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________________ बीओ उद्देसो. १. [प्र०] रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्त णं भंते ! अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रुवाई निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स, उहूं रूवाई आलोएमाणस्स, अहे रूवाणि आलोएमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? [उ०] गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा जाव तस्स णं णो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जति । [प्र०] से केणटेणं मंते! एवं वुच्चइ-जाव संपराइया किरिया कजति ? [उ०] गोयमा! जस्स गं कोह-माण-माया-लोभा० एवं जहा सत्तमसप पढमोदेसए जाव से णं उस्सुत्तमेव रीयति से तेणटेणं जाव से संपराइया किरिया कजइ ।। २. [प्र०] संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ ? पुच्छा [उ०] गोयमा! संवुड० जाव तस्सणं इरियावहिया किरिया कजइ, नो संपराइया किरिया कजा। [प्र०] से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ ? [उ०] जहा सत्तमे सए सत्तमोद्देसए, जाव से णं अहासुत्तमेव रीयति से तेण?णं जाव नो संपराइया किरिया कजइ । ३. [प्र०] कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीतोसिणा; एवं जोणीपयं निरसेसं भाणियवं। द्वितीय उद्देशक. १. [प्र०] राजगृह नगरमां यावत् [ गौतम ] ए प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! वीचिमार्गमां-कषायभावमां-रहीने आगळ रहेलां रूपोने कषायभावना रहेला जोता, पाछळना रूपोने देखता, पडखेना रूपोने अवलोकता, ऊंचेना रूपोने आलोकता अने नीचेना रूपोने अवलोकता संवृत (संवरयुक्त) संत साधने संवृत साधुने ऐर्याप विकी के सांपराविकी अनगारने शुं ऐर्यापथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! वीचिमार्गमां (कषायभावमां) रहीने यावत् रूपोने क्रिया लागे । जोता संवृत अनगारने ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे. [प्र०) हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के संवृत अनगारने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ क्षीण थया होय तेने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे-इत्यादि "सप्तम शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत् 'ते संवृत अनगार सूत्र विरुद्ध वर्ते छे' त्यांसुधी कहे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे छे. २. प्र०] हे भगवन् ! अवीचिमार्गमां-अकषायभावमां-रहीने आगळना रूपोने जोता, यावत् अवलोकता संवृत अनगारने शुं ऐर्याप- पायभावमा रहेला साभुने थिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम! यावत् अकषायभावमा रहीने आगळ रूपोने जोता यावत् ते संवृत अनगारने MIT ऐपिथिकी क्रिया लागे, पण सांपरायिकी क्रिया न लागे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के ते अनगारने ऐर्याप- परायिकी क्रिया। थिकी क्रिया लागे पण सांपरायिकी क्रिया न लागे? [उ०] हे गौतम! 'जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ क्षीण थया छे तेने ऐर्यापथिकी ऐर्यापमिकी - क्रिया लागे छे-इत्यादि जेम सप्तम शतकना प्रथम उद्देशकमां (उ० १. सू० १८.) कयुं छे तेम अहीं पण यावत् 'ते अनगार सूत्रानुसारे वर्ते लालाराका छे' त्यांसुधी कहे, हे गौतम ! ते हेतुथी तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया लागती नथी. ३. [प्र०] हे भगवन् ! योनि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! योनि त्रण प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-शीत, ___योनिउष्ण अने शीतोष्ण..ए प्रमाणे अहीं समग्र योनिपद कहेवू. १.* भग. ख. ३. श. ७३.१पृ.५ सू. १.. ३.प्रज्ञा. पद ९ प. २२४. २-२२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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