________________
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ७.-उद्दशक १.
पढमे समए सिय आहारए सिय अणाहारप, वितिए समए सिय आहारए सिय अणादारए, ततिए समए सिए आहारए सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए । एवं दंडओ। जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए, सेसा ततिए समए ।
३. [प्र०] जीवे णं भंते! कं समय सव्वप्पाहारए भवति [उ०] गोयमा! पढमसमयोववनए वा चरमसमए भवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवद । दंडओ भाणिअव्वो जाव चेमाणिआणं।
४. [प्र०] किंसंठिए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? [३०] गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने, जाव उप्पि उद्दमुइंगागारसंठिए; तसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेट्टा विच्छिन्नंसि जाव उप्पि उहुंमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाण-दसणधरे. अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवे वि जाणइ पासइ; तओ पच्छा सिज्झति, जाव अंतं करेइ ।
५. [प्र०] संमणोवासयस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजति । [प्र०] से केणटेणं जाव संपराइया? [उ०] गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवद, आयाऽहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ से तेणटेणं जाव संपराइया। हारक होय, बीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, त्रीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, परन्तु चोथे समये अवश्य आहारक होय. ए प्रमाणे (*नारक इत्यादि चोवीस ) दंडक (पाठ) कहेवा. सामान्य जीवो अने एकेन्द्रियो चोथे समये आहारक होय छे, अने (एकेन्द्रिय शिवाय ) बाकीना जीवो. त्रिीजे समझे आहारक होय छे..
३. प्र०] हे भगवन् ! जीव कये समये सौथी अल्प आहारवालो होय छे ? [उ.] हे गौतम! उत्पन्न थतां प्रथम समये अने भवने (जीवितने) छेल्ले समये; आ समये जीव सौथी अल्प आहारवाळो होय छे. ए प्रमाणे वैमानिक सुधी दंडक कहेवो.
४. [प्र०] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान (आकार) केवा प्रकारे कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक-शिरावना आकार जेवो कहेलो छे. ते नीचे विस्तीर्ण-पहोळो यावत् उपर ऊर्ध्व (उभा) मृदंगना आकारे संस्थित छे. नीचे विस्तीर्ण यावत् उपर ऊर्ध्व मृदंगना आकारे रहेला ते शाश्वत लोकमां उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनार अरिहंत जिन केवलज्ञानी जीवोने पण जाणे छे अने जुए छे, अजीवोने पण जाणे छे अने जुए छे, त्यार पछी सिद्ध थाय छे, यावत् (सर्व दुःखोनो) अंत करे छे.
५. [प्र०] हे भगवन् ! श्रमणना उपाश्रयमा रहीने सामायिक करनार श्रमणोपासकने (श्रावकने ) शुं ऐर्यापथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! ऐपिथिकी क्रिया न लागे, पण साम्परायिकी क्रिया लागे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! श्रमणना उपाश्रयमा रही सामायिक करनार श्रावकनो आत्मा अधिकरण (कपायना साधनो) युक्त छे, तेथी तेने आत्माना (पोताना) अधिकरण निमित्ते ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे, ते हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे छे.
लोकसंस्थान
ऐर्यापथिकी भने सापरायिकी क्रिया.
तितिए ख । २-समतोववक्षए क; अस्मिन् पुस्तके बहुशः तकारघटितः पाठ उपलभ्यते, यथा-किंसंठिते, सुपतिहग, (.,1,) यन्त्र पूर्व संस्कृतप्रकृतौ तकारो न विद्यते तत्रापि तकारः; यथा-आयमधः, इणहे, तिणहे; सामायिक, सामाइभ, सामातिम; नैरयिक, नेरहम, नेरतिम । ३ तेसिंग-घ। '४-वासगस्स घ । ५ संपराईमा ख। समये अनाहारक होय छे, अने बीजे समये आहारक होय छे, ज्यारे चार समये परभवमा उत्पन्न थाय छे, त्यारे आदिना त्रण समये अनाहारफ होय छे, अने चोथे समये आहारक होय छे. व्रण समयनी विग्रहगति आ प्रमाणे थाय छ-त्रसनाडीनी बहार विदिशामा रहेलो कोइ जीव ज्यारे अधोलोकथी ऊर्ध्व लोकर्मा घसनादीनी बहार दिशामा उत्पज थाय त्यारे ते अवश्य प्रथम समये विश्रेणिथी समश्रेणिमा आवे, बीजे समये त्रसनाडीमा प्रवेश करे, बीजे समये ऊर्य लोकमां जाय, भने चोथे समये लोकनाडी बहार जइ उत्पत्तिस्थाने उपजे. अहीं भादिना प्रण समये विग्रह गति होय छे. अन्य आचार्य एम कहे छे के चार समयनी पण विग्रहगति संभवे छे-जेम- कोई जीव अधोलोकमा असनाडीनी बहार विदिशामाथी ऊर्ध्वलोकमां प्रसनाटीनी बहार विदिशामा उत्पन्न थाय त्यारे त्रण समय पूर्वनी पेठे जाणवा; चोथे समये त्रसनादीथी बहार नीवळी समश्रेणिमां भावे, अने पांचमे समये उत्पत्तिस्थाने उत्पन्न थाय. तेमा भादिना चार समये विग्रह गति होय छे, अने तेमा ते अनाहारक होय छे; पण सूत्रमा आ वात बतावी नथी, कारण के प्रायः आवी रीते कोई जीव उपजतो नथी, जुगो(भ. टी. प. २८७-२). .
*२. सात नारकोनो एक दंडक, असुरादि दश भुवनपतिना दश दंडक, पृथ्व्यादि पांच स्थावरना पांच दंडक, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चंउरिन्द्रियना प्रण दंडक, गर्भज तिर्यच भने गर्भज मनुष्यनो एक एक दंडक, व्यन्तर ज्योतिषिक भने वैमानिकनो एक एक दंडक-ए रीते चोवीश दण्डको जाणवा.
जे नारकादि प्रस जीवो मरीने प्रसने विषे उत्पन्न थाय, तेनुं त्रसनाडीथी बहार जवु भाववु न थाय माटे ते त्रीजे समये अवश्य आहारक होय. जेम, कोइ मत्स्यादि जीव भरतक्षेत्रना पूर्वभागथी ऐरक्तक्षेत्रना पश्चिमभागनी नीचे नरकमा उतान्न थाय, ते एक समये भरतना पूर्वभागथी पश्चिमभाग तरफ जाय, थीजे समये ऐरयतना पश्चिमभाग तरफ जाय अने त्रीजे समये नरकमा जाय. जुओ (भ. टी. प. २८८-२).
अहीं शराव-चपणीआ-ने उधुं वाळी तेना उपर कलश मूकेलो होय तेवू शराव लेवू, केमके ते शिवाय केवल शरावनी साधे लोकसंस्थानk सादृश्य घटी शक्तुं नथी. जुमओ-(भ. टी. प. २८९-२).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org