुत्र गोशालकना डाबा पगथी दोरई छोडी नांखे छे, छोडी नांखी हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना द्वार उघाडे छे, उघाडीने मंखलिपुत्र णे करवू Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैविक ग्राम. श्वानकोष्ठक चैल. मालुकावन. भगवंत महावीरना शरीरमा पीडाकारी रोग बड़े ३९२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंप्रद्दे शतक १५० कुंमकारी कुंमकारावणस्स दुपारवयणाई अवगुणंति अवगुणित्ता गोसालस्स मंगलिपुत्तरस सरीरगं सुरभिणा गंधोदरणं हर्णेति तं चैव जाव - महया इड्डि- सकारसमुदपणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरस्स नीहरणं करेंति । · ३५. त्यार पछी श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोइ दिवसे श्रावस्ती नगरीथी अने कोष्ठक चैत्यथी नीकळी बहारना देशोमां विहरे छे. ते काले ते समये मेटिकमाय नामे नगर हतुं वर्णन ते मेडिकमान नामे नगरनी बहार उत्तर-पूर्व दिशाने विषे अहिं साणकोटक (चानकोफ) नामे चैव हतुं वर्णन यावद-पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते साणकोष्ठक चैत्यनी थोडे दूर अहिं मोढुं एक मालुका ( एक बीजाळा) वृक्षनुं यन. ते श्याम, श्यामकान्तिवालुं यावत्-महामेघना समूहना जेतुं हतुं यत्ळी ते पत्रबालुं पुष्पवा, फा, हरिवर्णव अन्त देदीप्यमान अने श्री शोभावडे अवन्त सुशोभित हतुं ते मेडिकमाम नामे नगरमा रेवतीनामे गृहपनी (घरधनिपाणी) रहेती हती. ते ऋद्धिवाळी अने कोइथी पराभव न पाने तेथी हती. ते समये श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे अनुकमे विहार करता यावत्-ज्यां मेंढिकग्राम नामे नगर छे, अने ज्यां साणकोष्ठक नामे चैत्य छे त्यां आव्या, यावत्- पर्षदा वांदीने पाछी गई. ते वखते श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे महान् पीडाकारी, उज्वल अत्यन्त दाह करनार, पायद दु:खे सहन करवा योग्य यावत् जेणे पित्तज्वर वडे शरीर व्याप्त कर्यु छे एवो अने जेमां दाह उत्पन्न थाय छे एवो रोग पेदा थयो, अने तेथी लोहीवाळा झाडा वा लाग्या. चार वर्णना मनुष्यो कहे के के प्रमाणे खरेसर श्रमण भगवान् महावीर मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजबडे पराभव पानी छ मासने अन्ते पित्तज्वरयुक्त शरीरवाळा थईने दाहनी उत्पत्तिथी छद्मस्थावस्थामां काळ करशे.” ते काले ते समये श्रमण भगवान् महावीरना अन्तेवासी-शिष्य सिंहनामे अनगर प्रकृति वडे भद्र, यावत्- विनीत हता. ते मालुकावनथी थोडे दूर निरन्तर छट्ठनो तप करवावडे बाहु उंचा राखी यावत्-मिहरे छे. ते वसते ते सिंह अनगारने "ध्यानान्तरिकाने विषे वर्तता आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत् उत्पन्न यो यो काळ धर्म पायो" “भगवंत रोगनी पी. प्रमाणे खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे अत्यन्त दाह करनार, महान् पीडाकारी रोग पैदा इयादि या ते उपस्थावस्थामा काळधर्म पामशे, अन्यतीर्थिको कदेशे के ते उमस्थावस्थामां काळधर्म पाम्या" आया प्रकारना आ हिमनगरी मोटा मानसिक दुःखपडे पीडित थयेल ते (सिंह अनगार) आतापना भूमिधी नीचे उतरी ज्यां माइकाचन के लो आवीने मालुकावनमी अंदर प्रवेश करीने सेणे मोठा शब्दची कुडकुड (वो फी) - रीते अत्यन्त रुदन कयुं श्रमण भगवान् महावीरे 'हे आय ए प्रमाणे श्रमण निर्मन्थोने बोटाची ए प्रमाणे क" हे आय ए प्रमाणे खरेसर मारा अन्तेवासी सिंहनामे अनगार प्रकृतिपडे भद्र छे इत्यादि पूर्वोक भगवंतनुं सिंह अन- कहेवुं, यावत् - तेणे अत्यन्त रुदन कयुं, ते माटे हे आर्यो ! जाओ, अने तमे सिंह अनगारने बोलावो.” ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे आशंका. गो एटले से भ्रमण निर्मन्थो श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करे छे, नमे छे, वंदन करी नमीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासेची अने साथ ३५ * एक ध्याननी समाप्ति थवा पछी ज्यां सुधी बीजा ध्याननो आरंभ न थाय त्यां सुधी ध्यानान्तरिका कहेवाय छे. टीका. ३५. तर्पणं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्टयाओ चेहयाओ पंडिनिक्खमति, पतिनियमिता दहिया जणवयविहारं विहरद। तेणं कालेषं तेषं समर्पणं मेडियगामे नाम नगरे होत्या, पनयो तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पत्थ णं साण (ल) कोट्ठए नामं चेइए होत्था, वन्नओ, जावं - पुढविसिलापट्टभ । तस्स णं साण (ल) कोट्ठगस्स णं चेइयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महेंगे मालुयाकच्छप यावि होत्था, किण्छे किन्होंभासे, जाव- निकुरंबभूप, पत्तिए, पुष्किए, फलिए, हरियगरेरिजमाणे, सिरीए अतीव २ उवसोमेमाणे चिट्ठति । तस्य णं मैटियगामे नगरे रेवती नामं गादावरणी परिवसति अड्डा, जाब-अपरिभूया तरणं समणे भगवं महावीरे अन्ना कदायि पुचाणुपुति चरमाणे जाब- जेणेव मेडियमाने नगरे जेणेव साण (ल) कोडर चेहर जाय परिसा पडिगया। तप णं समणस्स भगओ महावीरस्स सरीरगॉस विपुले रोगार्थके पाउम्भूष, उज्जले जाय-दुरहियासे, पित्तरपरिगयसरीरे, दादयमंती याचि विहरति, अवियाई लोहियवश्चाइं पि पकरेह, चाउष्वन्नं वागरेति- ' एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तणं रोपण अन्नाइ समाणे अंतो छण्डं मासाणं पित्तारपरिगयसरीरे दादवतीय छमत्ये चेव कालं करेस्सति' । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणरस भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सीधे नामं अणगारे, पगहभद्दर, जाय-विणीय मालुवाकच्छगस्स अदूरसामंते धणं अनिपिणं २ तवोकम्मे उहुंचादा जाय-विहरति तप णं तस्स सीइस्स अणगारस्स शाणंतरिया पट्टमाणस्स भयमेारुचे जाय समुप्यजित्था एवं सलु ममं धम्मापरियस्स धम्मोपदेसमरस समणस्स भगवओो महावीरस्स सरीरगंसि विउ रोगार्थके पाउम्भू, उनले जाव उमरथे चेव कालं करिस्सति यदिरसंति व अतित्थिया- 'छडमत्ये चेव कालगर' इमेणं पयारुवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूष समाने आयावणभूमीयो पथोकमा गोशाखकना शरीरने सुगन्धी गन्धोदक बढे ज्ञान करावे छे इत्यादि पूर्वोक्त कहेतुं यावत्यन्त मोटी ऋद्धि भने साकारना समुदायथी मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने बहार काढे छे. : Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. आया० २ पच्चोरुभित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अंतो अणुपविसर, मालुया० २ अणुपविसित्ता महया २ सहेणं कुहुकुहुस्स परुन्ने । 'अन्जो'त्ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अजो! ममं अंतेवासी सीहे नामं अणगारे पगइभदए तं चेव सवं भाणियचं, जाव-परुन्ने, तं गच्छह णं अजो! तुझे सीहं अणगारं सद्दह' । तए णं ते समणा निग्गंथा सभणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ साण(ल)कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति, सा. २ पडिनिक्खमित्ता जेणेव मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छन्ति, तेणेव उवागच्छित्ता सीहं अणगारं एवं वयासी-सीहा ! धम्मायरिया सद्दावेंति' । तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं निग्गंथेहि सद्धिं मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव साण(ल)को?ए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० २ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं जाव-पजुवासति । 'सीहा'दि समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं वयासी-से नूणं ते सीहा! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव-परुन्ने, से नूणं ते सीहा ! अटे सम?' ? हंता अस्थि । तं नो खलु अहं सीहा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अनाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव-कालं करेस्सं, अहन्नं अन्नाई सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुम सीहा ! मेंढियगाम नगरं, रेवतीए गाहावतिणीर गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अत्थि से अभ्ने पारियासिए मजारकडए कुक्कुडमंसए, तमाहराहि, एएणं अट्ठो'। तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ-तुट्ठ० जाव-हियए समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति, मु. २ पडिलेहेत्ता जहा गोयमसामी जाव-जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ साण(ल)कोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता अतुरिय० जाव-जेणेव में ढियगामे नगरे कोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्यां मालुकावन छे अने ज्यां सिंह अनगार छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने तेणे सिंह अनगारने ए प्रमाणे कडं-"हे सिंह! धर्माचार्य तमने बोलावे छे." त्यारे ते सिंह अनगार श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मालुकावनथी नीकळी ज्यां साणकोष्ठक चैत्य छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे, त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करे छे, यावत्-पर्युपासना करे छे. श्रमण भगवंत महावीरे 'हे सिंह'! ए प्रमाणे सिंह अनगारने बोलावी आ प्रमाणे का-'हे सिंह! खरेखर ध्यानान्तरिकामा वर्तता तने आवा प्रकार- भगवंतनु सिंहना नो आ संकल्प थयो हतो, यावत्-तें अत्यन्त रुदन कयु हतुं ? हे सिंह ! खरेखर आ वात सत्य छे ? हा, सत्य छे. हे सिंह! हुं नक्की ' कपन. मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजथी पराभव पामी छमासने अन्ते यावल काळ करीश नहि, हुं बीजा सोळ वरस जिनपणे गन्धहस्तिनी पेठे विचरीश. ते माटे हे सिंह ! तुं मेंढिकग्राम नगरमां रेवती गृहपत्नीना घेर जा, त्यां रेवती गृहपत्नीए मारे माटे बे *कोहळाना फळो संस्कार भगवंतनुं रेवती श्रा विकापासेपी बीजोकरी तैयार कर्या छे, तेनुं मारे प्रयोजन नथी, परन्तु तेथी बीजो गइकाले करेलो मार्जारकृत-मार्जारनामे वायुने शान्त करनार बीजोरा पाक रापाक• मंगापवं. छे, तेने लाव, एर्नु मारे प्रयोजन छे. त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कयुं एटले ते सिंह अनगार प्रसन्न अने संतुष्ट, यावत्प्रफुल्लितहृदयबाळा थई श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करी त्वरा, चपलता अने उतावळरहितपणे मुखवत्रिकानुं प्रतिलेखन करी गौतम स्वामीनी पेठे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने साणकोष्ठक चैत्यथी नीकळे छे, त्यांथी नीकळी त्वरारहितपणे यावत्-ज्यां मेंढिकग्राम नागे नगर छे त्यां आवे छे, त्यां आवी मेंढिकग्राम नगरना मध्यभागमा थई ज्यां रेवती गृहपत्नीखें घर छे, त्यां आवी तेणे रेवती गृहपत्नीना घरमा प्रवेश कर्यो. त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनगारने आवता जोया, जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थई जल्दी आसनथी उभी थई, उभी थईने सिंह अनगारनी सामे सात आठ पगलां सामी' गई, सामी जइने तेणे त्रणवार प्रदक्षिणा करी वंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कहा-" हे देवानुप्रिय! आगमननुं प्रयोजन कहो." त्यारे ते सिंह अनगारे रेवती गृहपत्नीने एम कर्दा-"ए प्रमाणे खरेखर तमे श्रमण भगवंत महावीरने माटे बे कोहळा संस्कार करी तैयार कर्या छे, तेनुं प्रयोजन नथी, परन्तु बीजो गइ काले करेलो मार्जारकृत (मार्जारवायुने शगावनार ) बीजोरापाक छे तेने आपो, तेनुं प्रयोजन छे.". त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनगारने ए प्रमाणे कयुं-'हे सिंह ! कोण आ ज्ञानी के तपस्वी छे के जेणे तने आ रहस्य (गुप्त) अर्थ तुरत कह्यो, अने जेथी तुं जाणे छे ?'-ए प्रमाणे स्किन्दकना अधिकारमा ३५ * आ स्थळे मूळमां "दुवे कावोयसरीरा उवक्सडिया तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्ने पारियासिए मजारकडए कुकुडमसए तमाहराहि" एवो पाठ छे, तेनो टीकामां कोई आचार्य बे कपोत पक्षीना शरीरो छे-एको प्रसिद्ध अर्थ करे छ, अने मार्जार कृत कुकुटमांसनो पण प्रसिद्ध अर्थ स्वीकारे छे, बीजा अन्य आचार्य कपोतपक्षीना जेवो वर्ण होवाथी कूष्मांड- कोहोळु-एया अर्थ करे छ, भने विरालिका नामे वनस्पति विशेषभी भावित कुकुटमांस-पीजोरानो गर्भ-एवो अर्थ करे छे.-टीका. भग० सं० १ श० २३.१० २३४. ५. भ. सू० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५० तेणेव उवागच्छइ, ते २ उवागच्छित्ता मेंढियगाम नगरं मझमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावइणीए गिहे तेणेव उवागच्छद, ते. २ उवागच्छित्ता रेवतीए गाहावतिणीए गिहं अणुप्पवितु । तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं एजमाणं पासति, पासित्ता हट्टतुट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अन्भुढेइ, अब्भुटेत्ता सीहं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छह, स० २ अणुगच्छिता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, आ० २ करेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं' ? तए णं से सीहे अणगारे रेवति गाहावइणि एवं वयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अस्थि ते अन्ने पारियासिए मंजारकडए कुक्कडमंसए पयमाहराहि, तेणं अट्ठो' । तए णं सा रेवती गाहावइणी सीहं अणगारं एवं वयासी-'केसणं सीहा से णाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एस अटे मम ताव रहस्सकडे हधमक्खाए, जओ णं तुमं जाणासि ? एवं जहा खंदप, जाव-जओ | अहं जाणामि । तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हट्ठ-तुट्ठा जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता पत्तगं मोएति, पत्तगं मोपत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सवं संमं निस्सिरति । तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दधसुद्धणं जाव-दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निवद्धे, जहा विजयस्स, जाव-जम्मजीवियफले रेवतीए गाहाव ए. रेवती०२। तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावंतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता मेढियगाम नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाव-भत्तपाणं पडिदंसेति, पडिदंसेत्ता समणस्स भगवओ महाधीरस्स पाणिसि तं सवं संमं निस्सिरति । तए णं समणे भगवं महावीरें अमुच्छिए जाव-अणज्झोववन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोटुगंसि पक्खिवति । तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते, हटे जाए, आरोग्गे, वलियसरीरे, तुट्ठा समणा, तुट्ठाओ समणीओ, तुट्ठा सावया, तुट्ठाओ सावियाओ, तुट्ठा देवा, तुट्ठाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए तुढे 'हढे जाए समणे भगवं महावीरे' हटे० २। ३६. 'भंते'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवए सवाणुभूतीनामं अणगारे पगतिभद्दए जाव-विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलि. पुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उववन्ने ? [उ०] एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सवाणुभूतीनामं अणगारे पगइभदए जाव-विणीए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं भासरासीकए समाणे उहुं चंदिमसूरिय० जाव-बंभ-लंतक-महासुक्के कप्पे वीइवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठा कह्या प्रमाणे अहिं कहे, यावत्-जेथी (भगवंतना कथनथी) हुं जाणुं छं. त्यारे ते रेवती गृहपत्नी सिंह अनगारनी ए वात सांभळी, हृदयमा अवधारी दृष्ट अने संतुष्ट थई ज्यां भक्तगृह-रसोडूं छे त्यां आवीने पात्र नीचे मूके छे, पात्र नीचे मूकीने ज्या सिंह अनगार छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने सिंह अनगारना पात्रने विषे ते सर्व (बीजोरा पाक) आपे छे. ते समये ते रेवती गृहपनीए द्रव्यशुद्ध एवा यावत्-ते दानवडे सिंह अनगारने प्रतिलाभित करवाथी देवायुष बांध्यु, यावत्-"विजयनी पेठे रेवतीए 'जन्म अने जीवितव्यनुं फल प्राप्त कर्यु २'-एवी उद्घोषणा थई. हवे ते सिंह अनगार रेवती गृहपत्नीना घरथी नीकळी मेंढिकग्राम नगरना मध्यभागमा थईने नीकळे छे, नीकळी गौतमखामीनी पेठे भात-पाणी देखाडे छे. देखाडी श्रमण भगवंत महावीरना हाथमा ते सर्व सारी रीते मूके छे. त्यार बाद श्रमण भगयंत महावीर मूर्छा-आसक्तिरहित, यावत्-तृष्णारहितपणे सर्प जेम बिलमा पेसे तेम पोते ते आहारने शरीररूप कोष्ठमां नांखे छे. हवे ते आहारने खाधा पछी श्रमण गवंत महावीरनो ते महान् पीडाकारी रोग तुरत ज शान्त थयो. ते हृष्ट, रोगरहित अने बलवानशरीरवाळा थया. श्रमणो तुष्ट थया, श्रमणीओ तुष्ट थई, श्रावको तुष्ट थया, श्राविकाओ तुष्ट थई, देवो तुष्ट थया, देवीओ तुष्ट थई, अने देव, मनुष्य अने असुरो सहित समग्र विश्व संतुष्ट थयु के 'श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट-रोगरहित थया.' समान ३६. [प्र०] भगवान् गौतमे 'भगवन्! एम कही श्रमण भगवान् महावीरने बंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कर्दा-ए प्रमाणे गपामी क्या गया- खरेखर देवानुप्रिय एवा आपना अन्तेवासी पूर्वदेशमा उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार जे प्रकृतिना भद्र हता, यावत्-विनीत हता, ते संबन्धे प्रश्नोत्तर. हे भगवन् ! ज्यारे तेने मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते मरीने क्यां गया, क्या उत्पन्न थया! [उ०] "ए प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूतिनामे अनगार प्रकृतिना भद्र यावत्-विनीत हता, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते ऊर्ध्वलोकमा चन्द्र अने सूर्यने, यावत्-ब्रह्म, लान्तक अने महाशुक्र कल्पने ओळंगी सहस्रार कल्पमां देवरूपे उत्पन्न थया. त्यां केटला एक देवोनी अढार सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्या सर्वानुभूति देवनी पण अढार सागरोपमनी ३५ * भग० ख० ३ श० १५ सू. ३ पृ. ३५०. भिग• खं० १ २० २ ३० ५ पृ. २८२. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्यामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३.९५ रस सागरोवमा ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सवाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता । से णं सवाणुभूती देवे ताओ देवलगाओ आउक्साएणं, ठिक्सरणं, जाय-महाविदेदे वाले सिज्झिद्दिति, जाय अंतं करेदिति । ३७. [प्र० ] एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवण सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव - विणीय, सेमं भंते! सदा णं गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेपणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किया कहि गए, का उपय [अ०] एवं खलु 'गोयमा ! ममं अंतेवासी सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दर जाव - विणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुतेगं तवेनं तेषणं परिताचिए समाणे जेणेव ममं अंतिर तेथेच उपागच्छर, ते० २ उबागच्छित्ता बंदति नमखति, वंदिता नमंसित्ता सयमेव पंच महवयाई आरुभेति, सयमेव० २ आरुभेत्ता समणा य समणीओ य खामेति, खामेत्ता आलोइय-पडिते समाहिपत्ते कालमासे का किया उद्धं चंदिम सूरिय० जाय आणय पाणया रणकये बीईपत्ता असुर कप्पे देवचार उपवने । तस्थ नं अत्येगतियाणं देवाणं वायीसं सागरोपमा ठिती पण्णत्ता तत्थ णं नक्त्तस्स वि देवरस बाबी सागरोपमाई, सेसं जदा सधाणुभूतिस्त्र, जाच अंतं काहिति । - - ३८. [प्र० ] एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुखिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से पं भंते! गोसाले मंलिपुले कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवन्ने ? [अ०] एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुसे समणपाय‍, जाव छउमत्ये चेव कालमासे का किया उहं बंदिम सूरिय० जाय-अधर कप्पे देवताप उपपन्ने । तत्य णं भरथेगवियाणं देवाणं यापीसं सागरोपमाई ठिती पक्षता । तत्थ णं गोसालस्स वि देवरस बावीसं सागरोवमा ठिती पन्नत्ता । ३९. [प्र०] से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खपणं ३ जाव-कहिं उववजिद्दिति ? [उ०] गोयमा ! इहेब जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे विंझगिरिषायमूले पुंडेसु जनवरसु सयदुवारे नगरे संमुतिस्स रनो मद्दार भारियाए कुच्हिसि पुरात्ताप पचायाहिति से गं तत्य नवहं मासानं बहुपटिपुन्नाणं जाव- धीतिकंताणं जाच सुरुचे दारण पयादिति । । स्थिति छे. ते सर्वानुभूति देव ते देवलोकी आयुपनो क्षय थवायी भने स्थितिनो क्षय थवाथी यावत्-महाविदेह क्षेत्रमां सिद्ध पशु, याच सपै दुःखोनो अन्त करशे. यावत् ए सुनक्षत्र अनगार काळ ३७. [प्र०] प्रमाणे खरेवर देवानुप्रिय एवा आफ्ना शिष्य कोशल देशमा उत्पन्न थयेला सुनक्षत्र नामे अनगार प्रकृतिना भद्र, यावत्-मिनीत दता, तेने ग्यारे मंत्रि गोशाखके तपना तेजधी परिताप उत्पन्न क्यों स्मारे ते मरणसमये काल करीने क्यों गया, क्यों की क्या गया है उत्पन्न थया? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे खरेखर मारो शिष्य सुनक्षत्र नामे अनगार प्रकृतिनो भद्र यावत्-विनीत हतो, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी परिताप उत्पन्न कर्यो त्यारे ते मारी पासे आव्यो, मारी पासे आवी वन्दन - नमस्कार करी खयमेव पांच महाव्रतोनो उच्चार करी श्रमण अने श्रमणीओने समावी, आलोचना अने प्रतिक्रमण बरी समाधिने प्राप्त पई मरणसमये काळ वरीने ऊर्ध्वं लोकमां चन्द्र ने सूर्य तथा पाद-आणत, प्राणत अने आरण कल्पने ओळंगी अच्युत देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाएक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. तेमां सुनक्षत्र देवनी पण बावीश सागरोपमनी स्थिति छे. बाकी वधुं सर्वानुभूति संबन्धे कां छे तेम आहिं जाण यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करवो. ३८. [प्र० ] प्रमाणे खरोखर देवानुप्रिय एवा आपनो अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक छे, ते मंखलिपुत्र गोशालक मरण समये काळ करीने क्या गयो, क्यां उत्पन्न थयो ? [उ०] ९ प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारो अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक जे श्रमणनो घातक अने यावत् छद्मस्थ हतो, ते मरणसमये काळ करीने ऊर्ध्वलोकमां चन्द्रं अने सूर्यने ओळंगी यावत्- अच्युत कल्पने विषे देवपणे उत्पन्न भयो. मां केटला एक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही है, खां गोशालक देवनी पण बाबीश सागरोपमनी स्थिति छे. व्यवी क्यां जशे १ ३९. [१०] से गोशालक देव ते देवलोकी आयुपना क्षय वाणी यावत्यां उत्पन्न भयो [30] हे गौतम! आ जंबू- गोशालक देवलोक द्वीनामे द्वीपमा भरत क्षेत्रने विषे विन्ध्याचल पर्वतनी तळेटीमां पुंडूनामे देशने विषे शतद्वारनामे नगरमां संमुति ( सन्मूर्ति ) नामे राजाने भद्रा नामे भार्यानी कुक्षिने विषे पुत्ररूपे उत्पन्न थशे. ते त्यां नव मारा बरोबर पूर्ण थया बाद अने साडा सात दिवस वीत्या पछी यावत् सुन्दर वाळवले जन्म आपशे. गोशाकक काळ करी क्या गयो ? / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५. ४०. जं रयणि च णं से दारए जाइहिति, तं रयणि च णं सयदुवारे नगरे सभितरवाहिरिए भारग्गसो य कुंमग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति । तए णं तम्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीतिकंते जानसंपत्ते बारसाहदिवसे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेजं काहिति-'जम्हा णं अहं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि सयदुवारे नगरे सभितरबाहिरिए जाव-रयणवासे खुढे, तं होउ णं आई इमस्स दारगस्स नामधेजं महापउमे महा०' २ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेजं करेहिंति 'महापउमे'त्ति । तए णं तं महापउमं दारगं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुतंसि मया २ रायाभिसेगेणं अभिसिंचेहिति । से गं तत्थ राया भविस्सति, महयाहिमवंत० वन्नओ, जाव-विहरिस्सई । तए णं तस्स महापउमस्स रनो अन्नदा कदायि दो देवा महडिया जाव-महेसक्खा सेणाकम्मं काहिति । तंजहा-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य । तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर-तलवर० जाव-सत्थवाहप्पभिईओ अन्नमन्नं सहावेहिति, अ० २ सहावेत्ता एवं वदेहिति-'जम्हा णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रनो दो देवा महड्डिया जाव-सेणाकम्मं करेंति, तंजहा-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रनो दोश्च पि नामधेजे 'देवसेणे दे०१२ । तए णं तस्स महापउमस्स रनो दोचे वि नामधेजे भवि. स्सति 'देवसेणे ति २। ४१. तए णं तस्स देवसेणस्स रन्नो अन्नया कयाइ सेते संखतलविमलसन्निगासे चउहते हत्थिरयणे समुप्पजिस्सा । तए णं से देवसेणे राया तं सेयं संखतलविमलसन्निगासं चउइंतं हत्थिरयणं दूरूढे समाणे सयदुवारं नगरं मझमझेणं अभिक्खणं २ अभिजाहिति, निजाहिति य । तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर० जाव-पभिईओ अन्नमन्नं सहावेहिति, अ० २ सद्दावेत्ता वदेहिति-जम्हा णं देवाणुप्पिया | अम्हं देवसेणस्स रन्नो सेते संखतलसन्निकासे चउहते हत्थिरयणे समुप्पन्ने, तं होउ देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रनो तच्चे वि नामधेजे 'विमलवाहणे वि०२। तए णं तस्स देवसेणस्स रनो तचे वि नामधेजे 'विमलवाहणे'त्ति । ४२. तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदायि समणेहिं निग्गंधेहि मिच्छं विप्पडिवजिहिति, अप्पेगतिए आउसेहिति, अप्पेगतिए अवहसिहिति, अप्पेगतिए निच्छोडेहिति, अप्पेगतिए निभत्थेहिति, अप्पेगतिए बंधेहिति, अप्पेगतिए णिरु महापच अने वेवसेन नाम पाडवा कारण. महापध. देवसेन. ४०. जे रात्रिने विषे ते बाळकनो जन्म थशे, ते रात्रिने विषे शतद्वार नामे नगरमा अंदर अने बहार अनेक *भारप्रमाण अने अनेक कुंभप्रमाण वृष्टिरूप पद्मनी वृष्टि अने रत्ननी वृष्टि थशे. ते वखते ते बाळकना मात-पिता अगीयारमो दिवस वीत्या पछी बारमे दिवसे आवा प्रकारचें गुणयुक्त अने गुणनिष्पन्न नाम करशे-“जे हेतुथी अमारा आ बाळकनो जन्म थयो एटले शतद्वार नगरने विषे बाह्य अने अंदर यावत्-रत्ननी वृष्टि थई, ते माटे अमारा आ बाळकनुं नाम 'महापद्म' २ हो." स्यार पछी ते बाळकना मात-पिता 'महापद्म' एवं नाम पाडशे. त्यार पछी ते महापद्म बाळकने मातापिता कइंक अधिक आठ वर्षनो थयेलो जाणीने सारा तिथि, करण, दिवस नक्षत्र भने मुहूर्तने विषे अत्यन्त मोटा राज्याभिषेकवडे अभिषेक करशे. हवे ते राजा थशे, ते महाहिमवान् आदि पर्वतनी जेम बलवाळो थशे-इत्यादि वर्णन जाणवं, यावत्-ते विहरशे. हवे अन्य कोई दिवसे ते महापद्म राजानुं महर्द्धिक यावत्-महासुखवाळा बे देवो सेनाकर्म करशे. ते देवोना नाम आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्र. त्यार पछी शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ, युवराजा, तलवर, यावत्-सार्थवाह प्रमुख परस्पर बोलावीने ए प्रमाणे कहेशे के-हे देवानुप्रियो ! 'जे हेतुथी अमारा महापद्म राजानुं बे महर्द्धिक देवो यावत् सेनाकर्म करे छे, ते देवोना नाम आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्र, ते माटे हे देवानुप्रियो! अमारा महापद्म राजानुं बीजुं नाम 'देवसेन' २ हो, ते वखते ते महापद्म राजानुं 'देवसेन' एवं बीजु नाम थशे. ४१. त्यार बाद ते देवसेन राजाने अन्य कोई दिवसे श्वेत, निर्मल शंखना तळीयासमान अने चार दन्तवाळं हस्तिरन उत्पन्न थशे, त्यारे ते देवसेन राजा श्वेत, निर्मल शंखना तळसमान अने चार दन्तवाळा हस्तिरत्न उपर चढीने शतद्वार नगरना मध्यभागमा थईने वारंवार जशे अने नीकळशे. ते वखते शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ, युवराजा यावत्-सार्थवाह प्रमुख एक बीजाने बोलावशे, बोलावीने कहेशे के 'हे देवानुप्रियो! जेथी अमारा देवसेन राजाने श्वेत, निर्मल शंखतळना जेवो अने चार दांतवाळो उत्तम हस्ती उत्पन्न थयो छे, ते माटे हे देवानुप्रियो! अमारा देवसेन राजानुं त्रीजु नाम 'विमलवाहन' हो. त्यारे ते देवसेन राजा 'विमलवाहन' एबुं त्रीजु नाम पडशे. . ४२. त्यार बाद ते विमलवाहन राजा अन्य कोइ दिवसे श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मिथ्यात्व-अनार्यपणुं आचरशे, केटलाएक श्रमण निम्रन्थोनो आक्रोश करशे, केटलाएकनी हांसी करशे, केटला एकने जूदा पाडशे, केटलाएकनी निर्भर्त्सना करशे, केटलाएकने बांधशे, विमझवाइन नाम ४.* वीश पल अथवा सो पलने भार कहे छे, अने सात आढक प्रमाण, एशी आढक प्रमाण भने सो बाढक प्रमाण मानने जघन्य, मध्यम भने उत्कृष्ट कुंभ कहे छे. . Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, भेहिति, अप्पेगतियाणं छविच्छेदं करेहिति, अप्पेगतिए पमारेहिति, अप्पेगतियाणं उद्दवेहिति, अप्पेगतियाणं वत्थं, पडिग्गह, कंबलं, पायपुंछणं आच्छिदिहिति, विच्छिदिहिति, मिदिहिति, अवहरिहिति, अप्पेगतियाणं भत्तपाणं वोच्छिदिहिति, अप्पेगतिए णिनगरे करेहिति, अप्पेगतिए निविसए करेहिति । तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर० जाव-वदिहिति-एवं खल देवाणुप्पिया! विमलवाहणे राया समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ने अप्पेगतिए आउस्सति, जाव-निधिसए कारेति, तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयं अहं सेयं, नो खलु पयं विमलवाहणस्स रन्नो सेयं, नो खलु पयं रजस्स वा रटुस्स वा बलस्स चा वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स वा सेयं, जण्णं विमलवाहणे राया समणहि निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ने, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं विमलवाहणं रायं एयमटुं विनवित्तए, तिकट्ट अन्नमन्नस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति, अ० २ पडिसुणित्ता जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं विमल. वाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धाति, ज० २ वद्धावेत्ता एवं वदिहिंति-एवं खलु देवाणुप्पिया समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ना अप्पेगतिए आउस्संति, जाव-अप्पेगतिए निविसए करेंति, तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाणं सेयं, नो खलु पयं अम्हं सेयं, नो खलु एवं रजस्स वा जाव-जणवयस्त वा सेयं, जंगं देवाणुप्पिया! समयहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवाना, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया! एअस्स अट्ठस्स अकरणयाए । ४३. तए णं से विमलवाहणे राया तेहिं बहूहिं राईसर० जाव-सत्थवाहप्पभिई हिं एयमटुं विनत्ते समाणे 'नो धम्मोत्ति 'नो तवोत्ति मिच्छा विणएणं एयमद्रं पडिसुणेहि (हिति । तस्स णं सयदुवारस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमागे पत्थ णं सुभूमिभागे नाम उजाणे भविस्सइ । सवोउय. वन्नओ । तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउप्पए सुमंगले नाम अणगारे जाइसंपन्ने० जहा धम्मघोसस्स वन्नओ, जाव-संखित्तविउलतेयलेस्से, तिनाणोवगए, सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं जाव-आयावेमाणे विहरिस्सति । ...४४. तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदायि रहचरियं काउं निजाहिति । तए णं से विमलवाहणे राया सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं छटुंछट्टेणं जाव-आयावेमाणं पासिहिति । पासित्ता केटलाएकने रोकशे, केटलाएकना अवयवोनो छेद करशे, केटलाएकने मारशे, केटलाएकने उपद्रव करशे, केटलाएकना वस्त्र, पात्र, विमलवाहन राजा, कांबल अने पादपुच्छन छेदशे, विशेष छेदशे, भेदशे, अपहरण करशे; केटलाएकना भात-पाणीनो विच्छेद करशे, केटलाएकने नगरथी अ साये मनार्यपणाt बहार काढशे अने केटलाएकने देशथी बहार काढशे. ते समये शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ अने युवराजाओ यावत् परस्पर-- भाचरण, कहेशे के 'हे देवानुप्रियो! ए प्रमाणे खरेखर विमलवाहन राजाए श्रमण निम्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्यु छे, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढे छे, ते माटे हे देवानुप्रियो। ए आपणने श्रेयरूप नथी, आ विमलवाहन राजाने श्रेयरूप नथी, तेमज आ राज्यने, आ राष्ट्रने, बलने, वाहनने, पुरने, अन्तःपुरने के देशने श्रेयरूप नथी के जे विमलवाहन राजाए श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्यु छे. ते माटे हे देवानुप्रियो! आपणे विमलवाहन राजाने आ वात जणाववी योग्य छे.'-एम विचारी एक बीजानी पासे आ वातनो स्वीकार करे छे, स्वीकार करीने ज्यां विमलवाहन राजा छे त्यां आवेछे, त्यां आवीने करतल परिगृहीत करीनेहाथ जोडीने विमलवाहन राजाने जय अने विजयथी वधावेछे. वधावीने एम कहेशे के हे देवानुप्रिय! आप श्रमण निम्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणाने आचरता केटलाएकनो आक्रोश करो छो, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढो छो, ते देवानुप्रिय एवा आपनें श्रेयरूप नथी, ए अमने पण श्रेयरूप नथी, तेमज आ राज्यने, यावत्-देशने श्रेयरूप नथी के जे देवानुप्रिय एवा आप श्रमण निम्रन्थोनी साथे मिथ्यात्व-अनार्यपणुं आचरो छे, ते माटे हे देवानुप्रिय ! आप नहि करवा वडे आ कार्यथी बन्ध पडो'. ४३. ज्यारे ते घणा मांडलिक राजाओ, युवराजाओ यावत्-सार्थवाहप्रमुख आ बाबत विनति करशे त्यारे ते विमलवाहन राजा धर्म नथी, तप नथी----एवी बुद्धिथी मिथ्या विनय बडे आ वात कबूल करशे. हवे ते शतद्वार नगरनी बहार उत्तर-पूर्व दिशाए अहिं सुभूमिभाग नामे उद्यान हशे. ते सर्व ऋतुना पुष्पादिकयुक्त-इत्यादि वर्णन जाणवं. ते काले ते समये विमलनामे तीर्थकरना प्रपौत्र-शिष्य परंपरामां थयेला सुमंगल नामे अनगार हशे. ते जातिसंपन्न-इत्यादि "धर्मघोष अनगारना वर्णन प्रमाणे वर्णन करवू, यावत्-संक्षिप्त अने सुमंगल ममगार विपुल तेजोलेश्यावाळा, त्रण ज्ञान वडे सहित ते सुमंगल नामे अनगार सुभूमिभाग नामे उद्यानथी थोडे दूर निरन्तर छट्ठनो तप करवावडे यावत्-आतापना लेता विहरशे. ४४. हवे ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे रथचर्या करवा निकळशे त्यारे सुभूमिभाग नामे उद्यानथी थोडे दूर रथचर्या करतो ते विमलवाहन राजा निरंतर छट्टनो तप करता यावत्-आतापना लेता सुमंगल अनगारने जोशे. जोइने कोपाविष्ट थयेलो यावत् ४३ ' भग• खं०३ श.११ उ.११ पृ. २४५. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५० आसुपत्ते जाव-मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं णोलावेहिति । तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रजो रहसिरेणं नोल्लाविए.समाणे सणियं २ उद्धेहिति, उद्वेत्ता दोचं पि उर्दु बाहाओ पगिज्झिय २ जाव-आयाघमाणे बिहरिस्सति । तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोषं पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति । तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणे रना दोचं पि रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे सणियं २ उठेहिति, उद्वेत्ता ओहि पउंजेहिति, ओ०२ पउंजित्ता विमलवाहणस्स रण्णो तीतद्धं ओहिणा आभोएहिति, आभोएत्ता विमलवाहणं रायं एवं वाहिति-'नो खलु तुमं विमलवाहणे राया, नो खल तुमं देवसेणे राया, नो खलु तुमं महापउमे राया, तुमण्णं इओ तचे भवग्गहणे गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था, समणघायए, जाघ-छउमत्थे चेव कालगए, तं जति ते तदा सवाणुभूतिणा अणगारेणं पभुणा वि होऊणं सम्म सहियं, खमियं, तितिक्खियं, महियासियं, जइ ते तदा सुनक्खत्तेणं अणगारेणं जाव-अहियासियं, जइ ते तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभुणा वि जाव-अहियासियं, तं नो खलु ते अहं तहा सम्म सहिस्सं, जाव-अहियासिस्सं, अहं ते नवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहवं भासरासिं करेजामि । ४५. तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव-मिसिमिसेमाणे सुमंगलं मणगारं तचं पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति । तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तथं पि रहसिरेणं नोलाविए समाणे आसुरुत्ते जाव-मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पञ्चोरुभइ, आ० २ पचोरुभित्ता तेयासमुग्धारणं समोहन्निहिति, तेया० २ समोहणित्ता सत्तट्ट पयाई पञ्चोसकिहिति, सत्तट्ट० २ पञ्चोसक्कित्ता विमलवाहणं रायं सहयं सरई ससारहियं तवेणं तेएणं जाव-भासरासिं करेहिति । ४६. [प्र०] सुमंगले णं भंते! अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव-भासरासिं करेत्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? [उ०] गोयमा! सुमंगले अणगारे णं विमलवाहणं रायं सहयं जाव-भासरासिं करता बहूहिं छ?-टुम-दसम-दुवालस० जाव-विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणेहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताई अणसणाए जाव-छेदेत्ता आलोइय-पडिकंते समाहिपत्ते उहुं चंदिम० जाव-गेविजविमाणावाससयं वीयी विमवायन हम- क्रोधथी अत्यन्त बळतो एवो ते राजा रथना अग्रभाग वडे सुमंगल अनगारने अभिघात करी पाडी नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा रथना ग मगार पर . अग्रभागवडे ते सुमंगल अनगारने पाडी नांखशे त्यारे ते सुमंगल अनगार धीमे धीमे उठशे, उठीने बीजीवार ऊंचा हाथ करी करीने आरवचछायी तेने. पावी नामशे. तापना लेता विहरशे; त्यारे ते विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने बीजीवार रथना अग्रभागवडे अभिघात करी पाडी नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने बीजीवार रथना अग्रभागवडे अभिघात करी पाडी नांखशे त्यारे ते सुमंगल अनगार धीमे धीमे उठशे, उठीने अवधिज्ञान प्रयुंजशे, अवधिज्ञान प्रयुजीने विमलवाहन राजाने अतीतकाळे अवधिज्ञान वडे जोशे, जोईने विमलवाहन राजाने एम कहेशे-“तुं खरेखर विमलवाहन राजा नथी, तुं खरेखर देवसेन राजा नधी, तुं खरेखर महापद्म राजा नथी, तुं आ भवथी त्रीजा भवर्मा मंखलिपुत्र गोशालकनामे हतो, अने श्रमणनो घात करनार तुं छद्मस्थावस्थामां काळधर्म पाम्यो हतो, जो के ते वखते सर्वानुभूति अनगारे समर्थ छतां पण तारो अपराध सम्यक् प्रकारे सहन कर्यो, तेनी क्षमा करी, तितिक्षा करी अने तेने अध्यासित कर्यो; जो के ते वखते सुनक्षत्र अनगारे पण यावत्-अध्यासित-सहन कर्यो, जो के ते समये श्रमण भगवान् महावीरे समर्थ छतां पण यावत्-सहन कों, परन्तु खरेखर हुं ते प्रमाणे सम्यक् सहन नहिं करुं, यावत्-अध्यासिश नहि, हुं घोडा, रथ अने सारथिसहित तने मारा तपना तेजथी एकघाए कूटाघात-पाषाणमय यंत्रना आघातनी जेम भस्मराशिरूप करीश." सुर्मगठबनगार निमळवाइनने तप. ना तेजधी मम करशे. ४५. ज्यारे ते सुमंगल अनगारे ए प्रमाणे कर्तुं त्यारे अत्यन्त गुस्से थयेलो भने यावत्-अत्यन्त क्रोधथी बळतो ते विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने त्रीजी वार पण रथना अग्रभाग बडे अभिघात करी पाडी नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा रथना अप्रभागवडे त्रीजीवार ते सुमंगल अनगारने अभिघात करी पाडी नांखशे त्यारे अत्यंत गुस्से थयेला अने यावत्-क्रोधथी बळता एवा ते सुमंगल अनगार आतापना भूमिथी उतरी तैजस समुद्घात करशे, तैजस समुद्घात करीने, सात आठ पगलां पाछा जइ घोडा, रथ अने सारथिसहित विमलवाहन राजाने भस्मराशिरूप करशे. धर्मग ममगार काळ करी क्या ४६. [प्र०] हे भगवन् ! सुमंगल अनगार घोडासहित, यावत्-विमलवाहन राजाने भस्मराशिरूप करीने [काळ करी] क्या जशे, क्या उत्पन्न थशे ! [उ०] हे गोतम ! सुमंगल अनगार विमलवाहन राजाने घोडासहित यावत्-भस्मराशिरूप करीने घणा प्रकारना छट्ठ, अट्ठम, दशम (चार उपवास), द्वादश भक्त (पांच उपवास) यावत्-विचित्र तपकर्म वडे आत्माने भावित करता घणा वरस सुधी श्रमणपणाना पर्यायने पाळशे. पाळीने मासिक संलेखना वडे साठ भक्त अनशनपणे वीतावीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ऊy . Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३९९ सिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति । तत्थ णं देवाणं अजहन्नमणुक्को सेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिवी पन्नत्ता । सत्य णं सुमंगलस्स वि देवस्स अजहन्नमणुको सेणं तेतीसं सागरोपमाई ठिती पत्ता से णं भंते! सुमंगले देवे ताओ देवள் छोगाओ जाव-महाविदेहे वासे सिसिदिति जायतं कादिति । शतक १५. 1 ४७. [प्र० ] विमलवाहणे णं भंते! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहए जाव-भासरासीकए समाणे कहिं गच्छिहिति, का उपयखिहिति ? [४०] गोयमा ! चिमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव भासरासीकर समाणे आहेससमार पुढची उद्योसकालरियंसि नरयंसि नेरहयताए उपवजिहिति से णं ततो अनंतरं उच्ठट्टित्ता मच्छेसु उपवजिदिति । तस्य विणं सत्थव दाहवकंतीय कालमासे कालं किया दोघं पि आहेसत्तमार पुरवीर कोसकालद्वतीयंसि नरसिनेरइयत्ता उववजिहिति । से णं तओऽणंतरं उच्चट्टित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववजिद्दिति । तत्थ वि णं सत्थवंज्झे जावकिया छट्टीए तमाए पुढवीप उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओहिंतो जाव - उट्टित्ता इत्थियासु उपजिदिति । तत्थ विणं सत्यवज्ये दाह० जाव दोघं पिछट्टीए तमार पुढची उफोसकाल० जाव उच्चट्टित्ता दो पित्थिषासु उपजिहिति । तत्थ वि णं सत्यवाये जाय किया पंचमार धूमप्यभार पुढची उफोसफाल० जाव-उच्चट्टित्ता उरपसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाब- किच्या दोघं पि पंचमाए जाव-उवट्टित्ता दोघं पि उरपसु उववजिहिति, जाव- किश्वा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीप उक्कोसकालद्वितीयंसि जाव- उच्चट्टित्ता सीहेसु उववजिहिति । तत्थ चिणं सत्यवज्ले तहेव जाय किया दो पि चत्थी पंक० जाव उग्रहिता दोघं पि सीदेसु उपजिहिति, जाब विचा तचाप वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल० जाव - उष्घट्टित्ता पक्खीसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्झे जाव-किया दोघं पि तथा वालुय जांच उचट्टित्ता दोघं पि पक्सी उबवजिहिति, जाव- किच्चा दोचार सकरप्पभाए जाय - उच्चट्टित्ता सिरीसवेसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थ० जाव- किच्चा दोच्चं पि दोच्चाए सक्करप्पभाए जाव-उघट्टित्ता दोघं पि सिरीसवेसु उपजिहिति, जाव किया इमीसे रवणप्यभार पुढवीर कोसकालद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उपवजिहिति । जाब-उच्चहिता सण्णी उपजिहिति । तत्थ विणं सत्यवज्झे जाप किया असभी उचचविहिति । तत्थ विणं सत्यवज्शे जाबलोकमां चन्द्र अने सूर्य, यावत् सो मैवेयक विमानावासने ओळंगी सर्वार्थसिद्ध महाविमानमा देवपणे उपजशे त्वां देवोनी जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्यां सुमंगल देवनी पण जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति शे. ते सुमंगल देव ते देवलोकधी यावत् भवना क्षय थवाची महाविदेह क्षेत्रमां सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करशे. - पछी वर्षा ? ४७. [प्र० ] हे भगवन्। ज्यारे सुमंगल अनगार घोडासहित मिलवाहन राजाने यावत्-भस्मराशिरूप करशे यार बाद ते क्यों मन जशे, क्या उत्पन्न थशे ! [उ०] हे गौतम! सुमंगल अनगारे घोडासहित यावत् भस्मराशिरूप कर्षा पछी ते विमलवाहन राजा अब सप्तम पृथिवीमा उत्कृष्ट वाळनी स्थितियाळा नरकले विषे नारकपणे उत्पन्न पशे. त्यांची व्यवीने तुरत मत्स्योने विषे उत्पन्न थशे. त्यां पण शवदे व पवावी दाहनी पीडावडे मरणसमये काळ करीने बीजीवार पण असलम नरकपृथिवीमां उष्टस्थितिवाला नरकापासने विषे नारकपणे उत्पन्न शे. त्यांची अन्तररहितपणे ध्यानी बीजीयार पण मत्स्योयां उत्पन्न थशे. स्वां पण शस्त्रवडे यच धनाश्री यावत्काळ करीने छट्ठी तमा नामे नरकपृथिवीमां उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकमां नैरयिकपणे उत्पन्न थशे. त्यांथी नीकळी तुरतज स्त्रीने विषे उत्पन्न थशे. त्यां पण शस्त्रद्वारा बध थतां दाहनी पीठाची यावत्-बीजीचार छुट्टी तमा पृथिवीमां उत्कृष्ट वाळनी स्थितिवाळा नरकमां नारकपणे उत्पन्न थशे. यावत्त्वांची नीकळीने बीजीवार पण श्रीओमां उत्पन्न थशे. त्यां पण शस्त्रवडे यध पपाथी यावत्काळ करीने पांचमी धूमप्रभाने विषे उत्कृष्ट काळनी स्थितियाळा नरकायासम यावत् उत्पन्न थशे. त्यांची नीकळीने उरः परिसर्पमां अपन थशे. त्यां पण शस्त्रवडे वध धनाथी काळ करीने बीजीवार पांचमी नरकपृथिवीमां उत्पन्न थइ, त्यांथी नीकळी यावत्-बीजीवार उरः परिसर्पोमा उत्पन्न पशे. त्यांची यावत्काळ पतीने चोपी पंकप्रभा पृथिवीमां उत्कृष्ट काळनी स्थितियाला नरकने विषे नारकपणे उत्पन्न थइ, यावत् यांची नोकळी सिंहोमां उत्पन्न पशे, त्यां पण शखवडे बघ धचाची ते प्रमाणेन यावत्काळ शस्त्रवडे करीने बीजीवार चोपी पंकप्रभामा उत्पन्न पई, यावत् त्यांची नीकळी बीजीवार सिंहोगां उत्पन्न पशे, त्यांची यावत्काळ करीने त्रीजी प्रभामा उत्कृष्टकानी स्थितियाळा नरकावासमा उत्पन्न घई, सांधी नकली पक्षीओमा उत्पन्न पशे. त्यां पण दाखवडे य यवायी यावत्काळ करी बीजीयार त्रीजी बालुकाप्रभामां उत्पन्न थई यावत् खांधी नीकली बीजीवार पक्षीओमा उत्पन्न पशे. याचत् काळ करी त्यांथी बीजी शर्कराप्रभामां उत्पन्न थई, यावत्- त्यांथी नीकळी सरीसृप ( शीकारी पशुओ ) ने विषे उपजशे. त्यां शस्त्रवडे वध पंचाची यावत्काळ करी बीजीवार शर्कराप्रमाने विषे यावत् उत्पन्न थशे अने त्यांची नौकळी बीजीवार सरीसृपां उत्पन्न थशे. यावत्काळ करीने आ रत्नप्रभा पृथिवीने विषे उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थशे. यावत् - त्यांची नीकळीने संज्ञीने विषे उपजशे. त्यां पण शस्त्रवडे वध थवाथी यावत्- काळ करीने असंज्ञीमां उत्पन्न थशे. त्यांपण शस्त्रवडे वध थतां यावत्काळ करीने बीजीचार पण आरतप्रभाविचीमा पत्योपमना असंख्याता भागी खिति नरकायासमा नारकपणे उत्पन्न पशे. हवेलांची याद - - : Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १५. किच्चा दोच्चं पि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखेजइभागद्वितीयंसि गरगंसि नेइयत्ताए उववजिहिति । से णं तओ जाव-उष्वट्टित्ता जाइं इमाई खयरविहाणाई भवंति, तं जहा-चम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, विययपक्खीणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता २ तत्थेव २ भुजो २ पञ्चायाहिति । सम्वत्थ वि णं सत्थवजो दायकंतीए कालमासे कालं किया जाइं इमाई भुयपरिसप्पविहाणाई भवंति, तंजहा-गोहाणं, नउलाणं, जहा पन्नवणापए जाव-जाहगाणे, चउप्पाइयाणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो सेसं जहा खहचराणं, जाव-किच्चा जाई इमाई उरपरिसप्पविहाणाई मवंति, तंजहा-अहीणं, अयगराणं, आसालियाणं, महोरगाणं, तेसु अणेगसयसह० जाव-किच्चा जाई इमाई चउप्पदविहाणाई भवंति, तंजहा-एगखुराणं, दुखुराणं, गंडीपदाणं, सणहपदाणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जाव-किच्चा जाई इमाई जलयरविहाणाई भवंति,तं जहा-मच्छाणं, कच्छभाणं, जाव-सुसुमाराणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जाव-किच्चा जाई इमाई चरिदियविहाणाएं भवंति, तं जहा-अंधियाणं, पोत्तियाणं, जहा पन्नवणापदे, जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसय० जाव-किचा जाई इमाई तेइंदियविहाणाएं भवंति, तंजहा-उवचियाणं, जाव-हत्थिसोंडाणं, तेसु अणेग० जाव-किच्चा जाई इमाई वेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा-पुलाकिमियाणं, जाव-समुहलिक्खाणं, तेसु अणेगसय० जाव-किच्चा जाइं इमाई वणस्सइविहाणाई भवंति, तंजहा-रुक्खाणं, गुच्छाणं, जाव-कुहणाणं, तेसु अणेगसय० जाव-पच्चायाइस्सइ । उस्सन्नं च णं कडुयरुक्खेसु, कडुयवल्लीसु, सवत्थ वि णं सत्थवज्ञ. जाव-किच्चा जाइं इमाई वाउकाइयविहाणाई भवंति, तंजहा-पाईणवायाणं, जाव-सुद्धवायाणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जापकिचा जाई इमाई तेउकाइयविहाणाई भवंति, तंजहा-इंगालाणं, जाव-सूरकंतमणिनिस्सियाणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जावकिच्चा जाई इमाई आउक्काइयविहाणाई भवंति, तंजहा-उस्साणं, जाव-खातोदगाणं, तेसु अणेगसय० जाव-पञ्चायातिस्सइ । उस्सणं च णं खारोदएसु, खातोदपसु; सवत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव-किच्चा जाई इमाई पुढविकाइयविहाणाई भवंति, तंजहापुढवीणं, सकराणं, जाव-सूरकताणं, तेसु अणेगसय० जाव-पञ्चायाहिति, उस्सन्नं च णं खरबायरपुढविकाइएसु, सवत्थ विणं सत्थवज्झे जाव-किच्चा-रायगिहे नगरे बाहिं खरियत्ताए उववजिहिइ । तत्थ वि णं सत्यवझे जाव-किच्चा दुचं पि रायगिहे नगरे अंतो खरियत्ताए उववजिहिति । तत्थ विणं सत्थवज्झे जाव-किया इहव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमूले नीकळीने जे खेचरना भेदो छे, ते आ प्रमाणे-चर्मपक्षीओ (चामडानी पांखवाळा ), लोमपक्षीओ (पिंछानी पाखवाळा ), समुद्गकपक्षीओ जेनी सर्वदा उडता पण पांखो बीडायेल होय ते ] अने वितत पक्षीओमा [जेनी हमेशां विस्तारेली पांख होय तेमां ] अनेक लाख वार मरण पामी पामीने त्यां वारंवार उत्पन्न थशे. सर्वत्र शस्त्रवध थवाथी दाहनी उत्पत्तिवडे मरणसमये काळ करी जे आ भुजपरिसर्पना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-घो, नोळीआ-इत्यादि प्रज्ञापना सूत्रना 'प्रथम प्रज्ञापना पदने विषे कह्यु छे ते प्रमाणे जाणवं, यावत्-जाहक अने चउप्पाइअ जीवोमां अनेक लाखबार मरण पामी पुनः त्यां वारंवार उत्पन्न थशे. बाकी बधुं खेचरनी पेठे जाणवू. यावत्-काळ करी जे आ उरःपरिसर्पना मेदो होय छे, ते आ प्रमाणे-साप, अजगर, आशालिका अने महोरग; तेमां अनेक लाखवार मरण पामी यावत्-काळ करी जे आ चतुष्पदना भेदो होय छे; ते आ प्रमाणे-१ एकखरीवाळा, २ बेखरीवाळा, ३ गंडीपद अने ४ नखसहित पगवाळा, तेमां अनेक लाखवार उत्पन्न थशे, त्यांथी यावत्-काळ करी जे आ जलचरना भेदो होय छे, ते आ. प्रमाणे-कच्छप (काचबा), यावत्-सुसुमार, तेओमां अनेक लाखवार उपजशे, यावत्-काळ करी जे आ चउरिन्द्रिय जीवोना भेदो छे, ते आ प्रमाणेअंधिक, पौत्रिक-इत्यादि-जेम प्रज्ञापनासूत्रना प्रथम प्रज्ञापनापदमां कह्या प्रमाणे यावत्-गोमयकीडाओमां अनेक लाखबार उपजशे. त्यां उत्पन्न थई काळ करी जे आ तेइन्द्रिय जीवोना भेदो छे, ते आ प्रमाणे-उपचित, यावत्-हस्तिशौंड, तेओमा उत्पन्न थइ यावत्-. काळ करी जे आ बेइन्द्रियोना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-पुलाकृमि यावत्-समुद्रलिक्षा, तेओमां अनेक लाखवार उपजशे. उपजी यावत्काळ करी जे आ वनस्पतिना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-वृक्षो, गुच्छक, यावत्-कुहुना, तेओमां अनेक लाखवार मरण पामी उत्पन्न यशे. विशेषे करीने कटुक वृक्षोमा अने कटुक वेलीमां उपजशे, अने सर्व स्थळे शस्त्रवडे वध थवाथी यावत्-काळ करीने जे आ वायुकायिकना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-पूर्वनो वायु, यावत्-शुद्ध वायु, तेमां अनेक लाखवार उत्पन्न थशे. यावत्-काळ करी जे आ तेउकायिकना भेदो छे, ते आ प्रमाणे-अंगारा, यावत्-सूर्यकान्तमणि निश्रित अग्नि, तेमां अनेक लाखबार उत्पन्न थशे. उत्पन्न यई जे आ अप्कायिकना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-अवश्याय-झाकळनु पाणी, यावत्-खाईनुं पाणी; तेमां अनेक लक्षवार यावत् उत्पन्न थशे. बहुधा खारा पाणीमा अने खाईना पाणीमा उत्पन्न थशे; अने सर्वस्थळे शस्त्रवडे वध थवाथी यावत्-काळ करीने जे आ पृथिवीकायिकना मेदो छे, ते आ प्रमाणेपृथिवी, शर्करा-कांकरा, यावत्-सूर्यकान्तमणि, तेओमां अनेक लाखवार उत्पन्न थशे. विशेषतः खरबादरपृथिवीकायिकने विषे, सर्वत्र शस्त्रवडे वध थवाने लीघे यावत्-काळ करीने राजगृह नगरनी बाहेर वेश्यापणे उत्पन्न थशे. त्या पण शस्त्रवडे वध पता यावत्-काळ ४७* प्रज्ञापनासूत्रमा उपर कहेलो पाठ मळतो नथी, पण तने बदले भावो पाठ मळे ठे-“से कि तं भुयपरिसप्पा ! भूयपरिसप्पा अणेगविता पचत्ता, तंजद्दा-न उला, सेहा, सरढा, सल्ला, सरठा, सारा, खोरा, घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पयलाइया, छीरविरालिया, जहा चउप्पाइमा, जे यावने तदप्पगारा।" प्रज्ञा० १५.११.४६. प्रज्ञा• प०१५.४३-२. प्रज्ञा. प. १५०४२-२. . Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. घेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पञ्चायाहिति । तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जोधणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलहस्सति । सा णं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा, कंता, जाव-अणुमया, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरीउओ विव सुसारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, जांच-परिस्सहोवसग्गा फुसंतु । तएणं सा दारिया अन्नदा कदायि गुधिणी ससुरकुलाओ कुलघर निजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु अग्गिकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति । ४८. से णं ततोहिंतो अणंतरं उघट्टित्ता माणुस्सं विग्गहँ लभिहिति, माणुस्सं २ लभित्ता केवलं घोहिं बुझिहिति, के० २ बुज्झित्ता मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पपइहिति । तत्थ वि यणं विराहियसामने कालमासे कालं किश्चा दाहिणिलेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओहिंतो जाव- उच्चट्टित्ता माणुसं विग्गहं तं चेव जावनत्य वि णं विराहियसामन्ने कालमासे जाव-किच्चा दाहिणिल्लेसु नागकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओहितो अणंतरं० एवं एएणं अभिलावेणं दाहिणिलेसु सुवनकुमारेसु, एवं विजुकुमारेसु, एवं अग्गिकुमारवजं जाव-दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु, से णं तओ जाव-उष्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । जाव-विराहियसामने जोइसिएम देवेसु उववजिहिति । से णं तओ अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । जाव-अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति । से गं तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता माणस्सं विग्गहं लभिहिति, केवलं बोहिं बज्झिहिति. तत्थविणं अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओ चहत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । तत्थ वि णं अविराहियसामने कालमासे कालं किच्चा सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओहितो एवं जहा सणंकुमारे तहा बंभलोए, महासुक्के, आणए, आरणे । से णं तओ जाव-अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किञ्चा सचट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई भवंति-अड्डाई जाव-अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति । एवं जहा उववाइए दृढप्पइन्नवत्तष्षया सभेव वत्तवया निरवसेसा भाणियधा, जाव-केवलवरनाणदसणे समुप्पजिहिति । पामश्वे. करी.बीजीवार राजगृह नगरनी अंदर वेश्यापणे उत्पन्न थशे. त्यां पण शस्त्रवडे बंध थवाथी यावत्-काळ करीने आज जंबूद्वीपमा भारत. वर्षने विषे विन्ध्याचलपर्वतनी पासे विभेल नामे गाममां ब्राह्मणकुलने विषे पुत्रीपणे उत्पन्न थशे. ते पुत्री ज्यारे बाल्यभावनो त्याग करी धौवनने प्राप्त थशे त्या तेना मातापिता उचित द्रव्य अने उचित विनयवडे योग्य भर्ताने भार्यापणे आपशे. ते पुत्री तेनी स्त्री थशे. ते इष्ट, कान्त, यावत्-अनुमत, घरेणाना करंडीया जेवी, तेलनी कुल्लीनी पेठे अत्यंत सुरक्षित, वस्त्रनी पेटीनी पेठे सारी रीते (निरुपद्रव स्थाने) राखेली अने रत्नना करंडीयानी पेठे सारी रीते रक्षण करायेली हशे. ते शीत, उष्ण, यावत्-परिषह अने उपद्रवो न स्पर्शे माटे अत्यंत संगोपित--रक्षण करायेली हशे. हवे अन्य कोई दिवसे ते ब्राह्मणपुत्री गर्भिणी थशे, अने श्वसुरगृहथी पीयेर जतां रस्तामा दवाग्निनी ज्वालाघडे बळी मरणसमये काळ करी दक्षिणदिशाना अग्निकुमार देवोमां देवपणे उत्पन्न थशे. ४८. त्यांथी अन्तररहितपणे च्यवीने मनुष्यना देहने धारण करी मात्र बोधि-सम्यग्दर्शन पामशे. केवळ सम्यग्दर्शन पामी मुंड थई हवे त्याची व्यवी गृहवासनो त्याग करी अनगारिता-दीक्षा ग्रहण करशे. त्यां पण श्रामण्य दीक्षाने विराधी दक्षिण दिशाना असुरकुमार देवोमां देवपणे उत्पन्न । मनुष्यदेह धारण करी सम्यग्दर्शन थशे. त्यार पछी ते त्यांथी यावत्-नीकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करी-इत्यादि पूर्वोक्त कहेवू, यावत्-स्यां पण श्रमणपणुं विराधी मरणसमये काळ करी दक्षिण निकायना नागकुमार देवोमां देवपणे उत्पन्न थशे. हवे ते त्यां अन्तररहितपणे च्यवी-इत्यादि ए पाठ वडे दक्षिण निकायना सुवर्णकुमारने विषे, ए प्रमाणे विद्युत्कुमारने विषे, एम यावत्-अग्निकुमार सिवाय दक्षिण निकायना स्तनित कुमारने विषे उत्पन्न थशे. यावत्-ते त्याथी निकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करशे, यावत्-श्रमणपणुं विराधी ज्योतिषिक देवमा उत्पन्न थशे. हवे ते त्यांथी अन्तररहितपणे च्यवीने पुनः मनुष्यशरीर प्राप्त करशे, यावत्-श्रमणपणुं विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करी सौधर्म देवलोकने विषे देवपणे उत्पन्न थशे. ते त्यांथी अन्तररहित च्यवीने मनुष्यशरीर प्राप्त करशे, अने केवळ सम्यग्दर्शननो अनुभव करशे. त्या पण श्रमणपणुं विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करी ईशानदेवलोकमां देवपणे उत्पन्न थशे. त्यांथी च्यवी मनुष्यशरीर प्राप्त करशे. त्यां पण श्रमणपणुं विराध्या शिवाय मरणसमये काळ करी सनत्कुमार देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थशे. त्यांथी च्यवी जेम सनत्कुमारने विषे कयुं तेम ब्रह्मदेवलोक, महाशुक्र, आनत अने आरण देवलोकने विषे जाणवू. हवे ते त्यांथी च्यवी यावत्-श्रमणपणाने विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करीने सर्वार्थसिद्ध महाविमानने विषे देवपणे उत्पन्न थशे. त्यांथी अन्तररहित व्यवी महाविदेहक्षेत्रने विषे जे आ आवा प्रकारना धनिक, यावत्-कोइथी पराभव नहि पामे तेवां कुलो छे, तेवा कुलोमा पुत्ररूपे उत्पन्न थशे. ए प्रमाणे जेम *औपपातिकसूत्रने विषे दृढप्रतिज्ञनी वक्तव्यता कही छे ते सघळी वक्तव्यता अहिं कहेवी, यावत्-तेने उत्तम केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थशे. केवलशान-दर्शन ४८ * औप०प० ९८-१ थी ५५-१. उत्पन्न थशे. ५१ भ. सू० Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक 15. 49. तए णं से ढप्पइन्ने केवली अप्पणो तीअद्धं आभोपहिइ, अप्प० 2 आमोइत्ता समणे निग्गथे सहावेहिति, सम० 2 सहावेत्ता एवं वदिहिह-एवं खलु अहं अजो! इओ चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नामं मंस्खलिपुत्ते होत्था, समणघायए-जाव छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अजो! अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिए, तं मा णं अजो! तुम्भं केयि भवतु आयरियपडिणीयए, उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए, अवघ्न कारए, अकित्तिकारए, मा णं से वि एवं चेव अणादीयं, अणवदग्गं, जाव-संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति जहा णं अहं / तए णं ते समणा निग्गंथा दढप्पइनस्स केवलिस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म भीया, तत्था, तसिया संसारभउधिग्गा दढप्पइन्नं केवलिं वंदिहिंति, नमंसिहिति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोइएहिंति, निदिहिंति, जाव-पडिवजिहिति / तए णं से दढप्पइन्ने केवली बहूई वासाई केवलपरियागं पाउणिहिति, बहूहिं० 2 पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं जाणेत्ता भ पञ्चक्खाहिति, एवं जहा उववाइए जाव-सम्पदुक्खाणमंतं काहिति / 'सेवं भंते! सेवं भंते ति जाव-विहरड् / तेयनिसग्गो समत्तो। समत्तं पन्नरसमं सयं / दृदप्रतिश केवली प. णा वरसमुधी चारित्र 'पाळी मोक्षे जशे. 49. त्यार बाद ते दृढप्रतिज्ञ केवली पोतानो अतीत काळ जोशे, जोईने श्रमण निम्रन्थोने बोलावशे, बोलावीने ए प्रमाणे कहेशे'हे आर्यो! ए प्रमाणे खरेखर आजथी घणां काळ पहेला हुं मंखलिपुत्र गोशालक नामे हतो; अने हुं श्रमणोनो घात करी यावत्-छास्थावस्थामां काळधर्म पाम्यो. हे आर्यो ! ते निमित्ते हुँ अनादि, अनन्त अने दीर्घमार्गवाळा चारगतिरूप संसाराटवीमा भम्यो. ते माटे तमे कोई आचार्यना प्रत्यनीक-द्वेषी न थशो, उपाध्यायना प्रत्यनीक न थशो, आचार्य अने उपाध्यायना अयश करनारा, अवर्णवाद करनारा अने अकीर्ति करनारा न थशो, अने ए प्रमाणे मारी पेठे अनादि, अनन्त यावत्-संसाराटवीमां न भमशो. त्यार पछी ते श्रमण निर्ग्रन्थो दृढप्रतिज्ञ केवलीनी पासे ए वात सांभळी, अवधारी भय पामी, त्रस्त थई, त्रास पामी अने संसारना भयथी उद्विग्न थई दृढप्रतिज्ञ केवलीने वंदन करशे, नमस्कार करशे, वंदन-नमस्कार करी ते पापस्थानकनी आलोचना अने निन्दा करशे, यावत्-चारित्रनो स्वीकार करशे. त्यार पछी दृढप्रतिज्ञ केवली घणा वर्ष पर्यन्त केवलपर्यायने पाळी पोतानुं आयुष थोडं बाकी जाणीने भक्त प्रत्याख्यान करशे, ए प्रमाणे *औपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही [भगवान् गौतम ] यावत्-विहरे छे. तेजोनिसर्ग समाप्त. पंचदश शतक समाप्त. 49 * औप. प. 99-1. .