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________________ शतक ११.-उद्देशक १२. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४९ ३. तए गं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ट-तुट्टा उट्ठाए उट्टेइ, उ. २-त्ता समणं भगवं महावीरं चंदन्ति, नमंसन्ति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-[प्र०] एवं खलु भंते ! इसिभहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ, जाव-परूवेइ-देवलोएसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पन्नता, तेण परं समयाहिया, जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, से कहमेयं भंते ! एवं ? [उ.] 'अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-जन्नं अजो! "इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवं आइक्खड़, जाव-परुवेइ-देवलोगेसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया, जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगाय," सच्चे गं एसमटे, अहं पुण अजो! एवमाइक्खामि, जाव-परूवेमि-'देवलोगेसु णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई तं चेव जाव-तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य,' सच्चे णं एसमटे । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदन्ति नमंसन्ति; वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति नमसंति, वंदित्ता, नमंसित्ता एयमटुं सम्म विणपणं भुजो २ खामेति । तए णं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, प० २-च्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, अ० २-इत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वं० २-त्ता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया। ४. [प्र०] 'भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वं० २-त्ता एवं वयासी-पभू णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पच्चइत्तए ? [उ०] गोयमा! णो तिणढे, समटे । गोयमा ! इसिभइपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलच्चय-गुणवय-वेरमण-पञ्चमखाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाणिहिति, व०२-णित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, मा०२-सेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति, २ आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिति । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ पं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती भविस्सति । ५. [प्र०] से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे तातो देवलोगाओ आउक्खएणं भव० ठिइक्खएणं जाव-कहिं उववजिहिति ? देवोनी खिति. ३. त्यार पछी ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी, हर्षित अने संतुष्ट थया, अने प्रयत्नथी उभा थइ श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमीने आ प्रमाणे कह्यु-'हे भगवन् ! ए प्रमाणे खरेखर ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक अमने ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, हे आर्य! देवलोकमां देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी कही छे, अने ते पछी समयाधिक यावद् उत्कृष्ट स्थिति [ तेत्रीश सागरोपमनी कही छे ], अने पछी देवो अने देवलोक व्युच्छिन्न थाय छे, तो हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे केवीरीते होय ? उ०] 'हे आर्यो ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे ते श्रमणोपासकोने आ प्रमाणे कह्यु-'हे आर्यो ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक जे तमने आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, देवलोकोमां देवोनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी छे, अने ते पछी समयाधिक करताइत्यादि कहे, यावत् त्यार पछी देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे. ए वात साची छे. हे आर्यो ! हुं पण एज प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपुंछ के देवलोकमां देवोनी स्थिति जघन्य दस हजार वर्षनी छे-इत्यादि पूर्वोक्त कहेवं, यावत् त्यार बाद देवो अने देवलोको व्युच्छिन्न थाय छे, ए अर्थ सत्य छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी ए वात सांभळी अने अवधारी श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी ज्यां ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे, आवीने ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासकने वांदी तथा नमी ए अर्थने (सत्य वातने न मानवारूप अपराधने ) सारी रीते विनयपूर्वक वारंवार खमावे छे. त्यार बाद ते श्रमणोपासको तेने प्रश्नो पूछे छे, अने पूछी अर्थने ग्रहण करे छे, ग्रहण करी श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी जे दिशाथकी आव्या हता, पाछा तेज दिशा तरफ गया. ४. [प्र०] 'हे भगवन् ! ए प्रमाणे कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमस्कार करी आ प्रमाणे कडं-'हे कपिभद्रपुत्र अनगारिकपणाने भगवन् ! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र आप देवानुप्रियनी पासे दीक्षा लइ गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने लेवाने समर्थ छे[उ०] लेखाने समय हे गौतम ! आ अर्थ यथार्थ नथी; पण हे गौतम ! श्रमणोपासक ऋपिभद्रपुत्र घणा शीलव्रत, गुणवत, विरमणबत, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासो वडे तथा यथायोग्य स्वीकारेल तपकर्म वडे आत्माने भावित करतो घणां वरसो सुधी श्रमणोपासकपर्यायने पाळी, मासिक संलेखनावडे आत्माने सेवी, साठ भक्तो निराहारपणे वीतावी आलोचन अने प्रतिक्रमण करी, समाधिने प्राप्त थइ मरण समये काल करी सौधर्मकल्पमा अरुणाभ नामे विमानमां देवपणे उत्पन्न थशे. त्यां केटलाक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे तेमां ऋपिभद्रपुत्र देवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति हशे. ऋषिभद्रपुत्र ५. [प्र०] हे भगवन् ! पछी ते ऋषिभद्रपुत्र देव ते देवलोकधी आयुपनो क्षय थया पछी, भवनो क्षय थया पछी, अने स्थितिनो देवलोकथी च्यवी ३२ भ. सू. क्या जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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