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शतक ८.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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२८. [प्र०] बेइंदियाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा! णाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते नियमा दुनाणी, तं जहा-आमिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य । जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य । एवं तेइंदिय-चढरिदिया वि।
२९. [प्र०] पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। [उ०] गोयमा! नाणी वि अन्नाणी वि । जे नाणी ते अत्थेगइया दुनाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी । एवं तिण्णि णाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए । मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच नाणाएं तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए । वाणमंतरा जहा नेरइया । जोइसिय-वेमाणियाणं तिन्नि नाणाणि तिनि अन्नाणाणि नियमा।
३०. [प्र०] सिद्धाणं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी; नियमा एगनाणी केवलणाणी ।
३१. [प्र०] निरयगतियाणं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि; तिनि नाणाई नियमा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए।
३२. [प्र०] तिरियगतियाणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा ।
२८. [प्र०] *बेइन्द्रिय, जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम! तेओ ज्ञानी पण छे अने अज्ञानी पण छे. जेओ वेन्द्रिय, श्रीन्द्रिय ज्ञानी छे तेओ अवश्य बे ज्ञानवाळा छे, ते आ प्रमाणे-मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी. जेओ अज्ञानी छे ते अवश्य बे अज्ञानवाळा छे; ते आ " प्रमाणे-मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी. ए प्रमाणे त्रीन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय जीवो संबन्धे पण जाणवु.
२९. प्र०] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे अने अज्ञानी पण छे, जेओ पंचेन्द्रियतियचो. ज्ञानी छे तेमां केटलाक बे ज्ञानवाळा, अने केटलाक त्रण ज्ञानवाला छे, ए प्रमाणे त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए (विकल्पे) जाणवा. जीवोनी पेठे मनुष्योने पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे. नैरयिकोने कह्यु (सू.२५.) तेम वानव्यंतरोने जाणवू. ज्योतिषिको मनुष्यो गीवोनी पेठे. अने वैमानिकोने अवश्य त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे.
वानष्यन्तर, ज्योति
पिको अने वैमानिको. ३०. [प्र०] हे भगवन्! सिद्धो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] हे गौतम! सिद्धो ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी, तेओ सियो. अवश्य एक केवलज्ञानवाळा छे.
निरयगतिक
३१. (प्र०] हे भगवन् ! निरयगतिक-नरकगतिमां जता जीवो शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे? [उ.] हे गौतम ! ते ज्ञानी पण होय छे अने अज्ञानी पण होय छे, [जेओ ज्ञानी छे तेओने अवश्य त्रण ज्ञान होय छे अने [जे अज्ञानी छे तेओनेत्रण अज्ञान भजनाए होय छे.
३२. प्र०] हे भगवन् । प्रतियंचगतिक-तियंचगतिमां जता जीवो-शुं ज्ञानी होय छे के अज्ञानी होय छे ? [उ.] हे गौतम! तेओने अवश्य बे ज्ञान अने बे अज्ञान होय छे.
तिचपतिक
नाणा घ। २ अशाणा घ।
२८. * बेइन्द्रियादि जीवोमा पूर्वबद्धायुष मनुष्य के तिर्यच औपशमिकसम्यग्दृष्टि उपशम सम्यक्त्व वमतो उत्पन्न थाय स्यारे तेने अपर्याप्तावस्थाए सास्वादन सम्यग्दर्शन होय छे. ते जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्ट छ आवलिका सुधी रहे छे, त्या सुधी ते ज्ञानी कहेवाय छे. त्यार पछी ते मिथ्यात्वने प्राप्त थाय छे त्यारे ते अज्ञानी कहेवाय छे.
३१. १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ सूक्ष्म, ५ पर्याप्त, ६ भवस्थ, ७ भवसिद्धिक, ८ संझी, ९ लब्धि, १० उपयोग, ११ लेश्या, १२ कषाय, १३ वेद, १४ आहार, १५ ज्ञान, १६ गोचर (विषय), १७ काल, १८ अंतर, १९ अल्पबहुत्व अने २० पर्याय-ए वीश द्वारो भहीं विवक्षित छे. तेमा प्रथम गतिद्वारने विषे निरयगति द्वार कहे छे. निरय-नरक ने विषे गति-गमन जेओर्नु छ तेओ निरयगतिक कहेवाय छे एटले सम्यग्दृष्टि के मिभ्यादृष्टि, शानी के अज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्य नरकमां उत्पन्न थवा वाळा अन्तर गतिमा वर्तता होय ते निरयगतिक समजवा, ते माटे अहीं निरयशन्दनी साथे गतिग्रहण करेल छे. निरयगतिकने-जो ते ज्ञानी होय तो तेने-त्रण ज्ञान अवश्य होय छे, केमके तेने अवधिज्ञान भवप्रत्यय होवाथी ते अन्तर गतिमा पण होय छे, अने तेओने प्रण अज्ञान भजनाए होय छे, केमके असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नरकमां जाय त्यारे अपर्याप्तावस्थाए विभंगशान न होवाथी तेने ये अशान होय छ, भने मिथ्यादृष्टि संझीने त्रण अशान होय छे, कारणके तेने भवप्रत्यय विभंगज्ञान होय छे. -टीका.
३२.1 तिर्यंचगतिमा जतां वचे अन्तराल गतिमां वर्तता होय ते तिर्यचगतिक जीवो जाणवा; तेने बे ज्ञान भने बे अज्ञान होय छे, केमके सम्यग्दृष्टि जीवो अवधिज्ञानथी पच्या पछी मतिश्रुतज्ञानसहित तिर्यचगतिमां जाय छे, तेथी तेने वे ज्ञान होय छे, अने मिथ्यादृष्टि जीवो विभंगज्ञानथी पज्या पछी तिर्यक गतिमा जाय छे माटे तेने बे अज्ञान होय छे.-टीका.
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