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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे " शतक ९. - उद्देशक ३३० सुरंगमत्यपदित्तीसतिदेहिं गाडहि माणाविद्ययरतरुणी संपतेहिं उचनचिजमाणे उपनचित्रमाणे, उवगिजमाणे उपजमाणे, उपलालिमाणे उचलालिज़माणे, पाउस वासारत सरद-देमंत पसंत गिम्हवंते छप्पि उऊ जदाचिभवेणं माणमाणे कालं गालेमाणे, रट्टे सह-फरिस रस-रूप-गंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोगे पचणुष्यमाणे विहरति । तप णं खचिकुंडग्गा नपरे सिंघाडगतिक-च-चघर जाय बहुजणसदे ६ वा जहा उपचाहए जाय एवं वेद एवं परुवे पर्व खलु देवाणुपिया ! समने भगवं महाचीरे आदिगरे, जावं सङ्घण्णू समदरिसी माहणकुंडम्गामस्स नगररस पहिया बहुसाल वेद अहापडिरुवं जाय विहरति । तं महष्फलं तु देवाशुप्पिया तहारुवाणं मेरहंताणं भगवंताणं जदा उपचार, जाव प्रणाभिमुद्दे खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्जयंमज्झेणं निगच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव माणकुंडग्णामे नयरे जेणेव बहुसालय चेइए, एवं जहा उववाइए, जाव तिविहाए पजुवासणयाए पैज्जुवासति । तए णं तस्स जंमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयं पयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - " किं णं अज खत्तियकुंडग्गामे नयरे 'इंदमहे इवा, खंदमद्दे इ वा, मुगुंदमहे ६ वा णागमहे इ वा, जक्खमद्दे ह वा, भूयमहे वा, कूवमद्दे इवा, तडागमहे इवा, नईमहे इ वा दद्दमहे इ वा पश्चयमदे इ वा, रुक्खमहे इ वा चेइयमहे इ वा धूभम इवा, जं पर यह उन्गा, भोगा, राना, इफ्सागा, माता, कोरक्षा, खत्तिया, खतियपुत्ता, भढा, भडपुत्ता, जहा उपपाइए, जाब सेत्थवादयमितयो व्हाया, कथवलिकम्मा जहा उपचारप, जाच निग्गच्छंति" एवं संपेद्देद एवं संपेहित्ता कंचुरजपुरिखं सहायेति ० २ सदावित्ता एवं पदासी-किंणं देवापिया! अज सत्तियकुंडग्णामे नवरे इंदमई इ वा जाय निम्गच्छति । तए णं से कंचुइजपुरिसे जैमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं बुत्ते समाणे हट्ठ-तुट्ठे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छर करयल- जमालि खत्तियकुमारं जपणं विजपणं वद्धावेद, वद्धावित्ता एवं वयासी - णो खलु देवाणुप्पिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदुमहे इ वा, जाव निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे जाव सङ्घण्णू, १६६ उत्तम प्रासाद उपर जेमां मृदंगो वागे छे एवा, अने अनेक प्रकारनी सुंदर युवतिओवडे भजवाता बत्रीश प्रकारना नाटकोवडे ( नृत्यने अनुसारे) हस्तपादादि अवयवोने नचावतो २, स्तुति करातो २, अत्यन्त खुश करातो २ प्रावृष्, वर्षा, शरद, हेमंत, वसंत, अने ग्रीष्म पर्यन्त ए ए ऋतु ओम पोताना वैभव प्रमाणे सुखनो अनुभव करतो २, समयने गाळतो, मनुष्यसंबन्धी पांच प्रकारना इष्ट शब्द, स्पर्श, बस, रूप अने गन्धरूप कामभोगोने अनुभवतो विहरे छे. त्यारबाद क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमा शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क अने चत्वरम यावत् धणा माणसोनो कोलाहल पतो हतो-इत्यादि "औपपातिक सूत्रमां कह्या प्रमाणे कहेनुं यावत् घर्णा माणसो परस्पर ए प्रमाणे जावे, यावत् प्रमाणे प्ररूपे छे के हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर तीर्थनी आदिना करनारा, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर आ ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगरनी बहार बहुशाल नामना चैत्यमां यथायोग्य अवग्रहने प्रहण करी यावत् विहरे छे, तो है देवानुप्रियो ! तेवा प्रकारना अर्हत् भगवंतना नामगोत्रना श्रवणमात्रथी पण मोढुं फल थाय छे' – इत्यादि * औपपातिक सूत्रने अनुसारे वर्णन कर. यावत् ते जनसमूह एक दिशा तरफ जाय छे, अने क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरना मध्यभागमांथी बहार निकले छे, निकळीने यां ब्राह्मणकुंडग्राम नामे नगर छे, अने ज्यां बहुशालक चैत्य छे त्यां आवे छे. ए प्रमाणे बधुं औपपातिक सूत्रने अनुसारे कहे, यावत् ऋण प्रकारनी पर्युपासना करे छे. यार पछी ते घणा मनुष्यना शब्दने यावत् जनना कोलाहलने सांभळीने अने अवधारीने क्षत्रियकुमार जमालिना मनमां आवा प्रकारनो आ विचार यावत् उत्पन्न थयो- 'शुं आजे क्षत्रियकुंडग्राम नगरमा इन्द्रनो उत्सव छे, स्कन्दनो उत्सव छे, वासुदेवनो उत्सव छे, नागनो उत्सव छे, यक्षनो उत्सव छे, यक्षनो उत्सव, भूतनो उत्सव छे, कूयानो उत्सव के तव्यायनो उत्सव से, नदीनो उत्सव छे, द्रनो उत्सव छे, पतनो उत्सव छे, वृक्षनो उत्सव छे, चैलनो उत्सव हे या स्तूपनो उत्सव है, के जेबी ए बधा उपकुलना, भोकुलना राजम्यकुलना, इक्ष्वाकुकुलना, शातकुलना अने कुरुवंशना क्षत्रियो, क्षत्रियपुत्र, भटो, अने भटपुत्रो, इत्यादि औपपातिकसूत्र अनुसारे कहे, यावत् सार्थवाह प्रमुख ज्ञान करी, बलिकर्म (पूजा) करी इत्यादि औपपातिकसूत्रमा वर्णन कर्या प्रमाणे यावत् बहार निकले एम विचार करे छे. विचार करीने जमालि कंचुकिने बोलावे छे, बोलावीने तेने आ प्रमाणे कां हे देवानुप्रिय ! आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामना नगरमा इन्द्रनो उत्सव है के यावत् आ यथा नगर बहार निकले छे व्यारे ते जमालि नामना क्षत्रियकुमारे ते कंचुकि पुरुषने ए प्रमाणे कं त्यारे ते हर्षित अने संतुष्ट थयो, अने ते श्रमण भगवान् महावीरना आगमननो निश्चय करीने हाथ जोडी जमालि नामे क्षत्रिकुमारने जय अने विजय पडे बधावे छे. मधावीने तेणे आ प्रमाणे कतुं हि देवानुप्रिय ! आजे क्षत्रियकुंडग्राम नामे नगरमा इन्द्रनो उत्सव छे - इत्यादि तेथी यावत् बधा नीकळे छे, एम नथी, पण हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी १ अरिहंताणं ग । २ निगच्छइ ङ । १ पजुवासइ ङ । - विणिच्छिए घ । ८ आगच्छति क ङ । औपपातिक. प. ५७-१. † औपपातिक प५७-२ औपपातिक प५९-२ औपपातिक. प. ५८-१, Jain Education International ८. ४ धूवम- क - ङ । ५ - भिए ग घ । प - णामेणं खङ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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