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मनुष्यगतिक.
सिद्धिगतिक.
सेन्द्रिय.
यदि
अनिन्द्रिय.
सकाधिक जीवो. पृथिवीकायिका दि सकायिक.
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श्रीरायचन्द्र - जिनागम संग्रहे
शतक ८ - उद्देशक २.
३३. [प्र० ] मणुस्साया नं भंते जीवा किं नाणी, अन्नाणी [४०] गोयमा ! तिनि नाणाई भवणार, दो अनाणाई नियमा देवगतिया जहां निरयगतिया ।
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३४. [प्र० ] सिद्धगतिया णं भंते ० ? [उ०] जहा सिद्धा ।
३५. [२०]
दिया णं भंते! जीवा किं नाणी अद्याणी ? [30] गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिनि अन्नाणारं भयणाए । ३६. [प्र०] एगिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी० ? [उ०] जहा पुढविकाइया, बेइंदिय - तेइदिय - चउरिंदियाणं दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा । पंचिंदिया जहा सइंदिया ।
३७. [प्र०] अणिदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? । [ उ०] जहा सिद्धा ।
३८. [प्र०] सकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [30] गोयमा ! पंच नाणाणि तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया नो नाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जहा - मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । तसकाइया जहा सकाइया ।
३२. [प्र० ] हे भगवन्! "मनुष्यगतिक मनुष्यगतियां जता जीवो-शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ओने भजनाए (विकल्पे ) त्रण ज्ञान होय के अने अपश्य ने अज्ञान होय छे. देवगतिक देवगतिमां जता
( सू० ३१.) जाणवा.
३४. [प्र० ] हे भगवन् ! सिद्धिगतिमां जता जीवो धुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय! [उ०] तेओ सिद्धोनी पेठे (सू० ३०.) जाणचा.
[४०] हे गौतम! तेजीवो निरयगतिकनी पेठे
३५. [प्र०] हे भगवन् ! |सेन्द्रिय-इन्द्रियवाळा - जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने भजनाए चार ज्ञान अने व्रण अज्ञान होय छे.
३६. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! पृथिवीकायिकनी पेठे ( सू० २७. ) [ एकेन्द्रियजीवो] जाणवा. बेइन्द्रिय, त्रीडिय अने चठरिंद्रिय जीवोने अवश्य के ज्ञान अने वे अज्ञान होय छे. पंचेंद्रिय जीवो सेन्द्रियजीबोनी पेठे ( सू० ३५.) जाणवा.
३७. [ प्र० ] हे भगवन् ! $अनिन्द्रिय- इंद्रियरहित - जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [उ० ] तेओ सिद्धनी पेठे ( सू० ३०.) जाणवा.
३८. [प्र० ] हे भगवन् ! सकायिक जीवो शुं ज्ञानी होय के अज्ञानी होय ? [ उ० ] हे गौतम! तेओने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. पृथिवीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | जीवो ज्ञानी नथी पण अज्ञानी होय छे, अने ते अवश्य बे अज्ञानवाळा होय छे, ते आ प्रमाणे – मतिज्ञानाला अने श्रुतज्ञानयात्रा सकाधिक जीयो कायिक जीवोनी पेठे जाणत्रा.
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वा रोमांना
३२. मनुष्यगतियां तां अंतरात गतिए वर्तता होय से अहाँ मनुष्ययति जीवो जे ज्ञानी छे से तीर्थकरनी पेठे अवशान साथै ज मनुष्यगतिमां जाय छे, अने केटलाक तेने छोडीने जाय छे, माटे तेओने त्रण अथवा बे ज्ञान होय छे. जे अज्ञानी छे तेओ विभंगज्ञानथी पढ्या पछी मनुष्यगतिमां उत्पन्न थाय छे; माटे अवश्य तेने वे अज्ञान होय छे.. + देवगतिमां जतां अन्तराल गतिए वर्तता जीवो नरकगतिकनी पेठे जाणवा. केमके जे ज्ञानी देवगतिमां जाय छे, तेओने भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवायुष्ने प्रथम समज उत्पन्न थाय छे, तेथी नारकोनी पेठे तेओने त्रण ज्ञान अवश्य होय छे. जेओ अज्ञानी छे अने असंझी थकी देवगतिमां उत्पन्न थाय छे, तेओने अपर्याप्तावस्थामां विभंगज्ञाननो अभाव होवाथी बे अज्ञान होय छे. जे अज्ञानी संज्ञी थकी आवी देवगतिमां उत्पन्न थाय छे तेने भवप्रत्यय विभंगज्ञान होवाथी त्रण अज्ञान होय छे. टीका.
३४. † अह अन्तरगतिना अभावधी सिद्ध अने सिद्धिगतिकनो भेद नथी, पण गतिद्वारना क्रमने लीधे तेनो जूदो निर्देश कर्यो छे. - टीका.
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३५. इन्द्रियद्वारने विषे सेन्द्रिय एटले इन्द्रियना उपयोगवाळा, ते ज्ञानी अने अज्ञानी बन्ने प्रकारना छे. तेमां ज्ञानीने चार ज्ञान भजनाए होय छे, एटले वे, ऋण के चार ज्ञान होय छे; पण तेओने केवलज्ञान होतुं नथी, केमके ते अतीन्द्रियज्ञान छे. अहीं बे इत्यादि ज्ञानो कहेला छे ते लब्धिनी अपेक्षाए जाणवा, उपयोगी अपेक्षा सर्वने एकज ज्ञान होय छे. अज्ञानीने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे एटले क्वचित् बे के त्रण अज्ञान होय छे. - टीका.
३६. पृथिवी पेठे एकेन्द्रीय मध्यादृष्टि होवाथी अहानी के अने ते
मां साखादन गुणस्थानकनो संभव छे. ते शिवाय बीजाने वे अज्ञान होय छे. टीका.
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नान होय, म
केमके
३७. ६ अनिन्द्रिय एटले इन्द्रियना उपयोग रहित केवलज्ञानी, तेजोने सिद्धनी पेठे एक केवल ज्ञान होय छे. - टीका.
३८. || काय एटले ओदारिकादिशरीर अपना पृथिव्यादि काय ते वडे सहित ये साविक तेजो केवली पण होय, तेगी सकायिक सम्यगृष्टिले पांच ज्ञान अने मिथ्यादृष्टिने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. टीका.
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