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शतक ९.-उद्देशक ३१. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
१३३ १८. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि संठाणे होजा? [उ०] गोयमा! छण्हं संठाणाणं अन्नयरे संठाणे होजा। १९. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होजा ? [उ०] गोयमा! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए
होजा।
२०. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि आउए होजा ? [उ०] गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुष्चकोडीआउए होजा।
२१. [प्र०] से णं भंते ! किं सवेदए होजा, अवेदए होज्जा ? [उ०] गोयमा ! सवेदए होजा, नो अवेदए होजा।
२२. [प्र०] जइ सवेदए होजा किं इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेदए होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए होजा; नपुंसगवेदए होजा? [उ०] गोयमा! नो इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेदए वा होजा, नो नपुंसगवेदए होजा, पुरिस-नपुंसगवेदए वा होजा।
२३. [प्र०] से णं भंते ! किं सकसाई होजा अकसाई होजा ? [उ०] गोयमा ! सकसाई होजा, नो अकसाई होजा ।
२४. [प्र०] जइ सकसाई होजा से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? [उ०] गोयमा ! चउसु संजलणकोह-माण-मायालोभेसु होजा।
२५. [प्र०] तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा पण्णत्ता । २६. [प्र०] ते णं भंते ! किं पसत्था, अप्पसत्था ? [उ०] गोयमा ! पसत्था, नो अप्पसत्था ।
२७. से णं भंते ! तेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वढमाणेहिं अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय-जाव विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएड: जाओ विय से इमाओ नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ, तासिं च णं उवग्ग
संसान.
बायुए
कपाप.
१८. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया संस्थानमा होय ! [उ०] हे गौतम! तेने छ संस्थानमांनु कोइ पण एक संस्थान होय.
१९. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटली उंचाइवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी सात हाथ अने उत्कृष्टथी पांचसो धनु- उचाइ. पनी उंचाइवाळो होय.
- २०. [प्र०] हे भगवन् ! ते केटला आयुषवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! ते जघन्यथी कांइक वधारे आठ वर्ष, अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटिआयुषवाळो होय.
२१. [प्र०] हे भगवन् ! शुंते वेदसहित होय के वेदरहित होय ! [उ०] हे गौतम ! ते वेदसहित होय पण वेदरहित न होय.
२२. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते वेदसहित होय तो शुं १ स्त्रीवेदवाळो होय, २ पुरुषवेदवाळो होय, ३ नपुंसकवेदवाळो होय पुरुषवेदादि. के ४'पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय ? [उ०] हे गौतम! स्त्रीवेदवाळो न होय, पण पुरुषवेदवाळो होय; नपुंसकवेदवाळो न होय, पण पुरुषनपुंसकवेदवाळो होय.
२३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते (अवधिज्ञानी) सकषायी होय के अकषायी होय ? [उ०] हे गौतम! ते सकषायी होय, पण कषायरहित न होय.
२४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते कषायवाळो होय तो तेने केटला कषायो होय ! [उ०] हे गौतम ! तेने संज्वलनक्रोध, मान, संज्वप्नक्रोधादि. माया अने लोभ-ए चार कषाय होय. २५. [प्र०] हे भगवन् ! तेने केटला अध्यवसायो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! तेने असंख्याता अध्यवसायो कह्यां छे.
पथ्यवसायो. २६. [प्र०] हे भगवन् ! ते अध्यवसायो प्रशस्त होय के अप्रशस्त होय ? [उ०] हे गौतम ! प्रशस्त अध्यवसायो होय, पण अप्र- प्रशस्त अध्यवसाय. शस्त न होय.
२७. [प्र०] हे भगवन् ! ते (अवधिज्ञानी) वृद्धि पामता प्रशस्त अध्यवसायोवडे अनंत नारकना भवोथी पोताना आत्माने विमुक्त नारक, तिर्यंच, देव करे, अनंत तिर्यंचोना भवोथी आत्माने विमुक्त करे, अनंत मनुष्यभवोथी आत्माने विमुक्त करे, अने अनंत देवभवोथी आत्माने विमुक्त करे. . तथा तेनी जे आ नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति अने देवगति नामे चार उत्तर प्रकृतिओ छे, तेनी अने बीजी प्रकृतिओना आधारभूत अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करीने अप्रत्याख्यान कषायरूप क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय अनन्तानुवंध्यादिकरे, क्षय करीने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभनो क्षय करे, तेनो क्षय करी संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोमनो कषायनो क्षय.
वट्टमाणेहिं घ। २१. * लिंगनां छेद करवा वगेरेथी नपुंसक बयेलो अर्थात् कृत्रिम नपुंसक धयेलो होय ते पुरुषनपुंसक कहेवाय छे-टीका.
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