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________________ T शतक १२.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८९ ५. [प्र०] से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'देवाधिदेवा देवाधिदेवा' ? [उ०] गोयमा! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन नाण-दसणधरा जाव-सबदरिसी, से तेणटेणं जाव-'देवाधिदेवा' २। ६.प्र.] से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ-'भावदेवा भावदेवा' ? [उ.] गोयमा ! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसवेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति, से तेण?णं जाव-'भावदेवा' २। ७.प्र. भवियदचदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं नेरइपहिंतो उववजंति. तिरिक्ख० मणुस्स. देवेहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा ! नेरइएहितो उववजंति, तिरि० मणु० देवेहितो वि उववजंति, भेदो जहा वकंतीए सच्चेसु उववाएयचा जाव-'अणुत्तरोववाइय'त्ति, नवरं असंखेजवासाउयअम्मभूमगअंतरदीवगसट्टसिद्धवजं जाव-अपराजियदेवेहितो वि उववजंति, णो सबट्ठसिद्धदेवेहितो उववजंति । - ८. [प्र०] नरदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरतिए०-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! नेरतिपहिंतो वि उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहितो वि उववजंति । ९. [प्र०] जइ नेरइएहितो उवजंति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववजंति, जाव-अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववजंति ? [30] गोयमा! रयणप्पभापुढविनेरइएहितो उववजंति, नो सकर० जाव-नो अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववजंति । १०. [प्र०] जइ देवहितो उववजंति किं भवणवासिदेवेहितो उववजंति, वाणमंतर० जोइसिय० वेमाणियदेवेहितो उववजंति ? [उ०] गोयमा! भवणवासिदेवेहितो वि उववजंति, वाणमंतर०, एवं सचदेवेसु उववाएयचा, वकंतीभेदेणं जावसचट्ठसिद्धत्ति । ५. [३०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय छे ? [3] हे गौतम ! जे आ अरहित-भगवंतो उत्पन्न देवाधिदेव. थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनारा यावद्-सर्वदशी छे, ते हेतुथी यावद् 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय छे. ६. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! जे आ भवनपतिओ, वानव्यंतरो, भावदेव. ज्योतिष्को अने वैमानिक देवो देवगति संबन्धी नाम अने गोत्र कर्मोने वेदे छे, ते माटे 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय छे. ७. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय ? शुं नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय, तिर्यंचोथी आवीने उत्पन्न भव्यद्रव्यदेवो क्याथी थाय, मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थाय, के देवोथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! नैरयकोथी आवी उत्पन्न थाय, तिर्यंचोथी, मा मनुष्योथी, अने देवोथी पण आवीने उत्पन्न थाय. अहीं व्युत्क्रान्ति पदमां कह्या प्रमाणे भेद-विशेषता कहेवी, अने तेओनी सर्वने विषे उत्पत्ति कहेवी, यावत्-अनुत्तरौपपातिक सुधी कहे, परन्तु विशेष ए छे के, असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा जीवो, अकर्मभूमिना जीवो, अंतरद्वीपना जीवो अने सर्वार्थसिद्ध वर्जिने यावद्-अपराजित देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे. पण सर्वार्थसिद्धना देवो उत्पन्न थता नथी. ८. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय?-शुं नैरयिकोथी, तिर्यंचोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवीने उत्पन्न नरदेवो क्याथी आ-. थाय ! उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिको अने देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे, पण तियेच अने मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थता नथी. वीने उपजे? ९. प्र०] जो तेओ नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय तो \ रत्नप्रभाना नैरयिकोथी आवीने (नरदेवो) उत्पन्न थाय के यावद्-अध:- रमप्रभादिमाथी का रा । पृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! तेओ रत्नप्रभाना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय, पण शर्कराप्रभाथी नाक पृथिषीथी भावी उपजे। अ.पीने न उत्पन्न थाय, यावद्-अधःसप्तमपृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न न थाय. १०. [प्र०] जो तेओ देवोथी आवी (नरदेवो) उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय के वानव्यंतर, ज्यो- शुं भवनवासीवादि तिष्क अने वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय, तथा वानव्यंतर, देवोपी मापी उपजे? देवोमोपी कपा ज्योतिषिक अने वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे सर्व देवो संबन्धे व्युत्क्रांति पदमा कहेली विशेषतापूर्वक यावत् सर्वार्थसिद्ध सुधी उपपात कहेवो. १. प्रज्ञा० पद ६ प० २१५. ७* प्रज्ञा० पद ६ प० २१५. ३७ भ. सू० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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