SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ११.-उद्देशक १२. [उ.] गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव-अंतं काहेति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं मावेमाणे विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे अप्रया कया वि आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिषत्रमह. पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरद । ६. [प्र० तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था । वन्नओ। तत्थ णं संखवणे णामं चेहए होत्था । वन्नओ । तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिवायए परिवसति, रिउवेद-जजुष्वेद० जाव-नएसु सुपरिनिट्रिए छट्रं-छट्रेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ० जाव-आयावेमाणे विहरति । तए णं तस्स पोग्गलस्स छटुं-छट्टेणं जाव-आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जहा सिवस्स जाव-विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पन्ने । सेणं तेणं विभंगेणं नाणेणं समुप्पनेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठितिं जाणति पासति । तए णं तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव-समुप्पजित्था-'अत्थि णं ममं अइसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तण परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव-असंखेजसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य'-एवं संपेहेति, एवं संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहह, आ० २-हित्ता तिदंडकुंडिया जाव-धाउरत्ताओ य गेहइ, गेहेत्ता जेणेव आलंभिया णगरी, जेणेव परिवायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेति, भं० २-रेत्ता आलंभियाए नगरीए सिंघाडग० जाव-पहेसु अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव-परुवेइ-'अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई, तहेव जाव-वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । तए णं आलंभियाए नगरीए एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स, तं चेव जाव से कहमेयं मन्ने एवं ? सामी समोसढे, जावपरिसा पडिगया। भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहुजणसहं निसामेइ, तहेव. २-त्ता तहेव सवं भाणियचं, जाव-अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, एवं भासामि, जाव परूवेमि-'देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव-उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। ७. [प्र०] अत्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दवाई सवन्नाई पि अवन्नाई पि ? [उ०] तहेव जाब-हंता अत्थि, एवं ईसाणे क्षय थया बाद यावत् क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमा सिद्धिपद पामशे, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त-नाश करशे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे-एम कही भगवान् गौतम यावत् आत्माने भावित करता विहरे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे आलभिका नगरीथी अने शंखवन नामे चैत्यथी नीकळी बहारना देशोमां विचरे छे. ६. [प्र०] ते काले-ते समये आलभिका नामे नगरी हती. वर्णन. त्यां शंखवन नामे चैत्य हतुं. वर्णन. ते शंखवन चैत्यनी थोडे दूर पुद्गल नामे परिव्राजक रहेतो हतो. ते ऋग्वेद, यजुर्वेद अने यावत् बीजा ब्राह्मण संबन्धी नयोमा कुशल हतो. ते निरंतर छट्ठ छट्ठनो तप करवापूर्वक उंचा हाथ राखीने यावत् आतापना लेतो हतो. त्यार बाद ते पुद्गल परिव्राजकने निरन्तर छ? छट्ठना तप करवापूर्वक यावद् आतापना लेता प्रकृतिनी सरलताथी *शिव परिव्राजकनी पेठे यावद् विभंग नामे अज्ञान उत्पन्न थयु, अने ते उत्पन्न थयेला विभंगज्ञानवडे ब्रह्मलोक कल्पमा रहेला देवोनी स्थिति जाणे छे अने जुए छे. पछी ते पुद्गल परिव्राजकने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावद् उत्पन्न थयो'भने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयु छे, देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी छे, अने पछी एक समय अधिक, बे समय अधिक, यावद् असंख्य समय अधिक करतां उत्कृष्टथी दस सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे'-एम विचार करे छे, विचारीने आतापनाभूमिथी नीचे उतरी त्रिदंड, कुंडिका, यावद् भगवां वस्त्रोने ग्रहण करी ज्यां आलभिका नगरी छे, अने ज्यां तापसेना आश्रमो छे त्यां आवे छे, आवीने पोताना उपकरणो मूकी आलभिका नगरीमां शृंगाटक, त्रिक, यावद् बीजा मार्गोमां एक बीजाने ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे-'हे देवानुप्रिय! मने अतिशयवाळु ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थयु छे, अने देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी छे'–इत्यादि पूर्वोक्त कहे, त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे.' त्यार बाद 'आलभिका नगरीमां'-ए अभिलापथी जेम शिव राजर्षि माटे पूर्वे कयुं [ श० ११ उ० ९ सू० ८] तेम अहीं कहे, यावद् ए प्रमाणे केवी रीते होय ! हवे महावीर स्वामी समवसर्या अने यावत् परिषद् वांदीने विसर्जित थइ. भगवान् गौतम तेज प्रमाणे भिक्षाचर्या माटे नीकळ्या अने तेओ घणा माणसोनो शब्द सांभळे छे–इत्यादि बधुं पूर्ववत् कहेवू, यावद् हे गौतम ! हुं पण ए प्रमाणे कहुं छु, बोलं छु, यावत् प्ररूपं छु के देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी कही छे, अने त्यार पछी एक समयाधिक, द्विसमयाधिक यावद् उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम स्थिति कही छे, अने त्यार बाद देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्मकल्पमा वर्णसहित अने वर्णरहित द्रव्यो छे?-इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! हा, छे. ए प्रमाणे सिद्धिपद पामशे. .५. • जुओ भग० सं०३ श०११ ३०९ पृ. २२४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy