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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ८.-उद्देशक २.
चारित्रलम्थि.
चारित्राचारिणलम्धि.
धीर्यलब्धि.
इन्द्रियलब्धि...
शानलम्धिवाळा शानी के महानी।
६३. [प्र०] चरित्तलंधी गं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- सामाइयचरिसलद्धी, छेदोवट्ठावणियलद्धी, परिहारविसुद्धिलद्धी, सुहमसंपरायलद्धी, अहक्खायचरित्तलद्धी।
६४. [प्र०] चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते! कतिविहा पण्णता? [उ०] गोयमा! एगागारा पन्नत्ता, एवं जाव उपभोगलद्धी एगागारा पन्नत्ता।
६५. [प्र०] वीरियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-बालवीरियलद्धी, पंडियवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी।
६६. [प्र०] इंदियलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियलद्धी, जाव फासिंदियलद्धी।
६७. [प्र०] नाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ? [उ०] गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी । अत्यंगतिया दुनाणी एवं पंच नाणाई भयणाए ।
६३. [प्र०] हे भगवन् । चारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम ! चारित्रलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१* सामायिकचारित्रलब्धि, २ छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि, ३ परिहारविशुद्धिकचारित्रलब्धि, ४ सूक्ष्मसंपरायचारित्रलब्धि अने ५ यथाख्यातचारित्रलब्धि.
६४. [प्र०] हे भगवन् ! चिारित्राचारित्रलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम ! एक प्रकारनी कही छे, ए प्रमाणे [दान लब्धि ], यावत् उपभोगलब्धि पण एक प्रकारनी कही छे.
६५. [प्र०] हे भगवन् ! वीर्यलब्धि केटला प्रकारनी कही छे! [उ०] हे गौतम ! वीर्यलब्धि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणेबालवीर्यलब्धि, पंडितवीर्यलब्धि अने बालपंडितवीर्यलब्धि.
६६. [प्र०] हे भगवन् ! इंद्रियलब्धि केटला प्रकारनी कही छे ! [उ.] हे गौतम | इंद्रियलब्धि पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे- श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि.
६७. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानलब्धिवाळा जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ ज्ञानी छे पण अज्ञानी नथी. केटला एक बेज्ञानवाळा छे; ए प्रमाणे तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे.
१-विसुद्धल-घ। २-संपरागल-क।
६३. * (१) हिंसादि सायद्य योगथी विरति ते सामायिकचारित्र, तेना बे प्रकार छे-इत्वर अने यावत्कथिक. इत्वर एटले अल्पकालिन, ते इत्वर सामायिक पहेला अने छेछा तीर्थकरना तीर्थने विषे प्रथम दीक्षा लेनारने होय छे. यावत्कथिक एटले यावज्जीव, ते चारित्र मध्यम बावीश तीर्थकरना तीर्थने विषे वर्तमान साधुओने होय छे; केमके तेओ ऋजु अने प्राज्ञ होवाथी तेओने चारित्रमा दोषनो संभव नथी तेथी तेओने प्रथमथी ज यावत्कथिक सामायिकचारित्र होय छे. अहीं कोइ शंका करे के इत्वरसामायिकवाळा साधुए यावज्जीव सावद्य योगनी प्रतिज्ञा लीधेली होवाथी भने फरीथी छेदोपस्थापनीय चारित्र लेवामा पूर्वनां चा. रित्रनो त्याग थतो होवाथी प्रतिज्ञानो भंग केम न थाय ? तेर्नु उत्तर ए छे के छेदोपस्थापनीय चारित्रमा पण सावद्ययोगनो त्याग होवाची प्रतिज्ञानो भंग यतो नथी, पण ते चारित्रनी विशेष शुद्धि थवाथी नाममात्रनो भेद थाय छे. (२) छेदोपस्थानीय-पूर्वना चारित्रपर्यायनो छेद करीने पुनः महाव्रतोने अंगीकार करवा ते, तेना बे प्रकार छ-सातिचार अने निरतिचार. इत्वरसामायिकवाळा प्रथम दीक्षितने पुनः महाव्रतोनुं आरोपग करे, अथवा बीजा तीर्थकरना साधुओ बीजा तीर्थकरना तीर्थमा प्रवेश करे त्यारे तेने निरतिचार चारित्र होय छे, जेम श्रीपार्श्वनाथना साधुओ महावीर स्वामीना तीर्थमा आवी पंच महाव्रत धर्मनो स्वीकार करे. महाव्रतोनो मूलथी भंग करनार साधु पुनः महाव्रतनो स्वीकार करे ते सातिचार. (३) परिहारविशुद्धिचारित्र-जेमा तपो विशेषथी आत्मानी विशुद्धि थाय ते, तेना बे प्रकार है-निर्विशमानक अने निर्विष्टकायिक. जेम के-नव साधुनो एक गच्छ होय छे, तेमां चार तप करनारा, चार वैयावृत्त्य (सेवा) करनारा अने एक वाचनाचार्य (गुरु) होय छे. चार तप करनारा साधुओ निर्विशमानक अने चार वैयावृत्त्य करनारा अने वाचनाचार्यने निर्विटकायिक कहेवाय छे. तेमां निविंशमानकोनो जघन्य तप आ प्रमाणे छे-ग्रीष्म ऋतुमा जघन्य एक उपवास, मध्यम बे उपवास, अने उत्कृष्ट त्रण उपवास, शिशिर ऋतुमां जघन्य बे उपवास, मध्यम त्रण उपवास अने उत्कृष्ट चार उपवास, अने वर्षाऋतुमा जघन्य त्रण उपवास, मध्यम चार उपवास अने उत्कृष्ट पांच उपवास अने पारणे आयंथील करवानुं होय छे. वल्पस्थितो ( चार चैयावृत्त्य करनारा अने एक वाचनाचार्य) प्रति दिवस आयंबील करे छे. आ प्रमाणे छ मास सुधी तप कर्या पछी तप करनारा वैयावृत्त्य करे छे अने वैयावृत्त्य करनारा छ मास पर्यन्त तप करे छे. त्यारपछी वाचनार्य पण ए प्रमाणे छ मास सुधी तप करे छे भने तेमाथी एक गुरु थाय छे, बाकीना सर्व साधुओ तेनुं वैयावृत्त्य करे छे. ए प्रमाणे अढार मासनो कल्प पूरो थया पछी तेओ गच्छमां आवे छे के जिन कल्पनो स्वीकार करे छे. परिहारविशुद्धि चारित्रने प्रहण करवानी इच्छावाळा तीर्थकर के केवलज्ञानी पासे ते चारित्रने ग्रहण करी शके छ, अथवा जेणे तीर्थकर के केवल ज्ञानीनी पासे पूर्व चारित्र ग्रहण कर्यु होय एवा साधुनी पासे पण ग्रहण करे छे. (४) सूक्ष्मसंपराय-ज्या मात्र सूक्ष्म-खल्प, संपराय-कषाय, लोभांशनो उदय छे ते सूक्ष्मसंपराय. तेना के प्रकार छै-विशुज्यमानक भने संक्लिश्यमानक. तेमां विशुधमानकचारित्र क्षपकश्रेणी अने उपशमश्रेणिए चडनारने होय छे, अने संक्लिश्यमानक उपशमश्रेणीथी पडनारने होय छे. (५) यथाख्यात-सर्वथा कषायोदयनो अभाव जे चारित्रने विषे होय ते यथाख्यात. तेना के प्रकार छ. उपशमक-कषायोनो उपशम करनार अने क्षपक-कषायोनो क्षय करनार.-टीका.
६४. चारित्राचारित्रलब्धि एटले देशविरतिलब्धि, अहीं मूलगुण, उत्तरगुण अने तेना मेदोनी विवक्षा कर्या शिवाय बीजा अप्रत्याख्यानावरणकषायन क्षयोपशमजन्य परिणाममात्रनी विवक्षा करेली होवाथी आ लब्धि एक प्रकारे कही छे-टीका.
६५.१ १.जेथी बाल-संयमरहित अज्ञानी-नी असंयम-अज्ञानपूर्वक कष्टानुष्ठानमा प्रवृत्ति थाय ते बालवीर्यलब्धि; ते चारित्रमोहना उदयथी आने वीर्यान्तरायना क्षयोपशमथी प्रकट थाय छे. २ जेमा संयमने विषे प्रवृत्ति थाय ते. पंडितवीर्यलब्धि, अने जेथी देशविरतिमा प्रवृत्ति थाय ते बालपंडितवीर्यलब्धि. टी.
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