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________________ २९० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १२.-उद्देशक ९. ११.० धम्मदेवा गं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरदएहितो? [उ०] एवं वकंतीभेदेणं सधेसु उववाएयवा जाव-'सचट्ठसिद्ध'त्ति। नवरंतमा-अहेसत्तमाए नो उववाओतेउ-वाउ-असंखिजवासाउयअकम्मभूमग-अंतरदीवगवजेसु। १२. प्र०ा देवाधिदेवा गं भंते ! कतोहिंतो उवउजंति, किं नेरइएहिंतो उववजंति ? पुच्छा। [उ.] गोयमा! नेहएहिंतो उववजंति, नो तिरि० नो मणु० देवेहितो वि उववजंति । १३. [प्र०] जइ नेरइएहितो० [उ०] एवं तिसु पुढवीसु उववजंति, सेसाओ खोडेयवाओ। १४. [प्र०] जइ देवेहितो० [उ०] वेमाणिपसु ससु उववजंति जाव-सचट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेयधा । १५. [4] भावदेवा णं भंते! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] एवं जहा वतीए भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियो। १६. [प्र०] भवियतष्वदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उकोसेणं तिमि पलिओवमाई। १७. [प्र०] नरदेवाणं पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं सत्त वाससयाई, उक्कोसेणं चउरासीई पुचसयसहस्साई । १८. [प्र०] धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा । [उ०] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी । धर्मदेव क्याथी मावी ११. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ! शुं नैरयिकोथी, [तिर्यचोथी, मनुष्योथी के देवोयी आवी] उत्पन्न उपजे! थाय! [उ०] ए प्रमाणे बधुं *व्युत्क्रांति पदमां कहेला भेद-विशेषवडे यावत्- सर्वार्थसिद्ध सुधी सर्वथकी उपपाद कहेवो, परन्तु विशेष ए छे के, तिमःप्रभा अने अधःसप्तमपृथ्वीथी, तथा तेजःकाय, वायुकाय, असंख्यवर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिजो, अकर्मभूमिजो अने अंतरद्वीपज मनुष्य तथा तिर्यचोधी आवी धर्मदेवो उत्पन्न न थाय. [अर्थात्-ए सिवाय बाकीना स्थानथी आवी धर्मदेव थाय.] देवाधिदेव क्याथी १२. [प्र०] हे भगवन् ! देवाधिदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय-शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! भावी उपजे! नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय छे, तिथंच अने मनुष्योथी आवी उत्पन्न थता नथी, पण देवो थकी आवीने उत्पन्न थाय छे. रत्नप्रभादि नरक : थिवीमाथी का नर- १३. [प्र०] जो नैरयिकोथी आवी ( देवाधिदेव ) उत्पन्न थाय [तो शुं रत्नप्रभाना नैरयिकयी आवी उत्पन्न थाय]-इत्यादि प्रश्न. क पृथिवीथी मावी उपजे? " [उ.] ए प्रमाणे प्रथम त्रण पृथिवीथी आवी देवाधिदेव] उत्पन्न थाय छे. बाकीनी पृथिवीओनो प्रतिषेध करवो. देवोमा सर्व वैमानिक १४. [प्र०] जो तेओ देवोथी आवी उत्पन्न थाय तो शुं भवनपति वगेरेथी आवी उत्पन्न थाय! [उ०] सर्व वैमानिक देवोथी, देवोथीभावीने उपजे. यावत्-सर्वार्थसिद्धथी आवी उत्पन्न थाय. बाकीना देवोनो निषेध करवो. भावदेवो क्याथी १५. [प्र०] हे भगवन्! भावदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय? [उ०] •जेम व्युत्क्रांतिपदमा भवनवासिओनो उपपात कह्यो भावी उपने! के तेम अहिं कहेवो. भव्यदन्यदेवनी १६. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवोनी केटला काळ सुधी स्थिति कही छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओनी ओछामा ओछी अन्तस्थिति. मुहूर्त अने वधारेमां वधारे त्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे. नरदेवनी स्थिति. १७. [प्र.] नरदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओनी जघन्य स्थिति सातसो वर्षनी अने उत्कृष्ट चोराशीलाख पूर्वनी स्थिति कही छे. थर्मदेवनी स्थिति. १८. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! तेओनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी, अने उत्कृष्ट देशोनपूर्वको टिनी कही छे. - ११* प्रा. पद६ प० २१५. तिमःप्रभा पृथिवीथी नीकळेलाने मनुष्यपणुं प्राप्त थाय, पण चारित्र प्राप्त यतुं नथी, तथा सातमी नरकपृथिवी, तेजःकाय, वायुकाय, असंख्यवर्षना आयुषवाळा कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज भने अन्तपिज मनुष्य अने तिर्यचो-थकी नीकळेलाने मनुष्यपणाना अभाव यकी चारित्र होतुं नथी, तेथी त्यांथी नीकळी तेओ धर्मदेव (चारित्रयुक्त अनगार) थता नथी-टीका. १३ प्रथम त्रण नरकपृथिवीथकी नीकळेला तीर्थकरपणे उपजे छे, पण नीचेनी चार पृथिवीथी नीकलेळा तीर्थकरो थता नथी, माटे बाकीनी चार पृथिवीनो प्रतिषेध करवो-टीका. १५ प्रज्ञा० पद ६ प० २११. घणा स्थानोथी आधी भवनपति देवपणे उपजे छे, कारणके असंशी पण तेमा उत्पन्न थाय छे, माटे भवनपति संबन्धे उपपात कह्यो छे-टीका. १६६ अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळो पंचेन्द्रिय तिर्थच देवपणे उपजे, माटे भव्यद्रव्यदेवनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी कही छे, तेमज प्रण पल्योपमनी स्थितिवाळा उत्तरकुरु आदिना मनुष्यो अने तिर्यचो देवपणे उत्पन्न थाय माटे उत्कृष्ट प्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे-टीका. १७३ चक्रवर्तिनी जपन्य स्थिति सातसो वर्षनी होय छे, जेमके ब्रह्मदत्तनी, अने उत्कृष्ट स्थिति चोराशी लाखं पूर्वनी होय छे, जेमके भरतनी. १८|| कोईपण मनुष्य अन्तर्मुहूर्त आयुष बाकी होय त्यारे चारित्रनो स्वीकार करे, तेनी अपेक्षाए धर्मदेवनी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी, भने जे । कहक न्यून पूर्वकोटि वर्षपर्यन्त चारित्र पालन करे तेनी अपेक्षाए उत्कृष्ट स्थिति जाणवी टीका. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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