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________________ शतक ८. - उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३९. [२०] अकाइया णं भंते! जीवा किं नाणी० [४०] जहा सिद्धा । ४०. [प्र० ] हुमाणं भंते ! जीवा किं नाणी० ? [30] जहा पुढविक्काइया । ४१. [प्र०] बादराणं भंते! जीवा किं नाणी० ? [अ०] जहा सकाइया । ४२. [०] नोडुमा नोपादरा पं भंते! जीबा० ? [30] जहा सिद्धा । ४३. [०] पत्ताणं भंते! जीवा किं नाणी० १ [४०] जहा सफाइया । ४४. [ प्र० ] पत्ता णं भंते! नेरइया किं नाणी ? [अ०] तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा नियमा, जहा नेरहुआ, एवं जाय धणियकुमारा । पुरचिकाइया जहा एगिंदिया एवं जाच चढरिंदिया । ? 1 ४५. [अ०] पक्षता भंते! पंचिदियतिरिक्खजोषिया किं नाणी अन्नाणी ? [४०] तिनि जाना, तिथि प्राणा भयणाए । मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ४६. [प्र०] अपजत्ताणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] तिन्नि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए । ४७. [प्र०] अपजता णं भंते! नेरतिया किं जागी अन्नाणी ? [४०] तिनि नाणा नियमा, तिष्णि अन्नाणा भयगाय । एवं जाच थणियकुमारा । पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिंदिया । ३९. [ प्र० ] हे भगवन्! "कायरहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [३०] हे गौतम! सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०. ) तेओ जाणचा. ४०. [प्र० ] हे भगवन् ! सूक्ष्म जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] पृथिवीकायिकोनी पेठे ( सू० २७. ) जाणवा. ४१. [प्र०] हे भगवन् ! बादरजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] +सकायिक जीवोनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा. ४२. [प्र०] हे भगवन् ! नोसूक्ष्म नोबादर जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] सिद्धोनी पेठे ( सू० ३०. ) जाणवा. ४३. [प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [ उ० ] सकायिक जीवोनी पेठे ( सू० ३८.) जाणवा. ४४. [ प्र० ] हे भगवन् ! पर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे ? के अज्ञानी छे ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अनेण अज्ञान अवश्य होय छे. जेम नैरयिको माटे कह्युं तेम यावत् स्तनितकुमार देवो माटे जाणवुं. पृथिवीकायिको एकेन्द्रियनी पेठे ( सू० ३६.) जाणवा. ए प्रमाणे यावत् चउरिंद्रियजीवो जाणवा. ४५. [२०] हे भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे त्रण अज्ञान वैभजनाए होप छे, मनुष्यो सकाविकनी पेठे (सू० ३८.) जाणचा बानव्यंतरो (सू० २५.) जाणवा ६३ ४६. [प्र०) हे भगवन्! अपर्याप्त जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे [ उ० ] हे गौतम! तेओने प्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए छे. ३९. जेमोने पूर्वे हे काय एटले ओदारिकादि शरीर अथवा विम्याविकाय नी ते अकाविले शिवाय केटीका. * होनी ओने हो . ४०. महार व सूक्ष्म जीवो मिनीकाविनी पेठे मिया + [अ०] हे गौतम! तेओने त्रण ज्ञान अने ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरचिकनी पेठे ४१. सकायिक जीवोनी पेठे बादर जीवो केवलज्ञानी पण होय छे, माटे तेओने भजनाए पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे. ४३. पर्याद्वार विपर्याप्त जीवो देनी पण होय छे, माठे ते सकाविनी जैन पूर्वे का प्रमाणे जगवा. टीका. ४४. § असंज्ञी थकी आवेला नारकोने अपर्याप्तावस्थामां विभंगनो अभाव होय छे अने पर्याप्त अवस्थामां तेओने त्रण अज्ञान अवश्य होय छे. टीका. Jain Education International ४५. पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचमां अवधिज्ञान के विभंग ज्ञान केटलाकने होप अने केटलाकने न होय माटे त्रण ज्ञान के त्रण अज्ञान, अथवा वे ज्ञान के बे अज्ञान तेओने होय छे. टीका. For Private & Personal Use Only ४७. [प्र० ] हे भगवन् । अपर्याप्त नैरयिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी के [उ०] हे गौतम! तेओने अवश्य प्रण ज्ञान के अने विदि भजनाए त्रण अज्ञान छे, ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार देवो जाणवा. जेम एकेन्द्रियो संबन्धे (सू० ३६.) कह्युं तेम अपर्याप्त पृथ्वीका किथी आरंभी वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहेवु. अपर्याप्त पृथि वीकायिकादि. कायरहित जीवो. सूक्ष्म जीवो. बादर जीवो. पर्याप्त जीवो. पर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक मनुष्यो अपर्याप्त जीवो. www.jainelibrary.org/
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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