________________
शतक ८.-उद्देशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रगीत भगवतीसूत्र.
४३. प्र०] जइ ओरालियमीलासरीरकायप्पओगपरिणय किं एगिदियओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए, वेइंदियजाव परिणए, जाव पंचिंदियओरालिय- जाव परिणर ? [उ०] गोयमा! एगिदियओरालिय- एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ, तहा ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणएण वि आलावगो भाणियचो; नवरं वायरवाउकाइय-गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-गब्भवतियमणुस्साणं एएसिणं पजत्तापजत्तगाणं, सेसाणं अपजत्तगाणं ।
४४. प्र०] जइ वेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियवेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिंदियवेउधियसरीर-जाव परिणए ? [उ०] गोयमा! एगिदिय- जाव परिणए वा, पंचिंदिय-जाव परिणए वा।।
४५. [प्र०] जइ एगिदिय-जाव परिणए, किं वाउकाइयएगिदिय- जाव परिणए, अवाउकाइयरगिदिय- जाव परिणए ? [उ०] गोयमा! वाउकाइयएगिदिय-जाव परिणए, नो अवाउकाइय-जाव परिणए; एवं एएणं अभिलावेणं जहा 'ओगाहणसंठाणे' वेउवियसरीरं भणियं तहा इह वि भाणियवं, जाव पजत्तसवसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपजत्तसबटुसिद्धअणुत्तरोववाइअ-जाव परिणए वा। .
४६. [प्र०] जइ उचियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ? [उ०] एवं जहा वेउधियं तहा वेउधियमीसगं पि, नवरं देव-नेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पजत्तगाणं तहेव, जाव नो पजत्तसवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइअ- जाव परिणए, अपजत्तसबट्ठसिद्ध अणुत्तरोववातियदेवपंचिंदियवेबियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ।
४७. प्र०] जइ आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, अमणुस्साहारग-जाव परिणए ? [उ०] एवं जहां 'ओगाहणसंठाणे' जाव इविपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखेजवासाउय- जाव परिणर, नो अणिद्विपत्तपमत्तसंजयसम्मदिदिपजत्तसंखेजवासाउय- जान परिणए ।
४३. [प्र०] हे भगवन् ! जो एक द्रव्य औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत बौदारिकमिभकायहोय, बेइन्द्रियऔदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम ! एकेन्द्रिय- प्रयोगपरिणत
औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत होय. जेम 'औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत'नो आलापक कह्यो तेम 'औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत' नो पण आलापक कहेवो. परन्तु विशेष ए छे के 'औदारिकमिश्रकायप्रयोगपरिणत'नो आलापक बादरवायुकायिक, गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यच अने गर्भजमनुष्य पर्याप्ता अपर्याप्ता एओने, अने ते शिवाय बाकीना अपर्याप्ता जीवोने कहेवो.
४४. हे भगवन् ! जो एक द्रव्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् क्रियशरीरका पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० हे गौतम! ते एकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय के पंचेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोग- प्रयोगपरिणत. परिणत होय.
४५. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य एकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय के वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते एक द्रव्य वायुकायिकएकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय, पण वायुकायिक शिवाय एकेन्द्रियकायप्रयोगपरिणत न होय. ए प्रमाणे ए अभिलाप(पाठ)थी *प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे वैक्रियशरीरसंबन्धे कह्यु छे तेम अहीं पण कहे; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिकदेवपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धवैक्रियकायप्रयोगपरिणत होय.
४६. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग- पक्रियमिभकायपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! जेम वैक्रियशरीरप्रयोगसंबन्धे कह्यु, तेम
प्रयोगपरिणतवैक्रियमिश्रकायप्रयोगसंबन्धे पण कहेवू; परन्तु विशेष ए छे के वैक्रियमिश्रकायप्रयोग देव अने नैरयिक अपर्याप्ताने अने बाकीना बधा पर्याप्ताने कहेवो; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकवैक्रियमिश्रकायप्रयोगपरिणत न होय, पण अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. (४.)
४७. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं मनुष्याहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय माहारकशरीरकायके अमनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे जेम प्रिज्ञापनासूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे कह्यं छे तेम। जाणवू; यावत् ऋद्धिप्राप्त आहारकलब्धिमान् प्रमत्त साधु सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्वाळा मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत होय, पण ऋद्धिने-आहारकलब्धिने-अप्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्वाळा मनुष्याहारककायप्रयोगपरिणत न होय. (५.)
वहा मीसगपि घ। २ जाव पयोगप-ध। . ४५. प्रज्ञा• पद २१. प. ४१४-२. पं. ४.
४७. प्रहा. पद २१. प. ४२३-१.पं..
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org