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सकपायी वीवो.
अकरायी जीवो. वेदसहित जने वेदरहित जीवो.
भावारक जीवो.
भनादारक.
७२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे--
शतक ८.-उद्देशकस. ९७.[प्र०] सकसाई णं भंते ! ०१ [उ०] जहा सइंदिया । एवं जाव लोभकसाई। ९८. [प्र०] अकसाई णं भंते ! किं णाणी०१ [उ.] पंच नाणाई भयणाए।
९९. [प्र० सवेदगा णं भंते ! ०१ [उ०] जहा सइंदिया। एवं इत्यिवेदगा वि, एवं पुरिसवेदगा वि, पव नपुसगवेदगा वि । अवेदगा जहा अकसाई। .
१००. [प्र०] आहारगा णं भंते ! जीवा० [उ०] जहा सकसाई, नवरं केवलनाणं पि।
१०१. [प्र०] अणाहारगा गं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? [उ०] मणपजवणाणवजाई नाणाई, अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए।
१०२. [प्र०] आभिणिवोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दरओ णं आभिणिबोहियनाणी आपसेणं सबधाई जाणइ पासति, खेत्तओणं आमिणिबोहियनाणी आएसेणं सवखेत्तं जाणइ पासति, एवं कालओ वि, एवं भावओ वि।
१०३. [प्र०] सुयनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पत्ते तं जहादघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दचओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदचाई जाणति पासति, एवं खेत्तओ वि, कालो वि भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सवभावे जाणति, पासति ।
९७. [प्र०] हे भगवन् ! सकषायी ! जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ० ] सेंद्रिय जीवोनी पेठे (सू. ३५.) जाणवा; ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीवो जाणवा.
९८. [प्र०] हे भगवन् अकषायी! जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] तेओने पांच ज्ञान भजनाए होय छे.
९९. [प्र०] हे भगवन् ! *वेदसहित जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ! [उ०] तेओ सइन्द्रिय जीवोनी पेठे (सू. ३५.) जाणवा. ए प्रमाणे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अने नपुंसकवेदी जीवो जाणवा, तथा वेदरहित जीवो अकषायी जीवोनी पेठे (सू. ९८.) जाणवा.
१००. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकजीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ? [उ०] तेओ सिकषायी जीवोनी पेठे (सू.९७.) जाणवा, परन्तु विशेष ए छे के तेओने केवलज्ञान (अधिक) होय छे.
१०१. [प्र०] हे भगवन् ! अनाहारक जीवो शुं ज्ञानी छे के अज्ञानी छ ? [उ० ] हे गौतम ! तेओने मनःपर्यवज्ञान सिवायना चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान भजनाए होय छे.
१०२. [प्र०] हे भगवन् ! "आमिनिबोधिक ज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम! आमिनिबोधिक ज्ञाननो विषय संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी आमिनिबोधिक ज्ञानी आदेशवडे (सामान्यरूपे) सर्व द्रव्योने जाणे अने जुए, क्षेत्रथी आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशवडे सर्व क्षेत्रने जाणे अने जुए; ए प्रमाणे कालथी अने भावथी पण जाणवू.
१०३. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ! [उ०] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी उपयुक्त (उपयोग सहित) श्रुतज्ञानी सर्व द्रव्योने जाणे अने जुए छे. ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने कालथी पण जाणवू, भावथी उपयुक्त श्रुतज्ञानी सर्व भावोने जाणे छे अने जुए छे.
१९. * वेदद्वारमा सवेदकने सेन्द्रियनी पेठे भजनाए केवलज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान होय छे, अवेदक-वेदरहित जीवोने अकषायीने पेठे भजनाए पांच ज्ञान होय छे, केमके अनिवृत्तिवादरादिगुणस्थानके अवेदक होय छे, त्यां छद्मस्थने चार ज्ञान भजनाए होय छे, भने केवलज्ञानीने पांच, केवलज्ञान होय छे.-टीका.
१०० + आहारकद्वारमा जेम सकषायी चारज्ञानवाळा अने त्रणअज्ञानवाळा कह्या, तेम आहारको पण ए प्रमाणे जाणवा, परंतु आहारकोने केवलज्ञान पण होय छ, केमके केवलज्ञानी आहारक छ.-टीका.
१.१. 1 विग्रहगति, केवलिसमुदुधात अने अयोगिपणामां जीवो अनाहारक होय छे भने बाकीनी अवस्थामा आहारक होय छे. मनःपर्यवज्ञान आहार. कने ज होय छे, अने अनाहारकने आदिना त्रण ज्ञान अने त्रण अज्ञान विग्रहगतिमा, अने केवलज्ञानीने एक केवलज्ञान केवलिसमुद्घात, अने अयोगिअवस्थामा होय छे ए माटे अनाहारक जीवोने मनःपर्यवज्ञान शिवाय चार ज्ञान अने त्रण अज्ञान कह्या छे.
१०२. १ ज्ञानविषयद्वारमा आभिनिबोधिक ज्ञाननो विषय द्रव्य-धर्मास्तिकायादि द्रव्य-ने आश्रयी, क्षेत्र-द्रव्योना आधारभूत आकाश ने भाश्रयी, काल-द्रव्यना पर्यायनी अवस्थिति-ने आश्रयी, अने भाव-औदयिकादि भाव अथवा द्रव्यना पर्यायो-ने आधयी चार प्रकारनो को छे. तेमा द्रव्यने आश्रयी ने आभिनिबोधिक ज्ञान थाय छे, ते धर्मास्तिकायादि द्रव्योने आदेश-सामान्यविशेषरूप प्रकार-थी, अथवा ओपथकी द्रव्यमात्ररूपे जाणे छे, परन्तु तेमा रहेला सर्व विशेषनी अपेक्षाए जाणतो नथी, अथवा आदेश-श्रुतज्ञान जनित संस्कारवडे अपाय अने धारणानी अपेक्षाए जाणे छ, केमके अपाय ने धारणा शान खरूप छ, भने अवग्रह ने ईहानी अपेक्षाए जुए छ, कारणके अवग्रह ने ईहा दर्शनरूप छे. श्रुतज्ञानजन्य संस्कारवडे लोकालोकरूप सर्व क्षेत्रने जाणे छे..ए प्रमाणे कालथी सर्व कालने अने भावथी औदयिकादि पांच भावोने जाणे छे.-टीका .
१०३.६ उपयोगसहित श्रुतज्ञानी-संपूर्णदशपूर्वधरादि श्रुतकेवली सर्व धर्मास्तिकायादि द्रव्यने विशेषथी जाणे छ, भने श्रुतानुसारी मानस अचक्षुदर्शनबढे सर्व अभिलाप्य द्रव्यने जुए छे. ए प्रमाणे क्षेत्रादिने विषे पण जाणी लेवू. भावथी उपयुक्त श्रुतज्ञानी औदयिकादि सर्व भावोने, अथवा सर्व अभिलाप्य भावोने जाणे छ, यद्यपि अभिलाप्य भावोनो अनन्तमो भाग ज श्रुतप्रतिपादित छे, तो पण प्रसंगानुप्रसंगथी सर्व अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञाननो विषय छे, माटे. वेनी अपेक्षाए 'सर्व भावोने जाणे छे' एम कयुं छे.-टीका.
आमिनियोधिक शाननो विषक
तहाननो विषय.
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