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शतक १३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
३२५ २. [प्र०] कहिन्नं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो चमरचंचा नामं आवासे पण्णते? [उ०] गोयमा। वहीवे दीवे मंदस्स पचयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे-एवं जहा बितियसए समाउद्देसए वत्तष्टया सञ्चेव अपरिसेसा नेयधा, नवरं इमं नाणत्तं-जाव-तिगिच्छकूडस्स उप्पायपवयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपचयस्स भन्नेसि च बहूणं सेसं तं चेव जाव-तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं। तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपञ्चच्छिमेणं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साई अरुणोद्गसमुहं तिरियं धीइवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते, चउरासीइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पन्नाटुं च सहस्साई छञ्च बत्तीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । से णं एगेणं पागारेणं सपओ संमता संपरिक्खित्ते । से णं पागारे दिवह जोयणसयं उडं उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाए रायहाणीए वत्तवया भाणियवा सभाविहूणा, जाव-चत्तारि पासायपंतीओ।
३. [प्र०] चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे वसहि उवेति [उ०] नो तिणट्टे समटे। [प्र.] से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'चमरचंचे आवासे० १ [उ०] गोयमा! से जहानामप-इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा, उज्जाणियलेणाइ वा, णिजाणियलेणाइ वा, वारिधारियलेणाइ वा, तत्थ णं वहये मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति, सयंति-जहा रायप्पसेणइजे जाव-कल्लाणफलवित्तिविसेसं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, अन्नत्थ पुण वसहि उति, एवामेव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररनो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डा-रतिपत्तियं, अन्नत्य पुण वसहि उति, से तेणट्रेण जाव-आवासे। 'सेवं भंते ! सेवं भंते! ति जाव-विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाह रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ जाव-विहरा।
२. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इन्द्र अने असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंचा नामे आवास क्या कह्यो छे! [उ०] हे असुकुमारमा चमरे
. न्द्रनो चमरचंच नामे गौतम ! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मेरु पर्वतनी दक्षिणे तिर्यग् असंख्याता द्वीपसमुद्रो उल्लंघीने अरुणवर द्वीपनी बाह्य वेदिकाना अन्तथी अरु
भावासणवर समुद्रमां बेंतालीश लाख योजन गया बाद चमरेन्द्रनो तिगिच्छककूटनामे *उत्पातपर्वत आवे छे, तेनी दक्षिण दिशाए ६५५ क्रोड, ३५ लाख अने पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तीर्थो गया बाद नीचे रत्नप्रभा पृथिवीनी अंदर चालीश हजार योजन जइए एटले चमरेन्द्रनी चमरचंचा नामे राजधानी आवे छे-इत्यादि] बीजा शतकनी आठमा 'सभा उद्देशकमां-जे वक्तव्यता कही छे ते समग्र अहिं कहेवी, परंतु तेमां आ विशेष छे के तिगिच्छककूट नामे उत्पात पर्वत, चमरचंचानामे राजधानी, चमरचंच नामे आवासपर्वत, अने बीजा घणाना-इत्यादि बधुं ते प्रमाणे कहे, यावत्-त्रण लाख, सोळ हजार, बसो सत्यावीश योजन [त्रण गाउ, बसो अठ्यावीश धनुष अने कंइक विशेषाधिक ] साडा तेर अंगुल-एटली चमरचंचानी परिधि छे. ते चमरचंचा राजधानीथी दक्षिण-पश्चिम दिशाए (नैऋत्य कोणने विषे, छसो पंचावन कोड, पांत्रीश लाख, अने पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तिर्छा गया बाद अहिं असुरकुमारना इंद्र भने असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास कह्यो छे. ते लंबाइ भने पहोळाइमा चोराशी हजार योजन छे. तेनी परिधि बे लाख, पासठ हजार अने छसो बत्रीश योजनथी कंइक विशेषाधिक छे. ते आवास एक प्राकारथी (किल्लाथी) चोतरफ विंटाएलो छे. ते प्राकार उंचोउंचाइमा दोढसो योजन छे. ए प्रमाणे चमरचंचा राजधानीनी बधी वक्तव्यता यावत्-"चार प्रासाद पंकितओ छे"-त्यां सुधी कहेवी, परन्तु [१ सुधर्मासभा, २ उपपातसभा, ३ अभिषेकसभा, ४ अलंकारसभा अने ५ व्यवसायसभा-] ए पांच सभा न कहेवी. ३. [प्र०] हे भगवन्! असुरेंद्र असुरकुमारना राजा चमर चमरचंच नामे आवासमा रहे छे ! [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. [प्र०] चमरेन्द्र चमरचंच
नामे भावासमा हे भगवन्! एम शा हेतुथी कहो छो के, चमरचंच नामे आवासमां-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! जेमके आ मनुष्यलोकमा उपकारकपीठबद्ध घरो, उद्यानमा रहेला लोकने उपकारक (नगरप्रवेश गृहो) घरो, नगरनिर्गम-नगरथी बहार नीकळतां प्राप्त थतां घरो भने वारिधारायुक्त (फुवारायुक्त) घरो होय, त्यां घणा पुरुषो अने स्त्रीओ बेसे, सुवे-इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत्-'कल्याणरूप फळ अने वृत्तिविशेषने अनुभवतां रहे छे' त्यां सुधी कहे, पण त्यां रहेठाण करता नथी, अर्थात् पोतानो निवास तो वीजे स्थळे करे छे, ए प्रमाणे हे गौतम! असुरेन्द्र असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास केवल क्रीडा अने रति निमित्ते छे, अने बीजे स्थळे ते पोतानो वास करे छे; ते हेतुथी एम कर्दा छे के चमरचंच आवासने विषे ते पोतानो वास करतो नथी.' 'हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे'–एम कही यावद् विहरे छे. • त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे राजगृह नगरथकी अने गुणसिलक चैत्यथकी यावद्-विहार करे छे..
२* चमरेन्द्रने तिर्यग्लोकमां जवु होय त्यारे आ पर्वत उपर आवी उत्पतन करे छे माटे ते पर्वतने उत्पातपर्वत कहेवामां आवे छे.-टीका. 1 जुओ भग० खं०१श. २ उ०८ पृ. २९७. ३ राजप्र०प०७६ सू० ३२.
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