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शतक ९.-उद्देशक ३२.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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पि वेमाणिया उववजंति; संतरं पि नेपया उवदंति निरंतरं पि नेरइया उच्चद॒ति, एवं जाव थणियकुमारा । नो संतरं पुढविकाइया उच्चद्दति निरंतरं पुढविकाइया उबटुंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलायो, जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति निरंतरं पि वेमाणियां चयंति।
४४. [H०] सेतो भंते ! णेरइया उववजंति, असतो भंते ! नेरइया उववजंति ? [उ०] गंगेया! सतो नेरइया उपवजंति, नो असतो नेत्या उववजंति; एवं जाव माणिया।
४५. प्र०] सतो भंते! नेरइया उबटुंति, असतो नेरइया उबटुंति [उ०] गंगेया! सतो नेपया उच्चति, नो असतो नेरहया उधति; एवं जाव वेमाणिया, नवरं जोइसिय-चेमाणिएसु चयंति भाणियचं ।
४६. [प्र०] सओ भंते ! नेरइया उववजंति, असतो भंते नेपया उववजंति; सतो असुरकुमारा उववजंति, जाव सतो वेमाणिया उववजंति, असतो वेमाणिया उववजंति; सतो नेरतिया उच्चदंति, असतो नेरइया उबदंति; सतो असुरकुमारा उच्चटुंति, जाव सतो वेमाणिया चयंति, असतो वेमाणिया चयंति ? [उ०] गंगेया! सतो नेरइया उववजंति, नो असओ नेरइया उववजंति; सओ असुरकुमारा उववजंति, नो असतो असुरकुमारा उववजंति; जाव सओ वेमाणिया उववजंति, नो असतो वेमाणिआ उववजंति; सतो नेरतिया उबटुंति, नो असतो नेरतिया उच्चट्टति; जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयति। [H०] से केणटेणं भंते ! एवं घुश्चति-सतो नेरतिया उववजंति, नो असतो नेपया उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति ! [उ०] से शृणं गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवयग्गे, जहा पंचमसए, जाव 'जे लोकह से लोए', से तेणटेणं गंगेया! एवं वुच्चर-जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो येमाणिया चयंति ।।
४७. [३०] सयं भंते ! एवं जाणह, उदाहु असयं, असोचा पते एवं जाणह, उदाहु सोचा; 'सतो नेरहया उववजंति, नो असतो नेरइया उववजंति; जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति' ? [उ०] गंगेया! सयं एते एवं अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. यावद् वैमानिको पण सान्तर अने निरन्तर उत्पन्न थाय छे. नैरयिको. सान्तर अने निरन्तर उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावद् स्तनितकुमारो जाणवा. पृथिवीकायिको सान्तर उद्वर्तता नथी पण निरन्तर उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे यावद् वनस्पतिकायिको पण जाणवा. बाकीना बधा जीवो नैरयिकोनी पेठे सान्तर अने निरन्तर उद्वर्ते छे. पण विशेष ए छे के ज्योतिषिको अने वैमानिको च्यवे छे' एम पाठ कहेवो. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सान्तर अने निरन्तर च्यवे छे. ४४. [प्र०] हे भगवन् ! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे के असद्-अविद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे! [उ०] हे विद्यमान नैरयिको
उत्पन्न वाय गांगेय ! सद्-विद्यमान नैरयिको उत्पन्न थाय छे, पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिक पर्यन्त जाणवू.
के भविषमान! ४५. [प्र०] हे भगवन् ! विद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छे के अविद्यमान नैरयिको उद्वर्ते छे ? [उ०] हे गांगेय ! विद्यमान नैरयिको उद्वर्ते सद् नैरयिको छे पण अविद्यमान नैरयिको उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावद् वैमानिको सुधी जाणवं. विशेष ए छे के ज्योतिष्क अने वैमानिकोमा च्यवे छे' उदत छे के असद् । एवो पाठ कहेवो.
४६. [प्र०] हे भगवन् ! सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे के असद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे ? सद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे के सद् नैरपिकादिना असद् असुरकुमारो उत्पन्न थाय छे ? ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे के असद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे ! सद नैरयिको ना
संबन्धे प्रश्न उद्वर्ते छे के असद् नैरयिको उद्वर्ते छे ? सद् असुरकुमारो उद्वर्ते छे के असद् असुरकुमारो उद्वर्ते छे ! ए प्रमाणे यावत् सद् वैमानिको च्यवे छे के असद् वैमानिको च्यवे छे ? [उ०] हे गांगेय ! सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. सद् असुरकुमारे उत्पन्न थाय छे पण असद् असुरकुमारो उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमानिको उत्पन्न थाय छे पण असद् वैमानिको उत्पन्न थता नथी. सद् नैरयिको उद्वर्ते छे पण असद् नैरयिको उद्वर्तता नथी. यावद् सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी. [प्र०] सद् नैरयिकादिना हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी. ए प्रमाणे यावद् सद् वैमा
उत्पाद भने उदनिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी ? हे भगवन् ! शुं ते निश्चित छे ! [उ०] हे गांगेय ! खरेखर पुरुषादानीय अर्हत् श्रीपा
र्श्वनाथे "लोकने शाश्वत, अनादि अने अनन्त कह्यो छे-" इत्यादि 'पांचमा शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवं. यावत् जे अवलोकी शकायजाणी शकाय ते लोक, ते हेतुथी हे गांगेय ! एम कर्दा छे के, सद् वैमानिको च्यवे छे पण असद् वैमानिको च्यवता नथी.
४७. [प्र०] हे भगवन् ! आप स्वयं आ प्रमाणे जाणो छो, के अवयं जाणो छो! सांभळ्या शिवाय ए प्रमाणे जाणो माप स्वयं जाणो छो छो अथवा सांभळीने जाणो छो के. 'सद् नैरयिको उत्पन्न थाय छे पण असद् नैरयिको उत्पन्न थता नथी, यावत् सद्
के अस्वयं जाणो छो
१संतो क-घ, जो ङ। २ प्रणाइए ङ। ४६ * भग. सं. २ श. ५ उ. पृ. २४९.
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