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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ८.-उद्देशक २. १०. [प्र०] से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा य पुछामेव कालं करेजा, से णं भंते! किं आराहए, विराहए उ०] गोयमा! आराहए, नो विराहए ।
११. [प्र०] से य संपट्टिए, संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? [उ०] गोयमा ! आराहए, नो विराहए । से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य०-एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियचा जहेव असंपत्तेणं ।
१२. प्र०] निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्सणं एवं भवति-इहेव ताव अहं०-एवं पत्थ वि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियवा; जाव नो विराहए । निग्गंथेण य गामाणुगाम दुइजमाणेणं अन्नयरे अकिञ्चट्टाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं०, एत्थ वि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियचा, जाव नो विराहए।
१३. [प्र०] निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, जाव तवोकम्म पडिवजामि, तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि, जाव पडिवजिस्सामि । सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणी य अमुहा सिया; साणं भंते! किं आराहिया, विराहिया? उ० गोयमा! आराहिया, नो विराहिया । सा य संपट्रिया जहा निग्गंथस्स तिन्नि गमा भणिया एवं निग्गंधीए वितिनि आलावगा भाणियवा, जाव आराहिया, नो विराहिया।
१४. [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-आराहए, नो विराहए? [उ०] गोयमा ! से जहा नामए के पुरिसे एगं महं उन्नालोमं वा, गयलोमं वा, सणलोमं वा, कप्पासलोमं वा, तणसूर्य वा दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खियेजा, से गृणं गोयमा! छिजमाणे छिन्ने, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, डज्झमाणे दहेत्ति वत्तवं सिया? हंता भगवं! छिजमाणे छिन्ने, जाव दहृत्ति वत्तवं सिया । से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा, धोतं वा, तंतुग्गयं वा मंजिट्ठा
निम्रन्थ काल करे.
संप्राप्त निन्थना चार माछापक
१०. [प्र०] हवे स्थविरोनी पासे जवा निकळेलो ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे पहोंच्या पहेला पोते काळ करी जाय तो हे भगवन् ! शुं ते आराधक छे के विराधक छे ! [उ०] हे गौतम ! ते निम्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (४)
११. प्र०] ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने पहोंचता वार ते स्थविरो मूक थई जाय, तो हे भगवन् ! शुं ते निम्रन्थ आराधक छे के विराधक छे! [उ०] हे गौतम ! ते निर्ग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. हवे ते निम्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंचता वार ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो शुं ते निम्रन्थ आराधक छे के विराधक छे!-इत्यादि संप्राप्त (पहोंचेला) निम्रन्थना चार आलापक असंप्राप्त (नहि पहोंचेला ) निर्ग्रन्थनी पेठे कहेवा.
निहारभूमि के विवा- १२. कोई निम्रन्थे बहार निहारभूमि के विहारभूमि तरफ जतां कोइ एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्य होय, पछी तेने एम थाय रभूमि तरफ जता.
" के 'हुं प्रथम अही तेनु आलोचनादि करूं'-इत्यादि पूर्वनी पेठे अहीं पण तेज आठ आलापक कहेवा, यावत् ते निग्रंथ विराधक नथी.
ही ग्रामानुग्राम विहार निम्रन्थे प्रामानुग्रामविहार करतां कोई एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्यु होय, पछी तेने एम थाय के, हुं प्रथम तेनुं आलोचनादि करूंकरता.
इत्यादि पूर्ववत् अहीं पण तेज आठ आलापक कहेवा, यावत् 'ते निग्रंथ विराधक नथी.' बाराधक निर्मन्धी. १३. [अ०] कोई साध्वीए आहार ग्रहण करवाना इरादाथी गृहपतिना घरे प्रवेश करता कोइ एक अकृत्यस्थान- प्रतिसेवन कर्य,
पछी तेने एम थाय के-हुं प्रथम आ अकृत्यस्थान- आलोचन करं, यावत् तप कर्मनो स्वीकार करुं. त्यार पछी प्रवर्तिनी (वृद्ध साध्वी )नी पासे आलोचना करीश, यावत् तप कर्मनो स्वीकार करीश, [ एम विचारी] ते साध्वी ते प्रवर्तिनीनी पासे जवा निकळे, अने त्यां पहोंच्या पहेला ते प्रवर्तिनी मुंगी थइ जाय, तो हे भगवन् । शं ते साध्वी आराधक छे के विराधक छे! [उ०] हे गौतम ! ते सा छे पण विराधक नथी, जेम निर्ग्रथने त्रण आलापको कह्या छे तेम 'ते साध्वी जवा नीकळे'-इत्यादि त्रण 'आलापको साध्वीने कहेवा. यावत् 'ते आराधक छे पण विराधक नथी.'
भाराधक शोपार्नु
कारण.
१४. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के तेओ आराधक छे पण विराधक नथी ! [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष एक मोटा ऊनना, गजना लोमना, शणना रेसाना, कपासना रेसाना, तृणना अग्रभागना , त्रण के संख्यात छेदककडा-करी तेने अग्निमां नाखे तो हे गौतम ! ते छेदातां छेदायेलं, अग्निमां नंखाता नंखायेलं, बळतां बळेलु एम कहेवाय ! हे भगवन् । हा, छेदाता छेदायेलं, यावद् बळतां बळेलु कहेवाय, अथवा कोइ पुरुष नवं, धोएलं के तन-साळथी तरत उतरेलु कपडु मजीठना रंगनी
वज्झना। २ जहानामए ।
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