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________________ १५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३२. ३९. [प्र०] दो भंते ! देवा देवपवेसणएणं० पुच्छा । [उ०] गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा, वाणमंतर-जोइसियवेमाणिएसु वा होजा। अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होजा, एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियो, जाव असंखेज त्ति । ४०. [प्र०] उक्कोसा भंते ! पुच्छा । [उ०] गंगेया! सवे वि ताव जोइसिएसु होजा, अहवा जोइसिय-भवणवासीसु य होजा, अहवा जोइसिय- वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिय-वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य य वाणमंतरेसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा, अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा। ४१. [प्र०] एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स, वाणमंतरदेवपवेसणगस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे कयरे-जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गंगेया! सवत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवणवासिदेवपवेसए असंखेजगुणे, वाणमंतरदेवपवेसणए असंखेजगुणे, जोइसियदेवपवेसणए संखेजगुणे। ४२. [प्र०] एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणिय मणुस्स० देवपवेसणगस्स य कयरे कयरे- जाव विसेसाहिए वा ? [उ०] गंगेया! सवत्थोवे मणुस्सपवेसणए, नेरइयपवेसणए असंखेजगुणे, देवपवेसणए असंखेजगुणे, तिरिक्खजोणियप्पवेसणए असंखेजगुणे । ४३. प्र०] संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उववजंति, संतरं असुरकुमारा उववजंति निरंतरं असुरकुमारा उववजंति, जाव संतरं वेमाणिया उववजंति निरंतरं वेमाणिया उववजंति, संतरं नेरइया उच्चट्टति निरंतरं नेरतिया उच्चदंति, जाव संतरं वाणमंतरा उच्चटुंति निरंतरं वाणमंतरा उच्चदंति, सांतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति, सांतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति ? [उ०] गंगेया! संतरं पि नेरइया उववजंति निरंतरं पि नेरतिया उववजंति, जाव संतरं पि थणियकुमारा उववजंति निरंतरं पि थणियकुमारा उववजंति; नो संतरं पुढविक्काइया उववजंति निरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरदया, जाव संतरं पिवेमाणिया उववजंति निरंतरं ३९. [प्र०] हे भगवन् ! वे देवो देवप्रवेशनकवडे प्रवेश करता-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गांगेय ! ते वे देवो १ भवनवासिमां होय, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिष्क अने ४ वैमानिकमां पण होय. अथवा एक भवनवासिमां होय अने एक वानव्यंतरमा होय. ए प्रमाणे. जेम तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक कयुं छे तेम देवप्रवेशनक पण यावद् असंख्याता देवो सुधी जाणवू. ४०. [प्र०] हे भगवन् ! देवो उत्कृष्टपणे [कया प्रवेशनकमा होय ? -इत्यादि प्रश्न. उ०] हे गांगेय ! ते बधा ज्योतिषिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क अने भवनवासिमां होय. अथवा ज्योतिष्क अने वानव्यतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क अने वैमानिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी अने वानव्यंतरमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी अने वैमानिकमां होय. अथवा ज्योतिष्क, वानव्यंतर अने वैमानिकमा होय. अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी, वानव्यंतर अने वैमानिकमा होय. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! भवनवासिदेवप्रवेशनक, वानव्यंतरदेवप्रवेशनक, ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक अने वैमानिकदेवप्रवेशनकमा कयु प्रवेशनक कया प्रवेशनकथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय ! वैमानिकदेवप्रवेशनक सौथी अल्प छे, तेना करतां असंख्येयगुण भवनवासिदेवप्रवेशनक छे, तेथी असंख्येयगुण वानव्यंतरदेवप्रवेशनक छे, अने तेनाथी ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक संख्यातगुण छे. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनक, तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशनक अने देवप्रवेशनकमां कयुं प्रवेशनक कया प्रवेशनकथी यावद् विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गांगेय ! सौथी अल्प मनुष्यप्रवेशनक छे, तेथी नैरयिकप्रवेशनक असंख्यात गुण छे, तेना करता असंख्यातगुण देवप्रवेशनक छे अने तेनाथी असंख्यातगुण तिर्यंचयोनिकप्रवेशनक छे. उत्पाद अने उद्वर्तना. ४३. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको सान्तर (अन्तरसहित) उत्पन्न थाय छे के निरंतर ( अन्तररहित ) उत्पन्न थाय छे ! असुरकुमारो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? यावत् वैमानिक देवो सान्तर उत्पन्न थाय छे के निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? नैरयिको सान्तर उद्वर्ते छे-नीकळे छे के निरन्तर उद्वर्ते छे ? यावत् वानव्यंतरो सांतर उद्वर्ते छे के निरन्तर उद्वर्ते छे ? ज्योतिष्को सान्तर घ्यवे छे के निरन्तर च्यवे छे ? अने वैमानिको सान्तर च्यवे छे के निरन्तर च्यवे छे ? [उ०] हे गांगेय ! नैरयिको सान्तर उत्पन्न थाय छे अने निरन्तर पण उत्पन्न थाय छे. यावत् स्तनितकुमारो सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. पृथिवीकायिको सान्तर उत्पन्न थता नथी पण निरन्तर उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे यावत् वनरपतिकायिको पण निरन्तर उत्पन्न थाय छे. तथा बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर घे देवो. उत्कृष्टदेवप्रवेशनक. देवप्रवेशनकर्नु अल्पबहुत्व. सर्व प्रवेशनकर्नु अल्पबहुत्व. नैरयिकोनी 'सान्तर अने निरन्तर उत्पाद भने उद्वर्तना. .१ सांतरं सर्वत्र क। २ उवव९ति सर्वत्र घ, क्वचित् क; 'उबट्टति' कपुस्तके वहशः पाठः समुपलभ्यते । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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