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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.-उद्देशक. १. ४८. प्र०] जब आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगमीसासरीर०१ [उ०] एवं जहा आहारंग तहेव मीसमं पि निरवसेसं भाणियचं । ४९. [प्र०] जइ कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियकग्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिंदियकम्मासरीरजाव परिणए ? [उ०] गोयमा! एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, एवं जहा 'ओगाहणसंठाणे' कम्मगस्स भेदो तहेव इहावि, जाव पजत्तसघट्टसिद्धअणुत्तरोववाइय- जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, अपज्जत्तसञ्बट्रसिद्धअणुत्तरोजाव परिणए वा। ५०. [प्र०] जइ मीसापरिणए किं मणमीसापरिणए, वयमीसापरिणए, कायमीसापरिणए ? [उ०] गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वयमीसा०, कायमीसापरिणए वा। ५१. [प्र०] जइ मणमीसापरिणए कि सच्चमणमीसापरिणए वा, मोसमणमीसापरिणए वा ? [उ०] जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणए वि भाणियवं निरवसेसं, जाव पजत्तसन्चट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय-जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा, अपजत्तसवटसिद्धअणुत्तरोववाइय- जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा। ५२. [प्र०] जइ वीससापरिणए किं वनपरिणए, गंधपरिणए, रसपरिणए, फासपरिणए, संठाणपरिणए ? [उ.] गोयमा ! वनपरिणए वा, गंधपरिणए वा, रसपरिणए वा, फासपरिणए वा, संठाणपरिणए वा । ५३. [प्र०] जब वनपरिणए कि कालवनपरिणए, नील- जाव सुक्किलवनपरिणए ? [उ०] गोयमा ! कालवनपरिणए, जाव सुक्किलवनपरिणए । ५४. [प्र०] जइ गंधपरिणए कि सुम्भिगंधपरिणए, दुभिगंधपरिणए ? [उ०] गोयमा! सुब्भिगंधपरिणए, दुन्भिगंधपरिणए। ५५. [प्र०] जइ रसपरिणए कि तित्तरसपरिणए ?-पुच्छा [उ०] गोयमा ! तित्तरसपरिणए, जाव महुररसपरिणए । नाहारकमिश्रकायप्रयोगपरिणतः कामणशरीरकायप्रयोगपरिणत. मिमपरिणत. सत्समनोमिश्रपरिणत. ४८. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं मनुष्याहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? इत्यादि. [ उ०] हे गौतम ! जेम आहारकशरीरसंबन्धे कडं तेम आहारकमिश्रसंबन्धे पण कहे. (६) ४९. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के यावत् पंचेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ० ] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय. ए प्रमाणे जेम *प्रज्ञापना सूत्रना 'अवगाहनासंस्थान' पदने विषे कह्यु छे तेम अहीं पण जाणवू, यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेव. पंचेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककार्मणकायप्रयोगपरिणत होय. ५०. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मिश्रपरिणत होय तो शुं मनोमिश्रपरिणत होय, वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय ! [उ.] हे गौतम! ते मनोमिश्रपरिणत होय, वचनमिश्रपरिणत होय, के कायमिश्रपरिणत होय. ५१. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मनोमिश्रपरिणत होय तो शुं सत्यमनोमिश्रपरिणत होय, मृषामनोमिश्रपरिणत होय ? उ. हे गौतम ! जेम प्रयोगपरिणत पुद्गलो संबन्धे कयुं तेम मिश्रपरिणतसंबन्धे सर्व कहे, यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रियकार्मणशरीरमिश्रपरिणत होय, के अपर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककार्मणशरीरमिश्रपरिणत होय. ५२. प्रि०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य विस्रसापरिणत-स्वभावपरिणत होय तो शुं ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, स्पर्शपरिणत होय के संस्थानपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते वर्णपरिणत होय, गंधपरिणत होय, रसपरिणत होय, स्पर्शपरिणत होय, अने संस्थानपरिणत पण होय. ५३. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वर्णपरिणत होय तो शुं काळावर्णपणे परिणत होय, नीलवर्णपणे परिणत होय के यावत् शुक्लवर्णपणे परिणत होय ? [ उ० ] हे गौतम ! ते काळावर्णपणे परिणत होय, यावत् शुक्लवर्णपणे पण परिणत होय. ५४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य गंधपणे परिणत होय तो शुं सुगंधपणे परिणत होय के दुर्गधपणे परिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! ते सुगंधपणे परिणत होय अने दुर्गंधपणे पण परिणत होय. ५५. [प्र०] जो ते एक द्रव्य रसपरिणत होय तो शुं तिक्तरसपरिणत होय ? इत्यादि [उ० ] हे गौतम ! ते तिक्तरसपरिणत होय यावत् मधुररसपणे परिणत होय. विनमापरिणत. पण हाय. ४९. प्रज्ञा० पद २१. प. ४२५-१. पं. ६. Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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