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८.२.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
५१. [०] अभयसिद्धियाणं पुच्छा। [४०] गोषमा । जो नाणी, अन्नाची तिथि अाणारं भयणाए । ५७. [२०] नोमयसिद्धिया नोअनवसिद्धिया णं भंते! जीवा० १ [४०] जहा सिखा ।
५८. [प्र० ] सनीणं पुच्छा। [अ०] जहा सदिया । असनी जहा बेदिया। नोसन्नी नोअसन्नी जहा सिद्धा ।
५९. [२०] कतिविहाणं मंते ही पक्षता [ड०] गोयमा ! इसविदा लदी पण्णा जाणली, २ दंसणली, ३ चरिचलद्धी, ४ चरिताचरिचलद्धी, ५ दाणलखी, ६ लाभलद्धी, ७ भोगलद्धी, ८ उवभोगलखी, ९ वीरिपलबी, १० इंदियलद्धी ।
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६०. [ प्र० ] णाणली णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता १ [30] गोयमा ! पंचविद्या पण्णत्ता, तं जहा- आभिणियोहियणागली, जाव केवलणाणलद्धी ।
६१. [२०] अाणली णं भंते! कतिविदा पचता ? [४०] गोयमा ! तिविहा पद्मता, तं हा महमप्राणी, अनाणलद्धी, विभंगनाणलद्धी ।
६२. [प्र० ] दंसणली पं भंते! कतिविद्या पण्णत्ता [४०] गोयमा ! तिविदा पत्ता, तं जहा सम्मणी, मिच्छासणली, सम्मामिच्छासणी |
५६. [१०] हे भगवन् ! अभवसिद्धिक अभव्य जीवो हानी छे के अज्ञानी छे [३०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी नयी पण अज्ञानी छे, अने तेलोने ऋण अज्ञान भजनाए होय .
५७. [ प्र० ] हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीवो ज्ञानी छे के अशनी छे ! [उ०] हे गौतम! तेओ सिद्धोनी पेठे (सू० ३०.) जाणचा.
५८. [अ०] है भगवन्! संक्षिजीयो ज्ञानी है के अज्ञानी छे [४०] हे गौतम! तेओ सेन्द्रियनी पेठे (सू० ३५.) जाणचा. असंज्ञिजीवो बेइन्द्रियनी पेठे ( सू० २८.) जाणवा. नोसंज्ञि - नोअसंज्ञिजीवो सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा.
५९. [ प्र० ] हे भगवन् ! लब्धि केटला प्रकारे कही छे ! [उ० ] हे गौतम! "लब्धि दश प्रकारे कही छे, ते आ प्रमाणे- १ ज्ञानलम्भि २ दर्शनधि, ३ चारित्रलब्धि ४ चारित्राचारित्रलब्धि ५ दानसन्धि, ६ लाभलब्धि ७ भोगलम्बि ८ उपभोगलब्धि, ९ वीर्यसन्धि अने १० इन्द्रियन्धि.
६०. [ प्र० ] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ज्ञानलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि, यावत् केवलज्ञानलब्धि .
६१. [अ०] हे भगवन् ! अचानउम्पि. केटला प्रकारनी कही छे ! [उ०] हे गौतम! अज्ञानलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे - मतिअज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि अने विभंगज्ञानलब्धि.
६२. [प्र० ] हे भगवन् ! दर्शनलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [ उ० ] हे गौतम! दर्शनलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे - सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि अने सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि.
१ णाशुल- क ।
५९. * लब्धि-ते ते प्रतिबन्धक कर्मना क्षयादिकथीं आत्माने ज्ञानादिगुणनो लाभ थवो, तेना दश प्रकार छे - १ तथाविध ज्ञानावरण कर्मना क्षय के क्षयोपशमथी यथासंभव पांच प्रकारना ज्ञाननो लाभ थवो ते ज्ञानलब्धि. २ सम्यक्, मिश्र के मिध्याश्रद्धानरूप आत्मानो परिणाम ते दर्शनलब्धि. ३ चारित्रमोहनीय कर्मना क्षय, उपशम के क्षयोपशमथी थयेलो आत्मपरिणाम ते चारित्रलब्धि ४ अप्रत्याख्यानावरण कषायना क्षयोपशमथी थयेलो देशविरतिरूप आत्मपरिणाम ते चारित्राचारित्रलब्धि ९ अन्तराय कर्मना क्षय के क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेली दानादि ५ लब्धिओ. अहीं भोग अने उपभोगमां एटलो विशेष छे एकवार मात्र जेनो उपयोग थह शके एवा आहारादिने भोग कहेवाय छे अने वारंवार जेनो उपयोग यह शके एवा वस्त्र-भवनादि पदार्थने उपभोग कहेवाय . १० मतिज्ञानावरणकर्मना क्षयोपशमथी प्राप्त थयेल भावेन्द्रियोनो तथा एकेन्द्रियादि जातिनामकर्म अने पर्याप्तनामकर्मना उदयथी द्रव्येन्द्रियोनो लाभ बवो ते इन्द्रियलब्धि. - टीका.
२१ मध्यात्यमोहनकर्ममा उपशम, क्षय के क्षयोपशमची पए अदानरूप कामपरियम से सम्बन्धि १ अशुद्ध मिलना मेदनी थएस विपर्यासरूप श्रीवपरिणाम ते मिथ्यादर्शनमन्त्रि बने ३ वर्ष विशुद्ध मिग्याल दुगना पेनची उत्पन्नमएस विरूप जीवपरिणाम दे सम्यगृमिभ्यादर्शनलब्धि.
९ भ० सू०
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धमपसिद्धित.
नो मवसिफि नोवमव सिटिक
संधिमीयो. वसंती पीवो. नोसंती नोवपी जीवो.
दिना प्रार
चानक व्यि
ज्ञानभि.
प
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