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१३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ९.-उद्देशक ३१. ११. तस्स णं भंते ! छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पंगतिभद्दयाए, पैगइउवसंतयाए, पगतिपयणुकोह-माण-माया-लोभयाए, मिउमदवसंपन्नयाए, अल्लीणयाए, भद्दयाए, विणीययाए, अन्नया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-ऽपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विन्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पजद, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं असंखेजाई जोयणसहस्साइं जाणइ, पासइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे, सारंभे, सपरिग्गहे, संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्झइ, सम्मत्तं पडिवजित्ता समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरितं पडिवजति, चरित्तं पडिवजित्ता लिंगं पडिवजइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपजवेहि परिहायमाणेहि परिहायमाणेहिं सम्मदसणपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं परिवड्डमाणेहिं से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तह।
१२. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा? [उ०] गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होजा, तं जहा-तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए ।
१३. [प्र०] से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा? [उ०] गोयमा ! तिसु आभिणियोहियनाण-सुयणाण-ओहिनाणेसु होजा।
१४. [प्र०] से णं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा? [उ०] गोयमा! सजोगी होजा, नो अजोगी होजा।
१५. [प्र०] जइ सजोगी होजा, किं मणजोगी होजा, वइजोगी होजा, कायजोगी होजा? [उ०] गोयमा ! मणजोगी वा होजा, वइजोगी वा होजा, कायजोगी वा होजा।।
१६. [प्र०] से णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते वा होजा? [उ०] गोयमा! सागारोवउत्ते वा होजा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा।
१७. [प्र०] से णं भंते ! कयरम्मि संघयणे होज्जा ? [उ०] गोयमा ! वइरोसहनारायसंघयणे होजा।
त्ति
केवलिप्रमुखना
११. ते जीवने निरंतर छट्ठ छट्ठना तप करवापूर्वक सूर्यनी सामे उंचा हाथ राखी राखीने आतापना भूमिमां आतापना लेता, वचनने सांभळ्या प्रकृतिना भद्रपणाथी, प्रकृतिना उपशांतपणाथी, खभावथी क्रोध, मान, माया अने लोभ घणा ओछा थयेला होवाथी, अत्यंत मार्दव-नम्रताने शिवाय सम्पमत्वादि ।
कने स्वीकारे. प्राप्त थयेला होवाथी, आलीनपणाथी, भद्रपणाथी अने विनीतपणाथी अन्य कोइ दिवसे शुभ अध्यवसायवडे, शुभ परिणामवडे, विशुद्ध, विभंगशाननी उत्प- लेश्याओवडे तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मोना क्षयोपशमथी, ईहा, अपोह, मार्गणा अने गवेषणा करता विभंग नामे अज्ञान उत्पन्न
थाय छे. ते उत्पन्न थएल विभंगज्ञान बड़े जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट असंख्येय हजार योजनोने जाणे छे अने जुए
छे; उत्पन्न थएला विभंगज्ञान वडे ते जीवोने पण जाणे छे अने अजीवोने पण जाणे छे; पाखंडी, आरंभवाळा, परिग्रहवाळा अने संक्लेशने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति प्राप्त थयेला जीवोने पण जाणे छे अने विशुद्ध जीवोने पण जाणे छे; ते विभंगज्ञानी पहेलांज सम्यक्त्वने प्राप्त करे छे; प्राप्त करी श्रमणचारित्रनो स्वीकार. धर्म उपर रुचि करे छे, रुचि करी चारित्रने स्वीकारे छे. चारित्रने स्वीकारी लिंगवेषने खीकारे छे; पछी ते विभंगज्ञानिना मिथ्यात्वपर्यायो अधिशाननी क्षीण थता थता अने सम्यग्दर्शन पर्यायो वधता वधता ते विभंग अज्ञान सम्यक्त्व युक्त थाय छे, अने शीघ्र अवधिरूपे परावर्तन पामे छे. उत्पत्ति वेश्या- ___१२. [प्र०] हे भगवन् ! ते अवधिज्ञानी जीव केटली लेश्याओमां होय ? [उ० ] हे गौतम ! त्रण विशुद्ध लेश्याओमा होय. ते आ
प्रमाणे-तेजोलेश्या, पद्मलेझ्या अने शुक्ललेझ्या.
१३. [प्र०] हे भगवन् ! ते [अवधिज्ञानी ] जीव केटला ज्ञानोमां होय ? [उ०] हे गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान-ए त्रण ज्ञानोमां होय.
१४. [प्र०] हे भगवन् ! ते [ अवधिज्ञानी ] सयोगी (मनोयोगादिसहित) होय के अयोगी होय ! [उ०] हे गौतम ! ते सयोगी
होय पण अयोगी न होय. मनयोगी-इत्यादि. . १५. [x०] हे भगवन् ! जो ते सयोगी होय तो शुं मनयोगी होय, वचनयोगी होय के काययोगी होय ? [उ०] हे गौतम !
ते मनयोगी होय, वचनयोगी होय अने काययोगी पण होय. उपयोग. १६. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते साकार-ज्ञानउपयोगवाळो होय के अनाकार-दर्शनउपयोगवाळो होय ! [उ०] हे गौतम ! ते
साकारउपयोगवाळो पण होय अने अनाकारउपयोगवाळो पण होय. संघयण.
१७. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया संघयणमा होय ! [उ०] हे गौतम | ते वज्रऋषभनाराचसंघयणवाळो होय.
1-मिते क, मित ख।
पगती-क-ख। ३ पगई-क-ख।
मछीवण-। ५ लेसासु क-ख।
-जोगी वा छ।
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