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शतक १४.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
३५९ ७.[10] सणंकुमार-माहिंदाणं भते। बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतियं०१ [उ०] एवं चेव । ८. [अ०] बंभलोगस्स गं भंते ! लंतगस्स य कप्पस्स केवतियं० [३०] एवं चेव ।
९. [प्र. लंतयस्स णं भंते। महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतियं० [उ०] एवं चेव, एवं महासुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयकप्पाणं, एवं आणय-पाणयाण य कप्पाणं आरण-चुयाण य कप्पाणं, एवं मारणअयाणं गेविजविमाणाण य, एवं गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य ।
१०. [प्र०] अणुत्तरविमाणाणं भंते! ईसिंपव्माराए. य पुढवीए केवतिए?-पुच्छा [उ०] गोयमा! दुवालसजोयणे अबाहाए अंतरे पण्णत्ते।
११. [प्र०] ईसिंपन्भाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अबाहाए ?-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! देसूणं जोवणं अबाहाए अंतरे पण्णते।
१२. [प्र०] एस गं मंते ! सालरुपने उण्हाभिहए, तण्हामिहए, दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किया कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति' [उ०] गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ अच्चिय-वंदियपूइय-सकारिय-सम्माणिए, दिधे, सच्चे, सञ्चोवाए, सन्निहियपाडिहेरे, लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ, से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गमिहिति, कहिं उववजिहिति? [उ०] गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव-अंतं काहिति ।
१३. [प्र०] एस णं भंते ! साललट्ठिया उण्हाभिहया, तण्हाभिहया, दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किया जापकहिं उववजिहिति ? [उ०] गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमूले महेसरिए नगरीए सामलिरुखत्ताए पञ्चायाहिति, साणं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय० जाव लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सह । से गं भंते ! तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता० सेसं जहा सालरुक्खस्स, जाव-अंतं काहिति ।
सनत्कुमार-माहेन्द्र ७. [प्र०] हे भगवन् ! सनत्कुमार-माहेन्द्र अने ब्रह्मलोक कल्पनु केटलं अन्तर होय छे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू.
भने ममदेवलोकन
मन्तर. . ८. [प्र०] हे भगवन् ! ब्रह्मलोक अने लांतककल्प वचे केटछं अंतर छे ! [उ०] पूर्ववत् जाणवू.
मझलोक अने शान्त
फर्नु अन्तर. ९. [प्र०] हे भगवन् ! लांतक अने महाशुक्र कल्पनु केटलं अंतर होय छे! [उ०] पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे महाशुक्र कल्प लान्तक भने मदाअने सहस्रारनुं अन्तर जाणवू, तथा सहस्रार अने आनत-प्राणतकल्पो, आनत-प्राणतकल्प अने आरण अच्युतकल्पनु, आरण-अच्युतकल्प शुकनु अन्तर. भने प्रैवेयकन, अने प्रैवेयक अने अनुत्तरविमाननुं अन्तर पूर्ववत् जाणधुं.
१०. [प्र०] हे भगवन् । अनुत्तरविमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीन केटलं अन्तर होय छे ! [उ०] हे गौतम! बार योजन- अ- अनुत्तरविमान भने बाधावडे अन्तर कयुं छे.
ईषत्मारभारा पि
वीनुं अन्तर. ११. [प्र०] हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथिवी अने अलोकनु केटलं अबाधावडे अंतर कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! कंइक न्यून ईषत्प्राग्भारा भने एक योजन अबाधाए अन्तर छे.
अलोकर्नु अन्तर. १२. [प्र०] हे भगवन् ! [सूर्यनी] गरमीथी पीडित थयेलो, तृषाथी हणायेलो अने दावानळनी जाळथी बळेलो आ शालवृक्ष
शालपक्ष मरीने कालमासे-मरणसमये काल करी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! आज राजगृह नगरमां शालवृक्षपणे फरीथी उत्पन्न
क्या ज़। थशे, अने ते त्यां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित अने दिव्य-प्रधानभूत थशे. तथा सत्यरूप-सत्यावपात-जेनी सेवा सफल थाय छे एवो, [पूर्वभवसंबन्धी देवोए ] जेनुं प्रतिहारपणुं-सांनिध्य कयु छे एवो, तथा जेनी पीठ-चोतरो लीपेलो अने धोळेलो छे एवो ते (पूजनीय) थशे. प्र०] हे भगवन् ! [ते शालवृक्ष ] त्यांथी मरण पामी क्यां जशे अने क्या उत्पन्न थशे ! उ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, तथा यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे.
१३. [प्र०] हे भगवन् । सूर्यनी गरमीथी हणायेल, तृषाथी पीडित थयेल तथा दावानळनी जाळथी बळेली आ शालयष्टिका- शालयष्टिका. शालवृक्षनी न्हानी शाखाओ कालमासे–मरण समये काल करी क्या जशे अने क्यां उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! आ ज जंबूद्वीपना भारतवर्षमां विन्ध्याचलनी तळेटीमा 'माहेश्वरी' नगरीमा ते शाल्मली वृक्षरूपे उत्पन्न थशे, अने ते त्यां अर्चित, बंदित अने पूजित थशे, तथा यावत्-तेनो चोतरो लींपेलो, धोळेलो अने पूजित थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते त्यांथी मरण पामी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे:• इत्यादि बधु शालवृक्षनी पेठे जाणवू, यावत्-ते सर्व दुःखोनो अन्त करशे.
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