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पर्याप्त बेइन्द्रियादि.
नोपर्याप्त नोमपर्याप्त जीवो.
नियमवख
मिक्स
मनुष्य भवस्थ.
देवभवस्थ.
अभवस्थ.
अपर्याप्त मनुष्य.
४९. [प्र०) हे भगवन् ! अपर्याप्त मनुष्य शुं ज्ञानी होष से के अज्ञानी होय से [ उ० ] हे गौतम! तेओने त्रिण ज्ञान भजनार होय के अने अवश्य ने अज्ञान होय छे. नैरविकोनी पेठे (सू० ४७.) मानयंतराने जादु तथा अपर्याप्त ज्योतिषिको अने ज्योतिष भने वैमानिकोने त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान अवश्य होय .
वैमानिक.
नोपर्याप्त अने नोअपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] है गौतम ! तेओ सिद्धनी पेठे
भवसिद्धिरु.
श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे-
शतक ८. - उद्देशक. २०
४८. [प्र० ] बेदियाणं पुच्छा । [अ०] दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा । एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । ४९. [१०] अपनत्तगाणं भंते! मणुस्सा किं नाणी अशाणी ? [उ०] तिभि जाणारं भववार दो अन्नाणारं नियमा । वाणमंतरा जहा नेरइया । अपजत्तगाणं जोइसिय-वेमाणियाणं तिन्नि नाणा, तिनि अन्नाणा नियमा ।
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५०. [ प्र० ] नोपजत्तगा नोअपजत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? [उ०] जहा सिद्धा । ५१. [प्र० ] निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी १ [उ०] जहा निरयगतिया
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५२. [प्र० ] तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] तिनि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए ।
५३. [ प्र० ] मणुस्सभवत्था णं० १ [ उ०] जहा सकाइया ।
५४. [प्र० ] देवभवत्था णं भंते ! १ [अ०] जहा निरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा । ५५. [प्र० ] भवसिद्धियाणं भंते! जीवा किं नाणी० [१] [४०] जदा सकाइया ।
४८. [प्र० ] अपर्याप्त वेइन्द्रिय जीवो ज्ञानी छे के अज्ञानी ! [ उ०] तेओने #बे ज्ञान अने बे अज्ञान अवश्य होय छे. ए प्रमाणे यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक सुधी जाणवुं.
५०. [ प्र० ] हे भगवन् !
( सू० ३०.) जाणवा.
५१. [प्र० ] भगवन्! निरयभवस्थ जीवो धुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ० ] हे गौतम! तेओ निरयगतिकनी पेठे (सू० ३१.) जाणया.
५२. [प्र० ] भगवन् तिर्यग्भवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ०] दे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने प्रण अज्ञान
भजनाए छे.
५२. [२०] हे भगवन् ! मनुष्यभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [उ०] हे गौतम! तेओ सकायिकनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा.
५४. [प्र० ] हे भगवन्! देवभवस्थ जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी ! [अ०] हे गौतम! तेओ निरयमवस्थानी पेठे ( सू० ५१.) जाणवा. अभवस्थ - भवमां नहि रहेनारा [ शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओ ] सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा.
५५. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक- भव्य जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओ ||सकायिकनी पेठे (सू० ३८.) जाणवा.
४८. अपनेन्द्रियादिमांना कोकने सासादन सम्वन्दर्शननो संभव होवाची के दान भने बाकी ने अज्ञान होन के.
४९. सम्यग्दृष्टि मनुष्यने अपर्याप्तावस्थामां तीर्थंकरादिनी पेठे अवधिज्ञाननो संभव छे तेथी त्रण ज्ञान भजनाए होय छे, पण मिध्यादृष्टिने विभंग होतं बधी माठे अवश्य मे अज्ञान होय छे.
+ अपर्याप्त व्यन्तरो नारकोनी पेठे अवश्य त्रण ज्ञानवाळा, वे अज्ञानवाळा के नण अशानवाळा जाणवा, केमके असंज्ञी थकी उत्पन्न थयेला देने विज्ञान मा.
ज्योतिषिक अने वैमानिकने विषे संज्ञीथी ज आवीने उत्पन्न थाय छे, माटे तेभोने अपर्याप्तावस्थामां पण भवप्रत्यय अवधि के विभंगनो अवश्य सद्भाव होवाथी श्रण ज्ञान अने भ्रण अज्ञान होय छे. टीका.
५०. नोपर्यात भने मोअप एटले पर्यासमा अने अयभावना अभावी सिद्ध जीवो जानना, केमके तेओ पर्या ने अपना रहित ठीका.
५१. स्थिर नरकगतिने विषे उत्पत्तिस्थानने तथा भने निश्वगतिक एटले नरकगतियां जो अंतरावगतिमां वर्तता, पण उत्पत्तिस्थानने नहि प्राप्त थयेला-एटलो तफावत छे. तेओ निरयगतिकनी पेठे ऋण ज्ञानवाळा अने वे के ऋण अज्ञानवाळा आणवा. ५५. || भव्य जीवो सकायिकनी पेठे पांच ज्ञानवाळा के श्रण अज्ञानवाला भजनाए होय छे.
टीका..
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